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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा द्रोणाचार्यजी के पास करवाया था ।
इन उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि सूत्रार्थ और मूर्तिलेख बदलने की गोलमोले उस वक्त में नहीं हुई है।
दूसरी बात-मूर्तियों पर मनमाना संवत् लगाने की कुकल्पना तथ्यहीन असिद्ध है। चूंकि जब मूर्तियों की अंजनश्लाका विधिविधान होता है, उसके पूर्व ही लेख खुदे जाते हैं, अंजनशलाका विधि के बाद सेंकडो लोग उन प्रतिमाओं की पूजा करते हैं, लेख पढ़ते हैं तो गलत संवत् पकड़े नहीं जाएंगे क्यां ? गलत संवत लगाने का कोई प्रयोजन भी नहीं था । स्थानकवासी पंथ ५०० साल से उत्पन्न हुआ हैं उसके पूर्व की हज़ारों मूर्तियाँ मिलती हैं । संप्रतिकालीन भी अनेक प्रतिमाएँ प्राप्त होती हैं । वाद विवाद ही नहीं था तो गलत संवत क्यों लगावे? अनेक साल पूजने के बाद कोई आकस्मिक कारण भूकंपादि होने पर प्रतिमाएँ जमीन में दब जाती हैं, जैसे मोहनजोदड़ोहड़प्पा । मूर्तिभंजन के भय से श्रावक प्रतिमाओं को बचाने हेतु जमीन में छिपा देते थे । वे सभी प्रतिमाएँ बहुत काल तक पूजी हुई होती थी, तो उनके लेख जाली होना कैसे संभव है ? एक बात यह हैं कि सैंकड़ो लेख बिना की प्राचीन प्रतिमाएँ मिलती हैं, अगर जानबूझकर प्राचीनता बताने का इरादा होता तो लेखरहित प्रतिमा क्यों रखते ? उन पर प्राचीन लेख लिख नही सकते थे क्या? आज के विज्ञानयुग में अनेक प्रकार की वैज्ञानिक खोजें हुई हैं विशिष्ट परीक्षण करके वैज्ञानिक तथ्य को जाहिर करते हैं, उनकी जाँच में नाम रहित अनेक मूर्तियां अतिप्राचीन घोषित हुई हैं, जो संक्षेप से 'मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास' मे बतायी हैं । (देखिये-परिशिष्ट) अपनी असत्य मान्यता को सिद्ध करने के लिये सत्य को कलंकित करना सज्जनता नहीं है। __संघपट्टक की बात भी भोले लोगों को भ्रम में डालने हेतु पेश की है । संघपट्टक गाथा २१ जिनपतिसूरिजी की टीका में "आपके पूर्वजों ने इस प्रतिमा का निर्माण करवाया वे हमेशा पूजते थे, आपको भी पूजना चाहिये' इस प्रकार चैत्यवासी लोग गृहस्थों को अपने भक्त बने रहे इस उद्देश्य से प्रेरित करते थे । यह गलत था, चूँकि साधु उपदेश द्वारा उनको
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