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________________ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा १६७ 33. क्या जैन साधु ऐसा उपदेश दे सकते हैं ? → समीक्षा है 1 इस प्रकरण में डोशीजी ने मूर्तिपूजक साधुओं की भरपेट निंदा की । सुज्ञ जन जानते हैं परमात्मा महावीर का शासन २१ हजार वर्ष अविच्छिन्न चलेगा, उसमें चढ़ाव उतार आते रहते हैं । काल के प्रभाव से श्रमणों में शिथिलता आती है, क्रियोद्धार करके शिथिलता दूर की जाती हैं । वापिस शिथिलाचार, वापिस क्रियोद्धार, इस प्रकार से ही शासन चलेगा । कोई कहे हम चतुर्थ आरे के समान भगवान महावीर के कालवर्ती साधुओं के समान चारित्र पालते हैं, तो या तो वह अज्ञानता है या दंभ है । जब-जब क्रियोद्धार होते हैं तब शिथिलाचार को हटाकर पट्टक - नियमपत्रादि द्वारा आचारों को मजबूत बनाये जाते हैं। ऐसी परिस्थिति में पुरानी विकृति - वर्तमान की अमुक विकृतियों को लेकर निंदा करना सज्जनता नहीं । पीछे पृ. २० में लिखे "समय के प्रभाव से विकृति प्रायः सब में आ गई हैं... यदि आप पीछे से घुसी हुई विकृति को देखकर प्रसन्न होते हों तो यह आपकी भूल है ।" ये शब्द अंगर हृदय से लिखे होते तो यह निंदा से भरपूर प्रकरण ही नहीं लिखते । जो बाद में चली विकृतियाँ वे सिद्धान्त नहीं है, वे हेय हैं, उपादेय नहीं हैं । उनको निकालने के प्रयत्न होते रहते हैं । महापुरूष आवाज भी उठाते हैं, उनकी उठायी आवाज का सहारा लेकर समाज की शिथिलता को पेश करना भयंकर द्वेष का प्रतीक है । 1 पूर्वकालीन भवभीरू - ज्ञानी - महापुरूषों द्वारा उपदेश कैसे देना - किसे देना वगैरह टीका, चूर्णि आदि में, दूसरे भी अनेक ग्रंथों में विस्तार से बताया I है । मूर्ति को नहीं मानने के सूत्र विरूद्ध कदाग्रह के कारण उन ग्रंथों को अप्रमाण करने की बालचेष्टा करते हैं, उनका सहारा लिये बिना सूत्राशय को ये भी समझ नहीं पाते । उस उपदेश पद्धति में स्पष्ट रूप से श्रावकों को उनके कर्तव्य, मंदिर आदि की प्रेरणा उपदेश द्वारा करने में साधुओं को दोष नहीं लगता है, मार्ग की प्रवृत्ति ही होती है, आदेश द्वारा साधु वे कार्य नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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