________________
१२८
. जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा (८) जेसलमेर लोंकागच्छीय भंडार ले.सं. १३०७ (९) पाटण संघवी पाडा ले.सं. १३९६ (१०) पाटण संघवी पोल ताडपत्री
(११) पाटण संघवी पोल ताड़पत्री इन प्राचीन ११ प्रतिओं में नमुत्थुणं की बात आती हैं, इतनी प्राचीन प्रतिओं में आते पाठ को आप किस आधार पर प्रक्षेप कह सकेंगे ?
__डोशीजी लिखते हैं "हमने पाठ निकाला नहीं पर मूर्तिपूजकों ने ही मूल में बढ़ा दिया हैं ।" ऊपर के प्राचीन प्रतिओं से मध्यस्थ व्यक्ति वास्तविकता खुद जान सकता है।
डोशीजी तो 'चोर कोतवाल को डांटे' की नीति अपना रहे हैं । उसका उदाहरण देखिये - "उन्मार्ग छोड़िये सन्मार्ग भजिए" पुस्तिका (कपूरचंद जैन हिण्डौन सिटी) में पृ. २ पर "लोहामंडी आगरा से 'मंगलवाणी' नाम के स्वाध्याय की किताब छपी है । जिसका संकलन स्थानकमार्गी अखिलेश मुनिजी ने किया हैं । आज तक में ११ संस्करण द्वारा जिसकी ६० हजार से भी ज्यादा प्रतियाँ मुद्रित हो चुकी हैं । इसमें वादिवेताल श्री शान्तिसूरिजी कृत 'बृहत् शान्ति' नामक नौंवे स्मरण को संक्षिप्त करके छपवाया गया हैं । यानि शास्त्र पाठों को उडाने की चोरी की गई हैं । मूर्ति समर्थक शास्त्र पाठों को आगे पीछे से हटाकर बेईमानी करनेवाले ये स्थानकमार्गी आगे चलकर साहूकार भी बनकर कह सकतें हैं कि मूर्तिपूजक जैनियों ने बृहत् शान्ति में आगे पीछे के पाठ जोड दिये हैं ।"
इसी प्रकार इस किताब में और भी अनेक पाठ बदलने के उदाहरण दिये हैं, वाचक वहाँ से देख ले. पं. कल्याणविजयजी म.ने अपनी ‘पट्टावली पराग संग्रह' में गृहस्थों का गच्छ प्रवर्तन प्रकरण में पुप्फभिक्षु की पट्टावली में विस्तारपूर्वक जैन आगम में कांट छांट बतायी है । पाठक वहाँ देख ले । स्थानकवासी संत विजय मुनिशास्त्री अमरभारती में नाम देकर बताते हैं "स्थानकवासी संतो ने आगम में पाठ बदलें।" जिसका पाठ हमने इसी
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org