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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा पुस्तिका में पूर्व में दिया हैं । अब डोशीजी के कथन में कितनी सत्यता है उसका निर्णय पाठक खुद ही कर सकते हैं । ___आगे टीका के 'वाचनान्तर' शब्द को लेकर डोशीजी भोले लोगों को ठग रहे हैं । 'जैनधर्म का मौलिक इतिहास' (आ. श्री हस्तीमलजी)में जिनशासन में अनेक वाचनाएं हुई यह बताया हैं टीकाकार अभयदेव सूरिजी म. टीका में स्पष्ट कहते हैं कि "इह ग्रंथे वाचनाद्वयमस्ति, तत्रैकां बृहत्तरां व्याख्यास्यामो द्वितीयातु प्रायः सुगमैव, यच्च तत्र दुःखगमं तदितर व्याख्यानतोऽवबोद्धव्यम्" इसका अर्थ- इस ग्रंथ में दो वाचनाएँ हैं, उसमें से बड़ी वाचना की हम व्याख्या करेंगे, दूसरी वाचना प्रायः सुगम है, जो दुर्गम है उसे दूसरी (बड़ीवाचना की) व्याख्या से समझ लें ।
अब सुज्ञजन समझ सकते हैं कि अभयदेवसूरिजी ने दोनों वाचनाओं को प्रमाण माना है, इसलिये दोनों की टीका उनको इष्ट है । कल्पसूत्र में भी संक्षिप्त वाचना, बृहद्वाचना दो वाचनाएँ हैं । वैसे ज्ञाताधर्मकथा में भी दो वाचनाएँ हैं । अगर आगमो की वांचनाओं को नहीं मानो तो जैसे दिगंबर श्रुत निन्हव हुए वैसे आप भी उसी कोटी में ही आयेंगे ।
समकितसार का पाठ - इसमें बहुत स्थान में अप्रामाणिक कल्पनाएँ हैं। अमुक स्थान में हलाहल मृषावाद भी हैं। देखिये वे लिखते हैं- "श्रीमान् लोकाशाह ने जब मूर्तिपूजकों को वीरधर्म रहित घोषित किया तब आगमों में भी मूर्तिपूजकों को फेरफार करने की आवश्यकता दिखाई दी और परिवर्तन भी कर डाला.।'' लोकाशाह के समकालीन-समीपकालीनप्रमाणों को देखने पर यह स्पष्ट होता है कि लोंकाशाह ने द्वेष से जिनशासन विरुद्ध मत चलाया, जो वीरधर्मरहित है जिसका, तत्कालीन संविग्न साधुओं ने खूब विरोध किया, लुंपक-लुंपाक इत्यादि उनके नामों से भी स्पष्ट होता है की उन्हें शासन के चोर माना, अनेक लोंकागच्छ स्थानकवासी मध्यस्थ साधु सत्य समझ में आने पर पुनः दीक्षित बनकर सन्मार्ग पर आयें । आगमों में तो हमने पीछे अनेक हस्तप्रते बतायी हैं, जो लोंकाशाह के पूर्व की हैं। जिनमें नमुत्थुणं पाठ हैं वैसे, दूसरे आगमो में भी लोंकाशाह के पूर्वकालीन हस्तप्रतों में मूर्ति
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