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परिशिष्ठ-३ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
बताइयेगा -
यहां पर मैं यह भी सूचित कर देता हूँ कि मंदिर, वाजंत्र आदि का कार्य अविरति असंयमी ही करते है सामायिक धारी नहीं। यदि कोई विरतीधर करता है। तो शास्त्र विरुद्ध ही है ऐसी मान्यता मूर्ति पूजक समाज की है ही ।
एक और स्पष्टिकरण सूर्याभदेव इशान इन्द्र आदि के इन प्रकरणों में भगवान आज्ञा भी मांगी जाती है परन्तु भगवान आज्ञा देते नहीं और निषेध भी करते नहीं । ऐसा क्यों ? यह क्रिया नाटक विधि आदि की सावद्य क्रिया है और सावंद्य क्रिया की अनुमति देना श्रमणाचार के विरद्ध है और निषेध नहीं करने का कारण अविरति आत्माओं के लिए सम्यग दृष्टि की पुष्टि होने के कारण है अतः मौन ही रहते है। यदि आपको कोई दूसरा कारण मालूम होता हो तो मालूम किजीयेगा । एवं यदि यह एकांतिक हिंसा, मिथ्यात्व का ही कारण होता हो तो भगवान महावीर ईशान इन्द्र सूर्याभदेव आदि को मना क्यों नहीं करते ? गौतम स्वामी भी मना क्यों नही करते ? इनको किसी को शर्म या डर है क्या ? रायपसेणी सूत्र में सूर्याभदेव जब उत्पन्न होता है तो वह इससे पहले ही समकिती हो जाता है अतः जब यहां उत्पन्न होने पर समकिती ही है। इतना होने पर भी वहां पर देवलोक में रही हुई जिन प्रतिमाओं की (जिसे आप कामदेव आदि की मूर्ति मानते है) पूजा पानी फूल आदि से करता है। तो प्रश्न यह होता है कि सूर्याभदेव जो समकिती है वहां उसे जबरदस्ती कौन पूजा कराता है क्या उसे यहां मालूम नहीं होता कि ये काम देव की मूर्तियों की पूजा करने से मेरा समकित भ्रष्ट हो जाएगा। क्या उस समय उसे इसका बिल्कुल ज्ञान नहीं है ?
मनुष्य लोक में तो जैन गृहस्थों को देवाभियोग, गणाभियोग, राजाभियोग, आद कई तरह के डर लगते है इतना होने पर भी कई दृढ़ समकिती सहन भी करते है परन्तु यहां अर्थात् सूर्याभदेव को किस बात का डर है ? जीत व्यवहार का बहाना बना कर क्या कोई अपने समकित को कलंक, दोष लगायेगा ? क्या सूर्याभदेव समकित में इतना कमजोर है ? यदि इतना कमजोर होता तो यहां उत्पन्न होने का कारण इसका पूर्व प्रसंग देखेंगे तो मालूम हो जाएगा परन्तु आप यह सब नहीं देखेंगे। सूर्याभदेव ने जीत व्यवहार का बहाना बनाकर नहीं परन्तु वीतराग प्रभू की
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