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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा परिशिष्ठ-३
२७७ प्रतिमा समझकर पूजा भक्ति करता है। जीत व्यवहार का बहाना तो आप अपनी मान्यता के विरुद्ध होने से निकालते है। इसी तरह एक और प्रसंग पर विचार किजीये कि भगवान महावीर को वंदन करने सूर्याभदेव आता है जो कि समकिती ही है और चमरेन्द्र सौधर्म देव लोक में जाने का प्रसंग आने पर भगवान महावीर के संपर्क में आने से भगवान का भक्त बन जाने से भगवान को केवल ज्ञान के बाद वंदन करने आता है परन्तु ईशान इन्द्र जो कि पूर्व में तामली तापस था। ईशान देवलोक में उत्पन्न होने के बाद वहां पर रही हुई जिन प्रतिमाओं की जिसे आप कामदेव की प्रतिमाएं मानते है यदि ऐसा होता है तो ईशान इन्द्र (तामली तापस का जीव) जो कि समकित से रहित तीर्थंकर प्रभू के परिचय से रहित है तो यह ईशान इन्द्र भगवान महावीर को वंदन करने क्यों आता है? इस ईशान इन्द्र को भगवान महावीर के पास आने की प्रेरणा या प्रसंग या कोई निमित्त क्या बनता है ? कृपया इस पूरे प्रकरण को शांति से पढ़ियेगा और विचार किजीयेगा।
वास्तविकता यह है कि तामलीतापस का जीव जो ईशान इन्द्र बनता है वहां रहे हुए दूसरे देवों के कहने से वहां रही हुई जिन प्रतिमाओं को जो कि केवली जिन वीतराग की जिनप्रतिमाएं है इनकी पूजा भक्ति करता है इनकी जानकारी मालूम करता है। अतः इन जिन प्रतिमाओं की पूजा भक्ति के निमित्त से ही इसे तीर्थंकर प्रभु के प्रति पूज्य भाव पैदा होता है। अतः भगवान महावीर के समवसरण में वंदन करने आता है यह वास्तविकता है यदि कोई और निमित्त मिला हो तो कृपया ढुंढकर बताइयेगा। .
दृढ़ समकिती की एक गाथा:- भान उदय जो पश्चिमें पंकज पत्त्थर थाय रे - तो भी न मानु रागी ईश रे माया तोरी लागी हो जिणंदजी।सूर्याभदेव को किस गिनती में गिनना है यह विचार आपको करना है। इसके पूर्व भव के प्रसंग को ध्यान में रखकर विचार किजिएगा, रायपसेणीसूत्र का एक और प्रसंग देखियेगा। यहां मेरे पास स्थानकवासी समाज के लिंबडी संप्रदाय द्वारा प्रकाशित गुजराती भाषांतर का उपलब्ध है। मूर्ति पूजक समाज के मुनिराज द्वारा प्रकाशित प्राकृत गुजराती दोनों भाषाओं का भी उपलब्ध है।
पेज नं. ८९ में सूर्याभदेव को यहां के अन्य देव हाथ जोड़कर कहते है कि विमान मां एक मोटु सिद्धायतन छे (वगैर-वगैरह) इसमें रही हुई जिन प्रतिमाओं
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