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________________ २९० परिशिष्ठ-६ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा फिर तुम कहोगे—निरवद्य सामायिकादिक कार्य ही क्यों न करें ? धर्ममें काल लगाना; वहाँ ऐसे कार्य किसलिये करें? उत्तरः-यदि शरीर द्वारा पाप छोड़ने पर ही निरवद्यपना हो, तो ऐसा ही करें; परन्तु परिणामोंमें पाप छूटने पर निरवद्यपना होता है। सो बिना अवलम्बन सामायिकादिमें जिसके परिणाम न लगें वह पूजनादि द्वारा वहाँ अपना उपयोग लगाता है। वहाँ नानाप्रकारके आलम्बन द्वारा उपयोग लग जाता है। यदि वहाँ उपयोगको न लगाये तो पापकार्यों में उपयोग भटकेगा और उससे बुरा होगा; इसलिये वहाँ प्रवृत्ति करना युक्त है। तुम कहते हो कि-"धर्मक अर्थ हिंसा करनेसे तो महापाप होता है, अन्यत्र हिंसा करनेसे थोड़ा पाप होता है"; सो प्रथम तो यह सिद्धान्तका वचन नहीं है और युक्तिसे भी नहीं मिलता; क्योंकि ऐसा माननेसे तो इन्द्र जन्मकल्याणकमें बहुत जलसे अभिषेक करता है, समवशरणमें देव पुष्पवृष्टि करना, चँवर ढालना इत्यादि कार्य करते हैं सो वे महापापी हुए। यदि तुम कहोगे—उनका ऐसा ही व्यवहार है, तो क्रियाका फल तो हुए बिना रहता नहीं है। यदि पाप है तो इन्द्रादिक तो सम्यग्दृष्टि हैं, ऐसा कार्य किसलिये करेंगे? और धर्म है तो किसलिये निषेध करते हो ? भला तुम्हींसे पूछते हैं-तीर्थंकरकी वन्दनाको राजादिक गये, साधुकी वन्दनाको दूर भी जाते हैं, सिद्धान्त सुनने आदि करनेके लिये गमनादि करते हैं, वहाँ मार्गमें हिंसा हुई। तथा साधर्मियोंको भोजन कराते हैं, साधुका मरण होनेपर उसका संस्कार करते हैं, साधु होनेपर उत्सव करते हैं, इत्यादि प्रवृत्ति अब भी देखी जाती है; सो यहाँ भी हिंसा होती है; परन्तु यह कार्य तो धर्मक ही अर्थ हैं, अन्य कोई प्रयोजन नहीं है। यदि यहाँ महापाप होता है, तो पूर्वकालमें ऐसे कार्य किये उनका निषेध करो। और अब भी गृहस्थ ऐसा कार्य करते हैं, उनका त्याग करो। तथा यदि धर्म होता है तो धर्मके अर्थ हिंसामें महापाप बतलाकर किसलिये भ्रममें डालते हो? इसलिये इस प्रकार मानना युक्त है कि-जैसे थोड़ा धन ठगाने पर बहुत धनका लाभ हो तो वह कार्य करना योग्य है; उसी प्रकार थोड़े हिंसादिक पाप होनेपर बहुत धर्म उत्पन्न हो तो वह कार्य करना योग्य है। यदि थोड़े धनके लोभसे कार्य बिगाड़े तो मूर्ख है; उसी प्रकार थोड़ी हिंसाके भयसे बड़ा धर्म छोड़े तो पापी होता है। तथा कोई बहुत धन ठगाये और थोड़ा धन उत्पन्न करे, व उत्पन्न नहीं करे तो वह मूर्ख है; उसी प्रकार बहुत हिंसादि द्वारा बहुत पाप उत्पन्न करे और भक्ति आदि धर्ममें थोड़ा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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