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________________ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा परिशिष्ठ-६ २९१ प्रवर्ते व नहीं प्रवर्ते, तो वह पापी ही होता है। तथा जिस प्रकार बिना ठगाये ही धनका लाभ होनेपर ठगाये तो मूर्ख है; उसी प्रकार निरवद्य धर्मरूप उपयोग होनेपर सावद्यधर्ममें उपयोग लगाना योग्य नहीं है । इस प्रकार अपने परिणामोंकी अवस्था देखकर भला हो वह करना; परन्तु एकान्तपक्ष कार्यकारी नहीं है । तथा अहिंसा ही केवल धर्मका अङ्ग नहीं है; रागादिकोंका घटना धर्मका मुख्य अङ्ग है। इसलिये जिस प्रकार परिणामोंमें रागादिक घटें वह कार्य करना । * तथा आखड़ी लेनेका पाठ तो अन्य कोई पढ़ता है, अंगीकार अन्य करता है। परन्तु पाठमें तो "मेरे त्याग है" ऐसा वचन है; इसलिये जो त्याग करे उसीको पाठ पढ़ना चाहिये। यदि पाठ न आये तो भाषाहीसे कहे; परन्तु पद्धतिके अर्थ यह रीति है । तथा प्रतिज्ञा ग्रहण करने-करानेकी तो मुख्यता है और यथाविधि पालनेकी शिथिलता है, व भाव निर्मल होनेका विवेक नहीं है। आर्त्तपरिणामोंसे व लोभादिकसे भी उपवासादि करके वहाँ धर्म मानता है; परन्तु फल तो परिणामोंसे होता है। इत्यादि अनेक कल्पित बातें करते हैं; सो जैनधर्ममें सम्भव नहीं हैं। - दिगंबर पंडित टोडरमलजी द्वारा लीखित मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रंथ के कुछ अंश जिनेश्वर भगवान साक्षात् कल्पवृक्ष दर्शनाद् दुरितध्वंसी, वन्दनाद् वाञ्छितप्रदः । पूजनात् पूरक: श्रीणां, जिनः साक्षात् सुरद्रुमः ॥ Jain Education International अर्थ- श्री जिनेश्वरदेव का दर्शन पाप का विनाश करता है, वन्दन वाञ्छित को देने वाला होता है और पूजन लक्ष्मी को पूरने वाला होता है । इसलिए श्री जिनेश्वर भगवान साक्षात् कल्पवृक्ष हैं । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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