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________________ ३०२ परिशिष्ठ-७ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा पूजा के पक्ष में जिन्हें समझकर कभी पूजा आदि सुंदर आलंबन त्याग करने की धृष्टता न करें। विश्व में कोई काल या क्षेत्र ऐसा नहीं होगा कि जहाँ पर मूर्ति एवं मूर्तिपूजा का अस्तित्व विद्यमान न हो । अनादिकाल से प्रभुमूर्ति अनेक उपासकों को पवित्र करती आ रही है। पूर्वोक्त प्राचीन शिलालेखों से, गुफा-स्तूपों से, पुराण-वेद शास्त्रों से, आगामों से और भी कई शोध-प्रमाण से जैनमूर्ति की अतिप्राचीनता को निःसंदेह स्वीकार किया गया है, जिसे कोई विद्वान पुरुष अपलाप नहीं कर सकता। जरा...देखिए... जैन इतिहास के परिप्रेक्ष्य में भी... जहाँ भक्त आत्मा को जिनमूर्ति के प्रति भक्ति, पूजन, वंदन, सत्कार-दर्शन का अनुपम लाभ कितना मिला था ? , __आज से करीब लाखों वर्ष पूर्व हुए श्रीपाल एवं मयणा सुंदरी को उज्जैनीनगरी में श्रीकेशरीयाजी ऋषभदेव के प्रभु की मूर्ति समक्ष श्री सिद्धचक्रयन्त्र की भक्ति की और सात सौ कुष्टरोगीयों के साथ उनका कुष्ट रोग गायब हो गया । ___रावण ने अष्टापद पर्वत पर चौवीस तीर्थंकरों की मूर्ति सन्मुख मंदोदरी राणी के साथ सुंदर तालबद्ध संगीतमय प्रभुभक्ति की पराकाष्टा में तीर्थंकर नामकर्म का निर्माण किया । __ आज से करीब ८५,००० वर्ष पूर्व श्री कृष्ण की सेना पर जरासंध ने जरा नामक दुष्ट विद्या छोडी, जिसके दुष्प्रभाव से सेना मूछित बन गई, उस समय श्रीकृष्ण ने अट्ठम तप के प्रभाव से पद्मावती माता द्वारा श्री पार्श्वनाथ भगवान की मूर्ति पाताललोक में से, जो कि अतीत चोविसी के नव में दामोदर भगवान के समय में अषाढी श्रावक ने भराई थी, संप्राप्त हुई और उस मूर्ति के स्नान-प्रक्षाल जल का सेना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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