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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा परिशिष्ठ-७
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सौरभ उसके जीवन- बाग़ में खिलती है, और भयानक भव समुद्र को तीरने का अद्भुत सामर्थ्य उसे सहजता में प्राप्त हो जाता है ।
अध्यात्मयोगी श्री देवचन्द्रजी ने कहा है
" अतिदुस्तर जे जलधिसमो संसार जो ते गोपदसम कीधो प्रभु आलंबने " ।
प्रभु आलंबन से अति दुष्कर संसार समुद्र मानो एक छोटा-सा खड्डा जैसा बन जाता है ।
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कोई ऐसा भी मान सकता है कि हम तो बहुश्रुत ज्ञानी हो गये है, तो ऐसे आलंबन की हमें क्या आवश्यकता है ? हम तो सीधा निरालंबन ध्यान प्राप्त कर लेंगे। लेकिन यह कहना वास्तव में अनुभव एवं शास्त्रसापेक्षभाव की कमी है। शास्त्र में यही क्रम बताया है कि शुभ आलंबन से ही निरालंबन की ओर जाने की क्षमता प्राप्त होती है, यह क्म का उल्लंघन नहीं हो सकता । इसलिए दर्शन, पूजा आदि का शुभ आलंबन निरंतर सेवनीय है ।
यदि कोई जिनपूजा में हिंसा का स्वीकार कर उसे त्याज्य मानता है, तो फिर उस व्यक्ति को सर्वत्र बाधा आयेगी । वह न तो प्रवचन श्रवणादि के लिए उपाश्रय जा सकता है, या न कोई भी धर्मकार्य कर सकते है क्योंकि उसमें भी अंगप्रत्यंग हिलाने में स्वरूप हिंसा जरूर होती है । भवन निर्माण, साधर्मिक भक्ति आदि में सर्वत्र बाधा आयेगी ।
इसलिए मानना चाहिए कि द्रव्यपूजा में जो हिंसा है, वह सिर्फ स्वरूप हिंसा है, बल्कि हेतु हिंसा या अनुबंध हिंसा नहीं है । और जिनपूजा में जो शुभभावों का अति उल्लास - भाव पैदा होता है, प्रभु के प्रति कृतज्ञता - बहुमान आदि गुण प्रगट होते है । उससे ही कई पापों का विलीनीकरण हो जाता है। और भी कई तर्क एवं समाधान
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