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.. जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा ॥ ॐ ह्रीं श्रीं श्री जीरावला पार्श्वनाथ रक्षां कुरु कुरु स्वाहा ॥ ५. 'जैनागम विरुद्ध मूर्तिपूजा' के निवेदन की समीक्षा
निवेदन पृष्ठ ५ → "हाँ तो हिंसा चाहे किसी भी नाम पर क्यों न की जाए वह हिंसा अधर्म है, संसार परम्परा को बढाने वाली है,
और यदि वह हिंसा धर्म के नाम पर अथवा उसमें धर्म मानकर की जाए तब तो वह बहुत ही ज्यादा अहितकर है ।" ..
समीक्षा → यह बात गलत है । जयणा पूर्वक की स्वरुपहिंसा में दोष नहीं है, जो आगम और व्यवहार से सिद्ध है, उसमें दोष मानना आगम
और व्यवहार विरुद्ध है । स्थानकवासी संप्रदाय में भी एक भी धर्मक्रिया ऐसी नहीं है जिसमें संपूर्णतया अहिंसा संभव हो अतः आपके हिसाब से तो स्थानकवासी पंथ भी अधर्म बन जाएगा? जैसे स्थानक में प्रवचनसामायिकादि के लिए जाना, गुरुवंदन-प्रतिक्रमणादि करना, यह सब क्रियाएँ बिना वायुकाय हिंसा अशक्य है । और वनस्पति-त्रसकाय आदि की हिंसा भी संभव है।
आगमशास्त्र में लिखा है कि"सव्वे पाणा सव्वे भूआ सव्वेजीवा सव्वे सत्ता न हन्तव्वा
अर्थ : सभी प्राणियों, सभी भूतों कों, सभी जीवों को, सर्व सत्वों को हणना नहीं, - नाश नहीं करना-मारना नहीं ।
जब कि- श्री कल्पसूत्र शास्त्र में नदी उतरने का विधान भी है - यथा “एगं पायं जले किच्चा...'' इत्यादि । नदी उतरने में हिंसा होते हुए भी आगमशास्त्र में ऐसा विधान क्यों किया ?
इसका स्पष्ट अर्थ है कि- धर्मसाधना में हिंसा हो ही जाती है, जिसका निषेध शास्त्रों ने नहीं किया है जैसे स्थानकवासी स्थानक का निर्माण करते हैं, और किताब छपवाते हैं गुरुमंदिर बनवाते है होस्पीटल बनवाते है स्कूल बनवाते है। स्थानकवासी संत इसकी प्रेरणा भी देते हैं, फंड भी जमा करवाते
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