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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा वर्तमान में भी मूर्तिपूजक हो या अमूर्तिपूजक, किसी भी संप्रदाय के आचार्य के देवलोक होने पर भक्तों की भीड़ उनकी अंतिम यात्रा में आ जाती है एवं उनके अंतिम दर्शन के लिए लालायित होती है। हालांकि वहां तो केवल मृत शरीर है फिर भी उसका बहुमान आदि सभी करते है । अगर देवलोक होने वाले आचार्य बहुत बड़े हो तो उनकी अंतिम यात्रा में तो हजारों लोग देश के कोने-कोने से आते है एवं उनकी खानेपीने की व्यवस्था भी स्थानिक लोग करते हैं। उसमें स्थावर काय की एवं अयतना के कारण त्रस जीवों की भी बहुत हिंसा होती है, लेकिन वह गौण मानी जाती है। राजकीय स्तर के पदाधिकारी भी आकर के पुष्पांजलि अर्पित करके शरीर की अर्चना करते है एवं भक्तजन उसे देखकर अपने गुरू का बहुमान हो रहा है, ऐसा महसूस करते है । यह कोई गलत बात भी नहीं क्योंकि ये मानव मन का स्वभाव है कि नाम, स्थापना एवं द्रव्य द्वारा भाव के साथ जुड़ जाता है । वस्तु जड़ होते हुए भी पूज्य के संबंधित होने पर पूज्य बनती है। इसी तरह जिन प्रतिमा को चेतना शून्य होने से अपूजनीय मानने की बात भी नही रहती है। आचार्य श्री ने पत्थर की गाय का. उदाहरण देकर मूर्तिपूजा से कल्याण होने का निषेध किया । उदाहरण में गाय की मूर्ति से बालक ने दूध की अपेक्षा की । परंतु गाय की मूर्ति कभी दूध के लिए बनाई नही जाती हैं । चित्र एवं मूर्ति का संबंध मन से हैं, वे मन के परिणामों को ध्यान में लेकर ही बनाये जाते है । घर में गुरू आदि की तस्वीरें भी बातें करने या उपदेश सुनने के लिए नहीं रखी जाती परंतु वे स्मरण आदि के द्वारा उच्च आदर्श देती है। यह तो सर्वविदित ही है। टी.वी. आदि के दृश्य भी जड़ होते हुए भी मन के परिणामों पर भारी असर करते है। इसी तरह भगवान की मूर्ति के दर्शन एवं पूजन से मन में श्रद्धा-समर्पण आदि के शुभ भाव उत्पन्न होते है। जिनसे सम्यग्दर्शन आदि की शुद्धि होती है। वह आत्म कल्याण में अत्यंत सहायक है। अतः भगवान की
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