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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
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आपत्ति देकर कागज काले किए हैं। सूत्र को संयम का फल सद्गति अंत में मोक्ष ही बताते हैं तो भी प्रसन्नचंद्र ऋषिने नरक के योग्य कर्म बांधे ही थे, और कुरुट- उत्कुरुट मुनि नरक में गये हैं। तो इसका जो समाधान हैं वही श्रेणिक में है । जिनपूजा आदि में पुण्यबंध होता ही है उस वक्त आयुष्य कर्म का बंध हो जाए तो सद्गति में ही जाएँगा, परंतु जब आयुष्य का बंध किया तब श्रेणिक अशुभ- अध्यवसाय शिकार में तल्लीन थे इसलिये नरकायु का बंध हुआ । सम्यग्दर्शन प्राप्ति के पूर्व ही श्रेणिक ने आयुष्य बंध किया था ।
पृ. ६९ पर डोशीजी मेतार्य मुनि की कथा के बारे मे लिखते है "यह कथा मूर्तिपूजक ग्रंथकारों की ही बनाई हुई हैं" यह मानते हुए भी मूर्तिपूजको को मान्य “राजा श्रेणिक ने स्वर्ण के जव मूर्तिपूजा के लिये सोनी के पास बनवाये थे'' इस बात को बदलकर कुयुक्ति लगाकर उसे आभूषणों के लिये बनवाने की कल्पना करते हैं। उन्हें आ. जवाहरलालजी द्वारा कही बात "ग्रंथ की आधी बात मानना आधी बात नहीं मानना दुराग्रह के सिवाय कुछ नहीं है" लागू पड़ती है । आगे डोशीजी कहते है " हमारे साधुमार्गी महात्मा भी शायद इसी को लेकर कुछ कथा करते हों" । इसमें संभावना बताई हैं वह गलत हैं उसी को लेकर ही कथा - चौपाइयां बनाते हैं ।
क्योंकि जिस पंथ के पास खुद का मौलिक साहित्य - आगमादि कुछ भी नही हैं, होंगे भी कैसे ? जिसकी उत्पत्ति ४००-५०० साल से हुई हैं, उनको मूर्तिपूजकों का ही साहित्य लेकर उसके ऊपर से कथा चौपाइयाँ बनानी पड़ेंगी । परंतु खेद की बात हैं उन मूर्तिपूजकों के मौलिक साहित्य में तस्करवृत्ति से मूर्तिविषयक पाठों को बदलकर ये लोग रचना करते हैं ।
जैसे आर्द्रकुमार को अभयकुमार ने जिनप्रतिमा (मूर्ति) भेंट भेजी थी जिससे उसको जातिस्मरणज्ञान व बोधिलाभ हुआ था सूयगडांग सूत्र २ श्रुतस्कंध, छट्ठा अध्ययन में कही है
यह बात श्री
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* पीत्तीय दोहदुओ, पुच्छणमभयस्स पत्थवेसोउ । तेणावि सम्मदिद्वित्ति होज्ज पडिमारहमि गया ।
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यथा
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