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________________ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा १० नहीं है, चाहे भले कोई हम स्थानकवासियों को मिथ्यात्वी कहे या अज्ञानी कहे हमारे लिए जो स्थानकवासी संतों ने कहा वो ही सच्चा है । 1 कुतर्कों की भी तो कोई हद है ? ऐसे अज्ञानीयों को क्या कहे ? लोकशाह आदि ने कोई क्रान्ति का सृजन नहीं किया बल्कि भ्रान्ति का ही सृजन किया है। प्रभु वीर की देदीप्यमान श्रमण परम्परा एवं उनके शाश्वत वचनों पर 'शंका' करके मिथ्यात्व को पोषित कर क्रियोद्धार नहीं, कुठारघात किया है । श्री जैनागमों में ऐसी तो हजारों बातें हो सकती हैं, जो कि स्थानकवासी संत आदि नहीं मानते हैं, इन पर चाहे जैसे कुतर्क कर सकते हैं । सज्जन मनीषी तर्क-वितर्क कर सकते हैं लेकिन कुतर्क वो ही करते हैं जिन्हें अपनी पराजय, अपनी पोल खुलने का भय हो । पर क्या इससे श्री आगमवचन थोडे ही बदले जा सकते हैं। याद रखिए सत्य तो सत्य ही होता है सांच को आंच नहीं आती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है स्थानकवासी परंपरा के संतो का - कि जिन्होंने जिनमंदिर और मूर्तिपूजा का विरोध किया है, फिर भी वे अपने गुरु के समाधिमंदिर, पगल्या, छत्री, चबूतरा आदि का निर्माण करवाते ही हैं । यानि इन स्थानकवासी संतो को जिनेश्वर भगवान जिनालय और जिनेश्वर भगवान की मूर्ति से ही वैर-विरोध है, स्वयं के गुरु के मंदिर और मूर्ति से नहीं । छद्मस्थ गुरुओं की मूर्ति को वंदन सम्यक्त्व और सर्वज्ञ तीर्थंकरो मूर्ति को वंदन मिथ्यात्व ? यह कैसा अभिनिवेश है ? स्वयं के गुरुओं के तो समाधिमंदिर-गुरुमूर्ति बने और वीतराग - सर्वज्ञ - तीर्थंकरों के जिनालय व जिनमूर्ति का विरोध, है न अज्ञानता ? - गुड़ खाना और गुलगुलों से परहेज ? शास्त्र में कहा है कि जो जहवायं न कुणई, मिच्छादिट्ठी तओ हु को अन्नो ? वड्ढेइ य मिच्छत्तं, परस्स संकं जणेमाणो || अर्थ : जो आगमशास्त्रों में जैसा है वैसा नहीं कहता है, जो आप्तवचनों को झुठलाता है- इससे बढकर मिथ्यात्वी दूसरा कौन है ? अन्यों की सत् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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