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________________ २८६ परिशिष्ठ-६ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा | (४९) ढुंढक मत विचार | श्वेतांबरो में ढुंढीये प्रगट हुए है । वो अपने आपको सच्चा धर्मात्मा मानते है जो मिथ्यात्व है... कुदेव-कुगुरुको नमस्कारादि करनेसे भी श्रावकंपना बतलाते हैं। कहते हैं धर्मबुद्धिसे तो नहीं वन्दते हैं, लौकिक व्यवहार है; परन्तु सिद्धान्तमें तो उनकी प्रशंसा-स्तवनको भी सम्यक्त्वका अतिचार कहते हैं और गृहस्थोंका भला मनानेके अर्थ वन्दना करने पर भी कुछ नहीं कहते । फिर कहोगे—भय, लज्जा, कुतूहलादिसे वन्दते हैं, तो इन्हीं कारणोंसे कुशीलादि सेवन करनेपर भी पाप मत कहो, अंतरंगमें पाप जानना चाहिये। इस प्रकार तो सर्व आचारोंमें विरोध होगा। देखो, मिथ्यात्व जैसे महापापको प्रवृत्ति छुड़ानेकी तो मुख्यता नहीं है और पवनकायकी हिंसा ठहराकर खुले मुँह बोलना छुड़ानेकी मुख्यता पायी जाती है; सो यह क्रमभंग उपदेश है। तथा धर्मके अंग अनेक हैं, उनमें एक परजीवकी दयाको मुख्य कहते हैं, उसका भी विवेक नहीं है। जलका छानना, अन्नका शोधना, सदोष वस्तुका भक्षण न करना, हिंसादिरूप व्यवहार न करना इत्यादि उसके अंगोंकी तो मुख्यता नहीं है। मुखपट्टी आदिका निषेध तथा पट्टीका बाँधना, शौचादिक थोड़ा करना, इत्यादि कार्योंकी मुख्यता करते हैं; परन्तु मैलयुक्त पट्टीके थूकके सम्बन्धसे जीव उत्पन्न होते हैं, उनका तो यत्न नहीं है और पवनकी हिंसाका यल बतलाते हैं। सो नासिका द्वारा बहुत पवन निकलती है उसका तो. यल करते ही नहीं। तथा उनके शास्त्रानुसार बोलनेहीका यल किया है तो सर्वदा किसलिये रखते हैं ? बोलें तब यल कर लेना चाहिये। यदि कहें भूल जाते हैं, तो इतनी भी याद नहीं रहती तब अन्य धर्म साधन कैसे होगा? शौचादिक थोड़े करें, सो सम्भवित शौच तो मुनि भी करते हैं; इसलिये गृहस्थको अपने योग्य शौच करना चाहिये। स्त्री-संगमादि करके शौच किये बिना सामायिकादि क्रिया करनेसे अविनय, विक्षिप्तता आदि द्वारा पाप उत्पन्न होता है। इस प्रकार जिनकी मुख्यता करते हैं उनका भी ठिकाना नहीं है। और कितने ही दया के अंग योग्य पालते हैं, हरितकाय आदिका त्याग करते .. हैं। जल थोड़ा गिराते हैं; इनका हम निषेध नहीं करते। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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