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________________ १९८ • जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा दोनों का विरोध होने से कुसंप चालू हुआ वैसे ही न्याति-संघ में भी कुसंप चालू हुआ। स्थानकवासी पंथ नही निकला था तब तक इस कारण से झगड़े नही होते थे । ___डोशीजी ने अपनी पुस्तक में प्रायः असत्य पक्षपात और निंदकपने से ही काम लिया है । तटस्थता से नहीं । सत्य के पीछे तो मानो बुरी तरह से लठ्ठ लेकर ही पड़े है और कल्पना तरंग में ही गोते लगाते गये, वह भी पक्ष मोह में मस्त होकर, फिर वहाँ सत्य के लिये अवकाश हीं कहाँ रहता है! "जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा' नामक पुस्तक को पूर्ण करते हुए पाठकों से अनुरोध करते है कि वे निष्पक्ष दृष्टि से विचार करें । पुस्तक के प्रमाणों को देखें, युक्तियों को परखें । यदि पाठकों ने इस निवेदन पर ध्यान दिया तो यह स्पष्ट ज्ञान होगा कि डोशीजी के ग्रंथ की असत्यता तथा मूर्तिपूजा के सिद्धांत की उपादेयता सहज ही बुद्धिगम्य ,है । ___अंत में इस पुस्तक में कुछ भी जिनाज्ञा-विरूद्ध लिखा हो उसके लिए मिच्छामि दुक्कड़म् । ख्याल रखते हुए भी महापुरूषों के प्रति डोशीजी के अभद्र शब्दप्रयोगों को देखकर इस पुस्तक में क्वचित कठोर शब्दों का प्रयोग भी हुआ है। उसके लिए और इस पुस्तक के प्रकाशन से किसी को दुःख हुआ उसके लिये मिच्छामि दुक्कडम् । निष्कर्ष इस किताब को लिखने का सारांश-रहस्यांश-निष्कर्ष यह है कि (१) जिनेश्वर देव की तरह जिनेश्वर की मूर्ति-प्रतिमा की भी पूजासेवा-भक्ति भी जिनेश्वर की ही सेवा-भक्ति है, सम्यग्दर्शन की पोषक है। इसलिए जिनेश्वर की मूर्ति का प्रतिदिन वंदन-पूजन-अर्चन करना चाहिए । (२) जैनागमों से मूर्तिपूजा की सिद्धि होती है । (३) नियुक्ति-चूर्णि-टीका-भाष्य भी सभी जैनियों के लिए आगमशास्त्रों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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