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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा को लेकर जीवन में ऐसे गुण ला सके, इसी भावना से जीवन सुधारते हैं । रामायण, महाभारत की कथाएँ प्रत्येक घर-घर में चलती है। हिंदुओं में उसे सत्य ही समझते है। जो असर सत्य घटना की होती है। वह काल्पनिक की नहीं होती । पूर्व-भवभीरू-महर्षिओने परंपरा से आती घटनाएं, उसमें बहुत सारी प्रथमानुयोग (दृष्टिवाद) की परंपरा से आती हुई ली हैं । जो काल्पनिक हैं, वहाँ उन्होंने वैसा बताया ही है।
जैन रामायण २००० साल पूर्व रचित 'पउमचरियं' ग्रंथ में है। विमलसूरि जिसके कर्ता हैं । वह काल पूर्वधरों का था, वज्रस्वामी १०पूर्वी उस काल में थे। तो वह जैनेत्तर रामायण के ऊपर से बनी कैसे हो सकता है ? किसी भी ग्रंथ को अप्रामाणिक बनाने के लिये मनगढंत कल्पनाएँ करना सज्जनों को शोभा नहीं देता है ।.
मूर्ति नहीं मानने से अनेक ग्रंथों की चोरी करनी-उनमें से पाठ निकालके बदल देने, यह पद्धति स्थानकवासी वर्ग में पूर्व से चली आती हैं, आज भी चालू है, मानो उसमें कोई दोष ही नहीं ऐसा ही वे लोग मानते हैं । जिनके उदाहरण पीछे प्रकरणों में हमने बता दिये हैं, स्थानकवासी संतो ने भी व्यथा व्यक्त की है वह भी पीछे बता दिया है। विशेष जानकारी के लिए देखिये
"उन्मार्ग छोडिए सन्मार्ग भजिए" पुस्तिका
अंत में आप खुद ही लिखते हैं "वास्तव में मूर्तिपूजा करने व न करने का इतना झगडा नहीं है जितना स्वार्थ अभिमान या पक्ष मोह का झगडा है ।" फिर आगे मंदिर-मूर्ति को झगडे का कारण मानते है । यह उनकी कलुषित भावना का ही फल हैं । पीछे प्रकरणों में इनके जवाब भी दे दिये हैं।
मूर्ति नहीं मानने के कारण संघ मे न्याति जाति कुसंप की ज्ञानसुंदरजी की बात भी योग्य ही है। घर-घर में मूर्तिपूजक मान्यता-मूर्तिविरूद्ध मान्यता
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