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. जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा समीक्षा → ये सब कुतर्क है । चूकि जैसे शरीर पुद्गल, आहार पुद्गल, वस्त्रादि भी पुद्गल ही है साधुओं को सुपात्रदान से साधु- शरीरस्वरुप पुद्गल का उपकार एवं संयम साधना में उपयोगी बनते हैं, दान देनेवाले को लाभ होता है । उसी प्रकार मूर्ति पुद्गल पूजा सामग्री भी पौद्गलिक उसके द्वारा परमात्मा के प्रति भक्तिभाव से शुभ-भाव वृद्धि-पुण्यवृद्धि होती ही है । परंपरा से मोक्षप्राप्ति शास्त्र में बतायी ही है।
___ स्थानकवासी संतों के शरीर भी पुद्गल, उन की फोटो-तस्वीर भी पुद्गल है, और कागज आदि भी पुद्गल है, फिर फोटो - जो कि पुद्गल है, उसको क्यों छपवाते बटवाते हो ? क्यों किताबे छपवाते है ?
आपकी व्याख्यान वाणी भी जड़ पुद्गल है और उसे जड पुद्गल में छपवाते-बांटते क्यों हो? क्यों फेसबुक (इंटरनेट) आदि पर प्रवचन देते हो ?
पृ. १७ → विश्वव्यापकता की मिथ्यायुक्ति
समीक्षा → इसमें डोशीजी ने तरंग में आकर खंडन किया ऐसा लगता है । चूँकि खुद ही मिथ्यात्व, अव्रत आदि को विश्वव्यापक बता रहे है, असंख्यात सम्यग्दृष्टि जीव, सैंकड़ो साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविकाएँ विद्यमान है, जिनमें मिथ्यात्व अव्रत आदि नहीं हैं, तो विश्वव्यापक कैसे ?
अगर बहुलतासे उसे विश्व व्यापक कह सकते है तो मूर्तिपूजा ने क्या गुनाह किया? वह भी उसी प्रकार विश्वव्यापक है ही। किसी न किसी प्रकार से सभी मूर्ति पूजा मानते ही हैं । जिसे ज्ञानसुंदरजी ने अपनी किताब में पृष्ट १८ एवं १६५ आदि में सचोट सिद्ध किया है । दूसरा सारा खंडन भाव पकडे बिना केवल शब्दों को पकडकर ही किया है ।
पृ. २२ → क्या सदाचार आदि के लिये मूर्ति पूजा आवश्यक
समीक्षा → आगम में "जिणपडिमादसणेण......" वगैरे से जिनप्रतिमा दर्शन से प्रतिबोध पाकर चारित्र लेकर शय्यंभवसूरि युगप्रधान बने, आर्द्रकुमार इत्यादि अनेक दृष्टांत हैं जो जिन प्रतिमा दर्शनादि से प्रतिबोध
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