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________________ ६८ . जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा समीक्षा → ये सब कुतर्क है । चूकि जैसे शरीर पुद्गल, आहार पुद्गल, वस्त्रादि भी पुद्गल ही है साधुओं को सुपात्रदान से साधु- शरीरस्वरुप पुद्गल का उपकार एवं संयम साधना में उपयोगी बनते हैं, दान देनेवाले को लाभ होता है । उसी प्रकार मूर्ति पुद्गल पूजा सामग्री भी पौद्गलिक उसके द्वारा परमात्मा के प्रति भक्तिभाव से शुभ-भाव वृद्धि-पुण्यवृद्धि होती ही है । परंपरा से मोक्षप्राप्ति शास्त्र में बतायी ही है। ___ स्थानकवासी संतों के शरीर भी पुद्गल, उन की फोटो-तस्वीर भी पुद्गल है, और कागज आदि भी पुद्गल है, फिर फोटो - जो कि पुद्गल है, उसको क्यों छपवाते बटवाते हो ? क्यों किताबे छपवाते है ? आपकी व्याख्यान वाणी भी जड़ पुद्गल है और उसे जड पुद्गल में छपवाते-बांटते क्यों हो? क्यों फेसबुक (इंटरनेट) आदि पर प्रवचन देते हो ? पृ. १७ → विश्वव्यापकता की मिथ्यायुक्ति समीक्षा → इसमें डोशीजी ने तरंग में आकर खंडन किया ऐसा लगता है । चूँकि खुद ही मिथ्यात्व, अव्रत आदि को विश्वव्यापक बता रहे है, असंख्यात सम्यग्दृष्टि जीव, सैंकड़ो साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविकाएँ विद्यमान है, जिनमें मिथ्यात्व अव्रत आदि नहीं हैं, तो विश्वव्यापक कैसे ? अगर बहुलतासे उसे विश्व व्यापक कह सकते है तो मूर्तिपूजा ने क्या गुनाह किया? वह भी उसी प्रकार विश्वव्यापक है ही। किसी न किसी प्रकार से सभी मूर्ति पूजा मानते ही हैं । जिसे ज्ञानसुंदरजी ने अपनी किताब में पृष्ट १८ एवं १६५ आदि में सचोट सिद्ध किया है । दूसरा सारा खंडन भाव पकडे बिना केवल शब्दों को पकडकर ही किया है । पृ. २२ → क्या सदाचार आदि के लिये मूर्ति पूजा आवश्यक समीक्षा → आगम में "जिणपडिमादसणेण......" वगैरे से जिनप्रतिमा दर्शन से प्रतिबोध पाकर चारित्र लेकर शय्यंभवसूरि युगप्रधान बने, आर्द्रकुमार इत्यादि अनेक दृष्टांत हैं जो जिन प्रतिमा दर्शनादि से प्रतिबोध Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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