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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा
६९ पाकर चारित्र तक पहुंचे । वर्तमान में भी प्रभु प्रतिमा दर्शन-पूजन से कई जीव सदाचार-सुख शांति को प्राप्त हुए संयम तक पहुंचे इसके अनेक दृष्टांत है । अपने कदाग्रह से आंखे मूंदकर अन्य का दोष अन्य पर थोपकर येनकेन प्रकारेण मूर्ति-मूर्तिपूजा-मूर्तिपूजकों को भाँडकर अपनी वृत्ति का परिचय डोशीजी ने दिया है।
कोई लोभवश मूर्ति की मालिकी तीर्थ की मालिकी के कारण झगड़े वगैरे करें उसमें मूर्तिपूजा का क्या दोष ? कोई साधु कर्मवश कोई कार्य कर बैठे उसमें मूर्तिपूजा का क्या गुना? वैसे तो स्थानकवासी साधुओं के किस्से भी सुनने में और समाचार पत्रो में आते ही है जैसे वर्तमान में गोंडल वाले जनकमुनि एवं मनोहरमुनि का दृष्टांत ??? यह तो केवल पक्षराग तथा मूर्तिद्वेष के कारण सभी मूर्तिपूजा पर थोप दिया है । खुद ही पीछे पृष्ठ २० पर खुद के बचाव हेतु लिख रहे है "यद्यपि समय के प्रभाव से विकृति प्रायः सबमें आ गई है'' ऐसे लिखकर इक्के-दुक्के मूर्तिपूजक समाज के दृष्टांत लेकर उन्हे बदनाम करते है और ऐसे दोष अपने में दिखते है, तब समय का प्रभाव कहकर बचाव करना !!! ऐसी प्रवृत्ति मध्यस्थ-ज्ञानी तो नहीं कर सकते ।
शत्रुजयप्रभाव के वर्तमान में भी कई अनुभूत दृष्टांत है । तीर्थ के स्मरण-स्पर्शन से पापबुद्धि दूर होकर तथा पश्चाताप आदि से निर्मलता आती ही है । उसमे जरा भी शंका नही है । पक्षराग में अंध बनकर महापुरूषों के ग्रंथो की निंदा करना सज्जनता नही है ।
इतिहासकार फरमाते है अधिकतर युद्ध विश्व में धर्म के नाम पर हुए है । ईसाई-मुस्लिम धर्म इस बारे मे प्रसिद्ध है । अतः युद्धों के लिये धर्म को कारण मानकर धर्म को छोड़ना आपको मंजूर है न ? जो नहीं, तो जिसमें मूर्तिपूजा कारण ही नहीं । ऐसे खोखले कारण बताकर लोगों को धोखे में डालने का प्रयास क्यों हो रहा है? कहीं पर उपरीदृष्टि से निमित्त मूर्तितीर्थ दिखाई देते है वहाँ पर भी वास्तविकता में व्यक्तियों के ममत्वादि दोष ही उसमें कारण हैं।
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