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- जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा यह टीकावलोकन से प्रतीत होता है । उसमें टीकाकारने वाचनाभेद की चर्चा नही की है।
संक्षिप्त वाचना में नमोत्थुणं नहीं है, ऐसा गलत प्रचार डोसीजी आदि स्थानकवासी संप्रदाय कर रहा है वह गलत है । ऊपर बताये अनुसार संक्षिप्त वाचना में भी 'जिणपडिमाणं अच्चणं करेइ' से जिनप्रतिमा पूजन बताया है आगे 'वामं जाणुं अञ्चेति' से लगाकर 'नमोत्थुणं' तक का पाठ भी उसमें है। इसी कारण से पीछे बताये अनुसार प्राचीनतम जैसलमेर - खंभात आदि की ताडपत्री आदि हस्तपत्रों में नमोत्थुणं का पाठ मिलता ही है । इसलिये डोशीजीने नमोत्थुणं के पाठ बिना की हस्तप्रत की लिखी बात कोरी गप्प लगती है । दोनो वाचनाओं में जब नमोत्थुणं का पाठ मिलता है तो हस्तप्रतों में उसके बिना का पाठ कैसे मिलेगा? और कहीं पर स्थानकवासी के अधिकार में रही हस्तप्रतों में पाठ मिल भी जाए तो उसे अपनी झूठी बात को सिद्ध करने के लिये पाठ निकालने की तस्करवृत्ति माननी पडेगी ।
अपने संपादन में मध्यस्थता का दावा करनेवाली तेरापंथी परंपरा भी पक्षपात से अछूत नही रह सकी, ऐसा महसूस होता है। अंग सुत्ताणि भाग३ (जैन विश्व भारती लाडनूं) में पृ. ३०५ पर.. जिणपडिमाणं अच्चणं करेइ के बाद वामं जाणुं अञ्चेइ.. नमोत्थुणं वगैरह पाठ होना चाहिए । टीका के पाठ का सही अर्थ न करने से यह भूल हुई हो तो आगे.... 'करेत्ता जिणघराओ पडिनिक्खमति' पाठ को कैसे जोडा? टीका में तो 'एकस्यां वाचनायां एतावदेव दृश्यते' - एक वाचना में (संक्षिप्त वाचना में) एतावदेव - जिणपडिमाणं अच्चणं करेइ तक ही पाठ है । वाचनांतर भी वाचना है यह मूलसूत्र से प्रमाणित होता है ।
उवंगसुत्ताणि खंड १, सम्पादकीय (आ.महाप्रज्ञ)पृ.१३. जैन विश्वभारती लाडनुं
"यह सूत्र वर्णन कोश है । इसलीए अन्य आगमों में भी स्थान स्थान पर 'जहा ओववाइए' इस प्रकार का समर्पण वचन मिलता है। उन आगमों
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