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देहादि णिमित्तंपि हु जे, कायवहम्मि तह पयट्टति
जिणपूआ कायवहम्मि, तेसिमपवत्तणं मोहो ॥४५॥ शरीर, व्यापार, खेती आदि सांसारिक कार्यो में तथा संत सतियों की जन जयन्तियां, शमशान यात्रा, किताबें छपवाना, मर्यादा-महोत्सव, दीक्षा महोत्सव चतुर्मास में वाहन द्वारा संत-सतियों के दर्शनार्थ जाना, बडे – बडे स्थानक, सभ भवन, समता भवन बनवाना आदि धार्मिक कार्यो में हिंसा करते ही हैं। लेकिन जीवहिंसा का बहाना बनाकर जो लोग समकित ओर मोक्ष देनेवाली जिन पूजा को नहीं करते है। यह उनका मिथ्यात्व है! मोह है!! मूर्खता है!!!!
श्रावक प्रज्ञप्ति ( उमास्वातिजी महाराज) और एकावतरी १४४४ ग्रन्थों के प्रणेता आचार्य श्री हरिभद्रसूरि म. कृत
चतुर्थ पंचाश्क महाग्रन्थ से उद्धृत
Jim Conternetionar
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