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___ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा सूत्र घट पाता है, अन्यथा प्रथम विचार में तीन के शरण का विचार, बाद में दो की ही आशातना क्यों बताई ? तीन की क्यों नहीं बताई ? 'यथोद्देशेन निर्देशः' उद्देश के समान ही निर्देश होना चाहिए, फर्क कैसे? इसका समाधान मिल नहीं पाता है।
इसके खंडन में डोशीजी द्वारा दिये कुतर्क पर विचार करे तो पहले भारतवर्ष में भाव तीर्थंकर नहीं थे अतः यहाँ पर द्रव्य तीर्थंकर भगवान् महावीर के शरण में आये यह बात गलत हैं चूंकि भरत में नहीं तो महाविदेह में तो भाव तीर्थंकर थे । ही उनकी शरण क्यों नहीं ली ? चमरेंद्र को भरतक्षेत्र में होकर सौधर्म देवलोक में जावे या महाविदेह में होकर जावे कोई अन्तर (फर्क) नही पडता । तो फिर वह भाव जिन को छोड़कर द्रव्यजिन की शरण में क्यों आया? इसका कारण-चमरेंद्र नया उत्पन्न हुआ है थोड़ी ही देर पूर्व वह भरतक्षेत्र में था वहीं पर उसने साधना की थी अत: पूर्वभव की जन्मभूमि के ममत्वभाव से - पूर्व भव के संस्कारों के कारण उसने भरतक्षेत्र का अवधिज्ञान से निरीक्षण किया? और वहाँ पर भगवान् महावीर को देख उनकी शरण स्वीकार ली । डोशीजी के हिसाब से भरतक्षेत्र में भाव तीर्थंकर न होने से द्रव्य तीर्थंकर (प्रभु महावीर) की शरण ली। उसका मतलब उनके हिसाब से अपवाद रुप में उनकी शरण ली यह बात सूत्र विरुद्ध है। देखिये - शरण लेकर चमरेंद्र आया है, सौधर्मेंद्र को पता भी नही यह किनकी शरण लेकर आया है, और तीन की शरण से ही आ सकता हैं यह विचार सौधर्मेंद्र का है चमरेंद्र का नही । तो डोशीजी के हिसाब से आपवादिक रुप से जो चमरेंद्र भगवान् महावीर का शरण स्वीकार कर यहाँ आया उसका विचार सौधर्मेंद्र को कैसे आ सकता है ? सौधर्मेंद्र के विचार तो औत्सर्गिक शरण को ही बता रहे है । यह औत्सर्गिक शरण का पाठ भगवती सूत्र, शतक ३, उद्देश २, मे इस प्रकार है "एवामेव असुरकुमारा वि देवा णण्णत्थ अरिहंते वा अरिहंतचेइयाणि वा अणगारे वा भाविअप्पणो निस्साए उड़े उप्पयंति ।" इसमें गणधर भगवंतो के प्रश्न के उत्तर में साक्षात् परमात्मा महावीर असुरकुमारों की शाश्वत स्थिति को बताते है कि, अनंत उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी के बाद ऐसा आश्चर्य होता है असुरकुमार देव सौधर्मकल्प तक जाते हैं, वह
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