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________________ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा १०३ भी अरिहंत-अरिहंत प्रतिमा- भावित अणगार की निश्रा (शरण) लेकर ही जा सकता है। यह सूत्र का भाव है । अब विचार कीजिए यह शाश्वत स्थिति सूत्र में बताई है अनंत - अनंत काल के बाद जब-जब ऐसा आश्चर्य होता है तब-तब वे तीन का शरण लेकर ही जा सकते हैं । इस शाश्वत स्थिति का ही सौधर्मेंद्र ने विचार किया है, अत: औत्सर्गिक शरण का ही, मतलब कि अरिहंत, अरिहंत प्रतिमा सुसाधु के शरण का ही विचार किया है, यह सिद्ध होता है । इससे सिद्ध होता है कि जो लाभ भावजिन से हो सकता है वह द्रव्यजिन और स्थापनाजिन से भी हो सकता है। इसमें सूत्र खुद ही साक्षी है । 'अरिहंत चेइयाणि' का अर्थ जिनप्रतिमा ही होगा । अब 'अरिहंत चेइयाणि' का वे छद्मस्थ अरिहंत अर्थ करते है जो शास्त्र व्याकरण आदि से विरुद्ध है । " चैत्य" शब्द का अर्थ छद्मस्थ किसी भी व्याकरण कोश - शास्त्र आदि से सिद्ध नही हो सकता, तो यह मनमाना शास्त्रपाठों का अर्थ डोशीजी किस आधार पर करते है ? केवल कल्पना से ही यह अर्थ किया गया है, वह भी अपनी मिथ्या मान्यता कि पुष्टि के लिए । जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति मूलसूत्र में परमात्मा के जन्माभिषेक के वर्णन में जगह-जगह पर द्रव्य तीर्थंकर के लिए तित्थयरा तित्थयरं, तित्थंयरस्स, तित्थयरमायाए, धूवं दाऊण जिणवराणं इत्यादि शब्दों का प्रयोग हुआ है, एक भी स्थान पर छद्मस्थ तीर्थंकर के लिए अरिहंत चेइयं - अरिहंत चेइयस्स आदि शब्द प्रयोग नहीं हुआ है, तो अपनी शास्त्र विरुद्ध मान्यता की पुष्टि के लिए शास्त्रपाठों के जानबूझकर अर्थ बदलकर उत्सूत्र प्ररूपणा से आत्मा को पापों से भारी क्यों बनाते हैं ? डोशीजी के एक और कुतर्क पर विचार करेंगे - "मूर्ति की शरण ही चमरेंद्र को इष्ट होती तो वह उसी निकट में रहे सौधर्म देवलोक की शाश्वती प्रतिमा छोडकर अत्यंत दूर प्रभु महावीर के आश्रय में क्यों जाता ? इसका उत्तर - चमरेंद्र पूर्व भव में पूरण नाम का तापस था, कठिन ऐसे बालतप के प्रभाव से चमरेंद्र रुप में उत्पन्न हुआ अभी तक सम्यक्त्व से रहित है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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