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________________ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा १६३ को भी खुद अपनी कल्पना से प्रभु आज्ञानुसार माने उससे प्रभु आज्ञानुसार होते नहीं हैं । विद्वान् तटस्थ संविग्नों की दृष्टि से तो वह सब अनेक स्थानों में आज्ञाविरूद्ध दिखाई देता है । आगे डोशीजी और डंफास लगाते हैं "ये स्वयं जानते हैं कि जैसा उपदेश, आदेश और आचार, व्यवहार, विचार आदि साधुमार्गी समाज के साधुओं का है वैसा ही भूतकाल के मुनियों का था" संविग्न मार्गानुसारी साधु शास्त्रों द्वारा जानते हैं कि स्थानकवासी साधुओं का लिङ्ग (वेश), आचारविचार सभी प्रभु-आज्ञा निरपेक्ष - भूतकालीन मुनियों से विपरीत हैं। मुंहपति को डोरे से मुंह पर बांधना आदि विचित्र वेश, मूर्तिपूजा विरोधी विचार, इत्यादि प्रभु वीर की मूल व शुद्ध परम्परा के विपरीत ही है, सभी जानते हैं । उनके नाम से “वे स्वयं जानते हैं" ऐसे विरूद्ध वचन कहना कितना उचित है ? 1 आगे लोंकाशाह के धर्म क्रांति - क्रियोद्धार की बात की है वह प्रमाण रहित - कल्पना मात्र है । लोकाशाह के प्रामाणिक इतिहास के लिये " श्रीमान् लोंकाशाह' पुस्तक देखें । जो गृहस्थ थे, जिसने पूरे जीवन में साधुपने का अनुभव ही नहीं किया है, वे क्या क्रियोद्धार करे ? पं. सत्यविजयजी ने गुरु आज्ञा पूर्वक क्रियोद्धार किया था, परंपरा में घुसी शिथिलता को हटाया, परंपरा तो प्रभु महावीर से चली आती ही थी । इसीलिये कुतर्क निरर्थक है | अत: सिद्ध होता है कि शास्त्र - मूर्ति-धर्म आदि प्राचीनता के कारण ही विशेष रीति से उपादेय बनते हैं । (४) आगमों के सामने इसका कोई मूल्य नही → समीक्षा - अभिनिवेश के कारण इस प्रकरण में अज्ञानता दृष्टिगोचर होती हैं । "दुषम काले जिनबिंब जिनागम भवियणकु आधारा" " तेहनु झेर निवारण मणि सम तुज आगम तुज बिंबजी" ये पूर्व महापुरूषों के वचन बता रहे हैं कि जिनप्रतिमा और जिनागम समान रूप से प्रमाण हैं । केवलज्ञानी - पूर्वधरादि के विरह में वर्तमान में आत्मोन्नति में जिनप्रतिमा का योगदान जिनागम से जरा भी कम नही है । 1 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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