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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा जब तीर्थंकर प्रभु का निर्वाण हो जाता है, तब देह रुप शरीर के रहते हुए भी तीर्थंकर प्रभु का विरह हो जाता है, उनके शब को देव अग्नि संस्कारित कर देते हैं । क्योंकि वंदनीय पूजनीय जो गुण आत्मा थी वह तो गमन कर गई ।
समीक्षा → ग्रंन्थो की आधी बात लेनी आधी छोड देनी..... प्रामाणिकता आद्भुत है !!! प्रभु के देह के अग्नि संस्कार की जो बात है, साथ में वहाँ पर स्तूप की भी बात है, उसे जान बुझकर छोड दिया गया है। अगर जड का गुणहीन होने से कोई प्रभाव नहीं, तीर्थों का कोई महत्व नहीं तो प्रभु के अग्नि संस्कार स्थल में स्तुप क्यों बनाते हैं ? उस क्षेत्र (जडभूमि) की कोई आशातना न करे इसीलिए स्तूप बनाया जाता है, यह तो एकदम स्पष्ट है कि प्रभु के जड देह के अग्निसंस्कार से पवित्र भूमि तीर्थस्वरुप बनती है। उसकी आशातना सर्वथा वर्ण्य है इसीलिए बुद्धिमान देव स्तूप बनाते हैं । इससे आगमादि शास्त्रों में विशिष्ट भाव का कारण होने से मूर्ति अवशेषों आदि की पूजा मान्य है।
आप जडदेह को समान रूप से गुणहीन मानते है फिर तो तीर्थकर देव की जडदेह, अन्य साधुओं की जडदेह की चिता अलग-२ बनाकर अग्निसंस्कार जो किया जाता है तब स्पष्ट सिद्ध होता है कि शरीर जड होने पर भी प्रभु और अन्य मुनियों के द्रव्य निक्षेप में अन्तर है अतः इनके पूज्यता में भी अन्तर पडेगा । यहाँ आपकी एकान्तिक गुण की बात गायब हो जाती है । आशातना से बचने के लिए विबुध देव उचित विवेक से यह काम करते हैं। ____ पृष्ठ ६ → “संपूर्ण जैन समाज के सर्वमान्य नमस्कार सूत्र में पाँचो पद गुण निष्पन्न है, कोई भी ऐसा पद नहीं जिसमें गुण नहीं हो और उस पद को वंदन किया गया हो..."
समीक्षा → पद क्या वस्तु है ? पद को तीनों काल के अरिहंतादि मानो तो अशक्य है, वे इकट्ठे नही हो सकते है । कल्पना से मानसपटल पर उभरे चित्र स्वरुप में मानो तो जड चित्र स्वरुप जो आपके लिए पूज्य
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