SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 10
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा और निषेध होता तो पूर्व से ही निषेध होता, जब कि निषेध और विरोध करनेवाला स्थानकवासी पंथ तो करीब ५०० वर्ष में नया पैदा हुआ है और वह भी अनागमिक और बेबुनियाद पंथ है । . जिनमंदिर व जिनमूर्ति के विरोध का कारण स्थानकवासी लोग हिंसा होने का बताते है - पर हिंसा तो कबूतर को दाना-चुगा देने में तथा गाय को घास डालने में भी है । तो फिर वे इन सभी का निषेध-विरोध क्यों नहीं करते ? श्री रतनलालजी डोशी ने - 'जैनागम विरुद्ध मूर्तिपूजा' में बहुत विपरित कुतर्क लगाये हैं, जो उनके अभिनिवेश की पुष्टि करता है। यदि जैनागमों के प्रति इस प्रकार के विपरीत कुतर्क ही लगाने हों, तो फिर सारे के सारे जैनागमों को झुठलाने पडेंगे, जैसे कि दिगम्बरों ने किया है । और यदि कहेंगे कि- जैनागम सत्य है, पर उसमें आती जिनघर, चैत्य, जिनपडिमा, चैत्यवंदन इत्यादि सब बाते असत्य हैं । तो फिर प्रश्न होगा कि - ये ही असत्य है, उसमें क्या प्रमाण है ? क्योंकि आप तो नये पैदा हुए हो, और जिनमंदिर और मूर्तिपूजा तो आपसे पहिले की प्राचीन है, जिसके साक्षी स्वतः सभी जिनागम और प्राचीनमूर्तियां है। यदि आगमशास्त्रों को असत्य ठहराना हों तो अज्ञानता व मिथ्यात्ववश आप ऐसा कह भी सकते हैं । जैसे (१) भगवान के समवसरण होने में कोई प्रमाण नहीं है । सर्वत्यागी भगवान भला रत्न-सोना-चांदी के गढ़ पर क्यों बिराजमान होंगे ? (२) पुष्पों की वृष्टि होना भी असत्य है, क्योंकि इस की आवश्यकता ही वीतराग को नहीं होती। (३) गौतमस्वामी चार ज्ञान के धारक नहीं थे, यदि होते तो आनंद की सीधी-सादी सत्य बात को क्यों झुठलाते ? . (४) तीर्थंकर भगवान जब चलते थे, विहार करते थे- तब कांटे उलटे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy