________________
जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा परिशिष्ठ-७
२९३
मूर्ति से निराकार वस्तु हमारी बुद्धि से - समझने के लिए साकार बनती है।
अलक्ष्य एवं परोक्ष वस्तु लक्ष्य एवं प्रत्यक्ष बन जाती है ।
परिकर रहित प्रतिमा सिद्धावस्था की एवं परिकर सहित प्रतिमा अरिहंतावस्था की प्रतीक है ।
जब उपासक भक्त योग मुद्रा में शांतरससभर प्रभुप्रतिमा के सन्मुख स्थित हो जाता है, तब वह प्रभु में तन्मय-तदरूप बनकर प्रभु का दर्शन पूज, अनुभवन करता है यह वास्तव में प्रभु प्रतिमा का प्रकृष्ट प्रभाव एवं उपकार है और उसकी श्रेष्ठ सफलता है ।
___ मूर्ति सिर्फ पाषाणमयी नहीं है, उसे पत्थर कहना अयोग्य एवं अनुचित है । जब हम हमारे श्रद्धेय एवं प्रिय व्यक्ति की फोटु की भी कितनी अदब या बहमान रखते है, तो यह तो देवाधिदेव तीर्थंकर की प्रतिमा है, हमारी अनादि अचंकाल के राग-द्वेषादि कल्मष एवं पापमल धोनेवाली परमपवित्र मूर्ति है, उसके सामने कितना आदर एवं बहुमानभाव होना चाहिए? - महान आचार्यप्रवर द्वारा अंजनशलाका के परमपवित्र मन्त्रों से, प्रतिष्ठाविधि के आमान्य से, लक्षण एवं विधिविधान की प्रक्रिया से प्रतिमा में प्राण का आरोपण किया जाता है, जब मूर्ति प्राणवान् बनती है, मूर्तिमान् सौंदर्य बन जाती है । मूर्तिकार भी अश्रान्त परिश्रमपूर्वक न सिर्फ मूर्ति बनाता है बल्कि विधिपूर्वक निर्माण में अपनी भावात्मकता को भी संयोजित करता है । _ 'मूर्ति और पाषाण में क्या भेद है ? कुछ नहीं है ।' इस प्रकार कथन धृणास्पद भी है। सदृश वस्तु में भी विशेष से असदृश की कल्पना दुनिया में की जाती है। यदि ऐसा न हो तो दुनिया में स्त्रीत्व के समान धर्म से माता, बहन, लडकी आदि में कोई भेद ही नहीं रहेगा ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org