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. जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा 'निवेदन' में उन्होंने बहुत-सारी विरूद्ध-असत्य बातें लिखी हैं। जिनका जवाब देना उचित था, जिससे जनता सत्य वस्तु को समझें । इस पुस्तक में उसकी समीक्षा की गई है। निवेदन में उन्होंने कई जगह वस्तुस्थिति का शीर्षासन करती हुई बिलकुल असत्य बातें लिखी है - जैसे पृ. १० "मूर्तिपूजक समाज एवं स्थानकवासी समाज के आचार्यों के बीच चर्चा होती रहती थी और चर्चा में हमेशा मूर्तिपूजक, समाज को मात खानी पडती । क्योंकि वे इसे जैनागम सम्मत सिद्ध करने में हमेशा विफल रहे ।' हा... हा... हा... इस बात में जरा भी सत्यता नहीं है। वस्तुस्थिति जो कहा है उससे विपरीत है। जिसका खुलासा पाठक गण को पुस्तक के पठन से हो जाएगा ।
_ 'मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास' और 'जैनागम विरूद्ध मूर्तिपूजा' दोनों पुस्तकों को सामने रखकर इस पुस्तक का पठन करने से तटस्थ व्यक्ति अवश्य ही सत्यता को परख लेंगे। अगर शक्य न हो तो 'जैनागम विरूद्ध मूर्तिपूजा' को मिलान करके पढना पूर्णबोध के लिए आवश्यक है, चूंकि इस पुस्तिका में उस पुस्तक के उद्धरण देकर क्रमशः उसकी समीक्षा की गई है।
इसलिये पाठकगण को विशेष निवेदन है कि दोनों पुस्तकों का मिलान करके इसे पढ़ें ।
कड़वा सच यदि कहा जाए तो आज स्थानकवासी जो कुछ भी है या संगठित है वह सिर्फ और सिर्फ अनादि काल से चली आ रही जैनधर्म में मूर्तिपूजा संस्कृति की बदौलत ही है मात्र ४००-५०० सालों से बने इस संगठन को अनादिकालीन पंथ स्वप्न में भी नही कहा जा सकता है । बिना आधार नेतृत्व के परन्तु मूर्तिपूजा के बदौलत चले इस मार्ग में अब व्यक्तिवाद की बोलबाला है । बस मूर्ति के विरोध में जिस किसीने विषय प्रतिपादन किया वही सत्य बाकी सब मिथ्या। जैन शासन मे आपमति, बहुमति या तर्कमति का विचार नहीं चल सकता यहां मात्र शास्त्रमति एवं आज्ञामति चलती है । ऐसा मार्ग मोह मिथ्यात्व की विडम्बना के कारण ही बना है ।
जैनधर्म में जितनी भी आराधना, साधना, तप, त्याग प्रचलित
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