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________________ १०५ जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा प्रतिमा' का समावेश आगम मान्य है। आगे 'चत्तारि शरणं पवज्जामि... में भी यही समाधान समझें । डोशीजी को खुद को भी खुद के काल्पनिक अर्थ से मन में शंका तो है ही अतः "उक्त शब्द का मूर्ति अर्थ मान भी ले तो भी' कहते हैं "इसमें आत्मिक कल्याण मानना तो सचमुच विचार शून्यता हैं ।" ऐसा कहना नितान्त विचार शून्यता है चूँकि जिस के प्रभाव से देवेन्द्र जैसे भौतिक विश्व में सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति को हतप्रभ होना पड़े, जिनके दाढाओं के प्रभाव से भी देवलोक में शान्ति व्याप्त हो जाती है, जिनकी पूजा को शास्त्र निःश्रेयस - परंपरा से मोक्ष का कारणभूत बता रहे हैं, उनको आत्मीय कल्याण का कारण न मानना विचार शून्यता ही है । नीचे टिप्पण में डोशीजीने "चोर कोतवाल को डांटे" नीति अपनाकर पाठ प्रक्षेप के आक्षेप, तीन स्थलो की चालाकियाँ पकडी गई आदि प्रमाणहीन-तथ्यहीन बातें लिखी हैं, उनके प्रमाण दिये होते तो उस पर विचार कर सकते थे। उपासक दशा उववाई-अंबड अधिकार की कौनसी प्राचीनतम प्रति के आधार से आप ये बात लिख रहे है ? वे कौन से ज्ञान भंडार की, कौन से नंबर की हैं ? उल्लेख किये बिना आप जैसों की बातों पर कोई भी विचारशील सुज्ञ विश्वास नही रखेगा। हाँ आपके दृष्टिरागी भाईबंधु विश्वास रख सकते हैं। __देखिये - आप के प्रामाणिक संत विजयमुनिशास्त्री अमर भारती (दिसंबर १९७१ पृ. १४) में लिखते हैं - "पूज्य श्री घासीलालजी म. ने अनेक आगमों के पाठों में परिवर्तन किया हैं, तथा अनेक स्थलों पर नये पाठ बनाकर जोड दिये हैं । इसी प्रकार पुष्प भिक्षुजी म. ने अपने द्वारा संपादित सुत्तागमे में अनेक स्थलों से पाठ निकाल कर नए पाठ जोड दिये हैं । बहुत पहले उदयचंद्रजी महाराज पंजाबी के शिष्य रत्नमुनिजी ने भी दशवैकालिकादि में सांप्रदायिक अभिनिवेष के कारण पाठ बदले हैं।" अभी कोई संदेह हैं इस विषय में ? पुष्प भिक्षु के तस्करवृत्ति के लिये देखिये"लोंकागच्छ और स्थानकवासी" पुस्तक में पृष्ट-६३ से पृ. ७१ (लेखक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004077
Book TitleJainagam Siddh Murtipuja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2014
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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