Book Title: Aayurvediya Kosh Part 03
Author(s): Ramjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
Publisher: Vishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... शब्द संख्या १०५४५ आयुर्वेदीय विश्व-कोष ८५४ (आयुर्वेदीय कोष का तृतीय खण्ड ) An Onoyclopeedical syurvedic Dictionary ( With full details of Ayurvedic, Unani and Allopathicterms. ) अर्थात् श्रायुर्वेद के प्रत्येक अङ्ग प्रत्यङ्ग सम्बन्धी विषय यथा निघण्टु, निदान, रोग-विज्ञान, विकृत-विज्ञान, चिकित्सा-विज्ञान, रसायन-विज्ञान, भौतिक-विज्ञान, कीटाणु-विज्ञान इत्यादि प्रायः सभी विषय के शब्दों एनं उनकी अन्य भाषा (देशी, विदेशी, स्नानीय एवं साधारण बोलचाल) केपर्यायों काविस्तृत व्याख्या सहित अपूर्व संग्रह । व्याख्या में प्राचीन व अर्वाचीन मतों का चिकित्सा-प्रणाली-त्रय के अनुसार तुलनात्मक एवं गवेषणापूर्ण विवेचन किया गया है। इसमें ४००० से अधिक वनस्पतियों, समग्र खनिज एवंचिकित्साकार्य में आनेवाली प्रायः सभी श्राबश्यकप्राणिवर्ग की तथा रासायनिक औषधों के आजतक की शोधों का सर्वाङ्गीन सुन्दर सुबोध एवं प्रामाणिक वर्णन है । इसके सिवा इसमें सभी प्राचीन अर्वाचीन रोगों का विस्तृत निदान चिकित्सादि भी वर्णित है । संक्षेप में आयुर्वेद (यूनानी तथा डाक्टरी) सम्बन्धी कोई भी विषय ऐसा नहीं,चाहे... वह प्राचीनहो या अर्वाचीन जिसका -इसमें समावेश ना हो 14 लेखक तथा संकलन-कर्ता - श्री बाबू रामजीतसिंह जी वैद्य श्री बाबू दलजीतसिंह जी वैद्य रायपुरी चुनार, (यू०पी०) प्रकाशकJ श्री पं० विश्वेश्वरदयालु जी वैद्यराज सम्पादक-अनुभूत योगमाला' बरालोकपुर इटावा, (यू० पी०) १ म संस्करण, १००० प्रति ) सर्वाधिकार ( मू० सजिल्द ६।) सम्वत् १६६६ वि० तथा सन् १६४२ । प्रकाशकाधीन है ( अजिल्द ५) EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE श्री पं. विश्वेश्वरदयालु जी के प्रबन्ध से श्री हरिहर प्रेस, बरालोकपुर-इटावा में मुद्रित । Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबू रामजीतसिंह जी वैद्य, रायपुर मुद्रक एवं प्रकार श्री हरिहर फाइन आर्ट बरालोकपुर-इटावा कूपी Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञप्ति उस जगत्पिता परमात्मा की असीम कृपा से आयुर्वेदीय विश्वकोष का यह तीसरा भाग हम आपके कर कमलों में समर्पित कर रहे हैं इसकी हमें बड़ी प्रसन्नता है, इस भीषण परिवर्तनकारी समय में जब कि बड़े शहरों के बड़े २ कारखाने स्थानान्तरि हो चुकेहैं जिनसे हम अपने लिये आवश्यक सामान खरीदने थे । अतः एक २ के चार २ देने पर भी मनोनुकूल सामिग्री का मिलना नितान्त ही कष्ट कर एवं संभव हो रहा है, और की क्या कहें कागज की ऐसी भीषण तेजी जब कि कागज का दाम साधारणतया छः गुना हो रहा है और इतने पर भी इच्छित प्राप्त की संभावना है। सभी सामान असौकर्य इस पर भी हमने अपनी पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार प्रत्येक जिल्द ८०० पृष्ठ अर्थात १०० फार्म देने की थी, उसी के अनुरूप विषयकी कमी बढ़ीके अनुसार किसी में कम और किसी में ज्यादा पृष्ठ कर तीनों भागों की पृष्ट संख्या २४३८ करके प्रत्येक भाग के ८०० पृष्ट पूरे कर ही दिये गये हैं। और वही पुरानी भेष भूषा व कीमत रखी गई है, जो समय को देखते हुये अत्यधिक कम है और हमें अत्यधिक घाटे में डाल रही है, परंतु सेवाभाव और पुस्तक प्रकाशन को पूर्ण करने की प्रतिज्ञा में वृद्ध होकर हम इसकी परवाह नहीं कर रहे हैं, यह कमी भगवान ही पूर्ण करेंगे या आप लोग ही । हमें दुःख तो सिर्फ यही है कि हम इतने बड़े उपयोगी कार्य को लेकर जिस आशा से वैद्य समाज के सन्मुख आये थे उस प्रकार आपने उसका स्वागत नहीं किया. हमने सोचा था कि इसके ग्राहक हमारे वैद्यबन्धु बहुत बड़ी तादाद में बन जावेंगे और कोष हाथों हाथ निकल जावेगा। परन्तु वह आशा बादल के पुष्पवत ही बेकार हुई और कोष के इतने भी ग्राहक न हुये कि लागत मात्र भी व्यय वसूल हो जाता । इस प्रकार प्रत्येक भाग में अनुमानिक ५००० हजार की रकम बट्टे खाते में ही पड़ती रही इससे प्रकाशक लेखकों को भी संतुष्ट न कर सका जिससे वह भी बड़ी मन्दगति से कार्य उत्साह रहित हो करने लगे और प्रकाशक भी मूलधन को गमाकर द्रव्य की आशा में ही चातकवत टकटकी लगाये रहा। कार्य तो लाभार्थ किया गया था पर गमाया मूलधन भी ? ऐसी स्थिति में अन्य कोई भी प्रकाशक होता तो वह ऐसे जटिल कार्य को सदैव के लिये ही छोड़ देता परन्तु यहां तो विचित्र ही गतिविधि है वह है केवल जीवन में श्रायुर्वेद की सेवा उसकी बिछुड़ी हुई साहित्य को पूर्णकर उसकी प्रतिष्ठा की धाक जमाना अपने वैद्य बन्धुओं को पूर्ण चिकित्सक बना संसार का कल्याण करने के लिये पूर्ण रूप से ज्ञानान्वित करना, इसी उद्देश्य को लेकर इतने भीषण प्रहार पर भी हम अपनी प्रतिज्ञानुसार इसे प्रकाशित ही किये जा रहे हैं। हां ? द्रव्य संचय के लिये समय अधिक लग रहा है जब इतना प्रकाशन योग्य द्रव्य बच रहता है तब हम शन की तरफ दौड़ते हैं और लेखकों को उत्साहित करते हैं तब वह मेटर तयार कर हमें देते हैं और ह भी अपना कार्य चलाते हुये इसे छापकर आपके पास पहुँचाते हैं इस प्रकार सन् १६३४ में इस कोष का प्रथम भाग प्रकाशित किया गया था और दूसरा भाग १६३७ में यह तीसरा भाग १६४० में प्रकाशित हो रहा है इसके प्रकाशन में पूरे पांच वर्ष का समय चला गया अर्थात् ६ साल केवल ती भाग ही निकल सके इतने समय में सम्पूर्ण कोष निकल जाता परन्तु क्या करें हम द्रव्य स विवश द्रव्य भी निकल आता तो हमें कोई चिन्ततं फार्म १०० दिन में रोष ४ महीने में सकता है इस प्रकार प्रत्येक वर्ष में एक भाग के ग्राहक इतने भी बन जाते कि कोष का लागत भर • कोष का ही काम होता रहता १०० १० फार्मा मेटर प्रेस योग्य ६ मास में बन मिल सकता है। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ख ] फिर भी यह नहीं मिल रहा है, इसका सारा जवाब वैद्य समाज एवं आयुर्वेद प्रेमियों पर है, किसी भी क्षेत्र में देखिये कोई भी नवीन साहित्य प्रकाशित होते ही चट समाप्त हो जाताहै, इसका कारण यही है कि उन २ क्षेत्रों के विद्वान उस नवीन साहित्य को पढ़ने की रुचि रखते हैं और खर्च कर अपने ज्ञान की वृद्धि करना चाहते हैं, परन्तु आयुर्वेद क्षेत्र में यह गति विधि नहीं, वेद्य बन्धु अपने ज्ञान की वृद्धि ही नहीं चाहते, वह तो लकीर के फकीर बने रहने में मस्त हैं। वह तो शाङ्गधर, माधव निदान को ही पर्याप्तसमझ दो रुपये मूल्य की पुस्तकोंसे ही पूरे वैद्य राज बनने को तयारहैं, इसके अलावा वह कुछ नवीनता अपने में लाने को तयार नहीं हैं। यदि ऐसा साहित्य अंग्रेजी में निकलता तो कई गुनी कीमत होनेपरभी आज कई संस्करणों में विभाजित हो गया होता, अंग्रेजी साहित्यकी आजकल कदर है, अंग्रेजी पढ़े साहित्य प्रेमी हैं, वह अपने को नवीन २ ज्ञानों से पूर्ण देखना चाहते,तभी वह साहित्य आज सबसे उच्च है। जब तक ऐसी भावना वैद्य समाज में नहीं होती, तब तक इसका साहित्यक क्षेत्र पूर्णतया बढ़ नहीं सकता और न वैद्य ही पूर्ण ज्ञानयुक्त हो सकते हैं । यह कोष कितना उपयोगी है, वैद्यों को इससे कितना लाभ होगा, यह बात तो आपने विद्वानों के द्वारा ही सुनी होगी इसकी छपी हुई आलोचकाओं में। सहयोगियों की भाषा में भी सुनिये, वनौषधि चंद्रोदयकार अपनी भूमिका में लिखते हैं। लेखकों ने जिस महान परिश्रम से यह कार्य उठाया है उसे देखकर कहना पड़ता है कि अगर यह ग्रंथ अंत तक सफलता पूर्वक प्रकाशित हो गया तो राष्ट्र भाषा हिन्दी के गौरव को पूरी तरह से रक्षा करेगा, यह ग्रन्थ अनुपम होगा इसमें संदेह नहीं। -चंद्रराज भंडारी इतना होने पर भा हमने पृष्ट संख्या, विषय की उत्तमता में और मूल्य की स्वल्पता में क्रांति की है, अब तक का कोई भी प्रकाशन इतने कम मूल्य का देखने पर भी न मिलेगा, अब तक के सभी कोष केवल वनौषधि गुण प्रदर्शक ही है। परन्तु इस कोष में और भी कई विशेषतायें हैं, शरीर, खनिज, भौतिक, विज्ञान के सिवाय निघण्टु, चिकित्सा प्रसिद्ध योगसंग्रह इसकी अनुपम देन है । परन्तु हम तो लागत मूल्य में ही देने को तयार थे ताकि थोड़े दाम में ही लैंग इसका संग्रह कर लाभसे वंचित न रह जाय । सच पूछिये तो यह कोष पृष्ट संख्या में, विषय की उत्तमता एठां नवीनता में, मूल्य की न्यूनता में संसार में क्रांति स्थापित कर रहा है आज तक कोई भी पुस्तक इतनी उपादेय दड़ने पर भी न मिलेगी फिर भी कोष के लिये ऐसा प्रमाद क्या समाज को शोभा देता है। और कई विशेषतायें भी हैं परन्तु हमारे पास प्रोपेगण्डा करने का समय नहीं है पूर्ण ज्ञान के लिये आपको अन्य कोषों के होते हुये भी इस कोष से ही पर्याप्त सहायता लेना होगी। इसके प्रकाशन की देरी आपके जिम्मे ही है आप ही उसके जबाबदार हैं। यदि इसी प्रकार की शिथिलता रही तो संभव है कोष पूर्ण भी न हो सके इसीलिये दया करके प्रत्येक वैद्य बन्धु को इसकी एक २ प्रति अवश्य खरीदना चाहिये और अपने जाने हुये मित्र वैद्यों को भी ग्राहक बनाकर इसकी बिक्री बढ़ाने की दया करनी चाहिये, ताकि कोष जल्द से जल्द पूर्ण हो आयुर्वेद क्षेत्र में चमत्कार प्रदर्शित करने में सफलता प्राप्त करें। हमारा जो कर्तव्य था हमने पूर्ण किया अब आपका कर्तव्य है उसे जिस प्रकार चाहें पूर्ण करें सारी व्यवस्था आपके सामने है। भगवान इच्छा पूर्ण करे यही कामना है। ऐसे उपयोगी प्रकाशनों के लिये धनी मानी, राजा, रईस भी सहायता प्रदान करतेहैं अत: वैद्यों को इस तरफ भी ध्यान देकर सहायता दलाकर इस कार्य को पूर्ण करने में हमें सहयोग देना या दिलाना चाहिये ताकि यह कार्य पूरा हो जाय । प्रकाशक: Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री धन्षन्तरयेनमः ॐ निखिल भारतवर्षीय सप्तविंशतितम वैद्यसम्मेलनं नागपुर । प्रदर्शन-विभाग प्रमाण-पत्रम् 幽幽幽幽幽幽幽幽幽幽幽幽幽幽幽幽幽幽幽幽幽幽幽幽幽幽的幽幽幽幽幽幽幽幽幽幽幽6 श्रीमतां बरालोकपुर निवासिनी पं० विश्वेश्वरदयालु राजवैद्य इत्येतेषां प्रदर्शन - समागतो आयुर्वेदीय विश्व-कोष ग्रंथो नितान्तवैद्योपयुक्त इत्यवधार्यतेभ्यः स्वर्णपदकेन सह, प्रथमश्रेण्याः प्रमाणपत्रमेतत्सम्मान पूर्वकं प्रदीयते आशास्यते च विषयेऽस्मिन्नतिवृद्धिं कुर्वन्तु नितरामिति । पदर्शनाध्यक्ष:वैद्यराज गंगाधर विष्णु पुराणिक पनवेल परीक्षक समितिभिषक केशरी श्री गोवर्धन शर्मा छांगाणी प्राणाचार्य सुन्दरलाल शुक्लः लक्ष्मीकान्त दामोदर पुराणीक गणेश शास्त्री जोशी आयुर्वेदाचार्य। प्रदर्शन मंत्रिणः ता. १७-८-३८ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ख] आयुर्वेदीय विश्व-कोष पर प्रसिद्ध-प्रसिद्ध विद्वानों की सम्मतियां सुप्रसिद्ध वनस्पति शास्त्रज्ञ एवं वनौषधि-अन्वेषक श्रद्धय ठा० वलवंत सिंहजी M. S. C. प्रोफेसर आयुर्वेद कालेज हिंदू विश्व विद्यालय कोष के सम्बन्ध में इस पूकार अपने उद्गार प्रकट करते हैं"आयुर्वेद की शास्त्रोक्त परिभाषा जितनी व्यापक हो सकती है, आयुर्वेदीय विश्व-कोष का विषय क्षेत्र भी उतना ही व्यापकरखा गया है । यह बात कोष के लेखक द्वय हमारे मित्र ठा० रामजीत सिंह जी तथा ठा० दलजीतसिंह जा के उदार और विस्तृत दृष्टिकोण की परिचायक है। अनेक क्षेत्रों के विशेषज्ञ तथा बड़े २ विद्वानों की प्रशंसात्मक सम्मतियां उनकी सफलता की द्योतक हैं। वनस्पति-विज्ञान और तत्सम्बन्धी खोजों में अधिक रुचि होने के कारण मैंने प्रस्तुत ग्रंथ के वनस्पति विषयक अंश को ध्यान से देखा । मुझे इस बात की प्रसन्नता हुई कि इस क्षेत्र में हमारे यशस्वी लेखकों ने संदिग्ध द्रव्यों पर निर्णयात्मक बुद्धि से विचार करने तथा प्रकाश डालने का प्रयत्न किया है जैसा कि आजकल के विरले ही लेखक करते है। संज्ञाओं की व्युत्पत्ति का ज्ञान संदिग्धता निवारण का एक प्रधान साधन है जिसे आप लोगों ने अपनाया है। यह तभी सम्भव है जब द्रव्यों का प्रत्यक्ष ज्ञान हो और तत्सम्बन्धी सम्पूर्ण साहित्य का अवलोकन किया गया हो । इन दिशाओं में लेखक महोदयों की व्याकुल जिज्ञासा तथा उनकी उद्यमशीलता तथा अनवरत प्रयत्न को देखकर हमें आशा करना चाहिये कि कोष के आगामी खंडों में क्रमशः अधिकाधिक खोज पूर्ण विचारों का समावेश होता जायगा। आयुर्वेद-कालेज ) श्रीयुत् ठा० वलवंतसिंह जी हिंदू विश्वविद्यालय काशी ता० २० अप्रैल १९४२ ई.) आयुर्वेदीय विश्व कोष द्वितीय खंड के सम्बन्ध में आयुर्वेदिक कालेज-पत्रिका (हिंदू विश्वविद्यालय ) की रायउपयुक्त पुस्तक में आयुर्वेद, यूनानी एवं एलोपैथी में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ और उनकी व्याख्या दी गई है । पुस्तक को देखने से यह पता लगता है कि यह विश्व-कोष गंभीर अध्ययन और परिश्रम से लिखा गया है । आयुर्वेद-संसार में इस प्रकार का यह प्रथम प्रयास है। बहुत दिनों से जिस कमी का अनुभव विद्वान लोग कर रहे थे, निस्संदेह इससे वह कमी पूरी हो जायगी। पूर्ण प्रकाशित होने के बाद यह एक आयुर्वेद का उज्ज्वल रत्न होगा। विद्याथियों से लेकर विद्वान विचारकों तक के लिये पठनीय मननीय और संग्रहणीय है । प्रकाशक और संकलन कर्ताओं के इस कार्य की हम सराहना करते हैं कि वे इसे पूर्ण करने का निरन्तर प्रयत्न करते रहेंगे जिससे यह महान् ग्रंथ शीघ्र ही तैयार हो । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ग ] 'वनस्पति-चंद्रोदय' की भूमिका प्रथम भाग पृ० ७ पर ___ग्रंथ के लेखक महाशय लिखते हैं-हर्ष है कि हाल ही में हिन्दी में चुनार-निवासी बाबू रामजीत सिंह और बाबू दलजीत सिंह वैद्य ने महान परिश्रम के साथ एक आयुर्वेदीय विश्व-कोष का प्रणयन प्रारम्भ किया है। इस ग्रंथ के दो भाग निकल चुके हैं । लेख कों ने जिस महान परिश्रम से यह कार्य उठाया है उसे देखकर कहना पड़ता है कि अगर यह प्रथ अंत तक सफलता पूर्वक प्रकाशित हो गया तो राष्ट्र-भाषा हिन्दी के गौरव की पूरी तरह से रक्षा करेगा। डाक्टर भास्कर गोविंद घाणेकर, बी० एल० सी०, एम. बी. बी. एस. आयुर्वेदाचार्य, प्रोफेसर आयुर्वेद कालेज, हिंदू विश्व विद्यालय वनारस लिखते है'आयुर्वेदीय कोष का प्रभम विभाग मैंने आद्योपांत देखा । इसके और भी कई भाग निकल चुके हैं । इसका निर्माण करके लेखक द्वय ने वैद्य-समाज के ऊपर अतुल उपकार किया है। यद्यपि ग्रंथ का नाम आयुर्वेदीय कोष है तथापि इसमें आयुर्वेद, युनानी और एलोपैथी इन तीनों चिकित्सा प्रणालियों के सम्पूर्ण विषयों का विवे वन अकारादि क्रम से किया गया है । अर्थात् यह ग्रंथ वैद्यक का ज्ञानकोष है जो लेखक द्वय के अनवरत परिश्रम का फल है । इस प्रकार के एक दो कोष पहले हो चुके हैं। परन्तु उनसे यह कोष अधिक विस्तृत और अधिक उपयोगी है । इसलिये वैद्य महानुभावों से मेरी प्रार्थना है कि वे इस ग्रंथ को खरीद कर अपना ज्ञान बढ़ावें, तथा साहसी लेखक द्वय की उत्साह वृद्धिकर 'एक पंथ दो काज' की कहावत चरिताथ करें। सुधानिधि नामक आयुर्वेद पत्रिका में उसके यशस्वी संस्थापक और सम्पादक, इस ग्रंथ की समालोचना करते हुये लिखते हैं"इसमें आयुर्वेदिक विषयों के साथ ही तिब्बी और एलोपैथी सम्बन्धी शब्दो का भा संग्रह किया गया है। आज तक की खोजों का फल भो इसमें देखने को मिलेगा; अनन्नास जैसे बहुत से नवोन पदार्थों का समावेश भी इसमें मिलेगा। ऐसे वृहत्-ग्रंथों में जो धन-राशि लगती है उसक लगाने का साहस कर पंडित विश्वेश्वरदयालु जी ने आयुर्वेदीय जगत का बड़ा उपकार किया है, सबसे अधिक धन्यगद तो इसके संकलनकर्ता चुनार-निवासी बाबू रामजीतसिंह जी वैद्य और बाबू दलजीतसिंह जी वैद्य को है, जिन्होंने वर्षों परिश्रम कर और जंगल पहाड़ों की खाक छानकर तथा रसायन, भौतिक विज्ञान, जन्तुशास्त्र, वनस्पति शास्त्र, शरीरशास्त्र, द्रव्यगुण शास्त्र, शरीर क्रिया विज्ञान, शवच्छेद, औषध निर्माण, प्रसूतिशास्त्र, ब्यवहार-आयुर्वद, स्त्री-रोग, वालरोग, विषतंत्र आदि के ग्रंथों का आलोचन कर शब्द-संग्रह और उनका अर्थ दिया है। कहीं-कहीं आवश्यक विशद ब्याख्या कर ग्रंथ का महत्व बढ़ा दिया गया है । वैद्यों को इससे अच्छी सहायता मिलेगी।" Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "आयुर्वेदीय विश्व-कोष" के द्वितीय खण्ड के संबन्ध में आरोग्य-दर्पण के संपादक लिखते हैं"इसमें अंक शब्द से लेकर एक्सटै क्टम् "शव्द तक चिकित्सा-विज्ञान में व्यवहृत शब्दों की ब्याख्या की गई है । प्रायः चिकित्सा सम्बन्धी सभी शाखाओं के शब्दों का संकलन अकारादि क्रम से किया गया है और उनकी व्याख्या विस्तृतरूप से की है। आयुर्वेद, यूनानी और डाक्टरी के अनेक विषयों की जानकारी जितनी इस ग्रंथ से हो सकती है उतनी किसी अन्य से नहीं हो सकता। इस ग्रंथ के लेखक और प्रकाशक समस्त वैद्य-समाज के धन्यवाद के पात्र हैं। प्रत्येक वैद्य और वैद्यक संस्था को इसे अवश्य मंगाना चाहिये । यदि वेद्य-समाज उत्साह-वर्द्धन न करे, तो फिर आयुर्वेदीय साहित्य ऐसे ग्रथों से शून्य ही रहेगा। पुस्तक के आकार और उपयोगिता को देखते हुये मूल्य भी उचित ही है। वैद्यरत्न कविराज प्रतापसिंह, प्राणाचार्य, रसायनाचार्य, प्रोफेसर और सुपरिनटेन्डेन्ट ___ आयुर्वेद-कालेज हिंदू विश्व विद्यालय बनारस लिखते हैं "आयुर्वेदीय विश्व-कोष" का द्वितीय भाग अवलोकन किया। यह कोष आयुर्वेद चिकित्सा व्यवसायियों के लिये उपादेय है। विविध प्रकार के चिकित्सा सम्बन्धी-विषयों का संकलन बड़े परिश्रम और अनुसंधान के साथ किया गया है। आशा है बैद्य-समाज इस ग्रंथ रत्न को अपनाकर संकलयिताओं का उत्साह परिवर्धन करेंगे। कलकत्ता के 'जर्नल आफ आयुर्वेद' पत्र के संपादक लिखते हैं In 'Ayurvediya. Vishwa-Kosh' by Babus Ramjit Singh and Daljit Singh ji Vaidya, published from Anubhut Yogmala Office, Baralokpnr Etawah (U. P.), the joint authors have employed monumental labourg in compiling an encyclopoedic dictionary of Ayurve dic literature. Such books are really precious additions to this wealth of Ayurvedic culture, embracing a wide range of comprehensive study. The authors deserve congratulations for the gigantic ventre they have embarked upon, and the first two volsmes that have al ready seen light well justify the high hope thatthe subsequent parts completing the colossal task will, by its successful fulfilment, largely help to facilitate the cultivation of Ayurvedic lore in these days of our sastras. Renaissance couched in the rashtra bhasha of Hindustani the 'kosh' will be of all India utility. Kaviraj M. K. Mukherjee B. A. Ayurvedshastri Journal of Ayurved Calcutta Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजवैद्य पं० रवीन्द्र शास्त्री कविभूषण इस ग्रंथ की समालोचना करते हुये लिखते हैंआयुर्वेदीय विश्व-कोष के प्रथम खंड को मैंने खूब अच्छी तरह देखा है। ग्रंथ के सांगोपांग अध्ययन के बाद मैं इस निश्चय पर पहुँचा हूँ कि वास्तव में यह क्रान्तकारी और अद्वितीय ग्रंथ न है, आयुर्वेदीय निघंटु के साथ ही एलोपेथिक तथा हिकमती निघण्टु का उल्लेब होने से सोने में सुगन्ध हो गई है प्रत्येक शब्द का वर्णन आयुर्वेदिक दृष्टिकोण से होने पर भी साधारण जनता भी इससे बहुत लाभ उठा सकती है, मेरा विश्वास है कि इस पुस्तक के प्रकाशन से आयुर्वेदिक साहित्य के एक प्रधान अंग की पूर्ति हो गई है, जो वैद्य मात्र के लिये अभिमान की बात है। पुस्तक के लेखक महोदयों ने निश्चय ही अपने ज्ञान ओर अन्वेषण का सदुपयोग करके वैद्यों का न केवल हित ही किया है अपितु उनके लिये एक आदर्श भी बना दिया है । पुस्तक के प्रकाशक महोदय ने वास्तव में ऐसे विशालकाय ग्रंथ का प्रकाशन करके अपने सत्साहस और आयुर्वेद प्रेम का परिचय दिया है । मैं लेखक और प्रकाशक दोनों को ही इस सदुद्योग के लिये धन्यवाद देता हूँ। वैद्य मात्र से मेरी यह अपील है कि वह अपनी ज्ञान वृद्धि के लिये पुस्तक की एक प्रति अपने पास अवश्य रक्खें। कविराज शशिकान्त भिषगाचार्य, पूर्व सम्पादक जीवनसुधा इस ग्रंथ की उपयोगिता पर लिखते हैंआयुर्वेद साहित्य में इस प्रकार के महा कोष की निहायत जरूरत थी, जिसके स्वाध्याय से वैद्यक डाक्टरी और यूनानी का पूर्ण ज्ञाता हो सके, यह बात आयुर्वेदीय विश्व कोष से पूर्ण हो सकती ' है, हिंदी में अभी तक ऐसा अभूत पूर्व ग्रंथ नहीं था। यह अभाव भगवान विश्वेश्वर के द्वारा पूर्ण हो रहा है, आयुर्वेद का साहित्य संसार के सब साहित्यों से पिछड़ा हुआ है। जब तक इस प्रकार की ज्ञान वर्धित अनुपम पुस्तकों का निर्माण नहीं होगा, तब तक आयुर्वेद साहित्य नहीं बढ़ सकता। ओ कार्य आयुर्वेद महा मंडल के हाथों द्वारा कभी का समाप्त हो जाना चाहिये था, वह गुरुतर कार्य पं० विश्वेश्वरदयालु जी अपने निर्बल कंधों पर उठा रहे हैं, अत: वे धन्यवाद के पात्र हैं। किंग जार्जस मेडीकल कालेज डिपार्टमेन्ट आफ फार्माकालाजी लखनऊ २३ मार्च सन् १९३६ ई० प्रिय महाशय ! आपने जो अपने 'आयुर्वेदीय कोष' का प्रथम खंड प्रेषित किया, उसके लिये मैं आपको धन्यवाद देता हूँ । इस प्रकार की रचना दीर्घ प्रयास एवं महान योग्यता की अपेक्षा रखती है। मुझे इसमें कोई सन्देह नहीं कि, भारतीय चिकित्सा प्रणाली के प्रेमियों द्वारा यह पूर्णतया अभिनन्दित होगा। मैं आपके इस उद्योग की सफल ना का अभिलाषी हूँ। वी० एन० ब्यास एम० वी०, रायबहादुर, प्रधानाध्यक्ष निघण्टु विभाग विश्वविद्यालय-लखनऊ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ च ] भारत प्रसिद्ध आयुर्वेद मार्तंड, नि० भा० वैद्य सम्मेलनों के सभापति श्री यादव जो त्रिकमजी आचार्य बम्बई लिखते हैं "आपका भेजा हुआ 'कोष' मिला, इस कोष के प्रसिद्ध करने का आपका प्रयत्न स्तुत्य है । शब्दों की व्याख्या इसमें देखने को मिल सकती है। केवल एक ही 'कोष' से अनेक कोषों के रखने की तकलीफ नहीं उठानी पड़ेगी। वैद्यों को इसका संग्रह अवश्य करना चाहिये ।” नि० भारतवर्षीय वैद्य सम्मेलन के भूतपूर्व सभापति लब्धप्रतिष्ठ बयोवृद्ध आयुर्वेदाचार्य श्री पं० गोवर्धन शर्मा छांगाणी आयुर्वेद रत्न, भिषक् केशरी नागपुर से ता० १२-६-३८ को लिखते हैंआयुर्वेदिक भौतिक साहित्य को प्रकाश कर वस्तुतः आपने आयुर्वेद संस्सार को ऋणी बना दिया है। परमात्मा आपको लोमशायु प्रदान करे ताकि फिर भी आप उत्तरोत्तर मौलिक सेवा आयुर्वेद की कर सकें। सम्पादक - नवराज स्थान अकोला । लेखक तथा संकलनकर्ता सर्व श्री रामजीत सिंह जीवैद्य और दलजीत सिंह जो वैद्य प्रकाशक पः विश्वेश्वरदयाल जो वैद्यराज बरालोकपुर इटावा भूल्य ६ ) सजिल्द अजिल्द ५ ) रु० | भारत अनादि काल से अद्भुत विशेषताओं के लिये जगत प्रसिद्ध रहा है । उसने संसार को जहां दर्शन और विज्ञान का आलौकिक संदेश देकर अपना मस्तक ऊंचा किया है वहां वह चिकित्सा विज्ञान में भी सर्वोपरि रहा है। किन्तु धीरे धीरे ये सारी विशेषतायें हमारी मानसिक गुलामी के कारण हम से दूर भाग रही है और हम प्रत्येक क्षेत्र में परावलम्बी बन रहे हैं भारत की आयुर्वेदीय औषधियां अपने गुणों आदि में अपनी सानी नहीं रखतीं वशर्ते कि उनका उपयोग सम्यक् रूप • में यथा विधि किया जाय । 1 प्रस्तुत कोष में रसायन, भौतिक विज्ञान, शल्य शास्त्र आदि आयुर्वेद विषयक हिन्दी संस्कृत और विभिन्न भाषाओं के शब्द उनकी व्युत्पत्ति एवं परिभाषा सहित अकारादि क्रम से परिश्रम पूर्वक संग्रहीत किये गये हैं । अनेक स्थलों पर खोज पूर्ण नोट दिये गये हैं जिन से प्राचीन और श्रवोचीनवैद्यों की अनेक शंकाओं का निवारण सहज ही हो जाता है अ से लेकर अज्ञात यक्ष्मातक लगभग १०२१० से भी अधिक शब्दों का यह उपयोगी कोष प्रत्येक बैद्य के लिये उपयोगी सिद्ध होगा इस में सन्देह नहीं । श्री गणपतिचन्द्र केला, सम्पादक 'धन्वन्तरि' विजयगढ़ (अलीगढ़) से लिखते हैं 66 “ आयुर्वेदीय - कोष" मिला, हार्दिक धन्यवाद ! ऐसा आवश्यक विशाल आयोजन आप उठा , रहे हैं, इसके लिये दोनों ही रचायतागण हमारे हार्दिक धन्यवाद को स्वीकार करें । विश्वेश्वर भगवान ने प्रकाशितकर वैद्य समाज का जो उपकार किया है, वह स्तुत्य है । ऐसे विशद विशाल विशेषोपयोगी ग्रंथ के संकलन में समस्त बैद्य-समाज और संस्थाओं को सहायता देकर उत्साह बढ़ाना चाहिये ।" Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ छ ] सम्पादक 'आयर्वेद संदेश' लाहौर ( १५ सितम्बर १९३४ ई. ) के अङ्क में लिखते हैं "यह कोष अपनी पद्धति का पहिला ही कोष है, जिसमें वैद्यक, यूनानी और एलोपैथी में प्रयुक्त शब्दों के न केवल अथ दिये गये हैं, वरन सम्पूर्ण सर्व मतानुसार व्याख्या की गई है. यथा अश्वगंधा की व्याख्या ५ पृष्ठों में समाप्त की गई है । अर्थात् अस्वगंधा का स्वरूप, पर्याय, अंग्रेजी नाम वानस्पतिक वर्णन, उत्पत्ति स्थान, आकृति, प्रसिद्ध-प्रसिद्ध याग तथा अश्वगंधारिष्ट, अश्वगंधा पाक, अश्वगंधा चूर्ण, अश्वगधा घृतादि, मात्रा, गुण, अनुपानादि सहित एव भिन्न-भिन्न द्रव्यों का शारीरिक रोगों पर सर्वमतानुसार अच्छा प्रकाश डाला गया है, जिससे पाठक पर्याप्त ज्योति प्राप्त कर सकते हैं। इस विस्तृत व्याख्या के कारण ही कोष के प्रथम भाग में जो ६०० पृष्ठों में विभक्त है, १०२२५ शब्दोंका वर्णन है । इस भाग में अनुक्रमणिकानुसार अभी तक 'क' अक्षर की भी समाप्ति नहीं हुई। यदि इसी शैली का अनुकरण अगले भागों में भी किया गया, तो कई भागों में समाप्त होगा। पुस्तक का आकार चरक तुल्य २२४२६-- पेजी है। इसे आयुर्वेद का "महाकोष” समझना चाहिये । संपादक-'आरोग्यदर्पण' अहमदाबाद, जनवरी सन् १९३५ ई० के अंक में लिखते हैं "यह आयुर्वेद का एक अभूत पूर्व महान् कोष है, जो दीर्घ अध्ययन और परिश्रम के पश्चात् लिखा गया है । इस भाग में 'अ' से अज्ञातयक्ष्मा' तक के शब्दों का संग्रह किया है। इस में आयुर्वेद की सभी शाखाओं से सम्बन्ध रखने वाले शब्दों का संग्रह है और शब्दों का केबल अर्थ ही नहीं किया गया, बल्कि विस्तृत विवेचन किया गया है । बास्तव में इसे 'शब्द-कोष' नहीं. 'विश्व कोष' कहना चाहिये और कोष की भांति नहीं, साहित्य ग्रन्थों की भांति पढ़ना चाहिये ! इसमें केवल प्राचीन वैद्यक (भारतीयायुर्वेद ) के ही नहीं, अपितु यूनानी और डाक्टरी के शब्दों को भी संग्रहीत किया गया है। हम इस कोष का हृदय से स्वागत करते हैं और प्रत्येक आयुर्वेद प्रेमी से प्रार्थना करते हैं कि वह इस की एक एक प्रति अवश्य खरीद कर लेखकों और प्रकाशक का उत्साह बड़ावे । यह कोष आयुर्वेद के छोटे से छोटे बिद्यार्थी से लेकर दिग्गज पंडितों तक के लिये भी उपयोगी है। हम इस कोष को इतना उपयोगी समझते है, कि इमे आयुर्वेदिक साहित्य में एक उज्वल रत्न कहने में संकोच नहीं होता। 8. R. चौबे फरुखाबाद, लिनते है"आयुर्वेदीय-कोष" को देख हृदय को अति ही प्रसन्नता हुई। संकलन-कर्ता और प्रकाशक दोनों धन्यबाद के पात्र हैं।" देखिए "स्वराज्य" खडवा, ११ जून सन् १९३५ की संख्या ४१ में अपने कैसे जोरदार उद्गार प्रगट करता है। ___ "इस विषय में आजकल जितने भी ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं, उनमें प्रस्तुत 'आयुर्वेदीय कोष' को ऊँचा स्थान मिलना चाहिये। ग्रन्थकारों ने इस कोष के संकलन में जो परिश्रम किया है, वह सर्वथा प्रशंसनीय है।" Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमान् बाबू जुगलकिशोर जी वड़वानी-सी० आई० लिखते हैं आपका 'आयुर्वेदीय कोष' यह खंड भाग मिला । प्रथम खंड बहुत अच्छा निकला है ।ऐसे कोष के प्रकाशित करने पर आप बधाई के पात्र हैं । वैद्य लेखकों का परिश्रम शतमुख से सराहनीय है।" श्रीमान् पं० आयुर्वेदाचार्य कृष्णप्रसाद जी त्रिवेदी बी. ए. ___ चाँद (सी० पी० ) से लिखते हैं"हमारे मित्रद्वय वैद्यराज, पुरुषसिंहों ने जो परिश्रम किया है और कर रहे हैं, इसके लिये केवल आयुर्वेद ही नहीं, अपितु हिन्दी भाषाविज्ञ समस्त संसार, उनका तथा प्रकाशक महोदय, सर्वमान्य चिकित्सक सैद्यराज पं० विश्वेश्वरदयालु जी का आभारी है । यह केवल 'आयुर्वेदीय कोष' ही नहीं, प्रत्युत 'आयुर्वेदी विश्व-कोष' कहलाने के योग्य है । यद्यपि 'आयुर्वेद' शब्द में इस व्यापक अर्थ का समावेश है तथा लेखकों ने प्रस्तावना में इसका स्पष्टीकरण भी किया है, तथा आधुनिक काल में यह शब्द एक प्रकार से योग रूढ़ अर्थ का ही बोध कराता है । जैसे यद्यपि पंकज' में कीचोत्पन्न समस्त वस्तुओं का समावेश है, तथापि सर्वसाधारणत: 'कमल' के ही अर्थ में उसका उपयोग किया जाता है। तद्वत् 'आयुर्वेद से यद्यपि संसार की सन औषध प्रणालियों का बोध व्यापक अर्थ में होता है, तथापि आर्यों की वेदोक्त प्राचीन निदान एवं चिकित्सा-प्रणाली का ही बोधक है। इसके अतिरिक्त इस ग्रंथ में अकल अकलंक, अकाम, अकुलीन, अखिल, अकुशल इत्यादि कतिपय सर्व साधारण शब्दों का भी अर्थ दिया गया है । इसीसे इस ग्रंथरत्न को केवल 'आयुर्वेदीय कोष' के नाम से पुकारना, उसकी कीमत को घटाना है। अब आगे इस ग्रंथ को 'आयुर्वेदीय विश्व-कोष' इस नाम से प्रसिद्ध करने से इसका विशेष महत्व एवं प्रचार होगा, ऐसी मेरी विनीत सूचना है। बैद्यभूषण श्री हरिनन्दन शर्मा, फलौदी ( मारवाड़ ) से लिखते हैं आपका “कोष" प्राप्त हुआ, धन्यवाद ! इसकी जितनी प्रशंसा की जाय- थोड़ी है। आयुर्वेद क्षेत्र में एक बड़ी पूर्ति हुई है । अभी तक कोई कोष ऐसा नहीं था, जो डाक्टरी व यूनानी तथा अन्य भाषाओं की वैद्यकीय औषधियों के पर्याय गुणादि को प्रगट करें। हमारे शरीर की रचना के यशस्वी लेखक स्वर्गीय डा० त्रिलोकीनाथ जी वर्मा L M.S. सिविलसर्जन जौनपुर, लिखते हैं निस्संदेह आपका कोष' एक अत्यन्त उपयोगी ग्रन्थ है। प्रत्येक चिकित्सा प्रेमी को इस से लाभ उठाना चाहिये।” ग्रंथ के इस तृतीय खंड में 'क' वर्ण से प्रारम्भ होने वाले प्रायः सब शब्दों का अर्थ बड़ी गवेषणापूर्ण दृष्टि से लिखा गया है। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीधन्वन्तरयेनमः आयुर्वेदीय विश्व-कोष (ए) एक्सट्रक्टम-रहीयाई एक्सरे एक्स्ट्रक्टम्-रहीयाई-ले० Extractum-Rhei] Sennae Liquidum ] सनाय का तरल उसारहे-रावन्द । रेवन्दचीनी का सत । दे० : : सार । दे० "सनाय" । "रेवंद"। | एक्स्ट्रक्टम्-सिमिसिफ्युगी-लिक्विडम्स ले० Exएक्स्ट्रक्टम्-लेप्टैंड्री-[ले. Extractum Lep-| tractum Cimicifugae Liqui tandrae ] लेप्टैण्ड्रा का सत । दे० "लेप्- dum ] सिमिसिफ्युगा का तरल सार । दे. टैंड्रा"। "सिमिसिफ्युगा"। एक्स्ट्रक्टम् लेपटैण्डी-लिकिडम-ले. Extrac / एक्स्ट्रक्टम्-सिसेम्पेलियाई-लिकिडम-[ ले० Ext tum-Leptandrae-Liquidum ] लेप ractum-Cissampelii-Liquidum] टेंड्रा का तरल सत्व । दे. "लेप्टैंड्रा"। पाठा-तरल सत्व । दे. “पाठा'। एक्स्ट्रक्टम्-ल्युप्युलीनाई-फ्लुइडम्(लिकिडम्)-[ले० | एक्स्ट्रक्टम्-स्टे मोनियाई- ले० Extractum Stramonii ] विदेशी धतूरा का सत । दे. Extractum-upulini-Fluidum ] | "धतूरा"। "हशीशतुद्दीनार का तरल सत्व"। एक्स्ट्रक्टम्-स्ट्रोफैन्थियाई-[ ले० Extractumएक्स्ट्रक्टम्-वाइबर्नाई-धूनीफोलियाई-[ ले० Ex- Strophanthii ] स्ट्रोफैन्थस का सत । दे० tractum-Viburni Prunifolii ]| "स्ट्रोफैन्थस"। श्रीपर्ण सत्व। ले० Extractumएक्स्ट्रक्टम् वाइबाई पुनीफोलियाई लिकिडम- Hydrastis ] पीतमूल सत्व । दे. "हाइड्रा[ले. Extractum-Viburni Pruni ष्टिस"। folii-Liquidum ] अमेरिकेय श्रीपर्ण का एक्स्ट्रक्टम्-हाइड्राष्टिस-लिकिडम्-[ ले० Extraतरल सत्व। ctum-Hydrastis-Liquidum ] ftaएक्स्ट्रक्टम्-साइप्रिपीडीयाई-फ्लुइडम्- ले० Ex. मूल-तरल-सत्व । दे० "हाइड्राष्टिस"। tractum-Cypripedii-Fluidum 1/एक्स्ट्रक्टम्-हायोसायमाई-विरीडी-ले० Extraअमेरिकेय जटामांसीका तरलसत्व । खुलासहे-सुम्बुल | ctum-Hyoscyami-Viride ] पारसीकअमरीकी-सय्याल । यमानी का हरित सत्व । अजवायन खुरासानी का हरा सत । दे. "अजवाइन-खुरासानी"। एक्स्ट्रक्टम्-सास-लिकिडम्-[ ले० Extractum, " एक्स्ट्रक्टम्-हीमेटॉक्सिलाई-लिकिडम्- ले० Ex. Sarsae-Liquidum ] उश्बामग़रबी का | tractum Haematoxyli Liquidतरल-सत्व । um ] अमेरिकेय-पतंग का तरल सत्व । दे. एक्स्ट्रक्टम्-सिंकोनी-लिकिडम्-(ले० Extractum "पतंग"। Cinchonae-Liquidum ] सिंकोना का | एक्स-रे-संज्ञा स्त्री० [अं॰ X-ray] विद्युत्से उत्पन्नकी तरल-सार । दे० "सिंकोना"। हुई एक प्रकार को रश्मियाँ जो अस्वच्छ वस्तु, जैसे एक्स्ट्रक्टम्-सेनी-लिकिडम्- ले० Extractum- लोहा, लकड़ी प्रभृति के भी वार-पार जा सकती Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक्सरे हैं । यद्यपि इन किरणों को हम अपनी आँखों से नहीं देख सकते, तथापि इनके गुणधर्म जाने जा सकते हैं। एक्स - रश्मियों का एक विशेष धर्म यह है, कि जब यह रश्मियाँ कुछ विशिष्ट पदार्थों पर पड़ती हैं, तब वे प्रकाशमान् होने लगते हैं। उन पदार्थों में से एक सोडियम् का काँच ( ऐसा काँच जिसके संघटन में सोडियम् का समावेश किया गया हो ) है । इस काँच से प्रायः एक्स-रश्मियों को लकियाँ प्रस्तुत की जाती हैं। जब इन नलकियों के भीतर किरण का श्राविर्भाव होता है, तब वे उक्त लकी के पार्श्व पर भीतर की ओर पड़ती हैं । इस तरह काँच प्रकाशमान हो जाता है और ऐसा ज्ञात होता है, कि एक्स - रश्मियाँ नलकी से निकल रही हैं। १७४६ इन रश्मियों का ज्ञान प्राप्त किये अभी कुछ अधिक काल तो नहीं हुआ । कहा जाता है कि सन् १८६५ ई० में जर्मनी के एक प्रमुख वैज्ञानिक रांटजन ( Rontgen ) को अकस्मात् इसका ज्ञान हुआ । वे एक दिन अंधेरे कमरे में कतिपय ऐसी नलकियों से परीक्षण कर रहे थे, जिनमें वायु चाप कम होता है । उन्होंने देखा कि प्रयोग- काल में कतिपय प्लेटें प्रगट ( Expose ) हो गई हैं। चूँकि कमरा तमसाच्छन्न था । अस्तु, वह आश्चर्यचकित थे कि उन प्लेटों पर प्रकाश कहाँ से पड़ा, जिससे वे प्रकाशित हो गई हैं। अंततः अन्वेषण करने के उपरांत उन्हें इस बात का पता लगा कि बे किरणें नलकियों से निकल रही हैं । चूंकि ये रश्मियाँ पहले अज्ञात थीं । अस्तु, उन्होंने इनको एक्स-रेज़-एक्स- रश्मि वा ( लाशुअ) नाम से अभिहित किया । कभी-कभी इन्हें इनके अनुसंधानकर्ता के नाम पर रांटजनीय किरण भी कहते हैं । किसी द्रव्य में एक्स - रश्मियों के व्याप्त होने की क्षमता उसके विशिष्ट गुरुत्व के अनुकूल होती है । जितना कोई द्रव्य अधिक घन होता है, उतनी ही एक्स - रश्मियाँ उसमें न्यून प्रवेश कर सकती हैं । अस्तु, ये काष्ठ में ६ इञ्च तक प्रवेश कर जाती हैं । किंतु लौह में 11⁄2 इंच की मोटाई मात्र में से ही गुज़र सकती हैं। एक्सरे एक्स-रेज़ के इस विशेष गुण के कारण हम मानव शरीर की आभ्यंतरिक स्थिति का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं । अस्थि का विशिष्ट गुरुत्व मांस htra धक है । इसलिये एक्स - रश्मियाँ मांसादि में से भेदन कर जाती हैं और शरीर के भीतर की अस्थियाँ स्पष्टतया नज़र आने लगती हैं। वर्तमान युग में चिकित्सा एवं शस्त्रकर्म में इन एक्स-रश्मियों से बहुत सहायता ली जाती है । इनसे यह निःसंदेह ज्ञात हो जाता है कि शरीर के तर अस्थि भंग हुई है वा नहीं और यदि भंग हुई है, तो किस जगह । इस प्रकार यदि किसी व्यक्ति को गोली लगी हो, तो एक्स-रश्मियों से यह जाना जा सकता है कि गोली किस स्थान में स्थित है | यदि कोई शिशु सिक्का, सूई वा पिन प्रभृति निगल गया हो, तो उनको देखा जा सकता है । श्रान्त्रिक शोथ और श्रामाशयगत नासूर को भी मालूम किया जा सकता है । इनसे यह भी देखा जा सकता है कि फुप्फुस रोगाक्रान्त हैं वा नोरोग | इसके सिवा वृक्क, गवीनोद्वय, वस्ति पित्ताशय इनको पथरियों एवं महाधमन्यबुद और श्रामाशय - श्रान्त्रावरोध के निदान में एक्सकिरणों से सहायता ली जाती | वर्तमान समय में कतिपय डाक्टरों ने एक्स- रश्मियों के साहाय्य से गर्भगत शिशु को विभिन्न अवस्थाओं का भी निरीक्षण किया है। 1 कि चिकित्सक यह भी स्मरण रखना चाहिये वा शस्त्रकर्म करनेवाला वैद्य प्रायः एक्स-रश्मियों की सहायता से शरीर के भीतर का परीक्षण नहीं करता; वरन् उनके द्वारा फोटो के चित्र ले लेता है । इसका एक कारण तो यह है कि प्रकाश-पट के द्वारा देर तक परीक्षण करना रोगी के लिये भयावह हो सकता है । दूसरे परीक्षण की दशा में मापविषयक कल्पना ठीक नहीं उतर सकतो । जर्राह वा शस्त्र-चिकित्सक मानवी देह के जिस भाग का चित्र लेना चाहता उसको वह सेंसिटिव प्लेट पर स्थापित कर देता है । उसके ऊपर फुट की दूरी पर एक्स - रश्मियों की नलकी होती है जिसको तुब्ध करके प्लेट को एक्सपोज़ किया जाता है, जिससे अस्थियों की बनावट और स्थानानुकूल Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एखण्ड १७४७ एग्रोपाइरम् एक्स-रश्मियों की मात्रा प्लेट पर असर करती है।।। मन-[अं॰ egg-plant, commपुनः इस प्लेट को अंधेरे कमरे में ले जाकर लाल- on ] जंगली बैंगन । वृहती । वनभंटा । प्रकाश के सामने उसका परीक्षण किया जाता है, एगलांट, सिलिण्डिकल-[अं॰ egg-plant, जिससे प्लेट पर अस्थि, मांस, त्वक् श्रादि का चित्र cylindrical ] कौलो बैंगन । लंबा भंटा । बन जाता है। एगफ्लिप-[अं॰ egg-flip] मद्यांड प्रपानक । एक्स-रश्मियों से चिकित्सा में भी सहायता | दे. "एलकोहल'' प्राप्त की जाती है । कतिपय त्वग् रोगों में इसका | एगिस-[ते०] विजयसार । पीतशाल । उपयोग अतीव हितावह प्रमाणित हुआ है। कंडू एगेथीन-[अं॰ agathin] एक औषध जिसकी सफ़ेद रोग में जब कोई अन्य चिकित्सा-विधि कल्याण- वा हरिदाभ श्वेत कलमें होती है, जो जल में नहीं कारी सिद्ध नहीं होती, तब एक्स-रश्मियों से प्रायः घुलतीं । दे० 'एसिडम् सैलिसिलिकम्” । लाभ होता है। विचर्चिका और चंबल वा अपरस | एगैट-[अं. Agate] एक प्रकार का बहुमूल्य में भी इनका प्रयोग उपयोगी सिद्ध हुआ है। पत्थर। विशेषतः हथेली और तलवे के रोगों में इसका | एगौरिक-[अं० Agaric ] दे. "अगारिक । उपयोग अति ही गुणकारी है। दद्, मांसाशी, | एग्ज़ाइल (येलो) ऑलियण्डर-[अं॰ exile व्रणों और प्रामाशयिक रोगों में भी इनका उपयोग (yellow) oleander ] पीला कनेर । हितकर प्रमाणित हुआ है। दूषित अर्बुद रोगों में पीत करवीर । भी इसका प्रयोग किया जाता है। सबसे विचित्र एग्जिलेरेंट-[अं० exhilarant ] आह्लादकारक । बात तो यह है कि न इनसे केवल वाह्य शरीर के । उल्लास-जनक । हर्वोत्पादक । मुफ़र्रिह । समीपवर्ती अबुदों में लाभ हुआ है, अपितु | एग्ज़कम्-[ ले० exacum ] दे॰ “एक्सेकम्" । शरीराभ्यंतरीय अबु'दों पर भी प्रभाव पड़ा है। एग्जोलस-पॉलिगेनम्-[ ले. exolus polygएक्स-रश्मियों द्वारा कर्कट-चिकित्सा विशेष ख्याति anum ] चौलाई। प्राप्त कर चुकी है। यदि रोगारम्भ में ही उसका एग्नाइन-[अं० agnine ] दे॰ “एडेप्सलेनी" । ठोक निदान हो जाय, तो शस्त्रकर्म ही श्रेष्ठतर | एग्यु- अं० ague] मैलेरिया ज्वर । विषम ज्वर । उपाय है। उक्त अवस्था में शस्त्र-कर्म के उपरांत ! एग्युरीन-अं० agurin ] एक प्रकार का सूक्ष्म एक्स-रश्मियों का उपयोग कल्याणकर होता है। चूर्ण, जो एक भाग, २ भाग जल में सरलतापूर्वक किंतु जब उसके निदान में विलम्ब हो वा किसी घुल जाता है । यह सोडियम् एसिटेट और थियोअन्य कारण से शस्त्र-कर्म असम्भव हो, तब एक्स- ब्रोमीनका एक यौगिक है। रश्मि-चिकित्सा हो श्रेष्टतर चिकि सा है। उक्त मात्रा-७ से १५ ग्रेन तक । सभी रोगों में एक्स-रश्मियाँ विकारी स्थल पर एग्य-वीड-अं० Ague-weed] (Grindelia डालो जाती हैं। परन्तु इस बात का ध्यान रखा Squarrosa ) दे. “ग्रिण्डेलिया" । जाता है, कि विकारशून्य शरीरांग सुरक्षित रहें। एग्रिमनी-[अं० Agrimony ] एक प्रकार का एखण्ड-[को०] acorus calamus वच। एखनी-संज्ञा स्त्री० [फा०] मांस का रस। मांस का | एग्रिमोनिया-युपेटोरियम्-(ले० Agrimoniaeuशोरबा । यखनी। मांस-रस । ___patorium, Linn.] ग़ाफ़िस । शत्रूतुल बरागोस । एखर-सं० अहिखर ] तालमखाना । कोकिलाक्ष । एखरो-[ गु० ] तालमखाना (बीज)। | एग्रोपाइरम्-[ ले० Agropyrum ] पर्याएस-[अं॰ egg ] (पक्षी आदि का) अंडा । एग्रोपाइरम् रीस Agropyrum Repeएगसांट-[अं॰ egg-plant] बैंगन । भंटा । ns, ट्रिटिकम् रीस Triticum Repens | (ले०)। कौचग्रास couchgrass, डाँग ग्रास भटा। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एप्रोपाइरम् १७४८ Dog.grass (अं०)। ग्याहसग (फा०)। (अं०)। श्वतृण की तरल रसक्रिया । खुलासहे श्वानतृण, कुत्ताघास-हिं० । हशीशतुल कल्ब- हशीशतुल कल्ब । सय्याल उसारा ग्याह सग। अ०। निर्माण-विधि:-एग्रोपाइरम् का नं० २० तृण वर्ग का चूर्ण २० श्राउंस, एलकोहल (१००) और पानी आवश्यकतानुसार । पहले चूर्ण को (N. 0. Graminaceae) तीन बार करके १०० पाउंस खौलते हुए पानी में उत्पत्तिस्थान-यह घास प्राष्ट्रलिया तथा पूरबी पकाएँ अथवा किंचित् उष्ण स्थान में देर तक तथा उत्तरीय अमेरिका के उपनिवेशों में उपजती है। भिगो रखें और इससे जो द्रव प्राप्त हो, उसे इतना इस घास की जड़ औषधार्थ व्यवहार में आती है। आँच पर उड़ाएँ, कि १५ अाउँस द्रव अवशिष्ट रह इसे वसंत-ऋतु में इकट्ठा करते हैं और इस पर से जाय । फिर उसमें ५ अाउँस एलकोहल मिलाकर तंतु श्रादि पृथक् कर लेते हैं। उसे छान लें। जड़-हलके पीत वर्णके से 1 इंच लंबे टुकड़े, मात्रा-१ से २ फ्लुइड डाम-(२ से धन जिनका व्यास प्रायः - से - इंच तक होता है । शतांशमीटर) १२ १० प्रत्येक टुकड़े को लम्बाई में एक रेखा होती है गुण-धर्म तथा प्रयोगऔर वह मध्य से खाली होती है । इसमें से किसी यह एक उत्कृष्ट स्निग्धतासम्पादक ( Dem. प्रकार की गंध नहीं पाती. स्वाद किंचित् मधुर uleent) और मूत्र-प्रवर्तक श्रौषध है। इसको होता है। इसमें से गोंद की तरह एक सत्व निक अधिकतर वस्ति-प्रदाह और पूयमेह में देते हैं। लता है, जिसे ट्रिटिसोन ( Triticin ) अर्थात् नोट-कहते हैं कि इसकी ताजी जड़ में ही श्वतृण सत्व कहते हैं। उक्न गुण वर्तमान होता है । सूखी जड़ उक्न गुण से हीन होती है। सम्मत योग एग्रोपायरोन-रीपेंस-[ ले० Agropyron (Official preparations) Repens, Beauv. ](Couch-grass) (१) डिकॉक्टम् प्रोपाइराई-Decoctum | श्वानतृण । दे० "एग्रोपाइरम्" । Agropyri (ले०)। डिकॉक्शन ऑफ एग्रो- | एजल-[ते. ] तेलनी मक्खी । पायरम् Decoction of Agropyrum | एजिलैप्पालै-ता०] (Alstonia Schola(अं० ) । श्वतृण काथ । जोशाँदहे हशीशतुल्- | ris. Br.) सतिवन । सप्तपणं । छातिम । कल्ब- (१०) । जोशाँदहे ग्याह सग-(फा०) एजीसेरास-ग्रेटर-[अं० Aegi-) निर्माण-विधि-एग्रोपाइरम् अर्थात् कौचग्रास ceras greater. (एक प्रकार का की जड़ के छोटे-छोटे काटे हुये टुकड़े १ पाउंस एजीसेरास-मेजस-ले० Aegi. | पेड़। हलसी। ceras majus] और पानी २० फ्लुइड पाउंस । दवा को पानी में एटिपाल-[ते. ] पानी जमा । जल जमनी । छिरेहटा । १० मिनट तक कथित करें । पुनः शीतल होने पर छिलहिँड । सेवटा। छान लें। एटिपुच्च-[ते. ] इन्द्रायन । इन्द्रवारुणी । मात्रा-1 से २ फ्लुइड ग्राउंस=(१५ से ६० एटोट-[ले० ] एक प्रकार की ओषधी । घन शतांशमीटर) एटोम-संज्ञा पु० [अं० Atom ] परमाणु । प्रभाव-मूत्रप्रवर्तक । एट्रोपा-[ले. Atropa ] दे॰ “ऐट्रोपा" । (२) एक्स्ट क्टम् एग्रोपाइरी लिक्विडम् एट्टिक-कोट्टै- ता० ] कुचिला । कारस्कर । विषमुष्टि । Extractum Agropyri Liqidum एड-वि० [सं० त्रि० ] बधिर । बहिरा । श्रमः । (ले०)। लिक्विड एक्स्ट क्ट ऑफ एग्रोपायरम् । । संज्ञा पु० [सं० पु.] मेष । मेढ़ा । भेड़ा । Liquid Extract of Agropyrum | संज्ञा स्त्री० [सं० एडूक हड्डी या हड्डी की तरह Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एड़क (काख्य ) १७४६ एडिकोल छातिम । एडाकुल-पोन्न- कड़ाखनी के पीछे पैर की गद्दी का निकला हुआ उपलब्ध होती है । यह पदार्थ उपवृक्त के अंतःस्थ भाग । एड़ी। पार्णि। भाग में बनता है। यह अत्यन्त उपयोगी वस्तु है संज्ञा पुं॰ [पं०] भूटिया बादाम । लदाखी जो पिंगलनाडीमंडल का उत्तेजक है। वि० दे० बादाम (अल्मो०)। मे० मो० । "ग्रन्थि सत्व"। एड़क ( काख्य)-संज्ञा पु० [सं० पु.] [स्त्री० एडर्स-टङ्ग, पिंडिंग-[अं० Adder's tongue, एड़का] (१) पृथु शृङ्ग मेष । winding ] भूतराज। (Ophiogloss"एडकः पृथुशृङ्गः स्यान्मेदः-पुच्छस्तु दुम्बकः । __um Flexuosum.) एड़कस्य पलं ज्ञेयं मेषामिष समं गुणैः ।। एडहस्ती-संज्ञा पु [सं० पु.] चकवड । चक्रमई । मेदः पुच्छोद्भवं मांसं हृद्यं वृष्यं श्रमापहम् । एडाकुल-अरिटि-) पित्तश्लेष्मका किञ्चिद्वातव्याधि विनाशनम्" ॥ एडाकुल-पाल- ( [ते.] सतिवन । ससपर्ण । (भा० पू० १ भ० मांस व० । (२) बनेला बकरा । जंगलो बकरा । त्रिका०। (३) एक प्रकार का तृण । होगला । एडाकुलपुन्ना-[ते. ] विवरणस.चि०७ अ. । (४) मजीठ । मंजिष्ठा। सेमल के वृक्ष की तरह का एक पेड़ एडकघृत-संज्ञा पु[सं० क्लो] भेंड़ का घो। जिसको प्रत्येक टहनी पर ७-७ पत्तियाँ होती हैं। गुण-अत्यन्त भारी होने के कारण कोमल पत्तियों के दो-दो जोड़े होते हैं। हरएक के सात प्रकृति के लोगों के लिये वर्जित है । यह बुद्धि को कंगूर होते हैं। सात शाखाओं से अधिक नहीं परिपक्क करनेवाला और वलकारक है । रा. नि. होती । पुष्प तुर्रे को भाँति और उससे बड़े होते व०१५। हैं। इसमें से सुगंधि पाती है। इसकी पत्तियाँ एड़कनवनीत-संज्ञा पु० [सं० वी० ] भेंड़ का प्रशस्त पीले रंग की एवं मनोहर होती हैं। मक्खन । सप्तपर्ण । छातिम । गुण-शीतल, लवु, कषाय, हृद्य, गुरुपाकी, प्रकृति-उष्ण । पुष्ट, स्थूलताकारक एवं मंदाग्नि दीपन है । रा. गुण, कर्म, प्रयोग-यह कफनाशक एवं नि० व. १५ वमन-प्रशामक है। खाज, फोड़े-फुन्सी एवं एड़का-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री ] भेंड़ । मेषी। श्र० पैत्तिक रक-दोष में लाभकारी है। तजकिरतुल्हिन्द टी०रा०। के लेखक के वचनानुसार इसमें युग्म पत्र नहीं एडकुल-पाल-[ते. ] सप्तपर्ण । सतिवन । छातिम । होते । वे इसे अम्ज कषाय एवं तीक्ष्ण बतलाते एडग-संज्ञा पु० [सं० स्त्री० ] भेंड़ । मेष । हैं यह वात विकार एवं कफनाशक है । यह खुनाक एडगज (जा)-संज्ञा पु०, स्त्री० [संज्ञा पु०, स्त्री.] एवं खनाजीर (कंठमाला) प्रभृति कंठरोगों में (१) चकवड । चक्रमई तुप | पमाड़ । रा०नि० लाभकारी है। इसका फल ग्राही एवं गुरुपाकी व०५ । भा० पू० १ भ० सोमराज तैल । च. है। यह कफ दोष को भी निवारण करता है। सू० ३ अ०। धन्व० निघः । (२) वन्य एला। ख० अ०। जङ्गली इलायची। च० द. कुष्ठ-चि०। नोट-एडाकुलपुन्ना "एडाकुलपोन" तैलंगी एडग-मांस-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] भेंड़ का मांस । शब्द का अपभ्रंश है जो सप्तपणं का तैलंगी एइमू-वि० [सं. वि.] (१) वधिर । बहरा। पर्याय है। (२) गूंगा और बहिरा (पुरुष)। वाक् श्रुति एडापण्ड-[ते. ] सदाफल । चकोतरा नीबू । वर्जित । मे० कचतुष्क । एडिएण्टम्-[ ले० Adiantum ] हंसराज । एडरीनलीन-संज्ञा स्त्री॰ [अं० Adrena. in ] | दे० "अडिएण्टम्"। एक प्राणिज औषधि जो उपवृक्क नामक प्रन्थि से एडिक्कोल-ते. ] चाकसू । चश्मीज़ज । . Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एडिब्ल-डेट १७५० एण एडिब्ल-डेट-[अं० Edible date.] खजूर। रोम, खेचर जीवों के परों और अन्य जंतुओं के एडिब्ल-पाइन-अं० Edible pine] सनोबर । विविध अंगों में पाया जाता है। एडिब्ल-माँस-[अं० Edible moss ] काई । एडेप्स लेनी हाइड्रोसस-[ ले० Adeps Lanae एडिठल-हिबिस्कस-अं० Edible hibiscus]] _hydrosus ] उदोर्ण वसा । सजल ऊर्ण वसा । रामतोरई। __ ऊन की पानीवालो च:। हाइड्स बल फैट एड़ी-संज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे॰ “एड" । | Hydrous wool-fat, लैनोलीन Linoएड्क-वि० [सं० वि.] बधिर । बहिरा । मे। | lin, एग्नोन Agni -अं० । दे. “ऊन" । एडूनाइडो काहिदीन-[अं. Adonido qu- | एडेप्सीन-[ अं० Adepsine ] दे ercitrin ] एक प्रकार का नारंगी रंग का | ___“पेट्रोलियम्"। क्रियात्मक सत्व जो अडूनिस से प्राप्त होता है। एडेप्सीन-[अं० Adepsine ] दे॰ “पेट्रोलियम्" । एडूनिस-ले० Adonis ] दे॰ “अडूनिस” एडेप्सोन ऑइल-अं० Adepsine oil ] दे० एडेन-एलोज-अं० Aden Aloes ] अदन | "पैराफीन लिक्विडम्" । देश में होने वाला एक प्रकार का घोकुबार। एडेलिया काष्टाइना कापा-[ ले० Adelia Castएडेनैन्येरा-पलो फ्लावडे-अं० Adenanth- | ina carpa ] बौल कूकरी। era yellow flowered ] रक्त चन्दन, एडेलिया चेष्ट-नट लाइक-[ अं० Adelia, लाल चन्दन । ___chest-nut like.] बौल कूकरी । एडेनन्थेरा-पेवोनिया-ले० Adenanthera | एडरू-अं० Adrue] (Cyperus Articulpavonia] लाल चन्दन । atus) एक प्रकार का मोथा । एडेप्स-[ ले. Adeps ] सूअर को चर्बी । एढीसिव-साष्टर-[ अं० Adhesive plasशूकर वसा। ter.1( Emplastrum Resinae ) एडेप्स इण्ड्योरेटस-[ ले० Adeps Indurat राल का स्तर । दे० "राल"। us ] ( Indurated Lard ) दृढ़ीकृत | एण-संज्ञा पुं० [सं० पु.] [स्त्री० एणी ] शूकर वसा । सख़्त को हुई सूअर को चर्बी । (१) हरिण । हिरन । रा. नि. व. १६ । दे. “सूबर"। (२) हिरन को एक जाति जिसके पैर छोटे एडेस प्रिपेयरेटस-[अं. Adeps prepar और आँखें बड़ी होती हैं। यह काले रंग का होता है । यह जङ्घाल जातीय मृग है। कस्तूरी ___atus ] प्रिपेयर्ड लाडे । दे. “सूअर"। मृग । कृष्ण मृग विशेष । हरिण । रा० निः। एडेप्स बेंजोएटस- ले. Adeps benzo कृष्ण सार हिरन । करसाइल हिरन । ( Antiatus.] लोवानाक शूकावसा। सूअर को lope cervicapra, Linn.)Indian लोबानदार चर्बी । दे० "सूअर"। Antilope or Black Buck. एडेप्स माइरिष्टिको-ले० Adeps myris- गुण, प्रयोग-मांस कसैला, मधुर, हृद्य, रका ticae.] जायफल का तेल । पित्त तथा कफवातनाशक, रुचिप्रद, धारक और एडेप्स-लेनो-[ ले. Adeps lanae ] ऊन की वत्य है । सु० सू० ४६ अ० । भा० पू० १ भ० । च: । ऊणं-वसा । दे, “ऊन"। ज्वर में इसका मांस विशेष रूप से प्रशस्त माना एडेप्स लेनो अन्हाइदोसत- ले. Adeps La- जाता है । ( चक्रपाणि) यह हलका, शीतल, nae anhydrosus] अनुदोर्ण वसा । जल वृष्य, त्रिदोषनाराक, पड्स-उत्पादक, और रुचिशून्य ऊन को चों । अन्हाइड्स बूनकैट Anh- कारक है । रा० नि० २० १७ । सोंगवाले जानydrous wool-fat यह विशुद्ध को लेष्ट्रोन वों में हिरन श्रेष्ठ है और इसका मांस बलदायक अर्थात् भेड़ के ऊन की चर्चा है जो मानवो त्वचा, रुचिकारक, दीपन, त्रिदोषनाशक, हलका, पाक Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक मैं मधुर और ज्वरवाले रोगी को क्षतक्षय, अर्श, पाण्डु, अरोचक से कास - श्वास रोगी को एए-मांस होता है । त्रि० । एणक—संज्ञा पु ं० [सं० पु ] ( १ ) हिरन । हरिण श० ० । (२) काला हिरन । कस्तूरी मृग । कृष्णसार । करसायन । एका -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] हिरन । हिरनी । १७५१ हितकारी है । पीड़ित और सुखकारी मृगी । मादां एणाजिन-संज्ञा पुं० [सं० क्ली० ] मृगचर्म । मृग मृगी । मादा छाला । हिरन का चमड़ा । एणी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० हिरनी । एणीदाह-संज्ञा पु ं० [सं० पु ं० [ एक प्रकार का सन्निपात ज्वर । भा० पू० १ भ० । एणीपद - संज्ञा पुं० [सं० चित्तीदार साँप । सु० दे० "साँप” । एग्रीपदी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] मकड़ी वा लूता का एक भेद । इसके काटने से मृत्यु होती है । इसका काटा रोगी असाध्य होता है । सु० कल्प ० ८० दे० " मकड़ी” । पु० ] मण्डली सर्प । कल्प० ४ श्र० 1 एण्टरिक - [ श्रं० Enteric ] दे० " टायफायड " । एण्डु - द्राक्ष - पण्डु - [ ते० ] किशमिश । मुनक्का । दे० " अर" | एड्राकनी कॉर्डिफोलिया – [ ले० Andrachne cordifolia, Mil.] कुरकनी । गुगुली । ( पं० ) । ए - [ मल० ] [ बहु० एरण कल ] तैल । तेल । एरणेय - [ ता० ][ बहु० एण्यगल ] तैल । तेल । श्वास | हे० च० । एतश—संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( १ ) घोड़ा (२) ब्राह्मण । एता - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (१) मृगी । एनलजन हरिणी । मादा हिरन । वै० निघ० । (२) खजूर 1 का पेड़ । एतोक - [ लेप०, हज़ा० ] छान | मे० मो० । एतोलीस - [ यू०] एक प्रकार की प्रसिद्ध बूटी | एत्थुः - [ कना० ] गो । गाय । बैल | एथिडीन - [ श्रं० Ethidene ] एथीडीन बाई 11 मात्रा - ६ मा० से १ तो० १॥ मा० तक । ( ख़० अ० ) एधतु-संज्ञा पु ं० [सं० पु ] पुरुष । श्रादमी | एधिता - वि० [सं० क्रि० ] वर्धमान । बढ़नेवाला । एत - वि० [सं० त्रि० ] [स्त्री० एती ] कर्वर वर्ण । एन - [ श्रु बहु० ] [ ए० व० ऐ नाय् ] वे स्त्रियाँ जिनकी चितकबरा रंग | सुन्दर हों। एतन - संज्ञा पुं' [सं० पु० ] निश्वास ! वर्हिमुख एनलगेसिक - [ श्रं Analgesic ] दे० "अङ्गमई प्रशमन" । क्लोराइड | एद - [ श्र० ] दम्मुल अवैन । दे० "ऐदश्रु” । एदमामीद - [ सुर० ] एदमामी - [] विवरण - "बहरुल्जवाहर " के अनुसार एक प्रकार का वृक्ष जिसकी डालियों पर ऊन की भाँति एक चीज़ होती है। बुर्हानमें कहा है कि यह एक वृक्ष है, जो बाहर से देखने में ऊन की तरह होता है । मख़्ज़न के अनुसार इसका रंग हरियाली लिए होता है । इसमें शाखाएँ बहुत होती हैं और यह अन्य जंगली वृक्षों पर पैदा होता है। तनकाबन में यह "वाख़ज" कहलाता है । टिप्पणी- बुर्हानक़ाति और बहरुल्जवाहर में इसे "एदमामीद" लिखा है । बुर्हान के अनुसार यह सिरियानी भाषा का शब्द है । प्रकृति - शीतल एवं रूत । गुण-धर्म-प्रयोग — यह ग्राही और अतिसार नाशक है । इसको जलाकर या बिना जलाये हुये ही क्षत स्थान पर छिड़कने से यह रक्तस्राव को बंद करता है। इसकी जलाई हुई राख फोड़ों पर लगाने से अत्यन्त लाभ होता है । एनलजन-संज्ञा पुं० [० Analgen] एक सफ़ेद स्फटिकी निर्गन्ध तथा स्वादरहित चूर्ण जो रासायनिक संघटन तथा गुणधर्म में फेनेसेटीन के तुल्य Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एनल्जेसीन १७५२ एनिमापर्गेटिव है। किंतु इसमें फेनोल की जगह कोईनोलीन का निक संघटन अस्थि जैसा होता है। इसको हिंदी आँकड़ा होता है। भाषा में रुचक वा दन्तवेष्ट भी कहते हैं। पाय-एनलजीन Analgen,बेंजएनल- एनासाइक्लस पाइरीथम-[ ले. Anacyclus जीन Benzanalgen, किनलजीन Quin- pyrethrum , DC. ] अकरकरा । श्राकारalgen ( अं०)।अवसन्तीन (हिं०)। मुखद्द | करभ । रीन-(अ.)। एनिमल चारकोल-[अं० Animal charcoal] घुलनशीलता-यह पानी में नहीं घुलता, जांतविक अंगार । हड़ी का कोयला । ईथर में भी भली भाँति नहीं घुलता, शीतल या | एनिमल जेलाटीन-[ Animal gelatin ] उष्ण मद्यसार में भी बहुत कम घुलता हैकिन्तु | जांतविक सरेश। कोरोफॉर्म में किसी प्रकार अधिक अंश में घुल एनिमल बाथ-[अं० Animal-bath ] किसी जाता है। अवयव के स्वेदनार्थ स्नान का एक भेद ।यह अत्यंत प्राचीन और मनुष्य को असभ्यता के युग के गुणधर्म तथा प्रयोग स्नान की एक विधि है । अब भी अरब, अजम, वेदनास्थापक रूप से इसको वातज वेदना अफगानिस्तान और तुर्किस्तान इत्यादि प्रदेशों की (Neuralgia), गृध्रसी ( Sciatica), सोमाओं पर स्वेदनार्थ विविध रोगों में इसका अविभेदक (Hemicrania) और कास व्यवहार होता है। जांतव स्नान। गुसले (Bronchitis) इत्यादि में कोई २ चिकित्सक हवानी । इसका व्यवहार करते हैं। पर कभी-कभी इसके एनिमा-[अं० Enema] वस्तिकर्म । दे० "वस्ति"। सेवन के पश्चात् हानिकर प्रभाव प्रगट होते हैं। एनिमा-एमोलिएण्ट-[अं० Enema emolliअस्तु, कभी तो इससे रकवणं का मूत्र श्राने लगता है और कभी अन्य विषाक्त लक्षण प्रकाशित हो ent] स्निग्धताकारक-वस्ति । स्नेह वस्ति । अनुवासन वस्ति । दे० 'वस्ति"। जाते हैं। मात्रा-७॥ ग्रेन से १५ ग्रेन-(०.५ से १ एनिगा-एलोज़-[अं० Enema aloes ]मुसब्बर द्वारा प्रस्तुत वस्ति । ग्राम तक) एनिमा-ऐण्टिस्पैज्मोडिक-[अं० Enema antiपत्री-लेखन विषयक संकेत ___spasmodic ] आक्षेपहर वस्ति । इसको साधारणतः कोचट्स में डालकर या एनिमा-ऐन्थेल्मिण्टिक-[अं Enema-anthelकम्प्रेस्ड टेबलेट्स (छोटी-छोटी गोल या दबाकर mintic ] कृमिघ्न वस्ति । कृमिनाशक-वस्ति । बनाई हुई टिकियों ) के रूप में दिया जाता है। । । " एनल्जेसीन-[अं analgesine ] दे॰ “ऐण्टिपा- एनिमाऐष्ट्रिजेण्ट-अं Enema-astringent ] यरीन"। । संग्राहिणी-वस्ति । संकोचनीय वस्ति । कषाय एनामिर्टा काक्युलस-[ ले• Anamirta Coc- वस्ति । culus, W. e. A.] काकफल । काक- | एनिमा-ऑलियाई रीसाइनाई-[अं० Enemaमारी। ___olei recini ] एरण्ड तैल मिश्रित वस्ति । एनामि पेनिक्युलेटा-[ले. Anamirta pen- एनिमा-ओपियाई-[अं० Enema-opii] अहि. iculata] काकफल । काकमारी । फेनाक वस्ति । एनामिर्टीन-[अं० Anamirtin ] काकफल का एनिमा-न्यटिएण्ट-[अं० Enema-nutrient] __सत । काकमारीन । पोषक वस्ति ।एनामेल-संज्ञा० पु. [अं० Enamel ] दाँत का एनिमा-पर्गेटिव-[अं॰ Enema-purgative ] सबसे बाहर का वह श्वेत भाग, जिसका रासाय- विरेचनीय वस्ति । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एनिमा-सिडेटिव -१७५३ एनुगदन्तं एनिमा सिडेटिव - [ ० Enema sedative ] एनिसोमेलिस - [ ले• Anisomelos ] दे० "अनिअवसादन वस्ति । सोमेलिस" एनिमून - [ ० Anemone ] दे० "अनीमून" । एनिमेटा - [ ले० Enemata ] अनिमा । वस्ति । दे० " वस्ति" | एनिल - [ ० Anil ] [ श्रु० अन्नील ( ल् + नील सं० नोली ) ] नील का पौधा वा रंग एनिलीन - [ ० Aniline ] एक प्रकार का रासायनिक द्रव्य जो सर्व प्रथम नील के पौधे से प्राप्त हुआ था । पर अब विशेषतः अलकतरे से प्राप्त किया जाता है । यह अनेक प्रकार के रंगों का मूलाधार है । एनिलीन - रेड - [ ० Aniline-red] दे० "फ्र ूशीन" । Fuschine. } श्रनीसून । एनिस - [ फ्रांo Anis ] ए (अ) निस - [ श्रं० Anise] एनिस कामन -[ श्रं० Anise, common ]श्रनीसून । एनिस फ्रूट - [ श्रं० Anise-fruit ] अनीसून । एनिस- बाइबेल्ल - [ ज० Anis-biberrell ] नसून । एनिसम - [ ले० Anisum ] अनीसून । एनिस - वाटर - [ ० Anise - water ] अर्क अनीसून । अर्क बादियाने रूमी । दे० "अनीसून" । एनिस स्टार - [ अं० Anise-star ], बादियानेख़ताई । अनासफल । एनिस केम्फर - [ श्रं० Anise camphor ] (Anethol ) अनीसून का सत्व । दे० " श्रनीसून" । एनिसाई - फ्रक्टस - [ ० Anisi-fructus ] अनीसून । एनिसॉकिलस -[ ले० Anisochilus ] दे० “अनि सोकिलस" । एनिसिक- एसिड - [ ० Anisic-acid ] अनीसूनाम्ल । श्रनीसून का तेज़ाब । दे० "श्रनीसून" । एनसीड - [ ० Aniseed ] श्रनीसून का बीज । अनीसून । एनिसोकिलस - [ ले० Anisochilus ] दे० "अनिसोकिलस" । २ फा० · एनी - संज्ञा पु ं० [देश० ] एक बहुत बड़ा वृक्ष, जो दक्षिण में पश्चिमी घाट पर होता है। 'एनी' का ही एक दूसरा भेद 'डील' है, जिसकी लकड़ी चमकदार होती है तथा जिसके बीज और फल कई तरह से खाए जाते हैं । एनीटीन - [ श्रं० Anytin ] इसमें ३३ प्रतिशत इक्थियोल सल्फोनिक एसिड होता है । दे० "सोडियाई सल्फो इक्थियोल” । एनीटोल्स - [ श्रं० Anytols ] एक डाक्टरी योग जिसमें ४० प्रतिशत मेटाक्रिसोल होता है । दे० "सोडियाई सल्फो इक्थियोलास" । एनीथम् - [ ले० Anethum ] सोना । एनोम्सोवा - [ ले० Anethum-sowa ] सोना । शतपुष्पा । एनीथाई फ्रक्टस - [ ले० Anethi-fructus ] सोए के बीज । दे० ' 'सोश्रा” । एनीथीन - [ श्रं० Anethene ] एक प्रकार का स्थिर तैल जो सोए के बीज में वर्तमान होता है । एनीथू (तू) न - [ यू०] सोना । एनीथोल [अं॰ Anethol ] श्रनीसून का सत्व । करनी । दे० ' 'श्रनीसून" । एनीमिया - [ श्रं० Anemea ] रक्ताल्पता नामक रोग । यह कृमिजन्य होता है । एनसून - [ यू०] अनीसून । एनीसोल - [ श्रं० Enesol ] एक प्रकार का सफ़द रंग का चूर्ण, जिसमें ३८ प्रतिशत पारद होता है । इसके घोल के त्वग्स्थ सूचीभरण से दर्द नहीं प्रतीत होता । इसे "मर्करी- सैलीसिल- श्रासीनेट" भी कहते हैं । दे० " पारा" । एनीस्टाइल - [ श्रं० Anestile ] ईथिल और मीथिल क्लोराइड्स् को परस्पर मिलाने से "एनीस्टाइल" प्राप्त होता है । यह मंद ताप पर वाष्पीभूत होजाता है । ह्नि० मे० मे० दे० "मीथिल कोराइड" । एनस्थोन - [ सीन" । एनुगदन्त - [ ते० ] करील । o Anesthone ] दे० "अनस्थे Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एनुग-पल्लेरु-मुल्लु १७५४ पिना एनुग-पल्लेरु-मुल्लु -[ ते० ] बड़ा गोखरू | ख़सक- एनोगीसस-लेटिफोलिया - [ ले० Anogeissus कलाँ । latifolia ] धातकी । धव । धवा । एनोडाइन - [ ० Anodyne ] श्रङ्गमई - प्रशमन । एनुगपिप्पल्लु -[ ० ] गजपिप्पली ! गजपीपल । एनून - संज्ञा पु ं० [० ए नून] किताबुल्फ़लाहत के रचयिता ग़ाफ़िक़ी कहते हैं कि इस शब्द का व्यवहार इन बूटियों के अर्थ में होता है - ( १ ) इससे श्रभिप्राय एक अत्यन्त तिक्र वनस्पति से है, जिसकी शाखें कड़ी और पतली होती हैं । इसकी पत्तियाँ "नास" की पत्तियों की तरह और मज़बूत होती हैं । डालियों का रंग न खुला हुआ लाल होता है, न खुला हुआ काला — दोनों रंगों के बोच होता है । टहनियों में कालापन लिये सुरमई रंग के पुष्प श्राते हैं, जो दुन्नी चवन्नी की तरह गोल होते हैं । यह पर्वतों में उत्पन्न होती है । ( २ ) इस जाति के पत्ते मरुए के पत्तों की तरह सुगंधित और उनसे दीर्घतर होते हैं। शाखें लगभग दो गज के लम्बी, पतली, खड़ी और सफेद होती हैं और तने में से जड़ के समीप से फूटती हैं । टहनियों की छोरों पर पीले रंग के फूल लगते हैं । इसके चर्वण करने से जिह्वा में खिंचावट जान पड़ती है । यह जाति भी पहाड़ों में उत्पन्न होती है और गुणधर्म में प्रथम जाति की अपेक्षा निरापद है । स्पेन देशीय चिकित्सक प्रथम जाति को “सनाथ एल्दी” कहते हैं। अफरीका में एक गिरोह का यह श्रभिमत है कि यही माहीज़हर है । प्रकृति — तृतीय कक्षा के प्रथमांश में उष्ण एवं रूक्ष । हानिकर्त्ता - हल्लासकारक है । दर्पनाशक - उन्नाब और अनीसून । मात्रा- ७ मा० से १० मा० तक । गुण-कर्म-प्रयोग—स्पेननिवासी इसे सनाय | मक्की की जगह प्रयोग करते हैं। क्योंकि कफ, पित्त तथा वायु को यह दस्तों की राह निकालता है। विशेषकर वायु तथा कफ को निकालने के लिये परमोपयोगी है। इसका काथ पीने से कटि, संधि, कुति एवं रींगन वायु का शूल निवृत्त होता है । ख० श्र० । एन्थी फेलाण्ड्रियम् - [ले०Enanthe-phellandrium ] वाटर-फेनेल सीड । वेदनाहर | एनोडाइन- कोलॉइड - [ ० Anodyne-colloid] दे० " कलोडियम्" | एनोडाइन टिंक्चर - [ श्रंo Anodyne tincture] शूलनिवारक टिंक्चर | दे० " पोस्ता " । एनोडाइन- वेसीकैंट - [ श्रं० Anodyne vesi cant] व्यथाहर फोस्काजनक | दे० " कैन्थरिस" | एनोथेरा - बाइएन्निस - [ ले० Enothera bie nnis ] ईवनिंग प्राइमरोज़ | एनोना - [ ? ] रामफल । दे० "अनोना” | एन्दरु- } [ सिं० ] एरंडबीज । रैंडी | एन्दरु-अ एन्दरु- गट्टा - [ सिं०] एरंडवृक्ष । रेंड़ । विंदीदारु । एन्दरु- तेल - [ सिं०] एरण्ड तेल । रेंड़ी का तेल । कैटर आइल | एन्दारु -[ सिं०] एरंडबीज | रेंड़ी | एन्द्रानी - [ सिंध ] बीजबन्द । मचोटी । केसरी | साउर्राई - (०) । हज़ारबन्द क - ( फ्रा० ) । फा० इं० ३ भ० । एन्द्रु अट्ट - [ सिं० ] दे० "एन्दरु श्रट्ट" । एन्युलीन - [ श्रं० Enulin ] इन्युलोन । एन्सल, एनसल - [ [सं०] छोटी इलायची । सूक्ष्मैला । एन्हाइड्रस-बूल-फैट-[ श्रं० Anhydrouswool fat ] दे० "एडेप्स लेनी न्हाईड्रोसस्” । एन्हाइड्रा-फ्लकचुअन्स- [ ले Enhydrafluctuans, Lour.] हिलमोचिका । हेलेञ्चा | हिंचा । हर्कुच । एपिईन -[ श्रं० A piin. ] एक प्रकार का सत्व जो अजमोदे में होता है । एपिएष्ट्रम् - [ ले० A piastrum. ] कबीकज । देव काण्डर । एपिऑल - [ अं० Apiol ] अजमोदे का तेल । दे० " अजमोदा " | एपिथीमून-[ यू० ] अन ्मतीमून । एपिनार्ड - ( कानू ) - [फ्रां० Epinard Cornu] पालक | पालक्य । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एपिनाड-लिस्से . ...... १७५५ एपोसाइनम् केन्नाबीनम् एपिनार्ड-लिस्से-[ फ्रां. Epinard lisse ] हलका भूरा या पीताभ-चूर्ण, जो जल में घुल पलम । शाक । ( Spinacea glabra.) | जाता है । दे० "एपोमार्फीनी-हाइड्रो-कोराइडम्" । एपिनीन-[अं• Epinene ] संधान क्रिया विधि | एपोकोडीन-[ अं० Apocodeine ] कोडीन द्वारा प्रस्तुत की हुई एक प्रकार की धन औषधि | घटित एक डाक्टरी औषध । दे. "कोडाइना"। जो उपवृक्कीन (Suprarenin) जैसी होती है। एपोडल-डाक-[ अं० ] लिनिमेण्टम्-सेपोनिस दे० "उपवृक्क" । Linimentum-saponis. एपियम्-इन्वाल्युक्रेटम्-ले० Apium involu- एपोथेसीन-[अं० Apothesine ] एकोईन जैसी ___cratum.] अजमोदा भेद । __एक डाक्टरी औषध । दे० "कोकेन"। एपियम्-ग्रेवियोलेंस-[ ले० A pium-graveo- | एपोनाल-[ अं० A ponal ] दे॰ “एमाइलीन ___lens. ] अजमोद । करफ़्स । हाइड"। एपियम्-पेटो सेलिनम्-[ ले० A pium-petro- एपोनोगेटन-माँनैष्टिकन-[ ले० A ponogeton___sel num. ] अजमोद। , monastychon ] घीचू । एपियोल-[अं0 A piol. ] दे० "एपिरोल"। एपोनोगेटन-सिम्पल-स्टॉकड-[अं० A ponogeएपियोल केम्फर-[अं॰ Apiol-cam phor.]| ton-simple-stalked ] घेचू । अजमोदे का कपूर । अजमोदे का स्फटिकीय तैल। एपोमार्फीन-मिथिल-ब्रोमाइड-[अं० A pomorpदे० "अजमोदा"। ___hine-methyl-bromide ] एक डाक्टरी एपियोलीन-[ अं0 Apioline.] एक प्रकार का | दवा। पीत द्रव, जो एपियोल के साबुनीकरण द्वारा एपोमार्फीन-हाइड्रो-लोराइड-[ अं० A pomorप्राप्त होता है । २ बूद की मात्रा में कैपशूल में | phine-hydrochloride ] दे॰ 'एपोरखकर ऐसे प्रार्त्तव सम्बन्धी प्रायः सभी रोगों में मार्फानी हाइड्रोलोराइडम्'। इसका व्यवहार करते हैं, जिनमें एपियोल व्यव- एपोमार्फीनी-हाइड्रोक्लोराइडम्-[ ले• Apomorहृत होता है। phine-bydro-chloridum ] एक एपिलोबियम्- अ टिकोसम्- Epilobrium- डाक्टरी औषध, जिसकी छोटी-छोटी श्वेताभ धूसर fruticosum.] बन लौंग । चमकदार कलमें होती हैं और जो मार्फीन हाइड्रोएपिस-[ ले. ] मधुमक्खी। क्लोराइड या कोडाईन हाइड्रोक्लोराइड को शीशे एपिस्पैष्टिक्स-[अं॰ Epispastics. ] प्राबला को नलकी में लवणाम्ल( हाइड्रोक्रोरिक एसिड) डालनेवाली दवा । फोस्काकारक औषध । के साथ उत्ताप पहुँचाने से प्राप्त होता है । वायु एपी-[?] नाज़बू का पौधा । तुलसी। एवं प्रकाश के प्रभाव से यह हरा होजाता है। एपीजिया- रिस-[ ले० Epigaea-repens ] | वि० दे० "पोस्ता"। (Gravel plant) ग्रेवल प्लाण्ट-(अं०)। एपोलाइसीन-[अं० A polysin] एक डॉक्टरी एपीफीगस-वर्जिनिएना-[ ले. Epiphegus-vi- | औषध । दे. “साइट्रोफेन"। rginiana ] बीच-डप Beech-doop- एपोसाइनम्-ले० apocynum] अमेरिकनभाँग । अं०। दे० "भाँग"। एपीरियोन-[.अं०] दे. "नोलथैलीन"। एपोसाइनम् एण्डोसेमिफोलियम्- ले० apocyएपेरिटोल-[अं० A peritol ] एक डाक्टरी विरे-! num androsemifolium ] एक चन औषध जिसे १॥ रती (३ ग्रेन) की मात्रा में! वनस्पति । देने से बिना शूल व दर्द के दस्त पाते हैं। एपोसाइनम् केन्नाबीनम्- लेapocynum एपोकोडाइनी-हाइड्रो-लोराइडम्-[ ले० Apoco- | cannabinum ] अमेरिकन भंग। दे० deinae-hydro-chloridum ] एक | "भाँग” । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एपोसाइनिन एपोसाइनिन - [ ० apocynin ] एक प्रकार का रालदार सत जो अमेरिकीय भाँग ( apocynum) की जड़ से प्राप्त होता है । दे० "भाँग "। एपोसाइनीन - [ ० apocynien ] ग्ल्यूकोसाइड के वर्ग का एक सत्व जो "एपोसाइनम्" की जड़ से प्राप्त होता है। । एपसाइनेसीई - [ले० apocynaceae ] श्रोष धियों का एक वर्ग । शतमूलीवर्ग । एप्यम् वियोलेंस - [vapium graveolens] दे० "एपियम् ग्रेवियोलेंस" । एप्रिकट - [ apricot ] खूबानी । ज़रदालू । एप्ल - [ ० apple ] सेव । सिंवितिका । एप्सम साल्ट - [ ० Epsom salt ] दे० "मैने शियाई सल्फास " । एफरवेसेंट इप्सम साल्ट - [ श्रं० Effervescent epsom salt ] जोरादार मग्नेशिया । दे० “मैग्नेशियाई सल्फास ” । एफरवेसेंट केफीनी साइट्रास - [ ० Effervescent caffeine citras ] एक प्रकार का दानेदार जोरा खानेवाला योग । योग - सोडा बाई कार्ब ५१ भाग, टार्टरिकएसिड २७ भाग, साइट्रिक एसिड १८ भाग, शूगर (चीनी) १४ भाग और केफीनी साइटूट ४ भाग । मात्रा - ६० से १२० ग्रेन । प्रभाव - हृदय - बलदायक तथा मूत्रल । प्रयोग - शिरावेदना एवं श्रद्धविभेदक के लिये उपयोगी है। एफरवेसेंट ग्रेन्यूल्ज - [ अं० effervescent-granules] एक प्रकार की मिश्रित श्रौषध जो पानी में डालने से जोरा खाने लगती है । इस प्रकार के सभी योग दानेदार चूर्ण रूप में होते हैं । इनमें से केवल टार्टरेटेड सोडा पाउडर दानेदार चूर्ण में नहीं होता, प्रत्युत वह सामान्य चूर्ण होता है । इसलिये यह " बृटिश फार्माकोपिया” चूर्णो के अन्तर्गत वर्णित है । इस प्रकार के योग अम्ल (एसिड्स ) और क्षारीय औषध (एल्कलाइड्स) को परस्पर मिलाकर पुनः उसमें शर्करा योजित कर वा बिना शर्करा के एफखेसेंट सोडियम् सैलिसिलेट मिश्रण के बनाये जाते हैं । अस्तु, केफीन साइटूट, मैग्नेशियम सल्फेट और सोडियम साइट्रो टारट्रेट में शर्करा मिली हुई होती है । परन्तु सोडियम फॉस्फेट, सोडियम सल्फेट और लीथियम् साइट शर्कराशून्य होते हैं । समग्र जोरा खानेवाली मिति श्रोषधे सुस्वादु होती हैं। एफरवेसेंट-टार्ट्रेटेड-सोडा- पाउडर- [ श्रं० Effervescent tartrated Soda-powder ] एक प्रकार का जोरा खानेवाला साधारण 'वूर्ण । योग - टाटू टेड सोडा १२० ग्रेन, सोडाबाइकार्ब • ४० ग्रेन - दोनों को मिलाकर नीले रंग के कागज में पुड़िया बनाएँ और ३८ ग्रेन टार्टरिक एसिड की एक सफेद रंग के कागज में पुड़िया बनाएँ । गुणधर्म-विरेचन । नोट - इसे सीडलीट्ज़ पाउडर भी कहते हैं । एफरवेसेंट पाउडज़ - [ श्रं Effervescent po wders ] दे० " एफरवेसेंट ग्रेन्यूल्ज़ " । एफरवेसेंट-मैग्नेशियम् सल्फेट - [ अं० Effervescet-magnesium sulphate ] एक प्रकार का जोश खानेवाला दानेदार चूर्ण । १७५६ योग - मैग्नेशियम सल्फेट ५० ग्रेन, सोडियम् बाईकार्ब ३६ ग्रेन, टार्टरिक एसिड १६ प्रन, साइट्रिक एसिड १२ / ग्रेन और शूगर १०1⁄2 प्रन । मात्रा - ६० से २४० ग्रेन (1⁄2 से १ आउंस) । प्रभाव - अम्लत्वनाशक (एण्टेसिड ) और विरेचन | एफरवेसेंट- लीथियम्-साइट्र ट - [ अं० Liferve - cent lithium citrate] दे० “लीथियम्” । एफरवेसेंट-सोडियम्-फॉस्फेट - [ श्रं Effervesc ent sodium phosphate ] दे० "सोडि याई- फॉस्फॉस" | एफरवेसेंट-सोडियम्-सल्फेट -[ श्रं Effervescent sodium sulphate ] दे० " सोडियम्” । एफरवे सेंट-सोडियम्-साइट्रो-टार्ट्रेट - [ श्रं० Effervescent sodium citro tartrate ] दे० "सोडियम्” । एफरवेसेंट - सोडियम् - सैलिसिलेट - [ Efferve Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एफिड्रा १७५७ एफिडू scent Sodium-Salicylate.] दे० खंडा, खामा, (कनावार ) । फोक-(सतलज "सोडियम सैलिसिलेट"। की घाटी)। सोम कल्पलता-(बं०)। माहुअंग एफिड़ा-संज्ञा पु. [ ले. Ephedra. ] एक -(चीन)। मारोह-(जापान)। ओषधि जि.सका पौधा छोटी झाड़ी वा सुप को नोटः-(१) उक्त संज्ञाओं का विस्तृत विवतरह होता है। इसकी जड़ में से ही स्तम्भ रण एफिडा के भेदों के साथ दिया जायगा । समूह निकलते हैं, जिनमें से पतली लम्बी शाखाएँ (२) एचीशन ( Aitchison ) के अनुफूटती हैं। ये पत्रशून्य दृग्गोचर होती हैं। सार यद्यपि लाहौल में एपिडा वत्गैरिस के कतिशाखाओं में कतिपय पोर वा ग्रन्थियाँ होती हैं। पयांश का औषधीय उपयोग होता है. तो भी स्तम्भ साधारण पंसिल से अधिक मोटे नहीं भारतवर्ष में प्राचीनकाल में इस प्रोषधि का होते और भूमि की ओर झुके होते हैं। पृथ्वी औषध की कोटि में परिगणन नहीं हुआ । प्राचीन के समीप से कांड से शाखाएँ अधिक फूटती है। आयुर्वेदीय एवं यूनानी ग्रन्थों में एफिड़ा का और झाड़ की तरह फैलती या सोधी ऊपर को उल्लेख नहीं देखा जाता । परन्तु कुछ लोगों का खड़ी रहती है। कांड कुछ कड़ा और बादामी विचार है कि एकिडा की एक जाति जो सम्भवतः रंग का होता है। उस पर कहीं-कहीं सफेदी एफिड़ा इंटरमिडिया (Ephedra Interलिए चौड़े-चौड़े चिह्न पाए जाते हैं। शाखाएँ media ) है और जिसका उल्लेख आगे सरल गम्भीर हरित वर्ण की, पतली, कोमल और आयेगा, वह आयुर्वेदिक सुप्रसिद्ध सोमलता लगभग १२ इंच दीर्घ, रेखायुक्र, तरंगायित और नामक ओषधि है, जिसका स्वरस वैदिक काल में मसृण होती हैं। इसमें ४-५ जोड़ें पाई जाती हैं। भारतीय ऋषिगण पान करते थे। परन्तु इसके समयदि वहाँ ध्यानपूर्वक देखा जाय, तो पत्तों की । र्थन में कोई सर्ववादिसम्मत प्रमाण उपलब्ध नहीं जगह दो सम्मुखवर्ती और तिर्यक आवरण-कोष होते । यही कारण है कि एफिडा को कोई प्राचीन से वर्तमान होते हैं, जिनके शीर्ष सूक्ष्मान एवं वैद्यकीय संज्ञा भी नहीं दी गई है। हाँ! किसी बादामी होते हैं। सिरों की नोक किंचित् पीछे किसी स्थान में इसके कतिपय देशी नाम अवश्य को मुड़ी होती है। शाखागत माध्यमिक पोर्वे मिलते हैं, जिन्हें ऊपर दिया गया है। विदे किंचित् खुरदरे होते हैं । स्तम्भ को चीरकर देखने "अमसानिया"। से कुछ तंतु से दिखाई देते हैं और उसके भीतर ___ एफिड्रा वर्ग गूदा और केन्द्र से त्वचा की अोर मजागत (N. 0. Gnetaceae.) किरण (Medullars-roys) भी फूटती उद्भवस्थान-उत्तर चीन देश, भारतवर्ष के हुई दिखाई देती हैं। ताजी शाखाओं में हलकी अनेक स्थल, तिब्बत से लेकर सिक्कम तक तथा सी सुगंध होती है जो शुष्क होने के उपरांत जाती भूमण्डल के अन्य अनेक स्थल में यह उत्पन्न रहती है। शाखाओं का स्वाद कषाय होता है। होता हैं। शाखाओं पर छोटे-छोटे बेर जैसे लाल फल एफिड़ा की अन्य जातियाँभी लगते हैं जो बहिरावरण (छिलका) युक्त वनस्पतिशास्त्र-वेत्ताओं ने एफिड़ा के बहुसंख्यक और सरसमंजरीवत् होते हैं । बीज का एक पार्श्व भेद स्थिर किए हैं। इस प्रकार के अन्वेषण वा उभय पार्श्व उन्नतोदर वा नतोदर होते हैं। करनेवाले विदेशी हैं। इसलिए एपि.ड्रा के भेदों पतली शाखा में प्रभावात्मक औषधांश अधिक के साथ उन अन्वेषकों के नाम भी लगे होते हैं पाया जाता है। स्तम्भ निरर्थक वा प्रभाव शून्य समझा और अंग्रेज़ी में उसी प्रकार प्रयोग में आते हैं । जाता है । सूखी टहनियों में भी औषधीय प्रभाव हमारे यहाँ उन भेदों की देशी संज्ञाएँ अज्ञात सी चिरकाल तक स्थिर रहता है। हैं। इसलिए भारतवर्ष के प्रत्येक भाग में ये उसी पग्योय-अमसानिया, बुतशुर, चेवा-(पं०)। प्रकार अपरिचित सी हैं, जिस प्रकार आंग्ल वा Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एफिड्रा लेटिन संज्ञाएँ हो सकती हैं इसी कारण हमने भी अँगरेज़ी पारिभाषिक संज्ञाओं कोही स्थिर रखना नितांत आवश्यक समझा । जिसमें कम से कम अंगरेजी जाननेवाले महानुभाव इस भूम से बचे रहें । हम यहाँ सर्व प्रथम इसके जॉर्ज वैट ( G. Watt ) द्वारा उल्लिखित भेदों का उल्लेख करते हैं, जो उन्होंने सन् १८६० ई० में निर्धारित किए थे। गिनती में वे सिर्फ़ ये तीन हैं— ( १ ) एफिड्रा वलौरिस Ephedra Vul. garis, Rich. (F1. Br. Indica ) जिसे एफिड्रा जिराडिएना B. gerardiana, Wall., एफिड जॉनोकिया Emonostachya, Linn. और एफिडा डिष्टेक्या भी कहते हैं । यह वह भेद है जिसके नाम हमने इससे पूर्व श्रमसानिया, चेवा, बुतशुर आदि बतलाये हैं । १७५८ यह छोटी सी, सीधी खड़ी झाड़ है, जो हिमालय पर्वत पर पाई जाती है। पश्चिमी तिब्बत से लेकर सिक्किम तक यह समशीतोष्ण हिमालय के शुष्क पथरीले प्रदेशों में एवं अधिक ऊँचाई पर भी बहुतायत से होती है । सिमला के उत्तर शालाई के पर्वतों पर जो न्यूनाधिक १०००० फुट ऊँचे होंगे, यह प्रचुर परिमाण में उपलब्ध होती है। (२) एफिड्रा पेचीक्लेडा Ephedra pa chyclada, Boiss. f E. Intermedica, Shrenk, and Meyer. ft कहते हैं। देश में यह 'हुम' वा 'होम' (फ़ारस ), 'गेहमा' (बम्ब० ) और श्रोमन ( पश्तु ) श्रादि संज्ञाओं से सुप्रसिद्ध है । यह एक ऊँचा झाड़ीदार पौधा है, जो पश्चिमी तिब्बत और हिमालय के शुष्क एवं पथरीले प्रदेशों में मिलता है । (३) एफिड्रा पेडंक्युलेरिस Ephedra p3duvcularis, Boiss को जिसे ए. ड्रा एल्टे E. Alte, Brand. और एफिड्रा अलेटा E. Alata, Meyer संज्ञा से भी अभिहित करते हैं, देश में कुचन, निक्किकुर्कन, बाटा, तंदल, स्तक, मंगरवाल, बदुकाई कहते हैं । यह भी खड़ा फाड़ीदार चुप होता है, जिसकी एफिड्रा शाखाएँ अत्यन्त पतली और कोमल होती हैं । यह सिंध, पंजाब और राजपूताने की पथरीली भूमि पर स्वयं उत्पन्न होता है । उपर्युक्त भेद के अतिरिक्त भारतवर्ष में इसकी यह दो जातियाँ और पाई जाती हैं, जो उतनी प्रसिद्ध नहीं हैं। जैसे - ( १ ) एफिड्रा फॉलिएटा Ephedra foliata, Boiss. ( Fl. Orient. ) और ( २ ) एफिड्रा जिलिस Ephedra fragilis ( Flowering Plants of Baluchistan, I. H. Barkhi]].)। ब्रांडीज़ ( Brandes ) महाशय ने स्वरचित इंडियन ट्रीज़ वा भारतीयवृक्षसंज्ञक ग्रन्थ में, जो सन् १९०६ ई० में प्रकाशित हुआ है, एकिड्रा के इन पाँच भेदों का, जो भारतवर्ष में पाए जाते हैं, उल्लेख किया है । वे थे हैं - ( १ ) एफिड्रा फालिएटा Ephedra foliata, Boiss. ; (२) एफिड्रा जिराडिएना E. Gerardiana. Wall. जिसका अन्यतम पर्याय एफिड्रा वल्गेरिस Epbedra vulgaris, Hook. ( Flora of British ladcia ) भी है; (३) एफिड्रा नेबोडेंमिस E. Nebrodensis, Tineo., (४) एफिड्रा इण्टरमीडिया E.Intermedia, Shrenk, & Meyer. और (५) एफिड्रा पेचिक्लेडा E. Pachyelada, Boiss. इनमें एका नेत्रोसिस तथा एफिड्रा जिराडिएना में कोई व्यक्त प्रधान अन्तर नहीं है । अस्तु, इनमें से प्रथमो को इसके द्वितीय भेद में ही सम्मिलित समझना चाहिए। इसी तरह इसका पाँचवा भेद कभी-कभी चतुर्थ भेद अर्थात् एफिडा इण्टरमीडिया का पर्याय समझा जाता है । परन्तु देहरादून के फारेष्ट - रिसर्च इन्स्टीटयूट के वनस्पति- श्रन्वेषक तीसरे भेद - एफिड्रा नेत्रोडेंसिस को दूसरे भेद - एफिड्रा जिरार्डिएना से भिन्न समझते हैं । एफिड्रा नेब्रोडेंसिस ब्लूचिस्तान के प्रदेशों में समुद्रतल से ७००० से १०००० फुट की ऊँचाई पर तथा बालतिस्तान और लाहौल में भी उपलब्ध होता है । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एफिड्रा १७५६ उत्तरी एफिड़ा की उपर्युक्त जातियाँ भारतवर्ष के विविध भागों में उपजती हैं। जैसे- बशहर, चकराता, काँगड़ा, कुल्लू, बलूचिस्तान, काशमीर, हजारा, कागान, सीमान्त के अन्य प्रदेश और वजीरिस्तान प्रभृति विभिन्न स्थानों से एफिड्रा के नमूने लाकर उनका पृथक्करण किया गया, जिससे यह ज्ञात हुआ, कि उत्तरी-पश्चिमी भारतवर्ष के शुष्कतर प्रदेशों में, जो एफिडा पाया जाता है, उसमें क्षारोद की प्रतिशत मात्रा अपेक्षाकृत अधिक होती है । यहाँ तक कि अनेक दशाओं में चीन देशीय एफिड्रा के भेदों से भी बढ़ जाती है । इसकी भारतीय जातियों में दारोदीय प्रभावात्मक अर्थात् एड्रीन ( Ephidrine ) के विचार से एफिड्रा नेब्रोसिस सर्वाधिक बलवत्तर है और एफिड्रा इण्टरमिडिया सबकी अपेक्षा निर्बलतम । इसकी भारतीय जातियों में एफिड्रोन का अनुपात उत्पत्तिस्थान की ऊँचाई के अनुसार नहीं बढ़ता घटता । हाँ ! किसी प्रदेश की वृष्टि के तारतम्य का श्रवश्य उस पर प्रभाव पड़ता है । लेफ्टिनेन्ट कर्नल चोपड़ा और उनके सहकारियों ने सन् १६२६ ई० में एफिड्रा के दो भेदों का निरीक्षण किया था, जो झेलम की घाटी से लगी हुई पर्वत श्रेणियों पर एक दूसरे की बगल में खड़े थे | एफिड्रीन के विचार से ये अवश्य ध्यान देने योग्य हैं । यद्यपि दोनों में एफिड्रोन और तद्वत् दूसरे खारे प्रभावात्मक अंश ( alkaloid) एवं स्युडो-एफिड्रोन का अनुपात परस्पर बहुत ही भिन्न है । उक्त दोनों भेद यह हैं ( १ ) एफिडा वल्गैरिस Ephedra Vulgaris या ए० जिरार्डिएना E. Gerardiana जिसे स्थानीय बोल-चाल की भाषा में जनूसर कहते हैं । यह सब लगभग सोधी खड़ी झाड़ हैं, जो एक-दो फुट से अधिक ऊँची नहीं होती । यह कुर्रम की घाटी के हरियाब जिले में भी १००० फुट की ऊँचाई पर और हिमालय पर्वत पर ८००० से १४००० हजार फुट की ऊँचाई पर पाया जाता है । पुनः सिक्किम की श्राभ्यन्तरस्थ पहाड़ियों पर समुद्रतल से १६५०० फुट की ऊँचाई पर उपलब्ध होता है । इसमें कुल • एफिड्रा क्षारीय क्रियात्मक सार का अनुपात ०.८ से १.४ प्रतिशत तक है, जिसमेंसे लगभग आधी एफिड्रोन और शेष स्युडो-एफिड्रोन अर्थात् नकली एफिड्रीन होती है । पतली टहनियों और तने के क्षारोद का अनुपात भी बहुत भिन्न होता । उदाहरणतः एफिडा वल्गैरिस के तने में जितने परिमाण में क्षारोद ( क्षारीय क्रियात्मक सार ) होता है, हरी टहनियों में उससे चौगुना क्रियात्मक सार पाये जायँगे और एफिड्रा इन्टरमीडिया में तो और भी अधिक अर्थात् लगभग छः गुना होंगे । (२) एफिड्रा इण्टरमीडिया Ephedra Intermedia को, एफिड्रा टिबेटिका (तिब्ब तीय ) Ephedra Tibetica जिसकी एक जाति है, सिंघ की बोल-चाल की भाषा में " हुम" वा "होम" कहते हैं । यह भी क्षुद्र सीधी झाड़ी है, जो चित्र की प्राभ्यन्तरिक घाटियों में, शुष्क पथरीले ढालों पर ४००० से ५००० फुट की ऊँचाई पर एवं गिलगित्त, जौसकर, ऊर्द्धचनाब और कँवार में ६००० से १००० फुट की ऊँचाई पर और बलूचिस्तान में भी उपलब्ध होती है। इस जाति में क्रियात्मक सार का अनुपात ०.२ से १० प्रतिशत तक होता है, जिसमें से ००२५ से २०५६ प्रतिशत तक एफिड्रीन और शेष स्युडोएक ड्रोन होती है । 1 टिप्पणी-कभी - कभी एफिडा जिराडिऐना और एफिड्रा इंटरमीडिया को एफिड्रा एकिसेटिना E. Equisetina समझ लिया जाता है, जो Agar पौधा है । परन्तु उत्तर कथित पौधे की लकड़ी कभी कड़ी नहीं होती तथा इसका तना भीतर से खोखला होता है और इसमें पत्ते भी अधिक लगते हैं और शीर्ष पर अन्तरग्रन्थियों के चतुर्दिक लिपटे रहते हैं। यह जाति चीनदेश में भी मिलती है। एफिड्रा के फल, जड़ों और स्तम्भ में एफिड्रीन अत्यल्प होती है । केवल हरी शाखाओं में ही यह (क्षारोद ) प्रचुर परिमाण में होती है। हिम पात से पूर्व शरद ऋतु में ही इसमें वीर्य (alka loid) की अधिकता होती है । अस्तु, उक्त समय ही इसके संग्रह का उत्तम काल है । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६० एफिड्रा after faget Ephedra foliata, Boiss. ) को देश में ' कूचर" कहते हैं । यह बलूचिस्तान, सिंध, कुर्रम की घाटी, पंजाब के दक्षिणी मैदानों और नमक की पहाड़ियोंमें ३००० फुट की ऊँचाई पर मिलता है। इसमें किसो प्रकार का क्रियात्मक सार वर्तमान नहीं होता । इतिहास - श्रायुर्वेदीय एवं प्राचीन यूनानीग्रन्थों में एफिड़ा का कहीं भी उल्लेख नहीं पाया जाता । परंतु चीन देशवासी गत पाँच सहस्र वर्ष से इसका बराबर श्रोषधीय उपयोग करते आ रहे हैं । पिछली सदी से पाश्चात्य चिकित्सकों का ध्यान भी इस पधि की ओर अधिक आकृष्ट हुआ और उन्होंने इसका क्रियात्मक सार पृथक् कर इसका रोगियों पर परीक्षण किया । सर्व प्रथम टोकियोनिवासो जापानी चिकित्सक एन० नेगाई ने सन् १८८७ ई० में इससे एफिड्रोन नामक सार निकाला । पुनः सन् १३१७ ई० में दो और चिकित्सकों ने, जिनके नाम श्रम्टस और कबोटा हैं, इसके श्रौषधीय प्रभावों का भली भाँति परीक्षण किया। जो कुछ शेष था उसका पूरण डॉक्टर च्यू तथा रोड (Read) एवं श्रोरों ने सन् १६२५ ई० में कर दी, जिससे फ्रांस देशीय अन्य श्रन्वेषकों को भी इस श्रोषधि और इसके औषधीयांश के परीक्षण की प्रबलेच्छा पैदा हो गई । पश्चात् के अन्वेषणों से पता चला कि एफिड्रा केवल उत्तरी चीन तक ही परिमित नहीं है, अपितु इसकी भौगोलिक सोमा सुदूरवर्ती प्रदेशों तक भी विस्तारित है। इसकी जातियों की संख्या भी अच्छी खासी है। लियू (Liu ) नामक अन्वेषक' | का कथन है, कि कोई भी देश एफिड्रा से रिक्त नहीं हो सकता । यह सत्य भी है, क्योंकि भारत भूमि में ही इसकी बहुसंख्यक जातियाँ सुलभ हैं, जो अधिकतर हिमालय के शुष्क प्रदेशों में उपलब्ध होती हैं । इसके कतिपय भेद, जो समतल भूमि पर पाए जाते हैं, उनमें औषधीय घटक श्रत्यन्त न्यून होते हैं वा उनका सर्वथा श्रभाव होता है । हिमालय के समशीतोष्ण और उच्च प्रदेशों में भी यह किसी न किसी श्रंश में अवश्य पाया जाता है। एफिड्रा 15 रासायनिक संघटन -- ( १ ) एफिड्रोन Ephedrin ( (C10H ON ) जो एक वर्णहीन स्फटिकीय द्रव्य है । इसके हाइड्रोक्लोराइड की विवर्ण सूचियाँ होती हैं । ( २ ) स्युडो-एफिड्रोन Pseudo - ephedrine या श्राइसो एफिड्रोन ( Isephidrine ) रासायनिक सूत्र C10H15 ON जो एफिडा जिराडिऐना और एफिड्रा इंटरमीडिया में एफिड्रीन के साथ पाया जाता है । यह एफिड्रोन को हाइड्रोक्लोरिक एसिड के साथ उत्ताप पहुँचाने से प्रस्तुन होता है । सम्भवतः विकृतिशून्यता ( Stability ) ही एफिड्रीन का सर्वप्रधान गुण है | उष्णता, प्रकाश एवं वायु के प्रभाव से इसके विलयन बिगड़ते नहीं और पुराना होने से इसके गुणों में कोई अंतर नहीं होता है । अन्य भारतीय वनस्पतियाँ जिनमें एफिडी न पाई जाती है - ( १ ) बला (Sid cordifolia ) - वैसे तो इसके सर्वाङ्ग में एफिड्रोन वर्तमान होती है, किन्तु पत्ती में सबसे अधिक पाई जाती है । (२) सहिजन (Moringa pterygosper• ma ) - इसमें एफिड्रीनवत् एक प्रकार का सत्व पाया जाता है । एफिड्रीन की न्यूनाधिकता के कारण निम्न कारणों से प्रत्येक प्रकार के एफिड्रा में एफिड्रीन की मात्रा न्यूनाधिक हुआ करती है— (१) जाति भेद - अमरिकन जातीय में प्रायः एफिड्रीन नहीं होती । यूरोपियन जातीय में स्युड्रो एफिड्रोन नामक एक श्राइसोमेरिक पदार्थ होता है । चोनी और भारतीय जातियों में एफिड्रोन और स्युडो-एफिड्रोन प्रायः दोनों पाई जाती हैं। इन दोनों क्षारोदों में से प्रत्येक परिमाण उसकी जाति पर ही निर्भर करता है । (२) ऊँचाई - इसके उत्पत्ति-स्थान की ऊँचाई के अनुसार एफिड्रीन की मात्रा में भेद हुआ करता है । परन्तु यह बात भारतीय जातियों में नहीं पाई जाती । (३) वृष्टि - जहाँ जितनीही अधिक वार्षिक वृष्टि होती है, वहाँ के एफिड्रा में उतनी ही अधिक Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एफिड्रा एफिड्रा एफिड्रोन पाई जाती है । यही नहीं, अपितु सहसा अधिक वृष्टि हो जाने से एफिड्रीन की,औसत मात्रा घट जाती है। (४) ऋतु भेद-एफिड्रोन को मात्रा मई महीने से घटना प्रारम्भ होती है, यहाँ तक कि अगस्त अर्थात् वर्षांत में जाकर इसको मात्रा सबसे अधिक कम हो जाती है। इससे प्रागे पुनः क्षारोद की मात्रा बढ़ना शुरू होती है और शरद अर्थात् अक्टबर-नवम्बर में जाकर यह चरम सोमा को पहुँचती है । इसके उपरान्त पुनः इसका क्रमशः हास होने लगता है। (५) संग्रह-हवा में भली भाँति सुखाकर | और सूखे स्थान में रखे हुये एफिड़ा में एफिड्रोन की मात्रा चाहे वह कितना ही दिन रखा रहे, नहीं घटती । बाद प्रदेश और श्राद्र वायु-स्पर्श से इसके वीर्य का हास होता है । अस्तु, शरद ऋतु में एफोड़ा के कांडों को संग्रह कर छाया में सुखाकर बर्तन का मुख ढंक कर उसे शोत,वायु और प्रार्द्रता रहित प्रदेश में रखते हैं। व्यवहारोपयोगी अंग-जड़ और शाखाएँ तथा फल । नोट-इसके पत्रावृत, छोटे-छोटे कांड ही वीर्यवान होते हैं । अस्तु, उन्हीं को चूर्णकर काम में लाना चाहिये। औषव-निर्माण-एफीडा के पौधे का सत्व(1) एफीडोन वा (२) स्युडो-एफीड्रोन और • (३) पौधे का चूर्ण । मात्रा-४ रत्तो से १५ रत्ती तक, किसो-किसो के मत से ५ रत्तो से ८ रत्ती तक। (४) काथ-१ तोला एफीड्रा को जौकुट कर एक सेर पानी में मंदाग्नि पर कथित करें और अर्द्धावशेष रहने पर वस्त्र-पूतकर बोतल में भर रखें। मात्रा-२॥२॥ तोला की मात्रा में दिन में तीन बार सेवन करें। (५) सुरा-घटित रसक्रिया (Alcoholic extract ) वा टिंक्चर और (६) एफीडीन चक्रिका ( Ephedrine tabloids ) इत्यादि । डाक्टरगण प्रायः इसके सत-एफीड्रीन का ही व्यवहार करते हैं । परस्मरण रहे कि इसके पंचांग का चूर्ण इसके सत्व से कहीं अधिक गुणकारो है, जैसा कि आगे उल्लख होगा । देशी कंपनियाँ अब इसका शर्बत (Syrup) एवं प्रवाही सत्व (Liquid extract) भी प्रस्तुत करने लगी हैं। भारतीय एफीड्रा द्वारा प्राप्त एफीड्रीन और स्युडो-एफीड्रीन नामक सत्व के प्रभाव इसके अन्वेषण के उपरान्त लगभग सन् १८८७ ई० में रासायनिक दृष्टिकोण से एफीडीन की ओर बहुत ही ध्यान दिया गया. पर इसके कनोनिकाविस्तारक प्रभाव के सिवा, जिसकी सूचना जापानी अन्वेषक नेगी ( Nagai) ने दी, इसके प्रभाव के संबंध में और अधिक उन्नति नहीं हुई । सन् १६२४ ई० में चेन (Chen) और श्मिट (Schmidt) ने सन् १६२४ ई० में एफोड्रोन के औषधीय गुणधर्म विषयक अपने पत्र प्रकाशित कराये और एड्रोनेलीन से इसके निकट इन्द्रिय-व्यापारिक एवं शिनिकल-संबंध का प्रतिपादन किया। एफीड़ा के भारतीय भेदों द्वारा प्राप्त एफीड्रोन और स्युडो-एफीड्रोन नामक सत्वों को क्रिया का लेखक और उसके सहयोगियों द्वारा पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया जा चुका है । उक्त एफीड्रीन का प्रभाव चोनो पोधे द्वारा प्राप्त एफीड्रोन के सर्वथा समान पाया गया, जिसका विविध प्रयोगकर्ताओं द्वारा विस्तृत अध्ययन किया जा चुका है। पर स्युडो-एफीड्रोन की ओर बहुत ही कम ध्यान दिया गया है। चूकि यह क्षारोद एफीड्रा के भारतीय भेदों में प्रचुर परिमाण में पाया जाता है। इसलिये लेखक तथा उसके सहकारियों ने इसका सावधानतया अध्ययन किया । (६० डू. ___ एफीड्रोन और स्युडो-एफीडीन के प्रभावभेद-संकलित प्रायोगिक नोटों से यह स्पष्ट है कि स्युडो-एफीड्रीन की क्रिया का एफीड्रीन की क्रिया से निकट सादृश्य है । दोनों क्षारोद यकृत से अपरिवर्तित दशा में ही उत्सर्गित हो जाते हैं और अपना साधारण प्रभाव उत्पन्न करते है; चाहे उन्हें ( Mesenteric vein ) में Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एफिड्रा १७६२ एफिडान अन्तःक्षेपित ( Inject ) किया जाय वा | सांस्थानिक शिरा ( Systemic vein. ) में । ये उभय दारोद अामा राय-प्रांत्र-पथ से शीघ्रतापूर्वक अभिशोषित हो जाते हैं और त्रिस्थ पेशिका ( Musculature. ) पर इनका प्रतिरोधक प्रभाव (11.hibitingeffect.) लगभग समान होता है। उभय क्षारोद रक्त प्रणालियों को संकुचित करते और स्पष्टतया रक्त-चाप की वृद्धि करते हैं। इनमें से एफोड्रोन का, जो कोष्ठस्थ गत्युत्पादक नाड़ियों के छोरों ( Vasomotor uerve) पर प्रायः निःशेष कार्य करती हैं, कोष्टीय वेगवर्द्धनीय प्रभाव (Vasopressor effect) अधिक बलवता होता है, जबकि स्युडो-एफोडीन (Pseudo-Ephedripe ) figna afztकाओं ( Musculature of the vessels ) पर भी कुछ कार्य करती हुई बतलाई गई है । स्युडो-एफोड्रोन से फुस्फुसोय और ( Portal ) क्षेत्रों में चाप-वृद्धि भी कम लक्षित होती है। वायु-प्रणालिकाओं पर इसके विस्तारक प्रभाव तथा उसो प्रकार नासिका को श्लैनिक कलाओं पर श्राकुचनकारी प्रभाव को शक्ति में एफोडीन से अावश्यक भेद नहीं होता । उभय क्षारोदों के वृक्क पर प्रभाव करने का परिणाम रक-प्रणालियों का प्रसार करना और वृक्क को आयतन-वृद्धि करना है; परन्तु स्युडोएफीडोन को दशा में एकीड़ोन द्वारा उत्पादित प्रारम्भिक क्षणिक संकोच का अभाव होता है। प्रथमोक क्षारोद ( स्युडो-एफोड़ोन) को दशा में मूत्रन प्रभाव अधिकाधिक स्पष्ट होता है। ऐच्छिक और अनैच्छिक मास-पेशियों पर उभय क्षारोदों को क्रिया लगभग एक समान प्रतीत होतो है । (इं० डू. ई०) एफीड्रीन प्रामाराय-फुस्फुसीया वा प्राणदा (vagus) नाड़ियों एवं इच्छाधीन( Autonomic) वातवहानाड़ियों को चेष्टा द्वारा रनवेग को वृद्धि करतो है ओर श्वासनाड़ो एवं उसकी शाखा-प्रशाखा को विस्तारित करती है; परंतु श्वासकेन्द्र पर इसका कुछ भी प्रभाव नहीं होता। इसका विलयन (१०० में ४ भाग) पचीस मिनट में ही आँख की पुतली को प्रसारित कर देता है और मस्तिष्क में प्रवृद्ध रक्वेगजनित अनिद्रा रोग का प्रादुर्भाव करता है। समस्त क्षुप वा मिलित उभय क्षारों की क्रिया-प्रयोग द्वारा जिस प्रकार ये श्वास-नाड़ी और उसकी शाखा का विस्तार करते हैं, उसी प्रकार रक्त-चाप को वृद्धि नहीं करते। उक्त 'हारोदों को पृथक्-पृथक उपयोग करने की श्रोता इनका सम्मिलित प्रयोग विशेष उपयोगी होता है। इनके अधिक काल तक सेवन करने से कोई अपकार नहीं होता। भारतीय एफीड़ा के चिकित्सोपयोगी प्रयोगयह पहले लिखा गया है कि एफीड्रा की अनेक भारतीय जातियों में अत्यधिक परिमाण में स्युडोएफीडीन वर्तमान होती है। अनेक दशाओं में इसकी विभिन्न जातियों से समस्त दारोदों में से एफोडोन को प्राप्ति ५० प्रतिशत से अधिक नहीं होतो । परंच उससे प्रायः बहुत ही कम मात्रा में होती है । वर्तमान काल में कारोदों का मूल्य लगभग ६००) प्रति पौंड है और इतने पर भी ये पर्याप्त मात्रा में प्राप्य नहीं होते। कतिपय भारतीय जातियों में स्युडो-एफीडीन की मात्रा एफीडोन की अपेक्षा बहुत अधिक होती है। इन घटनाओं पर दृष्टि रखते हुए हम लोगों ने यह जानने का प्रयत्न किया, कि चिकित्सा-कार्य में एफीडीन की जगह स्युडो-एकीड़ोन का उपयोग कहाँ तक सम्भव है। ___ श्वास-चिकित्सा और एफीड्रीन एवं स्युडोएफीड्रोन-उस समय से जब से कि एफीड्रोन की क्रिया (Sympathomimetic action) का अन्वेषण हुआ, श्वास-रोग की चिकित्सा में इस बारोद का विपुल प्रयोग किया जा चुका है। इसके द्वारा प्राप्त लाभ यद्यपि सर्वथा एडोनेलीनवत् प्राशुकारी नहीं, तथापि शोत्र और निश्चित अवश्य है । इसके अतिरिक्त मुख द्वारा इसका उपयोग हो सकता है । एतदर्थ सूचीकाभरण (Injection) द्वारा इसके प्रयोग की आवश्यकता नहीं Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एफिड्रा होती । इसी कारण, बहुसंख्यक रोगियों पर इसका विवेकपूर्ण उपयोग किया गया है, जिसका कभीकभी विपरीत फल भी हुआ है । हमें उन रोगियों का ज्ञान कराया गया है जो कई मास पर्यन्त दिन में दो बार श्रद्धग्रेन की मात्रा में इस क्षारोद के लेने के अभ्यास रहे हैं । कलकत्ता के ( School of Tropical medicine) हमारे श्वास- क्लिनिक ( Asthma clinic ) मैं इसके उपद्रवयुक लक्षण को चिकित्सा में उक्त क्षारोपयोगजात हमारा अनुभव सर्वांश में संतोषदायक नहीं है । नि.संदेह यह वेगों को नियन्त्रित करता और चौथाई घंटे से आध घंटे में लक्षणों का उपशमन करता है । पर इससे अभय पार्श्वविकार उत्पन्न होना संभव है । किसी-किसी रोगी के हृत्प्रदेश में इससे १० से २० मिनिट तक उग्र वेदना होती हुई भी देखी गई है। उक्त औषध के सेवन करनेवाले बहुसंख्यक रोगियों के हृदावरण में पीड़ानुभव होना इसका एक साधारण उपसर्ग है, जिसका कारण कोष्ठीय गत्युत्पादक नाड़ी-प्रांतों की उत्तेजना द्वारा उत्पादित तनाव-वृद्धि ( Hyper-tension) है। इससे किसी-किसी रोगी का दिल धड़कने लगता है, त्वचा भभक उठती है और प्रांतस्थ नाड़ियाँ शिथिल हो जाती हैं और उनमें झुनझुनाहट एवं शून्यता प्रतीत होती है और हृत्स्फुरण ( Tachycardia ) तथा बेहोशी के दौरे तक हो सकते हैं । इसके fear पिंगल नाड़ी-मंडल पर होनेवाली क्षारोद की उद्दीपनीया क्रिया, हठीली मलवद्धता जो किसी निर्दिष्ट प्रकार के श्वास रोग की वृद्धि करती है, उत्पन्न करने के लिये दायी है । इससे प्राय: भूख जाती रहती है और साथ ही साधारणतः पाचन विकार हो जाता है। उक्त श्रौषध काफी लंबे समय तक हमारे उपयोग में नहीं रही है, जिससे कि इसके समग्र विपरीत एवं विषाल प्रभावों का ज्ञान हो जाता; परन्तु उनको उपस्थिति निश्चित है । इसलिये इसके उपयोग में विशेषकर इस प्रकार के उपद्रव सहित लक्षण ( Symptom complex ) को दीर्घकालीन चिकित्सा में सावधान रहने को शिफारिस को जाती है। इसके द्वारा उपलब्ध रोगोपराम प्रायः अल्पकालानुबंधो १७६३ एफिड्रा होता है, जिससे उक्त औषध के बार-बार सेवन का प्रलोभन मिलता है । अस्तु, बिना कारण की खोज किए वेग के नियंत्रण के लिए इसका नियमित सेवन सख़्त वर्जित होना चाहिये । हमने प्रथम ही बतलाया है कि स्युडो- एफीड्रीन की दबाव डालनेवाली क्रिया एकीड्रीन की अपेक्षा बहुत ही निर्बल है । परन्तु, उसकी श्वासनलिकाविस्तारक क्रिया सर्वथा वैसी ही स्पष्ट प्रतीत होती है । फुस्फुसाया धमनो की शाखाओं का श्राकुचन श्लैष्मिक कला के फुलाव ( Turgescence) का उपमन करता है और साथ इसके वायुप्रणालियों का व्यक्त विस्तार वेगोपशमन में सहायक होता है । हम लोगों ने उक्त अवस्था के परिहारार्थ स्युडो- एफीड्रोन का उपयोग किया और इससे आशानुरूप फल प्राप्त हुआ । उक्त क्षारोद को 21⁄2 ग्रेन को मात्रा में मुख द्वारा प्रयोजित करने से १५ मिनिट से आधे घंटे के भीतर वक्ष के चतुर्दिक जो जकड़नसी प्रतीत होती है, वह उपशमित हो जाती है और रोगी का श्वास-प्रश्वास स्वस्थावस्था पर श्र जाता है। दौरे के ज्ञान की पूर्व सूचना मिलते ही वैसी ही एक मात्रा सेवन करने से साधारणतः वेग रुक जाता है । वस्तुतः इसका प्रभाव उतना ही शीघ्र होता है, जितना एकीड्रोन का । यद्यपि हमने काफी लम्बे पैमाने पर तथा काफी लम्बे समय तक इसका व्यवहार नहीं किया है। तथापि जहाँ-जहाँ इसका उपयोग किया गया, वहाँ फल श्राशाजनक ही हुआ है और इसके द्वारा उत्पन्न पार्श्व प्रभाव उतने अप्रिय नहीं रहे हैं। श्वास रोग एवं उन अन्य दशाओं के प्रतिकारार्थ, जिनमें एफीड्रीन का व्यवहार होरहा है, यदि इस क्षारोद का प्रयोग बढ़ाया जाय, तो न केवल इससे चिकित्सा में होनेवाला व्यय घट जाय; श्रपितु पूर्वोक्त श्रौषधजन्य प्रिय पार्श्व विकारों से भी निजात पाना संभव हो जाय । भारतीय एफीड्रा से तैयार की हुई सुराघटित रसक्रिया ( Alcoholic Extract ) वा आसव ( Tincture ) - यह प्रायः एफीड्रा जिरार्डिएना तथा एफीड़ा इंटरमीडिया नामक पौधे से प्रस्तुत किया जाता है। प्रथम उक्त पौधे की शुष्क टहनियों को ६० प्रतिशत सुरासार के साथ एक्झाष्ट Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एफिड़ा १७६४ एफिडा (Exhaust) करें, फिर उसमें इतना काफी पानी सम्मिलित करें, जिसमें एलकोहल की शकि लग-भग ४५ प्रतिशत रहे । ५.० घनरातांरामीटर रसक्रिया में समस्त क्षारोद की मात्रा ग्रेन रहनी चाहिये । इस एक्स्ट्रक्ट को चाहे अकेला व्यवहार में लायें या ऐजमा भिक्स्चर के साथ सम्मिलित का । यह श्वास के वेग नियन्त्रित करने में अतीव गुणकारी है। विशुद्ध ज्ञारोदों की अपेक्षा यह बहुत ही सस्ती है । अस्तु यह गरीब जनता के उपयोग में भी पा सकती है। इसका निर्बल टिंक्चर भी बाजार में उपलब्ध होता है। श्वास एवं श्वासयन्त्रगत अन्य रोगों में एफीडा का त्वरित विशिष्ट फल होता है। जब श्वास के वेग के कारण रोगी को प्राणान्त क्लेश और पीड़ा हो रही हो, उस समय इसके चूर्ण के उपयोग से वह तत्काल प्रराभित हो जाती है। इसके नियमित प्रयोग से सदा के लिये श्वास रोग को निवृत्ति होती है। इसका क्वाथ भी वातकफज श्वासनलिकाक्षेप में वा अवरुद्व कफज शब्दादि में उपकारी होता है। ____ इसी प्रकार बालकों की श्वास नलिका एवं उसकी शाखा प्रशाखोपशाखाक्षेप, वात-कास (Whooping cough) तथा श्वासयन्त्र पीड़ा को यह विशेषतः प्रशभित करता है और जिनको स्वभावतः प्रतिश्याय और कास हो जाता है, सीने में कफ शब्द करता है, उन्हें इसके कुछ काल के नियमित प्रयोग से शुभ विपाक दिखाई देता है । श्वसनक ( Pneumonia) और | ... गलग्रह ( Diphtherin) आदि रोगों में | हृदय के बलाधानार्थ इसका प्रतिदिन प्रयोग करते हैं। . वक्तव्य-यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि इस भूतल पर श्वासरुजात मानव-समाज के लिये . एफीडा ईश्वरीय वादान है। इसे श्वास-रोग को अमोघ औषध कहने में कोई संकोच नहीं हो सकता। जिन लोगों का यह विश्वास है कि “दमा दमके साथ जाता है", भलावे एकबार इसका प्रयोगका देखें । पुनः उन पर हमारी बात को सत्यता व्यक्त . हुये बिना न रहेगी। अखिल भूखंड के डाक्टर इसका सत्व ( Alkaloid ) श्वास-रोग में वर्तते हैं। इसलिये इसकी अतीव प्रति ठा-वृद्धि हुई है। पर विदित हो कि प्रयोग एवं परीक्षणों द्वारा यह बात भली-भाँति प्रमाणित हो चुकी है कि इस पौधे का चूर्ण इसके क्षारोदों की अपेक्षा कहीं अधिक गुणकारी है। इतना ही नहीं, वरन् जहाँ इसके सत्व के उपयोग से रक्त-चापं इत्यादि बढ़कर नाना प्रकार के उपसर्ग उत्पन्न हो जाते हैं, वहाँ उक्र पोधे के चूर्ण के उपयोग से उनका कहीं दर्शन भी नहीं होता तया रोगी और चिकित्सक दोनों हर प्रकार सुरक्षित रहते हैं । इस प्रकार जहाँ आप अधिकाधिक लाभप्राप्त करेंगे, वहाँ गरीब जनता भी आपको चिकित्सा से लाभान्वित हो सकेगी। वेग के समय जब रोगी जल-विहीन मोन की भाँति तड़प रहा हो और उसका खाना-पीना, उठना-बैठना भी हराम हो रहा हो, इसको ४ से १५ रत्ती को एक ही मात्रा ताजे पानी के साथ भोता जाने से क्षणमात्र में एकत्रोभूत कफ निःसरित होकर श्वास-नलिका सर्वथा परिष्कृत हो जाती है और रोगी सुख की नींद सो जाता है। इसके अतिरिक्त तीन-चार सप्ताह निरन्तर ६ रत्ती चूर्ण प्रातः काल और वैसी ही एक मात्रा रात्रि में सोते समय ताजे पानी के साथ सेवन कराते रहने से श्वास से सदा के लिये मुक्ति लाभ होता है। एकोडीन और स्युडो-एफीड्रोन के हृदयोद्दीपक प्रभाव-क्र-चाप पर इन क्षारोदों की उद्दीपनीय क्रिया सुविदित है । इसी हेतु हृदयोत्तेजक रूप से इनका उपयोग किया जा चुका है। हम पहले ही बतला चुके हैं, कि जब कि एफीडीन, विशेषतः बहुल परिमाण में, हृत्पेशियों पर निर्बलताकारक प्रभाव करती है, उसके विपरीत दूसरी ओर स्युडोएफीडीन उस पर उद्दीपक प्रभाव करती है । कोष्ठगत्युत्पादक नाड़ी-प्रांतों पर अपने निर्दिष्ट प्रभाव के सिवा उत्तर कथित क्षारोद धमनिकाओं के मांसतन्तुओं को भी उत्तेजित करता है। अस्त. लेखक ने हृदयोत्तेजक रूप से एफीडा रसक्रिया की, जिसमें एफीड्रीन और स्युडो-एफीडीन दोनों वर्तमान होती हैं ( उसमें भी उत्तर कथित क्षारोद ही अधिक परिमाण में होता है) परीक्षा को, और उससे श्राशा Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ht १७६५ जनक फल प्राप्त हुये । ऐसे रोगियों को जिनके हृदय की क्रिया निर्बल थी थोर हृदय डूब रहा था, इस औषध के प्रयोग से व्यक्त कल्याणप्रद प्रभाव प्रगट हुआ | 1⁄2 ड्राम से १ ड्राम तक दिन में २-३ बार उन श्रौषध बहुसंख्यक रोगियों को सेवन करा देने से, यह ज्ञात हुआ कि इससे रक्त-वेग नियत मात्रा में बढ़ गया ( पारा १० से २० मिलि मीटर तक चढ़ गया ) | पर्याप्त शोणित-संचालन के कारण जिन रोगियों के वृक्क की क्रिया अव्यस्थित हो गई थी, उनमें व्यक्र मूत्र प्रत्राव प्रगट हो गया । श्वसनक ज्वर ( Pneumonia ), गलग्रह ( Diphtheria ) श्रादि जैसे रोगों को छूत से होनेवाली हृदयको विषाक्त दशाओं में एफीड़ा का टिंकूवर उत्तम हृदयोत्तेजक भी है। लेफटेंट aga (Lt.Col. Vere Hodge, I. M. S. ) ने उक्त अवस्थाओं में 2 ड्राम की मात्रा में इसका टिंक्चर दिन में ३-४ बार प्रयोगित कराया और इससे उत्तम फलप्राप्त हुये । आर० एन० चोपरा एम० एम० ए० डी० (Indigenous drugs of India ). यह परिवर्त्तक, मूत्रविरेचनीय, श्रामाशय बल प्रद और वल्य है । उम्र श्रमवात में इसका क्वाथ और चूर्ण लाभदायक साबित हुये हैं । परन्तु चिरकारी अवस्था में ये उपयोगी नहीं है। दस-बारह दिन तक उक्त बूटी के सेवन से ही संधियों की सूजन और पीड़ा जाती रहती है और रोगी स्वास्थ्य लाभ करता I "इंडियन मेटीरिया मेडिका" में तो यहाँ तक लिखा है कि उम्र श्रमवातादि में जब सैलिसिलेट श्रॉफ सोडा, ऐण्टिपायरीन और ऐरिफेत्रीन आदि डॉक्टरी श्रोषधे निष्फल प्रमाणित होती है, तब यह बूढ़ी पूर्ण लाभ प्रदान करती है और उक्त षों की भाँति इससे हृदय निर्बल नहीं होने पाता । प्रत्युत उसके विरुद्व इससे हृदय को किसी भाँति शक्ति ही प्राप्त होती है । इसके काथादि के सेवन से यकृत को निर्बलता के कारण होनेवाले अजीर्ण-रोग में स्पष्ट लाभ होता होता है । क्योंकि इसके उपयोग से यकृत की क्रिया नियमित हो जाती है और उचित परिमाण में एफीड्रा - पैचिक्लेडा पित्तोत्सर्ग होते लगता है । इसलिये खाना भली भाँति हज़म होने लगता है और सुधाकी कमी एवं मलबद्धतादि यकृन्न बैत्यजन्य उपसर्ग भी जाते रहते हैं । जैसा कि ऊपर वर्णित हुआ है, कि इसके उपयोग से यकृत की क्रिया स्वाभाविक हो जाती है और पित्त भी तरलीभूत होकर भली प्रकार उत्सर्गित होने लगता है । इसलिये पित्त यकृत में एकत्रीभूत होकर रक में मिलने की जगह श्राहार पर अपना पूरा प्रभाव करता हुआ मल के साथ निःसरित हो जाता है, जिससे कामला- रोग का नाश होकर यकृत को सूजन कम हो जाती है । इसके फल का स्वरस श्वासनलिकागत विकारों पयोगी है। इसका काय परिवर्तक है और उग्र पेशीय एवं संधिजात श्रमात और फिरंग में प्रयोगित होता है । श्रामाशय बलदायक रूप से यह पाचन को सुधारता औरतों को शक्ति प्रदान करता है । नोट - एफीड़ा के शेष वर्णन के लिये दे० "श्रमसानिया" । एफीड्रा - अलेटा - [ले०ephedra-alata, Meyers] कुचन, लस्तुक, मंगरवल, निक्कि - कुर्कन । दे० "एफीड्रा पेडंक्युलेरिस” | एफीड्रा - इंटरमीडिया - [ ० ephedra-interm edia, schrenk. & Meyer.] दे० " एफोड़ा पेचिक्रेडा" । एफीड्रा - एल्टी - [ले० ophedra-alte, Brand.] दे० " एफीड़ा - पेडंक्युलेरिस" । एफीड्रा - जिराडिए ना - [ ले० eph dra-gerardi ana, Wall. ] दे०' ' एफीड़ा- वल्गैरिस" | एफीड्रा-डाइस्टैकिया - [ ले० ephedra distac hya, Linn.] दे० "एफीडा-क्लॉरिस " । एफीड्रा-पेडंक्युलेरिस - [ ले० ephedra pedun cularis, Boiss.] कुचन, लस्तुक । दे० " एफीड़ा" । एफीड्रा- पैचिक्लेडा [शे० ephedra pachyclada, Boiss. ] हूम - ( फ़ा० ) । श्रोमन - ( पश्तु) । गेह्या- (बम्ब०) । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एफीड्रा-फॉलिएटा १७६६ एफीड्रोनी-हाइड्रो-क्लोराइडम् एफीड्रा फॉलिएटा-[ ले• ephenira-fo iata, पर्या-सिन्थेटिक एफीड्रीन Synth. - Boiss.] एक प्रकार का एफिड़ा ।दे “एफिडा" tic Ephedrine यह Phenylimethylएफीड्रा-फ्रौगिलिस-[ ले• ephedra fragilis] aminopropanol का एक हाइड्रोकोराइड ___ एक प्रकार का एफिड़ा । दे० "एफिड़ा"। यौगिक है, जिसका एफीडीन से निकट का एफोड्रा-मॉनोष्टैकिया-[ ले० ephedra mono- सम्बन्ध है और गुण स्वभाव में यह एफीड्रोन stachya, Linn.] अम्सानिया दे० "एफिडा"। वा एडीनेलीन के समान होता है। जिन दशाओं में एफीड्रा-वल्गैरिस-[ ले• epbedra vulgaris, एडोनेलीन दी जाती है, प्रायः उन्हीं अवस्थाओं Rich.] अम्सानिया । दे० "एफिड़ा"। में यह भी मुख द्वारा प्रयोगित होती है। एफीड्रान-[अं॰ ephedrine ] एक प्रकार का इसको ग्रेन की चक्रिकाएँ और त्वगधः अन्त:क्षारीय सच जो विविध भाँति के एफीड़ा से प्राप्त क्षेप के लिए ऐम्पलस मिलते हैं। होता है । वि० दे० "एफिडा'। गुण-धर्म तथा प्रयोग एफीड्रीनी हाइड्रोक्लोगयडम्-संज्ञा स्त्री० [ ले. एफि.डीन का व्यवहार उन्हीं दशाओं में होता ephedrinae hydrochloridum.] है, जिनमें एडीनलीन देने का विधान है। इसे एफीडा सिनिका, एफीड़ा एकीसेटिना तथा रत्ती को मात्रा में दिन में २-३ बार मुख द्वारा एकीड़ा के अन्य भेदों से प्राप्त एफीड्रोन नामक सेवन करने से फुफ्फुस-प्रणालीजात श्वासरोग क्षारोह का हाइड्रोक्लोराइड यौगिक जिसके निर्गन्ध के वेग २०-३० मिनिट के भीतर रुक जाते हैं। वर्णरहित स्फटिक होते हैं। ये सुरासार (601) श्वास के उग्र वेगों में यह एडरीनंलोनवत् बलऔर जलविलेय होते हैं। इनके जलीय विलयन शालिनी नहीं होती और रोगी बहुत शीघ्र इसका से लिटमस पत्र में कोई परिवर्तन नहीं पाता । श्रादी हो जाता है। अस्तु, उक प्रभाव हेतु इसकी (Ephedrine hydrochloride.) अधिक मात्रा अपेक्षित होती है। इसके सेवन से असम्मत योग किसीरको उग्र स्वेद एवं अनिद्रा रोग होजाता है। (Non-official Preparations.) जबकि ग्रन की एक ही मात्रा देने से एतद्भिन्न व्यक्रियों पर इसका कुछ भी प्रभाव नहीं (१)-एलिक्सिर एफीड़िनी हाइड्रोक्रोराइडाई । Elixir Ephedrinæ Hydrochloridi होता। (B. P. C.)-ले। क्योंकि यह श्वासोच्छ वास-केद्रों को उत्तेजित योग-इसके प्रत्येक ड्राम में ग्रेन एफीडिन करती है; इसलिये मदकारी विषों में इसका उपहाइड्रोक्रोराइड होती है। योग होता है और उन दशाओं में यह काफीन (कहवोन ) तथा ष्ट्रिक्नीन (विषमुष्टोन ) की मात्रा-1 से २ ड्राम (२ से ८ मिलिग्राम)। अपेक्षा ही नहीं, अपितु कार्बन डाय आक्साइड की (२) नेबुला एडिमेलिनाई एट एफीड़िनी अपेक्षा भी श्रेष्टतर होती है। Nebula Adrenalmi et Ephed १०-१२ वर्षीय बालक को सोते समय इसे । rinae (B. P C.)-ले। रत्तीकी मात्रा में देने से रात्रि-शय्या-मूत्र रोग में योग-एड्रोनेलीन हाइड्रोकोराइड का विलयन २॥ अाउंस, एफीडीन हाइड्राक्रोराइड २०० उपकार होता है। 2 से - रत्ती यह औषध दि. ग्रेन; गिलिसरीन ऑफ फेनाल २०० बूंद, सिन्ने- में दो बार देने से एक वर्षीय शिशु की, विशेषतः मन वाटर उतना, जितने में कुल द्रव २० श्राउंस द्वितीय श्रेणी में पहुँची हुई कूकरखाँसी पाराम होजाय । होती है। (३) एफीटोनीन Ephetonin कुष्ठगत वात-वेदना में एडरीनलीन के सूचीवेध - की अपेक्षा इससे कहीं अधिक उपकार होता है। ( Merck.) Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एफ्रोडाइन । १७६७ एमल्शियो लेसीथीन विषाक्त लक्षण नोट-फ़िक्स्ड प्राइल (स्थिर तैल) और इसे अधिक मात्रा में सेवन करने से हृत्स्पंदन विच्छिल अर्थात् लसदार औषधियों को चीनी के (Tachycardia); कंप, शिरोभ्रमण, खरल में परस्पर मिलाने से उत्तम एमल्शन बन हृत्स्फुरण ( Palpitation ), स्वेद, उत्नेश सकता है। अस्थिर तैल (वालेटाइल पाइल्ज़), और वस्तिस्थ दोभ प्रभृति लक्षण उपस्थित होते क्षारीय एमल्शन और कम लसदार द्रव्यों का हैं । रक्तचाप-वृद्धि के साथ उन लक्षण प्रकाश एमल्शन बोतलों में ही बनाया जा सकता है । पाते हैं और उसे पुनः अपनी पूर्वावस्था पर पहुँचने पर्याय-मुस्तहल्व-(०)।शीरा-(फ्रा०)। के साथ ही वे विलुप्तप्राय हो जाते हैं। एमल्शन-ऑफ-कॉडलिवर-ऑयल-[ अं. emulएफ्रोडाइन-[अं॰ aphrodine ] दे॰ “योहिम्बीन sion of cod liver oil.] काड नामक हाइडोकोहाड'। समुद्रीय मछली के तेल का एमल्शन । ए. बी. सी. लिनिमेंट-[अं० A. B. C.Lini- एमल्शियो-आयोडोफार्माई-ले.emulsio-Iodo nment ] एक प्रकार की प्रलेपौषध । दे० "बछ ___formi. ] श्रायोडोफार्म का इमल्शन । दे० नाग"। "प्रायोडोफॉर्म"। एबेल्मॉस्कस-एस्क्युलेंटस-[ ले० abelmosch एमल्शियो-आलीयाई ऑलिवी कम्पाजिटा-[ ले० us-esculentus, W.& A.] भिंडी। रामतरोई । टिण्डिश-सं०। emulsio-olei oliva. co. (B.P.S.)] एबेल्मास्कस-मॉस्केट स-[ले. abelmoschus दे० "एमल्शियो ऑलियाई मोरहुई कम्पाजिटा"। moschatus, Moen.] मुश्कदाना । लता- एमल्शियो-अलियाई-माहु'ई-[ ले० emulsioकस्तूरिका। oleimorrhuae.] मत्स्य यकृत्तैल इमल्शन । एब्युटिलन-[ले. abutilon] दे॰ “अब्युटिलन"। दे. “मोहुई-बोलियम्"। एमल्शञ्ज-[अं. emulsions बहु.] दे० एमल्शियो-आलियाई-मोहु इ-कम्पाजिटा-[ ले. "मल्शन"। emulsio-clei-morrhuae. camposएमल्शन-संज्ञा पुं॰ [अं॰ emulsion][बहु० एमल ita.] यौगिक मत्स्य-तैल इमल्शन । शा] किसो अविलेय द्रव्य का ऐसा तरल मिण, एमल्शियो-पेट्रालियाई कम हाइपोफास्फाइटिबसजिसमें उक्त द्रव्य के अत्यन्त सूक्ष्म कण किसी [ले. emulsio-petrolii-cum-hypoलसदार पदार्थ के द्वारा जल में अवलंबित वा prosphitibus. (B. P. C.)]. भिले हुये होते हैं। इसमें रालयुक्त वा तैलीयांश ___ “पैराफीनम् लिक्विडम्"। के पानी में अवलंबित होने के कारण उक मिश्रण " एमल्शियो-मोहुई-पैन कृएटिका-[ ले० emulsio. क्षोरवत् सफेदी लिए होता है। __morrhuae pancreatica. ] काड __ एमल्शन दो प्रकार से बनाए जाते हैं-(१) मत्स्य तैल इमल्सन । दे० "काड मछली"। सेपोनीफिकेशन (साबुन बनाने की भाँति ) जो किसी स्थिर तैल में हार या टिंक्चर किल्लाई वा | एमाल्शया-माहु इ. व एमल्शियो-मोहु ई-पैन्कृएटिका कम एक्स्टै क्टो टिंक्चर सेनेगी (जिनमें सेपोनीन तत्व विद्यमान | माल्टाई- ले. emulsio-morrhuae होता है) के मिलाने से बनता है। (२) सस्पें Pancreaticacum Extracto malti] शन (अवलंबन) द्वारा, जो किसो रालयुक्त क्लोमीयमाल्टाक काडमत्स्य तैल इल्मशन । दे० औषध को किसी लसदार पदार्थ (लुभाब) या "मोहुई आँलियम्"। अंडे की जर्दी प्रभृति में मिलाकर बनाया जाता | एमल्शियो-लेसीथीन-[ ले० emulsiolec. है। जैसे, तारपीन-तैल का एमल्शन बनाया | ithin. ] कुक्कुटाण्ड-पीतक सार इल्मशन । जाता है। दे. "लेसीथीन"। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एमल्शियोनीज एमल्शियोनीज -[ ले० बहु० emulsiones. ] दे० "एमल्शन" | एमलसीन - [ ० emul.in.] कड़वे बादाम के तेल का एक संयोजक श्रवयव । एमरण्ट (न्थ )- [ श्रंo amirant (h) ] दे० " श्रमारेण्ट (थ)" । एमालआइसोन्युटिल - [ श्रं० amyle-iso bu. tyl.] दे० " एमाइल नाइट्रिस " । एमाइल - कोल्लॉइड - [ श्रं० amyle colloid. ] वेदनाहर कोलोडियन । दे० " कोलोडियम्" | एमाइल - नाइट्राइट - [ श्रं० myle nitrite. ] दे० "एमाइल नाइट्रिस” । एमाइल-नाइट्राइट-कैप्शूल्ज - [ श्रं० amylenitrite capsulee ] दे० " एमाइल नाइट्रिस" | १०६८ एमाइल - नाइट्रिस -संज्ञा पु ं० [ले० amyl-nitris.] एक हलके पीतवर्ण का ईथरीय द्रव जिससे एक विशेष प्रकार की सुगंध आती है । यह नाइट्रस एसिड एमा इलिक एलकोहल की जो १२८० और १३२० फारनहाइट के मध्य के उत्ताप पर परित किया गया हो, परस्पर एक दूसरे पर घटित तर्क्रिया द्वारा प्रस्तुत होता है । इसमें प्रधानतः श्राइसो एमाइल नाइट्राइट ( 1so-amyl nitrite) होता है। इसके अतिरिक्त इसमें एक प्रकार के अन्य नाइट्राइट का भी समावेश - होता है । इसकी प्रतिक्रिया किंचिदम्लतायुक्र अर्थात् अम्ल होती है और इसका श्रापेक्षिक भार० ८०० से ०८८० तक होता है । यह श्रति ही स्थिर होता है और अधिक समय तक रखने से विकृत हो जाता है । १०- एमाइल नाइट्राइट amyl पर्या nitrite ( श्रं० )। विलेयता - यह - यह सुरासार-एलकोहल (१०%), ई ओर कोरोफार्म में तो विलेय होता है, किंतु जल में विलेय होता है । मिश्रण वा खोट- फ्री एसिड और ऐमायल नाइटेट संयोग-विरुद्ध—एल्कलाइन कार्बोनेट्स, एमाइल नाइट्रिस पोटेसियम् श्रायोडाइड, पोटेसियम्, ब्रोमाइड और फेरस साल्ट्स | प्रभाव - धमनी - विस्तारक ( Arterial or Vasodilator ) और हृदय की गति को तीव्र करनेवाला एवं धामनिक आक्षेप पर प्रबल प्रभावकारी है । मात्रा - प्राणार्थ २ से ५ मिनिम तक और खिलाने के लिये 1⁄2 से १ मिनिम तक कैपशूल में डालकर । असम्मत योग (Not official preparations) ( १ ) मिरच्युरा एमाइल नाइट्राइटिस (Mistura amyl-nitritis )— योग – एमाइल नाइट्राइट १ ५ मिनिम, दूँगेकंथ १ ग्रेन, सिरप ३० मिनिम और परिश्रुत जल इतना जितने में कुल ४ फ्लुइड ड्राम हो जावे | (ब्रिटिश फार्माकोपिया के परिशिष्टानुसार ) (२) एमाइल नाइट्राइट कैप्शूल्ज (Am• yl nitrite capsules ) - यह शीशे की बहु पतली अंडाकार वटिकाएँ होती हैं जिनमें एक-दो-तीन या पाँच बूँद तक एमाइल नाइट्राइट भरा होता है । इस केपशूल को रूमाल में तोड़कर 1 (३) आइसो ब्युटिल - नाइट्राइट ( 1sobutyl-nitrite ) — इसके प्रभाव तथा प्रयोग एमाइल नाइट्र ेट के सहरा हैं और इसे उसके स्थान में प्रयोगित करते हैं । (४) टर्शियरी एमाइल नाइट्राइट (Fortiary amyl nitrite ) वा ब्रिटोंनिस ईथर ( Birtonis ether ) - यह दर्शियरी एमाइलिक एलकोहल (एमाइलीन हाइड्रेट) से निर्मित किया जाता है। इसमें एमाइल नाइट्राइट के समग्र गुण-धर्म विद्यमान होते हैं । परंतु इसमें विशेषता यह है कि श्रति मात्रा में भी इसका निरापद उपयोग हो सकता है । इससे मुखमंडल रागयुक्त नहीं होता । मात्रा - ५ मिनिम - ( ३० घन शतांशमीटर ) शर्करा पर डालकर या रिक्त केपशूल में डालकर प्रयोजित करें । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ raise नासि १७६६ (५) एमाइल वैलेरिएनास (Anyl Va. lerians ) – यह एक विवर्ण द्रव है जिससे फलों वा मेवों की सी तीव्र गंध आती है । प्रभाव — अवसादक ( Sedative ) और आक्षेपहर (Antispasmodic ) मात्रा -२ से ३ बूँद तक = ( . १२ से.१६ घन शतांरामीटर ) रिक्र कैपशूल में भरकर देते हैं । एमाइल नाइट्रेट के प्रभाव वाह्य प्रभाव एमाइल नाइट्र ेट का स्थानीय प्रयोग करने से, थोड़े समय के लिये, यह ज्ञानवहा नाड़ियों ( Sensary nerves ) को शिथिल कर देता है । किंतु यह प्रभाव प्रति शीघ्र जाता रहता है । अस्तु, इस प्रयोजन के लिये इसका उपयोग नहीं किया जाता । श्रभ्यन्तरिक प्रभाव एमाइल नाइट्रेट को यदि सुँघाया जाय, तो फुफ्फुस द्वारा और खिलाया जाय, तो श्रमाशय द्वारा यह तत्क्षण रक्त में प्रविष्ट हो जाता है और सोडियम् नाइट्र ेट के रूप में शोणित में भ्रमण करता है । यदि इसे अधिक मात्रा में सूघा जाय अर्थात् श्रति मात्रा में अभिशोषित हो जाय तो, यह शिरा और धमनी स्थित शुद्धाशुद्ध एवं अन्य प्रकार के शोणित का वर्ण श्यामतायुक कर देता है। क्योंकि यह हीमोग्लोबीन (शोणितस्थित रक्राणु) को मीथहीमोग्लोarrar नाइट्रो-ऑक्साइड हीमोग्लोबीन (विकारी जो रक्ताणुओं के वर्ण को स्याह कर देते हैं ) में परिणत कर देता है । इसलिये रक्तकणों में अल्प मात्रा में वजन अभिशोषित होता है और शोणित का वर्ण श्यामतायुक्त हो जाता है। सामान्य मात्रा में इसका उपयोग करने से तो इसका उक्त प्रभाव सूक्ष्मतर होता है। मीथ- हीमोग्लोबीन पुनः शीघ्र श्रोषजनीकृत ( Oxidised ) हो जाती है। किंतु विषाक्क मात्रा में प्रयोगित करने से ये परिवर्तन घातक प्रमाणित हुआ करते हैं । हृदय और रक्तप्रणालियाँ - एमाइल नाइट्र ेट के सूंघते ही क्षण मात्र में मुखमंडल, शिर और ग्रीवा गरम और रागयुक्त हो जाती है । ग्रीवा की I ४ फा० एमाइल नाइट्रिस फूली हुई और स्पंदित होती हुई ग्गोचर होती हैं, शिर में गुरुता का बोध होता है और हृदय शीघ्र शीघ्र एवं जोर से गति करने लगता है । तदुपरांत अविलंब शिरोशूल एवं शिरोभ्रमण का प्रादुर्भाव होता है, साँस तीव्र हो जाती है और कनीनिकाएँ प्रसारित हो जाती हैं। और यदि औषध की मात्रा अधिक हो, तो सम्पूर्ण शरीर की धनिकाएँ ( Arterioles ) विस्तारित हो जाती है। जिसका कारण उनके पैशीय स्तरों का क्षीण एवं वातग्रस्त हो जाना होता है; क्योंकि ये रगें तब ही प्रसारित हुआ करती हैं, जब उनके पेशीय स्तर वातग्रस्त हो जाया करते हैं । अस्तु, रक्तचाप और धामनिक तनाव बहुत घट जाता है। किंतु नाडो की गति तीव्र हो जाती है । यद्यपि उसकी शक्ति में किसी प्रकार की वृद्धि नहीं होती । जिसका कारण संभवतः यह होता है, कि रक्क्रचाप के कम हो जाने के कारण प्राणदा नाडी ( बैगस- नर्व) मूल शिथिल हो जाते हैं। इस दवा को विषैली मात्रा में सुंघाने से संभव है कि स्वयं हृदयगत पेशियों के वातग्रस्त हो जाने के कारण वह प्रसारित (Diastole) दशा में गति करने से रुक जाय । श्वासोच्छ्वास - श्वासोच्छ् वास केन्द्र पर माइनाइट्र ेट का प्रथमत: उत्तेजक प्रभाव होता है, जिससे साँस गम्भीर और जल्दी-जल्दी श्राने लगती है; पर बाद में धीरे-धीरे एवं कष्ट से श्राती है और अन्ततः श्वासोच्छ् वास केन्द्र के वातग्रस्त हो जाने से श्वास श्रवरूद्ध होकर मृत्यु उपस्थित होती है । नाड़ी-मंडल - एमाइल नाइट्र ेट के सुधाने से बहुशः वातजनित लक्षण, यथा- शिरः शूल, शिरो भ्रमण, शिर के भीतर तड़प प्रतीत होना, कनीनिका - विस्तार श्रादि समग्र लक्षण मस्तिष्क और सुषुम्नागत धमनिका ( Arterioles )विस्तार के कारण प्रादुर्भूत होते हैं । इसे अधिक परिमाण में देने से सौघुम्न गति - केन्द्र वातग्रस्त हो जाते हैं । अस्तु, परावर्तित क्रिया सर्वथा नष्टप्राय हो जाती है और मृत्यु से कुछ क्षण पूर्व ज्ञानवहा और चेष्टावहा नाड़ियों के व्यापार अनियन्त्रित हो जाते हैं । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एमाइल नाइट्रिस १७७० शारीर-ताप - एमाइल नाइट्र ेट के प्रभाव से शारीरिक ऊष्मा स्वास्थ्य और ज्वर दोनों दशाओं में कम हो जाती है। शारीरिक ताप के कम होने का उक्क कार्य प्रान्तस्थ प्रणालियों ( Periphe ral vessels ) के_विस्तारित हो जाने और शारीरिक संवर्तन क्रिया ( Metabolism ) के विकृत हो जाने के कारण हुआ करता है । प्रस्राव – एमाइल नाइट्र ेट का नाइट्राइट्स और नाइट्र ेट्स के रूप में मूत्र द्वारा उत्सर्ग होता है । यह किंचिद् मूत्रल भी है । टिप्पणी- कभी - कभी इसके उपयोग से पेशाब में शर्करा श्राने लगती है अर्थात् मधुमेह (Giycosurea ) नामक व्याधि हो जाती है, जिसका कारण संभवतः यकृत की रंगों का प्रसारित हो जाना होता है । एमाइल नाइट्र ेट के चिकित्सोपयोगी प्रयोगइन्हलेशन ( सुँघाना ) - डाक्टर ब्रण्टन ( Brunton ) महाशय ने सन् १८६७ ई० में इस बात का पता लगाया, कि हृच्छूल नामक व्याधि में रोगाक्रमण के समय प्रान्तस्थ प्रणालियाँ श्रतीव संकुचित हो जाती हैं। उसने यह भी अवलोकन किया कि एमाइल नाइट्र ेट के उपयोग से वे रंगें विस्तारित हो जाती हैं। इस लये उन्होंने उक्त व्याधि में इस औषधि को सुधाया । फल यह हुआ कि प्रान्तःस्थ रंगें फैल गई ' और हृच्छूल विलुप्त हो गया । पर कभी ऐसा भी होता है कि हृच्छूल में शरीरगत प्रान्तस्थ प्रणालियाँ नहीं फैलतीं । किंतु एमाइल नाइट्र ेट के श्रघाण कराने से उक्त श्रवस्था में भी कल्याण हो जाता है । श्रतः श्रब हर प्रकार के हृच्छूल में उक्त भेषज को सुघाते हैं प्रधानतः उस समय जब वेदना वेग क्रमानुसार होती । इसके सुँघने प्रायः दो-तीन मिनट के उपरांत ही रोगी लाभ अनुभव करता है । वक्ष के धमन्यर्बुद-जनित पीड़ा में भी इस औषध के उपयोग से लाभ होता है। रजोनिवृत्ति (Menopause ) काल में कतिपय स्त्रियों के जो मुखमंडल वा शरीर के अन्य भाग गरम और रागयुक हो जाते हैं, उनको भी इस औषधि के एमाइले नाइट्रिस सूँघने से बहुत उपकार हुआ करता है । मृगी में रोग का वेग प्रारम्भ होने के समय ही यदि यह औषध श्राघ्राण कराई जाय, तो प्रायः वेग रुक जाया करता है । शीतज्वर ( Ague) में कंप प्रारम्भ होते ही, यदि उक्त भेषज श्राघ्राण करा दिया जाय, तो ज्वरवेग संक्षेप हो सकता है। अर्द्धावभेदक ( Migraine) में, जो चेहरे के एक ओर की रंग के आक्षेपग्रस्त हो जाने के कारण 1 करता है और जो अपनी पांडु - पीतवर्णता द्वारा पहचाना जा सकता है, एमाइल नाइट्रेट के सुँघाने से कभी-कभी कल्याण होता है । सन्यास ( Syncope), मूर्च्छा, ( Fainting ) और श्वासावरोध वा श्वासकृच्छ्रता में भी जैसा कि डूबने वा फाँसी लगने में हुआ करता है, उक्त भेषज कल्याणप्रद प्रमाणित हुआ है । क्लोरोफार्म सुघाते समय यदि हृदयावसाद के कारण चेहरे का रंग फीका पड़ जाय, तो उस दशा में भी इस औषधि के सुँघाने से उपकार होता है । श्रहिफेन जनित विषाक्रता में भी इसका हितावह प्रमाणित हुआ है । चूँकि इससे रक्तचाप घट जाता है; अस्तु, रक्तनिष्ठीवन ( Haemoptysis ) और रक्तवमन ( Haematemesis ) नामक रोगों में इसका उपयोग हितकर अनुमान किया गया है । किन्तु उक्त व्याधियों में इसकी उपयोगिता भी संदेह रहित नहीं कही जा सकती । दमा वा श्वास रोग ( Asthma ) में जब इसके साथ अन्य उपसर्ग वर्तमान न हों, तब माइल नाइटेट के सुघाने से क्षणमात्र में हो श्वास कृच्छ्रता निवृत हो जाती है । हार्दीय श्वास कृच्छता । हृदय के विस्तारित और स्थूल हो जाने से साँस के कष्ट से श्राने ( Cardiac dispnoea. ) में, जब कि उसके साथ जलंधर - रोग भी विद्यमान हो, उक्त औषधि के सुंघाने से ऊपर से देखने में लाभ हो जाया करता है । सामुद्र-रोग ( Sea sickness ) में भी Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एमाइल नाइट्रिस १७७१ एमाइलाई आयोडिसेटम यह औषध हितकर है । स्त्रियों के कष्टरज ( Dy- एमाइलम्-[ ले० amylum ] गोधूमज-सार । smenorrhoea) रोग में कहते हैं कि इसके निशास्ता । नशा । श्वेतसार । उपयोग से रोग-यंत्रणा कम हो जाती है। यह एमाइल-वैलेरियेनास-[अं० amyl-valeriaयोन्याक्षेप ( Uterine spasm ) का निवा- nas ] दे॰ “एमाइल नाइट्रिस" । रण करता है और जच्चा के हस्तपादादि में श्राक्षेप एमाइल-वैलेरियेनेट-[ अं० amyl-valerianहोने ( Eclampsia) को रोकता है। ate ] एक डाक्टरी औषध जो वैलेरियन (जटा सुषुम्ना-कांड पर इस औषध का अवसादक मांसो) को प्रतिनिधि स्वरूप काम में पाती है । दे. प्रभाव होता है । अस्तु, धनुष्टङ्कार ( Tetan- | "बोर्निवल" us )और कुचलीन-जन्य विषाक्रता (Strychn- एमाइल-सैलिसिलेट-[ अं० amyle salicyl. ine poisoning) में भी इसको देते हैं। ate ) संधान-क्रिया विधि से प्रस्तुत किया हुआ __ सूचना-कोमल प्रकृति या वात-प्रकृति के एक प्रकार का शीतहरित तैल (आइल अाफलोग इस दवा के प्रभाव से अधिकाधिक प्रभावित विण्टरग्रीन ) जो मीथिल सैलिसिलेट की प्रतिहोते हैं । अस्तु, उक्त प्रकृति के व्यक्तियों को बहुत निधि रूप से व्यवहार किया जाता है। यह अत्यंत सावधानीपूर्वक इस औषध का व्यवहार करना क्षोभक तथा मंद गंधयुक्त होता है। इसे प्रामवाचाहिये। ऐसे रोगियों को जो महाधमनो ( Aor ताक्रांत संधियों पर लगाकर ऊपर से ऊनी कपड़े ta) की किसो व्याधि से अक्रान्त हो या से आच्छादित कर देते हैं और ५ बूंद की मात्रा जिनकी धमनियों के स्तर वसादि में परिणत हो में इसे कैप्शूल्ज में डालका मुख द्वारा प्रयोगित गये हों वा फुफ्फुसीयाध्मान ( Emphyse- करते हैं । बोर्नियो-केम्फर (भीमसेनी-कपूर) द्वारा ma) के रोगी को और रक-प्रकृति के रोगियों को प्रस्तुत किये हुये सेलिट वा "बोर्नियोल सैलिसिar farcasret #12 ( Chronic Bronchi- लेट" के भी उपयुक्त गुण-प्रयोग हैं। साधारणतः tis) रोगियों को इस औषध का प्रयोग कदापि इसे समान भाग जैतून तेल में डायलूट कर, न करना चाहिये। श्रामवाताक्रांत संधियों पर लगाते हैं। एमिसाल पत्री-लेखन विषयक आदेश—यह औषध (amysal) “एमाइल सैलिसिलेट" के योग प्रायः सुधाई जाती है, यद्यपि इसे मुख और से बना हुआ एक प्रकार का मिश्रित प्राइंटमेंट है, स्वगीय सूचिकाभरण द्वारा भी प्रयोगित कर सकते जिसका प्रयोग प्रामवातिक संधियों पर होता है। हैं । अस्तु जब इसे सुघाना हो, तब चार-पाँच बूंद इस | ह्वि० मे० मे। औषध को रूमालपर छिड़ककर वा इसका एक ग्लास | एमाइल-हाइड्राइड-[ अं७ amyle-hydride ] कैप्शूल रुमाल में तोड़कर सतर्कतापूर्वक सुधाएँ। हींगोलोन ( rhigolene)। दे. "हींगोयदि मुख द्वारा प्रयोजित करना हो, तो सरा- लीन"। सार (६०%) में विलीन करके वा किंचिद् एमाइलाइ-आयोडिसेटम्-लेamyli-Iodisब्रांडी में मिलाकर या कतीरे के लुभाब ( Muci atum ] एक डाक्टरी असम्मत (नाटआफिlage Tragacanth) में मिलाकर दें। शल) औषध । इस औषध के ग्लास कैप्शूल भारतवर्ष में विकृत प्रस्तुत-क्रम-५ भाग प्रायोडोन को थोड़े जल नहीं होते। में आलोडित कर, १५ भाग गोधूमज श्वेतसार में टिप्पणी-रोगी इस दवा के सूघने के सावधानीपूर्वक रगड़ते हैं । यह प्रायोडीन के प्रयोग अभ्यासी हो जाया करते हैं । अस्तु, कुछ कालोप- का एक साधन है । इसे १ ड्राम को मात्रा में दूध रांत ऐसे रोगियों को एक बार औषध सुंघाने से वा जल में घोटकर बर्तते हैं। शुष्क होसिंग रूप कुछ भी लाभ नहीं हुआ करता है, जब तक उन्हें | से यह उन प्रत्येक दशाओं में प्रयुक्त हो सकता है, कई बार यह औषध न सुंघाई जाय।। जिनमें "आयोडीन" का व्यवहार होता है। किसी Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एमाइलाइ क्लोराइडम् १७७२ एमादियून विवात औषधजन्य विषाक्रता के अज्ञात होने पर देने से कुछ लाभ नहीं होता, यह औषध हितकर उसके प्रतिविध स्वरूप से भी इसका उपयोग प्रमाणित हुई है। किया जाता है। नोट-इस औषध के सेवनोपरांत कोई हानिएमाइलाइ-क्लोराइडम्-[ले. amyli-chlorid. का उपसर्ग नहीं प्रकाशित होते । जहाँ दोघं काल __um ] दे॰ “एमाइलाइ प्रायोडिसेटम्"। ... पर्यन्त निद्राजनक औषध का व्यवहार करना हो, एमाइलाइ-ब्रोमाइडम्-[ ले० amyli-Bromid- वहाँ पर इसका उपयोग श्रेयस्कर होता है। um ] दे॰ “एमाइलाइ-आयोडिसेटम्"। पत्रीलेखन विषयक आदेश-इसको जल वा एमाइलीन-क्लोरल-[अं॰ amylene-chloral] मद्यसार (६०%) में घोलकर देना चाहिये। यह एक चपरा तैलीय द्रव है, जो क्लोरल पर इसे कैप्शूरज में भी देते हैं। अस्तु, इसके १० एमाइलोन हाइड्रेट की क्रिया द्वारा प्राप्त होता है । बूद वाले कैपशूल्ज बने बनाये बिकते हैं और इसे "डामियोल" (darmiol ) भी करते हैं। कभी-कभी वस्ति (इंजेकशन) द्वारा भी इसका यह भी निद्रा उत्पन्न करती है। उपयोग करते हैं । इसको त्वगीय पिचकारी द्वारा __ मात्रा-५ से १० मिनिम ( बंद)=(.३ से | प्रयोग नहीं करना चाहिये । क्योंकि इससे वहाँ पर घन शतांशमीटर)। वेदना होने लगती है। नोट-इसका प्रायः ५० प्रतिशत का घोल एमाइलो डेक्स्पन-[अं० amylo-dextrin.] विक्रय होता है, पर इसके के गूल (प्रत्येक कैप- एक विशेष प्रकार का स्कटिकीय चूर्ण । शूल में ७॥ बूंद यह प्रोषध होतो है ) प्रयोग में एमाइलोपसीन-[ अं० amylopsin. ] क्रोमलाना चाहिये। ग्रन्थि-स में पाए जानेवाले चार प्रकार के उपयोग-मालीखोलिया में यह श्रौषध उप- फोटों में से एक । इसका कार्य खाद्यगत श्वेतयोगी पाई गई है । यह असम्मत वा नाट श्राफिशल सार ( starch ) को रारा में परिणत ... (Not official ) है । करना है। एमाइलीन-हाइ इट-[अं० amylene-Hydr- | एमाइलोफॉर्म-[अं॰ amyloform. ] एक प्रकार ate] एक प्रकार का स्वच्छ वर्णरहित तैलीय का गन्धरहित अविलेय श्वेत चूर्ण जो उष्णता द्रव, जिसकी गंध विशेष प्रकार की उग्र तथा स्वाद । से परिवर्तित नहीं होता और जो श्वेतसार पर तीव्र होता है। फॉर्म एल्डीफाइड के क्रिया करने से प्रस्तुत पा०-टर्शियरी-एमाइलिक एलकोहल Ter- होता है। tiary Amylic Alcohol-vio एमादियून-[यू.] एक वनस्पति जो सजल स्थान में - असम्मत या नाट आपिशल उपजती है। इसमें बारह से अधिक पत्र नहीं ( Not official) होते । यह पुष्प और फल से रहित होती है । विलेयता-एक भाग यह पाठ भाग पानी इसकी जड़ पतली और काले रंग की होती है। और एल्कोहल (६०%) में सहज में धुल गन्ध तीव्र तथा स्वाद फीका होता है। यह जाता है। शीतोत्पादक है। इसमें जलीय द्रव होता है। __ मात्रा-~-३० से ८० बूंद तक=(१.८ से ४.७२ इसे पीसकर स्त्री के स्तन पर लेप करने से उसकी धन शतांशमीटर )। रक्षा होती है। यदि जैतून का तेल मिला लें, प्रभाव तथा प्रयोग तो और भी लाभ हो, यदि पुरुष १०॥ मासे इसकी पह निद्वाजनक है। मेनिया अर्थात् उन्माद | जड़ वा पत्तो लेकर शराब के साथ खाले, तो राग और प्रधानतः मानोमेनिया (अहिफे- नपुंसक बन जाय । इसी प्रकार ऋतुस्नानोनोन्माद) में तथा डेलीरियम् टू मेंस (मदात्यय) परांत यदि स्त्री इसे भक्षण कर ले, तो वन्ध्या ओर उग्र प्रकार की मृगीरोग में,जिसमें ब्रोमाइड के होजाय । (ख० अ०) , Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एमिक पोतु १७७३ एम्लाष्ट्रम एकोनाइटाइ एमिक-वोग्गु-ते. ] हड्डी का कोयला । अस्थ्यङ्गार । एमेराल्ड-[अं॰ emerald. ] दे॰ "ईमेराल्ड" । एमिकलु-[ते०] हड्डी । अस्थि । | एमेरीलिडेशीई-[अं० amaryllidaceae ] एमिग्डलस-कम्युनिस- ले० amygdalus- | ओषधियों का एक वर्ग । सुखदर्शन वा मुसली. . communis, Linn.] बादाम । वाताद । वर्ग। एमिण्डलस-(ला) अमारा-ले० amygdalus | एमैरीलिस-[ ले० amaryllis.] दे. “एभेरी (- la) amara. ] कड़वा बादाम । कटु. लिडे शीई"। - वाताद । बादामे तल्ख । एमोडीन-[अं॰ emodin.] एक सत जो चकएमिग्डलस (-जा) डल्सिस- ले. amygdalus बैंड ( चक्रमई) और रेवन्दचीनी (पीतमूली) (.la) dulcis. ] मीठा वादाम । मिष्ठ- की जड़ से भी प्राप्त होता है । इसकी रासायनिक 2. वाताद। रचना क्राइसोफेनिक के बहुत कुछ समान एमिग्डलस-पर्सिका-[ ले० amygdalus.tel. होती है। ___sica, Linn.] अाडू । आड़। | एमोनाइकम्-[ ले० ammoniacum. ] एमिग्डलीन-[अं० amygdalin.] वातादीन । उश्शक । दे० "उश्शक"। बादाम का सा । यह एक प्रकार का स्फटिकीय एमोनाइकम-एण्ड मर्करीमाष्टर- अं. ammon. ... ग्ल्यूकोसाइड है, जो कड़वे वादाम से प्राप्त ____iacum and mercury plaster.] । होता है। पारदारशक-प्रलेप । दे० "उशक" । एमिग्डेलिक-एसिड-[अं० amygdalic aid. Jएमोनाइाम-मिक्सचर-[अं० ammoniacum वातादाम्ल, वादाम का तेजाब । __mixture.] उश्शक मिश्रण । दे. "उश्शक"। एमिग्डोफेनीन- अं० amygdophenin. ] एमोनियम्- ले० ammonium. ] दे. साइट्रोफेनवत् एक प्रकार का लवण, जो उतनी ही "अमोनियम्"। मात्रा में कोचट्स में डालकर दिया जाता है । यह | एमोनिएटेड-मर्करी- अं० ammoniated - अङ्गमईप्रशमन तथा प्रामवातम्न है । दे. _inercury. ] हाइडू.णिराई एमोनिएटम् "साइटो फेन"। ____hydrargyri ammoniatum. दे. एमिडोपाइरीन-[ अं० amidopyrin. ] दे. ___ "अमोनियम्"। "पिरामिडन"। एमोल-[अं॰ emol. ] फूलर मृत्तिका (fallen's एमिनोबेज़-[ अं० aminobenz. ] दे० ___earth) जैसा एक प्रकार का बारीक चूर्ण । "अर्थीफार्म"। एमोलिएट-[अं॰ emollient. ] मृदुताकारक एमिलिया-सॉलिफोलिया-[ ले० emilia-sonch __ औषध । _ifolia. nC.] हिरनखुरी। सुधिमुदि । एमोलिएट आइंटमेंट-[अं० emollientoint। सादामंडो। एमिसाल-[अं.. amysal.] दे॰ “एमाइल ___ment ] मृदुताजनक अम्यंग । दे. "ऊन" । सैलिसिलेट"। एम्लाष्ट म्- ले० emplastrum. ] [ बहु. एमेटीन-[.अं. emetine. ] एक प्रकार का एम्नाष्ट्रा ] दे॰ "एमप्लाष्ट्रा"। .... सत्व जो इपीकेकाना की जड़ से प्राप्त होता है। एम्लाष्ट म्-आयोडाइडाई-[ले. emplastrumदे. "इपीकेकाना"। -iodidi.] श्रायोडीनोपलेप। आयोडोन द्वारा एमेटीन-हाइड्रोक्लोराइडम्-[ ले० emetine निर्मित एक प्रकार का प्रलेप। ____bydrochloridum. ] दे॰ “इपिकेक्वाना"। एम्प्लाष्ट्रम्-एकोनाइटाइ-[ले. emplastrumएमेटीन-हाइड्रोब्रोमाइडम्- ले. emetine by _aconiti ] बछनाग का पलस्तर । वत्सनाभोपdrobromidum. ] दे॰ "इपीकेक्काना"। लेप । दे० ''बछनाग"। । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एमालाष्ट्रम-ए कोनाइटाइ एट बेलाडोनी १७७४ एयरन्स रॉड एम्प्लाष्ट्रम-एकोनाइटाइ-एट-बेलाडोनी-ले० em- एम्प्लाष्ट्रम्-बेलाडोनी-[ ले० emplastrum plastrum aconiti et belladonn-| belladonnae ] बेलाडोना पलस्तर । दे. ae] बछनाग और यबरुज का पलस्तर । बेला- "बेलाडोना"। डोना वत्सनाभोपलेप । दे. "बछनाग"। एम्प्लाष्ट्रम-बलाडोनी-फ्लुइडम्-ले. emplastएम्प्लाष्टम-एमोनाइसाइ-कम हाइड्राजिरो-ले-em- rum-belladonnae-fluidum ] बेला plastrum ammonicicum hydra- ____डोनाद्रवोपलेप । दे० "बेलाडोना"। . rgyro ] उश्शक पारदोपलेप । दे. "उश्शक" एम्प्लाष्ट्रम्-माइलेब्रिडिस-[ले० emplastrumव 'पारा"। __mylabridis ] तेलनोमक्खो का पलस्तर । एम्लाष्ट्रम्-ओपियाइ-[ ले. emplastrum- दे. "तेलनी मक्खी"। " opii ] अफीम का पलस्तर । अहिफेनोपलेप। एम्प्लाष्ट्रम्-मेन्योल-[ ले• emplastrum-meदे. "पोस्ता"। _nthol ] मेन्थोलोपलेप । पुदीने के जौहर का एम्प्लाष्ट्रम्-कैन्थेगिडिस-[ ले० emplastrum- ___ पलस्तर । दे. "पुदीना"। cantharidis] टेलनीमक्खी का प्लस्तर । एम्प्लाष्ट्रम्-रेजाइनी- ले. emplastrum-re स्निग्ध माविकोपलेप । दे० "लनी मक्खो"। ___sinae ] राल का पलस्तर । दे० "राल"। एम्प्लाष्ट्रम्-कैप्सिसाई- ले० emplastrum- एम्लाष्ट्रम्-सेपोनिस- ले० emplastrum capsici ] लाल मिरच का प्रस्तर । कुमरिचोप- sponis] साबुन का पलस्तर ।दे. "साबुन"। लेप । दे. "मिरचा लाल"। एमालाष्ट्रम्-हाइड्रार्जिराई-[ले. emplastrumएम्प्लाटम कैलिफेसिएन्स-[ले. emplastum- hydrargyri] पारे का पलस्तर । दे. calefacience] ऊनोत्पादक उपलेप । गरमी ___ "पारा" । पहुँचानेवाला पलस्तर । एम्लाष्ट्रा- ले० emplastra] [ एम्प्लाष्ट्रम् का एम्प्लाष्ट्रम्-कैलीफेशेंस-माइलेब्रिडिस-[ ले० em- बहु.] वस्त्र वा चर्म-खण्ड पर प्रस्तारित और plastrum-calefaciens mylabrid चिपकनेवाली औषध । प्रलेप । प्रस्तर । पाष्टर। is] तेलनीमक्खी का गरम पलस्तर । दे० उपलेप। "तेलनी मक्खी"। एम्बेलिया-इण्डिका- ले० embelia indica ] एम्प्लाष्टम्-कोकेनी-[ले. omplastrum-co विडङ्ग । बायविडंग । . cainae ] काकान का पलस्तर । काकनापलेप। एम्बेलिया-ग्लैण्डिथुलि केरा-[ ले०embelia glaदे. “कोकीन"। ndulifera] विडङ्ग । बायविडंग । एम्प्लाष्ट्रम्-गालबेनाई- ले० emplastrum- | एम्बेलिया-रिबेस-ले. embelia ribes, galbani ] जावशीर का पलस्तर । गोहीरोप- | ____Burm. ] बिडङ्ग । बायविडंग। लेप । दे. "गाय"। एम्बेलिया रोबष्टा-[ले. embelia robusta, एम्प्लाष्ट्रम्-पाइसिस-[ले. emplastrum-pi- ___Rorb.] विडङ्ग । बायविडंग । cis] पिक्सबर्गण्डिकोपलेप। एम्ब्लीका-ऑफिसिनेलिस-[ ले० emblica offi एम्प्लाष्ट्रम्-प्लम्बाई-[ ले० emplastrum-| _cinalis. ] श्रामलको । धात्रिफल । आँवला । plumbi ] मुरदासंख का पलस्तर । मृदारसं- एम्ब्लिक-माइरोबेलन-[ अं० enblic myro___ गोपलेप । दे॰ “मुरदासंख"। ___balan ] आँवला । अामलकी।। एम्प्लाष्ट्रम्-प्लम्बाई-आयोडाइडाई- ले. empl- एयरन्स-बीयर्ड-[ अं० aaran's beared ] astrum-plumbi-iodidi ] सीसा और वनस्पति विशेष । आयोडीन का पलस्तर । सोसनैलिदोपलेप । दे० एयरन्स-रॉड-[अं॰ aaran's-rod] गोल्डेन राड़ "सोसा"। ___Golden rod.. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एयरलाएंट १७७५ एरण्डपाक लता। एयरलाण्ट-[अंo air pant] अकाशबेल । अमर | एरण्ड-खरबूजा-संज्ञा पुं० [सं० एरण्ड+हिं० खर बूजा ] अण्ड खरबूजा। पपीता । रेड खरबूजा। एयर-बाथ-[अं० nir bath ] वायु-स्नान। दे० । एरण्ड-चिर्भिट-संज्ञा पु० [सं० पु.] अण्ड खर"पानी"। बूजा । पपीता। एयर-लिकिड--[अं॰ air-liquid ] द्रव वायव्य । एरण्डज-संज्ञा पु. [सं० ली० ] रंडी का तेल । एयरोजेन-[अं॰ airogen ] एक प्रकार का हरापन एरण्ड तैल । लिये हुये, स्वादहीन अविलेय चूर्ण, जो अत्यन्त | एरण्ड-तैल-संज्ञा पुं॰ [सं० क्री० ] रंडी का तेल । प्रवल पचननिवारक है। यह प्रायडोफार्म की प्रति- राज । वा० टी० हेमा० । रा०नि० व० १५ । निधि स्वरूप व्यवहार में आता है। अत्रि० १४ अ० । वि० दे० "रें"। एयरोलॉजी- अं० airology ] वायु-विज्ञान। एरण्ड-तैल-मू -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] विधिएर(ड) पं०] भूटिया बादाम । लदाखी बादाम । मजीठ, नागरमोथा, धनियाँ, त्रिफला, वैजन्ती का एरक-संज्ञा पुं॰ [सं० की.] (1) रामबान । फा० फूल, होवेर, जंगली खजूर, वटका शुगा, हल्दी, इं. ३ भ०। (२) एक प्रकार की घास । दारुहल्दी, नलिका ( पवारी) नाम की ओषधी होगला । वै० निघ० । दे. "एरका"। . और केतकी-मूल प्रत्येक समान भाग । रेड़ी का एरका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (१) नागरमोथा । तेल १ प्रस्थ (६४ तोला) में दही और काँजी (२) एक प्रकार की घास जो जंगल में उत्पन्न एक-एक शाण (४ मा०) डालकर मन्द-मन्द अग्नि । होती है और जिसके पत्ते लम्बे होते हैं । रामबाण, से विधिपूर्वक पाचन करें। भै० र० । मोथीतृण-हिं० । एरका-गु० । एरका, पाणलह्वला- | एरण्ड-द्वादशक-संज्ञा पु० [सं० ली.] बारह श्रोषमरा० । पुन-सिंधुतट । होगला-बं०। मोथीतृण- धियों का एक योग जिसमें एरण्ड प्रधान है(मरा०)। च० सू० ३ अ०। एरण्ड के बीज, एररड-मूल, छोटी कटेली, बड़ी पर्या-गुन्द्रमूल, शिम्बी, गुन्द्रा, शर्रा । कटेली, गोखरू, मुद्गपर्णी, माषपर्णी, शालपर्णी, एड़कः, एड़काख्यः। पृश्निपर्णी, सहदेवी, ईख की जड़ और सिंहपुच्छीTypha angusitfolia, Jinn.-ले। इन्हें समान भाग ले क्वाथ बनाएँ। इसमें जवाखार (N. O. Typhacea) का प्रक्षेदप डालकर पीने से पृथक्-पृथक् दोषों से उत्पत्तिस्थान-सिंधुतट । उत्पन्न त्रिदोषज शूल नष्ट होता है। वृ० यो० त. गुण-यह मधुर, स्निग्ध, विष्टम्भी, शीतल और ६४ त। भारी है । भा० पू० १ भ० मत्स्य व०। (२) परण्ड-पत्रविटपा- ) संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] मजीठ । मञ्जिष्ठा । एरण्ड-पत्रिका- एरडने-दन्ती-[ का०] बड़ी दन्ती। वृहद्दन्ती। छोटी दन्ती। हस्वदन्ती । एरण्डपत्री- एरडु-[ का० ] रन गुञ्जा । लाल घची। ) रा. नि० व०६। एरडु-आण्डल-[का०] लाल रेड़ । रक एरण्ड ।। एरण्ड-पाक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] अण्डो के पक्के एरण्ड-संज्ञा पु० [सं० पु.] रेंड। रेडी । भेरैण्ड बीजों की मींगी १ प्रस्थ (१६ पल)लेकर २ आढक गाछ-बं०। भा० पू०१ भ० गु००। राज० । (१२८पल) दूध में मन्दाग्नि पर पकाएँ ।खोवा हो जाने पर उसे - पल घृत में भूनलें और पुनः एरण्डक संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] रेड़ । एरण्ड । पर्वत २ प्रस्थ (३२ पल) खाँड़ की चाशनी करके एरण्ड । पहाड़ी रेड । भरत० । मिलालें और इसमें सोंठ, मिर्च, पीपल, तेजपात, एरण्ड-ककड़ी-संज्ञा स्त्री० [सं० एरण्ड+हिं० ककड़ी] दालचीनी, नागकेशर, इलायची, पीपलामूल, एरण्ड कर्कटी । अंड ख़बूजा । पपीता । चीता, चव्य, सोवा, सौंफ, कचूर, बेलगिरी, अजएरण्ड-कर्कटी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] अण्ड- वायन, सफेद जीरा, कालाजीरा, हल्दी, दारुहल्दी, खबूजा ! पपीता। विलायती रेंड । असगंध, खिरेटी, पाठा, हाऊबेर, बायविडंग, Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एरण्डफला १७७६ एरण्डादि पुष्करमूल, गोखरू, कूठ, त्रिफला, देवदारु, काला एरण्डम्-[ गु० ] रेंडी का तेल । एरण्ड तैल । विधारा, लजालू (अवालुका) और शतावर, एरण्डशिफा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] रेंड़ की जड़ । प्रत्येक का चूर्ण १-१ कर्ष मिलाकर विधिवत् पाक - एरण्डमूल । भा० वा० व्या०।कर रखलें। एरण्ड सप्त (द्वादश)क-संज्ञा पुं॰ [सं० पु. ] गुण-इसे यथोचित रोगानुकूल अनुपान के - शूल रोग में प्रयुक्त उक नाम का एक योग-एरंड साथ :चित मात्रा में सेवन करने से वातव्याधि, ___ की जड़, बेल की छाल, पमाड़ बीज, सिंहपुच्छी, शूल, सूजन, अण्वृद्धि रोग, उदर रोग, अफारा, जम्बीरमूल, पथरचटा और गोखरू २३-२३ रत्ती. वस्तियूल, गुल्म, श्रामवात,कटिशूल, ऊरुग्रह और यवहार, हींग, सेंधानमक एवं एरण्ड तैल १-१ माशा हनुस्तम्भ रोग का नाश होता है। यो० २० वात के साथ खाने से भयानक शूल का नाश होता है। व्या० चि०। एरण्ड-सप्तक-कषाय (काथ)-संज्ञा पुं० [सं० क्री.] वातव्याधि में प्रयुक्त उक्त नाम का एक एरण्ड-फला-संज्ञा स्त्री० [सं० बी० ] छोटी दन्ती का अायुर्वेदीय क्वाथ। पौधा । हूस्वदन्ती। योग-एरण्डमूल, विजौरे की जड़, गोखरू, एरण्डबीज-संज्ञा पुं॰ [सं० वी० ] रेड़ी। एरण्ड बड़ी कटेरी, छोटी कटेरी, पाषाणभेद और वेलफल । एरण्ड का बीया। गिरी इन्हें समानभाग लेकर क्वाथ बनाकर इसमें एरण्ड-भस्म-योग-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] एक प्रकार रंडी का तेल, हींग पमाड़ के बीज जवाखार और ___ का आयुर्वेदीय योग जो एरण्ड भस्म द्वारा प्रस्तुत उचित मात्रा में सेंधानमक मिलाकर पीने से ... होता है । जैसे-एरण्ड के मूल और पत्तों को स्तनपीड़ा, स्कंध, मेढ़, कटि और हृदय की पीड़ा ... लेकर बरतन में बन्द करके भस्म करें। इसे १-१ | दूर होती है । शा० सं० वातव्या० चि०। कर्ष की मात्रा से १ पल गोमूत्र के साथ सेवन एरण्ड-सफ़ेद-संज्ञा पु० [सं० एरण्ड+हिं० साद] करने से तिल्ली रोग का नारा होता है। वृ०नि० मोगली रेंड । बागबरैंडा । बाग भेरंड। - २० उदर रो० चि०। एरण्ड-स्वरस-संज्ञा पु० [सं० क्री.] रेंड का स्वएरण्डमूल-संज्ञा पुं० [सं० वी० ] रेड़ की जड़। रस प्राधा कर्ष, दूध में मिलाकर तीन दिन पर्यंत एरण्ड शिफा। जैसे-“एरण्डमूल सिद्धवा"। पीने से और लवणरहित घृत तथा दूध का च० द. विषमज्वर चि०। भोजन करने से कामला-रोग का शीघ्र नाश होता है। वृ०नि०र० कामला चि०। एरण्ड-मूलादि-क्वाथ-संज्ञा पुं० [सं० की० ] शूल | रोग में प्रयुक्त उन नाम का योग-दो पल एरण्ड एरण्डा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.](१) बड़ी दन्ती । वृहद्दन्ती। मद० व०१। (२) पिप्पली । मूल को १६ पल पानी में पकाएँ, जब चतुर्थांश पीपल । श० च०। शेष रह जाय, तब छानकर इसमें यवक्षार उचित एरण्डा गाछ-[40] जंगली एररड का पौधा । मात्रा में डालकर पियें। इससे पार्श्वशूल, हृच्छूल और जंगली रेंड। कफज शूल का शीघ्र नाश होता है। वृ०नि० २० एरण्डादि-संज्ञा पु० [सं० पु.] आयुर्वेदीय श्रोषशूल चि०। धियों का एक वर्ग । इस वर्ग में निम्न श्रोषधियों एरण्डमूलादि-चूर्ण-पंज्ञा पुं० [सं० क्ली० ] उक्त नाम का समावेश होता है। का एक योग, जो शूल रोग में प्रयुक्र होता है । जैसे- - (१)रेंड की जड़, अनन्तमूल, किशमिश, एरण्डमूल, तुम्बुरु, विडनम , हुलहुल, हड़ और सिरस, गंधप्रसारिणी, माषपर्णी, मुद्गपर्णी, हींग-इन्हें समान भाग लेकर बारीक चूर्ण बना | विदारीकंद तथा केतकी की जड़ १८-१८ रत्ती । जल के साथ उचित परिमाण में सेवन करने से गुण-वात-पित्त-शामक । रसचन्द्रिका । शूल और गुल्म रोग का नाश होता है । मात्रा- (२) एरण्डमूल, बेल की जड़ की छाल, १ से ६ मा० तक । वृ० नि० र० शूल चि०। छोटी कटेरी, बड़ी कटेरी, कालानमक, सोंठ, मिर्च, Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एरण्डादि गुटी पीपर, हींग. विजौरा नीबू, सेंधानमक- इन्हें समानभाग लेकर विधिपूर्वक क्वाथ बनाकर पीने से धनुर्वात का नाश होता है । यो० २० वात व्या० चि० । १७७७ (३) एरण्ड, अडूसा, गोखरू, गिलोय, खिरेटी और ईख की जड़ सबको समानभाग लेकर क्वाथ बनाकर पीने से पुरातन जानुओं तक फैला हुआ स्फुटित एवं ऊपर को चलनेवाला वात-रक्क नष्ट होता है । भा० वात २० चि० । ( ४ ) एरण्डमूल, गिलोय, मजीठ, रक्तचन्दन, देवदारु, पद्मकाष्ठ प्रत्येक समान भाग । मात्रा-१ से २ तो० तक । श्रष्टगुण जल में क्वाथकर पीने से गर्भिणी स्त्रियों का ज्वर नष्ट होता है । भैष० स्त्री-रो० चि० । एरण्डादि-गुटी–संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एरडबीज, सोंठ और मिश्री समानभाग लेकर यथाविधि गोलियाँ बनाएँ । गुण—इसे सेवन करने से आमवात का शीघ्र नाश होता है । वृ० नि० २० श्रामवा० चि० । एरण्डादि तैल-संज्ञा पुं० [सं० की ० एक तैलो षध । योग तथा निर्माण-विधि - एरण्ड की जड़, सहिजन की छाल, वरुना और मूली- इनका स्वरस, मुलेठी और क्षीरकाकोली २-२ तोला लेकर सिल पर पानी के साथ पीसें । पुनः दो सेर दूध और १ पाव तिल तैल मिलाकर यथा-विधि पाक करें 1. गुण — इसे नस्य, मालिश और कर्णपूरण के काम में लेने से कर्णनाद, बहरापन और कर्ण शूल नाश होता है । रम् कैम्पे एरण्डाद्य-निरूह-संज्ञा पुं० [सं० वी० ] निरूह विशेष । दे० “रेंड” । एरण्डनु - झाड - [ गु० ] एरण्ड वृत्त । रेंड का पेड़ । एरण्डनु तेल - [ गु० ] रेंडी का तेल । एरण्ड तैल । एरण्डी-संज्ञा स्त्री० [सं० एरण्ड ] ( १ ) रैंड का बीज । रेंडी । ( २ ) एक झाड़ी जो सुलेमान पर्वत और पश्चिमी हिमालय के ऊपर ६००० फुट तक की ऊँचाई पर होती है । इसकी छाल, पत्ती और लकड़ियाँ चमड़ा सिझाने के काम में आती है । इसे तुरंगा, आमी, चनिश्रात वा दगड़ी भी कहते 1 1 | संज्ञा स्त्री० [ मरा० ] रेंड । एरण्ड | एरण्डी-च-झाड-[ मरा० ] रेंड। एरंड वृक्ष । एरण्डी च तेल - [ मरा०] रैंडी का तेल । एरण्डतैल | एरण्डी-च-बीज -[ मरा०"] रेंडी । एरण्ड-बीज । एरण्डीन - [ सं० एरण्ड + ईन ( प्रत्य० ) ] एरण्ड सत्व । एरण्डेल -[ मरा० ] रेंडी का तेल । एरण्डतैल । एरण्डो -[ गु०, सिंध ] रेंड़ | एरण्ड-वृक्ष । एरण्डोली - [ मरा० ] सफेद एरण्ड बीज । एरन्दु (डु )- [ सिं० ] बागभेरण्ड । कानन एरण्ड | मोगली | जाड़ा (उड़ि० ) । एरबदु- गहा - [ सिं०] पाँगरा । पलोता मदार | पारिभद्र | एरमुदपु - [ ते० ] रैंड । एरण्ड | एरम् -[ लेo arum.] श्ररुई । घुइयाँ । एरम्-आर्चड-[ श्रं॰ arum-arched.] बीस कचू । बीरबकी । एरम्-इजिप्शियन - [ ० arum-egyptian. ] अरवी । घुइयाँ । एरम्-इण्डिकम् - [ ले० arum-indicum. ] मानकन्द | माणक | कचू । एरण्डादि भस्म योग-संज्ञा पुं० [सं० पु०] शूल रोग में प्रयुक्त उक्त नाम का योग - एरण्डमूल, चोता शम्बूक ( घोंघा ), पुनर्नवा और गोखरु समान भाग लेकर हाँडी में बन्दकर भस्म करें । इसे उचित मात्रा में गरम जल के साथ पीने से शूलरोग का नाश होता है । यो० र० शूल चि० । एरण्डाद्य घृत-संज्ञा पु ं० [सं० क्री० ] धृत विशेष । एरम्-कैम्पेन्युलेटस - [ ले० arum-campanuदे० " रेंड़” । एरम - कर्वेटम् - [ ले० arum-curvatum. ] गूरिन । डर । किर्किचालू । किरकल । जंगुश - ( पं० ) । latus. ] जिमीकन्द । सूरन । श्रोल । १ का० Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एरम् कैलोकेशिया १७७८ एरिथीना पिसिप्युला एरम्-कैलोकेशिया-[ ले० arum-calocasia] एरापोष्टिस-बोनी- ले० eragrostis-broअरवी । घुइयाँ। ___wnei, Nees. ] भरी (अलीगढ़)। एरम्-टाच्यु ओसम्-[ ले० aun-tortuc- | एरापोष्टिस-साइनोस्युराइडिस-[ ले० erag10 sum, Wall.] किरि-की-कुक्री-पं० । ___stis cynosuroides,Beeuv.] कुशा। एरम्-निम्फीई-फोलियम्-[ ले० arum-nynip डाब । बोय-उ०पू० प्रां० । कुस्सा-पं०। haei folium. ] घुइयाँ की जाति का एक | एराट्री-[अं॰ ara-tree.] सन्दरुस । चन्द्रस । पौधा । सरकचू । एरिआकटी-[ ते०] सुगंधवाला । होवेर । एरम्-फोमिकेटम्-[ले० arum-fomicatum.] | एरिका-[ मल० ] सफेद मदार । अलर्क । बीस कचू । बीरबकी। एरिजिरोन-ऐष्टेरॉइडिस-[ले० erigeron-asteएरम-बेल शेपड-[अं० arum-bell-shaped.] roides Roxb. ] मरेडो-(हिं०, गु०)। . सूरन । जिमीकन्द । अोल । सोसली-( मरा०)।सौस्ती (बम्ब०)। एरम-मार्गेरेटीफेरम्- ले० arum-margarot- एरिजिरोन-केनाडेंसिस-[ ले० erigeron-can iferum, Roxb.] अरवी की जाति का एक ___adensis, Linn.] एक पौधा । पौधा। एरिञ्जियम्-सेरुलियम्-ले. eryngium-coer एरम्-लिली-[अं॰ arum-lily. ] अरवी की जाति ulium, Bieb.] दुधाली-हिं० । पहाड़ी का एक पौधा। गाजर (पं०)। शकाकुल निजी (अ)। गर्ज एरम्-वाइल्ड-[ अं० Arum wild. ] जंगली | दश्ती (फ्रा०)। घुइयाँ । बन अरवी। एरिथेरीन-[ अं० ery therine.] एक प्रकार एरम्-सेसिलिफ्लोरम्-[ ले० arum sessili का क्षारोद, जो हरसिंगार की छाल से प्राप्त florum, Roxb.] लोठ । होता है। एरम्-स्पेसिओसम्-[ ले० arum-speciosum.] m.] एरिथाक्सिलम्-कोका-[ ले० ery throxylumसम्प की खुब, किरि-को-कुक्री, किरलु-पं०।। ___coca. ] कोका वृक्ष । एरवा-[ ते० ] चौक-ता० । कासरीकी-(मायसूर) एरिथाक्सीलीन-[ अं० erythroxyline.] मे० मो०। एरॉइडीई-[ ले० aroideae. श्रोषधियों का एक कोकेन का एक दूसा नाम । वर्ग । सूरण वर्ग ( araceae.)। | एरिथाक्सिलोन-कोका-[ ले० erythroxylonएराक-संज्ञा पुं० [अ०] [वि० एराकी ] अरब ___ coca] कोका नाम का वृक्ष । देश का एक प्रदेश जहाँ के घोड़े अच्छे होते हैं। एरिथाक्सिलोन-मोनोगाइनम्-[ ले० erythroxएराकी-वि० [फा०] एराक देश का । एराक का । ____ylon-monogynum, Road ] नाट का संज्ञा पु० वह घोड़ा जिसकी नस्ल एराक देश देवदार। की हो । यह अच्छी जाति के घोड़ों में गिना | एरिथीना-इंडिका-[ ले० erythrina-Indica, जाता है। Lum.] (१) पलीतामदार । पांगरा । (२) एराग्राष्टिस-न्युटंस-[ ले० eragrostis-nn हरसिंगार। tans, Retz.] दर्भ भेद । एरिथीना-कोरेलोडेण्डान-[ ले० erythrina-coएराप्रोष्टिस-ल मोसा-[ ले• eragrostis plu- rralo-dendron, Linn. ) fgreat arifa mosa, Linls. ] फुलरवा, भुरभुरी, गलगल, । एक प्रकार का पौधा जि.ससे “एरिथीन" नामक झूसा-उ० पू० प्रां० ___ एक संज्ञाहर क्षारोद प्राप्त होता है। एरापोष्टिस-फ्लेक्चुअोसा-[ ले० eragrostis. | एरिथ्रोना-पिसिप्युला-[ ले. erythiina-pisciflexuosa, Roxb.] दर्भ भेद। pula, Linn.] जैमिका डाग वुड Jamica Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एरिथीना-मॉनोस्पर्मा dog-wood मुलुगु, मुरुगु । एरिना मानोस्पर्मा -[ ० erythrina-mouo• sperm 1 ] ढाक | पलाश । एरिथीना-ष्ट्रिक्टा - [ ले०_ erythrina-stricta, Roxb. ] मुर| मुरुक्कु - ( मरा० ) । एरीया - राक्स बगियाई - [ ले० erythrwa roxburghii G. Don ] चरायता । लुन्तक(बम्ब० ) । गिर्मी - ( बं० ) । एरीया सेण्टानी - [ ० erythraeacentany] एरिथी या सेण्टोरिया - erythraeac.ntaurea ] एरिथोनियम-इंडिकम् [ ले० erythronium-In १७७६ कस्तूरियून । dicum ] काँदा | जंगली प्याज । वन पलाण्डु | एरिथ्रो-फ्लीईनी-हाइड्रोक्लोरास -[ ले० erythro phloeinae-ydrochloras ] सैसोबार्क ( Sassy bark) द्वारा निर्मित एक प्रकार का सफेद स्फटिकीय क्षारोद जो जल में घुल जाता है। प्रभाव तथा प्रयोग — हृद्रोग तथाहार्दीय जलोदर में डिजिटेलीन की अपेक्षा यह अधिक बलशाfeat औषध है और हृद्विस्तार में उपयोगी है । एरिथू फ्लीयम् - ग्विनीन्सी - [ले० erythrophiveum-guinense. ] ( erythrophloeum judiciole ) एक पौधा । एरिथ्रोल - [ ० erythrol] आयोडाइड ग्राफ बिज़्मथ सिंकोनीडोन । एरीकोलीनी हाइड्रोक्लोराइडम् ndron anfra tuosum, Dc.] श्वेत शाल्मली । सफेद सेमल 1 एरियोफोरम् - कामोसम् - [ ले० eriophorumcotosum, Wall. ] भाबर । बाब । बाबिला । ( उ० प० सू० ) । पनत्रबीयो( श्रलमो० ) । एरियो बाया - जैपोनिका -[ ले० eriobotryajaponica, Lindle. ] लुकाट । लकुट । एरियोबाया - बेंगालेंसिस - [ले० eriobotrya-be ng lensis, Hook:. ] बेरकुङ्ग - ( लेप० ) । एरियोलीना - कै. डोलिया - [ ले० eriolaena-candolia 1 एक पौधा । eriolaona. एरियोलीना - क्किन्क्कीलो क्युलेरिस - [ ले० eriolaera quinquelo cularis, Wight.] बुद्जरी । ध-मून - ( बम्ब. .) 1 एरिगेलीना-स्पेक्टेविलिस -[ ले० spectabilis, Planch.] नरबोस्कु - (से०)। रंग - (बेरा० ) । कुट्की भोंडेर - ( गों० ) । एरियोलीना - हूकेरियेना - [ ले० eriolaena-hookeriana, W. & A. ] दे० "एरियोलीना स्पे स्टेबिलिस" । एरिथू/ल-टेट्रानाइट्र ेट-[ श्रंo erythrol- tetranitrate ] एक प्रकार को वर्णहीन स्वादरहित सूचिकाकार कलमें जो जल में कम घुलती हैं। दे० "ट्राइनाइट्रोग्लीसरीन” । एरिमास्टेकिस विकेरियाई - [ ले० eremostachys vicaryi, Benth. ] गुरगुन्न । खलाना । रेवन्दचीनी - पं० । एरिम्युरस-स्पेक्टेबिलिस - [ ले० eremurus । spectabilis, Bieb- ] शिली । श्री । प्रौ (पं.) एरियोडिक्टयोन ग्ल्युटिनोसम् - [ ले० eriodictyon glutinosum ] येर्बा - ( संता० ) । एरियोडेण्ड्रोन-अन्फ्रेंचुओसम्- [ ले० eriode एरी - [ असा ०९ ] रेंड । एरण्ड | एरीका - [ श्रं० areca ] [ पु० ता० श्रडैकाय ] खजूर या ताड़ की जाति का एक पेड़ । एरीका कान्सिन्ना - [ areca-concinna,D.C.] गुवाक । सुपारी का पेड़ । एरीका- कैटेशू श्यू - [ ले० areca_cat chu, Linn.] गुवाक । सुपारी का पेड़ । एरीकानट- [ ० areca-nut ] सुपारी । पूगी फलं । एरीकी - सेमिना - [ ले० arecae-semina ] सुपारी । एकईडीन - [ ० arecaidein ] सुपारी से प्राप्त होनेवाला एक प्रकार का सत । एरीकेईन - [ श्रं० arecaine ] एक प्रकार का स जो सुपारी से प्राप्त होता है । एरीकोलीनी- हाइड्रोक्लोराइम् -[ ले० arocolinaehydrochloridum ] एक प्रकार का सफ़ेद रंग का चूर्ण जो जल तथा एल्कोहल में सरलता Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एरीनेरिया-हालोष्टीआइडिस १७८० एलेरिया डिजिटेटा पूर्वक घुल जाता है; परन्तु ईथर और क्लोरोफार्म सिद्धार्थ । श्वेत सर्षप। सफेद सरसों । जीर में कठिनता से घुलता है। -अ० । ईहुकान-फा०। प्रभाव-लाला प्रवर्तक, धर्मकर और कृमि- एरुक्क-[ मल० ] पाक । मदार । अर्क । - नाशक है । दे० "सुपारी"। एरुक्कम म- }[ता० ] पाक । मदार । अर्क । एरीनेरिया-हालोष्टीआइडिस- ले० arenaria एरुकुholosteoides, Edge.] ककुत्रा । गँदि-एस एरुनेल-[बं• ] सतनी । तितली । सुदाब। एप्पिच्छ-ते. ] कुण्डली। चुद्र अग्निमन्थ । __यल-(६०)। चिकि-(लदा०)। एरुवदी-ता०] शीशम । सीसो । शिशपा । एरीफ़ारून-[यू० ] एक प्रकार की वनस्पति जिसकी एकवली-[ ता० ] नीलमदी। पिशीना-[ ]। पत्ती जर्जीर की पत्ती की तरह होती है। इसका एरुसरुमानु-ते. ] झावुक । भाऊ । पुष्प नील वर्ण का होता है। इसमें पुष्प अधिकता के साथ शाते हैं जिनमें सेब तुल्य सुगंधि पाती ए(अ)रेङ्गा-सैकेरिफेरा-[ ले० arenga.sacch arifera] तौंग-रंग-(बर०)। है। उनके भीतर सफेद बालों की तरह सीधे तार | एरेकिस-हाइपोजिया- ले. arachis-hypog. लगे होते हैं। यह ग्रीष्मकाल में पुष्पित होता है। apa1 दे. "ऐरेकिस-हाइपोजिया"। इसका तना एक हाथ ऊँचा होता है, जिसका रंग एरेक्थाइटीज़-हीरोसिफोलिया- ले० erechthiललाई लिए होता है । यह बीहड़ एवं ऊपर तथा ___tes-heirocifolia ] Fire-weed. क्षारीय भूमि में उत्पन्न होता है। इसकी जड़ प्रभाव फायर वीड-(अं.)। शून्य होती है। एरेग्राष्टिस-प्लूमोसा-ले. eragrostis plu- प्रकृति-परस्पर विरुद्ध गुण-धर्म सम्पन्न (मुर __mosa, Link. ] फुलरवा । भुरभुरी । गलक्किबुल कुवा) । किसी-किसी के अनुसार यह गल । मूसा । उ० ५० सू।। अत्यन्त शीतल है। एरेग्राष्टिस-ब्राउनिआई-[ ले० eragrostis. गुण, कर्म, प्रयोग-इसमें थोड़ी सी शोथ ___brownei, Nees. ] भी-(अलीगढ़)। विलीन करने की शक्ति है । कुदुर के साथ इसके एरेग्राष्टिस-साइनोस्युराइडीस-[ले. eragros• फलों और पत्तों का प्रलेप वातसूत्रगत 'क्षत एवं ___tis-cynosuroides, Reta.] कुरा । अन्य अंगों के 'दतों को लाभकारी है। इसी प्रकार कुस । डाभ। इसके भीतर के तार सिरके के साथ पीस कर रंटिया-आख्य जोफोलिया- ले० ehretiaप्रलेप करने से लाभ प्रदान करता है। इसके ___obtusifolia ] एक झाड़ी जो सिंध और पापों का प्रलेप अंडशोथ एवं गुदस्थ शोथ को पंजाब प्रान्त में होती है। लाभप्रद है। इसको ताज़ा भक्षण करने से तत्काल एरेटिया-एक्युमिनेटा-[ले. ehretia-acumiखनाक उत्पन्न हो जाता है। इसके गुण-धर्म खुबी nata] अर्जुन । कुकुन । पुन्यन । नलशुनतुल्य हैं । इसके भक्षण से यदि कोई विकार उत्पन्न (नैपा०)। कुलश्राज-(बं०)। न (गढ़)।. हो, तो खुबी जनित विकारवत् उसकी चिकित्सा एरेटिया-बक्सिफोलिया-[ले. ehretia-buxiकरें। (ख० अ.)। ___folia, Roxb. ] कुरुपिगि-(ता०) एरीमापेवेल-[ मल० ] धारकरेला । वाहस। एरेटिया-लेविस-ले०ehretialaevis,Roxb.] एरीमाष्टकीज़-विकेरियाई-[ ले० aremosta- चमरुड़ । कोड-हिं०। chys-vicaryi, Benth. ] रेवंदचीन । एरेम्युरस-स्पेक्टेबिलिस-[ ले. eremurus. खलाना । गुरगुन्ना-(पं०)। ___spectabilis, Bieb. ] शिली । ब्रे। एरु-वि० [सं० त्रि०] चलनेवाला। गमनशील ।। प्राउ-(६०)। गन्ता । | एरेलिया-डिजिटेटा-ले० aralia digitata, एरुका-सेटिवा-ले० eruca-sativa, Lam.] | Rorb. ] डाइन । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एरेसीई १७८१ एलकोहल इथिलिकम् एरेसीई-[ ले. araceae ] ओषधियों का एक लता। फूट। बड़ी ककड़ी। (२) विलेय. ___ वर्ग । शूरणवर्ग । मृग। एरोप्प कैट-[ मल. ] दे० "प्रोवि अमेरिकेना'। | एर्वारुतैल-संज्ञा पु० [सं० क्ली० ] ककड़ी के बीज एर-[ते.] रन । लाल । सुख्ख । 1ed. द्वारा निकाला हुआ तैल । ककड़ी के बीज का तेल । ए-उसिरिक-ते. ] लाल भुई श्रावला। . काँकुड़ बीजे। तैल-बं। एर-एरुसरुमानु-ते. ] लाल झाऊ । गुण-बहेड़े के तेल जैसा । यह घात पित्तएरे-काश्चि-चेट्ट- नाराक, बालों को हितकारी, कफकारक. शीतल 1 लाल मकोय । एर कामञ्चि-चेट्ट और भारी है । वा० तैल० व०। एर कुटि-[ते. ] सुगंधवाला । होबेर । एल-[ मल० ] पत्र । पता । पत्ती। ए-गन्धकमु-[ते० ] रक्क गंधक । लाल गंधक। एल-संज्ञा पु० [सं० पु.] (१) इलायची । एरी-गन्धपु-चेक-[ते. ] रक चन्दन । लाल चन्दन । एला । (२) एलवालुक। सि. यो. अरोच. एर-गसगसाल-चेट्ट-[ते. ] लाल पोस्ता ।। चि० श्रीकण्ठ "रास्नैलहिंगु लवणोत्तमानां"। च. एरे-गोम-माय-[ते. ] लाल अम्बाड़ी । लाल पटुश्रा। द. वात ज्व. रास्नादि। एरी-गोम्गूर-ते. ] लाल अम्बाड़ी । ल ल पटुना । -[अं॰ ale ] एक प्रकार का मद्य । दे० एर-गांय्या-पण्डु-[. ] लाल अमरूद। "एलकोहल"। एल-काय-[ ता०, ते० ] छोटी इलायची । चित्रमूलम्- [ते. ] रन चित्रक । लाल चीता एलन्ओमर:-[सिनेगल ] गोरख इमली । ऊफ़ा । एर-जाम-पण्डु-ते. ] लाल अमरूद । इसके फल को एल कोङ्गलीज़ भी कहते हैं । फा. एरे-जिरिकि-वित्तुलु-[ते. ] लाल दाना । रनबीज। इं०१ भ० । दे. “गोरखइमली"। एरं-जिलगन-[२०] बृहच्चक्रभेद । एलक-संज्ञा पुं० [सं० 01 मेष । भेड़ । रा०नि० एर-तामर-[ते. ] कमल । तामरस । व० १६ । (२) मैदा चालने की चलनी । एर-दुण्डिग-चेट्ट-[ते. ] जंगली जमालगोटा । हाकूई। -[ते.] कपित्थ । कठबेल । कैथ । एर-पच्चरी-[ते. ] बांदर सिरिस । एर्र-पुनिकि चेट्ट-[ते. ] कविले । तबसि । | एलकतीरुल्मक्की-[अ०] दम्मुल्अवैन । हीरादोखी । खूना खराबा। एरी-पुर्व-[ते. ] धातकी । धौरी । एलकल-[?] एरे-पोस्त काय-चेट्ट-[ते. ] लाल पोसे का पौधा । एरं-वुल्लि गड्डुलु-[ते. ] पलाण्डु । रक्त पलाण्डु । एलका-[ ता०] एलकाय- ता०, ते०] लाल प्याज। कोटी इलायची। एर-शिरिसरु-मानु-[ते. ] लाल झाऊ। एलकाय-वित्तुलु-[ते०] एलकाय-विरै-[ ता०] एलिख-हाटा-[अं॰ ebrlich hata] एक नूतन श्राविकृत डाक्टरी औषध । दे० "उपदंश" वा एलकुलु-ते. ] इलायची दाना । एलाबीज । एलकेशी-संज्ञा स्त्री० [सं० एला+केश] एक प्रकार "श्रातशक" । एवंडोस-[ बम्ब० ] सौंफ। का बैगन जो बंगाल में होता है । एवम्-लेंस-ले.. ervum-leus, Linn.] मसूर एलकोङ्गलीज़ (स)-[सिनेगल नदी ] गोरख इमली मसुरी। __ का बीज । एर्नारु-संज्ञा पु० [सं० पु.] कर्कटी लता । ककड़ी एल कोहल-संज्ञा पु० [अं॰ alcohol, सं० कोहल] विज०र० । रा०नि०। __ मद्यसार । सुरासार । शराब का फूल । एर्वारुक-संज्ञा पु० [सं० पु.] कर्कटी । ककड़ी। | एलकोहल-इथिलिकम्-[ ले० alcohol ethyli. एबारुका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (1) कर्कटी cum ] ईथिलिक मद्य सार। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एलकोहल ऐक्सोल्युटम् एलकोहल - ऐब्सोल्युटम् - [ ले alcohol absolutam ] विशुद्ध सुरासार । जल शून्य मद्यसार । एलकोहल - सैलिसिलिक - [ ले alcohol salysilic ] सैलिसिलिक एलकोहल । एलकोहलिक एक्स्ट्रैक्ट - [ श्रं० alcoholic-extract ] सुरसार घटित रसक्रिया । एलकोहल - पॉइजनिंग - [ श्रं० alcoholic-pois oning ] मद्यसारजन्य विपाकृता । मदात्यय | एलकोहलिज्म - [ ० alcoholism ] महात्यय । पानात्यय | एल्लि - [मल ] थूहर । सोज । सेहुँड़ । पत्तों की सेंड | धर्म 1 वालु सुगन्धि अत्यन्त शीतल, विषनाशक, अत्यन्त उग्र तथा कुष्ठ, खाज एवं व्रणनाशक है ( ध० नि० चन्दनादि ३ व० ) । एलवालुक प्रत्युग्र, कलेला कफ-वात- नाशक तथा ज्वर, दाह, मूर्च्छनाक और रुचिकारक है । ( रा० नि० शताह्वादि ४ व० वा० सू० १५ श्र० रोधादि०) । द्रव्यनिघंटु में इसे विषन्न, मदनपाल में मूत्ररोगनाशक, भावप्रकाश में श्वास तथा श्ररुचिनाशक, विपन्न, हृद्रोगनाशक और गुददोषनाशक लिखा है । यदेव निघंटु में इसे पाक में कटु, शीतल लघु, कंडूनाशक, व्रण, छर्दि तथा तृषानाशक और कुष्ठ, कास एवं बलास ( कफ ) नाशक, रक्तपित्तशामक बल्य और कृमिनाशक लिखा है 1 एलवालु कुष्ठ, कृमि, विष और हृद्रोग नाशक है । प० मु० । “सैजबालु परिपेलवमोचाः”। (२) तेजबल । च० सू० ४ ० । ( ३ ) वालुक । सुगंधवाला | वै० निघ० २ ० २० पि० चि० दूर्वा घृत । ( ४ ) वालू का साग (हिं० ) । बालू-च-भाजी - ( मरा० ) । बालुका - ( बं० ) । फा० इं० २ भ० पृ० १०५ । इं० मे० मे० । एलमरुङ - [मल० ] घावपत्ता | ज़ख्मेहयात का पत्ता । एलम् - [ ता०] इलायची दाना | [ श्रंo alum.] फिटकरी । स्फटिका । एलम्नोल - [ श्रं० alumnol.] एक प्रकार का सफेद रंग का चूर्ण जो जल में सरलतापूर्वक घुल जाता है । दे० "फिटकरी " । पर्या० - एलबालुक, एलवालुक, बालूक, एलम्- ब्राथगाज़ -[ ० alum-broth-gauze.] वालुक, हरिवालुक, कविरथ, दुर्वर्ण, प्रसर, इद, दे० " पारा" । एलक्काय - [ ता० ] छोटी इलायची | सूक्ष्मता । एलक्काय- वरै - [ ता० ] छोटी इलायची । सूनएला । एलक्की - [ कना० ] छोटी इलायची । सूक्ष्म एला । एलङ्ग - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] एक प्रकार की मछली । रायकड़ा | रायखाँड़ा । एलङ्गा - ( बं० ) । १७८२ गुण - मधुर वृध्यग्राही, कफ तथा वातनाशक तथा जठराग्नि पुष्टिकर, शीतल और भारी है । रा०नि० व १६ । एलङ्ग - [ मल० ] वकु | मौलसरी । एलची - [ मरा०, गु० ] इलायची | एला । एलएडै - [ ता० ] बेर | बदर | एत्तर- [ मल० ] छोटी इलायची । सूक्ष्म एला । एलन्तपू-पज.म - [ मल० [] बेर | बदर | एलन्द-प. - [ ० ] बेर । बदर | एलफोल - [ ० alphol ] एक प्रकार का सफ़ेद रंग का विलेय चूर्ण | दे० " नैफ्थोल" । एलबाल - संज्ञा पु ं० [सं० की ० ] एलबालुक । भा० ४ भ० ने० शे० चि० सामान्याञ्जन । “सैन्धवंचैलवालुकम्” । 딩 एलबालु (क) - संज्ञा पु ं० [सं० की ० ] ( 1 ) एक प्रकार का सुगंध द्रव्य । इसकी पत्तियाँ कपित्थ ( कैथ) की तरह और सुगंधित, फल दृढ़ गोल इलायची तुल्य गंधवाला और छाल सुगन्धित और डालियाँ फैलनेवाली होनी चाहिए । एलम् ब्राथगाज़ ( धन्व० नि० चन्दनादि ० ३ ) एलवालुक, कविरथ, दुर्वर्ण, प्रसर, दृढ़, एलागन्धिक, एलाह्न, गुगन्धि, सुगन्धिक, एलाफल, द्विसप्ताह्वय ( रा० नि० शताह्नादिक व० ४ ) । गन्ध, स्वपंच कुछ गन्धि, सुगन्धि, प्रसर, एलालुक (के० दे०), एतालु ( मदः ), कपित्थ-पत्र ( भा० ), गंधत्व ( गण० ), कंकोल सहरा, कुष्ठ गन्धि, ( भा० म० भ० ) । (gieskia pharnaceoides, Linn.)। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एलम् बाथ साल्ट एलम्-ब्राथसाल्ट - [ श्रं० alum-broth-salt. ] दे० "पारा" । एलम-रोज़-गागल-[अं॰ alum-rose-gargle.] स्फटिक गुलाब - गण्डूष । दे० " फिटकरी " । एलवङ्ङप्-पट्ट–[ मल० ] तज । एलवालु (क ) - संज्ञा पु ं० " एलबालुक" । [सं० की ० ] दे० १७८३ एला - [?] एक प्रकार का काँटेदार जंगली वृक्ष, जिसका फल इमली की तरह मीठा और खट्टा होता है । पत्ते दीर्घ होते हैं। रंग भूरा होता है । स्वाद मीठा और खट्टा | प्रकृति - मधुर, प्रथम कक्षा में उष्ण एवं तर और खट्टा तथा प्रथम कक्षा में सर्द एवं तर । हानिकर्त्ता - उष्ण प्रकृति को । गुण - फल की मींगी खाने से पाखाना खुलकर साफ होता है और मलावरोध दूर होता है । यह प्रायः अंगों को बलप्रदान करता है तथा पत्तिक रोगों और सांद्रवायु को नष्ट करता है । ( ० ० ) संज्ञा स्त्री० [सं० [स्त्री० ] ( १ ) छोटी इलायची | सु० । रा० नि० । राज० भा० पू० १ भ० । ( २ ) नीली । संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ मला एलाम् ] ( १ ) इलायची विशेष ' दे० “इलायची । " ( २ ) वन रीठा । संज्ञा पुं० [देश० ] एक प्रकार की कँटीली लता जिसकी पत्तियों की चटनी बनाई जाती है । वि० दे० “रसौल्” । एलाइच - [ बं० ] एलायची । एलाकु - [ ते ० ] छोटी इलायची । सूक्ष्मएला । एलागन्धिक - संज्ञा पुं० [सं० क्ली० ] एलबालुक । रा० नि० च० ४ । एलाडु -[ ? ] श्रज्ञात । एलाङ्गाकाय - [ ता० ] कैथ । कपित्थ । एलाच एलाचि- [ बं०] ] छोटी इलायची | सूक्ष्मएला । लाटरियून - [ यू०] तीक्ष्ण विरेचन “किसाउ ल्हिमार" । एलादिकषाय- संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] एलादिकाथ - संज्ञा पुं० [सं० क्ली० ] । वि० दे० एलादि गुड़िका जिसके सेवन से पथरी, शर्करा और का काथ मूत्रकृच्छ रोग का नाश होता है । योग तथा निर्माण-विधि - छोटी इलायची, पीपर, मुलेटी, पाषाणभेद, रेणुका (मेंहदी के बीज), गोखरू, सा और एरण्डमूल - इनको तीन-तीन माशे लेकर काथ करें और एक या दो माशे शुद्ध शिलाजीत मिलाकर पिलाएँ । एलादिगण-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] श्रायुर्वेद में पधियों का एक वर्ग । यथा, - छोटी इलायची, बड़ी इलायची, शिलारस, कूठ, गंध प्रियंगू, जटामांसी, नेत्रवाला, ध्यामक, (रोहिषतृण ), स्टक्का, चोरक, दालचीनी, तेजपात, तगर, स्थौणेयक ( थुनेर ), चमेली, बोल, सोप, नख, देवदारु अगर श्रीवास (गंधाविरोजा), केसर, चोर (सुगंधवाला ), गुग्गुल, राल, शल्लकी निर्यास (बिरोजा), पुन्नाग और नागकेसर । एक प्रकार गुण - यह वात-कफ, खुजली, पिटिका और कुछ को दूर करता है तथा शरीर के रंग को सुन्दर बनाता है । वा० सू० १५ श्र० । वा० टी० हेमा० । एलादि गुटिका - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एलादि गुढी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] गुड़िया - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ) पित्त में प्रयुक्त एक प्रकार का योग विशेष । } एलादि रक्र निर्माण - विधि - ( १ ) छोटी इलायची, तेजपात और दालचीनी प्रत्येक १ तो०, पीपर ४ तो०, मिश्री, मुलेठी, छोहाड़ा और मुनक्का हर एक ८ तो० - इनको यथाविधि चूर्ण कर शहद में घोट कर १०-१० मा० की गोलियां बनाएँ । गुण- इसके सेवन से कास, श्वास, ज्वर हिक्का छर्दि, मूर्च्छा, मद, भ्रम ( चक्कर ), रक्तनिष्ठीवन, तृषा, पार्श्वशूल, श्ररुचि, शोथ, प्लीहा, श्राढ्यवात, स्वरभेद, क्षत और क्षय का नारा होता है । यह तर्पणी, वृध्य और रक्त-पित्तविनाशक है । च० द० रक्त पि० चि० । रस० २० । सा० कौ० । यो० चिंता० । यो० तरं० उर० चि० । ( २ ) छोटी इलायची, पीपर, हड़, सोंठ, चित्रक, भुना सुहागा, राई, सज्जी, शोरा, वायविडंग, सेंधानमक, जीरा प्रत्येक समान भाग इनको यथा Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एलादि घृत १७८४ एलादिमन्थ विधि चूर्ण कर पुरातन गुड़ के साथ १ मा० | पीपल, पीपलामूल, चव्य, चित्रक, सोंठ, मिर्च, प्रमाण की गोलियाँ बनाएँ। अजवाइन, वृक्षाम्ल (कोकम् ), अमलवेत, अजगुण-यह यकृत और प्लीहारोगनाशक है। मोद, असगंध, कौंचवीज प्रत्येक १-१ कर्ष, स्वच्छ एलादि-घृत-संज्ञा० पुं० [सं० की ] क्षय रोग में चीनी ४ पल लेकर यथाविधि चूर्ण बनाएँ। प्रयुक्त उक्र नाम का योग । यथा-छोटी इलायची, गुण-यह यौवनदाता, रुचिवर्धक, तिल्ली, अजमोद, आंवला, हड़, बहेड़ा, कत्था, नीमसार उदररोग, अर्श, श्वास, शूल और ज्वरनाशक (नीम का गोंद), असनसार (पीले साल का तथा अग्निवर्धक व वल ओर वर्णकारक, वातगोंद), शालसार (राल), बायविडंग, शुद्ध नाशक, नेत्रों को हितकारी, हृद्य एवं कंठ और भिलावाँ, चित्रकमूल, त्रिकुटा, नागरमोथा, सौराष्ट्र- जिह्वा शोधक है। यो० चि०। मृत्तिका (अभाव में फिटकरी), इनको पृथक् पृथक् (४) छोटी इलायची १ भा०, दालचीनी २ ८- पल लेकर (इन सबके परिमाण से) १६ भा०, मिर्च ३ भा०, सोंठ ४ भा०, पीपल ५ भा०, गुना पानी में डाल कर क्वाथ बनाएँ। षोडशांश नागकेशर ६ भा०, मिश्री सर्व तुल्य मिलाकर शेष रहने पर छान लें। पुनः १ प्रस्थ गोवृत यथाविधि चूर्ण बनाएँ। मिलाकर यथाविधि पकाएँ । सिद्ध हो जाने पर गुण—यह यक्ष्मा, अर्श, संग्रहणी, गुल्म, इसमें ३० पल मिश्री और ६ पल वंसलोचन दोनों रक्रपित्त, कंठरोग, अरुचि और प्लीहरोग नाशक है। को चूर्ण कर मिलाले। पुनः घृत से द्विगुण शुद्ध एलादि तैल-संज्ञा पु० [सं० की.] एक प्रकार का शहद मिलाकर रख लें। उक्त नाम का योगगुण-इसे प्रतिदिन १-१ पल की मात्रा में | पाकार्थ-तिल तेल ४ सेर, दही ४ सेर और सेवन करने से यक्ष्मा, शूल, पाण्डु तथा भगंदर दूध ४ सेर । काथनीय द्रव्य-वलामूल ८ सेर । का नाश होता है। काथसाधनार्थ-जल ६४ सेर, अवशिष्ट क्वाथ मात्रा- से १ तो० तक। १६ सेर। कल्कद्रव्य-छोटी इलायची, मुराअनुपान-गोदुग्ध । (च० द० क्षय चि०)। मांसी, सरल काष्ठ, छड़ीला, देवदारु, रेणुका, एलादि चूर्ण-संज्ञा पु' [सं० क्ली. ] (१) छोटो चोरपुष्पी, कचूर, नलद (खस, जटामांसी) इलायची, केशर, तज, जावित्री, तमालपत्र, लवंग, चम्पे का फूल, नागकेशर, प्रन्थिपर्णी, गन्धरस, जायफल, रूमीमस्तगी, अकरकरा, सोंठ, शुद्ध पूति (गंध मार्जार वीर्य), तेजपात, खस, सरलअफीम और पीपर प्रत्येक समान भाग और मिश्री निर्यास (चीढ का गोंद), कुन्दुर (लोहबान), सर्व तुल्य । काष्ठादि श्रोषधियों से अर्द्धभाग उत्तम नख, सुगंधवाला, दालचीनी, कूठ, काली अगर, कस्तूरी लेकर यथाविधि चूर्ण प्रस्तुत करें। नागरमोथा, काकड़ासिंगी, श्रीचंदन (सफेद मात्रा-१-४ मा०। चंदन ), जायफल, मजीठ, केशर, स्पृक्का, तुरुष्क गुण तथा प्रयोग-इसे मधु के साथ सायं- (शिलारस), लघु (अगर ), सब औषधियाँ काल सेवन करने से दो पहर वीर्य का स्तंभन मिलित १ सेर । सब श्रोषधियों के साथ यथाहोता है। यो० चि०। विधि-साधित क्वाथ तथा कल्कादि के साथ यथा(२) सफेद इलायची, पाषाणभेद, शिला. विधि तैल पाक करें। जीत और पीपर-इनका चूर्ण पुराने चावल के गुण-इसके सेवन से विविध प्रकार के वातधोवन के साथ सेवन करने से निकट मृत्युवाला - रोग दूर होते हैं और वल तथा वर्ण की वृद्धि, मूत्रकृच्छ, रोगी जीवित होता है। यो० चि०। होती है । च० द०। (३) छोटी इलायची, नागकेशर, दालचीनी, | एलादिमन्थ-संज्ञा पु० [सं० पु.] यमारोग में तेजपात, तालीशपत्र, वंशलोचन, मुनक्का, अनार . प्रयुक्त उक्त नाम का योग-छोटी इलायची, दाना, धनियाँ, दोनों जीरा प्रत्येक दो-दो कर्ष, आमला, अजमोद, हड़, बहेड़ा, खदिरसार, नीम, Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एलादिलेप श्रासन, साल, वायबिडंग, भिलावाँ, चित्रक, त्रिकुटा, नागरमोथा और गोपीचंदन- इनके काथ से यथा-विधि १ प्रस्थ घृत सिद्ध करके ठंडा होने पर — मिश्री ३० पल वंसलोचन ६ पल और शहद २ प्रस्थ मिलाकर मथनी से मथें इसे प्रतिदिन प्रातःकाल १-१ पल खाकर ऊपर से सावधानी पूर्वक उचित मात्रानुसार दूध पीना चाहिए। यह मं श्रत्यन्त मेधावर्धक, नेत्रों को हितकारी, श्रायुवर्धक, यचमानाशक एवं शूल, और भगन्दरनाशक है। यह सेवन योग्य रसायन है, एवं इसमें किसी प्रकार के परहेज की भी श्रावश्यकता नहीं है । च० द० राज० चि० । एलादि लेप - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] इलायची, कूठ, पाण्डु दारूहल्दी, मोथा, चित्रक, वायविडंग, रसौत और हड़ - इन्हें पीसकर लेप करने से कुछ का नारा होता है । च० चि० ७ श्र० । १०८५ एलाद्य गुटिका - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] दे० "एलादि गुटिका" । एलाद्य-मोदक-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] अपस्मार रोग में प्रयुक्त उक्त नाम का योग — छोटी इलायची, मुलेठी, चित्रक, हल्दी, दारु-हल्दी, हड़, बहेड़ा श्रवला, रकशाली (लाल धान ), पीपल, मुनक्का, छोहाड़ा, तिल, जौ, विदारीकन्द, गोखरू, निशोथ, शतावर हरएक समानभाग और सबसे द्विगुण मिश्री की चाशनी कर यथाविधि मोदक प्रस्तुत करें। मात्रा - १० मा० । गुण तथा सेवन-विधि - इसे धारोष्ण गोदुग्ध के साथ या मूँग के यूष के साथ सेवन करने से मद्यपान जनित समस्त विकार एवं अन्य बीमारियाँ जो दुःसाध्य हो चुकी हों, शीघ्र नष्ट होती हैं । भैष० प० चि० । एलाचरिष्ट्र - संज्ञा पुं० [सं० पु०] इलायची ५० पल ( २०० तो ० ), अडूसे की छाल २० पल ( ८० तो० ), मजीठ, इन्द्र-जौ, दन्तीमूलत्वक्, हल्दी, दारूहल्दी, रास्ना खस, मुलेठी, सिरस की छाल, खदिर, अर्जुन की छाल, चिरायता, नीम की छाल, कूठ और सौंफ प्रत्येक १०-१० पल । सबको कूटकर ८ द्रोण जल में पकाएँ । जब एक द्रोण जल शेष बचे, तब छानकर उसमें पुनः ६ फा० एलायुग्म १६ पल, शहद ३०० पल, धो के फूल दालचीनी, तेजपात, नागकेशर, इलायची, त्रिकुटा, दोनों चन्दन, मुरामांसी, जटामांसी, मोथा, भूरि छरीला, श्वेतसारिवा, कृष्णसारिवा प्रत्येक १-१ पल कूटकर मिलाएँ पुनः इसे एक मिट्टी के पात्र में रख उसका मुख दृढ़ बन्द कर पृथ्वी में गाड़ दें। इसे एक मास पश्चात् निकालकर छा श्रर बोतल में भर सुरक्षित रख लें। मात्रा - १-२ तोला । गुण - इसके सेवन से विसर्प, मसूरिका, रोमान्तिका, शीतपित्त, विष्फोटक, विषम ज्वर, नाड़ी व्रण, दुष्ट व्रण, दारुणकास, श्वास, भगंदर, उपदंश, एवं प्रमेह पीडिका का नाश होता है । भैष० र० परि० । एलान -संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] नागरंग । नारंगी । नारेङ्गा ले - बं० । हिरंवेफल मरा० । गुणपका खाने में मधुर, शीतल, बलकारक तथा वात-पित्तनाशक है । कच्चा फल खट्टा, गरम, भारी, दस्तावर और वातशामक है । रा०नि०व० ११ । एलान्दम् - [अ०] दम्मुल् अवेन । हीरादोखी । खूनखराबा । 1 एलापत्र - संज्ञा पु ं० [सं० की ० ] एक प्रकार का साँप । एलपर्णी-संज्ञा स्त्री० सं० स्त्री० ] प्रकार का पेड़ । काँटा श्रमरूली । ( २ ) रास्ता | रायसन । भा० पू० १ भ० । एलाफल - संज्ञा पुं० [सं० की० ] नि० ० ४ । ( १ ) एक एलानि - बं० 1 एलबालुक । रा० संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] मधूक वृक्ष । महुए का पेड़ | वै० निघ० । एलाबा (वा) लुक-संज्ञा पु ं० [सं० क्ली० ] (१) एलवालुक | रा० नि० ० ४ । ( २ ) कुष्ठ गन्धि फल के समान एक फल । सु० सू० ३७ श्र० । एलाबू - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] अलाबू । कह । श्राल । एलाबू-वीज-संज्ञा पु ं० [सं० एलाबू+वीज ] क का बीया । तुख्म कढ । एलामिच्चम् प म -[ ता०] बिजौरा नीबू | एलाम् - [ मल० ] इलायची । एला । लावी । एलायुग्म -संज्ञा पुं० [सं० की ० ] दोनों प्रकार की इलायची | छोटी और बड़ी इलायची । "एला Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एलालुक १७५६ युग्म तुरुष्क कुष्ठफलिनी" । वा० सू० १५ श्र० एलादि । एला लुक - संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] एलबालुक । रा० नि० व० ६ । भा० पू० १ भ० । एलावती-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एलालता । इलायी की बेल । एलावालुक-संज्ञा पु ं० [सं० की० ] दे० "एलबालुक" । एलावीज- संज्ञा पुं० [सं० की ० ] इलायची का बीया । इलायची दाना । एलाह- संज्ञा पुं० [सं० वी० ] एलवालुक । रा० नि० व० ४ । एलिओ - [ गु० ] एलुवा । मुसब्बर । एलिका पस-लेंसीईफोलियस - [ले० elocarp us lanceåfolius, Roxb.] सफेद पाती (मद्रास), ( नेप० ) । सहलङ्ग - ( असा० ), ( सिलहट ) । एलिओकार्पस-वेर्नुआ-[ ले० elåocarpus verunua, Ham.] तुत्तील्य सौलकुरी( असा० ) । मे० मो० । एलिओकार्पस - सिरेटस - [ले० elæocarpus serratus Linn.] जलपाई - (०) । मे० मो० । एलिओ - डेण्ड्रोन ग्लाकम् - [ ले० lodendron glaucum, Pers.] चौली । शौरिया - उ० प० सू । मे० मो० । एलिओडेण्ड्रोन्-राग्जबगियाई - [ ले० elroden dron roxburghii, W. & A. ] तमरज बम्ब० । एरिस - हिस्टस - [ ले० eleonurus hirsutus, Vahl.] भंजुरी - उ० प० सू० । मे० मो० । एलिकेम्पेन - [ • elecampane ) एक प्रकार का पौधा जिसकी पत्तियाँ और जड़ तिक सुगंधिमय होती है । रासन | एलिक्सर पेप्सीनी एट किनीनी कम-फेरो नोट- अँगरेज़ी एलिक्सिर शब्द वास्तव में अरबी शब्द श्रइक्सोर ही है, केवल तनिक उच्चारण मात्र का भेद हो गया है। अरबी में इक्सीर का अर्थ दवाएशाफ़ी है अर्थात् वह औषधि, जो प्रत्येक रोग को नष्ट करे वा जिसके खाने से कभी मनुष्य बीमार न हो । दे० " अक्सीर" । तिब्बी इक्सीर शुष्क वा आर्द्र हर प्रकार की हो सकती है; परन्तु डाक्टरी एलिक्सिर प्राय: शर्बत की तरह द्रव होती है । अस्तु, ब्रिटिश 1 फार्मास्युटिकल कान्फरेंस द्वारा प्रमाणित एलिक्सिर कैरी सैगडी फार्माकोपिया के सिरूपस कैस्करी सैrरेडी के समान होती है ।( २ ) अक्सीर रसायन । एलिक्सर-आफ-विट्रियल्–[श्रं० elixir-of vitriol] Aromatic Sulphuric-acid इक्सीर ज़ाज । दे० "गंधक" एलिक्सर- इपीकाइनी - [ ले० elixir epec uanha' ] इक्सीर इपीका । इक्सीर इ. के उ.ज़हब । दे० “इपीकेकाइनी” । एलिक्सिर - [ श्र० elixir ] [अ० श्रल्इक्सीर ] यह कतिपय श्रोषधियों से प्रस्तुत किया हुआ एक प्रकार का निर्बल प्रासव ( टिंक्चर ) है, जिसमें सुगंध - द्रव्य तथा शर्करा मिलाकर सुस्वादु एवं ग्राह्य बना लेते हैं । इक्सीर । ल्इकसीर । एलिक्सर- एनिसाई - [ ले० elixir anisi] इक्सीर नसून । दे० "अनीसून" । एलिक्सर- एलिट्राइटिस - [ ले० elixir aletridis ] इक्सीर ग्याह सितारः । दे० " एलीट्रिस ” । एलिक्सिर - कैर कैरी - [ ले० elixir cascarae] इक्सीर कैस्कारा । दे० "कैस्कारा सैग्रेडा” । एलिक्सर - कोकी - [ ले० elixir-cocae ] इक्सीर कोका । दे० " कोका" । एलिक्सिर-ग्ल्यूसाइडाई-[ले० elixir-glusidi] इक्सर शकरेन । दे० " ल्यूसाइडम्” । एलिक्सर - ग्वारानी - [ ले० elixir-guaranae ] इक्सोर ग्वाराना | दे० " ग्वाराना" । एलिक्सिर पेक्टोरेल - [ले० elixir-pectorale] इक्सीर सही । वाक्षीय श्रवसीर । दे० "मुलेठी" । एलिक्सर- पेपीन -[ ० elixir papain ] इक्सर जौहर - पपय्यः । दे० " अण्डखबू जा” । एलिक्सिर - पेप्सीनी-एट-कम्फेरो -[ ले० elixir pepsini et cum ferro ] एलिक्सिर विशेष | एलिक्सर पेप्सीनी-एट किनीनी कम फेरो - [ ले० Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एलिक्सिर पेप्सीनी एट बिस्म्युथाई १७८७ एलियम् स्फीरोसिफेलम् elixir-pepsini et quininae-cum | एलिग्नस-कॉन्फर्टा-[ ले०] ferro] सलोह पेप्पीन व विनीन अक्सोर। गोवारा-हिं० । मे० मो० । दे० "पेन्सीनम्"। एलिग्नस-लैटिफोलिया- ले० eleagnusएलिक्सिर-पेप्सीनी-एट-बिस्म्युथाई-[ ले० elixir Jatifolia Linn. घिवई मिझनला-हिं० । pepsini et bismuthi ] पेप्सीन बिस्मथ मे० मो०। अक्सीर । दे० “पे सोनम्"। एलिग्नस-हार्टेन्सिस-ले. eleagnus harteएलिक्सिर-एट-विस्म्युथाइ-कम्पोजिटम्-[ले.elixir nsis, M. Bieb.] शिवलिक-उ०प० सू० । ___pepsine et bismuthi-composi- संजीत-अफ० । शिरशिङ्ग-तिब्बत । मे० मो०। tum] निति पेसोन बिस्मथ अक्सोर । दे० एलिफेंटापस स्केबर- ले० elephantopus"पेप्सीन"। scaber. Linn. ] गोभी । हस्तिपातएलिक्सिर-पेप्सोनी एट बिस्म्युथाई कम्फेरो-[ ले० बम्ब० । elixir-pepsini-et bismuthi-cum | एलियम्-[ले. allium. ] लहसुन । रसोन । ferro] सलोह पे सोन-बिस्मथ-अक्सीर । दे० . एलियम-ऋषभक-ले. allium rishbhakal "पेप्सीनम्"। एलिक्सिर पेप्सीनी-एट बिस्म्युथाई एट ष्टिकनीनी ऋषभक नाम को श्रोषधि जो अष्टवर्ग में सम्मिलित है। कमफेरो- ले. elixir-pepsini et एलियम्-ऐम्पेलोप्रेसम-[ले. allium-ampelobismuthi et strychninae cum prasum. ] रसोन वर्ग की एक श्रोषधि । ferro]सलोह-पेप्सोन-बिस्मथ-विषमुष्टोन इक्सोर। एलियम्-ऐस्केलोनिकम्-[ ले० allium-ascaदे० "पेप्सोनम्"। ___lonicum ] एक पोथिया लहसुन । एलिक्सिर-फास्फोराई-[ ले elixir-phos pho- एलियम्-की(से)पा-ले०allium cepa,Linn.] ri] स्फुराक्सोर । इक्सोर-फास्फोरस । दे० 'फास्फो पलाण्डु । प्याज़। रस"। एलियम्-जीफ़ोपेटेलम्-[ ले० allium.] जंगली एलिक्सिर-युफार्बिया-[लेर elixir euphorbia] लहसुन । वन रसोन। दे० "सेहुँ"। | एलियम् जीवक-ले० allium jivak ] जीवक एलिक्सिर-बाइबाइ-पुनीफोलियाई कम्पोजिटा[ले० दाल० नाम की ओषधि जो अष्टवर्ग में सम्मिलित है। ..elixir-viburni prunifolii compoएलियम टयबरोसम्-allium-tuberosum ] sita (B. P. C.)] मिश्रित-श्रीपर्ण-अक्सोर। रसोन जाति को एक ओषधि । दे० "वाइबर्नम्"। एलिक्सिर-रहीयाई-ले० elixir rhei] इक्सोर एलियम्-पारम्-[ ले० allium-porrum, Li m.] परू-बं० । किरास-अ० । रावंद । दे. "रेवन्दचीनी"। एलिक्सिर-लेसीथीन- ले० clixin-lecithin.1 | एलियम्-मैक्सिएनाई- ले० allium maclea कुक्कुटाण्ड पीतक अक्सीर । दे० "लेसीथीन"।। ni, Buker. ] बादशाह-सालप। एलिक्सिर-सेनी- ले० elixir.senne. ] एलियम्-रयुबलियम्- ले० allium-rubelli. इक्सोर सना। दे० "सनाय"। um. Bieb.] जंगली प्याज | बरनी ब्याज । एलिक्सिर-हीमोग्लोबीन-[ ले० elixir-haemo चिरीपियाज़ी । .globii.] इक्सोर-हीमोग्लोबीन । दे० "हीमो- एलियम्-लेपटोफाइलम्- ले. allium-leptopग्लोबीन"। hyllum, Wall. ] हिमालयन प्याज़ । एलिग्नस-अम्बीलेटा-[ले. elaeagnus-umb-एलियम्-सेटिवम-[ लेallium-sativuni, Li elluta, Thunbera.] कंकोली। घाँई। nn.] रसोन । लहसुन । घिवई । बम्मिवा-पं० । मे० मो० । | एलियम्-स्फीरासिफेलम् [ ले० allinm-sphoer Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलिया एलीट्रिस काडिया rocephalum, Linn. ] एक प्रकार का उदरशूलारि मूल, पेट पीड़ाहर जड़ी-हिं० । हशीप्याज । शतुन्नज्मी-(अ०)। ग्याह सितारा । बीख कुलंज । एलिया-संज्ञा पुं॰ [गु० एलियो ] मुसब्बर । एलुवा । असम्मत एलिया आफिसिनेलिस-[ ले० albaer offici (Not Official) ___halis ] अंजल। उत्पत्तिस्थान-यह ओषधि अमेरिका में उपएलियुरायटीज-कार्डेटा-[ ले० aleurites cord- जती है। इसकी जड़ श्रोषधार्थ व्यवहार में -_ara] अखरोट भेद। आती है। एलियुरायटोज़ मॉलकेना- ले० aleurites-mo प्रभाव-तिक बलदायक, प्रामाशय बलप्रद, luccana, Willd.] अखरोट । श्राक्षोट । मूत्र प्रवत्तक, गर्भा राय बलदायक और विरेचक है। ए लयो-[ गु० ] मुसब्बर । एलुवा। पर इसको अधिकतया स्त्रीरोग में वर्तते हैं । एलियोडेण्डान-ग्लाकम-ले० alaeodenron मात्रा-१५ से १ ग्रेन तक । glau cum, Per's. ] चौरी। जमरसी । योगबकरा-हिं० । भूतपाल, तामरुज-मरा० । (१) एक्स्ट क्टम् एलोट्राइडिस Extracएलियोडेण्डोन-पेनिम्युलेटम- ले० alaeolen- tum Aletridis _dron peniculatum, ] वनस्पति विशेष । मात्रा-1 से २ ग्रेन। एलियोडेण्डोन-राक्सबगियाई- ले० ulacoden (२) एक्स्ट्रक्टम् एलोटाइडिस लिक्विड ___dron.oxburghii ] तमरज । Extractum Aletridis Liq. एलिसाइकार्पस-[ ले० alysical pus] एक मात्रा-1 से १ ड्राम। __ डाक्टरी दवा । (३)टिंकचर एलीटाइडिस Tincture एलिल थियो-यूरिया-[ ले० :.1lyl.thiorurta ] Aletridis एक डाक्टरी औषध । मात्रा-2 से १ ड्राम। एलिल-सल्फाइड-[अं॰ ally-sulpbide ] एक (४) एलिक्सिर एलीट्राइडिस Elixir . प्रकार का ईथरीय तैल, जो हींग का क्रियात्मक Aletridis. सार है। दे० "लहसुन"। मात्रा-2 से १ ड्राम। एलिल सल्फो-कार्बामाइड- ले. al:yl sulpho (५) एलीट्रिस कार्डियल Aletris Corcar baumide ] दे. "फाइब्रोलाइसोन"। dial. एलीइस ग्विनीन्सिस-[ले. elosis.guineen- मात्रा-१ ड्राम। sis ] अफ्रिकन श्राइल-पाम (African oil प्रभाव तथा प्रयोगpalm) मूत्र प्रवर्तक रूप से इसको जलंधर और पुराएलीका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] छोटी इलायची । तन प्रामवात में और विरेचक रूप से उदरशूल में सूक्ष्म एला । रा०नि०व०६। देते हैं। अधिकतया इसे गर्भाशय बलप्रद रूप से एलोक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] एलुवा।। प्रयोगित करते हैं । अस्तु, रियु केमिकल कम्पनी एलीकेम्पेन-[ अं० elecampane ] रासन । अमेरिका निर्मित एलीट्रिस कार्डियल नामक औषध, कुश्ते शामी । ( Inula Helenium ) जिसमें उपयुक्त औषध के अतिरिक्त और भी कई एलीटेरिया-कार्डमम्-ले- elettaria carda एक सुगंधित प्रोषधियाँ पड़ी हुई होती हैं। रजः momum, Maton.] छोटी इलायची। रोध, कष्टरज और श्वेत प्रदर प्रभृति रोगों में बर्तने सूक्ष्मएला। से अत्यन्त लाभ होता है। एलोट्रिस- ले० aletris ] स्टारग्रास Star-| एलीट्रिस-कार्डियल- अं० aletris-cordial ] grass, कालिकरूट Colicroot.-S०। हृद्य उदरशूलारि मूल । दे० "एलीट्रिस"। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एलीट्रिस फैरोसा १७८६ एलीट्रिस फैरिनोसा - [ ० aletris farinosa ] एलेक्ट्रार्गोल [ श्र० एक वनस्पति | start षध | एलीपा - [ गु० ] दे० " यापान" । एलपीन -[2] aly pin ] एक प्रकार का निर्गन्ध स्फटिकीय श्वेतवर्ण का चूर्ण । दे० "कोकीन " | ए (ई) लीमाइ - [ ० elemi ] मन्सिम की राल | तीनजुल मुन्शिम् | दे० " मन्सिम्” । एलीय-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] एलबालुक | एलुआ - संज्ञा पु ं० [ श्र० ] एलुवा । एलुइन -संज्ञा स्त्री० [ ० ] मुसब्बर का सत । जौहर सित्र । एलुक - संज्ञा पुं० [सं० की ० ] एलवालुक | एलुकाख्या -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एलबालुक । एप - [ ता० ] मधूक । महुआ । इरु (लु) पै - ता० । एलुप - [ ता० ] इप्पा | सोम-30 | ( Mimuso ps manilkara) एलुम्बुकार - [ ] हड्डी का कोयला । श्रस्थि श्रृङ्गार | एलुम्बुगल - [ ता० ] हड्डी । श्रस्थि । एलुमिच्चम् - तोलशि - [ ता० ] राम-तुलसो । फिरंजमिश्क-( श्रु० ) । एलेफेण्ट electrargol एक एलेक्सिफार्मिक - [ ० alexi pharmic ] दे० "ऐलेक्सिफार्मिक ” । एलेगारम् - [ ० ] सुहागा | टंक एलेगो दैनिक एसिड - [ श्रं० ellagu-tannic acid ] श्राँवले में पाया जाने वाला एक प्रकार का तेज़ाब । एलेग्जेरियन सेना - [ श्रं० alexandrian senna ] सनाय इस्कंदरी । स्वर्णपत्री भेद | एलेजियम - टोमेटोस - [ ले० alangium-tometosum ] श्रङ्कोल भेद । ढेरे का एक एलुमिच्चम् प म - [ ता० ] जम्बीर | नीबू | एलुमिन्चै - [ ता० ] जम्बीर | नीबू | एलुवा-संज्ञा पु ं० [ श्रं० aloe एलो ] घीकुवार की सुखाया हुआ रस । मुसब्बर । दे० " घोकुचार" । एलुवा मुदब्बर- [ श्र० ] शुद्ध किया हुआ मुसब्बर । दे० " मुसब्बर" | प्रकार । एलजियम्-डेका पेटेलम - [ ले० alangium (iccaetalum, Lam.] श्रंकोल । ढेरा । एलेञ्जियम्-सिक्सपेटेल्ड - [ श्रं० alangium six petalled ] काला अंकोल । एलेजियम्-लेमार्कियाई - [ श्रंo alangium-lam arckii, Thwaites. ] श्रंकोल । देश । अलङ्गी (मरा० ) । एलेञ्जियम्- हेक्सा पेटलम् - [ श्रं० alangiumhexapetaium, Lam.] काला अंकोल । काला अकोला । एलेञ्जीन - [ श्रं० alangin ] अंकोलोन । एक प्रकार का अस्फटिकीय तिल क्षारोद जो एलकोहल, कोरोफार्म और ईथर में विलेय; परन्तु जल में विलेय होता है । एलु - [ कना० ] अस्थि । हड्डी । एलेटरीन - [ श्र० elaterin ] ) जौहर किस्सा ए-ईद्दलु - [ कना०] हड्डी का कोयला । अस्थि- एलेटरीनम् - [ श्रं० elateniuum] उल्हिमार | एलेटरियम् - [ ले० elaterium ] क़िस्साउल्हि अङ्गार | एलूक - दे० "एलुक" । मार । । एलेक्टुअरी-[ श्रं० electuary] [ ले० बहु० एलेक्टुअरीज़ ] अवलेह । लत । चटनी | एलेक्टुरियम् - [ ले० lectuarium ] [ यू० ] अवलेह | चटनी । दे० "कन्फेक्शियोनीज़" । एलेक्टुअरी-लेनिटिव - [ श्रं० electuary-leni - tive ] दे० "कन्फेक्शियो" । एलेक्ट्रिक ऑस्मोसिस - [ श्रं० electric-osmo sis ] दे० ' कैटाफोरेसिस” । एलेटेरिया कार्डेमामम् [ले० elettaria-carda momum, Matton. ] छोटी इलायची | सूक्ष्म एला । एलेटेरिया - मेजर - [ ले० elettaria major ] बड़ी इलायची | बृहद् एला । एलेटेरिया - पेंस - [ ले० elattaria.repens ] इलायची । एला । एले (ली) फेस्ट - [ श्रं० elephant ] हाथी | Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एलेफैण्ट एप्ल १७६० एलो लिटोरेलिस | एलो, कामन-[अं० aloe common ] घीकु९ (ई) लेफैण्ट-एप्ल- अंo alephant- पार । कुमारी । apple ] कैथ । कपित्थ। | एलोकेशिया इण्डिका- ले. alocasia-indi. ए (ई) लेफैण्ट-क्रीपर-[अं० e:ephant cre- ____ca, Schott.] मानकंद । माणक । eper ] समुद्र शाष। | एलोकेशिया-मैकोहाइज़ा-[ ले० alocasia-maए (ई) लेफएट-ग्रास-[अंo elephant.grass- | corrhiza, Schott. ] इसका वृश्चिक-दंश . एरका । रामवाण । पर उत्तम प्रभाव होता है। एलेफैण्टापस-स्केबर- ले० elepha : topus- एलोग्ज़ोलम् एगेलोकम्-ले० aloexylum ag.. seab.", Linn ] गोभी । गोजिह्वा । allocham ] एक प्रकार के अगर का पेड़। एलेफैण्टिएसिस-[ अं० elephantiasis ] एलो-चाइनेन्सिस्- ले. alos-chinesis ] दे० श्लोपद । फीलपा। ___ "एलोवेरा" । (ई)लं फैएल्सफूट-प्रिक्ली लीड-[ अं० ele | एलोज़- अं० बहु. aloes] [यू०] [ए: व० phant's foot, prickly leaved ] ___aloe ] एलुगा । मुसब्बर । एलोज़-एडेन- अंo aloes aden ] अदन देश में गोजिह्वा, गोभी, बनगोभी। होनेवाला ग्वार । ए(ई)लेफैण्ट्स मिल्क-[ अं० elephant's एलोज-जाफराबाद-[अं॰ aloes jaferabad ] milk ] हथिनी का दूध । हस्तिनी दुग्ध । एलेबोरस-[यू० ] दे॰ “खार्बक जाफराबादी मुसब्बर । एलोज-बाइँडोज़-[अंo aloes barbadoss ] ऐलेमिच्चम्- ता० ] शर्बती नीबू । मीठा नीबू ।। ___बर्वेदी एलुआ। एलेम्ब्राथ-साल्ट-[अं० alambroth salt] दे. एलोज़-मोका-[ अं० aloes-mocha] अदन "पारा"। ___ या यमनी मुसब्बर। एलेलेग-[ का० ] सप्तपणं । सतिवन । छातिम । | एलोज यमनी-[अं० aloes-yamani ] यमनी एलेवम्-[ता. ] देव कपास । नरमा । ____ एलुवा। एलैसपेष्ट-अंo allen's-paste ] एलेन प्रलेप। एलोज-सोकाट्राइन-[अं० aloes-socotrin) ] दे. “संखिया"। सकोतरी एलुवा । एलेगिक-एसिड- अं. ellagic-acid ] एक | एलो-पोलिएटा-[aloe-perfoliata], मुसब्बर प्रकार का तेज़ाब । दे० "जामुन"। का एक भेद । एलो-[अं॰ aloe [बहु० एलोज़ ] पौधों की एक | एलोपेरियाई-[ले. aloe-parryi, Baker.] जाति जिनके बीच से एक सोधी पुष्प-डंडी सकोतरा द्वीप में होनेवाला ग्वार । (Aloe निकलती है और जिनसे एक प्रकार का तिक रस Socotrina.) निकलता है। एलोपेसिया-[ अं०, alopecia ] बालखोरा । एलो, अमेरिकन-[ अं० aloe-american ]| चाई-चूनाँ। . । राकसपत्ता । | एलोपोन-[अं० alopon ] दे॰ “प्राम्नोपोन"। एलो-इण्डिका-[ ले० alos-indica ] घीकुमार । एलोबाबेंडेंसिस-[ ले० alos-barbadinsis ] एलोईन-[अंloin ] मुसब्बर का सत । एलुवा बर्बदी ग्वार । सित्र बर्बदी। का सत । कुमारी-सत्व । एलोमेली- यू० ] शीरख्रिश्त।। एलोइनम्- ले. aloinum ] दे० "एलोईन"। | एलो-लिटोरेलिस-[ ले० aloe-litoralis, एलो-एबिसीनिका- aloe-abyssinica, Lam./ Koening. ] छोटा कवार | छोटाग्वार । जाफराबादी घोकुमार। . . . . . छोटा राकसपत्ता। .. Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एलो वल्गेरिस १७६१ - एल्युमिनियम नाइट्रेट एलो-वलौरिस-[ ले० aloe-vulgaris] बलो- एल्म-[elm ] एक प्रकार का वृक्ष, जिसकी पत्तियाँ रिया देश में होनेवाला ग्वार । खुरदरी होती और दोनों किनारे काँटादार एलो-वुड-[अं॰ aloe-wood ] अगर । एल/वरा-[ले. aloe vera, Linn.] घीकुवार। एल्म-लीह्वड-सुमाक-[ अं० em-leaved.suकुँवारगंदल । ____mach] सुमाक़ । तत्रक। एलोसकोट्राइना-[ ले. aloe-succotrina, | एल्युमिना-[ अं० alumina] एक प्रकार को मिट्टी। Linn. ] सकोतरो घोकुवार। . एल्युमीनियम की भस्म । एलोसोकोट्राइना-[ ले० aloe-socotrina] | एल्युमिनटेड कापर-[अं॰ aluminated-copसकोतरी-घीकुवार। ___per ] अमोनित ताम्र। एलो स्पाइक फ्लावडे-[ ले० aloe-spike-flo- एल्युमीन-[ ले. alumen ] फिटकरी। स्फटिका । ___wered ] छोटाग्वार। . एल्युमीन-एक्सी केटम्-[ ले alumen-exsic एलोस्पिकेटा-[अं॰alos spicata, Thunb.] _catum ] भुनी हुई फिटकरी । फूल की हुई - फिटकरी । एक प्रकार का घोकुवार।। | एल्युमीन-एमोनियो-फेरिक-[ ले० dlumenएल्क-संज्ञा पु० (अं• elk] एक प्रकार का बहुत ___ammonio-ferric] एक डाक्टरी औषध । बड़ा बारहसिंगा जो युरोप और एशिया में मिलता है । यह उत्तरी अमेरिका में भी पाया जाता है । एल्युमीन-प्योरिफिकेटम्- ले० alumen-puri ficatum ] शुद्ध स्फटिका । शुद्ध फिटकरी। इसे थूथन होता है । गरदर छोटी होने के कारण | एल्यु-मीनियम्-[ ले० aluminium ] एक यह जमीन परको घास आराम से नहीं चर सकता। ___प्रकार की शुद्ध श्वेतवर्ण की धातु । वि० दे० यह पेड़ की पत्तयाँ और डालियाँ खाता है। "स्फटिकम्"। इसकी टाँगें चरते समय छितरा जाती हैं। इसलिये यह हिरन की तरह न कूद सकता है और एल्यु-मीनियम्-आलिएट-[अं. aluminium oleate ] एक प्रकार का चूर्ण । दे० "फिटन दौड़ सकता है। इसकी घ्राणशक्ति अत्यन्त किरी"। तीब्र होती है । एल्कलाइ- अं. alkali ] दे. "ऐल्कलाइ"। एल्युमीनियम्-एसीटेट-टार्ट ट-[अं०:luminiumएल्कल्ली-[ मल० ] थूहर । सेहुँछ । वज्र । acetate-tartrate ] एक प्रकार की सबल निर्विषैल पचननिवारक औषध । एल्क़ातिरुल्मकी-[१०] दम्मुल्अवैन । होरादोखी। खूनाखराबा। एल्युमोनियम्-एसीटेट सोल्युशन-[ अं० alumiएल्डर-फ्लावर-[अं॰ elder-flower ] खम्मान nium acetate.solution ] स्फटिकशुक्रिका फूल । गुल खम्मान । तघोल । दे० 'फिटकिरी"। एल्डर-फ्लावर-वाटर-[ अं० elder-flower- एल्युमीनियम्-एसीटोटार्ट ट-[अंo aluminium water.] अक लाम्मान । (aqua-sam- aceto-tartrata ] दे० "फिटकिरी'। buci.) एल्युमीनियम्-केसीनेट-[ अं० aluminium एल्डर-फ्लावस-[ अं० elter-flowers ] गुल- caseinata ] एक प्रकार का पीताभ श्वेत वर्ण खम्मान कबीर । samboci-flowers. का स्वादरहित चूर्ण जो जल में अविलेय होता एल्डिहाइड-[अं० aldehyde ] है। दे० "फिटकिरी"। एल्बो-कार्बन-[ अं० albo-carbon ] दे॰ एल्युमीनियम्-क्लोराइड-[अं॰ aluminium-ch'नेफ्थालीन"। ____loride ] दे." फिटकिरी"। एल्बोफेराइन-[ अं० albo-ferine ] दे० एल्युमीनियम्-नाइट्रेट-[अं॰ aluminium-nit"लोहा"। rate] दे॰ "फिटकिरी"। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एण्य एल्युमिनियम् नेफ्थाल सल्फोरेट १७४२ एल्युमीनियम्-नेफ्थाल-सल्फोरेट-[अं॰ alumini- | एवर्ड युपाइज-[अं॰ avoirdu pois ] स्थूल एवं um na phthol-sulphorate ] एक शुष्क वस्तुओं के तौलने को एक प्रकार की ___ प्रकार का श्वेत वर्ण का चूर्ण । दे. "फिटकिरी”। माप । एल्युमीनियम्-सलिकेट-[ अं० aluminium- एवापोरेशन-[ अं० evaporation ] (१) silicate ] दे० 'केप्रोलीनम्"। वाष्पीकरण । (२) वाप्पी भवन । 'एल्युसीन-कोरोकेना-[ले. eleusine-coroca-एवं-अव्य० [सं०] (१) बराबर । साम्य । (२) na, Gertn.] मड् श्रा-धान । मँडुआ। ऐसे ही । सादृश्य । मकड़ा। एवेक्कण्ट्स -[अं॰ evacuants ] शोधन । मुफएल्युसीनी-इण्डिका-[ ले० eleusine indica, रिंगात ।। Gaertn.] किंझोर । गधा-उ०प० भा० । एवोडियाम क्सिनि-फोलिया- ले. evodia'एल्युसीनी-ईजिपटिका-[ ले• eleusine-aegy. ___fraxini-folia ] एक प्रकार का पौधा, ptica, Pers.] मकरा । मकरी। जिसका फल-कोष तुम्बुरु तुल्य होता है। एल्युसीनी-फ्लेगेलीफेरा-[ ले० eleusine flag. एवाल्व्युलस-अल्सिनाइडिज-[ ले० evolvu. ___ellifera, Nees. ] गुटुब-उ०प० भा० । lus-alsinoides, Linn.) विष्णुगन्धि । एल्ल-[ मल० ] हड्डी । अस्थि । शंखपुष्पी। एल्ल-इम्बुल-[सिं०] पोलो कपास। इसके गोंद को | एशा(शिया) टिक ग्रेविया-[ ले० fasiatic. कतीरा कहते हैं। grevia] फालसा । परुषक। पल्ल-एरिए-[सिं०] दुग्ध । दूध । एशा(शिया)टिक बार्बेरी- ले. asiaticएल्लु-[ ता०] तिल । तिल्ली । कुजद । ___barberry ] एक प्रकार की दारुहल्दी जो एल्लेना-[ कना० ] तिल । तिल्ली । कुजद ।। ___ गढ़वाल से हज़ारा तक.अधिकता के साथ होती है । एल्व-संज्ञा पु० [सं० वी० ] एलबालुक । सु० चि० एशोपगोल-[40] इसबगोल । १६ अ०। एल्वा-[द०] एलुवा । मुसब्बर । एषण-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (१) शल्लको वृक्ष । एल्वालु-संज्ञा पुं॰ [सं० की.] ) वै० निघ० । (२) लोहनिर्मित वाण । तीर। एल्वबालुक-संज्ञा पुं० [सं० वी०] एलबालुक। (३) अन्वेषण । खोज । (४) इच्छा । (५) एल्ववालुक-संज्ञा पुं॰ [सं० की.] ) खुरचने की क्रिया। एषणिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० (१) सोना आदि एल्वबाल्वाल-संज्ञा पुं॰ [सं०] एलबालुक। तौलने का काँटा । तुला । श्रम । (२) नश्तर । एल्शाटजियो-पॉलिष्टका-[ ले०] मेंहदी । व्रण खुरचने का सलाका । एल्शीनीज-) एल्शनीज- कलौंजी । मैंगरैला। उपकुञ्चिका । एपणी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक प्रकार का नश्तर एल्शोनीज़-) (सलाका )। इसका मुख केचुवे के मुख जैसा 'एल्साबनियः-[अ०] साबुनी बूटी। (sapona . होता है । इस अस्त्र को व्रण के मध्य में लगाकर ___ria-vaccaria.) पूयादि स्राव कराया जाता है । सु०। एल्हब्बेतु-ल्तिज़ा-[१०] मगरइल । उपकुञ्चिका ।। [२] सोना आदि तौलने की तुला (तराजू)। एल्हब्बतुस्सौदा-[अ० ] उपकुञ्चिका। मगरइल । एषणीय-वि० [सं० त्रि०] विश्राव्य । नश्तर देने एल्हागु- मिश्र० ] [ अ० अल्हाजु ] दुरालभा । योग्य । खारे शुतर। एषिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] खस । उशीर । च. एल्हेगलिग मिश्र०] इङ्गदी। हिंगोट । हिंगुवा । चि० ३ ० । अगरादि तैल । एवन-[फा०] चोबचीनी । एष्य-वि० [सं० वि०] वांछनीय । चाहने योग्य । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एष्या १७६३ एसिड आर्सेनिक एष्या-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०) आँवला । आमलकी । एसिड-संज्ञा पु. [ अं० acid ] [ बहु० रत्ना० । __ एसड्स ] अभ्ल । तेज़ाब । द्राव | .. एसक-दन्तिकुर्र-ते. ] एलबालुक । एसिड अकीलिइक-[अं० acid achilleic ] एसकाली-[ नेपा० ] श्राखी । कुञ्ची-पं०। ___एकोनाइटिक एसिड । दे. "बच्छनाग" । एसबगोल-[मरा० ] इसबगोल । ईषद्गोल । एसिड-अगारिक-[अं॰ acid-agaric] छत्रिएसमदुग-[मंद० ] कचनार । काम्ल । दे. "अगारिकस एल्बस"।। एसर-[कुमा० ] श्राखो । कुञ्ची-पं० । एसिड-अगारिसिनिक-[अं॰acid-agaricinic] एसर-केसियम्-ले० acer-caesium ] दे. “गारिकूनाम्ल"। एसर पिक्टम्-ले० acer-pictum ] दे० | एसिड-अमिडो-एसाटक-[ अं० acid-amido"किलपत्तर"। . ____acetic ] ग्लाइकोकाल । दे० "बीटेन"। एसराइडीन-[अं॰ eseridine ] फाइसाष्टिग्मीन | | एसिड अम्बर-[अं॰ acid-amber ] अम्बर का तेजाब। अर्थात् कैलेबार-बीन में पाया जानेवाला एक | एसिड आइसो एसिटिक-[अं० acid Iso-aceसत्व। एसरीन-[अं॰ eserine ] दे॰ “फाइसष्टिग्मीन"। tic] एक दृढ़ वसाम्ल जो व्याघ्र-एरण्ड-तेल ___ द्वारा प्राप्त होता है। द्रवन्त्यम्ल । एसरीन-सल्फेट-[ अं० eserine-sulphate ] एसिड-आक्सीनेझ्योइक-[अं० acid-oxynaएक प्रकार का हलका भूरे रंग का अमूर्त चूर्ण जो | ___phthoic ] दे॰ “एसिडम् ाक्सीनेफ्थोइकम्"। अत्यन्त प्रार्द्रताशोषक और अविलेय होता है । एसिड-आक्सेलिक-[अं॰acid-oxalic] चुक्राम्ल । दे. "फाइसाष्टिग्मीन"। दे. "एसिडम् ाक्सेलिकम्" । एसरीन-सैलिसिलेट-[ अं. eserine-salicyl- एसिड-आज्मिक-[ अं० acid-osmic ] दे. ate ] दे॰ "फाइसाष्टिग्मीन" । "एसिडम् श्रामिकम्"। एसरीन-हाइड्रोब्रोमास-[अं॰ eserine-hydro- एसिड-आफेलिक-[अं॰ acid-ophelic] चिरा bromas] एक प्रकार का सफेदी लिये हुये अमूर्त | यते का एक क्रियात्मक-सार । किराततिकाम्ल । चर्ण, जो किञ्चित आर्द्रताशोषक और अत्यन्त जल- दे० "चिरायता"। विलेय होता है। दे० “फाइसाष्टिग्मीन"। एसिड-आयोडिक-[ अं० .cid-iodic ] दे० एसरेमीन-[ अं. eseremine ] कैलेबारबीन "एसिडम्-श्रायोडिकम्"। अर्थात् फाइसोष्टिग्मीन से प्राप्त होनेवाला एक | एसिड-आरोक्लोरिक-[अं० acid-aurochloric] इसे "एसिड टिकोराइड-ऑफ गोल्ड" भी कहते प्रकार का सत्व। हैं। यह समान मात्रा में "पारीएट सोडियाई एसल-[सिं०] अमलतास । पारग्वध । क्लोराइडम्" के समान प्रभाव करता है। एसाइट्रीन[अं॰ acitrin ] एक पाण्डु-पीत स्फटिकीय चूर्ण, जो फेनिल-सिंकोनाइनिकाम्ल (श्राटो | एसिड-आर्गेनिक-[अं॰ acid organic ] ऐन्द्रि लाटा यक अम्ल । फेन) का ईथाइल ईष्टर है । संधिवात (Gout) एसिड-आर्थोफेनोल-सल्फोनिक-[अंcacid orthoमें इससे युरिकाम्लोत्सर्ग अत्यन्त बढ़ जाता है; ___phenol-sulphonic ] एक प्रकार का परन्तु कहा जाता है, कि यूरेट्स पर इसका तेजाब। अत्यल्प प्रभाव होता है। | एसिड-आर्सेनियस-[अं० acid-arsenious ] मात्रा प्रादि-इसे १० ग्रेन (५ रत्ती) की एसिड-आनियोजन-[ अं० acid arseमात्रा में दिन में ३ या ४ बार भोजनोत्तर जल niosum ] में मिलाकर प्रयोगित करें। | एसिड-आर्सेनिक-[अं॰acid arsenic ] एसाफीटिडा-[अं॰ asafoetida ] हींग । हिंगु। गौरी पाषाणाम्ल । मल्ल । दे. “संखिया" । ७ फा० Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एसिड आलीइक १७६४ एसिड कैफीलिक एसिड-आलीइक-[अं॰ acid-oleic ] तैलाम्ल। का तेजाब जो मद्यसार में कठिनतापूर्वक विलेय एसिड-आस्मिक-[ अं० acid-osmic ] दे० होता है "एसिडम् श्रास्मिकम्"। । एसिड-काइनो-टैनिक-[अं॰ acid kino-tanic] एसिड-इन्फ्युजन आफ रोज़ेज़-[अं॰acid infu- एक प्रकार का कषाय सार जो लॉगवुड ( log sion of roses ] गुलाबाम्ल-फाण्ट । दे. wood.) अर्थात् पता की लकड़ी द्वारा प्राप्त "गुलाब"। होता है। एसिड-एनिसिक-[ अं. acid anisic] अनी- | एसिड-कार्बजोटिक-[अं॰ acid carbazotic ] सूनाम्ल । दे. "अनीसून"। पिक्रिक एसिड। एसिड-एनोडाइनिक-[अं॰ acid anodynic] | एसिड-कार्बोलिक-[अं० acid carbolic ] एक ___ एनोडाइनिक एसिड । वेदनास्थापनीयाम्ल । सुप्रसिद्ध स्वच्छ कृमिघ्न स्फटिकीय द्रव्य, जो अलएसिड-एन्थेमिक-[अं॰ acid anthemic] एन्थे- कतरे के भागिक स्रवण और पुनः विशेष शोधनों मिक एसिड। से प्राप्त होता है। कार्बोलिकाम्ल । एसिड-एम्बेलिक-[अं० acid embelic ] विडं- एसिड-कार्बोलिक-लिक्विफाइड-[ अं० acid carगाम्ल । दे० "बायबिडङ्ग"। bolic-liquified ] द्रावित कार्बोलिकाम्ल । एसिड-एलेगोटैनिक-[अं॰ acid ellagotanic] एसिक-कुमेरिक-[ अं० acid coumaric ] एलैगोटैनिक एसिड। कुमेरिकाम्ल । एक प्रकार का तेज़ाब जो इनोलुलएसिड-एसिटिक-[अं॰ acid acetic ] शुक्राम्ला मलिक से प्राप्त होता है। सिरके का तेजाब । एसिड-केकोडाइलिक-[अं० acid cacodylic ] एसिड-एसीटिक-ग्लेशियल-[अं॰ acid acetic केकोडाइलिक एसिड। glacial ] शुद्ध शुक्काम्ल । एसिड-केबुलिनिक-[अं॰ acid chebulinic ] एसिड-एसीटिक-सैलिसिलिक-[अं॰acid acetic एक प्रकार का ऐन्द्रियक अम्ल जो हड़ से प्राप्त salicylic] शुक्न वेतसाम्ल । ऐस्पिरीन। दे० "एसिडम्-एसिटिल-सैलिसिलिकम्"। होता है । हरीतक्यम्ल । एसिड-ऐञ्जलिक-[ अं० acid-anjelic. ] पर | एसिड-कैटेशूटैनिक-[ अं० acid catechuदे. “ऐजेलिक एसिड"। tannic ] खदिरकषायाम्ल । खैर का तेज़ाब वा एसिड-ऐढाटोडिक-[अं० acid-adhatodic] सार। __ अाटरुषकाम्ल । अडूसे का तेजाव । दे."अडसा"। एसिड-कथार्टिक-[ अं० acid cathartic ] एसिड-ऐनाकाडिक-[अं॰ acid-anacardic] | एक प्रकार का विरेचनीय अम्ल जो सनाय, कुटको इत्यादि अनेक श्रोषधियों में पाया जाता है। यह एक प्रकार का तेजाब जो काजू के फल-कोष से | उनका एक क्रियात्मक सार है। प्राप्त होता है। दे. "काजू"। एसिड-कैप्रिक-[अं॰ acid capric ] कबराम्ल । एसिड-ऐरेकिक-[अं॰ acid arachic ] भूचण | एसिड-कैफीइक- अं० acid caffeic ] कहवे काम्ल । मूगफली का रोज़ाब । ___ का तेजाब । दे० "कहवा" । एसिड-ऐरेबिक-[अं० acid-arabic ] बबूलनिर्यासाम्ल । अझैन । बबूल के गोंद का सत्त । ऐरेबीन एसिड-कैफीएनिक-[ अं० acid caffeanic] arabin-अं०। एक प्रकार का अम्लीय सार जो कहवे से प्राप्त एसिड-ऐलाण्टिक-[अं॰ acid-ailantic] महा होता है। निम्ब त्वगाम्ल । एक प्रकार का तेज़ाब जो मीठे एसिड-कैफीओ-टेनिक-[ अं० acid caffeotaनीम की छाल से प्राप्त होता है। nnic ] कहवा कषायाम्ल । दे. "कहवा" । एसिड-काइनिक-[अं॰ acid-kinic ] एक प्रकार एसिड-कैफीलिक- अं० acid caffeilic ] Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एसिड कैम्फोरिक १७६५ एसिड टिग्लिनिक कहवे से प्राप्त होनेवाला एक प्रकार का तेज़ाब। एसिड-किनोविक-[अं॰ acid-quinovic ] एक दे० "कहवा"। प्रकार का तेजाबी सत जो सिंकोना से प्राप्त एसिड-कैम्फोरिक-[अं० acid.camphoric ] होता है। कर्पूराम्ल। । एसिड-किल्लेइक-[ अं० acid-quillaic ] के एसिड-केरियो-फाइलिक- अं० acid.caryo. निलाम्ल । एक प्रकार का तेज़ाब जो साबूनी बूटी phyllic ] लवङ्गाम्ल । केरियोफायलीन पर से प्राप्त होता है। नत्रिकाम्ल की क्रिया द्वारा यह तेज़ाब प्रस्तुत एसिड-गर्जनिक-[अं० acid-gurjunic ] गर्जहोता है। नाम्ल । दे० "गर्जन"। एसिड-केलम्बिक-[ अं० acid columbic] एसिड-गाइनोकार्डिक-[ अं. acid-gynocarकलम्बाम्ल । जौहर साकल हमाम । ____dic ] तुवरकाम्ल । चालमुगराम्ल । एसिड-कोमैरिक-[ . acid-coumaric ] एसिड-गार्डनिक-[ अं० acid-gardenic ] दे० "एसिड कुमैरिक"। डिकामाली का सत । नाड़ीहिंग्वम्ल । एसिड-कोलैलिक-[अं. acid cholalic] एक एसिड-गैलोटैनिक-[अं० acid-gallo-tannic] प्रकार का क्रियात्मक सार जो पित्त से निकाला माजूकषायाम्ल । दे० "माजू"। जाता है। पित्ताम्ल । कोलेलीना-। एसिड-ग्लिसरो-फास्फेट-[ अं० acid-glyceroएसिड-क्युबेबिक-[अं० acid cubebic ] कंको. phosphate ] ग्लिसरोफास्फेटाम्ल । लाम्ल । तेजाब कबाबः।। | एसिड-ग्लिसीर हाइजिक-[अं० acid-glycyrएसिड-क्राइसोफेनिक-[ अ. acid chryso ___hizic ] एक प्रकार का क्रियात्मक सार जो phanic.] रेवन्दचीनी तथा गोश्रापाउडर इत्यादि मुलेठी से प्राप्त होता है। मधुयष्टिकाम्ल । से प्राप्त होनेवाला एक अम्लीय सार । क्राइसारो एसिड-ग्वायेकानिक-[अं० acid-guaiaconic] बीन । दे० "अरारोबा"। पवित्रयष्टिकाम्ल । एसिड-क्रियाजोटिक-[अं॰ acid-creosotic ] " एसिड-ग्वायेसिक-[अं० acid-guaicic ] पवित्रक्रियोज़ोटिकाम्ल । यष्टिकाम्ल । एसिड-क्रेसिलिक-[अं॰ acid-cresylic ] दे० एसिड-ग्वायेसिनिक-[अं० acid-guaiacinic] “एसिडम्-क्रसिलिकम्"। पवित्रयष्टिकाम्ल । एसिड-क्रोटन-आलीइक-[ अं० acid-croton एसिड-चालमूग्रिक-[ अं० acid.chaulmoooleic ] एक प्रकार का अम्लीय क्रियात्मक सार gric] तुवरकाम्ल । चाल मूगरा का तेज़ाब। जो जमालगोटे के तेल द्वारा प्राप्त होता है । जैपालतैलाम्ल । एसिड-जिबेण्टिक-[ अं० acid-jibantic ] एसिड-क्रोटनिक- अं० जीवंती का सत । जीवन्त्यम्ल । acid-crotonic ] जैपालाम्ल । एसिड-जिजिफ्रिक-[अं० acid-zizyfic] वदएसिड-क्रोमिक-[ अं० acid-chromic ] दे. राम्ल । बेर का तेज़ाब । "एसिडम् क्रोमिकम्"। एसिड-जिज़िफोटैनिक-[ अं. acid-zixyphoएसिड-क्लोरोजीनिक-[ अं० acid.chlorog- tnnic ] वदरीकषायाम्ल । ____enic ] दे॰ "कहवा"। | एसिड-जिम्नेमिक-[अं० acid-gymsuemic ] एसिड-किनिक-[अं० acid-quinic ] दे॰ “एसि- गुड़मार का सत । मेषशृङ्ग्यम्ल । डम् क्विनिकम्"। | एसिड-टार्टारिक-[ अं० acid.tartaric ] एसिड-किनीन-हाइड्रो-क्लोराइड-[अं० acid-qui-| तिन्तिडिकाम्ल । इमली का सत । nine-hydrochloride ] दे॰ “कुनैन" । एसिड-टिग्लिनिक-[ अं० acid-tiglinic ] Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एसिड टैनिक १७६६ एसिड मेकोनिक - जयपालारल । जमालगोटे का तेज़ाब । दे० "जमा- एसिड-पाइरोगैलिक-[अं॰ acid-pyrogallic] लगोटा"। एसिडम् पाइरोगैलिकम् । एसिड-टैनिक-अं० acid tannic ] कथायाम्ल । एसिड-पालिगोनिक-[अं॰ acid-polygonic.] वल्कलाग्ल । जौहर अंजबार। एसिड-ट्रिक्लोर-एसीटिक-[अं० acid-trichlor- एसिड-पिक्रिक-[अं० acid-picric ] एसिडम् ___acetic ] एसिडम्-ट्रिनोर-एसीटिकम् । । पिक्रिकम् । एसिड-ट्रिक्लोरफेनिक-[अं॰ acid-trichlorp.- एसिड-पेपाइक-[अं॰ acid-pa payic ] पपी epie दे. "एसोडम-टिजोर-फेनिकम् । ताल । दे. "श्रण्डखरबजा"। एसिड-डाइइथिल-बार्बिट्य रिक-[अं० acidl die- एसिड-पैराक्सि-बेञ्जोइक-[अं० ॥c.d-p raoxy. thv]-harbituric] दे॰ “बाबिटोनम्"। benzo c] कम्पिल्लाम्ल । एसिड-डाइपलिल-बावि-ट्यु रिक- अं० acid- एसिड-पोटाशियम्-टार्टरेट-[ अं. acid-pota diallykarbituaric ] डाइलिल-बार्षि- ssium tartrate ] पांशु टरेटाम्ल । दे० ट्यु रिकाम्ल । “पोटाशियाई टाटस'। एसिड-डाइक्लोर-एसीटिक-[अंo acid-di ho1- | एसिड-युनिको टैनिक-[ अं० acid punico_acetic ] डाइकोर-एसिटिकाम्ल । ____tannic ] दाडिम कघाया-ल । दे. "अनार" । एसिड-डाइब्रोमोगैलिक-[o acid-dibycnic- एसिड-प्युमेरिक-[अं० acid pumeric ] प्यु____gallic ] गैलोब्रोमोल । मेरिक एसिड। एसिड-डेस आक्सीकोलिक-[अं॰acid-des-oxy- | एसिड-सिक-[अं० acid prussic ] ग्रंसिक clholic] एक प्रकार का क्रियात्मक सार जो एसिड।। पित्त से प्राप्त होता है। । एसिड-म मिएरिक-[अं॰ acid plumieric ] एसिड-डैटयुरिक-[अं॰ acid-datric] धतू- गुलाचीन का सत । जौहर प्राचीन । राम्ल । धुस्तूराम्ल । एसिड-फास्फोरिक-[अं० acid-phosphoric] एसिड-थाइमिनिक-[अं॰ acid-thyminic] | । स्फूरकाम्ल । अगिया-बेताल का तेज़ाब । थाइभिनिक एसिड । दे. “न्युकीन" । एसिड-फास्फोरिक-डायल्यूट-[अं॰ acid-phoएसिड-नाइट्रिक-[अं० acid-nitric ] शोरकाम्ला sphoric-dilute ] जलमिति स्फूरकाम्ल । नत्रिकाम्ल । शोरे का तेज़ाब। | एसिड-फ्युमेरिक-[अं॰ acid-fumaric ] पर्पटएसिड-नाइट्रिक-डायल्युटेड-[अं॰ acid-nitiic- काम्ल । जौहर शाहतरः। ___diluted ] जलमिति शोरकाम्ल । एसिड-बेञ्जोइक-[अंwacid-benzoic ] लोबानिएसिड-नाइट्रो-हाइड्रोक्लोरिक-[ अं० acid-nitro काम्ल । ___hydro-chloric ] शोरकोदहरिकाम्ल । एसिड-बोरिक- अं० acid-boric ] टकणाम्ल । एसिड-न्युक्लीइक-[अं॰ acid-nucleic] सुहागे का तेज़ाब । एसिड-न्युक्लीइनिक-[अं० acid-nucleinic IA || एसिड-बोरेकिक-[अं॰ acid-boracic ] टंकन्युनीनिकाम्ल । एसिड-न्युक्लीप्रोटीन-फास्फोरिक- अं० acid- | णाम्ल । nucleotin phosphoric ] एसिड थाइ | एसिड-बोहीइक-[ अं. acid-boheic ] एक मिनिक। __ प्रकार का तेज़ाब जो चाय से प्राप्त होता है। एसिड-परास्मिक-[ अं० acid-perosmic ] एसिड-माइरिष्टिक-[ अं.jacid-myristic ] एसिडम् श्रास्मिकम् । जातीफलाम्ल । एसिड-पाइपेरिक-[अं० acid-piparic ] कृष्ण- एसिड-मेकोनिक-[अं० acid-meconic ] एक मरिचाम्ल । अम्ल । यह अफीम के मेकोनीन नामक तिक्त Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एसिड-मीथिल क्रोटनिक १७६७ एसिडम्-काबोलिकम् क्रियात्मक सार के साथ मिला हुआ पाया। इस अम्ल और जल का मिश्रण है । इसके सिवा जाता है। कई अम्ल वनस्पतियों के रस में और कई जंतुओं एसिड-मीथिल क्रोटनिक- अं० acid methyl- | के स्वेद-मूत्रादि में भी यह मिलता है । दे० "शुक्राम्ल"। ___erotonic ] मीथिल जयपालाम्ल । एसिड-मानोक्लोरएसीटिक- अं० acid-mono- एसीडम्-एसीटिकम्-ग्लेशिएली-[ले. acidum___chloracetic] मोनोकोर एसिटिक एसिड। aceticun glaciale ] एक स्वच्छ, वर्ण एसिडम्-ले. acidum] [बहु० एसिडा Acida] | रहित, उग्रगन्धि और तीपण तरल अम्ल । तेज़ाब । अम्ल । एसिड । क्षार का उलटा । वि. (Glacial Ac tic acid) शुद्ध शुक्राम्ल । दे० "शुक्राम्ल" । दे० "अम्ल" वा "तेज़ाब"। एसिडम्-अगारिकम्-[अं॰ acidum-agari एसिडम्-ए सीटिल-सैलिसिलिकम-[ ले० acidum -acetyl salicylicum ] एक प्रकार का ____ cum ] शिलींध्राम्ल । दे. "अगारिकस-एल्बस" एसिडम्-अम्बर-[ले० acidum-smber] अम्बर सफेद कुछ-कुछ स्वादरहित स्फटिकीय चूर्ण जी वेतसाम्ल (Salicylic acid) पर एसीटिक ___ का सत। अनहाइडाइड वा ऐसोटिल नोराइड को क्रिया एसिडम्-अर्गोटिकम्-[ ले. acidun-ergoti द्वारा प्राप्त होता है और प्रायः प्रास्पायरीन वा ____cum ] अर्गटाम्ल । दे० "अगोंटा"। ऐस्पिरीन संज्ञा से सुप्रसिद्ध है। एसिडम्-आर्सेनिओज़म-[ ले. acilum-arse पर्याय-एसीटिल सैलिसिलिक एसिड ___niosum ] शुद्ध संखिया । मल्ल । ( acetyisalicylic acid ), हेलीकोन एसिडम्-आक्सेलिकम्-[ ले• acidum-oxali- (Helicon ), heticia Saletin, ( Xa cum ] एक प्रकार का अम्ल जो पहले काष्ठ ara), ऐसोटोल ( ace tol) सेलएसीटीन चूर्ण ( Saw-dust)द्वारा प्राप्त किया जाता (Sulacetin) इत्यादि । था; परन्तु अब इसे शर्करा वा गोधूम-चूर्ण पर रासायनिक सङ्केत सूत्र घन नत्रिकाम्ल की क्रिया से बनाया जाता है। यह नैसर्गिक रूप से चांगेरी आदि वनपस्तियों में (Cg.H 8.04.) भी पाया जाता है । काष्ठिकाम्ल । चुक्राम्ल । चूके प्रभाव-ज्वरनाशक, आमवातहर और वेदका सत । अमरोला का सत । (Oxalic acid) नास्थापक। वि० दे० "काष्ठिकाम्ल"। मात्रा-५ से १५ ग्रेन ( = ३ से १० एसिडम् आलीइकम्- ले० acidum ole- डेसीग्राम)। icum ] एक प्रकार का तेज़ाब जो लों से नोट-यह वेतसोन (Salicin) का एक प्राप्त किया जाता है । (Oieic acid ) दे०/ योग है । विशेष विवरण के लिए दे० "सैलिसि"तैलाम्ल"। लिक एसिड"। एसिडम् आल्फेटोलुइकम्-ले०acidum-alpha- | एसिडम्-ऐरोमेटिकम्-डायल्यूटम्-[अं॰ acidum. to-luicum ] दे॰ “श्राल्फेटोलुइक एसिड"। aromaticum-dilutum ] जलमिश्रित एसिडम्-एलेण्टिकम्-[ ले० acidum-allan- सुरभित अम्ल । ticum ] एक प्रकार का सत्व जो एलीकेम्पेन एसिडम्-ऐसीटो-प्रोपायोनिकम्-[अं॰ acidumसे प्राप्त होता है। यह जल में अविलेय, किन्तु aceto-propionicum ] एसिड लोब्युलिएलकोहल में विलेय होता है। यह प्रबल पचन- निक। निवारक है। एसिडम्-कार्बोलिकम्-[ ले० acidum-carboएसिडम्-एसीटिकम्-[ ले. acidum-acetin | licum ] एक सुप्रसिद्ध कृमिघ्न द्रव्य जो cum ] एक प्रकार का अम्ल । शुक्र वा सिरका अलकतरे (कोलटार) के भागिक स्रवण और Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एसिडम्-कार्बोलिकम्-लिकिडम् पुनः विशेष शोधनों से प्राप्त होता है। कार्बोलिक एसिड । कार्बोलिकाल । वि० दे० "कार्बोलिकाम्ल " । एसिडम्-कार्बोलिकम्-लिक्विडम् [ ले० acidumcarbolicum liquidum ] जलमिश्रित कार्बलिक अम्ल | एसिड कार्बोलिक सिन्थेटिकम् - [ ले० acidum carbolicum syntheticum ] संधान की विधि द्वारा प्रस्तुत कार्बलिकाल 1 एसिडम्-केथार्टिकम् [ ले०_acidum-catharticum.] कैथार्टिक एसिड । एसिडम्-कैन्थारी/डस - [ ले० acidum-cantharidis ] तेल नीमक्खी का तेज़ाब । एसिडम्-क्रेसीलिकम् - [ ले० acidum-cresylicum ] क्रेसोल (cresol ), क्रेसिलिक एसिड cresylic acid ( श्रं० ) । क्रेसोलाज - हिं० । हर जुल क्रेसिलिक । हानि. क्रेसि लिक, तेज़ाब क्रेसिलिक ( उ० ) । यह एक वर्णहीन वा ईषत् पीत वर्ण का द्रव है जो कतरे ( कोल टार ) से प्राप्त होता है । इससे टार की सी गन्ध श्राती है । इस अभ्ल को उत्तम शीशे की डाटवाली अंबरी रंग की शीशी में रखना चाहिए । विलेयता - यह एक भाग ८० भाग पानी में तथा एलकोहल, ईथर, क्रोरोफार्म, ग्लीसरीन और श्रालिह्न श्रइल में सरलतापूर्वक घुल जाता है । १७६८ गुण-धर्म तथा प्रयोग यह नि:संक्रमण कारक (डिसइन्फेक्टेंट) और जीवाणु नाशक (ऐंटीसेप्टिक ) है | इसको सुँघाने से हूपिंग - कफ (कुकर खाँसी) तथा श्वास के अन्यान्य रोगों में उपकार होता है । परन्तु इसका उपयोग किसी भाँति उचित नहीं है । योग - ( Preparations ) (1 ) लाइकर क्रीसोलिस कंपोज़िटस Liguor Ciesolis compositus. (ले० ) । मिश्रित क्रीसोल द्रव | निर्माण क्रम - क्रेसोल ५० भाग लिनसीड इल ३५ भाग, पोटेशियम हाइड्रो श्राक्साइड बभाग, पुलकोहल ४ भाग श्रोर जल श्रावश्यकता एसिडम्-क्रेसीलकम् नुसार वा इतना, जितने से सम्पूर्ण द्रव पूरा सौ १०० भाग होजावे । नोट- सभी श्रंश तौल कर डालें, मोप कर नहीं । प्रभाव - यह कार्बोलिक एसिड की अपेक्षा प्रवलतर कीटन ( Germicide) बतलाया जाता है । ( २ ) लाइकर क्रीसोली सैपोनेटस— ( Liquor cresoli Saponatus ) ( ले० ) । निर्माण विधि - कच्चा ( क्रूड ) क्रेसोल १ भाग, सैपोकैलीसन १ भाग, दोनों को गरम करके मिलावें । यह एक भूरा पीताभ द्रव बन जाता है। नोट-डच प्रदेश के फार्माकोपिया में भी यह योग सर्वथा ऐसा ही है । भेद केवल इतना ही है कि उसमें दो प्रतिशत जल भी मिला दिया जाता है । इसी यौगिक की अन्य संज्ञा लाइसोल है जिसका उल्लेख आगे आयेगा । (३) सोल्यूशियो क्रेसोलिस सैपोनेटिसSolutio Cresolis Sponatis (ले० ) । निर्माण विधि - क्रेसोल ५० भाग लिनसीड इल १८ माग, पोटाशियम् हाइड्राक्साइड ४ भाग, एलकोहल २ भाग,ग्लीसरीन ६ भाग, परित जल उतना जितने में कि संपूर्ण द्रव पूरा एक सौ भाग होजाय । नोट - समग्रांशों को मापकर ही डालना चाहिये । ज़ेज़फ्लुइड नामक श्रधोलिखित योग कई एक पेटेण्ट औषध का प्रधान श्रवयव है । ( ४ ) जेज़फ्लुइड Jey's fluid—यह - टार श्राइल का एक यौगिक है । इसमें २० प्रतिशत ट्राइ सोल, राल एवं खार के साथ साबुन की शकल में संमिश्रित होता है । यह जल के साथ मिलकर एक स्थायी एमलशन का निर्माण करता है । इसका एक वा दो प्रतिशत का दिलयन कार्बलिक सोल्युशन के स्थान में उपयोगित होता है । यह पूयमेह (सूज़ाक ) तथा नासा दौर्गन्ध्य में उपकारी होता है । ४०० भाग में १ भाग की इसकी उत्तरवस्ति और रक्तावरोधक और कृमिनाशक Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एसिडम क्रेसीलिम् १७६ एसिडम् क्रोमिकम् प्रभाव के कारण यह प्रसूतोपचार में परमोपयोगी | एसिडम-क्राइसोफेनिकम-[ले. acidum-chrहै । विसपे ( इरीसेपलस) नामक रोग में इसका y so-phanicum ] दे॰ “अरारोबा"।। मलहम लगाने से लाभ होता है। एसिडम-क्रोमिकम-[ ले० acidum-chromi(५) पियरसन्स-ऐण्टिसेप्टिक Paars- | cum ] क्रोमिकाम्ल । हम्जुल्क्रोमिक । हामि.ज़on's antiseptic-पियरसन महाशय का क्रोमिक । तेज़ाब-क्रोमिक । क्रोमिक अन्हाइड्राइड कृमिनाशक द्रव । जेज़फ्लुइड की तरह यह भी एक | Chromic anhydride, क्रोमिक एसिड प्रकार का यौगिक है। Chromic acid.-(अं०)। (६) युरोफेन Europhen-यह एक संकेत-सूत्र Cr 3. सूक्ष्म पीताभ गंदुमो रंग का चूर्ण है जिसे शर्बत ऑफिशल Official में मिलाने से सुगंध आती है। यह प्रायडोफार्म निर्माण-विधि-पोटाशियम् बाई क्रोमेट पर की प्रतिनिधि है। इसे चूर्ण ('owder) गंधकाम्ल की क्रिया द्वारा यह तेज़ाब प्राप्त वा मलहम रूप में प्रयोगित किया जाता है। होता है। नोट-यह जल और ग्लीसरीन में तो अवि- लक्षण-इसके गंभीर रक्रवर्ण के सूचीवत् लेय है; पर एलकोहल, क्लोरोफार्मशोर ईथर में सर- बारीक कण होते हैं जो वायु में खुला रखने से लतापूर्वक विलेय होता है। पिघल जाते हैं। (७) लोसोफान Losopha ]]-यह एक विलेयता-लगभग दो भाग यह अम्ल एक श्वेत वा पीताभ श्वेत चूर्ण है जो जल, भाग जल में विलीन होजाता है। किंतु मद्यसार में एलको हल, ईथर और कोरोफार्म में विलीन हो | मिलाने से इसके अवयव वियोजित होजाते हैं। जाता है। प्रभाव-विशुद्ध क्रोमिक एसिड भक्षक वादाहक (८)टामेटोल Traumatol-इसको (cor osive), पचननिवारक ( disinfectआयडोक्रेसोल भी कहते हैं। यह दोनों यौगिक ant) और दुर्गन्धनाशक है। क्रोसोल और प्रायोडीन के यौगिक हैं, जो प्रायडो ___ सम्मत योग फार्म को जगह काम में आते हैं । (Official preparations.) लाइकर-एसिडाई-क्रोमिसाई ( Liquor(E) लाइसो(जो)ल Lysol-यह एक Acidi-chromici (ले०)। सोल्युशन ऑफ स्वच्छ भूरे रंग का शर्बती द्रव है जो जल के क्रोमिक एसिड Solution of chromicसाथ मिलकर एक साफ सोल्युशन का निर्माण acid (अं०)। क्रोमिकाम्लीय-द्रव(हिं०) साइल करता है । इसके एक प्रतिशत विलयन (६ से हम्ज ल्क्रोमिक । साइल तेजाब-क्रोमिक । १२ घन शतांशमीटर की मात्रा में ) का मस्तिष्क निमाण-बिधि-१ औंस क्रोमिक एसिड को सौषुम्न-प्रदाह रोग में सुषुम्ना के भीतर सूचीवेध ३ श्रोस परिस्र त जल में घोल लें। शक्ति-इसमें करते हैं । इसका जलीय विलयन (२०/०) योनिप्रक्षालनार्थ ( Vaginal douch ) और व्रण, २५ प्रतिशत क्रोमिक-एसिड होता है और इसका शस्त्रादि के धावन के लिये शल्य चिकित्सा में प्रापेक्षिक भार ११८५ होता है। अाजकल अधिक प्रयुक्त होता है । फार्माकोलाजी अर्थात् क्रोमिक एसिड के प्रभाव-बहिःप्रभाव-विशुद्ध क्रोमिक एसिड नोट-यह भी लुक से प्राप्त होता है और अतिशय प्रबल प्रदाहक है । इससे ऑक्सीजन गैस फीनोल तुल्य गंध देता है। सरलतापूर्वक पृथक् होजाता है और यह निम्न (१०) सॉलवियोल Solveol-यह भी कोटि के कीटाणुओं को नष्ट कर देता है । अस्तु, क्रीसोल का एक यौगिक है जो दाहक नहीं होता । यह अत्युत्तम निःसंक्रामक (Disinfec tant) इसको शस्त्र-कर्म में प्रयोगित करते हैं। एवं दुर्गन्धनाशक है। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एसिडम् क्रोमिकम् १८०० एसिडम् थाइमिनिकम् थेराप्युटिक्स अर्थात् आमयिक प्रयोग एलकोहल, ईथर वा ग्लीसरीन में मिलाने से तत्क्षण प्रज्वलित होने की आशंका रहती है। अतः लाइकर एसिडाई क्रोमिसाई दाहक रूप से | इन द्रव्यों के साथ उसे कदापि न मिलाना मस्सों (Warts), फिरङ्ग जनित चट्टों ( Con चाहिये। dylomata ), दुष्ट व्रणों ( Lupus ) कोषमय घेघा (Cystic goitre) एवं एसिडम्गेलिकम-[ ले० acidum-gallicum] अन्य कोषाकार अर्बुदों (Cystic tumo मायिकाम्ल । दे० "माजू"। urs) प्रभृति के प्रदग्ध करने में काम आता है। एसिडम्-टाटारिकम्-[ ले. acidum-tartariकिंतु इसका प्रयोग बहुत ही चतुरतापूर्वक करना | cum ] टारटारिक एसिड tartaric acil चाहिये । अस्तु इसे नोकदार शीशे की कलम से (अं०)। तितिडि काम्ल, इमली का सत, इमली लगाना चाहिये और उक्त स्थल के आस-पास के __ का तेजाब, अंगूर का सत-(हिं.)।हम जुत्तीरी, तन्तुओं को सुरक्षित रखने के लिए उस पर प्लाष्टर मिल्हुत्तीरी, ततॊरुलखमर-(३०)। निर्माण-विधि-द्राक्षा-स्वरस अर्थात् अंगूर वा मलहम लगा देना चाहिए तथा लिंट का एक के शराब बनने के उपरांत शराब के पीपों में टकड़ा पानी में भिगोकर अपने पास रखना चाहिए: जो वस्तु लगी रह जाती है, उसे आंग्ल भाषाविद् जिसमें यदि तेजाब कुछ अधिक लग जाय, तो उसे टारटार कहते हैं। उसे ही अरबी भाषा में तीर लिंट से तत्काल अभिशोषित कर लिया जाय । और फारसी में दर्दे-शराब कहते हैं। इसीसे प्रति औंस जल में १० ग्रेन क्रोमिक एसिड पोटेशियम टार्टरेट बनाई जाती है और पोटेशियम् डालकर बनाया हुआ घोल मुखज्ञत विशेषतः टार्ट रेट से टार्टरिक एसिड निर्मित होता है । यह फिरंगजन्य क्षतों ( Syphilides ) के लिए अम्लतितिड़िका ( इमली) और अपक्क द्राक्षा और बहुत ही उपयोगी होता है। परन्तु रेन्युला श्राम्रादि फलों में प्रचुरता से पाया जाता है. और लिंग्वल एपिथैलियोमा को प्रदाहित करने के और उनसे ही पृथक करके स्फटिकाकार "टार्टरी" लिए तीव्र घोल की आवश्यकता पड़ती है। इसे नाम से विक्रय होता है। लगाने के कुछ मिनिट उपरांत एल्युमिनिया एसी- नोट-यह अल अम्लिका (इमली) और टेट के घोल से प्रक्षालित कर डालना चाहिये। खट्टतूत में भी होता है। इसलिये कभी उनसे अल्सरेटेड गम्ज़ (क्षतयुक्त मसूढ़ों) और फाउल | भी इसको प्राप्त कर लिया करते थे । पर अधुना सोज (दुर्गधिमय-क्षतों) के प्रक्षालनार्थ इसका साधारणतः यूरुप में इसको पोटेशियम टार्टरेट से निर्बल घोल, जैसे, की शक्ति का वा उससे ही प्रस्तुत करते हैं । वि० दे० "तिन्तिडिकाम्ल"। | एसिडम-टैनिकम्-[ ले०ncidum-tannicum] किंचित् तीव्र उपयोग में लाया जाता है। इसके एक प्रकार का अम्ल जो बबूल, खदिरादि अनेक १ ग्रेन प्रति औंसवाले घोल को जल में मिलाकर वृक्षों की छालों से प्राप्त किया जाता है। उससे कंठ रोगों में गंडूष कराते हैं। (Tannic acid) कषायाम्ल । वल्कलाम्ल। श्वेत प्रदर-( Leucorrhoea) और वि० दे० “वल्कलाम्ल"। पूयमेह ( सूज़ाक) में इसके २००० वा ४००० एसिडम् डाइआक्सिफेनिकम्-[ ले० acidumभाग जल में १ ग्रेन एसिड की शक्ति के सोल्युशन dioxyphenicum ] डाइआक्सिफेनिक की उत्तर-वस्ति करने से लाभ होता है। पैरों से एसिड। अधिक स्वेद-स्राव होने पर इसके तीन प्रतिशत एसिडम् डाइआयोडो-सैलिसिलिकम्- ले० aciके घोल का प्रयोग उपकारी होता है। dum-di-iodo-salicylicum ]errariयोग-निर्माण विषयक आदेश डोसैलिसिलिक एसिड। क्रोमिक एसिड अपने संवटन से आक्सीजन एसिडम्-थाइमिनिकम्-[ ले० acidum-thyसरलतापूर्वक पृथक् कर देता है। अतएव इसको minicum ] सोल्युरोल (Solurol.)। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एसिड नाइट्रिकम् iticum ] एसिडम्- नाइट्रिकम् - [ ले० acidum एक प्रकार का अम्ल जो शोरे पर घन गंधकाम्ल डालकर तपाने से प्राप्त होता है । नत्रिकाम्ल । शोरकाम्ल । शोरे का तेज़ाब | ( Nitric acid ) दे० " नत्रिकाम्ल " | एसिडम्- नाइट्रिकम् - डायल्यूटम् - [ ले० acidum - mitrican-dilutam ] जलमिश्रित नत्रिकाम्ल । दे० 'नत्रिकाम्ल " | एसिड नाइट्रो-म्युनिकेटम् -[ ले० acidum nitro-muricatum ] शुद्ध नत्रिक उदहरि काम्ल । अलराज । एसिडम्- नाइट्रो - हाइड्रोक्लोरिकम् - [ ले० acidum • vit o hydro-cloricum ] अम्लराज | एसिडम्-पारोगैलिकम् - [ ले०_acidum-pyro gillicum ] पाइरोगैलिक एसिड Pyrogallic acid. पाइरोगैजोल Pyrogallol (श्रं० ) । पाइरोगैलिकाम्ल - (हिं० ) । हामिज़ पाइरोगैलिक । रासायनिक सूत्र C Н 6. (0H, ) असम्मत ( Not Official.) निर्माण विधि - माचिकाम्ल (Gallic acid) को १८५ से २०० शतांश के ताप पर ऊर्ध्वपातित करने से वह पाइरोगैलिक एसिड और कार्बनिक में विच्छिन्न हो जाता है । लक्षण - इस तेज़ाब के लघु श्वेतवर्ण के स्फटिकीय गुच्छे होते हैं। तीव्र प्रकाश से यह रंगीन हो जाता है, विशेषतः इसका सोल्युशन । अस्तु, इसको प्रकाश में न रखकर किसी गम्भीर अम्बरी वर्ण की दृढ़ डाटवाली शीशी में रखना चाहिये । विलेयता - यह १ भाग २1⁄2 भाग पानी में तथा एलकोहल, ईथर और वसा में विलीन हो जाता है। 3. १८०१ प्रभाव - धारक (astringent.) और शोणित-स्थापक (Hemostatic )। मात्रा - 2 से 9 1⁄2 ग्रेन तक । नोट - अहोरात्र में १५ ग्रेन से अधिक कदापि सेवन न करे, अन्यथा उग्र विषाक्रता उपस्थित होने की श्राशंका रहती है । ८०० एसिडम् पाइरोगै कम आक्सिडाइज्ड गुणधम तथा उपयोग इस अम्ल को अधिकतर छाया चित्रों (फोटो ग्राफी) में तथा नाइटेट आफ सिल्वर के साथ मिलाकर केशरञ्जन में प्रयोगित करते हैं । पर कोई कोई डाक्टर विचर्चिका ( Psoriasis. ) आदि रोगों में इसका वाह्य और रक्र-निष्ठीवन (हिमापटिसिस) प्रभृति में आभ्यन्तर प्रयोग भी करते हैं । अस्तु, इसका १० प्रतिशत का घोल बुरुश द्वारा विचर्चिका प्रभृति रोगों में वाह्य रूप से लगाते और रक्त-निष्ठीवन प्रभृति रोगों में इसका श्राभ्यन्तरिक उपयोग करते हैं । इसका १० प्रतिशत का घोल विचर्चिका पर दिन में दो बारबुरुरा से लगाकर उसे रूई से या स्वच्छ वस्त्र - खण्ड से श्राच्छादित करना प्रायः लाभकारी सिद्ध हुआ एक श्रोंस फ्लेक्सिब्ल कलोडियम् में ४० ग्रेन उक्त अम्ल योजित कर भी विचर्चिका पर लगाते हैं । इसका यह प्रलेप भी श्रतीव गुणकारी है— पाइरोगेलिक एसिड ३० प्रन, एक्थियोल ३० ग्रेन, एसिड सैलीसिलिक १५ ग्रेन और साफ्ट पेराफिन १ स पर्यन्त । 1 एसिडम्- पाइरोगैलिकम् - आक्सिडाइज्ड - [oacid um-pyrogallicum-oxidised ] एक प्रकार का कालापन लिए भूरा चूर्ण; जिसे पाइरेलाक्सीन ( Pyralosin ) भी कहते हैं । यह जल में शीघ्र घुल जाता है । यह न तो विषवत् प्रभाव करता है और न इससे त्वचा पर प्रदाह ही उत्पन्न होता है । हाल ही में इसकी कतिपय चर्म रोगों में परीक्षा की गई और इसे लाभदायक पाया गया । विचर्चिका रोग पर इसका यह मलहम वा घोल लगाने से अत्यन्त उपकार होता है मलहम - पाइलाक्सोन ३० ग्रेन, सैलिसिलिक एसिड १० ग्रेन और वैज़ेलीन १ औंस | घोल- १ भाग, पाइरेलाक्सीन को २ भाग बेंज़ोल वा ८ भाग एसीटोल में मिलाकर रोगस्थल पर लगाएँ । नोट- - उम्र व्याधियों में वा जब वह तीव्र गति से फैल रही हो तब इसका व्यवहार न करें । परंतु जब उक्त व्याधि की वृद्धि रुक गई हो और वह घटनेलगीहो उस समय इसके उपयोगसे प्रायः लाभ हुआ करता है। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८०२ एसिडम् पिक्रिकम् एसिडम् मोरं हुईकम् शिशुओं के शिर पर जो दद्र, (रिंगवर्ग) हो | करता है । यह अम्ल पिपीलिकाओं के दंश में पाया जाता है, उसे दूर करने के निमित्त यह मलहम जाता है । उनके काटने पर वेदना इसी अम्ल के प्रायः फलप्रद सिद्ध हुई है-पाइरेलोक्सीन १० कारण होती है । उनके अतिरिक्त यह बिच्छू बूटी प्रेन, प्रेसिपिटटेड सल्फर ३० ग्रेन, एमोनिएटेड (Stinging pettle ) gai falat sigui मर्करी १५ ग्रेन, वैजेलीन १ औंस-इनसे यथा- ' के मूत्र, स्वेदादि में भी पाया जाता है । प्रथम तो विधि मलहम प्रस्तुत कर प्रयोग में लाएँ। यह अम्ल पिपीलिकाओं को ही जल सहित स्रवण नोट-यह बृटिश मेटीरिया मेडिका में नाट करने से प्राप्त करते थे। पर अब इसे संधान-विधि आफिशियल है। (Synthesis) द्वारा प्रयोगशालाओं में भी युगेलोल-( Eugalol ) यह पीताभ प्रस्तुत करने लगे हैं। भूरे रंग का एक शर्बती द्रव है जो पाइरोगैलोल गुण-धर्म तथा प्रयोग से प्रस्तुत होता है । इसे भी सोरायसिस (विच- यह प्रवल मांसपेश्युत्तेजक है । अस्तु, यह शांति चिका) पर लगाते हैं। को दूर करता एवं कार्यक्षमता को विशेषतया बल लेनीगेलोल-( Lenigallol ) यह प्रदान करता है । वल्य गुणों में यह कोला, कोका एक श्वेत वर्ण का चूर्ण है जो “पाइरोगैलोल" से और केफीन के सर्वथा समान होता है । यह मूत्रल बनता है । यह न तो बिषवत् प्रभाव करता है, भी है। किन्तु थियोब्रोमीन से न्यूनतर है। थोड़ी और न इससे त्वचा पर खराश होती है। इसका मात्रा में देने से यह क्षुधा की वृद्धि करता है और ५ या १० प्रतिशत का मलहम सबएक्यूट कृमिनाशक भी है । इसके पीने से विषवत् प्रदाह (नूतन ) या क्रानिक (पुरातन) पामा (एक्जेमा) व वान्ति होकर मृत्यु हो जाती है। पर, जो प्रायः शिशुओं के कानों और मुखमण्डल मात्रा-२ से ५ बूंद तक सोडावाटर प्रभृति आदि पर निकला करती है, लगाने से लाभ | में मिलाकर दें। होता है। ___ नोट-कंप (कोरिया) रोग में भी इससे सैलीगैलोल-( Saligallol) यह भी में लाभ होता है। पाइरोगैलोल और सैलिसिलिक एसिड का एक | एसिडम्-फास्फोरिकम्-[ले० acidum-phosph योग है जिसे चर्म रोग में योजित करते हैं। oricum] एक प्रकार का अम्ल ( Phosphएसिडम्-पिक्रिकम्-[ ले० acidum-picricum] | _oric acid)। वि० दे० "स्फुरकाम्ल"। एक अम्ल जो फीनोल पर घन गंधकाम्ल और एसिडम्-फास्फोरिकम्-कन्सेण्ट्रटम-ले-acidum नत्रिकाम्ल के मिश्रण की क्रिया से प्राप्त होता है। phosphoricum consentratum ] वि० दे० "पिक्रिकाम्ल"। । धन स्फूरकाम्ल । एसिडम्-फार्मिकम्-ले०acidum-formicum] एसिडम्-फास्फोरिकम्-डायल्यूटम् [ ले०acidum फार्मिक एसिड Formic-acid (अं०)। phosphoricum-dilutum ]जलमिश्रित पिपीलिकाम्ल-हिं । हामि जुल फार्मिक-(उ०)। स्फूरकाम्ल । रासायनिक सूत्र एसिडम्-बोरिकम्- ले. acidum boricum ] (H.C02.) - टंकणाम्ल । दे. "सुहागा"। यह एकवर्णहीन पाताशोषक श्रोर उग्र गंधमय एसिडम-बेजोइकम्-ले. acidum-benzoiद्रव है । यह जल और मद्यसार में घुलजाता है तथा cum ] लोबान का सत । लोबानिकाम्ल । दे. कार्बनितों पर डालने से उन्हें विच्छिन्न कर देता है अर्थात् का श्रो २ को निकालता है और पिपीलि- एसिडम्-मोरं हुईकम्- लेacidum-morrhui कित ( Formate) नामक लवण बनाता है। cum ] काडमत्स्ययकृत्तैलाम्ल । दे. "काढ"स्वचापर पड़ने से यह वेदना.दाह और स्फोट उत्पन्न मछली"। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८०३ • एसिड लीव्यूलिनिकम् एसिडम् - लीव्युलिनिकम् -[ ले० acidum levu linicum ] एसिड लोब्युलिनिक । एसिडम्-लैक्टिकम्-[ ले० cum ] दुग्धाम्ल । एसिडम्-लैक्टिकम्-डायल्यूटम् [ ले० acidum lacticum dilutum ] जलमिश्रित दुग्धाम्ल । एसिडम्-लोरीसिकम् - [ ले० acidum-lauricicum ] लोरिसिक एसिड । एसिडम्-सल्फ्युरिकम् - [ ले。acidum-sulphuricum ] गन्धकाम्ल | दे० " गन्धक" । एसिडम्-सल्फ्युरिकम्-एरोमेटिकम्-[ले०acidum sulphuricum aromaticum ] सुरभित गन्धकाम्ल | दे० " गन्धक" । एसिडम्- सल्फ्युरिकम् - डायल्युटम् [ ले०acidum sulphuricum-dilutum ] जलमिति गन्धकाम्ल | दे० "गन्धक" । एसिडम्- सल्फ्युरोसम् - [ ले०acidum-sulphurosum ] एक प्रकार का वर्ण रहित द्रव, जिसमें से गंधक की तीव्र गन्ध श्राती है । यह भी एक प्रकार का गंधकाम्ल है । पर्याο [० - सल्फ्युरस एसिड । गन्धकाम्ल । फिशल (Official.) रासायनिक सूत्र ( H2SO 2) निर्माण-कम-गंधक को खुली हवा या श्रोषजन (Oxygen ) में जलाने या गन्धकाम्लको काष्ठाङ्गार- लकड़ी का कोयला या पारद वा ताम्र के साथ कथित करने से सल्फ्युरस अनुहाइड्राइड के जो वा प्रादुर्भूत होते हैं, उनको जल में जब कर लेते हैं। इसमें पाँच प्रतिशत ( भार में ) सल्फ्युरस न्हाइड्राइड होता है। इसका श्रापेक्षिक भार १०२५ होता है । acidum-lacti मिश्रण वा खोट - सल्फ्युरिक एसिड (गंधकाल) और खनिज पदार्थ । प्रभाव - यह पराश्रयी कीटघ्न (Antiparasitic.), पचननिवारक (Antiseptic ) और दौर्गन्ध्यहर है । मात्रा - 2 से १ फ्लुइडड्राम = ( २० से ४० घन शतांश मीटर ) । एसिडम् सल्फ्युरोसम् सम्मत योग (Official preparations ) सोडियाई सल्फिस ( Sodii sulphis )। दे० "सोडियम् साल्ट्स" । असम्मत योग Not official preparations सोडियाई हाइपो - सल्फिस Sodii Hyposulphis, सोडियम् वियोसल्फेट ( Sodium theosulphate ) - यह स्फटिकीय होता और समानभाग जल में विलीन हो जाता है; किन्तु एलकोहल में विलेय होता है। इसका १० प्रतिशत का सोल्युशन ( घोल ) क़ोश्राज्मा ( व्यङ्ग वाई) और रिंगवर्म ( द ) प्रभृति पर लगाने से उपकार होता है। आध्मान (Flatul ent) में इसको ५ प्रन की मात्रामें भोजन के दो घंटे के उपरांत देने से लाभ होता है। मात्रा -१० से ६० प्रेन =५ से ३० रत्ती तक = ( ६५ से ४ ग्राम ) सल्फ्युरस एसिड के प्रभाव तथा उपयोग ( वाह्य ) सल्फ्युरस एसिड एक प्रबल शोधक - कृमिनाशक और दौर्गन्ध्यहर है । इसलिये प्रायः संक्रामक रोगों मैं गृह को रोग की छूत से स्वच्छ-सुरक्षित रखने के लिए, उसमें गन्धक सुलगाया करते हैं। जिस कमरे में गन्धक सुलगाना हो, उसके सभी दरवाजे और खिड़कियाँ बन्द कर देनी चाहिए। यदि छिद्र आदि हों, तो उनपर काग़ज़ चिपका दें। पुनः गंधक को एक दो गेठियों में सुलगा कर और कमरे के भीतर रखकर, तुरंत बाहर निकल आना चाहिए । नोट - (१) कमरे के भीतर गंधक सुलगा कर उसके कपार्टी को ६ या ७ घण्टे तक बंद रखना चाहिए। और फिर उसके समग्र दरवाजे और खिड़कियाँ खोल देनी चाहिए, जिसमें कमरे में शुद्ध वायु का भलीभाँति आवागमन होने लगे । (२) प्रति सहस्र घन फुट वायु को स्वच्छ एवं कीटशून्य करने के लिए दो पौंड गन्धक जलाना चाहिये । (३) कमरे में गंधक जलाने से पूर्व, उस कमरे के फर्श को पानी से वर कर देना चाहिये, Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एसिडम् साइट्रिकम् १८०४ एसिडम हाइपो क्लोरोसम् जिसमें गन्धक के वाष्प उस पर भली भांति प्रभाव | एसिडम्-सैलिसिलिकम्-[ ले. acidum-sali कर सकें। क्योंकि सूखे फर्श पर उनका पूर्ण प्रभाव _cylicum ] एक प्रकार का अम्ल । दे. "वेत. नहीं होता। साम्ल"। (४) धातु के बरतन श्रादि प्रथम तो कमरे एसिडम्-स्क्लोरोटिकम्-[ ले० acidum-scleसे बाहर निकाल लेने चाहिए, क्योंकि गन्धक के roticum ] एक प्रकार का प्रभावात्मक सार वाप से वे कृष्ण वर्ण के हो जाया करते है और जो अगट से प्राप्त होता है। यदि वहीं रहने देना हो, तो उनपर कोई तेल आदि एसिडम-हाइडियाडिकम्-[ ले acidum hidrioमल देना चाहिए। dicum ] दे॰ “हाइद्रियाडिक एसिड" । (५)रंगीन पर्दे या वस्त्र प्रभृति कमरे से बाहर हर एसिडम्-हाइड्रियाडिकम्-डायलुटम्-[लेvacidumनिकाल लेने चाहिये, क्यों कि गंधक के वाष से _bidriodicum-dilutam ] डाइल्युटेडउनपर धब्बे पड़ जाते हैं। परंतु जो वस्त्र मलिन gigfegifex gfat Diluted hidriodic या कृतदार हों और उन्हें गन्धक वाप द्वारा शुद्ध _acil. (अं०)। वि० दे० “हाइडियाडिक करना हो, तो उन्हें कमरे में किसो रस्सो प्रभृति पर एसिड"। डाल कर फैला देना चाहिये। एसिडम्-हाइड्रोक्लोरिकम्- ले. acidum byदेह को खूब मलकर उपण जल से स्नान करने _drochloricum ] एक प्रकार का अम्ल के उपरांत यदि गंधक की धूनी दी जाय, तो जो साधारण लवण पर गन्धकाम्न की क्रिया से स्केबीज अर्थात् तर खाज बहुत शीघ्र आराम हो प्राप्त होता है। लवणाम्ल । उदहरिकाम्न । जाती है। इस अम्ल को समभाग ग्लोसरीन में नमक का तेज़ाब। Hydrochloric acid मिलाकर या १ आँस पानी में २ डाम तेज़ाब दे. "लवणाम्ल"। मिलाकर इसे रिंगवर्म (दद्र ) फाउल अल्सर | एसिडम-हाइड्रोक्लोरिकम-डायल्युटम्-[ले०१cidum (दुष्ट व्रण) और क्लोाजमा (व्यङ्ग) प्रभृति liydrochloricum-dilutum ] जल पर लगाने से बहुत लाभ होता है। मिश्रित लवणाम्ल । (आभ्यन्तर) एसिडम्-हाइड्रो-फ्लोरिकम्-[ ले० acidum-byगैंग्रीनस स्टोमेटायटिस (मुख पाक ) और dro-floricum ] उदफ्लोरिकाम्ल । दे० डिफ्धेरिटिक :अल्सर्ज़ ( रोहिणीजन्य व्रण ) में इसका दवापाश यन्त्र (Spray) द्वारा विकृत एसिडम्-हाइड्रोनोमिकम्-[ले० acidum-hydro स्थल पर छिड़कने से लाभ होता है। इसका bromicum ] उदबोमिकाम्ल । वि० दे० आमाशय पर भी वैसा ही पचन-निवारक 'ब्रोमीन"। (antiseptic ) प्रभाव होता है जैसा कि एसिडम-हाइड्रोस्यानिकम्-[ ले. acidom-hyत्वचा पर। इसलिये फमैटेटिव डिस्पेसिया (ख़मीर drocyanicuin ] हाइड्रोस्यानिकाम्ल । हाइजनित अजीर्ण) और पाइरोसिस (एक प्रकार डोस्यानिक एसिड। का अजीणं जिससे मुख में पानी भर आता है एसिडम्-हाइड्रोस्यानिकम्-डायल्युटम्-[ ले. aciओर प्रानाशय में शूल हुआ करता है ) में देने dum-hydrocyanicum-dilutum ] से किसी किसी के मत से लाभ होता है। जलमित्रित हाइड्रोस्यानिक एसिड । दे. "हाइड्रोवमन रोकने के लिए इसे पानी में मिलाकर और स्यानिकाम्ल"। शांत्रिक सन्निपातज्वर (टायफाइड) में श्रान्त्र- एसिडम्-हाइपोक्लोरोसम्-[ ले० acidum-hypoशोधक रूप से दिया करते हैं। _chlorosum ] एक डाक्टरी औषध । दे० सिडम्-साइट्रिकम्-[ले. acidum-eitricum] “युसोल Busol" तथा "सोडी क्लोरिनेटी लाइ. निकाम्ल, नीबू का तेज़ाब । दे० "नीबू"। । कर"। . Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एसिडम् हाइपोफास्फोरोसम् १८०५ एसिड सीरुलिक एसिडम्-हाइपोफास्फोरोसम्- ले. acidum. और पोटाशियम् के साथ मिलकर लवण बनाता bypophosphorosum ] एसिड हाइपो- है, जिन्हें सक्सिनित (succinates) कहते फास्फोरस (Acid Hypophosphorus.) हैं। शूल की अनेक दशाओं में जैसे गर्भाशएसिड-युफॉबिक-[अं० acid-suphorbic ] यिक, वृतीय और याकृदीय वेदनाओं में एवं सत फायू'न । युफार्षिकाम्ल । स्नुह्यम्ल । दे० | गौण रकस्थापक रूप से भी ५ ग्रेन की मात्रा में "फळयून"।. इसका प्रयोग किया गया है। एसिड-यूरिक-[अं॰ acid uric ] यूरिकाम्ल । का एसिड-सल्फ-आलीनिक- अं. acid-sulph. ___ olenic] पालीनिक एसिड सल्फ । एसिड-रहीयोटैनिक-[अं० acid-rheotanic] . एसिड-सल्फो-कार्बोलिक-[अं॰ acid-sulpho. एक प्रकार का कषायाम्लीय सत जो रेवन्दचीनी | ___carbolic] एक अम्ल । से प्राप्त होता है। दे. "रेवन्दचीनो'। एसिड-रिसिन-ॉलीइक-[ अं० acid-ricin एसिड-सल्फो-थाइमोलिक-[अं॰ acid-sulpho ____thymolic] एक अम्ल विशेष । _oleic] एरण्ड तैलाम्ल | दे० "रेंड" । एसिडसल्फ्यु रस-[अं॰ acid-sulphurous ] एसिड-रिसिन-एलैडिक-[अं० acid-ricin-elai दे० "एसिडम् सल्फ्यु रोसम्"। dic) एक अम्लीय सार। एसिड-सल्फ्युरिक-[ अं० acid-sulphuric ] एसिड-लॉरिक-[ अं० acid-aurie ] लारिक ____गंधकाम्ल । एसिड। | एसिड-सल्फ्युरिक-एरोमेटिक-[० acid-sulph एसिड लन-पालीइक-[अं॰ acid-lin-oleic ] '' uric-aromatic ] सुरभित गंधकाम्ल । । अतसो-तैलाम्ल । दे. "प्रतसो"। एसिड-सल्फ्युरिक-डायल्यूट-[अं॰ acid-sulph एसिड-लिग्नोसेरिनिक-[अंoncid-lignoceri- | ____uric-dilute ] जलमिलित गंधकाम्ल । . nic] सत मूगफलो । दे० "मूंगफली'। एसिड-साइट्रिक-[अं॰ acid-citric] निम्बुकाम्ला । एसिड-लैक्टिक-[अंo acid-lactic ] दुग्धाम्ल । नीबू का सत । दे० "नीबू" । एसिड-लैक्टिक-डिल-अं. acid-'actic-dil ] एसिड-साइट्रोसैलिक-[अं॰ acid-citrosalic] . जलमिति दुग्धाम्ल । ___एक अम्ल जिसका ब्यापारिक नाम-नोवा ऐस्पिएसिड-लैक्टयुकिक-[ अं. acid-lactucic ] रीन है। _____ सतकाहू । दे. "काहू"। | एसिड-सिकोटैनिक-[ अं० acid-cincho-taएसिड-वाइबानक-[अं॰ acid-viburnic ] नर- nic ] सिंकोने का कषायांरा । यह जल तथा बेलाम्ल । दे० 'नरबेल'। मयसार में घुल जाता है। एसिड-वायोलीनिक-[ अं० acid-violenic ] एसिड-सिंकोना-अं० acid-cinchona]सिंकोसत-बनफ्शा । दे. "बनफ्शा"। नाम्ल । दे. "सिंकोना" । एसिड-विरिडिनिक-[ अं. acid-virndinic ) एसिड-सिन्नेमाइलिक-[अं॰acid-cinnamylic] कहवे का एक सत । दे० "कहवा" । दे० "एसिड सिनेमिक"। एसिड-वैलेरिएनिक-[अं॰ acid-valerianic] एसिड-सिन्नेमिक-[ अं. acid-cinnamic ] जटामांस्यम्ल । दे. “जटामांसो" । वल्कलाम्ल । त्वगम्ल । एसिड-शकिमिनक-[अंक acid shikiminic] एसिड-सिल्ला- अं० acid-scilla ] विलायती जौहर अनासफल । ____ वनपलांड का तेज़ाब । दे० "बनपलांड"। एसिड-सक्किनिक-[अं० acid-succinic ] एक | एसिड-सीलिक-[अं॰ acid-caerulie.] एक अम्लसार, जो अम्बर से घातक स्त्रवण-विधि द्वारा | | प्रकार का अम्लसार जो कहवे से प्राप्त होता है। प्राप्त होता है। यह लोह, सोडियम, अमोनियम् दे० "कहवा" । .......... Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एसिड सैलिसिलिक १८०६ एसीट एनीलाइडम् एसिड-सैलिसिलिक-[ अंo acid-salicylic ] | एसिड-हाइपोक्लोरस-[अं॰ acid hypochlo_.. वेतसाम्ल । यह ज्वरघ्न है। rous ] दे॰ “एसिडम्-हाइपोक्रोरोसम्"। एसिड-सोजालिक-[अं॰acid-sozolic ] सल्फो- एसिड-हाइपोजीइक-[अं0 ncid hypageic ] काबोलिक एसिड का एक नाम । । भूचणकाम्ल । जौहर मूंगफली । दे० "मूंगएसिड-सोल्युशन आफ मक्युरिक नाइट ट-[ अं० फली' । acid-solution of mercuric nitr-| एसिड-हाइपोफास्फोरस-[अं॰ acid-hypopho ate ] पारद नत्रित अम्लद्रव । दे० "पारा"। pborous ] दे॰ “एसिडम् हाइपोफास्फोरोएसिड-स्क्लोरोटिक-[अं0 acid-sclerotic] । सम्"। एसिड-रक्लोरोटिनिक-अंoacid sclerotinic एसिड-हिप्प्युरिक-[ अं० acid-hippuric ] दे० "अगोंटा"। बेनाइल-ग्लाइकोकाल | इसके प्रविलेय स्फटिकवत् एसिड-टियरिक-[अं॰ acid-stearic ] स्टिरिक कण होते हैं। एसिड । इससे क्रीम प्रस्तुत किया जाता है । यह एसिड-हेन्नोटैनिक-[अं० acid-hennotannic] नारिकेल द्वारा प्राप्त होता है। हिना का रंजक पदार्थ । रञ्जनी-कषाय अम्ल । एसिड-फेसालिनिक-[अंo acid-sphacelinic] | एसिड-हेस्पेरीटिक-[अं. acid-hesperetic] दे. "अगाटा"। एक प्रकार का अम्ल । एसिड-हर्मिनिक-[ अं० acid-herminic ] एसिडा-ले. acid: ] [ ए. व. एसिडम् ] दे० ___ जौहर-हरमल । दे. "हरमल"। "एसिडम्" । एसिड-हाइडिआडिक-[अं॰ acid.hydriodic] सिडा-डायल्यूटा-[ले. acida-diluta] जलहाइडिझाडिक एसिड । मिति अम्ल । डायल्यूट एसिड। मृदु अम्ल । एसिड हाइडिआडिक-डायल्यूटम्-[ अं० acid- एसिडिक-आक्साइड-[ अं. acidic-oxide] hydriodic dilutum ] जलमिश्रित अाधुनिक रसायन-शास्त्र के अनुसार अम्लजिद ४ हाइडिझाडिक एसिड। (Oxide) का एक भेद । अम्लीय अम्लएसिड-हाइड्रोक्लोरिक-[ अंo acid-hydroch- जिद । अम्लोषिद् । . - loric , लवणाम्ल । एसिडिटी-[अं॰ acidity] (1) अम्लता । एसिड-हाइड्रो-फ्लोरिक-[ अं० acid-hydro. ___ अम्लरव । (२) अम्ल पित्त । _fluoric] दे० "एसिडम् हाइड्रोफ्लोरिकम्" । | एसिडोल-[अं॰ acidol ] बीटेन का एक हाहडोएसिड-हाइड्रोनोमिक-[अं० acid-hydrobro- नोराइड। __mic ] दे० “एसिडम्-हाइड्रोनोमिकम्"। एसिड्स-[अंc acids][अं० एसिड का बहु.] एसिड-हाइड्रोब्रोमिक-डायल्यूट-[अं० acid hy- तेज़ाब । अम्ल । दे० “एसिड" । drobromicdilute ] जल मिश्रित-उदव्र- ए. सी. ई० मिक्सचर- अं० A. C. E. mix. मणिकाम्ल । दे० "एसिडम् हाइड्रोप्रोमिकम्" । ____ture ] एलकोहल, क्रोरोफार्म और ईथर का एक एसिड-हाइड्रोम्यानिक-[ अं० acid-hydrocy- योग विशेष । दे. "कोरोफार्मम्"। anic ] दे० "हाइड्रोस्यानिक अम्ल"। एसीट(ऐसे-)-[अंo acet] सिरका (Vinegar)। एसिड-हाइड्रोस्यानिक-डायल्यूट-[अंo acid hy. शुक्र । drocyanic dilute ] जलमिति हाइ- एसीट-एनीलाइ2-[ अं. acet-anilide ] दे. ड्रोस्यानिक अम्ल । दे० 'हाइड्रोस्यानिक अम्ल" । ___"एसीट-एनीलाइडम्"। एसिड-हाइडोम्यानिक-शील-[अं॰ acid-hydro- एसीट-एनीलाइडम्-[ले. acet-anililum ] cyar ic, Scheel.] शील का हाइड्रोस्यानिक एक डाक्टरी औषध, जो शुद्ध शुक्राम्ल और एनीएसिड। यह जल मिभित हाइड्रोस्यानिक अम्ल ____ लीन ( Aniline ) को परस्पर मिलाकर उत्ताप से २१ गुना तीव्रतर होता है। ... पहुँचाने और परित्नावित करने से प्राप्त होता है । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एसीट एनीलाइडम इसके वर्णरहित, निर्गन्ध चमकदार और पर्तदार कण होते हैं, जिनका स्वाद किसी प्रकार तीव्र होता है । यह २३६.५ अंश फारनहाइट के ताप पर द्रवीभूत हो जाता है । पर्याय-ज्वर हरी, ज्वरारि, ज्वरघ्नी - (सं०, हिं० ) । ऐस्टिफेत्रीन Antifebrin, फेनिल एसीट एमाइड Phenylacetamide, एसीटअनीलाइड Acetanilide - ( श्रं० ) । नोट - ऐण्टिफेब्रिन संज्ञा दो शब्दों ऐरिट = विरोधी + फेब्रीन का जो यूनानी शब्द फेब्रिस अर्थात् ज्वर से 'व्युत्पन्न है, यौगिक । अस्तु, ऐरिटीन का श्रर्थ ज्वरघ्नी हुश्रा । ऑफिशल (Official) अर्थात् सम्मत रासायनिक सूत्र (Cg Hg NO.) इतिहास — जर्मन देश निवासी डाक्टर चरहर्ड महाशय ने सन् १८५३ ई० में रासायनिक विधि से उन श्रौषध को प्रस्तुत किया और इसका नाम एसीट- श्रनीलाइड रखा । पर इसके उपरांत डाक्टर काहन प्रभृति ने इसके विशद गुण-धर्म का अन्वेपण कर इसका नाम एरिट-फेजीन रख दिया और तब से यह इसी नाम से सुप्रसिद्ध हो गया । सन् १८६० ई० में इसे ब्रिटिश फार्माकोपिया में सम्मि लित कर लिया गया । १८०७ विलेयता - एक भाग ऐस्टिफेत्रीन ११० भाग शीतल जल में, एक भाग १६ भाग खौलते हुये पानी में, एक भाग ४ भाग रेक्टीफाइड स्पिरिट (मद्यसार ) में तथा ईथर, बेंज़ोल और क्रोरोफार्म में सुगमतापूर्वक घुल जाता है । मिश्रण वा खोट - एसीटोन, फेनाजून और एनीलीन के लवण इत्यादि । प्रभाव — ज्वरधन और वेदनास्थापक । मात्रा-२ से १ ग्रेन (१२ से ३० सेण्टिग्राम) नोट - इसे चार-चार घंटे के उपरान्त उस समय तक दे सकते हैं, जब तक कि इसके प्रभाव प्रगट न हों । किन्तु इसे ५ ग्रेन से अधिक मात्रा और दिन रात में २० ग्रेन से अधिक कदापि न दें। एसीट एनीला इडम् प्रयोग विधि—इसको कीचट्स में डालकर या किंचिद् ब्राण्डी या शराब में विलीन कर और उसमें थोड़ा जल मिश्रित कर व्यवहार में लाएँ । अथवा थोड़ा सा कतीरे का चूर्ण पानी में डाल कर और उसमें इसको मिलाकर दें । प्रभाव तथा उपयोग — गुणधर्म तथा प्रभाव ऐटीन फेनानम् (['henazonum) और फेनेसेटीनम् (Phenacetinum ) के समान है। इसलिये उक्त औषधश्रय के प्रभाव दि का एक ही जगह "फ्रेनाजुनम्" के अन्तर्गत विशद उल्लेख किया गया है । अस्तु, वहाँ ही देखें | इसके उपयोग से श्रद्धविभेदक नामक शिरःशूल दूर होता है । 1 नोट- श्राजकल ज्वर उतारने में इसका व्यवहार नहीं होता | क्योंकि इसके उपयोग से परिणाम भयंकर होकर मृत्यु हो जाती है। नॉट ऑफिशल प्रिपेयरेशञ्ज तथा पेटेन्ट औषधें (Not Official Preparations) (१) एमोनोल Ammonol - एमोनिएटेड फेनिल एसीट एमाइड AmmoniatedPhenyl-acetamide - (श्रं०)। एक श्वेत वर्ण का चूर्ण जो जल में अल्प विलेय होता है । इसमें एण्टिफेत्रीन, सोडियम कार्बोनेट और श्रमो - नियम कार्बोनेट तीनों समभाग होते हैं । मात्रा - ५ से २० ग्रेन = २ ॥ से १० रत्ती= ( ३२ से १·३० ग्राम ) उपयोग - इसे कष्टार्त्तव ( Dysmenorrhoea) रोग में देते हैं । (२) पल्विस एसीट - एनीला इडाई कम्पोज़िटस Pulvis Acet-anil id Compo situs -— यह ऐस्टिफेझीन का एक यौगिक चूर्ण है, जो कि ब्रिटिश फार्माकोपिया के परिशिष्ट में भी समाविष्ट है। नोट - ऐरिटकामनिया Antikamnia जो अमेरिका की एक प्रसिद्ध औषध है, कहते हैं कि वह वस्तुतः ऐस्टिबीन का उपर्युक्त यौगिक चूर्ण ही है, जिसमें ७ भाग ऐस्टिफेबीन, एक भाग फीन और २ भाग बाईकार्बोनेट श्राफ सोडियम् होता है। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीट एलाइड १८०८ उपयोग - ऐण्टिकामनिया को ज्वरहर (Antipyretic), स्पर्शाज्ञताजनक (Anodyne ) ओर वेदनास्थापक ( analges.c) रूप से ज्वर, वातज वेदना, शिरःशूल, श्रमवात प्रभृति व्याधियों में देते हैं । ( ३ ) ऐण्टिनर्वोन Antinervin— सैोमैलिड Saloromalid इसमें सैलीसिलिक एसिड, ऐस्टिफेत्रीन और पोटाशिम् श्रीमाइड मिली हुई होती है । 14 योग - वातवेदना ( Neuralgia ) मृतिप में गुणकारी है। प्रभृ ( ४ ) ऐण्टिसेप्सीन Antisepsin या मोनोब्रोम एसीट श्रनीलाइड MouobromAcet-anilide — इसके सफेद नुकीले स्वाद रहित बारीक-बारीक रवे होते हैं। इसमें भी ऐरिटफेत्रीन मिलो हुई होती है । उपयोग - यह दवा मुख मंडलगत वातवेदना (Facl neuralgia ), नाडी- प्रदाह( Neuritis ) र श्रमवात ( Rheum atism ) में गुणकारी है । मात्रा -१ से ८ प्रन= 1⁄2 से ४ रत्ती तक | नोट – इस औषध को भी ऐस्टिफेब्रीन की तरह अधिक मात्रा में देने से शरीर नीला पड़ जाता है, इत्यादि । (दे० फेनाजूनम् के अंतर्गत ऐण्टिफेत्रीन जन्य विषाक्रता श्रादि ) (५) हिनोन Hypnone —यह एक बेरंग तरल श्रोषध है, जो १॥ से ५ बूंद तक की मात्रा में गोंद के लुनाब या शर्बत प्रभृति में मिलाकर निद्राजनन प्रभाव के लिए व्यवहार में श्राती है । परन्तु इसका उक्त प्रभाव विश्वसनीय नहीं तथा इसके उपयोग में सावधानी नितांत पेक्षित होती है । (६) मेरेटीन Maretin — यह भी एक सफ़ ेद स्फटिकीय चूर्ण है, जिसमें ऐण्टिफेत्रीन होती है । यह पानी में अत्यल्प विलीन होता है। वातज शिरःशूल ( Neuralgic headache ) में यह एक गुणकारी औषध है। इसके उपयोग से शिरोशूल तत्काल निवृत्त होता है । ज्वरघ्न रूप से उरः ततजन्य तीव्र ज्वर में भी इसका उपयोग करते हैं । एसटीड मात्रा - ३ से १० प्रन=१ ॥ से ५ रत्ती तक । (७) न्युरोनल Neuronal — इसमें ४१ प्रतिशत ब्रोमीन होती है । मात्रा - १० से २० प्रोन = ५ से १० रत्ती तक | उपयोग - यह श्रोषध निद्राजनक ( Hypnotic) और श्रवसादक ( Sedative ) गुण के लिये बहुप्रयुक्त होती है । नोट- मृगी में यह श्रौषध विशेष उपकारी प्रमाणित हुई है । इसमें अधिक परिमाण में ब्रोमीन होने के कारण यह वात- सूत्रों के क्षोभ निवारण करने में उत्तम सिद्ध होती है । इससे नींद और शांति (तसकीन ) दोनों ही गुण भली-भाँति प्राप्त होते 1 ब्रिटिश मेडिकल जर्नल के सन् १९७५ ई० के चुने हुये लेखों में यह उल्लेख है कि एक पागलखाने में ४० उन्माद रोगियों पर निद्राजनन एवं श्रवसादन गुण के लिये इस श्रौषध का उपयोग किया गया, ( श्रद्ध' ग्रेन की मात्रा से उक्त श्रौषध का प्रयोग प्रारम्भ किया गया। पर जब रोग का वेग होता तो इसकी मात्रा ३ प्रोन तक कर दी जाती । तथापि श्रहर्निशि में ६ प्रेन से अधिक एक रोगी को नहीं दी गई । ) फलतः अन्य निद्राजनक श्रौषधों की अपेक्षा इसे आशुप्रभावकारी पाया गया । लंडन का लैंसेट नामक प्रसिद्ध पत्र भी इसका प्रशंसक है। उसके अनुसार श्रनिद्रा (Irso mnia) और कम तीव्र उन्माद ( Subacute mania) में यह एक प्रत्युपयोगी श्रौषध है । इसको कई दिन तक निरंतर देते रहने से इसका कोई हानिकर प्रभाव प्रकट नहीं होता । जब इसे परित्याग कर दिया जाता है तो अन्य निद्राजनक औषधों के विरुद्ध, इसे त्याग देने से रोगी को किसी प्रकार का कष्ट अनुभव नहीं होता। क्योंकि वह इसका अभ्यासी नहीं होजाता । (८) फेनलजीन Phenalgin—यह भी ऐस्टिफेबीन और श्रमोनिया प्रभृति का एक सफ़ ेद रंग का चूर्ण होता है, जो जल में विलेय Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एसीट एल्डीहाइड एसीटोटार्टेट आफ एल्युमिनियम् होता है । इसको वेदनास्थापक (Analgesic), | एसीटिक-ईथर-[ अं० acetic-ars ther ] ज्वरघ्न (Antipyretic) और निद्राकारक | शुक्र थर । (Hypnotic) प्रभावों के लिये ज्वर, एसीटिक-एसिड-[अं॰ acetic-acid ] शुक्लाम्ल । अनिद्रा और वातज वेदनाओं आदि में बर्तते हैं। दे० "एसिडम् एसीटिकम्"। मात्रा-५ से २० ग्रेन=२॥ से १० रत्ती। एसीटिक-एसिड-ग्लेशियल-[ acetic-acid-gla(६) सैलफेब्रीन Salefebrin जिसे cial ] शुद्ध शुक्काम्ल । दे. “एसिडम् एसीटिसैलीसिल एनीलाइड Salicylanilide भी कम्"। कहते हैं । यह एक सफ़ेद रंगका चूर्ण है,जो जल में एसीटिल-एटॉक्सिल-[अं॰ acetil-atoxyl ] अविलेय होता है। यह सैलीसिलिक एसिड की अार्स एसीटोन । आर्सामीन । सोमीन । तरह प्रभाव करता है । यह उग्र आमवात (Ac एसीटिल-फेनिल-हाइड्राजीन-[अं॰ acetyl-phute rheumatism) और अविभेदक | enyl-hydrazin ] एक ज्वररोधक औषध, (Migraine) में लाभकारी है। जिसे हाइएसीटीन भी कहते हैं । पाइरोडीन । मात्रा-५ ग्रेन-२॥ रत्ती। मात्रा-३ ग्रेन (१॥ रत्ती)। एसीट-एल्डीहाइड-[ अं० acet-aldehyde] एसी टेल-सैलिसिलिक एसिड-[अं॰ acetyl-sa. एक द्रव जो ईथिल मद्यसार से प्राप्त होता है। ___licylic acid ] दे॰ “ऐस्पिरीन" । शुकाल्डिहाइड। । एसीटिल-सैलोल-[अं० acetyl-salol ] वेसिएसीटम्- ले० acetam ] [ बहु० एसीटा] | एसाटा पाइरीन । दे० "सालएसीटोल" । सिरका । शुक् । एसीटम्-अर्जीनिई- ले० acetum-urgineae] | , एसीटीन-[अं० acetin ] काडलिवर श्रॉइल का बनपलाण्डु-शुक्क । जंगली काँदे का सिरका। .. एक क्रियात्मक सार। एसीटम्-इपीकेकाइनी-[ ले. acetum-ipeca- | एसीटीलीन-[अं॰ acetylin] एक विवर्ण, दुगंधि एवं ज्वलनशील गैस । खटिक कार्बिद(calcium _cuanae ] इपीकेक्काइने का सिर्का । एसीटम्-कैन्थेरीडिज ले० acetum-cantha- | _carbide) पर शनैः शनैः पानी पड़ने से इस गैस की उत्पत्ति होती है। rides ] केन्धेरीडोज़ का सिकळ । दे० 'कैन्थे एसीटेट-[अं॰ acetate ] घन शुक्राम्ल के योग से बने हुए लवण, जैसे, सोडियम् शुक्रित (sodiएसीटम्-माइलेब्रिडिस- ले० acetum-myla um acetate ) श्रादि । शुक्रित । bridis ] स्निग्धमाक्षीय शुक्ल । तेलनीमक्खी का सिरका। एसीटेट-आफ-कॉपर-[अं॰acetate of coppएसीटम्-युजि ोल-[ले. acetum-euginol] er ] ताम्रशुक्रित । जंगार। एक प्रकार का सच जो लौंग के तेल से प्राप्त ए मीटेद-आफ-पोटाशियम्- अं० acetate of होता है। ___potassium ] पांशु शुक्रित । एसीटम्-सिल्ली-ले० actum-scilla] विलायती | एसीटैनीलाइड-[ अं० acetanilide ] दे. वनपलाण्डु शुक्र । विदेशीय वनपलाण्डु का | ___"एसीटएनीलाइड"। सिरका। | एसीटोजाल-[अं॰ acetosal ] "ऐस्पिरीन" । एसीटम्-हाइग्रोफिली- ले. acetum-hygro- एसीटोजून-[अं० acetozone ] एक कीटन philae] कोकिलाक्षशुक्र । तालमखाने का मिश्रण । दे० "बेञ्जाइल एसीटिल पर आक्साइड"। सिरका। एसीटोटार्ट ट आफ एल्युमिनियम्- अं० acetoएसीटा-[ ले० aceta एपीटम् का बहु.] शुक्न । tartrate of aluminium] एक डाक्टरी सिरका । दे. "सिरका"। औषध । फा. रिस"। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एसीटोन १८१० যাদ্ধ। एसीटोन-[अंo aceton ] अलकतरेका एक संयो- एसेंशिया-एनीसाई- ले० essentia-anisi ] जक द्रव्य। (Essence of Anise) अनीसून सार । एसीटोपाइरीन-[अं॰ acetopyrin ] एक श्वेत एसेंशिया-कैम्फोरी-[ले. essentia camph स्फटिकीय चूर्ण, जो फीनेजून और एसोटिक एसिड orae ] कपूरसार । कपूरार्क । (शुक्राम्ल) के योग से प्रस्तुत होता है। दे० । एसेंस-संज्ञा पुं॰ [अं॰ essence ](9) रासा"फेनेज़न"। यनिक प्रक्रिया द्वारा खींचा हुआ पुष्पों की सुगंधि का सार । पुष्प-सार । अतर । (२) वनस्पति श्रादि । एसीटोफेनून-अं० acetophenone ] यह एक का खींचा हुआ सार । अर्क । अरक । (३)सुगंधि । वर्णरहित द्रव है । दे. "फेनेज़न" । एसेंस आफ एनिस-[अं0 essence of anise] ए. सी० मिक्सचर-[अं० A. C. mixture ] अर्क अनीसून । अनीसून सार । एलकोहल और क्लोरोफार्म का एक योग । दे० | एसेंस-आफ केम्फर-[अं॰ essence of cam"कोरोफार्मम्"। ___ phor ] कर्पूरार्क । अर्क कपूर । एसलीस-य०1 एक वनस्पति, जिसकी पत्ती कुलूमस एसोपगोल-गु०] ईसबगोल । की तरह होती है और उन पर बहुत से रोंगटे एस्करोटिक्स-[अं॰escharotics]दे० "कॉष्ठिक” । होते हैं। इसकी पत्तियाँ जड़ के आस-पास से एस्केलीन-[अं० escalin ] दे॰ 'इस्क्युलस-हिप्पो फूटती हैं। इसका तना चौकोर खुरदरा एवं मीठा कैप्टेनम्"। होता है। फल मटर के दाने के बराबर होता है। एस्कोल्टज़िया-कैलिफोर्निका-[ ले० escholtg. प्रत्येक फली में दो दाने होते हैं । इसकी जड़ बहु- ia-californica ] एक पौधा विशेष । शाखी होती है । शाखाएँ लम्बी और मोटी होती एस्क्युलेण्ट-ओक्रो-[अं. esculent okro] हैं जो सुखकर कड़ी और काले रंगकी हो जाती हैं। भिण्डी । रामतुरई। गुण-इसकी जड़की शाखाओं को क्वथित कर एस्क्युलेण्टल-फाकुर्छाई-[ले. बकुची । सोमराजी । पीने से मुंह की राह रकपात होना बंद हो जाता | एस्पीन्हो-डू-लेड्रा-[पुर्त०a spinho-do-ladra] है। सीने और कंठ की खुश्की एवं पार्श्वशूल और लिमड़ी। काँच । दहन-(मरा०)। काकटोहुली गृध्रसी को लाभ पहुंचता है। इसको पीसकर (मल.)। शहद के योग से अवलेह प्रस्तुत किया जाता है, | ऍड़ी-संज्ञा स्त्री० [सं० एरण्ड] एक प्रकार का रेशम जिसमें उपरोक गुण पाया जाता है । (ख० अ०) का कीड़ा जो अंडी के पत्ते खाता है। यह पूर्वी एसेश-[ बम्ब० ] कुदुर। लोबान । बंगाल तथा अासाम के जिलों में होता है। एसेंशल-आइल आफ कैम्फर-[अं॰ essential नवम्बर, फरवरी और मईके महीने में रेशम बनानेoil of camphor ] कपूर का उड़नशील वाले कीड़ों का रेशम उत्तम समझा जाता है। तैल । मूगा से अंडी का रेशम कुछ घटकर होता है । एसेंशल-आइल्ज़-[अं० essential oils ] सुगं- (२) इस कीड़े का रेशम । अंडी । मूंगा । (३) धित तैल । उड़नशील तैल । पाणी । पैर का उभड़ा हुश्रा पिछला हिस्सा । (ऐ) ऐ-संस्कृत वर्णमाला का बारहवाँ और हिन्दी वा देव- ऐकशफ-संज्ञा पुं॰ [सं० क्री० ] (१) नागरी वर्णमाला का नवाँ स्वरवर्ण । इसका . गदही । (२) गदही का घी। गईभी घृत । उच्चारण-स्थान कंठ और तालु है। सु। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐकाहि + वि० [सं० त्रि० ] एक खुरवाले पशु संबंधी । एक खुरवाले पशु का | १८११ ऐकाहिक - वि० [सं० त्रि० ] ( १ ) एक दिन में होने वाला । ( २ ) एक दिन छोड़कर होने वाला । वह जो एक दिन बीच में नागा देकर हो । एक बीच में छोड़कर दूसरा । अंतरा । संज्ञा पुं० [सं०] ऐकाहिक ज्वर । तरा ज्वर । ऐकाहिक ज्वर - संज्ञा पु ं० [सं० पु० | वह ज्वर जो एक दिन नागा देकर श्राता है। अंतरा ज्वर । ऐक्टिन डैनी डाइको-टोमा -[ ले० _actinodaphne-dichotoma ] मयूरशिखा । मोर पंखी । दे० "मोरशिखा” । ऐक्टिनोडेफनी- हूकेराई - [ले० actinodaphne• hookeri, Meison.] पिस ( बम्ब० ब० ) ऐक्टिनोप्टेरिस डाइकोटामा - [ ले० actinopteris-dichotoma ] मोरशिखा । मयूरक | मोरपंखी | ऐक्ट-सीमोजी-रैडिक्स - लेoactaer-racemosae radix ] सीमीसीफ्युगा की जड़ । ऐक्टीया ऐक्युमिनेटा - [ ले• actæa-acuminata) पौधा विशेष | ऐक्टीया - रै सीमोसा - [ ले ० mosa ] दे० "सीमीसीफ्युगा " । actæa-race ऐ +टीयास्पिकेटा - [ ले० actaea-spicata ] पौधा विशेष । ऐक्टोल [ श्रंo actol ] एक प्रकार का सफेद रंग का चूर्ण, जिसकी सूचिकाकार बारीक कलमें होती हैं । वि० दे० "चाँदी" । ऐक्नीसिलस -[ श्रं० acne-bacillus ] यौवन पड़ा की । मुँहासे के रोगाणु । ऐङ्ग ुलर लीह्वड फिजिक नट जो उत्पन्न होने के उपरांत पिट्युट्री नामक ग्रंथि के खरड के अधिक कार्य करने से होता है । लक्षण - इस रोग में हाथ-पैर नीचे का जबड़ा और चेहरे की हड्डियाँ बड़ी होजाती हैं; पुरुषों में नपुसकता होती है और जियों के रजोदर्शन नहीं होता; मूत्र में द्राक्षौज ( ग्लुकोसाइड) आने लगती है और शरीर दुबला होता जाता है। (इ० ऐक्नी - बैसिलस वैक्सीन -[श्रं० acne-bacillus - vaccine ] मु ंहासे का टीका । दे० | “मुँहासा” । ऐक्रीफ्लेविन - [ श्रं० acriflavine ] Trypa - flavine ] दे० " पिक्स कार्बोनिस प्रिपेरेटा" । ऐकोनीकिया -लारी फालिया - [ ले० acronychia श० र० । ऐरिक - [ श्रं० agaric ] दे० "श्रगारिक” । ऐवी - [ ० agave] दे० "अगेवि" । ऐग्मेल - [ ० xgm3l] मेक्सिकन श्रोवी ( mexi can-agve or magney ) का सांद्रीकृत स्वरस, जिसे चिरकारी ब्राइट नामक व्याधि में 1⁄2ों की मात्रा में प्रयोगित करते हैं । मेक्सिको में इसका निषुत स्वरस ( Fermentedsap ) मद्य विशेष ( Beer ) की प्रतिनिधि स्वरूप स्वच्छन्दतया व्यवहार में आता है । ऐग्यु - [ श्रं० ague ] दे० "मैलेरिया” । - मिक्सचर - [oague-mixture ] मैलेरिया में प्रयुक इस नाम का एक डाक्टरी योग जो यह है-कीनीनी सल्फ ५ ग्रेन, हाइड्रोक्लोरिक एसिड २० बू ंद, फेरीसल्फ १ ग्र ेन, मैगसल्फ १ ड्राम और परिस्त्रत जल श्रावश्यकतानुसार। प्रथम कोनीनी सल्फ और एसिड को द्रवीभूत कर पुनः फेरीसल्फ मिलाएँ । यह एक मात्रा औषध है । इसे मलेरिया ज्वर के प्रारम्भ में देने से ज्वर श्रानो रुक ऐग्युरन - [ श्रंo agurin ] एक प्रकार का श्वेताभ स्फटिक जो जल में अत्यन्त विलेय होता है । इसे सोडियो-सोडिक ऐसीटेट (sodio-sodic-acetate ) भी कहते हैं । दे० थियोप्रोमीन" । ऐङ्गाल-काश-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] कार्बन द्वयोषित् ( Carbondioxide. ) । ऐन द-संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] इङ्ग ुदीफल | हिंगोट का फल | गोंदनी का फल । श्रम० । भैष० । संज्ञा पु ं० [सं० पु ं०] इङ्ग ुदी वृक्ष | हिंगोट वृक्ष । laurifolia, Blume. ] अर्केद (सिं० ) । ऐको मिली - [ श्रंo acromegly ] एक रोग | ऐङ्ग लर-लीहड- फिजिक-नट - [ श्रं०. angular Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐच्छिक १८१२ leaved-physic-nut ] कानन एरंड । जंगली रेंड । बनभेरण्ड - ( बं० ) । ऐच्छिक - वि० [सं० त्रि० ] जो अपनी-अपनी इच्छा या पसंद पर निर्भर हो । जो अपनी इच्छानुसार हो या हो सके । इच्छाधीन । वैकल्पिक | Voluntary. मुहर्दिक-बिल्इादः - श्र० । जैसेऐच्छिक गति; ऐच्छिक -मांस | ऐच्छिक कला - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] इच्छाधीन कला । ऐच्छिक-गति–संज्ञा स्त्री० [सं० ] शरीर की वह गति, जो हमारी इच्छानुसार होती है और हो सकती है । जैसे, चलना, फिरना, बोलना, हाथ उठाना, भोजन चबाना । इच्छाधीन-गति । ऐच्छिक मांस-पेशी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक प्रकार का मांस तंतु, जो कंकाल से लगा हुआ और पेशियों में विभक्त होता है । इच्छाधीन मांस । (Voluntary-muscle.) I ऐज़ा अजा - [ यू०] एक वृक्ष जो ऊन की तरह होता है । कोई-कोई कहते हैं, कि इसकी डालियों पर ऊन की तरह एक चीज़ होती है। किसी-किसी ..के मत से यह एक उद्भिज है, जिसकी पत्तियाँ " श्रास" की पत्तियों की तरह जड़ और पत्तों में से अंगूर की बेल की तरह एक लंबे डोरे की तरह श्राकर्षणी निकलती है, जो श्रास-पास के वृक्षों पर चिमट जाती हैं । इन तंतुओं की छोरों पर फूल लगते हैं। इसके चर्वण से जिह्वा पर अत्यन्त खिंचावट प्रतीत होती है । टिप्पणी - गीलानी के अनुसार यह शब्द फ़ारसी के सदृश है । होती हैं । इसकी गुण-धर्म, प्रयोग — इसके नौ माशे चूर्ण खाने से रक्तपात रुक जाता है और अतीसार की शांति होती है । यह श्रांत्रत में उपयोगी है। इसके प्रयोग से श्रार्त्तव स्त्राव और गर्भाशयिक परिस्राव रुक जाता है । यही गुणइसके हरे एवं शुष्क पत्तों के प्रलेप से भी होता 1 है। जड़ में संग्राहक शक्ति विशेष है । यह समस्त अंगों से रक्रक्षरण होने को भी रोकता है । ( ख० श्र०)। ऐजाडिरेक्टा - इंडिका- [ ले० ऐञ्जलिका ऐजे कोल - [ श्रं० a jecol ] एक प्रकार का तैलीय द्रव, जिसे वेदना दूर करने के लिये व्यथा-स्थान पर लगाते हैं । दे० "चाएकोल" । ऐज्मा - [ श्रं० asthma ] श्वासरोग । दमा । बुहर । ऐज्मा पाउडर - [ azadirachta indica ] नीम वृक्ष । श्राज्ञाद- दरख्ते हिंदी | ० asthma-powder] श्वासहर चूर्ण | दे० " पोटेशियाई नाइट्रास" वा " शोरा" । ऐजमा-वीड [अं॰ asthma-weed] एक प्रकार का पौधा । ऐजेलिका -[ श्रं० angelica ] श्रार्कश्रञ्जेलिका fafafa ( Archangelica-officinalis. ) पर्याय- श्र०ऐट्रोपरिया (A. Atropurpurea ) ले० । गार्डेन श्रङ्गेलिका (Garden angelica ) इं० । सुम्बुले ख़ताई - श्रु० । श्रङ्गलीनहू - फ्रा० । बालछड़ भेद - हिं० | ( पी० वी० एम; ई० है० गा० ) गर्जर वा अजमोदादि वर्ग (N. O. Umbelliferce.) उत्पत्तिस्थान — यूरूप का एशिया और अमेरिका । उत्तरी भाग, वानस्पतिक विवरण - यह चुप २ से ४ फीट ऊँचा, द्विवर्षीय एवं जलीय स्थलों में उगता है और लगभग समग्र संयुक्रराज्य में मार्ग-तटों पर सरसब्ज़ नज़र आता है। इसमें जून से सितम्बर मास तक पुष्प श्राते हैं। कलियाँ हरित-श्वेत होती हैं। इसकी जड़ वृहत् मांसल ( गूदादार ), रालदार, चरपरी और सुगंधियुक्त होती है । हैम्बर्ग (Hamburg ) से यह श्रौषधी शुष्कावस्थामें लाई जाती है । लंडन के चतुर्दिक भी इसकी कृषि की जाती है । प्रयोगांश-मूल, पौधा और बीज । औषध-निर्माण एवं मात्रा - जड़ का चूर्ण; ३० से ६० ग्रेन ( १५-३० रत्ती ) । तरल सत्व ( जड़ का ); ३० से ६० मिनिम ( बूँद ) । तरल सत्य ( बीज का ); ५ से ३० मिनिम ( बूँद ) । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐजेलिका आर्केओलिका १८१३ ऐट्रोपीनी सैण्टानास प्रभाव तथा उपयोग ऐटिलोसिया-बार्बेटा-[ ले० atylosia-barb. इसकी जड़ सुगंधित प्रामाशय-बलप्रद और ata, Baker.) भाषपर्णी । वनमाष । वायु-निस्सारक है और प्रामाशय को शनिप्रदान ऐटीबीन-[अं॰ a tebrin ] एक डाक्टरी औषध, कर क्षुधा उत्पन्न करती है। बलकर (बल्य) जो हाल ही में रासायनिक प्रक्रिया द्वारा निर्मित औषधियों के साथ संयोजित करने से यह श्राध्मान, की गई है। यह क्वीनीन से पाँच सौ गुना अधिक उदरशूल और निर्बलतायुक्त प्रामा राय की पीड़ा प्रभाव रखती है। मूल्यवान होने के कारण सर्वमें लाभप्रद है। इसके फल में भी ये ही साधारण इसके गुण से अपरिचित हैं। अभी (प्रागुक्र) गुण हैं। इसके कोमल काण्ड एवं हाल ही में यह जर्मन रसायनशास्त्रियों द्वारा 'पत्तियों की नसें शर्बत में उबाली जाती है । शुष्क आविष्कृत हुई है। होने पर यह सशर्करीय अङ्गलीनह बन जाती है। ऐट्रिप्लेक्स-लेसिनिएटा-[ ले० atriple x laci. भोजनानन्तर भत्रण करने से यह अति ग्राह्य एवं a, Linm.] मापपर्णी । बनमाष । प्रामाशय बलप्रद होती है। इसकी ताजी जड़ को | 1-[ले० atriplex-harteकूट-पीसकर ग्रन्थि पर प्रस्तर करने से वह लय हो lisis, Linn.] पौधा विशेष । जाती है । इसको सिरके में दुबो रखकर उसे ऐट्रोपा-एक्युमिनटा-ले० atropa-acuminaपान करने से यह संक्रमण वा मृत के विपरीत ta, Royle.] बेलाडोना का भेद । एक अव्यर्थ रक्षक है । (पी० वी० एम०)। ऐट्रोपा-बेलाडोना-[ ले० atropi.be!Jadon), ऐजेलिका-आकंजेलिका- ले angelion. Linn.] लुफाह बरी। दे. "बेलाडोना"। archangelica.] बालछड़ का एक भेद। ऐट्रोपा मेण्ड्रागोरा-[ले० atropa-mandragoसुबुलखताई। दे० "ऐलिका'। ___ra] यबरूजुस्सनम् । लुनाह । दे. “बेलाडोना"। ऐओलिका-गार्डन-[अं॰ angelica-garden ] ऐट्रोपीन-[अं॰atropine]धन्तूरीन । जौहरलुनाह । बालछड़ का एक भेद । सुबुलखताई। । दे. “बेलाडोना"। ऐजेलिका-ग्लाका-[ले. ungelica-glauca, ऐट्रोपीन-आइन्टमेण्ट-[ अं० atropine-oint - Edge.] ऐजेलिका भेद । ment ] धन्तूरीनाभ्यङ्ग। दे० "बेलाडोना"। ऐजेलिका-रूट-[अं॰angelica-root ] बालछड़ ऐट्रोपीन-मीथिल-नाइटेट-[ अं० atropineमूल । बीख़ सुबुलख़ताई । अंगलीनः । __methyl-nitrate ] एक प्रकार का श्वेत ऐञ्जलिका-सीड-अं० angelica--eed ] बाल चूर्ण, जो जल में घुल जाता है। इसे युमिड्रोन छड़ का बीज । तुरूम सुबुलखताई। भी कहते हैं । दे० "बेलाडोना"। ऐजेलिम्-[अं० ६.ngelim ] जॉकमारी । जैङ्गनी। ऐट्रोपीन-सल्फेट-[अं॰ atropine-sulphate] ऐन लिम्-अमरगोसो-[अं॰ angelim-ama ___धन्तूरीन गन्धित । दे० “बेलाडोना"। _rgoso ] अरारोबा। ऐट्रोपीना- ले. atopinn ] दे० "एट्रोपीन" । | ऐट्रोपोनी-मीथिल-ब्रोमाइड-[ ले० atropineऐज्जेलिम्-आसिस-[ ले० angelim-arven___sis ] जोंकमारी । जैङ्गनी। methyl-bromide ] यह एक सफेद कलम दार चूर्ण है। इसे 'मिड्रिएसीन' भी कहते हैं । दे० ऐटलैण्टिया-मानोफाइला-[ ले० atalantia- "बेलाडोना"। rmonophylla, Corr. ] अटवी जम्बीर। पेट्रोपीनी-वैलेरिएनास-[ ले. atropine-valeमाकड़-लिन्छ । जङ्गली नीबू । rianas ] दे० "बेलाडोना"। ऐटालुगल-[ उ० ५० सू० ] मधुमालती। ऐट्रोपीनी-सल्फास-[ ले० atopine-sulphas] ऐटिपुच्छ-[ ते० ] इन्द्रायन । इन्द्रवारुणी। धन्तूरीन गन्धित् । दे० "बेलाडोना" । ऐटिमाल-[ते. ] छिरेटा । छिलहिँड । पानीजमा । ऐट्रोपीनी-सैण्टोनास-[ले. atropine-santoजलजमनी । । Vas ] दे. “बेलाडोना"। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐट्रोपीनी सैलिसिलास १८१४ ऐण्टिगोनोरिया सीरम् पेट्रोपीनी-सैलिसिलास-[ ले. atropine-sali- ऐड्रीनेलेनी-हाइड्रोक्लोरिकम् (ले०adrenalinae cylas ] एक प्रकार का श्वेत स्फटिकीय चूर्ण hydrochloricum] दे॰ “एडरीनलीन"। जो केवल में ही किसी प्रकार विलीन होता है। ऐड्रोवेइन-[ ले० adrovaine ] दे० "उपवृक्क"। एड़-वि० [सं० वि० ] बलकारक पदार्थ युक्र। ऐढाटोडा वैसिका-[ ले० adhatoda vasica, ऐड़क-संज्ञा पु. [ सं० पु.] एक प्रकार का Nees. ] अडूसा । वासक । भेंडा । ऐढीसिव-साष्टर-[अं॰ adhysive plaster ] ऐडजिवर्थिया-गार्डनरो-[अं०] कधूटी। श्रीमली- दे. “एम्प्लाष्ट्रम् रेज़िनी"। (नेपा०) ई० हैं. गा० । ऐण-वि० [सं० त्रि०] काले हिरन का चमड़ा आदि। ऐडमास-ले० admas ] हीरा । वन । अल्मास | ऐणिक-वि० [सं० त्रि.] काले हिरन का शिकार (फ्रा०)। करनेवाला । एण मृग घातक । ब्याक० । ऐडर्सटंग,-विंडिंग-[अं॰adder's, tongue wi- ऐणेय-वि० [सं० त्रि.] काली हिरनी का चमड़ा nding ] भूतराज । (Ophioglosum श्रादि। floxnosum.) संज्ञा पुं० [सं० पु.] कृष्णसार मृग । ऐड़क-संज्ञा पु० [सं० क्की० ] दे॰ “एडुक"।। कालाहिरन । ऐडमून-[अं॰ adamon ] एक प्रकार का श्वेत | ऐणेयक-संज्ञा पु० [सं० क्री० ] एलबालुक । स्वादरहित चूर्ण जो अपस्मार और योधापस्मार ऐण्टिएरिस-आइनोक्सिया-[ ले० antiaris. (हिस्टीरिया) में उपयोगी है। innoxia, Bl. ] पौधा विशेष। . मात्रा-१० से १५ ग्रेन (५ से ७॥ रत्ती)। | ऐण्टिएरिस-ओवेलिफोलिया- ले. antiarisऐडेलीन-[अं॰ adalin ] एक सफेद रंग का ____ovalifolia.] पौधा विशेष । स्फटिकीय चूर्ण, जिसे निक्टाल Nyctal (Br ऐण्टिएरिस-दाक्सिकेरिया-[ले antiaris-toxiowodiethylacetyluren)भी कहते हैं। ___caria, Lesch. ] चाँदकुड़ा। चाँदुल-बं० । - गुण-धर्म तथा उपयोग ऐण्टिएरिस-सैक्सिडोरा-[ ले० antivris-sacci जिदाजनक रूप से इसका प्रचुर प्रयोग होता ____dora, Dale.] पौधा विशेष । है। इसमें अल्प वेदनास्थापक गुण भी है। किंतु | | ऐण्टिएरीन-[ले. antiarin] सौंपसुण्डी का ऐसा प्रतीत होता है, कि वात प्रकृति के रोगियों | एक क्रियात्मक सार। (Neurotic) पर, इसका कुछ अवसादक ऐण्टि-ऐन् क्ससीरम-[अं॰ anti-anthrax. प्रभाव होता है। ५ से ७॥ रत्ती की मात्रा में | ____serum ] दे॰ “ऐन्यू क्स"। टिकिया रूप में वा कीचट्स में डालकर रात्रि में शयन से प्राध घंटे पूर्व सेवन करने से साधारण ऐण्टिकामनिया-[अं॰ antikamania] ऐण्टिअनिद्रा रोग में इसका संतोषदायक निद्राजनक | | फेबीन मिति एक डाक्टरी योग । दे. "ऐसेटप्रभाव होता है । (ह्वि० मे० मे०)। अनीलाइडम्"। ऐडीनेलीन-अं. adrenalin ] उपबृक्क का ऐण्टिकरिस-अरेबिका- ले. anticharis-ara क्रियात्मक सार। वि० दे० "एडीनलीन"। | bica.] पौधा विशेष । ऐड्रीनेलीन-क्लोराइड-सोल्युशन-[अं० .drenalin- ऐण्टिकोलीन-[अं० anticolin ] दे॰ “कौमिस" chloride-solution] उपवृक्कीन हरिन् ऐण्टि-गाइटर वैक्सिन-[अंo antigoitre-vaविलयन । दे० "उपवृक्क" । ___ccine ] गलगण्ड नाशक सीरम । ऐड्रीनेलीनम् (ले० adrenalinum] उपवृक्कोन । ऐण्टिगोनो-काक्ससीरम्- अं. anti-gonoदे. "उपवृक्क"। coccus serum ] पूयमेहकीटघ्न सोरम् । ऐड्रीनाल-[अं० adrenal ] दे॰ "उपवृक"। ऐण्टि-गोनोरियासीरम-[० antigonorrho Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐण्टिटॉक्सिक सीरम् १८१५ ऐण्टि पायरीन पवार easerum vaccine ] सूज़ाकहर सीरम ऐण्टिथर्मिन-[ अं० anti-thermin ] संधानवा टीका । दे० "सुजाक"। क्रिया-विधि द्वारा प्रस्तुत एक नूतन औषध । यह ऐण्टि-टाक्सिकसीरम-[अं॰antitoxic-serum तापहर है। परन्तु इससे उदरशूल उत्पन्न होता विषघ्न रकवारि । है। अस्तु इसका अधिक व्यवहार नहीं होता। ऐण्टिटाक्सीन-[अं० antitoxin ] दे० 'एण्टि मात्रा-- ग्रेन ( ४ रत्ती) वयस्क मात्रा । ऐण्टिथाइराइड-सीरम् [ अं० anti thyroid सीरम्"। ऐण्टि-टायफाइड-सीरम्-अं० anti-typhoid ___ serum ] चुलिकाहर सीरम् । serum ] अांत्रिकज्वरहर रनवारि । दे० "टाय- | ऐण्टिथाइराइडीन-मोबियस-[ ले. antithyroiफाइड"। ____din-moebius]दे० "ऐण्टिथाइराइड सीरम्"। ऐण्टि-टेटेनस-सीरम-[अं॰ anti-tetanus ) एण्टिनीन-[अं॰ anti-nelvin ] दे. "एसीट ___serum] एनीलाइडम्"। ऐण्टि-टेटेनिक सीरम्-[अं० anti-botanic ऐण्टिनोसिन-[अं॰ anti-nosin ] यह नोसोफिन serum ] ___ का सोडियम साल्ट है । दे० "प्रायोडोफार्म" । धनुष्टंकारहर सोरम। ऐण्टिन्युभोकाकिकसीरम्-[अं॰ anti-pneumo ऐण्टिट् युबरकुलोसिस-सीरम्-[अं० anti-tub.) ___coccic-serum ] न्युमोनियानाशक रक्तवारि। erculosis serutn] दे० "न्युमोनिया"। ऐण्टि-ट्युबरकल-सीरम्-[अं॰ anti-tuberc | ऐण्टि न्युराल्जिक-[अं० anti-neuralgic] le-geruin ) यक्ष्मानाशक रनवारि। ___वातजवेदनानाशक । ऐण्टि-ट्यु सीन-[अं० anti-tussin ]दे० "एसि | ऐण्टि-पर्टस्सिस-वैक्सीन-[अं० anti-pertussis डम् हाइड्रोफ्लोरिकम्"। ___vaccine ] कूकरखाँसी का टीका । ऐण्टि-डिफ्थेरिटिक-सीरम-अं. anti-diphth | ऐण्टिपायरीन-[अं॰ anti-pyrin ] दे॰"फीने___eritic-serum ] गलरोहिणीनाशक सोरम् । जून"। ऐण्टि-डिसेण्टोरिक-सीरम्- अं० antidysent ऐण्टिपायरीन-ऐमिग्डलेट-[अं॰ anti-pyrine ___eric-serum ] प्रवाहिकाहर सोरम् । ___amygdalate] टस्सोल ।। ऐण्टि-डिसेण्टेरिका-[ ले० antidysenterica ] | ऐण्टिपायरीन-ऐसीटो-सौलसिलेट- अं० antiकुरैया। कुड़ा । कुटज । pyrine-acetosalicylate ] gatetara. ऐण्टिडेस्मा-ऐलेक्सिटेरिया-[ ले० anti-desma | रीन । दे० "मोनेज़न'। ___ alexiteria ] नोलि-तलि-मरम्-( मल०)। | ऐण्टिपायरीन-कैफीनो-साइट्रिकम्- अं० antiऐण्टिड स्मा-गीसेम्बिला-[ ले० antidesma. pyrine-cafeino-citricum] मिग्रेनीन । ghaesembilla] जोन्हरी । ज्वार । दे. "कहवा" वा "काफीना"। ऐण्टिड स्मा-डाइएण्ड म्-[ ले० antidesma | ऐण्टिपायरीन-केफीनो-साइटूट-[अं० anti-pyri_____diandrum ] अग्लो । अमारी। सरसोली। | ne caffeino-citrate ] मिग्रेनीन । दे. ऐण्टिड स्मा-ब्युनियस- ले. anti-desma bu "कहवा"। nius, Muell.] नोलि-तलि-(मरा०)। हिमल ऐण्टिपायरीन-टेबलेट्स-[ अं० anti-pyrineचेरी-नैपा०]। tablets ] ऐरिपायरीन द्वारा निर्मित टिकिया । ऐण्टिडेस्मा-मेनेसु-[ ले० antidesma mena दे० "फीनेजून"। ऐण्टिपायरीन-फव्वार- अं. anti-pyrinesu] कुम्ब्युङ्ग । तुङ्गचर-(लेप०)। पेण्टिडोट-[अं० antidote ] प्रतिविष । विषघ्न । favvar ] ऐण्टिपायरीना एफ़रवेसेंस (बी. अगद। पी० सी)। दे. "फ्रीनेजून"। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोस्टपायरीन मैण्डिलेट १८१६ ऐण्टिमोनियेलिस पल्व ऐण्टिपायरीन-मैण्डिलेट-अं. anti-pyrine- | ऐण्टिमनी-टाटस-[अं॰ a1 timony-tartra. mandilate ] एक प्रकार के कणयुक्त स्फटिक | tus ] दे० "अञ्जन"।। जो जलविलेय होते हैं। टस्सोल । दे. "फीने- | ऐण्टिमनी-सल्फ्युरेटेड-[अं॰ antimony-sul. जून"। phimated ] दे. "अञ्जन"। ऐण्टिपायरीनसैलिसिलेट-[ ले० anti-pyrine | ऐण्टिमाल्टा-फीवर-सीरम्-[ अं० antimalth. fever-serum] माल्टाज्वरनाशक सोरम् । । , Salicylate ] एक डाक्टरी औषध । इसकी | ऐण्टि-मास्किटो-लोशन-[अं॰ antim squitoसफेद किंचित् मधुर कलमें होती हैं । यह जलविलेय होती हैं। सैलीपायरीन । दे. “फीने ___lot on ] मशकवारणोय द्रव । दे० “एसिडम् काबोलिकम् । जन" । ऐण्टिमेनिञ्जाइटिस-सीरम-अं. antimeninऐण्टिलग इंनाक्युलेशन-[अं० anti-plague gitis-serum ] ऐण्टिमेनिओकॉकस-सीरम् _innoculation ] ताऊन का टीका । ऐण्टिलग-वैक्सीन-[अं॰ antiplague] (Antimeningococcus Serum )। मस्तिष्क-सौषुम्न ज्वरनाशक रक्तवारि। गर्दनतोड़vaccine] ऐण्टिल ग सीरम्-[antiplagus se ज्वरनाशक सीरम् । rum] ऐण्टिमोनियम्-[ लेकantimonium] सुर्मा। दे० ताऊन का टीका। "अञ्जन'। ऐण्टिफेबीन-[अं॰ antife brin ] एक डाक्टरी ऐण्टिमोनियम्-(-याई) ऑक्साइडम्- ले० an11 ज्वरनाशक औषध । दे० "एसीटएनीलाइडम्"। monium (-nii) oxidum ] अञ्जनोऐण्टि-फ्लाजिष्टिक-[अं॰ anti-phlogistic ] मिद । दे० 'अञ्जन"। | ऐण्टिमोनियम्-टा टम्-[ ले० antinioniumशोथहर । प्रदाहनाशक । ऐण्टि-फ्लाजिष्टीन-[ अं० anti.phlogistin ] ___tartra tum ] तिन्तिड़िताञ्जना दे०"अञ्जन"। एक पेटेन्ट औषध जिसे प्रदाहयुक्त स्थल पर लेप ऐण्टिमोनियम नाइग्रम्-प्युरिफिकेटम्-[ ले०] शुद्ध काला सुर्मा। करने से वेदना, सूजन और जलन कम होजाती है। ऐण्टिमोनियम्-सल्फ्युरेटम्-[ ले०antimovium इसलिए इसको न्यूमोनिया ( फुफ्फुसौष) और sulphuratum ] स्रोताञ्जन। सुर्मा । दे. फुफ्फुसावरण प्रदाह (प्लुरिसी) आदि प्रदाहिक "अञ्जन"। रोगों में दर्द एवं प्रदाह स्थल पर प्रलप ऐण्टिमोनियलपाउडर-[अं॰ antimonial-poकरते हैं। ___wder ] अञ्जन चूर्ण । दे० "अञ्जन"। योग-निर्माण-बोरिक एसिड, सैलिसिलिक ऐण्टिमोनियल-वाइन-[ अं० antimonialएसिड, आयोडीन, फेरसकाबीनेट, ग्लीसरीन और ___wine ] शञ्जन घटित सुरा । दे० "अञ्जन" कतिपय सरभित रेल इत्यादि । वि० दे० "ग्लीस ऐण्टिमोनियस-आक्साइड-[अं॰an timonious राइनम्"। ___-oxide ] अञ्जनोमिद् । दे० "अंजन"। ऐण्टि-बेरिबेरीन-[अं॰ antiberiberin ] बेरी- ऐण्टिमोनियस-टार्टरेटम्-[ ले० antimoniousबेरी नाशक । ___tartratum ]तिन्तिड़िताञ्जन । दे."अञ्जन"। ऐण्टिमनी-[ अं. antimony ] सुर्मा । दे० | ऐण्टिमोनियस-सल्फाइड-[अं॰ antimonious"अञ्जन"। ___salphide ] दे॰ "अञ्जन"। ऐण्टिमनी-क्लोराइड-[ अं० antimony-chlo- | ऐण्टिमोनियाई-आक्साइडम्-[ ले० antimonii. ___ride दे. "अञ्जन"। ____oxidum ] दे॰ “एण्टिमोनियम्-श्राक्साइडम्"। ऐण्टिमनी-टा, टम्-अं. antimony-tantr- | ऐण्टिमोनियेलिस-पल्व-[अं० antim on alisatum ] दे॰ “अञ्जन"। | pulv ] दे॰ “पल्विस-ऐण्टिमोनियेलिस"। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐण्टिमोनियेलिस वाइन १८१७ ऐण्डू क्नी कार्डिफोलिया ऐण्टिमोनियेलिस-वाइन-[अं॰ antimoniajis- ऐण्टिसेप्टिक-लोशन-[अं• antiseptic loti__wine ] दे॰ “वाइनम् ऐण्टिमोनिएलिस"। ____ on ] पचननिवारक घोल । विशोधक द्रव । ऐण्टिरुमीन-अं. anti.rlieurnin ] दे॰ “एसि- ऐण्टिसेप्टीन-[अं• antiseptin ] एक डॉक्टरी ___ डम् हाइड्रोफ्लोरिकम्"। ___ योग । दे. "ज़िन्साई सल्फास"। एण्टिरुमेटिक-सीरम्-[अं॰ anti-rheumatic- ऐण्टिसेप्टोल-[अं॰ anti-septol ] दे० 'श्रा___serum ] दे० "ऐण्टिष्ट्रप्टोकाकाइ-सीरम"। योडोफार्म" । ऐण्टिरुमेटीन-[अंo antirheumatin ] मिथि- ऐण्टिसेप्सीन-[अं॰ anti-sepsin ] एक डाक्टरी लीन ब्ल्यू और सोडासैलिसिलास का एक योग। ___ औषध । दे. “ऐसेट अनीलाइडम्" । दे० "मिथिलीन ब्ल्यू"। ऐण्टिसेरिब्रोस्पाइनल फीवर सीरम-[ अं० antiऐण्टिरहाइनिकएसिड-[अं॰] एक प्रकार का ग्ल्यु cerebrospinal fever-serum ] दे. कोसाइड जो डिजिटेलिस की पत्तियों से प्राप्त होता _ "ऐण्टिमेनिझोकाकिक-सीरम्"। है । दे० "डिजिटेलिस"। ऐण्टिस्काळ टिक-[ अं. anti-scorbutic ] ऐण्टि-हाइनम्-[अं॰anti-rrhinum] (Stap- स्क र्वीहर। ___dragon) पौधों की एक जाति । ऐण्टि-स्टैफिला-कॉकिक-वैक्सीन-[ अं० antiऐण्टिर हाइनम्-ग्लाकम्- ले. antirrhinum. ___staphylo coccic vaccine ] स्टैफिलो glaucum ] पौधा विशेष । काकिकहर वैक्सीन । ऐण्टिर हाइनम्-झुमाइल-[ले० antirrhipurn- | ऐण्टिस्टै प्टो-काकिक-सीरम्-[S. anti-strep. bumile ] शाहतरा। to-coccic-serum ] टेप्टोकाकिकहर रक्रवारि। ऐण्टिलिटिक-सीरम्-[अं॰ anti-lytic-3erum] | ऐण्टि-स्पैज्मीन-[अं॰ anti-s pasmin ] नारपर्या-रेण्टिल्युसीन (antilusin), (nor-| mal horse serum ) दो ड्राम की मात्रा में | सीन (narceine) और सोडियम् सैलिसि लेट का एक मिश्रण । दे."पोस्ता" वा "नारसान"। स्वगधोऽन्तःक्षेप द्वारा अथवा मुख द्वारा इसका भूरि प्रयोग होता है और यह द्वादशांगुलीयांत्र क्षत, | ऐण्टि--फीवर-वैक्सीन-[अं॰anti-bay-fever vaccine ] हे-फीवरहर टीका । रक्ताल्पता, टायफाइड ज्वर, उरःक्षत(Tubercu ऐण्टेडा-स्कैण्डेंस-[ले. anteda scandens] losis) आदि रोगों में उपयोगी सिद्ध होता है । गिल्ला-बं० । गेरडी-उड़ि। पाझरा-नैपा० । शिथिल ब्रणों पर इसका प्रयोग करने से यह गरदल-बम्ब०। अत्यन्त फलप्रद प्रमाणित हुआ है। एण्टिल्युटीन-[अं॰ antilu tin ] एक डाक्टरी ऐण्डर्सन्स-आ इण्टमेण्ट-[अं॰ anderson's-oiऔषध जो देखने में टार्टार एमेटिक की प्राकृति ntment] एक डाक्टरी योग। दे."बिजम्यु थम्"। का होता है । इसे ऐण्टिमोनियाई एट अमोनियो | ऐण्डसोनिया-रोहितका-[ले. andersonia-roपोटेशियाई टाटूट ( Antimonii et ___hituka ] रोहितक । रुहेड़ा । ammonio.potassii-Tartrate ) भी | | ऐण्डीरा-अरारोबा-[ले. andira-araroba] कहते हैं। ___ गोया पाउडर । दे० 'अरारोबा" । ऐण्टिल्युसीन-[अं॰ antilusin ] दे॰ 'ऐण्टिलि- | ऐण्डीरा-इनर्मिस-[ ले. andira-inermis] टिक सीरम्"। (Cabbage-tree of tropical Afrऐण्टि-वीनीन-[अं॰ antivenene ] सर्पविषघ्न ___ica) गोभी विशेष । ___ रक्तवारि । तिर्याक ज़हर मार । दे. “साँप"। ऐण्ड'क्नी-कार्डिफोलिया-[ ले० andrachneऐण्टि-सीरम्-[अं॰ anti-serum ] कीटाणुहर cordifolia, Mull-Arg ] गुरगुली, रक्तवारि। कुकुई, कुर्कुली-पं०। १० फा० Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐण्डूक्नी कैडि ऐण्ड्र क्नी-कैडिशा -[ ले• _andrachne-cadishaw] कोडसिगना, बोददरंग - कना० । ऐण्ड्रोप्रा फिस-एकि श्राइडीज - [ ले० androgra - phis-echioides, Nees. ]राँचिमीण - ६० । पीतुम्ब - मरा० । ऐड्रोग्राफिस पैनिक्युलेटा -[ ले० andrographis-paniculata, Vees.] भूनिंब - सं० । किरयात - हिं० । कालमेघ - बं० । नील-वेम्बुमद० । १८१८ ऐण्ड्रोपोगन इवारैंकुसा-[ ले • andropogon - iwarancusa, Roxb. ] लामज्जक । लमजक। कारांकुस - बं० । ऐड्रोपोगन-एरिक्युलेटस - [ ले० andropogon - ariculatus ] शंखाहुली । ऐण्ड्रोपोगन-एरोमेटिकस-[ ले० andropogonaromaticus ] भूस्तृण । खवी । ऐण्ड्रोपोगन-ओडोरेटस -[ ले० andropogon - odoratus ] उपधान - ब्रम्ब० । वैदिगवत मरा० । एण्ड्रोपोगन-कान्टार्टस - [ ले andropogon _contortus, Linn. ] येही - ० । ऐण्ड्रोपोगन-कैलेमस-ऐरोमैटिकस - [ ले० andropogon calamus aromaticus ] भूस्तृण । खवी । ऐदा ऐण्ड्रोपोगन - मार्टीनी -[ ले • andropogon-martini ] भूस्तृण । ऐण्ड्रोपोगन - मिलिएशियस - [ले० andropogonmiliaceus, Roxb. ] एक प्रकार की घास । ऐण्ड्रोपोगन-म्युरिकेटस-[ ले० andropogonmuricatus, Ret. ] खस । उशीर । ऐएड्रोपोगन - लैनिजर - [ ले० andropogon-lanigor, Desf.] लामजक । लामजक । इज़ख़िर । खवी । ऐण्ड्रोपोगन साइट्रेटस - [ ले० andropogoncitratus, DC.] अगियाघास । श्रगिन घास | गंधबेना - बं० । ऐण्ड प/गन - सिरेटस - [ ले० andropogon-serratus ] देतारा | ऐण्ड्रोपे। ऐण्ड्रोपोगन सैकेरस - [ ले० audropogon-saccharus ] देवधान । तिन्नी । गन-सार्गम - [ ले० andropogon-s.)rgham ] ज्वार | जोन्हरी । जोंधरी । ऐड्रोपोगन स्कीनैन्थस - [ ले० andropogonschoenanthus, Linn. ] रोहिष । रुसा । रोहासा | गंधेल । मिर्चियागंध । ऐण्ड्रोपोगन स्कैन्डोन्स - [ ले० andropogon Scandens, Roxb. ] एक घास । ऐतल - [अ०] [ बहु० प्रयातिल, श्राताल, श्रायातील ] कोख । कुक्षि । ऐण्ड्रोपोगन. ग्लेबर -[ ले० andropogon-glaber ] सुगन्ध-गौराना | ऐण्ड्रोपोगन-डिस्टैन्स-[ ले॰ andropogon-dis tans ] तृण विशेष । ऐता - गो० ] मरोड़ फली । श्रावर्त्तनी । ऐतिह्य-संज्ञा पु ं० [सं० की ० ] श्राप्तोपदेश । प्राचीन ऋषियों के उपदेश । च०वि०८ श्र० । ऐद -[ अ ] ] शक्ति । बल । ज़ोर । ऐअ -[ अ ] दम्मुल् अवैन । हीरादोखी । ऐम्साल -[ श्र० ] उत्तम प्रकार की हीरा | ऐण्ड्रोपोगन-नार्डस-[ ले॰andropogon nardus, Linn. ] गञ्जनी-हिं० । मनन-सिं० । कमा- खेर - बं० । कामाक्षी पुल्लु - मद० । ऐड्रोपोगन-पर्टस्सस - [ ले._andropogonpertusus, Willd.] पलवल । ऐड्रोपोगन-पोच माडेस - [ ले० ] भूस्तृण । ऐएड्रोपोगन-बाइकलर-[ ले० andropogon-bi दोखी । color ] काला ज्वार । ऐड्रोपोगन ब्लेधियाई - [ ले० andropogon bladhii, Retz. ] एरण्डागाछ, लोअरी बं० । -दुक्क:- [ -मिदः - [ ० ] निकृष्ट प्रकार का दम्मुल् ० ] विचूर्णित हीरादोखी । ऐ ऐदान - [ यू०] मेंहदी | हिना । मेदिका । ऐदक़न - [ यू०] बाँस । नै। वंश | ऐदस - [ यू ] ताम्र । ताँबा । ऐदा–[ श्रु० ] दे० “ऐदश्रु,” । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१६ ऐनालीमा स्कैपिफ्लोरम् ऐ.दान-[अ०] [ऊद का बहु० ] (१) लकड़ियाँ । culata ] काकफल । काकमारी । Fish(२) कायफल । berry. ऐ.दानुल्यत्वात-अ.] लालसाग को लकड़ी। ऐना(ने)ष्टेटिका-हीरोकण्टाइना-[ ले० anastati. ऐदाबुलग-[ अ.] दम्मुल्अख़्वैन । हीरादोखी। ca hierochuntina, Linn.] गर्भमूल । खूनाखराबा । कफेमरियम् । कफेायशा । ऐन-संज्ञा पु० दे. "अयन" और "एण"। श्रासन ऐनासाइलस-पायरीश्रम- ले० anacyclus-मरा० । पियासाल-बं० । pyrethrum, D.C. ] अकरकरा । श्राकारऐन-अ.] अाँख । वि० दे० "नेत्र"। करभ। ऐनअनंबिय्यः-[अ०] तिबकी परिभाषा में एक रोग | ऐनिकोष्ठेमा-लिटरल-[ ले. ] एक ओषधि । जिसमें आँख के तीसरे पर्दे ( पटल) की बनावट ऐनिसफ्ट-[अं. anis.fruit ] अनीसून । जन्म से ही अपूर्ण होती है और पुतलो लम्बो- ऐनिस-वाटर-[अं॰ anis-water ] अर्क अनीतरी या तिरछी खरहे की पुतली जैसी दिखाई सून। देती है । कोलोबोमा पाईरिडिस(Coloboma. ऐनिसाकिलस-कार्नोसस-[ ले. anisachilus. iridis)। carnosus, Wall.] पंजीरी का पात-द० । ऐनलगेसिक- अं. analgesic ] अङ्गमई- ___ कपूर वलि-मद। प्रशमन । ऐनिसोमेलीस-शोवेटा-[ ले. anisomelesऐनस्थेटिक-[ अं. anaesthetic ] अवसन्नता- ___ovata, R. Br. ] गोबुर । जनक । बेहिस करनेवाली । वह दवा जो शून्य ऐनिसोमेलीस-मालाबैरिका-[ ले•anisomelesकरदे । जैसे, कोकीन इत्यादि। __malabarica, R. Br.] भूताँकुश । ऐ.ना-[अ.] [बहु• ई.न] मृगनयनी । सुन्दर आँख चोधरा-बम्ब० । वाली स्त्री। ऐनी-[ मल• ] आसन । पातफणस । ऐनाकार्डियम्-आक्सिडेन्टेली-[ ले० anacardi- . ऐनीक्टोकाइलससीटैसियस-[ ले० anaecto um-occidentale, Linn. ] काजू । _chilus-setaceus, Blume.] वनराजः काजूतक-फल । हिजली बादाम । -(सिं.)। ऐनाकार्डियम-लैटिफोलिया-[ले. anacardium | ऐनीटीन-[अं॰ anytin ] दे० "सोडियाई_latifolia] भल्लातकी। भिलावाँ । सल्फोइथियोलास"। ऐनागालिस-आर्वेन्सिस-[ले anagallis-arve | ऐनीटोल्स-[अंo anytols] ऐनीटीन का एक योग। nsis, Linn.] जोंकमारी। दे. "सोडियाई सल्फोइक्थ्योलास"। ऐनानास-सेटाइवा- ले. ananas sativa, | ऐनीथाई-फ्रक्टस-- ले. anethi fructus ] Linn.] अनन्नास । सोये का बीज । तुख्म सोश्रा । ऐनीथोल-ले. anethol] कपूर-अनीसून । दे० ऐनाफेलिस-नीलगिरिएना- ले. anaphalis "अनीसून"। neelgeriana, D.C.] काटप्पाष्ठर-(नील- ऐनीमन- अं• anemone ] दे. "अनीसून"। गि.प.)। | ऐनीमून-आन्ट्यु जिफ़ोलिया-[ ले० anemone ऐनाबेसिस-मल्टिफ्लोरा-[ले • anabasis-muli obtusifolia, Don. ] रतनजोग, पदर _tiflora, Meg.] घाल्मी-पं०। ऐनामिर्टा-काक्युलस-[ले. anamirta-cocc- ऐनीलीमा-स्कैपिफ्लोरम्- ले. aneilema__ulus, W.&A. ] काकफल । काकमारी। scapiflorum, Wight. ] सियाहमूसली ऐनामिर्टी-पेनिक्युलेटा-ले. anamirta-pani- | -हिं० । दे० "अनीलेमा-स्कैपिफ्लोरम्"। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐनीसाई फ्रक्टस १८२० ऐनोजीसस लैटिफोलिया ऐनीसाई-फ्रक्टस-लेoanisi-fructus ] अनी- हानिकर्ता-उष्ण प्रकृति को और शिरःशूल सून । उत्पादक है। ऐनुद्दीक-[१०] गुजा । घुघची । रत्ती। दर्पनाशक-धनियाँ और ताजा दूध या नोट-एक वृक्ष के बीज जो चपटे, गोल और मक्खन या तुरंजबीन के फाण्ट (खेसादा ) के दृढ़ होते हैं। यह मुर्गी की आँख की तरह मालूम साथ प्रयोग में लाना उचित है । होते हैं, इसी कारण इसका उक्त नामकरण हुश्रा। मात्रा-१॥ मा० से ४॥ मा० तक। क्योंकि दीक मर्यो को कहते हैं। किसी-किसो के गुण-धर्म-प्रयोग-यह बीज तफरीह (उल्लास) मतानुकूल यह पतंग माना जाता है, जिसे अरबी पैदा करता है, अंगों को बलप्रदान करता है, शक्कियों में बक्रम कहते हैं और जिसको लकड़ी वस्त्र-रञ्जन कोरक्षा करता, वार्धक्यका प्रतिषेधक और अत्यन्त के काम आती है। यह उसो के बीज का नाम है। कामोत्पादक है। यह वीर्य को बढ़ाता है और पर बहुधा यह प्रसिद्ध है कि यह घुघची का नाम माजून मलूकी ओर हाफ़िजुस्सिहत नामक योगों है। किंतु मुहीत .ज़म में इसे मिथ्या प्रमाणित का प्रधान उपादान है। मुहीत में लिखा है कि किया गया है। उसमें लिखा है कि जिन्होंने ऐसा इसमें रतूबत फललियः (अनामीकृत रतूरत) समझा है, उन्हें भ्रम हुआ है। गुजा को ऐसो वर्तमान रहता है । या केशोत्पादक और हृदय प्राकृति नहीं होती । उन्होंने धुंधचो के प्रकरण में बलदायक है तथा कफ एवं पित्त के विकारों को भी लिखा है कि जिन लोगों ने ऐनुद्दीक का हिंदी दूर करता है । यह नेत्रों को लाभकारी है। इसका नाम कुंघची लिखा है, उन्होंने भूल को है। इस प्रलेप फोड़े-फुन्सो को गुणकारी है। यह पेट के बात को सिद्ध करने के लिये, उन्होंने यह लिखा है कोड़ों को बाहर निकालता है। किसो-किसो के कि हकीमोंने ऐनुद्दीक के हृद्य एवं तफरीह ( उल्लास अनुसार यह पित्तोत्पादक एवं वीर्यस्तम्भक है। प्रद) श्रादि जितने गुणों का उल्लेख किया है, वह (ख. श्र०) घुघची में बिलकुल नहीं पाये जाते; बल्कि यह तो ए.नुल्अअ लाऽ-[ ] बाबूनः गाव । उकह वान । उपविष-द्रव्यों में से है और इसके खाने से प्रायः ऐ नुलबक़र-[१०] (१) एक प्रकार का बड़ा अंगूर । अतिसार और वमन होने लगते हैं एवं निर्बलता (२) एक प्रकार का पालू । (३) उकह वान । तथा व्यग्रता होने लगती है । इसका केवल बहिर ऐ.नुलहज़ल-[अ०] एक प्रकार का उकडवान । प्रयोग होता है। इसका आंतरिक प्रयोग वज्यं है। ऐनुलह यात-अ.] रसायन की परिभाषा में पारे अस्तु, आपके अनुसार यह पतंग का बीज स्वीकार को कहते हैं । पारद । किया गया है। किंतु पतंग एक ऐसा तीव-तोषण ऐनुलहर:-[अ०] एक प्रकार का पत्थर । लहसुनिया । द्रव्य है, जिसे तृतीय कक्षा पर्यंत उष्ण एवं एनुलहीव:-[अ.] दे॰ “ऐनुल्ह यात" । चतुर्थ कक्षा तक रूने लिखा है। अस्तु, यदि ए नुलहुदहुद-[मु.] श्राज़ानुल-फ़ार रूमो । ऐनुद्दीक उसका बीज स्वीकार कर लिया जाय, तो ऐ नुस्सरतान-अ.] लिसोड़ा । श्लेष्मान्तक । वह भी इसके करीब करीब होना चाहिये। बल्कि लभेड़ा। पतंग को तो १७॥ माशे तक हकीमों ने सांघातिक ऐनेटिफार्म-अं. anaetiform ] दे. "उपलिखा है और धुंधची भी मानव प्रकृति के विरुद्ध वृक्क"। एवं असात्म्य है । अस्तु, यह उन दोनों से पृथक् ऐनोजीसस एक्युमिनेटा-[ ले. anogeissus. कोई अन्य ही वस्तु है। _acuminata, Wall.] चकवा-बं• । पर्या-चश्मख़रोश-फ़ा । पसी, पंची-उड़ि । फास-मरा० । ... ऐनोजीसस-लैटिफोलिया-[ले. anogeissus. प्रकृति-यह तृतीय कक्षा में उष्ण और द्वितीय एना. Jatifolia, Wall.] धव । धातकी । धौरा। कक्षा में 6 है । पर इसमें रतूबत फज़लियः है। वकली। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐनोडाइन ऐन्द्रजल विशेष। । ऐनोडाइन-[अं॰ anodyne ] अङ्गमदंप्रशमन । नार्थ काष्टिक सोडा और कालोफोन रेजिन के ___ वेदनाहर । वेदनास्थापक । दे. "एनोडाइन"। साथ इसका दूधिया घोल उत्तम होता है । लाइऐनोना-[ लेanona ] दे. "अनोना"। एण्ट्रल ( Liantr.al) भी इसी प्रकार का ऐन्थेमिक-एसिड-[ अं. anthemic-acid ] एक तैल है। एक प्रकार का तिन सार जो बाबूने के फूल से प्राप्त ऐन्थिस्कस-सेरोफोलियम्-[ ले० anthriscus होता है। _cerefolium, Hoffm.] पातरीलाल । ऐन्थेभिडिस-फ्लोरीज़-[ले. anthemidis-flo | ऐन्थ् सीन-[ अंo anthracene ] एक सत्व ___res ] बाबूने का फूल । गुल बाबूना। ऐन्थेमिस-[ ले० anthemis] चाबूना । दे. ऐन्थू सीन-पर्गटिह्वज़-[अं॰ antbracene-pu"बाबूना"। __gatives ] एक प्रकार के विरेचन, जिनमें ऐन्येमिल-कोदयुला-[ले. anthemis-cotula] | ऐन्था-क्विनीन द्वारा निकले हुये सारभूत द्रव्य बाबूना बदबू । मिले होते हैं। ऐन्थेमिस-नोबीलिस- ले. anthemis-no- ऐन्थू क्स-[अंo anthrax ] एक संक्रामक व्याधि bitis, Linm. ] बाबूनः रूमी। बाबूनः | जो प्रधानतः भेड़ों में हुआ करती है। परन्तु ऊन तुफ़फ़ाही। धुननेवालों ार चमरंगों को भी हो जाती है। ऐ थेमिस-पायरीथम-[ ले . anthemis-py 1e. इसका कारण एक विशेष प्रकार का अणुवीक्ष्य ___ thrum ] श्राकारकरभ । दे. "अकरकरा"। __ कीटाणु है जिसे बैसिलस ऐन्) क्स कहते हैं। ऐन्थेल्पिण्टिक-[.anthelmintic] कृमिघ्न | | नोट-लक्षणादि के लिये दे० "जमः" । कृमिनाशक। | ऐन्दवी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] सोमराजी । बकुची। ऐन्थेल्मिण्टिक-बाबेरीज-[ अ. anthelmin-| रा०नि० व० ४। tic-barbaries ] रसवत । दारुहरिद्रा | ऐन्द्र-संज्ञा पु- [सं० पु.] देवसर्षप का पौधा । सत्व। ___ संज्ञा पु. [सं. क्री० ] (१)एक प्रकार को जड़ । वन अदरख । जंगली प्रादी। अरण्यजाऐन्थोसेफैलस-केडम्बा-[ले० anthocephaluscadamba, Mig.] कदम । कदम्ब वृत्त । गुण-यह कटु, अम्ल; रुचिकारक, वलकारक ऐन्था-ग्ल्यूको-सैग्रेडीन-[अं॰ anthra.gluco और जठराग्निवर्द्धक है। रा. नि० व० ६ । (२) sagradin ] एक प्रकार का क्रियात्मक सार वृष्टि का जल । वर्षा का जल । जो कैस्करा-सैग्रेडा से प्राप्त होता है। वि० [सं० त्रि०] इंद्र संबन्धी। ऐन्था-पप्युरीन-डाइएसीटेट-[ अं० anthra-pu- | • संज्ञा पुं० [सं०पु.] जो ऐश्वर्य युक्र हो।जिसकी _rpurin-di: cetate ] दे॰ "रेवन्दचीनी"। प्राज्ञा को लोग मानते हों, यज्ञ श्रादि करते हों ऐन्थारोबीन-[अं. antIrarobin ] एक प्रकार एवं शूर, प्रोजस्वी, तेजस्वी, अनिन्दित-कर्मा, दीर्घ का धूसराभ पीत वर्णीय चूर्ण । दे॰ “अरारोबा"। दर्शी, अर्थ, धर्म और काम में प्रवृत्त हों । च० शा. ऐन्थासोल-[अं० anthrasol ] एक पाण्डु-पीत ४ श्र०। वर्ण का तैलीय सांद्र द्रव, जो अलकतरे (Coal- ऐन्द्र-जल-संज्ञा पु० [सं० वी० ] श्राकाश का tar)द्वारा विशेष शोधन विधि से प्राप्त होता पानी। है। इसमें अलकतरे की सो तीब्र गंध आती है, वह जल जो प्राकारा से गिरता हुआ पृथ्वी पर किंतु इससे त्वचा पर धब्बा नहीं पड़ता । गुद-कंडू गिरने न पाया हो और ऊपर ही ऊपर शुद्ध पात्र में को चिकित्सा में इसका १० प्रतिशत का घोल और ग्रहण किया गया हो ।यह जल राजाओं के पीने त्वचा के चित्कारो छिलके उताने के रोगों में २० योग्य होता है और सब जलों में प्रधान माना जाता प्रतिशत का माहम उपयोगी सिद्ध हुआ है । स्ना- | है।च० सू० अ० २७ । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐन्द्रयव १८२२ ऐन्द्रीरसायन ऐन्द्रयव-संज्ञा पु० [सं० पु.] इन्द्रयव । कुड़ा का | वनस्पतियों वा जीवों में पाई जाती है। बीज । इन्द्रजौ । मद० व० १। ( Vital-force ) ऐन्द्र लुप्तिक-वि० [सं. वि.] इंद्रलुप्त का रोगी। __ संज्ञा पु० [सं०] रसायन शास्त्र का वह ____ गंजा । खालित्थ रोगी। विभाग, जिसमें ऐन्द्रियक द्रव्यों का ही उल्लेख ऐन्द्र-वायव-वि० [सं०] इंद्र वायु सम्बन्धी । हो। (Organic chemistry )। ऐन्द्रवारुणी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] इन्द्रायन । ऐटियकाम्ल-संज्ञा पुं० [सं.] ऐसा अम्ल जो ___ इन्द्रवारुणी लता । मद. व०१। वनस्पतियों वा प्राणियों से या उनके किसी अंग ऐन्द्रशिर-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] हस्ति विशेष । एक से उत्पन्न हो । वानस्पतिक अम्ल। (Organic. प्रकार का हाथी। ऐन्द्रा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] इन्द्रायन । इनारुन । acid)। ऐन्द्राग्न-वि० [सं० त्रि०] इंद्राग्नि-सम्बन्धी । विद्युत् ऐन्द्री-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) बड़ी इलायची । से सम्बन्ध रखनेवाला। वृहद् एला । (२) पूर्वादिक् । पूरब की दिशा । ऐन्द्रापौष्ण-वि० [सं० त्रि० ] इन्द्र एवं सूर्य (३) छोटी इलायची । सूक्ष्म एला। रा०नि० सम्बन्धी। व०६ । वै० निघ० २ भ० ताली शादि चूर्ण । (४) इन्द्रायन । इंद्रवारुणी। ५० मु० । रा० ऐन्द्रायुध-वि० [सं० त्रि०] (१) इन्द्रप्रदत्त अस्त्र नि० व०३ । च० सू० ४ अ०। (५) गोरख विशिष्ट । (२) इन्द्र के धनुर्वाण से सम्बन्ध ककड़ी । गोरक्ष कर्कटी । च० सू० ४ अ० प्रजारखनेवाला। स्थापन | भा० अने। ऐन्द्रि-संज्ञा पु० [सं० पु.] कोना । काक । मे० | ऐन्द्रीफल-संज्ञा पुं० [सं० क्री० ] इनारुन । इन्द्रारद्विक। ऐन्द्रिय-वि० [सं०नि०] इन्द्री सम्बन्धी। यन । इन्द्रवारुणीफल । “पक्कैन्द्रफलमूत्रजम्" च० संज्ञा पुं० सं०क्री०](6) आयुर्वेद का एक अंश द० उन्मा०-चि०। विशेष, जिसमें केवल इन्द्रियों का विषय वर्णन एन्द्रीफल-नस्य-संज्ञा पुं० [सं० क्रो०] उन्माद में किया गया हो । (२) इन्द्रिय-ग्राम। प्रयुक्त उक्र नाम का एक योग-सुपक इंद्रायन ऐन्द्रियक-वि० [सं० त्रि०] (१) इन्द्रिय ग्राह्य ।। फल को गोमूत्र द्वारा पीस कर नास लेने से ब्रह्मजिसका ज्ञान इन्द्रियों द्वारा हो । इन्द्रिय सम्बन्धी। राक्षस के आवेश से उत्पन्न उन्माद नष्ट होता है। (२) इन्द्रियादित व्याधि विशेष । शब्दादि च. द० उन्माद-चि०। विषय के मिथ्या योग, अतियोग वा प्रयोग से जो एन्द्रीरसायन-संज्ञा पुं॰ [सं० क्री०] उक्र नाम का रोग उत्पन्न होता है वह "ऐन्द्रियक" कहलाता एक योग, जिसके सेवन से परम आयु, युवावस्था, है। च० । आरोग्यता और स्वर तथा वर्ण में उत्तमता पाती संज्ञा पुं० [सं०] जल का वह दोष जिसके | है तथा पुष्टि, मेधा, स्मृति, उत्तम वल एवं अन्य कारण प्राणियों से उत्पन्न मल वा स्वयं सूक्ष्म अभीष्ट सिद्धियों को भी प्राप्ति होती है। कीटाणु हो । सजीव दोष । (Organic im- योग-इन्द्रायन, ब्राह्मी, क्षीरकाकोली, गोरखpurities) मुण्डी, महाश्रावणी (महामुडी) शतावर, विदासंज्ञा पुं॰ [सं०] वे द्रव्य जो प्राणिवर्ग से रीकंद, जीवन्ती, पुनर्नवा, गंगेरन, शालपर्णी, वच, सम्बन्ध रखते हैं अर्थात् उनसे ही उत्पन्न होते हैं । छत्र, अतिच्छना (अवाक्पुष्पी सौंफ), मेदा, यथा, शर्करा, आटा, नील, कपूर, गोंद, नख, महामेदा, और जीवनीयगण की ओषधियाँ-इन्हें दुग्ध, मूत्र, प्रोटीन, त्वचा, मांस, स्नायु आदि । दूध के संयोग से उत्तम चूर्ण प्रस्तुतकर यथा(Organic Substance)। विधि सेवन करने से उक्त लाभ होते हैं । च० चि० संज्ञा पु० [सं०] वह जीवन शक्ति जो | ०१. . Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐन्धन १८२३ एन्धन - वि० [सं० त्रि० ] ईंधन सम्बन्धी | जलाने की लकड़ी से सम्बन्ध रखनेवाला । ए हाइड्रा - फ्लक्चुएना - [ले०] हिलमोचिका । हुरहुर | ० मो० ॥ हाइड्रा- रिपेंस - [ ले० ] हुलहुल | हिङ्गचा - बं० | एन्हेलोनियम् - लेवीनियाई - [ ले० anhalonium levinii ] पौधा विशेष | 1 एप - [ श्रंo ape ] एक प्रकार का बानर जिसे पूँछ न हो । गोरिल्ला | गिब्बन | शिम्पांजी । एप । एपन - संज्ञा पु ं० [देश० ] चावल और हल्दी को एक साथ पीसकर बनाया हुआ लेपन । यह माङ्गलिक द्रव्य समझा जाता है। इसे लोक में चिक्कस भी कहते हैं । इसके उपयोग से शरीर का वर्ण सुन्दर हो जाता है । एप-वायन - वाव - [ बर० ] वायविडंग | विडंग | ऐपिडे ड्रम - टिष्टी - [ ० epidendrum-triste] आकाश नीम । ऐपिस - [ लेo apis ] शहद की मक्खी । अमर । मधुमक्षिका । ऐपिस-मेलिफिका–[ apis-meliffica ] शहद की मक्खी । मधुमक्षिका । ऐपेरिटोल - [ श्रंo aperitol ] दे० "एपेरिटोल" । ऐपोलेक्सी - [oapoplexy] मृगी | मिरगी | अपस्मार । दे० " एपोलेक्सी" । ऐपोरोसा - विंडलिना - [ ले० aporosa-lind leyana, Bail.] बालक । वेत्तिल मरा० । ऐपोसाइनस -[ ले० apocynum ] एपोसाइनम् । प्रीया - [o apnoea] कष्टश्वास । श्वासकाठि न्य । श्वासकृच्छ्रता । ऐल [ ० apple ] सेव । सिंवितिका । ऐसिकेशियो मेन्थाल - [ ० applicatio-mon ऐन्स्ट्रक्ट्स ahuen] (Hysterionica) एक श्रोषधि । ऐप्ससरूट - [ श्रं० ] ( polemonium-reptens. ) एक ओषधि | thol ] रोचन्यभ्यङ्ग | दे० " पुदीना " । ऐलोटेक्सिस - श्रक्युलेटा - [ ले aplotaxis - auriculata, D.C. ] कुट । कुष्ठ । ऐलोपेपस-बेलन -[ ले० aplopappus-bayl ऐब - [अ०] [वि० ऐबी ] दोष । ऐबस - [अ०] पिंडली का अगला किनारा जो मांसरहित हो । ऐपेन्डिक्स [ श्रं० appendix ] श्रपरिशिष्ट । दे० " अपेरिडक्स" | ऐपेन्डिसाइटिसं -[ श्रं० "ppendicitis ] श्रांत्र ऐबीटिज़ आइल - [ प्रदाह । दे० " अपेण्डिसाइटिस” । ऐ - [अ०] अंगहीन | जिसके कोई श्रंग न हो । विकलांग | ऐबीज - एक्सेल्सा - [ ले० abies-excelsa, D. C. ] पौधा विशेष । एबीज- ड्युमोसा - [ ले० abies-dumosa, London.] चांगथसी धूप- नेपा० । टाँगसिंग-भू० । दु प० । ऐबीज - बाल सेमीया - [ ले • abies-balsamea] पौधा विशेष । ऐबीज- वेब्बियना - [ ले० abies-webbiana, Lindl.] तालीशपत्र । ऐबीज-साइबिरिका - [ ले० abies-sibirica ] पौधा विशेष । ऐबीज- स्मिथिएना - [ ले० Forbes.] राव- हिं० । bies-smithiana, रेवड़ी, बनलुदर - पं०, हिमा० । तोस- (रावी) । रावरौ ( सतलज ) । कचल - काश० । वेश - श्रक्र० । सेशिंग भू० । श्रंo abietis oil.] तैल विशेष | ऐब्युटिलन - [ ले० abutilan ] दे० " श्रब्युटिलन" | ऐस- प्रीकेटोरियस - [ ले abrus precatorius, Linn.] घुघुची । दे० " श्रब्रस - प्रीकेटोरियस" । ऐब्रोमा ऑगष्टा - [ ले• abroma - augusta, Linn.] उलटकम्बल । ऐसार्बोफेशन्ट-[ श्रं० absorbe-facient ] शोषण करनेवाला | ऐबसा चैन्ट - [ श्रं० absorbant ] अभिशोषक | |ऐसार्बेट - काटन - यूल - [ ० absorbunt-cotton-wool ] श्रभिशोषक तूल । ऐब्स्टैक्टस–[अं॰ abstracts ] शुष्क रसक्रिया । सूखा सत । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐब्सिन्थ १८२४ ऐरावती ऐब्सिन्थ-[अं० a bsinth ] [यू० एपसिन्थियून ] ऐम्पेलोसिक्योस-स्कैण्डेंस-[ ले. ampelosiअफ़सन्तीन । ___cyas-scandns ] पौधा विशेष । ऐसिन्थयम-ले० absinthium] असन्तीन । ऐम्ब्रियोलाजी-अं०] उत्पत्ति सम्बन्धी शास्त्र । गर्भ (Worm-wood.) विज्ञान । दे. "गर्भ"। ऐब्सिन्थीन-[अं॰ absinthin ] अनसन्तीन से ऐर-अ.] (१) कंधे के सिरे । (२) कान के प्राप्त होने वाला एक प्रकार का स्फटिकीय सत्व । भीतर का उभार । (३) पीठ की रग का . दे. "असन्तीन" । । उभार । (४) पलक । पपोटा । (५) कोषा। ऐब्सिन्थोल-[अंo absinthol .] असन्तीन (६) पुतली। द्वारा प्राप्त एक प्रकार के अस्थिर तैल का सान्द्र- | ऐर-[अ०] [बहु० उयूर वा आयुर] पुरुषजननेन्द्रिय भाग । दे० "असन्तीन"। शिश्न । ऐब्सोल्यूट-[अं० absolute ] शुद्ध । ऐरनमूल-[बम्ब० ] अरनी । अगेथ । ऐब्सोल्यूट-एल्कोहल- अं. absolute al- | ऐराकी-संज्ञा पुं० दे० "एराकी"। cohol ] विशुद्धासव । जलशून्य मद्य । दे० | ऐरालू-संज्ञा पुं॰ [सं० इरा-जल+भालु ] एक प्रकार "मदिरा"। की पहाड़ी ककड़ी जो तरबूज की तरह की होती ऐभी संज्ञा स्त्री० [सं. स्त्री०] बड़ोतरोई । हस्तिघोष _है । यह कुमायूँ से सिकिम तक होती है। लता । रा० नि.व०५। ऐरावण-संज्ञा पुं॰ [सं० ऐरावत ] ऐरावत । ऐमन-अ.] दक्षिण ओर। दाहिनी तरफ़ । ऐरावत-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (1) लकुच वृक्ष । ऐमरन्थस-ले० amaranthus] दे॰ “अमारेण्ट (न्थ)स"। बड़हर । (२) नारंगी । नागरंग । मे० तचतुष्क। ऐमल-अमीन-[अं० amalamin ] एक प्रकार रा० नि० व० ११ । प० मु० । (३) क्षुद्र द्वीपांका क्षारोद जो मत्स्य-यकृत्तल द्वारा प्राप्त तर खजूर। होता है । दे० "काड-मछली"। संज्ञा पुं॰ [सं० क्ली० ] (1) एलाकरवीर । ऐमाइल-अं० amyl ] दे॰ “एमाइल" । रत्ना० । (२) ऐरावत फल । ऐमाइलम्-[ ले० amylum ] दे॰ “एमाइलम्" । गुण-यह खट्टा, रक-पित्त कारक और दाँतों ऐमिग्डोफेनीन-[अं० amigdophenin ] दे | को गुठलानेवाला है । सु० सू० ४६ अ०। 'एमिग्डोफेनीन"। | ऐरावतक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (1) हाथी. ऐमिटीसांकिफोलिया-ले०emitisonchifolia]] सुडी । हस्तिशुडी । च० चि० ३ ०। (२) सौदी। मोदी। नारंगी । नागरंग । वै० निघ। ऐमीटीन-[अं॰ emetin] एमीटीन हाइडोक्लोराइड । | ऐरावतपदी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (१) काकदे. "इपीकेकाना"। जंघा । मसी । (२) मालकाँगनी । महा ऐमोनिएकम्-[ ले० ammoniacum ] दे० | ज्योतिष्मती। "अमोनिएकम्"। ऐरावती-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (१) एक प्रकार ऐमोनिएटेड-[अं० ammoniated ] अमोनिया का पाषाणभेद । रा०नि०व०५। मिश्रित । अमोनित । नोट-इसकी पत्ती बड़ ( बरगद ) की ऐमोनियम्(या) ले० ammonium(ia)] दे. पत्ती की तरह होती है। फाल्गुन के महीने में "अमोनिया"। इसकी जड़ में से रक्त वर्ण का एक डंठल निकलता ऐम्-[अ०] स्त्री का अविवाहिता रहना । है, उसी के सिर पर गुच्छों में श्वेत किंचित् ऐम्पेलाप्सिस-किन्कीफोलिया-[ले०ampelopsis लालिमा लिये पुष्प आते हैं, जो देखने में बहुत quinquefolia] अमेरिकन श्रायवी (Ame- सुन्दर मालूम पड़ते हैं। अधिकांश में यह हिमाrican ivy.) लय के पर्वतों में पाई जाती है। इसे वटपत्री भी Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐरावतिक १६२५ कहते हैं । वटपत्रो का पौधा । (२) नारंगी का powder of chalk] सुरभित खटिका पेड़ । भा। चूर्ण । गुण-यह रस तथा विपाक में खट्टी, गरम, ऐरोमेटिक-पाउडर-आफ चाक विथ ओपियम्-अं० सुगंधित और वात, खाँसो तथा श्वास रोग को aromatic powder of chalk with नष्ट करती है। वै० निघः । (३) विद्युत् । opium ] अहिफेनाक्न सुरभित खटिका चूर्ण । बिजली। । दे. "पोस्ता"। ऐरावतिक-संज्ञा पु० [सं० पु. ] नारङ्गी । नागरंगा ऐरोमेटिक-शूगर्ज[अं० aromatic-sugars ] रा०नि०व०। सुवासित शर्करा । दे० "ईलीयो सैकरा"। ऐरिण-संज्ञा पु० [सं. क्ली.]() सैंधवलवण। ऐरोमेटिक-सिरप-[अं. aromatic-syrup] ___सेंधानमक । (२) पांशुलवण | रा०नि०व०। सुगंधित शर्बत। ऐरीका-अं० areca] दे. "एरीका"। ऐरोमेटिक-स्पिरिट आफ एमोनिया-[अं॰ aroऐ रुल्कतिफ-[अ.] अंसप्राचीरक (Spine of | ____matic-spirit of ammonia] सुर_Scapula) मित अमोनिया सुरा । दे. "अमोनियाई कार्बोऐरेकिक-एसिड-[अंo arachic-acid ] भूचण नास"। काम्ल । तेज़ाब मूंगफली ।। ऐरोमेटिक-सिरप आफ कैस्कारा-[अं॰ aroma. ऐरेकिस-ऑलियम्-[ ले. arachis-oleum ] | tic-syrup of cascara ] gaifea मूंगफली का तेजाब। कैस्कारा शर्बत । दे. “कैस्कारा-सैगरेडा"। ऐरेकिस-हाइपोजिया-[ ले. arachis-hypo- ऐरोमेटिक्स-[अं॰ aromatics] सुरभित औषध । __gaea, Linn. ] मूंगफली । भूचणक। सुगंधद्रव्य । दे. "कार्मिनेटिज़"। ऐरेक्नी-कार्डिफोलिया-ले. arachne-cordi- ऐरोस्ट-[अं० arrow-root ] अरारूट | तीखुर । folia ] एक पौधा जो बंगाल में होता है। ऐरोल-[अं॰ airol ] दे. "विज़्मथ" । पशुओं के लिये यह विष है। ऐH-संज्ञा पुं॰ [सं० क्री०] अञ्जन। सुर्मा । काजल । ऐरेबिकगम-[अं. arabic-gum ] अरबदेश के ___ बबूल का गोंद । समग़ अरबी। वि० [सं० वि० ] क्षतपूरक । व्रण को सुखाने ऐरेबीन-[अंo arabin ] वह गोंद-जो जल में घुल योग्य। जाय । जैसे-बबूल का गोंद । अर्बीन। | ऐर्वारु-संज्ञा पु० [सं० पु.] एक प्रकार की ककड़ी। एरय-सज्ञा पु• [सं०जी०] (1) मद्य। शराब | मद० व० ७ । च०६० प्रदर चि० । दे०"ऐर्वारु"वा सुरा । वै• निघः । (२) एलवालुक । अम। “ककड़ी"। ऐरेलिया-स्युडो-गिनसेंग-ले. aralia-pseudo ऐल-संज्ञा पु॰ [देश॰] एक प्रकार की कँटीली लता, ginseng, Benth.] एक पौधा । जि.सकी पत्तियाँ प्रायः एक फुट लम्बी होती है। ऐरो-पाइजन-साउथअमेरिकन-[ अं. arrow- यह देहरादून, रुहेलखण्ड, अवध और गोरखपुर poison,south american] युरारी । दे० की नम ज़मीन में पाई जाती है। यह प्रायः खेतों "क्युरेरा Curara"। श्रादि के चारों ओर बाढ़ लगाने के काम में आता ऐरोमा-[अं• aroma ] सुगंधि । है। कहीं-कहीं इसकी पत्तियाँ चमड़ा सिझाने के ऐरोमेटिक-[अं. aromatic ] सुरभित । सुगं- काम में भी आती हैं। धित । अतिर-१०। ख्रश्बू-का । पर्या-अलई । ऊरु । अइल । . ऐरोमेटिक-पाउडर-अं० aromatic-powder] ऐलकोहल(-कुहा)-[सं० कुहल ] दे॰ 'एलकोहल" । सुरभित चूर्ण । दे. "दारचीनी"। ऐल-चेड्डि-[ ता०] इलायची । एला । ऐरोमेटिक पाउडर-आफ चाक-Searomatic. ऐलब-संज्ञा पु०सं० .] शोर । कोलाहल । ११सा Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐलबा (वा) लुक १८२६. ऐलबा (वा) लुक - संज्ञा पुं० [सं०ली० ] एलबालुक । श० २० । ऐलाइल- ट्रिब्रोमाइड - [c allyl-tribromide] एक डाक्टरी औषध | ऐलाष्टर - [ सेलखड़ी । ० alabaster ] संगजराहत । ऐलिक्सिया - स्टिलेटा - [ ले० mlyxia stellata, Rom. & Sch. ] एक प्रकार का पौधा । ऐलिसिकार्पस - लॉङ्गिफोलियस - [ ले० alysioar pus-longifolius, W. & A. ] शिम्बी वर्ग का एक पौधा, जिसकी जड़ मुलेठी की प्रतिनिधि है । ऐलिसिकार्पस-वैजिनेलिस-[ले० alysicarpusvaginalis, D. C. ] नागबला । ऐलीगर - [ ० alegar ] यवशुक्र । जौ का सिरका | ऐलीपीन - [ श्रंo alypin ] दे० "एलीपीन " | ऐलेट (न्थस एक्सेलसा - [ ले० sailant (b ) us excelsa, Roxb. ] महानिम्ब । महारुख | ऐलेण्ट(न्थ)स ग्लैण्ड्युलोसा- [ ले० ailant (ii) us glandulosa, Desf. ] पौधा विशेष । ऐलेण्टस- मालाबैरिका - [ श्रं० ailantus-mal; harica, D. C. ] गुग्गुलधूप - ( बम्ब० ) । महिपाल - (मद०) । ऐलेटिक एसिड - [ श्रं० ailantic acid ] महानिम्बाम्ल | ऐलेण्टोल–[ श्रं० ailantol ] रासन (Elecampane ) का पकाया हुआ एक प्रकार का अर्क जो 7 बूँद की मात्रा में राजयक्ष्मा में उपयोगी सिद्ध होता है । ऐलेय (क) - संज्ञा पुं० [सं० नी० ] ( १ ) नलुका | शाक । ( २ ) एलबालुक । श्रम० । “ऐलेय विश्वधान्यकम्" । सि० यो० । च० द० रक्त ऐल्केन्ना टिंक्टोरिया कल्क द्रव्य - दारचीनी, श्वेत चन्दन, सुगंधवाला, धूपसरल, कुमुद, निलोफर, मेदा, महामेदा, मुलेठी, मुनक्का, वंसलोचन, सौंफ, काकोली, क्षीरकाकोली, जीवक, ऋषभक, कस्तूरी, बनतुलसी और कपूर प्रत्येक अर्ध अर्ध पल प्रमाण लेकर जल में पीसकर कल्क बनाएँ । पुनः श्रग्निसंस्कार करें । सिद्ध हो जाने पर निम्न रोगों में प्रयुक्त करें । गुरण तथा उपयोग - शिरोरोग और नेत्र रोगों में नस्य, श्रभ्यङ्ग, उद्वर्तन, आलेपन आदि द्वारा व्यवहार करना चाहिये एवं कान में डालना चाहिए। इसके व्यवहार से शिरोभ्रमण, कंप, शरीर का दाह, शिर का दाह, नेत्र का प्रयन्त दाह, विसर्प, शिर के घाव, मुखशोष, भ्रम और पित्त जन्य रोगों का नाश होता है । र०र० स० २१ श्र० । ऐले यसर्पि-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] उक्त नाम का एक श्रायुर्वेदीय योग । निर्माण-विधि - एलवालुक नामक फल का स्वरस और उसके समान गोदुग्ध तथा चन्दन, मुलेठी, दाख, महुए का पुष्प, वंसलोचन और मिश्री इनके कल्क से घृत सिद्ध करें । पि० चि० । वासाखण्ड कुष्माण्ड । ऐलेयक-तैल-संज्ञा पु ं० [सं० क्ली० ] उक्त नाम का एक योग जिसमें एलबालुक ही प्रधान द्रव्य है । निर्माण-विधि - एलवा लुक स्वरस १ चाढक, कुमारी स्वरस १ श्राढक, श्रामले का रस २ प्रस्थ, शतावरी का स्वरस २ प्रस्थ, गो दुग्ध १ द्रोण, तिल तैल १ ढक | गुण-प्रयोग - इसके उपयोग से पित्तजन्य विकार, वात और पित्त मिले हुये रोग, शिरोभ्रम और कंप का नाश होता है । २०२०स० २१ श्र० । ऐल्कलाइड - [ अं० alkaloid ] क्षारोद | ऐल्कलाइन - [ श्रं० alkaline ] जारी | ऐल्कलाई–[ श्रं० alkali ] [ श्रु० अल्कलिय ] [ बहु० - इस, - ईज़ ] तार । ऐल्क लिज - [ ० बहु० alkalis ] दे० "ऐल्कलाई” । ऐल्कली - [ ० alkali ] दे० "ऐल्कलाई " । ऐल्कलीज़ - [ श्रं० बहु० alkalis ] दे० "ऐल्कलाई”। ऐल्का (के) लाइन डेण्टिफ्राइसेज-[श्रं०alkaline dentifrices] क्षारीय दंत- मञ्जन । ऐल्कुहाल - [ श्रं० alcohol ] दे० "एलकोहल" । ऐल्केन्ना - टिंकटोरिया - [ ले० alkanna-tinetoria ] रजनजोत । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उश्शज। ऐल्कैकेजी १८२७ ऐसिष्टेसिया कारोमण्डिलिएना ऐल्केकेजी-[अं॰ alkekengi ] [अ० अल्का- | ऐल्ब्यूमिन-[अं० albumen] दे० "अल्ब्यूमेन"। कनज ] काकनज । पपोटन । ऐल्वा-संज्ञा पुं॰ [देश॰] एलुवा । ऐल्कैनेट-[अं० alkanet ] [अ० अहिना] | गल्वालु-संज्ञा पुं० [सं० वी० ] एलवालुक । मद० रतनजोत । व०३। ऐल्कोहल-[अंo alcohol ] दे० "एलकोहल"। ऐल्सोल-[अं॰] दे० "फिटकरी"। ऐल्गा-[अं० alga ] [ बहु० ऐल्गी ] सेवार । ऐव वा)नम्- ता०] मेंहदी । नखरजनी । शैवाल । हिना । वस्मा । ऐल्गनाइड-आयन-[ अं० alginoid iron ] ऐश-संज्ञा पुं० [अ ऐ.श ] पाराम। चैन । भोगएक प्रकार का भूरे रंग का अविलेय चूर्ण, जिसमें विलास। सेवार द्वारा प्राप्त शैवालाम्ल(Alginic acid) वि० [सं० त्रि० ] ईश सम्बन्धी । ईश्वर के साथ लोहे का रासायनिक संयोग हुआ होता विषयक। है । इसे "एल्गिरोन" भी कहते हैं। ऐशकलर्ड-फ्ली-बीन-[अं॰ ash-coloured flea ऐल्गिरोन-[अं॰ algiron ] ऐल्गिनाइड का एक bean ] कलाय भेद । बाकला। नाम । दे. "ऐल्गिनाइड"। | ऐशफ्लोरिबण्ड-[ अं० ash-floribund ] ऐल्टिञ्जिएसीई- ले० ultingiaceae ] ( Liq. uidambarascene ) श्रोषधियों का एक ऐशमल-संज्ञा पु० [सं० क्री.] लांगलीमूल । कलिवर्ग। शिलारसवर्ग। हारी की जड़। ऐल्टिञ्जिया-एक्सेल्सा-[ ले० altiogia-exce | ऐशान-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] ईशान कोण की हवा । lsa,Noronha.] शिलारस । सिल्हक । गुण-यह शीतल और चरपरी है । भा०। ऐल्डिकाय-[ते०] कडकायपु । | ऐशानी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ईशानकोण । ऐल्डोफार्म-अं० aldoform ] दे."फार्मेलीन"। ऐल्थिया ऑफ गोआ-[ अं० althaea of ऐशू-संज्ञा पु. [ देश०] चौपायों का एक रोग जिसमें उनका मुंह बँध जाता है और वे जुगाली ___goa ] खस्मी भेद । (पागुर) नहीं कर सकते । ऐल्थिया-ऑफिसिनेलिस-ले० althaea-offi- ऐश्वर-वि० सं० वि०](१) प्रभु वा ईश्वर से ___cinalis, Linn. ] गुलखैरु । खत्मी। उत्पन्न । (२) ईश्वर सम्बन्धी। ऐल्थिया-केनाबिना-[ ले० ulthaen-cannab- | ऐषिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (1) पाठा । ina] जंगली भाँग। ___ अंबष्ठा । (२) निशोथ । त्रिवृत् । वै० निधः । ऐल्थिया-कुटेक्स-[ले० althasa frutex] ऐषीक-संज्ञा पु० [सं० क्री० ] (1) अन विशेष। गुड़हल । जपापुष । जासवंदी। (२) एक पर्वत । ऐल्थियारोजिया-ले० althaea rosea,Linn] ऐष्टक-संज्ञा पुं० [सं० क्री० ] ईष्टिका समूह । गुलखैरु । खत्मी। इंटों का ढेर। ऐल्थीई-रैडिक्स-[ ले० althaee-radix ] ऐस- अं० ass ] गर्दभ । खर । गदहा । रीशहे खत्मी । खत्मी की जड़। ऐसर-[ बम्ब० ] ( callicarpa cava ) ऐल्थीन-[अं॰althein ] जौहर खत्मी । खत्मीन। पौधा विशेष। दे. "खत्मी "। | ऐसर-अ.] वाम भाग । बाई ओर । वाम । ऐल्नस- ले. alnus ] दे. "पाल्नस" । ऐसिट- अं० acet ] दे. "एसीट"। ऐल्बर्जीन-[ अं० albergine ] दे॰ "अल- | ऐसिड-[अं० acid ] दे॰ “एसिद्ध" । बर्जीन"। | ऐसिष्टेसिया-कारोमण्डिलिएना-[ . asysta Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसीसैट एनीलाइ डम् १८२८ ऐस्पाइरीन sia-coromandeliana, Nees. ] लवण ऐस्टेरा कैन्था आरिक्युलेटा -[ ले० asteracantha-auriculata, Nees. ] तालमखाना । कोकिलाच । वल्ली । | ऐसी ( से ) ट एनीलाइडम् - [ ले० acetamili• dum ] दे० "एसिड एनील इडम्" । ऐसेप्टोल - [ ० aseptol ] दे० " असेपटोल" ऐसेप्टोलीन—-[ श्रं० septoline ] यह एक अमेरिकन पेटेण्ट श्रोषध है । दे० "जैबोरैंडाई" | ऐस्क्लीपिअस-इंकारनेटा- [ ले० ] ( White ऐस्ट्रिजेंट एनिमेटा -[ ले० astringent enemata ] धारक वस्ति | ऐस्ट्रिजेंट - गार्गल - [ श्रं० astringent-gargle] संग्रहणीय गण्ड | Indian Hemp) पौधा विशेष । ऐस्क्लीप अस-एकिनेटा - [ ले० asclepias-echi | ऐस्ट्रिजेंट - डेंटिफाइसेज -[ श्रं॰ astringent-denata ] उतरन । कण्टकफल । इन्दीवरा । ntifrics ] संग्रहणीय दन्तमंजन कसेला दंत मंजन | ऐस्ट्राकेन्था - [ ० astr.cantha ] तालमखाना कोकिला । ऐस्क्ली पिस-एमेटिका - [ ले० asclepiasasthmatica ] श्रन्तमल । अन्तमूल | जङ्गली पिकवन । 1 ऐस्क्लोपिस डोरेट सिमा - [ लेo asclep asodoratissima ] कुजलता । ऐस्क्लीपिअस-करासेविका -[ ले० asclepiascurassavica ] काकतुण्डो । कुरकी बम्ब० । ऐस्क्लीपिअस- बाल्युबिलिस -[ ले० asclepiasvolubilis ] नकछिकनो । छिविका । ऐस्क्लीपिस - सिरिएका [ले० asclepis-cyriaca ] ( Silk, Weed. ) ] पौधा विशेष । ऐस्क्लोपिस स्युडोसारसा - ले० asclepiaspseudos rsa ] अनन्तमूल । उपलसरी सारिवा | ऐस्ट्रिजेंट - [लेoastringent] (१) कषैला । कत्राय । ( २ ) धारक औषध । संकोचक | पेड़ । 1 ऐस्क्लीपिअस-जाइटिका -[ ले० asclepias gi- | ऐस्ट्रा गैलस- ट्रिब्युलाइ डीज़ -[ ले astragalusgantica ] श्राक | मदार । श्रर्क । tribuloides, Delite. । श्रोगाई -पं० । ऐ·क्लोपिश्रस जेमिनेटा-[ले० asclepias-gemi- | ऐस्ट्रा गैलस - मल्टिसेप्स - ले astragalus Data ] मेढासिंगी । मेषशृंगो । ऐम्क्लीपिअस- ट्यु बरोसा -[ ले०_asclepias-tuberosa ] ( Pleurisy-root ) पोधा विशेष | multiceps, Wall. ] कण्डेरी, कंडियार, कातरकंद, पीसर, सरमूल- पं० | दनि श्रक्र० । ऐस्ट्रागैलस वाइरस - [ ostragalus-virus, Oliver. ] पौधा विशेष । ऐस्ट्रागैलस सार्को कोला -[ ले० astragalussarcocolla ! गुजर-बम्ब० । गूज़ द फ्रा० । दे० "अरूत" | टपेर - दिनविस - [ ले aster-trinervius, Roxb. ] पौधा विशेष । ऐस्टीरिया टिग्मा-मैक्रो कार्पा - [ ले० "striastigma-maerocarpa Bedd.] वैलनङ्ग( मरा० ) । ऐस्ट्रागैलस [oastragalis ] शिवी वर्ग के पौधों की एक जाति | ऐस्ट्रागैलस-गम्मी फर - ले० astragalusgummifer] पौधा विशेष | गाथ का ऐस्ट्रागैलस-स्ट्रोविलिफेरस -[ ले० : stragalus stroviiiferus, Royle.] कून, कुम-फ्रा० । ऐस्ट्रागैलस- हेमो सस्- लेoastragalus-hamo sus, Linn.] पुतूक । कतीला । तज बादशाही । ऐस्ट्रागै लस हेराटेंसिस - ले० astragalus गाबिन - फ्रा० । हेराती कतीरे heratensis का वृक्ष | कोन | ऐस्पाइरोन - [ ० aspirin ] वेतसोना सैलो Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ऐपाइरोफेन १८२६ सीन (Salicin) का एक योग । वि० दे० " सैलिसिलिक एसिड " । ऐस्पाइरोफेन–[ श्रं॰ agpirophen ] दे० "नोवै - स्पेरीन" । ऐस्पाइरोल - [o aspirol] एक डाक्टरी औषध | ऐस्पिडोस्पर्मीन - [ श्रंo aspidospermine ] को बार्क ( Cucbrachio bark ) द्वारा एक aria जो की मात्रा में हार्दी २५ श्वास और एम्फिसीमा ( फुफ्फुसीयाध्मान) में प्रयुक्त होता है । यह श्रत्यन्त शक्तिशाली औषध है । श्रस्तु बहुत सावधानीपूर्वक इसका उपयोग करना चाहिये | बड़ी मात्रा में यह सष्ट ज्जरत्न प्रभाव करता है । कोकोन के हाइड्री-क्लोराइड का स्वगन्तः सूचोवेधन द्वारा और मुख से भी प्रयोग कराया जा चुका है। इसका एपोमार्फीनवत् श्राशु एवं सबल वामक प्रभाव होता है । ऐस्पिरीन - [ श्रं० aspirine ] दे० "ऐस्पाइरीन" । ऐस्पोडियम् - [ ले० aspidim ] दे० "श्रस्पीडियम्” । ऐस्पेन -[ ले० aspen ] उक्र नाम का एक डाक्टरी श्रौषध । ऐस्पेरागस - [ ० asparagus ] पौधों की एक जाति । ऐस्पेरास आफिसिनेलिस - [ ले० asparagusofficinalis, Linn. ] हल्यून - ० । ऐस्पेरागम एडसेंडेंस - [ ले० asparagus-adscendens, Roxb. ] सफ़ेद मुसली, धोलि मुसली - बम्ब० । शकाकुल- ० । ऐस्पेरागस कामन - [ ० asparagus-com mon] हलियून | ऐहात ऐस्पेरांगस-पञ्जाबेंसिस - [ लेoasparagus-punjabensis ] सेंसरपाल - पं० । ऐसेर गल-फिलिसिनस -[ ले० asparagusfilicinus, Ham.] श्रीपल्ली - पं० । ऐस्पेरागस-ब्रांचिंग-[ श्रं॰ asparagus bran | ching ] शतमूली । शतावर | ऐस्पेरागस बीन - [लेoasparagus-bean]पहाड़ी बोड़ा | ऐस्पेरागस रैसीमोसस - [ ले० asparagusracemosus, Willd.] सतावर । शतमूली । ऐस्पेरागस - लिनियर- लोह्वड - [ ० asparaguslinear-leaved ] श्वेतमुसली । सफेद मुसली । ऐस्प्रेरागस सरमेटोसस - [ ले० "sparagus - sarmentosus, Willd.] बड़ी सतावर | सफेद मुसली । शतावरी । एस्पेरागीन - [ ० asparagin] हलियून का एक सत्व | ऐस्लीनियम - एडिएएम्-नाइग्रम - [ ले० aspleni un-adiantum-nigrum, Linn. ] ( Black Spleen-wort. ) पौधा विशेष ] ऐस्सो नियम्- ट्रिकोमेनीज़ - [ asplenium-tric homanes, Linn.] पौधा विशेष । ऐस्लीनियम् - पैरासाइटिकम् - [ लेoaspleniumparasiticum, Willd.] महापान । कारि-वेलि पान्न - मरवर - मरा० । ऐस्लीनियम फैल्केड - [ ले० aspleniumfalcatum ] पान | नेल-पान- मरवर - मद० । ऐस्सो नियम् रघुडा युरेरिया - ले० asplenium ruta--muraria, Linn.] ( Wall Rue ) पौधा विशेष । ऐस्लीनियम्-सिटेरैक–[लेasplenium-cytera ch] ( S, leen-Wort ) । हशीशतुत्तिहाल | इस्कूलूक्लन्दयून | ऐस्पे।गस-गोनोक्लेडस–[ ले॰, asparagus-go- | ऐस्लीनियम फोलो- पेण्डियम् - [ले० asplenium noc!ados ] शतमूली । शतावर । scolopendrium](Hart's-tongue) इस्कूलूकन्दन । ऐस्मोनियम् - हे मियोनाइटीज -[ ले० asplenium•• hemeonites, Linn.] ( Mule's fern) एक प्रकार का फर्म । ऐहम् -[ श्रु० ] मूर्ख । निर्बुद्धि । हात [ ० ] मांस का सड़ जाना । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐहिक ओकशित ऐहिक-वि० [सं० वि० ] इह लोक सम्बन्धी । इस ____दुनियाँ से पैदा। ऐ(ई)हुकान-[फा०] जर्जर। ऐ ज्ञव-संज्ञा पुं॰ [सं० क्री०] () इतु विकार । गन्ने की बनी हुई चीजें। जैसे; गुड़ आदि। (२) इक्षुमय । जटा० । ऐक्षवी(सुरा)-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] गन्ने के रस की बनी हुई शराब। गुण-शीतल और अत्यन्त मदकारक है। रा०नि० व०१५। (ओ) ओ-संस्कृत वर्णमाला का तेरहवाँ तथा हिंदी वर्णमाला | ओकट्री-[अं० oak-tree ] बलूत का पेड़ । शाहका दसवाँ स्वर वर्ण । इसका उच्चारण-स्थान श्रोष्ठ बलूत का दरख्त । और कंठ है । इसके उदात्त, अनुदात्त, स्वरित तथा | ओक-डायर्स-[ अं० oak-dyer's ] माजूफल । सानुनासिक और अननुनासिक भेद होते हैं। मायाफल। संधि में श्र+3=ो होता है। | अोकण-संज्ञा पु० [सं० पु.] केश कीट । । संज्ञा पुं० सं० पु.] ब्रह्मा । श००। श्रोअन्दुकी-पं०] इन्द्राणी । बीज बंद-सिंधः। ओकरिण-संज्ञा स्त्री० [सं० पु.] (१) केश-कीट । अोअर-[पं०] श्रोलची। __ । उकुण । (२) खटमल । मत्कुण । ओआ-संज्ञा पुं० [हिं०] हाथी पकड़ने का गड्ढा । | ओ(ऊ)कातरियून-[यू.] गाफ़िस । ओआक-सं० अव्यय] (१) वमन करने की आवाज़ । | ओकना-क्रि० अ० [अनु॰ प्रो+हिं० करना ] श्रो-प्रो (२) बगला । बकविशेष।। करना । के करना। ओई-संज्ञा पुं॰ [देश॰] एक पेड़ का नाम । साम- ओकनी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०.] (१) जूं। सुन्दर-बर०, बं०। ___उकुण । श० २०। (२) खटमल । मत्कृण । ओएबीन-[अं०] एक स्फटिकीय ग्ल्यूकोसाइड । दे० | ओक-पति-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] सूर्य वा चन्द्रमा । _____ "ष्ट्रोफैन्थस"। ओक संज्ञा पु. [सं० ०, क्री०] (1) गृह । ओक-पोटेटो-[अं॰ oak-potato] माजूफल । घर । स्थान । निवास की जगह । (२) पाश्रय । मायाफल । | अोकप्लम-[अं॰ oak-plum ] एक प्रकार का -ठिकाना। अम०। (३)पक्षी। संज्ञा स्त्री० ["श्रो-ओ" से अनु०] (१) वमन माजूफल । मायाफल भेद । करने की इच्छा । मतलो । (२) शुद्र । वृषल । ओक-फर्न- अं० oak-fern ] पालीपाडी Poly [अं॰ Oak ] बलूत। _pody (Smooth three branched)। ओक्र-अगारिक-[अं0 0ak-agarik] दे. "अगा ओक-फिग-[अं. oak-fig] एक प्रकार का माजू रिकस-ऐल्बस"। __फल । मायाफलभेद । श्रोक-ए पल-[ अं. oak-apple ] माजूफल । ओक-बार्क-[अं० ०१k-bark] बलूत त्वक् । ओक-मेन्ना-[अं. oak-manna] शीरखिश्तमाया-फल । ओक-श्रोपेन-[अं॰ oak-open ] काला चोकमा ___बलूती। -०। ओकरा-[बं० ] भिण्डी, रामतरोई । ओक-गाल-[अं॰ oak-gall ] मायाफल । माजू. ओकला-ओका-[यू.] इक्लोलुल जबल । ओक-वर्ट-[अं0 oakwort] माजूफल । मायाओकजा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] सोमराजी। फल। बकुची। | ओकशित-[बर० ] बेल । श्रीफल । बिक्व । फल । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओकस्-संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] दे० "श्रोक” । श्रो सात्म्य-संज्ञा पुं० [सं० नी० ] श्राहार विहार का सुखकारी अभ्यास । च० सू० ७ श्र० । भोजन करनेवाला प्राणी अपने आधीन भोजन करके उसे यथोथित रीतिपर पचाये, तो उसे "श्रोक साम्य" कहते हैं । च० वि० १ श्र० । श्रोक- स्पैंगल - [ श्रंo oak - spangle ] प्रकार का माजूफल । ओकाई-संज्ञा स्त्री० [हिं० श्रोकना ] ( १ ) नै । ( २ ) वमन करने की इच्छा । उदेश | मचली | १८३१ एक वमन । विवभिषा | कानु कट्ट - [ ते० ] पतङ्ग की लकड़ी । बक्रम | ओकारी-संज्ञा स्त्री० हिं० श्रोक = वमन + कारी ] वमनकारी । पित्तमारी । पित्तपापड़ा । पित्तबेल । तिनपानी । ओ (ऊ) क़ास - [ यू०] एक बूटी की जड़, जिससे कपड़ा धोया जाता है। बुक्रानस । किवस् - वि० [सं० त्रि० ] समवेत । एकत्र । मिला हुआ । ओखराड़ी ओक्रो-मस्क -[ श्रं० okro-musk ] मुश्कदाना । मुष्कभिण्डी । कालाकस्तूरी । लता कस्तूरी । ओक्सवानी - संज्ञा स्त्री० [?] लवणान शुक्र | नमक मिला हुश्रा सिरका | ओक्सुमाली - [ यू०] सिकंजबीन अस्ली । खद संज्ञा पुं० दे० " श्रोषध" । ओखर - संज्ञा पु ं० [सं० पु ं०] शोरा । शोरक । रा०नि० । श्रखरी - संज्ञा स्त्री० दे० " ओखली" । ओखराड़ी -संज्ञा स्त्री० [देश०] एक पौधा जो १ फुट ३ फुट तक ऊँचा छत्ताकार होता है और जिसमें बहुत बीज होते हैं । इसमें से बैंजनी नीला रंग निकाला जाता है । यह सूखी तलाइयों की तलहटी में और नदी के कूलों पर भारतवर्ष के उष्ण प्रदेशों में सर्वत्र होती है। पर्या० श्रखराडी, भिस्सटा, तडागमृत्तिको द्भवा-सं० । श्रखराडी - हिं० श्रोषड बं० । श्रीखराज्य - मरा०, गु० । गन्धिबूटी - बम्ब०, पं० । सिरुसरीपदी - मरा०, ता० । पोपरंग, कोब्रुक, गंधीबूटी - पं०, सिं० । Moilu Gohirta, Thuni. - ले० । (N. O. Ficoideoe.) उत्पत्ति-स्थान- यह हिन्दुस्तान के उष्ण प्रदेशों में सर्वत्र होती है । गुणधर्म तथा प्रयोग - इसकी जड़ की राख बच्चों की श्लेष्म व्याधियों में प्रयुक्त होती है । इसके पत्तों के काढ़े से धोने से क्षत शुद्ध होता है । इसके बीजों की फंकी देने से दस्त लगता है । इसकी और करौंदे की जड़ कूट-पीस कर टिकिया बनाकर बाँधने से छाला पड़ जाता है । इसके सूखे हुये फल, पत्ते, छाल, जड़ और फूल अर्थात् पञ्चांग को कथित कर, उस पर थोड़ी सराई छिड़क कर पिलाने से रक्त की शुद्धि होती है । इसका पञ्चाङ्ग जलाकर, उस राख में काली मिर्च का चूर्ण मिलाकर तेल में डालकर लगाने से सिरके पुराने दत अच्छे हो जाते हैं। जिसका पेशाब रुक गया हो; उसे काली मिर्च के साथ इसे घोट कर पिलाने से मूत्र खुलकर श्राने लगता है । ( ० ० ) । इसे पीसकर सिर पर लगाने से शिरकी खुजली, दाद, शोष और व्रण दूर हो जाते हैं। कण्डू और श्रो की संज्ञा स्त्री० दे० " श्रोकाई" । ओ (ऊ) क़ीमन - [ यू०] बाबरी । बादरूज । जंगली तुलसी । मूस - [ यू०] बादरूज तुल्य एक अप्रसिद्ध बूटी । श्रोक़ीलस - [ यू०] रामतुलसी । कुल - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] गोधूमकृत तप्तापक खाद्य विशेष । श्रपक्क ( कच्चा ) गेहूँ । गुणभारी, वृष्य, मीठा, बलकारक, वातस्क्रनाशक, चिकना, हृद्य और मदवर्द्धक है । रा० नि० । कोदनी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) केश कीट | जूँ । यूका । (२) मत्कुण | खटमल । कोदशानी -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] प्राचीर । दीवार । श्रोक्कणी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (१) उकुण । जूँ । श० २० । ( २ ) मत्कुण । खटमल । श्रोक्रा -[ ? ] भिंडो । श्रक्रो - [ ० okro ] भिण्डी । श्रक्रोकार्पस-लॉङ्गिफोलियस-[ ochrocarpuslongifolius] पुन्नाग | ताम्रनागकेशर (मरा० ) Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोखराणी १८३२ ओज चर्म रोगों में इसका प्रलेप करते हैं। इं० डू० ई० १०८ पृ.) ___इसका रस दुर्बल बालकों को पिलाया जाता है। वैट के अनुसार पञ्जाब और सिंध में यह अतिसार में प्रयोगित होती है। (फा• इं० २ भ० पृ० १०४) ओखराणी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० [ उदूखल । ___ोखरी । अोखल-संज्ञा पु० [सं० ऊपर ] (1) परती भूमि । (२) अोखली । ओखली-संज्ञा स्त्री० [सं० उलूखल] हावन । कूड़ी। ओखा-वि० [हिं०] (१) शुष्क । सूखा । (२) ___ दूषित । खोटा । (३)विरल । जो गाढ़ा न हो। ओगण-वि० [सं० त्रि०] अवगण्य । नफ़रत किया हुश्रा। ओगल-संज्ञा पु. [ देश.] परती भूमि । श्रोगलदान-संज्ञा पुं॰ [देश॰] निष्ठीवन सराव । वह पात्र जिसमें थूका जाता है। उगलदान। श्रोगाई-पं०] एक ओषधि । ( A stragalus____ Tribuloidis ) ओगीयस-वि० [सं० वि० ] उग्र । अत्यन्त तेजस्वी । ओघ-संज्ञा पु० [सं० पु.] (1) नदी। (२) नदी की वेग । बाढ़ । (३) समूह । ढेर। (४) उपदेश । (५) द्रुत नृत्य । फुर्तीली नाच । (६) परम्परा । पुरानी चाल । ओघवत्-वि० [सं० त्रि०] जलवेगादि युक्र। तेजी से बहनेवाला। ओङ्ब र० ] नारियल । नारिकेल। . ओङ्-सी- बर० ] नारियल का तेल। नारिकेल | तैल। श्रोज(स)-संज्ञा पु० [सं० क्री०वि० श्रोजस्वी,प्रोजित, श्रोजिष्ठ] (1) शरीर के भीतरके रसोंका सारभाग। रस से लेकर वीर्य पर्यन्त प्रत्येक धातुओं का जो परम तेज है, उसी को "प्रोज" कहते हैं । वह हृदय में रहता हुआ भी संपूर्ण शरीर में व्याप्त है । वही जीवन का प्रधान कारण है। पर्याय-तेज । बल । प्रताप । लक्षण-स्निग्ध, सोमात्मक (शीतवीर्य), कुछ कुछ पीला तथा लाल होता है । इसके नष्ट होने पर जीवन लीला समाप्त हो जाती है और जिसमें यह रहता है, वही सजीव रहता है। इससे ही शरीर सम्बन्धी प्रत्येक भाव निष्पन्न होते हैं । वा० सू० ११ अ० । इसकी वृद्धि से ही देह की तुष्ठि पुष्टि तथा वल का उदय होता है । वा० सू० ११०।___ "वैद्यक निघण्टु" में लिखा है-यह शरीर में स्थितत्व, स्निग्धता, शीतलता, स्थिरता, शुक्र वर्णता और कफात्मकता उत्पन्न करता है और शरीर को बलवान और पुष्ट करता है। "सुश्रुत" में लिखा है-रस; रक्क, मांस, मेद, अस्थि, मजा और शुक्र ये सात धातु हैं-इन सातों के सार यानी तेज को "प्रोज" कहते हैं; उसे ही शास्त्र के सिद्धान्त से "बल" कहते हैं।" "श्रोज" सोमात्मक चिकना, सफेद, शीतल, स्थिर और सर यानी फैलनेवाला, रसादिधातुओंसे पृथक्, कोमल, प्रशस्त और प्राणों का उत्तम प्राधार है । ___ "सुत" में और भी लिखा है –ोज रूपी बल से ही मांस का संचय और स्थिरता होती है । उसी से सब चेष्टाओं में स्वच्छन्दता, स्वर, वर्ण, प्रसन्नता तथा बाहरी और भीतरी इंद्रियों में और मन में अपने-अपने काम की उत्कण्ठा होती है। यानी प्रोज-बल की शक्ति से ही आँख देखने का, कान सुनने का, जीभ चखनेका और गुदा मलत्याग करने का काम करता है। इसी तरह शेष और इन्द्रियाँ भी अपने-अपने काम करती हैं। शरीर के प्रत्येक अवयव में यह "प्रोज" व्याप्त है। इसके व्याप्त न होने से मनुष्यों के अङ्ग-प्रत्यङ्ग जर्जरीभूत हो जाते हैं। ___ "चरक" के अनुसार यह शरीर में पाठ विन्दु प्रमाण होता है और कुछ-कुछ लाल तथा पीला होता है और अग्नि सोमात्मक रूप से यह दो प्रकार का वर्णन किया गया है। 'गुण-इसमें प्रधान १० गुण हैं-भारी, शीतल, मृदु, श्लपण, वहुल, मधुर, स्थिर, प्रसन्न, पिच्छिल और स्निग्ध । यथा-"गुरु शीतंमृदु श्लक्षणं बहुलं मधुरं स्थिरम् । प्रसन्नं पिच्छलं स्निग्धं मोजो दश गुणं स्मृतम् ॥ २६ ॥च. चि. १२ प्र०। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३३ ओजोन "चरक" में पुनः लिखा है-हृदय में जो शब्द में वह भाव कदापि निहित नहीं है । हरिद्वार किसी दर पीले रंग का शुद्ध रुधिर-खून दीखता महाविद्यालय में भाषण देते हुए नारायण स्वामी है, उसो को भोज कहते हैं। उसके नाश होने ने अोज शब्द को पूर्ण व्याख्या करते हुए यह से शरीर का भी नाश हो जाता है। सिद्ध किया था कि किसी भी अन्य भाषा के - ओजक्षय के कारण-चोट लगनेसे, क्षीणता | ग्रंथों में "प्रोज" शब्द के तुलनात्मक शब्द नहीं से, क्रोध से, शोक से, ध्यान (चिंता) से परिश्रम मिलते। और सुधा से ओज का नाश होता है । क्षीण हुआ ओजम्-[ तुर० ] अंगूर । दाख । श्रोन मनुष्यों की धातु प्रभृति को नष्ट करता है। ओजस्कर-वि० [सं०नि०]ोज नामक धातु का ओजक्षय के लक्षण-पोज क्षय होने से | वढ़ानेवाला । श्रोजवर्द्धक । कुव्वत हैवानी को प्राणी सदैव भयभीत रहता है, शरीर कमज़ोर हो बढ़ानेवाला। जाता है, हर समय चिन्ता बनी रहती है, सारी ओजस्वत्-वि० [सं० त्रि०] (१) तेजस्वी । (२) इन्द्रियाँ व्यथित रहती हैं, शरीर कांतिहीन, बलवान् । रूखा और क्षीण होजाता है। ओजाक-[फा० ] देग़दान । चूल्हा । "सुश्रुत' में लिखा है-रोज की विकृति के ओजाग़-[अ० ] देग़दान । चूल्हा । तीन रूप होते हैं-(१) पतन, (२) बिगड़ ओजायित-संज्ञा पुं॰ [सं० की.] आतप । गर्मी । जाना और (३) क्षय होजाना। ओजित-वि० [सं० त्रि०] दे॰ "प्रोजस्वत्"। जब भोज का पतन होता है, तब जोड़ों में ओजिष्ठ-वि० [सं० त्रि०] तेजस्वी । तेजधारी । विश्लेष, अङ्गों का थक जाना, दोषों का च्यवन | बलवान् । प्रभावशाली। और क्रियाओं का अवरोध, ये लक्षण होते हैं। ओजस्विनी-संज्ञा स्त्री० [सं० ] एक आयुर्वेदीय जब भोज बिगड़ जाता है, तब शरीर का रुकना, भारी होना, वायु की सूजन, वर्ण यानी रंग का ओजस्वी-वि० [सं० त्रि०] दे॰ “ोजिष्ठ"। परिवर्तन, ग्लानि, तन्द्रा और निद्रा, ये लक्षण ओजीतास-[२०] अरवी । घुइयाँ । होते हैं। जब भोज का क्षय होता है, तब मूर्छा, ओजीनिया-डैल्बजिआइडीज़-[ ले० ougeiniaमांस, क्षय, मोह, प्रलाप और मृत्यु.-ये लक्षण dalbergioides ] तिनिश । तिरिच्छ । होते हैं। ओजीयस्-वि० [सं० त्रि०] तेजस्की । बलवान् । प्रोजबर्द्धक उपाय-जो पदार्थ हृदय को प्रिय | प्रभावशाली। लगे तथा प्रोज को बढ़ानेवाला हो एवं धर्म | ओजोकेरीन-अं० Ozokerine ] पार्थिव मधूविदों के स्रोतों को प्रसन्न करनेवाला हो, यत्न | च्छिष्ठ । शम्ल अर्ज़ । मोम ज़मीन । पूर्वक उसका ही सेवन करना चाहिये। | ओजोदा-वि० [सं० त्रि०] अोज धातु प्रदान करने अन्य छः उपाय-(१) किसी प्रकार की वाला। भी हिंसा न करना, (२) वीर्य की रक्षा, (३) ओजोन-संज्ञा पुं॰ [अं॰ ozone] कुछ घना किया विद्याविलास, (४) इन्द्रियों को स्वाधीन रखना, हुआ अम्लजन तत्व । यह वर्णरहित और गन्ध (५) तत्वदर्शी होना और (६) ब्रह्मचर्य का | में निराले ढङ्ग का होता है। इसका घनत्व अम्लसदा पालन करना, इन्हें ही आयुर्वेदविद मुख्य जन से 3 गुना होता है । इसमें गंध दूर करने माने हैं । च० सू० ५ अ०। का विशेष गुण है। गर्मी पाने से यह साधारण (२) प्रकाश । उजाला । (३) आतप।। अम्लजन के रूप में परिणत हो जाता है। वायु नोट-आजकल के कुछ विद्वान् इस शब्द में इसका बहुत थोड़ा अंश रहता है। नगरों की की तुलना में "विटामिन" शब्द का जो अँगरेज़ी अपेक्षा गावों की वायु में यह अधिक रहता है। भाषा का शब्द है व्यवहार करने लगे हैं। किंतु उक्त अधिक शीतल करने से यह नील के पानी के १२ फा० Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोजोन पेपर १९३४ ओट समान बहने लगता है और बड़े जोर से भड़क | (२) उत्कृष्ठ अोझड़ी वह है,जो जवान बकरी उठता है। इसका अंश अोषजन में भी पाया वा जवान भेड़ की हो। हकीमों की परिभाषा में जाता है । यह जल में बहुत कम मिलता है। केवल श्रोझड़ी कहने से बकरी और भेड़ की जल को निष्फल बनाने में इसे अधिक व्यवहार अोझड़ी अभिप्रेत होती है। करते हैं । इसकी परीक्षा १७८५ ई० में वानमरम __ प्रकृति-गरमतर है और गोलानी इसे सर्द (Van-marum ) महोदय ने की थी। एवं खुश्क बतलाते हैं। यह जितनी अधिक ओजोन-पेपर-संज्ञा पु० [अं० 0zono-paper ] चिकनी होती है, उतनी ही गरमी की ओर मायल होती है। एक प्रकार का काग़ज़, जिसके द्वारा यह परीक्षा हो सकती है कि वायु में "ओज़ोन" है वा नहीं। गुण-धर्म-मांसको अपेक्षा इससे ख़न कम बनता इसका व्यवहार औषध में भी होता है। दे. है और जो रन बनता भी है,वह उत्तम नहीं होता। "पोटेशियाई नाइटास"। इससे कैमूस (Chyme) खराब बनता है । फेफड़े ओजोन-बकस-संज्ञा पु० [अं० 02one-box] के गोश्त से इसमें पोषणांश अधिक है। इसके संपुट विशेष । एक प्रकार का संदूक । इसमें खाने से कफ बहुत पैदा होता है । यह दीर्घपाकी है। इससे सांद्र दोष बनता है। यह मूर्खता. मृगी, प्रोज़ोन पेपर को रखकर वायु में "प्रोज़ोन" रहने व न रहने की परीक्षा की जाती है। इसकी सकता (Apoplexy) तथा आँखों में तारीकी बनावट अनोखी होतो है। वायु भिन्न प्रकाशादि (धुन्ध) पैदा करती है । दृष्टिनिर्बल हो जाता है। द्रव्य इसमें प्रवेश नहीं कर सकते। इसका शोधन इस प्रकार करें कि इसे खूब गलाओजोनाइज्ड-एयर-संज्ञा पु.[अं. 0zonized. कर पकाएँ और गरम मसाले एवं सिरके के साथ air ] श्रीज़ोनित वायु । ओज़ोन । दे. "हाइड्रो. खाएँ । गीलानी लिखते हैं कि जो चीज़ इसको जीनियाई पर आक्साइडाई लाइकर" या शीघ्र पचाती एवं सूक्ष्म बना देती है, वह पुराना "प्राक्सिजन"। सिरका, सुदाब और करफ़्स (अजमोद) हैं। ओजोनिक-ईथर-संज्ञा पु० [अं० 0zonic-ae- अस्तु, उसमें इन्हें डालकर पकाएँ। जिसकी यह ther ] यह एक अधिक स्थायी यौगिक है, जो अभिलाषा हो, कि पतला एवं जलीय रक्त उत्पन्न हो, पानी के साथ मिल जाता है। दे. "हाइड्रोजिनि उसे चाहिए कि अोझडी खाया करें और जिसे याई पर पाक्साइडाई लाइकर"। भोजनोपरांत धूम्रोद्गार आता हो, उसे भी इसको ओज्मा-संज्ञा स्त्री० [ सं० पु. ] (१) शक्ति । व्यवहार करना चाहिये। श्रोझड़ी पेट में अधिक ताकत । (२) वेग । तेज़ चाल। ठहरती है। इसलिए जो लोग इसे खाएँ, उन्हें ओझ-संज्ञा पुं० [सं० उदर, हिं० श्रोझर ] (१) चाहिए कि जवारिशात प्रयोग में लाते रहें। __ पेट की थैली । पेट (२)अाँत । अन्त्र । अँतड़ी। (ख० अ०)। ओझड़ी-संज्ञा स्त्री० [हिं०] पशुओं का एक विशेष C M ओझर-संज्ञा पु० [सं० उदर, पु. हिं० श्रोदर। . अंग, जो उनमें भामाशय का स्थानापन है। श्रोझर ] [स्त्री० अल्पा० श्रोझरी ] (१) पेट । पर्या-शकंबः, हज्जार-फ्रा० । कर्श, (२) उदर के भीतर की वह थैली, जिसमें किर्स-१०। हज़ारखाना।। खाए हुए पदार्थ भरे रहते हैं। पचौनी। कर्श, टिप्पणी-(१) शकंबः सहस्रकोषयुक्त शकंबः (अ.)। हज़ारखानः (फ्रा०)। समूह को श्रोमड़ी कहते हैं। अमीरुल्लुगात के नोट-पागुर करनेवाले जानवरों में यह प्रामाअनुसार श्रोझड़ी जानवरों का मेदा है। हकीमों शय की प्रतिनिधि है। पक्षियों में इस अवयव के अनुसार मनुष्यों में, जिस प्रकार मेदा है, उसी | को पोटा (हौस लः-१०) कहते हैं । प्रकार पशुत्रों में श्रोझड़ी है। अरबी में शकंबः | ओझरी-संज्ञा स्त्री० दे० "अोझर"। को कर्श और हज़ारखाने को किब्बत कहा| ओट-संज्ञा पुं॰ [ देश० (अवध)] एक प्रकार का करते हैं। वृक्ष, जिसमें बरसात के दिनों में सनद और Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओट, कॉमन । १८३५ श्रोदन पीले सुगंधित फूल तथा ताड़ की तरह के फल | ओड़ी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] तिनी। नीवार । लगते हैं । इन फलों के भीतर चिकना गूदा होता देवधान्य । उडिधान्य-(बं०)। है और इनका व्यवहार खटाई के रूप में होता प-०-नीवार, प्रोड़ी (२०)। है। वैद्यक में यह फल रुचिकर, श्रम तथा शूल- गुण-शोषण करनेवाली, रूखी, कफ तथा रोधक और विषघ्न कहा गया है। वायुवर्द्धक और पित्तनाशक है। रान० । दे. पा०-भव । भव्य । भविष्य । भावन । "तिन्नी"। वक्त शोधन । लोमक । संपुटाङ्ग । कुसुमोदर । ओडी-कोलोन-फ्रांo eau-de-cologne ] एक (रा०नि०। राज.), प्राविक, सुपुटाङ्ग, ओष्ठ | पेटेन्ट औषध । -सं। चालता, भव्य-हिं०। चालन-बं० । योग-आलियम् बर्गेमोट २ ड्राम, आलियम् अटाच झाड़, ओंटी चे फल-मरा० । ओंटफल. लाइमोनिस १ ड्रा०, आलियम् नैरूली २० बूंद, करमल-गु० । चको-फा० । Garcinia za- प्रालियम् पारिगैनी ६ बूंद, आलियम् रोज़मेराइनी nthochymus, Hook.-ले। २० बूंद, स्पिरिटिस रैक्टिफिकेटस २० औंस, उत्पत्तिस्थान-कलकत्ता और जगनाथ की और एका फ्लोरीज़ प्रारंशियाई(त्र्यग्निक)१ औंस । तरफ़ अधिक होता है । वि० दे० "भव्य"। । निर्माण-विधि-सबको एक साथ मिलालें । ओट, कामन-[अं॰ oat, common ] विला- | ओडीलूस-[फ्राँ eaude-luce ] एक पेटेण्ट यती जौ। औषध । सर्पविषनार्क । दे० "अमोनिया"। ओट-फल-संज्ञा पुं० [हिं०] बालूबोखारा। ओडू-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (१) जपा | अदउल ओटिङ्गण-[ गु० ] उटंगन | शिरियारी । देवीफूल । जवा कुसुम वृक्ष । जवाफुलेर गाछ-बं० ओटेङ्गण-प्रासा० ] चालता-बं० । जासविन्द-(म०)। रा०नि० व०१०। ओटो ऑफ रोजेज-[अं० otto of roses ] गुण-संग्राही और केशवर्धक है। भा० पू० ___ गुलाब का अतर । दे० "गुलाब" । १ भ. पुष्प व०। पाखाना पेशाबको रोकनेवाला ओटो डी रोजी-[फ्रांo otto de rose ] गुलाब तथा उन्हें रञ्जित करनेवाला है। रा०नि० । ___का अतर । दे० "गुलाब" । कटु, उष्ण, इन्द्रलुप्त (गंज ) रोगमाशक, विष, ओटो-दिल-बहार-संज्ञा पुं० [अं॰ोटो otto+दिल चर्दि तथा जंतुजनक है और इससे सूर्योपासना ____हिं०+बहार ] गुलाब का इतर । दे. “गुलाब"। किया जाता है। रा०नि०व०१०। इसकी मात्रा ओठ-संज्ञा पु० दे० "ओठ"। ३ मा है। ओडगी-संज्ञा स्त्री० [देश॰] अङ्कोल । ढेरा। ओड़क-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] दे० "प्रोड"। प्रोड(द)ल्लम्-[ मल] (Cerbera-odollam, ओडूकाख्या-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] अढउल । Gartn.) दबूर, ढकुर-बं० । सुकनु-मरा० । ____ जवापुष्प । रा० नि० व० १० । दे० "प्रोडू"। फा०ई०२ भ०। ओड़- पर्याय-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] सूर्यकान्त पुष्पवृक्ष । अढ़उल । अम० । दे० "प्रोडू"। ओड(ढ)हुल-संज्ञा पु० दे० "अड़हुल"। ओडू-पुष्प-संज्ञा पुं॰ [सं० क्री० ] अडउल । जवा ओडा-सज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] ). जपा पुष्प। कुसुम । प० मु० । दे. "प्रोडू"। . ओडाख्या-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] ) | आडू-पुष्पा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] अढउल । अवाश्रढ़उल | गुड़हल । वृक्ष । वै० निघ० । दे० "प्रोड"। ओडि-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] श्रोडिका | शा० औ० श्रोड्-पुष्पी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] दे॰ “श्रोडू"। को। ओड्राख्या-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] अदउल | रा. ओडिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] पोड़ी। नि० व० १० । दे. "प्रोडू"। ओडिना वोडियर-[ ले० odina-Wodier ] ओढ़न-संज्ञा स्त्री० [हिं०] श्रोढ़ाई । शरीर को वस्त्र ... जिंगिनी । अजशृङ्गी। जिगिन। . . से ढाक ने का कार्य। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निका"। ओढ़ना १८३६ ओनया ओढ़ना-संज्ञा पुं० [हिं० ) (१) देहाच्छादन वस्त्र । नोलझिण्टी । प्रार्तगल । च० चि० ३ अ० चन्द. (२) बिस्तर की चहर । तैल। आढ़नी-संज्ञा स्त्री० [हिं०] छोटी चहर । पछौरी । ओदना-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] दे॰ “श्रोदनिका" । ___ यह त्रियों के काम आती है। प्रोदनाहया-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) महाओढायलङ्कषा-सज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] गोरखमुण्डो। समझा। कंघी । ककही । रा०नि० व.४। (२) वै० निधः। बरियारा। खिरिहिटी। वाटयालक। मद० श्रोणि-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) सोमरस व०१ प्रस्तुत करने का एक पात्र इसके दो भाग होते हैं। ओदनिका-संज्ञा० स्त्री० [सं० स्त्री० ] (1) कंघी । (२) स्वर्ग-मर्त्य । पृथ्वी-आकाश । (३) रक्षा महासमङ्गा । (२)बरियारा । बला | वाट्यालक । करनेवाली शक्ति । (४) रक्षा । रा०नि० व० ४। ओणी-सज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] दे॰ “श्रोणि'। ओदनी-संज्ञा० स्त्री० [सं० स्त्री० ] दे० "श्रोदओएडु-[क] अजवाइन । ओण्डकाख्या-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] अढउल । ओदनीय-वि० [सं० त्रि०] भत्य वस्तु । खाने योग्य रा.नि.व. १० दे० "श्रोड़"। वस्तु । श्रोत-सज्ञा स्त्री० [हिं० ] (१) सुख ! विश्राम । ओदर-संज्ञा पु० दे० "उदर"। श्राराम । (२) आलस्य । सुस्ती। (३) अव- ओदला-प्रासा० ] गुलू । गूल । कुलु । बलि । ई० शिष्टांस | बचत । (४) लाभ । मे००। वि० [सं० वि०] (१) अतव्याप्त । भीतर | ओदा-वि० [सं० उद-जल ] गीला । नम । तर । भरा हुआ । (२) बुना हुआ । (३) कपड़े के ओदि (डि ) यर- ता०] जिंगिनी | जिनन । ताने का सूत । श्रोदिय-मरम्- ता० ] जिगन । जिंगनी । (odinaओता-[ यू० ] कान । कर्ण। wodier, Roxb.) ओतामूनी-[१०] वनपोस्ता । जंगलीपोस्ता। ओदी-मरा० ] अमलवेल । गीदड-द्राक । अमलोश्रोतु-संज्ञा स्त्री० [सं० पु, स्त्री० ] (१) बिडाल । लवा । बिल्ली । अम० । (२) बनविडाल । जंगली बिल्लो। ओदी-फरुनस-[यू० ] भंग | सिद्धी । विजया । वै० निघ० । आंदोमन-[?] अज्ञात । श्रोतुद्भवा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] मुश्मबिलाव । | ओदुवन-[ता०] (Cleistan thus-collinus, उद-बिलाव । उदविडाल । ___Benth.) श्रोद-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] अन्न । अनाज । ओद्दिमानु-ते. ] जिगत । गिनी । दे० "प्रोदिय संज्ञा पु. [ सं० उद-जल ] नमी। तरी । मरम्"। गीलापन । सील । श्रोधस्-संज्ञा पु० [सं० की ] पशु-स्तन । थन । वि० गीला | तर । नम | ओनया-[यू.] एक बूटो का निचोड़, जिसके परिचय [ते. ] ऊदुगडी। के संबन्ध में बहुत मतभेद है । (१) किसो-किसी ओदन-संज्ञा पुं० [सं० पु.](१)अद्भव सिक्थ । के मत से यह "मामीसा" का निचोड़ है। (२) यह माँड़ इत्यादि से भारी होता है। वा. टी. किसी-किसी के अनुसार यह खालीदुनियून स्याह" हेमा० । (२) यवासिका। . (काली हल्दी)का निचोड़ है। (३) मतान्तर संज्ञा पुं॰ [सं० बी०] (१) पका हुआ से यह 'अनाग़ालुस” मादा का निचोड़ है । (४) चावल । भात । प० मु० । (२) अन्न | अनाज । अपर मतानुसार यह काले पोस्ते का उसारा रा०नि० व. २० | सा. कौ० ज्व० वलि। (निचोड़) है । (५) एक वनस्पति का उसारा । मोदनपाको संज्ञा पु० [सं० पु.] नील कटसरैया । यह अफरीका के देश में मित्र के समीप होती है। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसूतोलयून १८३७ ओन्दि यह “उसारा मामीसा" के उसारे की तरह होता यौगिक है । अस्तु, इसका शब्दार्थ माध्वी मद्य है। इसके पत्ते "तरहतेज़क" के पत्तों की तरह हया: पर यूनानी भाषा में शहद के शर्बत का होते हैं । किंतु इनमें ऐसे छिद्र होते हैं जो देखने नाम है । इसके प्रस्तुत करने की विधि यह हैसे कीट भशित की तरह ज्ञात होते हैं। उनमें रस पुरानी मदिरा २ भाग, शहद १ भाग-इन दोनों एवं पार्द्रता का अभाव होता है। अतएव कुछ को मिलाकर क्वधित करते हैं। जब चाशती हो सूखने से प्रतीत होते हैं और किंचिन्मात्र दाब जाती है । तब उतार लेते हैं और यही उत्तम है। से टट जाते हैं | पुष्प केशर की तरह का पीले रंग कभी अंगूर के रस को शहद के साथ क्वथित कर का होता है । परन्तु यह केशर के दुष्प से बड़ा होता चाशनी कर लेते हैं। है। ऐसे ही अन्य अनेक विभिन्न मत हैं, जिनका प्रकृति-द्वितीय कक्षा में उष्ण और रूक्ष है यहाँ उल्लेख करना उचित नहीं जान पड़ता। या प्रथम कक्षा में रूक्ष है। तात्पर्य यह कि यह एक संदिग्ध एवं अनिश्चित गुण-धर्म-यह शोथविलीनकर्ता, रोधोद्धाअज्ञात औषध है । प्रकृति-तृतीय कक्षा में उष्ण टक और मलावरोधनिवारक है तथा पाखाना और द्वितीय में रूक्ष है। खुलकर लाता है। इससे पेशाब भी अधिक होता गुण-धर्म-यह औषध अत्यंत तीव्र है, जो प्रवाह है । यदि भोजनोपराँत इसका सेवन करे, तो उत्पन्न करती है। इसे ख की ऐसी औषधियों श्रामाशय को हानि पहुँचता है । क्योंकि पाचन के में,जि.नसे नेत्रगत मलों का उत्सर्ग अभिप्रेत होता निश्चित समय से पूर्व ही खाद्य श्राम शय से है, योजित करते हैं। इससे धुध जाती रहती है । नीचे उतर जाता है । इसको भोजन करने से पूर्व यह दमा और सलाक़ बावामनी(Blepharitis) सेवन करने से यह भूख बन्द करदेता है और फिर को दूर करता है । इसमें तीक्षणता अधिक होने के भूख पैदा करता है । दूसरी भाँति जो शर्बत प्रस्तुत कारण, इसको अकेले व्यवहार में लाना वर्जित है । किया जाता है वह स्वच्छता उत्पन्न करने एवं की तरह की एक बूटी। दोष पाचन में प्रबलतर होता है। यदि मुलायम अनूतीलून । दस्त पाना इष्ट हो, तो पकाया हुआ अंगूर का ओनूदेकी-[ ? ] असदुल अदस । रस ६ भाग, शहद १ भाग, दोनों मिलाकर ओनूबरुखिया-[यू०] ) शीतल करल और पुनः सेवन कराएँ । यह ओनूबरूखीस-यू.] एक वनस्पति, जिसकी जितना पुराना होता जायगा, उतनी ही दस्त लाने की शक्ति कम होती जायगी। यह शर्बत पत्ती मसूर की पत्ती की तरह होती है। इसका उष्ण प्रकृति वालों को हानिकर और शीतल तना एक बालिश्त ऊँचा होता है। फूल कालापन लिये लाल और जड़ छोटी होती है। यह श्राद्रं प्रकृति को सात्म्य होता है । (ख० अ०)। भूमि में उत्पन्न होती है । यह स्रोतों को प्रस्तारित | ओनेई-संज्ञा स्त्री॰ [ ? ] खस । उशीर । करती है। इसका लेप क्षतों को लाभकारी है, | ओनेगर-[अं० onager ] [बहु० अोनेगर्स, प्रोनेविशेषकर सद्यः जात क्षतों को । इसको कुचलकर ग्राइ ) [ यू० अानग्रोस ] (ोनोस-गदहा+अनि जैतून के तेल के साथ शरीर पर मलने से पसीना यूस-जङ्गली) जङ्गली गर्दभ भेद । श्राने लगता है। इसी प्रकार इसके सूखे अंगों को ओनोमा-[ यू० रतनजोत । मालिश से भी स्वेद का प्रवर्तन होता है। इसको श्रोनोसालियूस-[यू० ] करफ्सुल्मा। मद्य के साथ पीने से रुका हुश्रा पेशाब खुल जाता| श्रानास्मा-दे०"श्रानास्मा" । है। इससे अतिसार बंद हो जाता है। श्रोन्तरीसा- यू०] छत्रिका । शिलीन्ध्र । खुम्बी। ओनू (तू) माली- यू० ] एक प्रकार की मदिरा, ओन्दन-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] (१) मङ्गल । (२) जो शराब और शुद्ध मधु से तैयार होती है। कनिष्ठ । श्रोनूमाली श्रोनू-मद्य और माली=( मधु) का ओन्दि-[ बर० ] नारिकेल। नारियल । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान । ओप १८३८ औफेलिकएसिड ओप-संज्ञा पु० [हिं० क्रि० पाना ] वमन । ओपियम्-स्म - अं० opium-smyrna ] दे. पोकाई। "अफ्यून स्मा"। . प्रोपग-बं०] अपामार्ग । चिर्चिटा । ओपियामीन-[ अं० opiamine ] दे॰ “प्रोपिए. ओपरा संज्ञा पु० [सं० पु० ] (1) शिरोभूषण । मीन"। जुल्फ । (२)शृङ्ग । सींग। ओपुशिया-डाइलीनियाई-ले. opuntia dillओपिएनीन-[ अं० opia nine ) अहिफेन का __enii, Haw.] नागफनी । नागफण । सत । ओपुशिया-टूना-[ ले० opuntia-tuna ] पौधा ओपियम्-अं० opium ] [ यू० श्रोपियून-पोस्ते विशेष । का रस, प्रोपोस (रस) का संक्षिप्त रूप] ओपेन-हेमर्स-लाइकर-कालोफिल्लाई-एट-पलसिटिल्लाअहिफेन । अफीम | [ ले० oppen-hemer's liquor caulओपियम्-आबकारी-[अं० opium-abkari] phylli etpulsatilla ] एक योग, जिसमें पल्साटिल्ला और कालोफिल्लीन दोनों संमिश्रित होते __ अफ्यून भाबकारी। हैं । दे० "पल्साटिल्ला" । ओपियम्-ऐल्फलाइड- अं० opium-alka ओपोन-[अं॰ opon] मापियारहित अाम्नोपोन _loid ] अहिफेन के हारोद।। का नाम । दे० "श्राम्नोपोन" । ओपियम्-खानदेश- अं० opium-khan ओपोपेनैक्स-शिरोनियम्-[ ले. opopanax desh ] खानदेश में होनेवाली अफीम।। ____chironium, Koch.] जावशीर । ओपियम्-टर्की-अं० opium-turkey] अफ़्यून | ओपोसेरीबीन-[अं॰ opocerebrin] पाहल्स तुर्की। दे० "अन्यून स्मा"। सेरोबीन । ओपियम्-दूधी-[अं० opium-dudhi ] दूधी ओपोस्सम-संज्ञा पुं॰ [अं॰ opossum ] दक्षिणी __ अफीम । ओपियम्-पटना-[अं॰ opium-patna ] पटने अमेरिका में रहनेवाली बिल्ली की तरह का एक जंतु। .. की अफीम। यह कई प्रकार का होता है। ओफक़लस-[ यू० ] बारतंग। आपियम्-पासयन- अ° opium.persian | श्रो(ऊ फर्ग्य न-[यू० ] फ्रफ्यू'न । .. अफ़्यून फार्सी। ओ(ऊ)फारीकून-[यू.] चोड़ का गोंद । हूफ़ारीओपियम्-माष्टर-[ अं. opium-plaster ]| कून । अहिफेन प्रस्तर । दे० "अफ़्यून का पन्नस्तर"। ओफिक्सिलीन-[अं० ophioxylin ] छोटी ओपियम्-बनारस-[अं• opium-benares ] ___चंदन का सत | धवलबरुआ का सत । बनारसी अफीम । काशी में होनेवाली अनीम। ओफियाक्सीलोन-सर्पण्टिनम्- ले. ophioxyओपियम्-बिहार-[अं॰ opium-bihar ] विहार ___lon-serpentinum ] चन्द्रिका । धवल में होनेवाली अफीम । बिरवा | छोटा चाँद-बं०। . ओपियम-मालवा-[ opium-malwa ] मालवा श्रोफिओरहाइजामङ्गोज-[ ले. ophiorrhizaमें होने वालो अफीम। __mungos, Linn.] सरहटी । सर्पाक्षी। ओपियम्-मेडिसिनल-[अं॰ opium-medici गंधनाकुली। ___nal ] औषध में बर्ती जानेवाली अफीम। । ओफीमूनदास-[यू० ] अप्रसिद्ध-बूटी । ओपियम्-लेवाट-[ opium-levant ] दे. ओफ़ीमूनस-[यू० ] ग़ाफिस । ___ "अफ़्यूनस्मा "। ओफीमूबजास-यू.] अज्ञात । ओपियम्-सिंध-[ opium-sindh ] सिंध देशीय औफेलिक एसिड-[अं॰ ophelie-acid ] किराअफीम। । ताम्ल । दे० "चिरायता"।. .... Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोफेलिया १८३६ श्रोलची प्रोफेलिया -[ o ophelia ] दे० "फेलिया" । फलूस - [ श्र० ] श्राँख के नासूर की वह प्रारम्भिक अवस्था, जबकि वह विदीर्ण न हुआ हो । ग़ । फिस्चुला-लैक्रिमेलिस (Fistula-lachri malis ) - श्रं॰ । श्रोराइजा - सेटाइवा - [ ले० oryza-sativa Linn.] ( l'addy ) धान | ओरॉक्सिलम्-इण्डिकम् - [ ले० oroxylum-indicum, Vent. ] अरलु । सोनापाठा । श्योनाक | ओबि (पि)यानुस -[ यू०] एक प्रकार का बाबूना । ओरिगैनम् -[ अं० origanum ] दे० "आर गैनम्” । सोभल । रित्तामरै - [ ता० ] रतनपुषं । रतनपुरुष - दे० । बुल - [पं०] जंगली पालक । बनपालक-बं० । श्रमत्तीनीर- [ ता० ] ओमद्रावकम् [ते० श्रक अजवायन | श्रमती - [ ते० ] अजवायन । श्रममु - [ ते० ] अजवाइन । श्रममुकु [ते० ] ( 1 ) अजवायन का पता । ( २ ) पंजीरी का पात | सीता की पंजीरी । अज वायन का पत्ता-द० । मम् - [ ता०, सिं०] अजवाइन | श्रमम् -साट -[ oomam-plant ] अजवाइन का पौधा । श्रमम् वाटर- [ ० omam-water ] श्रर्क अजवाइन । मलोटी - [ बं०] श्रमरूल | चांगेरी । श्रभ्लौटी । ओमाज - [ तु० ] अम्लतारहित सोय्यान । इसको शबवा भी कहते हैं । श्रमारीक़ा -[ यू० . ] अनीसून । माली - [यू . ] शहद से बनी हो | रेड - [ नेपा• ] रेंड | एरण्ड वृक्ष । ओरोर (ल) -[ बं०] अरहर । श्राढ़की | - [ बं० ] सुन्दरिङ्गन — उड़ि । ओ-संज्ञा पु देश ] एक प्रकार का बहुत लम्बा वाँस जो आसाम और ब्रह्मा में होता है । इसकी ऊँचाई १२० फुट तक की होती है और घेरा २५-३० इञ्च । वह शराब जो केवल पानी और श्रोल -संज्ञा पुं० [सं० पु० ] सूरन । जिमीकन्द । श्रोल गाछ - बं० । २० मा० | भा० पू० १ भ० । गुण- श्रग्निकर, कफनाशक, रुचिकारक, हलका और अर्श में पथ्य है । ग्राम्यकन्द दोषकारक होता है । रा० नि० । दे० " सूरन" । वि० [सं० क्रि० ] श्राद्र । गीला । श्रदी | मे० लद्विक । मासियाना - [?] ज़रदालू । मिशमिश । श्रम् - [ कना० ] अजवाइन । श्रम्बा - मरा० ] श्रज्ञात । श्रोम्लु -[ लाहौ० ] बीस । शलकट- पं० । (Myric ओरूजा– }[ यू० ] चाबल । ष - [ का० ] जिगन । जिंगनी । रूजा - [ यू० ] चावल । श्ररूस - [ फ्रा० ] श्रभल | हाऊबेर । ओरेकी -[ श्रं० oracle, garden] सरमक | ara germanica, Dese.)। - [ बं०] बम्बूसा ब्राण्डेसियाई-ले २ । क्रतान | मलुव । ओ(ऑ)रेञ्ज -[ श्रं० orange ][ अ० नारअ ] नारंग | नागरंग | ओल - [ बिहार ] दे० " श्रोल" । [ श्रंo ore] [सं० श्रायस धातु ] कच्ची ओलः - [ ? ] जलीद - ( अ ० ) । तग्रगुज़ा. लः (फ्रा० ) । धातु । उपधातु । रंगोटंग-संज्ञा पुं० [ मला० श्रीरंग = मनुष्य +ऊटन = ] सुमात्रा और बोरनियो श्रादि द्वीपों में रहनेवाला एक प्रकार का बंदर वा बनमानुष । यह चार फुट ऊँचा होता है । गड्ड-पं० । आल (ल्ल) कन्द - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( १ ) सूरन । जिमीकन्द । २० मा० । ( २ ) जंगली सूरन । वनौल । पानीय भक्रवटी । ओरहा - संज्ञा पुं० दे० " होरहा " । ओलची संज्ञा स्त्री० [सं० श्रालु ] आलूबालू नामक वृक्ष का फल | गिलास । इं० मे० प्रा० । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रक-तम्बोल श्रोलक-तम्बोल-दे० "उलट कंबल” । ओल-मरुथु - [ ता० ] किंजल ( मरा० ) । ओला - संज्ञा पुं० [सं० उपल ] ( १ ) गिरते हुये मेह के जमे हुये गोले । पत्थर, बिनौरी, बिनौली, इन्द्रोपल - हिं० । बर्षोपल - सं० । श्रम० । तग्रग़ ज़ा. लः, संगचः ( फ्रा० ) । जलीद, बरूदगुराब, गर्बान, इव्नइन् आम - ( २ ) । कन्ज़ुलू लुग़ात में "हब्बुल-ग़माम" लिखा है। हेल (Hail ) ( श्रं० ) । १८४० वर्णन - इन गोलों के बीच में बर्फ की कड़ी गुठली सी होती है, जिसके ऊपर मुलायम बर्फ़ की तह होती है । ये कई आकार के गिरते हैं। इनके गिरने का समय प्रायः शिशिर और वसन्त है । टिप्पणी - मुजरिंबात फिरंगी में फ़ारसी भाषा में लिखा है कि जब वा वायु में जाते हैं, तब सर्दी की प्रतिक्रिया द्वारा सांद्र होकर मेह के बूँदों के रूप में परिणत होजाते हैं । यदि गिरते समय उसमें सर्दी अधिक हुई तो वे ही ठिठुर कर श्रोले बन जाते हैं.......... इत्यादि । प्रकृति - शीतल और तर, कभी (बिल) । इससे गर्मी तथा ख़ुश्की भी प्रगट होती है। गुणधर्म - प्रायः सभी गुणों में बर्फ़ के समान हैं और उससे अधिक गुरु हैं । यह बूढ़ों को असा त्म्य है । इसका पानी उष्णता जनित दंतशूल के लिए लाभकारी है । यदि कंठ में जोंक चिपट जाय, तो उसके लिए भी गुणकारी है। घेघा के रोग में इसे कपड़े पर फैलाकर रोगी की गर्दन पर बाँधने से उपकार होता है । घेघा की सूजन उतर जाती है । किंतु, इससे अत्यधिक वेदना एवं प्रदाह होता है । जले हुए स्थान पर मलने से दर्द और प्रदाह निवृत्त होती है । श्रोला लेकर प्रथम उसे ज़मीन पर डाल दें, जिसमें वह गलकर पानी होजाय । पुनः उस स्थान की मिट्टी लेकर फोड़े पर मलें, तो दर्द एवं प्रदाह दूर होता है । यदि उस मिट्टी की गोली बनाकर सुखा लें और श्रावश्यकता होने पर उसको पानी में भिगोकर लेप करें, तो भी प्रभाव होता है । एक पुस्तक में लिखा है कि यदि श्रोले की मिट्टी पीसकर जलने के कारण ओलेत (ली) किर उत्पन्न हुये चत पर छिड़कें, तो दुर्गन्धित मांस को दूर कर देती है | और शुद्ध मांसाङ्क र उत्पन्न करती है । इसके लिये कोई भी अन्य वस्तु इससे अधिक गुणकारी नहीं। किंतु यह ध्यान रहे, कि अधिक मांस न जमजाय । जले हुये क्षत को श्रोले के पानी से धोना भी हितकारी है । इसके खाने ने खाँसी पैदा होती है, विशेषकर उस मनुष्य को, जिसके श्रामाशय में शैत्य का प्राधान्य होता है । उष्ण प्रकृति के पट्ठों और पाचन शक्ति को बल प्रदान करता है । पिपासाजनक भी है। (२) मिस्री के बने हुये लड्डू, जिन्हें गर्मी के दिनों में घोलकर पिया जाता है । श्रथवा सफ़ेद शर्करा को जल में घोल कर अंडे की सफेदी या दूध 'की भाग से साफ़ करके तीन बार पकाकर गोले बना लेते हैं । इन्हें ही श्रोले के लड्डू कहते हैं | कंद मुकर्रर ( फ़ा० ) । अब्लूज - ( अ )। प्रकृति - प्रथम कक्षा में उष्ण है। किसी-किसी का ऐसा विचार है, कि यह खाँड़ से अधिक उष्ण है। गुण- खाँड़ से अधिक ग़लीज़ (गाढ़ा) है। खाँसी, . वक्षःशूल और दमेको लाभकारी है । इससे खुलकर मलोत्सर्ग होता है । यह गर्भाशय और श्राँत की सर्दी का निवारण करता है । लाइव - [ olive ] दे० " प्रालि " ओलिया (ए) एडर - [ "अलियाण्डर" । ओलियातियूम - [ यू०] मु० श्र० । ० oleander ] दे० ओलिंदश्रोलिंद अट्ट ओलीबेनम् - [ बेनम्” । एक प्रकार का कड़ा । ओलियातूम - [ यू०] अंगूर की बेM I FOT झाड़ | [ सं . ] गु ंजा | बुंघचो | . ० olibanum ] दे० " श्रालि लसून - [ यू०] सेवार । शैवाल | काई । ओलुत चन्दल -[ बं० ] नाट का बच्छनाग । ओलेन ( ली ) किरैत - ( मरा० ] कलफ़नाथ- द० । कालोमेघ - बं० । यवतिक्का-सं० । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोलेन चाहा १८४१ षजनीकरण नचाहा - [ मरा०] अगिया । अगिन घास | गंध श्रवरी - [ श्रं० ovary ] डिम्ब कोष । स्त्री-बीज बेना - बं० । कोष । श्रोलैक्स-नाना - [ ले० lax nana ] मेरोत्रमेत- ओवल - वि [ श्रं० oval ] अरडाकार । संता० । - लीड कैशिया - [ श्रं० cassia ] एक पौधा | लैक्स स्कैंडेंस - [ ० olax-scandens, Roxb. ] धिनियानो - हिं० । हरदुली - बम्ब० कोकोअर-वं० । । | ओवल लीड- रोजबेरी -[ श्रं० _ oval leavedroseberry ] एक पौधा । आंवली - [ मरा० ] मौलसरी । वकुल । ओवा - [ ले० ova ] [ ए० व० श्रोत्रम् ] [ अल्पा● न्यूल ] ( १ ) स्त्री-जीज कोष । डिम्ब । ( २ ) ओल्डमैन्स बीयर्ड—[ श्रं० old-man's beard] (chionanthus-virgin.ca) चोल्डेन लैण्डिया-अम्बोटा - [ ले० o donlan - dia-umbellata, Linn.] चिरवल । सुरबुली - बं० । ओल्डेनलैरिइया-अलेटा - [ ले० oldenlandiaalata. ] गंधप्रसारणी । गन्धाली लता । गंधल पाता अं० । श्रोल्डेन लैण्डिया-कारिम्बोमा -[ ले oldenla ndia-corymbosa, Linn.] पित्तपापपड़ा । त्रपट | श्रोल्डेन | एडया- क्रिष्टेलाइन - [ श्रं० oldenlandia-chrystalline, Roxb ] पंकः । बोल्डेन लैण्डिया क्रियेलीना - [ ले० olden lan dia-chrystallina, Roxb.] पंकः । ओोल्डेनलैण्डिया-टू-फ्लावर्ड' -[ श्रं०oldenlan dia two flowered] खेतरापड़ा। क्षेत्रपर्पट | ओल्डेनलैण्डिया - डिफ्युजा - [ ले० _oldenland ia-diffusa, Roxb. ] एक वनस्पति । अोल्डेनलैण्डिया - बाइफ्लोरा - [ ले० oldenlan. dia, biflora Roxb. ] पित्तपापड़ा। खेत पापड़ा । क्षेत्रपर्पट | ऑल्डेनलैण्डिया-लैम्ब्रेटा - [ ले० oldenlandialambata ] चिर | आल्डेनलैण्डिया- हसिया - [ ले० _oldenlandia-herbacea ] पित्तपापड़ा । पपेट । ओल्डनलैण्डिया-हेनियाई [ ले० _oldenlandia-heynei, Hk.] नोंगनम् - पिल्लु - मद० | ल्ल - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] दे० "श्रील" । लकन्द संज्ञा पुं० [सं० पु० ] दे० "ओलकन्द”। ओवम्-[ ले० ovum ] दे० "श्रोवा” । १३ फा० oval-leaved - अण्डा । अजवाइन - मरा० । विस् - [ लेo ovis ] भेड़ | मेष । ओवेट-वि [ श्रं० ovate ] अण्डाकार । ओवेरियन सन्स स [ श्रं० ovarian-substance ] डिम्वाशय का सत । ओवोगल - [ श्रं० ovogal ] एक प्रकार का स्वाद वर्जित सब्ज़ीमायल चूर्ण, जो अल्ब्यूमेन के साथ पित्त को योजित करने से प्रस्तुत होता है । | मात्रा - १५ ग्रेन ( ७ रत्ती ) । यह पैत्तीय लवणों की प्रतिनिधि स्वरूप श्रांत्रीय श्रजीर्ण, पित्ताश्मरी और मलावरोध श्रादि रोगों में व्यवहृत होता है। ओवोपे.गेन- श्रं ovoferrin] लौह मिति एक डाक्टरी औषध । इसे श्रयनं विटेलीन ( Iron-vitellin ) भी कहते हैं । दे० "लोहा " । वोलेसीथीन - [ ० ovolecithin ] दे० "लेसीधीन" । ओव्यूल -[ ० ovule] [ श्रोवम् का श्रल्पा० रूप ] ( १ ) बीज । ( २ ) स्त्री-वीज कोष । डिम्ब । ओष-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] दाह । जलन । प्रदाह । पर्य्या० - प्रोष । लोष । श्रम० भरत । श्रोषजन - संज्ञा स्त्री० [सं० अर्वाचीन रसायनशास्त्र के अनुसार एक वायवीय मौलिक तत्व । ऊष्मजन । Oxygen. ओषजनीकरण - संज्ञा पु ं० [सं०] एक रासायनिक क्रिया, जिसमें श्रीषजन गैस किसी और पदार्थ से संयोग करती है । इस पदार्थ और श्रोषजन के Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओषरण(-णि). १८४२ ओषधि यथा, "येनत्वांखनते ब्रह्मा येनेन्द्रो ये न केशवः । ते नाहत्वांखनिष्यामि सिद्धिं कुरु महौषधि" । रा०नि०, धन्व नि० परिशिष्टे । __ ग्रहण-विधि-शास्त्र में किसी प्रोषधिके ग्रहण करने में जैसो आज्ञा हो उसो के अनुसार उसे ग्रहण करना उचित है । जहाँ शास्त्र ने मौन धारण किया हो, वहाँ परिभाषा के अनुसार कार्य करना चाहिए । कहा है-"निर्देशः श्रूयते तन्त्रे द्रव्याणां यत्र यादृशः । तादृशः संविधातव्य शास्त्राभावे प्रसि . रासायनिक संयोग से नए पदार्थ बन जाते हैं। (Oxidation.) ओषण(-णि)-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] कटुकरस । | चरपरा रस । माल । हे. च०। ओषणी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) एक प्रकार का शाक । पुरातिशाक । पुरतिशक-बं०। गुण-कफ-वायुनाशक । राज. । (२) पुनर्नवा । गदहपुरना । ओषध-संज्ञा स्त्री॰ [सं० की. ] औषध । दवा।। ओषधि-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (१) पौधे जो एकबार फलकर सूख जाते हैं। पौधे, जो फल पकने तक ही रहते हैं। फलपाकांतवृक्षादि । जैसे, धान, गेहूँ, जव, कलाय इत्यादि । हे० च० । (२) द्रव्य । नोट-आयुर्वेद के अनुसार औषधीय द्रव्य दो प्रकार के होते हैं (१) स्थावर और (२) जंगम । इनमें स्थावर के पुनः चार भेद होते हैं। (१) वनस्पति, (२) वृक्ष, (३) वीरुत् और (४) ओषधि । इनमें से जिनमें बिना फूल आए फल लगें, वे वनस्पति कहलाते हैं। पुष्पफलवान् को वृक्ष, प्रतान विस्तार करनेवाला को लता वा । वीरुत् और फल-पाकनिष्ठावाले को अर्थात् जो एकही बार प.ल कर सूख जाने है "ओषधि" कहते हैं । जङ्गम-द्रव्य भी चार प्रकार के होते हैं। (१) जरायुज अर्थात् जरायु से उत्पन्न होनेवाले जैसे, पशु, मनुष्य और व्यालादि। (२) अंडज अर्थात् अंडे से पैदा होनेवाले। जैसे, पती, साँप और सरीसृप प्रभृति । (३) स्वेदज अर्थात्, स्वेद (पसीना ) से उत्पन्न होनेवाले । जैसे, कृमि, कीट, जूं. खटमल इत्यादि। (४) उद्भिज अर्थात् भूमि फोड़ कर निकलनेवाले । जैसे, मेढक आदि। (सु. सू० १ अ.)। (३) वनस्पति । जड़ी बूटी, जो दवा में काम आएँ। ओषधि-खनन-मंत्र-श्रोषधियों के खनने का मंत्र । जैसे, "येनत्वां खनते ब्रह्मा येनत्वां खनते भृगुः येनेन्द्रो येन वरुणोद्यपचक्रमके रावः ॥ ते नाहंत्वां खनिष्यामिसिद्धिं कुरु महौषधिः"। किसोकिसी ग्रन्थ में इस प्रकार का भी पाठ मिलता है। साधारण-विधि-साधारणतः धन्व (मरुभूमि) और जांगल देश के लक्षणों से युक्त देश में उत्पन्न हुई, विकारशून्य, कोटादिरहित, वीर्य युक ओषधि उत्तर दिशा एवं पवित्र स्थान से ग्रहण करनी चाहिये । यथा-"धन्व साधारणे देशे मृदावुत्तरतः शुचौ । अवैकृतं नानाक्रान्तं सवीर्य ग्राह्यमौषधम्" ॥ निषिद्धौषधि-देवतालय, बामी, कुएँ के पास, रास्ते और श्मशान में उत्पन्न हुई तथा असनय बे मौसम और वृक्षों के छाया में उत्पन्न हुई, उचित परिणाम से कम अथवा अधिक दीर्च और पुरानी तथा जल, अग्नि, और कीड़ों से विकृत श्रोषधि फलदायक नहीं होती। स्थान-भेद से गुण-भेद-विन्ध्य आदि पर्वत आग्नेय गुणवाले और हिमालयादि सौम्य गुणवाले हैं। अतएव उनमें उत्पन्न होनेवाली ओषधियाँ भी यथाक्रम आग्नेय और सौम्य गुणवालो होती हैं। चिकित्सा-काल में इन सभी बातों पर ध्यान रखकर ओषधि का व्यवहार करना चाहिए। __ कालभेद से ओषधि-ग्रहणसमस्त कार्यों के लिए रस युक्त ओषधियाँ शरद् ऋतु में ग्रहण करनी चाहिए, परन्तु वमन और विरेचन की ओषधियाँ वसंत ऋतु के अन्त में ग्रहण करनी चाहिए। यथा-"शरद्यखिल कर्मार्थं ग्राह्यं सरस मौषधम् । विरेक वमनार्थं च वसन्तान्ते समाहरेत्"। विज्ञ वैट का कर्तव्य है कि ओषधियों के मूल शिशिर ऋतु में, पत्र ग्रीष्म ऋतु में, छाल बर्षा Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओषधि १८४३ ओषधि गण ऋतु में, कन्द वसन्त में दूध शरद् ऋतु में, सार हेमन्त-ऋतु में और फल एवं फूल जिस ऋतु में उत्पन्न हों, उन्हें उसी में ग्रहण करें। यथा-"मूलानि शिशिरेग्रोधो पत्रं वर्षावसन्तयोः। स्वक्वन्दी शरदिक्षीरं यथ कुसुमंफलम् ॥ हेमान्ते सारमोषध्या गृहणीयात् कुशलो भिषक्"। ___ आद्र-औषधि-निम्न अोषधियाँ सदैव गीली अवस्था में ही ग्रहण करना चाहिए और इनका परिमाण द्विगुण न करना चाहिये: (१) अहसा, (२) नीम, (३ पटोल, (४) केतको, (५) वला (खिरेटो), (६) पेठा, (७) सतावर, (८) पुनर्नवा, (६) कुड़े की छाल (१.) असगंध, (११) गन्ध प्रसारिणी (१२) नागवला, (१३) कटसरैया, (१४) गूगुल, (१५) हींग, (१६) आदी पोर(१७) ईख से बने हुए कठिन पदार्थ (राब, भित्री इत्यादि)। यथा-"वासा निम्बपटोल केतकिबला कुष्माण्ड कन्दावरी । वर्षाभूकुटजाश्वगन्ध सहितास्ताः पूति गन्धामृता । मांसं नागवला सहाचर पुरोहिङ्वाद्र के नित्यशः । ग्राह्यास्तत्क्षणमेव न द्विगुणिता येचेक्षुजाताघनाः"। पुरातन-द्रव्य-चिकित्सा कर्म में घृत, गुड़, शहद, धनियाँ पीपल और वायबिडङ्ग-इन्हें सदा पुराना लेना चाहिए। द्रव्याङ्ग-ग्रहण-खदिरादि वृक्षों का सार, निम्बकादि को छाल, दाडिम श्रादि के फल, और पटोलादि के पत्र ग्रहण करना चाहिये। मतान्तर से-वड़ श्रादि वृक्षों की त्वचा, विजयसार आदि का सार, तालीशादि के पत्र, | और त्रिफलादि के फल ग्रहण करना चाहिए। जिन वृक्षों की जड अधिक मोटी हो उनका समस्त अङ्ग काम में लाना चाहिए। वि.दे. "श्रोद्भि-द्रव्य"। सामान्य-विधि-यदि स्पष्ट वर्णन न हो तो "पात्र" का अर्थ मिट्टी का पात्र, "उत्पल" का नीलोत्पल और "शकृद्रस" का अर्थ गाय के गोबर का रस समझना चाहिए। एवं "चन्दन" शब्द से लाल चन्दन, “सर्षप" से सफेद सरसों "लवण" से सेंधानमक और "मूत्र", दूध तथा घी से क्रमश: गोमूत्र,गोदुग्ध और गोघृत समझना चाहिये। दूध, मूत्र और पुरीघ (गोबर) पशु का श्राहार पच जाने पर ग्रहण करना चाहिए। प्रतिनिधि-यदि किसी योग में कोई द्रव्य न प्राप्त हो तो उसके स्थान में उसी द्रव्य के तुल्य गुण रखनेवाले द्रज्य ग्रहण करें। यथा-"कदाचिद् द्रव्यमेकं वा योगे यत्र न लभ्यते । तत्तद्रव्य गुणयुतं द्रव्यं परिवर्तेन रह्यो" । पुनः__यदि किसी योग में एक ही ओपधि दोबार लिखी हो, तो उसे द्विगुण परिमाण में लें। यथा--"एकमप्यार, योगे यस्मिन्यत्पुनरुच्यते। मानतो द्विगुणं प्रोकं तद्रव्य॑तत्व दर्शिभिः"। यदि किसी प्रयोग में कोई श्रोषधि रोगी के लिए हानिकारक होती हो.तो उसे उस योग में से अलग करदें। इसी प्रकार यदि कोई ओषधि रोगी के लिए हितकारी हो, तो वह योग में न होने पर भी डाली जा सकती है। यथा-"व्याधेश्यक यद्व्यं गणोक्कमपितत् त्यजेत् । अनुक्रमपि युक्त यद्योजयेत्तत्रबुधैः ।" ___ चूर्ण, स्नेह, आसव और अवलेह में प्रायः श्वेतचन्दन और कपाय तथा लेप में प्रायः लाल चन्दन का व्यवहार किया जाता है। ___ यदि समय न निर्दिष्ठ हो, तो प्रात:काल, ओषधि का अंग ज्ञात न होने पर मूल (जड़) भाग न होने पर समभाग, पात्र न कहा हो तो मिट्टी का 'पात्र" और द्रव पदार्थ का नाम न बतलाया गया हो तो "जल" तथा तेल का नाम न कहा . हो तो तिल का तैल ग्रहण करना चाहिए। यदि किसी योग में कोई ओषधि प्राप्त न हो तो उसके स्थान में उसके समान गुणवाली अन्य श्रोषधि का ग्रहण करें। . ओषधि गण-संज्ञा पु० [सं० पु.] रासायनिक श्रोषधियों का गण । इस गण की ओषधियाँ सोम के समान वीर्यवाली होती हैं औरमहौषधि नाम से सुविख्यात हैं। शास्त्र में इनका सोम के सदृश ही क्रिया और स्तवन का उल्लेख मिलता है। औषधोपयोगी कतिपय ओषधि के विशेष बक्षणों को Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओषधि ग १८४४ ध्यान में रखकर आचार्य सुश्रुत ने उनका नाम भेद किया है । ये अठारह प्रकार की कही गई हैं । जैसे - ( १ ) श्रजगरी, (२) श्वेत कापोती, (३) कृष्णकापोती, (४) गोनसी, (५) वाराही, (६) कन्या, ( ७ ) छत्रा, ( ८ ) श्रतिच्छत्रा, ( ) करेणु, १०) श्रजा ( ११ ) चक्रका ( १२ ) श्रादित्यपर्णी, (१३) ब्रह्मसुवचला, (१४) श्रावणी, (१५) महाश्रावणी, ( १६ ) गोलोमी, (१७) अजलो की और (१८) महावेगोत्रती । इनके लक्षण इस प्रकार हैं ( १ ) अजगरो - यह कपिल वर्ण की विचित्र मण्डलों से युक्त, सर्पाभा और पंचपत्रयुक होती है । यह परिमाण में पाँच मुट्ठी प्रमाण की होती है । (२) श्वेत कापती - यह पत्रशून्य, सोने की प्रभा प्रभा की, सर्पाकार और प्रान्तदेश में म होती है। इसकी जड़ दो अंगुल की होती है। (३) कृष्ण कापोती - यह तीरयुक्र, रोइयों से व्याप्त, मृदु, रस और रूप में ईख के तुल्य होती है । । यह कृष्णमण्डल (४) गोनसी - इसमें केवल दो ही पत्ते होते हैं । जड़ इसकी रुण होती युक्त, अरत्नि परिमित और गोनसाकृति ( गो नासिकाकृति) की होती है । ( ५ ) वाराही - सर्पाकार और कंदसंभव श्री संज्ञा है । (६) कन्या - मनोरम श्राकृति की, मोरपंखी के सदृश बारह पत्तों से युक्र, कन्दोपन्न और सुवर्ण की तरह पीले दूध की ओषधि की 'कन्या' संज्ञा है। ( ७ ) छत्रा - एक पत्रयुक्त, महावीर्य और अंजन की तरह कृष्णवर्ण की श्रोषधि का नाम 'छत्रा' है। (८) अतिच्छत्रा - कंद- संभव और रक्षोभय विनाशक श्रधि की 'प्रतिच्छत्रा' संज्ञा है । छत्रा और प्रतिच्छत्रा ये दोनों जरा-मृत्यु निवारिणी और आकार-प्रकार में श्वेत कापोती के तुल्य होती हैं । ओषधि गए. ( ६ ) करेणु - -यह श्रोषधि अतिशय क्षीरयुक होती है, जिसमें हस्तिकर्ण पलास की तरह दो पत्ते होते हैं । इसकी जड़ हाथी की आकृति जैसी होती है । ( १० अजा - इस महौषधि के चुप होते हैं, जिसनें दूध होता है और यह शंख, कुंद और चंद्रमा की तरह पांडुरश्वेत वर्ण की होती है । इसकी जड़ बकरी के धन की प्राकृति की होती है। ( ११ ) चक्रका - यह श्वेत वर्ण की विचित्र पुष्पयुक्त होती है । इस ओषधि का खुप काकादनी की तरह होता है । यह जरा-मृत्यु का निवारण करनेवाली है । (१२) आदित्यनी - यह प्रशस्त मूलयुक्र ( मूलिनी) होती है और इसमें अत्यन्त कोमल सुन्दर वर्ण के पाँच पत्ते होते हैं । जिधर जिधर को सूरज घूमते जाते हैं, यह भी सदा उसी र को घूमती जाती हैं । (१३) ब्रह्म सुवर्चला - यह सोने के रंग की are और पद्मिनीतुल्य होती है, जो पानी के किनारे चारों ओर चक्कर लगाती है। (१४) श्रावणी - इसका क्षुप अरत्नि श्रर्थात् मुष्टिका प्रमाण का होता है जिसमें दो अंगुल प्रमाण के पत्ते लगते हैं। इसका फूल नीलोत्पल के आकार का और फल अंजन के वर्ण का अर्थात् काले रंग का होता है। यह सोने के रंग की और वीरयुक्त होती है । (१५) महाश्र ( वरणीयह श्रावणी की भाँति श्रन्यान्य गुण युक्र और पांडु वर्ण की होती है। = ( १६ तथा १७ ) गोलोमी और अजलोमीये दोनों कन्द्र-संभव और रोमरा होती हैं । (१८) महावेगोवती - यह हंसपादी की तरह मूलसमुद्भव और विच्छिन्न पत्रयुक्र श्रथवा सभी भाँति रूपाकृति में शंखपुष्पी की तरह होती है । यह अतिशय वेगयुक्र और साँप की केंचुली की तरह होती है । उत्पत्तिस्थान एवं काल इनमें से श्रादित्यपर्णी बसंतकाल में होती है। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओषधि गर्म १८४५ ओष्ट प्रकोप अजगरी नित्य दिखाई देती है । गोनसो वर्षाऋतु कणराक के मेल से बना हुश्रा एक पदार्थ, जो में उत्पन्न होती है। काश्मीर देशीय क्षुद्रकमानस रन में रहता है । (oxybaemoglobin) नामक दिव्य सरोवर में करेणु, कन्या, छत्रा अोषिष्ट-वि० [सं० वि०] अतिशय दाहकारक । अतिच्छत्रा, गोलोमी, अजलोमी, महती और अतिप्रदाहक । वहुत जलन पैदा करनेवाला । श्रावणो होती हैं। वसंत में कृष्णसर्पाख्या और प्रोष्ट-संज्ञा पु. [ देश०] भव्य । । गोनसो दिखलाई देती हैं । कौशिकी नदी के पूर्वतः | ओष्टश्वित्रनाशनलेप-संज्ञा पु. [ सं० पु. ] बल्मीक व्याप्त योजनत्रय भूमि में श्वेत कापोती उन नाम का एक योग। और वस्मोक के शिखरदेश, मलयपर्वत तथा नल निर्माण क्रम-गंधक, चित्रक,कसोस, हरताल, सेतु में वेगवतो मिलती है। सु० चि० ३० अः। त्रिफला-इन्हें समान भाग लेकर जल में पीसकर ओषधि गर्भ-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (१) चंद्रमा। लेप करने से मुख का श्वेत कुष्ट एक ही दिन में (२) सूर्य । नष्ट होता है। रसेचि म० अ० । ओषविज-वि० [सं. वि.] (१) ओषधिगण के श्रोष्ट्राविन-वि - [सं० त्रि० ] दाहकारी । जलन पैदा मध्य निवास करनेवाला । जो जड़ो बूटियों में | करनेवाला । प्रदाहक । रहता हो । (२) अोषधि से उत्पन्न । जो जड़ी ओष्ठ-संज्ञा पु [सं० पु.] [वि० प्रोड्य ] मुंह बूटियों से निकला हो। __ के बाहरी उभड़े हुये छोर जिनसे दाँत ढके रहते संज्ञा पु० [सं० पु.] ओषधि से उत्पन्न हैं। ओंठ । ओठ । होंठ । रा० नि० व० १८ । अग्नि । संस्कृत पर्याय-दन्तच्छ । रदपट ।रदनच्छद । ओषधिपति-संज्ञा पु• [सं० पुं०] दे॰ “श्रोषधीपति"। दरानवास (अ.), दन्तवास। दन्तवस्त्र । ओषधि-प्रस्थ-संज्ञा पु. [सं. पु.] हिमालय । रदच्छद (रा०नि०)। शात (बहु शिनात, द्वि० अधिकांश पोषधियों के उत्पन्न होने से ही इसका शक्तैन ) अ.) लब-का• । लिप Lip-अं० । उक्त माम पड़ा है। लेबियम् Labium-ले। ओषधी-संज्ञा स्त्री [सं० स्त्री०] (१) ओषधि । नोट-यद्यपि अोठ शब्द से दोनों होठों का अर्थ जड़ी-बूटी | भरतः । (२) छोटा पेड़ ।लवु वृक्ष । लिया जाता है, तथापि यह शब्द विशेषतया ऊपर वै० निघः । दे. "श्रोषधि" । के होंठ के लिये प्रयोग में आता है। ओषधी-पति-संज्ञा पु० [सं० पु.] (१) कपूर। ओष्ठक-वि० [सं० त्रि० ] पोष्ठ में व्याप्त । हे. च।। (२) चंद्रमा । अष्ठ-कोप-संज्ञा पु. [संपु.] दे॰ “श्रोष्ठरोग"। नोट-पोषधि वाचक शब्दों में "स्वामी" ओष्ठज-वि [सं० वि०] ओष्ठ से उत्पन्न । होंठ से निकलनेवाला । वाची शब्द लगाने से चंद्रमा वा कपूर वाची शब्द बनते हैं। ओष्ठजाह-संज्ञा पु० [सं० की ] पोष्ठमूल | होंठ ओषधीमान्-वि० [सं० त्रि] पोषधि संबन्धी।। की जड़। ओषधीश-संज्ञा पु । सं० पु.] (१) कर । | ओष्ठधर-संज्ञा पु० [सं० पु.] श्रोष्ठ । होंठ । लिप श्रम । (२) चंद्रमा। (Lip) ओषधीसूक-संज्ञा पु. [सं० की ] सूक्रविशेष । वेद ओष्ठ-पल्लव-संज्ञा पु. [सं० की.] श्रोष्ठ । होठ । का एक मन्त्र। ओष्ठ-पुट-संज्ञा पुं॰ [सं० की ] श्रोष्ठोद्घाटन जात ओषधीसंशित-वि० [सं० वि.] श्रोषधी द्वारा विवर । वह गड्डा जो होंठ खोलने से पड़ा हो । प्रायत्त । जड़ी-बूटियों से तहरीक किया हुआ। ओष्ठपुष्प-संज्ञा पुं॰ [सं० पु०, क्ली० ] वन्धुजीव । ओषम् [सं० अब्य० ] शीघ्र-शीघ्र । जल्द-जल्द । गुलदुपहरिया। बारम्बार । | ओष्ठ-प्रकोप-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] दे० "श्रोष्ठ अोषित-कणरञ्जक संज्ञा पुं॰ [सं०] प्रोषजन और कोप" या "अोठ रोग"। . Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओष्ठ प्रान्त १८४६ श्रोष्ठ रोग आष्ठप्रान्त-संज्ञा पु. [सं० पु.] सृक्क भाग। अोठों का छो! । मुंह का कोना। रत्ना। ओष्ठ-फला-(भा)-संज्ञा स्त्री० [सं. स्त्री०] कुन्दरू। ___ कंदूरी | बिम्बी लता। वै० निघ । ओष्ठरञ्जनी-संज्ञा स्त्री॰ [सं० स्त्री.] पान । ताम्बूल | प० मु.। ओष्ठ-रोग-संज्ञा पु० [सं० पु. ] वे रोग जो दोनों होठों में होते हैं । श्रायुर्वेद में इनका वर्णन मुख रोग के अंतर्गत किया गया है। पर्या-होठों को बीमारियाँ । अम्। जुल शत् (अ.)। Diseases of the lips वैद्यक के मत से यह रोग अाठ प्रकार का होता है-वायुजन्य, पितजन्य, करुजन्य, सलिपातज, रकज, मांसज, नेदज, और अभिघातज अर्थात् श्रागन्तुक । वातजनित अोष्ट रोग के लक्षण - वातजन्य प्रोष्ठ रोग होने से दोनों होठ खाक्षरे रूखे, कठोर और ऐठे से होते हैं तथा उनमें तीव्र वेदना होती है । ऐसा जान पड़ता है, मानो उनके दो टुकड़े हो जायो । वे जरा-जरा फट भी जाते हैं। नोट-वातज अोष्ट रोग में होठों का रंग श्यामवर्ण हो जाता है और उनमें सूई चुभाने की सी पीड़ा होती है। पित्तज ओष्ठ रोग के लक्षणपित्त के कोप से दोनों होठ पीले हो जाते हैं, चारों ओर फुसियाँ हो जाती हैं तथा उनमें पीड़ा | दाह और पाक होता है। कफज ओष्ठ रोग के लक्षणकफज श्रोष्ठ रोग होने से होठ शीतल, चिकने और भारी रहते हैं, उनमें खुजली चलती है और | थोड़ा-थोड़ा दर्द होता है। उन पर शरीर के रंग जैसी फुसियाँ छा जाती हैं। त्रिदोषज ओष्ठ रोग के लक्षणएक साथ तीनों दोषों का कोप होने से होठ कभी काले, कभी पीले, कभी सफ़ेद और अनेक फुसियों से युक्त होते हैं। रक्तज ओष्ठ रोग के लक्षणखून के कोप से, दोनों होठ पके हुए खजूर के फल को रंग की फुसियों से व्याप्त होते हैं। उनमें से खून बहता है और होठों का रंग खून की तरह लाल होता है। __ मांस-जनित ओष्ठ रोग के लक्षणमांस के दृषित होने से होठ भारी, मोटे श्रोर मांस के गोले की तरह ऊँचे होते हैं। इस मांसज श्रोष्ठ रोग में मनुष्य के दोनों गलफरों में कीड़े पड़ जाते हैं। मेदज ओष्ठरोग के लक्षणइस रोग के होने से दोनों होठ घी और माँड की तरह होते हैं। वे भारी होते हैं और उनमें खाज चलती है। उनमें से स्फटिक मणि के जैसा निर्मल मवाद बहता है। उनमें पैदा हुआ व्रण नरम होता है और भरता नहीं। अभिघातज ओष्ठ रोग के लक्षण यदि किसी भाँति की चोट लगने से श्रोष्ठरोग होता है, तो दोनों होठ चिा या फट जाते हैं। उनमें पीड़ा होती है, गाँठ पड़ जाती है और खुजली चलती है। होठ के रोगों की चिकित्सा पद्धति नोट-मुँह के रोग, मसूढ़े के रोग और होठ के रोगों में प्रायः कफ और रक की प्रधानता होती है, अतः इन रोगों में बारम्बार गरम और दुष्ट रक्रमोक्षण कराना चाहिये।। वातज ओष्ठ रोग नोट-गरम स्नेह, गरम सेक, गरम लेप, घी पीना, मांसास का उपयोग, अभ्यञ्जन, स्वेदन और लेपन इत्यादि उपचार हितकारी है। वातनाशक दवाओं द्वारा तेल पकाकर मस्तिष्क में नास देना तथा स्नेह, स्वेद और अभ्यंग इस रोग में रसायन के समान गुणकारी होते हैं। (१) वातज श्रोष्ठ रोग में-सेल या घी में मोम मिलाकर मलना चाहिये। (२) लोबान, राल, गूगल, देवदारु और मुलेठी बराबर-बराबर लेकर पीस-कूट और छान लो। इस चूर्ण को धीरे-धीरे होठों पर घिसने से वातज श्रोष्ठ रोग श्राराम हो जाता है। (३) मोम, गुड़ और राल-इनको समानसमान लेकर तेल या घी में पकालो। इसका लेप Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ओष्ठरोग १८४७ ओष्ठोप मलिका करने से होठ का सूई चुभने समान दर्द, कठोरता | क्षतज ओष्ठ रोग की चिकित्सा और पीप-खून जाना बन्द हो जाता है। नोट-क्षतज ओष्ठ रोग अर्थात् होठ में घाव पित्तज ओष्ठ रोग की चिकित्सा हो जाने पर पहले स्वेदन करके, पीछे अच्छी तरह नोट-पित्तज श्रोष्ठ रोग में फस्द देकर रक. दबाना चाहिये और सौ बार का धोया हुआ घी मोक्षण करवाना; वमन-विरेचन कराना, तिक्रक लगाना चाहिये। यदि होठ में निन्नवण हो जाय, घृत पिलाना वा तिक पदार्थ सेवन कराना, मांस- तो सारी विधि छोड़कर व्रण के समान चिकित्सा रस खिलाना, शीतल लेप करना और शीतल करनी चाहिये। तरड़े देना हितकारी हैं। (७) कुकरैधे को पानी में पीस छानकर (४) इसमें प्रथमतः जोंक लगाकर खून पिलाने से इसमें लाभ होता है। निकलवाएँ । तदुपरांत शर्करा, खोल, मधु और (८) सौ बार का धुला हुआ घो लगाने से अनंतमूल समान-समान भाग अथवा खस की भी होठ के घाव आराम हो जाते हैं। यदि इस जड़, रतचंदन और क्षीरकाकोली दूध में पीसकर धुले, घो में “कपूर" भी मिला लिया जाय, तो लेप लगाते हैं। होठ के रोगों के लिये इसके समान दवा नहीं। रक्तज ओष्ठ रोग की चिकित्सा (१) यदि होठों पर घाव हो, तो धनिया, नोट-(१) रन एवं अभिघातजन्य श्रोष्ठ | राल, गेरू और मोम अथवा राल, गेरू, धनिया, रोग में पित्तजन्य रोग की चिकित्सा करें। तेल घी, सेंधानमक और मोम-इनको बराबर-बरा बर लेकर ओर एकत्र मिलाकर घाव पर लेप करने (२) रक्रज और पित्तज श्रोष्ठ रोग में जोंक | से होठ का घाव पाराम हो जाता है। लगवाना और पित्तज विद्रधि की तरह चिकित्सा (१०) लोबान, धतूरे के फल और गेरूकरनी चाहिये। इनके साथ तेल वा घी पकाकर लगाने से भी धाव कफज ओष्ठ रोग की चिकित्सा अच्छा हो जाता है। नोट-कफज श्रोष्ठ रोग में खून निकलवाने के | त्रिदोषज ओष्ठ रोग की चिकित्सा उपरांत शिरोविरेचन-सिर साफ करनेवाला नस्य नोट-इसमें जिस दोष का अधिक प्रकोप हो, देना चाहिये, धूमपान कराना चाहिये, स्वेदन पहले उसी की चिकित्सा करनी चाहिये, फिर करना चाहिये और मुंह में कवल धारण कराना दूसरे दोषों को चिकित्सा करनी चाहिये। यदि चाहिये। होठ पक जाय, तो व्रण रोग की तरह उपाय (५) इस रोग में त्रिकुटा, सजीखार और | करना चाहिये। जवाखार को समान लेकर पीस लो और शहद में | ओष्टा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) कुंदरू की मिलाकर-इस दवा से होठों को घिसो। लता। विम्बी। (२) बिम्बाफल । कुदरू । मेदजन्य ओष्ठ रोगी चिकित्सा प.मु०। नोट-मेदजन्य अोष्ठ रोग में-स्वेद, भेद, | ओष्ठागतप्राण-वि० [सं० त्रि०] मृतप्राय । जो मर शोधन और अग्नि का संताप देना चाहिए और रहा हो। दृषित मांस निकाल देना चाहिये तथा लेप करना | अोष्ठी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] दे. "पोष्ठा"। चाहिये। आष्ठोन्नमनी पेशी-संज्ञा स्त्री०सं० स्त्री.] एक पेशी fargiai Quadratus-Labii Superi (६) मेदज प्रोष्ठ रोग होने से-अाग के द्वारा oris. होठों को सेकना चाहिये तथा प्रियंगूफल, त्रिफला | श्रोष्ठोपमफला-संज्ञा स्त्री॰ [सं० स्त्री.] । और लोध का चूर्ण शहद में मिलाकर होठों पर | ओष्ठोपमफलिका-संज्ञा स्त्री [सं० स्त्री.] घिसना चाहिये अथवा त्रिफले का पिसा-छना चूर्ण बिम्बिका । कुंदरू की लता । भा० पू० १ भ०। शहद में मिलाकर होठों पर लेप करना चाहिये। बिम्बी । रा०नि०। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोष्ठोपमाफल श्रोष्ठोपमाफल - संज्ञा पुं० [ सं . क्ली० ] कुँदरू । बिम्बी। कंदूरी | ओष्ठ्य - वि० [सं० त्रि० ] ( १ ) श्रठ संबन्धी | ( २ ) श्रष्ट से उत्पन्न होनेवाला । जो होंठ से निकलता हो । ओष्ठ्य योनि - वि० [सं० त्रि० ] श्रज्य शब्द से उत्पन्न | ओष्ठ्या पेशी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक पेशी विशेष ( Superior Labial.) १८४८ वि० [सं०] ईषत् उच्य | थोड़ा गरम । श्रस-संज्ञा स्त्री० [सं० अवश्याय, या उस्साव ] हवा श्रस्? इसलिये यह अधिक रोगोद्घाटक हैं । इसके पीने से यकृतावरोध का उद्घाटन होता है । यह कामला ( यक़ीन ) के लिये गुणकारी है । यदि इसकी लकड़ी का प्याला बनाकर उसमें पानी रख कर पिया जाय, तो भी यकृत में लाभ होता है । ( ख० अ० ) । सदनून - [ यू०] काकनज । सर - संज्ञा स्त्री० [सं० उपसर्य्या ]. श्रसरिया -संज्ञा स्त्री० [सं० उपसय ] जो गर्भ धारण करने योग्य हो चुकी हो, परन्तु अभी गाभिन न हुई हो । ओसरवेली-दे० "ऊस (वेली" । सारी - संज्ञा स्त्री० | देश० पश्चिमभा० ] उच्चु दी । | Ageratum cordifolium, Roxb. | ओसिस - [ यू० ] – एक वनस्पति जिसे ईंधन के काम में लाते हैं। इसकी लकड़ी प्रारम्भ में कालापन लिए होती और अंत में ललाई | लिये हो जाती है। इसकी शाखायें पतलो होती हैं और कठिनतापूर्वक कट सकती हैं । पत्त े श्रास के पत्तों की तरह होते हैं। स्वाद तिक होता है । सीन - संज्ञा पुं० [सं० की ० ] (Ossein ) प्रस्तियून -[ यू०] एक प्रसिद्ध बूटी । जयः । श्रस्वीकिया- श्रज्ञात । ओहरी -संज्ञा स्त्री० [हिं०] क्रान्तभाव । सुस्ती । थकावट । श्रोहा -संज्ञा पुं० [सं० ऊधस ] गाय का थन । ओहीरा -संज्ञा पुं० [देश० ] 'आस' नाम का वृक्ष | कना - [हिं० क्रि० ] दे० "लोकना” । में मिली हुई भाप जो रात की सरदी से जमकर और जलविन्दु के रूप में हवा से अलग होकर पदार्थों पर लग जाती है । ० - श्रवश्याय । शीत । शबनम । ड्यु - ओंकार-संज्ञा पु ं० [सं० ] ( १ ) सोहन चिड़िया । पर्या ०. ( श्रं )। (२) सोहन पक्षी का पर जिससे फौजी टोप की कलगी बनती है । नोट- जब पदार्थों की गरमी निकलने लगती है, तब वे तथा उनके आस-पास की हवा बहुत ही ठंडी हो जाती है । उसीसे श्रोस की बूँदें ऐसी ही वस्तु पर अधिक देखी जाती हैं, जिनमें गरमी निकालने की शक्ति अधिक हैं और धारण करने की कम; जैसे, घास। इसी कारण ऐसी रात को श्रस अधिक पड़ेगी, जिसमें बादल न होंगे और हवा तेज न चलती होगी । श्रधिक सर्दी- पाकर श्रीस ही पाला हो जाती I गा-संज्ञा पुं० [सं० श्रपामार्ग ] ( Achyranthes aspera ) श्रपामार्ग । लटजीरा । झाझाड़ा । चिचड़ा । ओंठ - संज्ञा पुं० [सं० श्रोष्ठ, प्रा० श्रोट्ट ] ( १ ) ओष्ठ। होंठ। ( Labium) Lip [देश० ] श्रोह । श्रोट । ( Garcinia zanthochymus, Hook.) ति - [ बर० ] Cocoanut नारियल । नारिकेल फल । ] Cocoanut tree नारियल का पेड़ | नारिकेलवृक्ष | [ अदि-[ बर० ] Cocoanut नारियल । नारिकेल फल । डिपिङ - [ बर० ] नारियल का पेड़ । नारिकेलवृक्ष । -संज्ञा पुं० [हिं०] रज्जुविशेष । एक प्रकार की रस्सी । सी - [ बर० ] Cocoanut नारियल । सी-पिङ् - बर० ] Cocoanut tree नारियल का पेड़ । सी -[ बर० ] Cocoanut oil नारियल का तेल । नारिकेल तैल । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४६ औकांतुस्सनः (औ) औ-संस्कृत वर्णमाला का चौदहवाँ और हिन्दी वर्ण परिणाम स्वास्थ्य होता है, ये चार काल नियत माला का ग्यारहवाँ स्वरवर्ण । इसके उच्चारण का | किये हैं। स्थान करठ और श्रोष्ठ है। यह स्वर अ+यो के (१) इब्तिदा-आदि वा प्रारम्भ अर्थात् संयोग से बना है। रोगारम्भकाल | यह वह समय है जिसमें व्याधि संज्ञा पुं० [सं० पु.] अनन्त । शेष।। उत्पन्न होती है। संज्ञा स्त्री० [सं०स्त्री.] विश्वंभरा । पृथ्वी । (२) तज़'युद, तज़ायुद-वर्धन अर्थात् औइ.य:-[अ० बहु०] [विभाऽ ए० व० ] (१) रोग वृद्धिकाल । यह वह काल है जिसमें प्रतिक्षण पात्र । बरतन । (२)तिबकी परिभाषा में शरीर रोग का वेग बढ़ता है। के आभ्यंतरिक कोठवाश्राशय । जैसे. प्रामाराय । (३) इंतिहा-अर्थात् रोग के बढ़कर ठहरने परन्तु इसका प्रयोग उरूक अर्थात् रगों के लिये भी का समय । यह वह समय है, जिसमें रोग एक होता है। वासा Vasa-ले। कन्वात । हालत पर ठहरा रहता है अर्थात् न घटता है और . औइ यतुरूह.-[अ०] रूह. का कोठ। इससे हृदय न बढ़ता है। ___ और धमनियाँ अभिप्रेत हैं। (४) इनहितात--रोगावसान वा रोगशमन और यहुल औइ.य:-[अ०] उरूक़ दम्वियः अर्थात् काज अर्थात् रोग घटने का समय । यह वह सयय धमनी और शिरा की वे छोटो-छोष्टी रगें जो पोष- है लि.समें रोग का घटाव प्रगट होता है और फलतः णार्थ उनके भीतर जाती है। वासा वैसोरम रोगी रोगमुक्ति लाभ करता है। Vasa vasorum-ले। नोट-विदित हो कि पदि उपयुक कालऔड यतुल लबन-१० ] स्तन में दूध की नालियों चतुष्टय किसी व्याधि के प्रारम्भ से अंत तक लिये के चौड़े भाग । ऐम्पुल्ला Ampulla-ले। जाँथ, तो औकात कुल्लियः कहलाते हैं और यदि औइ य: दम्विय -[१०] रक प्रणालियाँ । जैसे, रोग की एक नौबत वा बारी के लिए लिये जॉय, धमनी, शिरा और रनवेशिका । Blood जैसे शीतज्वर की बारी के चारों काल, तो पोकात vessels. जुज़ाइय्यः कहलाते हैं । अर्थात् जब किसो व्याधि औइ.यतुल्मनी-[अ०] ( Vesiculae semi- की नौबत वा बारी में ये चारों काल उपस्थित nales ) शुक्राशय । हों, तो उनकी औकात जुज़इयः संज्ञा है और औइ.य: लिम्झाविय्य:-[ अ० ] लिम्फ की रगें। जब सम्पूर्ण व्याधि मात्र में उपस्थित हों, तो उन्हें उरूक़ लिम्फ्राविय्यः। Lymphatics औक़ात कुल्लियः संज्ञा से अभिहित करते हैं । औइ.यः शअ रिय्यः-[अ०] रक्तकेशिकायें। उरूक अंगरेजी पय्यायशअ रिय्यः | Capilaries. (१) इब्तिदामर्ज़-Outset,Beginnऔएबीन-३० “ोएबीन"। ing, Attack, Stage of invasion. औकत्र -[१०] जिसके पाँव का अँगूठा अपनी (२) तज़य्युह वा वर्धन- Increase, पासवाली अँगुली पर बैठ गया हो। Anabesis, Stage of advance. औकात-संज्ञा पुं० [अ० वक्र का बहु.] समय । (३) इंतिहा-Height,Fastigium, वक्त्र। Acme. [ स्त्री० एक वचन ] (१) वक्त । समय । (४) इहितात-Decrease, Dec (२) हैसियत । बिसात । बिसारत । line. औकातुल् म र्ज-[अ० व्याधिकाल । रोग के समय । औकातुस्सन:-[अ०] वर्ष की चार ऋतुएँ । साल रोग के वे काल, जिनमें व्याधि विभिन्न दशा में | को चारों फसलें । जैसे—(१) रबी अर्थात् होती है। हकीमों ने उन व्याधियों के लिये जिनका । मौसम बहार, (२) सैफ़ अर्थात् ग्रीष्म ऋतु १४ फा. Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाते कुल्लिय्य: १८५० मौसम गर्मा, (३) ख़रीफ़ अर्थात् पतझड़ - मौसम खिज़ाँ और ( ४ ) शिता अर्थात् शरद् ऋतु - मौसम सर्मा, ज़मिस्ताँ । चौक़ाते कुल्लिय्य:-[अ०] किसी व्याधि के प्रागुक्र काल चतुष्टय जो रोगारम्भ काल से रोग के अन्त तक होते हैं । वि० दे० "चौकातुल् मर्ज़ " । औक़ाते जुज्इय्यः [ श्रु० ] रोग के वे काल चतुष्ठय ( इब्तिदा, तज़य्युद, इंतिहा और इनहितात ) जो कभी रोग के प्रारम्भ से लेकर रोगांत तक होते हैं और कभी रोग के प्रति नौबत के समझे जाते हैं । अस्तु, उक्त दशा में उनको “श्रौक़ा तजुजुइय्यः " संज्ञा से श्रभिहित करते हैं । श्रौकारी-संज्ञा स्त्री० दे० " पित्तपापड़ा" । औक़ियः-[अ० 'श्रवाकी बहु० ] एक माप जो ४० दिरम ( =१ श्राउन्स = २ || तो० ) के बराबर होती है | ounce. कछार-संज्ञा पु ं० [सं० यवतार ] जवाखार । -संज्ञा पु ं० [सं० श्रौषध ] दे० " श्रौषध" । खर- संज्ञा पुं० [सं० नी० ] उद्भिद । पांशुलवण । धन्व० नि० । खल - संज्ञा स्त्री० [सं० ऊपर ] वह भूभि जो परती से बाद की गई हो । - वि० [सं० ० थाली वा बदलोही में पकाई हुई वस्तु । स्थाली पक्क ( अन्नादि ) । ख्येयक- वि० [सं० त्रि० ] स्थाली पक्क । बरतन में पकाया हुआ ( अन्नादि ) औगेंस-कूटी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] धमनी विशेष | ( Thoraco-acromial ) अ० शा ० । औच्चैःश्रवस-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] इन्द्र घोटक । इन्द्राश्व । इन्द्र का घोड़ा । छ - संज्ञा स्त्री० [देश० ] दारुहल्दी की जड़ । प्रज-संज्ञा स्त्री० दे० " श्रीज" । जस-संज्ञा पुं० [सं० नी० ] सोना । स्वर्ण । श्रौजा - [ ० बहु० ] [ एक व० वजूअ ] दुःख | व्यथा | पीड़ा । औजार-संज्ञा पु ं० [अ०] यंत्र । हथियार । इंष्ट्र मेट | [अ०] एक प्रकार का मृदुल एवं सफ़ेद जिसमें प्रदाह और दर्द नहीं होता । परन्तु सूजन, श्रद भारीपन होता है और कभी हलका दर्द भी होता है । वर्म रिव । ( Oedema ) - श्रं० । ढीला वरम | नोट- प्रौज़ीमा, वर्म रित्र और तहब्बुज के अर्थान्तर के लिए दे० " तहब्बुज" । श्रीमा उल्- मिजार- [ ० ] स्वरयांत्रीय मंदशोथ । मिज़मार का तहब्बुज । ( Oedema of the Glottis ) । औटन -संज्ञा स्त्री० [हिं० ] ( १ ) गर्म करने की हालत । ( २ ) एक प्रकार का चाकू । श्रौटा - वि० [हिं०] उबला हुआ । जो आग पर रखने से जलकर गाढ़ा होगया हो । टी-संज्ञा स्त्री० [हिं० श्रटना ] ( १ ) वह पुष्टई जो गाय को व्याने पर दी जाती है । (२) पानी मिलाकर पकाया हुआ ऊख का रस । - वि० [सं० क्रि० ] श्राद्ध' । तर । गीला । औड़-(ड़)म्बर-संज्ञा पु ं० [ सं० नी० ( १ ) एक प्रकार का कोढ़ का रोग। मे० । सात प्रकार के महाकुष्ठों में से एक। इसमें पीड़ा, दाह, लाली श्रीर खुजली होती है तथा रोम रोम कपिल वर्ण के होजाते हैं । इसका आकार गूलर के फल की तरह होता है । श्रौदुम्बर । मा० नि० । ( २ ) ताम्र । ताँबा । जटा० ( ३ ) गूलर । उदुम्बर फल । वि० [सं० त्रि० ] उदुम्बर सम्बन्धी । औौडपुष्प-संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] अढ़उल । जपा | जवाकुसुम | हे०च० | श्री एक-संज्ञा पुं० [सं० की ० ] वेद का एक गान श्रतादुलकम - [अ०] दंत । मुँह की मेखें । तार - [अ०] बहु० ] [ वतर एक व० ] कण्डराएँ । नसें । ( Ligaments ) कण्ठ्य-संज्ञा पु ं० [सं० पु ं० ] औत्सुक्य | औत्सर्गिक - वि० [सं० त्रि० ] ( १ ) प्राकृतिक | स्वाभाविक । ( २ ) त्याज्य | छोड़ने योग्य । औत्सुक्य-संज्ञा पु ं० [सं० नी० ( १ ) उत्सुकता उत्कण्ठा । इच्छा ( २ ) चिन्ता । वा० भ० उ० १ श्र० । श्रौद - [अ०] ( १ ) लौटना | पलटना । पुनरावर्त्तन । (२) बीमार पुर्सी करना । ( ३ ) किसी काम Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औदक १८५१ श्रौदालक शर्करा का बनना । (४) अवस्थांतरित होना । एक इसमें पीड़ा, जलन, लाली और खुजली अवस्था से दूसरी अवस्था में जाना । होती है। औदक-वि० [सं० वि०] पानी से भरा हुआ घड़ा। नोट-औदुम्बर गूलर को कहते हैं । यह कोद जल पूर्ण घट। औदुम्बर के समान होता है, इसी से इसका उन औदकज-वि० [सं० वि.] जलीय वृक्षों से उत्पन्न । नामकरण किया गया है। जो भाबी पौधों से पैदा हो। वि० [सं० त्रि०] (1) उदुम्बर सम्बन्धी औदश्चन-वि० [स. त्रि० ] जलाधार स्थित । वा गूलर का बना हुआ । (२) ताँबे का बना घड़े में भरा हुआ। हुश्रा । औदश्चनक-वि० [सं० त्रि.] जलाधार के निकटस्थ औदुम्बरच्छद-संज्ञा पु० [सं० पु.] दन्ती का घड़े के पास रहनेवाला। पौधा । औदगान-वि० [सं० वि०] जलधर सम्बन्धी । जो औदुम्बरादियोग-संज्ञा पु० [सं० पु.] उक ___कूएँ या मरने से निकाला गया हो। नाम का एक योग-गूलर के मूल की छाल का क्वाथ औदनिक-संज्ञा पु[सं० पु.] (१) भात कर पीने से दाह शांत होता है एवं गिलोय का बनाने वाला । सूपकार । रसोइयादार। अमः। सत मिश्री मिलाकर सेवन करने से पित्तज्वर का (२) पका चावल अर्थात् भात दाल बेचने- . नाश होता है । वृ० नि० २० व. चि०। वाला। औदुम्बरी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक प्रकार का औदरिक-वि० [सं० वि०] (1) उदर सम्बन्धी। कृमि । (२) बहुत खानेवाला। पेट । पेटुक । तुधित । औदूखल(-ली)-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (1) भूखा। ___(acetabular)। (२) (Alveol) औदय्य-संज्ञा पुं॰ [सं० क्री.] ताम्र । ताँबा ।। औदूखल-कोटि-संज्ञा पु० [सं क्रो० ] Alveolar (२) मैनफल । मदनफल । (३) गूलर। __ point) उन नाम को संधि । अ० शा। वि० [सं० त्रि० ] उदर सम्बन्धी। पेट का । औदूखच्छिद्र-संज्ञा पुं॰ [सं० क्री] Acetabuऔदरिक। lar notch) उन नाम का एक छिद्र अशा औदाल (क)-संज्ञा पु० [सं० क्री ] दीमक और औदश्वित-संज्ञा पुं॰ [सं० क्री.] अाधे जल का | बिलनी श्रादि बाँबी के कोड़ों के दिल से निकला मट्ठा । अर्द्धजलयुक्र घोल | हे. च०। हुश्रा चेप वा मधु । रा०नि०व०१४ । · वि० [सं० वि०] जो मठे से प्रस्तुत किया गुण-कषैला, गरम तथा कटु होता है और गया हो। कुष्ठ एवं विष का नाश करता है । राज०।यह कुष्ठादि औदस्थान-वि० [सं० त्रि०] जलवासशील । पानी दोगनाशक और सर्व सिद्धिदायक है। रा०नि० में रहनेवाला। व०१४ । भावप्रकाश के अनुसार बाँबी के मध्य औदाज-[अ० बहु.][एक व० वदज़ ] गरदन स्थित कपिल वर्ण के कीट, जो कुछ-कुछ कपिल को रग। (Jugular-vein)। वर्ण का मधु एकत्रित करते हैं, उसे प्रौद्दालक मधु औदीन्य-संज्ञा पुं॰ [सं० क्ली० ] थलियभर । कहते हैं। यह रुचिकारक, स्वर को हितकारी, (Thullium) अ० शा० । कषैला, गरम, अम्ल, कटुपाकी तथा पित्तकारक औदुम्बर-संज्ञा पुं॰ [सं० की.] (1) ताम्र । है और कोढ़ एवं विष का नाश करता है। भा० ताँबा । हारा०। (२) एक प्रकार का महाकुष्ठ | पू० भ० भधु व०। धन्वन्तरि तथा राजनिघंटु रोग, जो पके गूलर के फल के समान होता है ।। दोनों के मत से "प्रौद्दालक मधु" स्वणं सदृश यह पित्तज होता है। सु. नि. अ. ५। इसमें होता है। व्याधिस्थान के रोएँ पिंगज वर्ण या पोले होते हैं। औदालक-शरा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] उहालक Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्भिज नाम के मधु द्वारा बनी हुई शर्करा । इसके गुण हाल मधु के समान हैं । रा० नि० ० १४ । यह कुष्ठादि दोषों को दूर करती और सर्व सिद्धि प्रदान करती है । श्रद्भिज्ज-संज्ञा पु ं० [सं० क्ली ] ( १ ) पांशु लवण | नोना निट्टी से निकाला हुआ नमक | रा०नि० ०६ । (२) साँभरनमक । औद्भिद - संज्ञा पु ं० [सं० की ० ] ( १ ) श्रद्भिद लवण | साँभरनमक । राज० ( २ ) वृक्षादि जातद्रव्य | पेड़ इत्यादि से उत्पन्न होनेवाली चोज | वृक्षा से उत्पन्न होनेवाले मूल, वल्कल, काष्ठ, निर्यास, डंडल, रस, पल्लव, क्षार, तीर, फल, पुष्प, भस्म, तैल, कण्टक, पत्र, कन्द और अंकुर का नाम "दि" है । वैद्यकशास्त्र में उन सभी द्रव्य के ग्रहण को विविद्य मान है । ० । १८५२ श्रौद्भिद-जल-संज्ञा पु ं० [सं० क्ली० ] पृथ्वी फाड़कर बड़ी धार से बहनेवाला जल । श्रद्भिन प्रस्तर सलिल । झरने का पानी । निम्न भूमि से ऊपर को आया हुआ जल । गुण - यह मधुर, पित्तनाशक और अत्यन्त विदाही है । सुश्रुत ने वर्षाकाल में वृद्धि के जल का प्रभाव होने पर इसी का व्यवहार विहित बताया है । औद्भिद-द्रव्य-संज्ञा पु ं० [सं० क्ली० ] पृथ्वी को फोड़कर उत्पन्न होनेवाला पदार्थ । वनस्पति और लता को औद्भिद द्रव्य कहते हैं । ये चार प्रकार के हैं । ( १ ) वनस्पति, ( २ ) वीरुध, ( ३ ) वानस्पत्य और ( ४ ) श्रोषधी । जिनमें केवल फल लगे उन्हें वनस्पति, जिनमें फूलफल दोनों लगें उन्हें वनस्पति, जो फल पकने पर सूख जावें, उनको श्रोषधी और फैलनेवाली लताओं को वीरुध कहते हैं । जड़, त्वचा, सार, गोंद ( निर्यास ), नाड़ी, रस, कोंपल (पल्लव), खार (क्षार), दूध (चीर ), फल, पुष्प, भस्म, तेल, काँटे, पत्र, शुग, कन्द और अंकुर यह सब श्रद्भिद द्रव्य के ग्रहणीय हैं । इनमें १६ प्रकार कधियों की जड़ ( मूल ), १६ प्रकार के शेष के फल, फूल, मूल त्वक् (छाल) और रसादि उपयोग में लिए जाते हैं । च० सू० फल, श्रनति बच, १० । मूल प्रधान द्रव्य ये हैं । नागदन्ती, काली निसोथ, रक्क निसोथ, विधारा, सातल', श्वेत अपराजिता, श्वेत बच, दन्ती, इन्द्रायन, मालकांगनी, कन्डूरी, शणपुधी, घंटारवा . ( झुननियाँ ), विषाणिका (मेदासींगी ), श्रजगन्धा, ती और तीरणी । फल प्रधान द्रव्य - शंखिनी, वायविडंग, पुष (खीरा), मदन फल ( मैनफल ), श्रानूपस्थलज, क्लीतक, प्रकीर्य, उदकीर्य, प्रत्यक्पुथ्वी, श्रभया, अन्तः कोटरपुष्पी, हस्तिपर्ण, शारद, कम्पिल्ल ( कबीला ), अमलतास, कुड़ा धामार्गव, इक्ष्वाकु, जीमृत ( घवरबेल ) और कृतबेधन च० सू० १ श्र० । श्रद्धय लवण -संज्ञा पु ं० [सं० की ० ] एक प्रकार का नमक जो भूगर्भ से आपसे श्राप उत्पन्न होता है । पांशु लवण | सि. यो० ग्रह चि०चित्रगुड़िका । च० द० महाषट् पलघृत | गुण-क्षार युक्र, भारी, कटु, स्तिग्ध शीतल और वातनाशक है । भा० पू० १ भ० ६० व० | स्वजनक, सूक्ष्म, हलका और वायु का अनुलोमन करनेवाला है । म० द० व० २ | तीखा, उल्लेराजनक, खारा, कटु, तिक तथा कोष्ठबद्धता, अफरा और शूल का नाशक । राज० । औद्भिद्य-संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] वृक्षादि की उत्पत्ति । पेड़ इत्यादि की पैदाइश । स- संज्ञा पु ं० [सं० की ० ] पशु दुग्ध । चौपायों का दूध | स्य - संज्ञा पुं० [सं० की ० ] पशु दुग्ध । औन [अ०] एक यूनानी तौल । श्रे क्रियः=२॥ तोला | श्रनति - संज्ञा पु ं० [सं० क्ली० ] घोड़े का एक रोग | यह गुरु भोजन, श्रमिन्द्रादि ग्रास ग्रहण और श्रश्व सम्बन्धी उपयुक्त सेवाओं के अभाव से स्वस्थानच्युत शुक्र मेहन ( लिंग ) में मारा जाता है। उससे मूत्रकृच्छ उत्पन्न होता है । पुनः कुपित रक्तमेहन में शूल उत्पन्न कर देता है । मेहन जिन्न, पक कण्डवत् पिड़िकायुक्त तथा मक्षिकावृत रहता है और अपने स्थान में प्रवेश नहीं करता ( जयदत्त ) । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहा औन्दूवर १८५३ औपसर्गिक औन्दूवर-संज्ञा पुं॰ [सं० क्ली० ] ताम्र | ताँबा । औपम्य-संज्ञा पु० [सं० वी० ] वह विषय जो दूसरे भा म०१ भ. से दसरे की सादृश्यता को प्रकाशित करता है, औपकर्णिक-वि० [स० त्रि०] कर्ण के समीप उत्प। "उपमान" कहलाता है। जैसे, दण्डक रोग दण्ड ___ जो कान के पास पैदा हुश्रा हो। के समान होता है । धनुष्टंभ रोग में मनुष्य धनुष औपकाय-संज्ञा पुं० [सं० लो० ] गृह । घर । के आकार का टेढ़ा हो जाता है। जो प्रोषधो रोग __मकान। को शीघ्र दूर कर डाले उसको तीर की उपमा दी औपकूलिक-वि० [सं० त्रि०] उपकूल सम्बन्धी । जाती है। इसको "उपमान" कहते हैं । उपमा का किनारेवाला । भाव । समता । बराबरी । तुल्यता । च. औपचारिक-वि० [सं० वि०] उपचार सम्बन्धी। । वि०८० औपजंघी-वि० [सं० वि० ] ( Peroneal A.) औपरोधिक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] पीलुदण्ड । औपजानुक-वि० [सं० त्रि०] घुटनी के पास । जानु के | समीप वर्ती। औपल-वि० [सं० वि.] पथरीला । प्रस्तर संबंधी । औपजिह्वो-वि० [सं० त्रि०] उपजिह्वा संबन्धी औपवस्त-संज्ञा पु० [सं० क्रो०] उपवास । लखन । नाड़ी| Tonsillar nerve. औपद्रविक- वि० [सं० वि० ] उपद्रव सम्बन्धी। औपधेनव-संज्ञा पुं॰ [सं० क्ली] धन्वन्तरि के एक | औपवास-वि० [सं० वि.] उपवास में देने याग्य । शिष्य का नाम । डल्लन मिश्र ने सुत की टीका औपवासिक-वि० [सं० वि०] उपवास के लिये में इनके वचन उधृत किये हैं। उपयोगी। औपधेय-संज्ञा पुं॰ [सं० की.] रथचक्र। औपवृक्क लक्षक-संज्ञा पुं० [सं० को०] एक नाड़ी चक्र औपनासिक-वि० [सं० त्रि.] नासिका के समीप विशेष(Suprarenal-plexus.)। अशा। उत्पन्न | नाक के पास निकलनेवाला। औपशभिक-वि० [सं० त्रि० ] शांतिकारक । शांतिऔपनीषिक-वि० [सं० वि.] नीविका समीपवर्ती । दायक । कमर के पास का। औपसर्गिक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (१) एक प्रकार औपपत्तिक-वि० [सं० त्रि०] युक्तियुक्त । मतलब का सन्निपात । वैद्यक के मत से जब कफ अनुलोम निकाल देनेवाला। गति से वायु ओर पित्त से मिलता है, तब मनुष्य औपभृत-वि० [सं० त्रि.] अश्वत्थ काष्ट के बने यज्ञ को पसीना पाता है और शीतलता का वेग बढ़ पात्र में संचित । पीपल की लकड़ी के चम्मच में जाता है । पुनः वायु के प्रतिलोम होने से कुछ इकट्ठा किया हुश्रा। स्वास्थ्य भी वोध होता है। इसे हो सन्निपातज वा औपमस्तिष्क(-की)-वि० [सं० त्रि० ] उप. श्रीपसर्गिक रोग कहते हैं । सुगुत के कथनानुसार मस्तिष्क संबन्धी । अणुमस्तिष्क का । (Cereb- पूर्वोत्पन्न व्याधि के निदानादि द्वारा, जो अन्य रोग ellar)। साथ में लग जाता है, उसे "ौपसर्गिक" कहते औपमस्तिष्क-दात्रिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ) हैं । यह रोग उपद्रव से उठता है । कहा हैदात्रिका विशेष । ( Falx cereballi) "प्रोपसर्गिक रोगश्च संक्रामन्ति नरानरम् ।" औपमस्तिष्क-दूष्यकला-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (माधव निदान टीका) ___ कला विशेष । (Ten torium Cerebelli) नोट-कोई-कोई अर्वाचीन लेखक इस शब्दका औपमस्तिष्क-निम्निका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] खात उपयोग संक्रामक व छूतदार (Infectious) विशेष । (Cerebellar-Fossa) रोगों के अर्थ में करते हैं। औपमस्तिष्कार्धगोलखात-संज्ञा पु० [सं० वी० ] (२ ) पापरोगादि । (३) भूतादि के आवेश खात विशेष । (Vallecula-Cerebelli) से उत्पन्न रोग। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपसर्गिक लिंग नाशक १८५४ औरसावर्तीय लक्षक वि० [सं० वि०] (१) उपसर्ग संबन्धी। (२) स्त्री । (३) पत्नी । जोरू। (२) साथ लगा हुआ। औरभ्र-संज्ञा पुं॰ [सं० पु. ] सुभत के प्रथम औपसगिक-लिंग-नाशक-संज्ञा पुं० [सं०] एक । के एक प्राचार्य का नाम । सुपुत और चक्रदत्त .. प्रकार का नेत्र सम्बन्धी रोग । ने अपने निर्मित संहिता में इनके वचन उद्धृत - लक्षण-जब अल्प सत्ववाला रोगी सहसा किये हैं । औरभ्रतन्त्र इन्हीं का लिखा है। किसी अद्भत रूप को देखता है, सूर्यादि देदीप्य- | औरभ्र(क)-संज्ञा पुं० [सं० पु.](१) भेड़ा। व मान पदार्था को देखता है, तब चकाचौंधी के पो०-ऊर्णायु । श्राविक । रल्लक । हे। कारण उस मनुष्य के नेत्रों में वातादि दोष श्राश्रय मेष । हे. च। लेकर तेज . को संशोषित करके दृष्टि को संज्ञा पुं० [स० की०] (१) मेष-मांस । मुषित दर्शनबालो, वैदूर्यक रंग के समान, भेड़ का गोश्त । म्याडार मांस-(बं.)। मेड़ी कर स्तिमित और प्रकृतिस्थ की तरह वेदना रहित कर मांस-मरा० गुण-मीठा, शीतल, भारी,काबिज देते हैं । इसोको “ोपसकिलिंगनाराक" कहते और वृंहण । (२) मेष समूह । भेड़ों का मुरड । हैं। वा. उ. १३ अ० । (३)कम्बल । ऊर्णवस्त्र । ऊनी कपड़ा । ( ४ ) मेषी औपस्थ-सक्षक-संज्ञा पु० [सं० को० ] नाड़ी-जाल हीर । भेड़ का दूध । रा०नि०व० १७ । अर्थात् प्रज्ञक विशेष । एक नाड़ी चक्र । ( Pud. वि० [सं० त्रि.] मेष सम्बन्धी । ___endal Plexus.) अ. शा। औरभ्र-दधि-सज्ञा पु० [सं०] भेड़ी का दही । दे. औपस्थी-वि० [सं० त्रि० ] उपस्थ-सम्बन्धी नाड़ी। __ "भेड़"। उपस्थ को नाड़ी । Pudendal N. औरभ्रपय-संज्ञा पु० [सं. पु.] भेड़ो का दूध । औपस्थ्य-संज्ञा पु० [सं० क्ली० ] उपस्येन्द्रिय मुख ।। - मेषी क्षीर । दे० “भेड़"। औपोन-संज्ञा पु० [सं० ली० ] बोने योग्य खेत । औरसठिया-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] औरः काक__ उप्यक्षेत्र । रा०नि० व०२। लकी । अ० शा० . औफ-[अ०] पुरुष जननेन्द्रिय । शिश्न । लिंग । औग्सतिरश्चीना- संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] पेशी . ज़कर । पेनिस-अं०। औरसत्रियोणाऔका-[देश॰ सिनेगल] गोरख इमली । गोरख चिञ्च । | विशेष। ट्रांसवर्सस थोरे कस (Transversus. औबाऽ-[अ० ] वबाऽ का बहुः । Thoracid) अ० शा० । औमीन-संज्ञा पु० [सं० क्री० ] (१) तीसो का | औरस-पार्श क-संज्ञा पु० [सं० पु.] बंधनी विशेष । खेत । अतसोक्षेत्र । (२) अतसो पूर्ण गृह । । (StarnocostalL.)। अ० शा० । औरंग-वि० [सं० वि० ] स सम्बन्धी । साँपका ।।. औरस-पृष्ठि-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] औरत-संज्ञा स्त्री० [अ० औरत ] (१) पुरुष वा | (Dorsa! or Thoracic Vertebra )! स्त्री को गुह्य इन्द्रिय । वह अवयव जिसके देखनेदिखाने में स्वाभाविक लज्जा प्रतीत हो । स्त्री-पुरुषों अ० शा०। | औरसप्रणाली-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] प्रणाली में शरीर का वह भाग जो लज्जा के कारण धर्म विशेष । ( Thoracic-Duct ) अ० शा० । विधानानुसार गुप्त रखा जाता है। पुरुषों में यह | स्थान नाभि से जाँघ तक है । पर त्रियों में मुख- औरसावर्ता-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] महा धमनी का मण्डल और दोनों हाथों के सिवा संपूर्ण शरीर वक्षस्थित भाग। ( Thoracic portion गोपनीय है। ____of aorta) अ० शा। नोट-स्त्री को औरत इसलिये कहते हैं, कि | औरसावर्तीयसक्षक-संज्ञा पुं० [सं० की. ] नाड़ी चेहरे और हाथों को छोड़कर उसका समग्र शरीर __जाल वा पक्षक विशेष । ( Plexus Aortगोप्य है। icus thoracic ) ० शा० । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और * औरसी - वि० [सं० त्रि० ] उर संबन्धी नाड़ी। सोने की नाडी । Sternal, N. thoracic N. १८५५ श्र० शा० । और: कण्ठिकी } औरः काकलकी और कण्ठ सम्बन्धी । Sterno Hyoideus. औरा-संज्ञा पु ं० दे० "आँवला” । - [ बहु० ] [ एक व० वर्क, वरन ] पत्र । पत्तियाँ | पत्ते ( Leaves ) संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] उर - [ बहु० ] [ एक व वर्क, वरिक ] कूल्हे | (Hips) बर्ग और क़-इ-बुद्द बब - [ ] रीड दाख के पत्ते । अंगूरेख़िरस । ( Uva-ursi-folia )। औराक़-कोका–[ अ० ] कोका के पत्ते । औराक़-गुले-सुने - [अ०][ गुलाब की पंखड़ियाँ पाश्चात्य त्वया नाड़ी जंघा से वा वंक्षण में होती है । यह प्लेग से भिन्न होता है । इसमें ग्रन्थीय पेशियाँ शोथ युक्त हो जाती है । दे० "ख़ैरजील" । औरिण-संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] ( १ ) मृत्तिका लवण । खारीनमक । (२) यवक्षार । जवाखार | वै० निघ० । मद० । गुलाब | - जाबो दी - [अ०] जैबोरै एडी के पत्ते । औराक़-जौज मासिल - [अ] धतूरे के पत्ते । धुस्तुर पत्र। श्रराक़-दीजताल- [ अ ] डिजिटेलिस के पत्ते । हृत्पत्री के पत्ते ( Digitalis folia )। श्रराक़ मेंती को -[अ०] मैटिकीपत्र ( Matica - श्ररुता-दे० “औरत!” औरुवुक-संज्ञा पु ं० [सं० क्रो० ] रेंडी का तेज | एरण्ड-तैल । च० द० । अजवाइन खुरासानी | औराकुल्गार - [ अ ] बर्गे-ग़ार | ग़ार के पत्ते । औरानुल्यारुल्क़र्जी - [ श्रु ] दे० " औराकुला" । औराकुल- बंज -[ ] कुंस्सी करन - [ श्र० ] के पत्ते । पारसीकयमानी पत्र । राती -[ ] एक वसामय प्रवर्द्धन, जो पपोटे पर पैदा हो जाता है । शिर्ना । कंजंक्टेवोमा ( Conjuncta voma ) । नोट - प्रायः सभी तिब्बी ग्रंथों में "औरातीस" को "शिर्नाक" का पर्याय लिखा है । पर ज्ञात होता है, कि यह श्राइराइटिस Iritis ( उपतारा प्रदाह ) से अरबी बनाया गया है। औ - [अ०] बहु० ] [ एक व० वर्म ] शोथ । सूजन । श्रामास । ( Swelling)। श्रम मग़ाबिन -[ ] एक प्रकार की सूजन जो श्ररुवेरु - [ ते० ] ख़स | उशीर । औरोक्षक संधि-संज्ञा स्त्री० [सं० पु०] उर और तक cleido-mastoid A. । श्र० शा० । 1 । श्रर्ण - वि० [सं० त्रि० ] मेष लोम जात । ऊनी । कि- वि० [सं० ० ] दे० "और्ण” । - देह संज्ञा पुं० [सं० क्री ] मरणान्त क्रिया । अन्त्येष्ठि संस्कार | और्ध्वदमिक व० [सं० त्रि० ] जो ऊपर से पैदा हो । उर्ध्वद्मोत्पन्न | श्रर्व - संज्ञा पुं० [सं० की ] दे० "और्व्व" । _सम्बन्धी । (Sternoclavicular jint) औरोक्ष-कचूचुकी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] धमनी औरोक्ष-ऋचूचुकीया -संज्ञा स्त्री०) विशेष Sterno folia ) - वि० [सं० क्रि० ] जाँघ का । ऊरु संबन्धी | श्रौर।क़-हेमेमेलिस-[ श्रु० ] हैमेमेलिस पत्र | (Ha - श्रर्वी अन्तः स्वगीया नाड़ी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] mamelis folia) एक नाड़ी विशेष | ऊरु की अन्तः स्वगीया नाड़ी । - कला - संज्ञा स्त्री० [सं० झिल्ली । श्र० शा० । श्रौर्वीकला तंसनी -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] श्रौर्वी स्त्री० ] जाँघ की कला को ताननेवाली पेशी । ( muscle tensor fasciae femoris ) । श्र० शाo | और्वीगम्भीर शिरा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री ] शिरा विशेष | श्र० शा० | श्रौर्वी जननेन्द्रिया नाड़ी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० [] ऊरु और जननेन्द्रिय सम्बन्धी नाड़ी । श्र० शा० । श्रौर्वी धमनी -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] जाँघ की धमनी । ( Femoral artery. ) श्रवनाड़ी -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ऊरुवा जाँघ की नाड़ी । ( Femoral-nerve.) श्रवपाश्चात्य त्वगीया नाड़ी-संज्ञा स्त्री० [सं० Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औषध और्वी मध्यत्वगीया नाड़ी १८५६ स्त्री.] की पाश्चात्य त्वगीया नाड़ी (Post- अँखुमा । कोपल । (२) अाधार पात्र । बरतन । erior femoral cutaneous nerve) औषण-संज्ञा पुं॰ [सं. क्री.] (1) कदरस । और्वी-मध्यत्वगीयानाड़ी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] चरपरापन । (२) मिर्च । कालो मरिच । ऊरु की मध्य त्वगीया नाड़ी। (Middle औषध-संज्ञा स्त्री० [स० क्ली.] वह द्रव्य जिससे femoral cutaneous nerve.) रोग का नाश हो। रोग नष्ट करनेवाली वस्तु । और्वी-वाह्या(बहिः त्वगीयानाडी-संज्ञा स्त्री० [सं० व्याधि हर द्रव्य । रोगन वस्तु । श्रोषधियों द्वारा निर्मित योग। स्त्री०] अरु की वाह्य त्वगीया नाड़ी| Lateral femoral cutaneous nerve. प-o-अगद । अमृत | अायुर्द्रव्य । श्रायुऔर्वी-शिरा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] जाँघ की योग । भैषज्य । जायु । जैत्र । गदारति । भेषज । शिरा । ( Femoral-vein.) अ. शा। चिकित्सित । व्याधिहर । पथ्य | साधन | प्रायश्चित् औव्य-संज्ञा पु० [सं० ली.] शोरा। शोरक । प्ररामन | प्रकृतिस्थापन । हित | च० चि०१० रोमक । धन्व० नि। चिकित्सित । हित | पथ्य । प्रायश्चित । भिषग्जित । और्व-संज्ञा पु० [सं० वी० ] (१) नोनी मिट्टी । भेषज । शमन । वा. चि० २२ ०रा० मृत्तिका लवण। (२) यवक्षार । जवाखार । नि० २० व०। ध०नि० मिश्र व०। रस (३) पांशुलवण | रेह का नमक रा०नि० चूर्ण, कषाय, अवलेह और कल्क भेद से इसके व०६। मुख्य पाँच भेद हैं। ध०नि० मिश्र व. ७ । औल-संश पु० [सं० क्री० ] सफेद सूरन । श्वेत __चरक के अनुसार इसके दो प्रकार हैं-(१) सूरण | वै. निघ। देवव्यपाश्रय और (२) युक्ति व्यपाश्रय । उनमें संज्ञा पुं॰ [देश॰] जंगली ज्वर | वन्यज्वर । मणि, मन्त्र, औषध, मङ्गल-क्रिया, बलिदान, जंगली बुखार। उपहार, होम,नियम, प्रायश्चित्, उपवास, स्वस्त्यऔल-[अ०] (१)उन्माद । दीवानगी । दीवानापन | यन, प्रणिपातन और देवयात्रादि को "देवव्यपागलपन । (२) दीवाना । पागल । पाय" कहते हैं और सशोधन, संरामन तथा औलक-[१०] दे॰ "श्रौल"। दृष्टफल की चेष्टा प्रादि को "युक्तिव्यपाराय" औला-संज्ञा पु. [ देश. ) दे० "आँवला"। कहते हैं। पुनः अंगभेद से वह दो प्रकार की औली-संज्ञा स्त्री० [सं० श्रावली ] वह नया और होती है-(१) द्रव्यभूत भोर (२) अद्रव्य भूत हरा अन्न जो पहले-पहल काटकर खेत से लाया (उपायभूत)। उनमें जो अद्रव्य भूत हैं वह उपाय गया हो । नवान्न । युक्त होती है; जैसे,भय प्रदर्शन, विस्मापन, क्षोभण, औलूक-संज्ञा पुं० [सं० क्ली० ] उल्लुओं का समूह ।। हर्षण, भर्त्सन, प्रहार, बंधन, निद्रा और संवाहपेचकझुण्ड । जटा। नादि। यह सब प्रत्यक्ष रूप से चिकित्सा की औलूखल-वि० [सं० त्रि० ] अोखली में कूटा हुआ । सिद्धि के उपाय हैं । जो द्रव्यभूत हैं, उनका औल्वण्य-संज्ञा पु० [सं० की० ] अधिकता । ज्या- वमनादि कार्यों में उपयोग किया जाता है। च. दती। उल्वणता। वि०८ ०। औवल-[१०] दे० "अब्वल"। __ वाग्भट्ट के अनुसार औषध के मुख्य ये चार गुण औशीर-संज्ञा पुं॰ [सं० पु., क्री० ] (१) बालका हैं-(१) बहु कल्प अर्थात् जिससे स्वरस.काथ. सुगन्धवाला । (२) खस वा तृण की चटाई ।। चूर्ण, अवलेह, गुटिका आदि अनेक प्रकार के रोग आसन । बिस्तर (३) चँवर । नाशक कल्प बन सके, (२) बहुगुण अर्थात् वि० [सं० वि० ] खस का । उशीर सम्बन्धी। अनेक रोगों को नष्ट करनेवाले गुरु मन्दादि मे रत्रिकं । अनेक गुणों से युक्र, (३) सम्पन्न अर्थात् औशीरिका-संज्ञा स्त्री० [सं. स्त्री.] (१) अंकुर । प्रशस्त भूमि देश में उत्पन्न हुई अनेक पाकादि Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औषध काल औषध काल संस्कार की सम्पत्ति युक्त, (४) योग्य अर्थात् व्याधि, देश, काल, दोप, दूष्य, देह, वय, और कालादि को जानकर देने योग्य उक्त चार गुण औषध के हैं; यथा, "बहुकल्प बहुगुणंसम्पन्न योग्य मौषधम्" वा० सू० ११ अ० । पुनः शोधन और शमन भेद से औषध के दो प्रकार होते हैं । जो औषध प्रकुपित दोष को बाहर निकालकर रोग दमन करती है, उसे “संशोधन" और जो वहाँ का वहीं रोग शांत कर देती है, उसे "संशमन" औषध कहते हैं। शरीर में उत्पन्नहोनेवाले वातादि दोषों को शोधनकर्ता प्रधान ये तीन औषधे हैं-यथा, (१) वायु का शोधन करनेवाला तेल वा काथादि की वस्ति गुदा में देना।। (२)पित्त को शोधन करनेवाली औषधे वैरेचनिक औषध हैं, जो मुख द्वारा पान करने से भीतरवाले मवाद को गुदा द्वारा बाहर निकाल देती हैं। (३) कफ को शोधन करनेवाली वमनकारक औषध है, जो मुख द्वारा पान करने से दोषों को बाहर निकाल कर फेंक देती है। शमन-कर्त्ता-जैसे, बादी में तैल, पित्त में घृत और कफ में शहद मुख्य औषध है। मानसिक दोषों को दूर करने के लिए धैर्य और बुद्धि परम औषध हैं और पात्मिक विकारों के लिए योगाभ्यास, समाधि और ईश्वर के स्वरूप का विज्ञान परम औषध है। ईर्षा, मद, मोह और कामादि जन्य विकारों की गणना मानसिक विकारों में है। (२) सोंठ । शुठी। र० सा० सं० औषध मारण गण। वि० [सं०नि०] श्रोषधि जात । जड़ी-बूटी से बना हुआ। औषधकाल-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] औषध सेवन करने का समय। औषध सेवन के ये १० काल हैं। (१) अन्नन (जो औषध खाई जाती है, उसके पचने के पीछे अन्न खाना ), (२) अन्नादि (औषधके सेवन करते ही भोजन करना), (३) मध्यकाल, (आहार के बीच में औषध | सेवन), (४) अन्तकाल ( भोजन करके औषध सेवन ), (५) कवलांतर (एक ग्रास खाकर औषध ले लेना फिर दूसरा ग्रास खाना), (६) ग्रासे ग्रासे (ग्रास-ग्रास में मिलाकर औषध खाना), (७) मुहुमुहुः ( भोजन करके वा बिना भोजन किए थोड़ी थोड़ी देर के अंतर से औषध खाना), (८) सान्न (श्राहार के साथ औषध खाना). (६) सामुद्ग ( आहार के पहिले और पीछे औषध सेवन ) और (१०) निशि (रात में सोने के समय औषध खाना)। रोगपरत्व से औषध-काल यदि रोगी और रोग दोनों बलवान हों, तो कफ की अधिकतावाले रोग में "अन्नन" औषध देवे अर्थात् भोजन करने से बहुत पहले औषध देनी चाहिए। जिससे औषध पच जाय।क्योंकि"अन्नन" औषध अतिवीर्य होती है। अपानवायु के प्रकुपित होने पर अाहार करने से पहिले औषध सेवन करें अर्थात् श्रौषध सेवन करते ही भोजन करलें। समानवायु के प्रकुपित होने पर भोजन के बीच में औषध सेवन करें। व्यान वायु के कुपित होने पर भोजन के अंत में प्रातःकाल का भोजन करते ही औषध सेवन करें। उदानवायु के कुपित होने पर सायंकाल का भोजन करने के पीछे औषध सेवन करे। प्राणवायु के कुपित होने पर ग्रास-ग्रास में मिला कर वा दो-दो ग्रास के बीच में औषध सेवन करना चाहिये । विष, वमन, हिचकी, तृषा, श्वास और कासादि रोगों में बार-बार औषध देनी चाहिए । अरुचि में अनेक प्रकार के खाद्य पदार्थों के साथ औषध देवें। कंपवात, आक्षेपक और हिक्का रोग में, लघु भोजन करें और आहार के पहिले और पीछे औषध देवें । कण्ठ से ऊपर वाली व्याधियों में रात में सोने के समय औषध सेवन करना उचित है । वा० सू० १४ अ० । औषध योजना काल आयुर्वेद में औषधों की सम्यक् योजना के लिए दो प्रकार का काल कहा गया है। (१)क्षणादि और ( २) व्याधि का अवस्था काल । __क्षणादि से लव, बेटि, मुहूर्त, याम, दिन, रात, पक्ष, महीना, ऋतु, अयन और संवत्सर का ग्रहण है। यथाः- 'पूर्वाद्धे वमनं देयं मध्याह्न च विरेचनम् । मध्याह्न किंचिदावृतेवस्तिं दद्याद्विचक्षणः"। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औषध परीक्षा १८५८ औषध प्रमाण साम, निराम, मृदु, मध्य और तीरणादि से उपयोग किया जाता है ? इसके सिवाय और भी औषध्यादिक का प्रयोग व्याधि अवस्था का काल औषध सम्बन्धी जो-जो उचित परामर्श एवं विचार है, जैसे-"लंघनं स्वेदनकालो यवागूस्तिककोरसः। हों, उन्हें सम्यक जानकर और समान न्यूनादि मलानांपाचनानिस्युर्यथावस्थंक्रमेणवा ॥ ज्वरे पेयाः गुणों की समालोचना करते हये औषध की परीक्षा कषायाश्च सर्पिः क्षीरं विरेचनम्। अहं वा षडह करनी चाहिये । च० सं०।। युज्याद्वीच्य दोषवलाबलम् ॥ मृदुज्वरोलघुर्देहः | औषध-प्रमाण-संज्ञा पु[सं० की ]औषध मान। दवा चलिताश्च मलादयः।। अचिरज्वरितस्यापि भेषजं | की माप-तौल । Weight and measures योजयेत्तदा" । वा० सू० १ अ०। प्राचीन काल में अनेक प्रकार के मान प्रचलित थे; परन्तु सम्प्रति शास्त्रों में दो ही प्रकार की तौलों सुश्रुताचार्य के अनुसार उक्त दस काल इस का अधिक व्यवहार पाया जाता है। (१) मागध प्रकार हैं (१) निर्भक, (२) प्राग्भवः, (३) और दूसरा कालिङ्ग (सुश्रुतोक्न) मान । अधोभन, (४) मध्येभन, (५) अंतराभक्त, _ यों तो औषध-निर्माण में चाहे जिस मान का (६) साभन, (७) सामुद्ग, (८) मुहुमुहु व्यवहार क्यों न किया जाय,औषध के गुणों में कोई (१) प्रसि और (१०) ग्रासान्तर । अन्तर नहीं पा सकता, परन्तु चरक के प्रयोगों में इनमें से निराहार औषध ली जानेवाली अर्थात् चरकीय और सुश्रु त के प्रयोगों में सुश्रुत के मान जिसमें केवल औषध ही ली जाती है निर्भक, का व्यवहार करना अधिक उत्तम है। अन्य ग्रन्थों खाने से पूर्व प्राग्भक, खाने के उपरांत के प्रयोगों में चरकीय परिभाषा का व्यवहार विशेष अधोभन, खाने के बीच मध्यभक्क, दोनों समय सुविधाजनक प्रतीत होता है। इसलिये यहाँ पर खाने के बीच अन्तराभक्क, खाने में मिलाकर पर उक्त मानों का परिचय देना उचित जान सभन, खाने के पहले और पीछे सामुद्ग, बे खाये पड़ता है। या खाये बारबार मुहुमुहुर॑सि और कौर-कौर पर चरकोक्त-औषधि मान-झरोखों के भीतर जो ली जानेवाली औषध ग्रासान्तर कहाती है। इनमें सूक्ष्म रजकण दिखाई देता है, उसे वंशी कहते से निर्भक्त वीर्य बढ़ाता, प्राग्भक्त शीघ्र अन्न पचाता, हैं । वहीअधोभक्त बहुविध रोग मिटाता, मध्येभक्त मध्य ६ वंशी-१ मरीचि देह के रोग निवृत्त करता, अन्तराभक्क हृद्यता लाता ६ मरीचि-१ सर्षप और सभक सब रोगियों के लिये पथ्य समझा ८ रन सर्षप=१ तण्डुल जाता है । सु० उ०६४ अ०। २ तण्डुल धान्यमाष औषध परीक्षा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] औषध के २ धान्यमाष%D१ यव ठीक होने न होने की जाँच । परीक्षा-विधि- ४ यव=१ अस्डिका जैसे,इस द्रव्यकी प्रकृति कैसी है ? इसके क्या-क्या ४ अण्डिका=१ माघक, हेम, धानक गुण हैं ? इसका क्या प्रभाव है ? इसके उत्पन्न होने ३ माषक-१ शाण का स्थान कैसा है या किस स्थान में होती है ? २ शाण=१द्रंक्षण, कोल, वदर किस-किस ऋतु में उत्पन्न होती है तथा उसके २ द्रंक्षण=१ कर्ष, सुवर्ण, अक्ष, विडालपदक, उखाड़ने तथा ग्रहण करने का कौन सा काल है? पिचु, पाणितल संयोगभेद से इसमें कौन-कौन से गुण प्रगट होते २ कर्ष=१ पलाद्ध, शुक्कि, अष्टमिका हैं ? किस मात्रा में देने से उत्तम गुण करती है ? २ पलार्द्ध १ पल, मुष्टि, प्रकुञ्च, चतुर्थिका, विल्व, किस प्रकार के रोग में और कौन से काल में . षोडशिका, पाम्र किस प्रकार के प्राणी के लिये उपयुक्त है ? किस २ पल=१ प्रसृत, अष्टमान प्रकार के दोषों को अपकर्षण करने के लिये एवं ४ पल-१ कुडव, अञ्जलि किस-किस दोष को शांत करने के लिये इसका २ कुडव मानिका Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औषध प्रमाण औषध प्रमाण ४ कुडव१ प्रस्थ ४ प्रस्थ=१ आढक, घट, अष्ट शराव, पात्री, पात्र, कंस ४ आढक-१ द्रोण, कलस, घट उन्मान, अर्मण २ द्रोण=१ सूर्प, कुम्भ २ सूर्प=१ गोणी, खारी, भार ३२ सूर्प-१ वाह १०० पल-१ तुला ___ उपयुक्त मान शुष्क द्रव्यों के लिये बतलाया गया है, द्रव (तरल-पतले) और भाई (तुरन्त के उखाड़े हुये गोले ) पदार्थों का प्रमाण इससे दूना होता है। जिस स्थान में "तुला" अथवा "पल" शब्द लिखा हो, वहाँ श्राद्र और द्रव पदार्थों का प्रमाण भी द्विगुण नहीं होता । साधारणतः ३२ पल का प्रस्थ+होता है, परंतु वमन, विरेचन और शोणितमोक्षण (फस्द) में '१३॥ पल का प्रस्थ माना जाता है। सुश्रुतोक्त औषध प्रमाण-अब पल कुडवादि नाम से मान की व्याख्या की जाती है:१२ मध्यम धान्य माष=१ सुवर्ण माषक १६ सुवर्णमाषक १ सुवर्ण अथवा १२ मध्यम निष्पाव (लोबिया)=१ सुवर्ण माषक १६ सुवर्ण माषक-१ धरण - धरण ( १६ माषक )=xएक कर्ष ४ कर्ष=१ पल ४ पल कुड़व ४ कुड़व-१ प्रस्थ +यह द्रव पदार्थ के प्रस्थ के सम्बन्ध में कहा गया है,क्योंकि शुष्क द्रव्यों के प्रमाण में १ प्रस्थ-४ कुडव =१६ पल का होता है। x-१ धरण अर्थात् १६ माषक का अर्द्धतृतीय (अाधाऔर तीसरा भाग) + ६५ होता है अर्थात् १६ माषक में कुछ कम होता है । इसे पूरे १६ माषक मान लेने में कोई विशेष अन्तर नहीं पा सकता। . ४ प्रस्थ१ श्रादक ४ आढ़क- द्रोण १०० पल तुला २० तुला-१ भार यह मान शुष्क द्रव्यों के लिये हैं। आई और द्रव पदार्थों के लिये इससे द्विगुण मान समझना चाहिये। चरक और सुश्रुत मान की परस्पर तुलना चरकोक्न मान में २ द्रंक्षण=४ शाण=१२ माषक या (१२४३२%3)३८४ धान्य माषक )३८४ धान्य माषक का कर्ष माना गया है और सुश्रुतोक्न कर्ष में १६ सुवर्ण माष=(१६४१२=) १६२ धान्य माषक होते हैं। इससे सिद्ध होता है कि चरकोक्न मान सुश्रुतोक मान से २ गुना है। मानसारशाण, कोल, कर्ष, शुक्कि, पल, प्रसृत, कुडव, शराव, प्रस्थ, अ ढक, श्राढक, अर्द्धद्रोण, द्रोण, सूर्प, गोणी और खारी का मान उत्तरोत्तर द्विगुण होता है। यथा-शाण से कोल दो गुना, कोख से कर्ष दोगुना और कर्ष से शुक्ति २ गुनी इत्यादि। शाण: कोलश्च कर्षश्च शुक्तिश्च पलमेवच । प्रसृतं कुडवश्चापि शराव: प्रस्थएव च ॥ अख़्ढकश्चाढकोर्ट द्रोणश्च द्रोण एव च । सूोगोणी चखारी च द्विगुणश्चोत्तरोत्तरम ।। ___माष, शाण कर्ष, पल, कुडव, प्रस्थ, श्रादक, द्रोण और गोणी का मान उत्तरोत्तर चार गुना होता है । यथामाष शाण कर्ष पल कुडव प्रस्थाढकाः। द्रोणो गोणी भवन्त्येते पूर्व पूर्वाञ्चतुगुणाः॥ शुष्का-द्रव्य भेद से मान शुष्क द्रव्य, गीले द्रव्यों से अधिक गुरु एवं तीक्ष्ण होते हैं, अतः आई (गीले) द्रव्यों का प्रमाण शुष्क की अपेक्षा द्विगुण ग्रहण करना चाहिये अर्थात् शुष्क द्रव्यों के स्थान में गीले द्रव्य काम में लाये जाय, तो लिखित परिमाण से दूना लें। यथाशुष्क द्रव्येतु या मात्रा चार्द्रस्य द्विगुणाहि सा। शुष्कस्य गुरुतीक्ष्णत्वात्तस्मादई प्रकीर्तितम् ॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औषध प्रमाण औषध प्रमाण १८६० वर्तमान तौल तथा प्राचीन तौल की। परस्पर तुलना (अ) चरकीय मान वर्तमान मान ३ रत्ती१ वल्ल......... ...........३ रत्ती x१० रत्ती-१ माषा ... १ माषा-१० रत्ती ३ माषक-१ शाण.........३॥" =३० रत्ती (४ माषा: निष्क)......५" .......... २ शाण द्रंक्षण.........७॥"320 श्राने भर २ द्रंक्षण=१ कर्ष............१५"। तो० ४ कर्ष=१ पल............५ तोले=१ छटाँक ४ पल=१ कुडव.........४ छटाँक-१ पावसेर ४ कुड़व=१ प्रस्थ.........१ सेर=(८० तो०) ४ प्रस्थ=१ आढक............... ४ सेर ४ श्राढक-१ द्रोण ...............१६ सेर २ द्रोण=१ सूर्प...............३२ सेर २ सूपं-१ भार..................६४ सेर ३२ सूर्प=१ वाह......१०२४ सेर-( २५॥४) १०० पल तुला...............६। सेर (ब) शारंगधरोक्त मागधमान वर्तमान मान सरसों-१ यव...... ४ यव-१ रत्ती........................१ रत्ती ६ रत्ती-१ माषक......... ..........६ रत्ती ४ माषा-१शाण.....................३ माषा २ शाण=१ कोल............६ माषे( तो०) २ कोल-१ कर्ष.....................१ तो० २ कर्ष१ शुक्ति.....................२ तो. २ शुक्रि-१ पल.......... .........४ तो० २ पल% प्रसूत.....................८ ता० २ प्रसृत१ कुडव.......... ...........१६ तो २ कुडव-१ शराव.....................३२ तो० २ शराव31 प्रस्थ......... ..........६४ तो० ४ प्रस्थ-१ अाढक...............३ सेर १६ तो० ४ श्राढक-१ द्रोण............१२ सेर ६४ तो+ २ द्रोण=१ शूर्प............२५ सेर ४८ तो. x यद्यपि चरक और सुश्रत में रत्ती का उल्लेख नहीं है.परन्तु सभी विद्वान इस विषय में सहमत हैं कि चरकोक्त माषा १० रत्ती का माषा है एवं विद्ववर्य चक्रपाणि ने लिखा है कि तौलने पर चरकाक्त माषा १० रत्ती के बराबर सिद्ध होता है। +१ सेर-८० तोले। २ शूर्प-१ द्रोणी............५१ सेर १६ तो. ४ द्रोणी-१ खारी............२०४ सेर ६४ तो० २००० पल-१ भार..................१०० सेर १०० पल=१ तुला.......... .........५ सेर वक्तव्यकठिन, तरल, ताप, दीर्घ, काल और देशप्रान्त भेद से भिन्न-भिन्न प्राचार्यों के मतानुसार द्रव्यमान में महान अन्तर प्रतीत होता है । यथाचरक का मान सुत के मान से द्विगुण है। एवं शाङ्गधर, रसरत्न समुच्चय, रसतरंगिणी, भैषज्य रत्नावली श्रादि गंथों में भी मानपरिभाषाओं में अन्तर है। अन्तर होना स्वाभाविक है। आजकल भी एकाधिपत्यराज्य स्थापित होते हुये भी भारतवर्ष के भिन्न-भिन्न प्रान्तों में भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ प्रचलित हैं। इसी प्रकार कालिंग तथा मागधमान से अभिप्राय भिन्न-भिन्न काल में मगध (विहार) और कलिंग देशों (उड़ीसा) में होनेवाले मान से ही है । चरक या दृढ़बल के काल में जो मान मगध देश में प्रचलित था, उन्होंने उसे ही अपने ग्रन्थ में उद्धृत किया है। सुश्रुत के काल में जो मान कलिंग देश में प्रचलित था, उन्होंने उसे ही अपनी पुस्तक में उद्धत किया। उसके अनन्तर शाङ्गधर के काल में जो मान मगध देश वा कलिंग देश में प्रचलित था, उसे शाङ्गधर ने अपनी संहिता में उद्धत किया। चक्रपाणि के काल में इन देशों में और ही मान प्रचलित था। यह चक्रपाणि निर्मित चक्रदत्त के ज्वराधिकार में स्पष्ठ है । क्योंकि चक्रपाणि ने चरक और सुश्रुत के प्रायः सब श्लोक और योगादि उद्धृत किये हैं। अतः उन्होंने चरक और सुश्रुत के सारे मान के साथ अपने काल के मान की तुलना करदी है। चरकोक मान, सुश्रतोत्र कलिंगमान से द्विगुण सिद्ध है। अतः किसी योग को चाहे चरकोक्र विधि से बनाएँ या सुश्रुतोक्न विधि से, परन्तु उसके मान अनुपात में कोई भेद न होगा। ___ यह हो सकता है कि योग सुश्रुत का हो और हम उसे चरकोक विधि से निर्माण करें, तो योग द्विगुण बन जावेगा, परन्तु योगस्थ द्रव्यों के मान अनुपात में कोई अन्तर नहीं आवेगा। __ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औषध प्रमाण १८६१ श्राज क्योंकि चक्रपाणिके समय का मान भी प्रचलित नहीं है, श्रत: चक्रपाणि के मान की सहायता से हम आधुनिक काल के मान से चरक तथा सुश्रुत के मान की तुलना करेंगे । चाहे चरको मान शार्ङ्गधरो मागधमान से न मिले; परन्तु यह दोनों ही ठीक हैं। शार्ङ्गधर ने अपनी पुस्तक में यह कहीं भी नहीं लिखा कि मागधमान से अभिप्राय चरक का मान और कलिंगमान से अभिप्राय सुश्रुत के मान से है । श्रतः शार्ङ्गधरो मागधमान को चरक का मान तथा कलिंगमान को सुश्रुत का मान कहना ठीक नहीं । परन्तु मागधमान तथा कलिंगमान देश के आधार पर हैं, काल भेद से ही इन दोनों मानों में चरक सुश्रुत और शार्ङ्गधर का मतभेद है । शार्ङ्गधर ने मागधमान का वर्णन करते हुए ६ वंशी से १ मरीचि, ६ मरीचि से १ राई और ३ राई से १ सर्षप अर्थात् १०८ वंशी का १ सर्षप माना है, यथाषड्वंशीभिर्मंरीचिःस्यात्ताभिः षडभिस्तुराजिका। तिभी राजिकाभिश्च सर्षपः प्रोच्यते बुधैः । शा० श्र० १ श्लो० १८ । परन्तु चरक में ३६ वंशी का १ सर्षप ग्रहण किया है । यथाषड्वंश्यस्तु मरीचिः स्यात्षण्मरीच्यस्तु सर्षपः । अष्ठौ तेसर्षपाः रक्तास्तण्डुलश्चापि तद्वयम् ॥ च० कल्प १२ अ । इस प्रकार चरक और शार्ङ्गधर के मत में स्थूल दृष्टि से भेद प्रतीत होता है । परन्तु चरक का सर्षप से अभिप्राय छोटी रक्कसप (राई) से ही है । क्योंकि उससे तोलने पर मान ठीक उतरता है । चरक के उपर्युक्त श्लोक में 'रक्का' शब्द श्राया है, जो सर्षप का विशेषण है, जो उस श्लोक के दूसरे चरण से ही स्पष्ट हो रहा है । चक्रपाणि भी इस श्लोक की टीका करते हुए लिखते हैं कि, "का" इति सर्वपाणां विशेषणम्" ( च० टी० १२० ) | नव परिभाषाकार ने चरक के इस श्लोक को अपनी पुस्तक में देते हुये 'रक्का' के स्थान पर 'र' ऐसा शब्द बना दिया, जो तण्डुल का पर्याय है । वहाँ का शब्दका अर्थ गुआ औषध प्रमाण नहीं, क्योंकि चरक में गुञ्जाश्रों द्वारा तोल वर्णित नहीं है और गुआ द्वारा तोलने की प्रणाली चक्रपाणि के काल से ही प्रचलित हुई प्रतीत होती है । पर वस्तुतः रक्ति शब्द तण्डुल का पर्यायवाचक श्राज तक किसी कोष में दृष्टिगोचर होते नहीं दिखाई देता । नवपरिभाषाकार को रति शब्द से तण्डुल का पर्याय बनाने की चेष्ठा व्यर्थ मालूम पड़ती है । चरक का सर्वप से अभिप्राय छोटी रक्त सर्षप (राई) से है और शार्ङ्गधर का सर्वप से अभिप्राय बड़ी रक्त सर्वप से या सम्भवतः गौर सर्षप से है, जो तोलने से शार्ङ्गधर के मतानुसार ३ राई के बराबर होती है । अतः चरक को छोटी रक्त संबंध में ३६ वंशी और शार्ङ्गघर की बड़ी रक्कसर्पप में १०८ वंशी हो सकती हैं । शार्ङ्गधर काप (बड़ी ) १ यत्र के बराबर है । ४ यव= १ गुञ्जा । ६ गुञ्जा = १ माषा । माषा यवादि की भाँति किसी वस्तु का नाम नहीं, अतः यह शार्ङ्गधर के काल में आजकल के सेर आदि की तरह कोई रूदि बाट प्रचलित होगा । मूल से यह स्पष्ट मालूम होता है । यथा यवोऽष्टसर्षपैः प्रोक्तोगुञ्जास्यात्तश्चतुष्टयम् । षड्भिस्तु रक्तिकाभिः स्यान्माष कोहेमधान्यकौ ॥ शा० १ ० १६ श्लो० । चरक के मान का विवेचन निम्न है:८ रक्त सर्षप ( छोटी ) - १ तण्डुल ( बड़ी सौगन्धिक ( वासमती) चावलों को तोलने से १ चावल छोटी रक्रसर्षप के बराबर होता है ) । २ तण्डुल = १ धान्य माष ( यह भी छोटे कार के कृष्ण उदों के साथ तोलने से ठीक बैठता है । ) २ धान्यमाष= १ यव ( यह भी तोलने पर ठता है । ४ यव= १ श्रएडक, ४ अण्डक= १ माषा । यह बाट यवादिकों की तरह किसी वस्तु विशेष के नाम पर नहीं, किन्तु रूदि प्रचलित हुआ प्रतीत होता है। इससे श्रागे शार्ङ्गधर का मान पश्चात् वर्णन किया जायगा । प्रथम चरक के शेष मान का वर्णन किया जाता है। लेख Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औषध प्रमा वृद्धि के भय से श्रागे मूल श्लोकों का उदाहरण नहीं दिया गया; किंतु श्रध्याय नम्बरादि का निर्देश कर दिया गया है । विज्ञ पाठक स्वयं चरक कल्प स्थानादियों में भलीभाँति देख सकते हैं । दे० च० कल्प १२ श्र० । ३ मा०=१ श(ण ( यह शब्द भी रूड़ है ) । २ शाण= १ द्वंक्षण, कोल, बदर, यदि यह भी रूदि शब्द हैं। अर्थात् चरको १ कोल या द्वंक्षण में ६ माशे और चरक के १ माशा में ३२ उर्द के दाने घटित होते हैं जो उपयुक्त से स्पष्ट है । तात्पर्य यह है, कि चरक का कोल १९२ उर्द के दानों के बराबर हैं । यहाँ चक्रपाणि का श्रभि प्राय निम्न है - १८६२ १२ उर्द के दाने ५ बड़ी गुआ के बराबर हैं, तो १६२ उर्द के दाने ८० बड़ी गुञ्जा के बराबर हुए | यथा - ५x१६ =८० बड़ी गुञ्जा । श्राजकल एक रुपया का तोला माना जाता है। वह तोला आजकल ६६ मध्यम आकार को गुञ्जाश्रों का माना जाता है, जो सबको विदित है। रुपये को बड़ी गुञ्जा के साथ तोलने से वह ठीक ८० गुञ्जा के बराबर तुलता है और चरक का कोल भी ८० गुञ्जाओं के बराबर हैं । अतः चरक का कोल= १ रुपया = १ तोला ठीक है। जिस स्थान में चरक का कोल मान लिखा हो, वहाँ निःसंकोच १ तोला ग्रहण करना उचित होगा । श्रागे चरकाचार्य लिखते हैं । २ कोल = १ कर्ष, सुवर्ण, श्रक्ष, विडालपदक, पिचु, पाणितल, तिन्दुक, कवलग्रह, इन नामों में दो नाम सार्थक प्रतीत होते हैं, शेष रूदि हैं; यथा - पाणितल - जितनी चीज़ फैलाए हुए हाथ की तली में आए। तथा तिन्दुक ( तेन्दूफल ) एक फलका नाम है, तःसमान कर्षमान हो सकता है। अभिप्राय यह है कि चरक का कर्ष २ तोले के बराबर है । नोट- चरक की किसी भी वस्तुका मान १ कर्ष से अधिक नहीं है, तो उसमें उपर्युक्त माना 'नुसार ही चीजें डालनी चाहिये । इससे आगे कुछ कठिनता होगी, जिसका स्पष्टीकरण आगे होगा । औषध प्रमाण २ कर्ष = १ पलार्धं, शुक्ति, अष्टमिका । ( शुक्ति सोप का नाम है, उसमें २ कर्ष ४ तोले के करीब वस्तु ा सकती है)। २ पला = पल, मुष्ठि, प्रकुञ्च, चतुर्थिका, विल्व, घोडशिक, श्राम्र । इन नामों में विल्व तथा श्राम्र दो संज्ञाएँ फलों के अनुसार हैं एवं मुष्टि बन्द किए हुये हाथ को कहते हैं । अन्य शब्द प्रायः रूढ़ि हैं । अतः चरक का पल =४ कर्ष आजकल के तोले के बराबर होता है । ( यह ऊपर स्पष्ट है ) क्योंकि आजकल = तोले का कोई बाट प्रचलित नहीं, इसलिए चरक की वस्तु १ पल लेने के लिए कठिनता होती है । इसी प्रकार पल से श्रागे के बाद भी श्राजकल नहीं मिलते; इसलिए इस सारे झगड़े को मिटाने के लिए एक सरल उपाय है, जिसमें कुछ हानि भी नहीं होती और कठिनता भी दूर हो जाती है । वह है यह कि पल को ८ तोले न लेकर 4 भाग इसमें और अधिक मिला लें अर्थात् ८x =२ तोले । इसका अभिप्राय यह हुआ, कि पल = +२= १०तोले = २ छटाँक | इस प्रकार करने से श्रागे का सारा मान हल होजाता है । यथा - चरक कल्प १२ अ० में । २ पल=१ प्रसृत, श्रष्ठमान । प्रसृत मुष्टि का प्रसार कर देने से बनता 1 तथाहि - " पाणिन्युब्जः प्रसृतिः" इत्यमरः । वैसे प्रसृति में १६ तोले बनते हैं। पर सब मानों के साथ 4 भाग बढ़ाते जाने से आधुनिक मान से तुलना करने में बहुत सहूलियत होती है, इसलिए बनता है । इसी प्रकार २ प्रसृत = १ कुडव, अञ्जलि ( बुक इति प्रसिद्धः ) श्रमर कोष में भी लिखा है, कि - "तौ (प्रसृती ) युताञ्जलिः पुमान्" । इसमें 1⁄2 भाग जोड़ देने से कुड़व1⁄2 सेर का बनता है । १ प्रसृत = १ पाव २ कुडव = १ मणिका, शराव । 4 भाग जोड़ देने से मणिका १ सेर की बनती है । नोट - चरकोल मानानुसार माणिका (शराब) ६४ तोले की बनती है । यू० पी० श्रादि कई प्रान्तों में १ सेर ६० तोले का माना जाता है। वहाँ के सेर को हम माणिका कह सकते हैं । पर पंजाबी सेर तो माणिका के साथ भाग जोड़ने ही से बनता है । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औषध प्रमाण १८६३ औषध प्रमाण श्रागे सब मानों में क्रमशः 1 भाग जोड़ देने से अाधुनिक मान से निम्न लिखित समता होगी। २ माणिका प्रस्थ=२ सेर ४ प्रस्थ१ श्रादक-5 सेर अाधुनिक पर्या–पात्र, कंस, भाजन ४ श्रादक=१ द्रोण=३२ सेर अाधुनिक पर्या-श्रमण, नल्वण, कलश, उन्मान २ द्रोण=१ शूर्प, कुभ=६४ सेर अाधुनिक २ शूर्प-१ गोणी१२८ सेर अाधुनिक प-०-खारी, भार नोट-गोणी बोरी को कहते हैं और गोणी (बोरी) में प्राटा गोधूभादि वस्तु २॥ मन के लगभग पाती है। यदि आधुनिक मान से तुलना करने के लिए चरक के मान के साथ भाग न जोड़ा जावे, तो चरक की गोणी भी लगभग २ मन के करीब बनती है। हम अपनी सरलता के लिए सब मानों के साथ 1 भाग जोड़ लेते हैं, जिससे कोई भेद नहीं पड़ता । आगे चरक में__३२ शूर्प=१ वाह ! भाग जोड़ने से ५१ मन ८ सेर के बराबर बनता है। नोट-चरक के जिन योगों में कोई भी चीज़ पल से कम नहीं या पूरा पल हो, वहाँ सब द्रव्यों का मान भाग जोड़ने से जो मान ऊपर निकाला गया है, लेने में सरलता रहती है और यदि किसी भी योग में सब द्रव्यों के मान पल से कम हैं, तो भी उपयुन विधि से ही अर्थात् 1 भाग न बढ़ाकर कोल से १ तोला आदि ग्रहण करना चाहिये । और यदि किसी योग में पल से कम तथा पल से अधिक दोनों प्रकार के मान हों तो निम्नलिखित विधि से ताले । वाले द्रव्य यथा-- ऐसे योगों में पलमान या उससे ऊपर मान के | द्रव्यों के साथ भाग बढ़ाकर लिया हुआ होता है, इसलिये पल से कम अर्थात् कोलादि मानों के साथ भी भाग बढ़ाकर ही लेना चाहिये अर्थात् कोल से १ तोला न लेकर तोले या । औंस लेना चाहिये और कर्ष से २॥ तोला या १ औंस । ऐसी समता किये बिना और कोई हल है ही नहीं। इन योगों में जो वस्तु गिन कर डाली जाती है, यथा-५०० श्रामले या २०० हड़ें आदि। उनके साथ भी 1 भाग और बढ़ा लेना चाहिये अर्थात् ५०० के स्थान में ६२५ आमले तथा २०० हड़ों के स्थान में २५० हड़ें आदि। आगे चरक कल्पस्थान के १२ अध्याय में लिखते हैंतुलां पलशतं विद्यात्परिमाण विशारदः । शुष्कद्रव्येष्विद मानमेवादि प्रकीर्तितम् ॥ अर्थात् १०० पल तुला (चरक के वास्तविक मान के साथ भाग जोड़ने से तुला १२॥ सेर की बनती है)। चरक के इस श्लोक की दूसरी पंक्ति से स्पष्ट है कि यह मान केवल शुष्क द्रव्यों को तोलने के लिये बरतना चाहिये । बंगालो वैद्य, जो शुष्क द्रव्यों को तौलने के लिये प्रस्थ करके ४ सेर लेते हैं, वह सर्वथा युक्ति शून्य हैं। द्विगुणंतहवेष्विष्टं तथा सद्योद्ध तेषु च । यद्धिमानं तुला प्रोक्त पलं वा तत्प्रयोजयेत् ।। अनुक्त परिमाण तु तुल्यं मानं प्रकीर्तितम् । च. कल्प १२०॥ अर्थात् द्रव (तरल) तथा सद्यः उद्धत (आई व सरस) द्रव्य लेना हो, तो उस दिए हुए परिमाण से द्विगुण लेना चाहिये। यथा, १ प्रस्थ बादाम कहने से २ सेर लिये जावेंगे। परन्तु १ प्रस्थ घृत कहने से 'द्रव' होने के कारण ४ सेर लिया जावेगा । और यदि गोक्षर कहा जावे और उसे सूखी प्रयोग करनी हो. तो १ प्रस्थ के स्थान में २ सेर और यदि गीली प्रयोग करनी हो, तो १ प्रस्थ के स्थान में ४ सेर लेनी चाहिये। चरक के उपयुक्त श्लोक में लिखा गया है, कि •जिस योग में तुला या पल मान में द्रव या अन्य भाई द्रव्य लेने लिखे हों, वहाँ किसी को भी द्विगुण नहीं करना चाहिये अर्थात् १ पल घृत से द्रव होने पर भी एक पल ही घृत लेना चाहिये। __कई प्राचार्यों का मत है, कि द्रव द्वैगुण्य परिभाषा कुडव से ऊपर ही करनी चाहिये । कुडव से नीचे तरल होने पर भी द्विगण नहीं करना चाहिये । तथाहिरक्तिकादिषु मानेषु यावन्न कुडवो भवेत् । शुष्के द्रवायोश्चैव तुल्यं मानं प्रकीर्तितम् ।। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औषध प्रमाण १८६४ औषध प्रमाण जतुकर्ण ने भी कहा है, कि "द्विगुणाः कुडवादयो द्रवाणाम्" इत्यादि। नोट-यह द्विगुण करने की विधि उन वस्तुओं के लिये प्रयुक्त हो सकती है, जो श्राद् और शुष्क | दोनों अवस्थाओं में प्रयुक्र होती हैं और जो वस्तु केवल आर्द्रावस्था में ही प्रयुक्त होती है, उन्हें पा लेते हुये भी द्विगुण नहीं करना चाहिये । यथावासाकुटज कूष्माण्ड शतपत्री सहामृताः। प्रसारिण्यश्वगन्धाश्च शतपुष्पा सहाचराः॥ नित्यमाः प्रयोक्तव्या न तेषां द्विगुणं भवेत् । च० कल्प-चक्र-टीका । अन्यत्रापिवासा निम्ब पटोल केतकिबला कूष्माण्डकेन्दीवरी । वर्षाभू कुटजाश्वगंध सहितास्ताः पूतिगंधामृता ॥ मांसी नागवला सहाचरपुरौ हिंग्वार्द्र के नित्यशो । प्राह्याम्तत्क्षणमेव न द्विगुणिता ये चेत जातागणाः ॥ शाङ्गधरीयमान शाङ्ग धरोक्न मागधमान तथा कलिंगमान दोनों परस्पर सम हैं और उन दोनों का पल ४-४ तोले का है अर्थात् चरकोक्त मागधमान से शाङ्गधर के मागध तथा कालिंगमान दोनों श्राधे हैं. और सुश्रुत के कालिंगमान के बराबर हैं। यह श्रागे स्पष्ट होगा। यथा-शाङ्गधरोक्न मागधमान-(जिसका वर्णन पूर्व में अपूर्ण ही छोड़ दिया गया था)। - सर्षप-१ यव (साधारण श्राकार का) ४ यव साधारण गुञ्जा (मध्यम आकार की तोल कर देखा गया है, ठीक है।) ६ गुजा=१ माषा ४ माषा%१ शाण ४ शाण=१ कर्ष। चरकीयमागध परिभाषा इसका अभिप्राय यह हुआ, कि शाङ्ग धरोक्त मागधमान के एक कर्ष में मध्यम आकार की ६६ रत्ती हुई, जो अाजकल के ५ तोला के बराबर हुआ और इसका पल ठीक ४ तो० का बना । इसका अभिप्राय यह हुआ, कि शाङ्ग धर का माग धीय पल सुथ त के कलिंगीय पल के बराबर है। (यह आगे स्पष्ट होगा) इसी प्रकार शाङ्ग धर का कलिंगीय पल भी ४ तोले के बराबर है । यथा__ १२ गौर सर्षप=१ बड़ा यव (यह भी बड़े यवों से तौलने पर ठोक बैठती है)। २ बड़े यव-१ बड़ी गुञ्जा (यह भी तोलने पर ठीक बैठती है)। ८ बड़ी गुंजा=१ माषा १० माष =१ कर्ष ४ कर्ष =१ पल इसका अभिप्राय यह हुआ, कि शाङ्गधर का कलिंगीय कर्ष ८० बड़ी गुजा का तथा पल ३२० बड़ी गुञ्जा का बनता है और आजकल का तोला भी ८० बड़ी रत्तियों के समान होता है। यह पीछे स्पष्ट कर दिया गया है, कि एक तोता में मध्यम श्राकार की ६६ गुजाएँ तथा बड़े आकार को सिर्फ़ ८० गुमाएँ ही होती हैं। अतः अब सिद्ध हो चुका कि शाङ्गधर का कलिंगीय कर्ष भो १ तोला का तथा पल ४ तोले का ठीक बैठता है। अतः शाङ्ग धर के मागधीयमान तथा कलिंगीयमान में कोई भी भेद नहीं और यह दोनों सुश्रुत मान के बराबर (आगे स्पष्ट होगा) तथा चरकीय मागधमान से प्राधे हैं। नोट-अब शाङ्गधर मान की भी आधुनिक मान से तुलना करने के लिये पूर्ववत् चरकीय मानवत् भाग और बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार शाङ्गधर का पल १ छटाँक के बराबर और कर्ष १६ तोले वा श्रीस के बराबर हो जायगा । यदि हम इसको भी द्विगुण करले, यथा-पल-दो छटांक तथा कर्ष २॥ तोले या १ ओस, तो योगों की वस्तुओं की मान Ratio में कोई भी अंतर नहीं पड़ सकता । अतः हम सब योगों (चाहे वह सुश्च त के हों वा चरकादि) के लिए एक ही मान परिभाषा निर्धारित कर सकते हैं। और वह है चरकीय मागधमान परिभाषा। क्योंकि पूर्वजों ने भी इसी की अधिक प्रशंसा की है। शाङ्गधर मान परिभाषा पल से आगे प्रायः चरक सुश्रुत मान परिभाषा के समान है । अतः उसका और पुनः विशेष वर्णन दुहराने की कोई आवश्यकत प्रतीत नहीं होती। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औषध प्रमाण १९६५ औषधि वीर्य अब इससे आगे सुश्रुत के कलिंगीयमान की | मान सरल है, विज्ञ वैद्य स्वयं विचार कर निष्कर्ष अाधुनिक मान से तुलना का विवेचन श्रारंभ होता प्राप्त कर सकते हैं। "अश्विनीकुमार से उद्धृत" । है । यथा-सु० चि० ३१ अ० में नोट-अन्य यूनानी एवं डाक्टरी (एलोपैथी) १२ धान्यमाष(मध्यम प्राकार के उर्द)-१ सुवर्णमाष मानों के लिए देखें "मान"। १६ सुवर्णमाष=१ कर्ष औषधालय-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] वह स्थान जहाँ ४ कर्ष=१ पल नाना विध औषध सदा विक्रयार्थ प्रस्तुत रहे । - इससे यह सिद्ध होता है,कि सुश्रुत के कलिंगीय | ___ ओषध भाण्डार । औषध गृह । दवाखाना । कर्षमान में १९२उर्द होते हैं । प्रथम यह चक्रपाणि | औषधि, औषधी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) के मतानुसार स्पष्ट हो चुका है कि १२ मध्यमाकार गुरुच । गुड़ ची। (२) रास्ना । (३) दूब । उर्द=५ बड़ी रत्ती के बराबरहोतेहैं (यह भी तौल कर (४) सफ़ेद दूब। (५) हड़। हरीतकी। ठीक देखा गया है) तो १६२ उर्द ८० बड़ी रत्तियों (६) मद्य । शराब । (७) औषध । दवा । के बराबर होते हैं । यथा-५४१६-८० बड़ी रत्ना०। (८) फलपाकान्त-वृक्ष प्रादि । श्रोषधि । गुना और ६० बड़ी गुञ्जाएँ १ तोला के बराबर हे. च० । (६) सम्यक् ओषधि । अच्छी जड़ी बूटी। होती हैं । यह पीछे स्पष्ट हो चुका है, इस प्रकार औषधिगन्ध-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] सूघने से ज्वसुश्रत का कर्ष ठीक १ तोला का तथा पल ४ तो. ही बैठता है। रादि उत्पन्न करनेवाली औषध की गंध । जिस जड़ी-बूटी की खुशबू से बुखार वगैरः बीमारी इसमें भी पूर्ववत् + भाग जोड़ देने से सुश्रुत लग जाय । च० द. ज्वरातिसार-चि०। का पल १ छटाँक हो जाता है। इस प्रकार सब औषधिगन्धज्वर-संज्ञा पुं० [सं० पु.] एक मानों की समता हो गई। प्रकार का ज्वर जो तोव ओषध के सूंघने से होता अब आगे स्पष्टीकरणार्थ सब मानों की संक्षिप्त है। इसमें मूर्छा, सिर-दर्द, वमन और छींक-ये तालिका दी जाती है लक्षण होते हैं। किसी-किसी ने छींक की जगह हिचकी का चलना लिखा है। वस्तुतः यह ज्वर शाङ्गधर वा सुश्रुत चरकीयमाना- के मानानुसार (हमारा हल)। दुर्गन्धित पदार्थोकी गंधसे होता है । वैद्यकके मत से इसमें "सर्वगंध का काढ़ा" पिलाना और नुसार (चरक से विल- भाग बढ़ाकर "अष्टगंध की धूनो" देना उपकारी है। कुल आधा) औषधि प्रतिनिधि-संज्ञा स्त्री० [सं० पु.] किसी कर्ष-२ तो० १ तो० तोव्या२ तो० औषधि के बदले दूसरी औषधि का ग्रहण । किसी औषधि के न मिलने पर उसके समान गुणधर्म पल- तो० ४ तो० ५ तो०-या । १० तो. की अन्य औषधि का लेना। द्रव्यांतर ग्रहण । २० तो० ,या बदल । प्रतिनिधि लेने के लिये शास्त्र की आज्ञा ४० तो० ॥ है । जैसे, यदि चीता न मिले तो दंती लेना चाहिये, दंती न मिले, तो चीता लेना चाहिए। पर इस माणिका-६४तो० ४० तो० आया बात का ध्यान रहे कि, योग की प्रधान औषधि ८० तो०७१ के बदले प्रतिनिधि या बदल न लिया जाय । प्रस्थ-१२८ तो० ६४ तो. ८० तो०७१ या नोट-प्रत्येक ओषधि को प्रतिनिधि हर १६० तो०७२ औषधि के वर्णन के साथ दी गई है । अस्तु, वहाँ नोट-इस प्रकार द्विगुण होने पर भी अनुपात ( Ratio) में कोई भेद नही पड़ता, चाहे औषधि वीर्य-संज्ञा पुं० [सं० क्री० ] शीतोष्ण आदि योगस्थ द्रव्यमान द्विगुण हो जाय । इससे आगे रूप औषधि का वीर्य । औषधि की ताकत। यह १६ फा. कुडव-३२ तो १६ तो० ३२ तो० देखें। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औषधी पश्चामृत १८६६ आठ प्रकार का होता है । यथा-शीत, उष्ण, रूत, स्निग्ध, तीच्ण वा तीव्र, मृदु, पिच्छिल और विशद । श्रौषधि वीर्य बल एवं गुण के उत्कर्ष से रस को दबा अपना काम करता है । सु० सू० ४० श्र० । सूर्य और चंद्रमा के कारण जगत के श्रग्नि और सोमीयत्व गुण से किसी-किसी ने वीर्य दो ही प्रकार का माना है अर्थात् उष्ण और शीत । औषधी पञ्चामृत-संज्ञा पु ं० [सं० क्ली](१) अमृत जैसी इन पाँच श्रौषधियों का समूह - गुरुच, गोखरू, मुसली, मुण्डी और सतावर । (क) - संज्ञा पुं० [सं० क्ली] ( १ ) एक प्रकार काकां । ( २ ) पांशु लवण । शोरा (३) छुटिया नोन । रेह का नमक । मृत्तिका लवण | खारी नमक । पर्याय- श्रौषरक | सर्व गुण । सर्व्वरस | सर्व संसगं लवण । ऊषरज । ऊषरक । साम्भर । बहुलवण । मेलक लवण | मिश्रक । ( ४ ) सैंधा नमक । सैंधव लवण । ( ५ ) ऊपरदेषज लवण | गुण — बार, तिल, विदाही, मूत्रसंशोषकारक ग्राही, पित्तकारक और वात-कफ नाशक है । (रा० नि० ० ६) । ( ६ ) क्षार । मद० ० २ । औषधीपति-संज्ञा पु ं० [सं० ० ] श्रौषधी का राजा सोम । औषधीय - वि० [सं० त्रि० ] श्रौषधि संबन्धी जड़ी बूटी का । दवा का । औषस - वि० [सं० त्रि० ] ( १ ) उषाकालोत्पन्न | जो सवेरे पैदा हो। (२) उषासम्बन्धीय । सहरी । सिदोसी । औषसिक - वि० सहरी । सिदौसी । [सं० त्रि० ] उषा सम्बन्धीय श्रष्णिज वि० [सं० क्रि० ] ऊँट का । ऊँट सम्बन्धी । औष्ट्रक -संज्ञा पु ं० [सं० की ० ] ऊँटों का समूह औष्ट्रतक्र -संज्ञा पु ं० [सं० नी० ऊँटनी के का दूध औषिक - वि० [सं० पै शमन्द । औष्ट्र - संज्ञा पुं० [सं० क० ] ऊँटनी का दूध श्रादि । मट्ठा । गुण - ऊँट का मट्ठा दोषकारक है तथा पीनस, में हितकारी कहा गया है “ऊँट” । • फीका, भारी, हृद्य और श्वास एवं कास रोग 1 । वै० निघ० । दे० श्रष्ट्रनवनीत-संज्ञा पुं० [सं०ली० ] ऊँटनी का मक्खन | ऊँटनी के दूध से निकाला हुआ। नैनू । गुण - लघुपाकी, शीतल, व्रण, कृमि, कफ तथा रक्त के दोष का नाशकरनेवाला, वातनाशक और विषनाशक है। रा० नि० व० १५ । औष्ट्रमूत्र-संज्ञा पुं० [सं० नी० ] ऊँट का पेशाब | उष्ट्रमूत्र । गुण — उन्माद, सूजन, बवासीर, कृमि और उदरशूल नाशक । मद० ० ८ । में औष्ट्र्क्षीर-संज्ञा : ० [सं० नी० ] ऊँटनी का दूध । उष्ट्रदुग्ध । दे० "ॐ" । औष्ट्राय - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] उष्ट्रवंशीय | श्रष्ट्राति-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] गुरु । उस्ताद | शिक्षक | औष्ट्रिक - वि० [सं० त्रि० ] ऊँट से पैदा । उष्ट्रजा । औष्ट्रीघृत-संज्ञा पु ं० [सं० क्ली० ] ऊँटनी का घी | उष्ट्रीनवनीतज घृत | गुण-पाक मधुर, कटु, शीतल, कृमि और कोढ़ नाशक तथा वात, रोग का नाश करनेवाला है। औष्ठ - वि० [सं० त्रि० ] श्रोष्ठ के होंठ जैसा बना हुआ । औष्ठ्य - वि० [सं० त्रि० ] ओंठ से सम्बन्धी | होंठ का । निकला | होंठ औष्ण - संज्ञा पुं० [सं० ली० ] ( १ ) उष्णता । गरमी । (२) उत्ताप | धूप । ( ३ ) सन्ताप | बुखार | त्रि० ] उषाकालोत्पन्न । । ( २ ) उपाकाल को भ्रमण करनेवाला । जो प्रातःकाल निकल कर टहलता है। षि (षी) - वि० [सं० त्रि० ] इच्छुक | ख़ाहि श्रष्णिज - संज्ञा पुं० [सं० क्री० ] ( १ ) पगड़ी | साना । वि० [सं० क्रि० ] पगड़ी से सम्बन्ध रखने वाला । कफ एवं गुल्मोदर रा० नि० व० १५ । श्राकार सदृश । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औष्णीक १८६७ औसी औष्णीक-वि० [सं० त्रि०] उष्णीवधारी । पगड़ी होता है कि औसज और उल्लैक प्रायः सजातीय बाँधनेवाला। पौधे हैं। दोनों के गुणधर्म में भी समानता है, औष्ण्य -संज्ञा पु० [सं० वी० ] उष्ण ता। गरमी । जैसा गाज़रूनी के मुफरिदात कानून की व्याख्या धूप । संताप । से प्रतीत होता है । कन्जललुगात तुर्की में इसको औष्म्य-संज्ञा पुं० [सं० जी० ] उष्णता । ऊष्मा । अम्बरबारीस समझना भूल है। प्रकृति-प्रथम कक्षा में शीतल और द्वितीय गरमी। औसक्कामुस-[ यू० ] दे० "श्रोसक्वामुस” । कता के अन्त में रून; कोई-कोई कहते हैं कि यह तृतीय कता में रूत है। पर यथार्थ यह है कि औसज-[अ० ] ऊसज। जंगली तृतीय कक्षा में रूक्ष होगा। गीलानी के औसज-[अ० श्रीसज ] एक काँटेदार वृक्ष जो ऊँचाई कथन से भी यही प्रतिपन्न होता है। जहाँ पर एवं प्राकार-प्रकार में अनार के पेड़ से मिलता उन्होंने इसके जङ्गली और बागी भेदों का निरूपण जुलता होता है । इसको शाखाएँ खड़ी होती हैं। किया है, वहाँ जंगली को अत्यन्त शोषणकर्ता और वे काँटों से व्याप्त होती हैं। काँटे तीक्ष्णाग्र लिखा है । हानिकर्ता-पीहा को । अधिक भक्षण होते हैं । तना पतला होता है। पत्ती हरे रंगकी करने से कुलञ्ज पैदा करता है । दर्पघ्न कतीरा । बादाम की पत्ती की तरह होती है; किंतु बादाम प्रतिनिधि-सुपारी, छड़ीला और अक़ाकिया। की पत्तियों से बहुत छोटी होती है और उनमें | मात्रा-४॥ माशे। चिपकती हुई रतूबत होती है। फल चने के गुण-कर्म-प्रयोग-इसकी पत्तियों का रस बराबर और दीर्घाकार लाल रंग का होता है और निचोड़कर ७-८ दिन आँख में डालने से जाला वृक्ष पर बहुत दिनों तक लगा रहता है, गिरता कट जाता है । यही नहीं, इसका सर्वाङ्ग नेत्ररोग नहीं। इसके वृक्ष क्षारीय एवं ऊषर भूमि में में लाभकारी है ।मुखपाक में भी यह उपयोगी है। उत्पन्न होते हैं। इसकी एक जाति के पत्ते ललाई पित्तजनित कण्डू और दद्, प्रभृति सौदावी रोगों लिये काले रङ्ग के होते हैं और प्रथम प्रकार के में चोबचीनी की अपेक्षा यह अधिक उपयोगी पत्तों से चौड़े होते हैं। इन काले पत्तोंवाले पेड़ ख्याल किया गया है। में काँटे बहुत होते हैं और शाखाएँ भी इसकी शरीफ़ और गीलानी के अनुसार यह कुष्ठ में बड़ी-बडी-चार-चार गज लम्बी होती है। भी उपयोगी है। अंताकी ने इसके काढ़े को तर इसका फल चौड़ा और बारीक होता है। ऐसा एवं रुक्ष तथा खुजली और फोड़े फुन्सियों के लिए प्रतीत होता है, मानो कोषावृत्त है। इसकी एक गुणकारी लिखा है और इसे चोबचीनी से जाति और है जिसके पत्ते सफ़ेदी लिये होते हैं। उत्तम माना है। इसकी जड़ को श्रास के पत्तों के शेखा के अनुसार इसके फल तूत की तरह होते हैं, साथ पीस कर फोड़ों और दुष्ट क्षतों पर लगाने से जिसे लोग खाते हैं। शीत-प्रधान देशों में इसके बद-गोश्त उड़ जाता है। क्षत पूरण होता है। वृक्ष बहुतायत से उत्पन्न होते हैं। श्रीसल जंगली इसकी पत्तियाँ रक तरण में लाभकारी हैं। ये केश और बाग़ी दोनों प्रकार का होता है। जंगली उगाती हैं । इसका फल स्तंभक है और दस्त का पेड़ बहुत बड़ा होता है। इनमें हरे पत्तोंवाला बन्द करता है, इसके सभी गुण-प्रयोग पत्तों के सर्वोत्कृष्ट है। इसकी हरी और कोमल पत्तियाँ सदृश ही हैं । इनको धूनी से कीड़े मकोड़े भाग औषधार्थ व्यवहार में आती हैं। सफेद खार जाते हैं। इसकी टहनी गृह की छत वा द्वार पर वाशक बर्जी (फा०) लटकाने से जादू का प्रभाव नष्ट होता है टिप्पणी-बुर्हान के अनुसार यह उल्लैक की समीप रखने से उसकी प्रतिष्ठा होती है, यह भाँति एक वृक्ष है, जिसके पत्ते पकाते और ख़िज़ाब ! इसको विशेषता है। के काम में लाते हैं। किसी-किसी के मत से उल्लैक औसल-[१०] औसज । इसका एक भेद है । इन कथनों से यह प्रतिपन्न औसी-संज्ञा स्त्री० दे० "ौली"। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औंधा १८६८ कत्रक . औंधा-वि० [सं० अधः वा अवधा] [स्त्री० औंधी] | सूचक हैं । फूल अर्कवत् होने के कारण इसे अर्क उलटा । पट । जिसका मुंह नीचे की ओर हो। पुष्पी, श्रौंधा होने के कारण अधःपुष्पी, अधो संज्ञा पुं० एक प्रकार का पकवान, जो बेसन | पुष्पी, चोरहुली, चोरपुष्पी आदि नामों से अभिऔर पीठी का नमकीन और आटे का मीठा बनता हित करते हैं। देश में यह अंधाहुली और ओंधाहै, जिसे देश में उलटा, चिल्ला और चिलड़ा भी हुली नाम से प्रसिद्ध है। ऊँधाहुली गुण-यह कफ को निकालती है। सूखी औंधाहुली-संज्ञा स्त्री॰ [ देश०, हिं० धा+हुली ] खांसी में इसे १ तोला लेकर क्वाथ करके मिश्री एक क्षुद्र क्षुप जो प्रायः बलुई ज़मीन में पैदा मिलाकर पीने से विशेष लाभ होता है। होता है। Trichodesma Indicum. इसकी हरी पत्ती जल में पीसकर १ तोला इसका पौधा अधिक से अधिक १॥ बालिश्त प्रातः और १ तोला सायंकाल पीने से वीर्य की तक ऊँचा होता है । इसकी जड़ सीधी पृथ्वी में तरलता, जिसके कारण शीघ्रपतन हुआ करता है, घुसी होती है। इसको टहनियाँ लोमश लाल दूर होती है और वीर्य गाढ़ा होजाता है। रंग की होती हैं। पत्तियाँ लोमश करीब ३-४ इसकी हरी पत्तियों की टिकिया बनाकर अर्श के अंगुल लम्बी देखने में भालाकार श्वेताभ होती हैं. मस्सों पर बाँधने से उसका प्रदाह कम होता है। फूल प्रायः सब महीनों में लगते हैं। फूल श्वेत- यूनानी "गावज़वां" की यह उत्तम प्रतिकिंचित् बैंगनी रंग के होते हैं, जो खिलने पर पृथ्वी की ओर झुक जाते हैं। फूल का बाहरी औंरा-संज्ञा पु० [ देश० ] [स्त्री० अल्पा० औंरी ] कोष जिसमें उसकी पंखड़ियाँ लगी हुई होती हैं, दे० "आँवला" । श्वेत लोमश होता है । इसके फूल पृथ्वी की ओर औंरी-संज्ञा स्त्री॰ [ौरा का अल्पार्थक वा स्त्री.] श्रोधा स्थित होने के कारण इसे उक्त संज्ञा दी छोटा आँवला । जंगली आँवला । अँवरी । . गई है। इसके संस्कृत पर्याय भी उन अर्थ के | औंस-संज्ञा पु० दे० "अाउंस"। वर्ण है। (क) क-हिंदी वा संस्कृत वर्णमाला का पहला व्यंजन | अर्थ-केक (Cake ) बिसकुर ( Biscuit) शीरमाल। संज्ञा पुं॰ [सं० की ] (१) जल । रा० निः कअ क, खुब्ज़ और बिकसुमातव० १४ । (२) सुख । मे०। (३) केश | धर० ।। किसी किसी ने कअक् को केक (अं०) का संज्ञा पु० [सं० पु.] (१) अग्नि । (२) भी मुअर्रिब लिखा है; पर इसका प्रयोग प्रायः वायु । (३) यम । (४) सूर्य । (१) प्रात्मा । रूखी रोटी के लिये होता है । खुब् सामान्य रोटी (६) मयूर । मे० । (७) मन । (८) शरीर । को कहते हैं, चाहे वह ताज़ी हो वा बासी और () काल । (१०) धन। (११) शब्द। बिक्सुमात रूखी रोटी का प्रसिद्ध नाम है। अने० को० । (१२) ग्रंथि । गाँठ । (१३) काम नोट-किसी किसी ग्रन्थ में रोग़नी या मीठी देव । (१४) ब्रह्मा । (१५) विष्णु। रोटी के लिये कअक् शब्द का प्रयोग हुआ है। कअ कु-संज्ञा स्त्री॰ [ का. काक से मु०] (१) गुण धर्म तथा उपयोग-यह उष्ण एवं रूक्ष मैदे की रूखी छोटी रोटी | पतलो सूखी रोटी। है; दस्त रोकती है, द्रवों का शोषण करती हैं और खुश्क नान (फा०)। (२) तनूर में गरम कुलंज-रोग-पीड़ितों को हानिकर है। किसी किसीपत्थर पर पकाई हुई मोटो रोटी । (३:)अर्वाचीन | कुर्स (टिकिया ) में पड़ती है। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १८६६ क़अ क़अ [अ०](1)एक प्रसिद्ध पक्षी | लक्क़्लक़् ।लक् लक् ( २ ) अक्अक्क् । महोखा | .܂ क क़अ क़बः–[ अ ] ( १ ) क्षत । ज़ख़्म । ( २ ) जती- क्रस - [ अ ] श्राकस्मिक मृत्यु | मर्ग नागहानी | करण | ज़ख़्म करने की क्रिया । Sudden Death क़ा अक्रूर - अ ] नील । क़अ का अ - [अ०] ( १ ) शीत ज्वर | जाड़ा बुख़ार । जिसके पैर के जोड़ बोलें । सूखे छुहारे । ( २ ) ( ३ ) चलते समय क़ क़ामर- [ अ ] संदरूस | दिय: [ ] मकड़ी का जाला । मर्कटजाल | नव - [ 2 ] ( १ ) सिंह | शेर । ( २ ) नर लोमड़ । [ ० ] ( १ ) एक प्रकार का पौधा । ( २ ) बाज पक्षी का नख । अब [ अ ] [ बहु० कुत्रवः, किद्याब, अब ] गुल्फ । टखना । गट्टा । बजूल । Ankle, कब इंसो - [ अ ] अंदरूनी रखना । अन्तगुल्फ । Intlernal maleolus, अब राजाल - [ ] ( i ) एक प्रकार का हलुवा । (२) फ्रानीज़ । (३) शकरपारे की एक किस्म । ( ४ ) बताशे का नाम । ( ५ ) एक प्रकार की शकर और शराब । कई द नोट - इसमें छाती टेढ़ी होकर ऊँची हो जाती है । इसका उलटा हदब: है । क़अब -[ अ ] ( १ ] बड़ा प्याला । काठ का बड़ा कटजटी - [ ता० ] लक्ष्मणा । प्याला । ( २ ) छोटी प्याली | फिंजान । कअ बुल् ग़ज़ाल-दे० “कश्रृबग़ज़ाल” । क़ मूस - [ ? ] एक प्रकार की खुमी । क़अर-[अ] गांभीर्थं । गंभीरता । गहराई। Depth जौन्सी -[ गु.] एक प्रकार का करौंदा । तामरंग । बिलाम्बु । Averrhoea Bilimba बिलिंबी । कस - [[ ] ( १ ) हाथ पाँव के पोधों की हड्डियाँ । ( २ ) करभ- प्रपादास्थियाँ । हाथ की हथेली और पाँव के तलवों को हड्डियाँ । बराजिम । कसम - [ श्र० ] [ का सम् - बहु०व० ] एक प्रसिद्ध जंगली पशु । जंगली गधा । गोरखर । अलामीनस - [ यू०] बखुर मरियम | क़अलूस - [ यू० ] ग़ार | क़स् - [ ० ] सीना बाहर उभर थाने की क्रिया । कुब्जत्व | कुबड़ापन । कसूम-[ अ० ] [ कासीम बहु० ० ] गढ़हा | गर्दभ । क - [ उड़ि० ] इमली । तितड़ीक | कआट करताय कलौंग -[ ता० ] सेवाला (बम्ब०) । काटक - [ ता०] एरंड । रेंड | का दिया - [ श्र० ] मकड़ी का जाला । मर्केट जाल । क़ल - [ ० ] अंगूर का शिगूफ़ा । कइत - संज्ञा पुं० [हिं० कैथ, सं० कपित्थ ] कैथ । कपित्थ । कैथा । I [ मल० • ] केवड़ा | केतकी । कइत - चक्क - [ मल० ] अनन्नास | अनानास | क़इन -संज्ञा स्त्री० बाँस को पतली टहनी (पं० ) पवना | मोरेड़ | [अ बर - [अ०] गोलमिर्च । काली मिर्च | कनी - [ बर० [] ताँबा | 1 क़अबल-[ नब्तु ] एक पौधे को जड़ जो प्याज़ के कइप-कोटकप्पाल- वित्त -[ मल० ] कडुश्रा इन्द्रजौ । इपीर - [ मल० ] ग्रीष्म सुन्दरक । फाणिज | जीम । Mollugo spergula, Linn. समान होती है । कब वहशी - [ ] बाहरी ख़ना | बहिगुल्फ | बाहर का गट्टा | External Malleolus. , क़बाल - [ अ ] एक प्रकार की खुमी । कइप बातम कोट्ट - [ मल० ] कड़ ुआ बादाम | तिन वाताद | कइपबादम - [ मल० ] कड़श्रा बादाम । कटु वाताद । asy - [सं०] कथा | ख़ैर । खदिर । कइप-पटौलम् - [ मल० ] जंगली चिचिंडा । कइप्प वल्लि - [ मल० ] करेला | कारवेल्ल । कमल - संज्ञा पुं० [?] जिङ्गनी । जिगिन । कइयनी - [ बर० ] ताँमा । ताम्र । कइशो - [ श्रासा ० ] खाजा । कर्गनेलिया । कई . त - [ अ० ] ( १ ) बुलबुल । (२) हज़ार दास्ताँ ( बुलबुल ) । क़ई.द-[ अ० ] ( १ ) टिड्डी । ( २ ) खरहा। नर खरगोश । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कउ कउ - [?] खवन । शबन ( ट्रां० इं० ) । जैतून (अ) । उनी - [ उ०प०प्र० ] ककुनी । कंगु । कउर- [ पं० ] कंडेर । क - [ बर० ] गंधक | क़सा - [ ० ] खर्ब । कक - [ फ़ा० । सं० काक का संक्षिप्त ] कौश्रा । काक | क़क़अ - [ श्र० ] चूहा । मूसा । ककई - संज्ञा स्त्री० ( १ ) दे० "कंधो" । ( २ ) छोटीपुरानी ईंट | क़क़ख - [ सिरि० ] काकनज । ककज - [ फ्रा० ] ( १ ) राई । ( २ ) जर्जीर । ककजः-[ फ्रा० ] बिनौला । कपास का बीया । ककड़ा संज्ञा पु ं० [ पं० ] भवन बकरा । पापड़ा । पापड़ी | १८७० ककड़ासींगी - संज्ञा स्त्री० दे० "काकड़ासींगी" । ककड़ासिंगी - [ ० ] काकड़ासींगी । कर्कटशृंगी । ककड़ी - संज्ञा स्त्री० [सं० कर्कटी, पा० कक्कटी ] (१) जमीन पर फैलनेवाली खीरे की जाति की एक बेल जिसमें लम्बे-लम्बे फल लगते हैं। यह फागुन चैत में बोई जाती है और बैसाख जेठ फलती है । इसीसे इसे 'जेठुई ककड़ी' भी कहते हैं । इसकी बेल भी खीरे की सी होती है; परन्तु इसके पत्ते खीरे के पत्तों से छोटे और चिकने होते हैं । इसका फूल पीला होता है । इसके फल गोल एक हाथ या उससे अधिक लम्बे कुछ मुड़े हुये, पतले और रेखाबंधुर होते हैं अर्थात् उस पर लंबाई के रुख उभरी हुई रेखाएँ होती हैं। ककड़ी जब छोटी होती है, तब बहुत नरम और रोऍदार होती है। जब पूरी बढ जाती है, तब अढ़ाई बित्ता लम्बी हो जाती है। रंग में यह हरी वा कुछ-कुछ पीलापन लिये सफेद होती है और जब पक जाती है, तब ऊपर से चमकदार पांडु पीत नागरंग वर्ण की हो जाती है । यह तासीर में ठंडी होती है इसीसे इसको तर ककड़ी भी कहते हैं। किसीकिसी ग्रंथ में लिखा है कि तर ककड़ी इसकी एक ख़ास क़िस्म है। इसका फल कच्चा तो बहुत खाया जाता है, पर तरकारी के काम में भी श्राता है । लखनऊ की ककड़ियाँ बहुत नरम, पतली और 1 1 ककड़ी मीठी होती है । संयुक्त प्रदेश, सीमा प्रांत - उत्तरी पश्चिमी सूबा, पंजाब और बंग प्रदेश में इसकी खेती होती है । पर्याय : – कर्कटी, कटुदल, छर्दासनीका, (छर्चायनी), पीतसा, मूत्रफला, त्रपुसो, हस्तिपर्णी ( हस्तिपर्णिका ), लोमशकण्टा, मूत्रला, नागमिता वा बहुकण्टा ) ( रा० नि० ० ७ ), कर्कटः ( शब्दर०), कर्कटाक्षः शान्तनु (२०), चिर्भटी, वालुकी, एवरुः, पुषी ( हे० ), कर्कटाख्या, कर्कटाङ्गा ( र मा. रा०नि० सि यो०, वै० निघ० ), एर्वारुः, ऊर्वारुः, दीपनी, स्फोटिनी, नल विवर्द्धनी, शकटी, गजकर्णिका, कर्कटाख्यः, कर्कटिः, कर्कटिका-सं० ।ककड़ा,जि (जे) दुई ककड़ी, तरककड़ी, काकड़ी-हिं० । कँकड़ी, काकड़ी - ३० । काँकड़ी, काँकुड़ - ० | क़िस्स । खियार्जः खियार दराज़, ख़ियार तवील - फ्रा० । क्युक्युमिस युटिलिस्सिमस Cucumis Utilissimus, Roxb., - ले०|ककुबर Cucumber, Most useful श्रं० । कक्करिक्काय, मुलवेल्लिरिक्कायता० । मुल्लु - दोसकाय, नक्कदोस - ते० । कक्करिकमल० । मुल्लु सवते, क्येयसौत, कोयसौतकना०, का० । तरब्वा-बर० । ख्याट् जाव् - का० । ककरी, कुकड़ी - ( काँगड़ा) । काँकड़ी - मरा०, गु० । तार- ककड़ी - पूना | काकड़ी -बम्ब० । काकड़ी६० | नोट - ठंडाई में और यूनानी चिकित्सा में इसी के बीज काम में आते हैं I (२) ज्वार वा मक्का के खेत में फैलनेवाली एक बेल जिसमें लम्बे और बड़े फल लगते हैं । इसकी बेल भी प्राय: उपर्युक्त ककड़ी के बेल के समान ही होती है। फल भादों में पककर श्राप से श्राप फूट जाते हैं, इसी से 'फूट' कहलाते हैं । ये ख़रबूजे ही की तरह होते हैं, पर स्वाद में फीके होते हैं । इसके ख़रबूजे के सदृश होने के कारण ही कदाचित् श्रर्वाचीन पाश्चात्य वनस्पतिशास्त्रविदों ने इसे (Cucumis melo) अर्थात् खरबूजा और किसी-किसी यूनानी चिकित्सक ने खुरपूजा का श्रन्यतम भेद स्वीकार किया है । मीठा मिलाने से इनका स्वाद बन जाता है। यह फूट Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ककड़ी १८७१ ककड़ी ककड़ी प्रायः दो प्रकार की होती है। एक मीठी | जो कच्चे पर भी मोठी होती है। दूसरी तीती जो कच्चे पर अत्यन्त तिक होती है। पर पकने पर मीठी हो जाती है। इसके तिक भेद को हिंदी में तीत ककड़ी, कड़वी ककड़ी और बंगला में तितकाँकड़ी वा तित्काँकुड़ कहते हैं। इसके अतिरिक वह ककड़ी जो पकने पर फटती नहीं और स्वाद में कुछ कुछ खट्टी होती है, बंगला में 'गुमुक' कहलाती है । कोई-कोई बंगवासी कहते हैं कि 'गुमुक' सफेद ककड़ी को कहते हैं और यह फटती है। इसके सिवा वह जो आकार में छोटी और स्वाद में कड़वी होती है, “वनगुमुक" कहलाती है। हिंदी में इसे कचरी वा पेहंटुल कहते हैं। इसकी एक और जाति है, जो ग्रीष्म ऋतु में जेठुई ककड़ी के साथ होती है । इसकी बेल भी उपयुक्र फूट ककड़ी की बेल के समान होती है | और फल भी प्रायः उन्हीं के समान होते हैं। कच्चे पर इसके फल नहीं खाये जाते, क्योंकि | अत्यन्त कड़वे होते हैं । पककर फूटने पर इसके फल खाये जाते हैं । उक्त दोनों प्रकार की ककड़ियाँ समस्त भारतवर्ष में बोई जाती हैं। पारस्य देशी अर्थात् ईरानी चिकित्सकों ने इसके दो भेद लिखे हैं। उनके मतानुसार पहली वह है जो मोटी और बड़ी होती है। इसमें गूदा अधिक और बीज कम होते हैं। यह रबी की फसल के प्रारम्भ में होती है। इसका नाम 'खियाः गाज़रूनी' है । दूसरी वह जो पहली क़िस्म से छोटी होती है । इसके बीज कोमल होते हैं, पर अधिक होते हैं । यह ग्रीष्मांत में उत्पन्न होती है । इसको 'खियाजः नैशापुरी' वा 'किस्साउस्सिग़ार' छोटी ककड़ी कहते हैं। यह मधुरता और स्वाद में पहली किस्म से बढ़ी हुई होती है। इनमें से कतिपय भेद कडुई निकलती हैं। दोनों प्रकार की ककड़ियाँ खूब पक चुकने के उपरांत खट्टी पड़ जाती हैं। विशेषतः दूसरी किस्म की यही दशा है। किसी-किसी के मत से वह ग़ाजरूनी उत्कृष्ट है, जो लम्बी, नरम और चिकनी हो और वह निशापुरी निकृष्ट है जिस पर खुरदरी धारें हों । गीलानी के मतानुसार इसका जौहर कद्द के जौहर के समीपतर है; क्योंकि यह भी पार्थिव एवं जलीयांशों से संघटित है। परन्तु उससे शीघ्रतर परिपाचित होजाती है। मौलाना नफीस किर्मानी का यह मत कि किस्साऽ गोल और कच्चा खरबूज़ा है, विलक्षण एवं साथ ही हास्यास्पद भी है। पर्याय-उर्वारः, कर्कटी, व्यालपत्रा, लोमशा, स्थूला, तोयफला, हस्तिदन्तफला (ध० नि०, रा. नि०), एर्वारुः (रा०नि०), मूत्रफलं, वालुकं, प्रालम्ब (केयदेव ) एर्वार:' कर्कटी (भा०)। उरिः, इरिक ( भरतःद्विरूपकोष ), ऐरुिः (मद• व० ७, च० द० प्रदर-चि०), कर्काकः, रुारुका, कर्कटिका, ग्रीष्म कर्कटी, रुर्वारकसं० । बड़ी ककड़ी, फूट की ककड़ी; फूट (पका हुश्रा), कचड़ा ( कच्चा)-हिं० । काँकुड़, फुटीबं० । किर स.-१० । ख़ियाज़ः, खियाजः गाज़रूनी, लियाः निशापुरी-फ्रा० । क्युक्युमिस मोमोर्डिका ( Cucumis momordica, Linn.) ले | Cucumber Momordica) अं० । कंतरि-काय-ता० । पेद्द-काय, पेद्ददोसर, नक्कदोस, दोसकाया-ते. । टिप्पणी-धन्वन्तरीय तथा राजनिघण्टु में जो पंद्रह प्रकार के पुष विशेष का उल्लेख देखने में आता है, वे वस्तुतः त्रपुष के भेद नहीं, अपितु उद्भिदशास्त्रानुसार पुष वा कुष्माण्डवर्गीय उद्भिद विशेष हैं। उनमें से उद्भिदद्वय अर्थात् एर्वारु-फूट ककड़ी और कर्कटी-जेहुई ककड़ी का उल्लेख उपर्युक पंकियों में किया गया है। इनके अतिरिक्र उक्त वर्ग में दो प्रकार को ओर कर्कटी अर्थात् 'चीणा कर्कटी' और 'गोपालकर्कटी' का उल्लेख मिलता है। इनमें से चीणा वा चीनाकर्कटी को किसी ने चिचिंडा तो किसी ने चित्रकूट देशीय ककड़ी विशेष वा चीना ककड़ी लिखा है। इसी प्रकार कर्कटी को किसी ने एक प्रकार की अरण्यकर्कटी वा गोपालकाँकडी तो किसी ने कचरी वा पेहंटुल और किसी ने कुंदरू लिखा है । वस्तुतः यह कचरी का एक भेद है। इनका विवेचनात्मक एवं निर्णयात्मक विवरण यथास्थान दिया जायगा। ऐसे ही चिर्भिट, चिर्भट को किसी ने Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ककड़ी १८२ कचरी और किसी ने फूट ककड़ी लिखा है । हमने इसे कई कारणों से कचरी ही माना है, जिसका शंशाण्डुली एक भेद हैं | देखो " कचरी” । इनके सिवा वैद्यक निघण्टु श्ररण्यकर्कटी-जंगलीककड़ी का भी उल्लेख पाया जाता है। चारव्य भाषा के श्रीषध शब्द कोषों में इसका समानार्थी क़िस्सा उल् af वा क़िस्साए शब्द देखने में श्राता है, जिसका अर्थ नफ़ाइसुल्लुगात में फूट उल्लि खित है | परंतु मख़्ज़न के अनुसार यह इन्द्रायन है. और यह ठीक भी मालूम पड़ता है, क्योंकि फूट ककड़ी स्वयंभू नहीं, अपितु उसकी खेती होती है अस्तु, उसे जंगलो ककड़ो कहना ठीक नहीं । हाँ ! श्ररण्यकर्कटी को क़िस्साए बर्री कह सकते हैं, किंतु वह यूनानी ग्रन्थकारों के मत के विरुद्ध पड़ता है। सुश्रुत में श्वेतकर्कटक संज्ञा से सफेद ककड़ी वा बालकांकडी का उल्लेख मिलता है । यथा" श्वेतकर्कटकं चेव प्रातस्तं पयसा पिबेत् । " ( उ ५८ ० ) अर्थात् सफ़ेद ककड़ी को दूध के साथ प्रातः काल पीवे ( इससे मूत्र के दोष और वीर्य के दोष भी दूर होते हैं) पुष वा कूष्माण्ड वर्ग ( N. O. Cucurbitacece.) औषध निर्माण - कुशाद्यघृत ( च० द० ), कुशावलेह ( च० द० ) इत्यादि । गुणधर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसार कर्कटी वा ग्रीष्मकर्कटी - ( निघंटुकार के मत से छोटा बड़ा भेद से यह दो प्रकार की होती है ) कर्कटी मधुरा शीता त्वक्तिक्ता कफपित्तजित् । रक्तदोषकरा पक्का मूत्ररोधातिं नाशनी ॥ मूत्रावरोधशमनं बहुमूत्रकारि कृच्छ्राश्मरी प्रशमनं - विन्ति पित्तम् । वान्ति श्रमघ्नं बहुदाहनिवारि रुच्यं । श्लेष्मापहं लघु च कर्केटिकाफलं स्यात् ॥ ( रा ० नि० मूलकादि ७ व० ) ककड़ी - मधुर और शीतल होती है । इसकाछिलका का थोर कफपित्तनाशक होता है । पकी ककड़ी - रक्तदोषकारक और मूत्ररोध को दूर करने वाली है ककड़ी का फल - मूत्रावरोध को दूर करने ककड़ी वाला, अत्यन्त मूत्रजनक, मूत्रकृच्छू और अश्मरी का निवारण करनेवाला, पित्तनाशक, रुचिकारी, कफनाशक, हलका और वमन, श्रम तथा अत्यन्त दाह का निवारण करनेवाला है। स्वादुः गुरुः अजीर्णकरी शीतला च । तत्पफलं दाहच्छर्दि तृष्णा क्लान्तिघ्नं च ॥ राज० ३प० ) ककड़ी - स्वादु, भारी, शीतल और अजीर्ण को करनेवाली है । पकी ककड़ी-दाह, वमन, तृषा और क्वान्ति को दूर करती है। कर्कटी मधुरा रुच्या शीता लध्वी च मूत्रला । त्वचायां कटुका तिक्ता पाचकाग्नि प्रदीपनी ॥ अवृष्या ग्राहिणी प्रोक्ता मूत्रदोषाश्मरी हरा । मूत्रकृच्छ्रमिं दाहं श्रम व विनाशयेत् ॥ सा पक्का रक्त दोषस्य कारिण्युष्णा बलप्रदा । इति प्रथमा । द्वितीया त्रपुषी कर्कटी (तौंहे काँकडी ) कर्कटी) रुच्या मधुरा वातकारिणी । शीता मूत्रप्रदा गुर्व्वी कफकृद्दाह नाशिनी ॥ वमिं पित्तं भ्रमं मूत्रकृच्छ्र ं मूत्राश्मरी हरेत् ॥ (वै० निघ० ) ककड़ी - मधुर, शीतल, रुचिजनक, हलकी और मूत्रकारक है। इसकी त्वचा - चरपरी, कडुई पाचक, अग्निप्रदीपक, अवृष्य एवं ग्राहिणी है तथा मूत्रदोष (मूत्ररोध ), पथरी, मूत्रकृच्छ, 'वमन, दाह और श्रम का नाश करती है। वही पकी ककड़ी - रुधिरविकारकारक, गरम और बलकारक है । पक्का स्यात्पित्तकारी च वह्निदा तृविनाशनी । श्रमदाहहराप्रोक्ता "केयदेव निघण्टके" ॥ (नि० शि० ) पकी ककड़ी - पित्तकारक, जठराग्निवद्ध क प्यास, श्रम और दाह को हरण करनेवाली है । ऐव चिम् वालं पित्तं हरं शीतं विद्यात्पकमथोऽन्यथा । " ( वा० सू० ६ ० ) Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ककड़ी १८७३ पक्क ककड़ी और फूट पित्तनाशक और ठंढे होते हैं और पकने पर वे पित्तबद्ध के और गरम हो जाते हैं । तिक्त कर्कटी तिक्तकर्कटिकाप्रोक्ता र पाके कटुः स्मृता । तिक्ता मूत्रकरी वान्तिकारिका मूत्रकृच्छहा । मानवातं चाष्ठीलां नाशयेदिति कीर्तिता ॥ कड़वी ककड़ी — रस और पाक में चरपरी, कढई, मूत्रकारक, वमनकारक, मूत्रकृच्छ को दूर करनेवाली, तथा आध्मान और अष्ठीला को दूर करनेवाली है । चीना कर्कटी चीना कर्कटिका शीता मधुरा रुचिदा गुरुः । कफवात तृप्तकरी हृद्या पित्तरुजापहा ॥ दाहशोषहरा प्रोक्ता मुनिभिश्चर कादिभिः । चीनाककड़ी - शीतल, मधुर, रुचिदायक, भारी, कफकारक, वातकारक, तृप्तिजनक, हृदय को हितकारी, पित्तरोगनाशक तथा दाह और शोथ को हरनेवाली है । सर्वा कर्कटी सर्वाकर्कटिका गुर्वी दुर्जरा वातरक्तदा । अग्निमान्द्यकरीप्रोक्ता ऋषिभिः शास्त्रकोविदैः ॥ बर्षाशरदि चोत्पन्ना नो हिता न च भक्षयेत् । हेमन्ता रुचिकरा पित्तहा भक्षिताहिता ! | सैवार्द्धपका संप्रोक्ता पीनसोत्पादनी मता । सम्यकूपक्का च मधुरा कफनाशकरीमता ॥ (नि० र० ) सर्वाः कर्कटिका वर्षा शरदि जाता न हिताः । परंतु हेमन्तजा रुचिकरी पित्तघ्नी चभोज्या || सा चार्द्धपका न भच्या तेन पीनसं जनयति । सम्यक् पक्का मथुरा कफघ्नी च ॥ ( भा० म० भ० श्रश्म० चि०) सर्व प्रकार की ककड़ी भारी और दुर्जर (कुठि - नता से पचनेवाली ) है एवं वातरक्त और मन्दाग्नि उत्पन्न करती है । वर्षा और शरद् ऋतु में उत्पन्न होनेवाली ककड़ी हितकारक नहीं है और न भक्षण करनी चाहिये | हेमन्त ऋतु में होनेवाली ककड़ी रुचिकारक, पित्तनाशक, भक्षणीय और 10 TO ककड़ हितकारी है । अधपकी ककड़ी पीनस उत्पन्न . करनेवाली है । सम्यक् परिपक्क ककड़ी मधुर और कफनाशक है । उर्वारु, एर्वारु ( फूट ककड़ी) उर्वारुकं पित्तहरं सुशीतलं मूत्रामयनं मधुरं रुचिप्रदम् । संतापमूर्च्छापहरं सुतृप्तिदं वात प्रकोपाय घनन्तु सेवितम् ॥ ( ध० नि० १ व ० रा० नि० ७ ० ) ककड़ी - पित्तनाशक, सुशीतल, मधुर, ति तृप्तिदायक एवं रुचिकारी तथा संताप, मूत्रके रोग और मूर्च्छा का नाश करती और श्रत्यन्त सेवन करने से वायु को कुपित करती है । कर्कटी शीतला रूक्षा ग्राहिणी मधुरा गुरुः । रुच्या पित्तहरा सामापक्वा तृष्णाग्नि पित्तकृत् ॥ ( भा० पू० १ भ० शां० व० ) ककड़ी - ठंडी, रूखी, ग्राही, मीठी, भारी, रुचि उत्पन्न करनेवाली, पित्त को शांत करनेवाली और श्रमकारक होती है । पकी ककड़ी प्यास, न और पित्त को करनेवाली है । कोमलैर्व्वारुकं तिक्कं लघुः स्वाद्वतिमूत्रलम् । शीतं रूक्षं रक्तपित्तं मूत्रकृच्छ स्र दोषजित् ॥ तत्पक्वं पित्तलं चाग्निदीपन तृषापहं । उष्णं त्रिदोषशमनं क्लमदाहहरं मतम् ॥ गृहे जीर्णन्तु तज्ज्ञेयमुष्णं पित्तकर मतम् । कफ वायोर्नाशकरं प्रोक्तमायुव्विदैर्जनैः ॥ क्षुद्रमैर्वारुकं शीतं मधुरं रुचिकारकम् । कासपीनसकारि स्यात् पाचकं श्रमपित्तहम् ॥ आध्मान वायोः शमनं । (वै० निघ० ) कोमल ककड़ी - हलकी, कबुई, स्वादु, अत्यन्त मूत्रकारक शीतल एवं रूखी है तथा रक्तपित्त मूत्रकृच्छ और रुधिर के विकारों को दूर करती है। पकी ककड़ी - पित्तकारक, अग्निप्रदीपक, प्यास को दूर करनेवाली, गरम, त्रिदोषनाशक, महारक तथा दाहनिवारक है । घरमें रखने से पकी हुई ककड़ी - गरम, पित्तकारक तथा कफ और वात को नष्ट करती है । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ककड़ी छोटी ककड़ी - शीतल, मधुर, रुचिकारक, कास और पीनस को उत्पन्न करनेवाली, पाचक, श्रम और पित्त नाशक तथा श्राध्मान और वायु को शमन करनेवाली है । एर्वारुकं तु मधुरं रुच्यं रूक्षं च शीतलम् । तृप्तिकृदूग्राहकं प्रोक्तमत्यन्त वातकारकम् ।। गुरु वातज्वर कफकारकं तापहारकम् । पित्तं मूर्च्छा मूत्रकृच्छ्रं नाशयेदिति कीर्तितम् ॥ १८७४ ककड़ी - मधुर, रुचिकारक, रूखी, शीतल, तृप्तिकारक, ग्राहक - मलरोधक, श्रत्यन्त वादी, भारी, वातज्वर कारक, कफकारक एवं तापनाशक है तथा पित्त, मूर्च्छा और मूत्रकृच्छ, रोग का नाश करती है। भेदी विष्टभकारी चत्वभिष्यन्दी च मूत्रलम् । रक्तपित्तहरं चैव पक्कं स्यात्कफहारकं ॥ हृदांदीपनमित्युक्तं 'कैयदेव निघंटुके || (नि०शि० ) ककड़ी —-भेदक, विष्टंभकारक, अभिष्यन्दी, मूत्रल और रक्तपित्तनाशक है । पकी ककड़ी— कफनाशक, हृद्य और दीपन हैं । > श्ररण्यकर्कटी, वनजातकर्कटी (जंगली ककड़ी) ( बुनो काँकुड़ - बं० । राणतवसे - मरा० अरण्य कर्कटी चोष्णा रसे तिक्ताच भेदका । पाकेक ट्वी कफकृमीपित्त कंडूज्वरापहा ॥ (वै० निघ० ) वनककड़ी - गरम, तिक रसान्वित, भेदक, पाकमें कटु तथा कफ, कृमि, पित्त, कण्डू ( खुजली ) और ज्वर को दूर करनेवाली है । यूनानी मतानुसार गुण-दोष - प्रकृति - द्वितीय कक्षा वा द्वितीय कक्षांत में सर्द एवं तर है; क्योंकि यह अपेक्षाकृत अधिक जलांश और किंचित् पार्थिवांश से संघटित होतो हैं the I अलास्वादयुक्त ककड़ी बहुत शीतल होती है। हानिकर्त्ता - यह नफ़्फ़ाख अर्थात् श्राध्मानकारक है और वायु एवं कुलञ्ज ( उदरशूल ) उत्पन्न करती है तथा दीर्घपाकी भी है । यह शीतल प्रकृति को हानि पहुँचाती है । इससे बहुत कैस उत्पन्न होता है । यह श्रामाशय में शीघ्र विकृत हो जाती है। चिरकाल पर्यन्त दर्पन द्रव्यकेविना ककड़ी सेवन करते रहने से ज्वर ककड़ी ने लगता है जो कठिनतापूर्वक पीछा छोड़ता है । दर्पन - शीत प्रकृति को लवण, अजवायन, कालीमिर्च, मवेज़ मुनक्का और सौंफ तथा उष्ण प्रकृति को सिकंजबीन और थोड़ा सौंफ । प्रतिनिधि — खीरा और लम्बा - कद्द - लौकी | मात्रा - इच्छानुसार । गुण-कर्म-प्रयोग - पकी ककड़ी सर्वोत्कृष्ट होती है । क्योंकि यह अधिक सूक्ष्म-लतीफ तथा पतली-रक़ीक़ होती हैं और इसमें जलीयता श्रधिक होती है। अपने शीत गुण— कैफियत के कारण उष्णत्व एवं पित्त को शमन करती है। विशेषतः परिपक्क एवं अम्लयुक्त ककड़ी। किन्तु श्रयप्रशांतकारी होने के साथ ही तत्द्भुव दोष - ख़िल्त विकारोन्मुख होता है । यह ज्वर उत्पन्न करने वाली है; क्योंकि यह रक्त में जलीयता की वृद्धि करती है। जिससे वह विकार क्षम हो जाता है । पकी ककड़ी अपेक्षाकृत शीघ्रतरविकृत हो जाती है । इससे पूर्व इस बात का उल्लेख किया जा चुका है, कि इसमें सूक्ष्मता और औदकत्व अधिक होता है । अस्तु, यह कच्ची ककड़ी की अपेक्षा शीघ्र प्रतिक्रिया को ग्रहण करती-मुतासिर होती हैं, इसके विरुद्ध कच्ची ककड़ी की श्राता सांद्रीभूत होती है और जबतक वह कच्ची रहती है, उसके घटक अवयवों में उसका सैलान नहीं होता, इसलिए यह अन्य प्रभावोत्पादकों मुवस्सि - रात से प्रभावित नहीं होती और अपने शैत्यकारी गुणके होते हुये सुरभित होने के कारण सूँघने से श्रौम्यजन्य मूर्च्छा को लाभ पहुँचाती है और पिपासा शांत करती है | यह वस्ति वा मूत्राशय के अनुकूल है; क्योंकि यह वस्ति को प्रगाढ़ मलों और सितादि से शून्य करती है । इसमें प्रवर्तनकारिणी शक्ति भी विद्यमान होती है; क्योंकि इसमें प्रशालिनी और नैर्मल्यकारिणी शक्ति होती है । इसके अतिरिक्त इसमें श्राद्धता की भी प्रचुर मात्रा होती है । श्रार्द्रता स्वयमेव मूत्रप्रणालियों की श्रीर गतिवान् होती है। इसमें कोष्ठमृदुताकारिणी शक्तिभी विद्यमान है; क्योंकि श्रामाशयस्थ श्राहार को ककड़ी अपनी प्रचुर आद्रता के कारण श्रार्द्रीभूत करके फिसला देती है और अपने निर्मलीकरण एवं प्रक्षालन गुणके कारण द्रवों वा रंतुबतोंको श्रामाशयगत Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ककड़ी १८७५ ककड़ी द्रव्यों के साथ संश्लिष्ट होने से वंचित कर देती है (जिससे मलावरोध दूर हो जाता है)। (त• न०) ककडी-प्यास को बुझानेवाली है तथा यह रक्क-प्रकोप, प्रामाशय एवं यकृत गत तोवोत्रा, हरारत की तीव्रता-तीक्ष्ण दाह और पित्त के प्रकोप को शमन करती है । यह मूत्रल, वायुकारक, उदर शूल (कुलंज) जनक, कूल्हे में शूल उत्पन्नकरनेवाली और उसे ( कटि) सुखा देनेवालो, पित्तातिसार को दूर करनेवाली और चिरकालानुबंधी ज्वरों को उत्पन्न करनेवाली है । (मु. ना०) __ ककड़ी जाली-कांतिकारिणी है तथा यह रक्त एवं पित्त के प्रकोप को शमन करनेवाली, उष्मा एवं दाह का निवारण करनेवाली और प्यास को बुझानेवाली है। यह उष्ण आमाशय तथा वस्तिशूल के लिये लाभकारी और कोष्ठमृदुकारिणी है। (ना० मु०) कच्ची ककड़ी-मीठी, शीतल, भारी, हृद्य और मलावष्टंभकारक है । लेखक के निकट यह मृदुरेचक, सुबोधकारक और पित्त के विकारों को नष्ट करनेवाली है।-(ता० श०) ककड़ी स्वच्छता-जिला करती है तथा तृषा, पित्तज ऊष्मा एवं रक और यकृतगत तीक्ष्णता एवं दाह को शमन करती है। यह खूब पेशाब लाती और पुराने से पुराने ज्वरों को उभारती है तथा वायु उत्पन्न करती, उदरशूल-कुलंज पैदा करती और कूल्हे तथा कमर के दर्द को दूर करती है। (म० मु०) बुस्तानुल मुफरिदात के अनुसार ककड़ी पस्ति एवं वृक्तगत पथरियों को निकालती है । इस कार्य में कड़वी ककड़ी अपेक्षाकृत अधिक गुणकारी होती है । इसकी जड़ मध्वम्बु (माउल अस्ल) के साथ कै लाती है। ___ ककड़ी प्यास को बुझाती है और पित्त जनित उष्णता एवं दाह का निवारण करती है तथा रक्क प्रकोप जन्य उग्रता एवं दाह और यकृद्तोष्मा को | शमन करती है। यह मूत्रल है और कूल्हे की संधि | एवं कटिशूल को नष्ट करती है । यह क्षुद्वोध उत्पन्न कावो और पित्तातिसार को नाश करती है । कह. की अपेक्षा इसमें अधिक जलांश होता है। इसी कारण यह कह और खीरा दोनों में श्रेष्ठतर है। यह शीघ्र पच जाती है। किंतु प्रकुपित दोष रूप में परिणत भी शीघ्र होती है। इसमें प्रवर्तनकारिणी शक्ति खरबूज़े से न्यून है । यह वस्ति के बहुत ही अनुकूल है । इसके अत्यधिक सेवन से ज्वर प्राने लगता है। यह जितना अधिक परिपक होती है, उतना ही शीघ्र विक्रत हो जाती है। यह श्रामायिक ऊष्मा को अत्यन्त लाभ पहुँचाती है। इसको खूब चाबकर खाना चाहिये, जिसमें शीघ्र पच जाय ।श्रामाराय में विकृत होजाने पर यहअत्यन्त दूषित प्रकार के रोग उत्पन्न करती है। इसमें मीठा मिलाकर खाने से एतजन्य विकारों की शांति होती है । परन्तु विकृत हो जाने पर इसे न खानाचाहिये, क्योंकि यह दूषित हो जाती है । ककड़ी मूत्र मार्गों का प्रक्षालन करती है। खरबूज़े में इसकी अपेक्षा शीघ्रतर विकार उत्पन्न हो जाता है। यह खरबूजे से देर में विकृत होती है। उष्ण वाष्पजनित मूर्छा में इससे उपकार होता है ।इससे जो दोष समुद्रत होता है, वह शीघ्र विकृत हो जाता है। यह वस्ति एवं वृकजात अश्मरियों का नाश करती तथा रेग-सिकता को निवारण करती है। परन्तु इस विषय में तिक कर्कटी अपेक्षाकृत अधिक बलशालिनी होती है। क्योंकि अम्ल की अपेक्षा इसमें अधिक जिला-कांतिकरण की शक्ति होती है। और मधुर की अपेक्षा अम्ल ककड़ी में उन गुण अधिक है । कहते हैं कि यह उदर मृदु. कर भी है । इब्न जुहर का कथन है कि यदि यह स्तन्यपायी शिशु के बिछौने में रख दी जाय तो यह उसका ज्वर खींच लेगी और स्वयं अत्यन्त कोमल हो जायगी । उनके अनुसार ककड़ी के पत्ते जलत्रास रोगी अर्थात् पागल कुत्ते के काटे हुये को तथा श्लेष्मार्बुद के लिये गुणकारी है। शेख के मतानुसार इसकी पत्तियों को पीसकर मधुमिला कफज उदर्द में पित्तियों पर मर्दन करने से उपकार होता है। इसकी सूखी हुई पत्तियाँ पित्तज अतिसार में लाभकारी हैं । वैद्यों के मतानुसार कच्ची ककड़ी भारी होती है, हृदय को शक्ति प्रदान करती और काबिज़ भी है। इससे खुलकर मलोत्सर्ग भी होता है और. सुधा Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७६ की अभिवृद्धि होती है। यह पित्त के विकार को शमन करती; पर पित्त की वृद्धि भी करती है। यह मूत्रकृच्छ रोग में लाभकारी है। कच्ची ककड़ी को पकाकर खाने से पित्त शमन होता है, शीत उत्पन्न होता और तृषा शान्त होती है। यह मूत्र प्रवर्तनकारी है। इससे वस्ति एवं वृक्वजात पथरियाँ टूट जाती हैं। इससे मूत्रजात माधुर्य एवं सांद्रता का निवारण होता है। इसके नित्यसेवन से कफ एवं पित्त उत्पन्न होता है। शुष्कककड़ी की तरकारी सेवन करने से खुलकर साफ पाखाना होता है । इससे क्षुधा की वृद्धि होती एवं श्लेष्मा का उत्सर्ग होता है, जो प्रायः मल के साथ निकलती है। यह गुरुत्व तथा वात एवं पित्तका नाश करती है । तर ककड़ी शरीर को वृंहित एवं स्थूल करती है। कतिपय यूनानी वैद्यकीय ग्रन्थों में लिखा है कि ककड़ी ठंडी है, भूख बढ़ाती है, कफ, पित्त एवं रुधिर तीनों के दोष नष्ट करती, पित्तज वमन को दूर करती, दाह-सोनिश शान्त करती और मूत्र प्रवर्तन करती एवं पाचन करती है। पकी ककड़ी पित्त .' एवं जठराग्नि की बृद्धि करती है। (ख० अ०) नव्यमत कविराज नगेन्द्रनाथ सेन गुप्त-फूट ककड़ी . एवं उसकी कोमल पत्तियाँ खाद्यपदार्थ हैं। फल स्वाद में मधुर और शीतल है तथा यह मूर्छा एवं त्वग्दाह रोग में लाभकारी है। इसका कोमलकच्चा फल, मधुर, लघु, शीतल तथा (Antiarthic) है और यह मूत्रकृच्छ एवं रक्रवमन में उपकारी है। Indian Indigenous Drugs & Plants, pp-58-9, pt. iii ककड़ी का बीज _____ एर्वारुबीज, कर्कटीबीज-सं०। ककड़ी का बीज, ककड़ी का बीया-हिं० कँकड़ी के बीज-द० काँकड़ बीज-बं०। तिवसोचबीज-प्राव ढल किस स.sअ० रुमेखियाजः, तुह्मे लियारे दराज़-फा०। Seeds of Cucumis Utilissimus -ले । ककुबर सीड्स Cucumbr seeds -अं० । कक्करिक्काय-विरै, मुल्-वेल्लिरिक्काय-विरे -ता० । मुल्लु-दोसकाय-वित्तुलु-२० । कक्करिक्तवित्त-मल । मुल्लु-सवते-बीजा-कना० | तख्वासी-बर० । टिप्पणी-वह बीज जो सफेद और भारी हो और पकी हुई ककड़ी में से निकाला गया हो, उत्कृष्ट है, पुराना और खराब अच्छा नहीं होता है ककड़ी का बीज खीरे के बीज से उत्कृष्टतर है। अस्तु, शेख ने किस्साऽ-ककड़ो के वर्णन में लिखा है, "ककड़ी का बीज खीरे के बीज से अधिक उत्तम है" । कानून नामक अरबी ग्रन्थ के भाष्यकार गाज़ रूनी ने इस पर यह आपत्ति की है। उक महानुभाव का यह कथन है कि शेख को वैसा नहीं प्रत्युत यह कहना चाहिये था कि किस्सा का बीज खियारे तवील के बीज से उत्कृष्टतर है कारण यह है कि किस्साऽऔर खियार दोनों समानार्थी शब्द हैं । परन्तु उसका उत्तर यह है कि किस्साऽ का प्रयोग जिस प्रकार खियार अर्थात् खोरे के लिये होता है, उसी भाँति ककड़ी के अर्थ में भी इसका प्रयोग करते हैं। क्योंकि खियार शब्द का प्रयोग उक्त वस्तुद्वय अर्थात् खीरा और ककड़ी दोनों के लिये होता है। अस्तु, दोनों के बीज तुह्म खियारैन कहलाते हैं। अतः शेख के वचनानुसार किस्साऽ से स्पष्टतया ककड़ी अभिप्रेत है और खिायार से खीरा । यही कारण है कि साहब मिन्हाज ने खियार को किस्साऽ की प्रतिनिधि लिखा है। यह स्मरण रहे कि शीराज़ में खीरे को खियार दराज़ कहते हैं, और गाज़रून प्रदेश शीराज़ से दो-तीन ही मंजिल की दूरी पर है। इसी कारण भाष्यकार गाज़रूनी के वचन में खीरे के स्थान में खियार तवील शब्द दृष्टिगत होता है। वरन् खियार दराज़ एवं तवील से प्रायः ककड़ी ही अभिप्रेत होती है, जिसे अरबी में किस्सा कहते हैं। खीरे को प्रारब्य भाषा में 'कसद' कहते हैं और यदि इस कारण से कि किस्सा शब्द का व्यवहार प्रायः खीरा और ककड़ी दोनों के लिये ही होता है, यहाँ किस्सा से खीरा और खियारे तवील से ककड़ी का अर्थ लिया जाय, तो यह अर्थ शेख के और प्रायः स्वतन्त्र लेखकों के अभिप्राय के विरुद्ध हो जायगा। ककड़ी और खरबूजे के बीज में यह भेद है कि ककड़ी का बीज चौड़ा होता है । तथा यह Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ककड़ी अत्यन्त श्वेत, लघु और मसूण होता है । इसकी गन्ध में थोड़ी सी हीक होती है। खरबूजे का बीज गुरु और कम चौड़ा होता है और इसमें किसी प्रकार की गन्ध नहीं होती। गुणधर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसारएर्वारु तेल- कर्कटीबीजतैल, ककड़ी | का तेल, रोशन किस्साs, कांकुड़ बीजेर तैल )। विभीतक तैल गुणम् । वातपित्तघ्नंकेश्यं श्लेष्म करं गुरु शीतलञ्च । (वा० तैल व०)। ककड़ी के बीज से निकाला हुआ तेल गुण में वहेड़े के तेल के समान होता है । यह वातपित्त नाशक, बालों के लिए हितकारी, कफकारक, भारी और शोतल है। वैद्यक में एव्वार का व्यवहार चरक-अश्मरी, शर्करा कृच्छ्ररोग में एार | बीज-किसमिस के क्वाथ में एरुि बीज भली | भाँति पीसका पीवे । मूत्रकृच्छ्र रोग में यह सब प्रकार हितकारी है। यथा"एर्वारुवीज * * *। द्राक्षारसेनाश्मरीशर्करासु सर्वेषु कृच्छे षु प्रशस्त एषः ॥" (चि० २६ अ०) (२) पित्तकृत कृच्छ्ररोग में एर्वारु बीजककड़ी के बीज, मुलेठी और दारुहल्दी इन्हें समानभाग लेकर चावलों के धोवन में पीसकर चावलों के जल के साथ पीने से पित्तज मूत्रकृच्छ, का नाश होता है । यथा एर्वारुबीजं मधुकं सदार्वि पैत्ते पिबेत्तंडुल धावनेन । दार्वी तथावामलकीरसेन समाक्षिकां पित्तकृते तु कुच्छ्र । (चि० २६ अ० भैष मूत्रकृच्छ, चि०) (३)गुल्माश्मरि भेदन के लिए एवारुबीजककड़ी के बीज प्रभृति का चूर्ण मात्रानुसार मांसरस और मद्यादि के साथ सेवन करने से गुल्माश्मरी का नाश होता है। यथा"* * एरिकाच वपुषाचवीजम् । सुश्रुत-(१) मूत्ररोधज उदावर्त रोग में एर्वारु बीज-मूत्ररोधजात उदावर्तरोग में जल के साथ फूट ककड़ी वा ए रुबीज पीसकर किंचित् सेंधानमक मिलाकर पान करें । यथा"एारुवीज तायेन पिवेद्वालवणीकृतम्।" (उ० ५५ श्र.) (२) मूत्राघात में एारु वीज-एर्वारुवीज २ तोला किंचित् सेंधानमक के साथ पीसकर काँजी मिलाकर पीने से मूत्ररोध निवृत्त होता है। यथा"कल्कमेरुि वीजानामतमात्रं ससैन्धवम् । धान्याम्लयुक्तं पीत्वैव मूत्रकृच्छ्रात् प्रमुच्यते।।" (उ० ५८ अ० भैष० मूत्राघात चि०) वक्तव्यचरक के फलवर्ग में एर्वारु प्रभृति का पाठ नहीं मिलता। चरक ने मूत्रविरेचनीय वर्ग में भी एवोरु और वपुष का उल्लेख नहीं किया है। चरक ने कर्कारु और चिटि के शाक का अतिसार रोग में व्यवहार किया है । (चि० १० अ०) सुश्रुत लिखते हैं-"त्रपुसेर्वारु कर्कारुकतुम्बी कुष्माण्ड स्नेहाः मूत्रसङ्गेयु" (चि० ३१ अ.) अर्थात् पुष, कर्कारु, तुम्बी और कुष्माण्ड के बीज का तेल मूत्ररोध में हितकारी है। __यूनानी मतानुसार गुणदोष प्रकृति-प्रथम कक्षा में सर्द एवं तर (मतातर से द्वितीय कक्षा में शीतल एवं स्निग्ध)। रंग-श्वेत । स्वाद-विवाद एवं किंचित् मधुर । हानिकर्ता-प्लीहा को । ये ठहरे हुये मवाद-घटकों को उभारते हैं और प्रतिश्यायके रोगी को हानिकर हैं। दर्पघ्न-सिकञ्जबीन (मतांतर से शहद वा मकोय) । प्रतिनिधि-खीरा के बीज । मात्रा-६ माशे से ६ माशे तक (मतांतर से १७॥ माशे से ३ तोले तक )। गुण, कर्म, प्रयोग-कर्कटी का बीज मूत्रादि प्रवर्तन कर्ता--मुदिर,रोधोद्घाटनकर्ता, कांतिकर्ता तथा रगों को गाढ़े मवादों से रहित करता है अर्थात् रग संशोधनकर्ता-मुनक्का उरूक है एवं यह रक्कोद्वग, पित्तोल्वणता और पिपासा के वेग को शमन करता है। यह पित्तज वा उष्णप्रधान अम्लैरनुष्णै रसमद्ययूषैःपेयानि गुल्माश्मरि भेदनानि ॥” (चि० २६ अ०) । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ककड़ी ज्वरों को लाभकारी, स्थिर घटकों-मवादों को उभारनेवाला और खीरे के बीज की अपेक्षा काल है । प्रलेप रूप से यह कपोलों को कांतिप्रदान करता है। (मु० ना० ना० मु० ) मख्ज़न मुफरिदात में यह अधिक लिखा है कि यह उल्लासप्रद है । बुस्तानुल मुफ़रिदात के मत से यह प्रभाव में खीरे के बीजों की अपेक्षा निर्बल है । यह उष्ण प्रकृति को उल्लासप्रद है I इसका प्रलेप त्वमृदुकर है । शेष गुणधर्म पूर्व बर्णनानुसार । मक़ालात इहसानी के अनुसार ककड़ी के बीज की गिरी के गुणधर्म भी ककड़ी केही सहरा हैं; परन्तु यह अधिक है कि इसका शीरा श्रमाराय को सांद्रकती है । क्वाथ वा फांट रूप में जौकुट किये हुए इसके बीजों का सेवन अधिक उत्तम है । खजाइनुल् अद्विया में उल्लेख है कि यह मूत्रप्रवर्त्तक है श्रोर इसमें खीरे के बीजों की अपेक्षा प्रवर्तन की शक्ति अधिक है । किंतु खरबूजे के बीजों से यह इस विषय में हीन है । यह अवरोधोद्घाटन करता, स्वच्छता करता - जिला करता, रंगों में से पिच्छिल एवं ल्हेसदार दोषों को निकालता, उष्णप्रधान ज्वरों को ऊप्पा को मूत्र द्वारा निःसृत करता, मूत्र का दाह व जलन मिटाता और प्यास बुझाता है । इसके पीसकर मुखमंडल पर मर्दन करने से चेहरे का रंग स्वच्छ होता है । परन्तु इसके उपयोग में इतना दोष अवश्य है, कि इसमें स्थिर दोषों को प्रकुपित करने की थोड़ी शकि ज़रूर है। इसे खीरे के बीजों के साथ मिलाकर सेवन करने से जलन, प्रदाह और मिर्रहे सफ़राएक प्रकार का श्रप्राकृतिक सफ़रा वा पित्त जो पतले कफ के साथ मिला हुआ हो- का प्रकोप शमन होता है । यदि दोष उल्वण हो गये हों, तो स्थिर हो जाते हैं। यह फुफ्फुसजात क्षत एवं वेदना को लाभकारी है और उसकी शुद्धि करता है । यह पैत्तिक कास वा गरम खाँसीको श्राराम पहुँचाता है। यदि श्रामाशय और यकृत में ऊष्मा अत्यधिक हो जाय या उन ऊष्मा के कारण सूजन श्राजाय, तो इसके उपयोग द्वारा उपकार होते देखा गया है। यह लागत उशोथ को भी विलीन करता है । मूत्रविरेचनीय होते हुये भी यह किंचित् मृदुरेचनोय १८७८ ककड़ी मुलय्यिन भी है और यह उसकी विशेषता है। क्योंकि मूत्र प्रवर्त्तनकारी पदार्थ सर्वदा ही मलावष्टंभकारी अर्थात् क़ाबिज़ होते हैं और काबिज़ प्रवर्तनकारी | इसका छिलका वायु एवं उदरशूल - कुलंज उत्पन्न करता है, दीर्घपाकी है और क़ै लाता है । वैद्यगण कहते हैं कि ककड़ी के बीज शीतल, मूत्रल और बल्य हैं । जिस रोगी के पेशाब बनना रुक गया हो उसे ७ ॥ मा० इसके बीज पानी में पीसछानकर पिलाने से अधिक पेशाब श्राने लगता ककड़ी के बीज और जवाखार दोनों को पानी में पीस-छानकर पीने से मूत्र की जलन मिटती है और मधुमेह रोग-पेशाब में शर्करा का श्राना - प्राराम होता है। अश्मरी रोगी को भी उक्त बीजों का सेवन श्रतीव गुणकारी सिद्ध होता । इसके बीजों को सेंको हुई मींगियों का चूर्ण अत्यन्त मूत्रल है । बीजों को सुखा और पीसकर भक्षण करने से शरीर बहुत बलिष्ट होता है (कदाचित् इसी कारण बीजों को सुखा और छीलकर चीनी में पाग लेते हैं और सेवन करते हैं । यह खाने में भी अत्यन्त सुस्वादु होता है ) । इनकी afगियों द्वारा निकाला हुश्रा तेल- एर्वारुवीज तैल जलाने और खाने के काम में आता है। ( ख० अ० भा० ५ पृ० ४६२-३ ) नव्यमत वैट-फूट के बीज शैल्यकारक औषध रूप से व्यवहार किये जाते हैं । उ० चं० दत्त - ककड़ी का बीज शीतल, खाद्योपयोगी, पुष्टिकर तथा मूत्रल है और सशूल मूत्रण - मूत्रकृच्छ, राग एवं मूत्ररोध में इसका उपयोग होता है । ककड़ी के बीज २ ड्राम पानी में पीसकर कल्क बनाते हैं और उसे अकेले वा सवय और काँजी के साथ सेवन कराते हैं। नादकर्णी - दो ड्राम ककड़ी के बीज जल वा दुग्ध में पीसकर सेवन करने से अथवा केवल बीजों के चूर्ण में १० रत्ती सेंधानमक का चूर्ण मिला सेवन करने से सशूल मूत्रप्रसाव - मूत्रकृच्छ घोर मूत्ररोध रोग श्राराम होते हैं। शुद्ध शिलाजीत, गोखरू, पाषाणभेद, इलायची, केशर, ककड़ी के बीज श्रीर सेंधानमक-इन सबको बराबर बराबर लेकर पीस-छान जो। इसमें से Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेड़ साथ चार या छः माशे चूर्ण चावलों के धोवन के खाने से घोर असाध्य मूत्रकृच्छ भी श्राराम हो जाता है। १८७६ पाषाणभेद, बरुना, गोखुरू श्रौर ब्राह्मी-इनको कुल दो तोले लेकर काढ़ा करो। फिर इसमें "शुद्ध शिलाजीत और गुड़ " तथा " खीरे और ककड़ी के वीजों का कल्क" ( सिलपुर पिसी लुगदी ) खूब मिलाओ और पी। इससे वह पथरी भी नष्ट हो जाती है, जो सैकड़ों दवाओं से नष्ट नहीं होती । जिस तरह इंद्र के बज्र से पर्वतों का नाश होता है । उसी तरह इस योग से पथरियों का नाश 1 होता है। झाड़ की सीकों के फूल दो तोले लेकर पावभर भानी में घंटे तक भिगो रखो; फिर इस पानीको छान लो । पुनः उसमें खीरे ककड़ी के बीज ६ माशे और भाँग १ माशे सिलपर पीसकर मिला दो और ऊपर से दो तोले चीनी भी डाल दो और कपड़े में छानकर पीलो । इस दवा से पथरी नष्ट होती और मूत्रावरोध दूर होता है । हिक्का रोग में ककड़ी का पानी - ककड़ी के फल से निकाला हुआ स्वरस, मुलेठी, मयूरपंख की भस्म, भ्रमर के छत्तों की भस्म और अपामार्ग के बीज, इन्हें समान भाग लेकर मधु के साथ सेवन करने से हिचकी शीघ्र दूर होती है । बसव रा० ८ प्र० पृ० १५५ । राक्सबर्ग के अनुसार इसके शुष्क बीजों का चूर्ण तीव्र मूत्रल है और इससे अश्मरी रोग में उपकार होता है। चोपड़ा के मत से यह शान्तिदायक और मूत्रवर्द्धक है। संज्ञा स्त्री० [ पं० ] जंगली चिचिंडा । ककन भेड़-संज्ञा स्त्री० [ हिं ] एक प्रकार का प्रसिद्ध जलीय पक्षी जो बत्तख़ के समान, किन्तु उससे बड़ा होता है । यह उड़ नहीं सकता । यह दो प्रकार का होता है । धूमिल - काला और सफेद । चिड़ी | वालि ( ) मु० प्रा० । प्रकृति - उष्ण तथा स्निग्ध । हानिकर्त्ता - दीर्घपाकी । दर्पन - दालचीनी के साथ पकाना । गुण, कर्म, प्रयोग — इसका मांस दीर्घपाकी तथा गुरु है और खाल उष्ण प्रकृति ककरोल को सात्म्य, पर पित्तज प्रकृति को हानिप्रद है । ना० मु० । क़क़नस - [ ? ] पित्तपापड़ा | शाहतरा । कंकना - संज्ञा पु ं० इमली का फल | ककनी - [ बं०] कँगनी । कंगु । संज्ञा स्त्री० ( १ ) एक अनाज । दे० " कँगनी " (२) कँगनी की तरह की एक मिठाई । ( ३ ) इमली का छोटा फल । ककन्द-संज्ञा पु ं० [सं० पु ं०] सोना । स्वर्ण ककर-संज्ञा पु ं० [?] तंबाकू | सुरती । संज्ञा पु ं० [ सं . पु ं० ] एक चिड़िया । ककर खिरुणी-[ कों० ] करुणी पुष्प । ककरघाट - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] एक वृद्ध जिसकी जड़ ज़हरीली होती है । कंकरा - [हिं०, बं०] कंकरा | ककराच गोंद - [ म० ] पलाश का गोंद। कमरकस । ककरा -च-भाड़ - [म] पलाश वृक्ष । पराश | ढाकका पेड़ । ककरा - च-बी - [ म० ] पलाश बीज । पलाश पावड़ा । परास का बीया । ककरा चुरा - [ बं०] कंकरा । ककराली-संज्ञा स्त्री० [सं० कक्ष+वाली प्रत्य० ) ] एक प्रकार का फोड़ा जो काँख में होता है । कंछराली | कंखवाली । कखवार | कँखौरी | ककरा सींगी - संज्ञा स्त्री० । दे० "काकड़ासींगी" । ककरिया गोंद -[ गु० ] पलाश की गोंद कमरकसः । ककरी-संज्ञा स्त्री० । दे० “ककड़ी” । संज्ञा स्त्री० [पं० ] कबरा बेर ( हिं० ) । कौर | कियारी । ( पं० ) । कबर ( बम्ब० )। (Cadaba Murayana, Graham.) The edible caper or Caper plant. इं० मे० प्रा० । ककरी काय - [ ता० ] ककड़ी ककरी मुख- संज्ञा पुं० [ स० पु० ] केश । बाल । रा०नि० ० १८ ] | ककरोंदा - संज्ञा पु ं० दे० " कुकरौंधा" । ककरोल-संज्ञा पुं० [देश० बं०] खेखसा । ककोड़ा | aaiटकी । [ बं० ] गुल काकर । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करौल ककरौल-संज्ञा पु ं० खेखसा । ककोड़ा । ककरोहन -संज्ञा पु ं० [?] बथुश्रा । वास्तुक । ककरौंदा, ककरौंधा ककरौन्हा - संज्ञा पु ं० दे० " कुकरौंधा " । ककश - संज्ञा पुं० [?] कचूर । ककस - [ ? ] ( १ ) केसर । ( २ ) गुग्गुलु । कुकुस : - [ सिरि० ] काकनज । १८८० ककसल [ ? ] दे० "ककस” । ककसा - संज्ञा पु ं० [?] खेखसा | ककरौल | क़क़साला - [ ? ] श्रालूबुखारा । ककसी संज्ञा स्त्री० [सं० कर्कशा, प्रा० कक्कसा ] एक प्रकार की मछली । इसका मांस रूखा होता है । यह गंगा, जमुना, ब्रह्मपुत्र और सिंधु श्रादि नदियों में होती है। ककसा । ककहर - संज्ञा पु ं० [?] कचूर | कर्चू रे । कक्क़हर - [ अ० ] ( १ ) राल । धूप ( २ ) साल । साखू । ककहिया -संज्ञा स्त्री० । दे० " ककही" । ककही-संज्ञा स्त्री० [सं० कंकती, प्रा० कंकई ] ( १ ) एक प्रकार की कपास जिसकी रूई कुछ लाल होती है । (२) कंघी । दे० "कंघी " । ककाटिका - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ललाटास्थि । माथे की हड्डी I ककादावण्टा - संज्ञा पुं० [? | हुरहुर । हुलहुल । ककापत्री - द० ] श्रज्ञात | - [सं० [?] सोनवेल | स्वर्णवल्ली । ककारपूर्वद्रव्य-संज्ञा पु ं० [ सं०ली० ] वे पदार्थ जिनके नाम का पहला अक्षर 'क' हो । 'क' से प्रारम्भ होनेवाले पदार्थों के नाम; जैसे, कटुक, (कुटकी), कालशाक, कुष्माण्ड, कर्कटी, ककंधु, कटक, कलिंग, करमर्द, करीर, कतक, कशेरु, और काँजी । ये रक्तपित्त में वर्जित हैं। । भा० म० २० पि० चि० । ककारु - संज्ञा पु ं० [ सं कर्कारु ] कोहड़ी । कुत्रा - [ ? ] गन्दाल ( पं० ) । ककुई आइल-संज्ञा पु ं० [ सैण्डविच द्वीप ] जंगली अखरोट का तेल । केकुनी श्राइल ( लंका) । फा० ई० ३ भ० । ककुङ्गिनी -संज्ञा स्त्री० [२० स्त्री० ] मालकंगनी | ज्योतिष्मती । भा० म० १ भ० । ककुतू (दु ) } ककुञ्जल-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] ककुञ्जला - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] पपीहा । राज० । ककुटी - संज्ञा स्त्री० [ खुरा०, हरीरूद घाटी ] मिश्क तरामशी । फा० इं० ३ भ० । चातक । क. कुन्दनी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] मालकांगनी । ज्योतिष्मती । ककुन्दर - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] कुकरोंधा । कुकरछिड़ी । यह कटु, तिक्र, ज्वरघ्न, उष्णकृत् श्रौर रक्त एवं कफदाह के दोष मिटानेवाला है । ककुन्मत्-दे० “ककुद्मत्” । ककुप (भ)-संज्ञा पु ं० [सं० स्त्री० ] ( १ ) चम्पा के फूलों की माला । चम्पे का हार । ( २ ) प्रवेणी । मे मत्रिक । ( ३ ) दिक् । दिशा । ककुभ-संज्ञा पु०' [सं० पु० ] ( १ ) अर्जुन वृत्त । कहू । कोह । प० मु० । ( २ ) वृष । बैल | (३) एक चिड़िया | ककुभचूर्ण-संज्ञा पुं० [सं० की ० ] कास रोग में प्रयुक्त उक्त नामक एक आयुर्वेदीय योग । विधि- जुन वृक्ष की छाल का चूर्ण करके उसमें अडूसे के रस की भावना देकर रखलें । गुण वा उपयोग विधि - इसे ३-४ माशे की मात्रा में शहद, घृत और मिश्री मिलाकर सेवन करने से क्षय, कास और रक्तपित्त का नाश होता | यो० २० कास चि० । | ककुभत्व - संज्ञा पु ं० [सं० स्त्री० ] अर्जुन वृक्ष की छाल । अर्जुन की छाल । च० द० । सि० योο यक्ष्म-चि० । ककुभलेह -संज्ञा पु ं० [सं० पु ं०] कास रोग में प्रयुक्त उक्त नाम का एक आयुर्वेदीय योग । निर्माण-विधि - दे० "ककुभचूर्ण” । ककुरणक-संज्ञा पुं० [सं० पु०, क्री० एक प्रकार का बालरोग | कुथुचा । ककूणक । रोहुआ | रोहा | ककुतू (द) - संज्ञा पु ं० [सं० स्त्री० ] ( १ ) बैल के कंधे का कुब्बड़ । डिल्ला । डील । (२) प्राधान्य | श्रम० । (३) ध्वजा । निशान | छत्र चामरादि । ( ४ ) राजचिह्न । मे० । (५) ककुदिन् I I Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ककुत्सल १८८१ द्राक्ष ( ऋषभ ) । (६) पहाड़ी की चोटी । ( ७ ) एक प्रकार का दवकर सर्प । ककुत्सल - संज्ञा पु ं० [सं० (वै०) क्री० ] ककुर नामक वृषावयव । डील | ककुद्मती - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) कटि | कमर । म० । ( २ ) नितम्ब । चूतड़ । बि० [सं०] जिसे डिल्ला हो । ककुद्वाला | ककुद् विशिष्ट । ककुद्मत्-संज्ञा पु ं० [सं० पु ं० ] ( १ ) वृष । बैल | (२) पर्वत | पहाड़ । ( ३ ) ऋषभक नाम की श्रोषधी । वैद्यको द्रव्य विशेष । ककुद्मान् -संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( १ ) ऋषभ नाम को एक श्रोषधि । ऋषभक । रा० नि० व० ५। (२) वृक्ष । पेड़ । हे०च० । ( ३ ) बैल | वृष । ककुद्मिन-संज्ञा पु ं० [सं० पु ं० ] ( १ ) वृषभ । बैल । ( २ ) पर्वत | पहाड़ । ककुद्वत्-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( १ ) वृषभ । बैल | (२) नितम्ब स्थल के उभय पाश्वस्थ गर्तद्वय । कूल्हे के गड्ढे | चूतड़ के दोनों ओर का गड्ढा । ककुनक- संज्ञा पु ं० [सं० पु०, क्ली० ] दे० "ककु क" । ककुनी - संज्ञा स्त्री० [सं० कंगुनी ] कंगु । काँक | कँगनी | ककुभ शाखा - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] भारंगी । भार्गी । रत्ना० । 1 ककुभा - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] भूर्जपत्र । भोजपत्र | ककुभाण्डा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] मीठा कद्द । मिष्ठलाबू । ककुभादनी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] गंध द्रव्य । नलिका । श० च० । ककुभा दि(द्य) चूर्ण-संज्ञा पुं० [सं० नी० ] उक्त नाम का एक योग । नला नामक निर्माण-विधि - ( १ ) अर्जुन की छाल. वच, रास्ना, बला, नामबला, हड़, कचूर, पुष्करमूल, पीपर, सोंठ प्रत्येक समानभाग - इनको बारीक चूर्ण कर रखले । मात्रा - १ शाख । १८ फा० ककूल, ककूलक गुण- इसे घृत के साथ सेवन करने से हृद्रोग का नाश होता है । ( २ ) अर्जुन की छाल, गंगेरन, श्रामला, एरण्डबीज और सुहागे की खील । प्रत्येक समानभाग लेकर चूर्ण करके रखलें । गुण तथा प्रयोग विधि - ३-४ माशे की मात्रा में लेकर शहद घृत मिलाकर सेवन करने से यक्ष्मा और कासादि रोगों का नाश होता है । वृ० नि० २० क्षय चि० । ( ३ ) अर्जुन वृक्ष की छाल लेकर उचित मात्रा में घृत, दूध अथवा गुड़ के साथ सेवन करने से हृद्रोग, जीर्णज्वर, रक्त पित्तका नाश होता है एवं दीर्घायु प्राप्त होती है । यो०२० हृदय रो० चि० । ककुम्बर - संज्ञा पुं० [ श्रं० cucumber ] दे० " कुकुम्बर" । ककुरवँदा - [ मरा० ] कुकरौंधा । ककुरवदा क. कुरौदा ककुरौंधाककुरौन्हा संज्ञा पु ं० [सं० ककुन्दरः ] कुकरौधा | ककुलक - [ ० ] गंडुम दीवाना | मूछनी । (Lolium temulentum, Linn.) ( फा० ई० ३ भ० ) ककुवल्ली -संज्ञा स्त्री० [ मल० ] कंकेई । काखर । लङ्गर । ककुवाक - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] मृग । मृगा । हिरन । ककूक - दे० " ककूल” | ककूटिया - संज्ञा स्त्री० [देश०] कुरर पक्षी । कर्केटिया । an osprey ककूणक संज्ञा पुं० [सं० पु०, ली० ] कुथुना । कुरू | रोहा | कुकूणक । मा० वाल रो० नि० । भा० म० ४ भ० । ककूल, ककूलक-संज्ञा पुं० [सं० नी०, पुं० ] ( १ ) गाय के गोबर आदि के चूर्ण की गरमी । करी की च । वा० टी० अरुण । ( २ ) पुत्र बनाने का मिट्टी का पात्र । पूरी पकाने का मिट्टी का बरतन । “ककूलं शङ्कुभिः कीर्णे स्वभ्रे ना तु तुषा Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८२ ककोडा नलः । तेन च मृण्मयमुत्तानमपूपपचनपात्रंलक्ष्यते" वा० टी० हेमा० । ककेई-पं०] काखस। ककड़ा-संज्ञा पुं० [सं० कर्कटक, प्रा. ककटक ] एक लता जिसके फल साँप के आकार के होते हैं और तरकारी के काम में आते हैं। चिचिंड़ा। चिचड़ा । कर्कटक। ककेरुक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु. ] एक प्रकार का पुरीषज कृमि । यह पाकस्थली में उत्पन्न होता है। ककैडाका-[ राजपु० ] खेखसा । ककोड़ा। ककैया-संज्ञा स्त्री॰ [?] लखावरी इंट । लखौरी। ककोडा-संज्ञा पु० [सं० कर्कोटकः, पा० कक्कोड़क] एक वृक्षारोही लता का फल जिसकी पत्ती बंदाल की पत्ती की तरह पंचकोनी होती है। यह फलपाकांत बहुवर्षीय बेल है। यह गर्मी में पुरानी जड़ से ही निकल कर बढ़ती है और बरसात में फूलती-फलती है। फूल पीले रंग का होता है। फल अंडाकार परवल के श्राकार का होता है और उसके ऊपरी भाग में बंदाल के फल की तरह हरे कोमल काँटे होते हैं । बँदालमें ये काँटे अपेक्षाकृत अधिक मोटे, लम्बे, कड़े और घनावृत्त होते हैं। कच्चा ककोड़ा हरा होता है, किंतु पककर यह पिलाई लिए रक्तवर्ण अर्थात् नारंगी के रंग का होजाता है। इसके भीतर बीज भरे होते हैं। बीज परवल के बीज की तरह पकने पर कलौंछलिए होते हैं । स्वाद भेद से यह दो प्रकार का । होता है । मीठा ककोड़ा और कड़वा ककोड़ा । मीठे ककोड़े की तरकारी अत्यन्त सुस्वादु होती है। कडा तरकारी के काम नहीं आता है। इसका मूल कन्द ( Tuber) होता है। इसका वह भेद जिसमें फल नहीं लगते, फल के स्थान में खाली एक कोष होता है, "बॉम ककोड़ा" कह लाता है। बाँझ-ककोड़े की बेल बिलकुल ककोड़े की बेल की तरह होती है। इसकी जड़ के नीचे खोदने से एक कंद निकलता है। पर्या०-कर्कोटकी; स्वादुफला, मनोज्ञा, कुमारिका; अवन्ध्या, देवी, विषप्रशमनी, (ध० नि०) कर्कोटकी, स्वादुफला, मनोज्ञा, मनस्विनी, बोधना, बन्ध्य कर्कोटी, देवी, कण्टफला ( रा०नि०) कर्कोटकी, पोतपुष्पा, महाजाली (भा०) पीतपुष्पी, महाजालिनिका, बोधनाजालि, कर्कोटः, कोठकः (च. द०), कर्कोटकं (सु०, प्रज०, अत्रि०) कुमारी, कर्कोटजः, कर्कोटिका, पीतपुष्पा; जाली, (मद०)-सं० । खेकसा, खेखसा, ककोड़ा, ककरौल, ककरोल, ककारा, बनकरैला-हिं० । काँकरोल-बं०। कौली, कंटोली-मरा । श्रागाकर-से० । अगारबल्ली -ता०। मोमोडिंका कोचीनचाइनेन्सिस Momordica Cochin chinensis, Spreng. म्युरिसिया कोचीन चाइनेन्सिस Muricia Cochin chinensis, Loureiro-ले. संज्ञानिर्णायिनी टिप्पणी___ बङ्गाल में 'जिसे धिकरला' कहते हैं, बनौषधि दर्पणकार के अनुसार वह एक प्रकार की अरण्य कर्कोटकी मात्र है। ककोड़े के उस भेदको, जिसमें फल नहीं लगते हैं, 'बाँझ-ककोड़ा' कहते हैं। फिर अनुभूतचिकित्सासागर-के रचयिता ने कैसे यह लिख मारा, कि इसके सूखे फल को पीसकर सूंघने से छींकें बहुत अाती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि लिखते समय उन्हें बंदाल वा देव. दाली की सुधि आगई होगी। तिबमुस्तफवी के अनुसार इसके फल को बाकर वा बाकल कहते हैं। यह भी प्रमादपूर्ण ही है। मालूम होता है कि भंग के नशे में ये व्यवस्थापन दिये गए हैं। इनसे भी हास्यास्पद बात ख़ज़ाइनुल अदविया के रचयिता को है । आप उक्त लेखकों की सत्यालोचना करने तो बैठे, पर अपनी बारी पर अाप भी उन्हीं को तरह नशे में होकर लिख गए कि इसके नर और मादा ये दो भेद होते हैं । उक्त वर्णन डिमकोक्न धारकरेले ( M. Dioica, Roxb.) का है, जिसमें फल होते हैं। परन्तु वह बाँझ-ककोड़े से सर्वथा भिन्न पौधा है। कुष्माण्ड वर्ग (N. 0. Cucurbitaceæ.) उत्पत्तिस्थान-बंगाल से टेनासरिम तक, Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ककोड़ा दक्षिण भारत, कनाडा, कोचबिहार राज्य में सर्वत्र और रंगपुर के श्रंचल में तथा इसी तरह हिन्दुस्तान के प्रायः सभी भागों में यह प्रचुर मात्रा में उपजता है और इसके फल भारतीय बाज़ारों में विक्रीत होते हैं । १८८३ रासायनिक संघटन - छिलका उतारे हुये बीज में एक प्रकार का कुछ-कुछ हरे रंग का तेल ४३.७% और एक तिक ग्ल्युकोसाइड होता है। तेल अत्यन्त प्रबल शोषण ( Siccative ) विशिष्ट होता है। औषधार्थ व्यवहार - बीज फल और कन्द श्रदि । गुणधर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसार कर्कोटकी युगं तिक्कं हन्ति श्लेष्मविषद्वयम् । मधुना च शिरोरोगे कन्दस्तस्याः प्रशस्यते ॥ ( ध० नि० ) दोनों प्रकार का ककोड़ा - कड़ा होता है श्रौर श्लेष्मा एवं स्थावर तथा जंगम दोनों प्रकार के विषों का नाश करता । शिरोरोग में शहद के साथ इसके कन्द का सेवन गुणकारी होता है । कर्कोटकी कटूणाच तिक्त विषनाशनी । वातघ्नी पित्तहृच्चैव दीपनी रुचिकारिणी ॥ ( रा०नि० ७ व० ) ककोड़ा ( ककोटकी ) — तिक्र, चरपरा, गरम, विषनाशक, वातनाशक, पित्तनाशक, दीपन और रुचिजनक है । कर्कोटकं फलं ज्ञेयं कारवेल्ल कवद् गुणैः । ( राज० ३ प० ) ककोड़ा (फल) – गुण में करेला के समान है । कर्कोटकं त्रिदाषघ्नं रुचिकृन्मधुरं तथा । ( श्रत्रि० १६ श्र० ) ककोड़ा (ककटक) - त्रिदोष नाशक, रुचिकारक और मीठा होता है । कर्कोटकी मलहृत्कुष्ठ हृल्लासारुचिनाशिनी । कास श्वास ज्वरान्हन्ति कटुपाका च दीपनी ॥ ( भा० ) ककोड़ा - मल को हरनेवाला और कुष्ठ हल्लास रुचि, श्वास, खाँसी तथा ज्वरको दूर करनेवाला, कटुपाकी और दीपन है । Chie कर्कोटकी रुचिकरा कवीचाग्नि प्रदीपनी । तिक्तोष्णा वातकफहद्विषं पित्तं विनाशयेत् ॥ फलमस्यास्तु मधुरं लघु पाके कटु स्मृतम् । अग्निदीप्तिकरं गुल्मूल पित्त त्रिदोषनुत् ॥ कफकुष्ठ कासमेह श्वास ज्वर किलासनुत् । लालास्रावारुचिर्वात किलास हृदयव्यथाः ॥ नाशयेत्पर्णमस्याश्च रुच्यं वृष्यं त्रिदोषनुत् । कृमि ज्वर क्षय श्वासकास हिक्कार्शनाशनम् ॥ कन्दोमाक्षिक संयुक्तः शीर्षरोगे प्रशस्यते । (नि० २० ) ककोडा – रुचिकारक, कटु, अग्निप्रदीपक, तिक, गरम, तथा वात, कफ, विष एवं पित्त का नाश करता है। इसका फल - मधुर, लघु, पाकमें चरपरा, श्रग्निप्रदीपक तथा गुल्म, शूल, पित्त, त्रिदोष, कफ, कुष्ठ, कास, प्रमेह, श्वास, ज्वर, किलास, लालास्राव, श्ररुचि, वात और हृदय की पीड़ा को दूर करता है । इसका पत्ता - रुचिकारक, वृष्य, त्रिदोष नाशक तथा कृमि ज्वर, क्षय, श्वास, कास, हिचकी श्रौर बवासीर को दूर करनेवाला है । इसका कन्द-मधु के साथ मस्तिष्क के रोगों में हितकारी है । कर्कोटपत्र - वमन में हितकारी है । ( वा० ज्वर चि० १ ० ) कर्कोटमूल - ककोड़े की जड़ का नस्य दिया जाता है । ( च० द० पाण्डु-चि०) कर्कोटिका -- कन्दरज ( खेकसा को जड़ का चूर्ण) ( भा० म० १ भ० शीतलाङ्ग, सा० ज्व-चि०) यूनानी मतानुसार प्रकृति - समशीतोष्णानुप्रवृत्त, पर किसी भाँति तर वा स्निग्ध ( मतान्तर से शीतल किसी-किसी के समीप उष्ण ) है । हानिकर्त्ता --- -- श्राध्मानकारक और दीर्घपाकी है। दर्पन - गरम मसाला और श्रादी | गुण, कर्म, प्रयोग - गुण में यह करेला के समान है और अपने प्रभाव से यौवनपिड़का वा मुँहासे को दूर करता है तथा कफ, रक्तपित और रुचि को दूर करता है । ( ता० श० ) यह फोड़े और फुन्सियों को लाभकारी है तथा सूजन उतारता है । (म० मु० ) Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ककोड़ा १८८४ ककोड़ा यह खाँसी, फेफड़े एवं शरीर के दर्द और | जीर्णज्वरों को लाभकारी है। इसकी जड़ का लेप बालों की जड़ों को दृढ़ करता है और बाल झड़ने को रोकता है। यह केशपात वा बालखोरा (दाउस्सालब) को भी लाभकारी है। बंगाल निवासी इसको कतरकर मांस में पकाकर खाते हैं । (बु० मु०) ___ ककोड़ा खाँसी को दूर करता है। यह फेफड़े के दर्द और जीर्णज्वर को लाभकारी है । यह अर्श में लाभ करता और वृक्कशूल एवं पार्श्वशूल को दूर करता है। इन रोगों में इसकी जड़ भी गुणकारी है । यदि इसे गोघृत में तलकर उक्त घृत को नाक में टपकाएँ, तो अविभेदक तुरत नष्ट हो जाता है । इसके रससे नासिकागत समस्त कृमि नष्ट होजाते हैं । यह कर्णशूल में भी गुणकारी है। एक तोला इसकी जड़ महीन पीसकर पीने से वृक्काश्मरी नाश होतो है और यह अश्मरी का | निर्माण नहीं होने देती है। इसकी जड़ के लेप से केशमूल दृढ़ होते और केश बढ़ते हैं। ककोड़ा विषों का अगद है। इसका रस कान में टपकाने से कर्णशूल मिटता है। इसकी जड़ के लेप से बालखोरा दूर होता है । (ख. अ.) छिलका उतारे हुये बीज अकेले वा अन्य भोज्य पदार्थ के साथ खाये जाते हैं। (मज़न) नव्यमत डिमक—यह उरो शूल और कास में उपकारी स्वीकार किया जाता है । इसका चूर्ण बंगदेशीय झाल नामक द्रव्य का एक उपादान है, जो द्रवीभूत नवनीत के साथ प्रसूता नारियों को, प्रसवोत्तर तुरत और इसके उपरान्त कुछ दिन तक श्रासिक दी जाती है। बॉझककोड़ा (बन्ध्या कर्कोटकी) पया-वन्ध्यककोटको, देवी, मनोज्ञा, कुमारिका, नागारिः, सर्पदमनी, विषकण्टकिनी, नागद- | मनी, सर्वभूतप्रमर्दिनी, व्याघ्रपाद (वन्ध्यापुत्रदा), प्रजा, योगीश्वरी, (ध० नि०), वन्ध्या, देवी, वन्ध्यककोटको, नागारातिः, नागहन्त्री, मनोज्ञा, पथ्या, दिव्या, पुत्रदात्रो, सुकन्दा, श्रीकन्दा, कंद. वल्ली, ईश्वरी, सुगन्धा, सर्पदमनी, विषकरटकिनी, वरा, कुमारी, विषहन्त्री (रा० नि०) विषमाश- मनी, निष्फला, नागघातिनी, मज्जादमनी, (के. दे.), वन्ध्याककर्कोटकी, देवी, कान्ता, योगेश्वरी, नागारिः, भक्कदमनी, विषकण्टकिनी, नागारातिः, वन्ध्या, नागहन्त्री, मनोज्ञा, पथ्या, दिवा, पुत्रदा, सकंदा, कंदवल्ली, ईश्वरी, श्रीकंदा, सुगंधा, सर्पदमनी, विषकन्दकिनी, वरा, नक्रदमनी, कंदशा. लिनी, भूतापहा, सर्वोषधी, विषमोह प्रशमनी, महायोगेश्वरी-सं० । बाँझ खखसा, बाँझ खेकसा, वाँझ खखसा, वाँझ ककोड़ा (ड), बनककोड़ा, वाँझ ककोली, बन परवल, कडू काकड़ा-हिं० । तिकांकरोल, तित्काँकड़ी, गोल ककड़ा. वाँझ क.करोहल-बं०। वाझ कटोली, वांझ कंटोली,वंझा कंटोली-मरा० । वाँझ कंटोलो, फलवगरना, कंटोला-गु० । बंजेमडु वागलु-कना। मोमोर्डिका डायोइकामल Mo mordica Dioica mal, ले। बाँझ खाखा -पं०। पुलप, घेलुकुलंग -ता । वंजेमड़वागलु -का। वंझा कंटोलो -बर० । गुणधर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसारनागारिलू ता विजिद्धन्ति श्लेष्मविषद्वयम् । (ध०नि०) वांझ ककोड़ा (नागारि)लूता (मकड़ी) के विष को दूर करनेवाला, श्लेष्मानाशक और स्थावर-जंगम दोनों प्रकार के विषों को हरण करनेवाला है। वन्ध्यकर्कोटकी तिक्ता कटूष्णा च कफापहा । स्थावरादि विषघ्नी च शस्यते सा रसायने ॥ (रा०नि०३ व०) बाँझ ककोड़ा-कड़वा, चरपरा, गरम, कफनाशक, स्थावरादि विषनाशक और पारेको बाँधने. वाला है। वन्ध्याकर्कोटकी लध्वो कफनुद् व्रणशोधिनी । सर्पदर्प हरी तीक्ष्णा विसर्प विषहारिणी॥ (भा०) वाँझ खेखसा-हलकी, कफनाशक, व्रणशोधक और तीक्ष्ण है तथा साँप के दर्द को दूर करता एवं विसर्प और विष का नाश करता है। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ककोड़ा १८८५ वन्ध्याकी तिक्ता कट्वी चोष्णा लघुः स्मृता । रसायिनी शोधिनी च स्थावरादि विषापहा ॥ कफनेत्रा शिरोरोग व्रणवीसर्प कासहा । रक्तदोषं सर्पविषं नाशयेदिति कीर्त्तिता ।। (नि० र०) बनक कोडा - कड़वा, चरपरा, गरम, हलका, रसायन, शोधक, स्थावरादि विषनाशक तथा कफ, नेत्ररोग, शिरो रोग, व्रण, विसर्प, खाँसी, रुधिरविकार और सांप के विष को दूर करनेवाला है । गण निघण्टू के अनुसार यह पक चरपरा, उष्णवीर्य है । केयदेव के अनुसार इसका कंद विषय ( स्थावर-जंगम ) और शिरोरोग का नाश करता है । बॉझ ककोड़ा के वैद्यकीय व्यवहार बन्ध्याकर्कोटकी कन्दद्रवैद्यं दिनत्रयम् । तालकं च मृतं ताम्रं द्विगु मधुना लिहेत् । पिवेत्क्षारोदकं चानु स्थौल्य रोगं विनाशयेत् ॥ अर्थात् १ रत्ती मृत ताम्र और १ रत्तो शुद्ध हरताल लेकर वाँ ककोड़े के रस में तीन दिन मन कर शहद के साथ भक्षण करने और चार जल पान करने से स्थौल्यरोग का नारा होता है। बसव रा० १८ प्र० पृ० २७४ । रसरत्नसमुच्चय- के मतानुसार वाँझ ककोड़े के कंद को सुखाकर उसके चूर्ण को तीन माशे की मात्रा में शहद और शक्कर के साथ सेवन करने से पथरी नष्ट हो जाती है । इसी प्रयोग से जिन लोगों गर्मी के कारण तालू में लिग पड़ गया हो वह भी मिट जाता है। यूनानी मतानुसारप्रकृति - उष्ण है । गुण, कर्म, प्रयोग - यह हलका एवं कफ और विष के विकारों को दूर करता है तथा व्रण विस्फोटकादि और aa विशेष (मांसखोरा ) को लाभकारी है | यह कड़ ुश्रा और विषविकारनाशक है तथा समस्त प्रकार के प्रकोपों का शमन करता है । इसकी जड़ जहरबाद फोड़े को बिठाती और गाढ़े सूजन को लाभ पहुँचाती है । यह देशज विष और कास को दूर करता है । ( ता० श० ) ककोर वैद्यों के कथनानुसार बाँझ ककोड़ा कड़वा चरपरा, रुधिर विकारनाशक एवं विषघ्न है । यह हलका है और कास को लाभ पहुँचाता है । यह फोड़े फुंसी और बालख़ारे को लाभकारी है तथा सूजन उतारता, प्राणिज विषों का अगद है और बहुमूत्र (ज़ियाबेस) रोग को लाभ पहुँचाता है । इसके कंद का मुरब्बा खाने से पलकों का रोग नारा होता है। साढ़े सात माशे वा इससे किंचित् श्रधिक ऐसी एक-एक मात्रा दिन में दो बार देवें । के कई रोगों में इसके कंद का मुरब्बा लाभ प्रदान करता है। शिरोरोग की यह मध है । खोपरे की गिरी, कालीमिर्च, लाल चंदन श्रोर अन्य श्रोषधियों के साथ इसका कंद पीसकर प्रलेप करने से सर्व प्रकार का शिरः शूल निवृत्त होता है । छिपकली के मूत से जो सूजन हो जाती है उसे मिटाने के लिये इसकी जड़ का रस सेवन है । साँप, बिच्छू और बिल्ली प्रभृति विषधर प्राणियों के काटे हुये स्थान पर इसका कंद पानो में पीसकर प्रलेप करने से तज्जन्य विष शांत होजाता है । इसका एक तोला कद शहद और चीनी के साथ चटाने से पथरी गल जाती है। विष प्रभाव जन्य मूर्च्छा में रोगी को इसके कंद की छाल मूत्र में भिगोकर काँजी के साथ पीसकर सुँघाने से वह होश में श्रा जाता है । ( ख़० ० ) तब मुस्तफ़वी में उल्लिखित है कि यह हलका, कफ एवं विषनाशक, फोड़ा-फुंसीनिवारक, कफ एवं वित्तविकारनाशक, सूजन को उतारनेवाला और क्षत (क्रुरूह साइयः अर्थात् जोशीदगी सारी ) का नाश करनेवाला है। इसका फल ? शीतल और अम्ल होता है और उसका रस हृद्य, दुधावर्द्धक और पित्तनाशक है । इसके कंद को १॥ तोले की मात्रा में पानी के साथ पीस कर पिलाने से वमन होकर हर प्रकार का स्थावर और जंगम विष नष्ट हो जाता है । ककोर-संज्ञा पुं० [देश० चुनार ] बेर की की एक प्रकार की कँटीली झाड़ जिसके फल झड़बेरी के श्राकार के गोल किन्तु उससे बड़े और गूदारहित होते हैं। इसकी गिरी ग़रीब लोग खाते हैं। फल स्वाद में-कपाय युक्त होते Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खटी। कको रन्दा १८८६ हैं। गुण-इसकी छाल रकावरोधक है रकाति- कोष्ठा (बं०)। ( Crcohorus olitoसार मे इसका क्वाथकर पीने से यह लाभ होता है। rius, Linn.) कठबेर । काष्ट बदर। संस्कृत पर्याय-पट्टः, राजशणः, शाणिः, ककोरन्दा-संज्ञा पु० [सं० ककुन्दर ) कुकरौंधा । चिमिः ( शब्द मा० ) । इसका शाककुक्कुरद्रु। मधुर, दुर्जर . ( कठिनता से पचनेवाला) और ककोल-संज्ञा पु० दे० "कंकोल"। गुरुपाकी होता है । राज. शा. व.। क(का)कट शिंगी-ता०] काकड़ा सींगी । कर्कटशृंगी। कक्खटी-संज्ञा स्त्री० [सं०स्त्री.]खड़िया । खड़ी । खड़िया कक्करिक-[ मल.] ककड़ी। मिट्टी। त्रिका० शैल व०। कक्कर तमाकु-[पं०] बिलायती तमाखू । संस्कृत-पर्याय-खटिका, वर्ण लेखा, कठिनी, (Nicotiana Rustica, Linn.) कक्करिक कायविरै-[ ता. ] ककड़ी का बीज । कक्युमिस-[अं॰] दे॰ "कुक्युमिस"। ककहन-[ बम्ब० ] महापीलू । बड़ा पीलू । दरखो ककरिक-वित्त-मल0] ककड़ी के बीज । मिस्वाक । अ. सि. मे। ककरी-[मल० ] ककड़ी। कखज-[?] नखज । अलकी । कक्कवी-अज्ञात । कक्कानन-[म.] अज्ञात । कखन-[ मरा०] पीलू । झाल । कखनेला-[?] पोलू तैल। कक्कानन-कोड़ी-[ता०] अपराजिता। कखवाली-संज्ञा स्त्री० । दे. 'ककराली"। . कक्काय कोल्लि-विरै- ता• ] काक मारो । काक कत्ल । कखसा-संज्ञा पु। दे० "खेखसा"। कक्कायि-[को॰] । अमलतास । पारग्वध । | खारू-[ उड़ि ] पेठा। कक्कायि-मर-[ कना०] | सियारलाठी। कखुम-[पं०] पहाड़ी चाय । ककुन-[सिं०] अखरोट । अनोट। कखौरी-संज्ञा स्त्री० (१) काँख का फोड़ा । बगल कक्कुल-संज्ञा पुं० [सं० पु.] बकुल बृत । मौल का फोड़ा । कखवालीं। (२) दे. “काँख"। "सिरी का पेड़। कगली-कना० ] खैर । कत्था । कक्केकायि-[कना०] अमलतास। सियार लाठी।। कगशा-संज्ञा पुं॰ [ ? ] जंगली अञ्जीर। कक्कोल,कक्कोलक-संज्ञा पुं॰ [सं० पुं०, की०] (१) | कगशो-[ कुमा०] किरम (नैपा०)। काकाली नाम का एक प्रकार का प्रसिद्ध सुगंध कगहिया-संज्ञा स्त्री० [ देश०] ककहिया। कत्रो । द्रव । काँकला (बं.)। दे० "काकोली"। महासमझा। (२) एक प्रकार का सुगंध-द्रव्य । कंकाल । | कगाल:-[ ? ] कड़। कुसुम । बरें। शीतलचीनी । कबाबचीनी । राज० अनुलेरे । रा. | कगित्थ-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कैथ । कैथा । कपित्थ नि० व० १२ । भा० म० । च० द. यम चि०. श्र०टी०। लवङ्गादौ । दे. "कङ्कोल" । (३) गंधशटी। कगीरी-[खसि०] वउ अत्तवड़ (बं०)। गंधपलाशी । च० द० वा. व्या. एकादशशतिक | कगेड़ी-संज्ञा पु. [ देश०] एक प्रकार का वृक्ष जो प्रसारिणी तैल । भारतवर्ष में प्रायः सब जगह होता है। कक्खट-वि० [सं० वि० ] कठिन । कठोर । कड़ा। कग्गी- कना०] सरफोंका । शरपुखा। संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (१) खड़िया ।। कग्गेर-[ते. ] करञ्ज । कंजा। खड़िया मिट्टी । खड़ी । श्रम । (२) एक पेड़ । कग्लीनारा-[म० ] अज्ञात। पाट का वृक्ष । करशा-संज्ञा पुं० [?] जंगली अजीर । काकोकक्खटपत्र-संज्ञा पुं० [सं० पु.] । - दुम्बर। कक्खट-पत्रक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] एक प्रकार | कघुटी-[ नैपा० ] सेतबरुवा । अरमिली (नैपा०)। ' का पौधा । पाद । सन । नालितपात, पाटगाक, कं-संज्ञा पुं॰ [सं० वी० कम् ] (१) जल | राक Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८७ नि० ५० १४ । (२) मुख । मे। (३) केश। संस्कृत पर्याय-साधनी (अ.), कङ्कती, धर। कङ्कतं, प्रसाधनं (अ० टी०), केशमार्जनं (ज०) संज्ञा पु० [सं० पु.] (१) अग्नि । (२) फणिः, फणिका (शब्दर०)। वायु । ( ३ यम । ( ४ ) सूर्य । (५) अात्मा । गुण-कवी कांतिजनक, खाज को दूर करने(६) मोर । मे०। (७) मन । (८) शरीर । वाली, बालों को साफ करनेवाली. केश्य (बालों (६) काल। (१०) धन। (११) शब्द । के लिये हितकर ), रजोजन्य मलों का निवाअने० को। रण करनेवालो और मूर्दा वा शिरोरोग को दूर कङ्क-संज्ञा पु० [सं० पु.] [स्त्री• कंका, कंकी करनेवाली है । राज०। (२) एक प्रकार का वृक्ष । (हिं.)](1) एक प्रकार का अाम जो बहुत | (३)एक अल्पविष प्राणि विशेष । बड़ा होता है । महाराज चूत । रा०नि० व. १६॥ कङ्कतदेही-संज्ञा पु० [सं० पुं०, स्त्री० ] एक जानवर (१) चंदन । (३) एक मांसाहारी पक्षी जिसको प्राकृति श्लेष्म पिण्ड-जैसी होती है और जिसके पंख बाणों में लगाये जाते थे ।सफेद चील। उस पर कंधे की भाँति रेखायें होती हैं। सिडिप काँक । बगला ।बूटीमार । काँक पाखि, हाड़गेला Cydippe (अं०)। (६०)। मे० कद्विकं । हारा० । कता-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] बलिका । अतिबला। संस्कृत पर्याय-लोहपृष्ठः (अ.), सन्दंश- वाट्यपुष्पी । वृष्या। वृष्यगन्धा । भूरिबला । वदनः, खरः, रणालङ्करणः, क्रूरः, श्रामिषप्रियः, रा०नि० व० ४ । घण्टा । शीता। शीतपुष्पा । ( रा० ), अरिष्टः, कालपृष्ठ', किंसा(शा)रुः, , वृष्यगन्धिका । बल्या । विकङ्किता । वाट्यपुष्पिका। लौहपृष्ठकः (ज), दीर्घपादः, दीर्घपात् (शब्दर०) धन्व०नि०।। कमलच्छदः कोलपुच्छः (हे.), महाराजचूतः कङ्कतिका, कङ्कतीका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) (रा०), लौहपुच्छः। एक प्रकार का औज़ार जिससे बाल साफ किया गुण-कंक एवं भासक का मांस वृष्य, वीर्य- जाता है । कंघी । ककही। चिरुणि, काँकुइं (बं०)। वर्द्धक और कफनाशक होता है । अत्रि० २२ अ०। अम । (२) एक प्रकार का पौधा । अतिबला । (४) बगला। कंघी। (३) गुलशकरी । गंगेरन । नागबला। कङ्कट, कङ्कटक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] एक प्रकार भा• पू० १ भ० गु. व० । का खैर का पेड़ । खदिर । कदर। हारा। | कङ्कती, कङ्कतीका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कंघी । कङ्कटेरी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] हलदी । हरिद्रा । प्रसाधनी। वैनिघ। कङ्कोट, कङ्कनोटि-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] [स्त्री. कङ्कण-संज्ञा पुं॰ [सं० की.] कलाई में पहनने का कंकत्रोटी] (१) एक प्रकार की मछली जिसका एक आभूषण । ककना । कड़ा । खड्डुवा । चूड़ा। मुंह बगले के मुँह के समान होता है। कौमा ककन । मछली । काँकिला माछ (बं०)। त्रिका० । संस्कृत पर्याय-करभूषणं (अ.). कौन्तकं | हारा | जटा०। (२) खलसा नाम की मछली। (शब्दर०), हस्तसूत्रं, मण्डनं, शेखर (वि०)। खलिश । खलिशा माछ (बं०)। श० २० । वै. निघ। पर्याय-जलव्याधः (त्रि.), जलसूचिः कङ्कत-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (१) एक प्रकार का (ज), खल्लिश मत्स्य । वृक्ष । शेयाकुल, बँइची (बं०)। वै० निव० कङ्कद-संज्ञा पु० [सं० क्री० ] सुवर्ण, । सोना । वै० २ भ० अतिसा० पथ्ये । निघ०। संज्ञा पु० [सं० की.] (१) बालों को | ककनी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] प्रियंगु । काँक। साफ़ करनेवाली । कंधा। ककवा । कंधी। केश ककुनी। मार्जन । काँकुइ (बं०)। हला०। | कङ्कपत्र-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कंक पक्षी का पर। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कङ्कपर्वा १८८८ कङ्काल कङ्कपर्वा-सज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साँप । । श० च० । प्रयोगानुसार इस उद्भिद् द्वारा कंककङ्क पक्ष-संज्ञा पु० [सं० क्ली० ] कंकपक्षी का पर। पक्षी विनष्ट होता है। कङ्कपुरीष-संज्ञा पु० [सं० क्ली० ] कंक' नामक पक्षी | कङ्कशाय-संज्ञा पु० [सं० पु.] कुत्ता। कुक्कुर । का पाखाना । कंकबिष्ठा । यह व्रणदारण-फोड़े | श०मा० । को फोड़नेवाला है । सुः सू० ३६ अ । कङ्का-संज्ञा स्त्री० [सं०स्त्री०] (१)गोशीर्ष नामक चंदन । कङ्कपृष्ठी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] एक प्रकार की पद्म गन्ध । उत्पलगन्धिक । यथामछली। "गोशीर्ष चन्दनं कृष्ण ताम्रमुत्पलगन्धिकम् कङ्कभोजन-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कहू । कोह । कङ्का ।” श० मा०। अजुन वृक्ष । (२) कँगनी। ककमुख-सज्ञा पुं० [सं० पु०; की० ] एक प्रकारकी | कङ्काल-संज्ञा पुं० [सं० पु.] त्वक् एवं मांसादि सँड़सी जि.ससे चिकित्सक किसी के शरीर में रहित तथा स्वस्थान पर अवस्थित देह का अस्थि. चुभे हुये काँटे आदि निकालता है। सदंश । समुदाय । यथासँड़सी । हे. च० । "शल्यं प्रगृह्योद्धरते च त्वङ् मांसादिरहितः स्वस्थानस्थित: शरीरायस्मात् यन्त्रेष्धतः कंकमुखं प्रधानम्" । सु. सू० | स्थिचय: कंकालसंज्ञो भवति ।" (चरक) ७ अ०। त्वङ् मांसरहित समुदित शरीरास्थिसङ्घात । नोट-एक प्रकार का यन्त्र जिससे अस्थि में (अ०टी०भ०) प्रविष्ट शल्य वा तीर प्रभृति निकाला जाता है। पर्या०--करङ्कः । अस्थिपञ्जरः (वै०), शरीइस यन्त्र का अग्रभाग कंक पक्षी के मुख जैसा रास्थि, कङ्कालः-सं०। होता है। मोर की प्राकृति के कील द्वारा ककमुख ठठरी, ढाँचा-हिं । मजमू उल इ.ज़ाम, हैकल श्रावद्ध रहता है । सुश्रुत में अन्यान्य यन्त्रों की अज़म्मी, इ.जाम-१०। स्केलेटन Skeletonअपेक्षा इस यन्त्र का उत्कर्ष वर्णित है । कंकमुख अं०। यन्त्र सहज में ही भीतर घुस शल्य ग्रहणपूर्वक कङ्काल वा अस्थिपंजर देह का सार होता है। निकल पाता है और सर्व स्थान पर उपयोगी त्वचा और मांस आदि के विनष्ट होने पर भी होने से सकल यन्त्रों की अपेक्षा श्रेष्ठ समझा अस्थि का नाश नहीं होता। इसी से कहा जाता है। गया हैकङ्कर-संज्ञा पुं॰ [सं० श्री.] एक प्रकार का तक्र । "अभ्यन्तरं गतैः सारैर्यथा तिष्ठन्ति भूरुहाः । कार । छाछ । मठा । हे० च० । अस्थिसारैस्तथा देहा ध्रियन्ते देहिनां ध्रुवम् ।। वि० [सं०नि०] कुत्सित । खराब । तस्माच्चिर विनष्टेषु त्वङ्मांसेषु शरीरिणाम् । कङ्कराल-संज्ञा पुं० [सं० पु.] पिस्ता का पेड़ । अस्थीनि न विनश्यन्ति साराण्येतानि देहिनाम्॥ वै० निघ० । पेस्ता गाछ (बं०)। मांसान्यत्र निबद्धानि शिराभिः नाभिस्तथा। कङ्करोल-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (१) Alangi- अस्थीन्यालम्बनं कृत्वा न शीर्यन्तेपतन्तिवा॥" um hexape talum ढेरा | अंकोल । (सुश्रुत) निकोचक वृक्ष । (२) एक प्रकार की फल लता अर्थात् जैसे वृक्ष अभ्यन्तरस्थ सार के सहारे ककोड़ा । खेखसा । काँकरोल (बं०)। स्थिर रहता है, वैसे ही अस्थिसार के सहारे मनुष्य कङ्कलोड य-संज्ञा पु० [सं० क्ली०] चिञ्चोटकमूल । चंच देह धारण करता है। शरीरस्थ त्वचा, मांस प्रभृति की जड़ । अङ्कलोड्य । राज.। चेचको । के नष्ट होते भी अस्थि का विनाश नहीं होता। चिञ्चोड़मूल (बं०)। यह गुरु, अजीर्णकारी अस्थि समस्त देह का सार है। उसमें शिरा और और शीतल होता है। स्नायु द्वारा मांस बद्ध रहता है। अस्थि के अवकङ्कशत्रु - संज्ञा पु० [सं० पु. ] पिठवन । पृश्निपर्णी लम्बन से ही मांस शीर्ण वा पतित नहीं होता। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८६ कङ्कालय ककुष्ठ, कङकुष्ठक चरक के मत से ठठरी इन छ: अंशों में विभक्त कङ्काबीज-संज्ञा पु० [सं० श्री.] गोशीर्ष नामक है-चार शाखा, पञ्चम मच्याङ्ग और षष्ठ मस्तक । | चन्दन का बीज । योगरत्न० उ० ख० केशर ऊर्ध्व शाखाद्वय को बाहु और अधःशाखा द्वय को पाके । सथि कहते हैं। कङ्किरात-संज्ञा पुं० [सं० क्ली०] पीलेफूल की कट युरोपीय शरीर तत्वविदों ने भी कङ्काल को सरैया । कुरुटक । हला० । मुख्यतः तीन अंगों में विभक किया है-(१)| कङकु-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कँगनी । काँक । कंगुउत्तमाग वा मस्तक ( Head ), (२)मध्यान तृण । द्विरूपकोषः । वा स्कंध ( Trunk) और (३) शाखा | ककुका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कँगनी । काँक । ( Extremities)। कङ्कुटी-संज्ञा स्त्री० [सं०स्त्री.] एक प्रकार का जंग___ महर्षि सुश्रुत के मत से अस्थि पाँच प्रकार की | ली हुलहुल । होती है कपाल, रुचक, तरुण, वलय और नलकास्थि । जानु, नितम्ब, अंश, गण्ड, तालु, शङ्ख, ककुष्ठ, कष्ठक-संज्ञा पुं॰ [सं०क्की०] एक प्रकार की पहाड़ी मिट्टी जो भावप्रकाश के अनुसार हिमाएवं मस्तक का अस्थिखंड 'कपाल' कहलाता है। लय के शिखर पर उत्पन्न होती है। किसी किसी दन्त के अस्थिखंड का नाम 'रुचक' है। नासिका के मत से (२० सा० सं०) यह हिमालय के कर्ण, ग्रीवा तथा चतुकोष की अस्थि को 'तरुण' पाद शिखर में उत्पन्न होनेवाला हरताल जैसा कहते हैं । हस्त, पाद, पार्श्व, पृष्ठ, उदर और वक्षः एक पत्थर है। किसी ने लिखा है कि यह तत्काल स्थल की अस्थि 'वलय' है। शेष अन्य सकल के उत्पन्न हुने हाथी के बच्चे की ताजी लीद है जो अस्थिसमूह नलकसंज्ञक अस्थि कहलाती है। श्याम और पीली प्रभावाली और रेचन होती है । यथा यथा"कपाल रुचक तरुण वलय नलक संज्ञानि । 'केचिद्वदन्ति कंकुष्ठं सद्यो जातस्य दन्तिनः । तेषां जानु नितम्बांश गण्ड तालुशङ्ख शिरःसु वर्चश्च श्यावपीताभ रेचनं परिकथ्यते ॥ कति कपालानि । देशकास्तुरुचकानि ।घ्राण कर्णग्रीवा चित्तेजिवाहानां नाल कंकुष्ठसंज्ञितम् । वन्ति क्षिकोषेषु तरुणानि । पाणिपाद पार्श्व पृष्ठो | श्वेतपीताभ तदतीव विरेचनम् ॥” दरोरःसु वलयानि । शेषाणि नलकसंज्ञानि ।” __ खज़ाइनुल् अदविया नामक यूनानी चिकित्सा (सुश्रुत) विषयक बृहन्निघण्टु-ग्रंथ में लिखा है कि यह एक महर्षि सुश्रुत के लेखानुसार वेदज्ञ अस्थिकी | भारतीय वृक्ष है जिसमें इक्षुवत् ग्रन्थियाँ होती हैं। संख्या ३०६ मानते हैं। किंतु शल्यतन्त्र के मत में इसका फूल स्वर्णाभ और पीतवर्ण का होता है । ३०२ ही अस्थियाँ होती हैं । चरक ने अस्थियों इसकी शाखाओं और पत्तियों से दूध निकलता है की संख्या ३६० लिखी है। पूर्वकालीन यूनानी जो स्वाद में तिक्क होता है। पत्तियाँ अर्धा गुली के शारीरतत्वविदों यथा जालीनूस तथा शेखुर्रईस के बराबर होती हैं। इसके मुहीताज़म नामक मत से इनकी संख्या २४८ है। पर अर्वाचीन शारीरज्ञों अर्थात् युरोपीय चिकित्सकों के मत से पारस्य निघण्टुगत वर्णन के अनुसार जो तजकि रतुहिंद नामक ग्रन्थ की प्रतिलिपि मात्र है, नरकङ्काल में सब मिलाकर २२३ (२४६) यह अनुमानतः कुठ (कुस्त) का अन्यतम भेद अस्थियां पाई जाती हैं। सारांश यह कि कङ्काल प्रतीत होता है। उसके संकलयिता के कथनानुसार गत अस्थियों के संबंध में विभिन्न प्राचार्यों में इसकी कतिपय संस्कृत संज्ञाओं से ऐसा प्रतीत काफी मतभेद पाया जाता है। होता है कि यह मेढ़ासींगी है। (ख० अ०.५ खं० कङ्कालय-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] शरीर । देह । पृष्ठ ४६१-२)। जिस्म । तात्पर्य यह कि कंकुष्ठ के विषय में इसी १६ फा. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६० कङकुष्ठ प्रकार के नाना परस्पर विरोधी मत पाये जाते हैं। अभी तक इसका कोई सर्वमान्य निर्णय नहीं हो पाया है और इसका नाम भी संदिग्ध द्रव्यावली के अंतर्गत सन्निविष्ट है। इसके विषय में इस समय दो प्रमुख मत देखने में आते हैं। (१) मुरदाशङ्खवादी और (२) उसारहे- | रेवन्दवादी। भावप्रकाश, शालिग्राम निघण्टु इत्यादि निघण्टग्रन्थ एवं बहशः प्राचीन वैद्य प्रथम मत के अनुयायी हैं और जैपूर के सुप्रसिद्ध वैद्य स्व० स्वामी लक्ष्मीराम जी और बंबई के ख्यातनामा वैद्य जादव जी त्रिकम जी द्वितीय मत के समर्थक हैं। वि० दे० "उसारहे रेवंद"। पर्याय-कंकुष्टं, कालकुठं, विरङ्ग, रङ्गनायकं (रङ्गदायकं), रेचकं, पुलकं, ह्रासं, शोधनं (क), कालपालकं (ध०नि०, रा०नि०), कंकुष्ठं, काककुष्ठं, विरङ्गं, कोलकाकुलं ( भा०)-सं०। भेद-आयुर्वेद में कंकुष्ठ के इन दो भेदों का उल्लेख पाया जाता है-नालिक और रेणुक । इनमें नालिक रौप्यवर्ण अर्थात् सफेद और रेणुक स्वर्णवण अथोत् पीला होता है। दोनों में रेणुक ही अधिक गुणकारी समझा जाता है । राजनिघण्टुकार ने ताराभ्रक और हेमाभ्रक संज्ञा द्वारा उक्त कंकुष्ठ द्वय का उल्लेख किया है। भावप्रकाशकार ने इन्हें रक्तकाल और दण्डक नाम से स्मरण किया है और लिखा है "पीतप्रभं गुरु स्निग्धं श्रेष्ठं कंकुष्ठमादिमम् । श्यामपीतं लघु त्यक्तसत्वं नेष्टं तथाऽण्डकम्" ।। ( भा० पू० वर्ग प्र. ६) रसेंद्रचूड़ामणि तथा रसरत्नसमुच्चय में इसके संबन्ध में यह लिखा है-"हिमालय की तलहठी के ऊपर के भाग में कंकुष्ठ पैदा होता है। इसकी दो जातियाँ होती हैं। एक नलिका कार और दूसरा रेणुकाकार । नलिका कंकुष्ठ पीला, भारी और स्निग्ध होता है, यह उत्तम है। रेणुका कंकुष्ठ वज़न में हलका, सत्वरहित और कालापन लिए होता है। यह निकृष्ट जाति का होता है।" पूर्वोक्त वर्णनानुसार कुछ लोग, तुरत के जन्मे हुए हाथी के बच्चे के मल को जो काले और पीले । रंग का होता है, कंकुष्ठ कहते हैं। कुछ लोग घोड़े के बच्चे की नाल को कहते हैं जोकि हलके पीले रंग की पोर अत्यन्त रेचक होती है। परन्तु ये दोनों ही बातें मिथ्या हैं। आयुर्वेदप्रकाश में भी यही मत दिया गया है। मूल-सुश्रुत में कंकुष्ठ शब्द केवल एक स्थान पर मिलता है । वि. दे. “सल्यानासो"। गुणधर्म तथा प्रयोगककुष्ठं तिक्तकटुकं वीर्येचोष्णं प्रकीतितम् । गुल्मोदावर्त शूलघ्नं रसरशं व्रणापहम् ।। (ध०नि० चन्दनादि ३ व.) कंकुष्ठ तिक, चरपरा और उष्णवीर्य है तथा गुल्म, उदावर्त एवं शूलनाशक, रसरञ्जक (रस, जन्तु) और वणनाराक है। कटुकं कफवातघ्नं रेचकं व्रणशूलहृत् । (रा. नि० १३ व०) कंकुष्ठ चरपरा (मतांतर से कटु एवं उपण ), कफनाशक, वातनाशक, रेचक और व्रण तथा शूल नाशक है। कंकुष्ठं रेचनं तिक्तं कटूष्णवर्णकारकम् । कृमिशोथोदराध्मान गुल्मानाह कफापहम् ।। (भा० प्र० पू० वर्ग ६) कंकुष्ठ रेचक, तिक, कटु-चरपरा, उष्णवीर्य और वर्णकारक है तथा शोथ, कृमि, उदरश्राध्मान गुल्म, अनाह और कफ के रोगों का नाश करता है। कंकुष्ठं पित्तकृद्धेदि विबंधकफ गुल्मनुत्। भजेदनं विरेकार्थे ग्राहिभिर्यवमात्रया ।। नाशयेदामपूतिं च विरेच्यंक्षणमात्रतः । सुभक्षितं च ताम्बूलं विरेकं तं विनाशयेत् ।। __ कंकुष्ठ-पित्तकारक और भेदक है तथा यह विबंध, कफ और गुल्म का नाश करता है । इसे एक जौ की मात्रा में मलावरोध पीड़ित को देने से क्षणमात्र में दस्त होने लगते हैं और दुर्गंध आम दूर होजाती है । ( ताम्बूल भक्षण) पान खाने से वे दस्त बन्द होजाते हैं। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६१ कोल रसरत्नसमुच्चय के मतानुसार कंकुष्ठ रस में तीखा, कड़वा, उष्णवीर्य, तीव्ररेचक और व्रण, उदावर्त, शूल, गुल्न, प्लोहा वृद्धि और अर्श का नाश करनेवाला है । एक जौ के बराबर सेवन करने से यह मलावरोध को दूर करता है । इसका विरेचन देने से ग्रामवर का शोघ्र नाश होता है। यदि इसके अधिक उपयोग से उपद्रव हो, तो बबूल को जड़ के क्वाथ में जीरा और टंकण क्षार (सुहागा ) देने से उपद्रव को शांति होती है। अन्य मत यह समस्त त्वग् रोगों, जैसे कुष्ठादि को लाभकारी है और चित्र एवं दद को मिटाता है तथा भूत बाधाओं-अमराज़ शैतानी को दूर करता है। (ख० अ०) कङ्कष-संज्ञा पु० [सं० पु.] अाभ्यन्तर देह । शरीर का आभ्यन्तर प्रदेश । देह का भीतरी भाग । कङ्कर-संज्ञा पुं॰ [ देश० ] एक पौधा । ककेरु-संज्ञा पु[सं० पुं०](१)एक प्रकार का कौश्रा । (२) बगला । वक पक्षी । त्रिका० । कङ्केल-संज्ञा पु० [सं० पु.] अशोक का पेड़ । ___हला।रा. नि. व. १०। त्रिका । कङ्केलि-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] अशोक का पेड़। ककेल-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] बथुश्रा। वास्तूक शाक । श० मा० । कङ्केल्लि-संज्ञा० पु० [सं० पु.] अशोक का पेड़ । हे. च । नोट-अमर ने इस शब्द को स्त्रीलिङ्ग माना है। कङ्कोल, कङ्कोलक-संज्ञा पु० [सं० क्ली: ] (१) एक प्रकार की कबाबचीनी की बेल जिसके फल कबाबचीनी से बड़े और कड़े होते हैं। इसके वृक्ष में एक प्रकार का रालवत् गोंद निकलता है। कोलकी । कोलतिका। (२) एक प्रकार का गोल दाना जो प्राकृति में कालीमिर्च के सदृश, पर उससे अपेक्षाकृत बृहत्ता एवं श्यामता में उससे न्यूनतर होता है ।इसो हेतु इसे 'कंकाल मिर्च' वा 'मिर्च कंकाल' भी कहते हैं । शोतलचोनो ओर इसमें यह अंतर होता | है कि इसका बक्कल शीतलचीनी के बक्कल को अपेक्षा स्थूलतर होता है । कबाबचीनी का छिलका इसकी अपेक्षा पतला होता है । फल भी इसका शोतलचोनो से बड़ा और कड़ा होता है। अस्तु, यह दोनों एक पदार्थ नहीं, जैसा कि बहुशः लेखकों ने लिखा है; प्रत्युत यह एक ही वर्ग के दो पृथक् पौधे के फल हैं। ककोल को टीका में प्रायः सभी ग्रन्थों में इसका शीतलचीनी अर्थ किया गया प्रतीत होता है । अस्तु, भावप्रकाश में भी कंकाल को शीतलचीनी का पर्याय स्वीकार किया गया है। इसो प्रकार वनौषधिदर्पण और अनुभूत चिकि सासागर प्रभृति ग्रन्थों में जो उन दोनों को समानार्थी माना है, वह भ्रमात्मक है। डिमक ने जो यह लिखा है, कि 'राजनिघंटु' में जिसे लिखे अाज लगभग ६०० वर्ष हो रहे हैं, कंकाल नाम से कबाबचीनी का उल्लेख मिलता है, वह भी भ्रम पूर्ण ही है। इनके भ्रमपूर्ण होने का कारण मैंने ऊपर बतला दिया है। अभल, समतुल् अरअर और तुह्मसरोकोही किसी किसीके मत से यही है और दूसरों के मत से हाऊबेर है। कतिपय यूनानी ग्रन्थों में प्रमादवश यह लिखा है कि यह पीपल के बराबर वा पीपलवत् एक दाना है । वस्तुतः यह पीपलवत् लंबा नहीं,वरन् कालीमिर्चवत् गोलाकार एक प्रकारका दाना है। कंकाल के फलों में महक होती है। ये दवाके काम में आते हैं और तैल के मसालों में पड़ते हैं। वि० दे० "कबाबचीनी"। . पर्याय-ककोलः, कङ्कोलकं, कृतफलं, कोलकं, कटुकं, फलं, चूर्ण, कंदफलं, द्वीपं मारीचं, माधवोचितं (ध. नि०), विद्वष्यं, स्थूलमरिचं, कंकोलं, माधवोचितं, कट फलं, मारीचं, रुद्रसंमितम् (रा. नि०) ककोलं, कोलकं, कोशफलं (भा०),कक्कोलः (राज.) कोश (प) फलं. कोलकं, फलं, (अ) कोरकं, ( मे०) काकोलं, गन्धव्याकुलं, तैलसाधनं (श०) कटुककोलं ( मदनपाल )कटुकफल,द्वयं स्थूलमरिचं, कक्कोलं, काल, मरिच, कोल, मारिच, मागधोषित, द्वोपसंभव,सुगन्धिफल-सं०। कंकाल कंकाल दाना, कंकालफल, कंकाल मरिच, कंकाल मिर्च, मिर्च कंकाल-हिं । काँकला-बं । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोल १८९५ कहोलकी पिप्पली वर्ग एवं कफनाशक है, तथा मुख की जड़ता, वात रोग, (N. 0. Piperaceae) हृद्रोग, कृमि, अन्धता, मुख की दुर्गन्धता और उत्पत्तिस्थान-भारतवर्ष में हिमालय पर्वत श्रादि । मंदाग्नि को नाश करता है। बड़े कंकाल के गुण तथा सुमात्रा जावा प्रभृति टापू । इसीके समान जानना चाहिये। गुण-धर्म तथा प्रयोग यूनानी मतानुसारआयुर्वेदीय मतानुसार प्रकृति-उष्ण और रूक्ष ।रंग-भूरा । स्वादकङ्कोलं कटुतितोष्णं वक्त्रवरस्यनाशनम् । कटुतिक । हानिकर्ता-उष्ण प्रकृति को और मुखजाड्यहरं रुच्यं वातश्लेष्महरं परम् ॥ शरीर को कृश करता है । दपंधन-पीली हड़ वा (ध०नि०चन्दनादि-३१०) शीतल पदार्थ । प्रतिनिधि-पीपल तथा काली कंकाल चरपरा, कडवा, उष्णवीर्य तथा मख मिर्च। मात्रा–२-३ रत्ती से १ मा० तक। की विरसता दूर करनेवाला है एवं यह मुख की गुण, कर्म, प्रयोग-यह उष्ण एवं क्षुधाजड़ता को नष्ट करनेवाला, रुचिकारक और अत्यंत जनक है तथा हृद्रोगनाशक और वातकफ के वातकफनाशक है। विकार दूर करता है। ता० श. | ना. मु.। कङ्कोलं कटुतिक्तोष्णं वक्त्रजाड यहरंपरम् । मख़्ज़न मुफरिदात में इसे ग्राही-काबिज भी दीपनं पाचनं रुच्यं कफवातनिकृन्ननम् ॥ लिखा है। (रा०नि० १२ व०) यह सूजन को उतारनेवाला, आध्मानहर, कंकाल कटु, तिक्त, उषण, मुख की जड़ता को पाचक, प्रामाशय बलप्रद और कफरोग नाशंक है। नष्ट करनेवाला, अग्निवर्द्धक पाचक, रुचिजनक यह प्रायः सरदी के रोगों को लाभकारी, अतिसारएवं कफवात विनाशक है। हर तथा ग्राही भी है और शीतल प्रकृतिवालों के कङ्कोलं लघु तीक्ष्णोष्णं तिक्तं हृद्य रुचिप्रदं । लिये वाजीकरण है। -बु. मु.। आस्य दौर्गन्ध्य हृद्रोग कफवातामयाऽऽन्ध्यहृत्।। यह भूख बढ़ाता, श्राहार पाचन करता और (भावप्रकाश पू० १ भ०) आमाशय को बलप्रदान करता है तथा कफ एवं कंकोल लघु, तीक्ष्ण, उष्ण, तिक्क, (चरपरा) वात व्याधियों को दूर करता, उत्क्रेश वा मिचली हृद्य, रुचिप्रद, मुखदौर्गन्ध्यहर, हृद्रोगनाशक, का निवारण करता और मूत्र एवं प्रात्तव का कफवातहर एवं अन्धतादि-चक्षुदोषनाशक है। प्रवर्तन करता है। यह कफज एवं मित्र ज्वरों को "कक्कोल: कटुको हृद्यः सुगंधि: कफवातजित् ।” लाभ पहुंचाता है । हिन्दी को किताब में लिखा (राज० अनुलेप) है कि कंकोल शनिप्रद है। इसका चूर्ण फाँकने से कंकाल कटुक-चरपरा, हृद्य, सुगंधित और उदराध्मान नष्ट होता है । इसके चूसने से खाँसो कफ एवं वात को जीतनेवाला है। का जोर मिटता है। गरम मसाले का यह उत्कृष्ट कैकोलं कटुकं तिक्तमुष्णं दीपनपाचकम् । उपादान है। मिश्री के साथ इसको चूर्ण की फंकी देने से मूत्रावरोध दर होता है। खा रुच्यं सुगन्धि हृद्य च लघु च कफनाशकम्।। कोलकी, कङ्कोलतिक्ता-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] मुखजाड यं वातरोगं हृद्रोगं च कृमींस्तथा । कङ्कोल का पौधा । पश्चिम देश में इसे कड़वी अन्धत्वं मुखदौर्गन्ध्यमामं चैवाग्निमांद्यकम्।। कङ्कोली कहते हैं। वैद्यकनिघंटु में इसे तिक,ग्राही, नाशये दति च प्रोक्तमृषिभिः सूक्ष्मदर्शिभिः । उष्ण, रुचिकारक, मलविवंधकारक, पित्तकारक एतेगुणास्तु सुवृहत्कंकोलस्य समीरिताः ॥ और अग्निदीपक तथा कफ, प्रमेह, कोढ़ और कंकाल-चरपरा, कड़वा,गरम, दीपन, पाचन, । जंतुओं का नाश करनेवाला लिखा है। वि० दे० रुचिकारी, सुगंधि, हृदय को हितकारी, हलका, | "कङ्कोल"। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोलका १८६३ कङ्कोल पर्यका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ब्राह्मी । कङ्गुल-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] हाथ | हस्त | श०च० कङ्ग -संज्ञा पु ं० [सं० स्त्री० ] कँगनी | कङ्ग ुधान्य । श्र० टी० । नि० शि० । . कङ्ग, कङ्गक-संज्ञा पु ं० [सं० पु ं०] क्रोम । हे० च० | कङ्गु-संज्ञा पु ं० [सं० पु०, स्त्री० ] एक प्रकार का कदन | कँगनी । ककुनी । प० मु० रा० नि० व० १६ | वा० टी. हे धान्य व० । राज० । वै० निघ० । भा० । वि० दे० ' कँगनी" | कङ्गुक - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] प्रियंगु । ककुनी । काँक । कँगनी । कङ्गुका संज्ञा स्त्री' [ सं० [स्त्री० ] ( १ ) कँगनी | कं । (२) प्रियंगु । फूलप्रियंगु । रत्ना० । कणिका की संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) बड़ी माल कँगनी । महाज्योतिष्मती । रा०नि० ० ३ । ( २ ) कँगनी । ककुनी । कंगु । रा० नि० व० १६ । कङ्गुणीपत्र -संज्ञा पु ं० [सं० पु ं० ] एक प्रकार की प्रसिद्ध घास । पण्यन्धा नामक तृण विशेष | रा० नि० व० ८ । कङ्गुणीपला-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] पण्यन्ध नामक " पण्यन्ध" | तृण । रा० नि० ० ८ । दे० काँक । कगुनी । मालकांगनी । कधान्य- संज्ञा पु ं० [सं० की ० ] कँगनी | कनिका - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ज्योतिष्मतीं । नि० शि० । कङ्गुनी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) प्रियंगु । फूलप्रियंगु । ( २ ) कँगनी । कंगुणी धान्य । रा० नि० ० १६ । ( ३ ) मालकँगनी । ज्योतिष्मती । ( ४ ) बड़ी मालकांगनी । तेजोवती । श्रग्निदीप्ता । नि० शि० । संस्कृतपर्याय—– ज्योतिष्मती, कटभी, वह्निरुचि, चिणक, ज्योतिका, पारावतपदी, पण्यालता, पीततण्डुला, सुकुमारी और कुकुन्दनी । गुण, प्रयोग — कंगुनी धातुशोषक, पित्तश्लेष्म नाशक, रूत, वायुवर्द्धक, पुष्टिकारक, गुरु और भग्नसन्धानकारी होती है । राजवल्लभः । कङ्गुनीका -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कँगनी । ककुनी । कंगुनी धान्य । चक्र० । कङ्गुनी पत्रा - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] पण्यन्धतृण । पण्यन्ध नामकी एक घास । कचनार कङ्गर-संज्ञा पु ं० [सं० पु ं० ] हस्त | हाथ । कच- संज्ञा पुं० [सं० पु० ] ( १ ) बालक । सुगंधबाला । भा० म० १ भ० तन्द्रिक ज्वर-चि० । 'मरिच कच पचम्पचाव चारुक् ।” रा० नि० व० १८ । ( २ ) केश | बाल । श्रम० । ( ३ ) सूखा फोड़ा वा ज़ख्म | पपड़ी | शुष्कवण | मे०चद्विक । ( ४ ) वत्स | बछड़ा | जटा ० । ( ५ ) मेघ । बादल । ( ६ ) बंध | पट्टी | [ तु क्रच ] मेढ़ा । कचकड़-संज्ञा पु ं० [हिं० कच्छ का + सं० कांड = ] ( १ ) कछु का खोपड़ा । ( २ ) कछुए वाह्वेल की हड्डी । दे० " कछुआ " । नोट-चीनी और जापानी लोग कचकड़ के खिलौने बनाते हैं । कचकड़ा - संज्ञा पु ं० दे० " कचकड़" । कचकूसाँकी -[ ? ] तरोई । कच केला - संज्ञा पुं० [हिं० कठकेला ] एक तरह का केला जिसके फल बड़े-बड़े और खाने में रूखे वा फीके होते हैं । इसी कारण इसे कचकेला कहते हैं कचकोल-संज्ञा पु ं० [देश० ] कशकोल । कपाल । खोपड़ा | कचक्रू-संज्ञा पु ं० [सं० [?]समुद्र का कछुआ | Turtle (Chelonia) कचग्रह, कचङ्गल -संज्ञा पुं० [सं० पु० ] समुद्र । त्रिका० 1 कचङ्गलिन्दोर - [ मल० ] ढेंडरा । डिंडिश । कचट - संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] ( १ ) कञ्चट नाम का शाक । भा० पू० १ भ० तृण । घास । (२) पत्ता | पत्र | उष्णा० । कचड़ा-संज्ञा पु ं० दे० " कचरा" | कचदग्धिका - संज्ञा स्त्री० [सं० [स्त्री० ] अलाबु । लौश्रा । लौकी | कचद्रावी - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] श्रमलवेत । अम्लवेतस । प० मु० । कचनार - संज्ञा पुं० [सं० काञ्चनारः ] मध्यमाकार का एक प्रकार का छोटा पेड़ जो १५-२० फुट Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कचनार १८६४ कचनार ऊँचा होता है । इसका तना ठिंगना और खड़ा होता है । इसका घेरा ४-५ फुट होता है। इसकी | डालियाँ पतलो २ ओर झुकी हुई होती हैं । छाल धूसर वर्ण को एक इंच मोटी किंचित् खुरदरी होती है। इसका अन्तस्तल श्वेत होता है। कूटने पर यह लाल रङ्ग की होती है। इसलिए इसकी छाल का चूर्ण लाल रंग का होता है। स्वाद में यह कुछ कुछ कसैला होता है। कचनार कई तरह का होता है और भारतवर्ष में प्रायः हर जगह मिलता है। इसकी पत्तियाँ गोल और सिरे पर दो फाँकों में कटी होती हैं, देखने में ये ऐसी प्रतीत होती हैं, मानो दो पत्तियाँ पत्रवृत को अोर से जुड़कर सिरे की ओर पृथक् हो गई हो । कदाचित इसी कारण आयुर्वेदीय निघण्टु ग्रन्थों में इसे 'युग्म-पत्र' संज्ञा द्वारा अभिहित किया गया है। पत्तों पर बारीक-बारीक नसें उठी होती हैं । पत्ते ३ से ५ इंच तक लम्बे चौड़े होते हैं। यद्यपि इनका अधस्तल स्वच्छ होता है, पर ऊर्ध्व तल सूक्ष्म रोमावृत होजाता है। यह पतझड़वाला वृक्ष है । माघ में या उसके कुछ समय बाद इसकी पत्तियाँ झड़ जाती हैं । फागुन से जेठ तक नये पत्र श्राजाते हैं। यह पेड़ अपनी कली के लिए प्रसिद्ध है। कलो हरी और लम्बी होती है और इसकी तरकारी होती और अचार पड़ता है। यह बसन्त-ऋतु में खिलती है। फूलों में भीनी सुगंध रहती है । प्रत्येक फूल में पाँच-पाँच पंखड़ी होती हैं, जिनके नीचे का भाग क्षीण और सिरे की ओर का चौड़ा होता है। ये पाँचों विषमाकृति की होती हैं । इसमें पुकेशर को संख्या पाँच होती हैं। उनके मध्य में एक स्त्री-केशर होती है। पर इसके विपरीत निगन्ध-पुष्प श्वेतकांचन में केसरों की संख्या १० होजाती है। पीतकाञ्चन में भी इतने ही केसर होते हैं। फूल के रंग के विचार से कचनार की संख्या इस प्रकार है-(१) बैंगनी या गम्भीर गुलाबी रंग का जिसे लाल फूल का कचनार कहते हैं। (२) सफेद फूलवाला-निर्गन्ध और सुगन्ध पुष्प भेद से पुनः | इसके दो भेद हो जाते हैं। इससे भिन्न एक . प्रकार का सफेद कचनार और होता है। जिसे | 'प्रापटा' वा 'अश्मन्तक' कहते हैं । (३) पीला कचनार जिसे पीत काञ्चन कहते हैं। कचनार fasto ( Bauhinia tomentosa.) इसका अन्यतम भेद है । इनके अतिरिक्त हरे वा सफेद, पीला और हरा आदि मिलित रंग के फूल वाला कचनार भी देखा गया है । आगे इनमें से , प्रत्येक का पृथक् २ वर्णन होगा । इनमें से लाल कचनार फागुन चैत में पुषित होता है। सफेद कचनार का वृक्ष लाल कचनार के सर्वथा तुल्य होता है । यह शोत ऋतु में क्वचित् शरद ऋतु में पुषित होता है। पीले कचनार का वृहत् वृत प्रायः पर्वतों पर उत्पन्न होता है। अतएव इसका एक नाम 'गिरिज' भी है। इसका पत्र उक्त काञ्चनद्वय की अपेक्षा बृहत्तर होता है । इसलिए संस्कृत में इसे "महायमलपत्र" कहा गया है। इसका पुष भी बृहत्तर होता है । इसो कारण निघण्टुकार इसे "महापुष्प" कहते हैं । फूलों के झड़जाने पर कचनार में लम्बी लम्बी चिपटी फलियाँ लगती हैं और हर एक फलो में ६ से १२ तक बीज हमा करते हैं । ये बीज फूल आने से दो महीने के बाद पक जाते हैं। फलो लंबी और तलवार को प्राकृति की होती है। इसके पेड़ से एक प्रकार का भूरे रंग का गोंद निकलता है जो पानी में तो फूल जाता है, पर घुलता बहुत कम है। इसके बीजों से एक प्रकार का तेल निकला जाता है। कचनार की जाति के बहुत पेड़ होते हैं । ऐन्सली मेटीरिया इन्डिका के द्वितीय भाग में लिखते हैं कि तेरह प्रकार के कचनार के पेड़ कलकत्ता के वनस्पत्युद्यान में लगाये गये हैं। प्रायः ये सभी भारतीय वृक्ष हैं। इनमें से एक प्रकार का कचनार कुराल वा कंदला ( Bauhinia Retusa. Ham.) कहलाता है, जिसका गोंद “सेम का गोंद" वा "सेमलागोंद" के नाम से बिकता है। डोमकके मतसे यह प्रापटा(B. Racemosa)का गोंद है। यह कतीरेकी तरह का होता है और पानी में घुलता नहीं। यह देहरादन को श्रोर से प्राता है और इन्द्रिय जुलाब तथा रज खोलने की दवा माना जाता है। एक प्रकार का कचनार बनराज वा अश्मन्तक ( B. Racemosa ) कहलाता है जिसकी छाल के रेशों की रस्सी बनती Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कचनार १८६५ है । देश (चुनार ) में इसे 'कठमहुली' कहते हैं । विशेष 'श्रापटा' में देखो । मालजन ( B. Vah lii, W. A. ) भी एक प्रकार का लताजातीय कचनार ही है जिसे लताकचनार कहना संगत प्रतीत होता है । इसकी पत्ती और फली कचनार को पत्ती और फलीवत् किन्तु उसकी अपेक्षा बहुत बड़ी होती है । यह इतनी बड़ी होती है कि हरद्वार में इससे पत्तल और खौने का काम लिया जाता है । इनके अतिरिक्त नागपूत ( B. anguina ), गुण्डागिल्ला (B. Mo ostachya, Wall.) प्रभृति भी कचनार के ही भेद हैं, जिनका यथा स्थान वर्णन होगा। यहाँ पर श्रायुवेद शास्त्रोक्त रक्त, श्वेत और पीत कांचनका क्रमशः वर्णन किया जायगा । आयुर्वेद के मन से कोविदार के भेद पुष्प के वर्ण-भेद से कोविदार वा कचनार तीन प्रकार का होता है । श्वेत पुष्प, रक्त वा ताम्र पुष्प एवं पीत पुष्प, सुगन्ध और निर्गन्ध पुष्पभेद से श्वेत कांचन पुनः दो भागों में विभक्त हो जाता है । वैद्यक में पुष्प के श्वेत, रक्त वर्ण-भेद से कोविदार का नाम-भेद स्वीकृत नहीं होता । केवल कोविदार शब्द से ही श्वेत रक्त दोनों प्रकार के कचनार का संबोधन होता है । भावप्रकाश में कांचनार और कोविदार का पृथक् २ वर्णन हुआ है। टीकाकारों ने कांचनार को रक्कांकचन और कोविदार को श्वेतकांचन लिखा है । प्रचलित भावप्रकाश का पाठ विशुद्ध है ऐसा स्वीकार कर लेने पर टीका - कर्त्ताओं की यह उक्ति श्रंशत: निर्मूल मानो जायगी । यदि श्वेत कांचन को ही कोविदार मानना भावप्रकाशकार को श्रभिप्रेत होता तो वे ' ताम्र-पुष्प" शब्द कोविदार के पर्याय रूप में कदापि न लिखते । पूर्वाचार्यों ने भी कोविदार शब्द का प्रयोग किसी विशेष वर्ण के पुष्प वाले कचनार के लिये नहीं किया है । सुप्रसिद्ध टीकाकार एवं श्राचार्य चक्रपाणि लिखते हैं “ कोविदार युगपत्रः स द्विविधो लोहित सित पुष्प भेदात् ' (सु० सू० टी० ३६ अ० ) " टीकाकारगण ने भी पुष्पके वर्ण-भेदके विचारानुसार कचनार कोविदार एवं काञ्चनार शब्द का अर्थ नहीं किया है, अपितु उन्होंने इनका काञ्चन वा कचनार के अर्थ में अभिनल्लेख किया है । निघण्टु द्वारा अर्थात् धन्वन्तरीय एवं राजनिघण्टु के "कोविदारः काञ्चनारः कुद्दालः कुण्डली कुली" पाठ में भी कोविदार और काञ्चनार दोनों का पर्याय रूप में श्रभेदोल्लेख दिखाई देता है । यही क्यों, उन निवद्वय के अवलोकन से तो यहाँ तक ज्ञात होता है कि उनमें कोविदार के अंतर्गत केवल रक्त और श्वेत इन दो ही नहीं, श्रपितु पीत भी, इन तीन प्रकार के कचनारों का एकत्र उल्लेख पाया जाता है और कोविदार एवं कांचनार, कचनार की एक सामान्य संज्ञा है, ऐसा स्वीकार किया गया प्रतीत होता है । " शोण-पुष्प" शब्द भावप्रकाश में कांचनार का पर्याय स्वरूप पठित हुआ है । शोण का अर्थ कोकनदच्छवि अर्थात् कोकनद वा रक्तोत्पल की तरह सुन्दर रक्त वर्णवाला है । किन्तु सम्यक् रक्तोत्पल वर्गीय कोविदार का सर्वथा सद्भाव देखने में श्राता है । अस्तु यदि शोण शब्द का अर्थ रक्तवर्ण किया जाय, तो ताम्रपुष्प शब्द के साथ श्रभिन्नार्थं होने के कारण, काँचनार और कोविदार का उक्तभेद लुप्त होजाता है । श्रतः यदि कोई यह अनुमान करे कि भावमिश्र ने काँचनार शब्द का प्रयोग राजनिघण्टुक्त "पीत-' पुष्प", " गिरिज", "महायमल पत्र" वा " कांचन" अर्थात् पीत कचनार के अर्थ में किया है, तो उनका उक्त अनुमान प्रसङ्गत ठहरेगा । चरक के मत से कन्दार श्वेत कांचन वा सफेद कचनार है (दशेमान के वमनोपवर्ग की टीका देखें)। स्वरचित ग्रन्थ विशेष में मान्य नगेंद्रनाथ सेन महोदय ने कबुदार को सफेद कचनार, और कोविदार को पीत कांचनार लिखा है । परन्तु कोविदार शब्द से किसी भी श्रायुर्वेदीय निघण्टुकार ने पीत कचनार का अर्थ लिया हो, ऐसा ज्ञात नहीं होता है । सारांश यह कि इस विषय में इसी प्रकार के परस्पर विरोधी एवं भ्रमात्मक नाना भाँति के भिन्न भिन्न मत प्रायः ग्रन्थों में पाए जाते हैं । उन पर वर्तमान लेख में यथा-स्थान समुचित प्रकाश डाला गया है । . यहाँ पर यह स्मरण रहेकि लाल और सफेदादि Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कचनार १८६६ कचनार सभी प्रकार के कचनार गुण-धर्म में प्रायः समान होते हैं। इसलिये इनमें से प्रत्येक परस्पर एक दूसरे की जगह व्यवहार किया जा सकता है। परन्तु इन में से लाल कचनार अन्य की अपेक्षा अधिक प्रचुरता के साथ एवं सहज सुलभ होता है। अस्तु, प्राचीन कालसे यह लाल कचनार ही औषध में व्यवहृत होता आ रहा है और आज भी इसी के उपयोग का अधिक प्रचलन है और अन्य कचनारों को तो लोग एक प्रकार से भूल ही चुके हैं। अत: कांचनार या कचनार हिन्दी शब्द से साधारणतया लाल कचनार ही अभिप्रेत होता है और सर्व प्रथम इसी का वर्णन यहाँ किया | जायगा। लाल कचनार या कांचनार संस्कृत पर्याय-कांचनार, काँचनक, गण्डारि | शोणपुष्पक (भा०), स्वल्पकेस(श)री, रकपुष्प, कोविदारः, युग्मपत्र,कुण्डल,रक्तकांचन । हिं०-कच नार, कचनाल, लाल कचनार | पं०-कोलियार, कुराल, पद्रियान, खैराल, गुरियल, गुरियार, बरियाल, कनियार, कार्दन, खंबाल, कचनाल । बं०-लाल कांचन, रककांचन, रकपुष्प, कोविदार, युग्मपत्र, कुण्डल, कांचनफुलेर गाछ । अं०माउण्टेन एबोनी (Mountain ebony)। ले०-बौहीमिया वेरीगेटा ( Bauhimia Vari gata, Rorb, Linn.)। ता०, मरा०-सेगापु-मंथरी,शेम्मनदारै ते०-देवकांचनमु। मल०-चुवन्न मंदरम् । कना०-कोचाने कचनार, केम्पुमंदर, काँचिबालदो । मरा०-कोरल, कांचनु, एतकांचन, कांचन । कों-कांचन, कंचनगच् । गु०-कोविदार, चंपाकाटी। कोल० कुरमगमेची, सिंग्या । संथाल-टिंग्या । नैपा०-टाकी । लेप०रबा । बम्ब-कोविदार | उड़ि-बोराडू । शिम्बी बर्ग (N. 0. Leguminoseae.) उत्पत्ति-स्थान-हिमालय की तराई में इसके पेड़ प्रचुरता से मिलते हैं, इसके सिवा भारतवर्ष और ब्रह्मा के जङ्गलोंमें लगभग यह हर जगह पाया जाता है । अाजकल इसके पेड़ भारतवर्ष के प्रायः हर एक अच्छे उद्यान में मिल जाते हैं। रासायनिक संगठन-इसकी छाल में एक प्रकार का कषाय सार ( Tannic acid or Tannin ), ग्ल्यूकोस और एक भूरे रङ्ग का गोंद पाया जाता है। औषधार्थ व्यवहार-यद्यपि अधिकतया इसकी छाल वा जड़ की छाल ही औषधार्थ व्यवहार में आती है; पर इसके पत्र, पुष्प बीज और गोंद भी परमोपयोगी पदार्थ हैं। प्रभाव-इसकी छाल धातु-परिवर्तक,बल्य और संकोचक है। जड़-आध्मानहर और फूल-कोष्ठ मृदुकर ( Laxative) है। . औषधि-निर्माण-इमलशन, वटिका, कल्क, गण्डूष और क्वाथ (१० में १), मात्रा-2 से १ औंस तक । मूलत्वक-मात्रा-१० मा० से ४० माशे तक। आयुर्वेदोक्त योग–कांचनगुटिका, कांचनसूप, कांचनार गुग्गुलुः, गण्डमाला-कण्डन · रस इत्यादि - इसके अतिरिक्त निम्न प्रयोगों में भी यह व्यवहृत होता है। यथा (१) गुलकन्द कचनार-कचनार पुष्प १ भाग, खाँड़ दानेदार २ भाग-दोनों को मिला कर खूब जोरदार हाथों से मलें। इसके बाद उन्हें मरतबान में डालकर दो सप्ताह तक धूप में रख छोड़ें । पुनः काम में लावें। गुण-उत्कृष्ट मलवद्धतानाशक है तथा यह रक्तशोधक एवं अशोध्न है। (२) कांचनारादि काथ-कचनारवृक्ष की छाल १ सेर, शाहतरा (पित्तपापड़ा) श्राधसेर, मुडी आध सेर, बरना के पेड़ की छाल पावसेर, कुटकी, उसबा प्राधा-आधा सेर । इन समग्र औषधियों को जौ-कुट करके एक में मिलावें। मात्रा तथा सेवन-विधि-प्रातः सायंकाल उक्त क्वाथ्य द्रव्य में से प्राध छटाँक (२॥ तो.) के लगभग लेकर अाध सेर पानी में क्वाथ करें । जब जल चौथाई भाग रह जाय, तब चूल्हे से उतारकर मल कर छानलें। फिर उसमें एक तोला मधु मिलाकर पिला दिया करें। गुण-रक्त-विकार रोग में परमोपकारी है। कंठमाला के लिये विशेषतया लाभकारी एवं परीक्षित Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कचनार है । यदि सुबह शाम प्रथम कांचनार गुग्गुल खाकर ऊपर से उक्त काढ़े को पी लिया जाय, तो उक्त रोग अतिशीघ्र नष्ट हो जाय । (३) मयूख हफ्तरोजा - निम्बवृक्षत्वक्, कांचनार वृक्ष त्वक्, इन्द्रायन की जड़, बबुरी (बनूर को फज़ी), छोटी कटाई मय फल व पत्ती, गुड़ पुराना प्रत्येक १०-१० तोले । इनको ३ सेर पानी में काथ करें । पञ्चमांश जल शेष रहने पर छानकर रखलें । ૧૭ मात्रा तथा सेवन-विधि - एक बोतल उक्त काढ़े की सात मात्रायें बनावें । इसमें से एक मात्रा श्रौषध प्रतिदिन प्रातः काल सेवन करें। इससे रेचन होने पर प्रत्येक विरेक के उपरान्त श्रर्क सौंफ वा श्रर्क मकोय कोष्ण सेवन करें। तीसरे पहर मूँ की मुलायम खिचड़ी खावें । इसी प्रकार निरन्तर सप्ताह पर्यन्त करें। यदि इससे पेचिरा हो जाय, तो श्रर्क पीना बन्द करदें । श्राराम होने पर पुनः प्रारम्भ करें। पेचिश होने की दशा में अधोलिखित योग का सेवन करें । ( ४ ) बिहीदाने का लुनाब ३ माशे, रेशा खम्मी का लुआब और मधुरिका स्वरस (शीराबादियान ) प्रत्येक ५ माशे, रुब्ब-बिही २ तोले मिलाकर ७ माशे समूचा ईसबगोल छिड़क कर पीलिया करें । गुण-कर्म- यह अखिल वात-रोग, रक्क-विकार, फिरङ्ग और श्रमवात रोगमें उपकारी है तथा वातज दोषों को शरीर से मलमार्ग द्वारा उत्सर्ग करता है। सफेद कचनार वा कोबिदार पर्याय-सं- कोविदार, कांचनार, कुद्दाल, कुण्डली, कुली, ताम्रपुष्प, चमरिक, महायमलपत्रक ( घ० नि० ), कोविदार, कांचनार, कुद्दाल, कनकारक, कान्तपुष्प, कटक, कानार, यमलच्छद. पीतपुष्प, सुवर्णार, गिरिज, कांचनारक, युग्मपत्र, महापुष्प, ( रा० नि० ), कोविदार, मटिक ( चमरिक ), कुद्दाल, युगपत्रक, कुंडली, ताम्रपुष्प, अश्मन्तक, स्वल्पकेशरी, ( भा० ) श्वेत काञ्चन ( प० मु० ) कबुदार, कबु दारक, ( प० मु० च० ) कांचनाल, बूदार, पाकारि (१०) युगपत्र (हे० ), कांचनाल, ताम्र २० [फा० कचनार पुष्प, कुद्दार, रक्तकांचन, ( ज०) चम्प ( शब्द मा० ), विदल ( शा० २०), कांडपुष्प, कांढार, यमच्छद । हिं० – सफेद कचनार । बं० - श्वेत कांचन । लेटिन में निर्गन्ध श्वेतकोविदार को बहिनिया श्रक्युमिनेटा, ( Bauhinia acuminata, Roxb.) और सुरभिकुसुम कोवि दार को बौहिनिया कंडिडा ( Bauhinia candida, Roxb.) कहते हैं । टिप्पणी- धन्वन्तरि तथा राजनिघण्टु को देखने से ऐसा प्रतिभास होता है कि उन्होंने 'कोविदार' में ही तीनों प्रकार के कचनार के पर्यायों का संग्रह कर दिया है और बिना किसी भेद के तीनों के गुण भी एक ही स्थान में कोविदार के अन्तर्गत लिख दिये हैं। गुण-धर्म की दृष्टि से ऐसा करना संगत भी जान पड़ता है; क्योंकि पुष्प भेद से इनके गुणों में परस्पर कोई विशेष अन्तर नहीं होता । हमने उक्त निघण्टुद्वय के सभी पर्याय यहाँ देकर, उनके पृथक् पृथक् भेदों के पर्याय भेदों के अन्तर्गत भी दे दिये हैं । इसके सिवा श्रायुर्वेदक एवं यूनानो मतानुसार सभी प्रकार के कचनार के गुणधर्म तथा प्रयोग श्रादि लाल कचनार के अंतर्गत देकर नव्यमतानुसार उनके भेदों के गुणधर्म यादि पृथक् दिये हैं । यहाँ यह भी एक विचारणीय बात है कि सफेद कचनार के जिन दो भेदों का ऊपर उल्ल ेख हुआ है। उनमें से गन्ध - रहित फूलवाले कचनार के फूल के केसरों की संख्या दस और वही सुरभीयुक्त फूलवाले के केसरोंको संख्या केवल पाँच होती है । यह उन कचनारद्वय का मुख्यभेदक चिह्न है, जिससे उनकी सन्देहरहित पहचान होसकती है । उक्त दो भेदोंके अतिरिक्त सफेद कचनारका एक भेद और है जिसे 'पा' कहते हैं। विशेष विवरण के लिए दे० "आपटा" । | धर्म तथा प्रयोग आयुर्वेद मतानुसार कोविदाः काय संग्राही ब्रणरोपणः । गडमाला गुड़ शशमनः कुष्ठकेशहा ॥ ( ध० नि० ) 4 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कचनार २८६८ कोविदार - कचनार कसेला, संग्राही, ब्रणरोपण है तथा यह गण्डमाला, गुदभ्रंश ( काँचनिकलना ) एवं कुष्ठ रोग को शमन करनेवाला और केशन है। कोविदारः कषायः ग्यात्सप्राही ब्रणरोपणः । दीपनः कफवातघ्नो मूत्रकृच्छ, निबर्हणः ॥ ( रा० नि० १० व० ) कोविदार - कचनार, कसेला, ग्राही, ब्रणरोपण, दीपन तथा कफ और वातनाशक है । नारी हिमो ग्राही तुवरः श्लेष्मपित्तनुत् । कृमि कुष्ठ गुदभ्रंश गण्डमाला ब्रणापहः ।। कोविदारोऽपि तद्वस्यात्तयोः पुष्पं लघुस्मृतम् । रूक्षं संग्राहि पित्तास्र प्रदर क्षय कासनुत् ॥ ( भावप्रकाश ) काञ्चनार-लाल कचनार शीतल, ग्राही, कला तथा पित्त एवं कफ नाशक है और यह कृमि, कुष्ठ, गुदभ्रंश, गण्डमाला तथा ब्रण को नाश करता है । कोविदार - सफेद कचनार भी गुणधर्म में लाल कचनार के समान होता है । इन दोनों प्रकार के कचनार के फूल हलके, रूखे, संग्राही हैं और ये रक्तपित्त, प्रदर, क्षय और खाँसी के रोग नष्ट करते हैं। श्वेतस्तु कांचनो ग्राही तुवरो मधुरः स्मृतः । रुच्यो रूक्षःश्वासकासपित्तरक्तविकारहा । क्षत प्रदरगुत्प्रोक्तो गुणाश्चान्ये तु रक्तवत् ॥ (वै० निघ० ) बुदार- सफेद कचनार, ग्राही, कसेला, मधुर, रुचिकारक और रूखा है तथा यह श्वास, खाँसी, पित्त एवं रक्त विकार को दूर करनेवाला तथा क्षत और प्रदर रोग का नाशक है। इसके अन्य गुण रक्त कचनार के समान हैं । कांचनार : ग्राही रक्तपित्ते हितश्च (पथ्यश्च ) -राज० । कचनार ग्राही और रक्त-पित्त में हितकारी है । कोविदारो दीपनः स्यात् कषायो व्रणरोपणः । संग्राही सारक: स्वादुः पर्णशाकेषु चोत्तमः ॥ कचनार मूत्रकृच्छं त्रिदोषश्च शोषं दाहं कफं तथा । वातं हरेत् पुष्ष गुणा रक्तकाञ्चन पुष्पवत् ॥ (वै० निघ० ) कोविदार - कचनार मधुर, कसेला, दीपन, संग्राही, सारक, ब्रणरोपण, और पर्णशाकों में उत्तम है तथा त्रिदोष, कफ, वात, शोथ, दाह और मूत्रकृच्छ को नष्ट करता है । पुष्प- गुणधर्म में रक्तकाञ्चनपुष्पवत् होता है । धारकः रुचिकरः रक्तपित्ते पथ्यश्च । ( राज० ) कोविदार - कचनार धारक, रुचिकारी और रक्तपित्त में पथ्य ' कचनार तैल गुण में यह बहेड़े के तेल के समान होता है । कोविदार के वैद्यकीय व्यवहारवाग्भट्ट - (१) अर्श में कोविदार मूल अर्श रोगी को मथित दधि के साथ कोविदार मूलत्वक्चूर्ण पान करना चाहिये । यथा"कोविदारस्य मूलानां मथितेन रजः पिवेत् । ” ( चि०८ श्र० ) ( २ ) मेधावर्द्धनार्थ काञ्चन-पत्र – चतुः कुवलय अर्थात् कमल की डण्डी वा मृणाल, जड़, पत्र और केसर इन चारों को तथा कचनार की पत्ती को खूब पीसकर कल्क बना सेवन करने से गाय आदि पशु भी मेधावी हो जाते हैं, फिर मनुष्य का कहना ही क्या । यथासपिश्चतुः कुवलयं सहिरण्यपत्रम् | मेध्यं गवामपि भवेत् किमु मानुषाणाम् ॥ ( उ० ३६ श्र० ) चक्रदत्त गण्डमाला में काञ्चनार-त्वक् कचनार की जड़ की छाल तथा सोंठ चावल के धोवन में पीसकर पीने से गंडमाला नष्ट होता है । यथा "पिष्टवा ज्येष्ठाम्बुना पेयाः काञ्चनार त्वचः शुभाः । विश्वभेषजसंयुक्ता गण्डमालाहराः ( गलगण्ड- चि० ) पराः ॥ " Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंचनार १८६६ भावप्रकाश – मसूरिका में कोविदार मूलत्व— कचनार की जड़ की छाल के काढ़े में सोना मक्खी को भरत का प्रक्षेप देकर पीने से अन्तर्लीन मसूरिका बाहर प्रकट हो जाती है । यथा"मसूरिकायां काञ्चनारत्वक् काञ्चनारत्वचः । क्वाथस्ताप्यचूर्णावचूर्णितः ।” (म० ख ४ भ० ) वक्तव्य चरक के वमनोपवर्ग में कोविदार का पाठ श्राया है । " कोविदारादीनां मूलानि ” ( सू० ३६ श्र० ) इस सोत वाक्य में कोविदार की जड़ वान्तिकर स्वीकार की गई है । यूनानी मतानुसार प्रकृति - द्वितीय कक्षा में शीतल एवं रूक्ष । कोई-कोई शीतलता लिये समशीतोष्ण बतलाते हैं । हानिकर्त्ता-यह गुरु, चिरपाकी, श्राध्मान जनक और रद्दीयुगजा है | दर्पन—– गुलकन्द, मांस, लवण तथा गरम मसाला । प्रतिनिधि - कतिपय क्रियाओं में सूखा बाकला । प्रधान-कर्मबलप्रद, अतिसार हर और श्रार्त्तवरुद्धक । गुण, कर्म, प्रयोग— लेखक तालोफ शरीफ़ो ने कचनार के श्रन्तर्गत इसके भावप्रकाशोक गुणों का उल्लेख किया है । वे 'इतना और लिखते है, " एक ग्रन्थ से यह ज्ञात हुआ कि कचनार संज्ञा का प्रयोग काञ्चनार बृक्ष के अर्थ में हुआ है । पर हमारे नगर में उक्त शब्द का उपयोग इसके अपरिस्फुटित पुष्पों एवं वृक्ष के श्रर्थ में भी होता है। लेखक के मत से यह ग्राही, दीपन- श्रामाशय बलप्रद, अर्श तथा श्रार्त्तव के रक्त areas और अतिसारनाशक है । वे कहते हैं कि इसकी छाल को कथित कर गण्डूष करने से पारद, हिंगुल, भल्लातकी और रसकपूर भक्षण जन्य मुख-पाक श्राराम होता है ।" कचनार शब्द के अन्तर्गत मजनुल् श्रदविया नामक वृहन्निघंटु प्रन्थ के प्रणेता माननीय मुहम्मद हुसेन महोदय लिखते हैं कि इसको छाल संग्राही, कचनार तारल्यजनक (मुलत्ति) और बल्य है । वे कहते हैं कि प्रतिसार नारान एवं श्रत्रगत कृमि निवारणार्थ इसका प्रयोग किया जाता है तथा यह शोणित एवं दोषों को विकृत होने वा सड़ने-गलने से बात है । इसलिये यह कुछ एवं कंठमाला में उपकारी है । कचनार की छाल, श्रकाकिया और अनार के फूल - इनके काढ़े का गण्डूष करने से कंठत और लालास्राव श्राराम होता है । इनकी कलियों का काढ़ा कास, रक्कार्श, रक़मूत्रता और रक्तप्रदर में उपकारी हैं । कचनार चिरपाकी, संग्राही तथा ऐसा श्राहार है। जिस के पचने पर अत्यन्त न्यून श्रंश शरीरका भाग बनता ( रहीयु विज़ा) है एवं रूत होता है । तथा यह श्रामाशय और श्राँतों को शक्ति प्रदान करता और पेट को गुंरंग कर देता है । यह अतिसार का निवारण करता, उदरज कृमियों को नष्ट करता और रविकार को दूर करता है । इसके फूलमुख द्वारा रक्तस्त्राव होने के रुद्धक हैं और वे श्रतिरज को बन्द करते, एवं अन्तःस्थ ततों एवं गुदक्षत को आराम पहुँचाते हैं। इसकी छाल का चूर्ण शुक्रमेह को लाभकारी है । मुख-पाक और मुखरोगों में इसकी छाल के काढ़े का गण्डूष करने से उपकार होता है । -म० मु० । पारस्य निघण्टु प्रन्थों में यह उल्लेख है कि यह संग्राही है और रूक्षता उत्पन्न करता है । यह श्रामाशय तथा श्राँतों को शक्ति देता, दस्त बन्द करता, पेट के कीड़े एवं केचुत्रों को निकालता और रक्तदोष का निवारण करता है। यह कंठमाला को लाभकारी है । समभाग सुमाक़ के साथ इसकी छाल का काढ़ाकर पीने से रक्तनिष्ठीवन, हैज़ के खून तथा प्रांतरितत एवं गुदाके क्षतों में उपकार होता है । कचनार की छाल को विशेषतः श्रकाकिया एवं गुलनार (अनार विशेष के फूल ) के साथ क्वथित कर गण्डूष करने से पारद, हिंगुल, भलातकी एवं रसकपूर भक्षण जनित मुखपाक तथा कंठ एवं मुखरोगों में उपकार होता है। इसकी छालका चूर्ण शुक्रप्रमेह में गुणकारी है। कास (गरम-तर), अतिसार, अर्श, प्रतिरज, रक्तप्रमेह और पित्तविकार में इसकी कलियों को पकाकर खाने से उपकार Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कचनार १६०० कचनार होता है (यह शुक्रसांद्रकर्ता भी है)। बु० मु०। ख०० कचनार से उदरज एवं गुदगत कृमि भी मर जाते हैं। यह गुदभ्रश का निवारण करता है। वैद्यों ने इसके फूलों के रंग के विचार से पृथक पृथक् गुणोल्लेख किये हैं। अस्तु, उनके मत से सड़े हुए फल एवं दूषित जल-वायु जनित ज्वर में जो शिरःशूल होता है उसके निवृत्यर्थ सफेद कचनारके पत्तों का क्वाथ पिलाना चाहिये । “पीले कचनार" की छाल का क्वाथ पिलाने से प्रांत्रज कृमि नष्ट होते हैं। इसकी सूखी फलियों के चूर्ण की फंकी देने से आँव और दस्त बन्द होते हैं। इसकी जड़ की छाल का काढ़ा पीने से यकृजात सूजन उतरती है। इसकी छाल के क्वाथ वा फांट का गण्डूप धारण करने से मुखपाक (मुँह पाना) श्राराम हो जाता है । इसका फल खाने से मूत्र उत्पन्न होता है। इसके बीज सिरका में पीसकर प्रलेप करने से क्षतज कृमि मृतप्राय होते हैं । इसकी सूखी पत्तियों के चूर्ण की फंकी देकर ऊपर से अर्क सौंफ पिलाने से आँव के दस्त रुकते हैं। इसके छोटे फूलों को श्रौटाछानकर पिलाने से भी आँव के दस्त बन्द होते हैं। "लाल कचनार" की जड़ का काथ पिलाने से अपाचन दोष (पाचन नैर्बल्य ) मिटता है । तीन माशे अजवायन का चूर्ण फंकाकर ऊपर से इसकी जड़ का काढ़ा पिलाने से उदराध्मान दूर होता है। इसके फूलों का गुलकन्द बनाकर वा सूखे फूलों . को कूट पीसकर शकर सफेद मिलाकर खाने से कोष्टमार्दव उत्पन्न हो जाता है अथवा यह समझिये कि मल ढीला हो जाता है। फोड़े को पकाने के लिये तण्डुलोदक के साथ इसकी जड़ पीसकर पुलटिस बनाकर' बाँधना चाहिये। इसी भाँति इसकी छाल और फूलों का भी पुलटिस बनाकर बाँधनेसे फोड़ा शीघ्र पक जाता है । इसकी छालका काढ़ा पिलाने से प्रांत्रज कृमि नष्ट होते हैं । इसकी सूखी फलियों के चूर्ण की फंकी देने से प्राँव के दस्त मिटते हैं। इसकी कलियाँ शीतल और संग्राही हैं। इनकी तरकारी खिलाने से अतिसार | नष्ट होता है । इसकी कलियों के काढ़े से प्रांत्रज कृमि नष्ट होते हैं । मिश्री और मक्खन में इसकी कलियों का चूर्ण मिलाकर चटानेसे रकाश नष्ट होता है । ठंडा किये हुये इसकी छाल धा फूलों के काढ़े में मधुमिलाकर पीने से बिगड़ा हुआ खून शुद्ध हो जाता है। गंडमाला निवारणार्थ इसकी छाल का काढ़ा पिलाना चाहिये। इसकी छाल के काढ़े से फोड़ा-फुन्सी धोना चाहिये। इसकी लकड़ी के कोयलों का मंजन करने से दन्तशूल मिटता है। इसकी छाल के काढ़े में शुण्ठोचूर्ण का प्रक्षेप देकर पिलाने से गंडमाला नष्ट होता है । । इसकी छाल के स्वरस में जीरे का चूर्ण वा कपूर मिलाकर पिलाने से गरमी दूर होती है। इसकी छाल के चूर्ण में सोनामक्खी को भस्म बुरककर खिलाने से शरीर के प्राभ्यन्तर प्रविष्ट मसूरिका बाहर निकल पाती है। इसके फूलों का चूर्ण शहद में मिलाकर चटाने से त्वराग रोग (सुर्खबादा) दूर होता है । तण्डुलोदक के साथ कचनाल की छाल पीसकर उसमें सौंफ के चूर्ण का प्रक्षेप देकर पिलाने से गरडमाला नष्ट होती है। इसकी छाल प्रौटाकर गण्डूष करने से मसूड़ों का दर्द दूर होता है। जामुन की छाल, बकुलत्वक् और कांचनार त्वक् इन तीनों छालों को प्रौटाकर गुदप्रक्षालन करने से रकाश पाराम होता है। ख० अ०। इसकी कली और फूल का अचार तथा तरकारी भी खाई जाती है । म० इ० । नव्यमत-- खोरी-कचनार का मूलत्वक् एवं पुष्पमुकुल रसायन (Alterative)तथा कषाय होता है। मूलत्वक् का काथ कुठ, गलगण्ड, विविधचर्मरोग एवं क्षत में सेव्य है। गण्डमाला जात गलगण्ड वृद्धि अर्थात् गण्डमाला रोग में सोंठ के चूर्ण के साथ कचनार की जड़ की छाल को चावल के धोवन में पीसकर पिये अथवा शल्लकीनिर्यास (Gum-resin of Bos wellia serrata) हरीतकी एवं बहुसुगंधि भेषज के साथ सेवन करें। कचनार की जड़, अनार के फूल और अकाकिया-इनका क्वाथ प्रस्तुत कर गलक्षत एवं लालास्राव प्रतिकारार्थ कवल धारण करें। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कचनार १६०१ इसकी कली का काढ़ा प्रचुर आर्तवस्त्राव, श्लेष्मधराकला द्वारा रक्र ुति, कास, रक्कार्श और रक्तमूत्रता रोग में सेवनीय है । ( Materia Medica of India-R. N. Khory. Part. ii. p 193. ) वैट — इसके फूल को पीसकर चीनी मिलाकर भक्षण करने से कोष्ठ परिष्कार होता है। इसकी छाल कसेली वल्य और चर्म-विकार में हितकर है। सूखी कली रक्तातिसार और अर्श में उपकारी है । डिमक के मत से इसकी पत्ती का काढ़ा मलेरिया ज्वरजन्य शिरःपीड़ा को शमन करनेवाली है । श्रजीर्ण और श्राध्मान रोग में इसकी जड़ का काढ़ा सेवन कराया जाता है । व्रणों को परिपाक क्रिया के अभिवर्द्धनार्थ इसकी छाल, फूल और जड़ को तण्डुलोदक में पीसकर व्रणों पर प्रलेप करते हैं । उ० चं० दत्त - यह गण्डमाला, चर्मरोगों और त में उपकारी है। डीमक - गण्डमाला में सोंठ के साथ इसकी छाल का प्रांतरिक प्रयोग होता है । नाकर्णी तथा नगेन्द्रनाथ सेन - इसकी जड़ का काढ़ा वसा-नाशक है। इसलिये यह स्थूल मनुष्यों के लिये अतीव गुणकारी है । बम्बई में इसकी पत्ती में तमाखू भर कर पीने की बीड़ी बनाते हैं । इसके रस के पुट देने से सुवर्ण भस्म होता है । कचनार का गोंद अर्श और प्रवाहिका के लिये अतीव गुणकारी है । कचनार की छाल और खीरे का छिलका इनका काढ़ा कर गण्डूष करने से जिह्वा का फटना दूर हो जाता है। यदि नेत्र में लालिमा हो, तो कचनार की ताजी पत्ती पीस कर टिकिया बना उस पर कुछ दिन बाँधने से लाभ होता है । कचनार की छाल जला कर कोयला कर पीसकर चूर्ण बना मंजन करे। इससे हिलते दाँत हृद हो जाते हैं और उनसे खून आना सदा के लिये बन्द होजाता है । कचनार पीला कचनार I पर्याय - सं० - गिरिज, महापुष्ध, महाथमल पत्रक, पीतपुर (ध० नि० रा० नि० ), कांचन, पीतकांचनं । ० - पीला कचनार, कनियार, कांडन, कोलि यार, कुइल्लार, कोइलारी. खैरवाल, सोना । बं०देवकांचन, कोइराल | ले० - बौहीनिया पप्युरिया ( Bauhinia Purpurea, Linn, Roxb.)) । मद० - पेयाडे, मण्डरेहू ता । ते०पेछोड़े, बोडउट चे । कना० - सरूल, सुराल, काँचीवाल | मरा० - रक्त चन्दन, झमट्टी, रक्त कांचन, देवकांचन । गोंडा० - को दबाड़ी | संथाल ०सिंग्याड़ | लेप० - काचिक | काल:-बुजू । पं०कोइराल नैपा० - रब्बयराला । शिम्बीवर्ग (N. O. Leguminosae.) उत्पत्ति स्थान - रवलिया और हिमालय पर्वत की तराई से लंका पर्यन्त । प्रयोगांश – वल्कल, मूल और पुष्प । गुण-धर्म तथा प्रयोग - आयुर्वेद मतानुसार'पीतस्तु कांचनो' ग्राही दीपनो ब्रणरोपण: । तुवरो मूत्रकृच्छ्रस्य कफवाय्वोश्च नाशनः ॥ ( वृहनिघण्टु रत्नाकर; वै० निघ० ) पीला कचनार-ग्राही, कसेला, दीपन तथा प्रणरोपण है और यह वात एवं कफ और मूत्रकृच्छ रोग को नष्ट करनेवाला है । नव्यमत इसकी छाल वा जड़ तथा फूल को तण्डुलादक में पीसकर फोड़े-फुन्सियों के परिपाकार्थ उन पर प्रलेप करते हैं । - टी० एल० मुकर्जी इसकी संग्राही छाल प्रक्षालनीय घोल है । - उ० चं०. दत्त । श्रतिसार में इसकी छाल का धारक प्रभाव होता है । बेटेन इसकी जड़ श्राध्मान-हर है, फूल मृदु-रेचन (Laxative ) है । वैट | पीतकांचन भेद पीले कचनार के उपर्युक्र भेद के सिवा इसका एक भेद और है जो मालाबार आदि स्थानों में • Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कचनार १६०२ कचंपाश होता है। इसका वृक्ष लगभग १२ फुट वा अधिक | करते हैं। वैसे तो इसकी पत्ती में न किसी प्रकार ऊंचा होता है। इसका तना लगभग ६ इञ्च व्यास की गंध प्रतीत होती है और न स्वाद (वा मन्द का होता है और इसमें बहुसंख्यक शाखायें होती कषाय); पर जब वह ताजी होती है और उसे हैं। कचनार के बहुशः अन्य भेदों की अपेक्षा कुचला वा पीसा जाता है, तब उसमें से एक ' इसकी पत्तो बहुत छोटी, हृदयाकार दो भागों में प्रकार की तीरण गन्ध आने लगती है और वह विभक और ( Tomen toge ) होती है और अप्रिय नहीं होती। रीडी (Rheede) के रात्रि में इसके उक्त खरडद्वय चकवड़ की पत्ती अनुसार मलाबार में यकृत्प्रदाह की दशा में इसके की तरह परस्पर जुड़ जाते हैं । फूल की कटोरी हरे मूलत्वक् का काढ़ा व्यवहार किया जाता है। रंग की और पंखड़ी पीताभ श्वेत घण्टी के प्राकार (Materia Indica-pt. ll p. 48) की होती है। फली सर्वथा कचनार तुल्य, पर सर्जन हिल (मानभूमि)-इसकी जड़ का उससे छोटी पतली और चिपटी होती है। काढ़ा कृभिहर ( Vermifuge) रूप से भी इसमें बहुत छोटे छोटे बीज होते हैं। व्यवहार में आता है। पो-हिं०-10-कचनार, कचनाल । ले० ( Indian Medicinal plants.) बौहिनिया टोमेंटोसा (Bauhinia Tomen- डाक्टर इमसन-मुखपाक ( Aphthae) tosa, Linn.)। अं०-डाउनी माउण्टेन एबानी में इसका स्थानीय उपयोग होता है। इसका (Downy mountain ebony.)। ता०, फल मूत्रल है। संग्राही कवल रूप से इसकी ते०-काट-अत्ति, कांचनी । ते०-अडवीमन्दारमु । छाल का फांट काम में श्राता है । विषधर जानवरों कना०-काडअनिसम्मने । को०-चामल । मरा०- (सर्प-वृश्चिकादि) के काटने से हुए क्षतों पर पीवला-कांचन, अपटू । मद०-एसमदुग । गु०- इसके बीजों को सिरका में पीसकर प्रलेप करने से असुन्द्रो । सिंगा०-पेटन । लंका-मयुल ।मल० बहुत उपकार होता है। चंशेना। टी. एन. मुकर्जी-त एवं प्रबुदों पर शिम्बी वर्ग इसकी छाल पीसकर लगाते हैं । (इं० मे० प्लां०) (N. 0. Leguminosae ) नादकर्णी-वल्य एवं वाजीकरण प्रभाव हेतु उत्पत्ति स्थान-सम्पूर्ण भारतवर्ष लंका पर्यन्त । इसके बीज सेवन किए जा सकते हैं। कंठमाला मालाबार इसका मूल उत्पत्ति-स्थान है। लंका में जनित 'क्षतों और अर्बुदों पर इसकी छाल को यह साधारणतया होता है। तण्डुलोदक में पीसकर प्रलेप करते हैं । रासायनिक संघटन-कषायिन (Tannin)। (इं० मे मे०) प्रयोगांश-समय पौधा, विशेषतः मूल, त्वक, पत्र, पुष्पमुकुल ( Buds), नोट-कचनार द्वारा सोने और चांदी की क्षुद्रपुष्प (Young Flowers ), बीज और फल। अत्युत्तम निरुत्थ श्वेतभस्में प्रस्तुत होती हैं। इसके . प्रभाव-इसका पौधा प्रवाहिकाहर और लिए 'सोना' और 'चाँदी' शब्द देखें। कृमिघ्न है । फल मूत्रल है। बीज वाजीकर और कचनारी-संज्ञा स्त्री० [ कचनार का स्त्री० वा अल्पा० बल्य है। रूप ] छोटा कचनार । औषध-निर्माण-क्वाथ, फांट तथा कल्क । | कचनाल-संज्ञा पु० [देश॰] (१) कचनार । (२) गुग में तथा प्रयोग गुरियल । अश्ता। नव्यमतानुसार कचप-संज्ञा पु० [सं० की. ] (1) तृण । घास । एन्सलो-रखामाशयिक विकारों में देशी । (२) सब्ज़ी । तरकारी । शाक-पत्र । चिकित्सक इसको सुखाई हुई छोटी छोटी कलियों कचपन-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] केश पुज। केश और अधखिले क्षुद्र फूलों (फाण्ट रूप में चाय की समूह । श्रम। ...ब्रोटी प्याली भर, दिन में दो बार ) का व्यवहार कचपाश-दे० 'कचपन"। ter Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कचबो कचबो -[ गु० ] कचक्रू | turtle (chelonia) कचमाल - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] धूम । धूयाँ । हारा० । कोई कोई 'खतमाल' भी कहते हैं । कचरा- संज्ञा पु ं० [हिं० कच्चा ] ( १ ) करीर । करील । टेंटी । ( २ ) कच्चा ख़रबूज़ा । ( ३ ) फूट का कच्चा फल । ककड़ी । कर्कटी । ( ४ ) सेमल का डोडा वा ढोंढ़ । ( ५ ) उरद वा चने की पीठी । ( ६ ) सेवार जो समुद्र में होता है । पत्थर का झाड़ । जरस । जर । ( ७ ) रूई का बिनौला वा खूद । कपास का बीया । बिनौला । 1 संज्ञा पु ं० [ बम्ब, म०, हिं० ] कसेरू । कवरा । कचरिपुफला - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] महाशमी वृक्ष । छोंकर । छिकुर । शाँई गाछ ( बं० ) । रा० नि० ० ८ । १६०३ करिया - संज्ञा स्त्री० [देश० ] कचरी । पेहँटा । कचरी -संज्ञा स्त्री० [हिं० कच्चा ] ( १ ) ककड़ी की जाति की एक बेल जो चौमासे वा ख़रीफ़ की फसल में खेतों में फैलती है। खीरे की तरह इसकी शाखाएँ पतली होती हैं । पत्ते अत्यन्त छोटे, नरम तथा कोमल होते हैं । फूल पीले रंग का होता है । इसमें ४-५ अंगुल तक के छोटे छोटे अंडाकार फल लगते हैं, इसे ही कंचरी कहते हैं । कच्ची कचरी हरे रंग की वा मिलित श्वेत हरित अर्थात् चितकबरे रंग की और अत्यंत कड़वी होती । यहाँ तक कि इसकी डाल श्रादि भी कड़वी होती है। इसके अतिरिक्त एक मीठी जाति की भी कचरी होती है। फल पकने पर पीले पड़ जाते हैं। इनमें से किसी किसी के ऊपर लम्बाई के रुख़ हरी रेखाएँ भी होती हैं और ये खटमीठे वा ईषदम्ल स्वादयुक्त हो जाते हैं । इसका बीज खीरे की तरह, पर उससे छोटा होता है। बीज का छिलका श्यामता लिए और गिरीं पीताभ श्वेत होती है। कच्चे बीज श्रत्यन्त तिक, पर पकने पर किसी भाँति श्रम्ल जाते हैं । बड़ा-छोटा, लम्बा-गोल और मीठा-कड़वा श्रादि भेदों से कचरी अनेक प्रकार की होती है । इनमें से छोटी स्वाद में कुछ-कुछ कड़वी होती है । कचरी 1 इसेही बंगला में 'बने-गुमुक' कहते हैं। इसका एक सबसे छोटा भेद है, जिसे संस्कृत में शशाडुली कहते है | राजनिघण्टुक्क 'गोपालकर्कटी' कचरी की 1 बड़ी जाति की ही संस्कृत संज्ञा है, जिसे बंगभाषा में संभवतः 'गुमुक' कहते हैं । यह चार पाँच गुल तक लम्बी और अत्यन्त कडुई होती है । पकने पर यह ईषदम्लस्वादयुक्त होती है और फटती नहीं । इसी को हमारे यहाँ रमपेहँटवा वा रामपेटा कहते हैं । अनुभूतचिकित्सा - सागर के मत से इसका सद्योजात फल सेंध और सुखाया हुआ कचरी कहलाता है। कचरी प्रायः छोटी जाति के पेहँटे से बनती है। इसके कच्चे फलों को लोग काट-काट कर सुखाते हैं और भूनकर सोंधाई वा तरकारी बनाते हैं। जयपुर की कचरी खट्टी बहुत होती है और कडुई कम । कश्वरी वा पका पेटा अत्यन्त सुरम्य एवं सुगंधियुक्त होता है। लोग प्रायः सुगंधि हेतु इसे पास रखते हैं । कहते हैं कि कचरी की एक ऐसी किस्म है जिस पर हिरन भी श्रासक हो जाता है । पर्याय कचरी छोटी -चिर्भर्ट, धेनुदुग्धं, गोरक्षकर्कटी ( ध० नि० ), चिर्भिटा, सुचित्रा, चित्रफला, क्षेत्रचिभिंटा, पाण्डुफला, पथ्या, रोचनफला, चिर्भिटिका, कर्कटी ( रा०नि० ० ७ ), चिर्भिर्ट, धेनुदुग्धं, गोरक्षकर्कटी ( भा० ), गोरक्षी, गोदुग्धं, चिभिटी, (केयदेव ), धेनुदुग्धं (द्रव्य रत्न० ), (वै० निघ० ), चिर्भटी, चिर्भिटः, गोपालप (पु) त्रिका, कर्क चिर्भिटा - ( सं० ) । पेहँटा, पेहँटुल, गुरम्ही, सेंधिया, सेंध, सेंधा, कचरी, कचरिया, कचेलिया, गुरुभीहुँ, भकुर, भुकुर, गोरख ककरी - हिं० । बन गोमुक, बन गुमुक - बं० । शम्माम, दर्दाब - अ० । दस्तम्बूयः, दस्तम्बू - प्रा० । क्युक्युमिस डुडैम Cucumis Dudaim, Linn., क्युक्युमिस मैडरासपटा. मस Cucumis Madraspatamus, ० । ककु बर मैडरास Cucumber Madras -श्रं० । बुडरंगपण्डु - ते० । चिभडां-गु० । चिबुड, चिभूड, बेल सँधाकं, अरमेके - मरा० । कचरी, कचड़ी, चिभिड़, चिबिड - पं० । (२) कचरी छोटी ( शशाडुली ) - शंशाण्डुलि, शशाडुली, बहुफला, तण्डुली, Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६०४ कचरी क्षेत्रसम्भवा, क्षुद्राम्ला, लोमशफला, धूम्रवृत्तफला ( रा. नि० व० ७ ) - सं० । (३) कचरी बड़ी वा छोटी ककड़ी, फूट की छोटी किस्म है ( गोपालकर्कटी ) - गोपालकर्कटी, वन्या, गोपकर्कटिका, क्षुद्रर्वारुः, क्षुद्रफला, गोपाली, सुद्रचिर्भटा ( रा० नि० व० ७ गोपालककटिका, सं० । गोपालककड़ी, गोयाल काँकड़ी, जंगली ककड़ी, गोरुभा - हिं० । कुन्दुरुकी, हुडा । (४) मृगेर्वारु – मृगाक्षी, श्वेतपुष्पा, मृगेवर, मृगादनी, चित्रवल्ली, बहुफला, कपिलाक्षी, मृगेक्षणा, चित्रा, चित्रफला, पथ्या, विचित्रा, मृग चिर्मिटा, मरुजा, कुम्भसी, देवी ( कट्फला, लघुचिभिटा ) - सं० । सेंध, फूट, गोरखककडी-हिं० । फुटी - बं० । नोट- दस्तम्बूया फ़ारसी शब्द के अर्थ के सम्बन्ध में यूनानी ग्रन्थकारों में परस्पर मतभेद है । बहुमत तो इसे कचरी मानने के पक्ष में है । कहते हैं कि यह फूट की छोटी किस्म है जो अत्यंत सुगन्धित होती है और वर्षाऋतु में उत्पन्न होती हैं। इससे स्पष्ट है कि यह कचरी का नाम है । अधिकांश लेखकों ने इसे कचरी के प्रकरण में ही स्थान भी दिया है । तथापि श्रन्य लोगों ने इसके विरुद्ध यह लिखा है कि यह एक प्रकार का विजौरे की जाति का छोटा सा नीबू है, जिसमें सुगन्धि होतो है । अस्तु, उक्त महानुभावों ने इसका कचरी से पृथक् वर्णन किया है। क़ानून नामक श्राव्य वैद्यकीय ग्रन्थ के कतिपय हाशिया लेखकों ने इसे हिंदी फूट लिखा है । किसी-किसी नेमलून वा मलयून अर्थात् खरबूजा विशेष ( खुरपूजा गर्मक ) माना । उक्त दोनों ही भ्रम में हैं । मज्नुल जवाहिर नामक श्रारव्य श्रभिधान ग्रन्थ के प्रणेता मान्य जीलानी ने दस्तम्बूया में लिखा है कि यह एक छोटी क़िस्म का सुगन्धित खरबूजा वा वह योग है जिसे सूंघने के लिए हाथ में रखते हैं। साथ ही वे फ़ारसी का यह शेर भी उद्धृत करते हैं— "यार दस्तम्बू बदस्तमदाद व दस्तम बू गिरफ़्त । वह चे दस्तम्बू कि दस्तम बूये दस्ते श्री गिरफ़्त ॥ " निष्कर्ष यह कि यह कचरी और बिजौरे वा तुरअ कचरी की जाति का एक प्रकार का छोटा सा और सुगन्धित नीबू, इन दोनों ग्रंथों में प्रयुक्त होता है । दे० " दस्तम्बूया" | वृत्या पुष वर्ग (N. O. Convolvulaceae.) उत्पत्ति-स्थान- सम्पूर्ण भारतवर्ष विशेषतः पञ्जाब, संयुक्रप्रांत और जयपुर प्रभृति । गुणधर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसारचिभिट चिभितं मधुरं रूक्षं गुरु पित्तकफापहम् । कचरी - मीठो, रूखी, पित्त नाशक है । ( ध० नि० १ ० ) भारी और कफ तथा बाल्ये तिक्ता चिभिटा किंचिदम्ला गौल्योपेता दीपनी साच पाके । शुरुका रूक्षा श्लेष्म वातारुचिघ्नी जाड्यघ्नी सा रोचनी दीपनीच ॥ ( रा० नि० ७ व० ) कच्ची कचरी - कडुई किंचिद् अम्ल, गौल्यऔर पाक में दीपन हैं। सूखी कचरी - रूखी, कफनाशक, वातनाशक, श्ररुचिनिवारक, जड़ता नाशक, रुचिकारी और दीपन है । चिभिटं मधुरं रूक्षं गुरु पित्त कफापहम् । अनुष्णं प्राहि विष्टम्भि पक्कन्तूष्णश्च पित्तलम् ॥ ( भा० पू० १ भ० श्राम्रव० ) कचरिया - मीठी, रूखी, भारी, पित्त एवं कफ को नष्ट करती है और गरम नहीं है तथा ग्राही और विष्ट भी है । पकी कचरी ( सैंध कचरिया ) 1 गरम और पित्तकारक है । पुष्प चिर्भिचैव (स्यैव दोषत्रयकरं स्मृतम् । पर्क जी कफकृत् पक्कं किञ्चिद्विशिष्यते ॥ ( श्रत्रि० १६ श्र० । हा० सं० ) कचरिया का फूल - त्रिदोषकारक है । कच्चा श्रजीर्ण और कफ करता है और पका उससे किंचिद् विशेष होता है । भेदिनी कृमिकण्डुघ्नी ज्वरहा 'गणनामके' | (नि० शि० Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कचरी १०५ यह भेदक, कृमिनाशक, कण्डू ( खुजली ) और ज्वरनाशक है। रूक्षा गुरुः शीतला च ग्राही विष्टंभकारिणी । वातप्रकोपना चैव कफ पित्त विनाशिनी । अभिष्यन्दी तथा 'केये' पक्कमुष्णं तु पित्तलं ।। (नि० शि० ) यह रूखी, भारी, शीतल, ग्राही, विष्टंभकारक, कफपित्तनाशक, वात को प्रकुपित करनेवाली और श्रभिष्यन्दी हैं । पकी कचरी-गरम और वित्तकारक है। 1 चिर्भटः शीतलो ग्राही गुरुश्च मधुरः स्मृतः । मल स्तम्भकरः पित्तमूत्रकृच्छ श्मरीहरः ॥ दाहं प्रमेहं वातं च शाषं चैव विनाशयेत् । तत्कोमल फल वातकोपनं कफपित्तनुत् ॥ तत्पक्कं पित्तलं चोष्णं मुनिभिः परिकीतितम् । कचरिया - शीतल, ग्राही, भारी, मधुर मलस्तम्भकारक तथा पित्त मूत्रकृच्छ, पथरी, दाह, प्रमेह, वात और शोष का नाश करती है। कच्ची वा कोमल कचरी - वात को कुपित करनेवाली और कफपित्त नाशक है । पकी कचरिया- पित्तकारक और गरम 1 समस्त चिर्भटं घातक फकृत्स्वादु शीतलम् । सर्व प्रकार की कचरिया - वातकफकारक, स्वादिष्ट और शीतल है। गोपाल कर्कटी गोपालककेटी शीता मधुरा पित्तनाशनी । मूत्रकृच्छ श्मरीमेह दाहशोष निवर्तनी ॥ ( रा०नि० ३ ० ) गोपाल ककड़ी - शीतल, मधुर, पित्तनाशक तथा मूत्रकृच्छ, अश्मरी, प्रमेह, दाह और शोष नाश करनेवाली है । शशाडुली (कचरीभेद वा तिक्त कर्कटी ) शशाडुली तिक्त कटुश्च कोमला कट्वम्ल युक्ता जरठा कफावहा । पाकेतु साम्ला मधुरा विदाहकृत्कफ ( टु )श्च (फाच ) शुष्का रुचि कृच दीपनी ॥ ( रा०नि० मूलकादि ७ व ० ) कड़वी ककड़ी - कडुई, चरपरी नरम, कडुआ - हट और खट्टापन लिये, चिरपाकी-जरठा और कफ को नष्ट करनेवाली है। पाक में यह अम्ल वा ११ फा० कचरी लिये मधुर-खटमीठी, विदाहकारिणी, शुष्क, रुचिकारी और दीपन है । मृगाक्षी मृगाक्षी कटुवा तिक्ता पाकेम्ला वातनाशिनी । पित्तकृत्पीनसहरा दीपनी रुचिकृत्परा || ( रा० नि० ) सेंध - चरपरी, कड़वी, पचने में खट्टी, वातनाशक, पित्तनाशक, पीनस रोग को दूर करनेवाली, दीपन और चिकारा है । तिक्कं सुतीव्रं मधुरं च साम्लं वातापहं पित्त विनाशनञ्च । श्लेष्माकरं रोचन पाचनं च कोठी वटं चाग्निकरं नराणाम् ॥ सेंध - कड़वी, तीव्र, मधुर, खट्टी, वातविनाशक पित्तनाशक, कफकारक, रोचन, पाचक और मनुष्यों की अग्नि को दीपन करती है । चिभिः वा कचरी के वैद्यकीय व्यवहारचरक - अतिसार में इसका शाक उपयोगी है । यथा- “शट्याःकर्कारुकाणां वा जीवन्त्याश्चिर्भटस्यच" ( चि० १६ श्र० ) योग - तरङ्गिणी - कचरी की जड़ को बासीजल में पीसकर तीन रात तक बराबर पीने से हठात् पथरी निःसरित हो जाती है । यथा "गोपाल कर्कटी मूलं पिष्ट' पर्युषितांभसा पीयमानं त्रिरात्रेण पातयेच्चाश्मरीं हठात् ।।" इति राजमार्तण्डात् । यूनानी मतानुसार गुण-दोष - प्रकृति - द्वितीय कक्षा में उष्ण एवं रूक्ष । हानिकर्त्ता - शिरःशूल उत्पन्न करती है और उष्णप्रकृतिवालों को हानिप्रद है । दर्पन - धनियाँ और दही श्रादि । प्रतिनिधि — श्रीर ( मतांतर से एरण्डखरबूजा और कच्चा अंजीर ) । मात्रा - ४॥ माशे तक । गुण, कर्म, प्रयोग - कचरी मधुर, उष्ण, लघु, कोठे को मुलायम करनेवाली- मुलय्यिन, क्षुद्बोधकारक और पित्तकारक है । यह तिक एवं ती होती है और लेखक के निकट उष्णा है । इसे काट-काटकर दो-दो टुकड़े कर सुखा लेते हैं । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कचरी १६६ कचरी इसके बाद उसे तेल में भूनकर नमक डालकर कोष्ठावयवों-बह शा को शकि प्रदान करता है। खाते हैं। पकते समय इसे गोश्त में डालने से यह अर्श, अर्धाङ्ग, पक्षाघात और अर्दित आदि यह मांस को बहुत शीघ्र गला देती है । आमाशय वायुरोग तथा कफ के रोगों को आराम करता है। को शनि देनेवाले दीपन-पाचन चूर्गों में इसे यह वाद्य रतूबतों को लाभकारी है। समूचे फल प्रायः मिलाते हैं । यह पाचन-शक्ति को अत्यन्त के समग्र गुणधर्म एक समान हैं। यहाँतक कि तीव्र एवं प्रशस्त कर देती है। पुनः वे उसी कचरी के बीज की पृथक् गणना नहीं होती। पुस्तक के फूटके प्रकरण में लिखते हैं कि यह दस्त- ख. श्रः। म्या का हिंदी नाम है और यह गुणधर्म में कचरी कोष्ठावयवों को शक्ति प्रदान करती है कच्चे खरबूजे के समीपतर है। लेखक के मत से और नाड़ियों-पुट्ठों में जो काठिन्य प्राजाता है, क्योंकि इसमें सुगन्धि होती है। अस्तु; यह उसे दूर करती है । यह अर्धाङ्ग और अर्दित रोग मस्तिष्क तथा हृदय को शक्किप्रद है । यह प्राशु- को और प्रायः कफजन्य व्याधियों तथा अर्श को मलावष्टंभकर होती है और दुर्गन्धित ज्वर( हुम्मा लाभ पहुँचाती है । यह वातनाशक है और वाह्य अफिनः ) पैदा करती है । इसे बारीक कतरकर रतूबतों का अभिशोषण करती है । यह मलबद्धताफाल्दे की तरह शर्बत गुलाब वा चीनी के साथ कारिणी और बाजिकारिणी भी है । म. मु०। खाते हैं। यह दिल और दिमाग़ की शक्ति बु० मु०। बढ़ाती है । ता० श०। इसका धूपन अर्श में उपकारी है । यह श्राहार इसकी महक मस्तिष्क को शनिप्रद तथा अव. पाचनकर्ता तथा वातजन्य उदरशूलहर है । (पकते रोधोद्घाटनी है । पकी वा कच्ची कचरी मूत्रल है। हए ) गोश्त में डालने से यह उसे शीघ्र गला इसके कुछ दिन सेवन करने से पथरी टूट-फूटकर देती है । बु० मु०। निकल जाती है और यह गोश्त को गलाने- पच्छिम में सोंठ और पानी में मिलाकर इसकी वाली है। ना० मु०। चटनी बनाते हैं। कचरी-वाजिकर और मलावरोधकारिणी है लोग प्रायः इसे सुगंध के लिए हाथ में रखते और अपनी ऊष्मा एवं तारल्य व मृदुत के कारण हैं और बहुत कम चखते हैं । हिं० वि · को० । दोषों को संचालित कर स्थानान्तरित करती वा (२) कचरी वा कच्चे पेहटे के सुखाये हुये उनके उत्सर्ग की जगह खींच लाती है अर्थात् ज़ाजिब टुकड़े। (३) सूखी कचरी की तरकारी । (४) है। इसका छिलका दीर्घपाकी है। यह भोजन में काटकर सुखाए हुए फल फूल श्रादि जो तरकारी के लिए रक्खे जाते हैं। (५) छिलकेदार दाल । रुचि उत्पन्न करती और आहार को पचाती है। यह कफ वात और काठिन्य का नाश करती है। (६)रूई का बिनौला वा खूद। इसे बीचमें से चीरकर और सुखाकर घी में भूनकर | संज्ञा स्त्री॰ [ ? ] कपूर कचरी । नमक छिड़ककर खाते हैं । यह खानेमें अत्यन्त रुचि- कचलू-संज्ञा पु० [ देश० ] एक पहाड़ी पेड़ जो जमुना कारी होती है । कचरी ताजी भी खाई जाती है। यह के पूर्व में हिमालय पर्वत पर ५००० से १००० गोश्त गलाने के लिए उसमें डाली जाती है। इससे फुट की ऊँचाई तक पाया जाता है। इसका वृक्ष उसमें सुगन्धि पाजाती है और वह पाचनकर्ता प्रियदर्शन होता है । इसकी पत्तियाँ शिशिर में मड़ हो जाता है। दाल प्रभृति में प्रायः पाचनार्थ जाती हैं और बसंत के पहले निकल पाती हैं। और वायु को नष्ट करने के लिए इसे डालते हैं इसकी कई जातियाँ होती हैं। भारतवर्ष में इसके इसकी धूनी अर्श के लिए असीम गुणकारी होती | चौदह भेद पाये जाते हैं। इनके पत्र में भेद है। वायुजन्य उदरशूल में इसका चूर्ण उष्ण जल | होता है। के साथ परीक्षित है। इसका बीज भी वायुनाशक | कचलोन-संज्ञा पु० [हिं० कच-काँच+लोन लवण ] है। यह भूख बढ़ाता है तथा बाजिकारक है एवं एक प्रकार का लवण जो काँच की भट्टियों में जमे Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कचलोरा १६०७ ये चार से बनता है । यह पानी में जल्दी नहीं घुलता और पाचक होता है। कचियानोन। काँच लवण | नमक शीशा (फ्रा० ) । गुण - यह प्रकृति में उष्ण है और सुधाजनक, रविकारवर्द्धक एवं पित्तप्रकोपक है । ता० श० । 'कचलोरा-संज्ञा पुं० [देश॰] एक शिबीवर्गीय पौधा जो गंगा नदी से पूरब की ओर हिमालय से बाहर और दक्षिण भारत के जंगलों में होता है। (Pithecolobium Bigaminum, Benth.) दर्नापन्थी - ( बर० ) । उपयोग—इसके पत्तों का काढ़ा कुष्ठ रोग की दवा है औौर उत्तेजक रूप से बाल बढ़ाने के लिये इसका उपयोग करते हैं । ऐटकिन्सन । इं० मे प्रा० । बरमा में इसके बीज मधुमेह रोग को मिटाने के लिए काम में श्राते हैं । कचलोहा - संज्ञा पु ं० [हिं० कच्चा + लोहा ] कच्चा लोहा । कचलोही संज्ञा स्त्री. दे० " कचलोहा " । कचलोहू-संज्ञा पु ं० [हिं० कच्चा + लोहू ] वह पनछा वा पानी जो खुले घाव से थोड़ा-थोड़ा बहता है । रक्त रस । कवस्सल - संज्ञा पु ं० [ पं० ] वन पलाशडु । जंगली प्याज | काँदा । कचहस्त - संज्ञा पु [सं० पु० ] केश समूह । अम० | बालों की लट । कचा- संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( 1 ) हथिनी । हस्तिनी | मे० चह्नि । ( २ ) संधिच्युति | जोड़ का छूटना। ( ३ ) एक प्रकार की घास । ( ४ ) । कचीली कचामोद - संज्ञा पुं० [सं०ली० ] (१) वाला | सुगंधवाला | नेवाला । ह्रीवेर । रा०नि०व०१० । (२) बालों में लगाने की एक सुगंधित चीज़ । कचायँव-संज्ञा स्त्री० [हिं० कच्चा + गंध ] कच्चेपन की महक | कचाई की गंध । कचाकु संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( १ ) विलेराय । (२) सर्प | मे० कत्रिक वि० [सं० त्रि० ] कुटिल । कचाटुर-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( १ ) एक पक्षी । संस्कृत पर्याय — शितिकण्ठः, दात्यूहः, , कोकमद्र । दात्यूह | हुक पक्षी | चातक । त्रिका० । ( २ ) बनमुरगी जो पानी बा दलदल के किनारे की घासों में घूमा करती है। कचालू-संज्ञा पुं० [हिं० कच्चा+श्रालू ] ( १ ) एक प्रकार की हई | बंढा | घुइयाँ । (२) एक प्रकार की चाट | कचावट-संज्ञा पु ं० [हिं० कच्चा + श्रावट ( प्रत्य० ) ] एक प्रकार की खटाई जिसे कच्चे आम के पते को श्रमावट की तरह जमाकर बनाते । कंचिका - [ ते० ] केमुक ( बम्ब० ) । कुष्ठ (बं० ) । कचिटामर्थ काई -[ ता० ] वेलाम्बू ( ते० ) । त्रिलिंबी । चिपडे - [D] कोथ गंवल । रंगन ( बं० ) । Ixora parvi flora, Vahl.) Tor ch tree. कचिया नमक - संज्ञा पुं० [हिं० काँच+नमक ] कचलोन । काँच लवण | 1 कविया नान - संज्ञा पुं० दे० " कश्चिया नमक" । कचिया मछली -संज्ञा स्त्री० [ कचिया + मछली ] मारमाही । बाम मछली । दे० "बाम" । कचिरी - संज्ञा स्त्री० [देश० कचुजातीय एक चुप जो बङ्गदेश श्रौर चट्टग्राम में उत्पन्न होता है और प्रायः पुष्करिणी के किनारे दिखाई पड़ता है। पत्र प्रकाशित रहता है। पत्र तलदेश के प्रायः मध्यभाग में वृन्त से मिल जाते हैं। पत्रांश चारों कोशिष्ट होता है। कचुके फूल की तरह यह भी विजातीय है। फूल का डंठल ऊपरी भाग पर क्रमशः मोटा पड़ता जाता है। फूल का बहिराचरण डंठल की तरह समान रहता है। इसमें दो-तीन बीज उत्पन्न होते हैं। ६ि० वि० को० । कची - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक बीज । कुचापिबीज । रस० र बाल-चि० । [ तु० ] बकरी । कचीमूला -संज्ञा स्त्री० [हिं० कच्चा + सं० मूलक ] मूली । कोमल मूली । बालमूलक । कचीर - संज्ञा पुं० [?] कचूर | कचीली - [ क० ] जंभीरी नीबू । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६०८ कचु - संज्ञा पुं० [सं० स्त्री० ] ( १ ) इस नाम का एक पौधा जिसकी जड़ में कंद होता है । कचु गाछ -( बं० ) । ( २ ) कच्ची । श्ररुई । घुइयाँ । (३) मानकंद | मान कचु (बं० ) । कास- श्रालू ( मरा० ) | माणक (सं० ) | ( ४ ) कचूर । ( ५ ) हल्दी | 9 कचुगुन्दवी - [ बं० हिं० ] ( Hamalomena aromatica.) कचुबंग - [ मल • ] धतूर । कंचुरा - संज्ञा पु० [?] कंचूर | कचुरी-संज्ञा स्त्री० [देश० ] साँप का केचुल । कंचुकी । कचुरीकिज ङ्ङ - [ मल० ] कचूर | कर्चू रे । कचुरो -[ गु० ] कचूर | कल कलंग - [ म० ] कचूर । कचुविलायती - संज्ञा स्त्री० [ द० ] चंद्रमल्लिका | कचुसाक-संज्ञा पुं० [ कचु+साक ] कचु । कच्ची । Arum Colocasia. कचू-संज्ञा पु ं० [हिं०, बं० ] एक प्रकार की घुइयाँ । Colocasia Antiquorum, Schott. कचूकतार-संज्ञा पु ं० [सं० ] कंबी | कचूधारा - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] श्रम्बाड़े का पत्ता । कचूमन - [ शीराज़ी ] काकनज | कचूमर - संज्ञा पु ं० [देश० ] जंगली गूज़र । दे० "कठूमर"। कर-संज्ञा पु ं० [सं० कचूरः ] हल्दी की जाति का एक पौधा जो ऊपर से देखने में बिलकुल हल्दी की तरह का होता है, पर हल्दी की जड़ में और इसकी जड़ वा गाँठ में भेद होता है । कचूर की जड़ वा गाँठ सफ़ेद होती है और उसमें कपूर की सी कड़ी म होती है । इसको ज़मीन से खोदकर जल में पकाकर सुखा लेते हैं। यह सोंठ के बराबर छोटी गाँठ होती है, जो सुगंधित और तिक्र एवं तीक्ष्ण श्रास्वादयुक्र होती है। इसमें जो मधुर श्रास्वादयुक्त और अल्पगंधि होता है, वह असली कचूर नहीं है। कचूर का पौधा सारे भारतवर्ष में लगाया जाता है और पूर्वीय हिमालय की तराई में श्रापसे श्राप होता है । नरकचूर ( Curcuma Coe. sia, Roxb.) इसका एक बड़ा भेद है, जिसे कचूर संस्कृत में "शटी" वा "पृथुपलाशिका' कहते हैं । वि० दे० "नरकचूर” | पर्य्या–कचूरं, कचूर; गन्धमूलः, द्राविदः, कार्श्य, वेधमुख्यः, दुर्लभः, सढी, ( ध० निः ), कचूरः, द्राविड़ः, कार्शः, दुर्लभः, गन्धमूलकः, वेधमुख्यः, गन्धसारः, जटिलः ( रा० नि० ) कचूरः, वेधमुख्यः, ( वेध्यमुख्यं ) द्राविदः, कल्पकः, शठी, ( भा० ), कचेारः, स्थूलकन्दः, सटी, गन्धः (द्रव्य ० ), शटी ( मद० ), काल्पकः, वेधमुख्यकः ( श्र० का० ), दुर्लभः ( गण०), कचुरः, कचुरेकः, जटाल, काश्यं सं० । कचूर[हिं० द० | कोवूर, शोड़ी, शटी, सूठ-बं। ज़रंबाद, उरूकुल काफ़र, इकुल काफ़र अ० । कज़.. र ज़. रंबाद,ज़ ुरंबाद, जरंबाद - फ्रा० । कयुमा ज़ेडोgfer Curcuma zedoari, Rosce., क' मा जेरम्बेट Curcuma zerumbet, Roxb.( Root of - Long zedoary) - ले० । लाँग ज़ेडोएरी ( Long ) Zedoary - श्रं । ज़ेडोरो Zedoaire-फ्रां० । किच्चि - लिक्किज़ङ्ग, पूलाङ्किज़ङ्ग ु - ता० । किञ्चिलि-गडुलु, कचोरम्, श्रौकानोकचेट्टा - ते० । कञ्च्चोलम् कच्चरि किज़ङ, पुला-किज़ङ, अडवी कछोल-मल० । कचोरा-कना० | कचोर - मरा०, कों० । काचूर, कचूरी - गु० | कचूर - बम्ब० । धानुर्वे - बर० | हिं०हुई - सिं० । कचोर, काचरी, कुव्- मरा० । आर्द्र वा हरिद्रा वर्ग (N. O. Scituminece ) रासायनिक संगठन - एक प्रकार का अस्थिर तैल, एक विक्र मृडुराल, कयुमीन प्रभृति, राल, शर्करा, निर्यास और सैन्द्रियकाम्ल, श्वेतसार, तंतु (Curde fibre ), भस्म, आर्द्रता, अल्ब्युमिनाइड्स और अरबीन इत्यादि । इससे प्राप्त तैल पीताभ श्वेत ऐवं चिपचिपा Viscid और (turil तथा कर्पूरवत् गंधास्वादमय होता है । इसकी जड़ में जदवारीन Zdoarin ) नामक सत्व प्राप्त होता है। औषधार्थ व्यवहार — मूलकन्द तथा पत्र | इसकी जड़ लंका से बम्बई आती है । भारतवर्ष में इन श्योषधि का प्रधानतः सौंदर्यवद्ध न लेपादि Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६०६ कचूर (Cosmetic) में व्यवहार होता है। राक्सबर्ग के कथनानुसार बंगाल में यह चिटागाँग से पाता है। प्रभाव-उत्तेजक, प्राध्मानकारक, श्लेष्मानिस्सारक, स्निग्धतासंपादक, मूत्रल और प्रारुण्यकारक ( Rubifacient)। गुणधर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसारकर्च रः कटुतितोष्णो रुच्यो वातबलासजित् । दीपन: मीहगुल्मार्शः शमन: कुष्ठकासहा ।। (ध०नि०) कचूर-चरपरा, का श्रा, उष्ण, रुचिकारी, दीपन तथा वात एवं करुना शक है और यह प्लीहा गुल्म एवं अर्श रोग को शमन करनेवाला और कोढ़ तथा खाँसो को दूर करनेवाला है ( पाठांतर से यह केशघ्न केशहा है) कचूर: कतिक्तोष्ण: कफकासविनाशनः । मुखवैशद्यजननो गलगण्डादि दोषनुत् ॥ (रा०नि०) कचूर-चरपरा, कड़वा, उष्ण वीर्य, मुख को स्वच्छ करनेवाला तथा कफ, खसी और गलगण्डादि रोगों को नाश करता है। कर्च रो दीपनो रुच्य: कटु कस्तित एव च। सुगंधिः कटुपाक: स्यात्कुष्ठाशों व्रणकासनुत् ॥ उष्णो लघुईच्छ्वासं गुल्मवात कफ कृमीन् । गलगंडं गंडमालामपची मुखजाड्यहत् ॥ (भा, पू०१ भ०) कचूर-अग्निदीपक, रुचिकारी, चरपरा, कडुश्रा सुगधित, लवु, कटुयाको और गरम है तथा यह कोढ़, बवासोर, व्रण, खसो, श्वास, गुल्म, वात, कफ, कृमि, गलगंड, गंडमाला, अपची और मुख को जड़ता इन रोगों को नष्ट करता है। शठी तिक्ता च कटुका चोष्ण तीक्ष्णाग्नि दीपनी । सुगन्धि रुचिरा लध्वी मुखस्वच्छफरी मता ॥ कोपनी रक्तपित्तस्य गलगण्डादि रोगहा। कुष्ठाझेब्रकासनी श्वासगुल्म कफापहा ॥ त्रिदोष कृिमिवातानां ज्वर मोहादि नाशकृत्। (नि० र०) कचूर-कड़वा, चरपरा, गरम, तीरण, अग्नि. प्रदीपक, सुगधि. रुचिकारक, हलका, मुख को स्वच्छ करनेवाला, रतरित्त को कुपित करनेवाला तथा गलगंड,मंडलादि कोढ़,बवासीर व्रण,कास श्वास, गोला, कफ, त्रिदोष, कृमि, वातज्वर और प्लीहा इत्यादि रोगों का नाश करनेवाला है। कचूरो भरुदामना दीपना रक्तपित्त कृत् । अजीर्ण जरण श्वा सेष्वपस्मारोप पूजितः ॥ कचूर-वात तथा प्रामनाशक,दीपन, रक्तपित्तकारक और अजीर्ण रोग को दूर करनेवाला है। मृगी रोग में और श्वास रोग में भी इसका प्रयोग करते हैं। ___ इनके अतिरिक द्रव्यनिघण्टु में इसे त्रिदोष नाशक, मुखरोगनाशक और ज्वरनाशक लिखा है। मदनपालनिघंटु में इसे कुठरोगान, व्रण. नाशक, वात एवं गुल्मनाराक और गणनिघण्टु में कफनाशक और कृमिनाशक लिखा है। यूनानी मतानुसार प्रकृति-द्वितीय कक्षा (वा कज्ञांत) में उष्ण तथा रूज। हानिकर्ता-मस्तिष्क, हृदय और फुफ्फुस को तथा शिरःशूल उत्पन्न करता है। दपध्न-धनियां । मतांतर से बननसा, सफेद. चंदन और जटामांसी। प्रतिनिधि-अंजीर और आदी । मतांतर से शतावर, दरूनज अकरबी और तुरंज के बीज । मात्रा-३-३॥ मा० से ४॥ मा० तक । मतांतर से ७ माशा (मु० ना०)। इसमें शक्ति तीन बर्ष तक स्थिर रहती है। प्रधानधर्म-वाजीकरण, शोथ-बिलीनकर्ता, उल्लासजनक, हृद्य और मेध्य (मुनो दिमारा ) है । गुण, कर्म, प्रयोग-यह उल्लासप्रद (मुकरिह), हृद्य, मस्तिष्क एवं श्रामा राय को बलवानकर्ता, अवरोधोद्घाटक, बाजाकारक, स्थौल्य. जनक वा वृहण, छर्दिन, अतिसारनाशक, मूत्रल, श्रात्तं वप्रवत्तंक, सौदा का रेचक, शिशु जात प्रवाहिका को लाभप्रद तथा खकान (हृत्स्फुरण) जरायुगत वायु एवं दंतशूल, को लाभकारी और शिश्नोत्थापनकर्ता (मुनइज) है। मु. ना । ___ वैद्य कहते हैं कि यह हलका है और मूत्रविकार को दूर करता है तथा हाथ को हथेली Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१० कचूर और पाँव के तलवों की जलन दूर करता, मुखवैरस्य का निवारण करता, कफ तथा खाँसी को लाभ पहुँचाता, कंठमाले को नष्ट करता, सुधा उत्पन्न करता, कोद, बबासीर और फोड़े-फुन्सी को श्राराम पहुँचता तथा श्वासकृच्छता, वायु के विकार और वायुगोला-गुल्मरोग को नष्ट करता है । यह दरीय कृमियों का नारा करता है। यूनानी हकीमों वर्णनानुसार यह रोधोद्घाटन करता और उल्लास है । यह हृदय, मस्तिष्क श्रीर आमाशय को बल प्रदान करता एवं मूत्रल और श्रार्त्तव प्रवत्तंक है। यह सौदात्री माहे को दूर करता, तथा शिशुजात प्रवाहिका एवं पाण्डु ( यक़ीन ) को लाभ पहुँचाता है और भूख बढ़ाता है। इसे मुखरडल पर प्रलेप करने से मुँहासे नष्ट होते हैं । ख० श्र० । मख़न मुरिदात में यह अधिक लिखा है कि यह खाना खूब खिलाता है और दस्तावर है । यह हृद्य है और अवरोधों को दूर करता और हृदय, मस्तिष्क एवं श्रमाशय को बलप्रदान करता है । यह हैवानी तथा तबई रूह को साम्य है तथा कामोद्दीपन करता, शरीर को स्थूल वा वृहित करेता एवं विषैले जानवरों के विष का तिर्याक - श्रगद है । यह छहिर, मूत्रप्रवर्त्तक तथा श्रप्रवर्तक है और सौदा का रेचन करता एवं कफज कास, सौदावी अर्थात् वायु के दोन खान, जरायुगत वायु, शिशुजात प्रवाहिका और बाह ( बाजीकरण ) के लिए लाभकारी है । मुख में रखने से यह दंतशूल नियता, चावने से सर्द एवं तर खाँसी और लहसुन तथा प्याज की दुगंधि का अपहरण करता है । शीतल शोर्थो पर इसके प्रलेप करने से सूजन उतर जाती है । और शूल नष्ट होजाता है। इसका एक बड़ा टुकड़ा कटि में बाँधना बाह को शक्रिप्रद कामानिवर्द्धक है। इसका धूड़ा ( श्रवचूर्णन) शोथविलीन कर्त्ता एवं वेदनाहर है। बु मुः। नव्यमत डीमक - मुखगत पिच्छिलास्वाद के अपरयार्थ देशी लोग इसे मुख में रखकर चात्रते हैं। यह पुष्ट के कतिपय उन पाक आदि में भी पड़ता है। जिन्हें स्त्री गण प्रसवोत्तर - कालोन निर्बलता के कचूर निवारणार्थ सेवन करती हैं। सर्दी में इसके काढ़े में दालचीनी और पीपल का चूर्ण और शहद मिलाकर सेवन करते हैं। शरीर पर इसकी पिसी हुई जड़ का लेप करते हैं। रीडी (Rheede) एतजात श्वेतसार की बहुत प्रशंसा करते हैं और कहते हैं कि इसकी ताजी जड़ शीतल और - मूत्रत ख्याल को जाती है और यह श्वेत प्रदर एवं श्रौपसर्गिक मेहजात प्रत्राव को अवरुद्ध करता और रक को शुद्ध करता है । इसकी पत्तियों का स्वरस जलोदर रोग में दिया जाता है | - फार्माकोग्राफिया इंडिका ३ भ० । कर्नल बी० डी० - इसकी जड़ सुगंधित ( aromatic ), उत्तेजक और श्राध्मानहर है देशी चिकित्सा में श्रामाशय बलप्रद - जठरग्निवर्द्धक (Stomachic ) रूप से इसका व्यवहार होता है। चोट एवं मोच ( bruises & sprains ) आदि पर भी इसका प्रयोग होता है । ई० मे० प्लां ) नादकर्णी - इसकी जड़ प्रिय एवं कर्पूर-गंधि होती है । यह श्रजीर्ण तथा आध्मान में उपयोगी है और रेचनौषधों के मरोड़ आदि दोषों के निवारगार्थ इसका उपयोग होता है । मुखगत पिच्छि लता को दूर करने के लिये भारतीय प्रधानतः गायकगण कंठ-शुद्धयर्थ वा श्रावाज़ खोलने के लिये साधारणतया इसका उपयोग करते हैं । कंठ जोन और वायु नलिका के ऊर्व भाग के प्रदाह में भी इसका उपयोग कहते हैं। सर्दी और बुखार में इसके काढ़े में दालचीनी, मुलेठी और पिप्पलीइनके चूर्ण का मात्रानुसार प्रक्षेप देकर घोर मधु वानी मिलाकर इसलिये देते हैं कि उक्त रोग जन्य कास ( Bronchitis और कफ ( Cougb ) प्रशमित हो जाय। इसकी पिसी हुई जड़ का शरीर पर प्रलेप करते हैं और इसमें फिटकरी मिलाकर चोट ( bruises ) पर लगाते हैं । स्निग्धता संपादक ( Demulcent ), श्लेष्वा निस्सारक ( Expectorant ) और सुरक्षित गुणों के लिए इसकी एक ड्राम की मात्रा है। शुद्ध एवं विकृत रक्त के कारण जो चिरकाला , Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कचरक १६११.. कबानील नुबंधी स्वग रोग उत्पन्न हो जाता है, उसके प्रति- हिमालय के जगलों में होता है। ( Mimosa काराथं प्यहार किये जानेवाले सौंदर्यबर्द्धनीय | lucida, Roxb.) (Cosmeties) वा अंगरागलेपन औष- कचोरम्-[ से० ] कचूर । धादि का यह एक सुगंधिजनक उपादान है। कचोरम्-[ते. ] कवूर । इसकी ताज़ी जड़ के उपयोग से सूज़ाक और श्वेत- कचोरा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] एक प्रकार का शालि प्रदरजात प्रत्राव रुक जाते हैं । शिशुओं के कृमि धान्य । यह पित्तनाशक है ।प्रत्रि० सं० १५०। रोग में इसको जड़ का स्वरस दिया जाता है। संज्ञा पुं॰ [सं० कचूर ] कचुर। इसे प्रायः अन्य औषधियों के साथ व्यवहार करते | कचोगलु-[ते. ]कवूर।। हैं। यह औषधीय तैलों में पड़ता है। जलोदर में | कचोलम्-[ मल० ] कचूर ।। इसकी पत्ती का स्वरस दिया जाता है । इसकी कचौड़ी-संज्ञा स्त्री दे० "कचौरी"। सूखी हुई जड़ के चूर्ण में पतंग की लकड़ी | कचौर-म०] ) (Wood of the Cesalpinia Sapp- | an) का चूर्ण मिलाने से एक प्रकार का लाल कचौरमु-ते. कचूर । कचूर । कचौरा-[ कना०] ) रंग का चूर्ण प्राप्त होता है, जिसे 'अबीर' कहते कचौरा संज्ञा पुं० [हिं० कचौरी] एक प्रकार की हैं। होली के त्यौहार में इसे पानी में घोलकर पूरी। शरीर पर छिड़कते है। ई० मे० मे० पृ. २७६ संज्ञा पु[ म०, को, हिं० ] कचोर । २८० । ई० ई० डू० एरड प्लांट्स-नगेन्द्रनाथ (Mimosa lucida, Roxb.) सेनकृत, पृ० ५३१ । कचोरी-संज्ञा स्त्री० [हिं० कचरा ] पिष्टक विशेष एक संज्ञा पु० [बं०, म.] कचूर । कचूर । प्रकार को पूरी जिसके भीतर उरद आदि की पीठी संज्ञा पुं० [पं०] कपूर कचरी। भरी जाती है। यह कई प्रकार की होती । जैसेकचूरक-संज्ञा पुं० [सं० क्री० ] कचु नाम का एक सादी, खस्ता श्रादि । संस्कृत में इसे 'पूरिका' कहते कार का कंदशाक । कच्चूर । घुइयाँ । वै० निघ० हैं। दाल-पूड़ी। कचौड़ी। २ भ० अर्श-चि० पिपीलिका तैल । कच्चट-संज्ञा पु • [सं० क्री० ] जलपिप्पली। जलाकचूर कच-संज्ञा पुं॰ [देश॰] कपूरकचरी । शेदूरी (हिमा०)। पीपर । काँचड़ा-(बं.)। कचूर कचु-संज्ञा पुं० [पं०] कपूरकचरी। | कच्चर-संज्ञा पु० [सं० की. 1 तक। छाछ । मट्ठा । मे. रत्रिक। कचूरी-संज्ञा स्त्री० [हिं० कबूर ] कपूर हिंदी। कचूल कलङ्ग-[ मल०, ता. चन्द्रमूल (हि.)। वि० [सं० त्रि० ] मलिन । मैला कुचैला । चन्द्रमूल । चंद्रमूलिका (सं.)। कपूर कचरी गर्द से भरा हुआ । मल से दूषित । (गुज . ) ( Kem pferia galanga; | कच्चा कोढ़-संज्ञा पुं० [हिं० कच्चा+कोढ़ ] (१) Linn.) खुजली । (२) गरमी । प्रातशक । कचेरुक-संज्ञा पु० [सं. पु.] कसेरू । कशेरू । | कच्चा चूना-संज्ञा पु० [हिं० कच्चा+चूना ] चूने की र०मा०। कली जो पानी में बुझाई न गई हो। कली का कचैटा-[?] अगलागल । किंगली (हिं.)। चूना। कचैतुन-[ ? । फेकिअल । श्रासुगाछ (आसाम)। । कच्चा नील-संज्ञा पुं० [हिं० कच्चा+नील ] एक कचेरा-संज्ञा पुं॰ [ बम्ब० ] कसेरू । प्रकार का नील । नीलबरी । कचोड़ी-संज्ञा स्त्री० दे० "कचौरी"। ___ इसके प्रस्तुत करने की रीति इस प्रकार हैकचोर-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कचूर । कचूर । वै० कोठी में मथने के पीछे गोंद मिले हौज़ में नील निघ० २ भ० अर्श-चि० भल्लातक-हरीतकी। छोड़ते हैं। नील के नीचे बैठ जाने पर पानी को संज्ञा पुं॰ [हिं०, बम्ब० ] एक पौधा जो हौज़ के छेद से निकाल देते हैं। फिर नील का Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कच्चा मोतियाबिंद १९१६ कच्छ जमा हुश्रा माढ या कीचड़ कपड़े में बंध नीचे के वृत । (४) धोती का वह छोर, जिसे दोनों गढ़े में रात भर लटकाया जाता है। सवेरे उसे टाँगों के बीच से निकाल कर पीछे खोंस लेते हैं। राख पर फैला धूप में सुखाने. ( कच्चा-नोल लाँग । परिधानाञ्चल । हे० च०। (५) जलबनता है। प्रांत । जलमय देश वा स्थान । अमः । (६) कच्चा मोतियाबिंद-संज्ञा पुं० [हिं० कच्चा+मोतिया- नदी आदि के 'कनारे की भूमि । कछार । (७) बिंद ] मोतियाबिंद का वह भेद जिसमें रख की कच्छदेश का घोड़ा। (८) कछुए का एक अंग। ज्योति सवथा नष्ट नहीं हो जाती, केवल धुधला | (१) एक प्रकार का कुष्ठ । दे. “कच्छक"। दिखाई देता है । ऐसे मोतियाबिंद में नश्तर नहीं सज्ञा पुं० [सं० कच्छप ] कछुआ । लगता। वि० [सं० वि.] जलप्रान्त सम्बन्धी । जलकच्चा शोरा-संज्ञा पु० [हिं० कच्चा+शोरा ] वह शोरा मय देश का । "नदीकच्छोद्भवं कान्त मुच्छ्रितं जो उबाली हुई नोनी मिट्टी के खारे पानी में जम ध्वजसान्नभम्"। भारत, सम्भव ७० अ०। जाता है । इसीको फिर साफ़ करके कलमी शोरा कच्छक-संज्ञा पुं॰ [सं० ०] (१) तुन । तुन्द । बनाते हैं। तुनक द्रुम । तूणी। कच्ची-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री ] एक प्रकार का कंद । __ संज्ञा पुं॰ [सं. क्री० ] अट्ठारह प्रकारके कुष्ठों अरुई। में से एक, जिसे "कच्छत्वक” कुष्ठ भी कहते हैं । कची वली-संज्ञा स्त्री. (१) वह कली जिसके खिलने में देर हो। मुंह बँधी कली। (२) लक्षण-यह कफ दोष से उत्पन्न होता है अप्राप्त यौवना । और प्रायः ऊरु, कक्ष और कटि प्रदेश में होता है। यह लाल, चिकना, घना श्यामवर्ण का होता है. कची चाँदी-संज्ञा स्त्री. चोखी चाँदी। खरी चाँदी । जिसमें अत्यन्त खाज होती है। इसे देश में भंसा .. नुकरए “खाम" । दे० "चाँदी'। दाद भी कहते हैं । यथाकच्ची चीनी-संज्ञा स्त्री० वह चीनी जो गलाकर खूब साफ़ न की गई हो। "रक्तस्निग्धं घनश्यामं मतिकण्डूकफोद्भवम् । कच्ची शक्कर-संज्ञा ली. वह शक्कर जो केवल राब को ऊरुकत कटिष्वेवं कच्छत्वक् कुष्ट काह्रम्" ॥ ___ जूसी निकालकर सुखा लेने से बनती है । खाँड़। बसव रा० १३ प्र० पृ० २०६, २१० । कञ्चीर-संज्ञा पुं॰ [सं०] कुचला। कच्छकाण्डन-संज्ञा पुं० [सं० पु.] पीपलभेद । कच्चू-संज्ञा स्त्री० [सं० कंचु] (१) अरुई । अरवी । अश्वत्थ वृक्ष भेद । गया अश्वत्थ । घुइयाँ । (२) बंडा । कचु । कच्छांटका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] कच्छ । परिकच्चूर-संज्ञा पु० [सं. पु.] कचु नामक एक धानाञ्चल | कछनी। काँछ। लाँग। श० र०। प्रकार का कंद शाक । कचु गाछ-(बं०)। संस्कृत पाय-कच्छ । कक्षा । कच्छा । घुइया । बंडा। कच्छीटिका । कच्छाटिका। कच्चूरी कि.जङग-मल.1 कचूर । कच्छत्वक-संज्ञा पुं० [सं० की०] एक प्रकार का कच्चार-संज्ञा पुं॰ [सं० क्री०] शटी। कचूर । ५० कुष्ठरोग । ब. रा०। कच्छन-थरइ-ता०] जीम-हिं०. बं०। झरसीकचोरक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] गंधशटी। गंध. मरा०। पलाशी । चक्र०। कच्छप-संज्ञा पुं० [सं० पु.] [ स्त्री० कच्छपी] कचौलम्- मल.] कचूर । (१) कछुना | कूम्म। रा०नि० व. १६ । कच्छ-संज्ञा पु. [सं० पु.] (१) जलप्राय देश। अत्रि २२ अ० । विशेष दे. "कछुआ"। (२) अनूपदेश । दे० "अनूप" । (२) तुन का पेड़। तुन का पेड़ । तुन्द । नन्दी वृक्ष । रा० नि० व. तुन्द । तुम्नक द्रुम । मे० छद्विकं । (३) नन्दी १२ । (३) एक प्रकार का वारणी यंत्र, जिससे Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कच्छप यन्त्र १९१३ 1 मद्य खींचा जाता है । मदिरा यन्त्र | श० च० । एक प्रकार का तालुगत रोग, जिसमें कफ के कारण तालु में कछुए की पीठ के आकार की ऊंची श्रीर नीची पीड़ारहित तथा देर से बढ़नेवाली सूजन होजाती है । यथा-' - "कूम्मोत्सन्नोऽवेदनोऽशीघ्र जन्मा रोगोज्ञेयः कच्छपः श्लेष्मलः स्यात्” । कच्छप-यन्त्र-संज्ञा पु ं० [सं० की ० ] श्रौषध पाक यन्त्र विशेष । श्रौषध पाक करने का एक प्रकार 1 का यन्त्र | कच्छपि संज्ञा पुं० [सं० पु० ] एक प्रकार का क्षुद्र रोग | तालु रोग जो तालु में होता है । कच्छपिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) विषमुष्टि कुचला । ( २ ) महानिम्ब । महानीत्र । रा० नि० व० ४ । ( ३ ) कृष्ण निर्गुडी । काला सँभालू | वै० ० । ( ४ ) एक प्रकार का क्षुद्ररोग, जिसमें ५-६ फोड़े निकलते हैं जो कछुए की पीठ ऐसे होते हैं । मा०नि० । ( ५ ) प्रमेह के कारण उत्पन्न होनेवाली फुड़ियों का एक भेद । ये फुड़ियाँ छोटी-छोटी शरीर के कठिन भाग में कछुए की पीठ कार की होती हैं । इनमें जलन होती है । कच्छपी | मा० नि० । मुख के मत से कच्छपिका दाहयुक्त एवं कच्छपाकृति की होती और कफ तथा वायु से उत्पन्न होती है । भावप्रकाश के लेखानुसार इस रोग में प्रथमतः स्वेद क्रिया करें, फिर हलदी, कुठ, शर्करा, हड़ताल और दारूहल्दी इनको पीसकर लेप करें । पकने पर व्रण की भाँति चिकित्सा करें । | कच्छपी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] की स्त्री । मादा कछुआ । कछुई । एक प्रकार का क्षुद्र रोग । मे० "कच्छपिका " । कच्छपोलिकच्छपोलिका कच्छमाही - संत स्त्री० फ्रीन । | संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री ] जलबेंत । जलवेतस | वै० निघ० । [ सं० कच्छ + माही= ] एक प्रकार की मछली । सूँस । दुल ( १ ) कच्छप म० । ( २ ) पत्रिकं । दे० २१ फा० कच्छु कच्छरा - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] दुरालभा । के० । कच्छरहा -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) दूब । दूब । जटा ० । (२) नागरमोथा | नागरमुस्ता । "नागरोत्था कच्छुरुहा " । रा० नि० ० १३ । कच्छल कारक -संज्ञा पुं० [सं० पु० ] क.स | कारा तृण । ) ( १ दूब । भद्र मुस्ता । श्वेतदूर्वा । कच्छा - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] नागरमोथा । (२) सफेद (३) एक प्रकार का कीड़ा । झींगुर । चोरिका । चीड़ा | भिपोका ( बं० ) । ( ४ ) बाराही कंद | मे० छद्विकं । ( ५ ) परिय चंचल | कच्छ । लाँग । वस्त्र का कच्छाटिका - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कछनी । परिधानाञ्चल | कच्छ । लाँग । कच्छान्तरुहा - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] सफेद दूब | श्वेत दूर्वा । रा०नि० ० ८ । कच्छारुहा - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] पीला वा सुनहला केवड़ा | स्वर्णकेतकी । वै० निघ० । कच्छालङ्कारक - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] काँस । काश तृण । कच्छी-संज्ञा पु ं० [हिं० कच्छ ] घोड़े को एक प्रसिद्ध जाति जो कच्छ देश में होती है । इस जाति के घोड़ों की पीठ गहरी होती है । वि० [हिं० कच्छ ] ( १ ) कच्छ देश का । ( २ ) कच्छ देश में उत्पन्न । कच्छीर-संज्ञा पु ं० [सं०] कच्छु -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) शुद्र कुष्ठ के अन्तर्गत एक प्रकार का रोग वा खुजली । खजू रोग | खाज | कच्छू । लक्षण - सूक्ष्मा वह्नः पिड़का: स्राववत्य: ण मेत्युक्ताः कण्डुमत्यः सदाहाः सैवस्फीस्तीन दाहैरुपेता ज्ञेया पाण्योः कच्छुरुग्रास्फिचोश्च”॥ मा० नि० । अर्थात् — खाज, दाह और स्रावयुक्त सूक्ष्म जो बहुसंख्यक पिड़काएँ - कुन्सियाँ निकलती हैं, उसे विद्वान 'पामा' कहते हैं । पुनः दोनों हाथ और हथेली की पीठ पर होनेवाली तीव्र दाहयुक्त पामा ही 'कच्छु' कहलाती है । 1 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कच्छुक १६१४ ( २ ) केवाँच । कपिरोमफला । वानरी | रा०नि० । नि० शि० । कच्छुक - संज्ञा पु ं० [सं०] तुन का पेड़ | कच्छुकान्तन–संज्ञा पु ं० [सं० पु ं० ] ( १ ) भैंस | ही । श्रहिंसा । (२) गया अश्वत्थ | के० । कच्छुघ्ना- कच्छुघ्नी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (1) परवल । पटोल । ( २ ) हाऊबेर । हवुध्वाफल चुप । रा० नि० व० ४ । कच्छुमती - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] केवाँच । शुक शिम्बी । श० च० । कच्छुरी - संज्ञा श्री० [सं० सी० ] धातकी । धाय का फूल । कच्छू—संज्ञा स्त्री॰ [सं॰स्त्री०] कच्छुरोग | दे० " कच्छु”। संज्ञा पु ं० [सं० कच्छप ] कछुआ । कच्छूना, कच्छूघ्नी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (i) दे० “कच्छुघ्ना” । ( २ ) छोटी हाऊबेर । ध्वांत नाशिनी । नि०शि० । रा० नि० । 1 कछुआ दन्तीमूल, नीम के पत्ते, प्रत्येक १-१ कर्ष । कौर सेहुँड़ का दूध १-१ पल । गोमूत्र १ श्राढक ( ६४ पल ) और कडुवा तेल २ प्रस्थ-इनसे यथाविधि मंदाग्नि पर तैल सिद्ध करें । कच्छूमती-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] दे० "कच्छुमती" कच्छूर - वि० दे० "कच्छुर" । कच्छूरा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] दे० "कच्छुरा"। कच्छूराक्षस तैल-संज्ञा पुं० [सं० नी० ] कुष्ठ रोग मैं प्रयुक्त उक्त नाम का एक तेल । योग — कल्कार्थ- मैनसिल, हरवाल, कसीस, गन्धक, सेंधानमक, चोक ( स्वर्णक्षीरी ), पथरचटा ( शिलाभेदी ), सोंठ, कुठ, पीपल, कलिहारी, कनेर की जड़, पमाड़ के बीज, वायविडंग, चीता, गुण- गात्र पर इसकी मालिश करने से दुःसाध्य कच्छू, पामा, कंडू तथा श्रन्यान्य चर्मरोग और रक्तदोष श्रादि रोग नष्ट होते हैं। भा० प्र० कुष्ठ चि० । कच्छुर - वि० [सं० त्रि० ] ( १ ) जिसे खुजली का रोग हो । कच्छूरोगयुक्त । ( २ ) व्यभिचारी | परस्त्रीगामी । पुंश्चल । मे रत्रिकं । कच्छुरा - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) कौंच केवाँच । कपिकच्छु । रा० नि० व० ३ । (२) रक्तदुरालभा । यवास । ( ३ ) कर्पूर धानाञ्चल । शटी । ( ४ ) आँवाहल्दी । श्राग्रहरिद्रा । (२) कच्छोटिका -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कछनी । परिमहाबला । सहदेवी । ( ६ ) क्षुद्रदुरालभा । छोटा धमासा | नि० शि० । (७) दुरालभा । धमासा । नि० शि० । (८) ग्राहिणी । खिरनी । कच्छुराल - संज्ञा पुं० [सं० पु०] लिटोरा । लिसोड़ा । शेलु वृक्ष । लसोड़े का पेड़ । कच्छू (च) लोरा - [हिं०, बम्ब० ] एक पौधा | P1thecolobium bigeminum, Benth. कचड़ा ( रा ) - संज्ञा पु ं० [ देश • ] करीर । संज्ञा स्त्री० [देश० ] कपूर कचरी । कच्छेष्ट संज्ञा पुं० [सं० पु ं०] कछुआ । कच्छप । रा० नि० ० १६ । कच्छेष्टा - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] भद्रमुस्ता | नागरमोथा । कच्छोत्था - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] मोथा । मुस्ता । रा० नि० ० ६ । कच्छोर-संज्ञा पु ं० [सं० की ० ] कचूर । शटो | २० मा० । कच्वट - संज्ञा पु ं० [सं० की ० ] जलपीपर । जलपिप्पली | बुकन | do 1 कच्वर - संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] तक | छाछ | मट्ठा | मे० । कच्ची - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक प्रकार का कंद | कचु । रुई | अरवी | घुइयाँ । । कछ -संज्ञा पुं० [सं० कच्छ ] कछुआ । कछमाही - संज्ञा स्त्री० दे० " कच्छमाही " । कछराली - संज्ञा स्त्री० दे० " ककराली” । कछुआ -संज्ञा पु ं० [सं० कच्छप ] [स्त्री० कछुई ] एक जलस्थलचारी जन्तु जिसके ऊपर कड़ी २ ढाल की तरह की खोपड़ी होती है । इस खोपड़ी के नीचे वह अपना सिर और हाथ-पैर सिकोड़ लेता है । इसकी गर्दन लम्बी और दुम बहुत छोटी होती है । यह जमीन पर भी चल सकता है । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कछुआ १६१५ कछुना अनेक भाषाओं के नाम निम्न-लिखित भागों में विभक किया है, यथा-- कच्छपः, कमठः, कूर्मः, गूढाङ्गः, धरणिधरः चारसियान (Chersites) वा स्थलकच्छप, कच्छेष्ठः, पल्वलावासः, वृत्तः, कठिनष्टष्ठकः, महाम इलोदियान (Elodites ) वा बिलकच्छप, त्स्यः, कूर्मराजः,गुप्ताङ्गः, चित्रकुष्ठः, धरणीधरणक्षमः पोटेमियान ( Potamites) वा नदी कच्छप और थालसियान ( Thalassites ) वा (ध०नि०; रा० नि०), कूर्मः कमठः, (१०), क्रोड़पादः, चतुर्गतिः, दौलेयः (हे०), माबादः, समुद्र कच्छप । पञ्चगुप्तः क्रोडाङ्गः, (शब्द र०), जलविल्वः, सकल कच्छपों के 'मुड' सर्पादि सरीसृप की (च०), उद्धटः ( मे०), क्रोडाघ्रिः , पञ्चांग- भाँति एक अस्थि से निर्मित होते हैं। परन्तु इन गुप्तः (त्रि०), पंचनखः, गुह्यः, पीवरः,जलगुल्मः सभी जाति के कच्छपों की करोटि एक तरह की (ज०)–सं० । कछुवा, कचक्र-हिं० । काछिम नहीं होती। इनमें से स्थलकच्छप का मस्तक शुन्दि, काठा, बारकोल कच्छप-चं० । काँसब- अण्डाकार, अग्रभाग विषम और दोनों चघुओं का मरा० कछवो-गु० । लिस्क, कुरकुरा, कुलित, व्यवधान कुछ अधिक रहता है। इनकी नासिका पौना-मल। सुलह फ़ात-अ० । संपुश्त, का छिद्र बड़ा और पश्चात् भाग पर चपटा रहता कराफ, बाखः-फ़ा। चिलोनिया Chelonia- है । अक्षकोटर गोलाकार और बृहत् होता है। लेला टटल Turtle, टोट वायज़ Tartoise पार्श्व कपालास्थि पश्चात् कशेरू के मध्य मुक -अं०। जाती है । उभय पार्श्व में दो बृहत् शंखास्थि नोट-वेदों में 'अकूपार' नाम से कच्छप का रहती हैं। इन्हीं दोनों के मध्य मस्तक के बड़े उल्लेख आया है । निरूककार यास्कने लिखा है स्वरास्थि का गर्त रहता है। कछुए के उत्तमाँग ___ कच्छपोऽपाकूपार उच्यतेऽकूपारो न कूप में नासास्थि नहीं होती। सजीव अवस्था में मृच्छतीति । कच्छप:कच्छं यातिकच्छेन पाती नासिका के छिद्र में सूक्ष्म पत्रों की भाँति सकल तिवा कच्छेन पिवतीति वा। कच्छः खच्छः अस्थियाँ झलकती हैं। नासिका का अस्थिमय खच्छदः । अयम पीतरो नदीकच्छ एतस्मादेव छिद्र एक ओर दीर्घ होता है और फलास्थि, कमुदकं तेन छाद्यते।” (निरुक्त ४।१८) माध्यस्थि, हन्वस्थि तथा दो ललाटास्थि से अंग्रेजी में स्थल कच्छप को टॉर्टाईज़ (Tor बनता है। toise) और समुद्र कच्छप को टट् ल ( Turtle) कहते हैं । इसका युरोपीय वैज्ञानिक नाम जल कच्छप का मस्तक चपटा होता है। इसका चिलोनिया (Chelonia) है । ललाट सामने विस्तृत होते हुये भी अक्ष के कोटर विशेष विवरण पर्यन्त नहीं पहुँचता। - पृथिवी के भिन्न-भिन्न देशों में अनेक प्रकार के कोमल कच्छप का मुण्ड सामने बैठा और कच्छप होते हैं। अरिष्टाटल (अरस्तू) ने ग्रीक पीछे झुका रहता है। इसके पार्श्व कपाल की भाषा में तीन प्रकार के कछुओं का उल्लेख किया सूक्ष्मास्थि, ललाट का पश्चाद्भाग है। शंखास्थि है। यथा-स्थलकच्छप, जलकच्छप और और गण्डास्थि परस्पर संलग्न रहती हैं। कोमल समुद्रकच्छप । युरोपीय प्राणितत्वविदों ने कच्छप कच्छप का मुख और कच्छपों की अपेक्षा छोटा, जाति को पाँच श्रेणियों में विभक्त किया है। यथा अक्षकोटर कितना ही लम्बा और नासिका का स्थलकच्छप ( Testudo ), जलकच्छप छिद्र अति सूक्ष्म होता है। ( Emys ), कठिन श्रावरणयुक्र कच्छप ___ कच्छप के नीचे का मुखकोण कुम्भीर के (Chelydos ), समुद्रकशप (Chelo- के मुखकोण की तरह प्रतीत होता है। किसीnia) और कोमल कच्छप ( Trionyx)। किसी प्राणितत्ववित् के मत में वह पक्षी के फ्रांसीसी प्राणितत्ववित् दुमेरी ने कच्छप को | मुखकोण से सर्वथा मिलता है । सकल अस्थियाँ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कछुआ कामा से ये किसी को पीछे की ओर से पकड़ने पाते देखसुन नहीं सकते। यह कच्छप प्रायः सो वर्ष से अधिक समय तक जीवित रहता है। बिलकच्छप का स्वभाव अन्य कच्छप जाति से स्वतन्त्र होता है। यह स्थल कच्छप की भाँति धीरे धीरे नहीं चलता; प्रत्युत जल-थल दोनों स्थान में अति शीघ्र यातायात करता है। बिलकच्छप केवल शाकपत्र से सन्तुष्ट नहीं रहता । सुविधा होने पर यह जीव-जन्तु इत्यादिपकड़कर भी उदरस्थकर लेता है । इसका अंडा प्रायः गोलाकार, शम्बूकादि की भाँति चूर्णोत्पादक प्रावरण से आच्छादित और वर्ण में स्वच्छ होता है । बिल कच्छपी मिट्टी खोद कर गड्ढे में अंडे देती है। वह सदा बिल के पास ही गड्ढा बनाती और निरंतर इस विषय में विशेष सतक रहती है, कि कहीं शत्रु को चोट तो अण्डे पर नहीं पड़ती। यह विविध प्रकार से होता है। एशिया में १६, अमेरिका में १६, यूरोप में २, और अफरीका में १ प्रकार का बिलकच्छप मिलता है। पक्षी की अस्थि की भाँति अविच्छिन्न रहती हैं जलकच्छप मनुष्य के विशेष काम न श्राता। वङ्गदेश के कुछ नीच लोग इसे खाते हैं। किन्तु समुद्रकच्छप से मानवजाति का अनेक उपकार होता है । कोई उसे खाता और कोई अस्थि से कड़ा बनाता है। स्थलकच्छप भी जल में बहुत प्रसन्न रहते हैं। यह एकबार में ही अधिक जल पीलेते और कीचड़ में शरीर घुसेड़ देते हैं । सागरवेष्टित द्वीपसमूह में स्थलकच्छप अधिक होते हैं । ये बहुसंख्यक एकत्र बल बाँधकर घूमा करते हैं। जहाँ झरना चलता है, वह स्थानकच्छप को अच्छा लगता है । ये विविध स्थलोंमें गड्ढे बना लेते हैं । यात्री मार्ग में जल न पाने पर उक्क गढ़ों से जलका पता लगा सकते हैं। __ जो स्थलकच्छप ऊँचे अथवा ठण्डे स्थान में रहते हैं, वे तिक और कटुरसविशिष्ट वृक्षों के पत्ते खाते हैं। चाखामद्वीपवासियों का कहना है कि स्थानीय कच्छप तीन चार दिन तक जल के पास रहते, पुनः निम्न भूमि को चल पड़ते हैं। किसी-किसी जगह स्थलकच्छपों को वृष्टि के जल के सिवा अन्य समय रहने के लिए जल नहीं मिलता; फिर भी जोते जागते रहते हैं। मार्ग में प्यास लगने पर उक्त दीपवासी कछए को मार कर खोल से जल निकालकर पी लेते हैं। यह जल अत्यन्त परिष्कृत रहता है और पीने में कटु प्रतीत होता है। वहाँ का स्थल कच्छप प्रतिदिन दो कोस चल सकता है । शरत्काल कच्छप के मिलन का समय है। इसी समय स्त्री पुरुष एकत्र होते हैं । पुरुष सुख के आवेश में मत्त हो प्राण छोड़ चिल्लाया करता है। वह कर्करा ध्वनि २०० हाथ दूर से सुन पड़ती है। इससे द्वीपवासी समझ जाते हैं, कि अब कछुये के अंडे देने का समय अागया है । बालू से भरे हुये स्थान पर कछुई अंडे देती और फिर उस पर बालू चढ़ा देती है । पर्वत पर इधर-उधर गर्त में भी कछुई अंडे दे देती है। एक स्थान में १५ अंडे रहते हैं। अण्डा देखने में साफ और पाठ इञ्च तक बड़ा होता है । इस जाति के कछुये बहिरे होते हैं, इसो नदी कच्छप सर्वदा ही जल में रहता है, कभीकभी स्थल पर आ जाता है । यह बहुत बड़ा होता और हर एक वजन में ३५-३५॥ सेर का होता है। इसकी खोल का परिमाण १३॥ इञ्च है । यह जल में और जल के ऊपर तैरा करता है। इसकी देह का निम्न भाग किंचित् श्वेत वर्ण, गुलाबी अथवा नीला सा दीख पड़ता है । किन्तु उपरि भाग नाना विध रहता है । रात्रि होने पर वह अपने को निरापद समझता और नदी-तट, नदी के समीप गिरे हुये वृक्ष की शाखा अथवा नदी में तैरते किसी काष्ठ पर चढ़कर विकाम करता है। मनुष्य की आवाज़ अथवा किसी प्रकार का स्वर सुनने पर नदी कच्छप तत्क्षण नदी के गर्भ में डूब जाता है। यह बहुत ही मांसप्रेमी होता और कुम्भीर का छोटा बच्चाभी पातेही उदरसात् करता है। श्राखेट वा श्रात्मरक्षा करते समय नदीकच्छप तीरवत् मस्तक और ग्रीवा चलाता है। किसी को काटने पर शीघ्र वह उसे नहीं छोड़ता । दंष्ट्रस्थान उखाड़ डालने पर ही पृथक् होता है । इसो से सब कोई इस जाति के कच्छप से भय खाते हैं। भारतवासी Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का कहते हैं कि 'कच्छप किसी को एक बार काटने के लिए पकड़ने पर बिना मेघ गरजे नहीं छोड़ता। इस जाति में aियाँ अधिक होती हैं। पुरुषों की संख्या श्रल्प है । स्त्री एक बार ५०-६० अण्डे देतो है । स्त्री को श्रायु के अनुसार अण्डे भी न्यूनाधिक निकलते हैं । १६१७ 1 संतरण के लिए समुद्रकच्छप के मत्स्यकी भाँति पर होते हैं । इस प्रकारके पर अन्य किसो जातीय कच्छप के दीख नहीं पड़ते। इसके अंग-प्रत्यंग भीतर योगी हैं । श्रडे देने का समय छोड़ यह प्रायः तट पर नहीं श्राता । कोई कहते हैं कि रात में यह निर्जन स्थान में चरते फिरते हैं । समुद्र-कच्छप कभी कभी अपनी प्यारी घासपत्ती खाने को उपकूल पर चढ़ बहुत दूर पर्यन्त चला जाता है । यह समुद्र के जल में निष्यंद भाव से तैरा करता और देखने में मुर्दा मालूम पड़ता है । सन्तरण समुद्र-कच्छप विशेष कटु होता है । सामुद्रिक उद्भिद ही इसका प्रधान खाद्य है । फिर भी जिस सामुद्रिक कच्छप के गात्र से कस्तूरी की भाँति गन्ध श्राती है, वह घोंघे पकड़ पकड़कर खाता है । अण्डे देते समय इस जाति की स्त्री रात में पुरुष के साथ समुद्र छोड़ बहुत दूर किसी द्वीप में वालुकामय स्थान में उपस्थित होती है । वह बालू में दो फीट गहरा गड्ढा कर लेती और उसी गड्डे में एक समय १० अंडे देती है । इसी प्रकार दो-तीन सप्ताह में फिर वह दो बार अरडे दिया करती है । श्रण्डे का श्रायतन छोटा और गोलाकार होता है । वह सूर्य के उत्ताप से १५ से २६ दिन के बीच फूट जाता है । श्रण्डा फटने से पूर्व कच्छप शिशु के पृष्ठ का आवरण नहीं होता । उस समय यह श्वेत वर्ण का दीख पड़ता और दारुण विपद का वेग रहता है। ज़मीन पर इसे पक्षी मारते और जल में जा गिरने से कुम्भीर एवं सामुद्रिक मत्स्य खा डालते हैं । श्रति श्रल्पसंख्यक शिशु जीते-जागते शेष रह जाते हैं। उस समय एक ए. समुद्र-कच्छप वज़न में २० मन तक तुलता है। इस जाति का कच्छप मानव जाति का अनेक उपकार करता है । नाना स्थानों के लोग कछुआ इसका मांस खाते हैं । विशेषतः जहाँ कच्छप का बड़ा कोष पाते हैं वहाँ लोग उससे नका, कुटीर के श्राच्छादन, गौ श्रादि को सानी देने का पात्र और व्यवहारोपयोगी अन्य कई प्रकार के वस्तु बनाते हैं । यह जाति प्रधानतः तीन श्रेणियों में विभक है । पुनः इसके १ - १० भेद होते हैं । इस कछु के कोष से उत्कृष्ट कड़े बनते हैं । हम लोग महाभारत में गज-कच्छप का युद्ध पढ़ विस्मित हो जाते हैं । किंतु वर्तमान चाखाम द्वीप के कच्छप का विवरण सुनने से वह घटना असंभव समझ नहीं पड़ती। डार्विन साहब ने चाखाम द्वीप में अत्यन्त वृहदाकार कच्छप देखा था । श्रर्किलेगो द्वीप-पुज में बहुत बड़े बड़े कच्छप विद्यमान हैं। उनमें एक-एक कच्छप का केवल मात्र मांस वज़न में प्रायः ढाई मन होता है । संदेह करते हैं कि एक कच्छप को सात ठ श्रादमी उठा सकते हैं या नहीं। स्त्री की अपेक्षा पुरुषों की पूछ भी लम्बी होती है । यह कच्छप जब जलशून्य स्थान में रहते हैं या जल-पान कर नहीं सकते, तब वृक्ष के पत्तों का रस पिया करते हैं । ( हि० वि० को ० ) भगवान मनु के मत से कच्छप भच्य पंचनखी में गिना जाता है— “श्वाविधं शल्यकं गोधा खड्गकूर्म शशांस्तथा । भयात् पञ्चनखेवाहुरष्टांश्च कतोदतः ॥” ( मनु ५ । १८ ) जाति का लक्षण वराहमिहिर ने कच्छप इत्यादि इस प्रकार हैं— "स्फटिक रजतवर्णो नीलराजीवचित्र: कलसमदृश मूर्त्तिश्च रुवंशश्च कूर्म । अरुणसमवपुत्र सर्षपाकारचित्रः स नृपमहत्वं मन्दिरस्थः करोति ॥ अञ्जनभृङ्गश्यामवपुर्वा विन्दुर्विचित्रोऽव्यङ्ग शरीरः । सर्पशरा वा स्थूलगलीय: सोऽपि नृपाणां राष्ट्रविवृद्ध्ये । वैदूर्यत्वस्थूल कण्ठस्त्रिकोणो गूढच्छिद्रश्चारुवंशश्च शप्तः । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कछुआ १६१८ कछुआ क्री वःप्यां तोयपूर्णे मनौ वा. कार्यः कूर्मो मङ्ग- मात्रा-जलाया हुआ. ३॥ मा0। अण्डा लार्थ नरेन्द्रः॥" (वृहत्संहिता) ४। जौ भर । रक्क तीन रत्ती पौन जौ भर । गुण, कर्म, प्रयोग-कछुए का मांस कामोजिस कच्छप का वर्ण स्फटिक एवं रजत के दीपक है और यह कटि को भी शकिप्रदान करता . समान तथा ऊपर नील पद्म की भाँति चित्रित, है । इसके मांस का कबाब प्रात्तव के खून को श्राकार, कलस सहरा, पृष्ठ मनोहर अथवा देह बन्द करता है और वायु का अनुलोमन करता है। " अरुण वर्ण और सरसों के सदृश चित्रित होता है। नये फरक के भरलाने में यह जुन्बेदस्तर के साथ उसे घर में रखने से राजा का महत्व प्रकाश करता. __उपकारी है । इसके मांस के लेप से शोथ विलीन है। जिस कच्छप का शरीर अंजन एवं भृङ्ग की। होता है । बरी कछुए का रक्क्रपान करना आक्षेप भाँति श्याम वर्ण, सर्वांग विंदु-बिंदु चित्र-विचित्र एवं अपस्मार के लिये गुणकारी है। यदि जौ के अथवा मस्तक सर्प की तरह या गला स्थूल श्राटे और शहद में मिलाकर कालीमिर्च के बराबर दिखाता है वह राजा का राष्ट्र बढ़ाता है । जो गोलियाँ बनालें और प्रातः सायं-काल एक-एक कच्छप वैदूर्य वर्ण, स्थूल करठ, त्रिकोण, गूढ़ वटी निहार मुंह खाते रहें, तो मृगी को बहुत लाभ । छिद्र और भनोहर पृष्ठ-दरड विशिष्ट होता है, वह हो । उक रोग के लिये यह उपाय अनुपमेय है। कूप, वापी प्रभृति अथवा जलपूर्ण कलस में इसके रक्त का बार-बार लेप करने से श्रामवात मंगलार्थ रखने पर राजा का कल्याण करता है। तथा वात-रक्त (निकरिस) जनित वेदना का आयुर्वेदीय मतानुसार गुण-दोष निवारण होता है । जुन्दबेदस्तर के साथ इसकी , कच्छपो बलदः स्निग्यो वातघ्नः पुंस्त्वकारकः वस्ति करने से आक्षेप में उपकार होता है। इसके पित्ते को सुखाकर शहद के साथ आँख में लगाने (ध० नि०) से मोतियाबिन्दु और जाला नष्ट होता है। इसके अर्थात् कछुआ बलकारक, स्निग्ध, वातनाशक पित्ते का लेप खुनाक गुलू, योषापस्मार और दुष्टऔर पुंस्त्व-कारक है। व्रणों को गुणकारी है। अपस्मार रोगी की नाक __कछुए का मांस वातनाशक, शुक्रजनक, नेत्र के पर इसका मलना लाभप्रद है। लिये हितकारी, बलकारक, स्मृतिवर्द्धक शोथ कछुए की खोपड़ी वा हड्डीनाशक और पथ्य है। इसका चर्म पित्तनाशक, पर्याय-कचकड़ा, कछुए की खोपड़ी, कछुए पाद कफनाशक और इसका डिम्ब (अण्डा) की हड्डी-हिन्दी । ज़ब्ल-अ०। ; स्वादु और वाजीकर होता है। (रा०नि०) - कछुआ मधुर, स्वादु, शुक्रबर्द्धक, वातकफ- | यह स्वच्छताकारक अर्थात् जाली और संग्राही जनक, वृहण और रूक्ष है। (अत्रि २२ अ.) है । इसका बुरादा सेवन करने से अशांकुर नष्ट होते हैं। इसे जलाकर अण्डे की सफेदी के साथ ___ कछुए का मांस बलदायक, वातपित्तनाशक और लगाना गर्भाशय-गत विशरण के लिये उपकारी है नपुंसकता नाशक है । (भा०) फुफ्फुसप्रणालोगत क्षत और चातुर्थक वर में यूनानी मतानुसार गुण-दोष- . इसे मधु के साथ चाटने से उपकार होता है। प्रकृति-दरियाई तथा नहरी कछुआ द्वितीय सूजन, अर्बुद (सान ) और अर्श रोग में इसका कक्षा में उष्ण और प्रथम कक्षा में तर है। जंगली प्रलेप उपयोगी है । योनि में इसकी वर्तिका धारण व बरी उष्ण एवं रूक्ष है। इसका अंडा भी उष्ण करने से जरायु सम्बन्धी स्रावों में उपकार होता है तथा रूक्ष है। और यह गर्भपातकारी और वन्ध्यत्व दोष निवा: हानिकत्ता-इसका मांस-भक्षण प्रांतों को हानि- रक है । इसको कंघी जूं एवं रौच्यहारी है। -बु• मु० 1: दपन-शहद। . .. इसकी अस्थि कच्ची या जलाकर और खून Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कछुआ १६१६ पीसकर आँख में लगाने से दृष्टि शक्ति नष्टप्राय हो हो जाती है । इसकी हड्डी की राख काँच निकलने को गुणकारी है । इसकी हड्डी को पीसकर इसकी वर्त्तका योनि में धारण करने से योनि से तरह २ के स्त्राव और क्षत नष्ट होते हैं । एक मित्र इसकी अत्यन्त प्रशंसा करते थे। उनके कथनानुसार कैसा ही पुराना रोग हो और स्त्री को किसी प्रकार आराम न होता हो, इसकी हड्डी पीसकर रूई में रखकर योनि में रखने से कल्याण होता है। बवासीर के मस्सों को तीन दिन तक निरन्तर इसकी अस्थि की धूनी देने से वे बिल्कुल गिर पड़ते हैं । अस्थि को तेल में जलाकर और उसके अन्दर पीसकर पीठ और हाथ-पैर के दाद पर लगायें तो कई दिन पीला पानी निःसृत होकर उसकी जड़ जाती रहती है । परीक्षित हैं । हरीरे में कालीमिर्च के बराबर कछुए का अंडा मिलाकर खिलाने से बच्चों की पुरानी खाँसी जाती रहती है। इसमें दसवाँ हिस्सा सौंफ का चूर्ण मिलाकर प्रण्ड-शो पर लेप करने से लाभ होता है । इसकी चर्बी आक्षेप तथा धनुष्टंकार ( कुज़ाज़ ) के लिये गुणकारी है । दरियाई कछुए की चर्बी, जावशीर और कुदुश समभाग लेकर पीसकर गद के पेशाब में गूंध कर छाया में सुखालें । जिस स्थान में पक्षीगण एकत्रित हों, वहाँ इसे जलावें और स्वयं नाक-कान पर कपड़ा बाँधलें, जिसमें घुश्रा न लगे, जिस जानवर को धुं श्रा लगेगा वह मूच्छित होकर गिर जायगा । उसका पकड़कर जब गरम पानी में उसके बाल धोए जायेंगे, वह होश में आ जायगा । इसके पत्ते से नये कागज पर लिखने से रात में अक्षर ऐसे प्रतीत होते हैं, मानो सोने से लिखे हों । वैद्यों के कथनानुसार कछुए का मांस वल्य एवं कामोद्दीपक है । यह वायु तथा पित्त के विकारों को उपशमित करता है। | कछुए को 'खुनाक रोगी के पास इस प्रकार रखें कि उसके मुँह की हवा नाक को पहुँचे । इससे वह बहुत जल्द श्रीराम हो जायगा । हकीम शरीफ ख़ाँ महाशय नाक में इसी प्रकार चिकित्सा करते थे। घाव कछुआ पर प्रथम तेल लगाकर उसे चिकना करदें । पुनः कछुए की जलाई हुई अस्थि को पीसकर उस पर छिड़कें । तीन दिन में श्राराम हो जायगा | कर्कट ( सतन ) पर छिड़कने से भी उपकार होता है । यदि कोई ऐंद्रजालिक पुरुष को इस प्रकार बाँध दें, कि वह स्त्री से समागम नं कर सके, तो इसकी अस्थि में जो प्यालानुमा होती है, पानी कर सिर पर डालने से खुल जाता है । ( ख़० अ० ) - इसकी खोपड़ी के खिलौने बनते हैं । नव्यमत आर० एन० चोपरा - कछुए की चर्बी, कण्ठमाला ( Scrofula ), अस्थिवक्रता वा शोषरो' (Rickets), रक्ताल्पता (Anemia) श्रौर फुफ्फुस विकारों में प्रयुक्त होती है । (इं० डू० इं० पृ० ५४६ ) । नादकर्णी - कछुए से एक प्रकार का तेल प्राप्त होता है जो पांडु-पीतवर्णीय द्रव है। इससे मत्स्यवत् गंध श्राती है और इसका स्वाद अप्रिय होता है | औषध में यह परिवर्तक, पोषणकर्त्ता और स्निग्धता संपादक रूप से व्यवहार में श्राता है । यह विशेषत: कंठमाला, अस्थिवक्रता (Rickets) रक्ताल्पता ( Anæmia ) और फुफ्फुसविकारों, में प्रयोगित होता है । मात्रा -१ से २ ड्राम तक । कच्छपी वैक्सिन ( Vaccine of tortoise) यमोपचारार्थ डाक्टर फ्रेंडस वैक्सिन ( Dr. Friendmau's vaccine ) के गुणों की परीक्षा के लिये जर्मनी द्वारा नियोजित कमीशन की रिपोर्ट इस प्रकार है - " यच्म प्रति धनीय संघर्ष में यह वैक्सिन मूल्यवान् है । जैसा कि इसके १ या २ इंजैक्शन से ही श्राश्वयंजनक फल हुआ। यह वैक्सिन कच्छप के यक्ष्मकीट के शुद्ध कल्चर से प्रस्तुत होता है ।" (Indian Materia Medica) कछुए के अंडे की जर्दी का पापड़ बनाकर शिशुओं को खिलाने से उनका शोष रोग श्राराम होता है । कछुए के एक अंडे की जर्दी ब्रांडी २० - बूँद, १॥ तोले गोदुग्ध और मात्रानुसार मिश्री Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कछुई १९२० कजात . मिलाकर सेवन करने से भी उपयुक लाभ | पड़ जाना । ( Foreign body in the होता है। -लेखक । Ear) कछुई-दे० "कच्छपी"। | क़ज़ र-[अ] (1) मैला कुचैला होने का भाव । कछुवा-संज्ञा पुं० दे० "कछुआ"। अपवित्रता । निजासत। (२) कराहत होना। कळूर, कच्छूर-[कों ] चन्द्रमूल | सुगंधबच । कपूर- | घिन मालूम होना। कचरी-(गु०. मरा०)। | कज़र-[फा०] कचूर । ज़रंबाद । करम् कच्छूरम्-[ मल] चन्द्रमूल। कपूरकचरी | कजर-शिक्काय- ता. 1 कंजा । कठकरंज । सागर-(गु०, मरा०)। गोला। कछोल-कलंगु-[ ता०] चन्द्रमूलिका । चंद्रमूल । कजरा-संज्ञा पु. [?] (१)दे० "काजल"। (२) एक कपूरकचरी (गु०)। ( Kaempferia. gal- प्रकार का बैल जिसकी आँखें काली रहती हैं। anga, Linn.) कचूलकलंगु ( ता०)। [म.] कुचिला । कुचला। कज-संज्ञा पु | सं० को०] (१) कमल | पद्म। कजरी- संज्ञा स्त्री.] दे० "कजली"। रा०। (२) अमृत । मे० जद्विक । ___ संज्ञा पु [सं० कजल ] (१) एक प्रकार क-काः । क़ज़ अ०] एक प्रकार का रेशम । की ईख । काला गन्ना । कृष्णेच । (२) एक कजा . ] दे. "क़ज़" । धान जो काले रंग का होता है। कज़-अ.] छोटी पथरी। | कजल-संज्ञा पुं० [सं० की. ] अञ्जन । कजल । क ज़- अ०] (1) आज्ञा । आदेश । (२) अनु- | काजल । मान। अंदाजा। (३) पूरा करना । (४) कजला-संज्ञा पुं॰ [हिं काजल ] (१) कजरा । अंत करना । (५) मृत्यु । मौत। काजल । (२)एक काला पक्षी। मटिया (३) कजङ्गबीन-[फा०] एक प्रकार का मधुर द्रव्य जो काली आँख का बैल । श्रोस की तरह भाऊ वा अन्य वृक्षों पर तुरञ्जबीन कजली-संज्ञा स्त्री० [सं० कजली, हिं. काजल ] के समान जम जाता है। भावुकशर्करा । (1) कालिख । श्यामता । (२) एक जाति कज गु- ते०, मल०] सुपारी । क्रमुक । गुवाक । की ईख जो बर्दवान (वद्धमान )में होती है । (३) कज ज-[अ० ] छोटी पथरी। पोस्ते की फसल का एक रोग जिसमें फूलते समय क़ज़ज़-अ.] पिस्सू । फूलों पर काली-काली धूल सी जम जाती है जिससे कज त्रिक-कुरु-[ मल.] कंजा । कठकरंज । फसल को हानि पहुँचती है। (४) एक साथ कजनन-[हिं० ] बोरहे अरमनी। पिसे हुये पारे और गंधक का चूर्ण। कज्जली । कजपूती-संज्ञा स्त्री॰ [अं० केजुपुटी ] कयपूती । वि० दे० "पारा"। (५) एक गाय जिसको कायापुटी । केजुपुटाई। आँख काली हो । (६) एक प्रकार की सफ़ेद कजब-[ ?) कचा अंगूर । गोरः (का.)। भेंड़ । इसकी आँख के पास काले बाल होते हैं। क जब-[अ०] (१) बड़ा पेड़। (२) शलगम । संज्ञा स्त्री० [बं०] ईख । ऊख । गला । इसपस्त । संज्ञा स्त्री० [बम्ब०] विष्णुकांता । अपराजिता । क जबः-[अ०] रतबः । इसपस्त । कजह-[फा०] लहात। कज या-अ०] (1) आँख में किसी बाहरी चीज़ क़ज़ ह [१०] पिस्सू । "जैसे. तिनका आदि का पड़ जाना | Foreign- कजा-संज्ञा स्त्री० काँजी। माँड़। body in the Eye, (२) वह चीज़ जो | कज़ाजह-[अ०] सोने का टुकड़ा। आँख में पड़ जाय। | कजानः-[फा०] रेशम का कीड़ा। कज याउल-उऊ न-[१०] कान में किसी चीज़ का क जात-१०] (1) दौर्बल्य । कार्य । दुबला Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जमाव कजीतन- [तु० ] अंजुरह। पन । दुर्बलता । क्षीणता । (२) कृश होने का खुनासा । भाव वा क्रिया । दुबला पतला होना । | कंजूर-[बं०, हिं०] खजूर । खजूर । कजाब-[ मिश्र०] अज़ानुल् अङ्ग का एक भेद । कज..र-[फा०] कचूर । जरंवाद। क जाबः-अ.] वाग़ । साम अबर्स। कजरु-[गोत्रा ] दमनपापड़ा । खेतपापड़ा। क्र(क).जाम- ३०] चने का पौधा । चणक । कजूली-[बं०] लाल गन्ना । रक्तु । नजार-अ.] शीशा। क जायन-[ अन्दलु०] एक प्रकार का पौधा । कज़ारत-[१०]क ज़र। कज.गा, कजगाव, कजगा, कजगाव-[ १०, क़ज़ाल-अ.](8) सिर का पीछे का भाग। क्रा० । सुरा गाय। शिर पश्चात् भाग। (२) कान को लो के पास कम्ज-[फा० का, कज से मु१०] रेशम की एक का वह स्थान जहाँ ब ल नहीं उगते। तरि नयः जाति।। क जालान । अरु जलः, कज़ल (बहु.)। क्र.ज.त-[अ०] (१) नाक बींधना । (२) छेद कजि नील-मल० ] सरफोंका। करना । छिद्रीकरण । (३) कुमारित्व हरण । काज निला-[ मज० ] सरफोंका। सतीत्व हरण । कजी-(प्रा०] एक नमकीन बीज । कज कानुल उज.नान-[१०] पिस्सू । तु.] जंगलो राई। क(कि)..ज.जबः-[१०] छोटी सी पथरी । (२) कजी-पंहा स्त्री०१ बलती। खजूर बूटी। चूना । (३) सिकता । रेत । (४) गच का कज़ाज-[१] संगमरमर । पत्थर । हसीन । कजीत- तु.] उटंजन । अंजुरह । कजल-संज्ञा पुं॰ [सं० की. ] (8) नील कमल । निलोफर । (२) अंजन | काजल । हे० च०। त्रिका०सि० यो० कामला-चि०। इसका अपर क जानून,क जनयून-[यू०] कटाई । जंगली बैंगन । संस्कृत नाम लोचक है। क़जीक-[अ०] [बहु० क ज़ान, क जनान] प्रतिकृया संज्ञा पुं० [सं० पु.] (१) कजली । अत्यन्त क्षीण । बहुत दुबला पतला। कजली । अत्रि० । (२) मेघ । बादल । क जीब-[१०] [ ? ) उ.ननेंद्रिय । शिस्न । लिंग । शब्दमा० । (३) कालिख । स्याही। (४) ज़कर । उज वुलज़क्रा । क्रुजुब (बहु०) सुमा । (५) कजली । एक मछलो । (६) Fenis (२) पेड़ की डाली। वृक्ष की शाखा | काजल. अंजन आँजन । जब अंजन लगाना कज बान (बहु.)। (३) अंगूर की बेल । हो तो प्रथम अंगुली को जमीनमें विसकर फिर कजीम-[१] ग़ोरह । अंजन करने से तिमिर काँच, अर्श और धूमिका का क जीम क़रीश-[१०] ख़ब नय्ती। नाश होता है। कजलि-[?] वार । तुमुश | Common (१) सोसा को पिघला कर त्रिफला, black berry भांगरा, सोंठ, शहद, घृत, बकरी का दूध और कजु-सिं०] काजू । गोमूत्र में बुझाकर इसकी सलाई तैयार करें। फिर कज- लेप०] बिछुवा । श्रवा | अन्न । इस सलाई को घिसकर आँजन करने से गरुड़ की कजुअट्ट-सिं०] क.जू । सी दृष्टि होती है। कज. तप्पाल-[ मल• गदही का दूध ।गर्दभी दुग्ध। (२) सीसा को पिघलाकर त्रिफला जल, ___ शीर स्वर। भांगरा रस, घृत, अफीम का घोल, बकरी का दूध कज...त्थई थुम्बई-ता०] कोटा कुलफा (हिं०,०)। और मुलहठी का रस इनमें सात-सात बार बुझा ___ काटमण्डू (पं )। गावजबान (सिं०)। और सलाई तैयार कर प्रति दिन प्रातःकाल अंजन कज देपाल-ता०] गदही का दूध । करने से स्वर्ण तुल्य पीला दिखाई देना तथा धर्म कजक-का•] एक प्रकार का गोबरैला । सानाक्रस । पैचिव्य रोग और नेत्र के श्वेत, कृष्ण भाग और Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालध्वज १६२२ कजली सन्धिमर्म में होनेवाले समस्त रोगों को यह दूर | कज्जलरोचक संज्ञा पुं० [सं० पु ं०-क्ली० ] दे० करता है । "कज्जलध्वज' । (३) एक गूलर वृक्ष के काष्ठ का बना पात्र ले, उसमें श्रमली के पत्तों को डालें। पुनः उसमें गुआ की जड़ को भिगोकर धूप में सुखाकर पीस लेवें। इसमें थोड़ा सेंधानमक मिलावें । फिर इसे सुन्दर अंजन में मिलाकर नेत्रों में लगाएं, इसके प्रयोग से नेत्र के समस्त रोग जैसे - काच, श्रर्म, अर्जुन, पिचिट, तिमिर, स्राव इत्यादि दूर होते हैं । ( ४ ) जल में खस, संधानमक बारीक पीस कर घृत मिलाएँ। पुनः इसे नेत्र में लगानेसे नेत्र में ठंडक प्रतीत होती है यह नेत्र के प्रत्येक बीमारी में हितकर है। (५) सुरमा, मूँगा, समुद्र माग, मैनशिल, कालीमिर्च, इनको जल में बारीक पीस बत्ती बनाएँ और नेत्र में लगाएँ। यह नेत्र के समस्त रोगों को दूर करता है । (६) कमल के पुष्पकी धूली । को गौ के गोबर में पीसकर गोली बनावें । इसे नेत्रों में लगाने से रतौंधी और दिन में धुन्ध दिखाई देने में लाभ होता है । (७) शंखनाभी, सोंठ, मिर्च, पीपर, सुरमा, मनशिल, हल्दी, दारूहल्दी, गौ के गोबर का रस, सफेद चन्दन - इन्हें बारीक पीसकर गोली बनाएँ । इसका अंजन करने से रात और दिन में धुन्ध दिखाई देना दूर होता है । ( भै०र० ) (८) एक टुकड़ा नवीन स्वच्छ कपड़ा लें और उस पर कपूर, अफीम, रसवत, लवंग, फिटकिरी, हल्दी, जीरा सफेद और सोयाके बीज इनको जल में पीस कर लेप करें। जब कपड़ा अच्छी तरह सूख जावे, इसकी एक बत्ती बना लें और कटु तेल में भिगोकर लोह के पात्र में काजल पारें । गुण- इसे प्रति दिन बालकों के नेत्रों में श्राँजने से नेत्र रोग शून्य रहते हैं । — लेखक कज्जलध्वज - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( १ ) दीपाधार दीयट | दीवट | पर्या० - कज्जलरोचकः, कौमुदीवृक्षः, दीपवृक्षः शिम्बातरुः, दीपध्वजः ( ज० ), ज्योत्स्नावृत्तः, (त्रिः ) | ( २ ) चिराग़ । प्रदीपशिखा । कज्जला -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक प्रकार की मछली | Cyprinus atratus ) । इसका संस्कृत पर्याय कज्जली और अनएडा है । दे० " कजली वा पारा" । कज्जलि, कज्जलिका संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] दे० " कजली" । कज्जलित - वि० [सं० त्रि० ] ( १ ) काजल लगा हुआ । श्रजा हुन । चंजनयुक्र । ( २ ) काला स्याह । कज्जली - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) एक प्रकार की मछली । मीन विशेष । (२) एक साथ पिसे हुये पारे और गंधक की बुकनी । श० र० । वि० दे० ' कज्जली" वा "पारा" । शुद्ध पारद और शुद्ध गंधक श्रामलासार समान भाग लेकर खरल में डालकर इतना घोटें कि पारद श्रदृश्य हो जाय श्रीर दोनों श्रापस में मिलकर कज्जल के समान स्याह हो जायँ । इसे कजली कहते हैं । यह बृंहणी, वीर्यवर्धनी और अनुपान भेद से समस्त रोगों का नाश करनेवाली है । वृ० रस रा० सु० 1 ज्वर-चि० । कज्जली भेद कटेली, संभालू और नाटाकरंज के रस को एक ठीकरे में डालकर उसमें गंधक का चूर्ण डाल कर मन्दाग्नि पर रक्खें। जब गंधक पिघल जाय, तब उसमें समान भाग पारा डालकर उसे जल्दी से मिलाकर नीचे उतार लें और फिर यहाँ तक खरल करें कि वह कज्जल के समान स्याद्द हो जाय । सेवन विधि - सन्निपातज्वर में - १ रत्ती कजली और १ माशा जीरे का चूर्ण तथा १ माशा सेंधानमक मिलाकर पान में रखकर खिलायें और ऊपर से गरम पानी पिलायें । वमन में इसे — मिश्री के साथ, आमदोष में गुड़ के साथ, क्षय में बकरी के दूध के साथ, रक्तातिसार कुड़े की जड़ की छाल के रस के साथ और खून की उल्टी में गूलर के रस के साथ दें । यह कज्जली सर्वं व्याधिनाशक, आयुर्वर्धक और श्रासन्नमृत्युमनुष्य को भी जीवन दान देनेवाली है । वृ० रस रा० सु० ज्वर - चि० । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२३ पारे और गंधक की कज्जली को गौ मूत्र कमाज़में और एरण्ड के तेल के साथ पीने से अण्डवृद्धि कमाजकका शीघ्र नाश होता है । वृ० नि० २० श्रण्डवृद्धि चि० । ( ३ ) स्याही | कमाज़क़कमाजज कज्ज्वल - संज्ञा पुं० [सं० क्ली० ] कज्जल । श्रञ्जन | सुरमा । कज़ ततून, जूनून - [ फ़ा० ] अकरकरा | श्राकरकरभ । क़ज्दी (जवी )- [ श्रु० ] एक पौधा । जिससे नमक बनाते हैं । कज्ज्त्रत ܢ܂ क़दीर - श्र० ] राँगा । बँग । श्रर्ज़ीज़ । कज दुम - [ फ्रा० कज़ = टेढ़ा + डुम= यूँ छ ] ( १ ) बिच्छू । वृश्चिक । ( २ ) अकरकरा | क़... दुम जरारह - [ फ्रा० ] एक प्रकार का बिच्छू जो अपनी पूँछ जमीन पर घसीटता चलता है । नोट - बुर्हान ने भूल से जरारह की जगह ख्वारह लिखा है । क ....दुम दरियाई - [ फ्रा० ] दरियाई बिच्छू । नादेय वृश्चिक । सिंगी मछली । क...दुमबहरी - [ फ्रा० ] सिंगी मछली । कन: - [ फ्रा० ] तुख्म अंजुरह । कनहे दश्ती - [फा० ] लामजक । खवी इज़ख़िर । कप ( जब) रना - [ सिरि० ] धनियाँ । कक - [ फ्रा० ] जलाई हुई चाँदी । क़ीर | क़फ़ - [ ० ] क्रे करना । उगिलना | फेंकना । क़..फुकल्ब -[ श्रु० ] एक प्रकार का हृद्रोग जिसमें रोगी को ऐसा प्रतीत होता है, मानो उसका हृदय छाती से बाहर निकला श्राता है । कार्डिया Tachycardia श्रं । .क्र. जबः - श्र० ] रतबा । कजब:-[ ? ] उसारहे रोग़न । कब - [ फ्रा० ] एक प्रकार का रेबास । कबुन - [ काश० ] गावज़वाँ । म - [ श्र० ] ( १ ) पुरानी रूई । (२) दाँतों या दादों के किनारे से खाना | सूखी चीज़ खाना । दे० " ख. म" । कम - [ ० ] चिड़ा जैसी एक चिड़िया । नग़र । क्र.म क़रीश - [ श्र० ] चिलगोजा ( चाहे छोटे हों वा 1 ) । कनिकी, सी. [मु.] भाऊ का फल | भावुक फल । कज़रः - [ फ्रा० ] एक सुगन्धिमय पौधा । ] एक प्रकार का रेबास । कज़...रफ़ - [ फ्रा० ] एक प्रकार की घास जो इतनी दुर्गन्धित होती है कि यदि वह हाथ में पकड़ जाय तो चिरकाल तक उसकी दुर्गन्धि दूर नहीं होती । कवा - [ फ्रा कजवाँ -संज्ञा स्त्री० [ फ़्रा० ] एक सुगन्धिमय उद्भिज्ज जिसमें तना नहीं होता और उसमें पत्र जड़के समीप से निकलते हैं । प्राकृति में ये जर्जीर या तरामिरा के पत्तों की तरह होते और ये हरियाली लिये होते हैं । इनका सिरा गोल और नीचे का भाग घोड़ा कटवाँ होता है । नोट -- अरबी में इसे बलहे उत्रुजियः कहते हैं; क्योंकि इसमें उत्रुज श्रर्थात् बिजौरा नीबू की सी सुगंध आती है। इसे बकूलहे फ्रिल्फिल्यः इसलिये कहते हैं, कि इसके स्वाद में कालीमिर्च जैसी तीक्ष्णता होती है । इसको बादरंजबूया भी कहते हैं । यद्यपि बादरंजबूया वस्तुतः एक भिन्न चीज़ है । प्रकृति- उष्ण और रूस । हानिकर्त्ता — उष्ण प्रकृति को । इसका अत्यधिक उपयोग शिरःशूल एवं पेशाब में जलन उत्पन्न करता है । दर्पनसिकञ्जबीन और शीतल रखूब इत्यादि । गुणधर्म तथा प्रयोग - यह मनोल्लासजनक है। हृदय और श्रामाशयिक द्वार (क्रम मेदा) को शक्ति प्रदान करती, चिंता एवं उदासीनता को निवारण करती, ख़फ़क़ान सर्द को नष्ट करती, 'बिच्छू का ज़हर उतारती और हर प्रकार के शीतल विषों को गुणकारी है । यह शरीर में खूब गरमी पैदा करती है। ख़० श्र० । ह - [ ० ] पिस्सू । क़ज्ह - [ श्र० ] ( १ ) कुते का पेशाब । श्वानमूत्र । (२) प्याज का बीज । (३) मसाला ! क़जिह. य्य:- [अ०] आँख का अंगूरी परदा । उपतारा । इ. नत्रिय्यः ( ० ) । कविकी, सी - [ वर० ] गर्जन से ! Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१४ कञ्च-संज्ञा पुं० [सं०] कच। शीशा । और मोचरस प्रत्येक का चूर्ण २-२ तो. मिलायें । [म.] गाँजा । ठंडा होने पर इसमें एक पाव शहद मिलादें । बस कञ्चट, काबाड़-संज्ञा पु० [सं० पु०, क्री०] (1) "कञ्चटावलेह" तैयार है । इसे दोष, बल एवं गजपिपली । गजपीपर । बड़ी पोपर ।वै० निघः । काल विकार मात्रा के अनुसार उपयोग (२) एक प्रकार का प्रसिद्ध जलज शाक । जल करने से यह अवलेह, अतिसार, ग्रहणी, अम्लपित्त चौलाई । जल तरदुलीय । २० मा० । च० द०। उदररोग, कोष्ठज विकार, शूल और अरुचि का सि. यो० कञ्चटादि। भा० म. १ भ० अ० सा. निवारण करता है । च० द० । सा० को। चि०। जजचौलाई वा कञ्चर के संकृत पर्या०- कञ्च-सहा पु० [सं० पु.] एक प्रकार का कबट । जलभूः, लालो, लागलो (श०), शारदी, तोय- ____ छोटे पत्तों का कञ्चट शाक। पिप्पली, शकुलाइनी (२०), जल-त डुलायं । | कञ्चड़-सं ।। पु० [सं० पु.] कञ्चट का एक भेद । गुण-यह धारक, कफकारक, शीतल, रमपित्त पर्या-कन्वरः, काचः, चक्रमई, अम्बूपः नाशक और हलका है। राज० । यह वातनाशक | (श)। और कडुश्रा है। भा० पू० १ भ० शा० व०। कश्चन-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] एक प्रकार का कचवि० दे० "चौलाई"। (३) महाराष्ट्री।मराठी। ___ नार । रककांचन । वै० निघ० । मरेठी । के. दे. नि०। नि. शि.। कञ्चार-संज्ञा:पु० [सं० पु.] सूरज । सूर्य । कञ्चटपत्रक-संज्ञा पुं॰ [सं० को०] जल चौलाई को | काश्चक-संज्ञा पुं॰ [सं० श्री.] काजिक । काँजी। पत्ती । कञ्चटच्छद । रस० र० ग्रहणी कपाट रस। अ० टी० भ० । कञ्चट पल्लव-संज्ञा पुं० [सं० पु.] जलचौलाई। कश्चिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (१)वेणुशाखा । ... कञ्चट | सि० यो० ग्रह० चि० जम्ब्यादि। कनखो! कनई । बाँस को डाल । श० च०। कञ्चटादि-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] चक्रदत्त में एक पय्या-कुचिका, पृष् गु: (०) । (२) .. काढ़ा जिसका व्यवहार अतिसार में होता है। छोटा फोड़ा । क्षुद्र स्फोट । कंजियारा. नि.. इसमें पड़नेवाली जलचौलाई श्रादि ओषधियों की २०। (३)सोंचल नमक । पत्ती ग्रहण करनी चाहिये । जैसे, जलचौलाई की कच्ची-संा स्त्री॰ [सं० स्त्री.](१) काला जीरा । पत्ती, अनार की पत्ती, जामुन की पत्ती, सिंघाड़े (२) वंशाखा । बाँस को कनई । की पत्ती, सुगंधवाला, नागरमोथा और सोंठ। कञ्च, कञ्चक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] [स्त्री० की] इनको समभाग लेकर यथाविधि काढ़ा प्रस्तुत कर | (१) केचुन । सर्प को काँचली । सर्पस्वक् । हे. सेवन करने से गंगा के समान वेगवान् अतिसार च०। (२) ऊँट । (३) स्तर । (Coat) अ. का भी नाश होता है। च० द० अतिसार-चि०। शा०। () चोलक । जामा | चपकन । अचकन । नोट-इसमें उपयुक औषधियाँ २-२ तो. (५) एक औषध । मे० कत्रिकं । (६) वस्त्र ले आध सेर जल में पादावशेष जल रहने तक | मात्र । (७) चोली | अंगिया। सीने पर पहना पकाने का विधान है। जानेवाला कपड़ा। कञ्चटावलेह-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] एक अवलेहौ- संस्कृत पर्या-चोलः, कञ्चलिका, कुर्बासक, पध जिसका उपयोग ग्रहणी रोग में होता है। अङ्गिका। योग तथा निमोण-क्रम-कञ्चट और ताल- कनुकशाक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] एक प्रकार का मूली प्रत्येक १-१ सेर को १६ सेर जल में यहाँ शाक । एक प्रकार की सब्जी का पौधा । वैद्यक. तक पकायें, कि ४ सेर जल शेष रह जाय । फिर निघंटु में इसे वातकारक, ग्राही, सुधाजनक और इसे छानकर एक सेर चीनी मिला पुनः पाक करें।। कफपित्तनाशक लिखा है। जब पकते पकते चौथाई रह जाय, तब उसमें कञ्चका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (1) असगंध । वराहक्रान्ता, धातकोपुष्प, पाठा, बेलगिरी, पोपल, अश्वगंधा । (२) कञ्च कशाक । वै० निव० । भाँग की पत्ती, अतीस, जवाखार, सोंचल, रसांजन कञ्चकालु-संज्ञा पु० [सं० पु.] (१) सर्प । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि साँप । ( २ ) काल सर्प । श० च० । -संज्ञा पुं० [सं० पु० ] जौ । यव रा० नि० १६२५ व. १६ । कवी-संज्ञा ह्री० [ सं . स्त्री० ] चोली । अँगिया । (२) क्षीरीश वृक्ष । खीर खजूर । र० मा० । २० सा० सं । तीर कञ्चकी । रस० २० वि भल्लातके, महाभल्लातक गुड़े । ( ३ ) शरपुखा । सरफोंका | ( ४ ) कञ्च ुक शाक । ( ५ ) एक श्रधि । मे० । संज्ञा पु ं० [सं० पु ं० कञ्च ुकिन् ] ( १ ) छिलके वाला अन्न, जैसे—ौ, चना, धान इत्यादि । ( २ ) साँप । सर्प । रा० नि० व० १९ । ( ३ ) जोङ्गक वृक्ष | अगर | मे० नचतुष्कं । ( ४ ) उक्त नाम का एक प्रकार का घोड़ा । दोवान्वित घोड़ा । लक्षण - " स्कन्धे वक्षसि बाहोरच अंदेशे तथैव च । अन्यवर्णो भवेद्वाजी वक्चुकी सः प्रकीतितः । " I ज० द० ३ श्र० । जिस घोड़े का कंधा सीना और बाहु देश अन्य वर्ण का होता है उसे विद्वान् "कंचुकी" कहते हैं । (५) श्रता । यत्र । जौ । धान्य राज । धन्व नि० । [ मरा ] असगंध । अश्वगंधा । कबुलि -संज्ञा स्त्री सं. स्त्री० ] अंगरक्षिणी । काँचुली । हे० च० नाना० (२) चोली । - संज्ञा पुं० [सं० पुं० (१) सिर के बाल । केरा | मे० जद्विकं ( २ ) ब्रह्मा | संज्ञा पुं० [स०क० ] ( १ ) कमल । पद्म | (२) श्रमृत | वै० निघ । कञ्ज -संज्ञा पुं० [सं० पु० ] एक पक्षी । मैना । श० च० । मदनपछी । कञ्जन, कञ्जल-संज्ञा पु ं० [सं०पु० (१) मैना नाम की चिड़िया | कञ्जक । श० च० । (२) कन्दर्प | कामदेव | वन-बीर-संज्ञा पुं० 1. अमूल - संज्ञा पु ं० [सं० वी० ] कमलकन्द | भींड | कमल की जड़ वै० निघ० । बं० ] मृदु-निर्विषा । *ञ्जयोनि - संज्ञा स्त्री० [सं० पु० ] शालूक | भसौं । कमलकन्द | श० च० । कञ्जर - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] ( १ ) हाथी । गज । (२) शिर के बाल । केश । कट इलिपी संज्ञा स्त्री० [ सं स्त्री० ] ( १ ) धातकी । (२) पाटला | पादल । ( ३ ) उदर । पेट मे० रत्रिक० । कञ्जलता - संज्ञा स्त्री० [सं० बी० ] एक बेल । ( Asclepias Odoratissima) कञ्जलिका - संज्ञा स्त्री० [सं० खी० ] श्रंगरक्षिणी । काँचुली | चोली । हे०च० । कञ्जार-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] ( १ ) जठर । उद्दरानि । ( २ 1. गज । हाथी | मे० रत्रिकं । (३) सूर्य । (४) ब्रह्मा । (५) मोरपक्षी । मयूर । (६) व्यञ्जन । ( ७ ) अगस्त्यमुनि । कञ्जक - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] काँजी । काञ्जिक । श्र० टी० भ० । कञ्जका - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] भारंगी । भार्गी । ब्राह्मणयष्टिका । श० र० । कञ्जी -संज्ञा स्त्री० [सं० = करंजी ] ढिठोहरी । कञ्जु -[ मल० ] भँगरा | भृङ्गराज | कट-सं हा पुं० [सं० पु० ] ( १ ) हाथी का गण्ड स्थल । हाथी की कनपटी । (२) किलिअक । दरमा | चटाई । (३) गण्डस्थल । ( ४ ) खस, सरकंडा घिस | तृण घास फूस । ( ५ ) of प्रदेश | कमर । ( ६ ) शव । लाश (७) नरकट वा नर नाम की घास । नल। (८) समय । अवसर | वन । ( ९ ) श्रोरधि बिशेष | एक जड़ी बूटी । ( १० शर नामक था। ( ११ ) कटि के पार्श्व का स्थान । ( १२ ) तृण रज्जु । संज्ञा पुं० [सं० की ० ] ( १ ) अश्व की चालन के लिए रचित भूनि । घुड़दौड़का मैदान | ( २ ) पराग । फूल की धूत। इस अर्थ में यह शब्द समासांत में श्राता है । वि० [सं० त्रि० ] ( १ ) अतिशय । बहुत । ( २ ) उम्र | उत्कट | - [ ० ] कलङ्गीतक । सुरमैनिल | Indigofera argantea, Linn. कट-इलि. मवम् - [ ता० ] माकड़ लिम्बू । मतंगनार (म० ) । atalantia monophylla, Corr. कट लिपी - [ ता] महुआ । मधूक । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इल्लुपी कल्पी - [ro ] देश महुआ । कटएलु-मिच्छई - [ ता० ] जंगली जंभीरी । कटक-संज्ञा पु ं० [ स० पु ं०, क्ली० ] ( १ ) सामुद्र लवण | सामुद्रिक नमक । समुद्रनोन । संघव लत्रण | रत्ना० । ( २) हाथी के दांतों पर पीतल के चड़े हुए बंद वा साम । से० कत्रिक । ( ३ ) पर्वत का मध्य भाग | पहाड़ के बीच की जगह । इसका संस्कृत पर्याय - नितंत्र और मेखला है ( ४ ) नितंब | चूतड़ । (५) परिहार्य । ( ६ ) रज्जु | रस्सो । डोरी । 1 कटकाल - [ कना०] तिधारा सेहुँड़ । सेहुरण्ड | स्नुही । कटकटिका - संज्ञा स्त्री० [हिं० कटकट ] एक प्रकार की बुलबुल । शीतकाल में यह पर्वत से नीचे समतल भूमिपर उतर श्राती और वृक्ष वा भित्ति के खोखले में घोंसले बनाती है । कटकटेरी - संज्ञा स्त्री० [सं० [स्त्री० ] दारूहल्दी | कटकडलक्का - [ मल• ] ख़त्मी भेद | Country Mallow. १९२६ कटकमी - [ ० ] निर्मली । कतक । कटकम्बा - [ कना०] पिण्डार | करहाट । कटकरंज- संज्ञा स्त्री० [हिं० काठ+सं० करंज ] एक प्रकार का कंजा । सागरगोला । पूतिकरंज । कटकलेजा । दे० " करंज ( २ ) । कटकली - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] श्रल्पायुषी । | कुवाजी | कटकलेजा, कटकलेजी-संज्ञा पु ं०, स्त्री० [हिं० काठ + कलेजा ] कटकरंज । सागरगोला । पूतिकरंज । कटकामतो - [को०] चिनचिनी (मरा० ) । कटकारी-संज्ञा स्त्री० दे० " कंटकारी" । • कटकालिका -संज्ञा स्त्री० दे० " कंटकालिका" । कलिङ्ग - [ ते० ] मौ श्रालु ( बं० ) । मध्वालु । मनालू । कटकी - संज्ञा स्त्री० [ बं० हिं० ] कुटकी । कटकोमजङ्ग - [ संथाल० ] हुरचु (नेपा० ) । कोमल - [ ता०] वस्त्रा । मसंदरी (बं० ) । कटकोल - संज्ञा पु ं० [सं० पु ं० ] पीकदान । निष्ठीवन पात्र । थूकने का बरतन । कटखदिर- संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( १ ) कौश्रा | काक । ( २ ) सियार । गीदड़ | शृगाल | मे० | कटखादक-संज्ञा पु ं० [सं० पु ं० ] ( १ ) काचलवण । काचियानोन । ( २ ) काचकलस । शीशे का घड़ा । ( ३ ) का | बलिपुष्ट । ( ४ ) सियार । गीदड़ । जम्बुक | मे० कपञ्चक । वि० [सं० त्रि० ] ( १ ) भध्याभच्य का विचार न करनेवाला । सर्वभक्षी । (२) शवभक्षक । मुख कटगूलर, काटगूलर-संज्ञा पु ं० [हिं० काठ+गूलर ] कठूमर । काकोदुम्बरिका । जंगली अंजीर । Ficus His pida, Linn.) कटङ्कट - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] ( १ ) अग्नि । श्राग । (२) दारुहरिद्रा । दारहल्दी । भैष० मु० रो० बृहत् खदिरवटी । ( ३ ) स्वर्ण । सोना । 'कटङ्कटा -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] आच्छुक वृक्ष । श्राल का पेड़ | द्रव्याभिः । पर्याय - महाभद्रा, पीतभद्रा, पीतदारु, विदारिका । कटकटी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] दारुहलदी दारूहरिद्रा | वै० निघ० । कटङ्कटेरी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री · ] ( १ ) दारुहल्दी | दारुहरिद्रा । प० मु० । ( २ ) हल्दी । हरिद्रा । त्रिका० । कटजीरा - संज्ञा पु ं० [सं० कणजीरक ] काला जीरा । स्याह जीरा । कृष्णजीरक । कटचूर- [ द० ] कचूर | कटड़ा-संज्ञा पु ं० [सं० कटार ] भैंस का पँड़वा या नर बच्चा । कडू वाट्ट - [ मल० ] ग्वारपाठा | कटरी - [aro ] सोरन । संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( १ ) गज । हाथी । कटतेल्लु -[ ता० ] काला तिल । ० ० । ( २ ) पर्वत । संज्ञा स्त्री० [सं० [स्त्री० ] लाल मिर्च । कटकुम्बला - [ कना० ] पिण्डार | कटकेले - [ मदरास ] मध्वालु | मनालू | Diosco rea aculeata, Linn. कटन - संज्ञा पुं० [?] सफेद सेंभल । श्वेत शाल्मली । कटनास - संज्ञा पु ं० [देश० ] नीलकंठ | लीलागडांस । कटनीम - संज्ञा पु ं० [हिं० काठ + नीम ] सुरभिनिन् । कढ़ी नीम । मीठा नीम | Murraya Koenigii, Spreng. Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटनूस पाउडर १६२७ ..: कटभी कटनूस पाउडर-संज्ञा पुं० [अं• Kutnow,s पत्ते कुछ गोलाई लिए लम्बे होते हैं और ___powder ] एक चूर्णौषध विशेष । फल अंडखरबूजे के समान छोटे होते हैं । कटपञ्चक-संज्ञा पु० [सं० की ] घुड़दौड़ फूल सफेद किंचित् दुर्गन्ध युक्त होता है। इसमें के लिये इन पाँच प्रकार को भूमियों का समाहार । चार पंखड़ियाँ होती हैं। इसकी छाल हलके भूरे मरडलाकार, चतुरस्र, गोमूत्राकार, अर्द्धचन्द्राकार रंग की होती है। यह भारतवर्ष, लका, मलाया और नागपाशाकार | नकुल ने लिखा है प्रायद्वीप और श्याम में उत्पन्न होती है। "धनुरष्टादशे योज्यं वाजिनां मण्डलं क्रमात् । पर्याय-कटभी, नाभिका, शौण्डी, पाटली, संकोचयेज्जवं यावद्यावत्कटपञ्चकम् । तदूर्द्ध किणिही, मधुरेणुः, क्षुद्रशामा, कैडर्यः, श्यामला मण्डली याज्या गोमूत्रा तदनन्तरम् । ऋजु- (स्वादुपुष्प, कटम्भर, किणिही, भद्रेन्द्राणी) रा० घमसु वर्ती च गोमूत्रा सव्वे कम्मसु । युज्य- नि० व० ।-सं० । हरिमल, करभी, कटभी माना न दृश्यन्ते प्रायशो हि विचक्षण । -हि । ज.द. ७ अ०। श्वेत कटभी-सितकटभी, श्वेत किणिही, कटपाडरी-संज्ञा स्त्री० [ सं० काष्ठपाटला] एक गिरिकर्णिका, शिरीषपत्रा, कालिन्दी, शतपादी, प्रकार का पाटला । पाढर । पाढल । अधकपारी । विषनिका, महाश्वेता, महाशौण्डी, महाकटभी कटपून-[ कना० ] केल पूने । -सं० । रा०नि०व०६। कटपोरा-संज्ञा पुं० [१] एक प्रकार की पूरी। नोट-कृष्ण और श्वेत भेद से कटभी दो कटप्पा-[ मल.] जगली बादाम । | प्रकार की होती है। इनमें से श्वेत के महा और ह्रस्व कटप्रोथ-संज्ञा पु० [सं० पु.] चूतड़ । नितम्ब । ___ ये दो उपभेद और होते हैं। स्फिच । (२) कटि । कमर । श०. चिः । गुणधर्म कटफल-संज्ञा पु० दे० "कट फल"। कटभी भवेत्कटूष्णा गुल्मविषाध्मानशूलदोषघ्नी। कटफिट-सिरि० ] पारसीक यमानी। अजवायन | वातकफाजीर्णरुजाशमनी श्वेताच तत्रगुणयुक्ता ॥ खुरासानी। (रा०नि० व०६). कटबेर-संज्ञा पु. [हिं० काठ+बेर ] (१) सीता कटभी (कृष्ण)-चरपरी, गरम तथा गुल्म, बेर । (ककोर ) दे० ककोर । विष, प्राध्मान, शूल, वात, कफ और अजीर्णरोग. कटबेल-संज्ञा पु० [हिं० कठबेल ] कैथ । कपित्थ। को दूर करती है । श्वेत कटभी भी इसी के समान कटबेल की गोंद-संज्ञा स्त्री० [हिं०] कैथ की गोंद। गुणवालो है। कपित्थ निर्यास । कटभी तु प्रमेहार्थो नाडीव्रण विषकृमीन् । कटभङ्ग-संज्ञा पु० [सं० पु.] (१) हाथ से हन्त्युष्णा कफकुष्ठघ्नी कटूरूक्षा च कीर्तिता।। अनाज के काटने की क्रिया या भाव । लुनना । तत्फलं तुवरं ज्ञेयं विशेषात्कफशुक्रजित् । भा० हारा० । (२) सोंठ । शुटी । त्रिका। ___ कटभी–प्रमेह, बवासीर, नाडीव्रण ( नासूर), कटभि, कटमी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) विष, कृमि, कफ और कोढ़ को नष्ट करती है। कण्टक शिरीष । काँटा सिरस । रत्ना । (२) यह गरम, चरपरी और रूखी है। इसका फललता सिरस । लता शिरीष । वल्लीशिरीष । कसेला है और विशेषतः कफ तथा शुक्रनाशक है। ५० मु०। (३) लघु ज्योतिष्मती लता । छोटी कटभी कटुका चोष्णा तुवरातिक्तकामता। मालकँगनी । रा०नि० व० ३, २३ । वै० निघ० नाडीव्रणं रक्तरुज प्रमेहश्च विषंकृमीन।।। २ भ० उन्मा० चि० निशादिघृत । (४) मुसली । श्वेतकुष्ठं कफञ्चैव त्रिदोषञ्च ब्रणन्तथा। मुघली । रा०नि० व० २३ । (५)अपराजिता । शिरोरोगमजीर्णश्च नाशयेदिति कीर्तिता ॥ कोयल । अप० चि० स्मृति सागर रस । (६) फलश्चास्या धातुवृद्धिकरं कफवर्द्धकञ्च । अश्व क्षुरक । (.) गर्दभी। (८) एक प्रकार निर्यासोऽस्या गुरुवृष्यो वल्योवाविनाशनः ॥ का वृक्ष जो मझोले आकार का होता है । इसके कटभी ( महाश्वेत)-चरपरी, कसेली, कड़वी Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमी तेल • कटरिया I और गरम है तथा नाडीव्रण (नासूर ) रनविकार कटमोवा-गढ़वाल ] वकलवा । मोवा। प्रमेह, विष, कृमि, सफेद कोद, कफ, त्रिदोष, कटम्पम-[ द०, मदरास, ता. ] एक प्रकार का प्रसिद्ध व्रण, शिर के रोग और अजीणं-इनका नारा पौधा । (Sisgas •eckia orientalis, करती है। इसका फल धातुवर्द्धक एवं कफवर्धक Linn.) कटम्पू ( ता०)। होकिएन, कार काउ है और इसका निर्यास गुरु , वृष्य, वल्य तथा ___ (चीन)। लिकुरा । (गढ़)। वायुनाशक है। कटम्पू-[ता ] एक झाड़ी जो १ से ३ फुट ऊँची क्षुद्रा च कटभी चोष्णा कटुका कुष्ठहा मता । पार बहुत शाखदार होती है। इसकी पत्तियाँ कफहा रक्तदापनी मेदारोगहरः पग। सम्मुखवी, चौलाइ लिए त्रिकोणाकार वा अंडानाडीव्रणं विषं मेहं कृम चैव वि शिरत् । कार होती हैं। फूल पीले रंग के होते हैं। कटकटभ वत् फलैगुणा ज्ञेयाः............॥ म्पम, ही किएन, काउ-काउ (चीन)।(Sieg. (वै० निघ०) | esbeckia orientalis, Linn.) कटभी (हस्व)-चरपरी, गरम, कुठग- | कटम्बरा-सज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री ] कुटकी । कटम्भरा । नाशक, कफनाशक, रविकार को दूर करनेवाली, दे० 'कटम्भरा"। मेदरोगनाशक तथा नाडोव्रण ( नासूर ) विष, कटम्बल-[हिं०] पिरनी। प्रमेह और कृमि इनको नष्ट करती है। इसके कटम्बी- बम्ब० ] कोकम । फल गुण में कटभी की तरह होते हैं । पटम्भर-संश पु. [सं• पु.] (!) भरलु । कटभी तैल-संज्ञा पुं० [सं० क्री.] एक साधित सोनापाठा | श्योणाक वृक्ष । रा.नि. व.. तेलीपध। योग-कटभी, नीम(कायन सोनापाठा, ! (२) कटभी नामक वृक्ष । करमी।.निष। और मीठे सहिजन की छाल के काथ और गो (३) भद्रपर्णी । मूत्र से सिद्ध सैल मदन करने से अपस्मार कटम्भ(म्ब) रा, कटुम्भरा-संज्ञा स्त्री० [सं० सी०] (मिरगी) नष्ट होता है । यो० २० अपस्मार चि. (१)। कुटकी । कटुकी । मे• २० मा० । मा. पू० १ भ• गु० व.। (२) गंधर सारिणी। कटभीत्वक् सज्ञा स्त्री॰ [स. स्त्री.] कटभी वृक्ष की पसरन । (३) दन्ती का पौधा । (४) गोह । छाल | कटभी वल्कल । च० द० उन्मा० चिः। गोधा । (१) बधू । हारा०। (६) भरलु । कटम्ट-संज्ञा पुं॰ [?] एक बूटी को प्रायः बगीचों में होती है । उस रोगी को जिसे कै पाती हो, एक सोनापाठा | श्योणाक वृक्ष । भा० पू० १ भ.। अने। (७) हथिनी । करिणी । (८) कल. दो बार इसका स्वरस पिलाने से लाभ होता है; विका । (१) मूर्वा । चुरनहार । (१०) पुनकिंतु उसमें तीन काली मिर्च भी मिला लेवें। नवा । मे० रचतुष्क । (११)राजबला । अमः । इसके रस में सीसे को खरल करने से सीसा मर जाता है। मक्खन में देने से सूज़ाक शुक्रमेह, महाबला । सहदेई । रा. नि००४ । कटयालु- ता० ] माखुर (म०)। शुक्रतारख्य, शीघ्रपतन और हृदयौष पाराम होता है। (ख० अ०)। कटर-संज्ञा स्त्री० [सं० कट-नरकट वा घास फूस] कटल इम्बुल-[सिं०] सेमल । शाल्मली। एक प्रकार की घास जिसे पलवान भी कहते हैं। कटमा-[ ता०] पियार । अचार । पियाल । कटरना-संज्ञा पुं॰ [देश॰] एक प्रकार की मछली । कटमाअ-[ता०] अम्बाड़ा। कट ली, कटराली-[ ता०] एक प्रकार का सुहावना कटमानक-[ मल] जंगली रें। पेड़, जो भारतवर्षके समुद्रतटों,सुन्दरबन और लंका कटमालिनी-संज्ञा स्त्री० [सं० सी०] मदिरा । शराब। आदि स्थानों में होता है। पाडलम् (मल०)। दबूर, धकुर-(बं०)। फा.इं०२ भ०। कट( काट) मोरगं-[ ता०] अडवी मूनग (ते.)। कटरा-संज्ञा पुं॰ [१] ड़वा । भैंस का नर बच्चा । (Ormocarpum sennoides D.C.) कटरिया-संज्ञा पुं॰ [ देश०] एक प्रकार का धान, फा०.इं. १ भ.। जो अासाम में बहुतायत से होता है। श. च.। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटरी १९२६ फटसरैया । कटरी-संज्ञा स्त्री॰ [देश॰] धान की फसल का एक | लता । नाटा (बं०)। हारा० । (२) औषधि रोग। बिशेष । संज्ञा स्त्री० [ बम्ब०] निर्गुण्डी। सम्हालू । कटसरैया-संज्ञा स्त्री० [सं० कटसारिका ] अडूसे म्योड़ी। की तरह का एक काँटेदार पौधा जि.समें पीले, संज्ञा स्त्री० [सं० कट-नरकट ] किसी नदी के लाल, नीले और सफ़ेद कई रंग के फूल लगते किनारे की नीची और दलदल भूमि । हैं। कटसरैया कातिक में फूलती है। कटरे-इरिकि-[सिंगा०] तालमखाना । कोकिलाक्ष । ___ कटसरैया के सामान्य पर्या-कटसारिका, कटरैन-[पं०] गिदड़ द्राक । द्राङ्गी । झिण्टी, झिण्टिका, झिण्टिरीटिका, अल्मानः,कण्ट कटल-[अासाम ] शरीफा । सोताफल । कुरुण्टः कण्टकुरण्टः,सहचरः, सहाचरः, सौरीयकः, कटल टैङ्गा-[ मल० ] दरियाई नारियल । सैरेयकः, सैरेयः, कुरुण्टिका, कुरुण्टी, महासहाकटलता-बं०] दुपहरिया । बंधूक पुष्प । सं० । कटसरैया, कटसरैया, पियावासा, पियाकटलतीगे-[ते. ] पाताल गरुड़ी। छिरेटा । जल बाँसा, झिण्टी-हिं०। झांटी गाछ, कुलझांटी, जमनी झिटि-बं० । करोण्ट, कोरण्ट, श्राबोलि-मरा० । कटलाकटु तोगरी-[का०] अरहर । काँटा असेलीयो-J० । गोटे-कना० । पैटी कटलाटी (ती)-[ मल.] अपामार्ग । चिर्चिटा। ( पीत तुष्पीय)-कों। गोरेण्डु-तै० । गिरिलटजीरा । चिचिढ़ी। तिल्द-सिं०। Barleria कटला वणक्कु-[ मल०] जङ्गली जमालगोटा ।। नोट-उपयुक्त संज्ञाओं में फूल के वर्णका कटलेती-[ ते० ] जमती । छिरहटा । पाताल गरुड़। वाचक शब्द जोड़ देने से तत् तत्पुष्पीय झिण्टी . फरीद बूटी। . वा कटसरैये का बोध होता है। अलग अलग रंग कटले तीगे-[ते.] जमती । छिरहटा । फरीद बूटी। के फूलों के भेद से कटसरैया विविध प्रकार की कटल्ली-कल्ली-कई-[ता०] अज्ञात । होती है। कटव जाटे-[ ता. ] लक्ष्मणा । धन्वन्तरीय निघण्टु में लिखा है, "सैरेयकः कटवा-संज्ञा पुं० [हिं० कांटा ] एक प्रकार की छोटी सहचरः सैरेयश्च सहाचरः । पोतो रक्कोऽथ नीलश्च मछली जिसके गलफड़ों के पास कांटे होते हैं। कुसुमैस्तं विभावयेत् । पोतः कुररटको शेयो रक्तः [अफगा०] काकादनी । कबर (१०)। कुरबकः स्मृतः।" उक्त वर्णन से यह ज्ञात नहीं (Gapparis Spinosa, Linn.) होता कि 'सैरेयक' शब्द से किस रंग की फूल कटविश-[बं०] बच्छनाग । वत्सनाभ । वाली कटसरैया अभिप्रेत है और नीले रंग की कटवेल-म० ] विशाला । विषलम्भी। महा इन्द्रा- फूल वाली कटसरये की विशेष संज्ञा क्या है। यण । बड़ा इनारून । __ भावमिश्र कहते हैं, "सैरेयकः श्वेतपुष्पः', (Cucumis Trigonus, Roxb.) नरहरि लिखते हैं-"नीलपुष्पा तु सा दासी", कटव्यञ्जनी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० 1 कुटकी । सुतरां धन्वन्तरि के मतसे झिएटिका (कटसरैया) नि० शि०। चार प्रकार की हुई, श्वेतपुष्प,पीतपुष्प, रक्तपुष्प, कटवॉसी-संज्ञा पु० [हिं० काठ + वाँस, वा कोट + नीलपुष्प । इनका नाम यथाक्रम सैरेयक, कुरण्टक, बाँस] एक प्रकार का बाँस जो प्रायः ठोस और कुरबक एवं दासी । नरहरि के मत से पुष्पवर्ण कँटीला होता है । और जिसकी गाँठे बहुत समीप भेद से झिण्टिका छः प्रकार की होती है । यथासमीप होती हैं, यह सीधा नहीं बढ़ता और घना रकपुष्प, रक्ताल्मानपुष्प, पीतपुष्प, पीताल्मानपुष्प, जमता है । इसे ग्राम के चारों तरफ लगा देते हैं । नीलपुष्प, नीलाल्मानपुष्प, इनका नाम क्रमशः यहपीला नहीं होता। रक्तसहाख्य, कुरबक, किङ्किरात,कुरण्टक,दासी और कट शर्करा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (1) गाङ्गेष्ठी | छादन है। नरहरि ने श्वेतपुप्पीय झिण्टिका का २५ फा. Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटसरैया १९३० कटसरैया उल्लेख नहीं किया है। नरहरि ने फूल के मलिन जंगल एवं धीरान स्थानों में यत्रतत्र देखने में एवं उज्ज्वल रंगके विचारसे झिण्टिका का नामभेद पाते हैं। इसका पौधा प्रायः दो हाथ से अधिक स्वीकार किया है । ख्यातनामा अर्वाचीन उद्भिद् ऊँचा (२-३ फुट वा अधिकाधिक ४ फुट) वेत्ता राक्सवर्ग ने भी नील एवं उज्ज्वल नील नहीं होता । कांड वा तना ठिंगना, गोल, कठिन, पुष्प भेद से दो प्रकार की झिण्टी का प्रथक झाडदार (Herbaceous) और सीधा होता उल्लेख किया है । उनके मत से नीले फूल वाली है । यह बहुशाखी होती है । शाखाएँ जड़ से का नाम बारलेरिया सोरुलिया Balleria निकलती हैं और सम्मुखवर्ती, गोल, मसूण, और Caerulea एवं उज्ज्वल नीले फूलवाली सोधी होती हैं । पत्ती प्रारम्भ में छोटी लम्बी एवं का नाम बा० क्रिष्टेटा B.Cristata है । मैंने नोकदार होती है । ज्यों ज्यों पौधा बढ़ता जाता उक्त दोनों की संस्कृत संज्ञा 'दासी' लिखी है। है । इसकी पत्ती भी लंबाई चौड़ाई में बढ़ती किन्तु नरहरि के मत से बा० सीरुलिया B. जाती है । अंततः यह जामुन की पत्ती इतनी बड़ी Caerulea च्छादन और बा० क्रिष्टेटा B. हो जाती है। पत्तियाँ सम्मुखवर्ती, भालाण्डाकार Cristata दासी है। नीले फूल वाली की लंबी, सरु किंचित्,कर्कश,अन्योन्य लंधित ( Deभाँति मलिन उज्ज्व पुष्पभेद से लाल आदि cussate) पत्रवृत हस्व, पत्रप्रांत किंचित् फूल वाली कटसरैया भी अधुना देखने में आती तरङ्गायित,सर्वथा अखंडित (Entire), नुकीली है वा नहीं, राक्सवर्ग ने इसका स्पष्ट उल्लेख (Mucronate), और मसृण होती हैं । पत्ती नहीं किया है । कुरण्टक शब्द पीत झिण्टिका और शाखा के वीच पत्रवृत के सन्निकट एक ही बोधक होते हुए भी, निघन्टु एवं चिकित्सा ग्रंथ केन्द्र पर शाखा की प्रत्येक ग्रन्थि पर चार नोक विशेष में नील रनादि झिएटिका के अर्थ में भी वाले सरल, क्षीण तीचणाम कण्टक होते हैं । पुष्प उन शब्द का व्यवहार हुआ है। किसी किसी धृन्तशून्य (Sessile) पत्रवृन्तसन्निधान-स्थित यूनानी ग्रंथ में लिखा है कि यह बादावर्द का (Axillary), प्रायः एकातिक (Solitनाम है, जो अत्यंत भ्रमकारक है । बादावर्द इससे ary ) बड़े, सुीमायल, पीले रंग के होते हैं । सर्वथा भिन्न श्रोषधि है। खजाइनुल् अदविया में पुष्पकाल-प्रायः सर्व ऋतु । फल (Capsule) अडूसा के अंतर्गत जो यह लिखा है कि पीले फूल असे की तरह यवाकृति के; गावदुमी होते हैं । के अडूसा को पियाबाँस कहते हैं, यह भी प्रमाद प्रत्येक फल में दो-दो बीज अलग-अलग कोषों में पूर्ण एवं हास्यास्पद है । क्योंकि इसी ग्रंथ में तथा होते हैं। जड़ काष्ठीय (Woody) एवं बहुअन्य महजन वालीफ शरीफी श्रादि पारव्य एवं वर्षीय होती है, जिसमें असंख्य पाश्विक उपमूल पारस्यभाषाके ग्रंथों में पियाबाँसको पीली कटसरैया होते हैं। लिखा है। उनके वर्णन पढ़ने से भी यही बात पर्याय-कुरण्टकः (ध०नि०), किङ्किरातः, निष्पन्न होती है । अस्तु,पियाबाँसा कटसरैया ही है पीताम्लानः, कुरण्टकः, कनकः. पीतकुरवः.सपीत:. और यद्यपि यह तथा अडूसा वा बाँसा एक ही वर्ग पीतकुसुमः, कुण्टः ( कण्टः); कुरण्टः (कुरटः), की वनस्पति हैं, तथापि ये एक दूसरे से सर्वथा झिण्टी; वन्या, सहचरी, पीता (रा०नि०), भिन्न हैं। आगे इनमें से प्रत्येक के विस्तृत परिचय, कुरण्टक, किङ्किरातः, हेमगौरः, पीतकः, पीतभद्रका पर्याय एवं गुण-प्रयोग आदि पृथक् पृथक् दिये (भा०),पीतझिटी,पीताम्लानः,आम्लानिकः,माम्लाजाते हैं। 'दानः, कुरुण्टः,कुरुण्टकः,सहचरः,सहचरा,कुरुएटका, विशेष प्रकार की कटसरैये के पीतकुरवकः-सं० । पीलीकटसरैया, पीला पियावर्णन-पर्यायादि बाँसा, कटसरैया, झिंटी-हिं० । लाल फूल के १-पीले फूल की कटसरैया-अडूसे की | कोलसे-द० । पीतपुष्प झाँटी गाछ, पीतझाँटी, तरह की एक तुप जाति की वनस्पति, जिसके क्षुप काँटाझाँटी-बं०। वार्लेरिया प्रायोनायटीज़ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटसरैया १६३१ कटसरैया Barleria Prionitis, Linn-ato il येलो वारलेरिया Yellow Barilerta,थॉर्नी | बार्लेरिया Tharny Barleria-अं•। शेम्मूलि एलखेय, वरमुल्लि-ता० । मूलगोविदं, मूलि (मूल.) गोरंटा, कोंड़ गौगु-ते. । होवणद गोरटे, गोरटी; मुल्लु गोरंट, गोरतीगे-कना। पीवला गोरटा (कोरांट, कोरंटा, कोरेटा )-मरा० । कालसुद, कोरहंटी,वज्रदंती-बम्ब० । काँट शेलियो काँटा सेरियो-गु० । वज्रदंत-कछ ।गोरटी-को । शेमुल्लि, कोलेट-वित्तला-मल० । वासक-अरंटोदउड़ि । कटुकरंदु-सिं० । लंडूल-जावा । वाणपुष्प गौड़। कटसारिका वा आटरूष वर्ग (N. O. Acanthacee ) उत्पत्ति स्थान-उष्णकटिबंधस्थित समग्र भारतवर्ष हिमालय से लंका पर्यन्त । बंबई, मदरास, लंका, आसाम, सिलहट आदि स्थानों में इसके तुप बहुतायत से पाये जाते हैं। रासायनिक संघट्टन-इसमें बड़ी मात्रा में लघु पेट्रोलियम् ईथर में बिलेय एक उदासीन एवं अम्लराम पाया जाता है। कोई क्षारीय सार नहीं पाया गया। औषधार्थ व्यवहार-समग्र-तुप, विशेषतः पत्र एवं मूल । औषध-निर्माण-कल्क, पत्र-काथ,चूर्ण और औषधीय तैलादि। __ गुणधर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसारकुरण्टको हिमस्तिक्त: शोफतृष्णाविदाहनुत् । केश्यो वृष्योऽथ वल्यश्च त्रिदोष शमनो मतः।। (ध०नि०) कटसरैया-शीतल, कडु ई,वीर्य वर्द्धक, वलवर्द्धक, त्रिदोष नाशक और केशों के लिये हितकारी होती है तथा यह सूजन, प्यास और विदाह को दूर करती है। किङ्किरात: कषायोष्णस्तिक्तश्च कफवातजित् । दीपनः शोफकण्डूतिरक्त त्वग्दोषनाशनः । (रा०नि०) पीली कटसरैया-कसेली, कहुई, गरम, दीपन और कफ वात नाशक है तथा यह सूजन, खुजली, | रक्त विकार एवं त्वचा के रोगों को नाश करती है। किङ्किरातो हिमस्तिक्तः कषायश्च हरेदसौ । कफपित्त पिपासास्र दाह शोष वमि कृमोन् । (भा० पू० १ भ०) पीली कटसरैया-ठंढी, कषैली, कडुई है और यह कफ, पित्त, प्यास, रनदोष, दाह, शोष, वमन और कृमि रोग को दूर करती है। 'पीतः कुरण्टक'श्चोष्णस्तिक्त श्चतुवरः स्मृतः। अग्निदीप्तिकरो वातकफ कण्डूहरः स्मृतः । शोथं रक्तविकारश्च त्वग्दोषश्चैव नाशयेत् ॥ (निघण्टु रत्नाकर) पीले फूल की कटसरैया-गरम, कड़वी, कषेली अग्निदीपक तथा वात, कफ, कण्डू, सूजन, रकविकार और त्वचा के दोषों को दूर करती है । वैद्यकीय व्यवहार चक्रदत्त-कटसरैया के पत्तों को उबालकर उससे कुल्ले करने से हिलते दाँत मजबूत हो जाते हैं। आर्य औषधि-इसके पत्तों की राख के घी में मिलाकर लगाने से सड़े हुये क्षत और नहीं पकने वाले फोड़े अच्छे हो जाते हैं। रस रत्नाकर-संध्याकाल में पीली कटसरैया का काढ़ा करके सारी रात पड़ा रहने देकर दूसरे दिन पिलाने से अथवा पीली कटसरैयाकी जड़ को चाबकर उसका रस पान करने से सूतिका रोग के सब प्रकार के उपद्रब शांत होते हैं। इस काढ़े में यदि थोड़ा सा पीपर का चूर्ण भी मिला दिया जाय तो, विशेष लाभदायक हो जाता है । यूनानी मतानुसार गुण दोषप्रकृति-द्वितीय कक्षा में उष्ण और रूक्ष (मतांतर से सर्द एवं तर म० मु० वा गर्मतर) है । फूल में अधिक उष्णता होती है । स्वादतिक्त और तीक्ष्ण। हानिकत्तो-शीतल प्रकृति को । दर्पघ्न-काली मिर्च एवं मधु । प्रतिनिधि-किसी किसी स्थल पर गदह पूरना। प्रधान कर्म-मूत्र प्रवर्तक एवं प्राचैव प्रवतक। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करैया १९३२ मात्रा - ४ माशे । गुण, कर्म, प्रयोग - स्वाद में यह कड़ ुई एवं गरम होती है । यह अपने प्रभाव से केश्य वा केशों को पुष्ट करती और उन्हें काला करती है । तथा यह विष, चोट, स्वगूराग ( सुखवादा ) एवं कोढ़ को दूर करती है । ( ता० श० ) यह ज्वर एवं श्वास के रोग को नष्ट करती है । शहद के साथ खाने से यह नासिका एवं मुख से रक्क थाने को रोकती है । यह मूत्र एवं श्रार्त्तव का प्रवर्तन करता, कफ का छेदन करता; कोढ़ रोग का नाश करता और वेदना को शांत करता, तथा क्षुधा उत्पन्न करता है । इसके पीने से खुजली दूर होती है। इसके काढ़े का गण्डूष धारण करने से दंतशूल मिटता है । इसकी जड़ कास रोग में काम श्राती है । (बु० मु० म० मु० ) यह बालों को बढ़ाती, और उन्हें स्याह करती है । यदि पारा खाने से मुंह श्री जावे, तो इसकी जड़ और पत्ते सुमा के साथ कथित कर कुल्ली करने से उपकार होता है । यह स्वग्राग ( सुखबादा) को लाभकारी एवं विषों की नाशक है । यदि पत्र मूल सहित इसके तुप को छांह में सुखाकर पीस छानकर रख लें और उस चूर्ण में से प्रतिदिन प्रातः को एक मुट्ठी भर फाँक लिया करें, तो श्वास रोग एवं कफज कास श्राराम हो । साढ़े दस माशे इसकी जड़ पानीमें पीसकर यदि स्त्री दुग्ध ' के साथ सेवन करे, तो गर्भवती होजाय - यह गर्भधारक योग है । इसका लघु चुप जलाकर पानी में सानकर चना प्रमाण की वटिकायें बनाकर रखले । रात को गुलखेरू के पानी में भिगो दें और प्रातःकाल मल छानकर उसका लबाब निकालें 1 इस लबाब के साथ १-२ गोली सेवन करने से पुराना से पुराना सूजाक जाता रहता है। इसके फूल शीघ्रपाकी है तथा वायु एवं कफ को नष्ट करते, सुधा को वृद्धि करते और पित्त उत्पन्न करते हैं, ग्रन्थकार के मत से इसका स्वाद तोच्ण, स्निग्ध एवं मधुर होता हैं । इसकी पत्तियाँ मलने से हाथ काला होजाता है । यह श्यामता निरंतर २-३ दिन तक रहती है । बाँसें (श्रड़ से ) की अपेक्षा इसमें अधिक उष्णता होती है । ( ० अ० ) कटसरैया इसका काढ़ा वा चूर्ण कफज कास एवं तर श्वासकृच्छ्रता को उपकारी है और यह श्रार्त्तव प्रवर्त्तक; श्लेष्मा को छेदन करने वाला एवं सुधा जनक है । इसके काढ़े का गण्डूष करने से दंतशूल मिटता है। इसकी जड़ वा छाल का मुनक्का के साथ गोली बनाकर मुंह में रखने से तर खांसी श्राराम होती ( म० इ० ) 1 नव्यमत । यह खोरी - भिण्टी ईपत्ति एवं काय है। बालकों के कफ ज्वर एवं श्रगम्भीर शोथ ( Au asarca ) में सेवनीय है। इसकी पत्ती का स्वरस हाथ पैर पर मर्दन करने से हस्त-पदतल के फटने की अर्थात् पाददारी की शंका दूर हो जाती है । सामान्य कारण से अथवा जब मसूढ़े फूलकर पिलपिले हो गये हों । ( Spongy - gums) और उनसे रक स्राव होता हो, तब सैंधव लवण मिश्रित झिष्टी पत्र स्वरसं का कवल धारण करावें | स्फोटक एवं ग्रन्थि-शोध पर इसकी जड़ का प्रलेप करने से वे विलीन होते हैं, झिटी के कल्क में पकाया हुआ तेल कदक्षत में हितकारी है । आर० एन० खोरी, द्वि० खंड, पृ० ४६६ ऐन्सली - कहते हैं कि शिशुओं के कफोल्वण ज्वर में इसकी पत्ती का स्वरस जो ईषत् तिक एवं अम्ल होता है, दक्षिण भारत के हिंदुओं की सर्व प्रिय औषधि है । वे प्रायः इसमें किंचित् मधु या शर्करा तथा जल मिश्रित कर दो ( Tablespoonfuls ) की मात्रा दैनिक दिन में दोबार सेवन करते हैं । मैटीरिया इंडिका, भ० २, पृ० ३७६ । डीमक - देशी लोग वर्षा ऋतु में हाथ-पैर पर इसकी पत्तियों का स्वरस मर्दन करते हैं, जिसमें वे कड़े पड़ जायँ, जिससे ( हस्त-पदतल ) तलवों व हथेलियों के फटने व फूलनेकी श्राशंका मिट जाय । कोंकण में इसको सूखी छाल कूकर खाँसी ( Whooping cough) में दी और इसकी ताजी छाल का स्वरस २ तोले की मात्रा में श्रगम्भीर शोथ ( Anasarca ) में दिया जाता है। डाक्टर बिडो ( Dr. Bidie ) के अनुसार Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटसरैया १६३३ कटसरैया कटसरैया धर्मकारक एवं कफनिःसारक है ।फा० इं०३ भ०, पृ. ४४।। डाक्टर थाम्पसन-यह शिश्वतिसार एवं कफ ' (Cough ) में उपकारी है। डा. सध्यवर्ट-फिरंग जनित विकारों में परि. वर्तकरूप से इसका व्यवहार होता है। ___ सखाराम अर्जुन-मसूढ़ों की पुष्टि के लिये एवं कृमि भक्षित (Caries) दंतशूल निवारणार्थ इसकी कषेती पत्तियों और साधारण लवण का दंतमंजन बनाते हैं। नादकी-इसकी पिसी हुई पत्ती वा पत्रस्वरस अकरकरे के साथ वा अकेला शूलयुक्त दंतकोटर में स्थापित किया जाता है। इ० मे० मे० पृ० १०४। जंगलनी जड़ी बूटी नामक गुजराती ग्रंथ के रचयिता के अनुसार पीली कटसरैया के पत्ते और अकरकरा को सम्मिलित पीसकर डाढ़ के नीचे रखने से डाढ़ का दर्द तत्काल दूर हो जाता है। इसी प्रकार से दाँतों से खून गिरना भी इससे बंद हो जाता है। चोपरा के अनुसार जुकाम, खाँसो और सर्वांगीण शोथ में यह गुणकारी है। (२) लाल फूल की कटसरैया-पीतझिण्टीवत् भेद केवल यह है कि इसका फूल लाल होता है। यह सर्वत्र सुलभ नहीं है। पाय-रक्राम्लानः, रक्सहाख्यः ( रकसहा, रकसहः) अपरिम्लानः, रक्कामलान्तकः, रकप्रसवः, कुरुबकः, रामालिंगनकामः, (-कामुकः ), रागप्रसवः, मधूत्सवः, प्रसवः, सुभगः, भसलानन्दः, (भ्रमरानन्द ) शोणो, कुरबकनाम्नी, कण्टकिनी, शोणझिण्टिका, (रा० नि.), कुरबकः, (ध०नि०), कुरवकः, पाठांतर से कुरुबकः (भा०), रक्काम्लानकः, रनकुरुण्टकः, (वै० निघ० ), शोण झिण्टी (अम०), रकाम्लानपुष्पवृत, रक्क पुष्पझिण्टी तुप, कुरवः, कुावकः (श०२०), कण्ट कुरएटः (वै० निघ०), रक्तपुष्प, रनझिएटी, रकझिण्टिका,-सं० । लाल कटसरैया, कटसरैया -हिं० । लाल झाँटी, रकपुष्पझाँटीगाछ, रक्तझाँटी, लालझाँटी-फुलेरगाछ-वं० । वाण झाड़-मरा० । वणदगिडु-कना० । बालेरिया सिलिएटा BarTeria ciliata, Roxb.-otol कटसारिका वा आटरूष वर्ग (N. 0. Acanthaceae. ) ___गुण-धर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसारउष्णः कटुःकुरबको वातामयशोफनाशनोज्वरनुत् आध्मानशूल कासश्वासाति प्रशमनो वयः ।। . (रा. नि० व०१०) लाल कटसरैया-गरम, चरपरी और रंग को निखारनेवाली ( वर्ण्य ) है तथा वायु के रोग, सूजन, ज्वर, श्राध्मान, शूल रोग, कास और श्वास इनको उपशमित करती है। 'रक्त:कुरण्टक' स्तिक्तोवण्यश्चोष्णः कटुः स्मृतः शोथं ज्वरं वातरोगं कर्फ रक्तरुजन्तथा। पित्तमाध्मानकं शूलं श्वासं कासञ्चनाशयेत् । (निघण्टुरत्नाकरः) लाल फूल को कटसरैया-कड़वी, वर्ण को उज्ज्वल करनेवाली, गरम, चरपरी, तथा सूजन, ज्वर, वातरोग, कफ, रविकार, पित्त, प्राध्मान, शूल, श्वास और खाँसो को दूर करनेवाली है। ३-सफेद फूल की कटसरैयापर्या-सेरेयकः, सैरेयः, सहचरः, सहाचरः, (ध० नि०) झिण्टिका, कण्टकुरुएटः, सैरेयकः, (रा०नि०) सैरेयकः, सरेयः, श्वेतपुष्पः, कटसारिका, सहचरः, सहाचरः, भिंदी, (भा०), सोरीयकः, सैरीयः, सैरीयकः, (अम० ) श्वेतकुरुण्टकः, (वे० निघ०) सौरेयः, सौरेयकः, कण्टसारका, सचरः, सैर्यः, सैर्यकः, सहा (स ). श्वेत झिण्टी, शुक्रझिण्टी, झिण्टी, झिण्टिरीटिका, महासहः, मृदुकण्टबाण, उद्यानपाकी झिण्टिका, सं० । सफेद कटसरैया, कटसरेया, हिं० । झांटी गाछ, कुलझाँटी श्वेतझांटी, सादाझांटी, -बं० । झिंटी-अासाम । बालेरिया डाइकोटोमा Barleria Dicho toma, Roxb. -ले० । तरेलु, चं० (बाँसा स्याह-बाजा० ) गोर्प जिब, काला वाँस -उ. प. Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटसरैया १६३४ कटसरया सू· । कोइल्का- उदि० । काला बाँसा -30 "अथवासैर्यकान्मूलं सक्षौद्रं तण्डुलाम्बुना"। प० सू० । (उ०३८ प्र०) __ आटरूषवर्ग नादकर्णी-शुक्रप्रमेह में इसकी पत्ती के रस में N. O. Acan thaceae. जीरा मिलाकर देते हैं। हाथ-पैर का (Carac. गुणधर्म तथा प्रयोग king & laceration ) रोकने के लिये आयुर्वेदीय मतानुसार वर्षा ऋतु में हाथ-पैर पर इसको पत्ती का रस लगाया जाता है । दांतों से खून प्राने पर इसके रस झिण्टिकाः कटुकास्तिक्ता दन्तामयशान्ति में शहद मिलाकर देते हैं । कर्णप्रदाह ( Olitis) दाश्च शूलधन्यः । वातकफ शोफकास वग्दोष में यह रस कान में भी डाला जाता है।विनाश कारिण्यः॥ इं० ० मे० पृ० १०३-४ । (रा०नि० १० व०) (४) नोले फूल की कटसरैया-इसका तुप सफेद कटसरैया-चरपरी, कड़वी और वात श्वेत झिण्टी की अपेक्षा किंचित् उच्चतर होता है। कफ नाशक है तथा यह दन्तरोग, शूलरोग एवं शाखा-बहु, सरल, कर्कश, गोल, ग्रंथियुक और सूजन कास और चर्म रोग को नष्ट करती है। ग्रन्थिका उपरि भाग किंचित् स्फीत । पुष्पदण्ड, सैरेयक: कुष्ठधातास कफकण्डूविषापहः । पत्रवृन्त सन्निधान से एवं शाखाग्र से वक्रभाव में वहिगत होता है । वक्र पुष्पदण्ड के उपरि भाग तिक्तोष्णो मधुरो दन्त्यः सुस्निग्धः केशरञ्जनः ।। पर अर्थात् कुण्ड के पृष्ठ पर पुष्प सनिवेषित होता (भा०) है। पुष के लिये ही इसे बगीचों में लगाते हैं। सफेद कटसरैया तिक, उष्ण, मधुर, दाँतों को पुष्पकाल-शीतऋतु, पुष नीलाम्लान । उज्ज्वलहितकारी, सुस्निग्ध और केशरञ्जक-बालों को नील पुष्पीय मिण्टी का फूल पत्र-कक्ष में लगता रंगने वाली है तथा यह कोढ़, वात, (बादी), है, पुष्प का कुण्ड कण्टकित और पत्र रोमान्वित रुधिर के दोष, कफ, खुजली और विष इनको नष्ट होता है। करती है। पर्याय-नीलपुष्पा, दासो, नीलाम्लानः, 'श्वेतकुरण्टक' स्तिक्तः केश्यःस्निग्धोलघुस्मृतः । च्छादनः, वला, प्रार्तगला, नीलपुष्पा, नीलझिण्टी कंटुश्चोष्णो दन्तहितो बलीपलित नाशनः ।। नील कुरण्टः, (कुरुएटकः) नीलकुसुमा, बाणः, कुष्ठवात रक्तदोषं कर्फ कण्डू विषन्तथा। बाणा, कण्टार्तगला (रा०नि०) प्रार्तगतः, नाशयेहारुणश्चैव ऋषिभिः परिकीतितम् ॥ दासी, (भा०) बाणपुष्पः,सहचरः,सहचरा,सहचरी, (निघण्टु रत्नाकरः) नोलपुष्पः,सैरीयः, सैरीयकः(प० भु०) कण्टाईलता कण्टार्गलः, बाणी, नीलपुष्पी, शैरीयकः, शैरेयक, सफेद फूल की कटसरैया-कड़वी, केशों को सैरेय-सं० । काली कटसरैया, काला (पिया) हितकारी, स्निग्ध, मधुर, चरपरी, गरम, दांतों को वाँसा, कटसरैया-हिं० । नील माँटी-बं० । कालाहितजनक, तथा वली (देह पर झुर्रियां पड़ना) कोण्टा-मराका करियगोटे-कनाबालेरिया पलित (असमय में बाल पकना) कोढ़, वात, सोरुलिया Barleria Caerulea(नीलपुष्प, रक्रविकार, कफ, कण्डू, विष और घोर वेदना को च्छादन) वार्लेरिया क्रिष्टेटा Barleria Criहरनेवाली है। stata, (उज्ज्वल नीलपुष्प वा दासी)बालेरियावैद्यक में सफेद कटसरैया के व्यवहार ष्ट्रिगोसा Barleria Strigosa, Willd वाग्भट-चूहे के विष में सैरेयक मूल-चूहा | ले । तदरेलु (बाजारू नाम-वाँसा सियाह) काटने पर सफेद कटसरैये की जड़ पीसकर मधु पं० ।गोर्प-जीभ, काला बाँस (बाण)उ०५० सू०। और तण्डुलधावन मिलाकर पियें । यथा- कोइल्का-इदि। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटसरैया १९३५ आरूष वर्ग ( N. O. Acan thaceae ) उत्पत्ति स्थान — उपोष्णकटिबंधस्थित भारत, उत्तर पश्चिम हिमालय, सिकिम, खसिया, मध्य भारत, नीलगिरि तथा भारतीय उद्यान । गुणधर्म तथा प्रयोग श्रायुर्वेदीय मतानुसारश्रर्तगला कटुस्तिक्ता कफमारुतशूलनुत । कण्डूकुष्ठ व्रणान्हन्ति शोफ त्वग्दोष नाशनी ॥ ( रा० नि० १० व० ) नीली कटसरैया - कड़वी एवं चरपरी है तथा कफ, वात, शूल, कण्डू ( खाज ), कोद, व्रण और स्वगू दोष को नष्ट करती और सूजन उतारती है। 'नीलः कुरण्टक' स्तिक्तः कटुर्वातकफापहः । शोथकण्डू शूल कुष्ठ व्रत्वग्दोषनाशनः ॥ ( निघण्टु रत्नाकर: ) नीले फूल की कटसरैया -- कड़वा, चरपरी तथा वात, कफ, सूजन, खुजली ( कण्डू ), शूल, कोद, मण और स्वचा के विकारों को दूर करती है, । नीलटी तु कटुका तिक्ता त्वग्दोषनाशिनी । दन्तरोगं कफं शूलं वातं शोथं च नाशयेत् ॥ काले फूल की कटसरैया — चरपरी, कड़वी तथा त्वग्दोष, दन्तरोग, कफ, शूल, वात और सूजन को दूर करनेवाली है । काली कटसरैया के वैद्यकीय व्यवहार वाग्भट - वातज क्षयरोग में श्रार्त्तगल-नीलमिंटी के क्वाथ और कल्क द्वारा सिद्ध किया हुआ - घृत क्षयजित् और स्वरवर्द्धक है । यथा"साधितं (घृतं ) कासजित् स्वय्यं सिद्धमार्तगलेन वा" ( चि० ५ ० ) चक्रदत्त - ( १ ) सिध्मनाशार्थ नीलमिटिका पत्र-स्वरस - सिध्म-कुष्ठ विशेष के प्रशमनार्थ नीली कटसरैया की पत्ती का रस गात्र पर भली प्रकार लेपन कर ऊपर से काँजी में पिसे हुये मूली के बीजों का प्रलेप करें। यथा "नील कुरण्टकपत्रं स्वर सेनालिप्य गात्रमतिव कटहल हुशः । लिम्पेनमूलक वीजैः पिष्टैस्तक्रेण सिध्म ( कुष्ठ - चि० ) (२) दन्तचालन अर्थात् दाँत हिलने पर तंगलदल - नीली कटसरैये की पत्ती के काढ़े से गण्डूष करने से हिलते हुये दाँत ( चलदंत ) स्थिर हो जाते हैं । यथा नाशाय ।। " “आर्त्त गलदलक्काथगण्डूषो दन्तचालनुत्” ( दन्तरोग - चि० ) । नव्य मत वैट - इसका बीज सर्प दंश का अगद ख्याल किया जाता है। शोथ निवारणार्थ इसकी पत्ती एवं जड़ का उपयोग होता है । कफ (Cough) में इसका फांट दिया जाता है । इं० मे० प्रा० । कटसारिका - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] झिटी का सामान्य नाम | कटसरैया । भा० पू० १ भ० । सिरिस - [ श्रवध ] धोबिन । कटसोन -संज्ञा पु ं० [देश० कुमा० ] एक झाड़ीनुमा वृक्ष जो पश्चिमीघाट, मध्य, पूर्वी और उष्ण हिमालब नेपाल, सिकिम, वरमा श्रादि स्थानों में होता है। शाखाओं पर पीला रोयाँ और छोटे कांटे होते हैं । फूल सफेद | फल गोल । कटसोल । कटसोल - संज्ञा पु ं० [देश० ] दे० "कटसोन" बोपेम काँटा - नेपा० Rubus-moluccanus, Linn. कटहर - संज्ञा पु ं० दे० ' कटहल " । कटहरा - संज्ञा स्त्री० [देश० ] एक प्रकार की छोटी मछली जो उत्तरी भारत और आसाम की नदियों में पाई जाती है। कटहरिया चंपा - संज्ञा पुं० [हिं० कटहर + चंपा ] एक प्रकार का चंपा । मदनमस्त । कटहल - संज्ञा पु ं० [सं० कंटकिफल, हिं० काठ + फल ] (१) वृक्ष - ( उत्तराषाढ़ा ) स: ( फनसः ) महासर्जः, फलिनः, फलवृतकः, स्थूलः, कण्टफलः, मूलफलदः' अपुष्पफलदः पूतफलः, अङ्कमितः ( रा० नि० ११ व० ), कण्टकिफलः, कण्टाकालः, श्राशयः, सुरजफलः, पलसः, फलसः, चम्पा कालुः, चम्पा, कोषः, चंपालुः, रसालः, मृदङ्गफलः, पानसः, पनशः (सः) पणशः Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटहल १९३६ - कटहल (सः) कण्टालुफलवृक्ष, अतिवृहत्फल, पनशः, कंटकिफलः, पनसः, अतिवृहत्फलः (भा०) कणाशः, महासजः, फलितः, फलवृक्षकः, स्थूलः, कण्टाफलः, मूलफलदः, कण्टालुफल (वृक्षः) कण्टकमहाफल (वृतः), कण्टकफलः, करटकफला, कण्टकि (की) फल:, करटाफलः, पनसतालिका, कण्टीफल, स्थूलकण्टफलः-सं० ।कटहर, कटहल, कटर, कंथल, कठैल-हिं । फणस-द०, को०, मरा० । काँटाल गाछ-बं० । चक्की-फ्रा० । श्रा कार्पस इंटेग्रिफोलिया Artocarpus integrifolia, Linn-ले० । इंडियन जैक ट्री Indian Jack tree-अं० । जाक्कोर Jaquier-फ्रां | इंडिश्चर ब्राड बाम Indischer broad baum-जर पिल्ला,पलचूता० | पणस-ते०, उत्, उड़ि। पनस-ते०। पिलव, कंडकि फल-मल हलसिन, हणसीन हण-कना० । हलसीन हणु-का० । पणस, मान फणस, फणस-गु० फणस-मरा०ाफणस-बम्ब। पिला-पज़.म-मद। पेइंगनाई-बर० । फणसश्रौ। पनश वर्ग (N. 0. Artocarpacea) उत्पत्ति-स्थान-कटहल भारतवर्ष के सब गरम | भागों में लगाया जाता है, तथा पूर्वी और पश्चिमी घाटों की पहाड़ियों पर एवं पूर्व पर्वत पर यह श्राप से श्राप होता है । सह्याद्रि पर्वत के सदा हरिद् वर्ण वन में कटहल लगाया और प्रकृत अवस्था में भी पाया जाता है। वानस्पतिक वर्णन-एक सदाबहार घना वृहत् वृक्ष जिसकी पत्तियाँ अंडाकार ४-५ अंगुल लंबी, चर्मवत् कड़ी, मोटी और ऊपर की ओर श्यामता लिये हुये हरे रंग की प्रकाशमान एवं मसृण और नीचे रूक्ष होती हैं। नव पल्लवों पर क्षुद्र एवं रुक्ष कुंतल रहते हैं । मध्य पशुका इसके अधः पृष्ठ पर प्रशस्त ज्ञात होती है। उसकी दोनों ओर चार से सात इंच तक ७८ पार्वीय शिरायें निकलती हैं। पत्रों के नीचे का अनुबंध बड़ा होता है। उसका चौड़ा अाधार पत्तोंसे मिला रहता और गिर पड़ता है । इसका वृक्ष ४०-५० फुट ऊँचा | होता है । इसका तना छोटा, खड़ा और मोटा होता है । इसका अर्द्धगोलाकार शिखर श्याम वर्ण के पत्तों से मंडित होता है । शाखा विकटाकार फलों के भार से झुक पड़ती है। शाखाओं पर मंडलाकार उत्थित रेखायें देख पड़ती हैं । इसमें बड़े-बड़े फल लगते हैं जिनकी लम्बाई हाथ,डेढ़ हाथ नककी और घेरा भी प्रायः इतना ही होता है । ऊपर का छिलका बहुत मोटा होता है जिस पर बहुत से नुकीले कंगूरे होते हैं । जिस कटहलके छिलके पर ये कंगरे जितने अधिक कठिन और लंबे हों,उसके भीतर ये दाने उतना ही उत्तम और बड़े निकलते हैं और मीठा भी होते हैं। फल के भीतर बीच में गुठली होती है जिसके चारों ओर मोटे मोटे रेशों की कथरियों में गूदेदार कोए रहते हैं। कोए पकने पर बड़े मीठे होते हैं। कोयोंके भीतर बहुत पतली झिल्लियों में लिपटे हुये बीज होते हैं, जो वृक्काकार और तैलमय होते हैं । फल माघ फागुन में लगते हैं और जेठ अषाढ़ में पकते हैं। कच्चे फलकी तरकारी और श्रचार होते हैं और फल के कोए खाये जाते हैं। कटहल नीचे से ऊपर तक फलता है, जड़ और तने में भी फल लगते हैं। कटहल के वृहत् फल को फल समूह समझना चाहिये । जिसमें ५० से ८० कोये निकलते हैं । क्योंकि अनन्नास की भाँति पुष्प समूह से उत्पन्न होनेवाले फलों का राशीकरण है। विभिन्न फल प्रायः संस्तर कहलाते हैं। प्रत्येक फल में एक बीज होता है। कटहल अनेक प्रकार के होते हैं। उनमें से कुछ के दाने छोटे और कोमल होते हैं और उनमें से दुर्गधि पाती है। यह उसकी निकृष्टतम जाति है। परन्तु किसी के दाने मध्यमाकार होते है और किसी के सुस्वादु,रेशारहित और सरस होते हैं और शीघ्र टूट सकते हैं और उनसे सुगंधि पाती है। इसको खाजा" कहते हैं ।कुछ कटहल ऐसे हैं,जिनके दाने अति सूक्ष्म, तंतुशून्य और सरस होते हैं,मुह में डालते ही घुल जाते हैं। यदि फल में से निकाल कर रख दें तो क्षण भर में स्वयं घुल जाते हैं। यह सर्वोपरि जाति का कटहल है। ज़मीन के भीतर इसकी जड़ में होनेवाला कटहल सबसे अधिक सुस्वादु, मधुर और सरस और Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटहल १८३७ बहुत बड़ा होता है। कहते हैं कि यह एक सेर से " लेकर १ मन तक देखने में श्राया है, जिसतें एक-सो तक को होते हैं । कटहल में से दूध निकलता है, जो बहुत चिपकता है । जब यह शरीर में चिपक जाता है, तब बिना स्नेह लगाये साफ़ नहीं होता । इसकी छाल से भी एक प्रकार का बड़ा लसोला दूध निकलता है जिससे रबर बन सकता है। इसका गोंद जल- विलेय होता है। इसकी लकड़ी नाव और चोट आदि बनाने के काममें आती है । इसके को उबालने और टपकाने से कर्करा गंध एवं अद्भुत स्वादविशिष्ट महसार का पेय प्राप्त होता है। कटहल के उगाने के खोदकर उसे गोबर से जून वा जुलाई में जाता है। भर लिये पहले एक गड्डा देते हैं । फिर उसनें बीज डाला कटहल का इतिहास - भारतवर्ष ही कटहल का मूल उत्पत्ति स्थान है, क्योंकि यहाँ अनेक स्थलों में यह आपसे श्राप होता है। यहीं से ई० सन् ७८२ में एडमिरल रोडनी इसे जमेका ले गये । श्रव ब्राज़िल मॉरिशस श्रादि स्थानों में भी यह लगाया गया है । अनेक प्रकार को लकड़ी की सामिग्री बनाने के हेतु इसकी लकड़ी भारतवर्ष से युरोप भेजी जाती है। बौद्धों के मंदिरों पर प्रायः कटहल देखने में श्राता है। कारण वौद्धमतावलंबी इसके वृक्ष को पवित्र सकते हैं । भारतवर्ष में इसके फल का कोया खाद्य के काम आता है । पर युरुपनिवासो बहुधा कटहल नहीं खाते। औषधार्थ व्यवहार - फल, बीज, पत्र, मूल और वृक्ष जात दूधिया रस वा दूध फल मज्जा वा गूदा अंडवृद्धि में और कोमलपल्लव चर्म रोग हितकारी है। रासायनिक संघट्टन — इसकी सूखी लकड़ी में ५. मोरिन (Morin ) और एक स्फटिकीय उपादान ( Cyanomaclurin) पाये जाते हैं। बीज में श्वेतसार की प्रचुर मात्रा पाई जाती है । औषध निर्माण- - काथ (मांसग्रंथिशोफोप(योगी), प्रभाव वा क्रिया - इसका परिपक फल स्निग्ध २५ फा० कटहले संपादक, पोक ( Nutritive ) और मृदुरेचक ( Laxative ) है और अपरिपक्व फल संग्राही ( Astringent ) है । धर्म तथा प्रयोग श्रायुर्वेदीय मतानुसार 1 पनसं मधुरं पिच्छिलं गुरु हृद्यं बलवीर्य वृद्धिदम् । श्रमदाह विशेोपनाशनं रुचिकृद्ग्राहि च दुर्जरं परम् ॥ ईषत्कपायं मधुरं तद्बीज वातलं गुरु । तत्फलस्य विकारव्नं रुच्यं त्वग्दोष नाशनम् ॥ बालं तु नीरसं हृदां मध्यपक्कं तु दीपनम् । रुचिदं लवणाद्युकं पनसस्य फलं स्मृतम् ॥ ( रा० नि० ११ व० ) कटहल — मधुर, अत्यन्त पिच्छिल, भारी, हृद्य, वलवीर्यवर्द्धक तथा धन, दाह और शोधनाशक, रुचिकारक, ग्राही और कठिनता से पचनेवाला है । इसका बोज कुछ कुछ कसेला, मधुर, वातकारक और भारी है। इसका फल विकारनाशक, रुचिकाकहै । कच्चा कटहल नोत्स हृद्य है । अधपका कटहल का फल रविश यक है । तन्मज्ञ्ज गुणाः शुक्रलं त्रिदोषनं विशेषेण गुल्मितां न हितम् । (रा०नि० ० ११) कटहल की मजा शुक्रवर्द्धक और त्रिशेना एक है तथा गुल्म रोगी को विशेष रूप से चहितकारी है। पनशं शीतलं पक्वं स्निग्धं पित्तानिलापहम् । तर्पणं वृंहणं स्वादु मांसलं श्लेष्मलं भृशम् ॥ बल्यं शुक्रप्रदं हंति रक्तपित्त क्षत व्रणान् । श्रमं तदेव विष्टंभि वातलं तुवरं गुरु ॥ दाहकृन्मधुरं बल्यं कफमेदो विवर्द्धनम् । पनसोद्भूत बीजानि वृष्याणि मधुराणि च ॥ गुरुणिबद्ध विकानि सृण्मूत्राणि संवदेत् । मज्जापन सजो बृध्यो वातपित्त कफापहः ॥ विशेषात्पनसी बज्य गुहिमभिर्मदवह्निभः । ( भा० ) Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटहल कटहर का पका फल अर्थात् पका कटहल शीतल, स्निग्ध, वात पित्तनाशक, तर्पण (तृप्ति जनक) वृंहण, मांस और कफ को बढ़ानेवाला| वल्य और शुक्रजनक है तथा यह रक्रपित्त, क्षत एवं व्रण को दूर करता है। कटहर का कच्चाफल विष्टंभी, वातकारक, करेला, भारी, दाहकर्ता, मधुर, बलकारी तथा कफ मेद को बढ़ाने वाला पाठांतर से कफमेद (आय) नाशक है । कटहर के बीज वीर्यवर्द्धक, मधुर, भारी, मल को बाँधनेवाला और मूत्र को निकालनेवाले हैं ।अन्यत्र लिखा है कि कटहर को मज्जा वृष्य, वात, पित्त और कफ की नाशक है। गोला वा गुल्म-रोगी और मंदाग्निवालों को कटहर के खाने की सत्त मनाही है। कण्टाफलं सुमधुरं बृंहणं गुरु शीतलम् । दुर्जरं वातपित्तघ्नं श्लेष्म शुक्रबलप्रदम् ।। व.ण्टाफलमपकं तु कषायं स्वादु शीतलम्। कफपित्तहरं चैव तत्फलास्थ्यपि तद्गुणम्॥ सद्वीज सपिषा युक्तं स्निग्धं हृद्यं बलप्रदम् । (राज.) पका कटहल-मधुर, पुष्टिकारक, भारी, शीतल दुर्जर ( कठिनता से पचनेवाला), वात और पित्त नाशक तथा कफ, शुक्र और बलवर्द्धक है। कच्चा कटहर और उसके बीज-कसैले, स्वादिष्ट, शीतल तथा कफ और पित्त नाशक है। इसके बीज घृत के पाथ-स्निग्ध, हृदय को हितकारी और बलवर्द्धक हैं। पनसस्य फलं चामं मलावष्टम्भकृन्मतम् । मधुरं दोषलं बल्यं तुवरं गुरुवातलम् ॥ कोमले तच्च मधुरं गुरु वल्यं कफप्रदम् । मेदो वृद्धिकरं चैव दाहवात पपित्तनुत् ॥ तत्पकं शातलं दाहि स्निग्धं वै तृप्तिकारकम् । धातुवृद्धिकरं स्वादु मांसलं च कफप्रदम् ।। बल्यं पुष्टिकरं जन्तुकारकं दुर्जरं बृषम् । घातं क्षतक्षयं रक्तपित्तं चाशुव्यपोहति ।। तस्य बीजं तु मधुरं वृष्यं विष्टम्भकं गुरुम। तस्य पुष्पं गुरुस्तिक्तं मुखशुद्धिकरं मतम् ।। (नि०२०) करहर का कच्चा फल-मलस्तम्भक, मधुर, त्रिदोषकारक, बलवर्द्धक, कषेला, भारी और वातकारक है। कोमल कटहल-मधुर, भारी, बलवर्द्धक, कफकारक, मेदोवर्द्धक तथा दाह और वात - पित्तनाशक है । पका कटहल-शीतल, विदाही, स्निग्ध, तृप्तिकारक, धातुवर्द्धक, स्वादिष्ट, मांस वर्द्धक, कफकारक, बलवर्द्धक, पुष्टिजनक, जन्तुजनक दुर्जर, वीर्यवर्द्धक तथा वात क्षततय और रक्तपित्त का नाश करता है। इसके बीज-मधुर, वृप्यवीर्यवर्द्धक, विष्टम्भक और भारी हैं। इसके फूलभारी, कड़वे और मुख को शुद्ध करनेवाले हैं। यूनानी मतानुसारप्रकृति-द्वितीय कक्षा में उष्ण और प्रथम कक्षा में रूक्ष । (मतांतर से प्रथम कक्षा में उष्ण एवं रूक्ष) पर ठीक यह है कि यह द्वितीय कक्षा में उष्ण एवं रूत है और रतूवत फज़लिया (मलभूत द्रव) भी है। हानिकर्ता-पाध्मान जनक है और वायु के सौदावी रोग उत्पन्न करता है। सौदावी सांदरक उत्पन्न करता है। दर्पघ्न-लवण, शीतलजल, कस्तूरी, केसर और इसके बीज भूनकर खाना । मात्रा-इच्छानुसार । गुण, कर्म, प्रयोग-पका कटहल वात एवं पित्त के दोष दूर करता है तथा यह वल्य, कामसंदीपन (मुबही), रक्तपित्तनाशक, दीर्घपाको तथा विष्टम्भी-काविज़ है । यह सीने के लिये लाभकारी, वीर्यवर्द्धक एवं पिपासाहर है । कोई २ कहते हैं कि आप से श्राप पका हुआ कटहर मातदिल-समशीतोष्ण होता है और वह जो अधपका लाकर कुछ दिन रख देने से पक गया हो, शीतज्ञ होता है । इसका बीज इसके गुरुत्व दोष का निवारक है, अस्तु, कटहल खाने के बाद आग पर भूने हुये इसके कुछ बीज खाना चाहिये । सेब के बीज की भाँति इसके बीजों को पके गोश्त वा रोटी के साथ खाते हैं। यह अत्यन्त सुस्वादु होता है। नाशते के साथ कटहल खाना अत्यन्त हानिकारक Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९३१ aree वाजिकरण है । यह शिश्न को प्रहृष्ट करता, वीर्यस्तम्भन करता, रक्तको दूषित एवं विकृत करता और सांद्र सौदावी खून उत्पन्न करता है । यह श्रध्मान कारक एवं चिरपाकी है तथा इसे लवणात करके खाना अथवा इसके भक्षणोपरांत लवण खा लेना, इसके बीजों को भूनकर खाना तथा शीतल जल पान करना, इसके दर्षन हैं । यह वायु एवं पित्तजन्य रोगोंको लाभकारी है तथा शरीरावयवों को बलप्रद है । इसके बीज भी वाजी 1 करण हैं और शुक्र उत्पन्न करते हैं । कच्चा कटहल पका खाने से क्षुधाधिक्य का निवारण होता है । इसके वृत्त के कोमल पत्तों को घी से चिकना करके कई बार उकते पर बाँधने से उकता श्राराम हो जाता है । यदि सर्पदष्ट व्यक्ति को यथा संभव खूब अफर कर कटहल खिलाया जाय, तो विष उतर जावेगा । यदि खूब पेट भर कटहल भक्षणोपरांत केला खालें, तो वह शीघ्र परिपाचित हो जायगा | और यदि खूब कटहल खाकर ऊपर से निरन्तर पान सेवन करें, तो काल कवलित हों । इसका प्रमाण यह है कि जब कटहल पर पान की पीक डाली जाती है, तब वह फूल जाता है । कटहल किसी-किसी प्रकृति में एतजन्य दर्प का नाश ताजा नवनीत के भक्षण से भी हो जाता है । इसका मुरब्बा और हलुवा भी उत्तम होता है । परन्तु इन्हें ऐसे कटहल से बनाना चाहिये जो किंचित् श्रर्द्धपक एवं रेशा रहित हो और उसमें थोड़ी कस्तूरी और केसर भी गुलाब जल में विसकर मिला देवें । इसका मूसला जलाकर अकेले घा कपोत- विष्ठा और चूने के साथ फोड़े पर लगाने से उसमें मुह हो जाता है । खुलासतुल् इलाज नामक ग्रंथ में लिखा है कि कटहल के फूल को पानी में पीस छान कर तुरत पी लेने से विशुचिका जन्य छर्दि का नाश होता है | नुसखा सईदी नामक ग्रंथ के प्रणेता का कथन है कि कटहल में फूल नहीं होता । जखीरा श्रकबरशाही में लिखा है कि यह चिरपाकी है । इसके भुने हुये बीजके भक्षण से इसके उक्त दोष का निवारण होता है । इसका नीहार मुख खाना अत्यन्त वर्जित है । वैद्यों के मत से कटहल शीतल, बादी, कसेला, गुरुपाकी, कटहल सुधःभिजनन, मधुर, वीर्य एवं शक्रिवर्धक, दिलपसन्द, विष्टभी ( काबिज़ ) और शरीर को उज्वल करनेवाला है। इसके कच्चे पत्तों को पीसकर त्वग्रोगों पर प्रलेप करते हैं। इसकी जड़ के चूर्ण को फंकी देने से दस्त बन्द होते हैं । इसक' कच्चा फल - मंजारोवकारक पर पका . फल मृहुरेचक - मुलय्यन है । यह शरीर को स्थूल करनेवाला होने पर भी कठिनता पूर्वक हज़म होता है । ग्रन्थि शोथ के शीघ्र परिपाकार्थ उसपर इसके पत्तों का प्रलेप करते हैं । इसकी जड़ को श्रौटा-छानकर नाक में टपकाने से शिरःशूल नष्ट होता है । उसे पीसकर पानी के साथ पिलाने से कै होकर साँप का विष उतर जाता है। इसका चूर्ण प्रतिदिन ११ माशा उसरोत्तर बढ़ा बढ़ाकर खाने से वमन तथा रेचन होकर फिरङ्ग रोग का नाश होता | धन्वन्तरी कहते हैं। कि पका हुआ कटहल खाने से वायु और पित्त का नाश होता है; शरीर के अंग प्रत्यङ्गों को तथा WE को शक्ति प्राप्त होती है । यह शुक्र उत्पन्न करता, पिपासा को न्यून करता, वक्ष को श्लेप्यादि से स्वच्छ करता, उता का निवारण करता, शरीर की दीप्तिमान करता, चित्त को प्रफुलित करता, मूत्र - प्रखाव को घटाता, उदरज कृमियों को नष्ट करता, और काबिज मलावरोधकारक एवं गुरु । है 1 वृक्ष को जड़ से उत्पन्न कटहल समशीतोष्ण वा दिल है । यह बात एवं पित्त को नष्ट करता, हृदय को शक्ति प्रदान करता, प्रकृति में किसीभाँति शीत संजनित करता, शरीर को क्षीण करता, पर रूह तवाना रहती हैं, पाखाना साफ लाता, कफ एवं उदरस्थ मलादि को दूर करता, और उस ज्वर की दूर करता है जिसे प्राते हुये ६ मास व्यतीत हो गये हों । कटहल को नीहार मुंह न खाना चाहिये | कच्चे कटहल की तरकारी खाना खाज में लाभकारी है । परन्तु गुरुवाकी होती है । यह वित्त को नष्ट करती है तथा जलोदर एवं सोजिरा बाह को लाभकारी है और यह श्लेष्मा को वृद्धि करती है । कटहल अधिक न खाना चाहिये । इसके अत्यधिक सेवन से खाना खा लेने के कुछ देर उपरांत वमन हो जाने का रोग लग जाता है Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटहल १९४० जिससे शरीर क्षीण हो जाता है । वैद्यों ने इसके बीजों को मधुर एवं कषाय वा विकसा लिखा है । उन्होंने यह भी लिखा है कि ये दाजीकरण की शक्ति को वर्द्धित करते एवं शुक्र को गाढ़ा करते हैं। र स्तम्भक हैं । ये गुरु, मलावष्टंभकारक, शरीर के वर्ण को निखारते, पेशाब कम करते और वायुजनक हैं । - ख० श्र० नव्यमत डीम - टहल का दुधिया इस जल में श्रविलेय सुरासार ' में अंशतः दिलेय और बेोल में पूर्णतया विलेय होता है । यह रबर ( Caoutchoue ) का एक भेद है और स्वाभाविक अवस्था में ( Bird lime ) की भांति काम में श्रा सकता है और टूटे वरतनादि के जोड़ने के लिए सोनेंट की भाँति व्यव हार किया जा सकता हैं । उबलते हुए जल में प्रक्षालित करनेसे यह कड़ा होजाता है और साधारण कामों में भारतीय रबर की भाँति काम श्र सकता है । इसकी लकड़ी द्वारा प्राप्त पीला रंग रालीय स्वभाव का होता है । और खौलते हुए 1 पानी वा सुसार द्वारा प्राप्त किया जा सकता है फा० ई० ३ भ० पृ० ३५५ । नादकर्णीयह अत्यन्त सुबाहु एवं सुविख्यात भारतीय फल है । इसे अत्यधिक परिमाण में भक्षण करने से दस्त धाने लगते हैं ! रिल श्रामाशय में और विशेष कर प्रातःकाल इसका भक्षण करना सर्वोपरि होता है इसका कच्चा फल साधारणतः ( Pickles ) बनाने के काम में श्राता है । पकाने पर इसकी उत्तम कढ़ी बनती है । इसका भुना हुआ बीज उत्तम खाद्य है । और यह अखरोट के तुल्य होता है । वृक्ष का दूधिया रस सिरके में मिलाकर ग्रंथि शोध एवं विस्कोटों ( Abscesses ) पर प्रलेप करने से उनकी विलीनीभवन ( Absor ption ) वायोपादन (Suppuration) की क्रिया निर्द्धित हो जाती है। इसकी कोमल पत्तियाँ एवं जड़ स्वरोगों में लाभकारी हैं। जड़ का काढा तथा जड़ से स्रावित रस द्वारा बना सांद्र पदार्थ ( Concretions ) ये कटहल दोनों अतिसार रोग में दिये जाते हैं। इसकी पत्तियां सर्प - विष का श्रगद समझी जाती हैं । The Indian Materia Medica P, 86. कच्चे फल की तरकारी और अचार होते हैं और फल के कोए खाये जाते हैं । इसकी छाल से बड़ा लसीला दूध निकलता है जिससे रबर बन सकता है । इसकी लकड़ी नाव घोर चौखट श्रादिके बनाने के काम थाती है । इसकी छाल और बुरादे को उबालने से पीला रंग निकलता है जिससे बरमा के साधु अपना वत्र रंगते हैं । इसके वल्कल से अत्यन्त श्याम वर्ण का निर्यास निकलता है। जिसका भेद विन्दुलिप्त रहता और जल में घुल सकता है। रस मूल्यवान् लेप और लासे की भाँति व्यवहृत होता है । उससे लचीला, चमड़े - जैसा पानी रोकनेवाला और पेंसिल के चिन्ह मिटाने योग्य रबड़ बन सकता है किंतु श्रधिक रबड़ नहीं निकलता । कटहल का काष्ठ वा चूर्ण उबालने से पीला रंग तयार होता है । उससे ब्रह्मदेश वासी साधुनों के व रंगे जाते हैं | कटहल के रंगकी माँग मदरासभारत के अन्य प्रांत और जावासे भी श्राया करती है । वह फिटकरी डालने से पक्का और हलदी छोड़ने से गहरा पड़ जाता है। नील मिलाने से कटहल का रंग हरा निकलता है । उसे रेशम रंगने में प्रायः व्यवहार करते हैं । बङ्गाल में फल और काष्ठ दोनों से रंग बनता है । अवध में वल्कल और सुमात्रा में कटहल के मूल से रंग निकालते हैं । वल्कल में तन्तु होता है । कुमायूँ में तन्तु से रज्जु बनती है । वृक्ष का रस मांस के शोध श्रीर स्पोट पर सयमल की वृद्धि के लिए लगाया जाता है । नवीन पत्र चर्म रोग और मूल अजीर्ण पर चलता है। बीजमें जो मण्डवत् द्रव्य रहता है, वह उसको "सुखाने और कुटाने पिटाने से पृथक हो सकता है पक्व फल स्तम्भक और पक्क फल सारक होता | परन्तु अत्यन्त पौष्टिक होते हुये भी यह कुछ कठिनता से पचता है। बीज को भूनकर खाते हैं । इसे पीसने से सिंवाड़े के आटे जैसा निकलता है। कच्चे फल की तरकारी बनती है। 1 भीतरी का पीत अथवा पीत प्रभ धूसर वर्ण, Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४१ .."कटिङ्ग ... निबिड़, समकण विशिष्ट एवं ईषत् कठोर होता कंटाली-संज्ञा स्त्री० [हि० काँट] भटकटया । .: है। प्रदर्शन से तिमिरावृत जान पड़ता, सन्यक् केटास-संज्ञा पुं० [हिं० काटना ] एक प्रकार का परिणत पड़ता और सूक्ष्म परिकार को पहुँचता बनपिलाव । कटार । खीखर ।। .: दारूकर्म में यह अधिक व्यवहृत होता है । कटहल कटाह-संज्ञा पु० [सं० पु] (१) कछुए का खोपड़ा . के काष्ठ को मंजूपा और सजा बनती है। काक्षा- कूर्म-कर्पर । ने. हनिक । (२) भैंस का पड़वा न्तर कार्य और मार्जनी-पृष्ठ के लिए इसे यूरोप जिसके सी निकल रहे हों । हारा० । (३) कड़ाह भेजते हैं । बड़ी कड़ाही । तैजपाकपात्र | श. च. । (४) (f०वि० कोष ३य खरड पृ० ६३५) सूप । त्रिका०, (५) कबूर। कचूर । (६) सूर्य । कटा-संज्ञा स्त्री० [सं. स्त्री.] कुटकी । (७) कूप । कूत्रां। कटाइ-संज्ञा स्त्री० [सं. कंटको] (१) भटकटैया। कटाहक-संज्ञा पु० [सं० पु] (१) कड़ाह । भाजन कैटरी । कटाई । (२) बनभंटा । वरहंदा । बहती पात्र । (२) मातुलुग वा बिजौरे के कोथे वा - संज्ञा स्त्री [बं०] स्वादु-करटक । बिलङ्गरा। फाँक । अत्रि० सू० १७०। इं०० प्लां। कटाह्वय-संज्ञा पुं॰ [सं० वी० ] पद्मकंद । पद्ममूल । कटा कण्ठल-संज्ञा पु, मृगभक्षी। भसीं । कमल की जड़ । रा०नि०व० १० । कटाकीफल-संज्ञा पु०सं समष्ठोल। कोकुत्रा। कटाक्ष-संज्ञा पु०सं०पु.] (१) तिरछी चितवन । कंटकप.ल। तिरछी नज़र । श्रांग:। अम०। (२) घोड़े कटाकु-संज्ञा पु० [सं० पु.] एक प्रकारकी चिड़िया | ... की कनपुटी और कना के बीच का भाग । ज. उणा। द० २ ०। कटि-संज्ञा स्त्री०सं० पु०, स्त्री.] शरीर का मध्य अटाग्नि-संज्ञा स्त्री० [सं० पु] घास फूस की प्राग। भाग जो पेट और पीठ के नीचे पड़ता है। कमर । दृणाग्नि । (मनु ८। २७७) लक । संस्कृत पय्याय--,णिः, श्रोणितलं, कटायण, कटायन-सज्ञा पु० [सं० की.] वोरण । कटी (अ० टी०), धोणिफलकं, धोणी, ककुद्मती, खस | श० च । कटार-सज्ञा पु० [सं० कटार] एक प्रकार का बन कटः (अम०), फलत्रं, कटीरं, काञ्चीपदं (हे.), . बिलाव । कटास । खीखा। करभः (ज) शोणिफल, कटी, छोणि, कलत्र । अरबी पर्या-कतन, सुज्ब । लाइन (अं.)। . संता पु० [देश॰] एक प्रकार का कोटेदार पेड़ जि.सका पल खाया जाता है । (२) गेठी । गृष्टी । (२) हाथी का गंडस्थल । हाथी की कनपटी । गाँठ बालू। (३) पीपल । पिप्पली, ( ४ ) काञ्ची । घुघची। कटारा-संज्ञा पुं० [हिं० कटार] इमली का फल । | कटिकशेरुका-संज्ञा स्त्री० [सं०] रीढ़ की वह हड्डी सहा पुं० [हिं० काँटा] ऊँटकटारा। ___जो कमर में स्थित है। (Lumber vereकटा(ता)रे-संज्ञा पुं० [सं० कांतार] एक प्रकार की | .. | era) प्र. शा०। ईख | केतारा । कांतारेतु। कटिका-संज्ञा स्त्री० [ सं . स्त्री.] खरिका । खड़ियाऋटाल-सज्ञा [सं० १] कटला नाम की मछली। मिट्टी। .(Catla-catla-Ham&Buch)एक प्रकार | कटिकामता-[को०] चिनचिनी। की मछली जो भारतवर्ष विशेषतः बंगाल के कटिकुष्ट-संज्ञा पु. [संक्री.] घोणि का कुष्ठ । पोखरों नदियों में प्रायः पाई जाती है । इसका रोग । कमर का कोढ़। मांस मधुर, उत्तेजक, गुरुपाकी और त्रिदोषघ्न | कटिकूप-संज्ञा पुं० [सं० वी०] ककुन्दर । चूतड़ का गड़हा । सुब। कटाल-मरेली-सिंथाल] विलङ्गरा। | कटिङ्ग-संज्ञा पु. [अं॰ Cutting ] एलोपैथी ई० मे० रूपा । ... . . . में औषधि निर्माण प्रक्रिया, में वह क्रिया जिसक होता है। -- Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटी कटिकाविग्रह १९४२ औषधियों के विविध अंगो, जैसे, जड़, छाल आदि | टिल्ल-संज्ञा पुं० [सं० क्ली०] (१) करेला । को बारीक कूटने और भिगोने से पूर्व टुकड़े टुकड़े कारवेल्स फल । भा० पू० १ भ० । (२) हड़जोर करते हैं । जैसे-जेंशन रूट (जितियाना मूल) अस्थिसंघार । रा०नि० । निशिः । मेजन (माजरियून त्वक् ) सासानरास रूट | कटिल्ल क-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (1) करेखा। (सासारास की जड़ ) इत्यादिकत्तंन । काटना । कारवेलक। १० मु०। (२) लाल पुनर्नवा । स्लाइसिंग (Slicing)(अं०)। गदह पूरना । साँठ । मे कचतुष्क । रकपुनणवा । कटिकाविग्रह-संज्ञा पु० [सं० पु.] (Carpus | कदिल्लिपि-[ ता०] महुअा । मधूक । callo sum) अ. शा० । कटिबंध-दे. "कटिबंध" । कटिगुहा-संज्ञा स्त्री० [सं० श्री.] ( Pelvic कटिवात-संज्ञा पुं० [सं० पु.] एक प्रकार का वास ___cavity) कटीगुहा | प्र० शा० । रोग । इसे किक्सिवात भी कहते हैं । कटिज-संज्ञा पु[सं०] मकाई । लक्षणकटितट-संज्ञा पुं० [सं० वी० ] (१) नितम्ब । कटीभङ्गो विकारश्च महाशूलं च क्रोध कृत् । __ चूतड़ । कटि देश | कमर । अपस्मारीच दुर्भावी कटिवातस्य लक्षणम् ।। कटि तरुण संधि-संज्ञा स्त्री० [सं०] ( Sacro चिकित्साieiac articulation) संधि विशेष । श्र० शा। हिंगुलं वत्सनाभं च चक्राङ्गी त्रिकटु वचाम् । कटिव-संज्ञा पुं॰ [सं० वी० ] (१) रसना । जिह्वा चित्रमूल कषायेण समभागं विमर्दयेत् ॥ जीभ । मे रविकं । (२) कटि वस्त्र । (३)| दोलायन्त्रेपचेद्यामं कटिवातं निहन्ति वै । घुघुरु। बुद्र घंटिका । के०(४ परिधेय वस्त्र । धोती। कटिशीर्षक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कमर। कूला । कटिदेश-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कटि । कमर । कटिदेश । हला० । पुट्ठा। श्रोणी । जघन । ( Loin, Lumber | कटिशूल-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कमर का दर्द। region 1 कटिदेशस्थ शूल-रोग। कुमरी । (Lumbago) कटिनङ्गों-ता०] पियार । अचार । पियाल । कफ और वायु से कटिदेश में शूलरोग उत्पन्न होता कटिनाड़ी जाल-संज्ञा पुं॰ [सं०] एक नाड़ी जाल | है। एक भाग कुष्ठ और दो भाग हरीतकी का " जो कमर में स्थित है। षट्चक्रों में से एक।) चर्ण उष्ण जल के साथ सेवन करने से काटशूल (Lumber plexus) कटिप्लवक । । मिट जाता है। दे० “शूलं"। कटिपार्श्वच्छापेशी-संज्ञा स्त्री॰ [सं, स्त्री.] एक | कटिशृङ्खला-संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ स्त्री.] कटिकिङ्किणी । पेशी विशेष । कटिपार्श्वप्रच्छदा । ( Lattissi | कमर में पहनने का एक प्राभूषण । करधनी । musdorsi)प्र० शा०। हारा०। कटि प्रदेश-संज्ञा पुं० [सं० पुं०] कटिदेश । कमर । कटिसूत्र-संज्ञा [सं० ली.] (1) कमर में कटिप्रोथ, कटीप्रोथ-संज्ञा पुं० [सं० पुं०] (१) पहनने का डोरा । मेखला। सूत की करधनी। चतड़। स्फिच । नितम्ब । रा० निव०१८।। करगता। कमरबंद । स्मृति शास्त्र के मत से केवल संपर्या-स्फिक्, पूलक, कटीप्रोथ, कटिग्रोथ, कार्पास का सूत्र बांधना निषिद्ध है। (२) चन्द्र__पूल । (२) कमर का मांस पण्ड । श्रम । हार । करधनी। कटिबंध-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] कमरबंद । कटी-संज्ञा स्त्री० [ कटिन् सं० पुं०] (१) हाथी । कटिरोहक-संज्ञा पु[सं० पु.] जो हाथी के पीछे इस्ती । (२) खैर का पेड । रा०नि००। बैठता हो । हस्ती के पश्चाद् भाग पर आरोहण संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (१)श्रोणिपालका करनेवाला। . अम० । (२) पीपल । पिप्पली । मे. टहिक । कदियाली-संज्ञा स्त्री॰ [सं० कंटकारि ] भटकटैया।। (३) स्फिक प्रदेश । चूतक । रत्ना.। () Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- बाटोकतरुण १९४३ एलुभा । (५) अपामार्ग । नि०शि० । रा०नि० कटीर-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (1) जघन स्थल । (६) टोक नाम की पक्षी। कुक्कटि। विष्टिहि ।। जटा० । (२) कटि देश । कमर । हे० च०। रा०नि०। धन्व.नि.। (३) कटि पार्श्व । अ० टी०। (४) चञ्चू । कटीकतरुण-संज्ञा पुं॰ [सं० की. ] सुश्रुत में । चंच । नि०शि० । ५ नितम्ब । चूतड़ । कालांतर-प्राणहर अस्थि मर्मों में से एक वह जो संज्ञा पुं॰ [सं. क्री.] कटिफलक । कूल्हा । पृष्ठवंश के प्रत्येक भाग में प्रत्येक श्रोणिकर्ण से संज्ञा पुं॰ [गोंडा ] कण्टाई । विलङ्गरा । ऊपर त्रिक के समीप होता है। यहां चोट लगने से संज्ञा पुं॰ [गु०] अज्ञात । मनुष्य के रक का क्षय हो जाता है और वह पाडु कटीरक-संज्ञा पुं॰ [स० पु.](१) नितम्ब स्थल एवं विवर्ण होकर अंत में मर जाता है । (क्योंकि चूतड़ । रा०नि० व० । (२) जघन । इससे श्रोणिफलक के बाह्य एवं आन्तरिक अवयवों | पेड़ । पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है, भीतर सूजन होती | कटीरज-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] चचू । चेच । कुटिहै, जिससे बहुत पीड़ा होती है।) इसका परिमाण | अर । निशि०। आधा अंगुल मात्र है। सु. शा०६ अ०। | कटीरा-संज्ञा पु० दे० "कतीरा" । कटीकपाल-संज्ञा पुं० [सं० वी०] कटीफलक । बिज० कटील-संज्ञा स्त्री० [देश॰] एक प्रकार को कपास ०कूल्हा । पुट्ठा। जिसे बरदी, निमरी और बँगई भी कहते हैं। कटी-गुहा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (Pelvicca-कटीलम्बिनी पेशी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] कटि vity ) की एक पेशी । ( psoas muscle ) कठी-शुदाधर द्वार-संज्ञा पु[सं० की.] ( Inf| प्रा. शा०। erior A perture of lesser Pel- कटोलम्बिनी लध्वी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] कटि vis.) अ० शा०। लम्बिनी छोटी पेशी । (psoas minor ) कटीगुहोत्तर द्वार-संज्ञा पुं॰ [सं. क्री० ] Supe- कटीलम्बिनी वृहती-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] कटि की rior A perture of lesser pelvis.) वह बड़ी पेशी जो कटिकशेरुकाओंसे लेकर रान की अ० शा०। हड्डी तक लम्बी होती है ।(psoas magnus) कटीग्रह-संज्ञा पुं॰ [सं. को०] एक प्रकार का वात | अज लः सुलविय्यः कबीरः -अ०।रोग जो कट्याक्ति वायु के श्राम युक्त और स्तब्ध | कटीला-संज्ञा पु० । दे. "कतीरा"। होने से उत्पन्न होता है । कटीगत वातरोग। संज्ञा पुं॰ [देश॰] (1) अराकू । (२) लक्षण-"वायुः कटयाश्रितः स्तब्धः सामो वा वृहती । वन भंटा । (३) कटेरा गोंद । अङ्गिरा। जनयेदुजम् । कटिग्रहः स एवोक्तः पंगुः सथ्नोई (४) सत्यानाशी। चु० मुः। (५) एक योर्वधात् ॥" भा० म० १ भः । कंटकाकीर्ण तृण जिसके फूल में भी काँटे होते हैं। कटीचक्र-संज्ञा पु. [सं. की.] कटिस्थित नाड़ी इसको पत्ती हरी और फूल पीला होता है । इसकी जाल । (pelvis girdles ) अ० शा० । जड़ औषध के काम में आती है। प्र. शा० . म. मु.। कष्टीचतुरस्रा पेशी-संज्ञा स्त्री० [सं० सी०] कटि की वि० (१) कंटक युक्त । काँटेदार । (२) एक चौकोर पेशी। (Quadratus Lum. ___borum.)प्र. शा० । तीक्ष्णाय । नोकदार। कटीला नोन-संज्ञा पु. [ देश० ] सोंचर नोन । कटी तरुण सन्धि-संज्ञा स्त्री० [सं०] एक सन्धि | संचल नमक। विशेष । अ० शा० । दे. “कटि तरुण सन्धि"। कटु-वि० [सं० त्रि०] (१) कटु रस विशिष्ट । कटोधान्य-संज्ञा पुं० [सं०] मकाई । बड़ा ज्वार । चरपरा । कड़ा । माल । (२) तीता । तिक । कटीप्रोथ-दे० "कटिमोथ"। कडु वा । रत्ना० । (२) सुगंध | खुशबू । मे। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटुअलन्द (३) दुर्गन्ध । बदबू । (४) तोरण । तेज़। जमते ही काट डालता है । बाँका । (२) विका - श्र०टी० स्वा० । (५) वि.स । बदज़ायका । या साढ़ी उतारे दूध का दही। (६) उण। गर्म । (७) कसेला । कषाय कटुक-संज्ञा पु० [सं० क्ली०] (१)त्रिकटु (सोंठ, संज्ञा स्त्री॰ [सं० स्त्री.](१) लता । बेल । | मिर्च, पीपल)। मे० कत्रिकं । (२) मिर्च । (२) राई । राजिका । मे० टद्विकं । (३) मरिच : रा. नि० व०६। “कटुकट फलाम्भोकुटकी । कटुकी । रा०नि० व०६। (४) एक धरैः।" भा० म० १ भ० करट कुञ्ज. स. ज्व० प्रकार की लता । कटुवल्ली । रा०नि० व० ३ । चि०। (३) कुटकी । कटु को । 'कटुकं चित्रक (५) प्रियङ्गु वृक्ष । फूल प्रियंगु का पेड़। निम्बम् ।" च० द० कफन्च चि०। (४)कको लक । (५)त्रिपुष । खीरा । - संहा पुं० [सं० पु.] (१) रस का संज्ञा पुं० [२० पु.] कटु पटोल । तिक कडा वा चरपरा विपाक । सु. सू. ४० परवल । वै० निघ० २ भ० उन्माः चिः । (२) श्र० । (२) कटुस । कजुश्रापन । चरपचम्पा का पेड़ । चम्पक वृक्ष । (३) मदार का राहट । (३, तिक पहल | वटुपटोल । २० पौधा । अर्क वृक्ष । श० च० । (४) एक प्रकार निघ० २ भ० ज्व. चि० कटुप.ल.दि। (४)एक की घास जो जल में होती है । (५) छत्रक बिष, प्रकार का सुगंधि रण । श० २०। ५) कुरैया छतरिया लिप । श० र० । (६) कुरैया का पेड़ का पेड़ । कुटज वृस् । (६) मदार का पौधा । कुटज तरु । (७) बड़ी सरसों। राज सपंप । अक वृत । श० च० । (७) अदरक । पाक । हारा० । (८) चिनिया कपूर। चीन कपूर। (८) राउ.सर्षप । राई। हारा० । (१)जहसुन । रा• नि०व० १२ । (१) कटवो लता । (१०) | लशुन । मे। नीम । (११) गौर सुवर्ण . चित्रकूट में प्रसिद्ध ___ संज्ञा पुं० [मल.] रुई। एक प्रकार का शाक | रा. नि० । धन्व० नि० वि० [सं० वि.] कडपा | कटु । चरपरा । वर्ग ७ । (१२) छः रसों में से एक रस जि.सका अनुभव जीभ से होता है। यह कालीमिर्च श्रादि कटुक कोल-संज्ञा पु० [सं०] कबाबचीनी । शीतलमें व्यक्त होता है और वायु अनि गुण भूयिष्ठ ___ चीनी । मद। होता है । रानि० व. २० । तीरण। कटुक । कटुकण्टक-संज्ञा० पुं० [सं० पु.]सेमल का पेड़। कड आहट । कस्वाहट । चरपरापन । चरपराहट । शाल्मली वृक्ष । रा०नि०व०८। झाल । हर्राफ (१०) तुद मज़ा। तेज मज़ा, कटुकत्रय-संज्ञा० पु० [सं० की.] मिर्च, सेठ और चापरा, चटपटा, ( उ०)। एक्रिड Acid, पीपल, इन तीन कड़वी वस्तुओं का वर्ग । त्रिकटु । पजेंट Pungent (अं०) झालरस (बं०) च०६. ज. चि. कवलधारण । “सैन्धवं कटुक ... त्रयम्" तिखट (मरा०)। सु० सू० ४२ श्र०। च. . त्रयम्।" ... .. भा० म १ भ० । वि० दे० "चरपरा" । कटुकत्व-संज्ञा पुं० [सं० की ] कटुक का भाव । [20] त्रुम्ब चीन (बं०, पं० । कटुता । कवापन । चरपराहट। टु अलन्दु-[ ता०] मषवन । माषपर्णी । कटुकन्द-सज्ञा पुं॰ [स० पु.] (१) सहि. जन का पेड़ । शित्रु वृक्ष (२) आदी ।पादक । कटु इर्की-[सिंगा० ] तालमखाना । कोकिलान।। (३) लहसुन । लशुन । मे० दचतुष्कं । कई दही-संज्ञा स्त्री॰ [f. काटनः+दही ] वह दही संज्ञा पु० [सं० की ] मूली। मूलक । प० सिके ऊपर की साढ़ी वा मलाई काट या उतार | मु.। ली गई हो। छिनुई दही । छिक्का। | कटुकन्दरी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] एक औषधि । कटुआ-संज्ञा पु० [हिं० काटना] (१) एक प्रकार किरिणी । गोविन्दी (को०)। वाघेची । (प्रा०) का काले रंग का कीड़ा जो धान की फसल को गुण-कटुकन्दरिका गरम, तिक, वात कफ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेटुकपाणि नाशक और विसूचिका आदि रोगों की नाशक है वै० निघ० । कटुक पाणि-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] मकोय । काकमाची । कटुकपेल - संज्ञा पुं० [ मल० ] मुरहरी । मूर्वा । चुरन हार । . १६४५ कटुकफल-संज्ञा पुं० [सं० नी० ] शीतलचीनी । कक्कोलक | रा० नि० व० १२ । वै० निघ० २ भ० वा० म्या० महारास्नादि । कटुकम अल-संज्ञा पुं० [सं०] लोबान । कटुकरञ्ज - संज्ञा पुं० [सं० पुं०] करअ । करंजुवा । कटुक रस-संज्ञा पु ं० [सं० पुं०] छः रसों में से एक रस | चरपरा रस । झालरस । चरपराहट । दे० "कटु" । कटुकरोगनी - संज्ञा स्त्री० [ ते० ] काली कुटकी । कटुकरोनी-संज्ञा स्त्री० [ ते० ] काली कुटकी । कटुकरोहिणी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कुटकी । कटुकी | वा० चि० १ श्र० पटोलादि । "पत्रं कटुकरोहिणी ।" च० द० ज्व० चि० मुस्तादिगण । "वला कटुक रोहिणी" । कटुकरोहिण्यावलेह - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] उक्ल नाम का एक योग — कुटकी के चूर्ण को शहद के साथ चाटने से पुराना वमन और हिचकी का शीघ्र नाश होता है । भा० प्र० बा० रो० चि० । कटुकर्कोटक-संज्ञा पु ं० [सं०] कड़ ु श्रा खेखसा । कटुकर्षण-संज्ञा पु ं० [ सं ] सोनापाठा |अरलु । श्यो शाक । कटुकवर्ग-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] सुश्रुत में चरपरी षधियों का एक समूह । उन श्रोषधियों के नाम ये हैं, जैसे—सहिजन, मीठा सहिजन, लाल सहिजन, मूली, लहसुन, सुमुख (सफेद तुलसी ) मौरी । ( सितशिफ= सौंफ) कूट, देवदारु, रेणुकाहरेणुका, सोमराजी के बीज, शंखपुष्पी (चंडा ), गूगल, मोथा, कलियारी, शुकनासा और पीलु तथा पिप्पल्यादि गण, सालसारादि गण और सुरसादिगण की ओषधियाँ | सु० सू० ४२ श्र० । नोट-पिपल्यादि गण की और श्रोषधियाँ यह हैं - पीपर, पीपरामूल, चव्य, चीते की जड़, सोंठ, मरिच, गजपीपर, रेणुक, इलायची - एला, अजवायन, इन्द्रयव, अर्क वृक्ष, जीरा, सरसों, महा २९-७० कटुका-कटुकी नीम, मैनफर, हींग, ब्राह्मणयष्टिका - भारंगी, मूर्वा की जड़, अतीस, वच, विडङ्ग और कुटकी । सुरसादिगण की श्रोषधियाँ यह हैं -तुलसी, सफेद तुलसी, गन्धपलाश, बबई, गंधतृण, महागंधतृण, राजिका, जंगली बबई, कासमर्द, वनतुलसो, विडंग, कट्फल, श्वेतनिसिन्धु, नील निसिन्धु, कुकुरमुत्ता, मूसाकानी, पाना, ब्राह्मणयष्टिका - भारंगी, काकजंघा, काकाङ्क्षा, और महानिम्ब । सालसारादि गण की श्रोषधियाँ यह हैं— साल, पियासाल, खदिर, श्वेतखदिर, विदुखदिर, सुपारी, भूर्जपत्र, मेषशृङ्गो, तिन्दुक, चंदन, रक्त चंदन, सहिजन, शिरीष, वक, धव, अर्जुन, ताल, करञ्ज, छोटा करञ्ज, कृष्णागुरु, श्रगुरु और लता शाल । कटुक बल्ली - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] कटुकी । कुटकी संस्कृतपर्थ्या० - कवी | कटुकवल्ली | सुकाष्ठा । काष्ठवलिका । सुवो महावल्ली | पशुमोहिनिका | कटः । गुण-चरपरी, ठंडी, कफ और श्वास नाश करने वाली और नाना प्रकार के ज्वरों को नष्ट करने वाली, रुचिकारि तथा राजयक्ष्मा को नष्ट करने वाली है । रा० नि० व० ३ कटुकशर्करा – संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] कुटकी और शर्करा का एक योग जो पित्तश्लेष्म ज्वर में प्रयुक्त होता है। इनमें से प्रत्येक एक-एक तो० लेना चाहिये । वैद्य प्रसार के कु० टी० । चक्रदत्त के अनुसार कुटकी १२ माशे और चीनी ४ माशे लेनी चाहिये । कटुकस्नेह – संज्ञा पुं० [सं० पु ं०] सरसों का पौधा । सर्व वृक्ष | वै० नि० कटुका, कटुकी -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (१) कुटकी रा० नि० ० ६ । वि० दे० "कुटकी" । (२) कड़वी तुम्बी । तितलौकी । (३) छोटे चेंच का चुप । क्षुद्र चुञ्च, तुप । रा० नि० व० ३४ । (४) पीतरोहिणी । नेत्रपाषाण । रत्ना० । (५) लता - कस्तूरी । मुश्कदाना | च० द० वा० व्या० चि० । (६) पान । ताम्बूली । ( ७ ) सोंचर नमक । (८) तिक्क्रतुण्डी, कङश्र कुन्द्र । नि० शि० । (१) राजसर्षप । राई । (१०) कुलिकवृत्त । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटुतिक्त, कलिका कटुकाख्या-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] कुटकी | कटुको | कटुकुरोगनी-[ता०] कुटकी। सु०। | कटुकुरोनी-ते.] कुटकी। कटुकादि-कषाय-संज्ञा पु० [सं० पु.] कटुकी, | कटुकोशातकी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] कावी चित्रकमूल. नीम की छाल, हल्दी, अतीस तथा| तोरई । वच इन औषधियों को उचित मात्रा में लेकर कटुकाण, कटुक्काण-संज्ञा पुं० [सं० पु.] टिटिहरी काथ बनाएँ। टिटिभ पक्षी । हे० च०।। गुण तथा उपयोग विधि-मधु युक्र इसको | कटुक्कापिञ्जी-[ मल० ] जंगी हड़। पीने से श्लैष्मिक ज्वर नष्ट होता है। चक्रद० । कटुक्कामार-[ मल० ] हड़ । कटुकाद्यलौह-संज्ञा पुं॰ [सं. क्री.] शोथ में कटुगुणाः-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] कड़वी ओषधियाँ । प्रयुक्त उक्त नाम का योग-कुटकी, त्रिकुटा, दन्ती, कड़वे द्रव्य । बायविडंग, त्रिफला, चीता, देवदारू, निसोथ और कटुगुणा-चरपरी प्रोषधियाँ गुण में-चरपरी, गजपीपल प्रत्येक का चूर्ण १-१ भाग, और लोह कफ, कंठज दोष,सूजननाशक और कुछ वातकारक, चूर्ण सत्र से दूना लेकर एकत्र मिलाकर दूध के / वित्र रोग नाशक तथा अधिक सेवन से क्षय साथ सेवन करने से सूजन नष्ट होती है। र० २० कारक, और बलवीर्य को नाशक है। सः नि०। धन्व०नि०। शोथ चि० । भैष० रत्न शोथ चि०। कटुग्रंथि संज्ञा स्त्री० [सं० की. ] (१) पिपरामूल । कटुकापाली-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] हैंस । हिंसा । पिप्पलीमूल । (२) सोंठ। रा०नि० व०६। कण्टकपाली वृक्ष । रत्ना० । प० मु०।। (३) लहसुन । वै० निघ०। कटुकारोहिणी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] कुटकी कटुङ्कता-संज्ञा स्त्री० [सं. स्त्री.] नित्यकर्म एवं कटुकालाबु-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] तितलौकी । प्राचार की निष्ठुरता । हारा। तिक्कतुम्बी । र० मा । कटुचातुर्जातक-संज्ञा पु० [सं० की.] चार कड़वी कटुकालांबुनी-संज्ञा स्त्री [सं स्त्री०] कटुतुम्बी । तित ___ वस्तुओं का समूह अर्थात् इलायची, तेजपात, लौकी । इच्वाकु । दालचीनी (वा कटुकावल्ली-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] कटुकी । कुटकी, यथारा०नि० । नि०शि०। "एलात्वक् पत्रकैस्तुल्यैमरिचेन समन्वितैः कटुकिना-[सिं०] चीर फल (बम्ब०) ! कटुपूर्वमिदश्चातुर्जातकमुच्यते।" कटुकी संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (१) कुटकी । कुटका, रा०नि०व० २२। ...रा०नि० । नि०शि० । (२) बृहती । बड़ी कटेरी कटुच्छद-संज्ञा पु० [सं० पु.] (१) तगर का नि०शि०। पेड़ । श० २०। (२) गंधतुलसी । सुगंधार्जक । कटुकी चूर्ण-संज्ञा पु. [सं क्ली० ] (1) कुटकी का वै० निघ। चूर्ण २-३ माशे की मात्रा में शहद के साथ कटुचुरम-[मल. ] जंगली लौकी। चाटने से पुरानी हिचकी और वमन का नाश कटुजालिनी-संज्ञा स्त्री० [सं. स्त्री० ] कड़वी तरोई। होता है । वृ. नि. र. वाल रोग चि० । (२) कोशातको । नि०शि०। १ तोला परिमित कटुकी के चूर्ण में समान भाग कटुजीरक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] जीरा। जीरक । मिश्री मिलाकर खायें । तदनन्तर (चौगूना) गरम . रा.नि.व. । पानी पीएँ । गुण-इसके सेवन से पित्तश्लैष्मिक कटता-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (1) कनचाहट । ज्वर नष्ट होता है । (यह मल बद्ध में विशेष गुण कड़वापन । कडु वाई । (२) तीक्ष्णता । (३) करता है।) चक्र द०। 1. दौर्गन्ध्य ।... कटुकीट, कटुकीटक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] मशक । कतिक्त, कटुतिक्तक-संज्ञा पु० [सं० पु.](१) मच्छड़ । डॉस । मसा । जटा० । चिरायता । किराततिक्रक । भा. पू० भ० । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकका, कटुतिक्तका १६-४७. (२) बड़े सन का पेड़ । महाशणवृत्त । पटसन । (३) सन का पेड़ | शणचुप रा० नि० व० ४ । कटुतिक्तका, कटतिक्तिका -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (१) महाराण । सन का पौधा । पटसन । प० मु० । ( २ ) तितलौकी । कटुतुम्बी । श० र० । (३) शणपुष्पी | धन्व० नि० । कटुतिक्ततुरडी - संज्ञा स्त्री० [ सं स्त्री०] बिम्बी | कड़वा कुन्दरु | कटुतिक्का - संज्ञा स्त्री० [सं० [स्त्री० ] ( १ ) तितलौकी कटुतुम्बी । ( २ ) कड़वी तोरई । कटुतुण्डी । रा० नि० व० ३ । कटुतिन्दुक - संज्ञा पु ं० [सं० पु ं०] कुचला कुचे- कटु-तुम्ब्यादि लेप-संज्ञा पुं० [सं० पुं०] श्रर्श रोग में प्रयुक्त होने वाला एक लेप । लक । श० च० । कटुप्पिली - [ ० ] भुइ श्रोकरा | वशीर । बुक्कन | ( Lippia Nodiflora, Rich . ) जलपीपर । • निर्माण क्रम- कड़वी तुम्बी के बीजों को कांजी में पीसकर गुड़ मिलाकर लेपकरने से बवासीर का समूल नाश होता है । वृ० नि र० श्रर्शचि०। कटु-तैल-संज्ञा पुं० [सं० की ० कड़ा तेल | सरसों का तेल । सार्षप तेल । दे० "सरसों” । : अनि० सू० १४ श्र० । वा० टी० हेमा• ॥ तैल व० । रा० नि० १५ व० । 1 कटु तैल मूर्च्छा - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कडू ये तेल की मूर्च्छा विधि - हड़, हल्दी, मोथा, अनार, केशर, बेल की जड़, काला जीरा, सुगंधवाला, बहेड़ा, नलिका (नली) और श्रामला १-१ कर्ष, मजीठ २ पल, तेल कड २ प्रस्थ, जल २ श्राढक । प्रथम हल्दी पुनः मजीठके चूर्ण का पुनः श्रन्य श्रोषधियों का प्रक्षेप डाल कर विधिवत् तेल सिद्ध करें। यह श्रामदोषहारक है । भैष० २० | वि० दे० 'सरसों" । कटुत्रय-संज्ञा पु ं० [सं० क्ली० ] तीन कदुई औषधियों का समूह । यथा— सोंठ, मिर्च और पीपर । पर्याय — कटुत्रिक, त्रिकटु | रा० नि० व० २२ | भा० । गुण – इसके सेवन से स्थूलता, श्रग्निमांद्य, श्वास, कास, श्लीपद और पीनस रोग नष्ट होता । वा० भ० सं० कटुत्र्यादि चूर्ण - संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] कास रोग में प्रयुक्त, उक्त नाम का एक योग । यथा - सोंठ, मिर्च, पीपल, चीता, देवदारु, रास्ना, वायविडंग, त्रिफला और गिलोय । इन्हें समान भाग लेकर यथाविधि चूर्ण करें । कटुतुण्ड -संज्ञा पु ं० [सं०] कड़ श्री कुनरू । कटुतुण्डिका, कटुतुण्डी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (१) कड़वी तुरई । तिक्रतुण्डी । वीतीतरोई । संस्कृत पय्याय—तिक्रतुण्डी, तिलाख्या और कटुका | गुण - यह कटु तिक्क तथा कफ, वान्ति, विष, अरोचक एवं रकपित्त नाशक और रोचन होती है । ( २ ) कडुवा कुन्दरू | नि०शि० रा० नि० व०.३ । (३) कुनरू । बिस्त्री । तेलाकुचा (बं० ) । वि० दे० "तुरई" | कटुम्बिका, कटुतुम्बी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] तितलौकी | तिक़ालाबु । कड़वी तुम्बी वै० निघ० । राज० । कटु-तुम्बिनी - संज्ञा स्त्री० सं० स्त्री ] तितलौकी । तिन अलाबु । रा० नि० व० ३ । कटुयादि चूर्ण करें | इसका नस्य लेने से पुरातन गलगण्ड का नाश होता है । कटु-तुम्ब्यादि तैल-संज्ञा पुं० [सं० नी० ] निर्माण विधि - कड़वी तुम्बी के ४ गुने रस में और पिप्पल्यादि गण ( पीपल, पीपलामूल, चव्य, चित्रक, सोंठ, मिर्च, गजपीपल, रेणुका, इलायची, अजमोद, इंद्रजौ, पाठा, सरसों, बकाइन, मैनफल, हींग, भारंगी, मूर्वा, श्रतीस, वच, वायविडंग और कुटकी) के कल्क से सिद्ध तैल से गण्डमला और गलगण्ड का नाश होता है । वृ० नि० २० गलगण्ड चि० । कटु-तुम्बी - संज्ञा स्त्री = [सं० स्त्री० ] कड़वी तुम्बी । तितलौकी | विक्र अलाबु । रा० नि. कटु-तुम्बी तैल-संज्ञा पु ं० [सं०ली० ] गलगण्ड रोग में प्रयुक्त उक्त नाम का एक योग, यथा निर्माण विधि-- बायविडंग, जवाखार, सेंधानमक, चव्य, रास्ना, चीता, सोंठ, मिर्च, पीपल श्रीर देवदारु इन्हें समान भाग लेकर कल्क बनाएँ, कड़वी तुम्बी का रस ( स्वरस सबसे चौगुना ) और कड़वा तेल ( १ भाग ) लेकर तेल सिद्ध 1 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटुत्रिक ह १६४८ गुण तथा उपयोग — इसे २-३ मा० की मात्रानुसार मिश्री के साथ सेवन करने से कास । रोग का नाश होता है । वृ० नि० २० कास चि० कटुत्रिक लेह - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] हिक्का रोग में प्रयुक्त उक्त नाम का एक योग - त्रिकुटा, जवासा कायफल, काली जीरी, पुष्करमूल और काकड़ासिंगी के चूर्ण को शहद मिलाकर चाटने से हिचकी खाँसी और कफ श्वास का अत्यन्त शीघ्र नाश होता है । वृ० नि० २० हिक्का चि । कटुत्रिक - संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] दे० "कटुत्रय” | कटुत्रिकादि- दे-सज्ञा पु ं० [सं० पु० ] उक्त नाम का एक योग, जो कास रोग में प्रयुक्त है ! योग-निर्माण- सोंठ मिर्च, पीपल इन्हें समान भाग में लेकर यथा विधि चूर्ण करें। मात्रा - २-४ मा०, इसे गुड़ और घृत के साथ निरन्तर सेवन करने से खाँसी नष्ट होती है । बृ० नि० २० कास चि० । कटुत्व-संज्ञा पु ं० [सं० की ]कड़ आपन । चरपराहट कड़वाहट । झाल । कटुदला - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक प्रकार क्री ककड़ी । कर्कटी । कर्कटिका । रा० नि० व० ७ । कटु-दुग्धिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] तितलौकी । तिक अलाबु । वै० निघ० । कटुनिरुरी -[ मल० ] पानजोली - हिं० | कसूनी । कटु-निरुरे-[ मल० ] पानजोली - हिं० । कमूनी । कटु-निष्पाव-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] एक प्रकार का धान, जिसे नदी निष्पाव वा बोरोधान भी कहते हैं । श० च० । कटु-निष्लाव -संज्ञा पुं० [सं० पु० ] दे० " कटु निष्पाव" । कटु-पड़बल - [ म० ] जंगली परोरा । तिक्र पटोल । जंगली परवल । कटुपत्र - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] } कटुपत्रक - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ]) दवन पापड़ा । पर्पट । ( २ ) सफेद पत्ते की छोटी तुलसी । सितार्जक । रा० नि० ब० ५ । सुमुक । कुठेरक । कड़िअर । (१) पित्तपापड़ा कटुपत्रिका - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कटु-बदरी }< १ ) छोटा कटुपत्री - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] चेंच | लघु चुचु चुप । ( २ ) भटकटैया । भूरेंगनी । ( ३ ) एक प्रकार का चुप । कारी । नोट --- खज़ाइनुल् श्रदविया के अनुसार एक हिंदुस्तानी श्रौषधि, जो उष्ण एवं कषाय होती है। इसका फल शीतल होता है, और स्तम्भन करता है । यह पित्त शामक एवं वायु कारक । ( ख़० श्र० ) । कटुपरनी-संज्ञा स्त्री० [सं० कटुपर्णी ] चूका । कटुपर्ण-संज्ञा पु ं० [सं० ] दे० "कटुपर्णी” | कटु परिका, कटुपर्णी -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (१) भड़भाँड़, सत्यानाशी क्षीरिणी। इसकी जड़ को चोक कहते हैं। संस्कृत पर्याय— कटुपर्णी, हैमवती, हेमज़ीरी, हिमावती, हेमाह्वा, पीतदुग्धा, गुण - हेमाहा रेचक, तिल, भेदिनो और उत्क्तश कारिणी होती है और कृमि, खुजली, बिषं, श्रानाह तथा कफ, पित्त, रक्त और कोढ़ को नष्ट करनेवाली होती है । भा० म० १ भ० वि० दे० "सत्यानाशी' (२) काञ्चन क्षीरी । काञ्चनी । कर्षणी । पिसौरा रा० नि० नि० शि० । 1 कटुपाक - वि० [सं० त्रि० ] पाक भेद | दे० "कवि पाक" । कटुपाकी - वि० [सं० त्रि० ] जिसका विपाक कटु हो । चरपरे विपाक वाला | पचने पर जो चरपरा हो । कटफल - संज्ञा पु ं० [सं० पुं० ( १ ) परवल । पटोल । पर वल । रा० नि० व० ३। (२) कंकोल । कक्कोल । ( ३ ) तीती ककड़ी । तिक्र कर्कटिका । ( ४ ) करेला । कारबेल्लक । ( ५ ) कायफल । ( ६ ) कीकर की फली । बबुरी । संज्ञा पु ं० (सं० नी० ) इन्द्रजौ । इन्द्रयव । वै० निघ० १ भ० वा० व्या० चि० । कटुफला-संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ स्त्री॰ ] ( १ ) श्री बल्ली । सीकाकाई । ( २ ) तितलौकी | विक्रालाडु | रा० नि० ० ३ । ( ३ ) वृहती । वन भंटा । ( ४ ) भटकटैया । कंटकारी | ( १ ) चिचोक । च । (६) काकमाची । कटु बदरी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] लह बेर का पेड़ | Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटुचली १६४६ * कटुबल्ली -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कवी । कुटकी । दे० "कटुवल्ली" । कटुबिम्बी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] कड़ ुवा कुन्दरू | 'कटबीजा- संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] पिप्पली । पीपर । 1 पीपलू | 1 -संज्ञा पुं० [सं० पु० ] सोंठ । त्रिका० । संज्ञा स्त्री सं०] एक प्रकार की जङ्गली भांग | जिसकी पत्तियाँ खाने में बहुत कड़वी होती हैं । > L कटुभङ्ग कटुभद्र - संज्ञा पुं० [सं० की ० ] ( १ ) सोंठ । रा० नि० ० ६ ( २ ) अदरक आदी । भा० पू० १ भ० । कटुभेदिनिका -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कृष्णजीरक | स्याह जीरा । धन्व० नि० । कटु मच्छदा - संज्ञा स्त्री० [सं०] पीरनी । कटु मञ्जरिक - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] कटु मञ्जरिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री"] 1 शुक्रापामार्ग ! सफेद चिचड़ी । लटजीरा । रा०नि० व० ४ । दे० " अपामार्ग" । कटुमारी - सं० स्त्री० [सं० ? ] पीरनी । कटुमदर- [ का० ] अदरक । श्रादी | कटमंद - संज्ञा पुं० [सं० वी० ] एक प्रकार का ज्वर नाशक सुगन्ध द्रव्य । गन्धराज । जवादि । रा० नि० व० १२ । कटुम्बरी - संज्ञा स्त्री० [हिं० कठूमर ] जंगली शं जीर । कटुम्भी संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ज्योतिष्मती । कटुर-संज्ञा पुं० [सं० क्रो० ] ( १ ) तक्र | छाछ । कटवातकिनी मट्ठा | जटा । (२) मूषकभारी । मूसामारी । श्रेणी । नि० शि० । कटुरव -संज्ञा पुं० [सं० पु ं०] मेंढक । भेक | दादुर । रा० नि० ० १६ | कटुरस - संज्ञा पुं० [सं० पुं०] मेंढक । दादुर । कटुरा - संज्ञा स्त्री० [ सं स्त्री] ( १ ) ताजी हरिद्रा | कच्ची हल्दी । (२) कण्टालु । जवासा | लाल जवासा | कुनाशक । कषाय । निः शि० । हल्दी | मालकँगनी | कटुरुरणा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री] निसोथ । विवृता । रत्ना० । कटुरोहिणी - सज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] कुटकी । कटुकी । २० मा० | रा० नि० ० ६ । वा० सू० १५ श्र पटोलादि । च० द० पित्तज्ज० चि० दुराल भादि । " भूनिम्ब वासा कटुरोहिणीनाम् ।” च० द० कफज्व० चि० मुस्तादि । "त्रिफला कटुरोहिणी । " अष्टादशाङ्ग कषाय | "पटोलं कटुरोहिणी ।" च द० ज्व. चि० राज्यादि । -[] मल्लिका । कटुमूल–संज्ञा पु ं० [सं० क्ली० ] पिपरामूल । पिप्पली कटुल्ली - [मल०] जंगली प्याज़ | मूल | रा०नि० व० ६ । कटुलता - संज्ञा स्त्री - [सं० स्त्री] कुटकी । भैष० । कलम - [को०] पानी वेल (बं० ) । कुटकी। कटुम्बरा–संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) (२) राजबला । प्रसारणी । कटुम्बी - संज्ञा स्त्री० [सं०] कड़वा कुनरू | कटुम्भरा - संज्ञा स्त्री० सं० स्त्री० ] ( १ ) गंधप्रसारणी प्रसारणी | गंधाली | च० द० वा० व्या० एकादश शतिक प्रसारणी तैल । (२) कुटकी । वृ० नि० २० (३) कर्कटी । ककड़ी | | कटलमस्तक - संज्ञा पु ं० [सं० नी०] चविका लता । रा० नि० । धन्व नि० । कटुवरा - [मल०] सर्व जया । कटुबर्ग - दे० " कटुकवर्ग ।” कटुवर्ण-संज्ञा पु ं० [सं०] ध्यामक । कटुवल बहु- [सिं०] कटेरी । कटाई । कटुवल्लरी - [मल० ] लाल इन्द्रायन | महाकाल । कटुवल्ला - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] गुम्म डु | कटुअल्ली -संज्ञा स्त्री० [सं स्त्री०] कट्वी । कुटकी । कटुवल्लका - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] तिल | कटवाताद-संज्ञा पु ं० [सं०] कडुआ बादाम | काकिनी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] लक्ष्मणा । नि० शि. । श्वेत कटेरी । G कटुवार्त्ता की संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] कड़ ुआ बैंगन । तिन वार्त्ता की । ( २ ) सफेद भटकटैया । श्वेत कण्टकारी । (३) क्षुद्रबृहती । छोटा बैंगन | रा० नि० च० ४ । कटुवार्त्ताकिनी -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (१) क्षुद्र वृहती । वै० निघ० (२) लक्ष्मणा । नि० शि० । 1 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटु वाष्पिका १६५० कटु वाष्पिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] महाराष्ट्री जिसे कोंकण में गोविंदी कहते हैं । यह कटु, उप मरेठी । गलफुलना । प० मु.। पानी पीपर । कफनाशक, वातनाशक और विसूचिका की नाशक कटु विपाक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] चरपरा-विपाक होती है । वै० निघ। कटुपाक । द्रब्य का पाक कटुत्व । ती, चरपरे कटूमर-संज्ञा स्त्री० [सं० कटु+उदुम्बर, हिं० कठूमर ] और कसैले रस वाले द्रव्य मात्र इसके प्राय जंगली गूलर का वृक्ष । कट गूलर । स्थान हैं, वा यू' कहिये कि उक्र रसमय द्रव्यों | कटूषण-संज्ञा स्त्री० [सं० जी०] (१) पिपरामूल, का विपाक चरपरा होता है। कटु विपाक वाले पिप्पलीमूल । (२) सोंठ । रा० नि. व०६ । द्रव्य गुण में हलके, वायुकारक, शुक्रनाशक और (३) पीपल । पिप्पली । वै० निघ० । • कफ एवं पित्त नाशक होते हैं। सु० सू० ४० कटूषणा-संज्ञा स्त्री॰ [सं० स्त्री० [ दे० "कटूषण" । श्र० । वि० दे० "विपाक"। कटेन्थ-[ मल.] जंगली खजूर । कटुवोजा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] पीपल । पिलो कटेरनी-[ सिंध ] रेंड । अरंड । करबिला । (पं.)। रा०नि०व०६। ई० मे० प्ला। कटुवीरा-संज्ञा स्त्री० [सं. स्त्री. लाल मिर्च । रक कटेग-संज्ञा पुं० [फा० कतीरा ] (१) कंट मरिच । कुमरिच । यह अग्नि जनक, दाहक ओर पलास । गनिबार। (२) कतीरा। सम्मुख बलास, अजीर्ण, विशूची, व्रण, लेद, तन्द्रा, मोह, कताद (१०)। प्रलाप, स्वर भङ्ग एवं अरोचक नाशकहै । कटवीरा संज्ञा पुं॰ [फा०] कसेरू। सन्निपात-जड़ीभूत और हतेन्द्रिय मनुष्य को मरने कटेरा गोंद-संज्ञा स्त्री० [हिं० कटीरा + गोंद ] | नहीं देती । अत्रि० । दे. "मिर्च"। कतीरा। कटुश्रवा-संज्ञा स्त्री० [सं०] कडु वा कुनरू। कटुशृङ्गाट, कटुशृङ्गाल-संज्ञा पु सको कटराए हिन्दी-संज्ञा पुं० [फा०] हिंदी कतीरा मा० । गोंद। एक प्रकार का साग, जिसे गौर सुवर्ण वा सोन कटेरी-संज्ञा स्त्री० [हिं० काँटा ] एक भूलुण्ठित कुछ भाजी भी कहते हैं और जो चित्रकूट में अधिकता क्षुप जो छत्ते की भाँति भूमि पर प्राच्छादित से होता है । रा०नि० व० ७ । होता है। यह ऊँची एवं शुष्क भूमिमें उत्पन्न होती कटुषा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] चकवड़ | पवाँड़।। है। नदी तीर में यह बहुत सुख मानती है और कटसिंह पुत्री-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] छोटा पिठ खूब बढ़ती है । शीतकाल में यह संकुचित रहती न । बुद्ध पृश्निपर्णी। है और गरमी के दिनों में फूल-फल से सुशोभित कटुसिंही-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कड़वा बैंगन । होती एवं बरसात का पानी पड़ते ही क्रिन होकर कटु वार्ताको । . नष्ट होजाती है । इसमें अत्यधिक शाखाएँ होती कटुस्नेह-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (१) सरसों । हैं । जड़ न्यूनाधिक द्विवर्षीय होती है। चुप कॉर सर्षप । त्रिका० (२) कड़वा तेल । कटु तैल । रहित होता है । पत्ती आकृति में बागोभी की भैष० बाल-चि० । (३) सफेद सरसों। गौर पत्ती की तरह की प्रायः युग्म, दीर्घायताकार, सर्षप । रा०नि० व० ७ । कलशाकार ( Pinnatifid) वा भालाकार कटहुश्ची-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) करेली। एवं मसृण होती है, किंतु-इसके दोनों पृष्ठ पर कारबेल्ल । रा०नि० व० ७ । (२) कर्कटी। दीर्घ सुदृढ़ एवं सरल कण्टक होते हैं। पत्र मध्य ककड़ी। से पुष्प-स्तवक निकलते हैं । पुष्प दंड प्रायः इतना कटूत्कट,कटूत्कटक-संज्ञा पुं० [सं० क्ली०] (१) लम्बा होता है, जिस पर ४-६ तक एकाँतरीय, सोंठ। शुण्ठि । (२) अदरक । प्रादी। सवृत, वृहत्, उज्ज्वल नीलवर्ण के पुष्प श्रा र०मा०। सकते हैं । फूल की कटोरी वा पुष्प वहिरावरण कटूदरी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक प्रसिद्ध औषधि पर सीधे कांटे होते हैं । शाखा, पत्र पृष्ठोदर, पत्र Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटेरी १९५२ कटेरी वृत और पुष्प दंड इन सभी पर सर्वत्र तीक्ष्णाग्र | प्रचुर कंटक होते हैं । अस्तु, इसको "दुःस्पर्शा" संज्ञा यथार्थ में अन्वर्थ है । पुष्प दल मिलित होता है और अशाख पुष्प दण्ड पर स्थित होता है । दलान पाँच भाग में चिरित होता है। पराग कोष स्थूल पीतवर्ण का होता है। फल वत्तु लाकार बड़ी रसभरी की प्राकृति का, अति मसूण, नीचे की ओरझुका हुभा होता है । अपक्कावस्था में यह हरा वा सफेद वा चितले रंग का होता है। फल के गात्र पर सफेद धारियाँ पड़ी होती है। पकने पर यह पीला पड़ जाता है। बीज भंटे के बीज की तरह होते हैं । सफेद कटाई के फूल सफेद रंग के होते हैं । इस जाति की कटाई सुलभ नहीं होती। खोजने पर कहीं कहीं मिल जाती है। सफेद कटाई के केशर प्रायः पीले होते हैं, पर किसी-किसी सफेद कटेरी के पुष्प और केशर दोनों ही सफेद होते हैं और समग्र पत्तों और शाखाओं पर सफेद रोना सा होता है। देखने से समग्र क्षप एक श्वेत वस्त्र खण्ड की तरह जान पड़ता है है। इसकी यह जाति दुर्लभ होती है और प्रायः रसायन के काम आती है। पर्याय-कण्टकारी, दुःस्पर्शा, बुद्रा, व्याघ्री, निदिग्धिंका, कण्टालिका, कण्टकिनी, धावनी, दुष्प्रधर्षिणी (ध० नि०), कण्टकारी, कण्टकिनी, दुःस्पर्शा, दुष्प्रधर्षिणी, चद्रा, व्याघ्री, निदिग्धा, धावनी, ( धाविनी), सुद्र-कण्टिका, बहुकण्टा, क्षुद्रकण्टा, खुद्रफला, कण्टारिका, चित्रफला (रा. नि०) कण्कारी, दुःस्पर्शा, नद्रा, व्याघ्रो,निदिग्धिका, कण्टालिका, कण्टकिनी, धावनी, बृहती(भा०) धावनी (के. दे.), प्रचोदनी, बहुगूढाकुली, वार्ताकी, स्पृशी, राष्ट्रिका, कुली, (म०), अनाक्रान्ता, भंटाकी, सिंही, धावनिका (२०) कुलिः (शब्द र०) कासघ्नः (वै० निघ०) कासनी (प.मु०) कण्टोणी, कण्टकफलः, कण्टकफला कण्टकोणी, कण्टका, कण्टकारिः, कण्टकारिका, कण्टकााः , कण्टकालिका, कण्टारिका, कण्टाली, कस्टानिका-सं०। परिचयज्ञापिका संज्ञा-रुद्रा' "बहुफण्टा" "तुद्रकण्टा" "क्षुद्रफला" "चित्रफला" । कटेरी, छोटी कटेरी, कटाई, छोटी कटाई, लघु कटाई, कटेरी, कटाली, कटेली, कटियाली, कटैया, कटखुरी, कांडयारी, भटकटाई, भटकटैया, महूकड़ी, रूपाखुरी, रेंगनी, बहुपत्र डोरला-हिं० । द.। मरा० । कण्टिकारी जंगली बैगुन, काँटाकरी-बं. वादंजान बरीं । वादंजानदश्ती। शौकतुल प्रकरब हदक, इसिम्-भ। बादंगानबरी, कटाई खुर्द-का० । सोलेनम जन्थोकार्पम् Solanum xanthocarpum,Schrad, & Wendi. सोलेनम जैकीनाई Solanum Jacquini, Willd ( Frint or berry of.) ले० । वाइल्ड एग्स प्लांट Wild Eggs plant; Bitter. sweet Woody night shade,-अं० ।Jacquin's night-shade | कण्डङ् कत्तिरि,चंदन घतृक-ता। वाकुडु, नेलमुलक, पिनमुलक, श्वटीमुलंजा, वेरटी मुलगा, वाकुडिचेह-ते. । कण्टम् कत्तिरि, वेलवो वालुटिना-मल । तेलगुला-कना०, का०।चिन्चा:कों० । दोरली, डोरली, रिंगणी, लघुरिंगणी, भुइरिंगणी, भूरिंगणी, काँठेरिंगनी-मरा०, बम्ब० । रिंगनी, बैंगनी, पाथ रिंगनी, बेठी भोरिंगनी-गु० । कटु वल्बटु, कटुवेल-वाटु-सिंहली । ख़यान कज़ोब्रह्मी । कण्टमारिष-उत्, उड़ि• वरूबा,महोड़ी ममोलो-पं० । कंटाली-मार० । कटाली, कट्याली राजपु०। वृहती वा वृन्ताकी वर्ग (N. 0. Solanacece ) उत्पत्ति स्थान-इसके क्षुप भारतवर्ष में सर्वत्र पाये जाते हैं । भारतवर्ष के पूर्वीय और पश्चिमी घाटों पर ये विशेष रूप से होते हैं । हिंदुस्तान में पंजाब से आसान और लंका तक इसकी पैदा यश होती है। ___ रासायनिक संघट्टन-इसके फल में वसाम्ल ( Fatly acids), मोम (Wax ) और एक क्षारोद-ये द्रव्य पाये जाते हैं। सूखी पत्ती में एक क्षारोद और एक सेंन्द्रियाम्ल (Organic acid होता है। मेटीरिया मेडिका श्राफ इंडिया पार० एन० खोरी, खं० २, पृ० ४५०; ई० मे० मे० पृ.८०५) Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटेरी १९५२ औषधार्थ व्यवहार-समग्र तुप, फूल, केसर, फल, बीज इत्यादि। मात्रा-काथ-५-१० तो०; स्वरस १-२ तोर; कल्क। औषध निर्माण-कण्टकत्रय, कण्टक पञ्चमूल, कण्टकारि (री) त्रय, कण्टकारी घृत,कण्टकारी द्वय, कण्टकार्यादि, कण्टकार्यावलेह और भृगुहरीतकी प्रभृति योगों का कण्टकारी एक प्रधान उपादान है ।इससे निम्नलिखित औषधे भी प्रस्तुत होती हैं कंटकारी क्षार-कटाई के समग्र क्षुप को छाया में सुखाकर जला लेवें और जलाने से जो भस्म प्राप्त हो, उससे क्षार-निर्माण-विधि द्वारा लवण प्रस्तुत करें। अर्थात् उक्त भस्म को पानी में घोलकर तीन दिन तक पड़ा रहने दें। इसके उपरांत ऊपर का साफ पानी लेकर पकायें । पानी जल जाने पर जो बचे उसे खुरचकर रखें। यही कण्टकारी का लवण है। गुण प्रयोग--यह श्वास और कास में परम गुणकारी है और श्राहार पाचक एवं क्षुधाजनक है। इसमें सम भाग जौहर नौसादर मिलाकर इसमें से थोड़ा नाक में नस्य लेने से अपस्मार और योषापस्मार श्राराम होते हैं। मात्रा-१-१ रत्ती। कण्टकारी रस क्रिया (सत) कण्टकारी का समग्र रुप लेकर मिट्टी प्रभृति से शुद्ध करके खूब कूटें । पुनः उसमें अठगुना पानी मिलाकर अग्नि पर चढ़ाकर पकायें। जब जलते जलते द्विगुण पानी शेष रह जाय तब उसे कपड़े से छान कर स्थिर होने के लिये रख देवें । इससे उसकी मैल प्रभति नीचे बैठ जायगी। तदुपरांत ऊपर का तरल भाग लेकर पुनः क्वथित करें । जब अवलेह की भाँति गाढ़ी चाशनी हो जाय, तब अग्नि से उतार कर ठंढा होने के लिये रख देवें । ठंढा होने पर इसे चीनी के बर्तन में सुरक्षित रखें। नोट-वाटर-बाथ पर पकाने से सत्व के जलने का डर नहीं रहता। गुण प्रयोग-यह पाचक, चुधाजनक और कृमिघ्न है तथा श्वास एवं कास को दूर मात्र-१ मा० तक। कंटकारी-तैल-कटेरी के पके फल लेकर चीर कर दो-दो टुकड़े कर लेवें। इन टुकड़ों को एक खुले मुंह की बोतल में डालकर, उसमें इतना तिल-तैल डालें जिसमें वे फल डूब जाँय । फिर बोतल का मुंह बंद करके उसे ४० दिन धूप में रखें। इसके बाद तेल को साफ करें। गुण प्रयोग-शिरःशूल, अविभेदक, पीनस, अपस्मार और योषापस्मार रोग में यह तेल थोड़ा थोड़ा नाक में सुड़कें और संधिशूल, अंगमर्द एव सुस्ती के लिये शरीर पर इसका अभ्यंग करें। __ अन्य विधि-कंडियारी के समग्र चुप को कूट कर रस निकालें । यह रस एक भाग, दो भाग तिल-तैल में मिलाकर लोहे की कड़ाही में डालकर चूल्हे पर चढ़ायें। कढ़ाई के नीचे मध्यम अग्नि जलावें । जब रस जलकर तैल-मात्र शेष रह जाय, तब कढ़ाई को भाग से पृथक करें। ठंडा होने पर तेल को छानकर शीशी में सुरक्षित रखें। गुण, प्रयोग-इसके अभ्यंग से संधियों का शूल सप्ताह वा पक्ष के भीतर दूर हो जाता है । कण्टकारी द्वारा धातु मारण कटेरी के विविध अंगोपांगों से सोना, चांदी, प्रभृति अनेक धातुओं की उत्तम भस्में प्रस्तुत होती हैं । सफेद कटेरी की एक विधि ऐसी है, जिससे चाँदी की सालिमुल हरूफ एवं निरुत्थ भस्म तैयार होती है। इसी प्रकार की अन्य अनेक परीक्षित विधियाँ और हैं, जिसका सविस्तारोल्लेख उन-उन धातुओं के अन्तर्गत किया गया है। अस्तु, वहां देखें । यहांपर भी दो-एक विधि का उल्लेख किया जाता है (१) मल्ल भस्म विधि-कटेरी के समग्र क्षपों को जलाकर २ सेर राख प्राप्त करे। फिर उसमें से १ सेर राख किसी मिट्टी के बरतन में दबाकर रखें और उसपर १ तोला सफेद संखिया की समूची डली रखें और उसके ऊपर शेष अर्द्ध सेर राख भी खूब जमाकर रखें, पुनः बरतम को चूल्हे पर रखकर नीचे मन्द अग्नि जलायें, जब राख ऊपर तक गरम. होजाय, तब मन की जगह सलाई प्रविष्ट कर देखें, जव मल नरम होकर करता है। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटेरी १६५३ कंटेरी सलाई उसके प्रार-पार निकल जाय तब अग्नि बुझा देवें और स्वांग शीतल होने पर उसे निकाले मल खिल कर भस्म हो गया होगा। गुण, प्रयोग-यह भस्म कास, श्वास के लिए अव्यर्थ महौषधि है और भूख लगाता एवं पाचक है। मात्रा-अर्द्ध चावल नवनीत के साथ । कंदनपत्री,-ता० । वकुदकाया, नेलमुखकू-ता। कटाई सफेदगुल-फ्रा० । ___वृहत्यादि वर्ग (N. 0. Solanaceae.) उत्पत्ति-स्थान-कचित् । गुणधर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीयमतानुसारकटेरीकण्टकारीकटुस्तिक्ता तथोष्णा श्वासकासजित् । अरुचि ज्वर वातामदोषहृद्गदनाशिनी ।। (ध० नि०व०१) कटाई-कहुई, चरपरी, उष्णवोर्य एवं श्वास तथा कास को जीतनेवाली है और यह अरुचि, ज्वर वात, प्रामदोष, हृदय के रोग को नाश करनेवाली (२) रजत भस्म-कटेरी का समग्र सुप लेकर कूटकर रस निकालें, और उसे बोतल में भर देवें, जब गाद नीचे बैठ जाय; तब ऊपर का निथरा हुआ साफ पानी ले ले। फिर आवश्यकता लुसार चाँदी का बुरादा लेकर इस रस से चार पहर खरल करके टिकिया बनायें और १ सेर उपलों में भाग देवें, फिर निकालकर यथाविधि कटेरी के रस से खरल करके प्राग देवें, इसी प्रकार कई बार आँच देने से चाँदी की उत्तम भस्म प्रस्तुत होती है । गुण, प्रयोगादि-उत्तम सुधाकारक एवं वाजीकरण है। यह शरीर को शक्रि प्रदान करता है। मात्रा-आधी रत्तो तक। सफेद कटेरी-कासघ्नी, शुद्रमाता,वार्ताकिनी, वनजा, आटव्या, कपटा; कपटेश्वरी, मलिना, मलिनाङ्गी, कटुवार्ताकिनी, गर्दभी, बहुवाहा, चन्द्रपुष्पा, प्रियंकरी, लक्ष्मणा, क्षेत्रदूती, सितासिंही, कुमर्तिका, सुश्वेता, कण्टकारी, दुर्लभा, महौषधि, (ध०नि०), सितकण्टारिका, श्वेता, क्षेत्रदूती, लक्ष्मणा, सितसिंही, सितक्षुद्रा, शुद्रवार्ताकिनी, सिता, क्रिश्ना, कटुवार्ताकी, क्षेत्रजा, कपटेश्वरी, निःस्नेहफला, रामा, सितकण्टा, महौषधि, गर्दभी, चन्द्रिका, चान्द्री, चन्द्रपुष्पा, प्रियंकरी, नाकुली, दुर्लभा, रास्ना (रा०नि० व० ४) श्वेता, मुद्रा, चन्द्रहासा, लक्ष्मणा, क्षेत्रदूतिका, गर्भदा, चन्द्रमा चन्द्री, चन्द्रपुष्पा, प्रियंकरी, (भा०)। चन्द्रपुष्पी, वनजा, धूर्ता, दूतिका, श्वेतलक्ष्मा (के०दे०) चन्द्रहासा सितकंटकी,(मद०)। श्वेतकण्टारिका, लचमणा, शुक्रपुष्पकंटकारी, श्वेतकंटकारिका,सं० । श्वेत कंटकारी, सफेद कटेरो, सफेद कटाई, श्वेतरिंगिनी, श्वेतभटकटैया, कटीला-हिं० । शादा कंटिकार, श्वेतकंटिकारी-बं० । श्वेतरिंगणी-मरा। विलियनेस गुल्लु-का०, ते । दौरलिकाफल-द०। २.फा. कण्टकारी कटूष्णा च दीपनी श्वासकासजित् । प्रतिश्यायार्तिदोषघ्नी कफवातज्वरातिनुत ।। (रा. नि० व०४) कटेरी-चरपरी, गरम, अग्निप्रदीपक तथा श्वास, कास, प्रतिश्याय, कफ, वात और ज्वर नाशक है। कण्टकारी सरातिक्ता कटुका दीपनी लघुः । रूक्षोष्णा पाचनी कासश्वासज्वरकफानिलान् ।। निहन्ति पीनसं पार्श्वपीड़ा कृमि हृदामयान्। (भा० पू० १ भ०) कटेरी सर-दस्तावर, स्वाद में कड़वी, चरपरी दीपन, लघु, रूक्ष, उष्णवीर्य एवं पाचक है तथा यह खाँसी, श्वास, ज्वर, कफ, वात, पीनस, पार्श्व पीड़ा-पसली का दर्द और हृदय के रोग-इनको दूर करती है। कटेरी और बनभेटा का फलतयोः फलं कटु रसे पाके च कटुकं भवेत् । शुक्रस्य रेचनं भेदि तिक्तं पित्ताग्निकल्लघु ॥ हन्यात्कफमरुत्कंडू कासभेदक्रिमिज्वरान्।। (भा० पू० भ०) Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटेरी १६५४ कटेरी दोनों कटेरी का फल स्वाद और पाक में चरपरा | वीर्यरेचनकर्ता, भेदक, कड़वा, पित्तकर्ता, अग्निवईक, लघु और कफ वात नाशक है तथा यह खुजली, खाँसी, कृमि और ज्वरादि रोग का निवारण करता है। कटेरी कटुका चोष्णा दीपन्यग्नेश्च' भेदिका। कट्वीरूक्षा पाचनी च लध्वीतिक्ताचसारिका। श्वासं कासं कर्फ वातं पीनसं च ज्वरंजयेत् । हृद्रोगारुचिकृच्छ नी पाश्वशूलस्य नाशिनी ॥ आमंकृमींश्च शूलं च नाशयेदितिकीर्तितम् ।। (नि० र०) कटेरी-चरपरी, गरम, अग्निप्रदीपक, भेदक, कड़वी, रूखी, पाचक, हलकी, कड़वी और दस्तावर है तथा श्वास, कास, कफ, वात, पीनस, ज्वर, हृदय के रोग, अरुचि, मूत्रकृच्छ, पार्श्वशूल, श्राम, कृमि और शूल का नाश करनेवाली है। कण्टकारी फलं तिक्तं कटुकं भेदि पित्तलम् । हृचंचाग्नेर्दीप्तिकरं लघु वातकफापहम्॥ कण्डू श्वास ज्वर कृमि मेहशुक्रविनाशनम् । कटेरी के फल-कड़ए, चरपरे, भेदक, पित्तकारक, हृदय को हितकारी, अग्निदीपक, हलके, वात कफनाशक तथा कण्डू-खाज, श्वास, ज्वर, कृमि प्रमेह और वीर्य विनाशक है। सफेद कटेरीश्वेतकण्टारिका रच्या कटूष्णा कफवातनुत्। चक्षुष्यादीपनी ज्ञेया प्रोक्तारसनियामिका ॥ (रा०नि० व० ४) सफेद कटेरी–रुचिकारी, चरपरी, उष्ण, कफनाशक, वातनाशक, दीपन, चक्षुष्य और पारे को बाँधनेवाली है। कण्टकारीद्वयं तिक्तं वातामकफकासजित्। फलानिक्षुद्रिकाणां तु कटुतिक्तज्वरापहा ॥ कण्डूकुष्ठ कृमिघ्नानि कफवात हराणिच । दोनों प्रकार की कटेरी-कड़ई है तथा वायु श्राम, कफ और कास को दूर करनेवाली है । छोटी कटेरी का फल कड़वा, चरपरा, ज्वरनाशनक तथा । कफ और वातनाशक है तथा यह खुजली, कोदरें और कृमि नाश करता है। तद्वत्प्रोक्ता सिता क्षुद्रा विशेषाद्गर्भकारिणी। __कटाई के समान छोटी सफेद कटाई के भी गुण हैं, विशेषकर यह गर्भकारक है। कटाई के वैद्यकीय व्यवहार चरक-(१) वातोल्वण अर्श में कंटकारीऔषध-सेवन के थोड़ी देर बाद जो वस्तु सेवन की जाती है, उसे अनुपान कहते हैं । वायुप्रधान अर्श रोगी के वायु सरल करने एवं कोष्ठ परिष्कृत रखने के लिये, कण्टकारी का क्वाथ अनुपेय है । यथा कण्टका- शृतं वापि * * । अनुपानं भिषग्दद्यात् वातवर्थोऽनुलोमनम् ।। (चि०६०) (२) मदात्यय जात पिपासामें कण्टकारीमदात्यय जनित पिपासा में षडङ्ग परिभाषानुसार प्रस्तुत कण्टकारी-जल पान करने को देवें । यथातृष्यते सलिलञ्चास्मै...। कण्टका-ऽथवा शृतम् ॥ (चि० १२ अ.) (३) कास में कण्टकारीकृत यूष- षडङ्ग परिभाषानुसार प्रस्तुत कण्टकारी-जल में मूग की दाल को पकाकर युष तैयार करें। इसमें हल्दी और इतना आँवले का रस मिलायें, जितने में वह खट्टा हो जावे । कास रोग में इसका सेवन हितकारी है। यथाकण्टकारी रसे सिद्धो मुद्गयूष: सुसंस्कृतः। । सगौराऽऽमलक: साम्लः सर्वकासभिषग्जितम्।। (चि० २२ अ.) (४) अश्मरी में कण्टकारी-वृहती और कंटकारी इन दोनों की जड़ की छाल को मीठे दही में पीसकर सप्ताह पर्यन्त पीने से पथरी चूर्ण २ हो जाती है । यथा....."बृहती द्वयञ्च । आलोड्य दध्नामधुरेण पेयम् ! दिनानि सप्ताऽश्मरिभेदनाय" (चि० २६ अ.) Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटेरी १६५५ कटेरी सुश्रुत-अलस (खरवात) रोग में कण्टकारी६ कटेरो के चतुर्गुण रस में पकाकर सिद्ध किया हुश्रा | सरसों का तेल सेवन करने से अलस रोग प्रशमित होता है । यथा"सिद्धरसे कण्टका- स्तैलं वा सार्षपं हितम्" (चि० २० अ०) (२) श्वास में कण्ट कारी-श्रामल की प्रमाण कंटकारी का कल्क और उसका आधा हींगइसमें शहद मिलाकर सेवन करने से प्रवल श्वास भी तीन दिन में प्रशमित होता है । यथा"निदिग्धकाश्चामलक प्रमाणम् । हिङ्गवर्द्ध युक्तां मधुना सुयुक्ताम् । लिहेन्नरः श्वासनिपीड़ितोहि, श्वासं जयत्येव वलात् यहेण"। (उ० ५१ अ.) (३) वाताभिष्यन्द में कंटकारी-वातज अभियदंरोग (आँखाना) में कटेरी की जड़ को बकरी के दूध में पकाकर ठंडा होने देवें । सुहाता गर्म रहते इस दूध से नेत्र सेचन करें। यथा"कण्टकार्याश्च मूलेषु सुखोष्णं सेचने हितम्" (उ० प्र०) (४)शकुनी ग्रह प्रतिषेधार्थ कण्टकरीशकुनीग्रह प्रतिषेधार्थ शिशु को कण्टकारीमूल धारण करावें । ( उ० ३० अ०) (५) कास में कण्टकारी द्विगुण कंटकारी के रस में पकाया हुश्रा घी पीने से कास एवं स्वर भेदादि रोग प्रशमित होते हैं । यथा"सम्यग्विपक्वं द्विगुणेन सर्पिः । निदिग्धिकायाः स्वरसेन चैतत् । श्वासाग्निसाद स्वरभेदभिनान् । निहन्त्युदीर्णानपि पञ्चकासान्" । (उ० ५२ अ.) (६) मूत्रदोष हरणार्थ कण्टकारी-कटेरी का स्वरस अथवा कल्क सेवन करने से मूत्रदोष (कृच्छु त्वादि) निवृत्त होता है । यथा'निदिग्धिकायाः स्वरसं पिवेत् कुड़वसंमितम् । मूत्रदोषहरं कल्क मथवा क्षौद्रसंयुतम्” (उ०५८ अ.) चक्रदत्त-(१) कास में कण्टकारी-कटेरी के काढ़ों में पीपल का चूर्ण मिलाकर पियें। पह सभी प्रकार कासनाशक है। (२) मूत्रकृच्छ में कण्टकारी-कटेरीका रस शहद मिलाकर पीनेसे मूत्रकृच्छु रोग नष्ट होता है। यथा"निदिग्धिकारसो वापि सक्षौद्रः कृच्छ्रनाशनः" (मूत्रकृच्छ्र, चि.) (३)मूत्राघातरोगों कण्टकारी-कण्टकारी स्वरस को वस्त्र पूत कर पीने से, मूत्ररोध प्रशमित होजाता है। यथा"निदिग्धिकायाः स्वरसं पिवेद्वस्त्रान्तरस्नु तम्" (मूत्राघात वि०) नोट-मूत्रकारिणी होने से कटेरी उभय रोगों में प्रयोज्य है। वङ्गसेन-शिशु के चिरकारी कास में व्याघ्रीकुसुम-केसर-कटेरी के फूल के केसर का चूर्ण शहद के साथ चटाने से शिशुओं का चिरकारी कास रोग नाश होता है । यथा"व्याघीकुसुम सञ्जातं केसरैरवलेहिकाम् । जग्ध्वाऽपि चिरजं जातं शिशोःकासं व्यपोहति।" (वालरोगाधिकार) नोट-उपयुक्त प्रयोग केवल शब्दभेद से भाव प्रकाश में भी पाया है। वक्तव्य चरक ने कराठ्य,हिक्कानिग्रहण,कासहर, शोथ हर, शीत प्रशमन और अङ्गमईप्रशमन वर्ग में कण्टकारी का पाठ दिया है (सू० ४ अ.)। जिसके सेवन करने से कण्ठ स्वर की वृद्धि होती है एवं जो कंठ के लिये हितकर होता है, उसे कण्ठ्य कहते हैं। इस लिये स्वर भेद में कएकारी प्रयोजित होती है। शीत प्रशमन होने से यह सन्निपात ज्वर में हित कर होती है। अङ्गमईप्रशमनार्थ वात और ज्वर में इसका प्रयोग होता है। सुश्रु त ने वृहत्यादि वर्ग में कण्टकारी का पाठ दिया है (सू० ३८ प्र0)। श्वेत कंटकारीको भाव प्रकाशकार ने "गर्भकारिणी" संज्ञा से Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटेरी कटेरी अभिहित किया है। सुतरां यह वन्ध्यत्व दोष निवारणार्थ सेवन की जाती है। यूनानी मतानुसार गुण दोष--- - प्रकृति-द्वितीय कक्षामें उष्ण और रूक्ष(मतांतर से तृतीय कक्षा में गरम और खुश्क)। स्वादफ्रीका, किंचित्कटु और कुस्वाद । हानिकत्तोश्राकुलताजनक । यह कर्ब--बेचैनी पैदा करती है। इसका सदा खाना मष्तिष्क को हानिप्रद है। दर्पघ्न-व्याकुलता के लिये सिकंजबीन । काली मिर्च एवं शुद्ध मधु । प्रतिनिधि-ऊँटकटारा । प्रधान कर्म-खाँसी के लिये अतिशय गुणकारी है। मात्रा-२ माशा ( ४-५ फूल और फल श्राधा)। गुणा, कर्म, प्रयोग-यूनानी हकीमोंके कथनानुसार इसके रस का नस्य, योषापस्मार-इख्तिनाकुहिम एवं मृगी जात मूर्छा के लिये परमोपयोगी है। इससे तुरत होश आ जाता है । लटके वा ढीले पड़े हुये स्तनों पर इसकी जड़ और अनार के पेड़ की छाल एवं कंदरी के पौधे की छाल--इनको पीस कर लेप करने से, वे दृढ़ एवं कठोर हो जाते हैं । इसके फल का लेप वायु एवं कफज शोयों को सम्यक विलीन करता है और वात एवं कफ जनित शूल को शांत करता है। इसके भक्षण से कास और श्वासरोग पाराम होते हैं। इससे उदरज क्रमि भी नष्ट प्राय होते हैं। • परन्तु इससे मूर्छा उत्पन्न होती है। यह पाचक भी है और भूख लगाती है। केवल फल अथवा इसके सींग को जलाकर मधु के साथ एक रत्ती वा चार रत्तो वा एक माशा खाने से खाँसी और दमा जाते रहते हैं । इसकी पत्तियाँ अर्श को गुण कारी है। इसकी जड़ के चूर्ण का खांड़ और गो दुग्ध के साथ सेवन प्रवल स्तंभन कर्ता है। इसके फलों के लेप से बाल काले होते हैं। इसके खाने से कफ एवं पित्त दोष मिटते हैं। यह कफ ज्वर और पार्श्वशूल में लाभकारी है । सूधने की शक्ति का हास हो जाने पर, यह ओषधि अतीव गुणकारी है । भटकटैया साबुन की भांति मलिनता को दूर करती है और इस हेतु यह उसकी प्रतिनिधि है । वृश्चिक आदि जीवों के काटने पर इसका लेप गुणकारी है। यह क्रान्ति एवं श्रम को निवारण करती है। इसके फूल का जीरा मलावरोध को दूर करता और वस्तिगत अश्मरी को निकालता है। कटाई के रस की विधि प्रथम जमीन में एक बड़ा गड्ढा खोदें और उस गड्ढे की तह में एक और छोटा गड्ढा खोदें . छोटे गड्ढे में चीनी का प्याला या और कोई पान रख देखें और उसके ऊपर एक बड़ी हाँड़ी जिसके पेंदे में कतिपय छिद्र हो, रखें । हाँड़ी को कटाई के पौधों से भर देखें और ऊपर से ढक्कन रखकर कपड़ मिट्टी कर देखें | फिर हाँड़ी के चतुर्दिक और उसके ऊपर उपले चुनकर भाग लगा देवें । कोई-कोई हाँड़ी न रखकर बड़े गड्ढे में ही कटाई के पौधों को रख कर ऊपर घास फूस फैलाकर आग लगा देते हैं। इससे कटाई का रस टपक टपक कर प्याले में एकत्रित हो जाता है । इसे बोतल में भरकर रखें। गुण, उपयोगादि-इसके पीने से सर्द एवं तर खाँसी और दमा में परम उपकार होता है। (नेत्राभिष्यंद रोग में इसे आंखों में लगाने से उपकार होता है। इसे शहद में मिलाकर चटाने से सूजाक श्राराम होता है । तर कास, कृच्छ श्वास, क्षतज क्षय, वातज एवं कफज कास, सीने का दर्द, शीतवर, कंप-इन रोगो में कुछ बूद यह रस पान के साथ खाने से उपकार होता है। )-ख. अ.। सफ़ेद फूल की कटाई कटाई खुर्द अर्थात् लघु कटाई की ही एक किस्म है। दोनों कटाई अर्थात् लची और वृहती जिसके फूल लाल रंगके होते हैं, कटु, तीक्ष्ण एवं कृमिघ्न होती है तथा वायु, ज्वर पार्श्वशूल, मूत्रकृच्छ्र का मूत्राघात, घ्राणशनि का हास-इन्हें दूर करती और उदरज कृमि एवं गर्भस्थ स्त्री तथा हृदय के रोगों को नष्ट करती हैं । प्रकृति-उष्ण और रूक्ष है । यह लघु गुण विशिष्ट है और अपने प्रभाव से कोष्ठ मृदुकरमुलरियन, तुधाजनक, आहार पाचक एवं कास तथा श्वास कृच्छता को लाभ पहुंचाता है।ता० शा०। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटेरी कटेरी कटेरी के अन्य प्रयोग समग्र क्षुप इसके उपयोग से श्वास, कास, प्रतिश्याय और वक्ष के रोग निवृत्त होते हैं। इसके फल में भी वेही गुण होते हैं, जो इसकी जड़ में हैं। यह प्रौपसर्गिक मेह, कुष्ठ, मलबद्धता तथा वस्त्यश्मरी को दूर करती है और मूत्रल है। इसका काढ़ा पीने से उदरशूल मिटता है। इसका लेप करने से पाँव के तलुवों की गर्मी और छाले श्रीराम होते हैं। इसका काढ़ा करके पिलाने से जुकाम (प्रतिश्याय) नष्ट होता है । ऋतु-परिवर्तन होने पर जलवायु, भूमि और वनस्पति प्रादि की दुर्गधि के कारण जो ज्वर होता है, उसके निवारणार्थ शाहतरा (पित्तपापड़ा), गुरुच और लघु कटाई इनका काढ़ा करके पिलाना चाहिये। कराई को रातभर पानी में भिगोकर प्रातः काल वस्त्र-पूत कर मिली मिलाकर पिलाने से सूज़ाक आराम होता है। यकृत की वातज व्याधियों के निवारणार्थ इसको कथित करके पिलाना चाहिये । इसकी जड़, छाल, पत्ते और फल-इनको कथित कर गण्डूष करने से कीट-भक्षित दन्तशूल निवृत्त होता है । पानी में इसका काढ़ा करके कुल्लियाँ करने से दंतशूल आराम होता है। इसको पानी में पीसकर सिर के तालु पर लगाने से या पत्तों और जड़ का रस निकालकर नाक में टपकाने से नकसीर बंद होती है। इसको पीसकर खाने से सभी प्रकार के विष शांत होते हैं । इसके रस में मधु मिलाकर चटाने से सूज़ाक श्राराम होता है। इसका शुद्ध रस लेकर छाछ में मिलायें और फिर उसे वस्त्र-पूत करलें । इसके पीने से मूत्रावरोध दूर होता है । इसको पीपल के साथ पीसकर शहद में मिलाकर चटाने से खाँसी दूर होती है । इसका रस और गुरुच का रस हर एक ५१ तो०३ मा० लेकर सेर भर घी में मिलाकर पकायें। जब रस जलकर घी मात्र शेष रह जाय, तब उतार सुरक्षित रखें। यह घी खिलाने पिलाने से वातज कास एवं अजीर्ण दूर होता है। इसके काढ़े में पिप्पली-चूर्णका प्रक्षेप देकर पिलानेसे कास दूर होता है । इसको पीसकर खिलाने से साँप का जहर उतरता है। ख० म. आर० एन० खोरी-कटेरी सर अर्थात् मृदुरेचक, प्राध्मानहर, वायुनाशक, कफनिःसारक एवं मूत्रल है । श्वास, कफरोग, फुफ्फुसारित कफदोष, ज्वर, श्राध्मान और वन एवं पार्श्वशूल में 'कण्ट कार्यवलेह" (जिसका प्रधानतम उपादान कण्टकारी है) उपयोग में आता है। मूत्रकृच्छ,, वस्तिगत अश्मरी एवं शोथ रोग में मूत्रकारक रूप से कण्टकारी का काथ हितकारी है । सरत्वहेतु कोष्ठबद्ध में इसका उपयोग होता है । --मेटीरिया मेडिका श्राफ इंडिया, खं० २, पृ० ४५० । डीमक-कटेरी, सारक (Aperient), कटु, तिक, पाचक, मूत्रल, परिवर्तक, संग्राही एवं कृमिघ्न है तथा यह ज्वर, कफ ( Cough ), श्वास. श्राध्मान, मलबद्धता और हृदय के रोगों में उपकारी है। यह त्रियों में प्रजास्थापन वा गर्भ धारण करनेवाली भी ख्याल की जाती है। चिकित्साकर्म में इसे प्रायः अन्य श्लेष्मानिःसारक स्निग्धतासंपादक एवं सुगंधित श्रोषधियोंके मिश्रित कर व्यवहार करते हैं। कोंकण में कटेरी के ताजे क्षुप का स्वरस २ तो० और अनंतमूल ( Hemidesmus) का स्वरस २ तोला इनको छाया में मिलाकर मूत्रकारक रूप से व्यवहार करते हैं । ज्वरहरणार्थ कटेरी की जड़-चिरायता और सोंठ का काढ़ा व्यवहार्य होता है। डाक्टर पीटर्स (Bombay Medical Service) हमें यह सूचित करते हैं कि बंगाल में शोथरोग ( Dropsy ) में मूत्रकारक रूपसे कटेरी के क्षुप का बहुल प्रयोग होता है ।-फा. इं०२ भ. पृ० ५५८-५९ । कएटकारी पत्र कटेरी के पत्तों को पीसकर और उसकी टिकिया बनाकर आँख पर बाँधने से नेत्रशूल दूर होता है। इसका रस आँख में लगाने से भी उक्त लाभ होता है।-ख. अ०। इसके पत्ते अर्श में लाभकारी हैं।-म० मु०। कटेरी का दूध यदि अाँख दुखने को भा जाय, तो इसके सिरे से पत्तों को तोड़ें और इससे जो दुधिया रस निकले Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटेरी १६५८ कटेरी उसे आँखों में लगावे। इसके दो-तीन बार के प्रयोग से आँखों से पानी निःसृत होकर रोग | श्राराम हो जाता है। इसका दूध नाक में टपकाने से मृगी रोग का | उन्मूलन होता है । इसे अंखि में लगाने से नेत्रा- | भिष्यंद आराम होता है ।-ख० अ०।। कण्टकारी मूल इसकी जड़ और भंग के बीज दोनों बराबर २ | लेकर शिशु-के मूत्र में पीसकर नस्य देने से मृगी दूर होती है और प्रतिश्याय प्राराम होता है। इसकी जड़ को नीबू के रस में घिसकर आँख में लगाने से धुन्ध और आला ये दूर होते हैं । -ख० अ०। ऐन्सली–देशी चिकित्सकों के मतानुसार कटेरी का द्र, किंचित्तिक्क और ईषदम्न फल तथा मूल दोनों श्लेष्मानिःसारक होते हैं अतएव वे इन्हें कफ रोग (Coughs) क्षयरोग (Consum ptive Complaint) एवं दोपज श्वास रोग में भी क्वाथ, अवलेह और गुटिका रूप में योजित करते हैं । काढ़े की मात्रा १॥ तोला की है और इसे दिन में २ बार देते हैं । -मेटीरिया इंडिका, खं० २, पृ०६०१ उ. चं० दत्त-कण्टकारी-मूल कफनिःसारक है तथा कास (Cough), श्वास, प्रतिश्याय ज्वर एवं उरःस्थ वेदना में इसका उपयोग होता है। औषधों में क्वाथ, अवलेह और घृत प्रभृति नाना रूपों में कण्टकारी व्यवहृत होती है। कास एवं प्रतिश्याय रोग में कटेरी की जड़ के काढ़े में पीपल का चूर्ण और मधु मिलाकर व्यवहार करते हैं और आक्षेपयुक्त कास ( Cough) में सैंधव और हिंगु के साथ यह सेव्य है। -हिंदूमेटीरिया मेडिका। छर्दि निग्रहणार्थ-कण्टकारी-मूल को पीसकर मदिरा के साथ व्यवहार करते हैं। यह कफनिःसारक एवं मूत्रल है। अतएव प्रतिश्याय एवं उवर में इसकी जड़ का बहुल प्रयोग होता है। नादकर्णी-कटेरी की जड़ का प्रयोग बृहतीमूल की भाँति होता है । श्वासरोग विशेष । (Humoralasthima), कफ (Cough) प्रतिश्याय-ज्वर तथा उरःशूल एवं मूत्रकृच्छ, ( Dysuria ), वस्त्पश्मरी, मलावरोध, जलोदर, उग्र ज्वर के परिणाम स्वरूप होनेवाला रोग, क्षय रोग, कुष्ठ, सार्वा गिक शोथ (Anasarea) साांगिक शक्ति की मंदता, यकृदुदर और प्लीहो. दर इन रोगों में कटेरी व्यवहृत होती है ।प्रवाहिका एवं शोथ रोग में इसके साथ कुर्चि वा कुड़ा योजित होता है । कटेरी के जड़ के काढ़े के साथ सुरासार और खनिज मूत्रलौषध मिलाकर व्यवहार करते हैं और सेवन काल में दूध का पथ्य देते हैं। ई० मे मे० पृ. ८ ५-६) आर० एन० चोपड़ा-कण्टकारी-मूल भार• तीय चिकित्सकों द्वारा प्रयक श्रोषधों का एक प्रधान उपादान है। उन्हें बहुत पहले से इसका प्रवल मूत्रकारक, श्लेष्मानिःसारक और ज्वरघ्न प्रभाव ज्ञात है। ज्वर एवं कास में कटेरी की जड़ और गुरुच के काढ़े को वल्य बतलाते हैं। इं० डू० इं० पृ. ५६६। ___ गोदुग्ध अोर बूरे के साथ इसकी जड़ का ( वा मूलत्वक् ) चूर्ण प्रवल स्तंभक है। -म० मु०। बु० मु०। कटेरी की जड़ के काढ़े का गंडूष करने से कीड़े खाये हुये दाँतों का दर्द श्राराम होता है । ___ जलंधर और ज्वर (तप मुफरद व मुरकब) में कटाई की जड़ परीक्षित औषधि है । __ अर्द्धावभेदक और मृगी में इसकी जड़ और हल्दी दोनों को घिसकर गोघृत मिला शिरोऽभ्यंग करने से उपकार होता है। ज्वर में कटाई की जड़ की धूनी लेने से ज्वर शांत होता है। गलगण्ड में एवं अबुद रोग में इसकी जड़ गले में लटकाने से उपकार होता है। . इसकी जड़ को स्त्री-दुग्ध में विसकर नाक में सुड़कने से मगी रोग प्राराम होता है। ___ गर्भपात, मृतवत्सा वा जात शिशु का जीवित न रहना आदि स्त्री-रोगों में कटाई की जड़ और पीपल को भैंस के दूध के साथ पीसकर पिलाने से Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटेरी उक्त दोष मिट जाते हैं और गर्भ सुरक्षित रहता एवं स्वस्थ शिशु का प्रसव होता है । १६५६ कण्टकारी त्वक्-श्राध पाच कटाई की छाल पोटली में बाँधकर दो सेर ताज़े गोदुग्ध में श्राधा दूध शेष रहने तक पकायें । तदुपरांत उसे साफ करके पियें। वादी और अम्ल पदार्थ खाने पीने से परहेज़ करें । इससे साध्य क्लीवत्व का रोगी भी पुनरपि पुत्व शक्ति प्राप्त करता है । उसकी स्वाभाविक पु ंस्त्व शक्ति स्थिर हो जाती है और वह मर्द बन जाता है। कटाई के फूल इसके फूल शीघ्रपाकी एवं वात कफनाशक और क्षुधाजनक हैं तथा कास और हिक्का को लाभ प्रद हैं। इसके फूलों का जीरा विबंधनाशक है औौर वस्त्यश्मरी को निकालता है । यदि इसे पीसकर मधु में मिलाकर शिशु को चटायें, तो तज्जात कास रोग दूर हो । - ० ० । डाक्टर विलसन ( Calcutta Med. Phye. Trans, Vol !!, P. 406 ) के मतानुसार इसके कांड, पुष्प और फल तिक एवं वायु निस्सारक हैं और जलपूर्ण विस्फोटक युक्त पाद-दाह Ignipelitis ) में प्रयोजित होते हैं । - फ्रा० इं . २ भ० पृ० २५८ । वंध्या स्त्री को श्वेत कटेरी का फूल खिलाने से उसे गर्भस्थापन होता है । उसे खाने से श्रामाशय की शक्ति बढ़ जाती है और श्राहार- पाचन में सहायता प्राप्त होती है और कफ, कास, कृच्छ,,कुष्ठ और कफ ज्वर आराम होते हैं। कटाई और फल के बीज इसके फलों को मस्तक पर लगाने से शिरःशूल श्राराम होता है । इसके फलों को कूटकर सम भाग तेल मिला कर कथित करें । जब द्रव भाग जलकर सूख जाय और तैल मात्र शेष रह जाय तब तेल को वस्त्र-पूत करलें । इस तेल के अभ्यंग से कठिन से कठिन वायु के रोग शांत होते हैं। इसके रस में मधु मिलाकर चटाने से सूजाक राम होता है। कटेरी कटेरी के बीजों को मक्खन निकाले हुये दूध में वें और फिर शुष्क कर लेवें । इसके बाद उन बीजों को छाछ में भिगोकर रात भर रहने दें और दिन में सुखा लिया करें। इस प्रकार चार-पाँच दिन तक करें। इन बीजों को घी में तलकर खाने से उदरशूल और पित्तज व्याधियाँ शांत होती हैं । इसके बीजों को पानी में पीसकर प्रलेप करने सूजन उतरती है। से I इसके बीजों को पीसकर इन्द्रो पर मर्दन करे और ऊपर से एरण्ड-पत्र 'बाँध देवें । इससे मैथुन शक्ति पैदा होती है और नपुंसकता का नाश होता है । इसको (फल) पीसकर खिलाने से साँप का विष उतरता है | ख़० श्र० । इसके फल का लेप कफजात सूजन को सम्यक् विलीन करता है एवं यह उसके लिए गुणकारी है । इसके खाने से कास एवं श्वास दूर होते हैं । परन्तु यह श्राकुलताजनक है अर्थात् इससे व्या कुलता एवं मूर्च्छा उत्पन्न होती है | ( उत्तम यह है कि इसे शुद्ध करके काम में लावें ) फल पाचक ( और सुधाजनक ) है । म० मु० 1 इसके फल का प्रलेप कफज शोथों को विलीन करता और बाल काले करता है । कास, श्वास, कफ और पित्त के दोष, ज्वर, पार्श्व-शूल, मूत्र कृच्छ्र. मलावष्टंभ कब्ज, सूंघने की शक्ति का जाते रहना, उदरज कृमि और बंध्या स्त्रियों के रोग- इनमें कटेरी के फूल और फल का सेवन लाभकारी है। । बु० मु० । इसका फल हुक्का में तमाकू की भाँति सेवन करने से दंत कृमि नष्ट होजाते हैं । यदि इसके फल को पानी में पकाकर गो घृत भून लें, और मांस, मसाला एवं प्याज के साथ पकाकर खायें, तो वात, पित्त, कफ, श्वास, कास, पार्श्व शूल, ज्वर, मूत्रकृच्छ, प्राण शक्ति का नष्ट होजाना इन रोगों में उपकार हो तथा यह उदर कृमि नष्ट करने और बन्ध्या स्त्रियों के रोग - निवारण करने के लिये यह बहुत ही गुणकारी है। यह पाचक और बल्य है । इससे चित्त प्रप्तन्न रहता Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • कटेरी. १६६. कटली पाक है और शरीर में शक्ति प्राजाती है तथा नेत्र रोग बी. डी. बसु के अनुसार इस पौधे का काढ़ा पाराम होते हैं। सुज़ाक रोग में लाभकारी है। इसकी कली और यदि इसके फल को तिल तेल वा बादाम फूल प्रांखों से पानी जाने की बीमारी में लाभ तैल में भूनकर तेल को साफ करलें, और श्राव- पहुँचाते हैं। श्यकतानुसार उस तेल को कान में डालें तो इससे पक्षाब में इसके पत्तों का रस कालीमिर्च के कर्णशूल तुरन्त शांत होताहै । शरीर पर इस तेल साथ श्रामवात रोग में दिया जाता है। के मलने से क्रान्ति एवं श्रान्ति दूर होजाती है। बगाल में यह औपधि जलोदर रोग में मूत्रल शहद में मिलाकर इसकी गुदवर्ति करने से गुदा वस्तु की तरह काम में ली जाती है। जात कृमि नष्ट होते। कटेरे की झाड़-[२०] कटेरा । गनियार । __इसके फल को जलाकर भस्म कर लेवें । यह कटेली-संज्ञा स्त्री॰ [देश॰] (१) एक प्रकार को भस्म १ रत्ती से ४ रत्ती तक या एक माशा तक ___ कपास जो बङ्गाल प्रांत में बहुतायत से होती है। सेवन करने से कास और श्वास दूर होजाते हैं। | कटला अवलह-सज्ञा पु ०-१ सर | कटेली अवलेह-संज्ञा पु०-१ सेर कटेली लेकर १६ - इसके फल का रस लगाने से सफेद बाल काले सेर पानी में काथ करें जब ४ सेर शेष रहे तब ४ होजाते हैं। सेर मिश्री की चाशनी प्रस्तुत कर पुनः इसमें __ कटाई के बीजों की भस्म, काला नमक, और गिलोय १ टका भर, चव्य १८०, चित्रक १ ट., पीपल सम भाग लेकर लऊक सपिस्तों के साथ नागरमाथा १ ८०, काकड़ासिगी १ ८०, सोंठ १ ट०, पीपर १ ८०, धमासा १ ८०, भारङ्गी १ ८० थोड़ा प्रयोग करावें । पुरातन कास में यह परीक्षित हैं। कचूर १ ८0, इन्हें महीन पीस चासनी में मिलाएँ - आर. एन. खोरी-अपक्क, स्फोटक एवं फिर इसमें : सेर शहद और १ पाव बंशलोचन का चूर्ण तैयार कर मिलाएँ। गुण-१ टका भर बध्नाधिपर कटेरी के बीजों को पीसकर प्रलेप नित्य खाने से हर प्रकार की खाँसी नष्ट होती है। करने से, वे पक्कता को प्राप्त होते हैं। कटेरी के श्रम० सा०। बीजों की धूनी (Fumigation ) को लाला स्वाव वद्धक जानकर एतद्देशीय लोग इसका कटेली-पाक-हिं संज्ञा पु-कण्टकारी अवलेह । व्यवहार करते हैं । अधिकन्तु क्रिमि-शनित दंत योग-पत्रमूल सहित कटेरी १ तुला (१०० पल) शूल निवारणार्थ यह धूम अति प्रशस्त है। मे० १ द्रोण ( ४०६६ टंक) जल में १०० टंक हड़ मे0 आफ इं २ य) खं०, पृ० ४५०। डाल के श्रौटाएँ, जब चौथाई शेष रहे तब कपड़े से छानकर उसमें १०० पल गुड़ मिलाके औटाएं डीमक-कटेरी के जलते हुये बीजों के वाष्प जब चाशनी ठीक आजाए तब फिर उसमें त्रिकुटा की धूनी लेने से दंत,शूल धाराम होता है। यह ३ पल, शहद ६ पल मिलाएं। इसके बाद इसमें धूनी बहुत प्रसिद्ध है। देशी लोग इन बीजों को बंशलोचन, खैरसार, ब्राह्मी, भारङ्गी, काकड़ासिंगी, चिलम में रखकर तमाखू की भाँति पीते हैं। और कायफल, पुष्कर मूल और अडूसा प्रत्येक अर्द्ध उनका यह विचार है कि इसके धूम से वे कीड़े अर्द्ध पल । दालचीनी, तेजपात, इलायची, नागनष्ट होजाते हैं जो शूल उत्पन्न करते हैं। पुराने केशर, एक एक तोला बारीक चूर्ण कर मिलाकर लोग पारसीक यमानी बीज ( The Seeds उत्तमअवलेह प्रस्तुत करें। मात्रा-१-४ माशा । of Henbane) को भी इसी प्रकार सेवन गुण तथा प्रयोग-बिधि-इसे विधि-पूर्वक करते थे। ये प्रबल लालास्राव वद्धक प्रभाव करते सेवन करने से वात, पित्त, और कफ से उत्पन्न हैं । अस्तु, इनसे रोग शमन हो जाता है। फाo रोग दो दोषों से उत्पन्न ब्याधियां, खांसी, त्रिदोष इं० २ भ0 पृ०५५८-५६ । विकार, क्षत रोग, क्षयी, पीनस, श्वास, उरःक्षत नोट-दंतशूल में इसकी धूनी लेने की विधि | तथा ११ प्रकार की यक्ष्मा रोग को नष्ट करता है। ठीक गोनी बीजवत् ही है । अस्तु,दे० "गोनी"। | (योग चि०) Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फटेकरां कटैकरा -संज्ञा पुं० [ कलेरा ] कटैया-संज्ञा स्त्री० [सं० कंटक ] भटकटैया । कण्ट कारी । i कटैर-संज्ञा पु ं० [हिं० कटहर ] कटहल | पास । कला-संज्ञा पुं० [?] एक क़ीमती पत्थर । कटोड - [पं० ] मरघलवा ( पं० ) । कटोद - संज्ञा पुं० [सं० पुं०] कटोरा । च० सू० १५ अ० । कटोन (टौ)-कैड-मरवर- [ मल० ] मानकंद | कटोन-थेक मरवर- | अंबरकंद । भुइकाकली ( Eulophia Nuda, Lindl.) कटोर - कटोरक-संज्ञा पुं० [सं० क्री० ] एक प्रकार का मिट्टी का बरतन । कटोरा । श० च० कटोरा - संज्ञा पु ं० [सं० स्त्री० ] धातु का प्याला । बेला । श० च० | कटोरी - संज्ञा स्त्री० [ • कटोरा । बेलिया । प्यालो । कटोरिया । [० कटोरा का श्रल्पा० ] छोटा संज्ञा स्त्री० [ पं०, सिंध ] श्रम्बष्ठा । पाठा । कटोल- कटूल - संज्ञा पुं० [सं० पुं० ] कटुरस । चरपरा रस । चरपराहट । उणा० । वि० [सं० त्रि० ] कटु | कड़वा । संज्ञा पुं० [?] ( १ ) उश्नान । नोट – इलाजुलगुर्बा में उश्नान के विषय में उल्लेख है, कि यह श्रतिशक में उपयोगी है। कटोल को कूट छानकर पहले दिन एक माशा, दूसरे रोज़ दो माशे इसी प्रकार प्रतिदिन एक-एक माशा बढ़ाकर सप्ताह पर्यन्त सेवन करें। इसके उपरांत त्याग दें। इस बीच में एक बार कै और विरेचन होगा। इसके सेवनकाल में केवल अम्ल वस्तुओंके और किसी चीज़का परहेज नहीं । कटोल कूट छानकर पानी में मिलाकर सर्पदष्ट व्यक्ति को पान करावें । इससे कै श्रायेगी और साँप का ज़हर नष्ट होगा । (२) बाँझ ककोड़े की जड़ । दे० "खेखसा" । कटौसी-संज्ञा पु ं०, दे० " कटवाँसी" । कटकटी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कटंकटेरी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] दारूहल्दी । के० दे० नि० । नि० शि० । कटूकला - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] वृहती । बड़ी कटेरी | वन भंटा । २८ फा० कट्टरम् तुलसी कटकाली - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] अल्पायुषी । बजर | | ( Corypha Umbraculifera) कट्की - [ बं०, हिं०] कुटकी । कटुकोमजंग-[ संथाल ] पुदु (हिं०)। Viscumarticulatum, Burm.) कट्ग मुर्गम्- नितूरु - [ ते० ] हीरादोखी । दम्मुल् खवै। कट्ट - [ ता०] [ बहु० कंडलु ] काष्ठ । काठ | लकड़ी | कट्टर जाति - [ ता० ] यबरूज । ( Mandragora officinarum, Linn.) कट्ट इत्तुल्लवा - [ मल० ] वन तुलसी । कट्टक -संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] निर्मली। फल । कट्ट (त) काम्बु - [ ता० ] कत्था | खैर । कट्ट-कस्तूरी - [ मल० लता कस्तूरी । मुश्कदाना । - गिरि- [ ना० ] कीड़ामार । गंधानी । धूम्रपत्रा । Aristolochia bracteata, Reta. कट्टट्टी - [ मल० ] कचनार । कट्ट-बोग्गु ते ] लकड़ी का कोयला | कट्टम - [ ता० ] पटचउली ( बं० ) । कट्ट-मरणक - [aro ] जंगली रेंड | कट्ट-मक्कु -[ ता० ] जंगली रेंड | कट्टर - [ मदरास ) (Dolichos falcatus, Klein. ) कल्ली -[ मदरास ] धनियाँ । धन्याक | कांथमीर । कट्टरतैल-संज्ञा पुं० [सं० नी० ] एक तै ज्वर एवं विदाह में उपयोगी होती है । योग और निर्माण विधि - मूच्छित तिल तैल ४ शराव, कल्क द्रव्य सब मिलाकर १ शराब और तक्र २४ शराव इनसे यथाविधि तैल सिद्ध करें । कल्क द्रव्य ये हैं- सोंचर नमक, सोंठ, कुट, मूर्वा की जड़, लाक्षा, हल्दी, और मजीठ । गुण- इस तेल के लगाने से ज्वर में होने वाला शीत और दाह दूर होता है । वै० निघ० । कट्टर - तुलसी - [ मल० ] रामतुलसी । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटमलादि कट्टली-पापस- कना० ] नागफनी । नागफण। | कट्टै- ता०] [ बहु० कट्टैगल] काष्ठ । काठ । लकड़ी कट्टलै- ता०] घीकुमार । घृतकुमारी । ___ चोब । कट्टलि-[ मल० ] घोकुभार । | कट्टैकरि-[ ता० ] लकड़ी का कोयला । काष्ठाकार । कट्टवेन्तियम-[ मल• ] नागबला । गुलशकरी । | कट्टैगल- ता० बहु.] लकड़ियाँ । काठे। ई० मे० प्ला। कट्ठा-संज्ञा पुं० [हिं० काठ ] (१) धातु गलाने कट्टा-संज्ञा पु० (१)शिर का कीड़ा। जूं । ढील । की भट्टी। दबका । (२) एक पेड़ जिसकी लकड़ी (२) कच्चा । जबड़ा। बहुत कड़ी होती है । (३) लाल गेहूं जो प्रायः मध्यम श्रेणी का होता है। कट्टा-मगाक्कु- ताo ] काननैरण्ड । जंगली रेंड़ । कट्टामीठ-पं0 ] जंगली पालक । चूका। | कतृण-संज्ञा पुं॰ [सं० क्री०] (१) मिरचियागंध गंधतृण । रूसाघास । रोहिष । सियो०वा०व्या० कट्टार-संज्ञा पुं० [सं० [0] कटार । कटारी । चि० माषवलादि । (२) एक प्रकार का सुगंधित कट्टालै-[ मदरास ] घोकुआर । घृत कुमारो । रूसा घास । सुगंधरोहिषतृण । रामकपूर । वा. कट्टान-संज्ञा पुं० [१] एक वृक्ष जिसकी लकड़ी बहुत उ० ३७ श्र० । दे. "रूसा (कत्तण)"।(३) कड़ी होती है। नीलकमल । (४)गंधपाषाण । (५) भूनिम्ब । कट्टिगे-[कना0 ] [ बहु० कटिगेगलु ] काष्ठ । काठ । (६) भूतृण। लकड़ी। चोब । कटनीम-संज्ञा पु० [हिं० कट्-सं० कटु+नीम ] कट्टिगे-इहल्लु-[ कना० ] लकड़ी का कोयला । काष्ठ सुरभिनिम्ब । कढ़ी नीम। अङ्गार। कट्फल-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (1) कायफल । कट्टिगे-गलु-[ कना० ] लकड़ियाँ । काठे । ५० मु० । र० मा० । दे० "कायफल" । (२) कटु-इम्बुल-[ सिंगा० ] लाल सेमल । शाल्मली । बैंगन का सुप । वार्ताक वृत्त । वै० निघ० । (Bombax malabaricum, D. C.) ___ संज्ञा पुं॰ [सं० क्री०] (१) कायफल । कट्टी-[हिं० ] स्वादुकण्टक । विलङ्गरा। भा० । मद० व. १ । सि० यो कफज्वरावलेह । कट्टी-मण्ड-ते. ] युफॉर्बिया ट्रिगोना। फा० ई० वा० सू० १५ अ.। वि० दे. “कायफल"। ३ भ०। (२) ककोल । कबाबचीनी । रा०नि० व० १२। कट्टीवतीगै-[मह० ] काकोली। कट्फला-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) गंभारी । कट अलंदु-[ मदरास] माषपर्णी । मुगवन । गांभारीवृक्ष । कमहार । खंभारी । र० मा० । रा० कट्ट, इल्लुपै-[ ता० ] जंगलो महुश्रा । नि० व० ६ । (२) वृहती । बनभंटा । (३) कट्ट -एलुपै-[ ता•] बहेड़ा। विभीतक । मकोय । काकमाची । कवया । (४) बैंगन कट्ट कउल-[ता0 ] खुब्बाजी। वार्ताकी । रा० नि०व० ४ । (५) देवदाली। कट्ट कपेल-[ मल० ] मूर्वा मुरहरी । चुरनहार । बंदाल । घघरबेल । रा०नि० व.३। सफेद कट्ट क-कोडि- ता० ] फरीद बूटी। जमती की इन्द्रायन । मृगैर्वारु । रा०नि० व०७। (६) बेल। काश्मरी। कट्ट करुराक-पट्टै-[ ता० ] मूर्वा । कट फलादि-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (१) कायकट्ट करोगनी- ता०] कुटकी। फल । मुलहठी, लोध और अनार के फल का कट्ट, (क) कस्तूरी- मल०, ता०] लता कस्तूरी। छिलका–इन्हें समान भाग लेकर चूर्ण करें। मुश्कदाना । दे० "काट, (क) कस्तूरी"। मात्रा-१-४ मा०। कट्ट कुरनेय-[ ता० ] तेजपात । जंगली दालचीनी । गुण-इसे चावलों के पानी के साथ सेवन कट्ट कार चम्मथी-[ ता०] करने से वात-कफज अतिसार नष्ट होता है । भा० कट्टेल्लु- मदरास ] रामतिल । Guizotia aby | प्र. अतिसार चि०। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कट्फलादि काथ कट्फलादिकाथ-संज्ञा पु ं० [सं० क्री० ] कायफल, नागरमोथा, भारंगी, धनिया, रोहिषतृण, पित्त पापड़ा, वच, हड़, काकड़ासिंगी, देवदारु और सोंठ समान भाग । मात्रा - १-२ तो० इनका काथ बनाएँ । १६६३ गुण- इसके उपयोग से खाँसी, ज्वर, श्वास और गलग्रह का नाश होता है । ( योग चि०) (२) एक प्रकार का कषाय जो खाँसी में काम श्राता है। योग इस प्रकार है— कायफल, रूसा, भार्गी, मुस्तक, धनिया, बच, हड़, शृङ्गी, पित्तपापड़ा, सोंठ और सुराह्वा इनको जोकुट कर गरम पानी में भिगोकर छानले और हींग तथा मधु मिला पान करें । मधु और हींग प्रत्येक १-१ मा० की मात्रा में मिलायें । ( चरकः ) । कट्फलादि चूर्ण-संज्ञा पुं० [सं० नी० ] कायफल, पुष्करमूल, काकड़ासिंगी, त्रिकुटा, जवासा और कालीजीरी इन्हें समान भाग लेकर चूर्ण करे । मात्रा - १ - ४ मा० । गुण तथा उपयोगविधि - इसे अदरक के रस के साथ सेवन करने से पीनस, स्वरभेद, तमक, हलीमक, सन्निपात, कफ, वायु, खाँसी और श्वास का नाश होता है । यो० २० नासा रो० चि० | कट्फलादिपान, कट्फलादि पाचन-संज्ञा पु ं० [सं० क्री० ] एक प्रकार का पेय जो पुराने बुखार में गुणकारी है । इसके सेवन से त्रिदोष, दाह और तृष्णा का नाश होता है । योग और निर्माण क्रम- कायफल, त्रिफला, देवदारु, लालचंदन, फालसा. कुटकी, पदुमकाठ, और खस प्रत्येक १६-१६ रत्ती तथा जल २ शराव मिलाकर पकायें। जब पानी आधा अर्थात् एक शराव रह जाय, उतार कर व्यवहार करें। भा० । कमोरंगी -[ मदरास ] ( Ormocarpum ) sennoides, D. C. ) कटवर तैल कट्रु-वाय्ह - [ मल० ] घीकुवार । घृतकुमारी । कट्ल फिश बोन - [ श्रं० Cuttle - fish-bone ] समुद्रफेन । समुन्दरभाग । कट्ला - [ बं०] एक प्रकार की मछली । कटला । ( Catla-catla, Han & Bach. ) कटवक - सं० पुं० [सं० नी० ] निर्मली । कतकफल । कट्वङ्ग-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] ( १ ) तेंदू का पेड़ तिन्दुकवृक्ष | गाव | वा० टी० वत्सकादिगणहेमाद्रि । ( २ ) सोनापाठा । श्ररलु । श्योशाक वृक्ष | रा० नि० ० ६ । भैष० स्त्रीरो० । पुष्यानुग चूर्ण । च० सू० ४ श्र० ३१ दशक । वै० निघ० अप० चि० कटभ्यादि तैल । वा० सू० ३५ श्र० श्रम्बष्ठादि । "कट्वङ्गः कमलोद्भवं रजः” । सु० सू० ३८ अम्बष्ठादि । कट्यस्थि-संज्ञा स्त्री० [सं०] कमर की हड्डी | Hip bone कट्दूखल-संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] ( Acetafb ulum) कूल्हे की हड्डी का प्यलानुमा गड्ढा, जिसमें रान ही हड्डी का ऊपरी गोल सिर टिका रहता है। वंक्षणोलूखल | . हुक़्कुल हर्क्रफ्री । हुक़्कुल् वर्क । हुक्कुल फ़नज़ - श्र० । गंधप्रसारणी । संज्ञा पुं० [सं० क० ] सोनापाठा । टुण्टुक फल । अरलू का फल । 'कट्वङ्ग फलाजमोद - ।' 1 कट्वङ्गी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कटभी | कट्वम्बरा - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] परसन | प्रसारणी । ज० द० । कट्वर-संज्ञा पुं० [सं० क्ली० । (१) दही के ऊपर की मलाई । दधिर । र०मा० । दधिस्नेह | त्रिका ० | (२) तक्र | छाछ । मट्ठा | 'तक्रं कट् वरमिष्यते' प० प्र० ३ ख० । ( ३ ) व्यञ्जन | मसाला 1 उणा० । कट्वर तैल-संज्ञा पुं० [सं० नी० ] ( १ ) ज्वर रोगाधिकारोन एक श्रायुर्वेदीय तैलौषधि जिसका व्यवहार दीर्घ कालानुबन्धी ज्वरों में होता है । यह स्वल्प और वृहत् भेद से दो प्रकार का होता है । इनमें से स्वल्प कट्वर तैल इस प्रकार प्रस्तुत होता है - तिल तैल S४, कटूवर (मट्ठा) ५४ ॥ और सोंचर नमक, सोंठ, कुट, मूर्वा की जड़, लाता, हल्दी तथा मजीठ इनका कल्क 5१ इनको कढ़ाई में डाल यथा विधि तैल सिद्ध करें। इस तैल के मलने से शीत और दाहयुक्त ज्वर निवारित होता है । वृहत् कट्वर तैल का योग यह है— तिल क S४, शुक्र S४, काँजी ४, दधिसर ४, बिजौर नीबू का रस ४, तथा पीपल, चीते की जड़, बच, असे की छाल, मँजीठ, मोथा, पीपरामूल, इलायची (एला), अतीस, रेणुक, सोंठ, मरिच, Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कट्वा १६६४ अजवायन, दाख, कटेरी, चिरायता, बेल की छाल, लालचन्दन, ब्राह्मणयष्टिका ( बभनेटी ), अनन्तमूल, हड़, आमला, शालपर्णी, मूर्वा की जड़, जीरा, सरसों, हींग, कुटकी और बायबिडङ्ग प्रत्येक समान भाग | इनको S१ सेर लेकर जल में पीस कर कल्क प्रस्तुत करें । पुनः इस कल्क को प्रागुक्ल तैल काँजी आदि में मिला यथाविधि तैल सिद्ध करें । इस तेल के लगाने से विविध प्रकार के विषम ज्वर छूट जाते हैं । दे० " कट्टरतैल" । (२) सुवर्चिका, सोंठ, कूठ, मूर्वा, पीपल की लाख, हल्दी, मुलहठी, मजीठ इनका कल्क बनाएँ और छः गूने तक्र में तैल मिलाकर सिद्ध कर मालिश करने से विदाह और शीत का नाश होता है । कठफोड़वा कठकथा - संज्ञा पु' [हिं० काठ+करथा ] पीला करथा । चीनी कत्था | गंबीर ( मल० ) । कठकेला संज्ञा पुं० [ हिं काठ+केला ] एक प्रकार केला जिसका फल रूखा और फीका होता है। कठकोला - संज्ञा पु ं० [ हिं काठ + कोलना=खोदना ] कठफोड़वा । काष्टकूट । कठगुलाब-संज्ञा पुं० [हिं० प्रकार का जंगली गुलाब होते हैं। कठगूलर - संज्ञा पु ं० [ पं० ] गूलर । उदुंबर | संज्ञा पुं० [हिं० काठ + गूलर ] जंगली गूलर । कठू मर । कठचंपा - संज्ञा पुं० [हिं० काठ + चंपा ] कनियार । कर्णिकार । कनकचंपा ( बं० ) । कठ चिबडो - [ सिंघ ] विलायती रेंड | पपीता । श्ररंड नोट - मलाई सहित दही को कट्वर कहते हैं। इस लिये यहाँ ऐसे ही दही के तक्र की योजना करें । (भैष० ० ज्वर चि० ) कट्वा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] काकमांची । मकोय । कठतुम्बी - संज्ञा स्त्री० [हिं० काठ + तुम्बी ] गोरख नि० शि० । खरबूजा | इमली । कट्वाङ्गा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] महानीम | कवी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) कुटकी | कटुकी । रा• नि० ० ६ | वै० निघ० २ भ० । कण्ठकुष्ठ ज्वर चि० । भैष० कुष्ठ- चि० भल्लातक गुढ़ । सु८ सू० ४० अ० । ( २ ) एक प्रकार की बेल जो बंगाल और दक्षिण भारत में होती है । पर्याय- कटुकवल्ली, सुकाष्ठा, काष्ठवल्लिका, सुवल्ली, महावल्ली. पशुमोहिनिका । कटुः । 1 I गुण- यह कटुक, शीतल, कफ तथा श्वासरोग नाशक और नाना प्रकार के ज्वरों को हरण करनेवाली, रुचिकारी, एवं राजयक्ष्मा रोग को दूर करनेवाली है । रा० नि० व० ३ । कठ-संज्ञा पु ं० [हिं० काठ ] ( १ ) ( केवल समस्त 3 पदों में ) काठ | लकड़ी । ( २ ) ( केवल समस्त 3 पदों में फल आदि के लिये ) जंगली । निकृष्ट जाति का । जैसे, कठकेला, कठगुलाव, कठूमर । [ गु० ] ( १ ) कुट । (२) गंधपलाशी । कचूर । कंठ इलपि - [ ता० ] जंगली महुप्रा । कठकरंज- संज्ञा पु ं० [हिं० काठ+सं० करंज ] एक प्रकार का कंजा । कठकलेजी । कठकलेजा, कठकलेजी-संज्ञा पु ं०, स्त्री० 1 दे० "कटकलेजा" । : काठ + गुलाब ] एक जिसके फूल छोटे छोटे कठपाड (ढ़ ) री-ल-संज्ञा स्त्री० [हिं० काठ+पाढर ] सफ़ेद पादर । काष्ट पाटला । कठपुंखा - संज्ञा स्त्री० [सं० कण्टपुङ्ख] एक प्रकार का सरफोंका | कठफुला -संज्ञा पुं० [हिं० काठ + फूल ] कुकुरमुत्ता खुमी | छत्रक नामक उद्भिद् । कठफोड़वा - संज्ञा पुं० ] हिं० काठ + फोड़ना ] ख़ाकी रंग की एक चिड़िया जो अपनी चोंच से पेड़ों की छाल को छेदती रहती है और छाल के नीचे रहनेवाले कीड़ों को खाती है। इसके पंजे में दो उँगलियाँ आगे और दो पीछे होती हैं । जीभ इसकी लंबी कीड़ेकी तरहकी होती है । चोंच भी बहुत लंबी और दृढ़ होती है जिससे वृक्ष में ठोंगें मार कर छेद कर देता है । यह कई रंग का होता है। यह मोटी डालों पर पंजों के बल चिपट जाता है और चक्कर लगाता हुआ चढ़ता है। जमीन पर भी कूद कूद कर कीड़े चुनता है। दुम इसकी बहुत छोटी होती है । उत्तम वह है जिसका रंग हरा हो । कठफोड़वा सेकड़ों प्रकार का होता है। परों का रंग काला, सफेद, भूरा, जैतूनी, हरा, पीला, गुलेनारी श्रोर नारंजी मिला रहता है । इसके शरीर पर रंग-रंग की धारियाँ, बुदियाँ और नोकेँ होती हैं । आरम्भ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कठफोड़वा १९६५ कठल्यागोंद के परों का रंग भद्दा होता है। उनके नीचे कितनी कठफोड़ा-संज्ञा पु०, दे० "कठफोड़वा"। ही धारियाँ और बुंदियाँ पड़ी रहती हैं। सिवाय कठफोरवा-संज्ञा पु०, दे० "कठफोड़वा"। मेडागास्कर, प्राष्ट्रलिया, सिलेबेस और फोरेस के | कठबिरूकी-संज्ञा स्त्री०, मेंढ़क । यह पृथवी मंडल के प्रायः सभी स्थानों में पाया | कठबेर-संज्ञा पुं॰ [हिं० काठ x बेर] (१) ककोर । जाता है। इजिप्त वा मित्र में कठफोड़वा कभी (२) घूट नाम का पेड़ या झाड़ । नहीं देख पड़ा । यह प्रायः छः चमकीले सफ़ेद कठवेल-संज्ञा पुं॰ [हिं० काठxबेल ] (1) कैथ का अंडे देता है। पेड़ । कपित्थ । (२) कठकरंज । पर्याय-कुठाकुः-सं० । कठफोरवा,कठफोड़ा, कठबैंगन-संज्ञा पु० [ हिं, काठxबैंगन ] जंगली पेड़खुद्दा, खुटक बढैया-हि। काठोका-बं०। बैंगन । दारकोब, दारबर, सारज-फा । सोहानी ( सोदा- कठबेला-संज्ञा पुं० [हिं० काठxबेला] एक प्रकार का नियात-बहु. ३०)-अ० । दार्मक-शीराजी। Wi फूल । ld pecker, Wood packer-अं०। (Gasminum multiflorum) टिप्पणी-बहल जवाहिरनामक प्रारज्य अभि कठभेमल-संज्ञा पु० [हिं० काठxभेमल] एक प्रकार का छोटा पेड़ जो प्रायः सारे उत्तरी भारत और धान-ग्रंथ में इसका एक वचन सवानियः'वा"सोदा ब्रह्मा में पाया जाता है। यह वर्षा ऋतु में फूलता निय."लिखा है। सुतरां बुर्हान नामक ग्रन्थकार का यह कथनकि सोदानियात सिरियानी भाषाका शब्द और जाड़े में फलता है। कक्को । फिरसन । है, सर्वथा असंगत है। किसो किसी ने प्रारब्य कठमहुली-संज्ञा स्त्री॰ [देश॰ चुनार] कचनार की जाति का एक प्रकार का जंगली पेड़ । इसके सुरद शब्द को भी इसका पर्याय लिखा है । परन्तु वृत्त सर्वथा कचनार वृक्षवत् दीख पड़ते हैं। पत्तिऐसा मानना खज़ाइनुल अदविया के लेखक के मत से ठीक नहीं । वि. दे० "सुरद"। याँ भी कचनार की पत्तियाँ जैसी होती हैं । इसकी फलियां कचनार की फलियों से अधिक बड़ी-२ .. गुण धर्म तथा प्रयोग इञ्च से फुट भर लंबी और प्रायः इंच चौड़ी, आयुर्वेदीय मतानुसार कठोर एवं खुरदरी होती हैं । बीज चिकना अंडाइसका मांस शीतल, लघुपाकी, अग्निदीपक, कार अमलतास के बीज जैसा होता है । इसकी हृद्य, शुक्रजनक और वायुनाशक है। कच्ची फलियाँ हरे रंग की होती हैं। इन्हें तोड़ने यूनानी मतानुसार पर उसमें से एक प्रकार का चिपचिपा रस निकप्रकृति-गरम तथा खुश्क । इसलाम धर्म के लता है । छाल का रंग गंभीर रक वर्ण का होता अनुसार इसका गोश्त हलाल है। है। इसकी छाल रक्तप्रदर, रक्रातिसार तथा रक्त गुण, कर्म, प्रयोग-क्षीण एवं कृश व्यक्रियों पित्त में अत्यन्त गुणकारी सिद्ध होती है। छाल और मस्तिष्क को अत्यन्त हानिप्रद है।-मु. की बनी रस्सियां बहुत ही दृढ़, मजबूत और टिकाना०, ना० मु०। ऊ होती है। वि० दे. "कचनार"। इसके मांस में हिहत-गरमी की उग्रता बहुत | कठमाटी-संज्ञा स्त्री० [हिं० काठxमाटी ] कीचड़ की है । यह कीड़े-मकोड़े खाता रहता है। इसलिये मिट्टी जो बहुत जल्दी सूखकर कड़ी हो जाती है। इसका मांस दुर्गंध युक्त भी होता है । इसका गोश्त | कठर-वि० [सं० वि०] कठिन । जटा. । खराब है, इसलिये न खाना चाहिये। खासकर | कठरक-संज्ञा पुं॰ [सं. कुठेरक] भुइ तुलसी। दुबले मनुष्य को तो कदापि न खाना चाहिये । कठरा,कठड़ा-संज्ञा पु[सं० कटाह भैंस का नर बच्चा । इसके खाने से कामाग्नि उद्दीप्त होती है । इससे कठलै-मदरास] कंटाल । खेटकी । मस्तिष्क को हानि पहुँचती है।-ख० अ०। । (Ageevipara, Linn) सर्द रोगों में इसका खाना गुणकारक है। कटल्यागोंद-[मह० ] कटीरा गोंद । कतीरा । कुल्ली । इसका शोरबा कोष्ठ मृदुकर है। -म० इ०। । इ० मे० प्रा० । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व० कठशिम् १९६६ कठिन्यादिपेया कठशिम्-[बं०] कुडसम्बर (बम्ब०)। है । वि० दे० "तुलसी" भा० पू०१ भ० पु. (Canabalia virosa, W&a) कठसरैया-संज्ञा स्त्री० [सं० कटसारिका ] दे॰ “कट- | कठिण-संज्ञा पुं॰ [सं०] नर्तक । सरैया"। कठिन-संज्ञा पुं॰ [सं० नी० ] (१) यवानी,अजाजी, कठसेमल-संा पु० [हिं० काठx सेमल] सेमल | त्रिकटु और भूनिम्बादि द्रव्य । श०च०(२)स्थाली । की जाति का एक प्रकार का पेड़ । थाली । रकाबी । (३) गैरिक । पाषाण गैरिक । कठसेलो-[राजपु०] कटसरैया । पियाबाँसा । स्वर्ण गैरिक । रा०नि० व० ३ । कठसोला-सज्ञा पु० [हिं० काठxसोला] सोला को संज्ञा पु. [सं० पु.] बोहि धान्य । जाति की एक प्रकार की झाड़ी या छोटा पौधा जो | वि० [सं० वि०] (१) कड़ा। सहत । प्रायः सारे भारत, स्याम और जापान में होता है। कठोर । (२) स्तब्ध । रोका हुआ । मे० । बर्षा ऋतु में इसमें सुन्दर फूल लगते हैं। | कठिनपृष्ठ, काठनपृष्ठक-संज्ञा पु० [सं० पु.] कठा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] हथिनी। करिणी। ___ कूर्म । कछुआ । बारवा । रा०नि० व० १६ । श००। कठिनफल-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] कैथे का पेड़ । कठाई-बर०] करिंग घोटा (मल०) कपित्थ वृक्ष । रा०नि० व० ११।। कठाकु-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] एक प्रकार का पक्षी। चिड़िया। कठिना-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (1) गुड़शर्करा । कठार-संज्ञा पुं॰ [देश॰ चुनार ] एक प्रकार का ___ गुड़ के नीचे पड़नेवाला दाना । मे० नत्रिक । (२) रतालू । कटार । कठूमर । काकोदुम्बरिका । गोबला। कठगूलर । कठारटी-[पं.] पाड़। रा०नि०व० ११। (३) शर्करा । शकर । कठाल-संज्ञा पुं० [ ] हुरहुर । चीनी। कठाली-[ राजपु० ] कटाई । भटकटैया । रेंगनी। कठिनिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (१) खड़िया मिट्टी। कठालीगिडा-[कना० ] घोकुप्रार। घृतकुमारी । खड़ी। खटिका । हारा० । (२) स्थाली । कठालू-संज्ञा पुं० [हिं० काठ+भालू ] काष्ठालू । गाँठ हंडी। पालू । गैठो। कठिनी,कठिनीक-संज्ञा स्त्री० पु० [सं० स्त्री०, पु.] कठाहक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] दात्यूह पक्षी । खड़िया मिट्टी । खड़ी । खटिका । २० मा०। प. ___ चातक । पनडुब्बा । (Agallinule) श०र०। मु.। त्रिका० मे० नत्रिक । कठिका-संज्ञा स्त्री॰ [सं० स्त्री.] (१) तुलसी का | ___ संस्कृत पो०-पाकशुका, अमिलाधातु, पौधा । (२) खड़िया मिट्टी। खटिका । छुही। कक्खटी;खटी,खड़ी,वर्णलेखिका,धातुपल और कठिवै० निध। निका । दे."खड़ी"। कठिञ्जर-संज्ञा पुं० [स० ०] (१) छोटी तुलसी | कठिनोपल-संज्ञा पु० [सं० पु.] एक प्रकार का का पौधा । अजंक वृक्ष । रा०नि० व०१०। शालिधान्य । कौसुम्भी शाली । रा०नि० व. (२) काली तुलसो । पर्णास । १६ । प-०-पास कुठेरक, लोणिका, जातुका, | कठिन्यादिपेया-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] एक प्रकारका पर्णिका, पत्तर, जीवक, सुवर्चला. कुरुबक, वैद्यकोक्तपेय विशेष । योग यह है-खड़ियाप्तो०, कुन्तलिका, कुरण्टिका, तुलसी, सुरसा, ग्राम्या, मिश्री ४ तो०, गोंद ४ तो०, सौंफ २ तो० और सुलभा, बहुमञ्जरी, अपेतराक्षसी, गौरी, दालचीनी २ तो० इनको जौ-कुटकर एक सेर जल भूतघ्नी और देवदुन्दुभि । भावप्रकाश के के साथ किसी मिट्टी के बरतन में रात को भिगो मतानुसार कठिार कटु एवं तिक रस, उष्णवीर्य, दें। प्रातः काल छानकर इसे स्थिर भाव से पड़ा दाहकारी, पित्तकारक, अग्निदीपक और कुष्ठ, मूत्र- रहने दें। जब साफ़ पानी ऊपर निथर आवे, तब कृच्छ, रक्तदोष, पार्श्वभूल, कफ तथा वायुनाशक / उसे ही ग्रहण कर सेवन करें। इसके सेवन से Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कठियागेहूँ १९६७ ग्रहणी, प्रामाशय और रक्तपित्त का नाश होता है। | कडउ-क.] कदम । कदंब । (भैष० २० अरोचक चि०) पूर्वोक्त द्रव्य-समूह | क (का) ड -[कना०] माषपर्णी । मषवन । के साथ २ तो. लौंग और २ तो. धनियाँ भी | कड़क-संज्ञा पु० [सं० क्ली०] सामुद्रलवण । समुद्रनोन मिला देने से यह अम्लपित्त के लिये भी उपयोगी समुन्दरी नमक । कड़कच लवण । २० मा०। हो जाता है। यदि पूर्वांक सकल द्रव्यों के साथ संस्कृत पय्योय-सामुद्र, त्रिकूट,अक्षीव, वशिर, २ तो० बेल का चूर्ण भी योजित कर दें, तो यह सामुद्रज, सागरज और उदधि सम्भव | भावप्रकाश रक्रातिसारमें भी लाभकारी सिद्ध हो । हि०वि०को। के मत से कड़क मधुर विपाक, ईषत् तिक्र एवं कठिया गेहूँ-संज्ञा पुं॰ [हिं०कठिया xगेहूं] एक प्रकार मधुर रस युक्त, गुरु, न अतिशय शीतल और न का गेहूं जिसका छिलका लाल और मोटा होता | अतिशय उष्ण, अग्नि दीपक, भेदक, क्षारयुक्र, है। इसे "ललिया" भी कहते हैं । इसके आटे में | अविदाही, कफकारक, वायुनाराक, तीक्ष्ण पार चोकर बहुत निकलता है। अरुत होता है। कठिल्ल, कठिल्लक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (१) करे ___ संज्ञा स्त्री० हिं० कड़कड़] (१) कसक । पीड़ा ला। कारवेल्लक । प० मु। भा० पू० २ भ०। जो ठहर ठहर कर हो । (२) एक प्रकार का (२) जंगलो करेला । कर्कट । कँकरोल | प०मु.। मूत्ररोग जिसमें रुक रुककर और जलन के साथ च0 चि० ३ ०। "कर्कटोऽरण्यसम्भूतः कठिल्लः पेशाब होता है। शठघातकः ।" वै0 निघ०। (३) पुनर्नवा । रा०नि०व० ५। भैष० मध्यम नारायण तैल । संज्ञा पुं० [ते.] हड़ का पेड़। कड़कच-संज्ञा पु. [सं० क्री०] सामुद्र लवण । (४) रकपुनर्नवा | गढ़हपूर्ना । भा० पू० २ भ०। समुन्दरी नमक । यह लवण सफेद और काला (२) तुलसी का पौधा । त्रिका० । दो प्रकार का होता है। बंगाल के वीरभूम जिले में कठिल्लका, कठिल्लिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) सफेद के सिवा काला नहीं मिलता। काले की करेले को बेल । कारवेल्ल वृक्ष । (२) तुलसी । अपेक्षा सफेद कुछ कड़ा होता है । कड़कच सेंध(३) रकपुनर्नवा । गदहपूर्ना । ज० द. १२ अ०। व लवण की भाँति विशुद्ध रहता है। इसीसे कठीर-संज्ञा पुं॰ [सं० कंठीरव ] सिंह। शेर, -डिं। स्मृतिशास्त्र में विधवाओं के भोजन के लिये कलुबर-संज्ञा पुं०, दे० "कठूमर"। कठूमर-संज्ञा पुं० [हिं० काठxऊमर ] जंगली गूलर सैंधव और सामुद्र दोनों प्रकार के लवण का जिसके फल बहुत छोटे छोटे और फीके होते हैं। विधान है। कठगूलर | वि० दे० "गूलर" । कड़कण्डू- ता०] मिश्री । सितोपल । कठे-[बर०] निएप (मदरास)। (Samadera कड़कशा-संज्ञा पुं० [सं० १ ) काला कुड़ा। Indica, Gaertn ) कडकाइ-[ता० हड़ का पेड़ । हरीतकी। कठ्ठल-संज्ञा पुं॰ [ देश० ] कटहल । कड़काटक शिंगी-[ ता. ] काकड़ासिंगी। कठोदर-संज्ञा पु० [हिं० काठxउदर ] पेट का एक कड़ कुंदुरुकम्-[ मल० । काला डामर । रोग जिसमें पेट बढ़ता है। और बहुत कड़ा कड़को-[ राजपु• ] कड़ाका । उपवास . लंघन । रहता है। कड़काय-[ ते० ] हड़। कठोर, कठोल-वि० [सं० त्रि०] [ संज्ञा कठोरता] | कड़कर-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] तुष। भूसी । कठिन, सख़्त । कड़ा । अ० टो० । वै० निघ० । कड़-संज्ञा पुं॰ [देश०] (1) कुसुम । बरे ।(२) कुसुम कडङ्ग-संज्ञा पुं० [सं० पु.] एक प्रकार की मदिरा का बीज । बरें। सुरा विशेष । उणा०।। वि० [मल०] काला । कृष्ण । कडङ्गवी- लेप० ] कोरेडून कोलेबुकिएनम् । कड भरिशिना-[ कना० ] वनहरिद्रा । जंगली | कडङ्गर-संज्ञा पुं० [सं० पुं०] [वि० कड़करीय] हल्दी। __वुष । नुष । वुष । तुड़ो ।हे0 च० | Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कड़ी १९६८ कड़ङ्गी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] दे० "कड़म्बी" । कङ्गो - [ ता० ] राई | घोराई । कटङ्गन - [ बर० ] कनेडा श्रोडेरेटा । कडट-डे़ङ्गाय -[ ता० ] दरियाई नारियल । नारजीले बहरी | 1 कडनु-बलकाई - [ का० ] कद्द. | कश्रा । लौ । कडन्ताथी - [ मदरास ] हावर । मचिंगी । (Dolichandrone falcata, Seem ) कडपहुला - [ क० ] जंगली परोरा ! वनपटोल । कडपर - [ ० ] कीड़ामार | गंधानी | धूम्रपत्र | कडपाल - [ ता० ] कपाल भेदी । कडपुम - [ ता० ] समुद्रफल । हिजल । कड़बड़ा- वि० [सं० कर्बर = कबरा ] कबरा । चित कबरा । कड़बी - हिं० [ संज्ञा स्त्री . ] दे० " कड़वी" । कडमी - [ ० ] समुदरफल । हिजल । asht - [ विहा• ] नारी । नाली । कडमेरो -[ नैपा० ] बड़ा मैदा लकड़ी । कड़म्ब, कड़म्बक -संज्ञा पुं० [सं० पु० ] ( 1 ) कलमी शाक । करे । कलम्बी । नाड़ी । ( २ ) शाक नाड़िका | शाक का डंठल । ( ३ ) अंकुर । कोंपल । ( ४ ) कदम्ब कडुम्बी, कड़म्बुका -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कलमी शाक | कलम्बी | करेमू । नाड़ी | कडम्बे - [ ते० ] कदम | कदंब | करवून-संज्ञा पुं० [?] एक पौधे का नाम । कडर्य-संज्ञा पु ं० [ सं॰ पु ं० ] किरात तिक्ल | चिरायता | रा० नि० व० १ । कडल तङ्गाय - [ ता० ] दरियाई नारियल । कडल नागल - [ ता०, कना० ] समुद्रफेन | कपालै - [ ता० ] समुन्दर सोख । समुद्र शोष । कडपा च - [aro ] दरिया की पाची । मोस । ( Gracilaria Lichenoides, Grewille ) Ceylon moss ) कडलमु - [ ते० ] जंगलः केला । गिरि कदली । श्ररण्य कदली । कडला - सं० पु० । कडले - काड -[ मल० ] चने का सिरका । सिरकहे कडले - [aro, मल, का० ] चना | चणक । कडवंची कडलै-डि } [ ता० ] चने का सिरका । कडलै - पुल-पु- बूँट का सिरका । कडल्य - [ ता० ] श्रॉलिया ग्लैण्ड्यूलिफेरा । कडवंची संज्ञा स्त्री० [ मरा०, बम्ब० ] एक लतावर्गीय उद्भिद का फल । इसकी वेल ज्वार के खेत में वर्षारम्भ में उत्पन्न होती है। इसकी शाखायें भूमि पर फैली होती हैं. पत्ती १ से २ इञ्च चौड़ी पञ्चकोण वा कुछ कुछ पंच-खंड युक्त होती हैं और जिसका मध्य खण्ड नातिदीर्घ होता है। यह श्यामता लिए, हरे रंग की कोमल, मसृण वा किंचिल्लोमश होती है जिसके दोनों पृष्ठ (Punctu late ) होते हैं । पत्र प्रांत कराततित अर्थात् श्ररी की भाँति दन्दानेदार होते हैं । पत्रवृत श्राधा से १॥ इञ्च लम्बा होता है पुपुष्पस्तवक १-२ इञ्च होता है और उसमें साधारणतः केवल २ से ४ तक पुष्प होते हैं। पुष्प वाह्यावरण खंड भालाकार पुष्पांतरावरण वा पंखड़ी 4 इ'च दीर्घ एवं सफेद रंग की होती है ( किसीकिसीने पीत रंगकी पंखड़ीका भी निर्देश किया है) पराग केसर दो होते हैं, जिनमें से एक द्विशीर्ष और दूसरा त्रिशीपं होता है, इनमें से प्रत्येक एक पराग कोष युक्त होता है। केसर वा तुरी कटोरी के सिरे के समीप से प्रारम्भ होते हैं । स्त्री-पुष्प वृत - २ ई० दीर्घ, एक पुष्पीय, पौष्पिक पत्र विहीन ( नर पुष्प वृत में एक लघु पौष्पिक-पत्र होता है ।) फल - १ इञ्च श्रर्थात् उंगली के पोर्वे के बराबर लम्बा और 4 इञ्च ( चौड़ा ) तथा पतला होता है । फल का उपरिस्त्वक् झुर्रीदार होता है और उस पर आठ प्रशस्त पशु काएँ होती हैं । छिलका पतला और रेशमी रोइयों से परिव्याप्त होता है । अभी जब कि यह हरा ही होता है चार खण्डों में विदीर्ण हो जाता है और बीज निकल पड़ते हैं। बीज 2-4 इञ्च कुछ-कुछ गोल और कठोर, छोटी मिर्च के बराबर, चिकना और चमकीला होता है और उस पर अणुसंयोजक ( Hilum ) स्पष्ट दिखाई देता है । इसकी जड़ शलगम की तरह गोल और कड़ी होती है और इसमें से ककड़ी (Cucumbe) की भाँति गन्ध श्राती है। यह अत्यन्त विक्क श्रौर तीच्ण होती है। सूक्ष्मदर्शक द्वारा परीक्षा करने पर इसके केन्द्रभाग A Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६१ कड़वा कुंदरू में श्वेतसार की से ले दृग्गोचर होती हैं। उनकेन्द्र दध्न-खुरफ़े की पत्ती का रस । भाग और उपचर्म-स्तर के मध्य में रालदार पदार्थ गुण, कर्म, प्रयोग-इसके फल को मांस में, के विषम टुकड़े होते हैं । इसकी समग्र बेल स्वाद या किसी शाक के साथ पकाकर ज्वार की रोटी से में कुछ-कुछ कड़वी होती है। खाते हैं। यह शीघ्रपाकी और पोषणौषधि है। पय्यांय-कदुहुची, पुद्रकारलिका, श्रीफलिका, यह पिच्छिल श्लेष्मा का छेदन करती और नेत्र प्रतिपत्रफला, शुभ्रवी, कारवी, बहुफला, कन्दलता रोगों को लाभ पहुँचाती है । यह क्षुधाजनक,पाचक रुद्रादिकारवल्ली (रा०नि०) लघुलता, व्रणनी, पित्तनाशक और कोष्ठवद्धता निवारक है। इसकी कृष्णमृद्भवा (द्रव्य० ), क्षुद्रकारवेल्लक, कडुहुञ्ची, जड़ रजः प्रवर्तक एवं प्रसवकालीन रक्क्रनिस्सारक कटुहुञ्ची, ह स्व कारवेल्ल, कारवल्ली, क्षुद्रकारवेल्लिका, है। योनि में इसकी वर्ति धारण करने वा पिलाने सुश्वी, कन्दफला, क्षुद्रकारवेली-सं० । कड़बंची- से यह दोनों प्रकार से गर्भपात कराती है। इसका हिं०, मरा० । कासरकाई-हिं० । छोट उच्छे, छोट प्रलेप कण्ठमाला को विलीन करता है । निम्वपत्र करला-बं । मोमोर्डिका सिम्बलेरिया Momo- स्वरस और काँजी के साथ यह प्रत्येक उष्ण एवं rdica cymbalaria, Femal.,लुफा व्युव शीतल विष को अपने प्रभाव से नष्ट करती है। रोसा Luffa Tuberosa, Roxb-ले। यह अर्श एवं तजन्य कोष्ठबद्धता का निवारण कुष्माण्ड वर्ग करती है। कहते हैं कि इसकी बेल के आस-पास (N. 0. Cucurbitacece.) सर्प नहीं रहता। किसी-किसी स्त्री की योनि से उत्पत्ति-स्थान-दक्षिण भारत, मैसूर, कोंकण जो बुबुदवत् एक चीज निकलती है, उसे यह इत्यादि। वन्द करती है । न. ० . ___ डीमक-समग्र क्षुप चरपरा होता है। इसके . औषधार्थ व्यवहार-कंद। औषधीय प्रभाव के सम्बन्ध में बम्बई सरकार के रासायनिक संघट्टन-एकतिक ग्ल्युकोसाइड । रासायनिक विश्लेषणकर्ता डॉक्टर लियान कहते प्रभाव-गर्भपातक। हैं कि गत चार वर्षों के भीतर तीनवार कडवंची गुणधर्म तथा प्रयोग के कन्द जिनका व्यवहार गर्भपातनार्थ किया जा आयुर्वेदीय मतानुसार चुका है, उनके पास भेजे गए हैं । सन् १८८६ ई. कुडुहुञ्चीकटुरुष्णातिक्तारुचिकारिणीचदीपनदा। में पुनरपि ये कन्द तात्कालीन विश्लेषण कर्ता रक्तानिलदोषकरी पथ्याऽपि च सा फलेप्रोक्ता ॥ डा० बेरी के पास, गर्भपात के एक मामले के सम्बन्ध में, भेजे गये थे। फा० इं०२ भ. पृ० कारलीकन्दमर्शोघ्नं मलरोध विशोधनम् । ७६-८०) योनिनिर्गत दोषघ्नं गर्भस्राव विषापहम् ॥ कडवनीची-[म.] पाल । अाच्छुक । (ध०नि०)| कडवला-[ कना] कदम । कदम्ब । कडवंची-चरपरी, कड़वी, गरम, रुचिकारी, कड़वा-वि० दे० "कडु वा” । . और दीपन है तथा यह रक एवं वायु के दोष | कड़वा इंदरजौ-संज्ञा पुं० [हिं० कड़वा+इंद्रजौ ] उत्पन्न करनेवाली और इसका फल पथ्य है। एक प्रकार का इन्द्रजौ। तिक इन्द्रयव । कुटज इसका कन्द (कारलीकन्द)-बवासीर को नष्ट करता, मलावरोध को मिटाता, योनिदोष और कड़वा ककैडाका- राजपु० ] कडु वाखेखसा । गर्भस्राव का निवारण करता है एवं विषघ्न है। | कड़वा ककोड़ा-संज्ञा पुं० । वन ककोड़ा । कडु वा यूनानी मतानुसार गुण-दोष खेखसा। प्रकृति-उष्ण और रूक्ष । स्वाद-तिक। कड़वा कुंदरू-संज्ञा पुं० [हिं० कड़ वा कुदरु ] -क्रवमन के रोगी को। तिक बिम्बी। तीता कुनरू। वीज। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कड़वा खेखसा १९७० कडसरा चोक कड़वा खेखसा-संज्ञा पु० दे० "कड़ वा खेखसा"। | कड़वी जीवन्ती-संज्ञा स्त्री० [हिं कड़वी+सं० जीवंती] । कड़वा गोखरू-गु०] बड़ा गोखरू। ( Peda-| क ई डोड़ी शाक । lium Murex, Linn.) | कड़वी तरोई-संज्ञा स्त्री० दे० "कड़ ई तुरई"। कड़ाकड़वा चिचिंडा-संज्ञा पु० [हिं० कई वा+चिचिंटा कड़वा तुमड़ी-संज्ञा स्त्री कड़वी तुम्बड़े-[गु.] कह कह वन चिचिंडा। कड़वी तुम्बड़ी-संज्ञा स्त्री. तल्ख। कड़वा तुम्बा-संज्ञा पु० [हिं० कडु वा+तुम्बा ] तित- कड़वी तुम्धी-संज्ञा स्त्री० वि० दे० "कह.") कटुतुम्बी। - लौकी । कह, तल्ख । कटुतुम्बी। कड़वी तुरइ-संज्ञा स्त्री० दे० 'कडु ई तुरइ । कड़वा परवल(र)-). कड़वी तू बी-संज्ञा स्त्री० कडु ई तुबी । तितललौकी । संज्ञा पु' । जंगली परोरा । दे. “कह" । कड़वा परोरा- " कड़वी तोरई-संज्ञा स्त्री० दे० "कडू ई तुरई"। तिक पटोल । कड़वा तेल-संज्ञा पु०, दे० "कडा तेल"। कड़वी नई-संज्ञा स्त्री० [ देश० ] एक बेल जो बरसात कड़वा बादाम-संज्ञा पुं० दे० "कडुआ बादाम" । ___ में उत्पन्न होती है। श्राकाश गिड्डा (Corallo कड़वा लमड़ा, कड़वा लमर-[ कना] (8) शंखा- | carpus Epigeous) हुली । गोखरू कला (पं०, सिंध), बन श्रोकरा | कड़वीनायी-[ बम्ब०] छोटा किरायत । ( Enico(बं०)। खारे ख्रसक (फ्रा०)। (Xanthium | stema littorab, Blume) strumarium, Linn.) Broadle- | कड़वी नानुपिण्डा-[१] अज्ञात aved Bur weed. (२) कदम । | कड़वो परवल-[हिं० ] कडु ा परवल । कड़वाहट-संज्ञा स्त्री० दे० "कडाहट"। | कड़वी नै-[ गु० ] छिलिहिण्ट । छिरेट पातालगरुड़ो । कडवी- १) नैनो कंदो (गु०)। महामूला । राकस- जलजमनी। [ कना०] बारहसिंगा । कड़वी मसूर-संज्ञा स्त्री० [हिं० कड़वी+मसर ] एक . कड़वी-वि० दे० "कडू ई"। प्रकार का मसूर । संज्ञा स्त्री०६ देश० ] ज्वार का पेड़ जिसके भुट्टे | कड़वी वगेटी-[ म०, बम्ब०] नटकांत (नैपा०)। काट लिये गये हों और जो चारे के लिये छोड़ दिया मूनक (लेप०)। (Paramiguya moगया हो। उठा। nophy lla, Wight) संज्ञा स्त्री॰ [ देश०, बम्ब०, मरा०] एक प्रकार | कड़वी हरकाई-[बम्ब० ] छोटा चाँद । का चिरायता । (Swertia Panicu:ata, कड़वु जीरि-[गु०] अातरीलाल । बकुनी। काली Wall.) यह वनस्पति असली चिरायते की | जीरी । ( Vernonia An the lmintप्रतिनिधि स्वरूप काम में ली जाती है। वी० डी०ica, Willd) वसु । चोपरा। | कड़वो इन्दरजौ-[ गु०] कडु प्रा इन्द्रजौ। ___ संज्ञा स्त्री० [ द०] अफीम । अहिफेन। | कडव बदाम-[गु० ] कडपा बादाम । कटु वाताद । कड़वी ककड़ा-संज्ञा स्त्री० [हिं० कड़वी+ककड़ी] | कड़वे परवल-संज्ञा पु. [ देश. Jतिक पटोल । कडु ई ककड़ी । तिक कर्कटी। कड़वे वादाम-संज्ञा पुं॰ [देश॰] कडपा बादाम । कड़वी कंदूरा-संज्ञा स्त्री० [हिं० कड़वी+दूरी] कडवो-[राजपु.] चिरायता ।। कडुआ कुनरू । कड़ई कंदूरी । तिथिम्बी। कडवो जीरि-[गु० ] बकुची। प्रातरीलाल | काली कड़वी काठे-संज्ञा स्त्री० [ देश०] चालमुगरा की जीरी । ___ जाति का एक वृक्ष । वि० दे० "चाल मुनरा" . कड़-शुण्णाम्बु-[ ता.] कली का चूना । अनबुझा कड़वी घिसोदी-[गु० ] कड़वी तुरई । कटु कोशातको चूना । कड़वी जीरी-[द०] बकुची । प्रातरीलाल। कडसरा-चोक-[20] सत्यानाशी । भँडभाँड़ । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कडसिगे १९७१ कड़ई हुँको | कडसिगे-[ कना०, कुर्ग ] काला सरसों। विलकम्बी। कडिशे-[ते. ] अज्ञात । मोटो सरसियो (गु०)। कड़ी-संज्ञा स्त्री० [सं० कांड] भेड़ बकरी आदि चौपापों कडसिगे-[?] महानीम | बकायन । ___ की छाती की हड्डी । कड़हन-संज्ञा पुं॰ [हिं० कठधान ] एक प्रकार का -का० ] डोडो । जीवंती। धान । एक प्रकार का मोटा चावल । कठधान । बड़ो बेव- कना०] । सुरनि निंब । कडहोगे-सप्पु-[ कना• ] धवल (मह०)। (Lob- कड़ी वेपचे [ते.] कदी निंब । elin Nicotianasfolia, Haune)| कड़ी वगेटो-[ बम्ब० ] नटकांत (नेपा०) मनक Wild Tobacco (लेप०)। दे० "कडू वगेटी"। कड़ॉ-संज्ञा पुं० [सं० कणा ] पीपल | कडु- महाबालेश्वर ] शिलाजीत । (S. Discuss. कड़ॉमूल-संज्ञा पु० [सं० कणामूल ] पिपरामूल । ata) पीपरामूल। कडु, कडू-संज्ञा पु० [ देरा०] (१) नीलकण्ठ । कड़ा-संज्ञा पुं॰ [सं० कटक ] (१) एक प्रकार का | कमल फूल । (Gentiana kurroo, Ro. कबूतर । [ ता० ] (२) सूरण । yb) फा० ई.२ भ०। (२) कुटको । (३) कड़ाका-सज्ञा पुं० [हिं० कड़कड़ ] उपवास । लंवन । खपर। फ्राका । [ नैपा• ] चावलमुगरा। कुष्ठ वैरी । [ गुरु, कडाचूर-संज्ञा पु. [ देशः ] एक प्रकार को मिठाई ।। महा०] कुटकी। [महाबालेश्वर ] शिलाजीत । कडाय खंज-संज्ञा पुं॰ [सं० क्री०] वातव्याधि का कडूआ-वि० [सं• कटुक, प्रा. कडुआ] [स्त्री० एक भेद जिसमें मनुष्य चलना प्रारम्भ करने के ___ कडू ई ] (१)जिसका तीक्ष्ण स्वाद जीभ को समय काँपता हुआ खंजन पक्षी की तरह चलता असह्य हो । स्वाद में उग्र । कटु । तीक्ष्ण । मालहै अथवा चलने में लँगड़ाता है और संधियों के दार । जैसे-मिर्च, सोंठ, पीपल आदि । (२) बंधन ढीले पड़ जाते हैं। कलायखा । यथा- स्वादु में कटु परन्तु झालरहित । तिक। कटु । "कंपते गमनारमे खंजन्निव च याति यः। जैसे-नीम चिरायता, इन्द्रायन आदि । कडायखंजं तं विद्यान्मुक्त संधि प्रबंधनम् ॥ | कडुआ इन्द्रानी-[म.] इन्द्रायन । (वा०नि० १५ अ०) कडुआ खेरू सा-संज्ञा पु० [हिं० कडा + खेखसा] कडार-संज्ञा० पु. [ संoक्री० ] मुण्ड लोह भेद रा० कड़ा -ककोड़ा । तिक कर्कोटक । जंगली नि.व.६। ककाड़ा। कड़ार-संज्ञा पुं० [सं० पु.] पिङ्गल वर्ण । भूरा कडुआ-तेल-संज्ञा पु. [ हिं. कडुआ + तेल ] रंग । पीला रंग अमः। सरसों का तेल जिसमें बहुत झाल होती है। का वि० [सं० वि० ] "पिंगलवर्ण युक्र" गंदुमी । तेल । कटु तेल | सार्षप। भूरा। कडुआ बादाम-संज्ञा पुं॰ [हिं० कड़ा+बादाम ] कडिकपान-[बम्ब०] तिक बादाम । कटु वाताद । बादाम तल्न । (Polypo dium quercifolium, | डु इन्दु-[ ता० ] बन खेखसा । बघाछुरा (०), Linn) *डु इ-दरजौ-[ म. ] कड़वा इन्द्रजौ, । तिक कड़िका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कलका। कूडी : इन्द्रयव । कली। डुइ तुरइ-संज्ञा स्त्री० [हिं० कडु ई+तुरई ] एक कमि चेट्ट-ते. ] मैनफल। प्रकार की तोरई जो खाने में तीतो होतो है। कड़िया-संज्ञा स्त्री० [सं० कांड, हिं. काँडी] लकठा । कड गे तुरई । तिक कोषातकी । दे. "तुरई"। काँड़ी । रहटा। कडुइ तू बा-संज्ञा स्त्री० [हिं० कडू ई+बो] तिवकडिलिकम्-ता. ] कुचला। लौको । तिकालावु। । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कडुक - [ मल० ] राई | गौर सर्षप । कडकंगल - [ कों०, हिं०, बं० ] चलता नामक वृक्ष | १६७२ कडु-कडले -सोप्पु -[ कना• ] खुब्बाजी | कडु-कवत (थ) - [म०, बम्ब० ] जंगली बादाम | कौटी | Hydnocarpus wightiana ) दे० "अरण्यवाताद" ( १ ) तथा " चावलमुगरा" । कडुवात - [ का० ] चावलमुगरा । कडु कस्तूरी - [ कना० ] मुश्कदाना । लताकस्तूरी । डुक - [ ] राई । गौर सर्षप । कडुकार - [ ० ] हड़ का पेड़ । हरीतकी । कडुक्काय कडु} [] हड़ का पेड़ । कडुक्काय, कडुक्काय-पिंजी - [ ता० ] जंगी हड़ | हरीतकी । बालहड़ | कालीहड़ । कडुक्काय-पू- [ ता०, मल० | हड़ का फूल । हरीतकी पुष्प । डु-खजूर - संज्ञा पुं० [ बं०, गु०, बम्ब० ] काला खजूर । दिनकरलिंग | ( Melia Dubia, Car ) कडु - [ ० ] राई । राजिका । "कडुगु - [ ता० ] राई | गौर सर्षप | (Sinapis juncea, Linn) । (२) हुरहुर | कडु घिसोदी - [ गु० ] कड़वी तुरई । घोषा लता । कडु घोसली - [कों] कड़वी तुरई । कडुङ्गथी - [ लेप० ] क्लोरोडेण्डून कोलेबुकिएनम् । कडु चिरायता - [ गु० ] नीलकांत । कमलफूल ! कडु जिरगे -[ कना • ] कलौंजी बकुची । - [ ० ] काला जीरा । डोड़ - [ ० ] कड़ ुई तुरई । कडुत् [ बर० ] कठूमर । काकोदुम्बरिका । कडुत्तउप्प-[ मल० ० ] काला नमक । कडु दालचीनी - [ कना० ] जंगली दालचीनी | कडु दुदीली -[ ] कड़वी तुम्बी । तितलौकी । कडु दुद्दी -[ क० ] तितलौकी । जंगली क कडु निम्ब-[ म० ] नीम | 1 कडू डुग्गे -[ ना०] अडवी मूनग । ( ते ० ) । (Ormocarpum sennoides, D. C.) कडुन्य - [ लेप० ] भंटा बैंगन । वार्त्ताकी । कड़, परवल - [ म० ] जंगली चिचोंडा ( Tricho- - santhes cucumeraina, Linn.) कडुप्प - वि० [ मल० ] काला | कृष्ण कडुप्पु मरणत्तकाल - [मल - ] | कडुप्पु मत्तकालि - [ ता० ] कड़प्पु मणत्तान्करिण—-[मल ०] काला मको । कडुप्पु महत मरम - [ ता० ] श्रासन । जंगली करअ (द०) । श्राशान, पियाशाल ( बं० ) । ( Terminalia Tomentosa, W. et A.) " कडुबेल्लुल्ल -[ कना० ] छोटा जंगली प्याज । क (का) डु बोगि वित्तुलु -[ ते० ] बकुची बाबची | ( Psoralia Corylifolia, Linn.) कडु भोपला - [ बम्ब०, स०] तितलौकी | कटुतुम्बी । कडु मल्लिगे - [ कना० ] वन मल्लिका । कडु मेन्ध्या - [ मल, कों०, सिं०, कना० • ] ( १ ) जंगली काली मिर्च । (२) गुलशकरी । नाग बला । कडुर मिरिस - [मल०, कों०, क०, सिं०] जंगली काली मिर्च | कडुलिम्बे - [ कना० ] जंगली जंभीरी । माकरलिंब | कडली -[ ता० ] श्राझर । श्रासा । जरुल ( बं० ) । कडुवगेटी- [ म० ] कडुवप्पु -[ ता० ] लौंग | कडुवा बादाम - संज्ञा पुं० [हिं० कड़ ुवा+बादाम ] बादाम कडुत्रेपिले - [ ता०] कढ़ी निम् । सुरभिनिम्ब । कडुसम्पि - [ कना० ] गुलाचीन । कडुसल्लेरुकु -[ क० ] सतिवन । सप्तपर्णं । छातिम । [] जंगली हुरहुर । कडु सिरोल - [ ० ] कडुसिरोली - [ बम्ब० ] कड़वी - तुरई । घोषालता । कडु -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) छोटा करेला । क्षुद्रकारवेल्ल । करेली । रा० नि० व० ७ । (२) कड़वंची । दे० " कडवंची" । कडू-वि० [सं० कटु ] दे० " कड् श्रा” । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कडूतेल १९७३ कणगुग्गुलु कडूतेल-संज्ञा पुं० [हिं० कड़+तेल ] कडु पातेल | का निवारण करनेवालो श्रोर किंचित् पित्त को कड़पर-लंका] हिरनखुरी । शुदिमुदि (बं०)। प्रकुपित करनेवाली है। ( Emilia sonchifolia ,D. C.) नोट-उपयुक्र श्लोक में भावप्रकाश में कथिका कडूपरवल-[म. ] दे. "कड़ परवल"। की जगह 'कथिता' और प्रकोपिनी के स्थान में कडू बादाम-[म.] कडपा बादाम । कटुवाताद। 'प्रकोपणी' ऐसा पाठ भेद आया है। कडू भोपला-म० दे० "क भोपला" । (२) कोई-कोई उन कड़ी में बेसन की पकौड़ी कडैल-संज्ञा पुं॰ [सं० करवीर ] दे० "कनेर"। छोड़ देते हैं और हींग प्रभृति के साथ राई भी कडेंरु-[पं०] थुनेर। मिलाते हैं। कढ़ी में पढ़नेवाली पकोड़ी फुलौड़ी कडो-[ बर० ] कस्तूरी । मृगनाभि । मिश्क । कहाती है । बेसन को जगह कभी मूंगकी धोई हुई कडो-किरयात-[ गु० ] नै । नाई। दाल का श्राटा डालते हैं। छः कच्चे अनारों को कड़ोंची-सता स्त्री॰ [देश॰] एक प्रकार की बेल जो पानी में घोटकर भुनी हुई मूंग की दाल का आटा वर्षा के प्रारम्भ में जमती है। इसकी पत्तियाँ मिला कढ़ी प्रस्तुत करे। दस्त बन्द करने में यह छोटी और कंगूरेदार होतो हैं, फूल छोटा पीले रंग गुणकारी है। इसी प्रकार यह कभी श्राम की केरी का होता है और फल अाध गिरह लंबा, बारीक, से भी बनाई जाती है। चुन्नटदार होता है । इसके ऊपर का छिलका पतला (३) इस शब्द को मुहीत आज़म में नुसखा होता है । फल में दो खाने होते हैं, जिनमें से हर | सईदी से उसी की इबारत के साथ उद्धृत एक में एक-एक बोज होता है। जड़ शलगम के किया है। प्राकार की गोल और कड़ी होती है। कासिरकाइ कढ़ी निंब, कढ़ी नीम-संज्ञा पुं-[हिं० कढ़ी+नीम ] कड़वंची। मु.प्रा।। सुरभी निम्ब । मीठा नीम । कडौल-सिं.] पौरुष (बं•, सं०)। कढुवा-संज्ञा पुं० पात्र विशेष । पुरवा । बोरका । कड्डल शिंगी-[ ता०] चिल्ल। चिलार । बैरी।। कदुई-[पं०] तिलपत्र । (Casearia esculenta, Roxb.) कण-सज्ञा पुं॰ [सं० पु] (१) पीपल । पिप्पली । कढ़ो-संज्ञा स्त्री० [हिं० कढ़ना=गाढ़ा होना, वा सं० "कणलवणवचैला" वा० सू० १५ अ० शोधन कथिका ] एक प्रकार का सालन । इसके बनाने व०। (२) धान्य प्रादि का अत्यन्त छोटा की विधि यह है-आग पर चढ़ी हुई कढ़ाई में टुकड़ा। किनका | रवा। ज़र्रा मे० णद्विक । घी वा तेल, हींग और हल्दी की बुकनी ढालदे । (३) चावल का बारीक टुकड़ा । कना । (४) जब सुगंध उठने लगे तब उसमें नमक, मिर्च लेश । बहुत थोड़ा । हे० च० । (५) वनजीरक, समेत मठे से घोला हुआ बेसन छोड़ दे ओर मंदी जंगली जीरा । रा०नि० व० ६ । (६) अनाज आँच से पकावे। जब यह सिद्ध हो जाय, तब की बाल । उतार लेवे । देश में इसे कढ़ी कहते हैं। वैद्यक निघण्टु और भावप्रकाश में क्रमशः 'कथिका" | कणकच-संज्ञा पु. [ देश०] (१) केवाँच । कौंछ । तथा कथिता नाम से इसका उल्लेख हुआ है । उक्न | कपिकच्छु । (२) करंज | कंजा । ग्रंथों में इसके गुण इस प्रकार लिखे हैं। कणकक्षार-सं• पु० [सं० वी० ] सोहागा । टंकण । रा०नि० । नि० श०। कथिका पाचनी रुच्या लध्वो च वह्निदीपनी। कणगच, कणगज-संज्ञा पु०, दे० "कणकच" । कफानिलविवन्धघ्नी किश्चित् पित्तप्रकोपिनी ॥ कणगज, कणगजा-[ राजपु०] कंजा | करंज । (वै० निघ०) कणगन-[ राजपु.] कंजा । कदी-पाचक, रुचिकारी, हलकी, अग्नि को | कणगुग्गुल-संज्ञा पु., दे० कणगुग्गुलु"। दीपन करनेवाली, कफ, वात एवं विवन्ध-बद्धकोष्ठ । कणगुग्गुलु-संज्ञा पु. [स० पु.] (१) सफ़ेद Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गूगल करणगूगुल जीरा । श्वेतजीरक । ( २ ) एक प्रकार का गुग्गुल । संस्कृत पर्य्याय— गन्धराज, स्वर्णवर्ण, सुवर्ण वंशपीत, सुरभि, पलङ्कष | कनक, गुण - कटु, उष्ण, सुगंधित, वातनाशक और रसायन है तथा शूल, गुल्म, उदराध्मान एवं कफ नाशक है । रा० नि० ० १२ । करणगूगल. करणगूगुल-संता पु०, दे० " कणगुग्गुल" । कङ्गन - [ कना० ] कनेर । करवीर । -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ कंत्री | ककड़ी | महासनंगा । (२) सारिवा | अनंतमून | (३) बहुपुत्रिका । सतावर वा भुइँ अमला । रा० नि० व० २ | कजीर-संज्ञा पु ं० [सं० पु ं० ] ( १ ) सफेद जीरा | श्वेत जीरक | मद० ० २ । ( २ ) कृष्ण जीरा । रा० नि० । नि० शि० । I करणजीरक - संज्ञा पु ं० (सं० नी० ] ( १ ) छोटा ' जीरा । क्षुद्र जीरक । श० च० रा० नि० व० ६ । संस्कृत पर्य्या० - हयगन्धि और सुगंधि । भावप्रकाश के मत से काजीरक रूक्ष, कटु, उष्ण वीर्य, अग्निदीपक, लघु, धारक, पित्तवर्द्धक, मेधाजनक गर्भाशय शोधक, पाचक, बलकारक, शुक्रवर्द्धक, रुचिकारक, कफनाशक, चतु के लिये हित कर और वायु ज्वर, उदराध्मान, गुल्म, वमन तथा अतिसार रोग नाशक है । वि० दे० "जीरा” । ( २ ) श्वेत जीरा । सफेद जीरा । रा० नि० । नि० शि० । करणजीरा - सं० पु० [सं० कणजीरः ] सफेद जीरा । कणजीरक । सफेद जीरा | करण जीर्णा - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] शुक्र जीरक | रा० नि० व० ६ । कनियोस - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] गुग्गुल | गूगुल । रत्ना० । १६७४ काटीन. कणाटीर, कणाटीक से एक, जिसके होते हैं । यह चार डँसने से पित्त के रोग प्रकार का होता है । जैसे - त्रिकंटक, कुणी, हस्तिकक्ष, और अपराजिता । ये तोच्ण वेदना करनेवाले हैं । इनके काटने से सूजन, अंगों का टूटना, शरीर का भारी होना और देश की जगह काला पड़ना ये लक्षण होते हैं । सु० कल्पe । ( ३ ) इस नाम का एक कीड़ा । इसके काटने से विसर्प, सूजन, शूल, ज्वर और वमन ये होते हैं । तथा दंश स्थल श्रवसन्न हो जाता है । भा० । मा० नि० । I करणभक्ष, कणभक्षक-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] भरत पक्षी । भरुही । श्याम चटक । भारिट पक्षी । बबई | रा०नि० व १६ । करणमुक्ता - सज्ञा स्त्री० [सं० नी० ] कणगुग्गुल । (?) पीत गूगुल । करणमूल - संज्ञा पुं० [सं० जी० ] ( १ ) पिप्पलीमूल । पिपरामूल (२) पञ्चतिघृत पांच कई चीजों से सिद्ध किया हुआ घी । करणवीरका - संज्ञा पुं० [सं० स्त्री० ] मैनशिल | मनः 1 शिला । ही संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] लताशिरीष । प० मु० । वल्लिशिरीष । करणा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) पीपल । पिप्पली । प० मु० |रा० नि० ० ६ । ( २ ) जीरक | जीरा । ( ३ ) सफेद जीरा ।शुक्र जीरक | ( ४ ) काला जीरा । कृष्ण जीरक । भा० पू० १ भ० । (५) कुम्भीर मक्षिका । यथा - कणा जीरक कुम्भीर मक्षिका पिप्पलीषु च । हारा० । कि । (६) वनपिप्पली । जंगली पीपल । (७) वनजीरक | वन जीरा । कडुजीरा । वनजीर । धन्व० नि० । नि० शि० । (८) अल्प | थोड़ा | नि० शि० । करणाग्रन्थि - संज्ञा स्त्री० [सं०] पीपलामूल । करणप्रिय संज्ञा [सं० पु० ] गौरेया चिड़िया । करणाच - संज्ञा पुं० [देश० ] केवाँच करेंच । कौंड | बाम्हन चिरैया । सूक्ष्म चटक | वै० निघ० । करणाजटा - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० पिपरामूल । पिप्पलीमूल | वै० निघ० २ भ० अजीर्ण बड़वानल चूर्ण । ● करणभ - सज्ञा पु ं० [ स ० पु० ] ( १ ) एक प्रकार का पुष्प वृक्ष | रत्ना० । ( २ २) सुत के अनुसार चोबीस प्रकार के अग्नि--प्रकृति-- कोटों में कराटीन, करणाटीर, करपाटीक-संज्ञा पुं० [सं० पु०] Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७५ aircra खंजन | खंड़िरिच । ममोला । त्रिका० । श० र० । खड़रैचा | करणाटीरक-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] दे० “कण|टीर” । करणादि, कषाय-संज्ञा पु० [सं० पु० ] उक्त नाम का एक योग-पीपर, शत ह्वा दोनों करंज, देवदारु, भारंगी, कुलथी और काला तिल इनका क्वाथ लहसुन और हींग युक्र पीने से रक्तगुल्म का नाश होता है | व० श० । करणादिगरण - संज्ञा पुं० [ स० पु० ] चक्रदत्त में पीपल श्रादि श्रोषधियों का एक वग । जैसे— पीपल, पिपरामूल, चव्य, चीता, सोंठ, मरिच, इलायची, अजमोदा, इन्द्रजौ, पाठा, रेणुका, जीरा, भारंगी, महानोम, मैनफल, हींग, रोहिणी, सरसों, वायविडंग, अतीस और मूर्ध्ना । च० द० कफज्व० चि० । करणादि तैल-संज्ञा पु ं० [सं० नी०] पीपल, मुल हठी कूट, इन्द्रजौ, रेणुका, दारूहल्दी, मजीठ, शारिवा, लोध और धाय के फूल । इनके कल्क तथा चार गुने पानी से सिद्ध तेल फोड़े फुन्सियों को शुद्ध करता और घाव को भरता है । करणादि नस्य-संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] पीपल, आमला, हींग, दारूहल्दी, बच, सफेद सरसों और लहसुन को बकरी के मूत्र में पीसकर नस्य लेने से दैनकादि ज्वर नष्ट होते हैं । वृ० नि० र० ज्वर० चि० | करणादि वटी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक प्रकार की वटी जिसका उल्लेख श्लीपदाधिकार में हुआ है । योग इस प्रकार है - पीपल, वच, देवदारु, पुनर्नवा, बेलछाल और विधारा के बीज - इनका बराबर-बराबर चूर्ण लेकर घोटकर ३-३ रत्ती की गोली बनावें । मात्रा - ३ रत्ती । अनुपान — काँजी | गुण- इससे घोर श्लीपद रोग का नाश होता है । र० स० [सं० । करणादीप्य-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] सफेद जीरा । श्वेत जीरक । रा० नि० व० ६ । करणाद्यञ्जन-संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] पीपल, मिर्च, वच, सेंधा नमक, करंज की मींगी, हल्दी, आमला, हड़, वहेड़ा, सरसों, हींग, और सोंठ को बकरे के मूत्र में पीस गोलियाँ बनालें । htt गुण- इन्हें घिसकर श्राँखों में अंजन करने से बेहोशी, चित्तविभ्रम, अपस्मार, भूत दोष, शिर और आँखों के रोग तथा भ्रम का नाश होता है । बृ० नि० र सन्निपात चि० । (२) पीपल को बकरी के मेगनियों के बीच रखकर पकाएँ और फिर उन्हें बकरी की मेंगनियों के निचोड़े हुये रस में ही खरल करें। पुनः इसका अंजन करने से शीघ्र ही रतौंधी का नाश होता है । इसी प्रकार काली मिर्च को शहद में मिला कर अंजन करसे रतौंधी का शीघ्र नाश होता है । वृ० नि० २० नेत्र राग चि० । करणाद्य लेह - पीपल. सोंठ, पाठा, हड़, बहेड़ा, श्रासला, मोथा, चीता, वायविडंग, बेल, चन्दन, और सुगंध चाला । इन्हें समान भाग लेकर चूर्ण बनाय शहद में चाटने से हर प्रकार के अतिसार और उपद्रव युक्र प्रवाहिका का नाश होता है। इस अवलेह के समान संग्रहणी नाशक अन्य औषधि नहीं है । रसें० चि०६ श्र० । (२) पीपल, पीपलामूल, बहेड़ा और सोंठ का चूर्ण या श्रडूले का रस शहद के साथ चाटने से खाँसी नष्ट होती है । वृ० नि० २० ज्वर चि० । करणाद्यलौह-संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] वैद्यको एक रसौषध जिसका प्रयोग अतिसार रोग में होता है। योग यह है - पीपल, सोंठ, पाठा, अमला, बहेड़ा, हड़, मोथा, चीता, बायबिडंग लालचंदन बेल और सुगंधवाला - इनको बराबर लेकर सत्र के बराबर लौह भस्म मिला जल के साथ घोंट कर रखें यह सब प्रकार का श्रतिसार और संग्रहणी नाशक है । रस०र० । २० चि० ६ श्र० । करणाप्रयोग - बकरी के यकृत के मध्य भाग में पिप्पलीको रखकर पानीके साथ यथाविधि पाक करें । पक जाने पर पिप्पली को अवशिष्ट पानी के साथ पीसकर वीर्तिका बनाऐं । गुण- इसे पानी के साथ घिसकर आँखों में अन करने से रतौंधी नष्ट हो जाती है । इसी प्रणाली से मिर्च का प्रयोग होता है और पूर्ववत गुण होता है । चक्रद० नेत्र रो० चि० । कणामूल-संज्ञा पु ं० [सं० क्वी० ]पिपरामूल । पिप्पली मूल । के० दे० नि० | रा० नि० । नि०शि० । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कणासुफल १९७६ कण्टकत्रयः कणासुफल-संज्ञा पु० [सं०] अकोल । ढेरा कणेरा-संज्ञा स्त्री० [सं० क्री० ] हथिनी । श० च०। कणाद्वा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] सनद जीरा । हस्तिनी । श्वेत जीरक । रा० नि० व०६। कणेरु-संज्ञा पु० [सं० पु.] कर्णिकार वृक्ष । मे। कणिक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु०] (१) पीपल । पिप्पली | कण्ट-संज्ञा पुं० [स. पु] (1) मौलसिरी का (२) शुष्क गोधूम-चूर्ण | सूजी । गेहूँ का आटा । पेड़ । वकुल वृक्ष । (२) काँटा । कण्टक । रा० नि व० १६ । (३) अन का कण । चावल संज्ञा पुं॰ [सं० जी०] लोह । लोहा । का दाना। कण्टक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु०, क्री०] [ वि० कंटकणिवा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) अरणी । अग्नि कित] (१) गोखरू । गोहर नुप। रा० नि० मंथ वृक्ष (२) अत्यंत छोटा टुकड़ा। कणा। किनका। व० ४ (२) मैनफल । मदनवृक्ष । रत्ना । टुकड़ा । जर्रा । । मे० कत्रिक । (३) शुष्क गोधूम (३) मछली श्रादि की नोकदार हड्डी । मत्स्यादि कीकस । (४) काँटा । द्रु माङ्ग । मे० कत्रिक । गेहू का श्राटा । यथा-"शुष्क गोधूम (१) बेल का पेड़ । विल्व वृक्ष (६) हिंगोट | चूर्णन्तु कणिका समुदाहृता।" रा. नि० व० १६ कण । (४) एक प्रकार का चावल । अ. टी. इंगुदी वृक्ष । (७) मुगवन । बनमूग । बनमुद्ग (८) बबूत । कीकर का पेड़। (६) रोमाञ्च । रा०। रोंगटे खड़ा होना । त्रिका० । (१०) कमलकणित-संज्ञा पुं० [सं० की.] पार्तनाद । हे०च । गट्टा । पद्मबीज । (११) बाँस । वेणु। हे. च. कारणश-संज्ञा पु० [सं० क्री ] शस्यमञ्जरी । अनाज (१२) सुई की नोक । (१३) तीव्र वेदना । की बाल । जौ, गेहूं आदि की बाल । श्रम । तेज़ दर्द । (१४) मकर। मगर यह कामदेव का चिन्ह है। (१५) शारीर शास्त्र की परिभाषा कणी-संज्ञा स्त्री० [सं० सी०] (1) हय-कण्ठ-लता। में हड्डी का नोकीला प्रबर्द्धन । (spinous एक बेल । श० र०। (२) कणिका । कनी। process) टुकड़ा । अ० टी० भ० । (३) एक प्रकार का कण्टक करञ्ज-संज्ञा पुं० सं० पु.] एक प्रकार चावल । __का कंजा । काँटा करंज । अ० टी० भ०। कणीक-वि० [सं०वि०] अत्यल्प । सूक्ष्म । छोटा । | कण्टक किंशुक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] फरहद । बारीक । उ०। पालिता मंदार । कण्टकी पारिजात । वै निघ। कणीच-वि॰ [सं० त्रि०] अत्यल्प । उ०। कण्टक कीट-संज्ञा पुं० [सं० पु.] एक प्रकार का कणीचि-संज्ञा पुं० [सं० पु] (1) छोटी डाली। काँटेदार कीड़ा। पल्लवी । (२) निनाद । अावाज । कण्टकच्छद-संज्ञा पुं० [सं० पु.] केवड़ा । सफेद संज्ञा [सं० स्त्री.] (१) फूलदार वेल । पुष्पिता । केतकी का पौधा। श्वेत केतक वृक्ष । वै० लता । (२) गुंजा घुघची । (३) शकट । गाड़ी। | निघ। कणीची-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०) (1) गुजा । घुघची | | कण्टकटेरी-संज्ञा स्त्री० [सं० कण्ट+हिं० कटेरी] (२) किरांची नाम की प्रसिद्ध पुष्पलता । (३) दारुहल्दी । किनगोड़ा। शाटक । मे०चत्रिक। | कण्टकण्ट-संज्ञा पुं० [सं०पु.] कसौंदी । अञ्जन । द्रव्य र०। कणीनिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] नेत्रतारक । दे० | कण्ट-कमल-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] मखाना । "कनीनिना"। मखान। कणीसक-संज्ञा स्त्री० [सं० कणिश] अनाज की बाल । | कण्टकत्रय-संज्ञा पुं० [सं० क्री०] तीनों कटैया । जौ, गेहूँ इत्यादि की बाल |-डि० । कण्टकारीत्रय । रा0 नि. व. २२ । बन भंटा कणेर-सज्ञा पुं० [सं० पु.] कर्णिकार वृक्ष । (वृहती); भटकटैया और गोखरू इन तीन औषउणा० । अमलतास का पेड़। धियों का समूह। Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिक १६७७ गुण- त्रिदोष नाशक, भ्रमनाशक, ज्वर, पित्त, हिचकी, तंद्रा और श्रालापनाशक है। वैo निघ० दे० "कण्टकारीत्रय" । कटकत्रिक - संज्ञा पु ं० [सं० पुं०] गोखरू । गोर । कटकदला - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] केतकी का पेड़ | वै० निघ० । कण्टक देही-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( १ ) शल्यक । खारपुश्त | साहो । ( २ )एक प्रकार की मछली । कँवा | 1 कटकद्र म -संज्ञा पुं० [सं० पुं० ] ( १ ) सेमल । शाल्मली वृक्ष | रा० नि० ० ८ । (२) खैर । का पेड़ । खदिर वृक्ष । २० मा० । (३) कण्टकयुक्र वृक्ष । काँटेदार पेड़ । बबूल आदि कँटीले पेड़ों को कटकद्र ुम कहते हैं । कण्टक पञ्चमूल-संज्ञा पुं० [सं० नी० ] पांच कटीले चुप समूह की जड़ । कण्टकपञ्चमूल की पाँचों श्रोषधियाँ ये हैं । करौंदा, गोखरू, हैंस, (हिंसा), कटसरैया और शतावरी । ये पक्काशय शोधक और वात कफनाशक हैं। (प०प्र० ३ ख० ) सुश्रुत में इनको रकपित्त नाशक, तीनों प्रकार की सूजन दूर करनेवाला, समस्त प्रकार के प्रमेहों को नष्ट करनेवाला और शुक्रदोषनाशक लिखा है । ( सु० सू० ३८ श्र० ) । स्वल्प, महत्, तृण, वल्ली और कंटक संज्ञक पाँच प्रकार के पंचमूल । सु० सू० ३८ श्र०, चि० १७ श्र० विसर्प रोग । सि० यो० तृष्णा-चि० श्रीकण्ठः । कटक पत्रा - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] घीकुवार | घृतकुमारी । कण्टक पत्रफला - संज्ञा स्त्री० दे० "कण्टपत्रफला " | कण्टकपाली-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री ] एक प्रसिद्ध | कटीला लता वृक्ष हींस । श्रहिंसा । प० मु० । Capparis sepiaria, Linn. कालिया कड़ा-बं० | कण्टकप्रावृता - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) घी कुचार । घृतकुमारी । रा० नि० व०५ । ( २ ) कण्टसेवती । वै० निघ० । कष्टकार 1 का पेड़ । पनस वृक्ष । श्र० डी० भ० । ( २ ) गोखरू । गोक्षुर । र० मा० । ( ३ ) भटकटैया । ( ४ ) रैंड | एरण्ड वृक्ष । (५) धतूर का पौधा धुस्तुर वृक्ष । ( ६ ) बंदाल । देवदाली । मोखल (७) कुसुम का पौधा । बरें । ( 7 ) ब्रह्मदंडी का क्षुप | ( 8 ) कक्षा । करञ्जवृक्ष । जिस वृक्ष का फल काँटेदार होता है उसे संस्कृतज्ञ "कंटकफल" कहते हैं । कण्टकभुक् -संज्ञा पु ं० कराटकरञ्ज-संज्ञा गोटा । [सं० पु ं० ] ऊँट । उष्ट्र । [सं० ] लता करअ । सागर कण्टकफल-संज्ञा पुं० [सं० पु० . ] } (१) कटहल कटकफला - स्त्री.] ३० फा० कण्टक कण्टकलता - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) खीरा । पुषा । ( २ ) ककड़ी । कर्कटिका । वृन्ताकी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) भंटा । बैंगन । वार्त्ताकी वृक्ष । रा० नि० ० ७ (२) कटाई । कटकशिरीष-संज्ञा पु ं० [सं०पु० ] एक प्रकार का कँटीला सिरस का पेड़ । कटक श्रेणी -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) कटेरी | कंटकारी | भटकटैया । श० च० । ( २ ) शल्लकी मृग । साही | ख़ारपुश्त । कटका - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) भटकटैया । कंटकारी । ( २ ) दुरालभा । जवासा । ( ३ ) बन मूँग । मुद्गपर्णी । मोठ । ( ४ ) ककड़ी | वै० निघ० । कण्टकाख्य-संज्ञा पु ं० [सं० पु ं० ] शृङ्गाटक | सिंघाड़ा | कण्टकागार-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] ( १ ) गिरगिट । शरट | रा० नि० व १६ । ( २ ) साही नामक जंतु । शब्लकी । सजारु । खारपुश्त । कण्टकाढय - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( १ ) एक प्रकार का पुष्प वृक्ष जो कोकण में प्रसिद्ध है। कूजा । कुब्जक वृक्ष | वेला । रा० नि० व० १० । (२) बेल का पेड़ । विल्ववृक्ष । ( ३ ) शाल्मली वृक्ष | सेमर का पेड़ । कण्टकाढया - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) सेमल । शाल्मलि वृक्ष | वै० निघ० । (२ कुब्जक | कूजा | कण्टकार-संज्ञा पु ं० [सं] [स्त्री० कण्टकारी ] Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटकारि, कण्टकारिका १६७८ (१) भटकटैया । कटेरी । (२) सेमल । (३) एक • प्रकार का बबूल । विकंकत वृक्ष । बैंची । कटकारि, कण्टकारिका-सं० स्त्री० [सं० स्त्री० ] (१) भटकटैया । कण्टकारी । "विश्वौषधि कण्टकारिका क्वाथः " । च० द० विषमज्व० चि० | दे० "कटेरी" (२) सफेद भटकटैया । श्वेत कण्टकारी । कण्टकारित्रय - संज्ञा पु ं० [सं० की ० ] ( १ ) कण्टकारी श्रथ । कडेरी, बन भंटा और सफेद कटेरी इन तीनों प्रकार की कटेरियों का समाहर । ( २ ) दे० " कण्टकारीत्रय" । कष्टकारी - संज्ञा पु ं० [सं० स्त्री० ] ( १ ) भटकटैया कटेरी । भा० पू० १ भ० । दे " भटकटाई" । (२) सेमल । जटा० । (३) एक प्रकार का बबूल । विकंकत वृक्ष । बैंची । श० २० । ( ४ ) कारी | (५) लक्ष्मणा । कण्टकारी घृत-संज्ञा पुं० [सं० क्ली० ] ( १ ) स्वरभेद रोग में गुणकारी एक घृतौषधि । ( २ ) कास रोग में प्रयुक्त एक योगगव्यघृत-४ सेर | कथनीय द्रव्य - कण्टकारी ३० पल तथा गिलोय ३० पल | पाकार्थ - जल ६४ सेर, अवशिष्ट काथ - १६ सेर । इस क्वाथ के साथ यथा विधि घृत पाक करें । गुण- यह जठराग्नि दीपक तथा वातप्रधान कास-नाशक है । करटका मुलहठी, बच, पीपलामूल, चन्दन, जटामांसी, चित्रक, लालचन्दन, चव्य, नागरमोथा, गुरुच, अजवाइन, जीरा, खरेटी, सोंठ, मुनक्का, अनार और देवदारु इनके कल्क से घृत सिद्ध करें । गुण- इसके उपयोग से बालकों की श्वास, खाँसो, ज्वर, अरुचि, शूल, कफ का नाश और बल की वृद्धि होती है । भैष० बालरोग चि० । मात्रा - २ माशे से श्राधा तोला तक । यदि कण्टकारी स्वरस न प्राप्त हो तो कण्टकारी ८ सेर, पाकार्थ जल ६४ सेर, अवशिष्ट काय १६ सेर लें । चक्रदत्त कास चि० । ( ४ ) दोनों कटेरी, भारंगी, अडूसा, इनका स्वरस, बकरी का दूध और गज पीपल, मिर्च, कण्टकारीत्रय - संज्ञा पुं० [सं०ली०] वृहती, गणिकारी और दुरालभा इन तीन श्रोषधियों का समाहार । राजनिघण्टु के अनुसार बृहती, श्रग्नि दमनी और दुःस्पर्शा - दुरालभा इन तीन श्रौषधियों का समूह जिसे त्रिकट श्रोर कण्टकत्रय भी कहते हैं । यथा"बृहती चाग्नि दमनी दुःस्पर्शाचेति तु त्रयम् । कण्टकारी त्रयं प्रोक्त' त्रिकटं कण्टकत्रयम् ॥” रा० नि० ० २२ | सिद्ध योग में गणिकारी के स्थान में गोक्षुर -- गोखरू लिखा है। गुण - कण्टकारीत्रय तन्द्रा, प्रलाप और भ्रम नाशक तथा पित्त, ज्वर और त्रिदोष को नष्ट करने वाला है। वै० निघ० । 2 कण्टकारीद्रु कण्टकारीद्रुम-संज्ञा पुं० [सं० पु ं० ] विकंकत वृक्ष | कंटाई | बैंची । वै० निघ० । कण्टकारीद्वय - संज्ञा पुं० [सं० नी० ] वैद्यक में भटकाई और बनभंटा ( वृहती ) इन दो श्रौषधियों का वर्ग । उपर्युक्त छोटी और वड़ी दोनों प्रकार की कटाई । भा० म० सन्निपात ज्व० । कण्टकारीफल-स० पु ं० [सं० क्ली . ] कटाई का फल | भटकटाई | गुण - तिल, चरपरा, दीपन, हलका, रूखा, गरम, श्वास तथा कास ( खाँसी ) नाशक है । भा० पू० १ भ० शाकव० । दे० "भट सात्रा - ३ माशे से १ तोला तक । (३) पाकार्थ - गव्य घृत ४ सेर कर टकारी का स्वरस १६ सेर | कल्क द्रव्य - रास्ना, बलामूल, सोंठ, कालीमिर्च, पिप्पली, गोखरू ये श्रोषधियाँ मिलित १ सेर । इन श्रोषधियों के साथ यथा विधि घृत पाक करें । कटाई” । गुण — इसके उपयोग से पाँचों कास दूर हो | कण्टकाय्र्य - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] कुरैया । कुटज जाते हैं । वृक्ष | कण्टकाय्य - दे० "करटकारी" | कटकावलेह - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] एक आयुर्वेदीय लेह्यौषधि | योग यह है १ तुला कटेरी को १ द्रोण पानी में पकाकर चौथा भाग शेष रहने पर छान लेवें । और फिर उसमें धमासा, गिलोय, भारंगी, काकड़ासिंगी, Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कण्टकाऱ्या १६७६ चि०। रास्ना, नागरमोथा, कपूर कचरी, चव्य, चित्रक, यास क्षुप । दुरालभा । रा०नि० व. ४ । (२) सोंठ, मिर्च और पीपर प्रत्येक का १-१ पल कल्क लाल जवासे का पौधा । यास चुप । तथा २० पल खांड और ८-८ पल घी तथा तेल कएटकाशन-संज्ञा पुं० [सं० पु.] ऊँट । हे००। डालकर पकाएँ एवं पाक के अंत में उसमें पीपल कण्टकाष्ठ-संज्ञा पुं० [सं०पु.] सेमल । शाल्मलीऔर वंशलोचन का ४-४ पल चणं और ठंढा होने वृक्ष । पर ८ पल शहद मिलाएं। यह अवलेह पाँचों कण्टकाष्ठील-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] एक प्रकार की प्रकार की खाँसी को नष्ट करता है । वं० से० का० | मछली। कुड़ची। बाटा । कुलिश। कुड़िश । (Cyprinus curchius) त्रिका। कण्टकार्यो-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] भटकया। कण्टाकत-वि० [सं. त्रि०] (१) जिसके रोम खड़े कण्टकारी धृत । यथा हुए हैं । रोमांचित । पुलकित । जातपुजक । (२) कुसुमैः कण्टकार्यायाः............।" रस०र० काँटेदार । कैंटोला । दे० "कण्टको" । कण्टक्रित्-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (१) छोटी बाल-चि०। मछली। कण्टका-दि-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कफपित्त-ज्वर कण्टकिनी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (1) भंटा । में प्रयुक्त एक कषायौषध जिसमें कण्टकारी इत्यादि बैंगन का पौधा । वार्ताको क्षुप । (२) भटकटैया । औषधियाँ पड़ती हैं। वे इस प्रकार हैं कण्टकारिका । कटेरी । रा०नि०व०४ । (३) कटेरी, गुरुच, वभनेटी, (ब्राह्मणयष्टि) सोंठ, लाल कटसरैया का पौधा । रनझिण्टी । रा.नि. इन्द्रजव, दुरालभा, चिरायता, लालचन्दन, मोथा, व० १०। (४) मोठाखजूर का पेड़ । मधु खर्जरी परवल, और कुटको प्रत्येक १४ रत्ती, (सब २ | वृक्ष । रा०नि० व. ११ । (५) पीले फूल की तोला) इन्हें ३२ तोला, (s॥ सेर) पानी में कटसरैया । शोणझिण्टी । कुरण्टक । (६) भटपकायें, जब तोला (5= पाव ) पानी शेष रह | कटैया। छोटी कटेरी । नि०शि० । (७) दीप्या। जाय, उतारकर छानले,और प्रयोग में लावें,(भैष०) कण्टकिफल, कण्टकीफल-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] चकदत्त के अनुसार कण्टकार्यादि की औषधियाँ (१) कोकुप्रा । समष्ठीलक्षुप । रा० नि० व० ४। ये हैं-सोंठ, इन्द्रजव, और दुरालभा । इन्हें (२) कटहल का पेड़ पिनसवृक्ष । अ० टी० भ० बराबर बराबर लेकर उसमें से २ तोला द्रब्य ___संज्ञा पुं० [सं० वी० ] खीरा । पुष फल । लेकर यथाबिधि क्वाथ प्रस्तुत करें। च० द० ज्व० भा०। कण्टकिफला, कण्टकीफला-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] कण्टकार्यादि लेप-संज्ञा पुं० [सं० पु.] बड़ी (१) ककड़ी । कर्कटी। वै नि० । (२) कटेली के स्वरस में शहद मिलाकर लेप करने से समष्ठीला काकुम्बा । नद्याम्र । कोशाम्र। कोराफला इन्द्रलुप्त का नाश होता है । इसी प्रकार गुञ्जा की नि.शि.। जड़ वा फल का अथवा भिलावे के रस का लेप कण्टकिल-संज्ञा पुं० [सं० पु.] एक प्रकार का करने से गंज का नाश होता है। वृ० नि र० | बाँस । शo च० । कँटीला बाँस । शुद्र रोग चि०। करटकिलता कण्टकीलता-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कण्टकाल-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (१) कटहल । (१) कर्कटी । ककड़ी की बेल । (२)खीरा । पनस वृक्ष । श० च०। (२) मदार । मंदार । त्रपुषीलता । रा० नि० व० ७ । कण्टकालिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] भटकटैया। कण्टकिला-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] एक प्रकार का छोटी कटाई । कण्टकारी । भा० पू० १ भ०।। बाँस । दे० "कएटकिल" [बं०] तालमखाना। कण्टकी-वि० [सं० वि० कण्टकिन् ] काँटेदार। कण्टकालुक-संज्ञा पु. [सं० पु. (१) जवासा । कँटीला । चि०। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कण्टकोद्रुम ११० कण्टफल ___ संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (1) शमी का का सरफोंका । यह चरपरा, गरम तथा कृमि और पेड़ । छिकुर । प० मु० । (२) बनभंटा ।वृहती। शूल नाशक है । वै० निघ। मद० व०। (३) कण्टक वार्ताकी। काँटा | कण्टकीशुक, कण्टकिशुक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] बैंगन । ___पालिता मंदार । पारिभद्र वृक्ष। वै० निघ० । गुण-चरपरा, तिक्र, गरम, दोषजनक, रक | पांगरा । पित्त प्रकोपक तथा खुजली (कण्डू तथा कच्छ) | कण्टकुरण्ट-संज्ञा पुं॰ [सं० पु. (१) पीले फूल को नष्ट करनेवाला है । राज० । (४)भटकटैया । वालो कटसरैया । पीतझिण्टी । पीली कटसरैया । (५) बदरी । बेर । (६) खदिर। वै० निघ० । (२) कटसरैये का पौधा । झिएटी संज्ञा पु० [सं० पु० कण्टकिन् ] ( 1 ) छोटी क्षुप । रा०नि० व० १० । मछली । कँटवा | श० र० । (२) मैनफल का | कण्टगुरकामाई-संज्ञा स्त्री॰ [ देश ] एक कँटीली पेड़ । मदन वृक्ष । पe मु०। (३) खैर का पेड़।। माड़ी | Azima Tetracantha खदिर वृक्ष । शo मा० । (४) गोखरू । गोक्षुर | कण्टतनु-संज्ञा पुं० [सं०स्त्री.](1) वृहती । बड़ी क्षुप । रा०नि० व0 ४ । सु० सू० ३८ अ० । (५) ___कटाई ।। रा० नि० व० ४ । (२) केतको पुष । बेर का पेड़ । बदर वृक्ष । बैर राe नि० व०११। केवड़े का फूल । (६) एक प्रकार का बाँस । एक कटीला बाँस । कण्टदला-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) केतकी रा० नि० व० ७ । (७) विकंकत वृक्ष । बैंचो । वृक्ष । केवड़े का पौधा । रा०नि० व० १० (२) सु० चि० ८ ० ० (८) गूहकीकर । विट् | ___ केवड़ा । सफेद केतको । वै० निघ० । खदिर । प. मु. । (१) बेल का पेड़ । विल्व | कण्टपत्र-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (१) विकत वृक्ष । (१०) फरहद । पारिभद्र वृक्ष । वै. वृक्ष । कंटाई । बैंची। श० मा० । (२) शृङ्गानिघ । (११) खजूर का पेड़ । (१२) काँटे टक | सिंघाड़ा। .. दार पेड़ । (१३) बड़ा गोखुरू । व्यालदंष्टा । कण्टपत्रक-संज्ञा पुं॰ [सं०पु. शृङ्गाटक ।सिंघाड़ा। क्रमश । रा० नि । नि• शि० (१४) वंश । | कण्टपत्रफला, कण्टपत्रा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] बाँस | नि०शि० । ब्रह्मदंडी का पौधा । ब्रह्मदंडी वृक्ष । रा०नि०व० कण्टकीद्रुम-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] खैर का पेड़। खदिर वृक्ष । रत्ना० (२) मैनफल का पेड़। कण्टपत्रिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] बैंगन का पौधा मदनवृक्ष । र०। (३) बाँस । (४) बैर का वार्ताकी वृक्ष । रा०नि० व०७। - पेड़ । (५) वार्ताको वृक्ष । बैंगन का पौधा। कण्टपाद-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] विकंकत वृक्ष । कण्टकी पलाश-संज्ञा पु० [सं० पु.] ढाक भेद । ____ कंटाई । बैंची । रा०नि० व० ।। रस. यो. सा० । | कण्टपुङ्खा, कण्टपुटिका-संज्ञा स्त्री० [ सं० स्त्री०] कण्टकी पारिजात-संज्ञा पुं॰ [सं० पु । फरहद। एक प्रकार का सरफोंका । कँटीला सरफोंका । एक प्रक पालिता मंदार । पारिभद्रक। वै० निघ०। पांगरा। कण्टक शरपुङ्खा । कण्टालुः । पाल्तो-बं० । गुण-चरपरा, गरम और कृमि तथा शूलकण्टकीफल-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] कटहल । पनस नाशक है । रा०नि०व० ४ । कण्टपुटिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] सरफोंका । वृक्ष । कण्टकि फल । शरपुङ्खा । कण्टकीफला-दे० कण्टकिफला । कण्ट फल-संज्ञा पु. [ स० पु.] (१) देवताड़ कण्टकीलता-सज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] बालम खीरा । | __ का पौधा । सनैया । घघरबेल । देवदाली। रा० कण्टकिलता। नि० व० ३ । २३ । (२) छोटा गोखरू । क्षुद्र कण्टकीशरपुङ्खा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक प्रकार गोक्षुर । रा० नि° व० ४। (३) कटहल । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कण्टफलस्तनु १९८१ कण्टावय पनस । रा. नि. व० ११। (४) धतूरा । धुस्तू कटसरैया । सैरेयक । वै० निघः । श्वेतमिण्टी रक । रा. नि० व. १०। (५) लताकरञ्ज । वृक्ष । रा०नि० व० । । (६) रेंड । एरण्ड । (७) कण्टाकरी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० 1 कटहल । पनस कोकुत्रा का पौधा । नद्याम्र । रा०नि० व० ४ । वृक्ष । वै० निघ। (८) कुसुम्भ । कुसुम का पौवा । बरें। (६) संज्ञा स्त्री० [सं० पु.] विकंकत वृक्ष । बैंची ब्रह्मदंडी । रा०नि० व. २३ । (१०) तेजबल। का पौधा। (११) कारका । कारबल्ली । कण्टाकुम्भाडु-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] एक प्रकार की वहबीहि समास करने से उन फलों के पेड़ का कँटोली लता । कण्टकलता विशेष । कमिर के। भी बोध होता है। च० द.। कण्टफलस्तनु-संज्ञा पु० [सं०] (1) छोटा गोखरू | कण्टाफल-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (१) धतूर का (२) वनशृङ्गाटक। पौधा । धुस्तूर वृक्ष । रा० नि० व.१०(२) कण्टफला-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (१) घघरबेल | कटहल, पनस वृक्ष । रा० नि० व० ११ । (३) . सोनैया । देवदाली लता। रा. नि. व.३। पनसफल । कटहल । (२) छोटा करेला । लघुकारवेल्ली। रा० नि० कण्टारवी-संज्ञा स्त्री० [स स्त्री.] वासा । व० ७ । (३) ब्रह्मदंडी का पौधा । रा० नि० कण्टारिका-संज्ञा • स्त्री [सं० स्त्री०] (१) अग्निदमनी व०५। (४) खेखसी । ककोटी । ककोड़ा |रा. ___ वृक्ष । (२) कण्टकारी | भटकटै या । कटंग, रा० नि० व०७ । (५) वृहती । वड़ी कटाई । रा० निव० ४ । नि० व०४। कण्टार्गल-संज्ञा पु० [सं० पु.] । नीले फूल कण्टफली-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] झिझिरीटा । कगटार्तगला-सज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] | वालीमुरहुरी । रा०नि०नि०शि०। कटसरैया । नीलझिण्टी। श्रार्तगल । रा०नि० कण्टमञ्जरिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] अपामार्ग । व०१०। रा०नि० । नि०शि०। कण्टाईलता-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] नीले फूल कण्टमूल-संज्ञा पुं॰ [सं०] औंधाहुली। की कटसरैया । नीलझिण्टी । कण्टल-संज्ञा पुं० [सं० पु.] बबूल का पेड़ जिसमें कण्टाल-संज्ञा पुं॰ [सं० पुं०] (१)मैनफल का तीक्ष्ण काँटे होते हैं। श० च० । वै० निघ०। पेड़ । मदन वृक्ष । रा०नि० व० ८। (२) संस्कृत पर्याय—वावल, स्वर्णपुष्प और | कटहल | पनस वृक्ष । कण्टालिका, कण्टा ली-संज्ञा स्त्री॰ [सं० स्त्री० ] भटकण्टवल्लरी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] श्रीवल्ली । सीका ___कटैया । कण्टकारी । वै० निघ। काई । शीतला। बाघेण्टी (को०)। वै० निघ। | कण्टालु-संज्ञा० पु० [सं० पु.] (१) बबूल । वरक कण्टवल्ली-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] श्रीवल्लो वृक्ष । वृक्ष । रा०नि० व० ८ । (२) बाँस । वश | रा. सोकाकाई। शिववल्ली । बाघेटी | रा०नि०व०८। नि० व० ७ । (३) बृहती । बनभंटा । (४) वार्ता कएटवार्ताकी संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कँटीला की वृक्ष । बैंगन का पौधा । रा०नि० व०४। बैंगन । रा०नि० व० ७ । (१) एक प्रकार की ककड़ी। रा०नि० व०७। कएटवृन्ताकी-संज्ञा स्त्री० [सं० सं०] वृन्ताकी छोटा (६) वेंगन । (७) जवासा । लाल धमासा । बैंगन । कुनाशक । कटुरा । कषाय | नि० शि० । (८) कण्टवृक्ष-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] तेजफल का पेड़। कण्ट पुङ्खा। तेजबल । रा०नि०व० ११। कण्टाह्वय-संज्ञा पुं॰ [सं० की.] कमल की जड़ । कएटसारका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्रो०] सफेद फूलको / पद्मकन्द । भसींड । रा० नि: । व०१० सूक्ष्मपुष्प । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ শিক্ষা १९८२ कण्ठद्वार कण्टिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] कंधो । प्रतिपला । कंप वेदनाः । मोहं च दाहं हृदये शिरोरुजं तं वै० निघः। कण्ठकुजं प्रवदन्ति साधवः ।। कण्टी-संज्ञा पुं॰ [सं० पु. कल्टिन् ] (१) सके । कण्ठ-कुब्जक-संज्ञा पु० [सं० पु.] दे० "कण्ठचिरचिटा । श्वेतापामार्ग । (२) अपामार्ग। कुज"। 'चिचड़ी । रा०नि० व०८ । (३) गोखरू । गोचर कण्ठ-कूजन-संज्ञा पुं० [सं० क्ली०] गल कूजन । (१)छोटा गोखरू । क्षुद्र गोत्र । रा०नि० ब० ४ । गले में शब्द होने की क्रिया वा भाव । “प्रततं(५) खैर । खादिर ( ६) मटर । कलाय । (७) कण्ठकूजनम्" । मा० नि० । गोक्षुर । गोखरू । कण्ठ-कूजिका- कण्टोलन-[मरा०] धार करेला । वाहस (सं०) संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] वीणा कण्ठ-कू एकाइं. मे० मे० । नामक वाद्य । बीन । कण्ठ-सज्ञा पुं॰ [सं०पु० [वि० कण्ठ्य] (१) गला । कण्ठ-कूप-संज्ञा पुं० [सं० को०] गले के सामने का टेंटुश्रा (Pharynk) (२) स्वर । आवाज़ ।। गड्ढा । (Jugularnotch) Supra शब्द। हारा०। (३) मैन फल का पेड़ । मदन वृक्ष । | sternal noteh अ० शा० । से उद्विक । (४) किनारा । तट । तोर । (१) कण्ठ-कोत्तर-सज्ञा पुं० [सं० पु.] (Supr:फेन । (६) स्वरयंत्र । Organ of voice. spinal ligament) कण्ठक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कंठ । टेटुवा । | कण्ठगत-वि० [सं० त्रि०] गले में पाया हुआ । कण्ठकाल-संज्ञा पुं॰ [सं-पु.] मत्स्य । मछली । कण्ठकान्तरीया-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] Inters ___ कंठ में अटका हुआ । गले में प्राप्त । गले में स्थित । कंठस्थ । pisali पेशी विशेष । अ० । शा० । (२) एक बंधनी विशेष। कण्ठगलीया-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्रो०] कंठ और स्वरकण्ठ-कर्णी-नाली-संज्ञा स्त्री० [स० स्त्री० ) एक नाली | यंत्र संबंधिनी नाड़ी । (Laryngopharyजो कंठ और कान के मध्य में स्थित है। नुग़नुग़ ngeal nerve) अ० शा० । (बहु० नग़ानिग़ )-अ० । (Eusta Chian- | कण्ठ-ग्रह-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कण्ठ कुब्जक । tube ) अ० शा०। यथा-"इह द्वौ कर्ण कराठग्रहो"। भा० प्र० म० कण्ठ-कर्णी-सुरङ्गा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] दे० | १ अ०। "कण्ठकीनालो"। कण्ठ-जिह्वक कास-संज्ञा पु० [सं० क्ली० ] एक प्रकार कण्ठ-कुब्ज-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] एक प्रकार का की खाँसी । व0 रा०। सन्निपात रोग । सन्निपात ज्वर का एक भेद। लक्षण-कफ का विकार हो, जीभ काली पड़ लक्षण-सिर में दर्द, गले में दर्द, दाह, मोह, जाय, मूर्छा, के करने से थकावट उत्पन्न हो, नींद कम्प, वातरक की पीड़ा ! ठोड़ी जकड़ जाना, नावे अोर सुख न प्रतीत हो । यथासंताप, प्रलाप (पान तान वकना ), और मूर्छा गरला जिबिका श्लेष्मा वान्ति मूपिरिश्रमः । ये लक्षण "कण्ठकुब्ज" सन्निपात ज्वर में होते हैं । निद्राभंगो विदाहश्च कण्ठ जिह्वक लक्षणम् ॥ यह कष्टसाध्य होता है । यथा वा० रा०प्र० पृ० १४६ शिरोर्तिकंठ ग्रह दाह मोह कंप ज्वरारक्त समीर भांगरे के पत्तों के चूर्ण में शहद मिलाय गोली णार्तिः । हनुग्रहस्तापविलाप मूर्छा स्यात्कंठ बनाकर मुख में धारण करने से लाभ होता है । कण्ठ-तलासिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] घोड़े को कुब्जः खलु कष्टसाध्यः । भा० प्र० ज्वर चि०। बाँधने की रस्सी । अश्व बंधन रजु । श० मा० । माधव निदान में इसके लक्षण इस प्रकार है कण्ठ-द्वार-संज्ञा पुं० [सं० की ] कंठ मुख । कण्ठग्रहं यः कुरुते हनुग्रहं मूप्रिलाप ज्वर (Laryngeal-Orifice.) अ० शा० । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कण्ठनाड़ी १६८३ कण्ठ- नाड़ी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] गले की नली । कण्ठ नाली । कण्ठ- नाली - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] दे० " कण्ठनाड़ी" । कण्ठ-नीड़क - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] चील नाम की चिड़िया । चील्ह । चिल्ल | त्रिका० । कण्ठ नीलक- संज्ञा पुं० [सं० पु० ] ( १ ) उलका । लुक । श० मा० । ( २ ) चील । चिल्ल पक्षी । कण्ठ- पाशक- संज्ञा पुं० [सं० ] ( १ ) हाथी के गले में बाँधने की रस्सी । करिगलवेष्टन रज्जु । श० मा० । (२) कंठ पाश । कण्ठ-पुङ्खा कण्ठ पुङ्खिका संज्ञा स्त्री० [सं०] [स्त्री० ] सरफोंके - का एक भेद । कण्ठालु | यह चरपरी और गरम है | तथा कृमि और शूल को नष्ट करती है । बिशेष दे० " सरफोंका" | कण्ठ- पूर्वा श- मुद्रणी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] उक्र नाम की एक पेशी विशेष । ( Cricoary taenoideus-Lateralis ) श्र० श० । कण्ठ- पृष्ठांश- मुद्रणी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] उक्त नाम की पेशी बिशेष | (Ary taen oideus) श्रं० शा० । 1 कण्ठ-प्रदाह - संज्ञा पु ं० [सं० की ० ] कंठशोथ | कंठ की सोजिश । कण्ठ-बन्ध-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( १ ) हाथी के गले में बांधने की रस्सी । करिकरठ बंधन रज्जु ( २ ) गलबंधन । गले की डोर । कण्ठ-भूषा - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] गले का हार । ( neck-lace ) अ० शा० । कण्ठ मणि-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] घोड़े की एक भँवरी, जो कंठ के पास होती है । ग्रैवेयमणि । कण्ठ- मध्यांश- मुद्रणी-संज्ञा की० [सं० स्त्री० ] उक्त नाम की पेशी बिशेष | (thyreoary taenoideus ) अ० शा ० । कण्ठ-रोग-संज्ञा पु ं० [सं० पुं० ] गले का रोग | दे० "कण्ठमाला” 1 कण्ठ-रोहिणी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] सुश्रुत के अनुसार गले का एक रोग, जिसे गलरोहिणी भी कहते हैं । ( Diphtheria ) दे० " गलरोहिणी । कण्ठमाला कण्ठ- लता - संज्ञा स्त्री० [ सं स्त्री० ] (१) कण्ठ J भूषण | गले में पहने जानेवाला श्राभूषण । कण्ठ भूषा | कण्ठ-वात- संज्ञा पुं० [सं० पु० एक प्रकार का वातजन्य कंठ का रोग। यथा - प्रलाप, शिरोभंग कंप, रक्त की वमन इसके प्रधान लक्षण हैं। इसमें सद्यः मृत्यु होती है । लक्षण " सद्योमृत्युः कण्ठवातः शिरोभङ्गः पलापनम् । वान्ती रक्तस्य कम्पश्च कंठवातस्य लक्षणम् ॥" कण्ठ-शालुक संज्ञा पुं० [सं० पु०] कंठगत कण्ठ- शालूक मुखरोग विशेष । गले का एक रोग । सुश्रुत के अनुसार कफ के प्रकोप से उत्पन्न एक ग्रंथि जो गले में होती है । और काँटे के समान तथा धान की अनी के समान वेदना उत्पन्न करनेवाली एवं बड़े वेर की गुठली के बराबर होती है । यह खरदरी, कड़ी, स्थिर और शस्त्र साध्य होती है । यथा कोलास्थिमात्रः कफसंभवो यो ग्रंथिर्गले कंटक शुकभूतः । खरः स्थिरः शस्त्र निपात साध्य स्तं कंठशालूकांमति ब्रुति ॥” सु० नि० १६ श्र० । मा० नि० । कण्ठमाला - संज्ञा स्त्री० [सं० की गरडमाला ] एक प्रकार की बीमारी जो मेद और कफ से उत्पन्न होती है - इसमें काँख, कन्धे गरदन कण्ठ, वंक्षण (जांघ) मेढू और संधि देश में छोटे बेर या बड़े बेर अथवा श्रमले के समान बहु काल में धीरे धीरे पकने वाली बहुत सी गाँठें उत्पन्न होती हैं, उन्हें कठमाला या गण्डमाला कहते हैं, यथा कर्कन्धु कोलामलक प्रमाणैः कक्षांसमन्या गल वंक्षणेषु । मेदः कफाभ्यां चिरमन्दपाकः स्यादू गण्डमाला बहुभिश्च गण्डैः । मा० नि० । यह बातादि दोष भेद से तीन प्रकार की होती है (१) वात । ( २ ) कफ और (३) मेद | वातिक गलगण्ड के लक्षण इसमें सुई चुभने कीस पीड़ा हो, काली नसों से व्याप्त हो, बाल अथवा धूसर रंग हो, रूखापन Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कण्ठमाला लिये बहुत काल में बढ़ने वाला और पकने वाला होता है और कभी स्वयं भी पक जाता है। मुख विरसता, तालु और गले में शोष होता है । यथा १३६४ तादोन्वितः कृष्णसिरावनद्धः श्यावारुणो वा पवनात्मकस्तु । पारुष्ययुक्तश्चिरवृद्धिपा को यदृच्छयापाकमियात्कदाचित् । वैरस्यमास्यस्य चतस्य जन्तो भवेत् तथा तालुगलप्रशोषः । कफज गलगण्ड के लक्षण कफ का गलगण्ड निश्चल, गले की त्वचा की समान वर्ण वाला, अल्प पीड़ा युक्त श्रत्यन्त खुजली हो र श्रति शीतल हो, वहुत समय में बढ़ने वाला और पकने वाला तथा पाकावस्था में अल्प वेदना हो, मुख में मीठापन, वायु और कंठ में कफ लिपासा रहे । यथा स्थिरः सवर्णो गुरुरुग्रकन्डूः शीतोमहांश्चापि कफात्मकस्तु | चिराभिवृद्धि भजते चिराद्वा प्रपच्यते भन्दरुजः कदाचित् । माधुर्यमास्यस्य च तस्य जन्तो भवेत्तथा तालु गल प्रलेपः । मेदज गलगण्ड के लक्षण मेद से उत्पन्न गलगण्ड-चिकना, भारी, पांडुव, दुर्गन्ध युक्र, अल्प पीड़ा युक्त, खुजली से व्याप्त पतली और तुम्बी सी लटकनेवाली शरीर के अनुरूप छोटा और बड़ा होता है। इसमें मुख स्निग्ध और गले में घुर घुर शब्द होता है । यथा स्निग्धो गुरुः पाण्डुरनिष्टगन्धो मेदो भवः कण्डुयुतोऽल्पच । प्रलम्बतेऽलाबुवदल्प मूलो देहानुरूपक्षय वृद्धि युक्तः । स्निग्धास्यता तस्य भवेच्चजन्तो र्गलेऽनुशब्दं कुरुते च नित्यं । मा० नि० । असाध्य गलगण्ड के लक्षणजो कष्ट से श्वास लेता हो, जिसका सब देह शिथिल हो गया हो, और रोग के श्राक्रमण का काल एक वर्ष से अधिक होगया हो, रोगी श्ररुचि से पीड़ित हो, दुर्वलता हो और स्वर से क्षीण हो तो रोगी को असाध्य समझें, यथा heatrai कृच्छ्राच्छ्वसन्तं मृदुसर्वगात्रं संवत्सरातीत मरोच कार्तम् । क्षीणं च वैद्यो गलगण्ड युक्तं भिन्नस्वरंचापि विवर्जयेत्तु ॥ मा०नि० । अन्य चिकित्सा दशमूल, सहिजनमूल और निचुल जल में पीस गरम-गरम लेप करने से वातज कण्ठमाला दूर होती है । 1 देवदारु, बड़ा इन्द्रायण मूल दोनों को पीसकर लेप करने से कफज गण्डमाला दूर होती है। श्वेत अपराजिता की जड़ लेकर जल से पीसकर प्रातः काल सेवन करने से मेदज गलगण्ड का नाश होता है । सिरा वेधन द्वारा रक्त निकालने से भी मेदज गलगण्ड दूर होता है । शुद्धताम्र चूर्ण SI, शुद्ध मंडूर SI, दोनों को महिषी के मूत्र में १ मास पर्यन्त भिगो रक्खें । पुनः अर्कचीर में सात दिवस खरल कर टिकिया बनालें । पुनः जंगली कंडे की श्राँच दें। इसी प्रकार ७ घाँच दें तो उत्तम भस्म हो । प्रत्येक पुट में शुद्ध गंधक १-१ तोला मिलाकर शराब सम्पुट में बंदकर श्रच दें. मात्रा - १ से ३ रत्ती शहद के साथ। इसके उपयोग से हर प्रकार के गंडमाला में अत्यन्त लाभ होता है । सिरस की छाल ४ सेर लेकर १६ सेर जल में are करें, जब अच्छी तरह गाढ़ा होकर हलुवा सा होजावे, तो वरुण वृक्ष की छालका चूर्ण कर १ सेर मिलाकर द्विगुण शहद मिलाकर किसी घृत के पात्र में रख १ मास पर्यन्त यव के ढेर में गाड़ दें, जब ४० दिन व्यतीत होजाय, तो निकाल कर कार्य में लायें । मात्रा - ३-६ मा० उक्त भस्म के साथ सेवन करने से पूर्व लाभ होता है । सोंठ, मिर्च, पीपल, प्रत्येक ६-६ भाग । नारियल की गिरी, पुराना गुड़ प्रत्येक ४-४ भाग । सिन्दूर १ भाग, भिलावा ४ अदद लेकर एरण्ड और तिल के तेल में पकाएँ । जब तेल का वर्ण काला होजाय, तो उक्त द्रव्यों के साथ पाचन करके तरह मर्दन कर रखलें । मात्रा - १-४ माशा । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कठडी इसके सेवन करने वाले प्राणी को लवण और अम्लरस न खाना चाहिये । कृष्ण सर्प की हड्डी १ माग, कुचिला जलाया हुआ १ भाग, संखिया १ भाग, भिलावा का तेल १ भाग, अर्कचीर में मर्दन कर रखलें । इसके प्रलेप से गण्डमाला, श्रपची, और अबुद रोग का नाश होता है । (लेखक ) १६८५ कंठमाला की चिकित्सा - पथ्य - यव, मूंग, परवल, श्रोर रूक्ष भोजन का सेवन वमन और रक्त मोक्षण का यथोचित प्रयोग हितकारी होता है । (१) हस्तिकर्ण पलाश की जड़ चावलों के धोवन के साथ पीसकर लेप करने से कंठमाला दूर होता है । ( २ ) सरसों, सहिजन को छाल, यव, सन के बीज, अलसी और मूली के बीज समान भाग लेकर खट्टे मठा में पीसकर लेप करने से कंठमाला, ग्रंथि और दारुण गलगण्ड का नाश होता है । (३) पुरातन कर्कारु के रस में सेंधा और विड नमक मिलाकर नस्य लेने से तरुण गलगण्ड का नाश होता है । ( ४ ) जल कुम्भी के भस्म में गोमूत्र मिलाकर गर्म करके पीने से और कोदो के भात का पथ्य लेने से गलगण्ड शांत होता है । 1 (५) सूर्यावर्त्त (हुलहुल ) के रस से उपनाह नामक स्वेद देने से गलगण्ड शांत होता है। (६) कड़वे तुम्बे के पात्र में सात दिन तक जल रखकर मदिरा के साथ सेवन करने और पथ्य पूर्वक रहने से गलगण्ड का नाश होता है । (७) कायफल का चूर्ण घिसकर गलगण्ड पर लेप करने से गलगण्ड का नाश होता है । (८) सफेद अपराजिता की जड़ पीसकर घृत मिला पान करने से उक्त रोग शमन होता है । कण्ठमाला में प्रयुक्त अन्य योग — तुम्बीतै, अमृता तैल, कांचन गुटिका, सिन्दुरादि तैल, शाखोटक तैल, विम्बादि तैल, निर्गुण्डी तैल, व्योपाद्य तैल, चन्दनाय तैल, गुञ्जाय तैल, गण्डमाला कण्डन रस । कण्ठीरव रोग जिसे गलशुडी वा तालुशुण्डी भी कहते हैं । सुश्रु० | दे० "गलशुण्डी" | कण्ठशुद्धि-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कण्ठ का कफादि से रहित होने का भाव । गला साफ होना । - कण्ठशूक - संज्ञा पु ं० दे० " कण्ठशालुक" । कण्ठशूल - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] घोड़े के गले की एक भौंरी जो दूषित मानी जाती है । कण्ठशोष - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] एक प्रकार का रोग जो पित्तजन्य होता है। गला सूखना । गले की खुश्की । कष्ठा - संज्ञा पुं० [सं० स्त्री० ] गलदेश | कण्ठाग्नि-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] एक प्रकार की चिड़िया जो अपने गले में ही भोजन पचाती है । त्रिकाo | पक्षी | चिड़िया । गलाधः करण से ही पी का श्राहार परिपाक हो जाता है। कण्ठाल-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( १ ) सूरन । जमीकन्द । ( २ ) ऊँट | मे० । ( ३ ) एकप्रकार की गोणी | मे० । ( ४ ) गाय या बैल के गलेकी Ma | (५) एक पेड़ । वृक्ष विशेष । कण्ठालङ्कार (क) - संज्ञा पु ं० [सं०पु०] काँस । काश | रा० नि० व० म कण्ठशुण्डी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] गले का एक ३१ फा० कण्ठाला -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] जालगोणिका, फाँस की रस्सी । त्रिका० । ( २ ) ब्राह्मणयष्टिका । 1 (३) द्रोणिविशेष | मटकी । कण्ठालु -संज्ञा पुं० [सं० स्त्री० ( १ ) कण्ठपुङ्खा | गलफों का । ( २ ) त्रिपर्णी नामक कंदशाक । ( Dioscorea triphylla, Linn.) रा० नि० ० ७ । कण्ठिका - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] गले की माला । कंठी । कण्ठी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) गलदेश । गला । गुलू । अ० टी० भ० । (२) श्रश्व- कंठ वेष्टन-रज्जु । अगाड़ी । घोड़े के गले की रस्सी । कण्ठी - संज्ञा स्त्री० [सं० पुं० कण्ठिन् ] ( १ ) मटर | कजाय । रा० नि० व १६ । ( २ ) मत्स्य । मछली । कण्ठीरव-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] (१) सिंह । शेर । हारा० । ( २ ) कबूतर । पारावत। रा० नि० च० १७ । (३) मतवाला हाथी । मत्तगज । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कण्ठीरवी १६८६ कण्ठीरवी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] अडूसा | वासक वृक्ष । बाँसा । बसीङ ( गढ़वाल ) । रा०नि० 'व० ४ । कण्ठील-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] ( १ ) ऊँट । क्रमे लक | मे० लत्रिक० । ( २ ) सूरन । जमीकंद | कण्ठीला -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक प्रकार की द्रोणी | मे० लत्रिक० । मटकी । मथने का बर्तन | कण्ठशोथ - संज्ञा पुं० [सं० पुं०] कंठ की सूजन । गले की सूजन | कण्ठसूत्र - संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] ( १ ) माला । हार । ( २ ) एक प्रकार का श्रालिंगन यथा— यः कुर्वते वक्षसि वल्लभस्य, स्तनाभिघातं निविड़ोपघातात् । परिश्रमार्त्तः सनकैर्विदिग्धा स्तत्कण्ठ सूत्रं प्रवदन्तिज्ज्ञाः ॥ ( रतिशास्त्र ) कण्ठागत- वि० [सं० त्रि० ] वहिर्गमनोन्मुख | कंठ में उपस्थित | जो गले में श्राकर लगगया हो । कण्ठिकास्थि - संज्ञा पुं० [सं० क्वी० ] एक अस्थि विशेष (Lingual ar Hyaidbone )। 1 'कण्डला कण्डक - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] एक प्रकार का कास रोग | खाँसी । वै० निघ० । योग - सारिवा, ईख को जड़, मुलहठी, पीपल, मुनक्का, विदारीकंद, कायफल, हंसराज, बड़ीकटेरी, और छोटो कटेरी इन १० चीजों का नाम कण्ठ्य महाकषाय है । गुण तथा उपयोग-विधि -- इसे उचित मात्रा में क्वाथ कर पीने से कंठ रोग का नाश होता है च० सू० ४ श्र० । 1 कण्ठ्यवर्ग-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] कंठ के लिये दस उपकारी श्रोषधियों का समूह । कण्ठ्य महाकषाय । च० सू० ४ प्र० । दे० "कव्यमहाकषाय" । कण्डन-संज्ञा पु ं० [सं०ली० ] ( कडि= रौंदना, भूसी अलग करना ) ] ( १ ) धान को कूटकर चावल और भूसी अलग करना । कूटना काँड़ना । निस्तुपीकरण | हे०च० । ( २ ) तुष । भूसी । श्रनाज का उतरा हुआ छिलका । "क्रियां कुर्यात् भिषक् पश्चात् शाली तण्डुल कण्डनैः ।" ( सुश्रुत ) कण्डनी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) प्रोखली । काँड़ी | उलूखल । ( २ ) मूसल । त्रिका० । कण्डरव्रण - संज्ञा पुं० [सं० पुं०] व्रणरोग | वै० निघ० । श्र० शा० । कण्ठ्य - वि० [सं० क्रि० ] ( १ ) गले से उत्पन्न । (२) कंठ वा स्वर के लिये हितकारी । जैसे— कण्ठ्य औषध । (३) कफ निकालनेवाला | श्लेष्म प्रसेकि । स्वरक्षर | Eupectorant. संज्ञा पुं० [सं० पु ं० ] वह वस्तु जिसके खाने से ज्वर अच्छा हो जाता है वा गला खुलता है । कण्ठ, कण्ठरोग वा स्वर के लिये हितकारी पदार्थ या औषध । स्वर्य । स्वर शोधिनी । कण्ठ्य महाकषाय-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] कंठ रोग | कण्डरा कला - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कण्डरा के में प्रयुक्त उक्त नाम का एक कषाय । मध्य स्थित झिल्ली । कण्डरा -संज्ञा स्त्री० [सं० पु० ] ( १ ) बाहु पृष्ठ से अंगुलि पर्यन्त आनेवाली कंडरात्रों के वात से पीड़ित होने पर वाहुद्वय का कार्य बिगड़ जाता है । इस रोग का नाम "विश्वाची" है । ( २ ) अस्थिवत् स्थूलशिरा | महास्नायु । रा० नि० ० १८ | ये शरीर में सोलह हैं । यथा— पैर में चार हाथों में चार, पीठ में चार और गरदन में चार- इस प्रकार कुल सोलह हुई । "करपादस्थ कंडराणां प्ररोहरूपा नखा जायन्ते । पृष्ठ कटि कंडराभ्यो विम्बः, ग्रीवा हृदय कंडराभ्यो मेदञ्च जायते ।। (सु शा ५ अ . ) । महत्य: स्नायवः प्रोक्ताः कंडरास्तास्तु षोडश ॥ प्रसारणाकुञ्चनयोः दृष्टंतासां प्रयोजनम् ॥ भा० | Tendon कण्डरा कल्पा - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री ] पेशी विशेष | (Semiten dinosus musele) प्र० शा० । ह० श० र० । कण्डराधर-वि० [सं० त्रि० ] कण्डरा के अधो भाग में स्थित | (Snbten dinous ) अ० शा० । कण्डरा वितान - संज्ञा पु ं० [सं०] कण्डरा का खिंच जाना | (Sprain of tendon ) कण्डला-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कपिकच्छू । केवाँच | Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कडवल्ली कण्डवल्ली - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० करेला । काण्ड J वल्ली | वैo निघ० । कण्डाग्नि - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] पक्षी । चिड़िया । कण्डीर - संज्ञा पु ं० [सं० पुं० ] (१) छोटा करेला । लघुकारवेल्लक | करेली । च० चि० ३ श्र० श्रगुरुतैल । ( २ ) पोली मूंग । पीत मुग्द | पीलीमोठ । कण्डु, कण्डू - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० (१) एक प्रकार का रोग जिसमें खुजली होती है और जो वायु होता है। सूखी खुजली | खाज़ | से ० ) । ( ३ ) संस्कृत पर्याय – खर्ज, कण्डया ( कण्डूति ( ० टी० ) कण्डू ( रा० ) " खुजली" । ( २ ) कान का एक रोग । केवाँच । शुकशिंबी । रा० नि० व० २० । कण्डुक-संज्ञा पु ं० [सं०] (१) भिलावा । (२) तमाल, ( नाम माला) । ( ३ ) काँटा | कंटक । ( ४ ) कण्डु | खुजली | कण्डुघ्न–संज्ञा पु ं० [ सं० पु० ] ( १ ) सफेद सरसों । श्वेतसर्षप । वै० निघ० । (२) श्रमलतास का पेड़ । श्रारग्वध वृक्ष । रा० । कण्डुर-संज्ञा पु ं० [सं० पु ं० ] (१) करेले की बेल । कारवेल्ल लता । (२) कुन्दर नाम की घास | रा० नि० ० ३ । कुंदरू की बेल । कण्डुरा - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) केवाँच । कपिकच्छु लता । (२) कपूर कचरी । कर्पूरकच्चो - रक कन्द | रा० नि० व० १० । रामचना वा खटुआ नाम की बेल । अमलोलवा । श्रत्यल्मपर्णी । रा० नि० ० ३ | I · १६८७ दे० कण्डुल - संज्ञा पुं० [सं० पु०] सूरन । जमींकंद । रा० नि० । नि० शि० । कण्डुला, करडूला ] - संत्री० [सं० ०] रामचना, कण्डुली, कण्डूली अमलोलवा । श्रत्यम्लपर्णी । रा० नि० व० ३ । कण्डू - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री ] ( १ ) कण्डु । खुजली । कण्डूक- संज्ञा पु ं० [सं० की ० ] कण्डु । खुजली । कण्डूकरी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] केवाँचे । शुकशिंबी यथा - "कड़करी जीवन हस्वसंज्ञे ।" - रा० नि० व० १० । वा० सू० १५ श्र० विदार्य्यादि । कण्डूका -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] काकतुण्डी । वै० निंघ० । घुंघची । रत्ती । चिरभिटी । 1 कड करडून- संज्ञा पुं० [सं० पु० ] ( १ ) अमलतास का पेड़ । श्रारग्वध वृत्त । रा० नि० ० ३ । ( २ ) सफेद सरसों । गौर सर्षप । रा० नि० व० १६ । कराडूघ्न महाकषाय, -संज्ञा पुं० [सं० पु० ] कराड़ रोग में प्रयुक्त उक्त नाम का महा कषाय योग। इसकी औषधियां कण्डू श्रर्थात् खाज़ दूर करने वाली है, श्रौषधियों का समूह ये हैंचन्दन, जटामांसी, अमलतास, करअ, नीम, कुड़ा, सरसों, मुलहटी दारूहल्दी, और मोथा । इन चीजों के योग का नाम " कएडूघ्न महा कषाय है ।" चरक में इसे "कण्डध्न वर्ग" लिखा है । गुण तथा उपयोग विधि -- इन्हें समान भाग में लेकर यथा विधि उचित मात्रा में काथ बना कर पीने से खाज रोग का नाश होता है । च० सू० ४ श्र० । कण्डूति - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] खुजली । खजूं । रा० नि० व० २० । कण्डूयन | खाज़ | कण्डूमका - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक प्रकार का कीड़ा जो आठ प्रकार का होता है, जैसे, कृष्ण, सार, कुहक, हरित, रक्त, यववर्णाभ और भ्रुकुटी । इसके काटने से रोगी का अंग पीला पड़ जाता और वह वमन, अतिसार ज्वर प्रभृति से काल कवलित हो जाता है । सु० । कण्डूयन-संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] ( १ ) खुजली । खाज़ । कण्डु । खर्ज्जु ं । रा० नि० व० २० । (२) खुजलाने का यंत्र | कृष्ण श्रृंग । कण्डूयनी । खुजलाने की कूची । कण्डूयना - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] खुजली । ति । श्र० । कण्डूया -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] खुजली । कण्डू । कढयन | रा० नि० वि० २० । कण्डूयन । कण्डूयित - संज्ञा पुं० [सं० नी०] खुजली । कण्डूयन । कण्डूर-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] मानकन्द | माणक | प० मु० | मानकच्छू । कण्डूरा - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] केबाँच । कौंछ । शूकशिंबी लता । श्र० टी० । कण्डूल-संज्ञा पु ं० [सं० पु ं०] कयडूरकारक प्रोत Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कण्डूला १६८५ प्रभृति | सूरन । ज़मीकन्द । शूरण । रा० नि० व० ७ । वि० [सं० त्रि० ] कण्डू युक्त । रोगविशेष । कण्डूला - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] श्रत्यम्लपर्णी लता । मलोलवता । रामचना | वै० निघ० । कण्डेर - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] चौलाई । तण्डुलीय । 1 A भा० । कण्डोध - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] शूक नाम का कीड़ा | कण्डोल - संज्ञा पु ं० [सं० पुं० ] ( १ ) ऊँट । उष्ट्र उणा० | ( २ बाँस श्रादि का बना धान्य रखने का पात्र । श्रम० । पर्या०-पिट, पिटक, पेटक | भ० । (३) एक प्रकार की गोणी । डोल । वोरा । कण्डोलक - संज्ञा पुं० [सं० पु ं०] कण्डोल । हे०च० । 3 बाँस का बना डोल । कण्डोलवीणा, कण्डोली - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] चण्डालवीणा | कँदड़ा | छोटा बीन । श्रम० । पर्याय- चण्डालिका, चण्डालवल्लकी, कटोलवीणा ( भ० ), कन्डोली, शब्द र० । चण्डालिका | कण्डोष-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] कोषकार | झांझा । बूट का कीड़ा । कण्डवोध - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] शूक कीट । श० चे० । झांझा । कण्व - संज्ञा पुं० [सं० क्ली० ] पाप । वि० [सं० त्रि० ] वधिर । बहरा । कत, कतक-संज्ञा पुं० [सं० पु०, क्री० ] (1) निर्मली वृक्ष | | निर्मली का पेड़ । (strychnos potatorum, Linn.) रा० नि० व० ११ | भा० म० श्राम्रव० । वि० दे० " निर्मली” (२) कसौंजा | कसौंदी । (३) कुचला । कुचेलक । २० मा० । च० सू० ४ श्र० विषघ्नव० । ( ४ ) जंबीरी नीबू । जंबीर वृक्ष । त्रिका० । (५) रीठा । कत - संज्ञा पुं० [देश० ] कत्था । खैर । क़त - [ ० ] इस्पस्त । रतबा । क़त, कृत: - [ ० ] एक प्रकार का लाल रंग का कीड़ा जो लकड़ी में उत्पन्न हो जाता है । कतक-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] निर्मली का पेड़ । संज्ञा पुं० [सं० क्वी० ] निर्मली ( फल ) ! क़तना क़तक़ - [ तु० ] ( १ ) दही । ( २ ) सालन । कतक- कल्ली -[ मल० ]·तिधारा हुँ । कतकफल - संज्ञा पु ं० [सं० पु०, क्री० ] ( 1 ) निर्मली का पेड़ । कतक वृक्ष | रा० नि० व० १.१ (२) तमाल का पेड़ | दमपेल । संज्ञा पुं० [सं० नी० ] निर्मली ( फल वारिप्रसादन फल । यथा— 1 “कट्फलं कतकफलम् । शशकपुरीषप्रतिम फेनमम्बु प्रसादनम् " | ड०। सु०सू० ३८ परूषकादि । वा० सू० १५ श्र० परूषकादि । कतक-फलादि-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( १ ) निर्मली के फलों को कपूर के साथ घिसकर शहद के साथ अंजन करने से नेत्र स्वच्छ होते हैं । ( २ ) निर्मली के फल, शंखनाभि, सेंधा नमक, त्रिकुटा, मिश्री, समुद्रफेन, रसवत्, वायविडंग, मैनशिल और शहद | इन्हें समान भाग लेकर स्त्री के दूध में बारीक पीसकर रक्खें । गुण- इसका श्रंजन करने से तिमिर, पटल, काच, (मोतियाबिन्दु ) धर्म, शुक्र, ( फूली ) खुजली, क्लेद, (रतूत्रत) और अबु दादि नेत्र रोगों का नाश होता है । योग० २० । नेत्र रोग चि० | कतकबीज - संज्ञा पुं० [सं० वी० ] निर्मली बीज । कतक बीज योग-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] निर्मली के बीज १ कर्षं लेकर छाँछ में पीसकर शहद के साथ सेवन करने से समस्त प्रकार के प्रमेह अत्यन्त शीघ्र नष्ट होते हैं । वृ० नि० र० । कतकाद्यञ्जन - संज्ञा पु ं० [सं० की ० ] नेत्र रोगों में प्रयुक्त एक प्रकार का अंजन । विधि-निर्मली के फल का बीज, शङ्खचूर्ण, सेंधा नमक, सोंठ, मिर्च, पीपल, मिश्री, समुद्रफेन, सुर्मा, वा रसवत, शहद, विडंग, मैनसिल, कुक्कुटाण्ड, कपाल, इन्हें समान भाग लेकर कूट कपड़ छानकर स्त्री के दूध से मर्दन कर अंजन तैयार करें। गुण- इसके उपयोग से तिमिर, पटल, काच, नेत्र कण्डू, नेत्र का अर्बुद, धर्म, शुक्र, क्रेद, और नेत्रगत बाहरी मल दूर होता है । बासव रा० १७ प्र० पृ० २६६ | तन - [ ? ] एक प्रकार की मछली । क़तना -[ शामी ] बाँस । क़सुब । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क़तना वेस्मा . १९८६ कताद कतना वेम्मा-[शामी ] चिरायता । ही कीन । ( Sieges beckia orientalकतन्दूस-[यू.] मवेज़ । मुनक्का । .is, Linn ) क़तफ़-दे. “कर फ"। कतरनी-संज्ञा स्त्री० [हिं० कतरना ] एक मछली जो कतफल-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (१) निर्मली । मलाबार देश की नदियों में होती है। वृक्ष । निर्मली का पेड़। (२) निर्मली का कतरली-[ ता० ] दबूर । ढाकुर (बं)। ओडल्लम् (मल०)। होंडे ( कना०)। सुकनु ( मरा०)। कतबत:-१] एक गज़ ऊंचा एक पौधा जिसका तना क़तरा-संज्ञा पुं० [अ पु० कृत रः] बूंद । विंदु । पतला और कठोर होता है । इसके नीचे के पत्ते कतरीक-संज्ञा पु० [सं०] काला नमक । कतरु मुरंग-[सिं० ] अगस्त । अलसी की पत्ती की तरह लंबे और कोमल होते | हैं तथा भूमि पर बिछे हुये होते हैं। इनका रंग क़तल-संज्ञा पु० [अ० क़त्ल ] दे० "कल्ल"। कतल-[फा०] सेब । कालापन लिये हरा होता है । तने के ऊपरी प्राधे | भाग पर पुष्प लगते हैं, जो नील, श्वेत और [बर० ] वरुण । बरना। कोई कोई पीत वर्ण के भी होते हैं ।प्राकृति अतसी कतला-संज्ञा पुं॰ [देश॰] एक प्रकार की मछली जो पुष्पवत् होती है । किंतु उनसे लघुतर होते हैं। ६ फुट तक लंबी होती और बड़ी नदियों में पाई बीज शाहतरे के बीज जैसे होते हैं। इसका स्वाद जाती है। यह छः फुट तक लंबा होता है । यह तिक्र होता है । इसकी एक जाति वह है जो कठोर अधिक बलिष्ट होता है। कभी कभी पकड़ते समय भूमि में उगती है और जिसके तने से महीन कतला मछुओं को झपटकर गिरा देता और काट शाखायें फूटती हैं । ये पत्र शून्य होते हैं और लेता है। इसमें से दूध निकलता है। तस हूमा-[सिरि० ] इन्द्रायन । प्रकृति-प्रथम कक्षा के अंत में ऊष्ण एवं क़ता-[अ०] लवा पक्षी । संग ख़ारः (फा०)। कतात-[अ०] मात्रा-पहली किस्म-७ माशे; दूसरी किस्म= | कतात-[अ० ] लवा। शमाशे। क़ताद-[अ० ] एक कँटीला पेड़ जिसका गोंद कतीरा गुण धर्म तथा प्रयोग-इसके उपयोग से ___ कहलाता है। अपक्व श्लेष्मा निःसृत होती है। इस कार्य के क़ताद-संज्ञा पुं० [अ० ] एक दृढ़ और कंटकाकीर्ण निमित्त इसकी दूसरी किस्म अधिक वीर्यवान् होती वृक्ष जिसको अरबी में "शज्रतुल् क़ुद्स" "मिस्वाहै। कूल्हों एवं संधिगत शीतजन्य वेदना को लाभ कुल अब्बास" और "मिस्वाकुल् मसीह" कहते पहँचता है। इसको पकाकर पीसकर लगाने से हैं । इसके काँटे अत्यन्त तीक्ष्ण और नीचे की ओर दद्र का नाश होता है । दूसरी किस्म को पीसकर झुके हुये होते हैं। कांड कंटक शून्य होता श्रीर योनि में धारण करने से गर्भपात होता है। देखने में बाँस की तरह प्रतीत होता है । ऊंट इसे नहीं खाते । किंतु जब अनावृष्टि के कारण चारे (ख ) श्रादि का प्रभाव होता है, तब वे इसे खाने के कतबत-[?] एक बूटी। लिये बाध्य होते हैं। इसके चरने से पशु मोटे हो कतब बरी-[१०] गाँजा । जाते हैं। इसका फूल पीले रंग का होता है और कतम-[अ०] नील के पत्ते । वस्मः । उसमें लाल टुकड़े होते हैं । फूल में से इसका क़तम-[अ० ] पुराने दुबे का मांस । फल निकलता है जिसका रंग छुहारे की गुठली की कतमाल-संज्ञा पु० [सं० पु. ] अग्नि | भाग । तरह होता है । किताबों में इसके जो चित्र दिये हैं, इसका पाठान्तर कचमाल और खचमाल है। उन्हें देखने से प्रतीत होता है कि इसके काँटे सीधे कत(ट)म्पम् । कत(ट)म्पु-[ ता० ] को-कौ ।।। नुकीले और बहुत लम्बे होते हैं । उक्न काँटों के Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क़ताद १६६० कतीरा कारण वृक्ष अत्यन्त भयावह प्रतीत होता है। इसी परन्तु 8-१० तोले से अधिक न पियें। इसकी हेतु किसो कठिन कार्य करने के समय 'नितुल जड़ में इतना स्नेहांश होता है कि बिना तेल के क़ताद' अर्थात् क़ताद का काँटा कठिन है, ऐसा यह मसाल की तरह जलती है। ख०म०। कहते हैं। क़तान-) [१०] धूलि | गई। __ क़ताद के पेड़ (शजे क़ताद) ईरान और क़ताम-" हेरात में बहुतायत से होते हैं । उक्त स्थान-भेद से क़ताम-[१०] एक श्यामवर्ण का चौड़ा विंदु, जो ही क़ताद के भी दो भेद यूनानी ग्रन्थों में स्वीकृत अांख के काले भाग पर धूएँ के समान पैदा हो किये गये हैं, यथा-हेराती कतीरे का वृक्ष- जाता है । गुब्बार चश्म । Penis दरख्त कतीरा हेराती अर्थात् कोन जिसे लेटिन में क़तामियून-[सिरि०] मिश्केतरामशीथ । ( Agtragalus Heraten sis, Bu- क़तायिफ-[१०] (१) एक प्रकार की रोटी । (२) nge) कहते हैं और (२) कुम, बालिशे- रोगनी रोटी । आशिकाँ (क्रा०), मिस्वाकुल अब्बास (अ.) क़तायस-[ ? ] वनपलाण्डु । काँदा और A stragalus sp of (Astrag- कतारा-संज्ञा पुं॰ [सं. कान्तार, प्रा० कंतार ] [स्त्री० alus Strobiliferus Royle ) अल्पा० कतारी ] एक प्रकार की लाल रंग की ऊख -ले । जो बहुत लम्बी होती है । केतारा। गीलानी के अनुसार उक्र वृक्षों में चीरा देने से संज्ञा पु० [हिं० कटार Jइमली का फल । गुलू-निर्यासवत् एक प्रकार का गोंद निकलता है, कतारी-संज्ञा स्त्री० [हिं० कतारा ] कतारे की जाति जिसे पारस्य देशवासी 'कतीरा' नाम से अभिहित की ईख जो उससे छोटी और पतली होती है। करते हैं । एलोपैथीय चिकित्सा में प्रयुक्त 'टूगा- कतिद-01 [ बहु० अक्ताद] (1) कंधा । कंथा' भी कताद की ही जाति के एक वृक्ष का ___ स्कंध । (२) कंधे से पृष्ठवंश तक का भाग। गोंद है जो Astragalus Gummi (३) दोनों कंधों के मिलने की जगह । fera) नामक वृक्ष से प्राप्त होता है। इसके वृक्ष एशिया-माइनर में होते हैं। वि० दे० कतिफ-[अ०] [ बहु० अक्ताफ़ ] कंधे की हड्डी। स्कंधास्थि । शाना । 'कतीरा'। शिम्बी वर्ग कतिरान-[अ० ] दे॰ “कृत रान"। ( N. O. Leguminosae.) क़तीदाउक़तीरा-[यू. ] अफीम । अहिफेन । गुण-धर्म तथा प्रयोग क़तीदऊस, क़तीदाउस-[यू० ] इलायची । एला । यूनानी मतानुसार क़तीफः-अ] मनमल वा रोएँदार कपड़ा। प्रकृति-द्वितीय कक्षा में उष्ण और रूक्ष है | कतीरा-संज्ञा पुं॰ [फा०] एक प्रकार का खूब सफेद इख्तियारात के लेखक के मत से उष्ण और तर ____ गोंद जो गुलू नामक वृक्ष से निकलता है और . है । शेख द्वारा लिखित कानून के एक प्राचीन गोंदों की भाँति इसमें लसीलापन नहीं होता और योग में यह शीतल और तर उल्लिखित है । किसीर न यह पानी में घुलता है । कुल्ली का लासा । वि. के मत से इसका वृक्ष तो शीतल है, परन्तु जड़ दे. “गुलू"। अत्यन्त उष्ण होती है। कतीरा-संज्ञा पुं॰ [फा०] (1) गुलू नामक वृक्ष गुण, कमें, प्रयोग-इसकी जड़ को घिसकर का गोंद जो खूब सफ़ेद होत है और पानी में सिरके या शहद के साथ व्यङ्गादि पर या अन्य घुलता नहीं । और गोंदों की भांति इसमें लसीदागों पर लगाने से वे दूर हो जाते हैं। इसके लापन नहीं होता | बोतल में बंद करके रखने से पत्तों को कथित कर खाँड़ मिलाकर पीने से पुरा- इसमें सिरके की सी गंध आ जाती है। प्रसवोत्तर तन गरम खाँसी में बहुत उपकार होता है । इससे इसे स्त्रियों को खिलाते हैं। यह बहुत ठंढा समझा कृच्छ श्वास और उरःक्षत को भी लाभ होता है। जाता है और रक्तविकार तथा धातु विकार के Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतीरा १६६१ कतीरा रोगों में दिया जाता है। कहते हैं कि कतीरा | गुण धर्म तथा प्रयोग अधिक सेवन करने से पुरुष नपुंसक बन जाता है, | प्रकृति-शीतल और रूक्ष । मुहम्मद शर्फ़ - पर्याय-कुल्ली का लासा कटीरा, कटीला, | हीन ने मुफरिदात हिंदीमें लिखा है कि यह प्रथम कतीला, कतीरा, रामनामी वृक्ष का गोंद, गुलू का कक्षा में शीतल और रूक्ष है। मतान्तर से यह गोंद, कुलु का गोंद । कूलू गोंद हि । सरदी और गरमी में मातदिल और प्रथम कक्षा में The Gum of Sterculia Ureps, तर है । किसी किसीके मतसे प्रथम कक्षामें शीतल Roxb. और रूक्ष है। किन्तु रूक्षता शैत्य की अपेक्षा वक्तव्य-प्रायः अरबी फारसी के कोषों में कम है। किसी-किसी के मत से प्रथम कक्षा कतोरा को फ़ारसी भाषा का शब्द लिखा है, में उष्ण एवं तर और दूसरों के मत से जिसका 'कसीरा मुर्रिब-अरबीकृत है । परन्तु द्वितीय कक्षा में शीतल है और कोई परस्पर उम्दतुल मुहताज के संकलनकर्ता लिखते हैं कि विरोधी गुणधर्म विशिष्ट ( मुरक्किबुल्कुपा) बतकतिपय तबीब इसे यूनानी तरागाकन्सा(Trag- लाते हैं । परन्तु शेख के मत से रूक्षता लिये acantha) शब्द का प्रारब्य उल्था बतलाते शीतल है हैं । यह विदेशीय टूगाकंथ की प्रतिनिधि स्वरूप ___ हानिकर्ता-गुदा को और सुद्दा पैदा काम में आता है। करता है। फारस तथा ईरान में कतीरा शब्द का प्रयोग ___ दपघ्न-गुदा के लिये अनीसू, और कद्द के कतादके गोंद के लिये(बहुत पहले से)होता पारहा बीजों की गिरी । सुद्दों के लिये करप्स । है और ऐसा ज्ञात होता है कि अति प्राचीन कालसे । प्रतिनिधि-कह के बीजों को गिरी, समभाग ही भारतवर्ष में इसका निर्यात हो रहा है। यह | बबूल का गोंद या बादाम का गोंद और भार का विल्कुल टूगाकंथ-विलायती कतीरा के समान बादाम का तेल । होता है । बंबई में गुलूका गोंद जिसे गुजराती मात्रा-२ माशा से ३॥ माशा वा ७ या व्यापारी 'कड़े गोंद' कहते हैं देशी टैगाकथ के रूप १७|| माशा तक। में व्यवहार में आता है और मुसलमान औषध गुण, कर्म, प्रयोग–यह सुरमों में पड़ता विक्रत्ता इसे कतीरा के नाम से बेचते हैं । है। क्योंकि इसमें पिच्छिलता ( लज़जत ) ओर यह गुलू निर्यास भी उक्त पारस्य कृताद निर्यास शीतलता होती है, जिससे यह नेत्रक्षत, नेत्राभिष्यद के सर्वथा समान होता है । कदाचित् उक्र और तद्गत फुसियों को लाभ पहुंचाता है। यह सादृश्य के कारण ही यह भी कतीरा नाम विरेचन औषधों के दर्प निवारणार्थ उनमें पड़ता से सुविख्यात हो गया। वि० दे० "गुलू"। है, जिसमें यह अपनो पिच्छिलता के कारण उनकी (२) गुलू-निर्यास की तरह का एक प्रकार का तीक्ष्णता को दूर कर देवे और तविश्रत पर उनको गोंद जो फारस आदि में क़ताद नामक वृक्ष से अधिक बोझ डालने से रोके । ( नकी ) प्राप्त होता है। इसके पीताभ श्वेत कड़े, स्वाद ___ यह प्रांतरिक अवयवों के रक्तस्राव का रोधक. एवं गंध रहित विविध आकार प्रकार के खंड होते पिच्छिलताकारक, रुधिर सांद्रकर्ता, कठोरता का हैं जिनका चूर्ण करना सहज नहीं । ये सुरासार उपशमनकर्ता और दोषों की तीक्ष्णता का शामक और ईथर में अविलेय होते हैं और जल में स्वल्प है तथा कास, नेत्ररोग, उरःकंठ की कर्कशता और विलेय होते है। जल में ये फल जाते हैं। वृक्ष के फुफ्फुसगत व्रण का निवारण करता है । (मु० विवरण के लिये "कताद" शब्द के अन्तर्गत देखें। ना०) कतीरा । कसीरा। यह रक्त को सांद्र करता और प्रायः स्रोतों के प्रतिनिधि-देशी कतीरा (गुलू निर्यास), मुख में चिपक कर सुद्दा डालता है; कठोरता को टूगाकंथ ( विलायती कतीरा ) और पीली कपास दूर करता, तीच औषधों को तीक्ष्णता का उपशका गोंद प्रभृति । | . मन करता है । यह आँतों को शक्ति प्रदान करता Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतीरा १६६२ और तरावयव की रक्तस्त्र ति को रोक देता है । कास कंठ और सीने की खुरखुराहट तथा फुफ्फुसजात क्षत को लाभ पहुँचाता है । प्रायः श्रोषधों के विषाक्त प्रभावादिको निवारण करता है । ( म० मु० ) इसे उपयुक्त श्रौषध के साथ पीसकर नेत्र में लगाने से चक्षुगत पूय और विस्फोटादि में उपकार होता है । इसे गदही वा छागी दुग्ध के साथ पीने से अखिल तरावयव से रक्तस्राव होना रुक जाता है । यदि जयपाल सेवनोत्तर विरेचन श्राना बन्द न हो सके, तो कतीरे को पीसकर दधि में मिलाकर सेवन करें । इसे शहद में मिला वटिका वा चक्रिका बना मुख में धारण करें और रस चूसें। यह उरो रोग में लाभकारी है। इसे उपयुक्र श्रौषधियों के साथ पीने से वृक्कशूल, वस्तिशूल. मूत्रमार्गस्थ व्रण और दाहमूत्रता श्रादि रोग शांति होते हैं । यह प्रायः श्रौषधियोंके विषप्रभाव एवं तीच्णता दूर कर उन्हें दर्पशून्य करता है। इसे वात, पित्त और पिच्छिल श्लेष्मा का उत्सर्ग कर्त्ता बतलाते हैं । कतीरा, बादाम को गिरी, निशास्ता और शर्करा - इन सबको बराबर बराबर लेकर हरीरा तैयार करके सदैव इसी तरह सेवन करने से शरीर स्थूल एवं परिवृंहित होता है । } इसके प्रलेप से झाँई तथा व्यंग भेद (नमश ) का नाश होता है । इससे शरीरगत त्वचा कोमल हो जाती है। होंठ फटने पर इसके लगाने से उपकार होता है । सिरके के साथ झींपादि व्यंग रोगों (बहक़ ) एवं श्वित्र के लिये और लबाबों के साथ केशों के लिए इसका प्रलेप उपकारी होता है । गंधक के साथ प्रलेप करने से खुजली और ( श्राकिलः ) धाराम होते हैं । प्रायः श्रौषधियों के अनुपान स्वरूप कतीरा व्यवहार में श्राता है । उदाहरणतः मिक्सचर निर्माण में जो वस्तुएँ जल विलेय नहीं होतीं, कतीरा शामी उन्हें इसके लबाब में मिलाकर देते हैं । ( ख़० श्र० ) गला बैठना तथा श्रत्रव्रणजन्य शोथ एवं शूल में इसके पीने से उपकार होता है । दो दिरम कतीरा मैफ़ख़्तज में तर करके थोड़ा सा बारहसिंगा और चार रत्ती फिटकरी मिलाकर पिलाने से वृक्कशूल और वस्तिस्थसूजन और दाह तत्काल प्रशामित होती है । ( बु० मु० ) ( ३ ) एक प्रकार का गोंद जो पीली- कपास के वृक्ष से प्राप्त होता है । उत्तर भारत में इस गोंद का उपयोग गाथ की प्रतिनिधि स्वरूप होता है। अरबी और फ़ारसी निघंटु-लेखकों का कतीरा या कसीरा - ताद निर्यास वस्तुतः टूगाकंथ या उसका एक भेद मात्र है । श्रतः भारतोपनिविष्ट मुसलमान उक्त शब्द का प्रयोग इस वृक्ष के गोंद के लिये करने लगे । वि० दे० "पीली कपास" । वक्तव्य - यद्यपि भारतीय बाजारों में उपर्युक निर्यास साधारणतः उन्हीं संज्ञाओं से सुपरिचित है, जिनसे वास्तविक ट्राकंथ, तथापि इस विचार से कि उन संज्ञाओं द्वारा उक्त पदार्थों का निश्चित ज्ञान प्राप्त करनेमें भ्रम न हो, प्रथमोन द्रव्य श्रर्थात् पीली - कपास के गोंद की संज्ञानों के पूर्व भारतीय या देशी उपसर्ग जोड़ देना उचित जान पड़ता है । यथा हिंदी कतीरा गोंद - हिं०, द० । तीराये हिंदी हिंदी - फ्रा० । कसोराये हिंदी, समुगुल क़तादे हिंदी - अ० | Cochlospermum Gos sy pium D. C. ( Gum of Indian Tragacanth ) ( ४ ) एक प्रकार का गोंद जो क्रताद की जाति के एक पौधे से जिसे लेटिन भाषा में Astra galus Gummifer कहते हैं । प्राप्त होता है । वि० दे० "टू गाथा" । नोट- यह गोंद इस जाति के कतिपय अन्य पौधों से भी प्राप्त होता है, जिसका यथा स्थान उल्लेख होगा । [पं०] बाडवीस ( पं० ) । गिउर ( काश ० ) कतीरा शामी - [ फ्रा० ] कतीरा । (Syrian Tragacanth) Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतीरएहिंदी १६६३ कत रान कतीरए हिंदी-[फा०] पोली कपास का गोंद। कत्तावा-रज्ञा पु० दे० "कत्तारी"। कतीला-[?] दरदार। | कत्तृण-संज्ञा पुं॰ [सं० क्ली०] (१) रूसा नाम क़तीलुरंद-[अ० ] वटेर सुमानी को एक सुगंधित घास । रोहिष तृण । सोंधिया कत ना कतूबरी-[१०] इसबगोल का पौधा। घास । गन्धतृण । प० मु रा०नि० | भा० । कत रियून-[यू० ] जंगली खीरा । खयार सहराई । पृश्निपर्णी । पिठवन। यथा-"कत्तृणं तृणमित् फत र-[१०] [बहु० क़त रात ] वह तरल औषध प्रश्न्योः ।"-मे० णत्रिक । जो शरीर के किसी छिद्र, जैसे, कान आदि में कत्तोय-संज्ञा पु० [सं० की० (स्त्री०)] मद्य । बँद २ टपकाई जाय अथवा उसमें तूल वर्ति तर मदिरा । (२) मैरेय नामक मदिरा । त्रिका० । करके रक्खी जाय । बूंद बूंद डाली जानेवाली | कत्तहालु-[ कना०] गदही का दूध । दवा। कत्थ-सज्ञा पु० [हिं० कत्था ] दे० "कत्था" । कतूल-[?] केवाँच । कत्था-संज्ञा पु० [सं० क्वाथ ] (१) खैर । खदिरकत शा हूत-[ ? ] इंद्रायन का फल । (२) खैर का पेड़ । कथ-कीकर । दे० 'खैर" कतूस-[ नैपा०] हलोसरी (लेप०)। कत्थाचिनाई-संज्ञा पु. [ देश०] एक प्रकार का क़त स-[सिरि• ] सरख्स। कत्था जो अकोरिया गेम्बियर ( Uncaria कत्तइ तुल्लुवा-[ मल० ] जंगली तुलसी। gambier ) नामक एक प्रकार की नाजुक कत्तट्टी- मल० ] कचनार । लता से प्राप्त होता है। वि० दे० "खैर"। कत्तम- ता०] पटचउली (बं०)। कत्थील-संज्ञा पुं० दे० "कथील"। कत्तमणक-[ ता. ] जंगली रेंड़ । काननैरण्ड। . कत्थु ओलुपी-[ ते. ] बहेड़ा । विभीतक । कत्तर-[ आसाम ] अमलोसा । अम्ली। कत्थो-[द.] कत्था । खैर। कत्तरा असी-बर०] कीर । कील । अलकतरा । कफ-[अ.] बथुआ । वास्तुक । (Pix Liquida ) Tar करफ बहरी-[१०] (१)देशी बथुश्रा । बथुश्रा हिंदी । कत्तराम-तुलसी- मल० ] रामतुलसी। (२) सन । कत्तरोदु-[ सिंगा० ] अपराजिता । करफ रूमी-[अ० ] जीवंती। .] अपराजिता के बीज । करः , कर फा-अ.] बथुश्रा । कत्तवला-[ ] गुम्मडु । क़त्वत: दे. “कतन्तः"। कत्तान-[अ०, फ्रा० ] तीसी । अलसी । अतसो । कबूस-[सिरि० ] सरख्स । कत्तान मुसहिल-[अ.] रेचनातसी। क़त्म-[अ.] पुराने दुबे का गोश्त । (Linum Catharticum) Purgi- | कर मीर-[अ० ] जंगली भाँग । ngflax क़तरा:-[ ? ] कौश्रा। कत्तानुल माऽ-[अ० ] काई। कत्र बंग-[ ? ] कीड़ा मार । कत्तालि-[कना• ] छोटा ग्वार । कत्र मक्का-संज्ञा पुं० [अ० इल क्रातिरुल मक्की ] कत्तारो-संज्ञा पुं॰ [ देश० ] एक प्रकार का मझोले । हीरा दोखी । दम्मुल अखवैन । श्राकार का सदाबहार वृक्ष जिसकी टहनियाँ बहुत | कतरस-[?] अच्छा ताँबा । लम्बी और कोमल होती है और इसके पत्ते प्रायः क़त्रहे ऐ निय्य:-[१०] अाँख में टपकाने की दवा । एक बालिश्त लंबे होते हैं। इसमें जाड़े में फूल | आँख धोने की दवा । गुसूलुल् ऐन । Collyrलगते हैं । हिमालय में हज़ारा से कुमायूँ तक, ium, Eyedrop. ५००० फुट की ऊंचाई तक, और कहीं कहीं छोटा क़त् रान-संज्ञा पु. [१०] एक प्रकार का कालापन नागपुर और आसाम में भी इसके पेड़ पाये जाते लिये भूरे रंग का सांद्र वा अर्द्ध तरल अलकतरे हैं। कत्तावा। की तरह का पदार्थ जो विशिष्ट गंधि एवं सुगंधि ३. फा. Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रतू रान १६६४ क़त रान युक्त होता है। यह एक प्रकार के चीढ़ अर्थात् . पाइनस सिलवेष्ट्रिस (Pinus Sylvestris) वा शर्बीन या सनोबर बरी तथा अन्य प्रकार के सरल जातीय वृक्ष ( Pinaceae) की लकड़ी से विनाशक तिर्यक् परिश्रावण (Destructive Distilla tion) की विधि से परित्रावित किया जाता है। इसका श्रापेक्षिक गुरुत्व १.०२ से १.१५ है । जल में डालकर हिलाने से इसकी रंगत हलकी भूरी और प्रतिक्रिया अम्लता युक्त हो जाती है। पर्याय-कांतरान,कील-हिं०।चुडैल का तेल, कतरान ष्टॉकहाल्म-उ० । कील, क़त रान चोबीफ्रा०। जिफ़्त रतब, क़त रान, कित रान, क़त् रान शजरी,कतरानचौबी,क़त् रान सनोबर-अ० पिक्स लिक्विडा Pix Liquida-ले० । टार Tar, वुड-टार Wood Tar | ष्टॉकहाल्म टार Stockholm Tar. पाइनटार Pine Tar. पिक्स पाइनाइ Pix Pine-अं० । कील,तारता० । कीलु, तारु-ते। कोलू-कना । कीलसिं० । तिन्युसी, कत्ता-असी-बर० । संज्ञा-निर्णायिनी टिप्पणी-(१) पिक्स लिक्विडा का समीचीन प्रारब्य पर्याय अजिज़फ़्तुस्साइल या जिफ़्त रतब और टार का क़त रान प्रतीत होता है । जिफ़्त और क़त रान के अर्थों में यह भिन्नता है-'ज़िफ़्त' ऐसी रतूबत द्रव को कहते हैं जो वृक्ष के तने में से स्वयं या चीरा देने से निकले । परन्तु जब उसे किसी विशेष उपाय द्वारा प्राप्त करते हैं, तब उसे 'कत् - रान' कहते हैं । चूँ कि पिक्स लिक्विडा अर्थात् टार को भी ख़ास तरकीबसे निकालते हैं, अस्तु, इसका ठीक पर्याय 'क्रत रान' ही हो सकता है। (२) यूनानी चिकित्सा-शास्त्र में ज़िफ़्ते रतब को क़त्रान भी कहते हैं । मुहीत श्राज़म में ज़िफ़्त छनोटची ज़मीन या टीले पर गढ़ा खोदकर उसके भीतर चतुर्दिक पकी ईंट और चूने की दीवाल खड़ी कर देते हैं। पुनः गढ़े के भीतर ऐसे काष्ठ वा जड़ों को बंद आँच देने से टार वा क़त्रान प्राप्त होता है। इस विध को ही 'विनाशक तिर्यक परिश्रावण विधि' के नाम से अभिहित करते हैं। का वर्णन देखें । क़त् रान मकद (सांद्रीभूत क़तरान) को श्याम, स्पेन और बाबुल देशवासी ज़िफ़्त (ज़िफ्तेस्याह) कहते हैं। (३) बहरुल जवाहर में क़त्रान का हिंदी नाम चुडैल का तेल और मुहीत श्राज़म में कांतरान लिखा है, जो क़तरान का अपभ्रंश है। तिब्बी ग्रंथों में क़तान के विषय में कतिपय प्राचीन तत्वान्वेषक हकीमों का केवल शाब्दिक मतभेद है, तात्विक वा वास्तविक नहीं। क्योंकि अरअर और तनूब, जिसको मुहीत श्राजम प्रभृति में तंबूब ( त ) लिखा है, वे सब सनोबर अर्थात् देवदारु के ही भेद हैं । जैसे (१) हकीम बोलस अरअर( सरोकोही) को शज्र क़तरान कहते हैं । (२) हकीम मुहम्मद बिन अहमद भी अरअर को शर्बीन या दरख़्त क़तरान बतलाते हैं । (३) इब्न मासूयः शर्बीन को सनोबर का एक भेद लिखते हैं। (४) साहब मिन्हाजुल बयान लिखते हैं कि क़तरान शज्रतुल क़तरान का रोग़न है और इसे अरश्रर, अनम तथा तनूब इत्यादि से भी प्राप्त करते हैं किन्तु जो परअर से प्राप्त होती है.वह अति उत्तम होती है और तालिबसे प्राप्त निकृष्ट । साहब किताब मालायसश्र लिखते हैं, कि शर्बीन क़तान का वृक्ष है, जो सनोवर का ही एक भेद है इत्यादि । अतः उपयुक्त शाब्दिक भिन्नतासे इसके लक्षणमें कोई अंतर नहीं श्राता। इनमें प्रत्येक योग्य हकीम का कथन स्वयं सत्य है। नोट-श्रायुर्वेदीय ग्रंथों में जिन सरल तथा देवदारु श्रादि वृक्षों का उल्लेख हुआ है, वे भी उसी जाति के एक प्रकार के वृक्ष हैं, जिससे क़त्रान उपलब्ध होता है । हकीम दीसकरीदूस ने दो प्रकार के कतरान अर्थात् (१) कतरान सनोबर और ( २ ) कत्रान फ़ार का उल्लेख किया है प्रागुक्र कथनानुसार कतरान को 'ज़िफ्त रतव' भी कहते हैं। तिब के ग्रंथों में चतुर्षिधि जिफ़्त का उल्लेख पाया जाता है। जैसे—(१) ज़िफ्त रतब, (२) ज़िफ़्त याबिस, (३) ज़िक्त जबली और (४) ज़िफ़्त बहरी। इनमें से ज़िस्त रतब या कतरान तो वही है जिसका वर्णन हो रहा है और जब उसे धूप या आगपर उड़ाकर शुष्क कर Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क़तरान १६६५ कत रान लिया जाता है । तब उसे ज़िफ्त याबिस कहते हैं असम्मत योग ज़िक्त जबली से कतरान मश्र दनी (खालिज) . (Non-official Preparations) अर्थात् अलकतरा अभीष्ट है, जिसका वर्णन अलक (१) सिरुपस पाइसिस लिकिडी (Syrतरे में होगा। ज़िफ़्त बहरी भी वस्तुतः ज़िफ्त upus Picis Liquide )शर्बत कतूरान । जबली या कीर ही है या संभवतः कतरान सनो- योग-टार ५.. ग्राम, शर्करा ८५० ग्राम, बर बहरी हो। सुरासार (६०%) १२.५ मिलिग्राम, (Mil.) देवदादि वर्ग जल १००० मिलिग्राम ( Mils.) पर्यन्त । ( N. O. Conifere) गुण प्रयोगादि-यह शारदीय कास उत्पत्ति स्थान-फ्रांस, पुर्तगाल, यूनान (Winter Cough) राजयच्मा और जीर्ण कास में सेब्य है । कभी २ इसे वाइल्ड चेरी के इत्यादि । शर्बत के साथ मिलाकर वा उसमें कोडील मिलाविलेयता-एक भाग कतरान १० भाग सुरासार १०% में और किसी प्रकार रोशन कर देते हैं। मात्रा-२॥ डाम या १० घन शतांशमीटर। जैतून तथा रोशन तारपीन में विलीन हो जाता है। (२ ) अंग्वेण्टम् पाइसिस पाइनाईरासायनिक संघटन-इसकी रासायनिक (Unguentum Picis Pini, U.S. P.)-ले० । टार प्राइण्टमेंट ( Tar Ointवनाबट बहुत पेचीदा है । इसमें (१) क्रियोजूट वा क्रेसोल, (२) फेनोल, (३) ऑइल ऑफ ment)-अं०। कुत्रानानुलेपन । मरहम टर्पेनटाइन, (४) एसीटिक एसिड, (५) पाइरो कुत्रान। निर्माण-विधि-टार ५०, पीत मधूच्छिष्ट १५, कैटेकोल, (६) टोलुएम, (७) जाइलोल, () पेट्रोलेटम् ३५ भाग । मोम को पिघलाकर उसमें एसीटोन, () मीथिलिक एसिड (१०) टार को मिश्रीभूत करें। खायकोल और (११) रेज़िन अर्थात् राल ये नोट-यह कृष्णवर्ण की अधिक ठोस मरहम घटक होते हैं। प्रस्तुत होती है। परन्तु तदपेक्षा अंग्वेण्टम् पाइमात्रा-२ से १० ग्रेन वा ०.१२ से ०.६ सिस मॉली (बी० पी० सी०) अधिक मृदु ग्राम । अथवा ५ से १० मिनिम (=.३ से .६ होती है। घन शतांशमीटर में डालकर प्रयोग (३) एका पाइसिस-(Aqua Picis) करें। . -ले० । टार वॉटर (Tar water) भोंडी नोट-इसकी मात्रा क्रमशः उत्तरोत्तर बढ़ाकर | गोंडरून ( Eau de Gondron )-अं. २० से ६० मिनिम तक दे सकते हैं। अर्क कतरान। टार की चाशनी किंचित् भिन्न होती है। अत- ___ योग निर्माण विधि-टार १० भाग, परिएव इसकी वटी निर्माण करने में बड़ी दिक्कत होती श्रुत वारि १०० भाग, दोनों को मिलाकर फिल्टर है। इसमें इतना अनुपान द्रव्ययोजित करना कर लेवें। पड़ता है कि ५ ग्रेन की वटी में अत्यल्प टार रह . मात्रा-८ बाउंस प्रतिदिन । अल्सरी और जाती है । चूर्णाकृत मधुयष्टिका मूल वा अंडज (क्षत व्रणादि) प्रक्षालनार्थ भी इसका लाइकोपोडियम् से एतद्वटी निर्माण की प्राज्ञा उपयोग करते हैं। पाई जाती है, किंतु उनसे उत्तम वटिकायें प्रस्तुत (४) कैप्शूल्ज़ ऑफ टार-(Capsu. नहीं होती हैं। टार, कर्डसोप, लिक्रिस रूट les of Tar) प्रत्येक कैप्शूल में ५ बूंद (मुलेठी) चूर्ण और गम अकेशिया (बबूल का टार पड़ती है। गोंद) चूर्ण इन चारों को बराबर-बराबर मिलाने (५) ऑइल ऑफ टार-( Oil of से इसकी उत्तम वटिकायें प्रस्तुस्त होती हैं। | Tar ) रोगन कत्रान एक प्रकार का सूक्ष्म तेल Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । कतरान कत गान १६६६ जो टार से परिस्रावित किया जाता है । यह ताजा | बेरंग, पर पड़ा रहने से ललाई लिये गहरा भूरा होजाता है। (६) पिगमेंटम् पाइसिस लिक्विडी(Pigmentum Picis Liquidæ ) -ले। कत्रान प्रलेप । तिलाए कत्र रान । । योग–टार १ भाग, सुरासार (१० प्रति०) १ भाग दोनों को मिश्रीभूत कर लेवें। प्रयोगविचर्चिका ( Psoriasiz) और चिरकारी शुष्क पामा ( Ecsema) में इसका उत्तेजक रूप से व्यवहार करते हैं। पर चिरकालानुबन्धी शुष्क पामा में इसका सावधानी पूर्वक उपयोग करना चाहिये। (७) पिल्युला पाइसिस लिकिडी(Pilula Picis Liquilde) कतरान बटी, हब्ब कतरान । - योगटार १ भाग, मधुष्टी चूर्ण २ भाग, साबुन १ भाग, पल्विस टूगाकंथ कंपाउंड ! भाग। मात्रा-३ से ६ ग्रेन । (८) अंग्वेण्टम् पाइसिस मॉली- ( Unguentum Picis Molle ) मृदु कत्रानुलेपन, मरहम कुत्रान मुलायम । - योग-७१ भाग, बीज बैक्स १४.५० भाग, बादाम का तेल (श्रामण्ड ऑइल) वज़न से .. १४.५० भाग पिघलाकर मिटित कर लेवें। गुण धर्म तथा प्रयोग यूननानी मतानुसारप्रकृति-शेख ने चौथी कक्षा में उष्ण और रूक्ष और साहब मिन्हाज ने तृतीय कक्षा में उष्ण एवं रूक्ष लिखा है और यह सत्य प्रतीत होता है। प्रतिनिधि-सम भाग मिट्टी का तेल, जावशी और अर्द्ध भाग (बजन में) बेद सादा का तेल । गुण, कर्म, प्रयोग-यह प्रवल अवसन्नता जनक है और शीत जन्य वेदना को शमन करता है । शीतजन्य शिरःशूल में इसे ललाट पर लगाने से बड़ा उपकार होता है । इसे चतु के आस-पास लेप करने से ज्योति बढ़ती है, इसे शरीर पर लगाने से शरीरगत दाग़ और धब्बे मिटते हैं। इसे अकेला कान में टपकाने से कर्ण कृमि नष्ट होते हैं । इन्न जुहर ने इस हेतु इसे सिरके में - मिलाकर उपयोग करने का विधान किया है। इसे जिफ्त के साथ पानी में घोलकर कान में डालने से कर्णनाद रोग शमन होता है ।। इसके । दाँतों पर मलने से वायु एवं शीत जन्य दंत शूल मिटता है। यदि दांतों में कीड़े लग जायें तो उक्त अवस्था में भी इसे लगाना चाहिये । जैतून के तेल और जौ के आटे तथा पानी में मिलाकर उर और कंठ पर प्रलेप करने से भीतर जो द्रव संचित होता है, वह द्रवीभूत हो जाता है और वह फेफड़े से निःसृत होकर फेफड़ा शुद्ध हो जाता है। इसको मधु में मिलाकर चाटने से पुरानी खाँसी मिटती है। शेख़ के लेखानुसार इसे १॥ ौकिया (३ तो० ५ मा० ५ रत्ती ) की मात्रा में चाटने से फुफ्फुसीय व्रण और क्षतादि श्राराम होते हैं। सदीद गाज़रुनी ने कानून की टीका में उक्त कथन पर अत्यंत आश्चर्य प्रकट किया है। इनके कथनानुसार यदि १॥ ौकिया के स्थान में शेख १॥ दाँग अर्थात् ह रत्ती भी लिखते, तो भी अनुपयुक्त ही होता । क्योंकि फुफ्फुसगत विस्फोट रोग में ज्वर साथ होता है और शेख के मत से कतगन चतुर्थ कक्षा में उष्ण एवं रूक्ष है । कारण यह जान पड़ता है कि शेख ने बिना समयानुकूल मात्रा को कम किये । दीसकरीदसोक्त कथन की अक्षरशः नक़ल करदी है, जो उचित नहीं है । साहब मिन्हाज तो यहां तक कहते हैं कि क़तूरान को केवल वाह्य उपयोग में लाने के सिवाय इसका आभ्यंतर उपयोग ही न करें। इसमें संदेह नहीं कि वास्तव में यथा संभव अकेले वा बिना दपध्न द्रव्य के इसका भक्ष्य-औषध में व्यवहार न करें। इसे शिश्न पर लगाकर स्त्री-संग करने से गर्भधारण नहीं होता । इसे गर्भाशय के भीतर स्थापन करने से गर्भपात हो जाता है और खून जारी हो जाता है । इसे अल्प मात्रा में गुदा के भीतर रखने से प्रांत्रकृमि नष्ट होते हैं। इसकी वस्ति निरापद नहीं है। यदि विना इसके काम न चले, तो अत्यल्प मात्रा में वस्ति में प्रयोगित करें। इससे वीर्य विकृत हो जाता है। इसके खाने से श्लोपद और पिंडली की रग फूल जाने Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क़त रान १६४७ क़त रान (दवाली) में उपकार होता है। परन्तु उक्त लाभार्थ इसका प्रलेप श्रेयस्कर होता है । क्योंकि इसका भक्षण निरापद नहीं है । थोड़ी मात्रा में इसके सेवन से जलोदर नष्ट होता है । इसके मर्दन से जूएँ ओर जमजूएँ मर जाती हैं। इसके लगाने से वृश्चिक विष और शृंगयुक्त साँप का विष उतर जाता है । इसे मृत शरीर या शव पर लगाने से न मांस विकृत होता है, न उसके अंगो पांग ही अलग अलग होते हैं। कंड खाज आदि पर इसका लेप गुणकारी होता है। इससे कुत्ते श्रादि चतुष्पद जीवों की खुजली भी जाती रहती है। इसकी गंध से कीटादि पलायन हो जाते हैं । बारहसिंगे की चर्बी पिघला कर उसमें इसे मिला कर शरीर पर मलने से कीट पतंगादि पास नहीं आते । इन्न ज़हर के कथनानुसार यदि कुष्ठी इसे सदैव चाटा करे, तो वह रोग मुक्त हो जाय । इसे पशमीने के भीतर रखकर यदि स्त्री अपने हाथ में ले लेवे, तो भ्रण अविलंव पतित हो जाय । यदि थोड़ा सा क़तरान च्यूटियों के बिल में डाल दिया जाय, तो वे मर जायें । (ख. अ.) . टार की फार्माकालानी क़तान के गुणधर्म तथा प्रभाव . वाह्य प्रभाव उड टार ( Wood tar) गुणधर्म में तारपीन तैलवत्, किंतु तदपेक्षा निर्बलतर होता है। इसमें क्रियोजूट, फेनोल, तारपीन तैल प्रभृति उपादान की विद्यमानता के कारण यह पचन निवारक एवं ( Vascular stimulant) प्रभाव करता है । यद्यपि यह इतना उग्र नहीं है कि इससे त्वचा पर छाले पड़ जॉय । तथापि इसके अभ्यंग से कभी-कभी उग्र प्रदाह उत्पन्न होकर, स्वचा पर फुन्सियाँ निकल आती हैं, विशेषतः घन रोमावृत्त स्थलों पर । वातनाड़ियों पर इसका अवसादक प्रभाव होता है । इसके चिरकालीन प्रयोग से मुंह पर प्रायः अतीव कष्टप्रद युवानपिडिकाओं के निकलने की बहुत सम्भावना रहती है, जिन्हें डाक्टर हेब्रा (Hebra) के शब्दों में टार एक्नी (कत्रान जनित मुखदूषिका ) कहते हैं। आभ्यंतर प्रभाव इससे अपाचन विकार हो जाता है। इसके अधिक मात्रा में सेवन करने से कारबोलिकाम्ल जनित विषाक्ता के लक्षण उपस्थित हो जाते हैं अर्थात् इससे उदर और सिर में कठिन वेदना होती है, वमन होता है और मूत्र का रंग काल हो जाता है । यह अभिशोषित होकर रक्राभिसरण में मिल जाता है और उत्सर्ग काल में वायुप्रणालीस्थ श्लैष्मिक-कलागत चिरकालानुबन्धी शोथ पर संक्रमण विरोधी ( Disinfectant) और जीवाणुहर ( Deodorising) प्रभाव करता है और स्वेद स्रावाधिक्य को रोकता है तथा श्लेष्म स्राव को सुगम बनाता है। डॉक्टर येत्रो (Yeo) के अनुसार इसे सू घने ( Inhalation ) वा छिड़कने ( Spray ) और आंतरिक उभय विध प्रयोग करने से उक्त प्रभाव होते हैं । श्रामयिक प्रयोग वाह्य-टार वाटर क्षत और शिथिल व्रणों के लिये उत्तेजक द्रव है। विचर्चिका जैसे चिरकारी चर्म रोगोंके लिये इसका मरहम उत्कृष्ट अनुलेपनौषध है । चिरकारी पामा ( Eczema) में भी इससे उपकार होता है। स्वचा के रोगों में टार सोप (साबुन क़त्रान) का उपयोग भी लाभकारी होता है। यह कई प्रकार का होता है। इनमें से विर्च टार एण्ड सल्फर सोप (Birch Tar and|Sulphur soap) या इथियोल एण्ड टारसोप अधिक उत्तम होता है। आभ्यंतर श्लेष्मानिःसारक रूप से ऊड टार (Wood Tar ) को केवल जीर्ण कास, वायु प्रणालो विस्तार और शारदीय कास में प्रयोगित करते हैं । यह शर्बत, कैपशूल्ज और वटिकारूप में सेव्य है । परन्तु इसे कैप्शूल्ज में देना श्रेयस्कर होता है। सिरप ऑफ टार और सिरप श्राफ वर्जिनियन् प्रन के योग से निर्मित एपोमॉर्फीन का अवलेह चमत्कारी कासन है। टार वाटर ( अर्क क़त्रान ) और लाइकर पाइसिस एरोमेटिकस, (सुगंधित क़तानार्क) भी उपयुक्त लाभ के लिये व्यवहृत होते हैं। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क़त रान चोबी १६४८ कद __ परीक्षित योग | क़त्लुन्नास-[अ० ] आत्म हत्या । खुदकुशी । (१) अंग्वेण्टम् पाइसिस लिक्विडी, Suicide. अंग्वेण्टम् हाइड्रार्जिराई एमोनिएटी पैराफीनम्मॉली | क़त्लुल जनीन-[अ०] भ्रूणहत्या । Feticide सबको समांश में लेकर मरहम बनायें। यह | क़त्लुल तिफ़्ल-[अ० ] बाल हत्या । शिशु वध । विचचिका में लाभकारी है। Infanticide (२) नैफ्थेलीन १ ड्राम, | कल्सवर-संज्ञा पुं० [सं० की.] स्कन्ध । कन्धा । अंग्वेण्टम् पाइसिस लिक्विडो १ पाउंस, | कथ-संज्ञा पु० [हिं० कत्था ] खैर । कत्था । अंग्वेण्टम् सल्फ्युरस ७ अाउंस, | कथई-संज्ञा स्त्री॰ [देश॰] लोखंडी | Sainadera' सबको मिलाकर मरहम प्रस्तुत करें। यह Indica कण्डू में उपकारी है। कथ-कीकर-संज्ञा पु० [हिं० कत्था+कीकर ] खैर का (३) लाइकर पाइसिस एरोमेटिकस २० मि० पेड़। . सिरुपस प्रूनी वर्जियानो ३० मि० कथबोल-संज्ञा पुं० [हिं० कत्था+बोल ] कत्था और सिरुपस कोडीनी ३० मि० __बोल का एक यौगिक जो प्रसूता स्त्रियों को प्रसव इन्फ्युजम् कस्करेली आउंस पर्यन्त के बाद ताकत और दूध बढ़ाने के लिये प्रायः ऐसी एक-एक मात्रा औषध दिन में तीन बार दिया जाता है । देवें । यह शारदीय कास ( Winter | कथरी-मंज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कंथारी । रा०नि० Cough ) और जीर्ण कास में लाभकारी है। व०८ । क़त रान चोबी-[फा० ] कांतरान । चुडैल का तेल । कथाप्रसङ्ग-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] विष वैद्य । सँपेरा । दे० "क़त रान'। मदारी। क़त रान जगाल संग-[फा०] अलकतरा । कोलटार । | वि० [सं०नि०] वातुल । बहुत बोलनेवाला । कीर। पागल | त्रिका० । क़त रान फरआन्-[१०] एक प्रकार का क़त रान । | कथिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] तक्रादि साधित क़त रान म कूद-[अ०] जिफ़्त । खाद्य-द्रव्य विशेष, एक प्रकार का सालन । कढ़ी। क़त रान मदनी-[अ०] अलकतरा । कोलटार ।। महेरी । दे. "कढ़ी" यह पाचन, रुचिकारी, लघु, क़ीर । वह्निदीपक, कफ-वात तथा विबन्धन और किंचित पित्त प्रकोपक है । वै० निघ० । वि० दे० कढ़ी" । क़त रान मदनी मुसफ्का-अ.] साफ़ किया कथीर-संज्ञा पुं० [सं० कस्तीर, पा०कत्थोर ] राँगा । हुअा अलकतरा । साफ को हुई कोलटार । कार मुसका। हिरनखुरी राँगा । वंग । कस्तीर । कथीरा-[?] कतीरा । कसोरा (अ)। क़त रान सनोबर-[अ० ] एक प्रकार का क़त्रान । कथी (.सी) रुल रकब-[अ०] शुकाई । कंगरक़त रान स्टाकहाल्म-[अं०] क़त रान । कांतरान । खार । चुड़ल का तेल । कथील, कथीला-संज्ञा पु० दे० "कथीर"। क़त राय-[?] करील । कबर । कथु-[ को] खैर । कत्था। कत्सवर-संज्ञा पुं० [सं० को०] कंधा । स्कंध । | कथुइम शिकुआ-[ मल0 ] महावरी वच । श० च०। कथो-[ गु० ] खैर । कत्था। क़ल-[१०] (१)वध । हत्या । मारना । (२) | कथोरी-[ सिं०] जंगली हुरहुर । वह स्थान जहां पर आघात पहुंचने पर मनुष्य कद-संज्ञा पु. [ सं कम्=जल+द, ददाति ] बादल । की मृत्यु हो जाय । मर्म स्थान । कित्ल । मेघ । कल्लुल् इंसान-[१०] मनुष्य वध । Homicide वि० [सं० वि० ] पानी देनेवाला । जलदाता । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ कदम क़द-संज्ञा पुं० [अ० कह ] डील । ऊँचाई । कामत । | कदबा-[ कना० ] बारहसिंगा । Statuie कदम-संज्ञा पुं॰ [सं० कदम्बः ] (१) एक घास कद अर्सिना-[ कना०] अाँवा हल्दी । जंगली का नाम । (२) एक सुपरिचित सदाबहार बड़ा 'हल्दी। पेड़ जिसके पत्ते महुए के से पर उससे छोटे और कद एरडि-[को०] जंगली रेंड । चमकीले होते हैं। इसमें बरसात में गोल गोल कदक-संज्ञा पुं० [सं० पु. चंद्रातप । चाँदनी। । लड्डू के से पीले फूल लगते हैं। अतएव संस्कृत कदग्नि-संज्ञा पुं० [सं० पु.] मंदाग्नि। थोड़ी में इसे 'प्रावृषेण्य' कहते हैं । पीले पीले किरनों के प्राग। झड़ जाने पर गोल गोल हरे फल रह जाते हैं। वि० [सं० त्रि०] मन्दाग्नियुक्त ! थोड़ी भाग | जो पकने पर कुछ कुछ लाल हो जाते हैं । ये फल रखनेवाला। स्वाद में खटमीठे होते हैं और चटनी अचार कद जेमुडी, कदजेमुड़-ते. 1 सेहुँड़। बड़ा थूहर । बनाने के काम में आते हैं । यह ज्ञात रहे कि पुष्प कद तोदाली-[बं०] जंगलो काली मिर्च । दण्ड नानाकृति का होता है। जिस वर्तुलाकार ( Toddalia aculeata,) प्रत्यंगोपरि कदम का फूल सन्निविष्ट होता है, वह कदत्ती-[ कना० ] कचनार। वास्तव में फूल वा फल नहीं होता, अपितु कदम कदन-संज्ञा पुं० [सं० क्ली०] (१) मरण ।विनाश । के फूल के वत्तलाकार पुष्पदण्ड से भिन्न और (२) मारनेवाला | घातक । (३) मारण । कुछ नहीं । यद्यपि ऊपर इसके पुष्पागम का समय मारना। विनाश । (४) मर्दन । मलाई । बरसात लिखा गया है । पर इसका पुष्पाविर्भाव रौंदाई। काल नियत नहीं है। मृत्तिका और जलवायु की कदनिक-[ते० ] समुन्द्रफल । समुदर फल। अवस्था के साथ पुष्पागम का विशेष सम्बन्ध कदन्ताथी-[ मदरास ] हावड़ । मंचिंगी (बम्ब०)।। होता है । वंगाल (राढ़) में रथयात्रा से पूर्व (Dolichandrone falcata, Seem) कदम नहीं फूलता है। कोचबिहार में चैत के अंत कदन्न-संज्ञा पुं० [सं० वी०] (१) वह अन्न में कदम का पेड़ फूलता है । बैसाख की रात में जिसका खाना शास्त्रों में वर्जित वा निषिद्ध है,अथवा कदम के फूल की गन्ध अति मनोरम होती है। जिसका खाना वैद्यक में अपथ्य वा स्वास्थ्य को बर्षा प्रधान प्रदेश होने के कारण कोच बिहार में । हानिकारक माना गया है। कुत्सित अन्न । कदर्य ऐसा होता है । इसकी लकड़ी की नाव तथा और अन्न | बुरा अन्न । कुन्न । मोटा अन्न। जैसे, बहुत सी चीजें वनती हैं। कोदो, खेसारी, साँवा । __बड़ी शाखाओं से संगृहीत छाल के मोटे चपटे "हविर्विना हरियति विना पीठेन माधवः । टुकड़े होते हैं जो वाहर से देखने में भूरे और कदन्नैः पुडरीकाक्षः प्रहारेण धनञ्जयः ॥ भीतर से देखने में रक्त एवं तन्तुविशिष्ट होते हैं। स्वाद में ये तिक और कषाय होते हैं। (उद्भट०) (२) कुत्सितान्न । खराव खाना । प-०-कदम्बः, वृत्तपुष्पः, नीपः, ललनाकदन्नभोजी-वि॰ [सं० वि०] जघन्य अन्न भोजन करने- प्रियः, कादम्बरी, अङ्कवृक्षः, सुवासः, कर्णपूरकः, ___ वाला। जो खराब अन्न खाता हो । धारा कदम्बः, प्रावृष्यः, कादम्बर्यः, हरिप्रियः, कद पटु ला-[को० ] कडुअा पटोल। (ध० नि०) कदम्बः, वृत्तपुष्पः, सुरभिः, ललना कद पम-[ ता०] समुन्दर फल | प्रियः, कादम्बर्यः, सिन्धुपुष्पः, मदाढयः, कर्णकदपाल-[ ता. ] कपाल भेदी। पूरकः, धाराकदम्बः, प्रावृष्यः, पुलको , भृङ्गबल्लभः, कदाप्पि लवु-[ मल० ] पाल । अाच्छुक । मेघागमप्रियः, नीपः, प्रावृषेण्यः, कदम्बकः (रा. कदबन-[ कना० ] बन दमनक। बन दौना । (Art- | नि०), कदम्बः, प्रियकः, नीपः, वृत्तपुष्पः, हलिemisia Indica ) प्रियः (भा०), अशोकारिः, निपः, (श०), Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदम २००० कदम अहम, करWilanocep कादम्बः (अ० टी०), षटपदेष्टः, (२०), जालः (मे०), सीधुपुष्पः, जीर्णपूर्णः, महादयः (२० मा०), नीपकः, शततारका, हारिद्र प्रियक,-सं० कदम, कदंब, -हिं०, बं० । कदम गाछ -बं० । बाइल्ड सिङ्कोना Wild Cinchona -अं० । ऐन्थोसेफेलस कैडंबा (Anthocephalus) Cadamba, Mig नाक्लिया कैडंबा (Nau clea cadamba)साकों सेफेलास कैडंबाSarco Cephlas Cadamba, Kurz) Cadamba, Rozb.-ले। वेल्ल कदंब,ता० । कड़िमि चेटु, कंबे, रुद्राक्षकंब, कदंब चेह, ते० । कलंबु, कलंब, न्ह्म , कदम, कदंब, न्हीव, राज कदम-मरा० । कडवाल मर, कड़ेब, कडऊ, कडग, कडबेलु कदबेदु,-कना० । कदंब-गु०, कलम, न्हीश्रो, न्हीयू-(पंच महल)। हेल तेगा, अरसन तेगा-मैसू० । कदंब, न्यु-बम्ब० । कदंबो उड़ि। रोधू-पासा० । कोदम-(मीची)। पंदूर लेप० । संको-कोल° | बोल कदम-(चिटागाँग)। कलोन्-सिंहली। कदंब वर्ग (N.O. Rubiace.) उत्पत्ति-स्थान-उत्तरी और पूर्वीय बंगाल, पेगू और पश्चिमी समुद्र-तट पर यह जंगली होता है । उत्तर भारतवर्ष में इसके वृक्ष लगाये जाते हैं। इसके सिवा बंबई, पंच महल, ब्रह्मा और सिंहल में भी यह सुन्दर वृक्ष उत्पन्न होता है। सारांश यह कि हिमालय से लंका पर्यत इसके वृक्ष या तो जंगली होते हैं वा लगाये जाते हैं । ___ कदम-भेद-धन्वन्तरीय निघन्टु में धारा एवं धूलि कदंब और राजनिघन्टु में धारा, धूलि एवं भूमि इन तीन प्रकार के कदम के वृक्ष का उल्लेख दिखाई देता है। धाराकदंब के "प्रावृष्य" वा "प्रावृषेण्य" एवं "सुपास" इन पर्यायों का यह अर्थ है कि यह बरसात में फूलता है और इसका फूल सुगंधित होता है। इससे यह प्रतीत होता है कि जिसे सचराचर लोग कदम कहते हैं, वही "धाराकदंब" है। धूलिकदंब के नामांतर "वसन्तपुष्प" और "क्रमुक प्रसून" हैं, जिसका यह अभिप्राय है कि धूलि कदंब वसंतकाल में पुष्पित होता है और इसका पुष्प(वस्तुतः पुष्प नहीं. प्रत्युत पुषधि) सुपारी की तरह होता है। जहाँ तक हमें ज्ञात है, इस देश में 'केलिकदम' शब्द से जिस कदम का अर्थ लिया जाता है, वह भी, वसंतकाल में ही फूलता है और उसका फूल प्राकार में बड़ी बेर वा सुपारी की तरह होता है । अस्तु, धूलिकदंब का ही भाषा-नाम केलिकदम् है, इसमें और किसी प्रकार का संदेह नहीं होना चाहिये। धन्वन्तरीय निघंटुकार ने धारा एवं धूलि उभय कदंब के पर्यायों में नीप शब्द का पाठ दिया है। इससे यह बोध होता है कि "नीप" कदम्ब की साधारण संज्ञा है । धूलिकदंब अर्थात् केलिकदंब का फूल भी सुगंधित होता है । परन्तु धारा कदंब वत् सुन्दर नहीं होता। कोचविहार में केलिकदम को 'खेलिकदम्' कहते हैं। डाक्टर उदय चाँद, डिमक और खोरी प्रभृति ने धाराकदंब का बंगला नाम केलिकदंब लिखा है। वैद्यक शब्दसिंधु के संकलयिता महोदय भी उन्हीं के मत का अनुसरण करने से भ्रम में पड़ गये हैं। केलिकदंब का संस्कृत नाम धूलिकदंब है, धाराकदंब नहीं। इसका विवेचन प्रथम हो चुका है। इस प्रकार धारा एवं धूलिकदंब का निर्णय हो जाने के उपरान्त अब यह देखना है कि 'भूमिकदंब' क्या है । धन्वन्तरीय निघंटुकार ने भूमिकदम्ब नाम से किसी प्रकार के कदम का उल्लेख नहीं किया है। भूमिकदम्ब और भूकदम्ब वस्तुतः एक ही उद्भिद् के दो नाम हैं । एक होने पर, भूमिकदंब को कदंब से निर्वासित करके, धन्वन्तरीय निघंटुकार ने सुविचार प्रदर्शन किया है। कारण भूमिकदंब, "मुण्डतिका" अर्थात् मुंडो को कहते हैं और मुण्डतिका वा मुडी वृक्ष नहीं, अपितु प्रतानवती है । वरन् इस प्रकार के वृक्ष विटपका एक नाम से उल्लेख करना दोषाबह न होता । विटप करा वृक्ष करञ्जवत्, विटपकदम्ब वृक्ष कदम्बवत् ग्राह्य होता । ग्रथों के अवलोकन से प्रतीत होता है कि इसी कारण टीकाकारों ने कदम्ब शब्द की व्याख्या में "कदम्बः वृक्षकदम्बः" लिखकर (डल्वण सू० ३६ अ० रोध्रादि व० टी०)विटपकदम्ब (भूकदम्ब) का प्रतिषेध किया है । अथवा भूकदम्ब शब्द से रुद्र कदम्ब वृक्ष (Nau clea tetrandra) Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००१ , का अर्थ लिया जा सकता है । रॉक्सवर्ग | (शराव ) से कहा था-'हे मदिरे ! तू जिनकी ने इसे श्वेत कदम्ब (Nauclea tetran अभिलाषा की पात्र हो, उन्हीं अनन्तदेव के उपdra) लिखा है। उनके अनुसार इसका जन्म भोगार्थ गमन करो। वरुण की बात सुन वारुणी स्थान श्रीहद प्राकृति ६-१२ हाथ उच्च, काण्ड वृदावनोत्पन्न कदंब-वृक्ष के कोटर में आ पहुँची । सरल, पुष्पकाल ग्रीष्म ऋतु है । इसको भूकदम्ब बलराम को घूमते-घूमते उत्तम मदिरा की गंध वा एक प्रकार का केलिकदम्ब कहा जाता है। मिली थी। जिससे उनका पूर्वानुराग जाग उठा भूमिकदंब के पोय-भूमिकदंबः, भूनीपः, था । कदम्ब वृक्ष से विगलित मद्य देख वह परम भूमिजः, भृङ्ग वल्लभः,लघुपुष्पः, वृत्तपुष्पः, विषघ्नः श्रानन्दित हुये थे। पुनः गोप-गोपियों ने गान घणहारकः-सं० । भूकदम, भु इकदम-हिं। करना प्रारम्भ किया और बलराम ने उनके साथ इतिहास मदिरा पान की। वि० दे० 'कादम्बरी" भारतवर्ष कदम का श्रादि उत्पत्ति स्थान रासायनिक संघट्टन-इसके वल्कल में एक है हिमालय से लंका पर्यंत समग्र भारत कषाय तत्व होता है। यह कषायत्व सिकोटैनिक वर्ष में इसके वृक्ष जंगली होते हैं वा लगाये जाते एसिड से मिलता जुलता एक अम्ल के कारण हैं। एतद्देशवासी इसके वृक्ष को अति पवित्र होता है। उक्त औषधि में रक्त सिंकोना के स्वभाव मानते हैं । इसलिये देवालय एवं ग्रामों के समीप का एक सद्योजात श्रोषित पदार्थ विद्यमान होता इसके वृक्ष प्रायः देखने को मिलते हैं । काली वा है। (इं० मे० मे०-नादकर्णी ।। पार्वती को यह प्रिय है। श्रीकृष्ण को तो यह औषधार्थ व्यवहार-फल, पत्र और त्वक । वृक्ष बहुत ही प्रिय था । अतएव आज भी झूलने फल स्वरस–मात्रा १-२ तो० । त्वक् चूर्ण-मात्रा में कदम के फूल व्यवहृत होते हैं। प्राचीन काल १-२ पाना भर । त्वक् काथ एवं स्वरस में इसके फलों से एक प्रकार की मदिरा बनती थी, जिसे कादम्बरी कहते थे। कादम्बरी मद्य की (१० में १ मा०)। उत्पत्ति के सम्बन्ध में हरिवंश में इस प्रकार लिखा मात्रा-छ० से १ छ। है-किसी दिन बलराम अकस्मात् शैलशिखर पर प्रभाव-त्वक् वल्य एवं ज्वरघ्न है। फल घूमते-घूमते एक प्रफुल्ल कदंबतरु की छाया में बैठ शैत्यजनक Refrigerant है। गये । अकस्मात् मदगंधयुक्त वायु चलने लगी। गुण धर्म तथा प्रयोग उक्त वायु के नासाविवरण में प्रविष्ट होते ही उनके आयुर्वेदीय मतानुसारमदपिपासा का वेग भड़क उठा । वह कदम्ब वृक्ष कदम्बस्तु कषायः स्याद्रसे शीतो गुणेऽपि च । की ओर देखने लगे, वर्षा का जल उस प्रफुल्ल कदम के कोटर में पड़ मद्य बन गया था। बलराम व्रणरोहणश्चापि कासदाहविषापहः ॥ अत्यन्त तृष्णाकुल हो वह मदवारि पुनः पुनः पान (ध०नि०) करने लगे। उस वारि-पान से बलराम मत्त हो कदम-कषेला, रस और गुण में शीतल तथा गये शरीर विचलित पड़ा था। उनका शारदीय | ।। अथारोपण और कास, दाह और विष को नाश मुखशशी ईषत् चंचल लोचन से घूमने लगाने वाला है। उस अमृतवत् देवानंद-विधायिनी वारुणी कादम्बस्तिक्त कटुकः कषायो वातनाशनः । नाम कदम के कोटर में उत्पन्न होने से ही कादंबरी शीतलः कफ पित्तात्तिं नाशनः शुक्र वर्धनः ।। पड़ा है। यथा'कदम्ब कोटरे जाता नाम्ना कादम्बरीति सा।' (रा०नि०) (हरिवंश ६६ अ०) कदम-कड़ आ, चरपरा, कषेला, शीतल, विष्णु पुराण में भी लिखा है-बलराम को वात-नाशक, कफ नाशक, पित्त के रोगों को नष्ट गोप-गोपियों के साथ घूमते देख वरुण ने वारुणी करने वाला, और शुक्र वर्धक है। ३२ फा० Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदम २००२ कदम कदम्बो मधुरः शीतः कषायो लवणो गुरुः । वातला मुनिभिःप्रोक्ता फलं त्वस्यास्तु शीतलं। * सरो विष्टम्भ कद्रूक्षः कफ स्तन्यानिलप्रदः ।। तुवरं मधुरं पित्तरक्त दोषहरं मतम् ।। (भा. पू. ३०६) वै० निघ० कदम-मधुर, शीतल, कषैला, नमकीन, कदम्बिका ( कदम्बी)-मधुर, शीतल,कषेली, भारी, दस्तावर, विष्टंभ कारक, स्तनों में दुग्ध भारी, मलस्तम्भकारी, खारी, रूखी, स्तनों में दूध उत्पन्न करने वाला और वातकारक है। उत्पन्न करनेवाली, कफकारक और वातवर्द्धक है। - कदम्बः कटुकस्तिक्तो मधुर स्तुवरः पटुः । इसका फल-शीतल, कसेला, मधुर तथा पित्त शुक्रवृद्धिकरः शीतः गुरुविष्टम्भ कारकः ॥ और रक्तविकार नाशक है। रूक्ष: स्तन्यप्रदो ग्राही वर्णकृद्योनि दोषहा। कदम्ब द्वय कदम्ब युगलं वयं विषशोथहरं हिमम् । रक्त रुङ् मूत्रकृच्छ्च वातपित्तं कर्फ व्रणम् ।। दोनों प्रकार के कदम (धूलि और धारा वा दाहं विषं नाशयति ाकुराश्चास्य तूवराः । महाकदंब)-वर्ण को सुंदर करनेवाले, शीतल शीतवीर्य्या दीपकाश्च लघवोऽरोचकापहाः ॥ तथा विष और सूजन को उतारनेदाला है। रक्तपित्तातिसारघ्नाः फलं रुच्यं गुरु स्मृतम् । कदम्ब त्रय के गुणउष्णा वीर्य कफकरं तत्पक्कं कफपित्त जित् ॥ त्रिकदम्वाः कटुवा विषशोफहरा हिमाः । वातनाशकरं प्रोक्त मृषिभिस्तत्वदर्शिभिः । कषायस्तिक्त पित्तघ्ना वोर्यवृद्धिकराः पराः ।। शा० नि० भू० __ (रा० नि०) कदम-चरपरा, कड़वा, मधुर, कषेला, खारा, | तीनों प्रकार के कदम कढ़ ये, चरपरे, कसैले, शुक्रवर्द्धक, शीतल, भारी, विष्टंभकारक, रूखा, शीतल, वर्ण्य, विषनाशक, पित्तनाशक, परम स्तनों में दूध बढ़ानेबाला, ग्राही, वर्णकारक तथा वीर्यवर्द्धक और सूजन उतारनेवाले हैं। योनिरोग, मूत्रकृच्छ्, वात, पित्त, कफ, व्रण, दाह, ___ कदम के वैद्यकीय व्यवहार और विष इनका दूर करने वाला है । इसके अंकुर चरक-(१) व्रणाच्छादनार्थ कदम्ब पत्रकषेले, शीतवीर्य, अग्निदीपक और हलके हैं तथा कदम की पत्ती से क्षत को आच्छादित करना अरुचि, रत्तपित्त और अतिसार को दूर करते हैं। चाहिये । यथाइसके फल-रुचिकारक, भारी, उष्ण वीर्य "कदम्वाज्जुन निम्वाना..................। और कफ कारक हैं। इसके पके फल-कफ, व्रणप्रच्छादने विद्वान् पत्राण्यर्कस्य चाऽऽदिशेत्"। पित्त और वातनाशक हैं। (चि० १३ अ०) धारा कदम्ब (२) मूत्र की विवर्णता एवं कृच्छ्ता में धारा कदम्बक स्तिक्तो वर्ण्य: शीतः कषायकः । कदम-कदम के काढ़े और गोदुग्ध के साथ यथा कटुको वीर्य कृच्छोथ विष पित्त कफ व्रणान् । विधि पक्क घृत पान करने से मूत्र की विवर्णता वातं नाशयतीत्येवमुक्तश्च ऋषिभिः किल । और उसका कष्ट से आना दूर होता है । यथा (शा०नि० भू०) "विदारीभिः कदम्वैवा"शृतम् । घृतं पयश्च धाराकदम-कड़वा, कषेला, चरपरा, शीतल, मूत्रस्य वैवण्ये कृच्छ निर्गमे" वर्ण को उज्ज्वल करने वाला, और वीर्यकारक है। (चि० २२ अ०) तथा सजन, विष, पित्त, कफ और वात का विनाश वक्तव्य करने वाला है। चरक के वमनोपवर्ग में नीप एवं वेदना स्थापन कदम्बिका वर्ग में कदम्ब तथा शुक्रशोधन वर्ग में कदम्ब कदम्बिका तु मधुरा शीतला तुवरा गुरुः । निर्यास का पाठ आया है । सुश्रुत ने रोधादि एवं मलस्तम्भ करौ क्षारा रूक्षा स्तन्यकफप्रदा ॥ | न्यग्रोधादि गण में कदंब का उल्लेख किया है। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदम २००३ कदम . यूनानी मतानुसार. प्रकृति-सभी प्रकार के कदम शीतल और | रूक्ष हैं । इसके बड़े भेद वा महाकदम्ब को उष्ण लिखा है। हानिकत्ता-शीतल प्रकृति को हानिप्रद है। यह आध्मानकारक एवं कफजनक है। दर्पघ्न-गरम मसाला और मांस | प्रतिनिधि-बालूबालू । प्रधानकर्म-पित्तघ्न । मात्रा-१-२ तो०। गुण, कर्म, प्रयोग-यह कफ और पित्त के दोष को मिटाता और रक्त को सांद्र करता है। अपने प्रभाव से यह स्त्रियों एवं ख्वाजा सराओं के स्तन दीर्घ करता है । यह मांस को सुस्वादु बनाता और निर्बिषैल है। -म० मु०। इसकी पत्ती अत्यन्त शीतल है और यह कफ पित्त एवं रक्त के दोष मिटाती है। -ता० श० । ___ ग्रामीण लोग इसे अधिकता से खाते हैं, यह पित्तघ्न, हृल्लास निवारक, उष्माहारक, और पिपासाहर है । यह अम्लस्वाद युक्त होता है और मांस के साथ कच्चा पकाया हुश्रा सुस्वादु होता प्रत्यंग स्त्रियों तथा खवाजा सराओं के स्तनों को दीर्घता प्रदान करते हैं और कण्ठगत रोगों को लाभकारी है। -ख. अ०। नव्यमत डीमक-कदम का फल जो आकार में प्रायः छोटी नारंगी के बराबर होता है, यहाँ के निवासी खाते हैं और इसे शीतल एवं कफ तथा रक्रदोष को नष्ट करनेवाला मानते हैं। इसकी छाल वल्य और ज्वरध्न मानी जाती है।. तालुपात-रोग में शिशु के सिर पर इसका ताजा रस लगाया जाता है और साथ ही थोड़ा रस जीरा और चीनी के साथ मुख द्वारा प्रयोजित किया जाता है। चतु शोथ वा अभिष्यन्द रोग में इसकी छाल का रस नीबू का रस (Lime-juice) अफीम और फिटकरी इन सबको बराबर बराबर लेकर अति गुहा ( Orbit ) के चतुर्दिक लगाएँ। (फार्माकोग्राफिया इंडिका, खं० २, पृ० १७०) आर० एन० खोरी-धारा कदम्ब अर्थात् कदम को लोग वन्य सिङ्कोना कहते हैं। इसका त्वक् वलकारक है, एवं त्वक्-स्वरस जीरे के चूर्ण और चीनी के साथ शिशुओं के वमन-प्रतिकारार्थ व्यवहार किया जाता है। फल शीतल, श्रमापह और ज्वरघ्न होता है । ज्वर में प्यास का प्रवल , वेग होने पर फल का रस सेवन किया जाता है। ( मेटीरिया मेडिका अॉफ इण्डिया-२ य खं० ३२५ पृ०) नादकर्णी ने यह अधिक लिखा है 'इसकी छाल का काढ़ा ज्वर में दिया जाता हैमुखपाक (Aph the or Stomatitis) रोगमें इसके पत्र काथसे गंडूष कराया जाता है।" (ई. मे० मे० पृ०७४) ए० सी० मुकर्जी-मुखपाक रोग में इसके पत्र-काथ का गरगरा वा कुल्लियाँ कराई जाती हैं। (वैट्स डिक्शनरी) कभी-कभी कदम की पत्ती मवेशियों को खिलाई जाती है । लकड़ी मुलायम एवं सफेद रंग की होती है । पर उसमें कुछ-कुछ पीलापन भी झलकता है। इससे कछार और दारजिलिंग में चाय के सन्दूक बनते हैं । कदम से कड़ियों और बरंगों का भी काम निकलता है। कारण इसकी __ वैद्य कहते हैं कि यह चरपरा, कड़ा , मीठा कसेला, खारा, शीतल, रूत और गुरुपाकी है तथा दुग्ध, वीर्य, और शारीरिक शक्ति को बढ़ाता है। यह रक्कदोष, सूजाक, अतिसार, बादी कफ, पित्त, विष और गरमी को दूर करता है। इसकी छाल का काढ़ा पिलाने से ज्वर छूटता है। इसका त्वक् बल्य है । इसके पत्र क्वाथका गंडूष करनेसे मन्वां ? दूर होता है । इसकी हरी कोपलें कसेली, शीतल, पाचन शक्तिवर्द्धक, तथा लघुपाकी है और अरुचि को निमूल करती है। ये सुर्खबादा और अतिसार को लाभ पहुँचाती है । इसके फल क्षुद्वोधकारक गुरु एवं उष्ण होते हैं, कफ एवं वीयें उत्पन्न करते और खाने के काम में आते हैं। इसके पके हुये फल बादी, पित्त और श्लेष्मा का नाश करते हैं । फूल और पत्ते पित्तज रोगों एवं रक्तविकार में लाभकारी है और फोड़े फुसी एवं खाज़ को दूर करते हैं। अपने प्रभावज गुण के कारण करम के | Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदम २००४ कदम लकड़ी हलकी एवं सुलभ होती है। कदम के | Roxb.)-ले० । मञ्जकदम्बे -ता० । परपु. काष्ट से नौका और नानाविध उपयोगी वस्तु कदंबे, डडगू, बेत्तगनप, बंदारु, पस्पुकडिमि-ते। बनाते हैं। -हिं० वि० को। हेदु-मरा० । हेद्दे, येत्तेग-पेत्तेग, अरसन-तेग, कविराज एन० एन० सेन गुप्त-यह किंचित् येत्तद, अहुनान-कना० । हरदुश्रा, हरदू -मध्य० तिक्त, चरपरा, कसैला, क्रान्तिहर, ( Refrige- प्रां० । करम-नेपा० । कुरुब, कोंबसंको-कोल० । rant), कामोद्दीपक (Aphrodisiac) कराम -संथाल । बड़ा करम -मल० । तिक्का । पित्तघ्न और बिष एवं आक्षेप में उपकारक है। -(वहराइच एवं गो०)। हरदू, पसपु, करमी, - यकी फली का रस मालाबार में उदरशूल में -गों । होलोंडा-उड़ि.। शांगदोंग, -(गारी) व्यवहृत हाता है । विस्फोटों पर इसकी पत्ती और रोघू, केलिकदम -प्रासाम, अरसनतेग -मैस०। हलवान - गु०। वंशलोचन-दोनों को पीसकर इसका पलस्तर कदम्ब वगे लगाते हैं और ऊपर से पत्तियों की घनी तह रख (N. 0. Rubiacece ) कर बांध देते हैं । इससे वे पाक को प्राप्त होते उत्पत्ति-स्थान-शुष्क वन ३००० फुट की हैं । (इं० मे० मे० पृ० ५८६) ऊँचाई पर । कुमाऊँ से सिक्किम तक और भारत(३) कैमा (धूलिकदम्ब वा केलिकदम्ब) बर्ष के समग्र पर्वती प्रदेशों से लंका पर्यन्त । एक प्रकार का कदम्ब जिसके पत्ते कचनार की रासायनिक संघट्टन-इसमें सिकोटैनिक तरह चोड़े सिरे के होते हैं । केलिकदम्ब का वृक्ष एसिड, एक रन श्रोषिद ( Oxidised ) धाराकदम्ब वृक्ष की अपेक्षा क्षुद्रतर एवं बहुशाखी पदार्थ एक तिक तत्व, श्वेतसार और कैलसियम् होता है । इसके फूल एवं पत्र भी धाराकदम्ब के ऑक्ज़ेलेट ये द्रव्य होते हैं। ( मेटीरिया मेडिका फूल और पत्र की अपेक्षा तुद्तर होते हैं। वसंत पार० एन० खोरी, खं० २, पृ० ३२५) ऋतु में इसके पत्ते झड़ जाते हैं। इसके फूल औषधार्थ ब्यवहार-त्वक् । . के ऊपर सफेद २ जीरे नहीं लगते । इसमें वसन्त प्रभाव-तिक्र, वल्य और ज्वरघ्न । काल में फूल आना प्रारम्भ होजाता है। सावन गुणधर्म तथा प्रयोग : तक वा वर्षान्त पर्यन्त श्राता रहता है। इसकी आयुर्वेदीय मतानुसार-धाराकदम्बवत् । न औषधि के लिए सर्वत्र भारतवर्ष धूलीकदम्बकस्तिक्तस्तुवर: कटुको हिमः । में सुविदित है और बहुमूल्य पीतकाष्ठ नाना वीर्य वृद्धिकरो वण्यों विष शोथ विनाशकः ।। प्रकार के कार्यों में व्यवहत होता है। इसकी छाल वातं पित्त कर्फ रक्त दोषं चैव विनाशयेत् । के मोटे वक्राकार टुकड़े होते हैं जो बाहर से हलके धूली कदम-कड़वा, कसेला, चरपरा, शीतल भूरे वा धूसरित श्वेत और भीतर से रनाभ-धूसर वीर्यवर्द्धक, वर्ण को सुन्दर करनेवाला तथा और तंतुल होते हैं । इसका स्वाद कड़वा और विष, सूजन, वात, पित्त, कफ और रुधिर के कसैला होता है। विकारों को दूर करनेवाला है। नव्यमत पर्याय-नीपः, धूलिकदम्बः, सुवासः, वृत्त डीमक-यह तिन औषधीय छाल और बहुपुष्पकः, (ध०नि०), धूलीकदम्बः क्रमुकप्रसूनः मूल्य पीली लकड़ी के लिए जो नाना भाँति की पराग पुष्पः, बलभद्रसंज्ञकः, वसन्तपुष्पः, मकरन्द दस्तकारी के काम आती है। भारतवर्ष में सर्वत्र वासः, भृङ्गप्रियः, रेणुकदम्बकः, (रा.नि.) प्रसिद्ध हैं। -सं० । कैमा, करमा, करम, हलदू, हरदू, कदमी, नादकी-कहते हैं कि इसकी छाल सिंकोना -हिं० । केलिकदम, बंगका, पेट-पुड़िया, दकोम, | की तरह कडुई होती है और मरक ज्वरों -बं० । अडिना कॉर्डिफोलिया ( Adina ( Eudemic fenrs ) तथा प्रांत्र-रोगों Codifolia, Hook F. ) atafaat की चिकित्सा में व्यवहृत होती है। कॉर्डिफोलिया ( Nauclea Cordifolia, | (इ० मे० मे० पृ० ५८६) नयमत Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदम २००५ कदम्बपुष्प गन्ध ए. कैम्पबेल-कठिन शिरःशूल रोगमें इसकी नीचे के भाग को क़दम (पैर ) और रान की जड़ छोटी कली गोल मिर्च के साथ पीसकर नाक में से लेकर टखने के जोड़ तक को रिज्ल कहते हैं। नस्य करते हैं। | कदम गाछ-[बं०] कदम का पेड़ । .. अासाम में इसकी जड़ औषध रूप से ब्यव- कदमा-संज्ञा स्त्री० (पु.) [हिं० कदम ] एक प्रकार हार की जाती है । (इं० मे० प्लां.) को मिठाई जो कदम के फल के आकार की बनती __ आर० एन० खोरी–केलिकदम्ब की छाल | है। वंगदेश के राढ़-अञ्चल में कदमा का प्रचुर , कडुई. वल्य एवं ज्वरघ्न है । सिंकोना को भाँति व्यवहार है। यह भी ज्वर, अजीर्ण, ग्रहणी एनं अग्निमांद्य रोग [ता० ] ढाकुर । में लाभकारी है। (मेटीरिया मेडिका आँफ | क़दमिया-यू.] अक्रोमिया । क़दीमिया । इण्डिया; खं० २, पृ. ३२५) | कदमोठ-तापीला कनेर । भूमि कदम्ब कदम्ब-संज्ञा पु० [सं० पु. (१) कदम । कदंब । भूमेः कदम्बकस्तितो वय:शीत: कदुःस्मृतः । शततारका । रा० नि. व०६ । भा० पू०१ वीर्यवृद्धि करश्चैव तुवरो विषशोथहा ॥ भ० । वै० नि। वि० दे० "कदम"। (२) पित्तं कृमींश्च सर्वाश्च मेहान्नाशयतीरितः । सरसों । सर्षप वृक्ष । मे०। (३) देवताड़क । (नि०र०) देवताड़ वृक्ष । रत्ना० । - भूमि कदंब-कड़वा, वर्ण को उज्ज्वल करने- संज्ञा पुं॰ [सं० वी० । माक्षिक । शहद । वाला, शीतल, चरपरा, वीर्यवर्द्धक तथा कसेला हेच.। (४) बलभद्र । बलीवर्द। साँड़ । है और बिष, सूजन, पित्त, कृमि और सर्व (५) समूह । मुण्ड । प्रकार के प्रमेह रोगों को दूर करनेवाला है। कदम्बक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (१) कदम का राज कदम्ब पेड़ | त्रिका । (२) हलदुआ । हरिद्र, वृक्ष । नीपस्तु चाम्लस्तुवरो मधुरः शीतलः स्मृतः । ___ रा०नि० व० ६ । (३) सरसों । सर्षप वृक्ष । विषं रक्तरुज पित्त कर्फ चैव विनाशयेत् ॥ ५० मु० । हे० च० । (४) घोड़े के पैर का एक फलं तु मधुरं चास्यं शीतलं गुरु पित्तहृत् । प्रकार का रोग . अश्व के खुरतल में कदम के फूल रक्तदोषहरं प्रोक्तमृषिभिस्तत्वदर्शिभिः॥ जैसा उठनेवाला मांसाकुर कदम्बक कहलाता है। राजकदम-अम्ल, कषेला, मधुर, शीतल है यह श्लेष्मा और शोणित से उत्पन्न होता है । तथा बिष, रुधिर विकार, पित्त और कफ को दूर | (५) देवताड़ वृत। हरिद्रा । हलदी का पौधा । करता है । इसका फल मधुर, शीतल, भारी है। (७) दारुहरिद्रा । दारुहलदी।। तथा पित्त और रुधिर के दोषों को दूर | कदम्बका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] कलहंसी। राजकरता है। हंसिनी । वै० निघ। [नेपा० ] सफेद अंड। कदम्बचेट्ट-ते. ] कदम । क़दम-सज्ञा पुं० [अ० पु.] [ बहु. अक़दाम ] | कदम्बद-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] सरसों। सर्षप । (१) पैर । पग । पाँव । पद । (२) एक माप | श० च० । जो १ फुट वा तिहाई गज का होता है। (३) कदम्ब नि-स-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] कदम का घोड़े की एक चाल । गोंद । कदम्बबेष्टक । च० सू० ४ अ० । ___ नोट-अरबी शब्द कदम और अंगरेजी शब्द | कदम्ब पुष्प-संज्ञा पुं० [सं० पु.] हलदुश्रा। फुट दोनों का अर्थ है पाँव वा पाँव के बराबर की हरिद्रु वृक्ष । माप । परन्तु भारतवर्ष में कदम को माप साधार- संज्ञा पु० [सं० वी० ] कदम का फूल । यतः ५ फुट की मानी जाती है। . कदंब कुसुम । क़दम और रिज्ल का अथांतर-टखने से | कदम्बपुष्प गन्ध-संज्ञा पुं० [सं० पुं०] कलम Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००६ कदम्ब पुष्पा शालि । जड़हन । एक प्रकार का धान । रा० नि० व० १६ | कदम्बपुष्पा - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] गोरखमुंडी । महाश्रावणी | रा० नि० व०५ । मुण्डितिका वृक्ष | .कदम्बपुष्पिका, कदम्बपुष्पी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] गोरखमुण्डी । महाश्रावणिका । यथा - "कदम्ब पुष्पी मन्दारी ।” भा० पू० १ भ० । सु० चि०१६ श्र० । कदम्बम् - [ ] एक प्रकार का कदम जो दक्खिनी हिन्दुस्तान: होता है । कम्पम, ( Siegesbe ckia Orientalis) कदम्ब वायु- सं० पु० [सं० पु० ] सुगंध वायु । खुशबूदार हवा | कदम्बा, कदम्बी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] घघरबेल । वंदाल | देवदाली लता । रा०नि० ० ३ । कदम्बानल - दे० "कदम्बवाय” । कदम्बादिकषाय- स० पुं० [सं० पु ं०] एक प्रकार का क्वाथ | योग — कदम्बमूल की छाल, खदिर और पीली कटसरैया की जड़ समान भाग मिश्रित कर काथ बनायें । इसके सेवन से एक मास में स्त्री का योनि शूल नष्ट होता है । बसवरा० १६ प्र० पृ० २४६ । | कदम्ब - [ते०] कदम । कदर - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( १ ) सफेद खैर | श्वेत खदिर । पपरिया कत्था । पर्याय- सोमवल्क, ब्रह्मशल्य, खदिरोपम, सोमवल्कल, खदिर, श्वेतसार, (२) बबूल, बबूरक वृक्ष - र० मा० । कदरा -संज्ञा स्त्री [सं० त्रो० ] (१) असगंध । श्रश्वगंधा | के० दे० नि० । नि० शि० । ( २ ) दे० " कदर " कदरू - [ शीराज़ी ] अंज़रूत । कदम्बिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कदम का पेड़ करो - संज्ञा स्त्री० [सं० कद = बुरा + रव = शब्द ] मैना वै० निघo | कदम्ब वृक्ष | के आकार का एक पक्षी । -संज्ञा पुं० [सं० नी० ] वेदना । व्यथा । तकलीफ । गुण- भावप्रकाश के मत से यह विशद, वर्ण के लिये हितकर और मुखरोग, कफ तथा रक्तदोष विनाशक है । "खदिराकृतिः श्वेतसारः यथा । - " खदिर कदर भंडी । " वा० सू० ११ ० श्रसनादि-गण। “कदरः खदिराकरः श्वेतसारः कदला संज्ञा पुं० [सं०ली० ] ( १ ) एक रोग | मे० रत्रिकं । वह बेर के समान ऊंची गाँठ जो पैर में काँटा वा कंकड़ी (वा ठीकरी ) चुभने से पड़ जाती है । और कड़ी होकर बढ़ती है। गुलाबुर । 1 चाँई । टाँकी । गोखरू - हिं० । कुल श्राँटी, कड़ा, जामुड़ा - बं० | सु० नि० १३ श्र० | मा० नि० तु० रो० । नोट - कोलवत् के स्थान में कहीं कहीं कीलवत् पाठ आया है। वहां उसका अर्थ "कील के समान ऊँची गाँठ समझना चाहिये । यह रोग हाथों में भी होता है 1 चिकित्सा - श्रद्वारा कदर को निकालकर तप्त तैल तथा अग्नि से उक्त स्थान जला देना चाहिये । (२) एक प्रकार का पायस । जमा हुआ दूध श० मा० । सु० सू० ३८ श्र० ड० । च० सू० ४ ० ४३ दश के (३) लकड़ी चीरने का चारा । क्रकच | मे० | (४) अंकुश । श्रकुस | संज्ञा पु ं० [] (१) केवड़ा काज़ी (श्रु० ) काढ़ी (फ़ा० ) । (२) गँदलापन | अस्वच्छता गँदला होना । धुँधला होना । कदरफल - [?] उप्पी | कदरम - [मल०] खैर | कदल, कदलक - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] (१) केला । कदलीवृक्ष । (२) पिठवन । पृश्निपर्णी । मे० । श० र० । कदल - संज्ञा पु ं० [सं० क्री० ] कपाल । नराङ्गुर । मे० लत्रिक | कदलडी - [ मल० ] श्रपामार्ग | चिर्चिटा | कदल तङ्गाय - [ मल० ] दरयाई नारियल । कदल नोराय - [ मल० ] समुदरफेन । समुद्रभाग । कदलमु - [ ते० ] केला । कदली । कदला - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) केले का पेड़ | कदली वृक्ष । ( २ ) पिठवन । पृश्निपर्णी । ( ३ ) सेमल का पेड़ | शाल्मली वृक्ष । ( ४ ) डिम्बिका | मे लत्रिक | Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदलय २००७ कदली कदलय-संज्ञा पुं॰ [देश॰] जंगलो मेथी । ( Des modium Triflorum ) कदला वल्ली-[?] ठोकरी बूटी। कदलिक-संज्ञा पुं० [सं० लो. ] कुचिला। कलिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] दे० "कदलो"। कदलिया-संज्ञा स्त्री० [सं० कइली ] मोथा । कदलिक्षता, कदलीक्षता-[ संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] एक प्रकार को ककड़ो। वै० निघ० । कदली-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१.) श्रादी वा हल्दी को ही जाति का उष्ण कटिबंध स्थित प्रदेशों में होनेवाला एक वृक्ष जिसे उद्भिद् तत्ववेत्ता कोमलकाण्ड-वृक्षों की श्रेणी में गिनते हैं । उद्भिशास्त्र में कोमलकाण्ड-वृत उसे कहते हैं जिसके कांड अर्थात् तने में काष्ठ का भाग अल्प होता है। पर केले में वस्तुतः कोई कांड नहीं होता । जिसे भ्रमवश कांड मान लिया जाता है, वह पत्र का शेष भाग अर्थात् काण्डकोष रहता है। हिंदी में केले का बकजा कहानेवाला अंश उसका समष्टिमात्र है। केले के पेड़ में पिंडमूल (Roots, stalks) होता है। इसो पिण्डमूल से पत्र निकलते हैं । पिण्डमूल के मध्य स्थल से एक सरल गोलाकार श्वेत वर्ण मजा (Pith) उत्पन्न होती है। इसी के चारो ओर स्तर-स्तर में कोष छिप काण्ड को भौति श्राकार धारण करते हैं। केले के कोमलकाण्ड कहलाने का यही कारण है। काल पाने पर उक्त मज्जा पुष्पदण्ड में परिणत हो जाती है । जब नूतन पत्र निकलता है, तब यह मूल से उत्पन्न होकर और मज्जा के पार्श्व पर लटक कर ढालू सूड जैसा बढ़ने लगता है और अन्ततः कक्ष से बाहर हो पत्र दिया करता है। केले का पत्रांश अत्यंत विस्तृत होता है। केले के कच्चं पत्र को मध्य पत्र कहते हैं ।प्रत्येक पत्र ६-८ फुट लंबा और१-२ फुट चौड़ा होता है । पत्र की मध्य पशुका से किनारे तक एक लंबी सरल शिरा पड़ती है । उक्त सरल शिराओं के मध्य अश्वत्थपत्र की जाल की भांति सूक्ष्म विन्यास होता है। सुतरां थोड़ा प्रवल वायु लगते ही उक्त शिरा फट जाती है। केले के पेड़ का पत्र भाग,वृन्त भाग और काण्डकोष सभी अंशुविशिष्ट रहता है । मजा बहुत कोमल होती है। यह केवल पक्की-पक्की कुछ रसाधार शिराओं का समष्टिमात्र है । मजा का दंड ही बढ़कर पुष दंड बन जाता है, केले के फूल को संस्कृत में 'मोचा' कहते हैं । मोचा आने से पूर्व केले के स्कन्ध-देश से एक 'असिफलक' निकलता है, जिसे पत्ते का मोचा कहते हैं । पत्तेवाले मोचा के भीतर ही मोचा रहता है । मोचा के पुष्ट होने पर पत्ते के मोचा का तल फटता ओर मोचा नीचे की ओर लटकने लगता है । नारियल, ताड़, सुपारी, खजूर, प्रभृति वृक्षों में भी पत्ते का मोचा रहता है। मोचा कदली वृक्ष के स्कंध से ऊर्ध्वमुख निकलकर, बाद को कुछ बढ़ने पर निम्नमुख झुक पड़ता है। यह देखने में कोणाकार होता है। लंबाई प्रायः एक फुट और मध्य भाग की चौड़ाई कोई ६ इञ्च रहती है। प्रत्येक मोचा में अनेक विभाग होते हैं । प्रत्येक विभाग में दो सार मुकुल पुष्प चर्मवत् पौष्पिक पत्रावर्त से श्रावृत रहते हैं । प्रत्येक सार में है या १० पुष्प पाते हैं। प्रत्येक पुष्प में फल लगता है । पुष्पों के मध्य पु पुष्प (Male-flowers) निम्न श्रेणी और स्त्री पुष्प वा उभय लिंग पुष्प ( Female flowers or Hermaphrodite flowers) ऊर्ध्व श्रीणो में रहते हैं। प्रत्येक भाग के पुष्प जैसे-जैसे बढ़ते हैं, वैसे-वैसे उनके श्रावरक के पौष्पिक पत्रावर्त खिसक पड़ते हैं। जड़ की ओर से पुष्प फल में परिणत होते हैं । प्रत्येक पौष्पिक पत्रावर्त में ६ से १० तक फल लगते हैं । एकएक फलसमूह को हिंदी में 'गहर' कहते हैं। पौधिक पत्रावर्त में जितने पुष्प लगते हैं, उतने फल हो नहीं सकते । एक वृक्ष में एक ही समय एक से अधिक गहर नहीं आती | गहर काट लेने से कुछ दिन पीछे केले का पेड़ सूख जाता है। बहत पुराना हो जाने पर वा गहर छोड़कर नष्ट हो जाने पर वृक्ष के पिंडमूल में ६ से ८ तक कल्ले फूटते हैं। __ केला अति शीघ्र शीघ्र बढ़ता है। अच्छी भूमि में इसे लगाने पर यह वृद्धि सहज ही देख पड़ती है। केला अनेक प्रकार का होता है । प्रायः केले में वीज नहीं होता । पर जंगली और चट्टग्राम प्रदेश Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदली २००८ कदली की एक जाति के केले में वीज होता है । इसी वीज sapientum, Linn.ले०। प्लाण्टेन ट्री The से वृक्ष उपजता है। किसी-किसी अन्य जातीय Plantain tree, बनाना टी Banana केलेमें वोज होते हुयेभी उससे कोपल नहींफूटती । tree -अं० । बनानीर Bananier, Plaपहाड़ी प्रदेशों में केलेका वृक्ष बहुत कम होता है । tanier -फ्रां० । जेमीनर पिसंग Gemeiवहाँ यह बढ़ नहीं सकती क्योंकि श्रन्यान्य बृक्षोंकी ner Pisang-जर । Fico d Ada. प्रतियोगिता में केले के पेड़ को पहाड़ी प्रदेश की mo -इट० । मौज़ का झाड़ -दः । वाज़च्चेडि, कठिन मृत्तिकासे रस खींचकर अपना पोषण करना कदलि, वा8, बलई, बल, बेला, -ता. । अरटिअसम्भव देख पड़ता है। इसी से इसमें कल्ले चेट्ट, अनटि-चेछु, अण्टि-चे, कदलि, बुरुगचे, नहीं फूटते । कल्ले न फूटने से ही पहाड़ी केले में दोंडतोगे,चक्राकेली,ते । पिस्याँ,वाश, वाज़मरम्, वीज रहता है । फिर भी वीज इतना आता है कि वल, वेल्लकाय, पिज़ौंग-मल० । बाले गिड, कालपर शस्य वा गूदा बिलकुल नहीं दिखाई बाले, बाले नडु, -कना० । केलझाड़, केली-चदेता । वीजों पर पतली मलाई की भाँति कुछ ___ झाड़, केलि-मरा० । केलु-नु-झाड़ केल्य-गु० । कोमल, चिपचिपा शस्य रहता है। पक्षीगण उक्त केहल-गहा, कहिकाङ्ग, केहेल-सिंह० । नपियाशस्य खाने के लिए ही बड़ी दूर से श्राकर पक्क बिङ, नेपियान, अंगहेट, याथिलन् ,हगायी-बर। फल ले जाते हैं। इसी प्रकार सब जगहों में इसी केविरो-सिं० । केठठ-मद० । कदली, -कना० । उपाय द्वारा वीज लाये जाने पर केले का वृक्ष कावालेतव-का० । तल, तत्पमपज-(पाह्रवी) उत्पन्न होता है। वाला -लु. (छुसाई) गोदङ्ग -(आवा)। केले की कोई एक फ़सल निश्चित नहीं है। केला । -हिं०, बम्ब० गु०, पं० । बिषु (बालि द्वीप) गड़ङ्ग-(जापान)। प्रत्युत यह बर्ष भर-साल के बारहों महीने सदा कले के फल-कदली फलम् -सं०। फलता रहता है। परन्तु बर्षाऋतु में अधिक केरा, केला-हिं० । कला-बं० । मौज़-द० । मौज़ फलता है। तलह- श्र०, फ्रा० । मुसा सापीण्टम् Musa केले के पर्याय Sa pientum, Linn. (Fruit ofकेले का पेड़-कदलो, सुकुमारा, रम्भा, Plantain or Banana)ले० । प्लाण्टेन स्वादुफला दीर्घपत्रा, निः सारा, मोचा, हस्ति- Plantain | बनाना Banana-अं० । विषाणिका ( ध० निः) कदली, सुफला. कदली-ता० । अरटि-मंडु, अनटि-पंडु, अग्टि-पंडु रम्भा, सुकुमारा, सकृत्फला, मोचा, गुच्छफला कदलो, चक्रा केली ते.। वाजप-पज़म्, पेसंगहस्तिविषाणी, गुच्छदन्तिका, काष्ठीरसा, निःसारा मल। वाले हएणु-कना० । केल, पिक्लि राजेष्ठा, बालकप्रिया, उरुस्तम्भा, भानुफला, वन- केल, मठेली-मरा० । केल, केलिया गु० । केहल, लक्ष्मी, (रा०नि०) कदली, वारणा, मोचा, केस्सेल-सिंह०, सिंगाली । उपियासी,हगापी-बर। अम्बुसारा, अंशुमतीफला, ( भा०) वारणबुषा, गोदंग-(जावा)। कदली, काखाली,तब-करना० । रम्भा, मोचा, अंशुमत्फला, काष्ठीला (अ० ), परिचयज्ञापिका संज्ञा-अम्बुसारा, निःसारा, कदलः, वारखुषा, वारणवृषा, (अ. टी.), दीर्घपत्रा, स्वादुफला, सकृत्फला, गुच्छफला। तत्पत्री, नगरौषधिः, (श०), कदलकः, मोचकः, कदली भेदरोचकः, लोचकः, वारवृषा (शब्द र०), वारण- (१) काष्ठकदली श्वेता, राज कदलो, वल्लभा, चर्मण्वती, प्रायतच्छदा, तन्तुविग्रहा, विषघ्नी, कदली, पाषाण कदली–पाठांतरे वन कदलिका, कदेला, सुफलं. -सं० । केला वृक्ष कदली, स्वादुकदली-(ध० नि०) काष्ठकदली, केरा का पेड़, सवेज, केले का पेड़, -हिं० । कला कुकाष्ठा, वन कदली, काष्ठिका, शिलारम्भा, दारु माछ-(बं०) शजूतुल्तलह, शजूतुल्मौज़-अ. कदली, फलाढया, वनमोचा, अश्म कदली (रा० दरख्ते मौज़-फा० । मुसा सापोण्टम् । Musa | नि०)-सं० । कठकेला, जंगली केला-हिं० । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदली २०० बुनो कला-बं० । काष्ठकेले-म०। Wild Pla-| utain ( Masa spientum) - (२) कृष्ण कदली-(यह महाराष्ट्र में प्रसिद्ध है) (३) गिरिकदली-(पार्वतीय कदली वृक्षपहाड़ी केला ) गिरिकदली, गिरिरम्भा, पर्वतमोचा, अरण्यकदली बहुवीजा, वनरम्भा, गिरिजा, गजवल्लभा (रा०नि०)-सं० । पहाड़ो केला, पर्वती केरा-हिं। (४) सुवर्ण कदली-सुवर्ण कदली, सुवर्ण रम्भा, कनकरम्भा, पीता, सुवर्णमोचा, चम्पकरम्भा, सुरम्भिका, सुभगा, हेमफला, स्वर्णफला, कनकस्तम्भा, पीतरम्भा, गौरा, गौरम्भा, काञ्चन कदली, सुरप्रिया (रा. नि०) कणक मोचा, कणकरंभा-सं० । सोनकेला, रायकेला, - हिं० । चापाकला - सोनकेली-को पाटोया-उत्० । (५) चम्पक-सुवर्णकदली, चम्पक रम्भा (रा०नि०)-सं० चंपा केला-हिं० । चाँपा कला । (६) मयंकदली- मर्त्यमान कला-बं० । मर्तबान केला-हिं। संज्ञा निर्णायनी टिप्पणी-अति पूर्वकाल में भारत में इसे 'मोचक' कहते थे । मोचक का अर्थ 'मुक्त हुआ है । प्रथमतः वृक्ष के गर्म से इसका जो फूल निकलता है, वह एक प्रावरणी के भीतर रहता है। उसी प्रावरणी के फटने पर फूल पाता है। प्रत्येक फूल गुच्छगात्र में दूसरे प्रावरण से श्रावृत रहता है । वह प्रावरण युक्त होनेपर फल निकलता है। इसीसे फल को मोचक कहते हैं। शिवपूजा के मंत्र में हम केले का मोचा नाम यह सरस भूमि में ही अच्छी तरह उपजता है। अंशुमत्फला से अंशु वा तन्तु रखनेवाले द्रव्य का अर्थ निकलता है । केले के वृक्षका तन्तु विशेष विख्यात है। वारणवुषा और वारणवल्लभा का अर्थ हस्तिप्रिया है । सकृत्फला शब्द से साल में एक वृक्ष के एक ही वार फल देने का अर्थ निक- . लता है । भानुफला का अर्थ सूर्योत्तापप्रिया है। वनलक्ष्मी वन की शोभा बढ़ानेवाले फल का द्योतक है। इससे वन में भी धनागम वा प्राणधारण होता है । हस्तिविषाणी से ऐसा फल अभि प्रेत है जो हस्तिदन्त की भाँति सुगोल, दीर्घ, अथच ईषत् वक्र हो। चर्मण्वती का अर्थ चर्म की भाँति प्रावरणयुका है। इसी प्रकार अन्य संस्कृत शब्दों के अर्थ भी समझे जा सकते हैं। इसकी भारव्य संज्ञा 'मौज़' संस्कृत मोचा शब्द से व्युत्पन्न है । लाटिन भाषा का 'मिउसा" वा "मुजा" शब्द अरबी मौज़से व्युत्पन्नहै । इसकी अंगरेजी संज्ञा 'बनाना' 'ग्रोक' 'अरियाना' Ariana शब्द से व्युत्पनहे। ग्रीक अरियाना संभवतः तैलङ्गी भाषा के अरिति शब्द से व्युत्पन्न है । ग्रीक अरियाना का अन्यतम पर्याय औराना (Our. ana) है ।कितने ही लोग ग्रीक औराना शब्दको संस्कृत के वारणवुषा शब्द से व्युत्पन्न मानते हैं। क्योंकि ग्रील भाषा में भारतीय जिन औषधियों का उल्लेख हुआ है, उनका देशीय नाम अधिकारा दक्षिण देशीय भाषा सेही संगृहीत हुआ है। प्लाण्टेन शब्द ग्रीक ग्रंथकार सावफरिस्तुस ( Theophrastus ) वा रूमीप्लाइनी (Pliny ) द्वारा उल्लिखित पल नामक शब्द से व्युत्पन्न है । तदुक्क पल वृक्ष और उसके फल का वर्णन सर्वथा कदली वृक्ष और कदली फल से मिलता-जुलता है। पुनः उन्होंने उसे हमारे ऋषियों का खाद्य भी बताया है । अस्तु, इसमें कोई सन्देह नहीं कि 'पल' संस्कृत फल वा तामिल 'बल' शब्द से व्युत्पन्न है । मलावार में अब भी इसे 'पल' नाम से ही अभिहित करते हैं। उत्पत्ति स्थान और भेद-भारतवर्ष ही केले का श्रादि वास स्थान है और वह यहाँ सर्वत्र होता है। किंतु पाश्चात्य प्रदेश की अपेक्षा पूर्व प्रदेश और दाक्षिणात्य में ही अधिक होता है। "एतत् मोचाफलं नमः शिवाय नमः।" कोई भी इस स्थल पर कदली, रम्भा वा अन्य संज्ञा का व्यवहार नहीं करता । प्राचीन निघण्टु ग्रन्थ में 'मोचा' शब्द कदली वृक्ष के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। राजवल्लभकार ने मोचा ( केले का फूल) के अर्थ में मोचक शब्द का व्यवहार किया है। कदली का अर्थ जल में ही पुष्टि पाना है। केले का वृक्ष कुछ जल प्रधान होता है । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१० कदली पूर्वबंग और दाक्षिणात्य मलावार उपकूल में केला बहुत लगाया जाता है। पहाड़ी, कोकनी, जंगली और बागी, छोटे, बड़े, हरे वा पीले छिलके के विचार से भारतीय केला| नाना प्रकार का होता है । कहा है माणिक्य मामृत चम्पकाद्या भेदाः कदल्या बहवोऽपिसन्ति । भा० अर्थात्-माणिक्य, मर्त्य, अमृत और चम्पक आदि केले को अनेक जातियाँ होती हैं । धन्वन्तरीय निघण्टु में कदली और काष्ठ कदली इन दो भेदों का और राजनिघण्टु में कदली, काठ-कदली, गिरि कदली और सुवर्ण मोचा, इन चार भेदों का उल्लेख पाया जाताहै। इसकेसिवा अधुना नाना स्थान में नाना प्रकार का केला होता है। श्रासाम प्रदेश में यह पन्द्रह प्रकार का केला जन-साधारण के निकट सुपरिचित है। पाठोया, जेपा प्राठिया, भीमकला, कनकधोल, बरस्मानि, छेनिचंपा, मनुहर, भोट् मनुहर, सिमुल मनुहर, पूरा, मालभोग, बस्ट-मानि, बनकला, जाहाजि और दाघजोया, बंगाल में रामरम्भा, अनुपान, मालभोग, अपरिमर्त्य, मर्त्यमान, चम्पक, चीनीचंपा, कन्हाईबाँसो, धीया, कालीबऊ, कांठाली, प्रभृति कई जाति के केले सर्वापेक्षा उत्कृष्ट रहते हैं। इनमें प्रथम चार पहली जेणी, द्वितीय चार दूसरी श्रेणी और तृतीय तीन तीसरी श्रेणी के केले हैं। मर्त्यमान को चाटिम वा मर्तवानो केला भी कहते हैं। संस्कृत में मर्त्य नाम से जिस कदली भेद का उल्लेख हुआ है, वह यही है । संस्कृत का चंपक चंपा नाम से विख्यात है इन सबमें विलकुल वीज नहीं होता। कांठाली जाति के अन्यान्य फलों में भी वीज न रहने पर भी जिसका नाम शुद्ध कांठाली प्रचलित है। उसमें भी बहुत दिन तक एक स्थान पर रहने से वीज पड़ने लगता इसके सिवा मदनी, मदना, तुलसी, मनुवाँ, रङ्गवीर, प्रभृति कई जाति के केलों में से किसी किसी में थोड़ा वीज होता है और किसी किसी में बिलकुल दिखाई नहीं देता, बंग देश में नाना प्रकार के बीजू केले होते हैं। इनमें यथेष्ट बीज रहने पर भी मिष्टता बढ़ जाती है। यशोहर में 'दगे' नामक एक प्रकार का बीजू केला होता है । इसका शर्बत, बहुत अच्छा होता है। कलकत्ते के निकटवर्ती स्थानों में 'डोंगरे' नामक जो बीजू केला, उपजता है, उसका फल खाया नहीं जा सकता, किन्तु मोचा अत्यन्त सुस्वादु लगता है । मोचे के लिये ही इसे लगाया जाता है 'सोया' नामक बीज केला के रस से भाँति भाँति के नेत्र-रोग श्राराम होते हैं । 'काँच' केला, 'कच्चा' केला, 'अनाजी' केला, प्रभृति केला 'काँच' केला की जाति के हैं। इस श्रेणी में नाना प्रकार के केले देख पड़ते हैं। पकने पर यह सुमिष्ट लगता है। पर तरकारी में ही अधिक व्यवहृत होता है। किसी ने इसे कच वा कच्छ भी लिखा है। क्योंकि इसे कच्छी पकाकर खाते हैं। यह अन्य केला की अपेक्षा बहुत बड़ा, यहांतक कि एक बित्ता तक लम्बा होता है । यह त्रिकोणाकार, बेमज़ा, चिपकता हुआ और फोका होता है । काँच केले को अंगरेजी में 'मुसा पाराडिसिका' (Musa l'aradisica) कहते हैं । 'काठाली' केले को कच्चा भी खाते हैं। इसका नाम 'ठा' केला है। अतः कांठाली जातीय केले को 'ठा' केला कह देते हैं। यह कंठालो जातीय 'कन्हाईबाँसो' केला कोई एक फुट से भी अधिक लम्बा होता है। और 'कालीबऊ' बहुत मोटा होता है। घीया कांठानी से घृतकी भाँति सुगंध निकलती है । यह उष्ण दुग्ध में डाल देने पर मक्खन की भांति घुलता है। पकने पर कांठाली केले का रंग कुछ पीला पड़ जाता है और चाटिम पोताभ पाता है। किंतु चाटिम के ऊपर फुटको-जैसे दाग़ उभरते हैं । चंपा केला पकने पर घोर पीत वर्ण का होता है। कांठाली परिपुष्ट होने पर कुछ चौ पहल तथा टेढ़ा, चाटिम गोल एवं सोधा अोर चंपा केला गोल और मोटा होता है । लाल केले को सिंदूरिया या चोना केला कहते हैं। मर्त्यमान और कांठाली केले का उद्भिज्ज शास्त्रोक्र नाम 'मुसा सापीण्टम्' (Musa sapientum) है। बंगाल में कांठालो जाति के केले का गूदाशस्य कुछ कड़ा होता है। पर 'मय॑मान' जातिवाले का शस्य अधिक श्वेत एवं मक्खन की तरह Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदली कोमल तथा 'चमक' जातिवाले का ईषत् श्रम्लरसयुक्त, सुगंधित एवं फल के मध्य पीताभ वर्ण होता है। कांठालो के फल का छिलका मोटा और चम्पा का पतला होता है । बंगाली मर्त्यमान 1 केले का ही अधिक श्रादर करते हैं । किंतु इस देश के युरोपीय प्रवासी 'चंपा' केले को अच्छा समझते हैं । कांठाली और कांच केले का व्यवहार अधिक है । २०११ दाक्षिणात्यले हिंदीगुल प्रदेश के पर्वत और वन में साधारणतः जो केला मिलता है उसे अँगरेजी में 'मूसा सुपर्बा' (Musa Superba ) कहते हैं । बेसिन प्रदेश का केला सुगंधिविशिष्ट होता है । भड़ोंच में यह प्रचुर परिमाण में उपजता है । नेपाल में होनेवाले केलों को 'नेपाली केला' वा 'अरटी' (Musane palensis) कहते हैं । मद्रास में होनेवाले, केलों में 'रसखली' नाम का केला सर्वोत्तम होता है । 'नण्डो' जातीय केले काशस्य अत्यंत कड़ा होता है । पर मद्रास के लोग इसे ही उत्तम समझते हैं और पाल डालने के उपरांत पकने पर बेचा करते हैं। 'पाछा' बहुत लंबा होता है । पर पुष्ट होते ही झुक पड़ता है । इसका हरापन पकने परभी नहीं बदलता । 'पेबेल्ली' केला मीठा होता है । परन्तु रंग ख़ाकी देता है । 'सेबेली' संज्ञक केला बहुत बड़ा होता और लोहित वर्ण दिखाई देता है । इसके अतिरिक्त बंथा, बंगला जमेई पे, सेरबा, जेन्नपान्नियान, पिदीमोथा प्रभृति कई दूसरी श्र ेणी के भी केले उपलब्ध होते हैं । मर्त्यमान केला चट्टग्राम और तेनासरिम प्रदेश बहुल परिमाण में उत्पन्न होता है। उक्त दोनों प्रदेश के दक्षिण मर्तवान उपसागर है । अस्तु, किसी किसी के कथनानुसार इसी उपसागर से प्रथम भारत में उक्त केले के थाने के कारण इसका 'मर्त्यमान' नाम पड़ा है । पर 'म' नामक कदली ही 'मर्त्यमान' केला कहाती है । बंबई में नौ प्रकार का केला होता है - बसरई, मुखेली, तांबडी, रजेजी, लोखसड़ी, सोनकेली, बेसली, करञ्जेली और नरसिंही। इनमें तांबड़ी केला लाल होता है । यहाँ कोकनी केला अत्यन्त में कदली सुस्वादु होता है । यह खसता होता है। इसके गूदे को सुखाकर भी बेचते हैं । r ब्रह्मदेश में पीत एवं स्वर्ण वर्ण नाना प्रकार का केला देख पड़ता है । सिंगापुर, मलय र भारतसागरीय द्वीपपुज में प्रायः ८० प्रकार के श्राहारोपयोगी केला उपजाते हैं । इसमें बहुत से वृहदाकार और सुगंधि विशिष्ट होते हैं । 'पिस्यांटिम्बाना' नामक केला लाल होता है । इसे वहाँ के लोग 'तामाटे' या 'कांकडा' केला कहते हैं । 'विस्यां मुलुत बेबेक' जातीय केले के तल में कुछ छिलका वक्रभाव से हंसकी चोंच जैसा निकल पड़ता है । 'पिस्यां राजा' को राजा केला कहते हैं । 'पिस्यासुसु' दूधिया केला कहलाता है । इस प्रकार के दूसरे केले का नाम सोनकेला है । शेषोक तीनों प्रकार के केले 1 श्रुति सुन्दर, सुमिष्ट और सुगंधि विशिष्ट होते हैं । ranीप में 'पियां टण्डक' नामक एक प्रकार का केला होता है । इसकी लंबाई प्रायः दो फुट होती है । कदाचित् बंगाल में इसे कन्हाईबांसी कहते हैं । यद्वीप में एक प्रकार का और केला होता है। इसके एक वृक्ष में एकही फल लगता है । अन्यान्य वृक्षों की भाँति उक्त मोचे के साथ कांड से नहीं निकलता, वह कांड के भीतर ही पका करता है । सम्पूर्ण पक जाने पर कांड फट जाता है। वह इतना बड़ा होता है कि एक फल से चार मनुष्यों का पेट भली भाँति भर सकता है । उपर्युक्त केलों को छोड़कर यवद्वीप में जो अन्य कांठाली या मर्त्यमान केले उत्पन्न होते हैं, उनमें बीज पड़ते हैं। इस श्रेणी के केलों को उस देश में 'पिस्यांबुट्ट' कहते हैं। फिलिपाइन द्वीप के पहाड़ी प्रदेश में उपजनेवाला केला इतना बड़ा होता है, कि एक मनुष्य को उसे उठाकर ले चलने में बोझ जान पड़ता है। मलयद्वीप के साधारण केले की अँगरेजी वानस्पतिक संज्ञा ( Musa glanea ) है । मारिशस द्वीप में गुलाबी रंग का मिलनेवाला har 'मुसा रोजेशिया' ( Musa rosacea ) कहलाता है । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदली २०१२ कदली पश्चिम भारतीय द्वीप में एक प्रकार का तुद्राकार बैंगनी केला होता है। इसकी गंध अत्यन्त मनोहारिणी होती है। उस देश के धनीमानी व्यक्ति इसी केले का समधिक श्रादर करते हैं। इस जाति के केले को अंगरेज फिगबनाना' ( Fig banana) कहते हैं। इसी जाति का एक प्रकार का क्षुद्राकार केला भी होता है। निम्न श्रेणी के लोग इसका भी अति आदर किया करते हैं। अँगरेज़ी में उसे 'फ्रिग सकरीयर' (Fig Suerier) या लेडी किंगर' (Lady Finger ) कहते हैं । लेडी किंगर की वैज्ञानिक लेटिन संज्ञा 'मुसा अोरिएण्टम्' ( Musa Orientum ) और 'फ़िग बनाना' का 'मुसा मसकुलाटा' ( Musa Musculata) केला प्रायः अरब के उपकूलों पर तथा यमन, अमान और बसरा में भी पाया जाता है, यह दो ईशन के बंदरगाहों में भी कम कम होता है। कहते हैं कि ये भारतीय केले की अपेक्षा अधिक सुस्वादु एवं मधुर होते हैं। । चीन देश में उपजनेवाला एक प्रकार खर्वाकार केला होता है। अँगरेजी इसे ( Dwarf pla. ntain) अर्थात् 'बौना केला' कहते हैं । यह दो प्रकार का होता है-'मुसा अोकसिनिया'( Musa occinea) और 'मुसा नाना' ( Musa nana)|चीनका एक केला 'मुसा कावेरिडशी' (Musa Cauendishi ) कहलाता है। इसके सिवा वहां श्रन्य खर्वाकार केले भी होते हैं। अफरीका और पश्चिम भारतीय द्वीप समूह में कांठाली और मर्त्यमान केला ही लगाया जाता। है। अबीसीनिया के अति सुन्दर केले का नाम 'मुसा इनसीट' ( Musa Ensete) है। . अमेरिका के फ्लोरिडा प्रांत का 'पोरङ्को' केला अति उत्तम होता है । यह उन प्रांत के सभी स्थानों में मिलता है। डाल का पका होने पर इसके सदगन्धसे मनुष्य,पशु और पक्षी तक उन्मत्त होजाते हैं। यूरोप के दक्षिण स्पेन में केला हुआ करता है। किंतु उसके उत्तर काच के मकान वा उष्णगृह के सिवा खुले क्षेत्र में यह नहीं उपजता । क्यूबा द्वीप में कहीं कहीं केला होता है। एतद्भिन्न अन्यान्य स्थलों में भी केला उपलब्ध होता है। प्रधानतः उषण प्रधान प्रदेशों में भी यह होता है । एशिया के पूर्व चीन एवं भारतीय : द्वीप समुदाय और पश्चिम तुर्की के अंतर्गत युफ्रेतिस नदी तट पर्यन्त समस्त देश में केला मिलता है। अन्यान्य अंश में जो भूभाग पृथिवी के मध्य भाग पर स्थित है, वहां ही यह पाया जाता है । भारत में हिमालय के शीत देश में केला दिखाई पड़ता है । उक्र पर्वत के पाद देश पर ३०० उत्तर अक्षांतर पर्यन्त यह अधिक उपजता है। मसूरी. कुमायू और गढ़वाल प्रदेश भी इसकी उत्पत्ति से वञ्चित नहीं, किंतु उक्र प्रदेश के केले में बीज के सिवा शस्य बहुत कम रहता है। समुद्र से ७००० फुट ऊवस्थान तक यह उत्पन्न हो सकता है। दक्षिण अमेरिका में अाजकल यथेष्ट केला लगाया जाता है। काराकास, गोयेना, डेमेरेरा, जामेका त्रिनिनाद प्रभृति स्थानों में बराबर कितनी ही भूमि पर इसकी कृषि होती है। चट्टग्राम प्रदेश के बनों में केले का वृक्ष इतना अधिक उपजता है। कि उसे देख विस्मित होना पड़ता है। वहाँ हाथी और गयाल नामक महिष जातीय पशु एक प्रकार के केले का वृक्ष खाकर जीवन धारण कर सकते हैं। पहाड़ी प्रदेश के केले अर्थात् मुसा पॉर्नेटा (Mnsa ornata) और वनजात केले को जंगली केला अर्थात् 'मुसा सुपर्बा' ( Musa . saperba) कहते हैं। चट्टग्राम प्रदेश में भी यह घास की तरह पर्याप्त होता है । अन्यान्य जगहों में खाली मैदान पड़ा रहने से जैसे दूर्वा, मुस्तक प्रभृति तृण उपजता है, वैसे ही चट्टग्राम के खाली मैदान में पहले घास के साथ केला भी निकल पड़ता था । लगाने में जितने केले उखाड़ कर फेंक दिये जाते थे, उनकी संख्या करना असंभव है। आजकल भी नये लगाये जानेवाले केलों का ऐसा ही हाल होता है। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदली २०१३ छोटे केले को जिसकी फली एक उँगली के • बराबर मोटी और लंबी होती है 'सोनकेला' और 'रायकेला' कहते हैं। बहुत बड़े केले का नाम "भैंसा" व "भैंसिया” है। 1 केले की कृषि कठिन, नीरस और केवल वालुकामय स्थान को छोड़कर अन्य सभी प्रकार की भूमि में केला लग सकता है। गीली और तालाब की निकली मट्टी में यह बहुत अच्छी तरह उत्पन्न होता है । केले में कचिला मट्टी और ख़ाक को खाद दी जाती है। कदली संबंधीय प्रवाद तालीफ़शरीफ़ नामक फ़ारसी के निघंटु ग्रन्थ में लिखा है कि केले से कपूर निकलता है। किन्तु ईन-अकबरी इस बात को नहीं मानता। हिंदी के व्रजचंद्र नामक किसी कवि ने भी नायिका भेद में जंघा का वर्णन करते हुये कहा है - " कपूर खायो कदली ।" परन्तु यह सत्य नहीं, कपूर इससे सर्वथा एक भिन्न वृक्ष से प्राप्त होता है । अंगरेजी में लोग इसे बाइबिलोक निषिद्ध फल बतलाते हैं । लडलफ के कथनानुसार बाइबिलोल 'डुडोइम' (Dudoim ) फल ही केला है । कोई-कोई इसे निषिद्ध फल न मान स्वर्गोद्यान में मानव का प्रथम खाद्य समझते हैं। अंततः चाहे जो हो पर स्वर्गोद्यान का संस्रव रहने से ही संभवतः केले का नाम पाराडिसिका ( Paradisic) पड़ा है क्योंकि अँगरेज़ी में पाराडाइज़ ( Paradisi ) स्वर्ग को कहते हैं । बंगालियों में भी केले के संबंध में इसी प्रकार की अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं । उनमें से एक के अनुसार केले के पेड़ पर गिरने से फिर वज्र स्वर्ग को उठकर नहीं जा सकता । चोर लोग इस वज्र को रात के समय चुपके से उठाकर खिड़की से लोहार के घर डाल श्राते हैं । और लोहार उससे चोर का खता बना उसी खिड़की में रख देते हैं । चोर भी रात को श्राकर चुपके से वह खंता उठा ले जाते हैं। इससे कहते हैं—चोर और लोहार कभी नहीं मिलते। दूसरा प्रवाद केले की षष्ठी देवी का कदली प्रिय खाद्य बतलाया जाता है । तीसरे प्रवादके अनु सार केला बुड्ढोंका खानेमें बहुत अच्छा लगताहै । इतिहास भारतवर्ष ही केले का श्रादि वास स्थान है । यह भारत के अनेक प्रदेशों में अब भी जंगली होता है । जहाँ तक ज्ञात होता है भारतवर्ष में इसकी कृषि प्रागैतिहासिक काल से हो रही है। इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं। प्लाइनी के अनुसार यूनानी सम्राट् सिकंदर महान ने जब ( ३२५ ई० सन् से पूर्व ) भारतवर्ष पर श्राक्रमण किया था, तो उसके साथियों ने भारतवर्ष में इसका अवलोकन किया था । उसके अनुसार ऋषि वा साधुगण उक्त वृक्ष की साया में ठहरते और इसका फल खाते थे । इसी से इसकी लेटिन संज्ञा (Sapientum ) हुई । मध्ययुग में इसने औषध रूप से कुछ प्रसिद्धि प्राप्त की । डिमक के मन से सावफरिस्तुस ( Theophrastus ) और प्लाइनी दोनों ने पल नामक एक वृत्त का उल्लेख किया है । उनके अनुसार इसकी पत्ती पक्षियों के पक्ष सदृश और तीन घन फुट ( Cubits) लंबी होती है। इसकी छाल से ही फल उत्पन्न होता है जो अपने मधुर एवं सुस्वादु स्वरस के लिये विख्यात है । इसका केवल एक फल ( गहर ? ) चार व्यक्तियों को तुष्ट करने के लिये पर्याप्त होता है । यह वृक्ष ही कदली अनुमान किया जाता है । 'पल' का अर्थ पत्र है । किंतु मुझे यह ज्ञात नहीं कि केले के अर्थ में कभी इसका प्रयोग हुश्रा है । (फा० इं० भा० ३ पृ० ४४३)। 1 श्राव्य भाषा में इसे 'मौज़' और 'तुलह ' कहते हैं । क़ुरान में 'तल्हू' नाम से इसका उल्लेख हुआ है । मौज़ शब्द के अंतर्गत Mesne ) इसके फल का उल्लेख करते हैं। उनके अनुसार यह कासयुत कंठ एवं उरः चत और वस्ति प्रदाह में उपकारी है । वे इसे कामोद्दीपक मूत्रल और मृदुरेचक मानते हैं. और शर्करा वा मधु के साथ पकाने की सिफ़ारिश करते हैं। इसके अत्यधिक सेवन से अजीर्ण हो जाता है । श्रडु Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदली २०१४ कदली हनीना (नवीं शताब्दी) ने केले के उत्पादन की विधि का यथावत् वर्णन किया है । इनके अतिरिक्त प्रवीसोना, राजी, सराबियून मीरमुहम्मद हुसेन, श्राज़मखाँ श्रादि । बहुश: यूनानी चिकित्सा शास्त्र के पंडितों ने भी इसके गुण धर्म आदि का विस्ह. तोल्लेख किया है। भारतीयों की दृष्टि में यह अति पवित्र वस्तु है। पूजा, श्राद्ध, विवाह आदि सकल कार्यों में केला व्यवहार में पाता है। हविष्यान में दसरा शाक खाना मना है। किंतु कच्चा केला पकाकर उसमें भी खा सकते हैं। बंगाल में पठी पूजा, विवाह और अधिवासादि मंगल कार्य के अवसर पर एक डाल का समूचा केला काम प्राता है। युक्र प्रदेश में सत्यनारायण की कथा, जन्माष्टमी और रामनवमी श्रादि पर केले के स्तंभ खड़े किये जाते हैं। बीच के कोमल पत्ते की झाँकी बनती है। मुसलमान भी पीरों को शोरीनो चढ़ाते समय केले से काम लेते हैं । वासंती और दुर्गा पूजा के समय नवपत्रिका में केले के कल्लं काम में प्राते हैं। भारतीयों के शुभ कर्म में केले का कल्ला मंगलचिह्न की भाँति व्यवहार किया जाता है। उत्सव, पूजा और विवाहादि के समय हिंदू द्वारा तथा पथ में केले के वृक्ष सजा देते हैं। हिंदुओं के विवाहादि संस्कार के समय केले की भूमि बनती है। इसी स्थान पर संस्कारार्ह व्यक्ति का स्नान कार्य, क्षौर कर्म, चूड़ाकरण, कर्णवेध, वरण इत्यादि होता है। बंबई की पतिरता कामिनियाँ कदली वृक्ष को धन एवं प्रायुप्रद समझ पूजती हैं । श्राद्ध में इसका कांडकोष अत्यन्त आवश्यक होता है । इसके द्वारा श्राद्धीय नैवेद्य, जल एवं फल प्रदान के लिये एक प्रकार की नौका प्रस्तुत होती है। पौष-संक्रान्ति को बंगाल की संतानवती रमणियाँ कदली के काण्डकोष की नौका बनाती और गेंदे के फूल से सजाती है । पुनः उसमें दिया जला पुत्र द्वारा नदी वा पुष्करणी के जल पर बहा देती है। यह व्रत भगवती भवानी के उद्देश्य से संतान की मनोकामना के लिये किया जाता है। आर्द्रक वा हरिद्रा वर्ग (N. 0. Scitaminece ) औषधार्थ व्यवहार-बल्कल, नाल, मूल, कन्द, कांड, पुष्प, पत्र, फल और मोचारस। रासायनिक संघट्टन-इसके पौधे में ३७०/० शुष्क द्रव्य होता है। इसके कल्ले में प्रत्यधिक टैनिक और गैलिक एसिड (कषायाम्ल) होते हैं । पूर्णतया परिपक्क फल में २२% शर्करा होती है, जिसमें १६% स्फटिक में परिणत होने योग्य होती है। फल के पूर्ण परिपक्क होने के उपरांत उक्त स्फटिक में परिणत होने योग्य शर्करा की मात्रा अनुपाततः घटकर इनवर्टेड शर्कराकी मात्रा परिवर्द्धित होजाती है. वही अत्यधिक पके हुये फल में स्फटिकीय और अस्फटिकीय दोनों प्रकार की शर्करात्रों का कुल जोड़ ( स्फटिकीय=२.८% + अस्फटिकीय-११ '८४० ) केवल १४.६४० अर्थात् मौलिक मात्रा का रह जाता है। शर्करा के अतिरिक्र इसमें श्वेतसार, अल्ब्युमिनॉइड्स ४.८ प्रतिशत,वसा १ प्रतिशत तक । अनत्रजनीय सार ( Extractives) ६ से १३% तक और भस्म जिसमें फॉस्फोरिक अन्हाइड्राइड, चूर्ण, 'ज्ञार, लौह और क्रोरिन प्रभृति होते हैं। पाये जाते हैं। इसमें प्रचुर मात्रामें वाइटामीन सी' और कुछ मात्रामें बाइटामिन 'बी'पाये जाते हैं । परंतु वाइटामीन 'ए' के सम्बन्ध में बहुत विवाद है। कहते हैं कि केले में वे जीवोज (Vitamins) पाये जाते हैं जो जीवोज 'ए' ( Vitamin 'A') की कमीके कारण उत्पन्न रोगों को निमूल एवं प्रतिरोध करने में समर्थ हैं; पर कम सीमा तक वा किसी प्रकार अत्यन्त मंदगति से । कदली गत जीवोज वर्द्धन शक्ति को बढ़ाते हैं। Promo tegrowth ) (नादकर्णी ई० मे० मे० पृ० ५७१-२) पके फल के छिलके की भस्म में (Carbonates of potash and soda), पांशुहरिद (Chloride of potassium) किंचित् सल्फेट संयुक्त क्षारीय फाँस्फेट्स से चूर्ण (Lime), सिलिका (Silica), मृण्मय फॉस्फेट्स ( Earthy phosphates) प्रभृति द्रव्य वर्तमान होते हैं। हरे वा कच्चे केले में प्रचुर मात्रा में कक्षायिन ( Tannin) होता है। इसमें श्वेतसार की मात्रा लगभग आलूगत श्वेतसार के बराबर ही होती है। पर पोषण की Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदली २०१५ कदली दृष्टि से यह उससे अधमतर होता है। केले का होती है। केले का फूल उससे भी अल्प गुण पुष्प-दण्ड-स्वरस पोटाश, सोडा, चूर्ण, मैग्नेसिया (अनुगुण) और कृमिनाशक होता है । केले का एल्युमिना ( जि.समें किंचित् Ferric acid कंद और पत्र शूल प्रशामक होते हैं । होता है) क्रोरिन, सल्फ्युरिक अन्हाइड्राइड, केले की पकी फली-कसेली, मधुर, वल फॉस्फोरिक अन्हाइड्राइड, सिलिका और कार्बन कारक, शीतल. रक पिन नाशक, गुरुतर, मंदाग्नि अनहाइड्राइड प्रभृति द्रव्यों से संघटित होता है वाले मनुष्य को अहित कारी सद्यः शुक्रवृद्धि कोमल मूल के स्वरस में अधिक मात्रा में कषायिन कर्ता, क्रमहारक (थकान को दूर करने वाली) तत्व ( Tannin) होता है। तृष्णानिवारक, कांति दायक, प्रदीप्त जठराग्नि औषधि निर्माण-कदल्यादि घृत, हिम वाले को सुखकारक, कफ के रोग उत्पन्न प्रपानक ( शर्बत), मुरब्बा, फल चूर्ण, चूर्ण का करती संतर्पण और दुर्जर-कठिनता से पचने विसकुट, पत्र व वृक्ष क्षार, पक्क-फल मद्य इत्यादि वाली है। इत्यादि। मोचाफलं स्वादु शीतं विष्टम्भि कफकृद् गुण-धर्म तथा प्रयोग गुरु । स्निग्धं पित्तास्र तृड्दाह क्षतक्षय समीरआयुर्वेदीय मतानुसार जित् ।। पाकं स्वादु हिमं पके स्वादु वृष्यञ्चहकेला णम् । क्षुत्तृष्णा नेत्रगदहन्मेहघ्नं रुचि मांस कदली मधुरा शीता रम्या पित्तहरा मृदुः। कृत् ।। माणिक्य * * * * * व.दल्यास्तु फलं स्वादु कषायं नाति शीतलम् ।। बहवोऽपि सन्ति । उक्ता गुणास्तेष्वधिका रक्तपित्तहरं श्रुष्यं रुच्यं कफकर गुरुः। भवन्ति । निर्दोषितास्य लघुता च तेषाम्। कन्दस्तु वातलो रूक्षः शीतोऽमृस्कृमिकुष्ठनुत् ॥ (भा० पू० वर्ग प्र. ६) (ध०नि० करबीरादि ४ व०) कच्चा केला-स्वादु, शीतल, विष्टंभी, कफ · केला-मधुर, शीतल, रम्य, मृदु और पित्त कारक (पाठांतर से कफ नाराक)भारी एवं नाशक है। स्निग्ध होता और रक्त पित्त, वृषा, दाह, क्षत क्षय, - केलेका फल-स्वादु कषैला, किंचित् शीतल- तथा वायु-इनको दूर करता है। पका केलारक्क पित्तनाशक, वीर्यवर्द्धक, रुचिकारक, कफजनक स्वादु, शीतल, मधुर पाकी, वृष्य एवं वृंहण है और भारी है। और क्षुधा, तृषा, नेत्ररोग तथा प्रमेह इनको दूर केले का कन्द-वातकारक, रूत, शीतल, करता और रुचिकारक एवं मांस वर्द्धक होता है। रक्तदोष, कृमि और कुष्ठनाशक है। केले की मणिक्य, मुक्ता, अमत और चम्पकादि बालं फलं मधुरमल्पतया कषाय पित्तापहं अनेक जातियां हैं इन सबमें उपयुक गुण होते हैं, शिशिर रुच्यमथापि नालम् । पुष्पं तदप्य किन्तु निदोषता और लघुता ये गुण अधिक होते हैं। नुगुणं कृमिहारि कन्दंपणं च शूलशमकं कदलीभवं स्यात् ॥ अपिच रम्भापक्कफलं कदली शीतला गुर्वी वृष्या स्निग्धा मधुः कषाय मधुरं वल्यं च शीतं तथा पित्तं चास्र स्मृता । पित्त रक्त विकारं च योनि दोषं तथा विमदेनं गुरुतरं पथ्यं न मन्दानले । सद्यः ऽश्मरीम् ॥ रक्त पित्तं नाशयतीत्येवमाचार्य शुक्रववृद्धिदं क्लमहरं तृष्णापहं कान्तिदं भाषितम्। दीप्ताग्नौ सुखदं कफामयकरं संतपणंदुर्जरम् ।। (शा० नि०. भू०) (रा० नि० अाम्रादि ११ व०) __केला ( साधारण फल )-शीतल, भारी, केले की कच्ची फली-मधुर, थोड़ी थोड़ी वीर्य वर्द्धक, स्निग्ध, मधुर तथा पित्त, रुधिर कसेली, पित्त नाशक, शीतल और रुचिकारी है। विकार, योनिदोष, पथरी और रक्क पित्त को दूर इसकी नाल (डंडो) भी पूर्वोक गुण विशिष्ट | करता है। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदली २०१६ कोमल कदलीफल कोमलं कदलं शीतं मधुरंच कषायकम् । यमलं समुद्दिष्टं पित्तनाशकरंच तत् ॥ ( शा० नि० भू० ) केले की कोमल फली - शीतल, मधुर, कषेली, रुचिकारी, खट्टी और पित्तनाश करने वाली है। मध्यम कदलीफल पित्तादि गद प्रमेहान् फलं कदल्यास्त रुणं निहन्ति । संग्राहिकं तिक्त कषाय रूक्षं तिक्तातिसारं शमयेज्ज्वरं च ॥ केले की तरुण फली - प्यास, रक्तपित्तादि रोग और प्रमेहों को दूर करती है तथा यह संग्राहिक, कडुई, कसेली और रूखी है एवं रक्तातिसार और ज्वर को शांत करती है । मध्यम कदलं किचित्तुवरं मधुरं गुरुः । अग्निमांद्यकरं चैव ऋषिभिः परिकीर्तितम् ॥ केले की तरुण (कुछ कच्ची और कुछ पकी ) फली- किंचित् कषेली, मधुर, भारी और मन्दाग्नि कारक है। । कदलं मधुरं वृष्यं कषायं नातिशीतलम् । रक्त पित्तहरं हृद्यं रुच्यं श्लेष्मकरं गुरुः । तदेव चम्पकाख्यन्तु वातपित्तहरं गुरुः । वृष्य वाति शीतञ्च मधुरं रसपाकयोः । कदली मोचकं हृद्यं कफघ्नं कृमिनाशनम् । तृष्णा सीहा ज्वरं हन्ति दीपनं वस्ति शोधनम् । कदल्या वलकृन्मूलं वात पित्तहरं गुरुः । ( राज० ) केले की साधारण फली - मधुर, वीर्यवर्द्धक, कसेली, किंचित् शीतल, रक्तपित्तनाशक हृदय को हितकारी, रुचिकारी, कफकारक और भारी है। चम्पक केला - वात पित्त नाशक, भारी, वीर्य वर्द्धक, अत्यंत शीतल, मधुर और पाक में भी मधुर है। केले का मोचा - हृदय को हितकारी कफ नाशक, कृमिनाशक, तृष्णा निवारक, प्लीहा नाशक, ज्वरहारक, दीपन और वस्तिशोधक है । कदली मूल - बलकारक, भारी और वात पित्त नाशक है। कदली संपर्क पनसं मोचं राजादन फलानि च । स्वादूनि कषायाणि स्निग्ध शीत गुरूणि च ॥ कषाय विषदत्वाच्च सौगन्ध्याश्च रुचिप्रदम् । ( चरक सू० २७ श्र० फ० व० ) खूब पका हुआ केला, कटहल और खिरनी इत्यादि फल मीठे, कसेले, स्निग्ध, शीतल और भारी होते तथा कषाय, विशद और सुगंधि युक्त होने से रुचिकारी होते हैं । मोचं स्वादुरसं प्रोक्तं कषायं नातिशीतलम् । रक्तपित्तहर' वृष्यं रुच्यं श्लेष्मकर गुरुः ॥ ( सुश्रुत सू० ४६ श्र० फ० व० ) पका केला मीठा, कसेला, किंचित् शीतल, रक्तपित्तनाशक, वीर्यवर्द्धक, रुचिकारक, कफजनक भारी है। कदली वर पक्कफलं मधुरं रुचिरं मृदु वात हरं शिशिरम् । क्षतज क्षय दाह निवार्य्यस्रजायुत पित्तविकार निवृत्तिकरम् | प्रदराश्मगदं निहरे ल्लघु च प्रतिबंधकरं बलं न सरम् । शनात्प्रथमं यदि भुक्तमिदं न शुभं शुभदं त्व शना विरतौ ॥ ( शा० नि० भू० ) केले की पकी फली - मधुर, रुचिकारक, कोमल, वातनाशक, शीतल तथा क्षतज, क्षय, दाह, रक्तपित्त, प्रदर और पथरी रोग को दूर करती है तथा हलकी निबन्धकारक, बलवर्द्धक, सारक नहीं और भोजन से प्रथम खाई हुई केले की फली शुभ नहीं है और भोजन करते समय हित है । पक्कं तु कदलं बल्यं तुवरं मधुरं गुरुः । शीतं वृष्यं शुक्रवृद्धिकरं सन्तर्पणं मतम् ॥ मांसक त्यरुचीनां च वर्द्धनं दुर्जरं मतम् । कफकृच्च तृषा ग्लानि पित्त रक्त रुजस्तथा ॥ मेह क्षुधा नेत्ररोगनाशकं परमं मतम् । मन्दाग्नीनां विकृतिदमृषिभिः परिकीर्त्तितम् ॥ (नि० र०) हृद्यं मनोज्ञं वृद्धि कारि शान्तश्च सन्तर्प Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदली णमेव वल्यम् । रक्तं सपित्तं श्वसनच दाहं रम्भाफलं हन्ति सदा नराणाम् || संग्राह्यपक्कञ्च सुशीतलन कषायकं वातकफंकरोति । विष्टम्भि बल्यं गुरुदुर्जर आरण्यरम्भा फलमेव ( श्रत्रि० १७ श्र० ) तद्वत् ॥ सामान्य कदली फल - हृदय को हितकारी मनोज्ञ, कफवृद्धिकारक, शान्तिकारक, तृप्तिदायक बलवर्द्धक, तथा रक्तपित्त एवं श्वसन — और दाह को दूर करता है। केले की कच्ची फली - संग्राही सुशीतल, कषेली, वातकफकारक, बलवर्द्धक, भारी और दुर्जर — देर में पचनेवाली होती है । जंगली केले के गुण इसी के समान जानना चाहिये । कदलीकन्द - रम्भामूल | केराकन्द - हिं० । कलार एटे - बं० । अरटिंदुप - ते ० । शीतलः कदलीकन्दोबल्यः केश्योऽम्ल पित्तजित् । वह्निकृद्दाहहारीच मधुरो रुचिकारकः ॥ (मद० ० ६ ) ( भा० पू० खं० वर्ग प्र० ६ ) केराकन्द - शीतल, बलकारक, बालों के लिए हितकारी, अम्लपित्तनाशक, श्रग्निवर्द्धक, दाहनाशक, मधुर और रुचिकारक है। २०१७ कन्दःऋदल्या रूक्षः स्याद्वतिलस्तुवरो गुरुः । शीतोवल्योमधुरः केश्यो रुच्योऽग्निमांद्य कारकः ॥ कर्णशूलं चाम्लपित्त' दाहं रक्त रुजं तथा सोमदोष रजोदोष कृमीन्कुष्ठं च नाशयेत् ॥ (नि० ० ) " केले का कन्द - रूखा, वातल, कषेला, भारी, शीतल, वलकारक, मधुर, केशों को हितकारी, रुचिजनक, मन्दाग्निकारक तथा कर्णशूल, अम्लपित्त, दाह, रुधिर विकार, सोमदोष, रजोदोष, कृमि और कुष्ठ – इनका नाश करता है । बल्यः कदल्याःकन्दः म्यात्कफपित्तहरो गुरुः । वातलो रक्तशमनः कषायो रूक्ष शीतलः ॥ कर्णशूलं रजोदोष सोमरोगं नियच्छति । केले का कन्द - बलकारक, कफपित्तनाशक, भारी, वातकारक, a. विकार को दूर करनेवाला कला, रूखा, शीतल तथा कर्णशूल, रजोदोष, और सोमरोग दूर करता है । 1 कदली कुसुम - रम्भापुष्प । केले का फूल । -हिं० । कलार मोचा वा फूल - बं० । ३३ फा० कदली कल्याः कुसुमं स्निग्धं मधुरं तुवरं गुरुः । वातपित्तहरं शीतं रक्तपित्त क्षय प्रगुत् ॥ (वै० निघ ) केले का फूल - स्निग्ध, मधुर, कपेला, भारी, शीतल, और वातपित्तनाशक है, तथा रक्त पित्त और क्षय रोग को नाश करता है 1 पुष्पं कदल्याः सुस्निग्धं मधुरं तुवरं गुरुः । ग्राहितिक्कं चाग्निदीप्तिकर वातविनाशनम् ॥ किञ्चिदुष्णं च वीर्ये स्याद्रक्तपित्तं क्षयंकृमीन् । पित्तं कफ नाशयतीत्येवं च ऋषिभिर्मतम् ॥ (नि० र० ) केले का फूल - स्निग्ध, मधुर, कषेला भारी, ग्राहि-मलरोधक, कड़वा, श्रग्निदीपक, वातनाशक किंचित् उष्णवीर्य तथा रक्तपित्त, क्षय, कृमि, पित्त और कफ का नाश करनेवाला है । कदली जल - कदली रस, कदलीसार, केले का रस, केले का पानी, कलार जल बं० । कदल्यास्तु जलं शीतं ग्राहकं मूत्रकृच्छ्रहत् । तृषां कर्णरोगं चातिसारञ्च नाशयेत् ॥ अस्थिस्रावं रक्तपित्तं विस्फोटं रत्तपित्तकं । योनिदोषञ्च दाहञ्च नाशयेत्" 11 कदली -- शीतल एवं संग्राही है । तथा यह मूत्रकृच्छ, प्रमेह, तृषा, कर्णरोग और श्रतिसार इनको दूर करता है तथा अस्थिस्त्राव, रक्तपित्त, विस्फोट, योनिदोष ओर दाह इनका निवारण करता है । ........ सारं कदल्याः संग्राही चाप्रियंगुरुशीतलम् । तृड्दाह मूत्रकृच्छतिसारमेहांश्च सोमकम् अस्थिस्रावं रक्तपित्तं विस्फोटांश्चैवनाशयेत् । (वै० निघ० ) कदली सार-संग्राही, अप्रिय, भारी और शीतल है । तथा तृषा, दाह, मूत्रकृच्छ, अतिसार, प्रमेह, सोमरोग, अस्थिस्राव, रक्तपित्त और विस्फोट इनको नष्ट करता है। रम्भातोयं शीतलं ग्राहि तृष्णा कृच्छन्महाकर्णरोगातिसारान् । अस्राव स्फोटका रक्तपित्तं दाहं हन्यादस्रयोनिं च शोषान् ॥ केले का जल - शीतल तथा ग्राही है और Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदली २०१८ कद ली मूत्रकृच्छ , तृषा, प्रमेह, कर्णरोग, अतिसार, रुधिर स्राव, स्फोटक, रक्तपित्त, दाह, रुधिविकार, योनि रोग और शोष—इनको दूर करता है। कदलीदण्ड-कदलीनाल । केले के वृक्षस्तंभ के भीतर का सफ़ेद कोमल दण्डवत् भाग। कंजियाल, थोड़। योनिदोषहरो दण्ड: कादल्योऽमृग्दरं जयेत् । रक्तपित्तहरः शीत: सुरुच्योऽग्निवर्द्धनः ॥ कदलीदण्ड–रक पित्तनाशक, शीतल, रुचिजनक, अग्निवर्द्धक,योनिदोषनाशक और असृग्दररक्तप्रदर को दूर करता है। कदलीमूल केले की जड़वल्यं वातपित्तघ्नं गुरु च। यह वलवर्द्धक, भारी और वात पित्तनाशक है। कदलीवल्कल-केले की छाल वा बकला कलार पेटो-बं०। तिक्तं कटु लघु वातहरश्च । (वै० निघ०) केले की छाल-कडु ई. चरपरी, हलकी और वातनाशक है। ___ कदली भेद___काष्ठकदलीस्यात्काष्ठकदली रुच्या रक्तपित्तहरा हिमा। गुरुर्मन्दाग्नि जननी दुर्जरा मधुरा परा॥ (ध०नि० । रा०नि०) काष्ठकदली ( कठकेला) रुचिकारी, शीतल, भारी, मंदाग्निकारक, दुर्जर और अत्यन्त मीठी होती है। तृष्णादाह मूत्रकृच्छ, रक्तपित्तघ्नी विस्फोटकास्थि रोगहरी च । वै० निघ०) यह तृषा (प्यास), दाह, मूत्रकृच्छ , रक्रपित्त, विस्फोट और अस्थिरोग का नाश करनेवाली है। (यह ग्राही और हृद्य है) कृष्णकदलीकृष्णा तु कदली रुच्या तुवरा मधुरा लघुः। वायोर्धातोर्वृद्धिकरौ मेहपित्त तृषा हरा ॥ (वै निघ०) ___ काला केला-रुचिकारक, कषेला, मधुर, हलका, वातकारक, धातुवर्द्धक तथा प्रमेह, पित्त और तृषा को दूर करता है। गिरिकदली (और आरण्य कदली-जंगली केला) गिरिकदली मधुर हिमा बलवीर्य विवृद्धिदायिनी रुच्या । तृपित्त दाह शोषप्रशमन कों च दुर्जरा च गुरुः ।। (रा० नि० व० ११) पहाड़ी केला-मधुर, शीतल, रुचिकारक, दुर्जर, भारी तथा बलवीर्यवर्द्धक है ओर प्यास, दाह, पित्त और शोष को निवारण करती है । (इसका फल कषेला, मधुर और भारी है) सुवर्ण कदलीसुवर्णमोचा मधुरा हिमाच स्वल्पाशने दीपनकारिणी च। तृष्णापहा दाह विमोचनी च कफावह (कफापहा ) वृष्यकरी गुरुश्च ।। (रा०नि० व० ११) अम्लवद्धनीति दृष्टफलंसोनकेला-मधुर, शीतल और थोड़ा खाने से जठराग्नि वर्द्धक है तथा प्यास को बुझानेवाला, दाहनाशक, कफवर्द्धक (कफनाशक ), वीर्यवर्द्धक और भारी है। निघण्टु रत्नाकर में वल्य और अग्निदीपक इतना अधिक लिखा है । ___ चम्पक कदली- चम्पकरम्भा, सुवर्णकदली (रा.), वातपित्तहरं गुरु वीर्यकर अतिशीतं रसे पाके च मधुरम् । (रा०नि० व० ११ राज.) चम्पा केला-वातपित्तनाशक, भारी, वीर्यजनक, अत्यन्त शीतल तथा रस और पाक में मधुर है। सोनकला-कफवात नाशक, विष्टम्भकारक, अग्निप्रदीपक, दुर्जर, दाहनाशक और रक्तपित्तनाशक है। महेन्द्र कदलीमहेन्द्र कदली चोष्णा वातस्य च विनाशिनी। प्रदरं पित्तरोगं च नाशयेदिति कीरिता ॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदलो २०१६ कदली महेंद्रकदली-गरम और वात नाशक है तथा प्रदर एवं पित्तज रोगों को नष्ट करती है। केले के वैद्यकोक्त आमयिक प्रयोग सुश्रत-कर्णरोग में कदलीस्वरस-कर्णशूल के प्रतीकारार्थ केले के दण्ड-स्वरस को सुहाता गर्म कर उससे कर्णपूरण करें। यथा"कदल्याः स्वरसः श्रेष्ठः कदुष्णः कर्णपूरणे" ( उ० २१ अ.) चक्रदत्त-प्रदर रोग में अपक्क कदलीफलछिलके सहित कच्चे केले को चूर्ण कर गुड़ मिला कफपित्त जनित अमृग्दर रोग में सेवन करावें । यथा"गुड़ेन रदरीचूर्णं मोचमामम्" (असृग्दर चि०) वङ्गसेन–सिध्मरोग में कदली-क्षार-केले का क्षार और पिसी हुई हलदी को एकत्र मिला लेपन करने से सिध्म रोग का नाश होता है । यथा "सिध्मम् क्षरेण वा कदल्या रजनी मिश्रेण 'नाशयति" । (कुष्ठ चि०) (२) सोमरोग में पक्क कदली फल-कच्चा श्रामले का स्वरस, चीनी और मधु के साथ पका केला खाने से सोम रोग जाता रहता है । यथाकदलीनां फलं पक्कं धात्रीफल रसं मधु । शर्करासहितं खादेत् सोमधारण मुत्तमम्।। (सोम रोग-चि०) भावप्रकाश-श्वास रोग में कदली पुष्प-- केला कुन्द और सिरस इन तीनों के फूलों को छोटी पीपरों के साथ पीसकर चावलों के पानी के साथ पीने से श्वास रोग नाश हो जाता है । यथा रम्भा कुन्द शिरीषाणां कुसुमं पिप्पलीयुतम् । पिष्ट्वा तण्डुल तोयेन पीत्वा श्वासमपोहति। (भा० श्वास-चि०) नोट-यह योग “सुश्रुत" में भी पाया है। बसवराजीयम्-कास में कदलीफल योगकेले का फल एक भाग और काली मिर्च का चूर्ण अर्ध भाग दोनों को खूब मिलाकर खाने से पुरातन | श्लेष्म विकार वा कास दर होता है। यथा विकारे श्लेष्मणा जाते भक्षयेत्कदली फलम् । मर्दितै मरिचैस्सार्धं हन्ति श्लेष्म चिरन्तनम् ॥ (अष्टमप्रकरण पृ० १४६) बक्तब्य प्राचीन निघण्टु ग्रन्थों में 'मोचा' शब्द का व्यवहार कदली वृक्ष के अर्थ में हुआ है। राजवल्लभकार ने मोचा (कदली-पुष्प) के अर्थ में मांचक शब्दका व्यवहार किया है। राजनिघण्ट्रकार ने कदली कन्द-कदली पुष्प और कदली नाल के गुण पृथक्-पृथक् निर्देश किया है। इनके मत से केले का पत्ता शूल प्रशमक है ।चरक के 'दशेमानि' वर्ग में कदली का पाठ नहीं आया है । सुश्रुत ने क्षारयोग्य वृक्ष वर्ग में कदली का पाठ दिया है। (सू० ११ अ.)। कदली कंद संभव क्षार जल को कोच बिहार के लोग 'छ्याँका' कहते हैं । उक्त छयाँका लवण के बदले व्यंजन में पड़ता है। विशेषतः शाक पाक काल में छयाँका का व्यवहार उसमें भी अधिक होता है। वहाँ यह प्रथा बहुत काल से प्रचलित है। टीकाकार विजय रचित ने लिखा है "क्षारोदक साधितं व्यजनमनन्ति कामरूपादौ" (ग्रहणी ब्याख्या मधुकोष) गरीब लोग केले के क्षार से मैला कपड़ा धोते हैं। यूनानी मतानुसार गुण दोष प्रकृति--प्रथम कक्षा में गर्म एवं तर। किसी किसी के मत से समशीतोष्णानुप्रवृत्त । मतांतर से सर्दी और गर्मी में मातदिल और तर द्वितीयकक्षा में है । कच्चा केला शीतल है। किसी-किसी के मत से इसकी जड़ उष्ण एवं रूत है । __ हानिकर्ता-वायु और श्लेष्मा उत्पन्न करता है। सुद्दा (अवरोध) डालता है। श्राध्मानकर्ता है। अति मात्रा में भक्षण करने से यह प्रामाशय को निर्बल करता है। यह कुलंज और पेचिश पैदा करता है। पाचन शिथिल हो जाता है। प्रधानत: शीतल प्रकृतिवालों के अंगों और अंड के भीतर पानी उतर आता है विशेषतः उस समय जब इसके ऊपर पानी पिया जाय । वैद्यों के कथनानुसार मूत्रगत पीतवर्णता और प्रौदरीय प्रदाह उत्पना करता है। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदली २०२. कदली दर्पनाशक--लवण, मधु और शुण्ठी वा (सोंठ का मुरब्बा ) तथा शर्करा । वैद्यों के मतसे उष्ण जल और काली मिर्च । प्रतिनिधि--शर्करा और कन्द-मिली। गुण, में प्रयोग-यह अल्पाहार कलीलुल ग़िजा और प्रकृतिमार्दवकर है। सांद्रता के कारण इसका अधिक भक्षण अवरोधजनक है। शैत्योत् पादन के साथ साथ यह प्रामाशय में अधिक तरी भी उत्पन्न कर देता है । अस्तु यह गुरु एवं विष्टंभी | है। यह भक्षण करनेवाले की प्रकृति के अनुकूल पित्त एवं श्लेष्मा उत्पन्न करता है । निज मार्दव कारी गुण के कारण वक्ष और कंठगत दाह को लाभकारी है। अपनी रतूबत फज़लिया अवशिष्ट आर्द्रता के कारण शुक्र वृद्धि करता है और वृक्तक एवं वस्ति के लिये सात्म्य है । क्योंकि मूत्र प्रवर्तन करता है।-त० न०। केला अत्याहार-कसीरुल गिज़ा, कांतिकारी (जाली ) स्थौल्यकर, चिरपाकी, हृद्य और वक्ष मार्दवकर है तथा यह शुष्क कास एवं तालु और कंठगत दाह एवं कर्कशता (खरखराहट) को लाभ पहुंचाता है। यह प्रामाशय को वेदित करता अतिसार को नष्ट करता और ( उष्ण प्रकृति वालों को) कामोद्दीपन करता है। मु. ना. बु० मु० । ___ यह वृक्क की कृशता को दूर करता है। सिरके और अर्क नीबू के साथ इसका प्रलेप खालित्य वा गंज, कंडू तथा खज रोग को लाभकारी है। इसकी पत्तियों का प्रलेप शोथ विलीनकर्ता है। इसका छिलका जलाकर अवचूर्णित करने से व्रण द्वारा स्रावीभूत रन रुकता, व्रण पूरण होता और घाव सूख जाता है। इसकी जड़ पिलाने से उदरज कृमि निःसरित होते हैं । इसका नोहार मुह खाना हानिकर है । इसके भक्षणोपराँत जल पान करना भी अहितकर है। -बु० मु०। : कदलीमूल शीतल एवं शरीर शनियों और अंगों को बलप्रद तथा कफ, पित्त एवं रक्त विकार नाशक है। सूज़ाक में इसे पानी में पीसकर पीने से उपकार होता है पर कहते हैं कि इससे कामापसाय उत्पन्न होता है। जामा इब्न बेतार के कथनानुसार इसका पका मीठा फल प्रथम कक्षा के मध्य में उष्ण और प्रथम कक्षा के अंत में तर है। इसका कच्चा फल शीतल, तर, गुरु, प्राध्मान कारक और कफकारक है तथा पित्त, वात एवं रक्त के दोष वक्ष प्रदाह और प्राघात-प्रत्याघात जनित क्षतों का निवारण करता है । उष्ण प्रकृति वालों के काम का उद्दीपक और बृक्त की कृशता एवं वर की कर्कराता को लाभकारी है। भारत निवासी इसके कच्चे फल को गोश्त के साथ वा बिना गोश्त के पकाकर खाते हैं. यह शुक्रप्रद, कामशकिप्रद और मस्तिष्क वलप्रद है, ऐसा लेखक के अनुभव में भी पाया है । यह आमाशय को निर्बल करता तथा भारी है । इसका दर्पघ्न इलायची का दाना है । यूनानी चिकित्सा शास्त्र विद् इसका अवगुण नाशक कंद-मिश्री तथा सोंठ का मुरब्बा लिखते हैं-ता० श०। यह अत्याहार-क़सीरुल गिजा और चिरपाकी है। पाचनोपरांत सांद्र एवं श्लेष्मीय रक उत्पन्न करता है। यह शरीर को स्थूल करता और उल्लास प्रद है तथा वक्ष में मृदुता उत्पन्न करता एवं उष्ण प्रकृति वालों को कामोद्दीपक है । यह व्रणादि को कांति प्रदान करता और वृक्क-कार्य का निवारण करता है और शुष्क कास एवं कंठस्थ कर्कशता एवं दाह को लाभ पहुंचाता एवं अतिसार वा दस्त को बंद करता है । परन्तु शेख के मत से यह मृदुसारक-मुलरियन है । इसके अत्यधिक मात्रा में सेवन करने से पेट में भारीपन उत्पन्न होता है। वैद्यों के मत से भारी नहीं है । अनुभवी लोगों का कहना है कि यदिकेला भक्षण करने से पेट में गुरुत्व एवं विष्टंभ उत्पन्न हो जाय,तो गोटी किस्म का कालादाना ३॥ माशे पीसकर शीतल जल से खा लेवें । तुरन्त उपकार होगा। उत्तम यह है कि उष्ण प्रकृतिवाला इसे खाकर थोड़ी सी सिकञ्जवीन बजूरी चाट ले और शीतल प्रकृति वाला मधु चाट ले । यह वस्तिगत दाह का निवारण करता, अधिक पेशाब लाता और निज प्रभाव से कुत्ते के लिए बिष है। __ सिरका और नीबू के रस के साथ प्रलेप करने से खाज तथा सिरका गंज प्राराम हो जाता है। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदली खरबूजे के बीजों के साथ इसे पीसकर लगाने से छपवा झांई मिटती है । २०२१ इसके मर्दन करने से कपोलों का रंग निखता है। इसकी पत्ती गर्मी की सूजन पर बांधने से सूजन उतर जाती है । केले के पेड़ की जड़ उदरज कृमि को नष्ट करती है । यह जलत्रास वा हलकाव रोग को लाभकारी है । यदि स्त्री केले की फली के महीन चूर्ण का हमूल करे - योनि में पिचुवर्ति धारण करे, तो गर्भ रह जाय । जाद ग़रीब में लिखा है कि कदली वृक्ष-कांड को ज़रा सा चीरकर रात को उससे मिला एक बरतन रख देवें, जिसमें पानी टपक कर उक्त पात्र में एकत्रित होजावे । दिन में उसे लेकर उस आदमी को पिलावें, जिसे सदाह मूत्र श्राता अवश्य उपकार होगा । जब कोई प्राणी बिष के कारण आसन्नमृत्यु हो, तब उसे ले के पेड़ का पानी तीन-तीन छटाँक की मात्रा में श्राध श्राध घण्टे पर पिलाना चाहिये | शीघ्र लाभ होगा । 1 विद्वानों का कथन है कि साँप केले से भागता है । अस्तु, कदली वृक्ष चाहे कितनी ही न झाड़ियों के मध्य हो ( सिवाय एक बिशेष प्रकार के साँप के जो हरे रंग का होता है और देश के केवल कतिपय विशिष्ट भागों में पाया जाता है ), उनमें साँप कदापि नहीं मिलेगा । ज्योंही किसी को सर्प काटे, उसे चाहिये कि केले के पेड़ से तुरत ताजा श्रर्क निकालकर दो प्याले की मात्रा में पिला देवें । यह उपचार अनुभव द्वारा ६४ प्रतिशत सफल प्रमाणित हो चुका है केले का ताजा धर्क यद्यपि बे स्वाद होता है । किंतु परीक्षित उपाय है 1 1 केले का नीहार मुँह खाना उत्तम नहीं तथा शीतल प्रकृति को एवं शीतल स्थान में हानिप्रद है । उष्ण प्रकृति को एवं उष्ण स्थान में साम्य और गुणकारी है। वैद्यों के वर्णनानुसार इसकी कच्ची फली कदली शीतल और रूक्ष किंचित् बिकसी और कड़बी है । पकी फली उष्ण और तीच्ण है। किसी से मत से शीतल मधुर, स्निग्ध और किंचित् विक्रसी है । इसके तने का गामा बिकसा और शीतल है। इसका पानी किंचित् तिक एवं शीतल है। इसको जड़ भी शीतल है। कच्ची फली की तरकारी शुक्रमेह, वीर्यस्राव और स्वदोषाधिक्य में उपकारी है। इससे रक्ता तिसार श्राराम होता है । 1 पकी फली गुरु एवं वल्य और देह स्थौल्य कारक है । यह प्यास बुझाती कास श्वास को दूर करती है | इससे वात, पित्त एवं रक्त के दोष मिटते और वक्ष गत प्रदाह का नाश होता है । पकी फली खाने से बहुमूत्र रोग मिटता है । किंतु यूनानियों ने इसे मूत्र - प्रवर्त्तक लिखा है । के गुह्यांग से जो श्वेत द्रव स्रावित होता है, उसके लिये इसकी पकी फली खिलाना चाहिये । बहुमूत्र रोगी को वैद्य लोग एतत्साधित घृत सेवन कराते हैं । श्रग्निदग्ध और छालों की दाह मिटाने के लिये शिशु केले के पत्र खिलाना चाहिये । जिस रोग में गीली पट्टी बाँधी जाती है, उसे गीली बनी रहने के लिये, उस पर कदली- पत्र बाँध देना चाहिये । दुःखती हुई श्राँख पर वा श्राँख के ऊपर छांह रहने के वाँधना चाहिये । विसूचिका जन्य पिपासा शमनार्थ केले के तने का स्वरस पिलाना चाहिये श्रथवा उससे गण्डूष कराना चाहिये । उक्त स्वरस द्वारा गडूष करने से मसूढ़े के रोग आराम होते हैं । देह को सुदृढ़ एवं बलिष्ठ बनाने के लिये केले की फली अत्युत्तम फल है । आग से जल जाय, तो उस पर केले की फली का प्रलेप करें । केले को उबाल कर श्रातशक के क्षतों पर बाँधना चाहिये | कदली वृत्त मूल को कथित कर पिलाने से त्रस्थ कृमि मृत प्राय होते हैं । अन्य नेत्र रोगों में लिये, कदली- पत्र Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदली पित्त प्रकृति वालों को केले की फली खाने से श्रामाशय, यकृत तथा फुफ्फुस और मूत्र की गर्मी मिट जाती है। I २०२२ केले की छोटी और पकी फली खिलाने से चिरकालानुबंधी अतिसार और श्राँव बंद होते हैं । केले की बड़ी क़िस्म की सूखी फली खिलाने से मसूढ़े के रोग थाराम होते हैं । - कर कदली क्षार निर्माण विधि — केले के वृत्त को जलाकर उसकी राख को छः गुने पानी में घोलकर श्रष्ट प्रहर पर्यन्त घर रखें । तदुपरांत उसे भली भाँति सलकर गाड़े कपड़े में छानकर स्वच्छ जल ले लेवें । पुनः उक्त जल को मिट्टी वा कलई चड़े हुये पात्र में भर कर भाग पर चढ़ा श्रौटा । जब जल मात्र जल कर तल भाग में चूने की तरह की एक चीज़ शेष रह जाय, तब उसे उतार सुखा कर बोतल में भरकर रख लेवें यह लवण की जगह काम श्राती है और अम्लपित्त को मिटाता है । उपविधि से केले के पत्र और छाल को भी जलाकर नमक निकालते हैं इसकी राख में इतनी शोरियत है कि बंगाले में रजकगण इसे साबुन की जगह काम में लाते हैं। केले की कच्ची • फलियों को छील कर पकावें और दही में मलकर शक्कर वा नमक मिर्च डाल कर खिलायें, इससे दस्त और श्राँव बंद होते हैं । 1 पुरानी इमली का गूदा थोड़े पानी में मलकर उसका शीरा - निकालें। फिर उसमें पकी फली का गूदा और पुराना गुड़ वा मिश्री मिलाकर प्रॉव पड़ने के प्रारम्भ में पिलायें । हरे कच्चे केले को दूध में सुखाकर महीन पीस 1 लें । मंदाग्नि वाले को उक्त श्राटे की रोटी बनाकर खिलाने से न तो उसे अध्मान होता है और न मोद्गार श्राते हैं। केले की फली के आटे की रोटी लवण के साथ देने से शिशु के दस्त और बन्द होते हैं । केले की कोमल जड़ के स्वरस में दम्मुल श्रवैन - ख़ना खराबा पीसकर पिलाने से उदर शूल मिटता है । केले का खार थोर खाँड पानी में मिलाकर कदली 1 पिलाने से दिल की गर्मी शांत होती है। केले की कच्ची फली खिलाने से रक्त वमन श्रौर बहुमूत्र रोग श्राराम होता है । इसकी फली में लवण मिलाकर खिलाने से ब बंद होती है। इसकी जड़ पीसकर पिलाने से पित्त विकार शांत होता है। काल्पता वा पांडु रोग अर्थात् पित्त में इसकी जड़ पीसकर पिलाना चाहिये । केले की जड़ का रस सुर्खवादा और रोमा दूर करता है । उस शिशु को, जिसे मात्रा से अधिक अफीम देदी हो, केले की छाल और पतों का रस पिलाना चाहिये । इसकी छाल के श्रढ़ाई तोले रस में हल करके पिलाने से पेशाब की रुकावट मिटती है। 1 इसके फूलों के रस में दही मिलाकर खिलाने से श्रव और असमय ऋतु का श्राना श्राराम होता है । केले की कच्ची फली सुखा पीसकर बालकों को फँकाने से उनके दस्त बन्द होते हैं । केले की कच्ची फलियाँ सुखा-पीसकर उसमें खाँड मिलाकर फेंका देवें और ऊपर से दूध की लस्सी पिला देवें । इससे सूज़ाक श्राराम होता है । संखिया का ज़हर उतारने के लिये कदलीमूल स्वरस पिलायें । केले की जड़ के स्वरस में घृत और शर्करा मिलाकर पिलाने से सूज़ाक श्राराम होता है । पुराने दस्त बंद हो जाने के उपरांत शेष रहे हुए अजीर्ण के लिये केले की कच्ची फली की तरकारी बनाकर खिलाते रहें । इसके पेड़ का रस सुंघाने से नकसीर बंद होती है । इसकी जड़ आदमी के पेशाब में पीसकर कुछ गर्म करके कपड़े पर लगाकर बद पर बाँधने से वह विलीन हो जाती है । इसका फल घी में तलकर काली मिर्च के साथ खाने से कफ का विकार दूर होता है । कदलीमूल - स्वरस में समान भाग मधु मिलाकर पिलाने से वमन बंद होता है । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदली २०२३ इसका रस पिलाने से शराब का ज़ोर कम हो जाता है। इसके पके फल और आँवलों के रस में मधु और खाँड़ मिलाकर सेवन करने से सोम रोग नष्ट होता है । इसके खार और हलदी के प्रलेप से श्वित्र के धब्बे दूर होते हैं । इसके पत्तों की राख में थोड़ा लवण मिलाकर फंकी देने से खाँसी और कफ दूर होता है । केले के तने का रस पिलाने से मूत्र प्रणालीस्थ प्रदाह का निवारण होता है । केले के पीले पत्तों को कड़ ुए तेल में जलाकर, उस तेल में मुरदासंख मिलाकर लगाने से श्वित्र धब्बे दूर होते हैं । इसके पके फल की २४ तोले निरंतर ४१ दिन तक खाने से दूर होता है । - ० ० नव्य मत मींगी घी के साथ पुरखोरी का रोग खोरी - कदलीफल तर्पक, पोषक एवं कषाय है । यह गलक्षत, शुष्क कास एवं मूत्रकृच्छ्रादि वस्ति - उत्तेजनजात पीड़ाथों में हितकर है | कदलीमूल क्रिमिन है । शुष्कीकृत श्रपक्क कदली-चूर्ण उत्तम पुष्टिप्रद खाद्योषध है । यह उदरामयग्रस्त रोगी के लिये प्रशस्त पथ्य है । पुराण कास रोग में केले का शत ( Syrup) फलप्रद होता है। रक्त पित्त एवं रक्त निष्ठीवन रोग में केले के तने में चीरा देने से निर्गत हुआ रस पिलाने से बहुत उपकार होता है । इसकी कोमल पत्तियाँ व्रण वंधनादि के लिये 'गट्टा पाच' की प्रतिनिधि स्वरूप काम में श्राती हैं । अधिकन्तु यह ब्लिष्टर के लिये स्निग्ध एवं शीतल ग्राच्छादक है । एतद्देशीय लोग नेत्ररोग में केले के नये कोमल पत्ता द्वारा नेत्र को श्राच्छादित कर रखते हैं । इसमें चक्षु शीतल रहता है और सूर्यात्ताप से सुरक्षित रहता है । (मेटीरिया मेडिका ग्राफ इण्डियाश्रार० एन० खोरी - २ य खंड, पृ० ५६६ ) डिमक - एमर्सन के अनुसार कदली वृक्ष का रस विशुचिका जात तृष्णा प्रशमनार्थ व्यवहृत होता है | पेरीरा ( मेटीरिड मेडिका-२ खं०, पृ० २२२ ) ने अपक्व कदली- फल-चूर्णका पुष्टिक कदली रत्व गुण स्वीकार किया है । प्रचुर परिमाण में निशास्ता होने के कारण इसके तने का अधोभाग भारतवर्ष में काल कालीन बहुमूल्यवान् खाद्य सामग्री है | केलेके अपक्व फल द्वारा प्रस्तुत श्वेतसार बंगाल में उदरामयोपचार में व्यवहृत होता है । इसका एक नमूना जिसका हमने परीक्षण किया, किञ्चित् कषाय तत्व के साथ बहुधा पूर्णश में विशुद्ध श्वेतसार घटित था । कहते हैं कि अमेरिका में केले के फल का प्रपानक Syrup), fat कालानुबंधी कास रोग की एक मात्र फलप्रद श्रोषध है । केले के फल का प्रपानक प्रस्तुत करने की बिधि - केले के फल के अत्यंत छोटे छोटे टुकड़े कर समान भाग चीनी मिला किसी श्रावृतमुख-पात्र (Syrup ) में स्थापन करें । फिर उक्त पात्र को किसी ऐसे शीतल जल परिपूर्ण पात्र में स्थापन करें जिसमें उक्त पात्र उत्तम रूप से निमज्जित होजाय । तदुपरांत उसे चूल्हे पर चढ़ाकर मंदाग्नि से यहाँ तक पकायें कि जल खौलने लगे। फिर शीतल होने के लिये उसे आग से उतार | शीतल होने पर स्थित शर्बत का व्यवहार करें । पात्र मध्य मात्रा - चाय के चम्मच से १-१ चमचा घंटे घंटे पर देवें । (डिमक - फार्माकोग्राफिया इंडिका-२ य खंड, पृ० ५४४ - ५ ) उदय चन्द दत्त - केले के कच्चे फल को संस्कृत में 'मोचक' कहते हैं और यह शीतल एवं कषाय माना जाता है । बहुमूत्र ( Diabotes ) रोग में कदल्यादि घृत रूप में इसका श्रत्यधिक व्यवहार होता है । 1 ऐन्सली — केला समग्र भारतीय फलों में निः संदेह सर्वाधिक सुस्वादु और अम्लता से सर्वतः रिक्क एवं नाजुक श्रामाशय के लिये सबसे अधिक निरापद फल है । इसके अतिरिक्त यह अत्यन्त पोषक है और हिंदू चिकित्सक उष्ण प्रकृति वाले एवं पित्त रोगी को सर्वदा पथ्य रूप से इसकी व्यवस्था देते हैं । फलत्वक के ठीक नीचे क खुरदरे श्रावरण को खुरचकर पृथक कर देते हैं । इसमें ऊपर से शर्करा और मिष्ट दुग्ध मिलाने से Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदली २०२४ इसका स्वाद और बढ जाता है । पूर्वीय द्वीपोंका यह प्रधान मेवा है। वहां इसके कच्चे फल के छोटे २ टुकड़े कर उसकी कढ़ी प्रस्तुत करते हैं । यह स्वाद आलू की तरह होते हैं । ( मेटीरिया इंडिका- १ खं० पृ० ३१६–७ ) सी० टी०पीटर्स, एम० बी० चंद्रा दक्षिण अफ़ग़ानिस्तान - उत्तम जाति के केले का पका फल चिरकारी प्रवाहिका श्रतिसार में गुणकारी है। बड़ी जाति के केले का शुष्क फल मूल्यवान् स्कर्वी रोग निवारक ( Anti-Scorbutic ) है । उत्तरी बंगाल में इसके शुष्क पत्र श्री वस्तुतः समग्र वृक्ष को जला देते हैं। फिर राख को एकत्रित कर पानी में घोलकर वस्त्रपूत कर लेते हैं । इससे एक प्रकार का दारीय घोल प्राप्त होता है । जिसमें प्रधानतया पोटास के लवण पाये जाते हैं । जिनका प्रयोग अम्लपित्तहर और स्कर्वीहर श्रौषध रूप से विशेषतया कढ़ी में होता है । जहाँ साधारण लवण सहज सुलभ नहीं, वहाँ कढ़ियों को व्यञ्जित करने के लिए लोग इसका व्यवहार करते हैं । - इं० मे० प्लॉ० एन० सी० दत्तअसिस्टेंट सर्जन दरभङ्गा(१) मुझे प्रवाहिका घोर अतिसारोपयोगी यह एक खाद्यौषध ज्ञात है | भली-भांति उबाला हरा केला और दही में रुचि के अनुसार शर्करा वा लवण मिला सेवन करें । ( २ ) पका केला और पुरानी इमली का गूदा - इनको खूब मलकर पुराना गुड़ वा मिश्री मिला देवें । बंग देशवासियों की यह घरेलू दवा है, जिसका व्यवहार प्रवाहिका के प्रारम्भ में होता है । (३) कष्टप्रद श्राध्मान और अम्लत्व युक्त श्रजीर्ण रोग में तिरहुत के कतिपय भागों में धूप में सुखाये हुये करचे केले के आटे की चपाती काम में आती है। मुझे एक ऐसे रोगी का ज्ञान है जिसमें यह स्पष्ट स्वीकार किया गया है कि केवल पानी में पकाया हुआ सादा सागूदाने के पथ्य से भी सख्त उदरशूल होगया था । चपातियां सूखी ही थोड़े लवण के साथ खाई जाती हैं । - इं० मे० लाँ० कदली आर० ए० पार्कर, एम० डी०, सिविल सर्जन — "मिलित पक् कदलीफल, इमली और साधारण लवण प्रवाहिका रोग में बहुत ही उपयोगी है। प्रवाहिका की उम्र और चिरकारी दोनों दशाओं में मैंने उन श्रौषध का व्यवहार किया और कभी असफल नहीं रहा । निःसंदेह इसे घौषध कह सकते हैं। और जनसाधारण एवं चिकित्सा व्यवसायी दोनों से मैं इसकी विश्वास पूर्वक शिफारिस कर सकता हूं । यह सामान्य एवं सुलभ है तथा शिशुत्रों को इसका निरापद व्यवहार कराया जा सकता है । यह खाने में प्रिय नहीं होता और न इसका कोई कुप्रभाव ही होता है । सुतरां यह इपीकाक्वाना की अपेक्षा श्रेयस्कर होता है । साधारण दशा में केवल एक मात्रा ही पर्याप्त होता है और इसकी तीन-चार मात्रा से पूर्ण श्राराम हो जाता है। रोगी को चुपचाप और हलके पथ्य पर रखें। इसकी वयस्क मात्रा यह है— पका केला १ अाउंस, पकी इमली का गूदा है श्राउंस, साधारण लवण के भाउंस भली भाँति मिलाकर तुरत सेवन करें। दिन में दो या तीन बार इसका उपयोग किया जा सकता है।" जे० एच० थार्नटन, बी० ए०, एम० बी० सिविल सर्जन मुगेर- "केले की कोमल जड़ में प्रचुर परिमाण में कषायिन ( Tannin ) होता है । और वायुप्रणाली तथा प्रजननांगों द्वारा रक्तस्राव होना रोकने के लिये इसका बहुल प्रयोग होता है । प्रदग्ध कदलीवृक्ष की भस्म में प्रचुर मात्रा में पोटाश के लवण होते हैं, जिनका अम्लपित्त ( Acidity ), हृद्दाह और उदरशूल ( Colic ) में अम्लता निवारक रूप से व्यवहार होता है । रक्तनिष्ठीवन और बहुमूत्र ( Diabetes ) रोगियों में इसकी कच्ची कोमल फली पथ्य रूप से व्यवहार की जाती है । - ई० मे० प्रा० मेजर डी० आर० थॉम्सन्स, एम० डी०, सर्जन, सी० आई० ई० मदरास - " प्रवाहिका रोग में केले के फल में लवण मिलाकर उपयोग करते हैं । इसकी जड़ का चूर्ण पित्तहर (Antibitions ) है और यह रक्ताल्पता और प्रकृति Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२५ दक्षेष ( Cachexia रोग में व्यवहृत होता है । आर एल. दत्त सर्जन पन्ना — कहते हैं। कि इसके वृक्ष का रस लघु गुण विशिष्ट होता है। पूना -- उन शिशुओं जे० मेलॉगे सर्जन, को जो मात्रा से अधिक अफीम देने के कारण दुख भोग रहे हों, केले के पत्र और वृक्ष-वर कल का स्वरस प्रायः दिया जाता है। एक ग्राउन्स ( २ ॥ तोला ) केले के वृक्ष-वरकल के स्वरस में एक आउन्स घी मिलाकर देने से रेचन (Brisk purgative ) कार्य करता है । ई० ए० मारिस आनरेरी सर्जन - प्रवाहिका या चिरकारी प्रतिसार ग्रस्त एतद्देशवासियों को केले की क्षुद्र श्रपक्क फली की कढ़ी बनाकर सेवन करते हुये देखा है । टी० आर० मुदेलियर, सर्जन, मदरास - "साधारण मूत्ररोधजन्य रोगों में कदली-मूल-स्वरस में सोहागे का लावा और कलमी शोरा घोलकर प्रयोजित करते हैं । तिरज और प्रवाहिका रोग में कदली पुष्प स्वरस में दही मिलाकर देते हैं । लाल मुहम्मद, होशंगाबाद, सी० पी०शिश्वतिसार में धारक रूप से इसके सुखाये हुये कच्चे फल का चूर्ण काम में श्राता है। बहुशः प्रकार के अतिसार एवं सूजाक में भी यह उपयोगी है। SHIPP जे० पार्कर, एम० डी०, डिप्युटी सेनिटरी कमिशनर, पूना - " अधम प्राणियों में मल्ल द्वारा बिषाक्रता निवारणार्थ केले की जड़ का रस काम ता है। कहते हैं कि इसमें घी और शर्करा मिलाकर पिलाने से सूजाक श्राराम होता है । एस० एम० सरकार, सर्जन, मुशिदाबाद"चिरकारी अतिसार से मुक्त होने के उपरान्त, भली प्रकार उबाला हुआ, इसका कच्चा फल एतद्देशवासियों का उत्तग खाद्य है । दातव्य दितरणालयों में व्रण-बंधनार्थ गट्टापारचा टिश्श्यू की प्रधिनिधि रूप से इसकी पत्ती बहुत प्रयोग में आती है । एच० डी० टटलियम्, एम० डी०, एम० १४ ६० कदली आर० ई० पी० (लंडन) अहमदनगर - "जहां तक मुझे ज्ञात है, ग्लिटर लगाये हुये सतह के लिये केले की पत्ती सर्वाधिक स्वच्छ एवं सर्वोत्कृष्ट व्रण-बंधन है । अन्य व्रण- बंधनाच्छादनार्थ । भी यह उपयोगी है |". .........|" - ई० मे० प्र० । आर. एन. चोपरा, एम० ए०, एम० डी०"केले का वृक्ष समग्र भारतवर्ष में सामान्य रूप से होता है । इसकी हरी कोमल पत्ती संक्रांत धरा तल ( Danuded surfaces ) के लिए उत्तम श्राच्छादन का काम देती है और देशीय शस्त्रकर्म में इसका प्रचुरता से उपयोग होता है । पका फल- मृदुता - कारक, स्निग्धतासंपादक और जीवोज सम्बन्धी उपादानों ( Vitamin con tent ) से परिपूर्ण है । केले ( Musa paradisiaca ) की जड़ कृमिप्न; पुष्प ( मोचक ) कषाय, काँड-स्वस कर्णशूल एवं रकनिष्ठीवनोपयोगी है। जंगली केला ( Musa sapientum ) भी गुणधर्म में केले के समान होता है । और यह सर्प विशेष ( Boa-con trictor ) के दंश में उपयोगी होता है ।" - इं० ० इं० । नादकर्णी - "पका केला स्निग्ध एवं पोषक है। कच्चा केला शीतल और संग्राही है और यही सुखाया हुआ । स्कर्वीनाशह ( Antiscorbu tic) हैं । प्रातःकाल सेवन करने से सम्यक् परिपक्क केला मृदुसारक (Laxative ) होता है। जड़ पित्त निवारक ( Aptibilions ) होती और मूल्यवान् परिवर्तक मानी जाती है । वृक्ष-स्वरस रक्तस्तम्भक होता है । केला पुष्टिप्रद फल है । यह वृक्ष के तने पर सर्वोत्तम प्रकार से पकता है । तने से भिज्ञ सम्पन्न पकाया हुआ उतना अच्छा नहीं होता। इसक कच्चा फल बिलेषतः रक्तनिष्टोम एवं बहुमूत्र रोगी के लिए बहुमूल्य खाद्य सामग्री है। सुखाया हुआ वा शर्करा द्वारा संरक्षित केला करोग नाशक ( Antiscorbutic ) है । यह श्रुतिसार में भी गुणकारी है। धूप में सुखाये हुये हरे केले के श्रादे की दभी चपाती आध्मान एवं Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२६ ---- अम्लपित्त (Acidity ) संयुक्त अजीर्ण रोग .... अन्यामत . . - में प्रयोगित होती है । कहते हैं कि अ.माशयप्रदाह कच्चा वेला बहुत कड़ा होता है और खाने के (Gastritis) में दुग्ध मिति केले के अाटे - काम नहीं पाता। इसकी तरकारी अवश्य बनती का लघु पाश (Gruel) सुपाच्य खाद्य - है। खाना भी सुस्वादु बनता है । कञ्ची फली गुण. सामग्री है। खाद्य विशेष Banana dessert में शीतल और स्वादु में कसेली और कुछ कुछ शर्बत, केला, खाय विशेष ( Banana toa- मधुर एवं बाल होती है। यह गष्टि, गुरु एवं - st) शुष्क केला, भृष्ट केला प्रभृति नाना प्रकार, सग्राही है, और कफ एवं वात के रोग उत्पन्न से यह उपयोगी फल खाने के काम प्राता है। करती है। यह बल्य है और गर्मी को दूर करती ... इसके पके फल में लौह होता है, अतएवं यह पांडु है। इसकी अधपकी फली तीव्र विपासा को शांत ...के रोगियों (Anaemic pe15006) को करती और बहुमूत्र रोग को लाभ पहुँचाती है । अतिशय लाभकारी है। चि.कारी प्रवाहिका एवं यह कडई, कसैली और रखी होती है और रक्काअतिसार में अर्धभाग इमली और किंचित् लवण तिसार को भी लाभकारी है। इसे ज्वर में भी मिला हुआ केला बहुमूल्य आहार है । भामाशय | देते हैं । यह नेत्र को लाभप्रद है, किंतु पाचन .. जैवल्य-निन· अजीर्ण ( Atonicdy pe- विकार उत्पन्न करती है। केले की पकी फली psia) रोग में के केले का प्रसुत स्वरस अत्यंत सुस्वादु, मधुर और किंचित् केसेली होती -- (Fermented juice ) व्यवहार में श्राता | है । यह समशीतोष्ण वीर्यवर्द्धक क्रांतिहर, उम्र , हैं। संग्रह-ग्रहणी (Sprue), अतिसार और विपासाहर और कांजिदायिनी है। परन्तु यह स्कर्वी रोग में एक केले को खूब धोकर श्राधपाव चिरपाकी होती है । अस्तु, अजीर्ण-रोगी को हानिदूध में मिलावे । और इसी प्रकार प्रतिदिन तीन- प्रद है । अलवत्ता यह उत्तम पाचन शनिवाले को सीन बार देवे। उन अभिप्राय के लिए करचे केले - गुणकारी है । यह रक्तप्रदर श्वेतप्रदर श्रादि को का शोरबा ( Soup) भी प्रस्तुत होता है। रोगों में असीम गुणकारी एवं सिद्धौषधि है । यह शिशुओं के व्यवहारार्थ लदण.. के बदले इसमें अपनी-रोग में भी गुणकारी है। यह शकिप्रद है चीनी वा मिश्री का उपयोग करना चाहिये। एवं वीर्य स्तंभन करती, शरीर को स्थूल करती, .. अमेरिका में एक प्रकार का शबंत केला त्यात है। मांस की वृद्धि करती, उष्ण प्रवृति बालों में कामोजि.ससे क्रांतिहर पेय और कासहर प्रभावकारी दीपन करती, इकुमेह (जि.यावेस ) को लाभ औषध प्रस्तुत होती है । केले के वृक्ष के उलाने पहुँचाती. इक्व-काश्यं को दूर करती और यह शुष्क ... से प्राप्त हुथे राख में पोटास के लवण पाये। कास और गले की खरखराहट को . लाभकारी है। - जाते हैं। अस्तु; अम्लपित्त (Acidity) इसकी उड़ उदररू-वृमि नष्ट करती है । यह उलहृद्दाह और उदर शूल में उपयोगी होते हैं । शोथ त्रास रोग (दाउल कल्ब) को लाभकारी है। युक्त ( Inflamed ) और दिलष्टर युक्र धरा- इसके पत्तों की राख जोरोध में गुणकारी है । यह वल के लिये इसकी इद्र कोमल पत्ती श्राच्छादन वायु और कपकारक है। दर्पन इसका रूवण, (Dressing) का काम देती है। . .सोंठ और मधु है। परन्तु दंगाले.की तरफ विधि यह है-सर्व प्रथम रिलष्टर को हटा देवें प्रथम इसे भक्षण कर ऊपर से कच्चा चादल चवाते ....पुनः केले की पत्ती के एक टुकड़े पर किसी मीठे हैं इससे यह हज़म हो जाती है। खाने से पहले .... तेल (Bland oil) से चुपड़ कर - धरा- खाना हानिप्रद है। जड़ी बूटी में खदास । -सल Denuded surface) पर चिपका - : पके हुये केले की प.ली, दूध में कई बार सान.....देव। ................... कर, लगातार कुछ दिन खाने से, योनि से खून "अष्टी दिन में दो बार वा आवश्यकता पड़ने पर जाना बंद हो जाता है। बारम्बार बदलते रहना चाहिये । .... : पका हमा केला और मामलों का स्वरस लेकर Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदलो २०२७ कदली - इन दोनों से दूनी शक्कर भी मिला लेवें । इस नुस्खे के कुछ दिन बराबर सेवन करने से प्रदर रोग निश्चय ही आराम हो जाता हैं । अथवा प्रथम दो द्रव्यों में निी और शहद मिलाकर, कुछ दिन ... सेवन करने से प्रमेह या पानी-समान धातु का | गिरना श्राराम हो जाता है। सोरे-शाम, एक-एक पका हुअा केला छः-छः ६. माशे घी के साथ खाने से, पाठ दिन में ही प्रदर - रोग में लाभ जान पड़ता है। इससे यदि किसी | को स प्रतीत हो तो इसमें चार वूद शहद भी मिला ले थे, इससे प्रमेह. प्रदर और धातुरोग दोनों श्राराम हो जाते हैं, केला प्रमेह-नाराक है। केले के पत्ते खूब महीन पीसकर, दूध में खीर बन.कर, दो-तीन दिन खाने से प्रदर रोग में उपकार होता है। केले की पकी फली, विदारीकंद और शतावर | इनको एकत्र मिलाकर, दूध के साथ, सवेरे ही .. पीने से सोम रोग नष्ट हो जाता है। __ केले की पकी फली, पामलों का स्वरस, शहद और मिश्री इन सबको मिलाकर खाने से सोमरोग और मूत्रातिसार अवश्य आराम हो जाते हैं। __ केले की राख और श्योनाक के पत्तों की राख हरताल, नमक और छोकरे के बीज-इनको एकत्र पीसकर लेप करने से बाल गिर जाते हैं। __ केले के पेड़ के भीतरी भाग को छाया में सुखा- | कर, पीस-कूटकर चूर्ण बना लेवें। इसमें से ६ | माशे या १ तोले चूर्ण मिश्री मिलाकर खाने और ऊपर से जल पीने से प्रमेह रोग का नाश होता है। पका केला वातज और पित्तज कास को दूर | करता है। एक केले को गहर में छिलका हटाकर ५ काली मिर्च या १ पीपर खोसकर, रात में, प्रोस की जगह में रख देवें, सवेरे ही छिलका हटाकर • पहले मिर्च या पीपर खा लेवें । तदुपरांत केला । इस उपाय से सूखी और पित्त को खाँसी जाती केला तासोर में शीतल, चिरपाकी, दस्त के रोकने और बाँधनेवाला, कफ-पित्त, रुधिर-विकार, घाव, य रोग और बादी को नारा करता है। प्रतिसार-संग्रहणी में, कच्चे केले को उबालकर छील लेते हैं । पुनः दो-चार लोगों का छोक देकर केले को दही, धनिया हल्दी, सेंधानमक, गोल मिर्च मिलाकर पकाने से अत्यंत स्वादिष्ट तरकारी बन जाती है। यदि खानेवाला रोगी न हो तो - जरा-सो अनवूर की खाई और लाल मिर्च डाल देने से ऐसा स्वादिष्ट साग बनता है कि, खाने वाले उँगलियाँ चाटते हैं। __प्यास के लिये हैजे-विशूचिका में केले के खंभे का जल निकालकर देना अच्छा है। इससे विशूचिका के रोगाणु नष्ट हो जाते हैं। इसकी मात्रा ४ तोले की है। उन जल के पोने और लगाने से साँप का विष, सखिया-विष, हरतान विष और चूहे का विष नष्ट होता है। केले के पानी से पेशाब साफ होता है। हमारे यहाँ तो सर्प आदि विषैले जानवरों के काटने पर केले का जल देने की पुरानी चाल है। अब तो डाक्टर भी इसे सर्प-विष को उत्तम दवा कहते हैं। इसके सिवा, केले के पानी के पिलाने से सूजन, खाँसी, श्वास, अम्लपित्त, पीलिया, कामला, पित्त विकार, दाह यकृत को सूजन, तिबो का बढ़ना, रक्रपित्त, अतिसार, खून को गरमी, कफ का जमाव, जलोदर, शीतपित्त, फीलपाँव, प्रदररोग, योनिरोग, प्रमेह और उपदंश-गरमी रोग पाराम होते हैं। पारद विष, और वृश्चिक विष प्रभृति में भी यह परमोत्तम है सारांश केले का रस अनेक दुःसाध्य और भयंकर रोगों का निःसंदेह वीजोन्मूलक है। __केले के खम्भ का रस सूजाक रोग को अमूल्य औषधि है । विधि यह है केले के खम्भ वा तने को कूट पीसकर, कपड़े में रखकर उसे निचोड़ लेवें। इसमें से निकला हुआ पानी सा द्रव ही केले का पानी वा रस है। इसको साधारण मात्रा ४ तोले की है । इसे दिन में तीन बार सेवन करना चाहिये । इस रस को मात्रा से पीने से पेशाब खूब पका केला स्वादिष्ट, शीतल वीर्यवद्धंक,पुष्टिकारक, रुचिकारक और म.सवर्द्धक है ।भूख प्यास, | । चक्षुरोंग और प्रमेह का नारा करता है। कच्चा Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदली २०२८ साफ होता और सूजाक श्राराम हो जाता है । प्रति दिन ताजा रस निकाल पीना चाहिये । बासी रस I हानिकारक होता है। I केले का पानी श्राध पात्र के लगभग रात को श्रीस में रखें और प्रातः २ तोले निजी निलाकर पियें। इससे सूजाक बहुत शीघ्र आराम हो जाता है। , बन केले के पत्ते जलाकर राख कर लेवे । इसकी . मात्रा १ माशा की है। एक मात्रा राख, १ तोले शहद में मिलाकर चाटने से हिचकी आराम हो जाती है और कभी-कभी श्वास में भी लाभ देखा गया है । केले के भीतर का रेशेवाला भाग कुरेद कर, . उसमें कुछ काली मिर्च रख देवें । सवेरे हो उन्हें केले से निकालकर मंदी श्राग पर भूनकर खा लेवें, इस उपाय से श्वास चला जाता है । —हरिदास वैद्य केले का पानी एक सेर लेकर और कलमीशोरा पाव एक हँड़ियां में डाल देवें । फिर मुँह बन्द करके मंदाग्नि पर रखें। जब पानी जल जाय बाग बंद कर देवें । पर पात्र का मुँह उसी प्रकार रात्रि भर बन्द रहने देवें। प्रातः काल उसे निकालकर पीसकर सुरक्षित रखें | मात्रा - अर्ध माशा गाय के दूध की लस्सी के साथ सुबह शाम खावें । सूज़ाक में प्रत्युपयोगी है। केले का पानी दो सेर कोरी हँडिया में डालकर २ तोले कलमीशोरा मिलाकर चूल्हे पर रखकर जलावें । जब समस्त जल जावे, तब हाँडी से खुरचकर समग्र दवा निकाल लेवें। इसे २ रत्ती की मात्रा में खावें । इससे सप्ताह के भीतर-भीतर सूजाक श्राराम हो जाता है। 1 केले की जड़ ६ सा०, फालसे की जड़ की छाल ६ मा०, तुख्म ख़यारैन ६ मा०, मुठेली ६ मा०, मिश्री २ तो इनको पीनों में रगड़ कर शीरा निकालकर मिश्री मिलाकर प्रातःकाल पीने से सूजाक की जलन आदि दूर होती है । ' सफेद काशगरी, कत्था सफेद, मुरदासंख, / कदली हरा दतिया और कपूर प्रत्येक १ माशा -- इनको केले के पानी में घोंटकर बारीक वर्त्ति बनाकर इन्द्री की सुराख़ में रखें। इससे सूजाकगत व्रण पूरण होता है । नोट - कपूर की विधि - सफेद फिटकरी - ३ तो, कपूर ६ मा०, चिनिया गोंड ३ मा०, सबको कूटकर मिला लो थोर केले के श्रर्क में खरल करो और तांबे की डिविया में बंद करके पकतो हुई हंडिया में रख दो । शीतल होने पर निकाल लो। बस कनूर तैयार है इसे ही ऊपर के प्रयोग में डालना उचित है । अनविधि मोती को कदल्यर्क में खरल करके एक डोली में बंद कर देवें । मात्रा - एक सुर्ख ( = 1⁄2 रत्ती ) । हृदयोध्या के दूर करने और प्रकृत्यूमा को उद्दीप्त करने में अनुपम है और यह उत्तमांगों को बल प्रदान करता है । केले की पत्ती की राख ६ मा०, छिली हुई मुलेठी का महीन चूर्ण ५ मा० | तबाशीर ४ मा० सपाल ३ मा०, छोटी इलाइची ३ मा०, कद्द की गिरी ६ मा० इन सबको कूट पीसकर ४ तो०, मधु में लऊक तैयार करें। इसमें से दिन में कई बार शिशु को थोड़ा थोड़ा चटायें। काली खांसी के लिये रामबाण है । - जड़ी बूटी में खवास । भारतवर्ष में कच्चे केले, मोचे और डाल की तरकारी बनती है । इसका कच्चा पत्र ( बीच का पत्ता ) लिष्टर के ज़ख़्म पर श्राच्छादित कर देने से ज्वाला मिटती है। बीच का पत्ता काट सीधी और मक्खन लगा घाव पर ४-५ दिन बंधा रखने से ब्लिष्टर अच्छा हो जाता है पश्चिम भारत में बीड़ी और चुरुट केले के सूखे पत्ते में लपेट कर प्रस्तुत करते हैं। किसी भी द्रव्य लपेटने के लिये वहां केले का पत्ता व्यवहार में श्राता है। चतुरोग पर केले का कच्चा पत्ता बड़ा उपकार करता है । अफ़रीका में कच्चे पत्ते से घर छाते हैं । कलकत्ते के तंबोली केले के कच्चे पत्ते में लपेट लगे लगाये पान बेचते हैं। बंगाल में गरीब लोग केले का पत्ता फूंक खाक से कपड़े धोते हैं । बहु मूत्ररोग पर कविराज महाशय कदल्यादि घृत में इसकी डाल का रस डालते हैं । यह घृत वायु Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदली . २०२६ कदली और पित्त के दोष मिटाता है, कोल्हापुर जिले में | इस वृक्ष के रस से रक्त पात निवारण करते हैं। जमेका में भी इसका रस इसी प्रकार व्यवहृत होता है। वहाँ वृक्ष में एक खोंचा लगाकर रस निकाला जाता है। यवद्वीप में एक प्रकार कइली वृक्ष के पत्र के उलटी पोर मो-जैसा जो पदार्थ जमता है । वह वत्तो बनाने में कान पाता है। __ कदली वृक्ष का समस्त अंश गवादिका खाद्य है। यह पशुओं के लिये विशेष उपकारक है। जमेका द्वरेप के निम्न श्रेणी वाले अधिवासियों का केला ही एक मात्र सुजम खाद्य है । अमेरिका के आदिम अधिवासी भी इसे प्रधान खाद्य समझ कर ब्वहार करते हैं। __ सूखा केला अति वलकारक और शैत्यनिवारक होता है । पुनः गाल फूलजाने पर भी यह वड़ा उपकार करता है । समुद्र की यात्रा में सूखा केला विशेष व्यवहार्य है । बम्बई के रहने वाले घर में खाने को पक्का केला बांस की खपाच से पतला पतला चीर धूप में सुखाकर रख छोड़ते हैं । इससे जो मुरब्बा बनता है । वह खाने में बहुत अच्छा लगता है। वेसकेली केले को सुखा कूट-पीस कर बम्बई वाले एक प्रकार का खेसाँदा बनाते हैं । वह शिशु रोगी और सद्यःप्रसूता कामिनी के लिये अति उपकारक एवं वलकारक खाद्य है। मॉरिशस, पश्चिम-भारतीय द्वीप और दक्षिण-अमेरिका में भी ऐसा ही खेसाँदा (हिम) प्रस्तुत होता है। मेक्सिको देश में क्या केला सुखाकर रक्खा नहीं जाता । हबशी पक्के केले को सिद्धि वा मण्डका उपादेय समझ खाते हैं । दक्षिण अमेरिका, अफ-- रोका और पश्चिम-भारतीय द्वीप में इसका चूर्ण बनता है। दक्षिण अमेरिका में उन चूर्ण से विस्कुट तैयार होता है वृटिश-गीनिया मे कच्चा केला प्रधान खाद्य गिना जाता है । इच के बाद इसी को अधिक लगाते हैं । वृक्ष के रस से हार वा लवणवत् द्रव्य प्रस्तुत होता है दक्षिण अमेरिका में पक्के केले से ताड़ी की तरह एक प्रकार का मद्य बनता है, जो तीव्र नहीं पड़ता । पक्के फलक शस्य पत्ते में लगा सुखाते और छोटे-छोटे टुकड़े काटकर बनाते हैं। प्रयोजनानुसार एक टुकड़ा तोड़ पानी में घुज़ाने से शर्ब तयार हो जाता है । यह शर्वत अत्यंत शीतल और श्रमापहारक होता है । भारतवर्ष में इसके छिलके से चमड़े का काला रंग बनता है। दधि, दुग्ध और घोज के साथ केला खाने से प्रति शय दुपच्य होता है । चम्पक केला बहुमूत्र रोग में उपकारप्रद है। मुसलमान हकीम भी केले को पित्त, वायु, रक और हृद्रोगनाशक मानते हैं। डाक्टा-फेयर के कथनानुसार यह शुक्रवृद्धिकर मस्तिष्क दोष निवारक है । किंतु मोचा दुष्पच्य होता है। हिं०वि० को. स्वानुभूत प्रयोग (१) केले के खम्भे का रस १ एक सेर, मधु | एक पाव मिलाकर चाशनी कर शर्बत तैयार करें। इसमें से १ तो. शर्बत प्रातः सायं काल सेवन करने से कास-श्वास अवश्य पाराम होता है। (२) केले के खम्भे के भीतर का कोमल सफेद भाग वा गूदा लेकर छोटे २ टुकड़े कर धूप में सुखा लेवें। पुनः इनको कूट-पीसकर बारीक चूर्ण बनायें। मात्रा-१ रत्ती से ६ रत्ती तक | इसे मधु के साथ प्रातः सायंकाल चटाने से कुक्कुर कास दूर होता है। (३) केले के खम्भे का रस अग्निदग्ध पर लगाने से उपकार होता है। किसी किसी के मत से क्षय रोग में भी १ तो० की मात्रा में इसका रस सेवन करने से उपकार होता है। (४) केले के पत्ते को जलाकर राख बना लेवे । इसमें से २-३ रत्ती राख सुबह शाम शहद में मिलाकर चटाने से सूखी खाँसी व कूकर खाँसी जाती रहती है। (५)कदली कंद को सुखाकर कूट-पीसकर बारीक चूर्ण करें । इसमें से एक माशा चूर्ण शहद के साथ चाटने से सूखी खाँसी दूर होती है। (३) नीलकन्ठी नमक १ छ. और अफीम छ० इन दोनों को घोंटकर एक पिंड सा बना Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदलौकन्द २०३० कदलीक्ष्या लेवें इस गोले को कदनीका के भीतर रखकर गुण-यह स्तिध, मधुर, कसेला; भारी एवं '. कार से उसो के गू से बिन को ढाँक देवे । पुनः शीतल है तथा वातपित्त रक्तपित्त एवं क्षय को दूर - इस कं के ऊपर करोटी का सवा ले। सूखने करता है । वै० निघ० । दे० "कदली"। पर उसे २॥ सेर कंडों के भीतर रख कर आँच | कदलीजल-संता पु . [सं० की. ] केले का रस । देधे । स्वांग शीतल होने पर उसे निकाल कर कदली रस। कानिट्टी दूर करके जले हुये कंद का बारीक चूर्ण गुण-यह शीतल एवं ग्राही है तथा मूत्रकृच्छ का रखें। इसमें से यथा शक्रि १ रत्ती से ३ रत्ता प्रमेह, तृष्णा, कणंग, अतिसार, अस्थित्राव, तक श्रोध पिपलो चूर्ण १ रत्ती और शहद के रक्तपित्त, विस्कोट, योनि कोष तथा दाह को शांत साथ सुबह-शाम सेवन करने से श्वास रोग अवश्य करता है। वै निघ. . दे० "कदली"। श्राराम होता है। कदलोदण्ड, कदलोनाल-संज्ञा पुं० [सं० पु.] - (७) केले के बीज सर्प विप नाशक हैं। केले के खम्भे (पेड़) के भीतर का दरडाकार ऐसा किसा-किसो का मत है।-लेखक कोनल भाग । केले का भीतरी हिस्सा । कदली द्वारा पारद भस्म गुण-यह शीतल, अग्निवर्द्धक रुचिकारक, विधि--शुद्ध पारा १ तो० लेकर एक दिन अर्क रक्तपित्तनाराक, योनिदोरनाराक और असृग्दर रतनजोत और एक दिन अर्क ब्रह्मदंडी में खरल नाशक है । श० च० दे० "कदली" । करें । पुनः एक फुट लम्बा और मोटा केला लेकर कदलीनाल-संज्ञा पु० दे० "कदलोदण्ड" । उसमें अर्ध फुट गहरा छिद्र बना उक्त पारा और कदलीपुष्प-संज्ञा पु• [स. ] केले का फूल । एक पाव गोमूत्र इन दोनों को उसमें डालकर | कदलाफल-संज्ञा पुं॰ [सं० क्ली०] केला।। ऊपर से उसो गूदे से छिद्र के मुंह को बंद कर | कदलीमूल-संज्ञा पुं॰ [सं० को०] केले को जड़ । देवे और उसे सन को रस्सी से दृढ़ता पूर्वक बाँधे । कदलोकंद । केराकंद। फिर उप पर चतुरतापूर्वक कपड़ मिट्टी करके १० गुण--यह वलकारक, वातनाशक, पित्तनाशक सेर उपलों की प्राग देवे। अति उत्तम भस्म और भारी होता है। वि० दे० "कदलो" । प्रस्तुत होगी । कपड़मिट्टी अच्छी न होने से पारा कदलीमृग-संज्ञा पु० [सं० पु.] एक प्रकार का .', उड़ जावेगा। इस बात का ध्यान रखे । जड़ी बूटी मृग । शबल मृग । सु० चि० ८ ०। में खवास। नोट-निबन्ध-संग्रह नामक सुचत की टीका (२) काले और लाल रंग का एक हिरन में उल्लेख लिखते हैं। "कदलीमगः पूर्वदेशे जिसका स्थान महाभारत श्रादि में कंबोज देश प्रायशः शबलो दृष्टः सतु वृहत्तमबिडालसमो .. लिखा गया है । इसके चर्म का आसन बनता है। व्याघ्रकारो बिलेशयः ॥ ?कृष्णसार। कदली बल्कल-संज्ञा पुं॰ [सं० की.] केले की (३) पिठवन । पृश्निपर्णी । मे० । .. छाख । कदली त्वक् ।। . (४) एक पेड़ जो बरमा ओर आसाम में गुण-यह तिक, चरपरी, हलको और बात बहुत होता है। नाशक होती है । वे निघ० । कदली कन्द-संज्ञा पुं० [सं० पु.] केराकंद। कदली वृक्ष-संज्ञा पुं॰ [स. पुं०] केले का पेड़। रम्भामूल । केले की जड़। . केला। ... गुण-यह शीतल, वल्य, केश्य, अम्लपित्त कदली सार-संज्ञा पुं॰ [सं० पुं०] केले का रस । नाशक, अग्निदीपक, मधुर और रुचिकारक होता कदली का रस । केले को निचोड़। है । मद० व ६ । दे० "कदली"। कदलीतता-संज्ञा स्त्री॰ [सं० स्त्री० ] एक प्रकार की कदलीकुसुम-संज्ञा पुं० [सं० पु.] केले का फूल । ककड़ी । वै० निध। . :: रम्भापुष्प । | कदलीच्या-संज्ञा स्त्री० [सं० मी० ] ककड़ी। Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदल्यादि घृतम् कदल्यादि घृतम्-संज्ञा पुं० [सं० क्री० ] केला कन्द कदियिरत्तम्-[ ता० ] पुनर्नवा । गदह पूर्ना । . के रस में ४०० तो केले के पुषों को पक एं। कादिर-[१०] (१) केवड़ा । (२) गंदला। - जब चतुर्थान्श रहे तब छानकर इसमें ६४ तो धुंधला । मुकदर । अस्वच्छ । घृत और चन्दन, सरन की गोंद, जटामांसो, केला कदिरमंसूर-[अ.] वह सच्छ पदार्थ जिसमें कन्द, इलायची, लवङ्ग, त्रिफला, केय को गूहो, सन्त्र गॅलाहट; फैली हो । अस्वच्छता-व्याप्त और 'न्यग्रोधादिगण" को औषधियों का करक . वस्तु। बनाय, उपयुक क्वाथ में घृत सहित विधिवत् कदी-फ्रा०] खड़िया मिष्टी। ... मन्दानि से घृत सिद्ध करें। . .. कदीदे गरगे-[ कना० | भँगरया । भृजराज | - गुण तथा प्रयोग-इसे उचित मात्रा में वह गोश्त जो नमक लगाकर खुश्क सेवन करने से नियों के सामरोग, समरस मूत्ररोग किया गया हो । खुश्क गोश्त । सुखठी। वीर्य पिच्छल रोग, बीसों प्रनेह, तेरह प्रकार के | कदीमा- बिहा०] (१) सं.ताफल । शरीफ्रा। मूत्राघात, बहुमूत्र, मूत्रकृच्छ, और पथरी रोग | (२) मीठा कडू। .. का नाश होता है। - [बं०, हिं• ] (१) सफेद कह । कुम्हड़ा । नोट-न्यग्रोधादि गण"-वर्गद, गूनर, गूलर, क़दीमुल वित-[अ० ] भँगरा । भँगरैया । भृगराज । पीपल, पियालवृत, प्राम, अल्लवेतस, दोनों क़दीमुल मुल्क-अ.] .खुब्बाजी। ..... .: प्रकार के जामुन, बेर, महुअा, अर्जुन वृक्ष, तिनक | कदीमा चे-[ते. ] कदम । कदम्ब । .. वृक्ष, (मेंभुर्निवृत) पाटला वृक्ष कटुक बृद्ध, . कदम्ब, पाकर, गईभाड (पारस पीपर) और | कदीर-[१०] देग में पकाया हुआ मांस। कदोरा-शिमला ] शंगला । कलूचो (पं०)। - पलाश इनकी छाल लेना उचित है। (भैप० २० सोमरोग वि०) कदाह-[अ०] शोरवा । यूग। कदश्व-संज्ञा पुं० [सं० पुं०] कुत्सित अश्व ।। कदुधा-संज्ञा पुं॰ [दे..] कइ । अाल (भूपाल)। कदाष्ठ-संज्ञा पुं॰ [ स. पु.] सान्तानोत्पादक | कदुष्ण-वि० [सं० वि०] इतना गर्म किसके छुने - कोटाणु । सूक्ष्मवीज ( Nucleolus.) से त्वचा न जले। थोड़ा गर्न। शोर गर्म । कदह-अ.] हाथाजोड़ी । बखुर मरियम । . सीतगरम । कोसा । ईषण । श्रम। ... कदह किगती-अ.] गंधक का प्याला । । संस्कृत पाय-कोष्ण | कबोष्ण । मोष्ण कदह.मरियम-[अ०] (१) हाथाजोड़ी। बखुर- - यथामरियम । (२) कोजूलीदून । कदल्याः स्वरसः श्रेष्ठः कदुष्ण: कर्णपूरणः । कदहरलु-[ कना० ] जंगली रेंड । कानने त्यड । कदाद-[१०] साही। संज्ञा पु० [सं० को०] उष्णता। गरमी । कदाख्य-संज्ञा पुं॰ [सं० श्री.] कुट. नाम की | श्रम। प्रोषधि । कूट । कुष्ठ । श० च०। .. कदुचणापल्लू-[ ? ] अज्ञात । कदाह-[?] मक्खी। . . ... केदुबेल्लुल्ली-[?] अज्ञात। कदाला-[?] कपती। कदुला-[?]रका: कदाह कुकेर-[ कना०] जंगली काली मिर्च । कदू-[फा०] कह। कदाही-[१०] चिड़ियों के पर।... क.दूतल्न-[फा०] तिलौकी । तुमड़ी। कदाक्षी-संज्ञा [सं० वी० कदाक्षित् ] कुसित नेत्र । । कदूमः-[असकहानी] तोरी। कदिट-[बर०] वरना । वरुण। | कदूरात-[अ०] वह दवाएँ जो मुंह में एक तरफ कदिव-अ.] (1) ताज़ा खून । (२) वह डाली जाय। सपेदी । जो युवकों के नख पर पाई जाती है। कदूशीरी-[फा०] कह । लोबो । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३२ कहह.-[?] मक्खी । कदेप-तांगे-[३०] अमलवेद । कदेल्ल-[ कना०] काला तिल । कदो-[बर० ] कस्तूरी मुश्क । कदोट-[बर.] जंगली अंजीर। कद्द् -[१०] एक प्रकार की सनोवर के श्राकार की कड़ी सूजन जो बात से (सौदावी) होती है और साधारणतः आँख के ऊपरी पपांटे में पैदा ___ होती है। कह-अ.] कद। कदम-[बम्ब०, ६.] कलम । Stephegyne parviflora, Korth. संज्ञा पुं॰ [fi० कदम ] कदम । कइंत्र । कहमिया-यू०] अकलीमिया। कहलाशिंगी-ता०] चिल्ला । बेरी। कदिल तयङ्ग-[ता.] दरियाई नारियल। कहू-संज्ञा पुं० [फा० कटू ] कुमाङजातीय एक बेल का फल जो वहत प्रकार का होता है। इस को बेल बहुत विस्त होती है और वृक्षादि के प्राध्य से वा भूमि पर प्रतान विस्तार करती है। इसमें सफेद फूल पाते हैं स्वाद एवं प्रकृति भेद से फल अनेक प्रकार के होहे हैं। परन्तु उनमें से सभी प्रकार के कइ के फल के ऊपर का छिलका बहुत कहा. मोटा, और काष्ठीय होता है। फल मजा स्पंजवत् और सफेद होती है जो मीठे कर में मीठी और कहु ए में अत्यंत कडुई होती है। वीज भूरा, चिपटा और सिरे पर त्रिशीर्ष युक्त होता है। बीज को गिरी सफेद, तैलाक और मीठी होती है । परंतु तितलौकी का बोज तिक होता है। भेद-स्वाद के विचार से कह मुख्यतः दो प्रकार का होता है-मीठा श्रीर का । प्राकृति के विचार से मीठा कह के पुनः अनेक उपभेद हो जाते हैं, यथा-गोल, लम्बा, सुराहीदार, डमरु वा कमंडल के आकार का जिसके दो पेट होते हैं। उनमें नीचे का बड़ा और ऊपर का छोटा होता है। इन सभी को एक जाति कहुई भी | होती है । छोटा, बड़ा और चकैपा श्रादि भेद से गोल कह नाना, प्रकार का होता है । इनमें से | कोई-कोई बजन में एक मन तक होता है । गोल कह को बेल प्रायः बरसात में होती है फल की तरकारी भी होती है यह या तो जंगली होता है या लगाया जाता है। परन्तु लंवा कद, वा लोकी दोनों फसल में (बरसातो और जेहुई) होती है । एक प्रकार लौको के फल एक गज से २ गज तक लम्बे हात हैं। रंग बाहर में हरा वा हरापन लिये सफ़ेद और भीतर से सफेद होता है । गूदे का स्वाद फीका होता है। ___ कडा कद्द को देश में तितलौकी वा तुमड़ी कहते हैं । यद्ययि यूं तो उपर्युक्र सभी प्रकार के मीठे कर की तिक जातियाँ भी होती हैं पर वस्तुत तितलौको शब्द से जिस प्रकार की कटुतुम्बी का अर्थ लिया जाता है, इसके फल छोटे एवं सुराही दार होते हैं । जाल में लगाने के लिए मलाह लोग इसे अपने घरों में लगाते हैं। योगी और सपेरे इससे सितार, बीन, तंबूरा, वा महुवरादि बनाते हैं । यह जंगली भी होता है । पर यह स्मरण रहे कि प्रत्येक प्रकार की बड़ी कडु ई होती है और मीठो भी। कह ई तुम्बड़ी के बीज भी कडु वे होते हैं और मीटी के मीठे होते हैं। कदूएं तख की तुंबड़ी एक किस्म है । मुहीत वाजम में यह लिखा है कि वह कहूए तल्ख तुबड़ीकी एक किस्म है।......कि जि.सका बीज भी सिक्क होता है । हिन्दुस्तान में बड़ी को इसी नाम से बोलते हैं। कदुथेतल्ख कितावी संहाहै । कदूएतरखका जंगली भेद अत्यन्त कड़वा होता है, अस्तु; जामा तमीमी में उल्लेख है कि कद को बोते हैं और जंगल में स्वयम् भी होता है और यह अत्यन्त कड़वा होता है । तालीफ शरीफ के मत से भी तिक और मिष्ठ दोनों प्रकार के वीजवालो तु बड़ी होती है। गोज, महुअरिया, सुराहीदार, कमर डलाकार, प्रभृति आकार भेदसे यह अनेक प्रकार को होतीहै। इनमें से कमरडलाकार तितलौकी को गिरनारी तुबड़ी भी कहते हैं। इसका छिलका बहुत मोटा और कड़ा होता है । इसमें कुम्हेंडे को तरह के और सफेद बीज होते हैं । विवजौकी के बीज वर्षारम्भ में वोये जाते हैं जो बर्षान्त से लेकर फाल्गुन तक फूलते फलते रहते हैं। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 粮 २०३३ पर्या०-( मीठा कह.. मिष्ट तुम्बी ) तुम्व:, तुम्बकः, तुम्बा, तुम्बी, पिण्डफला, महाफला, आलापूः, एलाबू:, लाबु, लाबुका, ( अ० टी० ) तुम्बिका, श्रालाबुः तुम्बिः अलाबु, तुम्बुकः ( शब्द र० ), अलाबू, लाबू:, तुम्बिका, तुम्बिनी, मिष्ठतुम्बी, सं० । मीठा कद्द ू, मीठा लोना, मीठीतुम्बी, घिया, लौना, लौका, लौकी, लोवा, गड़ेरू, गड़ेली, लवलीश्रा, ग्रहलीश्रा, तु बी मीठी तुम्बी, तू बा, हिं० । मीठा कद्द दु० । लाऊ कदु, मिठा लाऊ, मिष्ट लाऊ, - बं० । कदूए शीरी कदू, -फ्रा० । क़र्अ. क़उलहलो - श्रु० । (Sweet or White gourd, White pumpkin ) - श्रं । तीयातु खड़िकाया, -ते० का० । दुध्या, भोपट्टा दुध्या भोपला -मरा० । श्राल-भूपाल । दुधीयूँ, दुध दुधी, - गु० । कण्ड उबलकायि, लाबु - सिंहली । दुद्दि [को०] । गोल मीठा कद्द ू - ( वतु' लम्बी ) गोरक्ष तुम्बी, गोरक्षी, तवालाम्बुः घटामिधा, कुम्भालाम्बुः, गटालाम्बुः कुम्भतुम्बी ( रा० नि० ) कुम्भालाबूः, नागालाबू:, घटालाबू:, वृहत्तुम्बी - सं० । कद्द ू, गोल कद्द, गोरखतुंबी - हिं० | गोल लाऊ - बं । गोरख दुद्दिके । लम्बा मीठा कद्दू - (दीर्घा तुम्बी ) क्षीरतुम्बी, दुग्धतुम्बी, दीर्घवृत्तफलाभिधा, इक्ष्वाकुः, क्षत्रियवरा, दीर्घबीजा, महाफला, क्षीरिणी दुग्धबीजा दन्तबीजा, पयस्विनी, महाबल्ली, अलाम्बु:, श्रमध्नी, शरभूभिता, ( रा० नि० ) सं० । लौकी, लौका, लौश्रा, लौवा, घिया, घीश्रा, लँबा कद्द ू, श्राल, गड़ेली, गड़ेरू, लेउना - हिं० । मिठा लाऊ, बं० । दुग्धतुम्बी, मरा० । हालु गुम्बुल - कना० । ख़ियार कदू, कदूए दराज़, कदूए शीरी - फ्रा० । क़रश्रु, क़र्उल् हलो -श्रु० । संज्ञा -निर्णायनी - टिप्पणी - हमारे यहां श्राकृति भेद से कद्द ू के भिन्न नाम होते हैं । परंतु बंगदेश में ऐसा नहीं है । वहाँ सभी प्रकार के कद्द ू को 'लाऊ' वा 'कदु' कहते हैं । हमारे यहां गोल फल वाले को 'क' और लम्बे फल वाले को ३१ फा० क 'लौकी', 'लौना' प्रभृति सँज्ञाओं से श्रभिहित करते हैं । राजनिघण्टुकार ने 'गोरक्षतुम्बी' और 'क्षीतुम्बी' ये दो प्रकार के मिष्ठ अलाबू का गुण वर्णन किया है । परन्तु उन्होंने इनके और किसी व्यवच्छेक चिह्न का उल्लेख नहीं किया है । केवल भाषा नाममात्र का निर्देश कर दिया है। राज निघण्टूल नाम कर्णाटी भाषा और महाराष्ट्रीय भाषा के नाम जान पड़ते हैं। क्योंकि ग्रन्थकार ने अपने ग्रन्थ के श्रारम्भ में यह लिखा है कि“व्यक्तिः कृतात्र कर्णाटमहाराष्ट्राय भाषया " । काशी से प्रकाशित राजनिघण्टु श्रादर्श पुस्तक में गोरक्षतुम्बी का भाषानाम " गोरखदुद्दिक" और क्षीरतुम्बी का भाषानाम "हालुगुम्बलु” लिखा है। भूतुम्बी का भाषानाम "तेल सार" है । वि० दे० "भूतुम्बी" कुम्भतुम्बी गोरक्षतुम्बी का नामातर है। तिब की पुस्तकों में जहां कदूए शीरीं वा क़रउहलो उल्लिखित होता है, वहाँ लौकी वा कदूए दराज़ ही अभिप्रेत होता है । इनमें से व्यवहारोपयोगी एवं सर्वोत्कृष्ट वह है, जो सफेद, कोमल ताजा एवं मधुर हो और जिसमें रेशे न हों, जो न बहुत बड़ा हो और न बहुत छोटा बल्कि मध्यमाकार का हो और उसकी बेल को मीठा पानी लगा हो। इसकी जड़ पतली, लम्बी, किंचित् मधुर और मदकारी होती है ( ० ० ) । कुष्माण्ड वर्ग ( N. O. Cucur bitacece) उत्पत्ति स्थान — समग्र भारतवर्ष में इसकी बेल लगाई जाती है या जंगली होती है । औषधार्थ व्यवहार - मूल, पत्र, फल, फूलमज्जा, बीज, बीज तैल । गुणधर्म तथा प्रयोग श्रायुर्वेदीय मतानुसारअलावू, तुम्बी, मीठा कद्द ू - 'मिष्ठतुम्बीफलं ' हृद्यं पित्त श्लेष्मापहं गुरु । वृष्यं रुचिकरं प्रोक्तं धातुपुष्टि विवर्द्धनम् ॥ भा० मीठी तुम्बी का फल ( मतांतर से 'दल' अर्थात् पत्र ) श्रर्थात् कद्दू - हृदय को हितकारी, Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करा २०३४ कफपित्तनाशक, भारी, वृष्य, रुचिकारी और धातु | वर्धक एवं पुष्टिकारक है। 'मिष्टतुम्बीप.लं' हृद्यं पित्तश्लेष्मापहं गुरु। वृष्यं रुचिकरं प्रोक्तमिति च। (द्रव्यगु०) कह -हृद्य, कफपित्तनाशक, भारी, रुचिकारक और वीर्यवर्धक है। गुरु मधुरं मलभेदकं वातश्लेष्मकारि रुक्ष पित्तनाशित्वञ्च । (राज.) कह-भारी, मधुर, मलभेदक, रूक्ष, वात तथा कफकारक, शीतल और पित्तनाशक है । "तुबं रुक्षतरं ग्राहि" (वा० सू० ६ अ०) तूबी (कह.) बहुत रूक्ष और ग्राही है। मीठा गोल कद्द, ( गोरक्षतुम्बो)कुम्भ तुम्बी समधुरा शिशिरा पित्तहारिणी। गुरुः संतर्पणी रुच्या वीर्य पुष्टि बलप्रदा।। (रा०नि० ७ व०) कह.-मधुर, शीतल, पित्तनाशक, भारी, संतर्पण ( तृप्तिकारक ), रुचिकारक, वीर्यजनक, पुष्टिकारक, और बलकारक है। . मीठा लंबा कह लौकी (सीरतुम्बी) तुम्बी सुमधुरा स्निग्धा पित्तघ्नी गर्भ पोषकृत् । वृष्या वातप्रदा चैव बलपुष्टि विवर्धनी॥ (रा०नि० ७ व०) लौकी, मधुर, स्निग्ध, पित्तनाशक, गर्भपोषक, वृष्य, वातकारक तथा बल और पुष्टिकारक है। अलावूर्भेदनी गुर्वी पितघ्नी क.पला हिमा। (शा० नि० भू०) कह.-भेदक, भारी, पित्तनाशक, कफकारक ओर शीतल है। टुम्बी तु मधुरा स्निग्धा गर्भपोषण कारिणी। वृष्या वातप्रदा वल्या पौष्टिका रुच्यशीतला॥ मलस्तम्भकरी रूक्षा भेदका गुरुपित्तनुत् । काण्डमस्याश्च मधुरं वातलं कफकारकम् ॥ स्निग्धं शीतं भेदकं च पित्तनाशकरं जगुः। (नि. र.) - वह-मधुर, स्निन्ध, गर्भ को पोषण करनेवाला | दृष्य ( वीर्यबईक ), सातकारक, बल कारक, | पुष्टिजनक, रुचिकारक, शीतल, मलस्तम्भक, रूखा, भेदक, भारी और पित्तनाशक है। इसकी बेल के कांड-मधुर, वातकारक, कफकारक, स्निग्ध, शीतल, भेदक और पित्तनाशक हैं। अपुष्पम्य प्रवालानां मुष्टिं प्रदेशसंमिताम् । क्षीर प्रस्थे शृतं दद्यात् पित्तोद्रिक्त कप.ज्वर। फलस्वरसभागश्च त्रिगुणक्षीरसाधितम् । उर:स्थिते कफे दद्यात् स्वरभेदे सपीनसे ।। हृतमध्ये फले जीर्णेस्थितं क्षीरं यदा दधि । जातं स्यात् कफजे कासे श्वासे वम्यञ्चतपिवेत् मस्तुना फलमध्यं वा पाण्डुकुष्ठ विषादितः। तेन तक्रं विपक्कं वा सक्षौद्रलवणं पिवेत् ।। तुम्ब्या: फलरसै: शुष्कः सपुष्पैरवचूणितम् । च्छईयेन्माल्यमाघ्नाय गन्धसम्पत्सुखोचितः।। चरकसंहिता कल्प: ३ अ० (दृढ़बल:)। वैद्यक में मीठे कद्दू के व्यवहार वाग्भट्ट-अश्मरी रोग में तुम्बी बीज-कह, के बीजों का चूर्ण शहद में मिलाकर खायें और ऊपर से भेड़ का दूध पियें । इस तरह सात दिन करने से अश्मरी रोग जाता रहता है । यथानृत्यकुण्डल बीजानां चूर्णमाक्षिक संयुतम् । अविक्षीरेण सप्ताहं पीतमश्मरीपातनम् ।। अरुणदत्त (चि० ११ १०) भावप्रकाश-प्रदर रोग में अलाबु-कह के गूदे को चूर्णकर चीनी और मधु मिलाकर मोदक प्रस्तुत करें। प्रदर की शान्ति के लिये यह मोदक सेव्य है । यथाअलाबुफल चूर्णस्य शर्करासहितस्य च । मधुना मोदकं कृत्वा खादेत् प्रदर शान्तये ।। (म० ख० ४ र्थ भा० ) यूनानी मतानुसार गुण-दोष-(लंबा कह लौकी) प्रकृति-द्वितीय कक्षा में शीतल और तर । मतांतर से द्वितीय कक्षा के प्रथमांश में सर्द और तर। कोई-कोई तृतीय कक्षा में सर्द एवं तर मानते हैं। स्वाद-किंचित् मधुर और हरायद होता है। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कह हानिकर्ता-कच्चे कह के दोषों का उल्लेख तो अति शीघ्र श्राहार बन जाता है । और क्योंकि यह आगे होगा, यहाँ पर उससे होनेवाले सामान्य | शीघ्रपाको विस्वाद एवं कैफियात रहिया से रिक दोषों का उल्लेख किया जाता है। कह. शीतल होती है । अतएव एतजन्य दोष शुद्ध वा निर्दोष प्रकृतिवालों को हानिकर है । यह बुड्ढों को हानि- होता है । परन्तु ऐसा उस समय होता है, जब कि - प्रद है । शीतल स्थान एवं शीतल ऋतु में उदर प्रामाशय में हजम होने से पूर्व या पश्चात् शूज (कुलज), श्राध्मान और उदर में गुरुता विकृति को प्राप्त नहीं हो गया होता । अस्तु,आमाउत्पन्न करता है । भूख घटाता है । इसके अधिक शय से जब इसको अंतः प्रविष्ट होने में विलम्ब सेवन करने से कफ को वृद्धि होती है। और कफ हो जाता है, तब यह विकृति को प्राप्त हो जाती के दूषित होने से वायु सौदा भी बनता है। वात है। क्योंकि प्राशु परिणति शील होने के कारण एवं कफ प्रकृति को हानिप्रद है। यह वस्ति को यह प्रामाशय स्थित ऊष्मा से अति शीघ्र प्रभाभी हानिप्रद है। वित होती है। पर यदि इसके साथ कोई एसी दर्पध्न--राई, पुदीना, सातर, जैतून का तेल, वस्तु सम्मिलित कर दी जाय, जो इसकी लहसुन, गरम मसाला और इसके ऊपर मदिरापान कैफियत पर ग़ालिब पाजाय उदाहरणतः यदि करना, उष्ण गुणविशिष्ट जवारिशें सेवन करना, इसको राई (खारदिल) के साथ सम्मिलित कर श्राव कामा, और इसे तपेदिकवाले को भी देवें । दिया जाय, तो इसका दोष-खिल्त तीक्ष्ण हो यह सुनिर्णीत है कि उष्ण प्रकृतिवालों के लिये जाता है। क्योंकि इसमें राजिका स्वभाव की उपलब्धि हो जाती है अर्थात् यह राई का स्वभाव केवल लवण, थोड़ा पुदीना या कालोमिच काशी है। इससे भिन्न दर्पघ्न ओषधियों की आवश्यकता ग्रहण कर लेता है । यदि इसको कच्चे अंगूर या शीतल प्रकृतिवालों के लिये होती है। सिरका खट्ट अनार वा सुमाक के साथ मिलाकर प्रयोग और कॉजी (आबकामा) सांद्रत्व दोषहारी है, किया जाय, तो यह पित्त प्रकृति वालों के लिये न कि शैत्यहर। शीत का निवारण तो गरम उपकारी सिद्ध होती है। क्योंकि एतजन्य दोष मसाले और उष्ण पदार्थों से होता है । उत्तम तो उक्त अम्लत्व विशिष्ठ द्रव्यों के कारण उनके तद्वत् यह है कि इसे गोश्त में पकायें। ( मतान्तर से उत्पन्न होती है। परन्तु उदरशूल-कुलंज रोग लौग और.जीरा, ऊदहिंदी, कालीमिर्च इत्यादि । में इसका हानिकर प्रभाव द्विगुण हो जाता है। प्रतिनिधि-तरबूज, कतीरा को भी इसकी कद्द, स्वयं अकेले भी कुलंज रोग पैदा करता है । प्रतिनिधि मानते हैं। मतांतर से पालक, खुरफा, क्योंकि यह पिच्छिल (लेसदार होता है। इसके पेठा और सर्द एवं तर शाकादि इसके प्रतिनिधि अतिरिक्त जब इसका जलीय तत्व-माइयत द्रव्य हैं कद्द और लौकी परस्पर दोनों एक दूसरे यकृताभिमुख अाकषित होता है. तब इससे पिका प्रतिनिधि है। च्छिल फोंक (सुफल) अवशिष्ट रह जाता है जिसमें पार्थिव तत्व-अर्जियत का प्राधान्य होता प्रधान कर्म—यह शैत्यजनक, एवं स्निग्ध है है । पुनः जब उक्न पिच्छिल मलभाग (फुज़ला) तथा उष्ण ज्वर, यकृदोष्मा और पिपासा को में शरीरोष्मा कार्य करती है, तब इसमें और भी शमन करता है और रक एवं पित्त के प्रकोप का | अधिक पिच्छिलता उत्पन्न हो जाती है। इसलिये निवारण करता है। वह प्रांतों से संश्लिष्ट हो जाता और उन्हीं में मात्रा-शक्ति अनुसार । लौकी का रस १- बंद होकर रह जाता है । इसके अतिरिक इससे तो० २ तोला । ग़लीज़ वायु प्रचुरता के साथ उद्भत होती है जो गुण, कर्म प्रयोग-कद्द ए दराज़ी श्राशु स्त्रोतों को अवरुद्ध करने में इससे मलांश-सुफल पतनाभिमुखी-सरीउल् इहिदार है। क्योंकि की सहायता करती है। जब इसमें यह संग्राही जलीयांश के प्राचुर्य के कारण यह प्राशु परिणित- द्रव्य मिल जायेंगे तो इसमें इन द्रव्यों का असर शील एवं शीघ्रपाकी होती है । इसी कारण यह | ___ आ जायगा इससे अवरोधोत्पादन क्रिया अवश्य Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३६ मेव वर्द्धित हो जायगी । लवण के साथ मिलाने से इससे लवणात दोष उत्पन्न होता है । कदू पिपासाहर है। क्योंकि इसमें प्रचुरता के साथ जलीयांश होता है। परन्तु अपरिपक्व कद मेदे के लिये रही होता है। क्योंकि कच्चे में पार्थिवांश अधिक और जलीयांश सद्विीभूत होता है ।त० न०। ___ कदू मूत्रल, स्निग्ध, शीतल, एवं अवरोधोद्धाटक है और पेट को मृदु करता है । यह पैत्तिक एवं उष्ण-प्रधान ज्वरों, संग्रहणी (खिलफा) कामला ( यौन ) शुद्ध एवं पैत्तिकं दोषोत्पादन, सरेसाम, उन्माद (हज़ियान) सिर एवं मस्तिष्क की रूक्षता को लाभकारी है। -मुफ० ना० ___ यह प्यास बुझाता, ऊष्म यकृत की ऊष्मा और पित्तजन्य श्राकुलता को दूर करता, सी और तरी पैदा करता, अवरोधोद्धाटन करता अधिक पेशाब लाता, कामला-यर्कान को दूर करता एवं चिरकालानुबंधी सग्रहणी में उपकार करता और पेट को मुलायम करता है । यह उष्ण एवं रूक्ष व्याधियों और गरम वा पित्त के ज्वरों में असीम गुणकारी है । यह कांति प्रदान करताजिला करता है। इसको पकाकर खाने से खन कम बनता है किंतु श्रामाशय से शीघ्र नीचे उतर जाता है अस्तु, यदि हजम होने से पूर्व किसी कारण वश यह विकृत न होजाय, तो इससे दुष्ट दोष उत्पन्न नहीं होता । परन्तु आमाशय में रही दोष से मिलने पर यह विकृति को प्राप्त हो जाता है। हजम से पूर्व या पश्चात् जब किसी वाद्य वा श्राभ्यांतरिक कारण से यह विकृति हो जाता है, तब इससे ख़राब खिल्त-दोष बनता है। किंतु जब लवण या राई से इसकी शुद्धि कर ली जाती है, तव उक्त अवगुण जाता रहता है। एक बात यह भी है कि कह, अकेला मेदे में शीघ्र विकृत हो जाता है और शीघ्र प्रकुपित दोषाभि नुख परिणत हो जाता और विषैला दोष उत्पन्न करता है । इसका हेतु यह है कि इसमें लताफ़त ( मृदुता एवं सूक्ष्मता) है। यदि किसी ऐसी वस्तु के साथ जो दोषानुकूल हो, खाया और पकाया जाय, तो उसकी कैफियत बदल जाती है। किंतु जिन्हें कुलंज-उदरशूल के रोग की | श्रादत हो, उन्हें इसका खाना उचित नहीं है ।। क्योंकि वायु उत्पन्न करने एवं फोक की पिच्छिलता के कारण यह कुलंज रोग उत्पन्न करता है शीतल प्रकृति वालों में यह अानाह उत्पन्न करता अर्थात् पेट फुलाता और वायु पैा करता है यह - साथ भक्षण की जाने वाजी चीज के तद्वत दोष । उत्पन्न करता है अतः तीक्ष्ण पदार्थ, जैसे राई और मसाला के साथ भक्षण करने से तीक्ष्ण दोष उत्पन्न करता है। और लवणात पदार्थ के साथ भक्षण करने से क्षारीय दोष विस्वाद वा विकसे एवं कषेले पदार्थ के साथ भक्षण करने से संग्राही दोष उत्पन्न होता है, इत्यादि । फिसलानेवाली शनि-कुन्वत इज्लाक के कारण यह उष्ण मलों को निः सारित करता है और इसी कारण आमाशय और प्रांतो को शिथिल एवं मंद करता है तथा दीर्घपाकी है । बृक्क की उष्णता तथा पैत्तिक और रक्त प्रकोप जन्य ज्वरों में इसका व्यवहार उचित है । शीतल प्रकृति वालों के लिये इसका सेवन उचित नहीं। अनिद्रा रोगी को इसके खाने से नींद आने लगती है और शरीर में तरावट पैदा होती है। पित्त प्रकृति वालों को इसे अनार ( खट्टा) या सुमाक व खट्टे अंगूर के साथ खाथ खाना चाहिये। इसके खाने से शरीर गत फुसियां मिठ जाती हैं। यह वीर्यवर्द्धक है। यदि यह प्रामाशय से नीचे न उतरे, तो विकृत होकर विष बन जाता है । कद्द की परिणति पित्त की अपेक्षा कफ एवं वायु की ओर अधिकोन्मुखता है। यह इस बात से सिद्ध है कि यह पित्त के जौहर के साथ उतनी मुनासिबत नहीं रखता जितनी कफ के जौहर के साथ रखता है । और भामाशय में यह जिस दोष की उल्वणता पाता है । स्वयं भी उसी में परिणत हो जाता है। इस लिये अधिक हानि होती है। क्योंकि उन दोष अत्यधिक बढ़ जाता है । वात एवं कफ स्वभाव वालोको यह अतिशय हानिप्रद है। क्योंकि उनकी ओर अत्यधिक परिणतिशील होता है या शीघ्र परिवत्यभिमुख होजाता मस्तिष्क जात शोथ और सरसाम को भी लाभ पहुंचाता है। ताजे Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३७ कर कह के सूधने से मस्तिष्क गत ऊष्मा का निवारण होता है। कच्चे कडू का रस निकाल कर लड़की की माँ का दूध या गुलरोग़न मिलाकर या अकेला कान और नाक में टपकाने से और उसमें कपड़ा भिगोकर खोपड़ी पर रखने से गरमी का सिर दर्द, सरेसाम, प्रलाप, उन्माद और अनिद्रा रोग पाराम होते हैं। इसका टुकड़ा सिर पर धारण करने और इसका लेप करने से भी उक्त लाभ होता है। कद्द. का ऐसा लघु फल जिसका फूल अभी न गिरा गिरा हो, लेकर आटे में लपेट कर अग्नि में भून लेवें। फिर उसे निकाल कूट-पीसकर रस निचोड़ें । इस रस के आँख में लगाने से नेत्र की पीत वर्णता दूर होती है । कह के फूल के रस से भी उक लाभ होता है । गरमी से आँख आने में भी यह गुणकारी है। इमली और खाँड़ के साथ कह को पकाकर मल-छानकर पीने से मस्तिष्कजात ऊष्मा गरमी का सिर दर्द वसवास (अशुभ चिंता) और उन्मादये आराम होते हैं । यदि वाष्पारोहण-तबख़ीर के | कारण आँख दुखने को पा जाय, तो उसे भी लाभ पहुँचता है। यदि गरमी के कारण कान में दर्द हो, तो इसका रस गुलरोगन में मिलाकर टपकायें। यदि कंठ के भीतर गरमी के कारण दर्द और सूजन हो तो इसके रस से कुल्लियाँ करें। इसको बकरी के मांस या आशजौ या मूंग की धोई दाल के साथ खाने से गरमी के कारण हुये सीने के दर्द और गरमों को खासी को लाभ होता है। शेख का कथन है कि यद्यपि कद्द, का रस एक कारण से उपकारक है; पर मूत्रल होने के कारण, अवगुण भी करता है । इसे सिरके के साथ खाने से इसकी ग़िलज़त (सांद्रता) जाती रहती है और यह मेदे से शीघ्र तले उतर जाता है। मांस के साथ पकाकर भक्षण करने से यह सम्यक एवं शीघ्र परिपाचित हो जाता है । इसे मुर्गी के बच्चे के साथ पकाकर भक्षण करने से मूर्छा दूर होती है और विषाक्त दोषों को विषाकता मिटती है तथा गरम पित्तें ? छूटती हैं। __ कच्चा कह पीसकर वृक्त, यकृत एवं आँतों पर लेप करने से उनकी गर्मी दूर होती है। कद्द, का सूखा छिलका पीसकर भक्षण करने से बवासीर का खून और प्रांतों से रक्त प्राना रुकता है। राजयक्ष्मा के रोगी के लिये इससे हितकारी अन्य कोई तरकारी नहीं है। ___ इसको भुलभुलाकर पानी निचोड़ कर पियें। यह हृदय, यकृत और प्रामाराय की गरमी तथा ज्वर शमन करने में अनुपम है। चीनी की चाशनी में इसका मुरब्बा पकाकर खाने से किसी भाँति गर्मी होती है । यह मुरब्बा भी अवरोधोद्धाटन करता है, दोषों को पतलालतीफ़ करता है मलों को छाँटता है और शरीर को स्थूल करता है । विशेषतः बादाम की गिरी के साथ श्रामाशय एवं यकृत को शकिप्रद और वाजीकरण है । यह उत्तम रक उत्पन्न करता और शीघ्र पच जाता है। परन्तु शर्त यह है कि प्रामाशय में कफ की उल्वणता न हो। यह मस्तिष्क की तरफ वाष्प चढ़ने नहीं देता और पेशाव की चिनक के लिये लाभकारी है। यह पोस्ते वा खसख़ास के साथ नींद लाता है । परन्तु शेख के कथनानुसार इसका मुरब्बा औषध में समाविष्ट नहीं होता। इसमें तनिक भी सर्दी या गर्मी उत्पन्न करने का गुण नहीं है । केवल स्वाद के लिये इसका व्यवहार करते हैं । यदि इससे निर्मित रायते में केवल उतनी मात्रा में नमक डालें, जितने में यह स्वादिष्ट हो जाय और इसके सिवा और कोई अन्य उष्ण एवं तीक्ष्ण वस्तु न डालें, तो यकृत की ऊष्मा एवं याकृतीयातिसार ( इसूहाल कबिदी) में अत्यन्त उपकार हो। __ कच्चा कद्द, आमाशय के लिये अत्यन्त हानिप्रद है । यदि युवा पुरुष इसे खा ले, तो उसे भी कभी कभी अतिशय हानि करता है। इसकी जलीयतामाइयत, ठीक बिकसाहट एवं विस्वाद प्रामाशय में गुरुत्व, शैत्य, उलश और वमन उत्पन्न कर देते हैं। कभी कभी ये दोष इतना बढ़ जाते हैं कि इनका निवारण असंभव हो जाता है। उस समय शहद का पानी या सोये का काढ़ा पीकर के करना चाहिये एवं ऊद हिंदी, लौंग, जीरा, सुश्रद Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३८ कद्द ( मुस्तक ), पुदीना और गरम जवारिश ये दर्पघ्न श्रौषध सेवन करना चाहिये । यथाशक्य बिना दर्पन श्रोषध के इसका सेवन उचित नहीं और विशेषकर कच्चा तो कदापि नहीं खाना चाहिये । क्योंकि यह श्रांतों को अतिशय हानिप्रद है और विशेषत: कोलून (वृहदन्त्र विशेष ) नाम्नी श्राँत के लिये तो यह बहुत ही हानिप्रद है । अम्ल पदार्थों के संयोग से उन श्राँत के लिये इसका वह अवगुण और भी बढ़ जाता है । कद्द ू में तेल डालना वा कालीमिर्च, राई, लहसुन, जीरा तथा और अन्य उष्ण पदार्थ मिलाना और लवण सम्मिलित करना, शीतल प्रकृति वालों के लिये उत्तम है । उष्ण प्रकृति एवं पित्त प्रकृतिवालों के लिये इसमें कच्चा श्रंगू, अनार के दानों का रस और सिरका मिलाना चाहिये । वैद्य कहते हैं कि कद्दू स्निग्ध, मधुर, गुरुपाकी बीर्यबर्द्धक, बाजीकरण, शीतल एवं बादी है । इसके गूदे से अधिक पेशाब आता है । यह कफ और पित्त दोष, खाँसी तथा कई अन्य व्याधियों को नष्ट करता है । इसका प्रलेप करने से पित्तज सूजन उतरती है । प्रलाप करनेवाले रोगी के शिर के बाल मुड़वाकर उस पर कह का गूदा बाँध देना चाहिये । कद्द ू के पत्ते सारक हैं। इसके पत्तों का काढ़ा पीने से काला रोग नष्ट होता है । कद्द को जलाकर उसकी राख श्रांख में लगाने से नेत्ररोग नाश होते हैं । पित्तज शिरोशूल में शिर पर कद्दू का गूदा लगाना चाहिये । कद्दू का रस तेल में मिलाकर लगाने से कई रोग नष्ठ होते हैं । - ख़० श्र० कद्दू का बीज ( अलाबू बाज ) पर्या० - लाबू बीज, तुम्बी बीज सं० । कद्दू का बीज, लौकी का बीज, लौश्रा का बीज, - हिं० । तुख्म कद्दू, तुख्म कदू ए दराज़ -फ़ा० । वज्र ल्क, हन्बुल् क - ० । टिप्पणी- जब केवल कदू का बीज' लिखा हो, तब उससे 'मीठा कदू' वा 'मीठा लोचा' अभि प्रेत होता है । प्रकृति - यह द्वितीय कक्षा में शीतल श्रोर प्रथम कक्षा में तर है । कद्द ू को हानिकर्त्ता - शीतल प्रकृति और वस्ति को । दर्पन - सौंफ ( और शहद प्रभृति ) तुम करफ़्स । स्वरूप - ऊपर से मैला वा भूरा और गिरी सफेद तथा चिकनो । स्वाद - मधुर, स्निग्ध, सुस्वादु और किंचित् हीकदार | प्रतिनिधि - खीरा, ककड़ी ( ख़ियारैन ) के बीज । और तरबूज के बीज और ( कतीरा ) मात्रा - १०॥ मा० से २ तो० ७ ॥ मा० तक ( मतांतर से ६ या ६ मा० ) गुण, कर्म, प्रयोग — इसकी गिरी शरीर को परिवृंहित करती, चलायमान दोपों को शाँत व स्थिर करती और मूत्र का प्रवत्तन करती है । यह सीने को कर्कशता - खुशूनत ( खुरखुराने ) को तथा मुख द्वारा रक्तस्राव होने को और गरमी की खांसी को गुणकारी है । यह प्यास बुझाती तथा पेशाब की चिनक एवं वस्ति-शोथ को लाभ पहुँचाती है । यह गरमी के ताप और अनिद्रा को मिटाती है। हृदय तथा मस्तिष्क को शक्ति प्रदान करती है । चाक कफ (बलगम शोर ) को प्रकृतिस्थ करती ( मं० मु० ) और उसमें जुज (परिपकता ) पैदा करती है । यह उष्ण वा पित्तज शिरोशूल को लाभ पहुँचाती, मस्तिष्क रूक्षता का निवारण करती, मूर्च्छा दूर करती और faura aौषधोंकी बिधानता का नाश करती है । वैद्यों के कथनानुसार ये बीज शीतल होते हैं और शिशूल निवारणार्थ श्रनेक प्रकार से व्यवहार किये जाते हैं। इनकी मींगों को पीसकर लेप करने से जिह्वा और होठों के चीरे मिटते हैं । - ख० श्र० । मुफ़रिदात नासिरी और बुस्तानुल मुफ़रिदात में यह अधिक लिखा है कि फेफड़े से खून श्राना, वस्ति और श्रांत्र-क्षत, वृक्क - कार्श्य, प्रकृति जात ऊष्मा, इन व्याधियों में यह लाभकारी है । कद्द ू का तेल पर्याय-तुम्बी-बीज तैल-सं० । कद्द का तेल - हिं० । रोग़न मज तुम कद्द - फ्रा० | दुहन हृब्बुल् नर्थ-श्रृ० । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३६ ac. निर्माण-क्रम-इलाजुल अमराज में उल्लिखित है कि कह का छिलका छोलकर गूदा और बीज दोनों को कूटकर रस निकालें । पुनः जितना यह रस हो । उसका चतुर्थांश तिल तैल मिलाकर तैलावशेष रहने तक मंदाग्नि से पकायें और शीतल होने पर उतार कर छान लेवें और बोतल में भर रक्खें। अथवा रोगन बादाम को भाँति मीठे कह के | बीजों की गिरी से तेल तैयार करें। (इसे कोल्हू में पेलकर भी तेल निकाला जाता है) यह अधिक लतीफ है। कभी इस तरह भी तेल तैयार करते हैं कद्द, का छिलका पृथक् करके सबको कुचलकर बकरी के गुर्दे की चरबी के साथ क्वथित करें और फिर शीतल करें। इसके बाद ऊपर-ऊपर से चरबी का उतार लेवें । गुण में यह भी पहलेवाले की अपेक्षा अधिक बलशाली है। प्रकृति-द्वितीय कक्षा में शीतल और प्रथम कक्षा में तर (सर्द तर) है। स्वरूप-पीताभ श्वेत । स्वाद-किंचिन् मधुर पर हीकदार । हानिकर्त्ता-अवगुण रहित है, पर भाई ( मरतूब) आमाशय को हानिप्रद है। दर्पघ्न-आवश्यकतानुसार मीठे बादाम का तेल । प्रतिनिधि–काहू के बीजों का तेल, रोगन बनफसा वा रोगन नीलोफर (मतांतर से कुष्मांड बीज तैल) मात्रा-६ मा० ६ मा० । प्रधान कर्म-मस्तिष्क और शरीर को तरी पहुँचाता तथा अनिद्रा को दूर करता है। गुण, कर्म, प्रयोग--यह शरीर में स्फूर्तिलाता और मस्तिष्क की रूक्षता दूर कर उसे तरावट वा स्निग्धता प्रदान करता है। यह शरीर नाक के नथुनों और कानों की रूक्षता को दूर करता, मस्तिष्क को शनिप्रदान करता, नींद लाता और शरीर को परिवृहित वा स्थूल करता है तथा शरीर, अनिद्रा' मालीखोलिया, पुट्ठों की ऐंठन, कर्णशूल, कान की गरम सूजन, उष्ण एवं रूक्ष कास, राजयक्ष्मा, तपेदिक, और रूक्ष प्राक्षेपतशनुज इन को लाभकारी है। खाने, नाक में सुड़कने, स्थान स्थान विशेष में टपकाने और अभ्यंग करने आदि किसी प्रकार से इसका उपयोग करने से उपकार होता है । प्रायः कठोरता को दूर कर उसे मृदुता प्रदान करता, गरम सूजन को उतारता और वाजीकरण है । वैद्यों के कथनानुसार कह के बीजों का तेल लगाने से शिरःशूल नाश होता है । ख० अ० बुस्तानुल मुफरिदात में यह अधिक लिखा है यह गरम तापों और मरोड़ के लिये अतिशय गुण कारी है। दम्मुल अखवैन के साथ सिर एवं शरीरस्थ क्षतों को लाभ पहुंचाता है । किसी-किसी प्रकृतिवाले के लिये वाजीकरण है। विशेषतया उन लोगों के लिये जिनमें उष्मा और रूक्षता अधिक हो, यह अतीव गुणकारी हैं। नव्यमत श्रार० एन० खोरी-बहुशः अवलेह और मोदकादि में मिष्टअलावू का गूदा व्यवहृत होता है। मिष्ट अलाबू का बीज पोषक और मूत्रकारक होता है एवं कुष्मांडादि बीज पंचक का यह एक उपादान है। मेटीरिया मेडिका आफ इंडिया-२ य खं० पृ. ३१२ । के. एम. नादकर्णी- इसकी पत्तियाँ और फल खाद्योपयोगी हैं । पत्तियां रेचक हैं । आरोपित कह के फल का गूदा सफेद, मधुर, खाद्य, शीतल मूत्रकारक और पित्तघ्न है । वीजजात तैल शीतल होता है । बीज पोषक और मूत्रकारक होता है। इसके बीजों से एक प्रकार का स्वच्छ गाढ़ा तेल प्राप्त होता है जो शिरः स्निग्ध कर एवं शिरःशूल निवारण रूप से व्यवहार में आता है। इसका श्राभ्यन्तर प्रयोग भी होता है। कभी-कभी प्रारोपित कद्द, का गूदा विरेचन औषधों के उपादान स्वरूप अनेक अवलेह एवं मोदकादि में भी पड़ता है । यह कास में गुणकारी है और कतिपय विषों का अगद है । पाददाह में तलुओं पर और प्रलाप में वालमुडित सिर पर इसके गूदे की पुल्टिस रखी जाती है । इससे तलुओं की जलन दूर होती है और शिर ठंडा होकर प्रलापादि दोष निवृत्त होते हैं । इलाजुल गुर्वा में लिखा है कि काहू के Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४० बीज, कद्द 2 के बीज, तरबूज के बीज और पोस्ते के बीज - इन्हें बराबर-बराबर लेकर कोल्हू में पेलवाकर तेल निकालें इसे सिर पर मर्दन करने से श्रनिद्रा रोग नाश होता है। योनि संकोचनार्थ कद्द ू के बीज और लोध-इन दोनों को पानी में पीसकर योनि में लेप करें। इसकी पत्तियों के काढ़े में शर्करा मिलाकर पीने से कामला रोग आराम होता है । - ई० मे० मे० पृ० ४६६-७ तितलौकी या कटुतुम्बी पर्या॰— कटुकालाम्बुनी, तुम्बी, लम्बा, पिण्डफला, इच्वाकुः, तत्रियवरा, तिक्तबीजा, महाफला ( ध० नि०), कटुतुम्बी, कटुफला, तुम्बिनी कटुतुम्बिनी, वृहत्फला, राजपुत्री, तिक्रबीजा, तुम्बिका ( रा० नि० ) इक्ष्वाकुः, कटुतुम्वी, तुम्वी महाफला ( भा० ) विट्फला, राजन्या, प्रवरा, वरा, तिक्कालाँबू, दुग्धनिका, दुग्धिका, (केयदेव) फलिनी, चरः, पिण्डफला, (ज०), लम्बा (मे० ) इक्षा : ( ० ), तिक्रतुम्बी, कटुकालाबुः, नृपामजा, (२०) तिक्तका, कटुतिलिका, तिक्कालाबुः, कटुम्बिका, तुम्बा, तुम्बिः, तुम्बिका, कटुकफला, -सं० । तितलौकी, कड़वी तुम्बी, कड़वी लौकी, जंगली कद्द ू, कडूलौकी, तु'बी, तुमड़ी, कडुभिया तुंबा, हिं० । तित्लाऊ, तेंतोलाऊ, तिलाऊ, - बं० । कदूए तहख - ना० | कर्उल् मुर्र -श्रु०। The ( bitter) bottle gourd, बिटर पंपकिनू bitter pumpkin -श्रं० । लैजीनैरिया वल्गैरिस Lagenaria Vulgaris, Seringe कुकुरविटा लैजीनैरिया Cucurbita Lagenaria -ले० । गोर्डी Gourde - फ्रां० । फ्लैशेन कुर्विस Flas chen kurbis -जर० । शोरैकाय - ता० । मद० | निश्रान, सुरकाय, अनप्काय ते० । गादुदि, कटु चुरम्, अनपकाय - मल० । रान भोपला, कढूभोम्पट्ठा, कहिसोरै, कडु भोंपूला, कहुदुधी कडुदुधि ( भोपला ) - मरा०, कना०, कडु भोपला - चम्ब० । कड़वी तुम्बड़ी, कड़वीभोंपला - गु० । कडुदुद्दी - कों० । तिल लाबु - सिंहली । कह कुष्माण्ड वर्ग ( N. O. Cucurbitaceae ) उत्पत्ति-स्थान- इसकी बेल समग्र भारतवर्ष में या तो जंगली होती है, या लगाई जाती है । औषधार्थ व्यवहार - मूल, पत्र, फल, बीज-जात तेल | औषध - निर्माण —तुम्बी तैल, ( च० द०; भैष ), । इक्ष्वाकु कल्प | बीज, आयुर्वेदीय मतानुसारकासश्वासच्छर्दिहरा विषार्ते कफकषिते । इक्ष्वाकुमने शस्तः प्रशाम्यति च मानवः ॥ कटुतुम्बी कटुस्तिक्ता वातकृच्छ वासकासजित् । * कासनी शोधनी शोफणशूलविषापहा ॥ * द्वितीयाभिन्नविक्रान्ता गुर्वीरुक्षाऽतिशीतला । ( ध० नि० ) और छर्दि (वमन) का नाश करती है । बिष और कफ से पीड़ित मनुष्य को इससे वमन करना श्रेष्ठ उपाय है । इससे उसको श्राराम होता है । तितलौकी - कास, श्वास, कटुतुम्बी कटुस्तीक्ष्णा वान्तिकृच्छ वास वातजित् । ( कासनी शोधनी शोफत्रणशूल विषापहा ॥ ) ( रा० नि० ) वितलौकी - कटु, तीच्ण, वान्तिजनक, श्वास और वातनाशक ( कास निवारक, शोधक, तथा सूजन, व्रण, शूल और विषनाशक है । कटुम्बा हिमाद्या पित्तकास विषापहा । तिक्ता कटुविपाके च वातपित्त ज्वरान्तकृत् ।। ( भा० ) कड़वी तुम्बी वा तितलौकी शीतल, हृद्य है तथा यह पित्त, खाँसी और बिष को दूर करती है । यह स्वाद में कड़वी, विपाक में वरपरी, और वात पित्त ज्वर को दूर करती है । aggम्बी रसेपाके कटु द्या च शीतला । तिक्ता वान्तिकरी श्वास - कास- हृच्छोधनीमता ॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर वातशोफ व्रण विषशूल पित्त ज्वरापहा । पर्णं पाके तु मधुरं मूत्रशोधनमुत्तमम् ॥ पित्तशान्तिकरं ज्ञेयं फले पर्णसमा गुणाः । (वै निघ०) तितलौकी रस और पाक में चरपरी, हृद्य, शीतल, कड़वी, वामक, श्वास-खाँसी और हृदय को शुद्ध करनेवाली है तथा वात, सूजन, व्रण, बिष, शूल, पित्त और ज्वर को नाश करनेवाली है। इसकी पत्ती पाक में मधुर, उत्कृष्ट मूत्रशोधक और पित्तनाशक है। राजवल्लभ के मत से यह लघुपाकी. कफवातनाशक, पाण्डुहर और कृमिनाशक है । गण निघंटु में इसे रस और पाक में शीतल और लघु लिखा है। केयदेव के मत से यह पाक में कटु वात और पित्तनाशक, ज्वरनाशक, अहृद्य और शीतल है। तितलौकी के वैद्यकीय व्यवहार चक्रदत्त-(१) अश्मरी में तिकालावुरसपकी सितलौकी का स्वरस जवाखार और चीनी मिला सेवन करने से अश्मरी का नाश होता है। मात्रा-स २ तोला, यवक्षार चीनी २॥ तो. यथा "अश्मा तिक्तालावुरसः क्षार: सितायुतोऽश्मरीहरः" (अश्म-चि०) (२) गलगण्ड में तिक्तालावु-पकी तितलौकी के भीतर एक सप्ताह पर्यन्त जल वा मद्य भर कर रखें। इसके बाद उन मद्य वा जल को पियें और गलगण्डोपयोगी पथ्य सेवन करें। यह गलगण्ड में हितकारी है। यथा"तिक्तालावुफले पके सप्ताहमुषितं जलम् । मद्यं वा गलगण्डघ्नं पानात् पथ्यानुसेधिनः ॥ (गलगण्ड-चि०) (३) अर्श में तिकालावु वीज-तितलौकी के वीजों को उद्भिद लवण के साथ कॉजी में पीसकर तीन गोली बनायें। इन्हें गुदा में धारण कर भैंस का दही मिलाकर भोजन करें। यह अर्श में हितकारी है । यथा"तुम्बीबीजं सौद्भिदन्तु काञ्जिपिष्टं गुड़ीत्रयम् । अर्शोहरं गुदस्थं स्यादधि माहिषमश्नतः॥ (अर्श-चि०) भावप्रकाश-योनि रोग में तिकालावु पत्रप्रसूता स्त्री की योनिमें क्षत हो जाने पर तितलौकी की पत्ती और लोध्रत्वक इनको बराबर बराबर लेकर जल में पीसकर योनि में लेप करें । यथा"तुम्बी पत्र तथा लोभ्रं समभागं सुपेषयेत् । तेन लेपो भगे कार्यः शीघ्र स्यायोनिरक्षता"।। (म० ख० ४ भा०) (२) दशनक्रिमि में तिकालावुमूल-तितलौकी की जड़ का वारीक चूर्ण कर क्रिमिभक्षित दन्तच्छिद्र में भर देवें। यह दन्तकृमिनाशक है। यथा "कटुतुम्बीमूलम्। सञ्चूगर्य दशनविधृतं दशनक्रिमिनाशनं प्राहः ।" हारीत (१) शोथ में कटुतुम्बी"लोमशा कटुतुम्बीच काञ्जिकेन जलेनवा। निकाथ्य चापि संस्वेद स्तथैवोष्णेन तेन च ॥ (चि० २६ अ.) (२) कर्णरोग में कटुकालावु-कर्णरोग में तितलौकी के फल का रस कान में धारण करने से उपकार होता है । यथा"तुम्बी रसश्च धार्येति कर्णरोगे प्रशस्यते। (चि. ४३ अ०) नोट-चरकोक्न कतिपय अन्य प्रयोगों के लिये देखो-"इक्ष्वाकु कल्प"। यूनानी मतानुसार गुण-दोष प्रकृति-उष्ण वल्कि अतिशय उष्ण और रूत है। यह विषैली वस्तु है । महजन मुफ़रिदात के अनुसार तृतीय कक्षा में उष्ण और रूत)। वैद्य भी उष्ण वीर्य लिखते हैं । पर किसी-किसी के मत से तिक वीजा तुम्बी शीतल होती है। स्वरूप-बाहर से हरी और पीली तथा भीतर से सफ़ेद होती है। स्वाद-अतिशय तिक एवं तीक्ष्ण । हानिकर्ता-आमाशय को (म० मु.),प्राय: अंगों के लिये हानिकर है और लगभग विष है। ___ दपघ्न–कै करना, तैल और स्निग्ध पदार्थ (म० मु०, बु० मु०)। यह विष है, अस्तु अभक्ष्य है। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४२ गुण, कर्म, प्रयोग–यह तुमड़ीकी एक किस्म है, जिसके बीज कड़ ए होते हैं । यह शीतल एवं हृय है तथा विष, कास और पित्त का नाश करती | है। इससे बीज प्रत्येक मासांत में लाकर पीस लेवें और उसे आदी-स्वरस की इक्कीस भावना देकर तैल खींचे और उसे शीशी में सुरक्षित रखें। इकतालीस दिन इस तेल का अभ्यंग करने से अंग रद होता है । कहते हैं कि इस तेल में पारा बंध जाता है । कबु ए बीज की तुंबड़ी की जड़ सूर्य ग्रहण के समय ले आवें । यह जड़ जब तक कटि में बँधी रहेगी,वीर्य स्खलित नहीं होने देगी। ता० श०। __ यह प्रवल वामक है । तर दमा ओर खाँसी में इसके द्वारा कै करने से उपकार होता है। इसके दाँतों पर मलने से दाँत दृढ़ होते हैं । पकी हुई सूखी तितलौको लेकर चीरें । उसके सिर (गूदा और डंडी का मध्य भाग) में मकड़ी के जाले की सरह एक सफ़ेद पर्दा होता है, उसे लेकर बारीक चूर्ण करें । पित्तज कामला रोगी (यान ज़र्द) को यह चूर्ण थोड़ा थोड़ा सुंघायें। इसमें नाक से पीले रंग का द्रव सावित होकर रोगी आरोग्य लाभ करेगा । ताजी हरी तितलौकी को काटकर रात को पोस में रख देवें । प्रातःकाल उस पर पड़ी हुई मोस की बूंदें लेकर कामला रोगी की नाक में टपकायें। आँख की पीतवर्णता निवारणार्थ यह अनेकों बार का परीक्षित है । यदि बंदाल का फल और तितलौकी का गूदा-इनको पोस कर सुंघायें। इससे भी उपयुक्र रोग में बहुत उपकार होता है। इसका सिर काटकर पानी में तर करें और इसे दिन भर धूप में और रात भर श्रोस में रखें । फिर प्रातः काल इसमें से दो बूंद कामला रोगी की आँख में लगायें। इसके दो घड़ी बाद, हड़ का बक्कल और मिश्री इन दोनों का चूर्ण हथेली पर रखकर फैंकायें । उस दिन दहीभात खिलायें। इससे कामला रोग आराम होता है। बनाई के संकलनकर्ता ने इसे अपना परीक्षित वर्णन किया है। तितलौकी की जड़ उष्ण और रूक्ष है। यह सरदी के शोथों को विलीन करती है और सरदी | के दर्द को लाभ पहुँचाती है। __ वैद्यों के कथनानुसार तु बड़ी गुरु एवं तीक्ष्ण है किसी किसी के अनुसार यह लघु है एवं कफ तथा पित्त का नाश करती है। इसका पानी या वीजों की गिरी पीसकर नाकमें टपकाने से कामला रोग आराम होता है । तिकवीजा तितलौकी को कतिपय वैद्य हृद्य लिखते हैं । वे इसे विष, पित्त एवं कासनिवारक भी लिखते हैं। इसका तेल शरीर पर मर्दन काने से अंग पुष्ट होते हैं । इस काम के लिये इसका तेल इस प्रकार प्रस्तुत करें तो यह अधिक गुणकारी सिद्ध हो । विधि यह है-प्रथम इसके बीजोंको श्रादीके रसमें भिगोकर सुखा लेवे । फिर इसका तेल खीचें। इस तेल में पारा अग्निस्थायी हो जाता है। कडु ये बीज की कह की जड़ सूर्य ग्रहण के समय उखाड़ लावें। यह जड़ जब तक कटि में बँधी रहेगी,वीर्य-स्खलित नहीं होगा। तितलौको की बेल के सभी अंगों को लेकर सुखा लेवें । फिर उसे कूटकर गरम पानी में घोलें और उस पानी में दोनों पाँवों को डुबो रखें थोड़ी देर पश्चात् जब मुख का स्वाद कड़ा हो जाय, तब पाँवों को उस पानी के बाहर निकाल लेवें ओर काफी कपड़े श्रोढ़कर पसीना लावें । इससे कुष्ठ एवं पुरानी खुजली पाराम होती है। परीक्षित है। तितलौकी के भीतरी भाग को बिना पूर्णतया साफ किये, उसमें खान-पान की वस्तु भरी रखकर, कुछ देर पश्चात् उसे खाने-पीने से विशूचिका की तरह -दस्त होने लगते हैं। यदि इसका समय से उचित उपाय न किया गया, तो इसे खाने वाले मनुष्य के जीनेकी कोई प्राशा नहीं की जा सकती। इसके गूदे का रस एक-दो बूंद नाक में डालने से सिरका दूषित जल बहने लगता है और नाक की दुगंधि जाती रहती है। इसको गुड़ और काँजी के साथ पीसकर लेप करने से बवासीर आराम होता है । इसमें सप्ताह पर्यन्त जल भरा रखकर, उस जल को पीने से गंडमाला मिटतो है। इसके बीजों के लेप से फ्रालिज़ पाराम होता है। इसके पत्ते और लोध पीसकर लेप करने से व्रणपूरण होता है।-ख० अ० __थोड़ी मात्रा में खाने से यह बहुत कै लाती है । इसको खाकर कै करने से सर्द और तर दमा एवं - चिरकारी तर खाँसी में उपकार होता है। इसके Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कह २०४३ फूलों (तुम्वी पुष्प) का रस नाक में टपकाने वा | .. Rhinitis) इसके रस की कुछ बूदें नाक में सुड़कने से कामला एवं मस्तिष्क की तर व्याधियाँ टपकावें। -डं० मे० मे . ४६०-७ दर होती हैं। सूखी हुई तुबी को चीरकर उसके डॉक्टर वर्टन ब्राउन ( Dr. Burton सिरे के गढ़ का पर्दा निकालकर उसे महीन पीस Brown) =एतजन्य विषाक्रता के लक्षण लेवें, उस कामला रोगी को जिसकी आँख और प्रायः बंदाल वा इन्द्रायन जनित विषाक्रता के मुखमंडल तक पीला पड़ गया हो एवं प्रायः तर सरा लक्षण होते हैं । फा००२ भ०। मस्तिष्क व्याधियों में इसका नस्य देने से पीले | कदाना-संज्ञा पुं फा०] एक प्रकार का उदर रंग का द्रव और कफ नाक से निकल कर उक्त कृमि जो कह के वीज की तरह होता है। स्फीत रोग आराम होते हैं। यह लगभग विष है। कृमि । बध्नाकार कृमि । ( Fap worm) दे० "कृमि"। नब्यमत कद्रु-वि• [सं० त्रि.] पीला | पिंगल वर्ण विशिष्ट । आर० एन० खोरी-तिन अलाबू का गूदा गंदुमो का भूरा । वामक और रेचक है । तिक्कालाबू बीजजात तैल ___संज्ञा पुं० [सं० पु० ], (१) पीला रंग। शीतल एवं शिरः स्निग्धकर है। (मेटीरिया पिंगल वर्ण। भूरा वा गेहुवाँ रंग । (२) चिरौंजी मेडिका श्राफ इण्डिया -खं० २, पृ. ३१२) का पेड़ । पियार । प्रियाल वृक्ष । ०टी० भ०। डीमक-इसका सफेद गूदा बहुत कड़वा कद्रुज-संज्ञा पुं॰ [सं०] कद्र से उत्पन्न । नाग। और प्रबल वामक और बिरेचक होता है । भारत सर्प । सांप। बर्ष में इसका गूदा बिरेचनार्थ अन्य औषधियों के कद्रुण-वि० [सं० त्रि०] पिंगल वर्ण युक्र । गंदुमी । साथ देशी चिकित्सा में व्यवहृत होता है । पुल्टस | भूरा। रूप में इसका बहिर प्रयोग भी होता है। इसका दुपुत्र-संज्ञा पु० [सं० पु.] नाग । सर्प। बीज प्रथमतः प्राचीनों के शीतल चातुर्बीज का | साँप । एक उपादान था, परन्तु अधुना कदू ( Pump ___ संस्कृतपर्याय-कावेय, कच कालु और kin) के बीज प्रायः उसकी जगह काम में कनुसुत । पाते हैं । कामला में हिन्दू लोग इसकी पत्ती का | का कद्वर-संज्ञा पु॰ [सं. क्री० ] (१) वधि स्नेह युक्त काढ़ा व्यवहार करते हैं । यह बिरेचक होता है।। तक । पानी मिला मट्ठा । (२) दुग्ध का पानी । फा० इं० २ भ०। श्राब-शीरा । तोड़। डुरी-कामला में इसकी पत्तियों का काढ़ा | कद्ह-अ.] [ बहु० कुदूह] जख्म का निशान । शर्का मिलाकर दिया जाता है । प्रण चिह्न । क्षत चिह्न । (Sear) नादकर्णी-इसका गूदा कड़वा, वामक और नोट-कद्ह स्वादश से बढ़ी हुई अवस्था के इन्द्रायन की भाँति तीव्र विरेचक ( Drastic. | लिये प्रयुक्त होता है। purgative )है । बीज पोषक एवं मूत्रल है। कद्ह-[१०] (1) दे० "कतह"। वीजजाततैल शीतल है । इसके फल को जलाकर | कधि-संज्ञा स्त्री० [सं० पु.] जल, पानी । राख करें। इसे शहद में मिलाकर प्रांख में लगाने क़नः-[अ] नारफील । (Common Galbसे रतौंधी दूर होती है। इसके फल का रस और ____anum) मीठा तेल (Sweet oil) दोनों सम भाग कनः क्रन:-[फा०] कुनैन । लेकर तैलाबशेष रहने तक पकायें । इस तैल के | कन-संज्ञा पुं॰ [सं० कण] () चावलों की धुन । लगाने से गंडमाला आराम होता है। इलाजुल ___ कना । (२) बालू वा रेत के कण । (३) कनसे गुर्वा में प्रलापावस्था में इसका शिरोऽभ्यंग करने वा कली का महीन अंकुर जो पहले रवे के ऐसा को लिखा है। नासारोग में (Atrophic | दिखाई पड़ता है। (४) कान का संक्षि रूप Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कनकाद २०४४ संज्ञा पुं० [ मल० ] बरना | वरुण । संज्ञा पु ं० [ गु० ] कंद | गड्डा ( गु० ) । (Bulb or Tuber) नाद - [ श्रु० ] एक प्रकार की मछली । कनइल - संज्ञा पुं० [देश० ] कनेर । करवीर । कनई -संज्ञा स्त्री० [सं० कांड वा कंदल ] ( १ ) कनखा नई शाखा । कल्ला । कोपल । ( २ ) कीचड़ । गीली मिट्टी । जो यौगिक शब्दों में श्राता है। जैसे - कनपटी | कनकइया - [ कना० ] लताफटकरी | कानफटा । कर्ण कनपेड़ा, कनछेदन | स्फोटा, दे० " कनफोड़ा" । कनक कदली-सज्ञा पुं० [सं० केला । कनक कन्दर्प रस - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] एक वाजीकरण श्रौषधि | शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, सोने की भस्म और लोह भस्म बराबर बराबर लेकर ताँबे के खरल में कज्जली बनायें । फिर इसे सरसों और काले धतूरे के स्वरस में ३-३ दिन तक खरला करें। इसके पश्चात् ३ दिन तक सरसों के तेल में घोट कर धूप में सुखायें। फिर इसे यथाविधि बालुकायंत्र में तब तक पकायें, जब तक कि बालू गरम हो जाय। इसके पश्चात् उसे स्वाङ्ग शीतल हो जाने पर निकाल कर रखें 1 इसे "हेमाङ्ग सुन्दर रस" कहते हैं। इसमें पारे का चौथा भाग स्वर्ण भस्भ तथा कान्त लोह भस्म और वैक्रान्त भस्म मिलालें तो इसका नाम "कनक कदपरस" हो जाता है। गुण तथा उपयोग विधि - इसे १ माशा की मात्रानुसार मिश्री, शहद और घी में मिलाकर कोष्णा गो दुग्ध के साथ १२ दिन तक सेवन करने से धातु क्षीणता दूर होकर अत्यन्त काम की वृद्धि होती है । व्यवहारिक मात्रा १ रती है । रस० र० वाजी० । कनउंगली - संज्ञा स्त्री० [सं० कनीयान, हिं० कानीx उगली ] सबसे छोटी उंगली । कनिष्टिका, कानी उँगली । कान खुजलाने में प्रायः काम श्राने से हाथ की सबसे छोटी उँगली 'कन उँगली” कहलाती है । कनक - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( १ ) कसौंजा । कासमर्द्द क्षुप | रा० नि० व० ४ | के० दे० नि० | (२) जयपाल वृक्ष | जमालगोटे का चुप । (३) पलाश (रक्त ) । टेसू का पेड़ । ढाक । च० चि० १ ० । ( ४ ) नाग केसर का पेड़ । (५) चंपे का पेड़ । चम्पक वृक्ष । ( ६ ) काली अगर कृष्णहागुरु वृक्ष | मे० कनिक । ( ७ ) धुस्तूर वृक्ष । धतूरे का पेड़ । यथा - " निशाकनक - कल्का भ्यां । " - प० मु० । (८) एक प्रकार का गुग्गुल कण गुग्गुल । कनक गुग्गुल | रा० नि० वo १२ | ( 8 ) लाख का पेड़ अर्थात् पलास ) लाक्षातरू । श० मा० । १० ) काला धतूरा | कृष्ण धुस्तूर | रा०नि० १० । भैष० वात चि० विषसिंदु तै । ( ११ ) लाल कचनार का पेड़ | कांचनार वृक्ष । ( १२ ) कालीय वृक्ष | कलम्बक | पीला चन्दन | (१३) खजूर । (१४) 1 तून | तूणी । ० कनकचम्पा संज्ञा पुं० [सं० नी० ] ( १ ) सोना । सुवर्ण (२) सुहागा, टङ्कण । ( ३ ) कसौंदी | नि० शि० । संज्ञा पुं० [सं० कणिक गेहूं का आटा ] ( १ ) गेहूं का श्राटा । कनिक । (२) गेहूं । संज्ञा पु ं० [ ० ] बांस । संज्ञा पु ं [ पं० गेहूं । एक प्रकार का कनक गैरिक-संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] खूब लाल गेरु | सोना गेरु । स्वर्ण गैरिक भा० म० ४ भ० विषचि० । कनक चम्पक-संज्ञा पुं० [सं० पु ं०] दे० " कनक चम्पा, कनकचम्पा -संज्ञा पु ं० [सं० कनकचम्पकः ] मध्यम श्राकार का मुकुन्द जातीय एक वृत्त जिसकी छाल खाकी रंग की होती है। इसकी टहनियों और फल के दलों के नीचे की हरी कटोरी रोएँदार होती है । इसके पत्ते बड़े और कुम्हड़े, ननुए श्रादि की तरह के होते हैं । फल इसके अत्यन्त सफेद और मीठी सुगंध के होते हैं। यह दलदलों में प्रायः होता है । बसंत और ग्रीष्म में फूलता है फूल सुगंधिविशिष्ट होता है। इसकी लकड़ी के तख्ते मजबूत और अच्छे होते हैं । पर्या॰—कनकचम्पकः, कर्णिकार, कर्णिकारक -सं० । कनियार, कनकचंपा, कनिधारी, कलियारी, Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कनकचंपा कनकतैल कलिभार, कनिबार, काठचम्पा-हिं० । कर्णिकार, नादकर्णी-इसके पीताभ सुरभित पुष्प श्वेतकनक चांपा, मूस-बं०, बम्ब० । मत्सकंद ते०, प्रदर एवं प्रामाशयिक वेदना (Gastralgia) मद० । रेल्ल चेछु, कोंडगोगुचेद्दु, गोगुचेटु-ते०। में और पत्रावृत रोम रकस्तंभक रूप से व्यवहार हाथी पाइला-सिक्कि, नैपा.। मचकुन्द-संथाल । किये जाते हैं।--इं० मे० मे० पृ० ७१६ लैदीर-मेची । तौंग-पेट्ट-बुन, था-मजम-वेई-सोके चोपरा के अनुसार इसके फूल और इसका बरबटेरोस्पर्मम् असेरीफोलियम् Pterosper छिलका छोटी माता की फुन्सियों के पीव को बन्द mum acerifolium, Willd.-ले०। करने के लिये काम में लिया जाता है। अवार्नब्लैटीगर फ्लुजेल्सामेन Abornblattri | कनकचूर-संज्ञा पुं० एक प्रकार का धान । कनकचूर ger Flugelsamen-जर० । गैक-मग़. । की लाई से गुड़ को श्रामन बनती है। ... मुचकुन्द वर्ग कनजीर, कनकजीरा-संज्ञा पुं० [सं० कनक+हिं० (N. O. Sterceliacece ) जीर ] एक प्रकार का महीन धान जो अगहन में उत्पत्ति-स्थान--यह वृक्ष भारतवर्ष के नाना तैयार होता है। इसका चावल बहुत दिन नहीं स्थानों में उत्पन्न होता है। श्राद्र भूमि में यह बिगड़ता। प्रायः पनपता है । उत्तर पश्चिम हिमाचल से | कनकजोद्भव-संज्ञा पु० [सं० पु. ] राल । लोबान कुमाऊँ, बंगाल चिटागाँग और कोंकण में पाया रा०नि० व० १२ । जाता है। हिमालय के नीचे के हिस्से में व | कनकझिङ्गा-संज्ञा पु एक पेड़। (Polygonum पहाड़ियों पर ४००० फुट की ऊँचाई तक होता है। elegans) बम्बई प्रांत में काफी बोया जाता है और श्याम में | कनकटा-वि० [हिं० कान काटना] जिसका कान भी पैदा होता है। कटा हो । बूचा। औषधार्थ व्यवहार-पत्र, छाल, फूल कनकटी-संज्ञा स्त्री० [हिं० कान+काटना] कान के गुणधर्म तथा प्रयोग पीछे का एक रोग जिसमें कान का पिछला भाग कटुतिक्तः लघुः शोधनस्तुवरः रञ्जनः । जड़ के समीप लाल होकर कट जाता है और सुखदः शोथ श्लेष्म रक्तव्रण कुष्ठहरश्च ।। उसमें जलन और खुजली होती है। (रा०नि०व०१) कनकतैल-संज्ञा पुं॰ [सं० को०] (१) शिरो रोग कनकचंपा-कडुअा, चरपरा, हलका, कसेला में प्रयुक्त उक नाम की तैलोषधि-धतूरा, आक, शोधक, रञ्जक एवं सुखद है तथा यह सूजन, कफ बला, दूर्वा, अडूसा, अरनी, संभालू, करज, रन, व्रण और कोढ़ का नाश करता है। भारंगी, निकोठक (अंकोल ), पुनर्नवा, बेर, नव्यमत भांग के पत्ते, बेरगिरी, बड़ी कटेली, चीता, सेहुँड डीमक-इसकी पत्ती के पृष्ठ पर लगी हुई की जड़, अरनी, वायबिडंग, निशोथ, मजीठ, सफेद रोई का पहाड़ी लोग रकस्तंभनार्थ व्यवहार गोमठी ( गोरोचन ) और अमलतास के पत्ते करते हैं । सपूय मसूरिका (Suppura प्रत्येक २-२ पल । सबको १ द्रोण पानी में पकावें tingsmall-pox) में कोंकण-निवासी इसके जब चौथाई भाग शेष रह जाय तब उतार कर फूल और वृक्ष की छाल ( Charred ) छानले । इस क्वाथ और इन्हीं चीजों के कल्क से को कमीला के साथ मिलाकर लगाते हैं -फा० १ प्रस्थ तेल तीब्र अग्नि पर पकाएं। इ. १ भ. पृ. २३३। गुण-यह तेल नेत्र पीड़ा, शिरःशूल, मांस गैम्बल-पत्तियों पर लगे हुये रोएँ क्षनजात : रकज श्लीपद, श्रामवात, हृदयपीड़ा, अण्डवृद्धि, रक्रस्राव स्तंभनार्थ ब्यवहार किये जाते हैं। गलगण्ड, सूजन, बधिरता, उदर रोग खाँसी, टी० एन मुकर्जी कनकचंपा के फूल सार्व और कफ रोगों का नाश करता है। दैहिक वल्य औषधरूप से व्यवहार में पाते हैं। परीक्षा-यदि इस तेल की बूद दूर्बा घास ई० मे• • पर डालते ही वह तत्काल सूख जाय तब तेल Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कनकधत्तूर २०४६ कनकरस उत्तम सिद्ध समझना चाहिये । भै० २०शि० होता है। योग-चिन्ता० । भैष २० ज्वराती. रो. चि०। चि.। (२) मधु के कषाय में एक कुडव तैल और (२) शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, काली मिर्च, मंजीठ, लालचन्दन, नोलोत्पल और भुना सोहागा, एक एक भाग, सबके बराबर धत्तुर नागेश्वर प्रत्येक का चार-चार तोले करक डालकर बीज, सिगिया बिष १ भा०। बारीक चूर्ण कर पाक करने से यह तैल प्रस्तुत होता है। इसके भांगरे के रस में दोपहर अच्छी तरह घोटें। प्रयोग से मुख की कांति बढ़ती और चक्षुःशूल मात्रा-२ रत्ती। शिरःशूल प्रभृति रोग मिटते हैं। -च० द । गुण-इसके सेवन से वातातिसार शीघ्र दूर कनकधत्तर-संज्ञा पुं॰ [सं०] एक प्रकार का धतूरा। होता है। कनकपराग-संज्ञा पुं० [सं० पु.] सुवर्ण रेणु । पथ्य-भात के साथ बकरी या गऊ का दही सोने का बुरादा। (बृहत् रस रा० सु०१) कनकपल-सज्ञा पुं० [सं० पु.] (१) सोना (३) धतूर बोज, काली मिर्च, हंसपदी, प्रभृति तौलने का एक मान जो १६ मासे के बरा- पीपर, भुनासोहागा, सिंगिया विष, और शुद्ध बर होता है। हारा। इसका दूसरा नाम कुरु- गंधक, प्रत्येक समान भाग । चूर्णकर भंग के रस विस्त है । (२) एक प्रकार की मछली । इसका | में अच्छी तरह खरलकर १ रत्ती प्रमाण गोलियाँ मांस सुवर्ण जैसा होता है। बनाएँ। कनकपुष्पिका, कनकपुष्पी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] गुण तथा प्रयोग-इसके उपयोग से अति (१) छोटो अरनी । गणिकारिका । (२) सार, संग्रहणी, ज्वरातिसार, और मन्दाग्नि का उलटकंबल । द्र मोत्पल । वै० निघ। नाश होता है। कनकप्रभ-संज्ञा पुं० [सं० पु.] एक प्रकार की पथप-दही, भात, शीतल जल, तीतर और सोमलता । सु० चि० २६ अ० । दे. “सोम"। लवा पक्षी के मांस का यूष । (वृहत् रस कनकप्रभा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) बड़ी रा० सु०.) मालकँगनी । महाज्योतिष्मती लता। रा०नि० | कनक प्रसवा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] स्वर्ण केतकी व०३ । (२) सोनजूही। पीलीजूही । स्वर्ण- वृक्ष, केतकी केवड़े का पेड़ । रा०नि० व० १०। यूथिका । रा०नि० व १० । (३) हड़ताल । कनकप्रसू-संज्ञा पुं० [सं० पु.] धूली कदम्ब । (४) एक रसौषध जिसका प्रयोग ज्वरातिसार | वै.निघः । में होता है । योग यह है-सुवर्ण बीज, मरिच, कनकफल-संज्ञा पुं० [सं० क्री० ] (१) धतूरे का मरालपाद, कणा । टंकणक, विष और गंधक- फल । धुस्तूर फल । (२) जमालगोटा । इनको बराबर-बराबर ले चूर्ण करें। फिर उसे जयपाल | भॉग के रस में घोंट कर गुजाप्रमाण वटिका | कनकबीर, कनकमृग-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] स्वर्ण प्रस्तुत करें। इसके सेवन से अतिसार ग्रहणी और वर्ण भृग । सुनहले रंग का हिरन । अग्निमांद्य रोग छूट जाता है । र० सा० सं०। कनकमोचा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] सोनकेला, चंपाकनक प्रभा वटी- । संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] केला । स्वर्ण कदली। कनक सुन्दर रस-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] कनक रम्भा-संज्ञा स्त्री॰ [सं० स्त्री.] सोनकेला । (१) शुद्ध हिंगुल. मिर्च, शुद्ध गन्धक, पीपर, सुवर्ण कदली । पीलाकेला । चंपाकेला । रा०नि० सोहागा भुना, शुद्ध सिंगीमोहरा, धत्तुर के बीज, व० ११ । कनकवर्ण, कलिकारम्भा । प्रत्येक समान भाग ग्रहण करें । बारीक चूर्ण कर कनकरस-संज्ञा पुं॰ [सं० पुं०, क्री०] (1)हरभांग के रस में १ पहर अच्छी तरह घोटे फिर ताल | रा०नि० व १३ । (२) सोने का पानी सना प्रमाण गोलियाँ बनाएँ। शीतल स्वर्ण. द्रवीभूत सुवर्ण । माउ.ज़हब । गुण-इसके उपयोग से ग्रहणी रोग का नाश दे० “सोना" । ५ला Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४७ कनकलोद्भव कनक सुन्दर तेल कनकलोद्भव-संज्ञा पु० [सं० पु.] सर्जरस । राल । | कनक वीज-संज्ञा पुं० [सं० की० ] धतूर का बीया। धूना । रा०नि० व. १२। धुस्तूर बीज । दे० "कनकसुन्दररस"। कनकवती रस-संज्ञा पुं० [सं० पु.] अर्शोधिका- कनक सङ्कोच रस-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कुष्ठरोग रोक एक रसौषधि । में प्रयुक्त उक्त नाम का एक योग-सोने की भस्म योग तथा निर्माण-क्रम-पारा, गंधक, हरि- अभ्रकभस्म और सोंठ, प्रत्येक १-१ भाग, पारा ३ ताल, सेंधा नमक, लॉगली, (करिहारी) इन्द्रजौ, भाग, एवं गन्धक ६ भाग लेकर कॉजी में घोट और तुम्बी हरएक एक पल और लहसुन ४ पल कर गोला बनाएं और फिर उसे कड़वे तेल में इनको करेली की पत्ती के रस में घोंटकर गुंजा लोहे के पात्र में मन्दाग्नि पर पकाएं। जब जलाँश प्रमाण वटिका प्रस्तुत करें। बिलकुल सूख जाय तब उसका चूर्ण करके उसमें गुण तथा सेवन-बिधि-कनकवती रस में चीते की जड़, त्रिकुटा, दालचीनी, वायबिडंग एक वटी प्रतिदिन सेवन करने से रक्क, वात एवं और शुद्ध मीठा तेलिया १-१ भाग और त्रिफला कफ तीनों के विकार से उत्पन्न होनेवाला अर्शरोग ३ भाग, सबका चूर्ण मिलाकर १ दिन तक वकरी बवासीर आराम होता है । ( रस रत्नाकर ) के मूत्र में घोटकर १-१ रत्ती प्रमाण की गोलियां कनक-विन्दु-अरिष्ट-संज्ञा पुं॰ [सं० पु. ] बनालें। (१) आयुर्वेद में एक अरिष्ट विशेष । गुण तथा उपयोग-विधि-इसे १ रत्ती की स्वर्णत्वक् (धतूरे की छाल) त्रिफला, त्रिकुटा, मात्रानुसार १ निष्क (२,३ रत्ती)बकुची के तेल हल्दी, मोथा, भिलावाँ, वायविडंग, वाकुची, गुरुच के साथ सेवन करने से विस्फोटक और कुष्ठ का धवपुष्प, प्रत्येक १-१ पल । इन्हें चौगुने जल में नाश होता है। रस र० कुष्ठ चि०। काथ करे। जब चौथाई शेष रहे तब इसमें शुद्ध इसकी मात्रा क्रमशः बढ़ाकर २ रत्ती तक की शहद १.० पल (४०० तोला ) मिलाकर जा सकती है। सन्धानित कर अन्नकी रास में गाढ़ दें। एक मास कनक सिंदूर रस-संज्ञा पुं० [सं० पु.] क्षय रोग पश्चात् छानकर रखें। में प्रयुक्त उक नाम का रस । मात्रा-१ तोला। योग-शुद्धपारा, स्वर्णभस्म, सोना मक्खी को गुण-इसके सेवन से , मास में कुष्ट १ पक्ष भस्म, हरताल भस्म, मनसिल, खपरिया भस्म, में अर्श, तथा श्वास, खाँसी भगंदर, किलास, गन्धक और नीलाथोथा सब समानभाग लेकर प्रमेह, और सूजन का नाश होता है। वंग से. कजली करके आक के दूध, अरनी, अगस्त, बहेड़ा सं• कुष्ट चि०। चीता, भांगरा और अड्से के रस की १-१ (२) खदिर कषाय १ द्रोण । त्रिफला, भावना दें। फिर गोला बनाकर "मृगाङ्क" रस त्रिकुटा, बिडंग, हल्दी, मोथा, अडूसा, इन्द्रजौ, की विधि से पकाएं। फिर अदरख और सोंठ, दारुहल्दी, दालचीनी और शल्लकी (सलई) मिर्च, पीपल के रस या काथ की ७-७ इनका चूर्ण छ:-छः पल लेकर एक मिट्टी के पात्र भावना दें। में जो घृत से स्नेहित किया गया हो। यथाबिधि गुण तथा उपयोग बिधि-इसके उपयोग सन्धानित कर धान के रास में १ मास तक रक्खें से क्षय का नाश होता है। इसे अदरख के रस के पुनः छानकर बोतल में रखलें। साथ देने से सन्निपात और सोंठ के चूर्ण के साथ गुण-युक्रिपूर्वक सेवन करने से महाकुष्ट १ | तथा घृत के साथ देने से वातज गुल्म और महीने में और साधारण कुष्ट १ पक्ष में नष्ट होता शूलादि नष्ट होता है। इसके सेवन में समस्त है। और यह अर्श, श्वास, भगन्दर, कास, प्रमेह, श्राहार-बिहार "मृगांक" रस में कहे अनुसार किलास और शोष को भी नष्ट करता है। तथा | करना उचित है । वृ० नि० २० । यह कनकबिन्द अरिष्ट सेवन से शरीर कनक वर्ण | कनक सुन्दरतैल-संज्ञा पुं० [ सं• क्री• ] बच्च, होजाता है। च.चि०७०। धतूरा, दुद्धी, हल्दी और सोंठ इनके कल्क को Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कनक सुन्दररस २०४८ कनकारिष्ट धतूरे के रस और कडू तेल चौगुने में मिलाकर प्रवाल, सरसों, लहसुन, वायविडंग, करा की। पकाएँ । जब तेल सिद्ध होजाये छानकर रखलें। छाल, छातिम, पाक के पत्ते और जड़ की छाल, यह दुष्ट श्वेद और वादी के विकार नाशक तथा नोम, चोता, आस्फोता (हापड़माली) गुजा, कान्तिकारक है । ( योग चि०) अरण्डमूल, कटेरी बड़ी, मूली, तुलसी, अर्जक कनक सुन्दर रस-संज्ञा पुं० [सं० पु.] ज्वरा- (तुलसी भेद) के फल, कूठ, पाठा, मोथा, तुम्बुरु तिसार में प्रयुक्त उक्त नाम का एक रस योग ।। मूर्वा, वच, पीपलामूल, पमाँड, कुड़ा, सहिजन, हिंगुल शुद्ध, मिर्च, गंधक, भूना सोहागा, पीपल, त्रिकुटा, भिलावाँ, नकछिकनी, हरताल, अवाकपुष्पी मीठा तेलिया और धत्तूर बीज छिला हुश्रा । तूतिया. कबीला, गिलोय, सोरटी मिट्टी, कसीस, समान भाग लेकर चूर्ण करके १ पहर तक भाँग दारुहल्दी की छाल, सज्जी, सेंधानमक । के रस में घोटकर चना प्रमाण की गोलियां इनके कल्क ओर कनेर की जड़ तथा पत्तों के बनाएं। काथ एवं चौगुने गोमुत्र के साथ सरसों का तेल गुण तथा उपयोग विधि-इसे यथोचित यथा विधि सिद्ध करके कड़वी तूम्बो में भर कर अनुपान से सेवन करने से संग्रहणी, अग्निमांद्य रखदें। ज्वर और प्रबल अतिसार का नाश होता है। गुण-इसके उपयोग से कृमी, कण्डू और कुष्ट रस० सा० सं० ज्वराति। रोग का शीघ्र नाश होता है। च० चि०७०। (२) स्वर्ण भस्म १ भाग, पारा, मनसिल, कनकक्षीर तैल-टङ्कण क्षार | रा०नि० व० १३ । गंधक, तूतिया, सोना मक्खी की भस्म, हरताल, | कनकक्षीरिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] भड़ भांड । मीठा तेलिया और भुना सुहागा ४-४ माग धन्व. नि । लेकर चूर्ण करके स्वच्छ खरल में जयन्ती, भाँगरा | कनकक्षीरी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (1). सत्यापाठा, अडूसा, अगस्त, कलिहारी और चीते के रस नाशी । अँडभाँड़ । सुवर्णक्षीरी । (२) पीत की १-१ भावना दें। फिर सुखाकर अदरख के कण्टक धुस्तूर । (३)सातला। रस को ७ भावना दे कर रखलें। कनकादि लेप-संज्ञा पुं० [सं० पु.] धत्तूरा, पान मात्रा-१-३ रत्ती। चमेली के पत्ते, मूर्वा, रसौत, कूट, मनशिल और गुण-इसे शहद और पीपल या मिर्च तथा पारद का अच्छी तरह घोट कर तेल मिलाकर लेप घी के साथ सेवन करने से राजयक्ष्मा का नाश करने से कोढ़, खुजली, विसर्प, बिवाई और त्वचा होता है । सनिपात में अदरख के रस के साथ की श्यामता नष्ट होती है । वृ०नि० र० विसर्प सेवन करने से लाभ होता है। श्रोर गुल्म अथवा चि०। शूल में जमालगोटे के प्राधा रत्ती चूर्ण के साथ। | कनकान्तक, कनकारक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] पथ्य-बल्य- हृद्य, रसायन पदार्थ । लाल कचनार । कोविदार वृक्ष । रा०नि०५० परहेज-खटाई, नमक, हींग, छाछ, और १०। दे० 'कचनार"। विदाही पदार्थ । र० सा० सं० यक्ष्मा चि०।। | कनकानी-संज्ञा पु. [ देश० ] घोड़े की एक जाति । • कनकस्तम्भा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] सोनकेला | कनकारक-संज्ञा पु० [सं० पु.] कोबिदार । कचस्वर्णकदली वृक्ष । चंपा केले का पेड़ । रा०नि० नार भेद। व०११। कनकारका-[फा०] अरनी, अगेथू। कनकक्षार-संज्ञा पुं० [सं० पु.] सोहागा। कनकारिष्ट-संज्ञा पुं० [सं० की.] कूटे हुये नवीन :- कनकक्षीर तैलम्-संज्ञा पुं० [सं० की० ] कुष्ट रोग ___ अामले १ तुला, वायविडंग,पीपल और मिर्च १-१ ___ में प्रयुक्न उक्न नाम का योग- . कुड़व, पाठा, पीपलामूल, सुपारी, चव्य, चीता, कल्क द्रव्य-कनकक्षीरी (सत्यानाशी), मजीठ, एलवालुक और लोध । प्रत्येक १-१ पल । मनशिल, भारंगी, दन्तीमूल और फल, जायफल, कूठ, दारुहल्दी, देवदारु, दोनों सारिवा, इन्द्रजौ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मकारिष्ट नागरमोथा प्रत्येक श्राधा श्रधा पल और नवीन नागकेसर ४ पल लेकर सबको २ द्रोण पानी में पकायें । जब चौथा भाग शेष रह जाय तब छानकर ठंडा करके उसमें मुनक्का का क्वाथ २ आढक, उत्तम खाँड़ २ तुला ( २०० पल ), नवीन शहद आधा प्रस्थ, दालचीनी, इलायची, मोंथा, तेजपात, सुगन्धवाला, खस, सुपारी और नागकेशर प्रत्येक १ - १ कर्ष का चूर्ण मिलाकर पवित्र घृत के चिकने और खाँड तथा अगर से धूपित वरतन में संधान करके १५ दिन तक रक्खा रहने दें | इसके पश्चात् निकाल कर छान लें और बोतल में बन्द करके रखें । गुण - मधुर, हृद्य, रुचिकर, ग्रहणी दोष, श्रर्श अफरा, उदर रोग, ज्वर, हृद्रोग पाण्डु, शोथ, गुल्म, विवन्ध, खाँसी, कफज रोग और बली पलित तथा खालित्य ( गंज ) नाशक है । च० चि० १४ प्र० । कनकारिष्ट-संज्ञा पु ं० [सं० पुं०] एक श्ररिष्ट विशेष | खैर का क्वाथ १ द्रोण, त्रिफला, त्रिकुटा, हल्दी, निर्मली, दालचीनी, वावची, गिलोय और बायविडंग का चूर्ण १ - १ पल, तथा शहद २०० पल, और धव का फूल = पल लेकर सबको घृत से चिकने किये हुये मिट्टी के घड़े में भरकर संधान करके रखें। गुण- इसको प्रातः काल उचित मात्रा में पान करने से पुरातन कुष्ठ नष्ट होता है । इसे १ मास तक सेवन करने से सूजन, प्रमेह, खाँसी, श्वास, मस्से और भगन्दर श्रादि समस्त रोग नष्ट होकर शरीर कुन्दन के समान हो जाता है । ग० नि० ६ श्र० । कनकारी -संज्ञा स्त्री० [देश० ] गोखुरू | कनकालुका - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] सोने की सुराही । सुवर्ण भृङ्गार । हला० । कनकावती वटी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] शुद्ध पारा, गंधक, हरताल, सेंधानमक, कलिहारी और तुम्बी का फल प्रत्येक १ - १ पल, एवं लहसन ४ पल लेकर चूर्ण करके एक दिन तक करेले के रस में घोटकर १ - १ रत्ती की गोलियाँ बनायें । गुण- इसके उपयोग से बवासीर, वातरक्त, विशेषतः कफज बवासीर का नाश होता है । ३७ फा० શું कनकुट अनुपान - भिलावाँ, त्रिफला, दन्ती, चीता प्रत्येक का चूर्ण समान भाग और सेंधानमक का चूर्ण सबके बराबर लेकर मिट्टी के ठीकरेमें मंदाग्नि पर बहुत समय तक भूनें। यह चूर्ण १ कर्ष और उक्त वटी १ गोली खाकर ऊपर से तक्र पियें। २० २० श्रर्श० चि० । कनकासव - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] हिक्का और श्वास रोग में प्रयुक्त उक्त नाम का एक श्रासव | योग— शाखा, मूल, पत्र और फल सहित कुटा हुआ धतूरा और वाँसे की जड़ की छाल ४-४ पल, मुलहठी, पीपल, कटेली, नागकेसर, सोंठ, भारंगी और तालीशपत्र प्रत्येक का चूर्ण २-२ पल । धव के फूल १ प्रस्थ, मुनक्का २० पल, पानी २ द्रोण खाँड़ १ तुला और शहद श्राधी तुला लेकर सबको एकत्र करके यथा विधि संधान करके १ मास तक रक्खा रहने दें । गुण- इसके सेवन से हर प्रकार की खाँसी, श्वास, यक्ष्मा, क्षत क्षीणता, जीर्ण ज्वर, रक्त पित्त और उरः क्षत का नाश होता है । भैष० २० हिक्का चि० । कनकाह, कनकाह्वय -संज्ञा पुं० [सं० पु ं० क्ली ] (१) सफेद धतूरा | श्वेत धुस्तूर । ( २ ) चौलाई । तण्डु लीय शाक | वै० निघ० । ( ३ ) जमालगोटे का पौधा । जयपाल वृक्ष | प० मु० । (धतूरेका तुप | धुस्तूर वृक्ष । रा०नि० ० १० । (५) नागकेसरका पेड़ । रा० नि० व० ६ । २० मा० । कनकी संज्ञा स्त्री० [सं० कणिक ] ( १ ) चावलों के टूटे हुये छोटे छोटे टुकड़े । ( २ ) छोटा कण | कनकुटकी - संज्ञा स्त्री० [ हि० कुटकी ] रेवन्दचीनी की जाति का एक प्रकार का वृक्ष, जो खसिया की पहाड़ी, पूर्वी बंगाल और लंका आदि में होता है । इसमें से एक प्रकार की राल निकलती है, जो दवा के काम आती है। 1 कनकुटी - संज्ञा स्त्री० [हिं० कान+कुटी ] जंगली हुल हुल का एक भेद । इसका पौधा लगभग श्राध गज ऊँचा होता है । पत्ते कुलथी के पत्ते की तरह होते हैं और शाखान्त में एक में तीन-तीन पत्ते लगते हैं। फूल और फली ३ नालीकी तरह होती हैं। इसकी फली को 'क्रनकुटी' कहते हैं। इसके Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्नकूट २०५० कनखजूरा पत्ते से उत्तस गंध आती है । गुण-धर्म हुलहुल के | कनक्नक-संज्ञा पुं० [वै० पुं०] एक प्रकार का समान । ख० अ०। विष। कनकूट-संज्ञा पुं० दे० "कुरकुड"। कनक्री-संज्ञा स्त्री० [हिं० ] ढाक । पलास। कनको-[बर•] जमालगोटा । जयपाल । कनखजूरा-संज्ञा पु० [हिं० कान+खजू-एक कीड़ा] कनकोद्भव-संज्ञा पुं० [सं० पु.] महासर्ज वृक्ष । पर्या-चित्रांगी, शतपदी, कर्ण जलूका वै० निघ० । श्रासन वृक्ष । (रा०नि०), कर्णजलौका, शतपदी (हे.),चित्रांगी, कनकोली-[पं.] घिवई । घाई । पृथिका, कर्षदु'दुभी, कर्णकीटा, कर्णकीटी, कर्णजाकनकौवा-संज्ञा पु० [हिं० कवा कौवा ] एक प्रकार | लूक, शतपात् (द) शतपादिका-सं०। गोजर, की घास जो प्रायः मध्य भारत और बुदेलखंड में | कनखजूरा, खनखजूरा, खान् खोजारा कनगोजरहोती है। हिं० । काणकोटारी, केनुई, काणविच्छा-बं० । यह जड़ से आध गज ऊँची होती है और हज़ारपा-फ्रा० । अरब , अरबऐन (प्राची०) उसकी शाखाएँ गाँठदार होती हैं। गाँठों से तंतु अबु सबन, अबु सबएन-(अर्वाचीन)-अ०। निकलते हैं । यह तर भूमि और बगीचों में उत्पन्न सेण्टिपीड Centi pede-अं• । जूलस कार्निहोती है। इसके पत्र बारतंग पत्रवत्, पर उनसे फेक्स Gulus Cornifex-ले० । किंचित लघु होते हैं। ये कोमल समतल होते हैं वर्णन-लगभग एक बालिश्त का एक ज़हऔर उन पर रुमाँ भी होता है । फूल का रंग | रीला कीड़ा जिसके बहुत से पैर होते हैं। उनमें लाजवर्दी एवं दो वर्गी होता है। यह टोपीनुमा कोई छोटा और कोई बड़ा होता है। इसीसे इसको एक परदे से निकलता है, जिसमें बीज होते हैं। संस्कृत में शतपदी (सैकड़ों पैर वाला) और इसका एक अन्य भेद भी है, जिसके पत्ते कौवे की नारसी में हज़ारपा (हज़ारों पैरवाला ) कहते हैं । चोंच की तरह होते हैं। इनमें से किसी किसी का इसका पैर प्रायः छः खंडों में विभक्त होता है। रंग लाल और किसी का पीला होता है । फूल भी कनखजूरा अपनी टॉगो से दूसरे को मार और लाल होता है । देहाती लोग इसका साग पकाकर अपने को बचा भी सकता है। इसकी पीठ पर खाते हैं। इसको "कौश्रा साग" भी कहते हैं। बहुत से गंडे पड़े रहते हैं। इसका शरीर गिरह"कौश्रा बूटी" इससे भिन्न वस्तु है । अरबी भाषा दार होता है। इसकी बाहरी रता की ऊपरी रगों में में इसे 'बालतुल गुराब' कहते हैं। क्योंकि जब पश्चात् कोष रहता है जो प्रायः दो अनुबन्धों से कौश्रा रोगाक्रांत होता है, तब इसके खाने से रोग प्रवल पड़ता है। प्राकन् कोण पर शिरः फलक मुक्त होता है। कोई कोई कहते हैं कि इसके पत्ते होता है जिसमें चक्षु देख पड़ते हैं और जिस पर कौएकी चोंच की तरह होते हैं,इसलिये इसका उन दो बारीक शाखें होती हैं। इसके प्रायः आँख नहीं नाम पड़ा। होती । परन्तु जिसके आँख होती है, उसके एक प्रकृति-उष्णता लिये हुये। से चालीस तक देख पड़ती हैं । यह कृष्ण रक्रादि गुणधर्म तथा प्रयोग–यह पिच्छल कफ कई रंगों का होता है। लाल मुंहवाले बड़े और (बलाम लज़िज) उत्पन्न करता है। पित्त का जहरीले होते हैं। इसकी दुम पतली और छोटी नाश करता है और हृदय को प्रफुल्लित रखता है। होती है। यह ज़बान रखता है। कनखजूरा काटता यह कामोद्दीपन करताहै, सरदी उत्पन्न करताहै और भी है और शरीर में पैर गड़ाकर चिपट भी जाता नेत्र रोग तथा मूत्र सम्बन्धी रोगों को गुणकारी है और अत्यन्त कठिनाई से छूटता है, जिस प्रकार है। इसकी पत्ती कूटकर थोड़ा लवण मिलाकर यह शरीर के अग्र भाग से आगे को चल सकता है बाँधना अंगुल बेड़ा वा दाख़िस (Whitlow) उसी प्रकार शरीर के पश्चात् भाग से पीछे को के लिये रामबाण औषध है। इसके लिये इससे | चल सकता है। भारतवासी कनखजूरे को लक्ष्मी बढ़कर अन्य कोई दवा नहीं । (ख० प्र०) || पुत्र कहते हैं । जहां यह निकलता है, वहां धन Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कनखजूरा २०५१ राशि रहने का अनुमान किया जाताहै । कनखजूरे को हिन्दू नहीं मारते। सुश्रुत के मत से कनखजूरा ( शतपदी)। पाठ प्रकार का होता है। यथा-"शतपद्यस्तु परुषाकृष्णा चित्रा कपिलिका पीतिका रक्का श्वेता अग्नि प्रभा इत्यष्टौ।" (सु० कल्प० ८ १०) अर्थात् परुष, कृष्ण या काला, चितकबरा, कपिल रंग का, पीला, लाल, सफेद, और अग्नि के वर्ण का। ख़ज़ाइनुल अदबिया के लेखक ने भौम और सामुद्र भेद से इसे दो प्रकार का लिखा है। : सुश्रुत के अनुसार इसके काटने वा शरीर में चिपट जाने से सूजन, वेदना और हृदय में दाह होता है । सफेद तथा अग्निवर्ण के कनखजूरे के काटने में दाह, मूर्छा और बहुत सी सफेद पुंसियों को उत्पत्ति के लक्षण होते हैं। (सु. कल्प ८०) प्रकृति-(तृतीय कक्षा में) उष्ण तथा रूक्ष हानिकर्ता-खजू, शोथ और दाह आदि एवं घातक बिष है। दर्पघ्न-रोगन तथा सिरका। नोट-यह अभक्ष्य है। . गुणधर्म तथा प्रयोगयह अत्यन्त तीव्र एवं घातक विष है । कतिपय तबीबों का यह कथन है कि नादेय कण जलौका को जैतून के तेल में पकाकर मलने से बाल उद जाते हैं। किंतु इसके उपयोग से उक्त स्थान पर खाज उत्पन्न होजाती है। इसके पैरों में जहर होता है । यह जहां काटता है वहां किसी कदर प्रदाह होने लगता है, तदनन्तर वह शांत होजाता है। इस जाति के अत्यन्त बिषधर जंतुओं के काटने से तीव्र वेदना होती है । सांस कठिनाई से ली जाती है । हृदय में भय उत्पन्न होजाता है। मधुर पदार्थों के खाने को जी चाहता है। इसका प्रतिविष वही कनखजूरा है, जिसने काटा है। विधि यह है कि जिस जगह उसने काटा हो, उस जगह उसे कुचलकर बांध दें, अथवा यह प्रयोग काम में लावें। कनखजूरा ज़राबन्द तवोल, पाखान भेद, करील मूलत्वक् और मटर का पाटा, हरएक समभाग लेकर कूटकर मद्य या मधुवारि-माउल अस्ल के साथ खिलावें, तिर्याक अरवा और दवाउल मिस्क भी कल्याण कारक है । अथवा नमक और सिरके का लेप करें। यदि कनखजूरा पानी में गिरकर मर जाय तो उसे काम में न लाए : क्योंकि उससे सूजन खाज ओर दाह होजाता है । इसका उपचार भी उक्त पदार्थ का मलना है। यदि तेल गरम करके कनखजूरे पर डालें, तो वह मरजाय और उसके प्रत्येक गण्ड संधि-स्थान से पृथक होजाय । कनखजूरे को एक मिट्टी के बरतन में रखकर बरतन का मुंह बन्द करदें और उसे भाग में रखकर जलालें । इस प्रकार प्राप्त राख को अपस्मार-रोगी की नाक में फूकें । इस विधि से उसके मस्तिष्क से दो कीड़े निकलेंगे और रोगी अच्छा होजायगा | यह प्रयोग हकीम नूरुल इसलाम साहब की ब्याज (योग-ग्रन्थ ) से नकल किया गया है। कतिपय अनुभवी व्यक्तियों ने यह लिखा है कि पुराने ढाक के पेड़ में कनखजूरा रहने लगता है वह ढाक में रहने के कारण रक्त वर्ण का हो जाता है । यदि उसको जीते जी पकड़ कर तमाखू की हरी पत्ती में सुखा लिया जाय और उसे खब महीन पीसकर एक चावल की मात्रा में उसका नस्य दिया जाय तो कैसा ही दुसाध्य मृगी रोग हो उसका भी इसके एक सप्ताह के उपयोग से नाश होता है । ढाक में रहने का भी इस रोग पर अवश्य प्रभाव होता है। क्योंकि वैद्य लोग ऐसा कहते हैं कि ढाक की जड़ को पानी में घिसकर दौरे के समय मृगी वाले की नाक में टपकाने से लाभ होता है। कहावत है कि एक व्यक्ति को चूतड़ों के जोड़ों से पैर की उंगलियों तक वेदना होती थी और प्रतिदिन बढ़ती ही जाती थी। अकस्मात् ऐसा हा कि तीसरे या चोथे दिन रात्रि में सोते समय उसको कनखजूरे ने काट लिया। थोड़ा सा दर्द मालूम हुआ, प्रातःकाल वेदना बिलकुल Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कनखा २०५२ जाती रही, केवल दंष्ट स्थान में वेदना थी जो गरम तेल के मलने से जाती रही । ( ख० प्र० ) बड़े कनखजूरे को पकड़कर सुखालें । उसे एक फतीले या वर्तिका में लपेटकर तिल तैल में उसका काजल पारकर उसे सुरक्षित रखें। यह क़ल्उल् अज्फान अर्थात् पलकें उखड़ने की बीमारी में गुणकारी है । (म० मु० ) कनखा - संज्ञा पु ं० वृक्ष की छोटी टहनी । कनखाब - [ ० ] डीकामाली । बंशपत्री । कनखुरा - संज्ञा पुं० [देश० ] रीहा जाम की घास जो साम देश में बहुत होती है । बंगाल में इसे "कुरकुड" भी कहते हैं । कनखो -[ बर० ] जमालगोटा । कनखो-सि - [ बर० ] जमालगोटा । जयपाल । कनगरच - [ फ्रा० ककरजद ] हर्शफ का गोंद । कनगी - [ ते० ] समुन्दरफल । हिज्जल । [ कना० ] जंगली जायफल । (Myristica Malabarica ) कनगु -[ ० ] कंजा | करंज । नक्तमाल । क़नगुज-संज्ञा पुं० । कान का एक रोग । कण रोगबिशेष | कनगुरिया-संज्ञा स्त्री० [हिं० कानी + अंगुरी अंगुरिया ] सबसे छोटी उंगली । छिगुनिया | छिंगुली । कनिष्टिका उंगली । या कनगोजरा-संज्ञा पुं० [हिं० कान+गोजर ] कन खजूरा । कनछेदन - संज्ञा पु ं० [हिं० कान+छेदना ] कर्ण वेध संस्कार | कनङ्ग करै-[ ता० ] कांचढ़ | कञ्च (Commelina bongalensis, Linn) कनज - [ फ़ाo ] पनीर । कनजो -[ बर० ] काला वगोटी । कनटी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] रक्कमल्ल । लाल संखिया । कनत - [ फ्रा० ] शहद की मक्खी । कनतूतुर - संज्ञा पु ं० [देश० ] एक प्रकार का बड़ा कनफोड़ा मेंढक जो बहुत ज़हरीला होता है, और बहुत 'चा उछलता है । कनन - वि० [सं० त्रि० ] काना । काण । श० च० । कनप - [ते० ] समुन्दरफल । हिज्जल | दे० " कणप" कनप-तीगे - [ ते० ] गीदड़ ट्राक, श्रमलबेल 1 (Vitis Carnosa,, Wall.) कनपट - संज्ञा पु ं० दे० " कनपटी ” । कनपटी - संज्ञा स्त्री० [हिं० कान+सं० पट ] काम और श्रांख के बीच का स्थान । कनपट । कनपुटी, शंख देश | Temporal region, कनपेड़ा - संज्ञा पुं० [हिं० कान+पेड़ा ] एक रोग जिसमें कान की जड़ के पास सूजन होती है । कनफटा-सं० पु० दे० " कनफोड़ा" । कनफुटा - [ मरा• ] जंगली हुरहुर | Cleome Vi. scosa. कनफुटी - [ बम्ब० ] ( १ ) बु ंदर | कुपरुंत | ( Flemingia Strobilifera, R. Br.) (२) हुरहुर | संज्ञा स्त्री० [ मरा०] कनफोड़ा | कर्ण स्फोटा कनफूल - सं० पु० दे० " कानफूल" । [ पं० ] दूध बत्थल । बरन । दूधल । Iaraxacum Officinale, Wigg कनफेड़ - संज्ञा पु ं० दे० " कनपेड़ा" । कनफोड़ा – संज्ञा पुं० [ स० कर्ण स्फोटा ] एक वार्षिक सकांड, आरोही लता जो दवा के काम में श्राती है। पत्र और पत्रवृत प्रायशः मसृण ( Glabrous ) पत्र ( Biternate ); पत्रक ( Lea aflets ) सवृत, लंबे (Oblong ), अधिक नुकीले, कोरदार कटे हुये होते हैं। फूल छोटे सफेद वा गुलाबी; फल त्रिकोणाकार पतली झिल्ली के तीन कपाटों द्वारा तीन कोषों में विभक्त और पतली हरे रंग की झिल्ली से श्रावृत फली है, जिसके प्रत्येक कोष में एक-एक काला बीज होता है । फल पटकने से श्रावाज श्राती है। बीज घुंघची की तरह गोल और काले रंग का होता है, इसी से इसे 'काली घुंघची भी कहते हैं। जिस प्रकार लाल घुघुची के आधार पर एक काला धब्बा होता है, उसी प्रकार इसमें उक्त स्थल पर सफेद धब्बा होता है जो द्वि० विभक्त (Aril ) Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कनफोड़ा २०५३ कनफोड़ा होता है । जड़ सफेद और तंतु वहुल, अप्रिय गंधि मिश्र चूर्ण-सर्जिका ( Carbonate of और स्वाद में किंचित् तिक चरपरी और उल्लेश- potash), बच, बहेड़े की जड़ का छाल प्रद होती है। (वा असनत्वक् ) कसफोड़े की पत्ती-इनको . पर्या-कर्णस्फोटा, श्रुतिस्फोटा, त्रिपुटा, बरावर-बराबर लेकर बारीक चूर्णकर लेवें । कृष्णतण्डला, चित्रपर्णी, स्फोटलता, चन्द्रिका, अथवा दूध के साथ कल्क प्रस्तुत करें। अध चन्द्रिका ( रा०नि०) पारावतपदी, ज्योति- मात्रा-१ दाम प्रतिदिन तीन दिन तक देवें। धमती डी० १ भ० कृष्णतण्डुला, कोपलता-सं० । रजोशोध (Amenorrhoea) में उपकारी कानफोड़ा, कनफोड़ा, कानफुटो, कानफटा, कान- है । यह आर्तव रजः सावकारी है। (भा०); फाटी-हिं० । लताफटकरी। लताफटकी, नया उ. चं० दत्त । फट्की, कानछिड़ी, काणफोटा-बं०। कार्डियोस्प गुणधर्म तथा प्रयोग मम हेलिककेबम् Cardiospermum Ha आयुर्वेदीय मतानुसारlicacabum Linn-ले. । बैलून वाइन . कर्णस्फोटा कटुस्तिक्ता हिमा सर्प बिषापहा । Baloon vine, विंटरचेरी Winter cherry, हाटस पी Heart' s pea-अं०। ग्रहभूतादि दोषघ्नो सर्वव्याधि बिनाशिनी ॥ पोइ-डी-कोकर Poi.de-Cocur Pois de (रा०नि० गुडू० ३ व०) Marveille, Cocur des Indes-फ्रां. कनफोड़ा-चरपरा, कड़वा, शोतल, सर्पजेमीनर-हर्ज़-सामीन Gemeiner-herz-sa बिषघ्न, ग्रहभूतादि दोषनाशकोर सभी ब्याधियों men-जर० । मूद-कोट्टन-ता० । बूध (बुद्ध) का नाश करनेवाला है। ककरा, नेल्ल-अगु-लिसे टेंड, वेक्कु-दी तेगे-ते ।। कर्णस्कोटा तु कटुका चोष्णाचाग्नि प्रदीपनी । काणफोड़ी, बोध, शिजल, कानफुटी काकुमई- | वातगुल्मादर मोह कर्ण व्रण विषापहा ॥ निका-मरा०। कनकैया, कानाकइया-कना० । कफपित्त ज्वरानाह कफशूल बिनाशिनो। करोडि (टि) यो-गु० । शिब्जब-द० । उलिंजामल० । माल-मै-बर० । बोध-बम्ब०। हबुल सा तु पोता बुधैया चाञ्जने च प्रशस्तिका ।। (वै० निघ०) कुलकुल (बीज)-पं०। पैनैर-वेल-सिंगा० । लफ्तफ़-अं०। गनफोड़ा, घनफोड़, धनवेल कनफोड़ा-चरपरा गरम तथा अग्निदीपक है एवं यह बात, गुल्मोदर, प्लीहा, कर्ण-व्रण, विष, मरा०, द० । कफ, पित्त, ज्वर, पानाह और कफज शूल, इनको फेनिल वर्ग नष्ट करता है। इसे पान ओर अंजन के काम में (N. O. ( Sapindacee) । लेते हैं । उत्पत्ति स्थान–समग्र भारतवर्ष विशेषतः चरक और वाग्भट्ट के मतानुसार यह बिच्छू के महाराष्ट्र, वंगाल और संयुक्त प्रांत। ज़हर में भी लाभदायक है। नब्य मत रासायनिक संघटन-इसके फल और बीजों डोमक-संस्कृत ग्रन्थकार इसकी जड़ को में एक प्रकार का तिक और उत्तेजक उड़नशील वामक मृदुसारक, ( Laxative), जठराग्नि तैल होता है। इसके गुणधर्म इसमें वर्तमान दीपक (Stomachic) और लौहित्योसादक (Saponin) पर निर्भर करते हैं। (Rubifacient ) लिखते हैं और प्रामवात औषधार्थ व्यवहार-जड़, पत्र, बीज, समग्र वातव्याधि एवं अर्श श्रादि में इसका उपयोग करते लता। हैं । रजोरोध ( Amenorrhoea ) में औषध निर्माण-जड़ का काढ़ा ( १० में १) इसके पत्र काम में प्राते हैं । कर्णशूल और कर्णशूल मात्रा-४ से १० ड्राम। निवारणार्थ समग्र लता का स्वरस कान में डाला Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कनफोड़ा २०५४ कनबीस जाता है । इसी से संस्कृत और हिंदी में इसे | आर० एन० चोपरा-४ से ६ अाउन्स की क्रमशः कर्णस्फोट श्रोर कानफोटा कहते हैं। मात्रा में कनफोड़े की जड़ का काढ़ा मूत्रकारक इंडोचीन में यह वनस्पति कृमि नाशक और स्वेदकारक और मृदुसारक ख्याल किया जाता है। प्रमेह निवारक मानी गई है। मेडागास्कर में श्रामवात और कटिशूल में समग्र लता का वाह्याइसको जड़ वमनकारक, विरेचक, मूत्रल और तरिक उभय बिधि प्रयोग किया गया है। - स्वेदक मानी जाती है। इसकी जड़ और पत्ते (इं० इ० ई० पृ० ५७०) रक्रार्श, नष्टात्तव, सुजाक, श्रामवात और प्रांत्र | इसका रस मासिकधर्म को नियमित करने के कृमियों को नाश करने के काम में लिए लिए व्यवहार किया जाता है। जाते हैं। सुजाक और फुफ्फुस सम्बन्धी पीड़ा में यह ___ झूलू लोग इस वनस्पनि को कई कामों में लेते | शांतिदायक माना गया है। हैं। इसके पत्ते ओर छाल का शोत निर्यास प्रामा- कर्णशूल निवारणार्थ इसे कान में डालते हैं। तिसार और रक्रातिसार में वस्तिक्रिया के काम में इसके (घनफोड़) बीज गुर्दे और मसाने को लिया जाता है । सिरदर्द में इसके पत्तों को कुचल | पथरी को दूर करते हैं। पागलपन को मिटाते हैं, कर उसका धूम्रपान करते हैं । मूत्राशय की पीड़ा | कटिशूल में उपकारी है, मूत्र का प्रवर्तन करते हैं। में इसको पत्तियों को पुलटिस बनाकर गुदा पर गर्भाशय का मुंह बन्द होजाय, तो उसे खोल बांधते हैं । उपदंश जन्य घावों पर भी इसकी | देते हैं, कामेन्द्रिय को शक्ति देते हैं, और वीर्य को पत्तियों का लेप किया जाता है। गादा करते हैं । इसके पत्ते शस्त्रों के जहम पर रॉवट्स के मतानुसार लंका में इसका स्वरस | बाँधे जाते हैं । यदि शरीर के भीतर बन्दूक की सप-बिष-निवारण के लिए पिलाया जाता है। गोली प्रादि भी रह गई हो, तो उसपर इसके कामस पोर म्हस्कर के मतानुसार इसको जड़, | पत्ते का लेप करने से गोलो बैंची जा लकड़ो और पत्ते सभी साँप और बिच्छू के ज़हर | सकती है। में निरुपयोगी हैं। कनब-[फा०] (1) भाँग । विजया । (२) एक नादकर्णी प्रभाव-कनफोड़े की जड़ पोर प्रकार का खोरा । कंबीरः । पत्ती मूत्रकारक, मृदुकारक (Laxativi), | कनबाद, कंदवाकलो-[ ? ] वस्तियाज । खि लाल जठराग्नि दीपक ( Stomachic) ओर रसा मक्का । यन है, वाह्यतः श्रारुण्यजनक ( Rubifaci- | कनब बेद-[?] जंगलो वेद का फल जो उसकी ent) है। __ शाखाओं में गुच्छों के रूप में लगता है । आमयिक प्रयोग-आमवात, वातव्याधि, | कनबहिंदी-[फा०] भांग । विजया । अर्श, चिरकारी कास, (वायुप्रणाली शोथ ) | | कनबार-[१०] नारियल के रशे को रस्सो । ओर क्षय ( Phthisis) में कनफोड़े की जड़, | कनबिरश्रोर पत्तो का उपयोग होता है। रजोऽल्पता में | क(क)नबिस-[यू० ] भाँग। आर्तव रजः स्राव वर्शनार्थ इसके भृष्ट-पत्र भग | कनबीरम्-[ ता०] कनेर । पर लगाये जाते हैं। श्रामवातिक शूल, शोथ | क्रनबीर-फ्रा.1 एक प्रकार का खीरा । और नाना भांति के अर्बुदों पर एरण्ड तैल जैसे कनबीर-[अ० ] कमोला। तेलों में इसकी पत्ती उबालकर बांधते हैं । अर्श और रजोऽल्पता (Amenorrhoea) में | क़नबीरस-[१०] एक प्रकार का दही। श्राध पाउन्स की मात्रा में इसकी जड़ का काढ़ा | कनबीरा-[सिरि० ] भाँग । व्यवहार्य होता है। ( ई. मे० मे० पृ० | कनवीस-[यू०] विजया बीज । भाँग का वीया । १६६-७) तुख्म भंग । शह दानज । Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कना कनभेंडी २०५५. कनभेड़ी-संज्ञा स्त्री० [देश॰] एक प्रकार का सन | कनवीरम-[ ता० ] कनेर । का पौधा । जिसके पत्ते, फल और फूल भिंडी की | कनवैल-[ बम्ब० ] रक्तवल्ली । रक्तपित्त । तरह होते हैं। यह अमेरिका से भारतवर्ष में | | कनशक्कर-ते. ] शकरकन्द । लाया गया है । इसको "बनभेंडी" भी कहते हैं। कनशरुक्करई-[ ता० ] कन्द। कनभो-[ मल० ] रास्ना । नाई। कनश्तू-[ला० ] गौरः । कच्चा अंगूर । कंशू । । कनमार-[देश॰] रीठा । अरिष्टक । क़नस-[अ०] रासन । बाइसुरई ? । अलनियून । कनमीन, कनमू- ?] कदम । जनाह.। ( Inula Helenium, Elecaकनमू--[ देश० ] पिंडार। mpane Linn.) कनय-संज्ञा पुं॰ [सं० कनक ] सोना | सुवर्ण । कनसलाई-संज्ञा स्त्री० [हिं० कान+हिं० सलाई ] कनयर-[ कुमा०] कनेर । कनखजूरे की तरह का और उसी जाति का एक कनयि -[ बर० ] गर्जन । तेलिया गर्जन । छोटा कीड़ा । यह कनखजूरे से पतला होता है। कनयून-संज्ञा पु० [सं० कण+हिं० ऊन ] एक प्रकार इसके भी बहुत से पांव होते हैं, किंतु इसकी का सफेद काश्मीरी चावल जो उत्तम समझा प्राकृति वैसी भद्दी नहीं होती और यह लाल रंग जाता है। का होता है । इसके विषय में यह प्रसिद्ध है कि कनयूर्टस-[पं०] बुरमार । यह कान में घुस जाता है। 'मादनुल शिफ़ा' में कनयोङ्ग-[ मग० ] गर्जन । तेलिया गर्जन । लिखा है कि कनसलाई पाठ प्रकार की होती है कनरयी-संज्ञा स्त्री० एक वृक्ष जिसे गुल भी कहते हैं। इनमें से दो प्रकार की कनसलाई के बिष की ___ कतीरा कनरयी से ही उत्पन्न होता है। कोई दवा नहीं । इनके काटने से मुर्छा प्राजाती कनराडू-[पं०] बुई। है। छोटा कनखजूरा । कनरी- मल० ] जंगली बादाम । (Canarium प्रकृति-तृतीय कक्षा में उष्ण तथा रूक्ष । Coinmune ) java almond tree गुणधर्म तथा प्रयोगसंज्ञा स्त्री० [देश॰] (१) कपूरकचरी । कनसलाई को पकड़कर सुखालें और एक बत्ती (२) छोटा जंगली प्याज । छोटा काँदा । में लपेट कर तिल तैल में उसका काजल पार लें। कँदरी। यह काजल पलक उखड़ने के रोग को अतीब कनरू-[ते. ] शेरवानी । खटाई। ज़रगल (पं०)। गुणकारी है। यदि कनसलाई कान में घुसजाय निरपागौड़ी (ते.)। ( Flacortia Sep तो तेल गरम कर कान में डालें या सिरका iaria) और नमक डालें। जब वह मर जायतब उसे कनलु-[पं०] सफेद सिरस । मोचने से उठा लें। कनल्ल कन्नल-संज्ञा पुं॰ [?] अज्ञात । कनसीरी-संज्ञा स्त्री० [ मेवाड़ ] "हावर" (अवध) कनवा-संज्ञा पुं० [विहार ] एक प्रकार का बाट जो | नामक पेड़। एक छटांक का होता है । कनस्त, कनस्तू कनस्त्वाक-[फा०] उश्नान। ग़ासूल | कनवई-संज्ञा स्त्री० छटाँक । पाँच तोले । कन:-[अ० ] मस्तगी। कनवमि-अ.] वंशपत्री। कना-संज्ञा पुं॰ [सं० कण ] दे० "कन" । कनवल-[हिं०] चिरभिटा। संज्ञा पुं॰ [सं० कांड ] सरकंडा। सरपत । कविलाच-[फा०] कमीला । संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] कनिष्टा । सबसे कनवा-संज्ञा पु० कनवई । छटाँक । छोटी उंगली । [वै] कन्या। लड़की । कनवी-संज्ञा स्त्री० [सं० कण, हिं० कन ] एक प्रकार कना-[१] (१) एक प्रकार का अंदरूतालीस या की कपास जो गुजरात में होती है । इसके विनौले खुश्क । (२) रतवा नाम की बूटी। (३) बहुत छोटे होते हैं। काकनज । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कनाई २०५६ कनाबिरी [१०] मकोय । किंचित् चरपरे एवं तिक्त होते हैं। पत्ते एक-एक [१०] बांस बित्ता दीर्घ होते हैं। तना पतला होता है । फूल कनाई-संज्ञा स्त्री [सं० कांड] (१) वृक्ष वा पौधे | सफेद और छोटा होता है । वीज फली में होते हैं। की पतली व कोमल डाल वा शाखा । कनई। फली की प्राकृति चने के फल जैसी होती है। (२) कल्ला । टहनी, नवपल्लव । प्रत्येक फली में राई के दाने की तरह के ४-४बीज कनाकचू-संज्ञा पु [देश॰] होते हैं। ___एक प्रकार का पौधा । कच्च की एक जाति (३) हकीम उलवीखाँ के अनुसार इसके कनाकीनूस-[रू०] उक़हवान । बावूना गाव । पत्ते बथुये के पत्तों जैसे होते हैं और उन पर कुछ कारियः । रोाँ होता है। उत्तम वह है जिनकी शाखायें किंचित् सुखी लिये हों। कनागी-[ कना. ] जंगली जायफल । रान जायफल । (४) बुहांन में लिखा है कि यह एक प्रकार कनागली-[ कना० ] कनेर। का साग है जो मौसम बहार के उगता है। स्वाद क़नागीरस-[ यू० ] मरोडफली। तीव्र एवं झालदार होता है। इसे ताजा पकाकर कनात-[१०] [ बहु० कनबात, किना] (१) खाते हैं सूख जाने के बाद गायों को खिलाते हैं। मकोय । (२)प्रणाली । नाली । नल । मजरी प्रकृति-प्रथम कक्षा में उष्ण एवं रूत । (१०)। (३) छोटी नहर । किसी-किसी के अनुसार द्वितीय कक्षा में रूक्ष है। नोट-शारीर शास्त्र की परिभाषा में शरीरगत कोई-कोई कहते हैं कि यह गरमी में सम प्रणाली वा रसादिवहा नाड़ी को कहते हैं। नाली. शीतोष्ण है। कंद नाली । मजरी (अ०)। Canal Duct हानिकर्ता-वायु उत्पन्न करता है। प्रधानतः Tube इसका अचार । दर्पघ्न-पकाना, घी या तिलतैल कनाद-[फा०] एक पक्षी । दरशान । प्रभृति में भूनना, काबुली हड़ और खाँड़। कनादर-[अ०] गधा । गदहा । गर्दभ । प्रतिनिधि-कबर की जड़। कनाबरीदास-[यू०] तेलनी मक्खी। गुणधर्म-उष्ण और शीत दोनों प्रकार की कनाबिरी-[अ०, नन्त ] एक प्रकार का साग जो प्रकृति वालों को सात्म्य है । यह सीने और फेफड़े बसंत ऋतु में उत्पन्न होता है । इसके पत्ते पालक का शोधन करता है। यकृत, फुफ्फुस और प्लीहा के पत्तों की तरह परन्तु उनसे बड़े होते हैं। फूल गत रोधों का उद्घाटन करता है । यह मूत्र प्रवर्तक सफेद और छोटा होता है। इसमें फलियाँ लगती है । इसके खाने से दूध बढ़ जाता है । यह प्रार्तव हैं जिनमें बीज होते हैं। स्वाद चरपरा होता है। प्रवर्तक है, मलावरोध का निवारण करता है और पय्यो०-बर्गश्त-खुरा० । बरंद, बलंद-फा० कामला ( यर्कान) रोग को नष्ट करता है। इसका सत्तरह-शीरा० । मोजह-असफ़० । अम्लूल, प्रलेप अर्श के लिये उपकारी है । योनि में इसकी कम्लूल, स.म्लूल, फूहक, शज्रतुल बहक-अ० । पिचु वर्ति धारण करने से गर्भाशय गत शोथ कनावेरी । विलीन होता है। यह झाँई तथा व्यङ्ग का निवाभिन्न मत-१) वादादी के अनुसार यह रण करता है, हर प्रकार के जहर के लिए कल्याण एक प्रकार का जंगली साग है, जिसके पत्ते कासनी कारी है । और सांद्र दोषों का उत्सर्ग करता है। सहराई (जंगली कासनी) के पत्तों से छोटे, इसके लेप से सूजन मिटती है। यह स्तनव्रण को स्वाद में किंचित चरपरे और कड़वे होते हैं। फूल मिटाता है । इसके पत्तों के लेप तथा उसके स्वरस सफेद एवं बारीक होता है। वीज भगमैला और से साधित तैल के अभ्यंग से माई (बहक छोटा होता है। सफेद) मिटती है । अरब निवासी इसको पह(२) तुहमतुल मोम्नीन में लिखा है कि चानते हैं और इससे बहक सफ़ेद अर्थात् छींप या इसके पत्ते पालक्यपत्रवत् होते हैं। स्वाद में ये | झॉई का उपचार करते हैं । (ख० अ०) Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काविस २०५७ कनीनिका . सर्दी। कनाबिस-[यू०] भाँग। | कनिष्ठिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] पांचों उंगलियों क्रनाबि ( ब ) स इगरिया-[ यू. ] जंगली में से सबसे छोटी उँगली । कानी उँगली । भांग । छिगुनी। कनाबूस-यू.] विजया बीज । तुख्म भंग। शहदा- कनिष्ठिकाकुचनी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] उक्न नज। ___नाम की एक पेशी जो कानी उँगली को श्राकुकनामिस, कनामीस, कानामीस- यू.] बिजया चन करती है। बीज । तुम भंग । शहदानज । कनिष्ठिका पकर्षणी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री ] उक्त कनामुल्ल-[ मदराप्त ] अगरु । ___ नाम की पेशी । यह छिगुनी को अपकर्षण करती (Dysoxylam malabaricum, Bedd.) कनार-संज्ञा पुं॰ [ देश०] घोड़ों का जुकाम वा (Abductor digiti quinti.) | कनिष्ठिका प्रत्याकुचनी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] कनारियः-[?] एक बूटी जो कंकड़ीली और नमनाक उक्त नाम की एक पेशी । जो कानी उंगली को जगहों में होती है। कंकर । हर्शफ। प्रत्याकुंचन करती है। अ० शा० । (Opponens कनारी-संज्ञा स्त्री० कंटक । काँटा । digitiquinti) दे० "मांसपेशी"। कनाला-[?] हुरहुर । अर्कपुष्पी। कनिष्टिका प्रसारिणी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कनाली-[१] संधी । ताड़ी। छिंगुनी को फैलाने वाली एक पेशी । [मदरास ] बनचंपक । (Extensor digiti quinti pro ( Evodia roxburghiana, | prius) दे० "मांस पेशी"। Benth.) कनिष्टिका बहिर नायनी-संज्ञा स्त्री० [ सं० स्त्री०] कनिश्रा-[पं०] कनेर। एक पेशी बिशेष । दे० "पेशी"। कनिवारी-संज्ञा स्त्री० [सं० कर्णिकार ] कनकचम्पा कनिष्ठा संकोचनी ह्रस्वा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] का पेड़ । कनियार । दे० "कर्णिकार"। एक पेशी विशेष दे० “पेशी" । कनिएर-द.] कर्णिकार । छोटा सोंदाल । कनी-संज्ञा स्त्री० [संज्ञा स्त्री० ] कन्या । लड़की । हे० कनिक-संज्ञा स्त्री० [सं० कणिक] (१) गेहूं। च। (२) गेहूं का मोटा पाटा । ( महीन आटे को कनागिल- कना० ] कनेर । .. मैदा कहते हैं। | कनीचि-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (1) गुजालता कनिका-दे० "कणिका"। घुघची की बेल । श०२०। (२) सपुष्पलता कनिक्या-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] समिता । गेहुँ का | फूलदार बेल । उणादि कोष । (३) शकट । पाटा । मैदा । श० च० । कनिक । गाढ़ी। कनिचि-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (१) सूरन । कनीनक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] आँख की पुतली । शूरण । प० मु. । (२) गुजा ।घुधची। ___ कनीनिका । (२) बालक । लड़का । कनियार-संज्ञा पुं॰ [सं. कर्णिकार ] कनकचंपा। कनीनका-सज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कन्या। लड़की । कनियाल-[१] केले के तने का गूदा। कनिष्ठ-वि० [सं० त्रि०] [स्त्री० कनिष्ठा ] बहुत कनीनिका ( कनीनी)-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (१) अांख की पुतली का तारा । अक्षितारक । छोटा । अत्यन्त लघु । सबसे छोटा। श्रांख की पुतली । (Cornea) रा०नि० व० कनिष्ठक-संज्ञा पुं० [सं० को०] शूक तृण । श० १८ । (२) कनिष्टांगुली । कानी उँगली । छिगनी च०। सूकड़ी घास। कनिष्ठा-संज्ञा स्त्री० [ सं० स्त्री.] छोटी उँगली। मे० कचतुष्क । (३) घोड़े के नाक के समीप . छिगुनी । कनगुरी । रा० नि०व०१८ । का भाग । ज० द० २ १० । (४) कन्या । ३८ फा. Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कनीपसजहर कनीपस जहर - [ ८० ] गोरोचन | बादजहर । पाद जहर | कानी । Silicate of Magnesia & Iron) Bezoar Stone. कनीयस - संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] ताँबा । ताम्र | हे० च० । वि० [सं० त्रि० ] ( १ ) अल्प तर । ( २ ) अपेक्षाकृत अल्प वयस्क । श्रधिक कमसिन । कनीयान् -संज्ञा पुं० [सं० पु० ] एक प्रकार की सोमलता । सु० चि० २६ श्र० । दे० " सोम" । कनीयस् - वि० [सं० त्रि० ] [स्त्री० कनीयसी ] (१) छोटा भाई | अनुज । त्रिका० ( २ ) त्यल्प | बहुत छोटा । मे० । २०५८ कनीयः पञ्चमूल - संज्ञा पुं० [सं० की ० ] गोखरू, भटकटैया, बनभंटा, पिठवन और सरिवन इन पाँच श्रौषधियों का समुदाय । ह्रस्व पञ्चमूल । यथा -- "त्रिकण्टक वृहतीद्वय पृथक्पर्णी विदारि गन्धा ।" सु० सू० ३८ श्र० । कनुगचेट्ट ु–[ ते० ] करंज । कंजा । किरमाल । कनुपलचोरक - [ ते० ] ऊख | गन्ना | ईख । कनू - [ फ्रा० ] ( १ ) भांग । ( २ ) संधी | ताड़ी | ( ३ ) पीरनी । कनूचा - संज्ञा पु ं० दे० " कनौचा " । कनूदान, कनूदान:- [ फ्रा० ] बिजया बीज । तुख्म भंग | शहदानज | कनूरक - [पं०, बं०] कंचुरा । कन्ना । कनूरिया - [ उड़ीसा ] सन । श्रम्बारी । (द० ) । मेष्टपात (बं० ) । कनूला - [ ? ] कनूसती - [ तबरिस्तान ] ज़रूर की एक बड़ी जाति । कनेर - संज्ञा पु ं० [सं० कणेर ] एक पेड़ जो ८-६ फुट तक ऊंचा होता है। इसमें शाखाएँ प्रायः जड़ से फूटा करती हैं। डालियों के दोनों श्रीर दो-दो पत्तियाँ एक साथ श्रामने सामने निक ती हैं। पत्तियाँ एक एक बित्ता लंबी और श्राध अंगुल से एक अंगुल तक चौड़ी और नुकीली ऊपर से मसृण और नीचे से खुरदरी होती है और उन पर बारीक बारीक सफेद रगें स्पष्ट दिखाई देती कनेर 1 हैं । ये कड़ी, स्थूल, चिकनी और हरे रंग की होती हैं । डाल में से सफेद दूध निकलता है । फूल के विचार से यह दो प्रकार का है, सफेद फूल का कनेर और लाल फूल का कनेर । दोनों प्रकार के कनेर सदा फूलते रहते हैं और बड़े विषैले होते हैं। सफेद फूल का कनेर अधिक विषैला माना जाता है। फूल खुरदरे होते हैं और उन पर बालों की तरह एक वस्तु जमा हो जाती है फूलों के झड़ जाने पर आठ दस अंगुल लंबी पतली पतली कड़ी फलियाँ लगती हैं । फलियों के पकने पर उनके भीतर से बहुत छोटे छोटे कुछ कुछ काले रंग के बीज मदार की तरह रुई में लगे निकलते हैं । जड़ लंबी, पतली, खारी तथा प्रायः सफ़ेद और रक्ताभ होती है । वाजीकरण एवं स्तम्भनके लिये सफेद फूल वाला लाल फूल वाले की अपेक्षा वलवत्तर सिद्ध होता है । औषधि में उसी का अधिक व्यवहार भी दिखाई देता है । ५ मा० (४ श्राना ) की मात्रा में कनेर की जड़ की छाल का चूर्ण सेवन कराने से प्रति तीव्र विष प्रभाव प्रगट होते देखा गया है। कनेर घोड़ों के लिये बड़ा भयंकर विष है, इसीलिये संस्कृत कोषों में इसके "अश्वघ्न" " हयमारक" तुरंगारि" श्रादि नाम मिलते हैं। श्रश्व शब्द उपलक्षण मात्र है । वह कुत्ता, वि और गाय प्रभृति के लिये भी घातक विष है । निघंटुधों में केवल सफेद फूल वाले कनेर के पर्याय स्वरूप "अश्वघ्न” "हमारक" प्रभृति शब्द पठित होने से लाल कनेर के हय्मारकत्व गुण में संदेह करना उचित नहीं क्यों कि उक्त संदेह के निवारण के लिये ही निघंटुकार पुनः लिखते हैं- 'चतुर्विधोऽयं गुणे तुल्यः” । सफेद गुलाबी और लाल कनेर भारतवर्ष में बगीचों के भीतर लगाये जाते हैं। ये दोनों प्रकार कनेर सर्वत्र प्रसिद्ध हैं । वैद्यक में दो प्रकार के श्रोर कनेर लिखे हैंएक गुलाबी फूल का दूसरा काले फूल का | गुलाबी फूलवाले कनेर को लाल कनेर के अंतगंत ही समझना चाहिये; पर काले रंग का सिवाय राजनिघंटु तथा निघंटुरत्नाकर ग्रंथ के और कहीं देखने या सुनने में नहीं श्राया है । काला कनेर पेक्षाकृत दुर्लभतम है। इसकी पत्ती वभनेटी वा Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कनेर २०५६ हाटी की पत्ती की श्राकृत की होती है । वृढ पीला कनेर के वृक्ष जैसा वृहत् नहीं होता । फल गोलाकार होता है । फल के ऊपर तीच्णाग्र दीर्घ कंदक होता है। फल पक जाने पर बीच से विदीर्ण होकर दो भागों में विभक्त हो जाता है। इसमें ६-७ बीज होते हैं जो एक के ऊपर एक उपर्युपरि विन्यस्त होते हैं। बीज चक्राकार होता है । जो सिकि की अपेक्षा वृहत्तर नहीं होता । पर्या० - कृष्णकुसुम ( रा० नि० ) - सं० । कलि कवी, काल करवीगाछ, कृष्ण करबी - बं० । एक और पेड़ होता है जिसकी पत्तियाँ और फल कनेर ( सफेद और लाल ) ही के ऐसे होते हैं । उसे भी कनेर कहते हैं, पर उसकी पत्तियाँ पतली, छोटी और अधिक चमकीली होती हैं । फूल भी बड़ा और पीले रंग का होता है। फूलों के गिर जाने पर उसमें गोल गोल फल लगते हैं जिनके भीतर गोल गोल चिपटे बीज निकलते हैं । इन बीजों को हिन्दी में गुल्लू कहते हैं। बालक गोलियों में 'गुल्लूरीद' खेला करते हैं । हरा, १॥ २ ई० व्यास का और बीच में फल श्रालि द्वारा उभरा होता है । फलत्वक मांसल होता है । फल के भीतर हलके भूरे रंग की त्रिकोणाकार एक कड़ी गुठली होती है । प्रत्येक गुठली में दो पांडु पीत, किंचित् पचयुक्त, चपटे बीज होते हैं । इन बीजों और छिलके के अंत: स्तर को लवणाम्ल Hydro chloric acid में उबालने से एक प्रकार का गंभीर बैंगनी वा बैंगनी लिये हरा रंग प्राप्त होता है। वाजस्य एवं त्वक् ति तिल होता है। इसके बीजों में से प्रशस्त पीतवर्ण का तेल निकलता है जो जलने में धुत्रां कम देता है। खाने से यह स्वास्थ्यप्रद एवं बल्य है। इसके सो तोले बीजों में ३६ ॥ तोला से ४१ तो० तक तेल निकलता है। इसकी कोपल शाखा, कांडत्वक् पत्र, पत्रवृत और फल सभी को अर्थात् वृक्ष के भग्न करने से प्रचुर मात्रा में सफेद झालदार दूध निकलता है । यह अरण्य वृक्ष है । भारतवर्ष के जंगलों में यह बहुत होता है। फूल के लिए इसे घरों में भी लगाते हैं । बंगाल (राढ़ ) में यह "कल के फुलेर गा" नाम से प्रसिद्ध है । कनेर जल कनेर के पौधे नदी, तालाबों या उनके भीतर होते हैं । इसमें लाल फूलों की बालियां लगती हैं। भेद - श्वेत, रक्त, पीत और कृष्ण पुष्प भेद से कनेर चार प्रकार का होता है । वैद्यक में इनमें से सफेद कनेर का ही अधिक प्रयोग दिखाई देता है । धन्वन्तरि निघण्टुकार ने श्वेत और रक्त केवल दो ही प्रकार के कनेर का उल्लेख किया है। किसी किसी ने इसमें गुलाबी ( पाटल) कनेर को और सम्मिलित कर इसे पाँच प्रकार का लिखा है । उत्पत्ति स्थान -भेद से हकीमों ने इसके दो भेदों का उल्लेख किया है । (१) बुस्तानी वा वाग और ( २ ) जंगली । इनमें से बागी का न ऊपर किया गया है । और जंगली के पत्ते खुर के पत्तों की तरह और बहुत पतले होते हैं । शाखायें पतली और भूमि पर श्राच्छादित होती हैं । यह बहुत अधिक नहीं बढ़ता। इसके पत्तों के पास कांटे होते हैं । यह ऊसर एवं वीहड़ स्थानों में उत्पन्न होता है । बुस्तानी में काँटे नहीं होते । कनेर की सामान्य संज्ञायें पर्या० - करौली, कनेर, कनेल, करबीर-हिं० गनेर - द० | करवीर, हयमार, हयमारक तुरंगारि, चंडातरुः - सं० । करवी गाछ, करबी, कनेर-बं० । दिली, सुम्मुल हिमार, सम्मुल्मार-छ। ख़रज़हूरा- फ्रा० | Sweet scented Olean der( Nerium Odorum, Aiton )। श्रलरि - ता० । गन्नेरु-ते० । श्रलरि-मल० । कणगले, वाफ़णलिंगे—कना० । कणैरु, कहर - मरा० । बैकँड़ - पश्तो | कनेर सफेद पर्या० - करवीरः, अश्वहा, श्रश्बघ्नः, हयमारः अश्वमारकः, श्वेतकुन्दः, श्वेतपुष्पः, प्रतिहासः, श्रश्वमोहकः ( ध० नि० ) करवीर, महावीर, हयमार, अश्वमारक, हयघ्न, प्रतिहास, शतकुन्द, अश्व रोधक, हयारि, बीरक, कन्दु, शकुन्द, श्वेतपुष्पक, श्रश्वान्तकः, अश्वघ्न, नखराश्व, अश्वनाशक, स्थूलादि कुमुद, दिव्य पुष्प, हरप्रिय, गौरीपुष्प, सिद्ध Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कनेर कनेर पुष्प, विकरात ( रा०नि०) शतकुम्भ, करवीर, श्वेतपुष्प, अश्वमारक (भा०)-सं०। सफेद कनेर, उजला कनैल-हिं० । श्वेत करवी, सादा करवी बं० | Syn. Nerium Oleanderले० । प्रालियाण्डर Oleander, रोज़बेरी पर्ज Roseberry spurge-अं । चूहलीखेण्डर Wohlriechender-जर। अलारीर रोज Alaurier Rose-फ्रां| अम्मेज़ा केवेल्लो. Amma.zza-cavallo, अम्मेज़ा लेसिनो Ammazza-lasino-इट० । कनवीरम्, अलरि-ता० । कानेरचे?, गन्नेरु, करवीरमु, कस्तूरी पत्ते-ते. । वाकन लिगे, कंगील (लु), पड्डलेकना० । कनेर, घोला, फुलनी, कहर, राता फुलनी, धूलि कणेर-गु० । कर पांडरी, श्वेत कणेर, कनेर-मरा । धावे कनेरी-कों। किंगण लिंगे, वाँकण लिंगे-का० । शतावरी वर्ग ( N. O. Apocynaceae.) उत्पत्ति स्थान-पश्चिमीय हिमालय, नेपाल | से मध्यभारत तथा सिंध पर्यन्त । अफगानिस्तान और उत्तर भारत में इसके वृक्ष जंगली होते हैं और फूल के लिये बगीचों में लगाये जाते हैं । फूल देवताओं को चढ़ते हैं। औषधार्थ ब्यवहार-जड़, मूलत्वक, पत्र, पुष्प । वर्णन-इसकी जड़ वक्राकार ओर त्वक् स्थूल एवं कोमल होता है। त्वम् वहिः पृष्ठ धूसर कार्कवत् होता है । छोटे पौधे की जड़ के ऊपर उन कार्कवत् स्तर पतला होता है जिससे होकर छाल के भीतरी पृष्ट का पीला रंग प्रतिभासित होता है । अंतः पृष्ट पीतवर्ण होता है। छाल को काटने वा क्षतपूर्ण करने पर उससे एक प्रकार का पाँडुचीत रस स्रावित होता है। जो रालदार और अत्यंत पिच्छिल वा चिपचिपा होता है । गन्ध ईषत् कटु। स्वाद तिक और कटु होता है। रासायनिकसंघट्टन-इसकी जड़ (Tuber)| . में कारवारीन वा नारोश्रोडोरीन “Neriodo rin" (जल में अविलेय) भोर ( Neris dorein) नामक दो तिन अस्फटिकीय सार पाए जाते हैं । ये दोनों हृदय के लिये भयंकर विष हैं। इनके अतिरिक्त इसमें ग्लूकोसाइड (Gluco side), रोजैगिनीन ( Rosaginine), एक स्थिर तैल. एक स्फटिकीय द्रव्य, डिजिटैलीनवत् नेरीन ( Neriene ) नामक एक पदार्थ, कषायाम्ल (Tannic acid) ओर मोमये द्रव्य पाये जाते हैं । कनेरकी पत्ती में आलिएण्ड्रीन (Oleandrine) नामक एक क्षारोद, एक ग्लुकोसाइड, स्युडोक्युरारोन (Pseudo-curarine) तथा नेरीन ( Neriene) और नेरिएण्टीन (Neriantine) भी पाये जाते हैं। मेटीरिया मेडिका श्राफ इंडिया-श्रार०.एन. खोरो, खं० २, पृ० २८८, ई० मे० मे०-नादकर्णी, पृ. ४६३ । मात्रा- अाना से 1 पाना भर तक । औषध-निर्माण-करवीराद्यतैल (च० द०, रस० र०) आदि। गुण धर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसारकरवीरः कटुस्तिक्तो वीर्य चोष्णो ज्वरापहः । चक्षुष्यः कुष्ठकण्डूघ्नः प्रलेपाद्विषमन्यथा ॥ 'करवीर द्वयं' तिक्तं सबिषं कुष्ठजित्कटु । (ध० नि. ४ व.) कनेर-चरपरा, कड़वा, उष्णवीर्य, ज्वरनाशक, और आँखों को हितकारी है तथा लेप से कोढ़ और खुजली को दूर करता है । अन्यथा यह बिषवत प्रभाव करता है, दोनों प्रकार के कनेर (श्वेत . और रक्त ) कड़वे, चरपरे, कुष्टघ्न और विषैले हैं। करवीर: कटुस्तीक्ष्णः कुष्ठकण्डूतिनाशनः । व्रणार्ति बिष विस्फोट शमनोऽश्वमृतिप्रदः । (रा०नि० १०व०) कनेर-चरपरा एवं तीक्ष्ण है तथा यह कोढ़ खुजली, व्रण, बिष और विस्फोट को शमन करता है तथा घोड़ों के लिए मारक है। 'करवीरद्वयं' तिक्तं कषायं कटुकश्च तत् । Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कनेर २०६१ कनेर व्रणलाघव कृन्नेत्रकोप कुष्ठवणापहम् । वीर्योष्णं क्रिमिकण्डूनं भक्षितं विषवन्मतम् ।। (भा०) सफेद और लाल दोनों प्रकार के कनेर कड़वा, कसेला, चरपरा एवं उष्णवीयं होते हैं तथा थे | व्रण, नेत्रकोप, कोढ़, घाव, कृमि एवं खुजली श्रादि को दूर करते हैं और भक्षण करने से ये विष की तरह प्राण हरण करते हैं। हलिनी करवीरौच कुष्ठ दुष्ट व्रणापहौ। (राजबल्लभः) हलिनी ( कलिहारी ) और करबीर दोनों कुष्ठ | और दुष्ट व्रण नाशक हैं। शालिग्राम निघण्टु भूषण में इसे ग्राही और वात, अर्श तथा प्रमेह नाशक, यह अधिक लिखा है। कनेर के वैद्यकीय व्यवहार चरक-(१) कुष्ठमें करवीर त्यक्-कुष्ठरोगी को करवोर मूलत्वक् साधित जल स्नान और पानार्थ व्यवहार करना चाहिये। यथा"स्नाने पाने च मता तथाष्टमश्चाश्वमारस्य" (चि०७०) (२) पालित्यमें करवीर मूलत्वक्-दुग्धिका एवं कनेर की जड़ की छाल-इन दोनों को दूध में पीसकर, प्रथम सिर के पके वा श्वेत बालों को उखाड़ कर फिर इसे सिर पर लेप करे, इससे फिर बाल नहीं पकते । यथा"* क्षीर पिष्टौ दुग्धिका करवीरको। उत्पाट्य पलितं देयौ ताबुभौ पलितापहौ ॥" (चि० २६ अ०) सुश्रत (१) अश्मरी में करवीरक्षार-सुखाई हुई कनेर की जड़ की छाल को मिट्टी के बन्दमुख पात्र में रखकर अन्तधूम दग्ध करें। उक्त क्षार 1ाना-बाना की मात्रा में मधु के साथ अश्मरी के रोगी को सेवन करायें। श्रोषध सेवन करनेवाले को मधुर रस तथा घृत एवं दुग्ध बहुत भोजन करना चाहिए। यथा"पटला करवीरानां क्षारमेवं समाचरेत्" । (चि०७०) । टीका-"पाटलेत्यादि । एतेन वात कफ समुद्भताया मश्मा ' मधुर क्षीरघृताशिनः हार योगा योज्याः" डल्हणः । (२) उपदंश में करवीर-पत्र-कनेर की पत्ती से सिद्ध जल द्वारा उपदंश के क्षत को धोना चाहिये यथा"करवीरस्य पत्राणि । प्रक्षालने प्रयोज्यानि" (चि०१८ १०) चक्रदत्त (१) व्रणदारणार्थ करवीर-मूलत्वक्-पके फोड़े पर जल में पिसी हुई कनेर की जड़ की छाल लेप करने से वह विदीर्ण होजाता है। यथा___" चित्रको हयमारकः । * दारणम् ।। (व्रणशोथ चि०) (२)पामा रोग में करवीर-मूलत्वककनेर की जड़ की छाल द्वारा पक्क तिल-तैल का लेप करने से पामा रोग आराम होता है। यथा"लेपाद्विनिहन्ति पामां तैलं करवीर सिद्धवा,' (कुष्ठ० चि०) (३) नेत्रकोप रोग में कनेर की कोमल पत्ती तोड़ने से जो रस निकलता है, उसको नेत्र में अञ्जन करने से, बहुअश्रु पातान्वित नेत्रकोप रोग श्राराम होता है । यथा "करवीर तरुण किशलय छेदोद्भवो वहुल सलिलसंपूर्णम् । नयनयुगं भवति दृढ़ सहसैव नत्क्षणात् कुपितम्। (नेत्ररोग-चि०) भावप्रकाश-उपदंश रोग में करवीर-मूलत्वक् कनेर की जड़ की छाल को जल में पीसकर प्रलेप करने से उपदंश रोग श्राराम होता है। यथा "करवीरस्य मूलेन परिपिष्टेन वारिणा । असाध्याऽपि ब्रजत्यस्तं लिङ्गोत्था रुक् प्रलेपनात्"। (उपदंश-चि०) वक्तब्यचरक (चि० २५ अ० ) और सुश्रुत (क० २ अ०) ने करवीर अर्थात् कनेर को 'मूलविष" Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कनेर २०६२ कनेर लिखा है । सुश्रु त ने शिरो-विरेचक-वर्ग में करवीर | पाठ दिया है 'करवीरादीनामन्तिानं मूलानि" वाक्य में कनेर की जड़ को ही शिरोविरेचक लिखा है। धन्वन्तरीय निघण्टुकार ने केवल प्रलेपादि कार्य में करवीर के व्यवहार का उपदेश किया है"प्रलेपाद्विष मन्यथा" । भावप्रकाशकार ने भी लिखा है-भतितं बिषवन्मतम्" । मतानुसारप्रकृति-यूनानी चिकित्सकों के मत से कनेर तृतीय कक्षा के अंत में उष्ण और रूक्ष है। हानिकत्ता-फुफ्फुस को । वैद्यों के अनुसार यह दृष्टि-शक्ति को कम करता है। __ दर्पघ्न-मधु एवं तैल (जुना, वादाम, इसवगोल, दूध, यत्नी ) वैद्यों के मत से हड़ इसका दर्पन है। प्रतिनिधि-एक प्रकार का कनेर दूसरे प्रकार के कनेर की प्रतिनिधि है तथा मवेज़ज, इक्लीलुल् मलिक-नाखूना, बाबूना, मेथी ये सब समान भाग और तृतीयांश एरण्ड-पत्र । किसी किसी ने एरण्ड-पत्र अर्ध भाग लिखा है । मात्रा-इसके अवयव घोरतम विष हैं ।मनुष्य तथा पशु श्रादि प्राणियों पर इसके भक्षण से विष प्रभाव प्रगट हो जाता है ।यदि १॥ माशे से अधिक खाया जाय, तो मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होता है। अधिकतया इसका वाह्य प्रयोग होता है और क्वचित ही मुख द्वारा प्रयोजित होता है। गुण, कर्म, प्रयोग-यूनानी चिकित्सकों के लेखानुसार कनेर कठोर सूजन उतारता, रुक्षता उत्पन्न करता, कांति प्रदान करता और पुरातन कटिशूल को दूर करता है । इसकी सूखी पत्ती का बारीक चूर्ण घाव पर बुरकने से ब्रणपूरण होता है। परन्तु इसका भक्षण उचित नहीं, क्योंकि यह विष है। इसकी पत्ती भक्षण करने से प्रत्येक प्राणी पर इसका विष-प्रभाव प्रकाशित हो जाता है इसे १॥॥ माशे से अधिक सेवन करने से वह मृत्यु को प्राप्त होता है। यह नेत्रशोथ, कुष्ठ विस्फोटक, उदरज कृमि, लकवा फालिज और कफज शिरोशूल इन रोगों को लाभकारी है। . एतद्वारा साधित तैल पीठ की पुरातन पीड़ा को दूर करता है तथा इससे एक ही घंटे में | खुजली मिटती है। यह तर व खुश्क दोनों प्रकार है की खाज में असीम गुणकारी है। तेल इस प्रकार तैयार करें। प्रथम कनेर के पत्ते या फूल को पानी में डालकर । अग्नि पर चढ़ा क्वथित करें। पुन: जितना वह काढ़ा हो उससे अाधा उसमें जैतून का तेल मिला कर यहां तक पकायें, कि केवल तैल मात्र शेष रह जाय । यदि उसमें तेल का चौथाई मोम मिला लिया, जाय, तो और भी उत्तम हो। तैल पाक की एक और विधि है, जिसके द्वारा प्रस्तुत तैल तर खुजली के लिये बहुत ही गुणकारी है। इसमें रक्त विकार के कारण नाभि के नीचे से एड़ी तक फुसिया हो जाती हैं, जिनमें तीव्र खाज उठती है। इनके दीर्घ काल तक रहने और बहुत खुजलाने से चमड़ा हाथी के चमड़े की तरह काला और मोटा पड़ जाता है और किसी प्रकार प्राराम नहीं होता, यह तेल उसे भी लाभ पहुंचाता है। विधि यह है__ सफेद कनेर के पत्ते ऽ३ तीन सेर लेकर छोटे छोटे टुकड़े कतर लेवें और पानी से भरे एक बड़े बरतन में डालकर अग्नि पर तीन पहर तक कथित करें। इसके बाद आँच से उतार कर उसे ठंडे पानी से, भरे पात्र में डाल देवें। जब पत्तियाँ नीचे बैठ जाँय और तैलांश ऊपर उतरा आये। तब जिस प्रकार दही को बिलोकर मक्खन निकालते हैं, उस प्रकार उस तेल को हाथ से लेकर कटोरे के किनारे में संगृहीत करलें । पुनः उक्त तेल में नीलाथोथा ३॥ मा०, सफ़ेदा ७ मा०, फिटकिरी ३॥ मा०, मुरदासंख ४॥ मा०, रसकपूर मा०-इनको बारीक पीसकर मिलायें और व्यवहार करें। इसके पत्तों को मदिरा और अंजीर में पकाकर छान लेवें । १४ माशे की मात्रा में यह क्वाथ मक्खन मिलाकर पीने से कीट-दंश से प्राण-रक्षा होती है। चतुष्पद जीवों को भी इससे उपकार होता है। नोट-गीलानी के योग में मदिरा व शराब के स्थान में सुधाब लिखा है और १॥ माशे की मात्रा में उपयोग करने का आदेश किया है। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कनेर २०६३ शेख के लेखानुसार यद्यपि कनेर विष है, पर सुदाब एवं मदिरा के साथ कथित कर पीने से कीट-दष्ट विष प्रभाव दूर हो जाता है । किंतु सत्य यह है कि उक्त उपाय से भी यह निरापद नहीं हैं । इसे अकेला कथित कर तो कदापि न पीना चाहिये । सुदाब, अंजीर और मक्खन या शराब, अंजीर और मक्खन या केवल शराब और सुदाब के साथ भी इसे १२ या १४ माशे से अधिक न पियें। मनुष्य और क्षुद्र चतुष्पद जीवों तथा कुत्तों के लिये कनेर विष है । मदिरा और सुदाव से केवल इतनी बात और होती है कि उसका विष प्रभाव कुछ कम हो जाता है अर्थात् ये उसके दर्पन हैं । इसकी पत्ती से छींकें श्राती हैं । श्रतएव मस्तिष्क की शुद्धि के लिये कतिपय नस्यौषधों में इसका रस डालते हैं | सफेद कनेर के पीले पत्तों को कूट-पीसकर बारीक चूर्ण बनायें। जिस श्रोर सिर में दर्द हो, उस तरफ की नाक में एक-दो चावल भर इस चूर्ण के सुँघने से छींकें श्राकर और नाक टपककर सिर दर्द मिट जाता है। 1 नोट - इसके फूलों के चूर्ण का नस्य पत्तों के चूर्ण की अपेक्षा अधिक वलशाली होता है । इसके फूल मलने से मुखमंडल का रंग निखर ता है। इसके काढ़े से सिर धोने से इंद्रलुप्त वागंज आराम होता है। यही नहीं, प्रत्युत इससे चौपायों की खुजली में भी उपकार होता है । इसका काढ़ा घर में छिड़कने से दीमक और पिस्सू मर जाते हैं । टपकाया हुआ दही, पीला गंधक और कनेर की पत्ती इनको बराबर बराबर लेकर बारीक पीसकर बकरी की चर्बी में मिला मर्दन करने से एक सप्ताह के भीतर तर खुजली नष्ट होती है । यदि सम्यक् संशोधनोपरांत बारह बार इसे श्वित्र पर लगाया जाय, तो अतिशय उपकार हो । सफेद फूलवाले कनेर की जड़ को गोदुग्ध में खूब पकाकर दूध को पृथक् कर लेवें और उसका दही जमा देवें । पुनः उक्त दहीको बिलोकर मक्खन निकालें ओर थोड़ी मात्रा में इसे सेवन करें। यह वाजीकरण और स्तंभक है। घी की मात्रा १-२ कनेर बूँद, यह मालिश श्रोर खाने के काम श्राता है एवं उभय विध उपयोगी है। जब दाँत हिलते हों, तव सफेद कनेर की दातीन बार २ करने से दाँत की जड़ दृढ़ हो जाती है ( और उसमें कीड़े नहीं लगते ) कहते हैं कि - ३॥ माशे की मात्रा में इसकी पत्ती वा फूल पकाकर या कच्चा पीसकर सेवन करने से खुनाक रोग उत्पन्न होजाता है । इससे व्याकुलता, प्रदाह और उदराध्मान होता है। नेत्र लाल होकर उबल आते हैं और अंत में मृत्यु हो जाती है । उक्त लक्षणों के उपस्थित होते ही Sant करायें। ( या मनकारी यन्त्र द्वारा श्रामाशय की शुद्ध करें। यदि विष श्रामाशय से उतर कर प्रांतों पर प्रभाव कर चुका हो तो ) वस्ति देवें, और रोगी को श्राराम से सुलाए । तदुपरांत जब श्रामाशय और श्रांत्र शुद्ध हो जाँय, तव मुर्गे का चिकना शोरबा शीतल करके पिलाएं, छाछ और ईसबगोल का लबाब मीठे बादाम के तेल में कतीरे का लवाब मिलाकर पिलायें । ताज़े खजूर भक्षण करना इसके लिए प्रतीब गुणकारी है 1 इसकी पत्तियों को श्रीटा पीसकर और तेल में मिलाकर लेप करने से संधिगत वेदना शाँत होती है। इसकी पत्तियों के काढ़े से आतशक के क्षत धोने से उपकार होता है । इसकी जड़ शीतल जल में पीसकर, उससे सोर के मस्सों को धोने से मस्से दूर हो जाते । ख० श्र० । कर लघु, उष्ण एवं दृष्टि शक्ति को कम करने वाला है और यह शरीर की जोशीदगी, कोद, ar, विस्फोट और समस्त प्रकार के बिषों को दूर करता है। कहते हैं कि भारतवासियों के गृह मैं इसका फूल रखने से उनमें परस्पर युद्ध का कारण बनता है । वाजिकारक प्रलेपों और तिलानों में इसकी छाल काममें श्राती है । - ता० श० । सफेद कनेर के पके फल के वीज का महीन चूर्ण कर रखें, नीव एवं शक्तिहीन व्यक्ति को प्रथम दिन एक रत्ती की मात्रा में मक्खन में Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६४ कनेर खिलायें, दूसरे दिन डेढ़ रत्ती, तीसरे दिन दो रत्ती इसी प्रकार प्रति दिन श्राधी रत्ती बढ़ाते हुये | सप्ताह पर्यन्त सेवन करें। अम्ल एवं वादी चीजों से परहेज करना आवश्यक है। रूक्षता प्रतीत | होनेपर गोदुग्ध पान करें । परमेश्वर की दया से नपुंसक भी पुसत्व लाभ करेगा। -गिफ़्ताहुल खजाइन नव्य मत आर० एन० खोरी-ओलियेण्ड्रीन ( रक्क और श्वेत करवीर का उपादान भूत एक द्रव्य) को पिचकारी द्वारा त्वगभ्यंतर प्रवेश कराने ( Injection ) से नाड़ो स्पन्दन जहाँ एक मिनट में ७५-८० बार होता था, वहाँ घटकर मिनट पीछे १०-१२ वार रह जाता है। इतने पर भी यदि उसे अधिक क्षण तक जारी रखा जाता है, तो इससे हृत्स्पंदन और साथ ही श्वासप्रश्वास भी अवरुद्ध होजाता है। करवीर मूल एवं मूल स्वक् दोनों ही अमोघ मूत्रकारक और स्ट्रोफैन्थायन एवं डिजिटैलीन वत् हृदय वलप्रद है। हृव कल्य बिशेष (Cardiac Systole) और शोथ रोग (Dropsy) में इसका काथ ( Infusion ) व्यवहृत होता है। गर्भपात एवं आत्महत्या के लिये करवीर-मूल प्रायशः व्यवहार किया जाता है । शूलरोग में एवं शिरो बिरेचनार्थ ग्रामवासीगण कनेर को सूखी पत्ती का चूर्ण व्यवहार में लाते हैं । इसकी लकड़ी मूषक विष ( Rats bane) रूप से व्यवहार की जाती है। फिरंग क्षत, शिश्न क्षत और दद्र में इसकी जड़ की छाल का प्रलेप लाभकारी होता है। ( मेटीरिया मेडिका आफ इंडिया-२ य खं०, ३८६ पृ.) ऐन्सली-कनेर की, जड़ की छाल एवं मधुर गन्धि पत्रों को वैद्यगण प्रबल Repellents (मवाद को लौटाने वाला) मानते हैं और उनका बहिःप्रयोग करते हैं । जड़ भक्षण करने से विषैला प्रभाव करती है। हिन्दू रमणीगण डाह के कारण आत्महत्या के लिए वहुधा इसका प्राय ग्रहण करती हैं। -मेटीरिया इंडिका, २ खं० पृ०२३। वैट-कनेर के प्रभावकारी सार हृदय के लिये प्रचंड विष है। प्रो०ई० पेलिकन के अनुसार क्योंकि हृदय पर इसका अवसादक वा नैर्बल्यकर (Depressing) प्रभाव होता है, अस्तु इसका डिजिटेलिस के प्रतिनिधि स्वरूप व्यवहार , हो सकता है। -वैट्स डिक्शनरी। कर्नल बी. डी. वसु-कनेर के सर्वांग, प्रधानतया इसकी जड़ को एतद्देशवासी विषाक्त मानते हैं । इसलिये वे आत्महत्या एवं अन्य प्रकार को हत्या के लिये इसका व्यवहार करते हैं। तथापि तालीफ़ शरीफ़ (पृ. १३४) एवं अन्य भारतीय द्रव्य-गुण-शास्त्र विषयक ग्रंथों में कुष्ठ तथा अन्य व्याधियों में इसको व्यवस्था देखने में श्राती है। ___ के. एम. नादकर्णी--कनेरका सर्वांग विषैला है । इसको जड़ और जड़ की छाल दोनों प्रवल मूत्रल एवं ष्ट्रोफेन्थस और डिजिटेलिनवत् हृदय वलद होती हैं । भोलिएंड्रोन के पिचकारी द्वारा स्वगधोऽन्तः क्षेप करने से नाड़ी-स्पंदन जहाँ प्रति मिनट ७५ या १०० होता था, वहाँ घट कर १. या १२ तक रह जाता है। यदि इसका प्रयोग कुछ समय तक ओर जारी रखा जाता है, तो हृदय का स्पंदन रुक जाता है और साथ ही श्वास प्रश्वास की गति भी अवरुद्ध होजाती है। यह पौधा दो तरह का होता है-सफेद फूल का और लाल फूल का । गुण धर्म में ये दोनों समान होते हैं। इनमें से सफेद फूलवाले को जड़े जिन्हें बंगाल में 'श्वेत करबी' कहते हैं, अत्यन्त विषैली होती है। इसो भॉति उसको पत्तियाँ, छाले और फूल भो ज़हरोले होते हैं । इसकी छाल किसी प्रकार खाने के काम नहीं पाती। जड़ वाह्य प्रयोग में आती है और इले पानी में पीसकर प्राकुरों पर (Cancers), तथा क्षतों पर एवं कुष्ठ में भी लेप करते हैं। ज्वर रोगी को कान में इसको जड़ बाँधते हैं । इस अभिप्राय के लिये रविवार के दिन इसकी जड़ ग्रहण की जाती है। वृश्चिक-दंश एवं सर्प-दष्ट विशेषतः फुरसा सर्प के काटने पर इसका प्रलेप गुणकारी होता है । शिरोशूल में इसकी जड़ का चूर्ण सिर में मलते हैं। दद् एवं अन्यत्वग् रोगों में मूलत्वक् एवं पत्र का लेप करते हैं। सूजन उतारने के लिये इसको पत्ती Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कनेर कनेर का काढ़ा काम में आता है । सर्प-दष्ट तथा अन्य प्रवल विषैले दष्टों में इसकी पत्ती का स्वरस अत्यल्प मात्रा में दिया जाता है । घी इसका अगद है। सर्प-दंश में एक नस्य काम में आता है, जिसमें इसका फूल पड़ता है। योग यह है सफेद कनेर का सुखाया हुआ फूल और तंबाकू वा सुरती की पत्ती-इन दोनों को बराबर बराबर लेकर, इसमें थोड़ी छोटी इलायची मिलाकर सब को कूट-पीसकर बारीक चूर्ण बनायें। बस नस्य तैयार है। सर्प-दष्ट रोगी को इसका व्यवहार करायें। ई० मे० मे० पृ० ५९३-४।। इसके पत्र के कोमल रोम को सिकिम के पहाड़ो लोग क्षत द्वारा रक-स्राब रोकने में व्यवहार करते हैं। कोंकण में पत्र एवं बल्कल मुलसा एवं कमल के साथ मिला चेचक पर लगाया जाता है। बंगाल और वम्बई प्रांत के लोग पत्रों को तम्बाकू बाँधने में व्यवहार करते हैं । फिर बंगाली विषघ्न समझ पुष्पों से कीड़े मकोड़े दूर रखने का काम लेते हैं । पत्तों में जल को सांद्र बनाने का भी गुण विद्यमान है। शङ्कर पर सिवाय कनेर के दूसरा कोई रंगदार फूल नहीं चढ़ता । इसका सारकाष्ठ श्वेतवर्ण और हृद्काष्ठ मृदु एवं ईषत् कठिन होता है। बंगाल में कभी-कभी कनेर की लकड़ी के तख्ते तैयार किये जाते हैं। लोग कहते हैं कि इसकी लकड़ी पर घोटाई का काम अच्छा चलता और बढ़िया साज सामान बनता है।-हिं० वि० को। कनेर द्वारा होनेवाली धातु-भस्में ताम्र-भस्म-एक तोला ताँबे को श्राग में गर्म कर करके एक-सौ बार कनेर की जड़ के ताजे काढ़े में बुझा लेवे । इसके बाद सफेद कनेर के फूल एक सेर लेकर पीसकर कल्क प्रस्तुत करें। और शुद्ध ताँबे को उक्त कल्क के भीतर रखकर ऊपर से कपड़मिट्टी करें। फिर उस गोलेको निर्वात स्थानमें एक मन उपलों की प्राग देवें । अत्यन्त श्वेतवर्ण की भस्म प्रस्तुत होगी। ३६ का. गुण, प्रयोग-वाजीकरण एवं स्तम्भनार्थ यह अनुपम वस्तु है। चावल भर यह भस्म मक्खन या बताशा में रखकर खाये और ऊपर से दूध में गोघृत मिला पान करें। कनेर लाल पो०-रकपुष्प, चण्डक, लगुड, चण्डातक, गुल्मक, प्रचण्ड, करवीरक (ध० नि०), रक्त करवीरक, रक्रप्रसव, गणेशकुसुम, चण्डीकुसुम, क्रूर, भूतद्रावी, रविप्रिय (रा०नि०), रकपुष्प, चण्डात, लगुड, (भा० प्र०)-सं० । लाल कनेल लाल कनेर (कनइल)-हिं० । लाल करवी गाछ, रककरवी-बं० । नेरियम् प्रोडोरम् Nerium Odorum, Soland.-ले० | कानेर चे, -ते. । केंगण लिगे, केगन लिंगे-कना० । केंगण लिंगे-का० । रक करवीर, ताँबड़ी कणेर-मरा० । गुलाबी फुलनी, राता फुलनी, रातीकणेर-गु० । कन्हेर-बम्ब०। गुण धर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसाररक्तस्तु करवीरः स्यात्कटुस्तीक्ष्णो विशोधकः । त्वग्दोषव्रण कण्डूति कुष्ठहारी विषापहः॥ (रा०नि०व० १०) लालकनेर कटु, तीक्ष्ण और शोधक है तथा यह त्वग्दोष, व्रण, कण्ड (खाज ), कोढ़ पोर विषनाशक है। रक्तवर्ण: शोधकः स्यात्कटु पाके च तिक्तकः । कुष्ठादिनाशको लेपादथ पाटलवर्णकः ॥ शीर्षपीडां कर्फ वातं नाशयेदिति कीर्तितः । रक्तादिचतुरो भेदा गुणाः श्वेतहयारिवत् ।। (नि०२०) लाल कनेर-शोधक, चरपरा और पाक में कड़ा होता है। इसका लेप करने से कोढादि दूर होते हैं। ___ गुलाबी कनेर-मस्तक शूल तथा कफ और वात का नाश करता है। इसके तथा पीला और काला कनेरों के लेष गुण में सफेद कनेर की तरह जानना चाहिये। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६६ कनेर शेष गुणधर्म के लिए "सफेद कनेर" देखो। गर्भाशय से मृत वा शुष्क शिशु बाहरणार्थ, यूनानी मतानुसार इसकी जड़ व्यवहार की जाती है। हकीम नूरूल इस्लाम साहब को व्याज़ में इसके पत्तों को पीसकर तेल में मिलाकर प्रलेप उल्लिखित है-"रविवार को लाल कनेर के पत्ते, करने से क्षतज कृमि नष्ट हो जाते हैं। फूख और डालियां लेकर पानी में पीसकर रस ___ इसकी जड़ के काढ़े को राई के तेल में यहीं निचोड़ और उस रस में दो मोटे कपड़ों को तीन तक श्रोटायें कि तैल मात्र शेष रह जाय । त्वरोगों ', 'बार तर करके सुखा लेवें । फिर उक्त कपड़ों की में इस तेल के अभ्यंग से उपकार होता है। . बत्ती बनाकर मिट्टी के नये चिराग में तेल डाल यदि रक्तविकार के कारण शरीर की त्वचा हाथी कर उसे जलायें। उक्न प्रकाश में स्त्री-संग करने की त्वचा की भाँति स्थूल हो गई हो, तो इसकी से वीर्य स्खलित नहीं होगा:". छाल का लेप करने से वह पूर्ववत् हो जाती है। - इग्न ज़हर के रिसाला अरबी में उल्लेख है। -ख० अ० "कनेर को तीव्र सिरके में डाल मिट्टी की हाँडी में इसके पत्तों को पका-पीसकर तेल में मिला लेप भरकर मन्दाग्नि पर कथित करें, जब कनेर की करने से संधिगत शूल निवृत्त होता है। सम्पूर्ण शक्ति द्रव में पाजाय, तब उसे साफ करके कनेर भक्षण जनित विषाक्त लक्षण और उसमें कोई अन्न भिगोकर कुलंग (कराँकुल ) को उसका अगद खिलायें, इससे वह निश्चेष्ठ हो जायगा।" इसकी जड़ भक्षण से उत्पन्न विष-प्रभाव के पदि इसको हरे सौंफ और काकनज के रस में लक्षण यह हैं-पुट्ठों की जड़ें अपना कार्य स्थगित पीसकर आँख में लगायें तो प्रारम्भिक मोतिया कर देती हैं, हृत्स्पंदन रुक जाता है, नाड़ी की गति विन्दु, नेत्रकण्डु, जाला, फूला और पपोटों का एक मिनट में १०-१५ तक रह जाती है । और जब मोटा पर्क आना ये रोग प्राराम हो। यह १० तक रह जातीहै, तब मनुष्य स्वर्ग सिधारता इसके पत्तों को अंगूरी सिरके में पीसकर प्रलेप है। इसकी छाल के विष का प्रभाव हृदय पर करने से दिन-रात अर्थात् २४ घण्टे के भीतर होता है । इसकी पत्ती, छाल और फूल इन सब दा, रोग निमूल होजाता है। में विष होता है; परन्तु मूलत्वक् में सर्वाधिक विष होता है। यह विष है । यह विषाक्त वस्तु राल की वैद्यों के कथनानुसार बागी कनेर की जड़ जात से है और उड़नशील नहीं है। कनेर के स्वबड़ी विषैली होती है। इसकी जड़ का प्रलेप यंभू वृक्षों में यह विष अधिक पाया जाता है, करने से फोड़े फुन्सी प्रादि त्वगोग श्राराम आरोपित वृक्ष में यह अल्प होता है । राल को . होते हैं । इसका ताजा स्वरस दुखती हुई आंख पानी में घोलने से उक्त विष जल में मिश्रीभूत में डाला जाता है। हो जाता है। इसकी छाल और पत्तों के खिंचे : इसके पत्तों को कथित कर उस काढ़े से आँख अर्क में विष की उग्रता अत्यधिक होती है । इसकी पर धार देने से सूजन उतर जाती है। जड़ अधिक मात्रा में सेवन करने से हस्त-पाद में इसकी जड़ की छाल का तेल बनाकर लगाने आक्षेप होने लगता है। इसकी जड़ के विष से से कई तरह का दाद और कोढ़ पाराम होता है। नाड़ी की गति प्रति मिनट घटकर ३६ तक हो इस तेल के मलने से तर और खुश्क खुजली जाती जाती है, किंतु निर्बलता नहीं होती। रहती है। ___ कनेर विष का उपाय इसके पत्तों का तेल बनाकर लेप करने से जब कनेर के भक्षण से विषाक लक्षण प्रगट हो रोगोत्पादक जीवाणु शरीर पर नहीं बैठते। जायँ, तब रोगी को कै करावे या वमनकारी यंत्र इसके पत्तों का दुधिया रस दाद पर लगाया | द्वारा भामाशय को प्रक्षालित कर डालें । परन्तु जाता है। जब विष प्रामाशय से उतर कर आँतों पर प्रभाव Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कनर . २०६७ कनेर कर चुका हो, तब वस्ति का उपयोग लाभकारी सिद्ध होता है । रोगी को आराम से सुलाएँ ।वमन और वस्ति के उपरांत जब भामाशय और प्रॉन | शुद्ध हो जाँय, तब मुर्गे का चर्ब वा शोरबा शीतल करके पिलाएँ। छाछ में इसबगोल का लबाब मिलाकर देखें या कतीरे के लबाव में मीठे बादाम का तेल मिलाकर पिलायें, इसके लिये तर और 'ताज़ा खजूर खाना अत्यन्त गुणकारी होता है। कनेर, पीला प-०-पीतप्रसव, सुगन्धि कुसुम, (रा. नि०)-सं० । पीला कनेर, पीले फूल का कनेर, पीली कनइल-हिं०, द०। पीत करवी (कल्के फुल)-बं० थेवेटिया नेरिफोलिया Thevetia Nerifolia, Nerium Psidium guss,-ले. | The Exile or yellow Oleander- ग्रंपच्चै अलरि, तिरुवाञ्चिप्यू -ता. पञ्चगन्नेरु । पञ्च-अरलि ते०-मल। मोलमियाइ-पान-बर। पिं० वट्ठी, पीपला कहर, शेरानी-मरा० । पीलाफुलनी, पीला कनेर-गु० । थिवटी-बम्ब०। शतावरी वर्ग (N. 0. Apocynaceae) उत्पत्ति-स्थान-पश्चिम भारतीय द्वीप-समूह और भारतवर्ष । भारतीय उद्यान एवं मैदानों में इसे लगाते भी हैं। रासायनिक संघट्टन-इसके बीजों में ४१% तेल, थेबीटीन ( Thevatin ), थेव-रेजिन ( Theve-resin ), कार्यकारी सार और स्युडो-इंडिकन (Pseudo Indican) ये द्रव्य पाये जाते हैं । छाल में थेवेटीन (Thevatin ) होती है । इसके बीज तैल में ट्रिमातीन Triolein ६३%, ट्रिपामेटीन Tripalm. atin २३%, और ट्रि-स्टियरीन Tri-Stearin २७% ये द्रव्य होते हैं। इसकी खली में धेवेटीन Thevetine नामक एक विषैला ग्लुकोसाइड पाया जाता है। शुद्ध स्थिर तैल नादकी और खोरी" विल्कुल प्रभाव शून्य ( Inert) होता है। औषधार्थ व्यवहार चाल। · मात्रा-स्वकचूर्ण, 1 से पाना भर __ गुणधर्म तथा प्रयोग . आयुर्वेदीय मतानुसार'पीतकरवीरको'ऽन्यः * . * *। कृष्णस्तु चतुर्विधोऽयं गुणे तुल्यः । रा०नि० १.. पीतादि चारों प्रकार के कनेर गुण में समान है यूनानी मतानुसार-वैद्यों के कथनानुसार पीले कनेर का दुधिया रस अतिशय विषैला होता है। इसकी छाल कडू ई दस्तावर और ज्वर उता. रनेवाली है। इसका अर्क उचित मात्रा में सेवन करने से कई तरह के जूड़ी-तापों को और ज्वर के दौरों को रोकता है । इसके बीजों की मांगी अत्यंत कड़ ई होती है। इसके चबाने से मि सुन्नपन एवं रुक्षता प्रतीत होती है । इसके बीजों की मींगी का तेल वमन एवं विरेक् लाता है। किसी २ को इससे अत्यंत कै-दस्त होते हैं। इस को मांगी अत्यन्त विषैली होती है। ब्र... नव्यमत आर० एन० खोरी-पीले कनेर के स्वाद चूर्ण में सिंकोना त्वक् चूर्ण से पचगुनी. ज्वरनी शक्ति विद्यमान होती है। अर्थात् एक रत्ती यह बात ५ रत्तो सिंकोना की छाल के बराबर है। इसकी छाल कड़ई और नियतकालिक ज्वर नाशक (Anti-periodic) है। नवज्वर (Renittent) और विषम ज्वर में इसके सेवन से उपकार होता है। अधिक मात्रा में सेवन करने से इसका वामक एवं विरेचक प्रभाव होता है और विषाक्त मात्रा में सेवित होने से 'एसिड-विष' के लक्षण प्रकाश पाते हैं। वीजजात तैन बांतिकर और विरेचक है तथा जैतून के तेल की भांति इसका बाह्य प्रयोग होता है। (मेटीरिया मेडिका श्राफ इंडिया-२ य खं०, ३६२ पृ.) पीले कनेरा की छाल को ज्वरनिवारणी शक्ति का परीक्षण और समर्थन डा. जी. बिडी और डा० जे० शार्ट ने भी किया है। जल कनेर. . . यह सूजन उतारता, शुक्र प्रमेह का नाश करता, कफनाशक और विषघ्न है तथा वायु के रोगों में उपकारी है। यह उदर के भारीपन को दूर करता है। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कनेर घट्ट २०६६ कनौचा कनेर चेट्ट -[ ते० ] कनेर का पेड़ । दे० "कनेर" | है। अर्थात् शीघ्र अर्द्ध स्वच्छ लबाद द्वारा धना कनेर काला-संज्ञा पु. काला कनेर । कृष्ण करवीर । वृत होजाता है। इसकी गिरी तेलान और स्वाद दे० "कनेर"। में गिरिवत् ( Nutty ) एवं मधुर होती है। कनेर गुलाबी-संज्ञा पु. कनेर,लाल । दे. उक्र लबाब के लिए ही इसका औषध में उपयोग "कनेर" । होता है। कनेर ज़र्द-संज्ञा पुं॰ [ हिं० कनेर x फ़ा० ज़र्द ] पय्यो०-कनौचा, हिं. पं० । नलउसरे को पीला कनेर । पीत करवीर । दे. "कनेर"। मरा० । सैल्विया स्पाइनोसा Salvia Spiकनेर, पीला-संज्ञा पु० पीला कनेर । दे० 'कनेर" nosa, फायलैन्थस मैडरास पेटेंसिस ( Phyकनेर, लाल-संज्ञा पु. लाल कनेर । दे० "कनेर"। llanthus maderas patensis, कनेर सफेद-संज्ञा पुं० सफेद कनेर । दे. "कनेर"। Linn., Wight.) -ले० । कनोछा । कनेर सुर्ख-संज्ञा पु० [हिं० कनेर फ्रा० सुर्ख] लाल कनेर । उत्पत्ति स्थान-पंजाब, लंका के शुष्क भाग, कनेरा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] हथिनी। हस्तिनी । अफ्रीका के गरम भाग तथा अरब, जाबा, चीन वै० निघः । और प्रास्टे लिया में पैदा होता है। कनेरियम् कम्यून-[ ले० Canarium Comm - प्रकृति-उष्ण और रूक्ष । किसी-किसी के __une,] दरख्त हब्बुलमन्शम् । मत से समान रूप से उष्ण एवं रूक्ष। किसी कनेल-संज्ञा पुं० दे० "कनेर"। किसी के अनुसार द्वितीय कक्षा में उष्ण और कनैर, कनैल-संज्ञा पु० दे० 'कनेर"। प्रथम कक्षा में तर है । पर औरों ने इसे द्वितीय कक्षा में उष्ण एवं रूक्ष लिखा है। कनोमन लेपचा ] बहेड़ा। हानिकर्ता-पीहा को और शिरः शल उत्पन्न कनोर-[देश॰] बनखोर। Aesculus Indica करता है। खानोर । काकरा। दर्पघ्न-गुलनार तथा रक गुलाब । किसीकनेरी-संज्ञा स्त्री० [ अं० कैनरी (टापू)] प्रायः किसी के मत से रोगन वादाम, तुम हुम्माज और तोते के श्राकार की एक प्रकार की बहुत सुन्दर अर्क बादियान | चिड़िया । जिसका स्वर बहुत कोमल और मधुर | प्रतिनिधि-तुख्म रेहाँ, तुम बालंगा और दोष होता है और जो इसीलिए पाली जाती है । यह परिपाकार्थ अलसी के बीज । अनेक जाति और रंग की होती है। मात्रा-अकेले ७ मा० से १०॥ मा० तक कनोचा-संज्ञा पुं० ) । और दूसरी दवा के साथ ॥ मा० तक। कनौचा-संज्ञा पु० देश. पं०] एक प्रकार का प्रधान कम-अबरोधोद्धाटक, प्रामाशय बल (मरोजातीय) पौधा जिसकी शाखायें लम्बी प्रद और प्रवाहिका एवं रनातिसार नाशक है। और कुछ गोलाई लिए हर सुगंधिमय होती हैं । गुणधर्म तथा प्रयोग फूल पीत कृष्ण वर्ण का होता है। बीज अलसी अबु जरीह के अनुसार तुख़्म कनौचा में यद्यपि की तरह के भूरे, त्रिकोणाकार, मसृण और कोषा- अलसी की अपेक्षा कम उष्णता है तथापि व्रणों वृत होते हैं । ये ऊपर से जालीनुमा कोमल गहरे | के पकाने में यह उससे अधिक शनिशाली है। भूरे रंग की रेखाओं से चित्रित । इञ्च लम्बे, उ ये कोष्ठ मृदुकर है । और अल्प मात्रा में मलमार्ग से कफ निःसृत करते हैं। परन्तु भून लेने से ये ससे कुछ कम चौड़े और एक ओर मेहराब नुमा संग्राही हो जाते हैं। इसे भूनकर यदि तुख्म होते हैं। इनका छिलका कड़ा और भंगर होता है। हुम्माज़ (चुक्र-बीज) के साथ फाँके, तो यह पानी में भिगोने से यह पानी सोखकर फूल जाता खून के दस्त बन्द करदे । और प्रांत्र-व्रण एवं व Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • कनौचा २०६६ को बहुत लाभ पहुँचावे । यदि इसे पीसकर मधु में मिलाकर कठिन से कठिन सूजन पर लगाएं । तो वह पक जाय । इसका लबाब चमेली के तेल के साथ नीहार मुह पीने से सोदावी अर्थात् वातज पित्ती बिलकुल जाती रहती है। परीक्षित है। दस्तों को दशा में कनौचे के बीज से श्राँतों को परीक्षा करते हैं । उससे यह मालूम करते हैं कि श्राया उनमें ऐसा मल है या नहीं जिसका निकलना उचित है । उसकी परीक्षा की रीति इस प्रकार है - तुख्म कनौचा को गरम २ गुलाब में मिलाकर रोगी को पिलावें । यदि उक्त बीज शीघ्र ही उदर से बाहर निकल जायँ और उसे दोबारा पिलाने की आवश्यकता न हो तो समझ लें कि श्रांतें मल से रिक्त हैं श्रोर यदि ऐसा न हो, तो, उससे यह प्रमाणित होगा कि वह मल से परिपूर्ण हैं । परन्तु यह स्मरण रहे कि जब रोगी की प्रकृति में उष्णता एवं पिपासा का प्राबल्य हो, तो इसबगोल या तुख्म रेहां से परीक्षा करें । उक्त अवस्था में तुख्म कनौचा या तुख्म बारतंग न दें । क्योंकि उक्त बीज अपनी खासियत से शुक्र को कम करते हैं । ( ख० अ० ) 1 कनौचा का वीज तारल्यकारक ( मुलत्तिफ़ ) है । यह वायु, श्राध्मान और कफ को नष्ट करता, हर जगह के अवरोधों का उद्घाटन करता और वायु निःसारक है । स्त्री के दूध के साथ इसकी बूंदें कान में टपकाने से कर्णशूल शाँत होता और नाक में डालने से शिरःशूल निवृत होता है। यहां और श्रामाशय को बलप्रद, जलन्धर को लाभदायक और मूत्रप्रवर्त्तक एवं स्वेदक है । यह श्रामाशयिक कफ को विलीन करता एवं श्रामाशय शूल को प्रशमित करता है । यदि जलोदर का रोगी ७ माशे इसके बीज एवं पत्र उतनी ही शर्करा के साथ कुछ दिन तक प्रतिदिन सेवन करे तो यह मूत्र तथा स्वेद-पथ से जल को निःसृत | बादाम के तेल में भूने हुये इसके बीज श्रन्त्रप्रदाह तथा प्रवाहिका में उपयोगी है । चुक्र वीज के साथ दस्तों को रोकते हैं और श्रांत्रांत को लाभ पहुँचाते हैं। इसका प्रलेप व्रण को परिपक्क करता है । (बु० गु० ) करता कन्थारी आर० एन० चोपरा - लिखते हैं कि जव कनौचा के बीजों को जल में भिगोया जाता है, इससे एक प्रकार का सांद्र पिच्छिल पेय प्रस्तुत होता है, जिसका पूयमेह और मूत्रप्रणाली - प्रदाह में बहुल उपयोग होता है । - इं० ० इं० पृ० ५१३ । कन्द - [अ०] एक प्रकार की मछली । कन्खेन फीऊ - [ बर० ] चीता | चित्रक | कन्तिका -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] श्रुतिवला | कंघी | भा० प्र० । नि० शि० । कन्तु -संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( १) हृदय | वै० निघ० । ( २ ) कामदेव । ( ३ ) धान्यागार । कन्तुलिंग -[ ताः ] मौनालु । खाता । वि० [सं० -ि ] सुखी । खुश । [सं० स्त्री० ] एक वृक्ष | दे० कन्थरी - संज्ञा स्त्री० "कन्धारी" । *न्था -संज्ञा स्त्री [सं० स्त्री० ] ( १ ) गुदड़ी । कथड़ी | श्रम० । -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री ] ( १ ) स्यूतकर्पट, कन्धारी । कथरी । गुदड़ी ( श्र०म० ) (२) चीर । ( ३ ) एक वृक्ष । ( ४ ) रुईदार कपड़ा | तूलपूर्ण गात्रवस्त्र । कन्थारी -संज्ञा पुं० [सं० स्त्री ] एक प्रसिद्ध वृक्ष वा झाड़ी जिसके पत्ते गोल, डंडी हरी और फूल सफेद रंग के सफ़ेद केशर युक्र होते हैं। इसमें चैत बैशाख में फूल लगते हैं । फल छोटे छोटे चने के बराबर होते हैं। कंथारी तीन-चार जाति की होती है । नोट- किसी किसी ने इसे नागफनी (नागफणः माना है । दे० "नागफनी” । कन्था पटकथारी, कंथरी, कंथा, दुर्धषां, तीच्णकण्टका, तीच्णगंधा क्रूरगंधा, दुःप्रवेशा, रा० नि० ० ८ । (अहिंस्रा, जालि, गृधनखी, कंथारिका, क्रूरकर्मा, वक्रकंटकी, कन्था, कपालकुलिका, अलफल, गुच्छ गुल्मिका ) - सं० । कंथारी, कंधारी कंतार, हैंसा - हिं० | कांधारी - मरा० । कांतरुकन| ० | फणीनिवडुंग - कों० । काला कंथारो, कंथारो, कंधार-गु०, मरा० | Capparis Sepiaria - जे० । कंथार, कारो ह्यूमरन, ह्यूस Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७. कन्द गुडूची पं० । करिंदू, करुंजरी-ता० । नलपुई-ते। जिसमें बतौरी की तरह गांठ बाहर निकल पाती कांथार (कच्छी)कांतर कना। है। योनिकन्द । दे. "कन्दरोग" । (३) उतगुण, प्रयोग-कटु तिकोष्णा वातकफघ्नी, रन । इन्दीवरा । रा. नि. व. २३ । (४) शोथघ्नी दीपनो रुचिकारी रकग्रंथिरुजानी ज्वरघ्नी लाल मूली। रक्कमूलक । (५) जिपीकन्द । च । रा०नि० व० ८ । अर्थात् कंथारो कड़वी, सूरन । श्रोल । रा०नि० । र० सा० सं०सि० चरपरी, गरम, वात कफनाशक, शोथनाशक,दीपन यो । बाहुशाल गुड़ । च० द० अ० पि. चि० रुचिकारी, रकविकार, ग्रंथिरोग और ज्वर- अभ्रशुद्धिः । (६) एक प्रकार का विष । (७) नाशक है। ऋद्धि नामक औषध । (८) कासालुक । काँकंथारी दीपनीरुच्या कटूष्णा तिक्तकामता । सालू । (६) मेघ । वादल । (१०) एक रक्तदोषं कफ वातं ग्रन्थिरोगं च नाशयेत् ॥ प्रकार का श्वेत श्लक्ष्ण वहुपुट -कंदे बिशेष । स्नायुगेगं च शोफ च नाशयेदिति कीर्तिता। लोग इसे सर्पच्छत्रक (साँप का छाता) कहते हैं (नि०२०) उ. सु० सू० ३६ भ. पित्त शमन । (११) अर्थात्-कंथारी अग्निप्रदीपक, रुचिकारक, चर हस्तिकन्द । सफेद बड़ो मूली । वे० निघ० अलस परी, गरम और कड़वी है तथा रुधिर विकार, कफ चि । हस्ति कर्ण योग । (१२) शालूक, शल वात, प्रथि रोग, स्नायुरोग और सूजन को दूर गम । (प० मु० १३) एक प्रकार की सुगंधित करती है। तृण । एक सुगंधित घास । राम कपूर। प. मु. इसकी पिसी हुई जड़ गोधेरक नामक सर्प के (१४) गुड़ । (१५) शर्करा । शकर। च. काटने पर नाक के द्वारा सुंघाई जाती है। द० अश-चि० काङ्कायन मोदक । (१६) पिण्डाआँख की सूजन पर इसकी जड़ को अफीम के लुक । गोल पालू । पिंडारू । सुथनी। (१७) साथ पीसकर आँख पर लगाई जाती है, जिससे शस्यमूल । अनाज की जड़ । मे० दद्विकं । (१८) फलहीन श्रोषधि की जड़ । सूजन बिखर जाती है । उदर शूल में इसकी जड़ कालीमिर्च के साथ पिलाई जाती है। रक्रविकार संज्ञा पुं॰ [सं० की.] गृञ्जन । गाजर । और चर्म रोगों पर इसके पत्तों का काढ़ा दिया रा०नि० । नि०शि०। जाता है। ___ संज्ञा पुं० [फा०] जमाई हुई चीनी । कन्द-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (१) वनस्पस्ति मिस्त्री। शास्त्र में बह जड़ जो गूदेदार और बिना रेशे की | कन्दक-संज्ञा पुं० [सं० पु.](१) मुरवालु शकर होती है; जैसे-सूरन, शकरकंद इत्यादि। कन्द । रा०नि० व० ७ । (२) वन शूरण । प-०-वल्ब Bulb ट्युवर Tuber जंगली सूरन । भैष० कुष्ट० चि० कन्दर्प सार तैखा (अं०)। अस्लुस्सितव (बहु० उ.सूलस्सितत्र), (३) कन्द । दे० "कन्द्र" अस्लुल् मुदब्वर (बहु० उ.सूलुल् मुदब्बर) | कन्दका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] रुद्रवन्ती। -( ऋ० )। बीने मुदब्बर (बहु० वीखहाए कन्द गुडूची-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक प्रकार मुदब्वर)-फ्रा० । गड्ड (बहु० गड्डे) -द. का गुरुच | कंद गिलोय । किजङ्ग (बहु० किजङ्ग, ग़ल) -ता०। गड्ड संस्कृत पर्याय-कन्दोद्भवा, कन्दामृता, बहु(बहु• गड्डलु)-ते. । किज़ ज (बहु० किज़ - च्छिन्ना, बहुग्रहा, पिण्डालु और कन्दरोहिणी, जुकल)-मल० । गड्डे (बहु० गड्डेगलु ) पिण्डगुडूचिका ओर बहुरहा। -कना० । गोल-मूल -बं० । गड्डा (गड्डु बहु०) गुण-कन्दगुडूची, कटु एवं उष्ण और सनि-मरा० । कन०; गड्डा (वहु. गड्डो) -गु० । पात, बिष, ज्वर, भूत-बाधा तथा बली पलित अल (सिंगा०)। अऊ, उ (बहु० अमियाश्रा, नाशक है। उमियात्रा)-बर० । (२) योनि का एक रोग वि० दे० "गुरुच" । रा० वि० व० ३ । Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्दप्रन्थि कन्दरोग । कन्द प्रन्थि-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.]() पिंडालु | कन्दफला-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (१) छोटा . नामक कंद शाक । पिंडालू । सुथनी। पेडार । करेला । करेलो। तुद्र कारवेल्लक । (२) भूई रा०नि० व०७१ (२) श्वेत राजालुक । कोहड़ा। पाताल कोहड़ा। विदारी। रा०नि० वै० निघ० । व०७॥ कन्दज-वि० [सं०नि०] कन्द की जड़ से उत्पन्न । कन्दबहुला-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] तिलकन्द । लहसुन । त्रिपर्णी नामक कन्द । अमलोलवा । गवालिया कन्दजबिष-संज्ञा पु० [सं० की. ] वह विष जो | लता । रा०नि०व०७। औषध मूल में होता है । कंदजात बिष। कन्द कन्दमूल-संज्ञा पुं० सं० की ] (१) मूली। नैपाल का जहर, जैसे-सींगिया, कनेर इत्यादि । श्रायुः ___ की तराई में बहुत बड़ी मूली होती है । मूलक । वेद में यह आठ प्रकार का होता है । जैसे, शक्रुक रा०नि० व० ७ । (२) दे० "कन्दमूल" । मुस्तक, कौi, दर्बीक, सर्षप, सैकत, वत्सनाभ, कन्दर-संज्ञा पु० [सं० पु.] [स्त्री० कन्दरा (1) और शृङ्गी । औषध में व्यवहार करने से पूर्व श्वेत खदिर। (२) एक प्रकार का चुद्र रोग। इनकी शुद्धि का विधान है। विना शुद्धि के इनका | दे० "कदर"। प्रयोग शास्त्र वर्जित है। अस्तु इनमें से प्रत्येक ___ संज्ञा पु[सं० क्लो०] (१) श्रादी । श्रदबिष की शुद्धि का प्रकार उन-उन बिषों के वर्णन रक । (२) सोंठ । शुठी । रा० नि० व०६ । क्रम में दिया गयाहै । वहाँ देखें । इनकी साधारण (३) गुफा । गुहा । (४) श्रोल । ज़मीकन्द। शुद्धि इस प्रकार होती है। सर्व प्रथम कंद के छोटे (५) अंकुर । कल्ला । (६) गाजर। छोटे टुकड़े कर किसी बर्तन में रखकर ऊपर से कन्दरा-संज्ञा पुं० [सं० स्त्री.] कन्दर । गुहा दर्रा । इतना गोमूत्र डालें, जिसमें वे डूब जायँ। इसी बिल । ग़हर । देव खात । गुफा । प्रकार तीन दिन तक बराबर ताज़ा गोमूत्र डाल कन्दराल-कन्दरालक-संज्ञा पुं० [सं० ०। (१) . डालकर धूप में सुखालें । बस शुद्ध होगया। यह पाकर का पेड़ । पक्ष वृक्ष । (२)पारिस पीपल । बिष प्रयोगों में भाग के मान से पड़ता है। गई भाण्ड वृक्ष । गंधीभाट | गजहंद। (३) कन्दट-संज्ञा पुं॰ [सं० क्री०] शुक्लोत्पल । सफेद अखरोट का पेड़। कुमुद । कूई। नीलोफर । श० र०। कन्दरूल-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कटु शूरण । कड् श्रा कन्द तृण-संज्ञा पुं० [सं० वी० ] एक प्रकार की | ज़मीकन्द । वै० निघ। .. घास । गुंठ तृण । वै० निघ० । कन्दरोग-संज्ञा पुं० [सं० पुं०] एक प्रकार का योनि कन्द नालका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] गोभी नाम रोग जो वातादि दोष भेद से चार प्रकार का होता की घास । गोजिह्वा । गोजिया । वै० निघ। है। कन्द । योनिकंद । Prolapsus Uteri कन्दनीचक-संज्ञा स्त्री० [सं०] रुद्रवन्ती। निदान तथा लक्षण-दिन में सोने, अति कन्दपञ्चक-संज्ञा पुं० [सं० की.] तैलकंद, अहि क्रोध, व्यायाम तथा अति मैथुन से एवं नख, दंत नेत्रकन्द, सुकंद, क्रोडकंद (वाराहीकंद) और और कंटक श्रादि के क्षत से कुपित हये वातादिक रुदंतीकंद इन पाँच ओषधि-कंदों का समूह । दोष पूयरक मिलित रंग की बडहर की प्राकृति की गुण-ये पाँचो प्रकार के कंद ताँबा इत्यादि जो छोटी गाँठ उत्पन्न करते हैं, उसे योनिकंद कहते धातुओं को मारण करनेवाले हैं और सब प्रकार के हैं। इनमें से वह जो रूखा, विवर्ण और फटा सा रोगों को हरण करनेवाले हैं । वै० निघ०। होता है, वह वातिक, और जो दाह; राग और ज्वर कन्दपत्र-संज्ञा पु० [सं० पु.] महातालीश पत्र । युक्त होता है वह पैत्तिक होताहै। और जो योनिकंद वै० निघं। तालीस पत्र। के० दे० निः। नील आदि फूलों के रंग का खुजली युक्र होता है नि.शि.। वह श्लैष्मिक होता है। जिस योनिकन्द में उक्त कन्द-फल-संज्ञा पुं॰ [सं० की.] कंकोल । तीनों दोषों के चिन्ह मिले हुये होते है. वह समि Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्दरोद्भवा ૨૦૭૨ कन्दर्पसार तैल पातिक कंद होताहै । मा० नि० । इनमें से सन्निपा- बढ़ का दूध ४ तोले, ऊमर का दूध ४ तोलेतिक कंद रोग को छोड़कर शेष तीनों प्रकार के कंद सत कुचिला ४ तोले प्रथम काष्टीय औषधियो का - रोग चिकित्सा से प्रारोग्य हो जाते हैं। चूर्ण कर पुनः अहिफेनादि को उन चूर्ण में मिलाकन्दरोद्भवा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (?) तुद्र कर शतावरी के रस की ७ भावना देकर रत्ती पाषाण भेद वृक्ष । छोटा पाखान भेद । छोटी प्रमाण की गोलियां वनाएं। पथरचटी । पत्थर फोड़ी | रा० नि० व०५ । (२) गुण-इसे रति काल के २ घण्टा पूर्व गोदूध एक प्रकार का गुरुच। मिश्री और घृत मिलाकर इसके साथ सेवन करने कन्दरोहिणी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कन्द गिलोय से वीर्य की वृद्धि होती है और स्तम्भन होता है। कन्द गुडूची । रा०नि०व०३। और इसके उपयोग से मनुष्य स्त्री प्रसंग में पूर्ण कन्दर्प-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] (१) कामदेव ।। श्रानन्द प्राप्त करता है। (२) पलाण्डु । प्याज। ... कन्दर्प शृङ्खल-संज्ञा पु० [सं० पु. ] रतिबन्ध कन्दपकूप-संज्ञा पु० [सं० ०] (१) योनि । विशेष । (२) कुस । कन्दर्पगेह-संज्ञा पु० [सं० की० ] योनि। कन्दर्पसार तैल-संज्ञा पुं॰ [सं० वी० ] कुष्ट रोग में प्रयुक्त उक्त नाम का तैल । कन्दर्प जीव-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (1) कामज्ज __ योग-छतिवन, काली (काली निशोथ ), वृक्ष । काम वृद्धि तुप । मनोज वृक्ष । स्मरवृद्धि । गिलोय, नीम, सिरस, महातिका (चिरायता, यवरा०नि०व०५ । (२) कटहल । (३) काम तिका), अरनी, कड़वी तरोई. इंद्रायण और हल्दी वृद्धि कारक द्रव्य। प्रत्येक वस्तु १०-१० पल । एक द्रोण जल में कन्दप ज्वर-संज्ञा पुं॰ [सं० पु. (१) काम (२) क्वाथ करें । यह क्वाथ ४ प्रस्थ, गोमूत्र, अमलकाम के विकार से उत्पन्न ज्वर । काम ज्वर ।। तास, भांगरा, अरनी, अरूसा, हल्दी, भंग, चीता, कन्दर्प मुशल, कन्दर्प मूषल-संज्ञा पुं० [सं• पु.] खजूर, गोबर का रस, पाक और सेहुँड के पत्ते का लिंग। शिश्न, उपस्थ । त्रिका० । रस १-१ प्रस्थ स्वरस एवं निम्नलिखित कल्क के कन्दर्प रस-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] वैद्यकोक्न एक साथ यथा विधि १ प्रस्थ तैल पकाएँ। रसौषध । कल्क द्रव्य-इंद्रायन, बच, ब्राह्मी, कड़वी __योग-पारद, गधक, प्रवाल (मूगा भस्म) तुम्बी, चीता, धिकुवार, कुचला, मैनसिल, हल्दी, सुवर्ण भस्म, गैरिक (गेरु)। वैक्रांत भस्म, रौप्य मोथा, पीपलामूल, अमलतास, पाक का दूध, (चाँदी भस्म ) । शंख भस्म और मुक्ता इनको कसौंदी, ईश्वरमूल, पाल, मजीठ, महानीम, महाबराबर २ ले कूट पीसकर बड़ की जटा के काढ़े काल (बड़ा इंद्रायन ) विछ्वा, करञ्ज, प्रास्फोतक से सात वार भावना देकर १-१ वल्ल (२-३ मूर्वा, छातिम, सिरस, इन्द्रजौ, नीम, महानीम, रत्ती) प्रमाण की गोलियां बनाए। इसे त्रिफला गिलोय. वाकुची, चन्द्ररेखा (वकुची भेद) चकदेवदारु, अर्जुन या कवाबचीनी के काढ़े के साथ बड़, धनियां, भांगरा, मुलहठी, सुपारी, कुटकी, सेवन करने से औपसर्गिक मेह रोग शीघ्र नाश कपूर कचरी; दारुहल्दी, निसोथ, पद्माख; पीपला- होता है । (भैष० औप• मेह) मूल, अगर, पुष्करमूल, कपूर, कायफल, जटामांसी कन्दर्प-वटी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] इलायची, मुरामाँसी, इलायची, अडूसा और हड़ । प्रत्येक तज, पत्रज, जटामांसी, लौंग, अगर, केशर, मोथा, १-१ कर्ष । कस्तूरी, पीपर, सुगन्धवाला, कपूर, विदारीकन्द यह तेल १८ प्रकार के कुष्ठ, ग्रन्थि और मजाअकरकरा, सोंठ, मुलहठी, गुलशकरी, कसेरू, शता गत कुष्ट, हाथ पैरों की उंगलियों और जोड़ों का वर, रुमी मस्तगी, जायफल, जावित्री, श्रामला गल जाना, मांस बढ़ जाना, नाक, कान और मुख प्रत्येक एक-एक तोला । शुद्ध अहिफेन ४ तोले, का विकृत होजाना, त्वचा का मेंढक की त्वचा के Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्दर्पसुन्दर रस २०७३ कन्दवर्द्धन समान होजाना, सफेद कोढ़, लालकोढ़, विपादिका संज्ञा पुं॰ [सं० को०] (१) शिलीन्ध्र पामा. विस्फोटक, नीली, कृमि, वृद्धि, दाद, मसूरी पुष्प । खुमी । त्रिका० । (२) कमल बीज | किटिभ, लाल चकत्ते, और प्रौदुम्बर, पद्मकुष्ठ,महा कमलगट्टा । (३) कदली पुष्प । केले का फूल । पद्मकुष्ठ, गलगण्ड, अर्बुद, गण्डमाला. भगन्दर, और (४) श्रादी। अदरक । रा०नि० व०६ । (५) वातज, पित्तज, कफज, तथा द्वन्द्वज और सनि सूरन । शूरण । भा० पू० १ भ० शा० व० पातिक आदि सब प्रकार के कुष्टों का नाश (६) गण्डस्थल । (७) अंकुर । नया अंखुना, करता है। भैष । नवांकुर । (८) कोमल शाखा । नर्म डाल । कन्दर्प सुन्दर रस-संज्ञा पुं॰ [ सं० वी० ] शुद्ध कन्दलता-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (१) माला पारा, हीरे की भस्म, मोती भस्म, सीसे की भस्म कन्द । रा०नि०व०७। (२) तुद्रकार वल्ली । चाँदी भस्म, सोने की भस्म, श्वेत अभ्रक भस्म कुडुहुञ्ची। छोटी करेली । वै० निघ० । इन्हें अरिमेद के स्वरस से खरल करें । पुनः मूगा कन्दली-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०, पु० कन्दलिन् ] की भस्म २ कर्ष, गन्धक का चूर्ण २ कर्ष मिला- ! (१) पद्मबीज । कमलगट्टा । रा० नि० व १०॥ कर असगन्ध के रस से खरल कर सवका मिश्रण सु० सू० ३६ अ० पित्तशमन । (२) एक प्रकार कर एक मृग के सींग में भर कपर मिट्टी कर संपुट का हिरन । (३) एक प्रकार का गुल्म । मे० । में रखें। सुखाकर हल्कं आग की प्रॉच से फूक लत्रिक। द, पुनः इस प्रस्तुत भस्म में धव के फूल के रस "आविर्भूतप्रथममुकुला कन्दलीश्चानुकच्छम् । तथा काढ़े की भावना दें, इसी तरह काकोली, (मेघदूत) मुलहठी, जटामांसी,बला, गुलसकरी, कंघी, कमल | दे० "कन्दली" । ( ४ ) केला । (५) एक कन्द, हिंगोट, दाख, पीपल, बाँदा, सतावर, साल | प्रकार का पक्षी। पर्णी, पृष्टिपर्णी, मुग्दपर्णी, मासपर्णी, फालसा, कन्दली कुसुम-संज्ञा पु० [सं० क्री०] (१) कसेरू, महुवा, केबांच प्रत्येक के रस की पृथक खुमी । शिलीन्ध्र । श० च० । (२) केले का पृथक भावना देकर सुखाता जाय, पुनः इस चूर्ण | फूल । में इलायची, तज, पत्रज, जटामांसी, लवङ्ग, अगर, | कन्द वर्ग-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] कन्दों का समाहार केशर, नागरमोथा, कस्तूरी, पीपल, सुगन्ध वाला | कन्दजाति मात्र । जैसे-बिदारीकंद, शतावरी, और भीमसेनी कपूर एक-एक शाण चूर्ण कर मृणाल, विस, कशेरू, शृङ्गाटक, (सिंघाड़ा), मिलावें। पिंडालु, मध्वालु, हस्त्यालु, काष्टालु, शङ्खालु, मात्रा-४ मा०। रक्रालुक, इन्दीवर और उत्पल श्रादि कंदों के गुण तथा प्रयोग-मिश्री ४ मा० आमला ४ | समूह को 'कन्दवर्ग' कहते हैं। मा० और बिदारी कन्द ४मा० इनका बारीक चूर्ण गुण-उन कद रन पित्तहर, शीतल, मधुर, बनाएँ पुनः १० मा० घृत, १० मासे चूर्ण और ४ गुरु, बहुशुक्रकर अोर स्तन्यबर्द्धक होते हैं। सु० मा०, रस मिलाकर भक्षण करें, और ऊपर से ८ सू० ४६ अ०। अत्रि संहिता के अनुसार तो. गोदूध पान करें, इसके सेवन से अनेक स्त्रियों "शूरणः पिण्डपिण्डालू पलाण्डुगुञ्जनस्तथा, से रमण करने की शक्ति होजाती है । और बीर्य की ताम्बूलपर्णकन्दः स्यात् हस्तिकन्दस्तथा परः । हानि कभी भी नहीं होती । शा० ध० सं०। वराहकन्दः अप्यन्यः कन्दस्याङ्का इमेस्मृताः। कन्दल-संज्ञा पुं॰ [ सं० पु. ] (.) कपाल । | आदि कन्दो के समूह को कन्दवर्ग कहते हैं। खोपड़ा। (२) सोना । कनक । -धरणिः । अत्रि० १६ अ०। (३) करसायल । कृष्णसार मृग। काला हिरन | कन्दबर्द्धन-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (१) सूरन । हे० १०। (५) गंडदेश। गाल । कनपटी। ज़मीकन्द । रा० नि० व०७ । (२) कटु शूरण (५) एक प्रकार का केला। वैःनिधः। गला काटनेवाला सूरन । . Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्दवल्ली २०७४ कन्दुभेदन कन्दबल्ली-संज्ञा स्त्री० [ सं० स्त्री० ] (१) बाँझ | कन्दामृता-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] कन्द गुडूची। खेखसा | बन ककोड़ा । बन्ध्या कर्कोटकी । रा० कन्द गिलोय । रा०नि० व०३ । नि० व० ३ । (२) भूमि कुष्माण्ड। पाताल कन्दाह-संज्ञा पुं० [सं० पु.] सूरन । कन्द सूरन । कोहड़ा, वै० निघ। रा०नि० व०७ । जमीकन्द । कन्द बिष-संज्ञा पुं॰ [सं० पुं०] वह पौधा जिसका कन्दाल-संज्ञा पुं० [सं० पुं०] तिलकन्द । रा० कंद विषैला हो । वह पौधा जिसके कन्द में बिष नि०। हो । सुश्रुत के अनुसार कालकूट, वत्सनाभ, सर्षप कन्दालु-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (१)त्रिपर्णीलता । पालक, कर्दमक, वैराटक, मुस्तक शृंगीबिष, प्रपौं- त्रिपर्णिका । अमलोलवा । (२) कासालु। डरीक, मूलक, हालाहल, महाविष, और कर्कटक कसालू । (३) धरणीकन्द । रा०नि० व०७ । ये तेरह कन्दबिष हैं। इनमें वत्सनाभ चार प्रकार भूमि कुष्माण्ड। का होता है और मुस्तक दो प्रकार का तथा सर्षप कन्दिरी-संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ स्त्री ] लजालू । छुईमुई। छः प्रकार का और शेष सब एक-एक प्रकार के ही लज्जालुका । श० चि०। होते हैं। सु. कल्प० २१०। कन्दी-संज्ञा पुं० [सं० पु. कन्दिन् ] कटुशूरण, कन्दशाक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] वह पौधा जिसका किनकिना ज़मीकंद । सूरन । रा० नि० व०७ । कंद तरकारी के काम आता है । शाक में व्यवहृत कन्दु-संज्ञा पु० [सं० पु स्त्री०। (१) स्वेदनहोनेवाला कन्द समस्त शाक में सूरन श्रेष्ट होता पत्र । तवा | स्वेदनी । अ० हला.। (२)सुरा है।-भा० । दे० "कन्दवर्ग"। बनाने का बरतन । सुराकरण पात्र। (३) कन्द शालिनी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] बाँझ खखसा गेण्डक । गेंडा । (४) करवीर। कनेर । रा० वन्ध्या कर्कोटकी । वै० निघः । नि०। (५) लौहनिर्मित पाकपात्र । लोहे की कन्दशूरगा-संज्ञा पुं० [सं० पु.] सूरन । श्रोल | कड़ाही । (६) भर्जनपान । भूजने का वरतन । कन्दुक-संज्ञा पुं० [सं० की० ] (१) सुपारी। . जमीकंद । रा०नि० व०७। कन्द संज्ञ-संज्ञा पु० [सं० की.] कन्दरोग । योन्यर्श पुगीफल । पूगफल । (२) अंकुर। कोंपल । योनिकंद । त्रिका० । दे० 'कंदरोग"। वै० निघ । (३) गोल तकिया । गल-तकिया । गेंडुत्रा । सज्ञा पु० [सं० पु.] गेंद । गण्डक । कन्द सभव-वि॰ [सं० त्रि० ] कन्द से उत्पन्न कन्दुपक्क-वि० [सं०नि०] बिना पानी लगाये तवे होनेवाला। पर पका हुआ । भुनी हुई चीज (चावल आदि) कन्दसार-संज्ञा पु० [सं० की. ] सूरन आदि कंद जलोपसेक बिना, केवल पात्र में अग्नि से भुना - समूह । हुश्रा (तण्डुलादि बहुरी, भुना हुश्रा दाना )। कन्द सूरण-संज्ञा पु० [सं० पु.] सूरन | नि० शि० स्मृतिकार कहते हैंरा०नि०। कंदुपक्कानि तैलानि पायसं दधि शक्तवः। _ कन्दा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (१) कन्द गुडूची __ कंद गिलोय । वै० निधः । (२) बन्ध्या कों. द्विजैरेतानि भोज्यानि शूद्रगेहकृतान्यपि ॥" टकी । बांझ खेखसा । रा०नि०नि०शि०। (कूर्मपुराण) संज्ञा पु० दे० "कन्दा"! कन्दुभेदन-संज्ञा पुं० [सं० की.] एक प्रकार की कन्दाढय-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (१) एक प्रकार | विडिका । के कंद का नाम । धरणी कंद । रा०नि०व०७। वात दूषित होकर उत्पन्न कठिन पीत वर्ण की बै० निध० । (२) भूमि कुष्माण्ड । भूई पीड़िका को कन्दुभेदन कहते हैं । यथाकोहड़ा। 'वातेन कठिनं पीतं जायते कन्दु भेदनम् । कन्दाद्य-संज्ञा पुं० [सं० पु.] धरणी नाम का चिकित्सा-पीपल वृक्ष की छाल जलाकर भस्म करें,पुनः उसमें मक्खन समान भाग मिश्रित Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्दूरी २०७५ कन्यसा व०५। कर मर्दन करें। इसके प्रलेप से मुख, गुदा और | कंधि-संज्ञा स्त्री॰ [सं० स्त्री० ] ग्रीवा गरदन हारा० । कटि भाग में उत्पन्न पिटिका नष्ट होती है । बासव संज्ञा पुं० [सं० पु.] समुद्र । सागर । रा० २२ प्र० पृ. ३६१) कंधिका-संज्ञा स्त्री॰ [सं० सी० ] बन मूंग । मुग्दकन्दूरो-संज्ञा स्त्री० दे० "कंदूरी"। पर्णी । मुगवन । कन्देक्षु-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] काशभेद । एक प्रकार कंधु, कंधुक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (१) झड़का काँस का पौधा । वै० निघ० । बेरी । भूमिवदर । (२) जंगली बेर । श्रारण्य कन्दोट-संज्ञा पु० [सं० पु०, क्ली० ] (१) सफेद | वदर । वै० निघ। बन कुल-बं। कमल । शुक्कोत्पल । (२) कुमुद । कुई । कोका- कन्न-संज्ञा पुं० [सं० की.] मूर्छा। बेहोशी। बेली। बघोला । (३) नीलकमल । नीलोत्पल ।। श० मा०। शकर। कन्ना-संज्ञा पु[सं० कण ] चावल का कन। कन्दोत-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.](1) कुई।कुमुद । -[पं०] कञ्चरा । कनूरक । कोकाबेली । त्रिका० । (२) सफेद कमल श्वेत | कनाड़ी-[ ते०] सावर,ग। पद्म । श० र०। कन्नी-संज्ञा पुं॰ [सं० स्कंध ] (पेड़ोंका नया कल्ला । कंदोत्थ-संज्ञा पुं॰ [सं० की.] नीला कमल । कोपल । [ मल• ] भंगरा । नीलोत्पल । रा०नि० व० १०। कनूपल्ली-[ ता०] खिरनी । राजादन । कंदोद्भवा-संज्ञा पुं० [सं० स्त्री०] (१) कन्द क़मअ-[१०] चूहा। गुडूची । कंदगिलोय । रा० नि० व० ३। (२) कंकखर-[?] बर्दी की जड़ । लु० क० । पटेरा । पटेरा - की जड़। पटेरा से चटाइयाँ बुनते हैं। ख००। क्षुद्र पाषाणभेदी। छोटा पथरचटा । रा०नि० कंफज़:-[अ०] मादा साही। कंदौषध-संज्ञा पुं० [सं० की. ] प्रादी। अदरक । कन्बेगु चेट्ट -[ ते०] विकंकत । कन्बेर-[वम्ब० ] श्वेत करवीर । सफेद कनेर । ० निघः । द्रव्य र० । नि०शि० । कंध-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (१) मेघ । बादल । कन्मः [अ०] (१) मैल । (२) ख़राब अख रोट । शब्दर । (२) अभ्रक नामको धातु । अबरख । कन्यका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (1) घीकुवार। . के० । (३) कंधा । दे० "कंध" । (४) एक गृहकन्या । रा०नि० व० ५। (२) कन्या । प्रकार का मोथा । मुस्तक भेद। वेटी । (३) बड़ी इलायची । रा० नि०, नि० कंधर-संज्ञा पु० [सं० पु.](१) मरसा । मारिष शि०। (४) दृष्ठि । नजर । (५) कुमारी । शाक । (२) मेघ । बादल | संज्ञा पुं० [सं० लड़की । स्मृति शास्त्र में दस बर्ष की अवस्था की क्री० ] ऐसे दही से तैयार किया हुआ तक जिससे कुमारी को "कन्यका" कहते हैं। मलाई अलग न की गई हो। "ससारस्य दध्नः अष्टबर्षा भवेद्गौरी नववर्षा तु रोहिणी। तक्र कन्धरमिष्यते ।" कु० टी० श्रीकण्ठः । (२) दशमे कन्यका प्रोक्ता अत ऊध्वं रजस्वला ॥ सस्नेह दधि । स्नेहयुक्त दही । सि. यो० षट्कन्धर अर्थ-पाठ की गौरी, नौ की रोहिणी, दश तैल। की कन्यका और इससे ज्यादा की कन्या रजस्वला कंधर-बात-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] असी प्रकार के | कहलाती है। वात रोगों में से एक । इसमें दाह, सूजन, तन्द्रा, कन्यका चल-संज्ञा पुं० [सं० की.] लड़की को निद्रा, ज्वर, तृष्णा, मतिभ्रम और गात्र में सूखा धोखा देने का काम । प्रलोभन । फुसलावा। पन होता है। कन्यकाजात-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] अविवाहिता कंधरा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (१) एक प्रकार स्त्री के गर्भ से उत्पन्न । कन्या समुद्भव । - का मान । वै० निव० । (२) ग्रीवा । गरदन। कन्यसा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कनिष्टांग ली। रा०नि०व०१८। । सबसे छोटी उंगली। कानी उंगली। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्या २००६ कन्वैलेमेरीन कन्या-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) घृत कुमारी । कन्यिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] कन्यका। कन्या ग्वार । घीवार । रा०नि० व०५ । (२) बड़ी अविवाहिता लड़की। इलायची । स्थूलैला । रा०नि० व० ६ । (३) कन्यित-बिर०] गर्जन । गर्जन का पेड़ । बाराहीकन्द । बाराही नामक महा कन्द शाक । | कन्युष-संज्ञा पु० [सं० वी०] (1) बकरे की पूंछ गेंठी । रा०नि०व०७। (४) कुमारी । दश वत्सपुच्छ । हारा० । (२) बाँझ खेखसा । बर्षीया लड़की । कारी लड़की। रा० नि० व० १८ बन्ध्या कोटकी । बांझ ककोड़ा। वन्ध्या ककोटको (५) स्त्री जाति नारी । (६) एक महौषध । फल । भा० पू० १ भा० । (३) हस्तपुच्छ । सुश्रुत के मत से कन्या में मयूर के पक्ष की भाँति __कलाई के नीचे का हाथ । १२ मनोज्ञ पत्र लगते हैं । इनमें सोने के रंग का कन्यों-सी-[बर०] शतावर । सतावर । शतमूली। पीला दूध निकलता है । और यह कन्६ से उत्पन्न | कन्योंसी-[ बर० ] गर्जन का पेड़। होता है । दे. “ोषधि" । (७) बन्ध्या कको कनगत-[ मारवाड़ ) वीरवृक्ष। वरतुली । खेरी। टकी । बाँझ खेखसा । रा०नि० व. ३ । (८) Mimosa ciperea मुसब्बर । कन्या रसोद्भवा। (६) बन्दाक । कनरेगू-[ते. विकंकत | कंटाई । बैंचा । बाँदा । वंदा । बंझा । (१०) कंद गिलोय । कंद कही- मरा० ] नकोली । वांदर सिरिस । विथुश्रा गुडूची वै० निघ । (११) पुत्री . बेटी । | ( Dalbergia Lancoolaria, (१२) मृद । कोमल । (१३) नारी शाक । Linn.) कोसा(१४) अविवाहितास्त्री । वह स्त्री जिसकी कन्वॉलब्यलस आवसिस-ले० convolvulus शादी न हुई हो। __arvensis Linn] हिरनपदी । कन्याका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) कन्या। कन्वालव्युलस टपीथम-[ ले convolvulus बेटी । (२) कुमारी । लड़की । ___turpethum,] निसोथ । तुर्बुद । त्रिवृत् । कन्याकार-वि० [ सं0 ] कन्या की तरह । कन्वालव्युलस निल-[ ले: convolvulus कन्या-कुमारी-गड-[ ते०] सफेद मुसली। श्वेत __nil ] काला दाना। मूसली। कन्वालव्युलस पर्गा-[ ले• convolvulus कन्या-गर्भ-संज्ञा पु० [सं० पु.] अविवाहिता स्त्री का गर्भ। .. _purga ] जलब । जलापा। जलाबा । कन्या-गोपी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ) गौड़ पाला की कन्वालव्युलस पेनिक्युलेट!-[ ले० convolvu जड़। lus paniculata] पताल कोहड़ा। भूमि कन्याट-संज्ञा पु० [सं० पु.] (१) लड़कियों के . कुष्माण्ड | पीछे-पीछे फिरनेवाला । लम्पट । कामुक। हाराक कन्वालव्युलस लु रिकालिस-ले convolvul (२) आभ्यंतर गृह । अंतःपुर । ज़मातखाना। __us pluricaulis ] गोरखपान । कन्यात्व-संज्ञा पुं॰ [सं० की.] कन्या का भाव । कन्वालव्युलस बटेटास-[ ले convolvulus विक्रारत। ____batatas] पिंडालू । कन्या-दूषण-संज्ञा पुं० [सं० श्री.] अविवाहिता | कन्वालव्युलस स्कमोनियां-[ले० convolvulus वालिका के साथ बलात्कार करने की क्रिया। _scammonia ] सामूनिया । महमूदा। कन्या भाव-संज्ञा पु० सं० पु.] कन्यात्व । कन्या कन्वालव्युलीन-[अं॰ convolvuline ] एक वस्था। अक्षत योनि बालिका । विकारत । ग्ल्युकोसाइड जो जलापा निर्यास (jalapae कन्यारासी-वि० [सं०] नपुंसक । नामर्द । resina) में पाया जाता है । यह ईथर विलेय कन्या हरण-संज्ञा पुं० [सं० क्री.] कन्या को | नहीं होता। निकाल लेजाने का कार्य । लड़की ले भगाने का | कन्वैलेमेरीन-[ अं० convallamarine ] काम । ___ एक प्रकार का ग्ल्युकोसाइड ( सार) जो कन्वै Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्वैलेरिया मैजेलिस २०७७ कपर्दिकेश्वर लेरिया मैजेलिस से प्राप्त होता है और डिजिटेलिस | कपड़गन्ध-संज्ञा स्त्री० कपड़ा जलने की गन्ध । वत्र की तरह हृदय बलदायक ( Cordiac tonic ) है । का गन्ध । कपड़छन, कपड़छान -संज्ञा पुं० [हिं० कपड़ा + छानना ] किसी पिसे हुये चूर्ण को कपड़े में छानने का कार्य । मैदे की तरह वारीक करना । वस्त्रपूतकरण । मात्रा - 1⁄2 से १ ग्रेन । कन्वैलेरिया मैजेलिस - [ ले० _ convallaria majalis ] एक ओषधि | कन्वैलेरीन-[ श्रं० convallarine ] एक प्रकार का ल्युकोसाइड जो कन्वैलेरिया मैजेलिस नामक बेल से निकाला जाता है । यह तीव्र रेचक है । मात्रा - ३ से ४ ग्रेन तक । वि० कपड़े से छाना हुआ मैदे की तरह महीन | कप मट्टी - संज्ञा स्त्री० [हिं० कपड़ा + मिट्टी ] धातु वा श्रधि फूकने के संपुट पर गीली मिट्टी के लेप के साथ कपड़ा लपेटने को क्रिया । कपड़ निट्टी | कोटी। कपरौटी । मुत्पट | गिल हिकमत | कपड़ौटी - संज्ञा स्त्री० दे० "कपड़ मिट्टी” । कपथाचक - [ ? ] सुरंजान । कपन -संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( १ ) कंपन । कँपकपी । घुणादि कीट । घुन श्रादि कीट कपना -संज्ञा स्त्री० [ वै० स्त्री० ] कीट । कीड़ा । कपरौटी - संज्ञा स्त्री० दे० " कपड़ौटी" | कपर्दिका रस -संज्ञा पुं० [सं० पु० ] मृत या मूच्छित पारद को नर्मा के फूल के रस में एक दिन खरल कर कौड़ियों में भर कर उनका मुख बन्द कर देवें । फिर अन्धभूषा में रख गजपुट की श्राँच दें। जब स्वांग शीतल हो जाय. निकाल कर दूनो काली मिर्च मिलाकर बारीक पीसें । मात्रा - १ रत्ती । गुण तथा प्रयाग - प्रातःकाल घी के साथ खाने से रक्तपित्त का नाश होता है । इसे नील कमल, मिश्री, कमज केशर के साथ खाकर ऊपर से चावल का पानी पीने से अत्यन्त लाभ होता है · वृहत् रस रा० सु० रक्त पित्त चि० । कपर्दिकाक्ष-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] बड़ा बगला | काचाक्षपती | कन्हेर - संज्ञा पु ं० [ चम्ब०, गु० ] कनेर । कन्हिल - [ लेप० ] वकलो | भौंरा | सिद्ध । कन्हैया-संज्ञा पु ं० [ देरा०, नेपा० ] एक पहाड़ी पेड़ जो पूर्वी हिमालय पर ग्राठ हजार फुट की ऊंचाई पर होता है । खरहर खेनन । कप - वि० [सं० त्रि० ] जलपायी, पानीपीनेवाला । कपट - संज्ञा पु ं० [सं० की ० ] चीड़ा देवदारु | चीढ़ | चीड़ा | गन्धवधु | चिड़ा | रा० नि० ० १ | कपट चीड़ा - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] चीढ़ | चीड़ा नामक देवदारु । रा० नि० व० १२ । कपटा - संज्ञा पुं० [हिं० कपटना ] एक प्रकार का कीड़ा जो धान के पौधों में लगता है। संज्ञा स्त्री० [सं० [स्त्री० ] ( १ ) स्व बृहती, छोटी कटाई । ( २ ) लक्ष्मणा । नि० शि० । कपटिनी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] चीढ़ । चीड़ा नामक गंध द्रव्य वा देवदारु । रा० नि० व० १२ | कपटी -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक प्रकार की माप । एक नाप । श० २० इसमें २ श्रञ्जलि परिमित द्रव्य श्राता है । संज्ञा स्त्री० [हिं० कपटना ] ( १ ) धान की फसल को नष्ट करनेवाला एक कोड़ा । दे० "कपटा" । (२) एक रोग जो तमाखू के पौधों में लगकर उन्हें नष्ठ कर डालता है । इसे "कोढ़ी" वा कौड़ा भी कहते हैं । कपटेश्वरी -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) सफेद भटकटैया । श्वेत कण्टकारी । रा० नि० व० ४ | लक्ष्मणा । नि० शि० । ( २ ) ह्रस्व वृहती । वै० निघ० । छोटी कटाई | कपर्दिकेश्वर - संज्ञा पु ं० [सं० पु ं० ] पारा १ मा०, गंधक १ मा० दोनों की कजली कर एक बड़ी पीली कोड़ी में भरें । पुनः कौड़ी के मुँह को भूने सुहागे को पिट्ठी से बन्द कर सरवा Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपली २०७८ कपाल इ। पाट। में रख कपड़ मिट्टी करके गजपुट की आँच दें। कपाट-संज्ञा पुं० [सं० क्ली०] [स्त्री. अल्पाच्या शीतल होने पर निकाले । इसे पीसकर रखें। कपाटी1 किवा मात्रा-१ रत्ती। __संस्कृत पो०-अरर (१०), कवाटः, गुण-इसके सेवन से राजरोग, कास, श्वास, कपाटी, कवाटी, अररी, अररिः (अ० टी०), . संग्रहणी और वरातिसार रोग दूर होता है । द्वारक एटकं, असारं ( शब्दर०) द्वाराच्छादक। अमृ० सा। संज्ञा [गु.] कंघी । ककही। कपर्द-कप-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] कौड़ी। वरा- | कपाटवक्षा-वि० [सं० त्रि] जिसका सीना किवाड़ टक। रा० नि० व० १३ । वै० निघ० दे० की तरह हो । चोड़ी छातीवाला । कपाटशयन-संज्ञा पु[सं० क्ली.] पीठ को जमीन कपईक-संज्ञा पु० [सं० पु.] [स्त्री० कपर्दिका] | पर और छाती को प्रामाश की ओर करके सोने कौड़ी। वराटिका । रा०नि० । दे० "कौड़ो"।। की क्रिया । चित्त सोना । उत्तानरायन । (२) कपईक रस-सज्ञा पु० [स० पु.] किवाड़ (लम्बे तखते) पर सुलाने की क्रिया । रक्त पित्त में प्रयुक्त उक नाम का योग-स सु.चि. ३ अ०। सिंदूर को १ दिन पर्यन्त कपास के फूलों के रस में | कपाटसन्धिक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (१) सुश्रुतोक्न घोटकर कौड़ियों के अन्दर भर दें और अंधमूसा में बन्द करके उस मूसा को किसी बरतन के अंदर कपाटिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] किवाद । कपाट । बन्द करके पुट लगावे । जब स्वांग शीतल हो | कपाटिनी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] चोड़ा नामक जाय निकाल कर दुगुनी तिची के साथ मिलाकर एक प्रकार का देवदार । चोढ़। रा०नि० ब०१२। खूब महीन खरल करें। एक प्रकार की सुगन्धित लकड़ी। मात्रा- रत्ती । कपाण्डुक-[ ? ] आँवला । मु० श्रा। गुण तथा उपयोग विधि-इसे १ रत्ती लेकर | कपार-संज्ञा पु० दे० "कपाल"। घी के साथ खाका उसके ऊपर गूलर के पके फलों का उसके ऊपर गनर के पके फलों | कपाल-संज्ञा पुं० [सं० पु., को०] (१) सुश्रुत को मिर्च और मिश्री के साथ घी में पकाकर खाने के अनुसार पाँच प्रकार की हड्डियों में से एक । से दुस्साध्य रक्त पित्त का नाश होता है। रसर० इस प्रकार की (शरावाकृति) अस्थियाँ, घुटने, रक्त पि० चि०। चूतड़, स्कन्ध (खवे ), गंड ( गाल), तालु, कपा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्रो० ] कौड़ी। वराटक । कनपटी और सिर में पाई जाती हैं। यथा__ वै० निघ०। "तेषां जानु नितंबांसगंड तालु शंखशिरःसु कपर्दि-संज्ञा पु० [सं० पु.] कोड़ो। कपईक । कपालानि।"-सुशा०५ अ.। दे० 'कङ्काल'। रा०नि० व० १३ । (२) खोपड़ा । खोपड़ी । शिर की हड्डी। कपर्दिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कौड़ी ।वराटिका । (Cranium)। (३) ललाट । मस्तक । कपलो-[ उड़ि० ] कंटगुर। मत्था । (४) मिट्टी के घड़े श्रादि का टुकड़ा । खपड़ा। खर्पर । ठीकरा । रा०नि० व० १८ । कपशि-[बं० ( कापास ) ] कपास । कपिश । भा० म०४ अ.मु. रो. चि०। (५) काकाकपसा-संज्ञा स्त्री० [सं० कपिश ] ( काबिस ) एक दनी का पौधा । (६)तालमखाना । कोकिलाक्ष चिकनी मिट्टी जिससे कुम्हार बरतन रँगते हैं । (२) वृक्ष । (६) भड़भूजे का दाना भूनने का बर्तन । गारा । लेई । नाद । खपड़ी । भांड। (८) अंडे के छिलके का कपसी-[ हिमालय ] फिदक । श्राधा भाग। यथा-कुक्कुटाण्ड कपालानि सुमनो कपसेठा-संज्ञा पु० [हिं० कपास+एठा] [स्त्री० मुकुलानि च। (सु०)(१) कछुये का खोपड़ा ___ अल्पा० कपसेठी ] कपास के सूखे हुये पेड़। (१०) कोढ़ का एक भेद । दे. "कपालकुष्ठ"। कपसेठी-संज्ञा स्त्री० दे० "कपसेठा"। (११) शिर । सिर। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपाल २०७४ कपास संज्ञा पुं॰ [सं० कम्पिल्ल ] कमीला । कबीला कपालास्थि-संज्ञा स्त्री० [सं० जी०] (१) सुश्रुत कपालक-संज्ञा पुं॰ [सं०] सरहटी। के अनुसार शरीर की पाँच प्रकार की हड्डियों में कपालकुष्ठ-संज्ञा पुं० [सं०क्की.] सुश्रुत के अनु से एक । इस प्रकार की हड़ियाँ खोपड़ी की हड्डी सार महाकुष्ठ का एक भेद। यह कृष्णकपाल ___ की तरह चिपटी होती हैं । दे० “कपाल" (1) + (काली सिकता) की तरह वा काले ठीकरे के (२) खोपड़ी की हड्डी। समान होता है । यथा-कृष्णकपालिका प्रका- कपालिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (१) दाँतोंका एक शानि कपालकुष्ठानि ।-सु० नि०५ अ०। रोग जिस में दाँत टूटने लगते हैं। यह दंत शर्करा __भावप्रकाश में लिखा है-"कृष्णारुणंकपा रोग की ही एक अवस्था है जिसमें मैल जमने के लाभं यद्क्षं परुषं तनु। कपालतोदबाहुल्यं कारण दॉतफूटे घड़े की ठीकरियों की तरह हो जाते नत्कुष्ठं विषमं स्मृतमू॥" हैं। यहसदा दातो का नाश करनेवाली है। सुश्रत कपाल गण्ड माला-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] एक के अनुसार इसमें जमी हुई शर्करा के साथ दाँतों के प्रकार का रोग। छिलके गिरते हैं । यथालक्षण-यह दुर्गन्धयुक्त श्वेत और रनवर्ण का 'दलंति दंतवल्कानि यदा शर्करया सह । उत्तमांग में होता है। यह कंठमाला का भेद है। ज्ञ या कपालिका सैव दशनानां विनाशिनी।। चिकित्सा-(१ पृष्ठपर्णी मूल का कल्क बना -सु० नि० १६ श्र०। तेल में पकाएँ। इसके उपयोग से लाभ होता है। "कपालेष्विवदीर्यत्सुदन्तानां सैव शर्करा । (२) अम्लपर्णीमूल, रक्रगुञ्जामूल, और मिर्च कपालिकेति विज्ञ या सदा दन्त विनाशिनी ॥ समान भाग लेकर तेल में पकाएँ। इसके सेवन से भयंकर गण्डमाला का नाश होता है। मा०नि०। (३) पाक की जड़, मुडो, पुन्नाग की जड़ (२) खोपड़ी। शवकर्परिका । सु० चि०१ इन्हें समान भाग लेकर सर्व तुल्य घृत और छाग अ० । (३) घड़े के नीचे वा ऊपर का भाग । मूत्र अर्ध भाग मिलाकर पाक करें। खपड़ा। ठीकरा । खर्पर। (४) कर्परकूट । गुण-इसके प्रलेप से ३ प्रहर में गण्डमाला (Olecranon process.): दूर होता है । तीन प्रहर के पश्चात् उष्णोदक से | कपालिनी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] रात । रात्रि । रजनी। निशा । यामिनी । स्नान करे। पथ्य-गेहूं, चावल का लवण रहित भोजन कपालो-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०.] (१) वायविडंग। कपालनालिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] टकुत्रा। ___ रा०नि० २०६ । (२) दरवाजे के ऊपर लगी तकुटो। टेकुत्रा। तकला । त्रिका। तकवा । हुई लकड़ी । वि० [सं० वि० ] कपालविशिष्ट । खोपड़ीवाला। कपालभेदो-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कदपाल-ता। कपास-सं० स्त्री० [सं० कर्पास] [ वि० कपासी ] कपालरोग-संज्ञा पुं० [सं० पु.] शिरोरोग। सिर एक कार्पास वर्गीय पौधा जिसके टेंट से रुई निक__ की बीमारी । लती है । इसके कई भेद हैं। किसी-किसी के पेड़ कपालसन्धि-संज्ञा स्त्री० [सं० पु.] मस्तक की ऊंचे और बड़े होते हैं, किसी का झाड़ होता है। अस्थियों का मिलन स्थान | खोपड़ी की हड्डी का किसी का पौधा छोटा होता है, कोई सदावहार जोड़। होता है। और कितने की काश्त प्रतिवर्ष की जाती है । इसके पत्ते भी भिन्न-भिन्न आकार के होते हैं। कपालस्फोट-संज्ञा पुं० [सं० पु.] मस्तक वा और फूल भी किसी का लाल, किसी का, पीला, खोपड़े का फोड़ा। तथा किसी का सफेद होता है। फूलों के गिरने कपालास्त्र-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक प्रकार का | पर उनमें ढूँढ लगते हैं, जिनमें रुई होती है। डेढ़ों अस्त्र । ढाल । चर्म। __ के प्राकार और रंग भिन्न २ होते हैं। भीतर की Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपास २०६० रुई अधिकतर सफेद होती है । पर किसी-किसी के भीतर को रुई कुछ लाल और मटमैली भी होती है । और किसी-किसी की अन्य रंग की होती है । किसी कपास की रुई चिकनी और मुलायम और किसी की खुरखुरी होती है । रुई के बीच में जो बीज निकलते हैं वे बिनौले कहलाते हैं । कपास के भेद कपास की बहुत सी जातियाँ हैं । जैसे— नरमा, नंदन, हिरगुनी, कील, बरदी, कटेली, नदम रोजी, कुपटा, तेलपट्टी, खानपुरी इत्यादि । वनस्पति शास्त्र वेत्ताओं ने कपास की ऐसी चौबीस उपजातियों का उल्लेख किया है, जिनकी काश्त होती है । परन्तु इसकी उक्त उपजाति-वृद्धि का मुख्य कारण केवल एक स्थान से दूसरे स्थान की मिट्टी और जलवायु की विभिन्नता मात्र है, जिससे उनमें यह सूक्ष्म भेद उत्पन्न हो गया है । इन्हें निम्नप्रधान उपजातियों में विभाजित किया जा सकता है--- (१) कपास वा मनवाँ ( Gossy pium Herbacrum ) (२) देवकपास वा नरमा (Gossy pium Arboreum ) (३) ब्राजील कपास ( Gossy pium Accuminatum ) (४) बर्बादी या अमेरिकन कपास ( Goss y pium Barba dense) इन्हें देशी और विदेशी इन दो भागों में सुगमतापूर्वक बांट सकते हैं, जैसे- (क) देशी उपजातीय कपास । ( १ ) कपास | Indian Cotton ( Gossy pium Herbaceum ) और ( २ ) देव कपास नरमा Religions Cotton ( Gossypium Arboreum, Linn.) देशी कपास श्रधोलिखित वर्गों में भी बाँटा जा सकता है । ( १ ) कृषि कर्पास खेतों में होनेवाली और ( २ ) उद्यान कर्पास जो वगीचों घरों और देवालयों में भी होती है। इसे नरमा वा देवकपास भी कहते हैं । कपास कृषि कर्पास वा मनवाँ सबके परिचय का २ से ३ हाथ तक ऊंचा और केवल वर्षायु होता है । भारतवर्ष में बहुल परिमाण में इसकी काश्त होती है | इसका विस्तृत विवरण आगे कपास शब्द के अंतर्गत होगा । देवकपास लगभग १२ से १५ फुट ऊ ंचा बड़ा बृक्ष सा होता है और कई बर्षो तक रहता है । देवकपास की ही एक जाति वन कपास - श्ररण्यकार्पासो वा भारद्वाजी -- ( Thespasia Lampas; Dal2.) है, जिसका सुप फैलने वाला या वृक्षों के सहारे ऊपर चढ़नेवाला होता है खानदेश और सिंध प्रांत में बनकपास बहुत होता है । काला कपास अर्थात् कालांजनी ( Gossy p ium Nigrum ) भी बनकपास की ही एक उपजाति है। बनकपास के पत्त े छोटे २ फूल १॥ इंच लम्बे हाजी अवस्था में पीतवर्ण के, किंतु सूखने पर गुलाबी होजाते हैं इसकी कपास कुछ पिलाई लिए, हुये होती है । कपास का बीज कुछ विशेष लम्बा और काले रंग का होता है । काले कपास की भी ये दो जातियां होती हैं । १ - काला कपास और (२) बेणी | काले कपास के बीज बन- कपास के बीजों की तरह, पर काले होते हैं । इसकी पत्ती बेणी से छोटी और चोटी की और तीन खण्डों में विभक्त होती है । इसके फूल कुछ ताँबड़े रंग के होते हैं । इसका कपास मध्यम श्रेणी का होता है । वेणी का बीज लंबाई लिये वेणी के समान रहता है । इसके पत्ते काले कपास के पत्तों से बड़े होते हैं | और उसके पांच भाग ऐसे होते हैं कि पांच चोटी से जान पड़ते हैं। इसका फूल पिलाई लिये होता है। इसका फूल बत्ती बनाने के लिए अच्छा होता है। किंतु सूत कातने के लिये उत्तम नहीं होता । देव कपास के पत्ते काले कपास के पत्तों से छोटे और उनकी चोटी की ओर पांच भाग होते हैं। इसके बीज हरापन लिये और फूल बलाई लिये रहते हैं । इसका धागा लम्बा और मज़बूत होता है। इसकी रुई सबसे अच्छी समझी जाती है। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपास २०११ कपास । (ख) बिदेशी उपजातीय कपास (३) ब्राजीलीय कपास Brazil Cott- | on Gossypium Accumintum (४) बर्बदी वा अमेरिकन कपास Ameri can Cotton Gossypium Barba dense. Linn. इतिहास-कपास का श्रादि प्रभव स्थान भारतवर्ष ही है, यहाँ यह प्रागैतिहासिक काल से ही वन्य अवस्था में पाई जाती है। यद्यपि यह अमरीका में भी जंगली होती है। किन्तु पुरानी दुनियां के समस्त देशों में भारतवर्ष से ही इसका प्रसार हुश्रा। सिकंदर महान जब सतलज तक पाया था, तब उसके साथी कपास का पौधा देख कर बहुत आश्चर्य चकित हुये थे। उन्होंने अपने ग्रन्थों में इसका नाम 'ऊर्ण वृक्ष' लिखा है और उसका यह अर्थ लगाया है कि युनान में जो ऊन भेड़ों की पीठ पर उत्पन्न होता है, वह हिन्दुस्तान में पेड़ों पर फलता है। वेचारों ने कदाचित् प्रथम हई कभी नहीं देखी थी, केवल पोस्तीन और ऊर्ण वस्त्र धारण करते थे ।अस्तु, पश्चात् कालीन युनानी लेखकों ने इस बात का उल्लेख अपने ग्रन्थों में किया है। और इसे बुस्सूस संज्ञा से अभिहित किया है । सावफरिस्तुस ने एरियोफोरा नाम से और रोमनिवासी प्राइनी ने गासिम्पिनस वा गासी पियून नाम से इसका उल्लेख किया है । पारव्य भाषा में रुई को कुत्तुन और कुफुस कहते हैं । इनमें से कुफुस स्पष्टतया संस्कृत 'कर्पास' से व्युत्पन्न प्रतीत होता है । कपास भारतवर्ष से ही प्रथम फ़ारस फिर अरब और मिश्र आदि देशों में | पहँचा जहाँ से यह पश्चिम अफरीका और सिरिया एशिया माइनर, लेवांट और दक्षिण युरुप के कति पय भागों में प्रसारित हो गया। वहाँ इसे मूर लोग ले गये, जिन्होंने ग्यारहवीं शताब्दी में वहाँ इसकी खेती की। अब यह प्रायः संसार के सभी भागों में कुछ न कुछ होती है। कपास वा मनवाँ पर्या-कार्पासी, सारिणी, चव्या, स्थूजा, | पिचु, बादर, बदरी, गुणसू, तुण्डिकेरिका,मरुद्भवा, समुद्राता (रा. नि.) कार्पासी, तुण्डकेरी, ४१ फा० समुद्रान्ता (भा०), वदरा, तुण्डिकेरी,समुद्रान्ता (१०), पटद, वादरा, सूत्रपुष्पा, वदरी, कार्पासिका (शब्दर०), कार्पासी (भ०), कर्पास (अ. टी.) कार्पासाच्छादनफला, पथ्या, अनग्ना, पटप्रदा, भद्रा, वन्यफला, कर्पास, वरनुम स्थूल, पिचव्या, वादर, (केयदेव ), बदरी, स्थलपिचुर (द्रव्य र.), आच्छादनी, सोमवल्ली, चक्रिका, मेनिक (गण नि०) वामनी, वासनी, विषघ्नी, महौजसी, पटतूल, सापिणी, चव्या, तुलागुड़, तुण्डकेरिका, कार्पास, कार्पासक, कासिकी, कर्पास, कर्पासक, कर्पासी, पिघुल-सं० : कपास, कपास का पेड़, मनवाँ, रुई का पेड़-हि। कपास का झाड़-द० । कर्पाश गाछ, शूतेर गाछ, तुला गाछ, कापास गाछ-बं० । नबातुल कुस्न, शत्रूतुल कुन-अ० । दरख्ते पुबः-फा० । गासीपियम् ह.सियम् (Gossy pium Herbaceum, Linn. गा० इंडिकम् G. Indicum, Linn. गासीपियम् ष्टाकसियाई Gossy pium Stocksii, Mast.-ले० । इडियन काटन प्लांट Indian Cotton plant, काटन टी Cotton tree.-अं०। काटनीरटी इण्डी Cotonnier de Inde, काटोनीर Cotonnier Herbace-फ्रां० | इंडिश्चे. बाम Indische baum बूलेनष्टाडी, Wollen Staude, Baum wollp flanze -जर० । परुत्ति चेडि-ता० । पत्ति चे,कार्पासमुते । परित्तिच्-चेटि-मल । हत्ति-गिडा-कना० । कापूसा-च-झाड़-मरा० । रू-नु-झाड, कपास-नु-झाड -गु० |कपुगहा-सिंगाली । वा-विङ-बर० । गुण प्रकाशिका संज्ञा-'गुणसू'(सूत्रोत्पादक) कार्पासी वर्ग (N. O. Malvacee.) उत्पत्ति-स्थान-इस जाति की कपास संसार के उष्ण प्रधान प्रदेशों तथा समशीतोष्ण कटिबंध स्थित सर्वाधिक उष्ण भागों में उपजती है और प्रायः समग्र भारतभूमि में इसकी कारत होती है । इस उपजाति की बहुत सी नस्लें हैं, जो चीन, मलाया और मिश्र में पाई गई हैं। नानकिन Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपाम २०६२ कपास कपास भी जिसकी काश्त विशेषतः चीन में होती द्राक्षोज (Glucose ), एक पोतराल, एक है और अब भारतवर्ष के विविध भागों में होने | स्थिर तैल, कुछ टैनोन और ६% भस्म होती है। लगी है, इसी की एक उपजाति है। (Materia Medica of India R.N. वर्णन--यह एक वर्षजीवी पौधा है, जिसकीखेती Khory, Part II. P,74) वीज में १० प्रति वर्ष होती है, किंतु जब इसे बढ़ने दिया जाता से २६% तक एक प्रकार का तेल, एल्ब्युमिनाइहै, तब यह बहुवर्षी हो जाता है। इसका पौधा इस तथा १८ से २५% तक अन्य नत्रजनीय ४ से ८ फुट ऊँचा होता है और यह जिस विशिष्ट पदार्थ और १५ से २५ सैकड़ा तक काष्टीन नस्ल का होता है, उसी के अनुसार ४ से ८ मास (Lignin) होता है । एक प्रकार का पीत वा के भीतर इसका बीज अंकुरित होता और परिपक्क वर्णरहित अम्ल-राल, डाइहाइड्राक्सबेञ्जोइक एसिड होता है । प्रकांड सरल होता है जिसमें १० से १२ और फेनोल ये कर्पास-मूल-त्वक् के प्रधान संयोलघु शाखाएँ होती हैं। प्रकांड के लघुतर भाग, - जकतत्व है । फूलमें एक रंजक पदार्थ और गासिपेशाखाएँ, पत्र, पत्रवृत और पुष्प रोमावृत्त, वृन्ता- टिन (Gossy petin) नामक ग्ल्यकोसाइड धार एवं उद्धं व भाग रंजित, कतिपय कुलों में होता है। इसको जब काष्टिक पोटाश के साथ सम्मिहलका लाल, पत्रवृत दीर्घ एवं हृष्टरोमावृत्त, पत्र लित करते हैं, तब यह इन दो स्फटिकीय पदार्थों प्रायः एरंड-पत्र तुल्य, केवल तदपेक्षा क्षुद्रतर, गाढ़ में वियोजित हो जाता है-(१) फ्लोरोग्ल्युहरित वर्ण का होता है, पत्रवृन्त दीर्घ, पत्र-प्रांत सिनोल ( Phloroglucinol) और (२) पंच विभाग युक, विभाग परिविस्तृत वृत्ताकार प्रोटोकैटेक्युइक एसिड (Protocatechuic और किसी किसी नस्लमें किंचित तीक्ष्णाग्र होताहै acid)। अर्द्ध भालाकार या न्यून कोणीय-तीक्ष्णान औषधाथ व्यवहार-वल्कल, पत्र, फूल,फल, (Stipules) युक्त, ( Hooked) और बीज, मूलत्वक् और तैल । भालाकार, पुष्प चमकीला पीत वर्ण का पंजा गुणधर्म तथा उपयोग (Claw) के समीप बैंगनी चिन्ह युक, शाखांत . अग्युर्वेदीय मतानुसारकी ओर एकांतिक और वृक्षीय होता है। आधार कार्पासी मधुरा शीता स्तन्या पित्त कफापहा । स्थित वाह्य कुण्ड वा पौष्पिक पत्र-खंड हृदयाकार तृष्णा दाह श्रम भ्रांति मूर्छा हृद्वल कारिणी॥ धार करातदंतित और कभी कभी समान होती है। ढंढ (Capsules ) अंडाकृति, नुकीला और (राजनिघण्टुः) तीन वा चार कोष युक्त होता है। बीज स्वतंत्र कपास-मधुर, शीतल; स्तन्य जनन (स्तनों श्वेत रोमावृत्त और कपास वा रुई से श्रावेष्टित में दूध बढ़ानेवाला), पित्त तथा कफ नाशक है होता है। वीज में एक प्रकार का तेल होता है। और इसके सेवन से तृषा,दाह,श्रम,भ्रांति और मुर्छा इसकी जड़ ऊपर से पीताभ एवं भीतर उज्वल का नाश होता है और यह हृदय को बल प्रदान श्वेत वर्ण की होती है। उक्त जड़ की शुष्क करती है। छाल औषध में काम आती है। इसकी पतली कार्पासकी लघुः कोष्णा मधुरा वातनाशनी । पतली लचीली पट्टियाँ या बल खाये हुये टुकड़े तृष्णादाहारतिश्रान्ति भ्रान्ति मूर्छाप्रणाशनी ॥ होते हैं। इनकी बाहरी सतह पर एक पीताभ भूरे तत्पलाश समीरघ्नं रक्तकृन्मूत्र वर्द्धनम् । रंग की मिली होती है। यह निगंध और स्वाद तत्कर्णपीड़कानाद पूयास्राव विनाशनम् ।। में किंचित् कटु एवं कषाय होती है। तद्वीज स्तन्यदं वृष्यं स्निग्धं कफकर गुरुः ।। रासायनिक संघटन-कर्पास-मूल-त्वक्-में (भावप्रकाश) .. श्वेतसार (Starch )और २८ प्रतिशत क्रोमो ___कपास-हलकी, किंचित् उष्ण, मधुर और - जन (Chromogen) होता है। इसमें यातनाशक है । तथा इसके सेवन करने से तृषा Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपास .२०८३ दाह, चित्त की बेकली, परिश्रम, भ्रम और मूर्च्छा इनका नाश होता है। कपास की पत्ती- वायुनाशक मूत्रवर्द्धक और रक्त जनक है। इसके सेवन से कान का घाव, कर्णनाद और कान से पीव बहना राम होते हैं। कपास के वीज स्तनों में दूध प्रगट करते हैं एवं वृष्य, स्निग्ध कफजनक और भारी है। तद्वीजं श्लेष्मलं स्निग्धं बृष्यं । (केयदेव निघण्टु ) कपास के बीज —-- कफकारक, स्निग्ध और वृष्य हैं। योगरत्नाकर वृहनिघण्टु रत्नाकर श्रोर सुबोध वैद्यक प्रभृति श्रायुर्वेदीय ग्रंथों के अनुसार इसकी जड़ श्रीर पत्ते का रस सर्पदंश में उपयोगी माना जाता है । परन्तु काय और महस्कर के मतानुसार यह साँप और बिच्छू के बिष में निरुपयोगी है। कपास के वाह्यांतर प्रयोग कपास की पत्ती पर्या० – कार्पासीपत्र | कपास को कोंपल । 1 कपास के कोलियान - द० 1 Young shoots or leaves - श्रं० । कपास के पत्ते स्नेहन और मूत्रल हैं तथा श्रति सार, आमवात, प्रदर, सर्पदंश, मूत्रकृच्छादि को नष्ट करते हैं । आमयिक प्रयोग आयुर्वेद में— अपस्मार में कार्पास पत्र रस - एक मास तक नीबू का रस, कपास की पत्ती का रस, नीम की पत्ती का रस इनमें काली मिर्च के चूर्ण का प्रक्षेप देकर सेवन करे । यथा “एक मासावधि निम्बु रसेन कार्पास पत्र निम्बपत्र रसः समरिचः पेयः ।" ( २ ) श्वेत रक्तप्रदर में कार्पास पत्र स्वरसकपास को पत्ती के स्वरस में शर्करा मिली हुई बंगभस्म सेवन करें । यथा---- कपास समित "* * कार्पास पत्र रसे बङ्गभस्म देयम् ।” ( बस० रा० पृ० ४२० ) प्रसूता स्त्री के स्तन में पर्याप्त दुग्ध न होने पर कपास की पत्तीका स्वरस सेवन कराना चाहिये । वात रोगी की स्फीत संधियों पर कपास कीं पत्ती पीसकर तैल मिला लेप करें ।। ( Materia Medica of India-R. N. Khory Part II. page 96. ) लिये कपास के कोमल पत्तों का स्वरस श्रामातिसार की उत्कृष्ट श्रौषधि मानी जाती है। श्रामवात या वातरक्त जन्य संधिशोथ पर पत्तों को पीसकर तथा तैल में सिद्धकर बाँधते हैं । गर्भाशयिक शूल में इसकी कोमल पत्तियों के काढ़े में कटिस्नान कराने से उपकार होता है। ज्वर के पश्चात् त्वचा की रूक्षता या खुजली दूर करने के देव कपास ( अथवा साधारण कपास) के पत्तों के रस में कालीजोरी Vernonia An the Pmistica) पीसकर, शरीर पर उबटन सा लगाते हैं । ( इसके लगाने के तीन घंटा बाद स्नान करना चाहिये । ) मूत्रकृच्छ निवारणार्थ पुडुकोट में इसके पत्तों को पीसकर दूध के साथ पिलाते हैं । देवकपास के पत्ते इस कार्य में शीघ्र गुणकारी है । फा० ई० १ भ० पृ० २२५ । कपास के पत्ते का काढ़ा बल्य है और ज्वरातिसार में इसका उपयोग होता है । ( ऐट्किन्सम) श्रामातिसार में इसके कोमल पत्तों का ताज़ा स्वरस उपयोगी है। अर्श, मूत्रकृच्छ एवं अश्मरी रोग में इसे २ से ३ तोले की मात्रा में गोदुग्ध के साथ देते हैं । प्रांत्र शैथिल्य एवं अतिसार 1 में इसके कोमल पत्तों का शीतकषाय ( Infusion ) वा चाय प्रस्तुत कर व्यवहार करते हैं । गुद-व्याधि-विशेष ( Tenesmus ) होने पर गुदा के लिए वाष्प स्वेद प्रस्तुत करने में इसका उपयोग होता है। गर्भाशयिक शूल में इसके कोमल पत्तों के काढ़े में कटि स्नान करने से उपकार होता है । इसके पत्तों की पुल्टिस बाँधने से ग्रंथि या व्रण शीघ्र पकते हैं। वातरक्क़ जन्य संधि शोथ पर तेल के साथ इसका प्लाष्टर काम में भाता Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कपास है । बिच्छू के दंश पर इसकी पत्ती और राई एकत्र पीसकर लेप करें। ( ई० मे० मे० पृ० ४०३) इसके पत्ते सेंककर बाँधने से दर्द आराम होता है । इसके पत्तों का स्वरस सेब के शर्बत के साथ दस्त बंद करता है, वातरक्त वा निकरिस (Gont) पर लगाने से उपकार होता है। खुरके के साग के साथ गठिया को लाभ पहुँचाता है । इसके पत्तों के काढ़े में बैठने से योषापस्मार में लाभ होता है। इससे वेदना शांत होती है । इसके पत्तों का चाय 1 पिलाने से दस्त बंद होता है । यदि क्षण-क्षण पर मलोत्सर्ग की प्रवृत्ति वनी रहती हो, तो इसके पत्तों के काढ़े से गुदा में भपारा देने से लाभ होता है । इसके पत्तों का रस पिलाने से चांद के दस्त बंद होते हैं । पत्तों को तेल से चुपड़ कर बांधने से संधिशोथ मिटता है । इसके पत्तों को दही में पीसकर लेप करने से नेत्र शूल नष्ट होता । इसके और पावर के पत्तों के खालिस रस में मधु सम्मिलित कर पिलाने से दस्त बन्द होते हैं इसके पत्तों को तिल तैल में पकाकर लेप करने से वायुजनित शूल निवृत होता है । ( ख० प्रदर पर पत्तों का रस प्रातः सायं उचित मात्रा में पिलावे । ० ) गर्भाशय की पीड़ा निवारणार्थं कोमल पत्ते और जड़ को एकत्र कूट तथा जल में उबाल, टब में भरकर कटि-स्नान करें । इसकी पत्ती छाछ में पकाकर आँख के ऊपर बाँधने से उपकार होता है । (म० मु० ) शिश्वतिसार निवारणार्थं इसकी पत्तियों का स्वरस सेवनीय है । संधिशोथ जन्य शूल पर गुलरोगन के साथ इसकी पत्ती का लेप गुणकारी होता है । इसकी पत्ती का बारीक चूर्ण श्रवचूर्णित करने से क्षत जात रक्तस्राव बंद होता है । कपास के पञ्चाङ्ग का प्रलेप श्रामशयबलप्रद और बिलायक है । (बु० मु० ) २०५४ कपास के पत्तों का रस, चावलों के धोवन के साथ, पीने से प्रदर रोग श्राराम होजाता है । कपास कपास के पत्ते और फूल श्राधपाव लाकर, एक हाँड़ी में एक सेर पानी के साथ जोश दो । जब एक पाव जल शेष रह जाय, उसमें चार तोले गुड़ मिलाकर छान लो और पी। इस तरह करने से मासिक धर्म होने लगेगा । चि० चं०२ भा० । फूल पर्या० – कार्पास पुष्प, कपास का फूल - हिं० । गुणधर्म हकीम इसे गरम तर लिखते हैं। आमयिक प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसार चरक - कुष्ठ पर कार्पासी त्वक् एवं पुष्पवाग्भट - चतुर्विध कुष्ठ पर कार्पासी पुष्प श्रौर कपास के फूल को सिल पर पीसकर लेप करने से चारों प्रकार के कुष्ठ नष्ट होते हैं। यथा"* * पुष्पं कार्पास्या पिष्टा * चतुर्विधः । कुष्ठहा लेपः ॥" ( चि० १६ श्र० ) नव्यमत डीमक और खोरी - ( उत्तेजक एवं मनोल्लास कारी होने के कारण ) कपास के फूल का शर्बत ( Syrup) विमर्शात्मक मनोविकार (Hypoo hondriasis) में सेवनीय है । अग्निदग्ध किंवा प्रत्युष्ण तरल वस्तु द्वारा दग्ध अंग पर इसके फूल का प्रलेप हितकर है। फा० इं० १ भा० पृ० २२५ | मे० मे० इं०, २ य खंड, ३६ पृ० । ई० मे० मे० ४०४ पृ० । ख० अ० | नादकर्णी - इसके फूल और बिनौले का काढ़ा धतूरे के विष कागद है । इं० मे० मे० ४०४ पृ० । एक तोला इसके फूलों की भस्म फँकाने से नियत मात्रा से अधिक रजःस्राव का निवारण होता है । ख० श्र० । 1 नेत्राभिष्यन्द पर फूलों की पखुरियों को गायके दूध में पीसकर, ऊपर से बाँधे और लेप करें इसके फूलों का शरबत पिलाने से सभी प्रकार के उन्माद आराम होते हैं और चित्त प्रफुल्लित होता है । Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपास २०६५ कपास की ढ़ेंढ़ पर्या० – कर्पास फलं - सं० । कपास के ढेढ़, कपास की ढोंद, बोंड - हिं० । कपास के पिंडे-द० । Young or tender Cotton fruit or capsules-श्रं । परुति- पिजि - ता० । पत्ति-पेंडे - ते ० । गुणधर्म कपास के कच्चे फल — दें और कोमल पल्लव स्नेहन ( Demulcent ), मूत्रल और संकोचक है। इसकी मात्रा मुट्ठी भर है। बिनौले के अन्तर्गत कथित पेय के सदृश ही इससे भी एक प्रकार का पेय प्रस्तुत कर उपयोग किया जाता है । ( मे० मे० मै० - मो० श० पृ० ५२ ) यह मूत्रवर्द्धक, वात. रक्तविकार, कर्णनाद, कर्णान्तर्गत वय, पूतिकर्ण, प्रतिसारादि नाशक है । इसकी ढेंद्र ( Carpel ) संकोचक है । ( खोरी ) आमयिक प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसार सुश्रुत - कर्णनाव में कार्पासी फल –— क त्वक् चूर्ण और मधु संयुक्त कपास के फल ( डल्वा के मत से अरण्यकार्पास के फल ) का रस कान में डालने से कत्राव प्रशमित होता है । यथासर्जत्वक् चूर्ण संयुक्तः कार्पासी फलजो रसः । या जितो मधुना वापि कस्रावे प्रशस्यते ।। ( उ० २.१ श्र० ) नब्यमत मोहीदीन शरीफ़ - प्रामातिसार और पूयमेह के किसी-किसी रोगी पर इसकी कच्ची ढ़ और कोमल पल्लव का उत्तम प्रभाव होते देखा. गया है । (मे० मे० मै० पृ० ५२ खोरी- - कपास की कच्ची ढेढ़ के भीतर (उचित मात्रा में ) अहिफेन और जायफल भरकर इसका ( निधूम श्रग्नि में ) पुट पाक विधानानुसार पाक करके चूर्ण करले और मात्रानुसार श्रामातिसार रोग में व्यवहार करें। ( मे० मे० इं० भ० २, पृ० ६६ ) इसके फूल और फल (ढेद) पकाकर पीने से रजः प्रवर्तन होता और गर्भपात होता है । ( ख० अ० ) कपास व्रण की सड़ान को रोकने के लिये फलों को कूट पीस एवं पुल्टिस बना लेप करें। कर्णान्तर्गत व्रण एवं कर्णनाद पर फलों को कूट पीसकर तिल तेल अथवा सरसों के तेल में सिद्ध कर तेल को अच्छी तरह डालकर शीशी में भर रखें । इसकी ४-५ बूँद रोज दोबार कान में छोड़ना चाहिये । नादकर्णी - श्रामातिसार निवारणार्थ इसका कच्चा फल दिया जाता है । इं० मे० मे० ४०४ पृ० । रुई वा कपा प० - कार्पास तूलक, पिचुतुल, पिचुतूज़, पिचु तूल, तूला, कार्पास, कर्पास, पिचुतूल । -सं० | रुई, कपास - हिं०, द० । रुई, फूटा, कर्पा, कपास - बं० | गासिपियम् Gossy pium -ले० | काटन Cotton, काटन वूल Cotton wool-श्रं० । कोटून Cotton - फ्रां० । बमवोल्ली Bamwolle - जर० । कुन क्रुतु न, क्रुफ़ स ० । पुंबः, पश्म पुम्बः, पंबः - फ्रा० । रूई - उ० । परुत्ति - ता० । पत्ति, प्रत्ति - ते ० । परुत्ति - मल० । हत्ति-कना० । कापूस - मरा० । रु, रू - गु० । कपु-सिंगा० । गूँ, गों, वा बर० । संज्ञा -निर्णायिनी टिप्पणी - किसी किसो बंगला श्रोर संस्कृत कोषों में 'कर्पास' वा 'कार्पास' और 'तुल' वा 'तुला' पर्याय रूप से व्यवहार किये गये हैं। पर प्रथमोक्त संज्ञाद्वय का उपयोग साधारण कपास की रूई के लिये और शेष दोनों संज्ञाओं का सेमल की रुई के अर्थ में प्रयोग करना चाहिये | मुसलमान चिकित्सकों ने 'कुन' धोर 'क्रु'स' नाम से इसका उल्लेख किया है। इनमें से क्रुस संस्कृत कर्पास से ही अरबीकृत शब्द है । रासायनिक संघटन - कपास वा रुई किंचित् रूपांतर प्राप्त काष्ठ तंतु ही है और कज्जल, उदजन तथा श्रोषजन इसके मुख्य उपादान हैं। इनकी ठीक श्रानुपातिक मात्रा अभी निश्चित नहीं हुई है । पर अपने सभी आवश्यक रासायनिक गुणों में यह साधारण काष्ठ-तन्तुओं के समान होती है । Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपास २०६६ • कपास उत्तम जाति के तंतु अत्यंत महीन और रेशम की तरह मुलायम होते हैं और ये ही निकृष्ट जाति का होने पर कड़े और खुरखुरे होते हैं। रासायनिक गुण-कपासका विशेषगुरुत्व १.१८८ है। यह स्वाद रहित और निगंध होता है । कर्पास तंतु जल, सुरासार, ईथर, स्थिर एवं अस्थिर तैल और वानस्पतीय तेजाबों में अविलेय है। जल मिश्रित (Alkoline leys) का कपास पर कोई ब्यक्त प्रभाव नज़र नहीं आता, परन्तु जब ये अति तोचण होते हैं और उन्हें काफी उत्ताप पहुँचाया जाता है तब ये उसे विलीनकर देते हैं। नाइट्रिक एसिड और सल्फ्युरिक एसिड (गंधकाम्ल ) के साथ रुई के योग से एक प्रकार का विस्फोटक द्रव्य प्रस्तुत होता है. जिसे 'गन काटन' (Gun Cotton) वा “पाइराक्सिलीन ( Pyroxyline) कहते हैं । यह पुनः कोलो डियन" (Collodion) बनाने के काम श्राता है। वि० दे. "पाइराक्सिलीनम्" तथा कोलोडियम्"। कतिपय पार्थिव पदार्थों, विशेषतः (Alumina) के लिये कपास में तीव्र मुमुक्षा पाई जाती है। इसीलिये रुई पर पक्का रंग चढ़ाने के लिये इसका उपयोग होता है। लोहे से रुई पर पीला दाग पड़ जाता है और यदि उसे क्षार वा साबुन श्रादि से तुरत दूर न किया गया, तो पुनः उसका मिटाना असंभव हो जाता है। वंग भस्म (Ox. ide of tin) भी रुई से संप्रत हो जाती है। फलतः रंग पक्का करने के लिये इसका प्रायः उपयोग होता है। कपास तुरत कषायाम्ल (Tannic acid) से संप्रन हो जाती है और एक पोत या धूसर वर्ण का यौगिक बनाती है। उत्ताप देने पर नत्रिकाम्ल ( Nitric acid), कपास को वियोजित कर देता है । गंधकाम्ल उसे जलाकर कोयला कर देता है। हरिन वायव्य उसे श्वेत कर देता है और जब इसका सांद्रीभूत अवस्था में ही प्रयोग किया जाताहै, तब संभवतः यह उसे परिवर्तित वा विलीन कर देता है। कपास अत्यन्त ज्वलनसोल है और यह साफ तीव्र लो से जलती है। इसे परिनु त करने पर थोड़ी मात्रामें तेल प्राप्त होता है। इसमें अमोनियां नहीं होता, रुई में १००% उक्त स्थिर तैल पाया जाता है। इस तेल के ही कारण रुई जल में कठि नतापूर्वक क्लेदित होती है। इसलिये इसे शोषण विरोधी कपास ( Non Absorbent Cotton Wool) अर्थात् नाज़ाज़िब रुई कहते हैं । परंतु जब इस रुई में से तेल निकाल लिया जाता है और वह जल का शोषण करने लगता है । तब उसे शोषणकारी या ऐसाबैंट काटन वल ( Absorbent Cotton Wool) अर्थात् कुल्न ज़ाज़िब या ज़ाज़िव रुई कहते हैं। इसके बनाने की विधिरुई को सर्वप्रथम जलमिश्रित क्षार में भिगोकर निकाल लें, इसके उपरांत इसे चूने के घोल में भिगोयें, अंत में इसे लवणाम्ल द्वारा अम्लीभूत जल में डुबोकर फिर उसे साफ पानी से भलीभाँति धो डालें. इससे रुई की चिकनाहट जाती रहती है और वह लिखता शोषण कारिणी हो जाती है। गुण-व्रण एवं क्षत के लिए यह बहुमूल्य व्रण वंधन हैं । शस्त्र क्रिया में इस रुई का बहुत प्रयोग होता है । उल्लिखित प्रयोजन के लिए इसे नाना भाँति की जीवाणु नाशक ओषधियों जैसे टंकणाम्ल, काबालिकाम्ल, सैलिसिलिकाम्ल, थाइमोल, माइडोफार्म, युकेलिप्टोल इत्यादि में भिगोकर सुखा रखते हैं और बोरिक बूल आदि नामों से अभिहित करते हैं । पचन निवारक कपास प्रभृति का जीवाणुनाशक प्रण बंधन में साधारणतया उपयोग होता है । जीवाणु विषयक परीक्षण एवं प्रयोगों में शीशियों के मुंह पर काग की जगह विशोधित वा जीवाणुशून्य कीहुई रुई (Sterlized Cotton) का उपयोग श्रेष्ठतर होता है। गुणधर्म तथा प्रयोग यूनानी मतानुसारप्रकृति-द्वितीय कक्षा में उष्ण एवं रूक्ष । Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपास २०८७ कपास ___ जली हुई रुई का प्रलेप सूजन उतारता, खाज देश और कास एवं फुफ्फुसौष में शिशु-वक्ष इन मिटाता, जली हुई जगह श्राबला नहीं उठने देता अंगों पर जली रूई छिड़क कर बाँध रखने से और अग्निदग्ध को लाभ पहुँचाता है । चिरकारी उत्ताप एवं वेद की रक्षा होती है और स्वेद का व्रणों के बदगोश्त का अवसादन वा छेदन करती कार्य भी करता है । (मे० मे० ई० २ य खड पृ० है। ग्रहों की गहराई में होनेवाली अस्वच्छता का १७०) शोषण करती है। वेदना-स्थल पर पुरानी रुई डीमक-रुई या मिलित रुई एवं ऊन वा रुई गरम करके बाँधनेसे, विशेषतः उस अवस्था में जब तथा रेशम का बना वस्त्र धारण करने से शरीर कि वहाँ पर सोंठ और नरकचूर समभाग को ले कूट स्वस्थ रहता है । कपास को जलाकर जो राख हो, पोसकर खूब मईन किया हो, उपकार होता है। उसे व्रण, क्षत, जख्म में भर देने से वे शीघ्र भर ताजी रुई को कूट कर गरम करके गरम किये हुये पाते हैं । सूजे हुये एवं पक्षाघाताक्रांत अंगों पर रेंड के पत्ते पर फैलाकर अण्डशोथ पर बाँधने से सोंठ एवं नरकचर का लेप कर ऊपर से उन्हें रुई लाभ होता है। से आवेष्टित कर दें। (Moxa) की तरह मोहीदीन शरीफ-किम्बा अत्युष्ण तरल भी रुई का प्रयोगहोता है । फा० ई०१ म खं० । वस्तु द्वारा दग्ध । नादकर्णी-अग्निदग्ध और व्रणादि से वायु अग्निदग्ध ( Burns and Scalds) निष्कासन के अभिप्राय से रक्षक की तरह रुई का अग्निदग्ध एवं अस्युष्ण तरल वस्तु द्वारा दग्ध में स्थानीय उपयोग होता है। श्रामवाताक्रांत संधि तथा कतिपय अन्य शस्त्रसाध्य व्याधियों में वाह्य आदि पर उन अंगों को शीत से बचाने के लिये . प्रयोगार्थ रुई एक अत्युपयोगी भेषज है । रुई एक तथा हानिकर व्यवसायों में मुख एवं नासिका को • ऐसी बहुप्रयुक्त एवं सर्वसुविदित वस्तु है जिसका यहाँ परिचय देना अनावश्यक प्रतीत होता है। सुरक्षित रखने के लिये और छनना रूप से बोतल श्रादि में डाट देने के लिये रुई काम में आती है। आग से जले हुये की यह एक अतीव उपयोगी एवं गृह भेषज है । जिसमें यह प्रायः कैरन प्राइल कीटाणु शास्त्र में कीटाणुओं को निकालने ( Ex. (समभाग चूने का पानी और अलसी का तेल) clude) के लिये इसका व्यवहार होता है, के साथ प्रयोग में आती है। क्योंकि बाहरी हवा क्योंकि यह वातावरण स्थित रोगाणुओं के लिये का स्पर्श न होने देने और तापक्रम को एक समान छनने का काम करती है और क्षत, व्रणादि तक स्थिर रखने के कारण यह व्रणरोपण-क्रिया में पहुँचने में उन्हें रोकती है । व्रणरोपणार्थ यह व्रण सहायक होती है । इन्हीं कारणों से कतिपय अन्य क्षत, जख़्म आदि पर लगाने के काम आती है। व्याधियों, जैसे, वृद्धावस्थाजात गैंग्रीन (Sen नक्सीर फूटने ( Epistaxis) तथा मसूदों से ile-gangrene ) में तथा कतिपय शस्त्र-कर्मों रक्रक्षरण होने पर आग पर पुरानी रुई को जला जैसे, धमन्यर्बुद (Aneuriem) में धमनी कर उसका धूआँ नाक या मुख से खींचे। इसके बंधन इत्यादि के उपरांत भी शरीरांग तथा अन्य उपरांत इसकी पत्ती का स्वरस २ तोला, एक भागों के आच्छादन एवं आवेष्टन के लिए यह एक तोला मिश्री मिलाकर पीवें। ई० मे० मे० पृ. अतीव उपयोगी वस्तु है। उपर्युक्त प्रयोजनार्थ ४०४-५ । इसकीगद्दी बनाकर सदैव प्रातुरालयोंमें प्रस्तुत रखना सर विलियम ह्विटला-मृदुता, स्थिति स्थापचाहिये। अस्थिभग्नोपयोगी खपाचियों के लिये कता आदि अपने भौतिक गुणों के कारण रुई का गद्दी निर्माणार्थ रुई अत्यन्त उपयोगी, सस्ती, उपयोग होता है। जली हुई तथा प्रावला पड़ी सुलभ और उपयुक्त सामग्री है। मे• मे० भै० हुई सतह के रक्षार्थ यह श्राच्छादन प्रदान करती १ म खं० पृ. ५२-३) है । यथा आमवात, वातरक और विसर्प इत्यादि __ खोरी-शोथग्रस्त अंग, पक्षाघाताक्रांत, प्रत्यंग, व्याधियों में शस्त्र चिकित्सा में भी इसका उपस्फीत पद तथा वातरक एवं प्रामवाताक्रांत संधि- ।, योग होता है। प्रस्तु, अस्थिभग्न, संधिस्थान भ्रंश Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपास २०१८ कपास आदि पर बाँधने की खपाचियों पर इसकी गद्दी बनाकर रखते हैं । फ्लैग्मेशिया डोलेंस (टॉग की | सफेद सूजन) में विकृत जाँघ वा टाँग पर धुनकी हुई रुई की एक तह लपेट कर उसके ऊपर श्राइल सिल्ड रखकर पट्टी बाँध देना एक उत्कृष्ट स्थानीय उपचार है। इसी प्रकार कास, न्युमोनिया, और पार्श्वशूल (Pleurisy) आदि में रुई की जाकिट का धारण उपकारी होता है। शोथ या अपक्क फोड़े की तीव्रता निवारणार्थसाफ कपास लेकर, जल में एक घंटा तक भिगो रक्खे, पश्चात् अच्छी तरह निचोड़ कर, टिकियासी बना, एक कटोरी में घी डालकर उसमें वह टिकिया मिला आग पर चढ़ावे । ध्यान रहे धी इतना लेवे कि जिसमें टिकिया अच्छी तरह भीग जावे । जब अच्छी तरह पक जाय, तब उसे सुखा कर शोथ या फोड़े पर रख, बाँध देवे वेदना शीघ्रही दूर हो जावेगी। फोड़ा शीघ्र ही पक जावेगा। किसी वेदना युक्र व्रण पर, इसी तरह बाँधने से अवश्य लाभ होता है। अत्यार्तव या गर्भपात के कारण से स्त्री की जननेन्द्रिय में से रक्तस्त्र ति रोकने के लिये वाह्योपचार की तरह रुई बहुत सफलता के साथ कामयाब होती है । प्रयोग विधि यह है प्रथम तुरत धुनको हुई रुई स्त्री की जननेन्द्रिय में दबाकर भरने को कहें । इससे डाट लगकर रक्क का पाना रुक जाता है। साथ ही भीतरी तौर पर प्राईक स्वरस में शुद्ध की हुई अफीम को एक मात्रा देवें। इससे स्थायी लाभ होते देखा गया है। बिनौलापो०-कार्पास वीजं, तूल शर्करा, कार्पासकोकसं, कार्पासास्थि-सं०। बिनौला, बनौर,कुकटी, कपास का बीज, बेनडर-हिं । बनोला, बनोल:हिं०, द०। हब्बुल् कुन-अ० । पंबहे दानः, पुबहदानः-फ्रा० । काटन सीड्स Cotton seeds-अं०। परुत्ति विरै-ता। पत्ति-वित्तलु, कार्पास-वित्तुलु, प्रत्ति-वित्तुल-ते० । परित्ति-वित्त परुत्ति-बित्त-मल । हत्ति-बीज-कना०। कर्पाशबीज, कप्पास बीज, कपास बी (चि) कपासेर बीज-बं। कापसी, कापुस्, कापूसा-च-बी, सरकी-मरा०।। रु-नु-बीज, कपास-नु-बीज-गु० । कपु-अट्ट-सिंगा। वा-सी-बर० । काँकड़े-मार० । गुणधर्म यूनानी मतानुसारप्रकृति-द्वितीय कक्षा में गरम और तर। हानिकर्ता-वृक्त को। दर्पघ्न-ख़मीरा बनाशा और कंद सफेद । प्रतिनिधि-कुसुम बीज, बादाम और ख़शखास सफेद । मात्रा-बिनौले की गिरी ६ माशा से १ तोला १०॥ माशा तक। __ यह तर, भारी, कफजनक, शुक्रजनक और स्तन्यवर्द्धक है । ता० श० । , छिलका उतारी हुई गिरो वक्ष एवं कोष्ठ मदुकर, उष्ण कास निवारक है तथा दालचीनी और शर्करा के साथ शीतल प्रकृति के लिये और सिकं. जवीन के साथ उष्ण प्रकृति वालों के लिये कामसंदीपन है। (यह श्वासकृच्छता तथा श्वास रोग को नष्ट करती और ) सोने के लिये उपयोगी है। मु० ना० पृ०५६ । ना० मु. पृ० ८३ । यह कामोद्दीपक और वीर्य स्तम्भक है, उदर तथा वक्ष को मृदु करता और गरमी की खाँसी को दर करता है। यह खुनाक़ (इखितनाक) रहम को लाभ पहुँचाता, वीर्य को सांद्र करता और दूध, घी पैदा करता है। इसकी गिरी पीने से कामोद्दीप्त होता है। इसका तेल मईन करने से लिंग दृढ़ होजाता है । इसके तैलाभ्यंग से मॉई और चेहरे के काले धब्बे आदि और क्षत पाराम होते हैं । निविषैल है । म० मु०। इसकी गिरी सीने को मृदु करती और गरम खाँसी को निवारण करती है। उष्ण प्रकृति में सिकाबीन और शीत प्रकृति में दालचीनी और शर्करा के साथ कामोद्दीपक है। मुख-व्रण, माँई, ब्यङ्ग तथा लहसुनादि (गोल काले या ललाई लिए काले चट्टे जो त्वचा से उभरे हुए होते हैं,) मुख रोगों पर इसका तेल उपयोगी होता और योषापस्मार में गुणकारी एवं अत्यन्त मदकारक है। बु० मु०। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपास २०८६ हकीम आबिद सरे - हिंदी ने शरह असबाब के हाशिये पर जियाबेतुस ( बहुमूत्र ) के प्रकरण में लिखा है कि बिनौले को पानी में भिगोकर मलें और उस पानी में मिश्री या खाँड़ मिलाकर श्रग्नि पर यहांतक पकायें कि श्रवलेह सा होजाय, इसमें से प्रतिदिन प्रातःकाल निहार मुँह चाटा करें और इसके तीन घण्टा उपरांत भोजन किया करें, इससे बहुमूत्र (ज़ियाबेतुस ) रोग बिलकुल जाता रहेगा । इसकी अनेक बार परीक्षा की, कभी विफल मनोरथ नहीं होना पड़ा । बिनौले की गिरी और गंधा- बिरोजा इन दोनों को मिलाकर जननेन्द्रिय के छिद्र में धारण करने सेलिंगोत्थान होता है । श्राकारकरभ के साथ भी उक्त लाभ होता है। बिनौला - दूध और घी उत्पन्न करता और श्वास रोग को श्राराम पहुँचाता है । जाड़ों में इसका हरीरा सीने के रोगों को लाभ पहुँचाता है। बारह रत्ती समुद्रफेन को कूट छानकर पौने दो तोला बिनौले की गिरी के तेल में मिलाकर रखें, और आँख में लगाया करें। इसके चिरकाल सेवन से मोटे से मोटा श्राँख का जाला कट जाता है । परीक्षित प्रयोग है । इसका तेल काँई, काले दाग़, चुनचुनों और क्षतों का निवारण करता है । वैद्यों के मत से बिनौला तर और भारी है । यह कफ की वृद्धि करता, वीर्य उत्पन्न करता एवं कफ और पित्त को लाभकारी है, यह शारीरिक ताप, पिपासा, क्रान्ति और मृगी को निवारण करता और स्तन्यबर्द्धक है, इसकी गिरी पुट्ठों को शक्तिप्रदान करती है। इसकी मींगी की खीर पकाकर खाने से कामावसाय दूर होता है, चेहरा दीप्ति होता और उसका रंग निखर श्राता है । शिरःशूल निवारणार्थं बिनौलों की गिरी और पोस्ते के दाने इनकी हरीरा पकाकर खिलाना चाहिये। इससे उपकार होता है । यदि श्रागसे जल जाय वा छाला पड़ जाय, तो बिनौले की मींगी को पीसकर लेप करें। इससे तज्जन्य प्रदाह की शांति होती है । ४२ फाο कपास इसके तैल मर्दन से गठिया-जनित वेदना निवृत्त होती है। बिनौले की गिरी पानी में पीस छानकर चावलों के साथ खीर पकाकर खिलाने से नारी स्तन्य की वृद्धि होती है । २॥ पाव बिनौलों को सवासेर पानी में पकायें जब पाव भर पानी शेष रहे तब उतारकर छानलें । १२ ॥ तोले की मात्रा में, यह काढ़ा शीतका वेग होने से एक या दो घण्टा पूर्व पिलाने से श्रानेवाला ज्वर रुक जाता है। इसकी मींगी का दुधिया पानी प्रस्तुत कर श्रामातिसारी को पिलाते हैं । दबाकर निकाला हुआ बिनौले का तेल लगाने से शरीर त्वग्गत नीले चट्ट े मिटते हैं । बिनौले की गिरी और सोंठ इनको पानी में पीसकर प्रलेप करने से फ्रोतों की सूजन मिटती है। इनको वध में मिलाकर पिलाने से शुष्क का आराम होता है । इनकी मीगों का हरीरा बनाकर पिलाने से पाखाना मुलायम होजाता है । इसका हा प्रस्तुत कर खाने से कामोद्दीपन होता है। उव्याधि निवृत्यर्थ मीगों का दुधिया रस पिलाना चाहिये | मीगों को पीसकर कनपुटियों पर लेप करने से शिरःशूल निवृत्त होता है । बिनौलों को कथित कर गण्डूष करने से दंत शूल मिटता है । तीन तोला विनौलों की गिरियों को पानी में पीसकर पिलाने से धतूरे का ज़हर उतर जाता है। 1 बिनौले की मीगियों को दूध में श्रौटाकर पिलाने से सभी भाँति के जहर उतर जाते हैं । बिनौला ७ माशा रात को पानी में भिगो दें। प्रातःकाल उन्हें पीस छानकर थोड़ा सेंधा नमक मिला पियें। इससे कामला (यर्कान) नष्ट होता है । मींगों को पीसकर रोटी बना बाँधने से बादीका दर्द आराम होता है। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PORE कपास इसकी मींगी को बारीक पीस शहद में मिला आंख में लगायें, तो गई हुई नींद पुनः आने लगती है। इसका तेल खाने के काम आता है। किसी किसी दशा में यह साफ़ किये हुये तेल का भी काम देता है। मालूम हुआ है कि बिनौले का तेल खाने में भी मधुर स्वाद युक्त होता है। इसमें सुगंधि भी खासी होती है। यह सूख जाता है। बिनौले का श्राटा भी तैयार होता है जो गेहूं के माटे से पाँच गुना, मांस की अपेक्षा अढ़ाई गुना शक्तिशाली बताया जाता है । ( खं० अ०२ य खं० पृ० ४३५-६) नव्यमत खोरी-कपास के बीजों कीचाय वा फाण्टविधि-कूटे हुये कपास के बीजों का खौलते हुए प्रत्युष्ण जल में प्रक्षेप देकर, थोड़ी देर रहने दें, फिर उसे वस्त्रपूत करलें, यही बिनौले की चाय वा फाण्ट है। गुण-यह पिच्छिल और स्निग्ध है। अस्तु, अतिसार और रक्कातिसार (Dysentery) में सेवनीय है । यह मृदुरेचक कफ निःसारक एवं स्तन्यवर्द्धक है। अण्डशोथ वा कुरण्ड (Orchitis) पर(२) कपास के बीज और सोंठ समभाग एकत्र पीसकर किंचित् जल मिला और गरम कर लेप करने से शीघ्र लाभ होता है। (मे० मे० इं० २य खंड पृ० ६६) फ्रा० इं० १म भ० पृ० २२५। महीदीन शरीफ़-बिनौला पोषणकर्त्ता (Nutrient) और स्निग्ध (Demulcent ) है तथा पूयमेह, चिरकारी सूजाक (Gleet) चिरकामानुबन्धी वस्तिप्रदाह, क्षय एवं कतिपय प्रतिश्यायिक विकारों पर बीजों का किसी क़दर उत्तम प्रभाव होता है। अकेले की अपेक्षा पूयमेह एवं चिरकालानुबन्धी सूजाक पर बीजों का उस समय अपेक्षाकृत अधिक नियंत्रण उद्भासित होता है, जबकि उनके साथ कतिपय अन्य ओषधि द्रव्य सम्मिलित कर लिये जाते हैं। लेखक ने पूयमेह एवं चिरकालानुबन्धी सूजाक के अनेक रोगियों को | उक्त प्रकार का यह योग सेवन कराया, जिसके। उत्साह वर्द्धक परिणाम नज़र आये। विधि-बिनौला २ से ४ ड्राम तक, जीरा १॥ से ४ ड्राम तक, सौंफ १ से २ ड्राम तक, और बंशलोचन १५ से ३० ग्रेन तक । इनमें से . बंशलोचन को छोड़ और शेष औषधियों को पत्थर के खरल में ३ या ४ श्राउंस जल के साथ घोंट रगड़ कर वस्त्रपूत करले। फिर इसमें बंशलोचन मिला सेवन करें। मात्रा-लक्षण की उग्रता के अनुसार इस पेय को दिन रात में ४-५ बार सेवन करें । मे० मे० मै० : म० खंड पृ० ५२-५३ । डीमक-श्रामातिसार पर अमेरिका में बिनौले का चाय काम में आता है। बीज स्तन्यवर्धक रूप से भी प्रसिद्ध है। फा० इ. १ म खंड पृ०२२६। नादकर्णी-बिनोले स्निग्ध, मृदुरेचक, कफनिःसारक और कामोद्दीपक वा (Nervinc tonic) हैं। बीजों के ऊपर का छिलका निकाल तथा खरल में घोटकर और २ ड्राम (५ से ७मा०) . की मात्रा में दूध के साथ सेवन करावें ।। गुण-यह वात नाड़ो-बलप्रद (Nervinc tonic) है और शिरःशूल एवं मस्तिष्क विकारों में इसका उपयोग होता है । कपास के बीज लैक्टोगाल ( Lactogol ) नामक एक प्रकार के महीन श्वेत चूर्ण के बनाने में काम पाते हैं । जिसको 1 से १ ड्राम को मात्रा में स्तन्यवर्द्धनार्थ व्यवहार करते हैं। बिनौलों का इमलशन-दुधिया घोल वा चाय (घनीभूत क्वाथ ) प्रामातिसार में प्रयोजित होता है। अमेरिका में विषमज्वर या पारी से आने वाले शीत पूर्व ज्वर में सुपरिचित भेषज रूप से इसका सफलतापूर्वक प्रयोग होता है। बीजों का यथा बिधि काढ़ा बनाकर ज्वर चढ़ने के १ या दो घण्टे पूर्व चाय की प्याली भर पिलाने से लाभ होता है, कहते हैं कि अपस्मार में तथा सर्प दंश के प्रतिविष स्वरूप भी बिनौले उपयोगी हैं। भारतवर्ष में कपास के बीज विनौले और संयत राज्य अमे Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपास २०११ कपास - रिका में कर्पास-मूल-त्वक् (त्वक् घटित प्रवाही सार) गर्भशातनार्थ उपयोग में आता है । कुरंड (Orchitis) पर बिनौला और सोंठ सम भाग जल के साथ एकत्र पीसकर प्रलेप करें। अग्निदग्ध एवं अत्युष्ण तरल द्वारा दग्ध (व्रण) पर पुल्टिस की तरह इसका लाभकारी उपयोग होता है। मस्तिष्क को शीतलता प्रदान करने के लिए तथा शिरःशूल निवारणार्थ बीजों से दबाकर निकाला हुआ तेल शिरोभ्यङ्ग की एक उत्कृष्ट वस्तु है। श्रामवातिक संधि-शोथों पर इससे उत्तम मालिश की चीज़ तयार होती है। यह त्वचागत धब्बों के दूर करने के लिए उपयोगी है। कपास के फल और बीजों का काढ़ा धतूरे के जहर का अगद है। इं० मे० मे० पृ० ४०३-४ । नोट-१ भाग बीज में २ भाग जल मिला श्राधा जल शेष रहने पर, १० तोला से २० तो. तक की मात्रा में पिलावें। स्त्री के नष्ट पुष्प पर या अनियमित ऋतुस्राव . पर विनौला के तेल में इलायची, जीरा, हल्दी, और सेंधा नमक प्रत्येक एक २ माशा महीन चूर्ण कर, एकत्र मिला, महीन वस्त्र में बाँध छोटी सी पुटली बना, ऋतुस्राव के चौथे दिन से योनि मार्ग में रखना प्रारम्भ करे, नित्य नवीन पुटली बनाकर रखे । १० या १५ दिन में सब शिकायत दूर हो जावेगी। चि० चं०५ भ० पृ. ४०७। अफीम के विष पर-बिनौला का चूर्ण और फिटकरी चूर्ण समभाग, एकत्र कर खिलावे ।। धतूरे के बिष पर-कपास के बीज, बिनौला, और फूलों को एकत्र जौकुटकर, दुगुना जल मिला अर्धावसिष्ट काढ़ा तैयार कर, बार-बार पिलाबे, अथवा चार तोला कपास के बीजों को सोलह गुने पानी के साथ प्रौटाकर चतुर्थांश जल शेष रहने पर उसे उतार छानकर प्राधे श्राधे घण्टे के अंतर से ऐसी चार तोले की खुराक उस समय तक पिलाते रहें, जब तक धतूरे का बिष नष्ट न हो जाय। हिन्दुस्तान में विशेषतः देशी कपास के बीज पशुओं को और प्रायशः गाड़ी के बैलों तथा दूध देने वाली गौओं को दिन में एक वार १ से | २॥ सेर तक की मात्रा में खाद्य रूपमें दिया जाता है। बिनौलों को केवल जल में भिगोकर उनके सामने रख दिया जाता है। पर बिदेशी बिनौलों में यह बात नहीं, प्रथम तो उनका छिलका बहुत कड़ा होता है और फिर उनमें देशी बिनौलों की तरह मधुरता भी नहीं पाई जाती, फलतः पहले पशु उसे रुचिपूर्वक खाते नहीं, परन्तु जब अभ्यास होजाता है तब वो इसे भी देशी बिनौलों के समान ही प्रेम से खाने लगते हैं। एक बात ध्यान रखना चाहिये; कि इसे पानी में भिगोने से पूर्व चक्की श्रादि में पीस लेना चाहिये । यह वात प्रायः सभी विदेशी बिनौलों के लिए उपादेय है। बिनौले का तेल (Oleum Gossypii Scminis ) Cotton Seed Oil. कपास के बीजों से एक प्रकार का तेल निकलता है । जिसकी विधि यह है । पहले विनौले को रुई श्रादि से साफकर बराबर दो दिन तक धूप में सूखने दें । तत्पश्चात् चक्की में पीसकर इसकी टिकियाँ बनाले, और फिर किसी मज़बूत स्क्रू-प्रेस द्वारा तेल निकलवा लें। ___ यह पांडु पीत वा पीतवर्ण का एवं लगभग निर्गन्ध होता है । स्वाद ( Bland) होता है सुरासार (६०%) में किंचित् विलेय और ईथर क्लोरोफार्म और हलके पेट्रोलियम् के साथ मिलनीय होता है । यदि रखने से यह जम गया हो तो उपयोग से पूर्व इसे मन्द आँच पर गरम करके खूब मिला लेना चाहिये। मात्रा-प्राधे से १ पाउंस चा १५ से ३० मिलिग्राम। गुण धर्म तथा प्रयोग-जैतून तेल के स्थान में इसका उपयोग होता है । सस्ता होने के कारण वहिःप्रयोगों के लिए अन्य तैलों की अपेक्षा यह अधिक पसंद किया जाता है। -मे० मे. घोष । ___ यह तेल पोषणकर्ता एवं मृदुताकारक है तथा यह रगड़ और उद्वर्तन में अतीव उपयोगी है। त्वचा को मुलायम और ढीला करने में इसका बड़ा असर है और यह बालों में लगाने की प्रधान वस्तु है। धब्बों को दूर करने के लिए भी इसकी परीक्षा की जाती है। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपास २०१२ कपास बिनौले की खली हलके भूरे रंग की होती है। जिसमें बीज के छिलके का बहुत भाग होता है। इसका स्वाद फीका और हृल्लासकारक होता है। यह पशु खाद्य एवं खाद के काम आती है। प्रारंभ में इसमें किंचित् मधुर पदार्थ गुड़ादि सम्मिलित कर देने से इसे पशु रुचिपूर्वक खा जाते हैं। कर्पास मूल-त्वक पर्या-कपास की जड़ की छाल । -हिं० । पोस्त बोला पंबः (ना.) Cotton Root Bark काटन रूट बार्क -अं० । गासोपियाई रेडिसिस कार्टेक्स Gossy pii Radicic Cortex -ले। . नोट-एलोपैथी में कर्पास भेद (Gossy pium Herbacium ) जो भारतबर्ष तथा अमेरिका आदि देशों में होता है, उसकी जड़ की छाल ग्रहण की जाती है, इसकी पतली २ लचीली पट्टियां या वक्राकार खण्ड होते हैं, जिनके भीतरी पृष्ठ पर एक भूरे रंग की पीताभ मिल्ली होती है। यह गंध रहित और किंचित चरपरे और कसैले होते हैं। औषध-निर्माणएलोपैथी में-(परिशिष्ट जात औपनिवेशिक एवं भारतीय औषध) सम्मत योग-Official Preparations (१) डिकॉक्टम् गाँसीपियाई रेडिसिस कॉर्टीसिस Decocrum Gossy pii Radicis Corticis -ले। डिकाक्शन श्राफ काटन रूट-बार्क Decoction of Cotton Root Bark -अं०। कार्पासी मूल-त्वक्वाथ-सं० । कपास की जड़ की छाल का काढ़ा -हिं। मत्बूख पोस्त पंबः । जोशांदहे पोस्त बीन पबः -फ्रा० निर्माण बिधि-४ श्राउंस कपास की जड़ की छाल को २ पाइंट पानी में इतना क्वथित करें कि कुल १ पाइंट रह जाय। पुनः इसे वस्त्र पूत ssy pii Radicis Corticis Liquis dum-ले। लिक्विड एक्स्ट क्ट श्राफ काटन F2 Liquid Extract of Cotton Root-अं०। कर्पास-मूल प्रवाही सार-सं०। कपास की जड़ की छाल का प्रवाही सत्व । खुला:सहे पोस्त बीख़ पंवः सय्याल -फा० । निर्माण बिधि-कपास की जड़ की छाल का ३० नम्बर का चूर्ण २० पाउन्स, ग्लीसरीन ५ फ्लुइड पाउंस, सुरासार (8००/.) आवश्यकतानुसार । ग्लीसरीन को १५ फ्लुइड पाउंस सुरासार में मिलाकर और उसमें से १० श्राउंस लेकर उससे चूर्ण को क्लोदित करें और परकोलेटर में स्थापित कर ४८ घटे तक रखा रहने दें। फिर उसे इतना परकोलेट करें कि छाल सर्वथा एग्झाष्ट हो जाय | प्रथम १४ श्राउंस परिसु तद्रव को पृथक करके उसे आँच पर इतना उड़ाएँ कि वह मृदु सारवत् शेष रह जाय । पुनः इसे १४ अाउंस पृथकीकृत् द्रव में विलीन करके इतना और सुरासार सम्मिलित करें कि कुल द्रव्य मान एक पाइंट हो जाय । मात्रा-1 से १ फ्लुइड ड्राम । असम्मत योग ( Not official Preparations ) (१) एक्स्ट्रक्टम गासीपियाई रोडसिस कार्टिसिस Extratum Gossy pii Radicis Corticis-ले। कास-मूलत्वक रसक्रिया । कपास की जड़ की छाल का सत । रुब्ब पोस्त बोल पंवः (फ्रा०)। नोट-यह एक ईषत् सुरासारोय योग है। मात्रा-१ से ४ ग्रेन । (२) पिल्युला गासीपियाई कंपाजिटा Pilula Gossypii Composita-ato 1 मिश्रित कार्पास वटिका । हब्बुल् कुन मुरकब । निर्माण विधि-एक्सट क्टम्, गासीपियाई कार्टिसिस, एक्सट्रक्टम् हाइड्राष्टिस, प्रोटीन प्रत्येक १ ग्रेन । इनकी एक वटी प्रस्तुत करें और ऐसी एक-एक वटी दिन में तीन या चार बार दें। कन्जष्टिम डिस्मेनोरिया (रकावष्टंभ जनित कष्ट रज) में उपकारी है। कर लें। मात्रा–प्राधे से १ फ्लु० अाउंस । (२) एक्स्ट्रक्टम् गासीपियाई रेडिसिस । कार्टीसिस लिकिडम्-Extractum Go-| Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपास २०६३ कपास परीक्षित डाक्टरी प्रयोग (1) एक्सट्रक्टम् गासोपियाई एपियोल ३ मिनिम दोनों की एक गोली बनायें और ऐसी १-१ गोली दिन में दो बार दें। उपयोग-कटरज में उपयोगी है। (२)एक्सटै क्रम्गासोपियाई लिक्विडम् १५ मि० टिंक्च्युरा सिमिसिक्युगी १५ मि. स्पिरिटस क्लोरोफार्माई १० मि० इन्फ्युजम् वेलेरियानी पाउंस तक ऐसी एक-एक मात्रा दिन में तीन बार दें। कष्ट रज में कल्याणकारी है। गुणधर्म कपास मूल और मूल त्वक रजः प्रवर्तक तथा स्तन्य जनन है । (ई० मे० मे०-नादकर्णी) गर्भाशय उत्तेजक, आर्तव जनक और स्नेहन है। इसकी क्रिया गर्भाशय पर 'अरगट को अपेक्षा उत्तम होती है, गर्भाशय का उत्तमतया संकोचन होकर रक्तस्राव बंद होता है। गंडमाला, अपची और स्तनरोगादि निवारक है। . कर्पास-मूल मूत्रल, रजः प्रवर्तक और स्निग्धता संपादक ( Demulcent ) है।-( Atkin son) . आमयिक प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसार चरक-कुष्ठ रोग में कार्पासी त्वक् एवं पुष्पकपास को जड़ की छाल और पुष्प को पीसकर कुष्ठ पर प्रलेप करें । यथा "त्वक् पुष्पं कार्पास्याः । पिष्ट्वा चतुविध: कुष्ठनल्लेपः” (चि० ७ १०) वृन्द-कफजातिसार में कार्पासीमूल स्वरसकपास की जड़ की छाल का रस मधु के साथ कफातिसारी को पान करना चाहिये । यथा"तद्वत् कापास पर्कट योः स्वरस: समधुर्मतः" (अतिसार-चि०) चक्रदत्त-श्वेत प्रदर में कार्पासीमूल-पाण्डु या कफजनित श्वेतप्रदर ग्रस्त नारी को कपास की जड़ की छाल चावल के धोवन में पीसकर पीना चाहिये । यथा "*मूलं कार्पासमेववा।पाण्डुप्रदर शान्त्यर्थं प्रपिबेत तण्डुलाम्बुना" (असृग्दर-चि०) नव्यमत अमेरिका में गर्भाशयगत रोगों में अर्गट की जगह इसका बहुल प्रयोग होता है। अस्तु, इसका काढ़ा गर्भशातक, अाशुप्रसवकारक और रजः प्रवतक रूप से व्यवहार किया जाता है। शिशु प्रसव काल में इसके सेवन से गर्भाशयिक द्वार खुल जाता है। इसको कष्टरज रजः रोध एवं गर्भाशयिक रक्तस्त्राव में वर्तते हैं और गर्भशातनार्थ भी इसका उपयोग करते हैं। नोट-अमेरिका देश वासी ललनाएँ गर्भशातनार्थ इसकी छल बहुलता के साथ काम में लाती थीं, इसलिये वहाँ के डाक्टरों ने विस्तृत परीक्षण करके इसको वहाँ के फार्माकोपिया में सन्निविष्ट कर लिया । ( म० अ० डा०) ___ कपास की जड़ छाल एवं मूलस्वक निर्मित प्रवाही सार ये दोनों संयुक्त राज्य अमेरिका की फार्माकोपिया में आफिशल-अधिकृत हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि स्त्री-हबशियों को गर्भशातनार्थ इसका उपयोग करते देखकर ही प्रथम तद्देशीय चिकित्सकों का ध्यान इस ओर आकृष्ट हुवा। इसमें किंचिन्मात्र भी संदेह नहीं कि यह गर्भाशय पर 'अर्गटवत् प्रभाव करता है और पीड़ितार्त्तव तथा शीतजन्य अनात्तव में उपयोगी है। इस हेतु इसका काढ़ा काममें पाता है जिसके प्रस्तुत करने की विधि यह है काथ निर्माण विधि-कपास की जड़ की छाल १० तोला लेकर जौकुट कर ६० तोला जल में मिला श्राग पर चढ़ावें। जब ३० तोला जल शेष रहे, तब छान कर २॥ तोला या ५ तोला की मात्रा में दिन में ३-४ बार पिलावें । यदि रोग की तीव्रता ज्यादा हो तो २०-२० मिनट वा श्राध श्राध घंटे में इसे पिलाना चाहिये। प्रारम्भ में इसकी मात्रा बड़ी अर्थात् ६ से ७ तोला तक की देवे, बाद में कम करे । ३० से ६० बूंद तक की मात्रा में इसका प्रवाही सार इंडियन मेटीरिया मेडिका के अनुसार टिंक्चर भी व्यवहार किया जा सकता है। (फ्रा. इं० १ भ०-डी, पृ. २२५-६) Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपास २०६४ कपास नोट-इसका काढ़ा प्रसवोत्तर देते हैं । इससे गर्भाशय का उत्तम रीति से संशोधन हो रक्तस्राव नहीं होता, आर्तव साफ हो और गर्भाशय शैथिल्यजन्य कष्ट, ज्वर शूल श्रादिकी शांति होती है। बच्चा होने के उपरान्त जब जाल गिर जावे तब ही इसका काढ़ा पिलाना चाहिये यदिअाधेघंटे में गर्भाशय शैथिल्य दूर न हो, तथा नाड़ी को गति तीव्र हो, तो पुनः इसो काढ़े की एक मात्रा देनी चाहिये । डा० नादकर्णी के अनुसार यह स्त्रियों के हरित रोग में भी उपकारी है। ध्यान रहे सगर्भा स्त्री को यह काढ़ा कदापि न देना चाहिये। ___ गर्भाशयिक विकृति में जड़ की छाल का स्वरस ३० से ६० बूंद तक पिलायें अथवा उपयुक्र काढ़े का उपयोग करें। ई० मे० मे। गर्भाशय के शूल निवारणार्थ स्त्री को जड़ की छाल के काढ़े में बिठाकर कटि-स्नान कराते हैं। डी० । ई० मे० मे० पृ० ४०३ । इसकी जड़ का काढ़ा पिलाने से मूत्रोत्सर्गकालीन प्रदाह एवं शूल का निवारण होता है। __ योषापस्मार में इसके काढ़े में बैठने से उपकार होत्म है । इससे वेदना शांत होती है। (ख. अ.) __ स्तन में दूध पाने के लिये कपास को जड़ और ईख की जड़ समभाग, एकत्र काँजी में पीस सेवन करावे। स्तन-रोगों पर (स्तनव्रण एवं सूजन ) पर कपास की जड़ ओर लौकी को, गेहूं को बनाई हुई काँजी में पीसकर लेप करे। गर्भपात कराने के लिये संयुक्त राज्य अमेरिका में कपास की जड़ की छाल ( मूलत्वक् निर्मित प्रवाहीसार ) काम में श्राती है। __ अनार्त्तव वा रजोरोध में 'इलाजुलगुर्बा' में यह काढ़ा उपयोगी लिखा है काढ़े की विधि-कपास की जड़ को छाल २ छटाँक लेकर जवकुट कर एक सेर पानीमें मिला आग पर चढ़ावें । जब ४ छटांक जल शेष रहे, तब उतार छानकर उसमें अंदाज की चीनी मिलाएं। मात्रा-२॥ तोला से ५ तो० तक दिन में दो | बार। खोरी-कर्पास की जड़ की छाल का काढ़ा । गर्भस्रावकारी, प्रार्त्तव-प्रवर्तक एवं त्वरित प्रसव कर्ता है । विलम्बित प्रसव में लुप्तप्राय प्रसववेदना के पुनरानयनार्थ इसका उपयोग किया जाता है । अनार्तव वा रजोरोध, कष्टरज एवं गर्भाशयिक रक्त पात के निवारणार्थ तथा गर्भपात कराने के लिए भी इसका उपयोग करते हैं।-मे मे० इं० २य खं० पृ. ६६ । स्त्री रोगों में, जिनमें प्राशु कार्य-कारित्व उतना श्रावश्यक नहीं । कपास को अपेक्षा अर्गट कहीं अधिक श्रेयस्कर एवं निरापद है और इस कारण भी कि उसके सेवनोत्तर कोई अप्रिय प्रभाव नज़र नहीं पाता और न उसका कोई हानिकर गौण प्रभाव ही होता है। जैसा कि अर्गट के अंतः त्वगीय वा मौखिक दीर्घकालीन प्रयोग के उपरांत देखने में श्राता है। इ० मे० ग०, नवंबर, १८८४ पृ० ३३४-५। देवकपास वा नरमा (Gossy pium Arboreum, Linn Gossy pium Religiosum, Roxb.) -ले। Silk Cotton tree, Religions Cotton tree. -अं० । Fairy Cotton bush Sacred Cotton bush, Cotonnierarborescent,Cotonnier desnonnes -फ्रां I Chinesisehe Baum wollenstande -जर०। नरमा, मनवाँ, : देवकपास, रामकपास, लालकपास, हिं। कार्पास वर्ग (N. 0. Malvaceæ.) उत्पत्ति-स्थान एवं वर्णन-इस जाति की कपास घरों तथा उद्यानों में शोभा के लिए लगाई जाती है । भारतवर्ष के अनेक भागों में इसकी काश्त होती है। अपने गंभीर रक्तवर्ण के पुष्पों के कारण यह हिन्दू देवालयों के समीप साधु की कटियों और उद्यानों में लगी हुई यह प्राय: देखने में आती है। इसका लघु पौधा रक-रंजित और तना ऊँचा एवं झाड़ीदार होता है, जिससे यह पहचानी जाती है। बंगाल ओर दक्षिण चीन में Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपास २०१५ कपास इसका आदि उत्पत्ति स्थान है। यह ऐलीबीज मूत्र में धातु जाती हो तो देवकपास के २-३ टापू, अरब और मित्र में भी होती है। पत्ते और थोड़ी मिश्री, नित्य प्रातः सायं चबाकर खावे । देवकपास का पौधा साधारणतः झाड़ीदार अर्श पर देवकपास के पत्तों का रस ३ तो० तक (Arborens), लगभग १२ से १५ फुट (कहीं कहीं ६ से ६ फुट) को ऊँचाई का वड़ा गाय के दूध के साथ सेवन करें। वृक्ष सा होता है, और कई वर्षों तक रहता है। आगंतुक ज्वर पर देवकपास के पत्ते गोदुग्ध के साथ पीसकर, तथा गरमकर, शरीर पर लेप करें। इसके तुद्र भाग लोमश होते हैं और समग्र सुप व्रण रोपणार्थ देवकपास के कोमल पत्ते और रकवर्ण रंजित होता है। पत्ते करपत्राकार पंच पानड़ी के पत्ते बाँटकर बाँधे । वा सप्तखंड युक्त, लोमश, गम्भीर हरे रंग के धब्धे अफीम के विष पर देवकपास के पत्तों का रस से अंकित; खंड गंभीर कटावदार, दीर्घाकार, भाला पिलावे । कार और क्वचित् (Mucronete) होते हैं । कच्चे फल (बोंड़) (Sinus) अधिक कोणी प्रतीक्ष्ण और ग्रंथियां बालक के अतिसार पर देवकपास के बोंड़ को १ से ३ तक होती हैं । (Stipules ) अंडा गोबरी की गरम-गरम राख या भूभल में दबाकर कार; पुष्प एकांतिक, लघुवृन्तयुक्त, रक्तवर्णीय और १५ मिनट बाद निकाल तथा कूट पीसकर स्वरस पंजे ( Claws ) के समीप किंचित् पीत-वर्ण निकाल पिलावे अथवा बालक की माता को उस रंजित होता है । कुण्ड (Calyx) पत्रक हृद- बोंड़ को अपने मुख में चबाकर, उसकी पीक याकार, अंडाकार, धार समान और क्वचित करात बच्चे के मुख में डालना चाहिये । दंतित होता है। ढेढ़ (Capsules) अंडाकार तीन श्रामातिसार पर इसके कच्चे डेढ़ के भीतर या चार तीक्ष्णाग्र, कोषयुक्र, बीज किंचित् हरे रंगके मात्रानुसार अफीम तथा जायफल भर कर पुटपाक रोमों से व्याप्त और उत्तम महीन रेशमवत् श्वेतवर्ण की विधि से पका सेवन करने से बड़ा उपकार को रूई से परिवेष्टित होते हैं। होता है। सखाराम अर्जुन। (इ० मे० मे. इसके पत्ते और बोंड़ सर्वसाधारण कपास के पृ. ४०५, इ.मे. प्लां०) पत्ते और बोंड़ की अपेक्षा बड़े होते हैं । बीज और कामला पर देवकपास के बोंड़ का रस नाक में बिनौला, साधारण कपास के विनौला जैसा किंतु डाले या नस्य लेवे। कुछ बिशेष हरितवर्ण का होता है। प्रायः इसकी काश्त नहीं होती; और न यह बंगाल में इसकी रूई के सूत से यज्ञोपवीत मालूम होता है कि बड़े पैमाने पर यह बोया बनता है । (६० मे० मे० पृ० ४०५) जाता है। जड़ व्रणरोपणार्थ कोंकण में इसकी जड़ को पानड़ी गुण धर्म तथा प्रयोग के पत्तों ( Patchouli leaves) के रस में प्रागुक्त साधारण कपास के गुणधर्म इसमें पाये पीसकर प्रलेप करते हैं । (डी० १ खं०) जाते हैं, इसमें स्निग्धता विशेष होती है। इसके बिच्छू के दंश पर देवकपासको जड़का मनुष्यके पत्ते और जड़ लेप करने के काम में विशेष मूत्र में पीस, दंश-स्थान पर लेप करें, तथा पत्तों पाते हैं। को बाँट कर जहाँ तक दर्द हो वहाँ तक मर्दन करें। ज्वर के पश्चात् त्वचा की रूक्षता या खुजली बनकपास दूर करने के लिये देव कपास के पत्तों के रस में पर्या-अरण्य कार्पासो, वनजा, भारद्वाजी, कालीजीरी ( Vernonia anthelm in वनोद्भवा ( रा. नि०, भा० प्र० भरद्वाजी, वनtica) पीसकर शरीर पर उबटन सा लगावे, कार्पासी, त्रिपर्णा, वनोद्भव कार्पास, भाजी, बाद ३ घंटे के स्नान करे । डो० १ म० पृ०। । यशस्विनी, वन सरोजनी, बहुमूर्ति (२० मा०) Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांस कपास sans वनकार्पासिका-सं० । वन कपास, जंगली कपास, नरमावाड़ी-हिं० । वन कापासी, वन ढयाँस, वन कावास, वन कार्पास-बं० । हिबिस्कस ट्रकेटस Hibiscus Truncatus Roxb| हिबिस्कस वाइटि फोलियस Hibiscus Vitifolius, Roxd-o the wild cotton अं० । कार्पासामु, पत्ति अड़वी पत्ति, कोंडापत्तिते । काट्ठा कापसि, राण कापासो, रान कापुसो, रान भेंडी, सरकी-मरा० । कड हत्ति, काड हत्तिकना०, का0 | वन कार्पास-कों० । हिरवा कपासिया-गु० । नांदण वण-राजपु० । रान भेंडी बम्ब० रोंडा-पत्ति-मद०, ते । हिबिस्कस लेम्पस Hibiscus Lampas, धेसपासिया लेम्पस Thes pasia Lampas, Dabz __ कार्पास वर्ग (N. O. Malvacee) उत्पत्ति-स्थान एवं वर्णन-यह देव कपास की जाति की ही एक वनस्पति है जिसका रुप फैलनेवाला या वृक्षों के सहारे ऊपर चढ़नेवाला होता है । कुमायूँ से पूरब और बंगाल तक हिमालय के उष्ण कटिबंध स्थित भागों तथा खानदेश और सिंध प्रांत में एवं पश्चिमी प्रायद्वीप में बन कपास बहुत होती है, पत्ते छोटे-छोटे फूल १॥ इंच लम्बे (फूलों का वर्ण सबका एक समान पीला होता है) ताजी अवस्था में पोत वर्ण के, पर सूखने पर गुलाबी रंग के हो जाते हैं । इसको कपास कुछ पिलाई लिये होती है। बन कपास के बोज कुछ विशेष लम्बे ओर कृष्ण वर्ण के होते हैं। वनोषधि-दर्पणकार के अनुसार बंगदेश में इसे "बन ढाँडश" कहते हैं। उनके अनुसार इसका वृत एवं फल देखने में ठीक ब्याढ़स (ढेंढस) अर्थात् मिडी के वृतोर फज को तरह मालूम पड़ता है । भेद केवल यह है कि इसका फल भिंडो को अपेक्षा किंचित् क्षुद्रता होता है । बोज देखने में वृक्काकार (G) एवं रून कृष्ण वर्ण का ओर फल गात्र अतिसूक्ष्म रेखाबंधुर होता है। पक्र शुष्क बीज के मर्दन करने से कस्तूरी को सो गंध पाती है। कलकत्ता के वणिक इसी को लता कस्तूरी - कहकर बिक्रय करते हैं। लेखक ने इसकी निम्न लेटिन संज्ञाएँ दी हैं। इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह जंगली भिंडी ही है और बन कपास इससे भिन्न कोईऔर ही चीज है। हमने इससे पूर्व जिस पौधे का वर्णन किया है, वस्तुतः उसे ही बनकपास कहना उचित जान पड़ता है। औषधार्थ व्यवहार-पत्र, फल और मूल __ मात्रा-मूलत्वक् कल्क ३ से ६ आना । पत्र स्वरस-१ से २ तोला। गुणधर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसार'भारद्वाजी' हिमा रुच्या व्रण शस्त्र क्षतापहा । _ (राजनिघण्टु) वनकपास-भारद्वाजी शीतल, रुचिकारी है तथा यह व्रण, शस्त्र-क्षतादि नाशक है। . भारद्वाजी हिमा रुच्या व्रण शस्त्र क्षतापहा । रक्तरोगं च वातं च नाशयेदिति निश्चितम् ।। (भा०) अर्थ-भारद्वाजी शोतल, रुचिकारी, व्रण और शस्त्र जन्य क्षत को नष्ट करती तथा रुधिर विकार एवं वादी को दूर करती है। . प्रयोग चक्रदत्त-स्तन्य वद्धनार्थ अरण्यकार्पासो मूल-बन कपास और ईख की जड़ प्रत्येक सम भाग ले, कॉजी के साथ पीसकर ६ माशे की मात्रा में सेवन करने से प्रसूता नारी के स्तनों में दूध बढ़ता है । यथा"बनकासकोक्षणां मूलं सौवोरकेणवा ।" 'स्त्री रोग-चि.) वङ्गसेन-अपची और गण्डमाला पर अरण्य कार्पासो मूल-बनकपास को जड़ को छाल का बारीक चूर्ण, चावल के आटे के साथ समभाग मिला, पानी से गूध कर, छोटी-छोटी टिकिया बना, तवे पर रोटी के समान सेंककर वा गोघृत में पूडो बनाकर खाने से अपचो नष्ट होती है । यथा"बन कासिजं मूलं तण्डुलैः सह योजितम् । पक्तवाऽऽज्ये पूपिकांखादेदपचीनाशनायच ।" (गण्डमालादि-चि.) Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपासे २०१७ घरक के बृहणीय वर्ग सूत्र-स्थान चतुर्थ अध्याय अर्थात् यह कफ, कृमि रोग, उदर रोग और में भारद्वाजी का पाठ पाया है। हृद्रोग का नाश करती है। नव्यमत कृष्णकार्पासिका कट्वी चोष्णा हृद्रोगनाशिनी । कैम्प-बेल-पूयमेह और फिरङ्ग रोग पर- कृमि मलं चामवातं उदरं चार्शक हरेत् ॥ इसकी जड़ और फल काम में आता है । इसकी (भा०) प्रकृति उष्ण और रूक्ष है । पर कोई कोई शीतल अर्थ-यह स्वाद में चरपरी तथा गरम है और और कोई तर बतलाते हैं। रविवार को उखाड़ी हृद्रोग, कृमि, मल, आमवात, उदर, एवं बवासीर हुई जड़ चाबने से बिच्छू का ज़हर उतरता है। इन रोगों को दूर करती है। इसके पत्तों को तिल-तैल में पकाकर लेप करने से नोट-पूर्वोक्त कपासों के अतिरिक्र एक प्रकार बादी का दर्द नष्ट होता है। वैद्यों के अनुसार की कपास और है। जिसे 'पीली कपास" कहते जंगली कपास (रुई) शीतल, मुख के स्वाद को हैं और जिसका गोंद कतीरा" कहलाता है । वि० सुधारनेवाली और क्षत के लिए गुणकारी है। दे. "पीली कपास"। -ख००। | कपास-[बं०] रूई। काली कपास कपास-का-झाड़-[द०] कपास । पर्या-कालाञ्जनी, अञ्जनी, रेचनी, असि कपास कुहिरी- म०] केवाँच । ताजनी, नीलाञ्जनी, कृष्णाभा, काली, कृष्णाञ्जनी कपास-नु-झाड़-[गु०] कपास । (रा०नि०), कृष्ण कार्पासिका कृष्ण कार्पासी, कपास-नु-बीज-[ गु० ] बिनौला । कपास का बीया । कृष्णकार्पास, शिलाअनी, काली, -सं० । काली कपास -हिं० । कालिकाासिकनी ( तुला), | कपास-बीज-संज्ञा पुं० [हिं० कपास+सं० बोज] बिनौला। काल कापास-बं० | Gossypium Nigr कपासी-संज्ञा स्त्री० [देश॰] (1) एक मझोले um-ले० । काली कापशी -मरा० । हिंखणी डील डौल का एक पेड़ जिसे भोटिया बादाम कपाशिया-गु०॥ • कहते हैं। इसका फल खाया जाता है और . (N. O. Malvaceoe ) बादाम के नाम से प्रसिद्ध है। फिंदक (२) यह देव कपास की जाति का ही एक पौधा है एक प्रकार का छोटा झाड़ या वृक्ष जो प्रायः सारे विशेष विवरण के लिए पासान्तर्गत टिप्पणी भारत, मलयद्वीप, जावा और आस्ट्रेलिया में अवलोकन करें। पाया जाता है । यह गरमी और बरसात में फूलता ___ गुणधर्म तथा प्रयोग और जाड़े में फलता है, इसके फलको 'मरोड़फली' कहते हैं। आयुर्वेदीय मतानुसार कपास्या-[ राजपु.] कपास । कालाञ्जनी कटूष्णा च मलामकृमिशोधनी। कपि-संज्ञा पुं॰ [सं० पुं०, स्त्री.] (1) बंदर । अपानावर्त्तशमनी जठरामय हारिणी॥ वानर । रत्ना० । (२) शिलारस नाम की सुगं(राजनिघण्टु ४ वर्ग) धित ओषधि । सिलक । रा०नि०व०१२। अर्थात् काली कपास चरपरी एवं उष्ण है और | (३) अमड़ा। आम्रातक । (४) केवाँच । यह मल ( पाठांतर से अम्ल ) श्राम तथा कृमि शुकशिम्बी। (५) कंजा । करंज विशेष । श. नाशक और अपानवायु के श्रावर्त को शमन करती च०। (६) लालचन्दन । (७) सूअर। वराह । तथा जठर रोगों का नाश करती है। (८) धूप। (6) हाथी। गज। (१०) कृमिश्लेष्मोदरहरा हृद्रोग हारिणी । कोकिल । (११) सूर्य । (१२) आँवला । (द्रव०नि०) श्रामलको । (१३) पिंगलवर्ण। ४३ फा० ___कार्पास वर्ग Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपिक २०१८ कपित्थका वि० [सं०नि०] पिंगलवर्णयुक्त भूरा। वि० [सं० त्रि०वानरजात । बन्दर से कपिक-संज्ञा पुं० [सं०] शिलारस । उत्पन्न । कपिकच्छु, कपिकच्छू-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] कौंछ | कपिजविका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] तैल पिपीलिका । करेंच । केवाँच । शूकशिंबी । यथा-"कपिकच्छवा श० च० । तिलचट्टा । थवा तप्तम्" । सि. यो. उन्मा० चि०। | कपिञ्जल (क)-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (1). कपिकच्छुफल-संज्ञा पु० [सं० वी० ] केवाँच की चातक । पपीहा । (२) तीतर । गौर तित्तिरी । फली । केवाच । जैसे-'कपिजल इति प्राज्ञैः कथितो गौर तित्तिरीः'। कपिकच्छुपलोपमा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] जन्तुका भा०। जतुकालता । एक प्रसिद्ध लता जो मालवा देश में गण-इसका मांस ठंडा, मीठा और हलका होती है। पापड़ी। रा०नि० व० ३। पद्मावती है। अस्तु, रक्तपित्त, रक्त श्लेष्म विकार और मन्द कृष्णवल्लिका | कृष्णरुहा । नि०शि०।। धात विकार में उपयोगी है । च० द० । राजनिघंटु कपिकच्छुरा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] केवाँच । करेंच। कार के अनुसार इसका मांस गौरे (चिड़ा)के मांस मर्कटी । बानरी । कौंछ । प० मु.। से शीतज वृष्य और रुचिकारक होताहै । रा०नि० कपिकच्छू-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] केवाँच । बानरी। व०१७ । इसका मांस सर्वदोष नाशक, वर्ण्य, कपिकन्दुक-संज्ञा पुं० [सं० वी० ] खोपड़ा । कपाल। प्रसन्नताकारक और हिका तथा वायु रोग नाशक है। गौर तित्तिरी ( सफेद तीतर ) अन्यान्य तीतर सिर की हड्डी । श० च.।। कपिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] नीला सँभालू । की अपेक्षा अधिक गुण होता है। (सुश्रुत) नीलसिन्धुवार वृक्ष | नीला सँभालू । रा०नि० (३) शिलारस । (४) किसी-किसी के मत से काकातूश्रा । (५) गौरा पक्षी । (६) भरदूल । व० ४ । (२) मदार । अर्कवृक्ष ! रत्ना० । भरुही। कपिकोटे-[ ता० ] कहवा । काफी । वि० [सं०नि०] पीला । पीले रंग का | हर कपिकोलि-संज्ञा पुं॰ [सं० पुं०] एक प्रकार का | ताली रंग का। बेर । शृगाल कोलिका । शेयाकुल (बं०)। कपिञ्जला-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] एक प्रकार का २० मा०। शालि धान्य । यह कफ वद्धक होता है। अत्रि. कपिखेल-संज्ञा स्त्री० [सं० कपिलता ] केवाँच । कौंछ। १५०। कपिन्धिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] गजपीपर। कपित-[ मरा० ] कमीला । कबीला । गजपिप्पती। संज्ञा पुं० [सं० ? ] छोटी इलाइची । ई० कपिचम्बल-संज्ञा पुं॰ [सं० पुं०] शिलारस । मे० मे०। तुरुष्क | शब्दर-। कपितैल-संज्ञा पुं॰ [सं० क्री० ] तुरुष्क नाम की कपिचूड़-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] श्रामड़ा । अाम्रातक- सुगंधित श्रोषधि । भा० शिलारस । रत्ना० । वृक्ष । रा०नि० १० ११ । कपित्थ- । संज्ञा पु [सं० पु.](१) कैथ । कपिचूड़ा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] दे॰ 'कपिचूड़"। कपित्थक- (२) कैथ का फल । रा०नि० व. कपिचूत-संज्ञा पुं० [सं० पु.](1) अश्वत्थभेद। . ११। अत्रि० सं० १७ अ०। सु० सू० प्र० एक प्रकार का पीपल । पलाश पीपल । (२) ४० । भा० दे० 'कैथ' । (३) पीपल का वृक्ष । गजहुण्डसहोरा । भा० पू० १ भ० वटा०व०। अश्वत्थ वृक्ष। (३)श्रामड़ा । पाम्रातक वृक्ष। त्रिका | संज्ञा पुं० [सं० वी० ] एलवालुक । रा० कपिच्छ-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] स्वर्ण । सोना। नि०। कपिज-संज्ञा पुं० [सं० पु.] शिलारस। सिलक । कपित्थका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] पिठवन ।पृष्ठपर्णी सुरुष्क । रा०नि०० १२ । नि०शि०। Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपित्थ-da २०६६ कपित्थ-तैल-संज्ञा पुं० [ स०ली० ] कैथ के बीज से निकाला हुआ तैल । की ० ] ( १ ) । ( २ ) कैथ गुण-- यह कसेला. स्वादु और चूहे के विष को दूर करता है । वै० निघ० । कपित्थ त्वक्-संज्ञा स्त्री० [सं० एलवालुक । रा० नि० व० ४ की छाल । कपित्थ-निर्यास-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] कैथकागोंद । कपित्थ-पत्र - संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] एलवालुक | एलाफल । नि० शि० । संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक प्रकार का वृत्त, जिसकी पत्तो कैथ की तरह होती है । प० - कपित्थानी । कपित्थाली । कवटपन्नी । ( मरा० ) कैतपत्री - ता० श० | गंधबिरजार गाछ–बं० । रत्ना० । 1 कपित्थ-पत्र - कपित्थ-पत्रीकपित्थ-पर्णी गुण - यह तीच्ण, गरम, पाक में कटु और कसेलो तथा तिक रस युक्र है । यह कृमि, कफ, मेद, प्रमेह, विष एवं स्नायु रोग नाशक है। वै निघ० । संस्कृत पर्य्या० – विराजा, सुरसा और चित्र To पत्रिका | गुण-यह स्वाद में तीच्ण है । प्रकृति - प्रथम कक्षा में उष्ण और रूक्ष है । कफोल्वणता और शुक्र स्त्रव को उपकारी है। ख० अ० । यह गरम तर है, एवं बिष के प्रभाव तथा कफ प्रकोप और शुक्र क्षय को दूर करती है । ता० श० । कपित्थ-फल-संज्ञा पुं० [सं० नी० ] कैथ। कठबेल । कपित्थानक- संज्ञा पुं० [सं० कपित्थार्जक ] सुरंजान बिशेष | कपित्थादिकल्क - संज्ञा पुं० [सं० क्री० ] एक प्रकार का योग जो स्त्री रोग में प्रयुक्त 1 योग — कैथ और बाँस के पत्त े एक साथ समान भाग पीसकर, एक तोला के मात्रा में शहद के साथ पीने से दुःसाध्य प्रदर को दूर करता है । वृ० नि० २० स्त्री रोग चि० । कपित्थादि चूर्ण-संज्ञा पुं० [सं० क्ली० ] उक्त नाम का एक योग । विधि - कैथकी शुष्क गिरी, सोंठ, मिर्च पीपल इन्हें समान भाग लेकर चूर्ण करे । कपित्थाष्टक मात्रा -१ से ४ मा० । गुण- इसे शहद और मिश्री के साथ सेवन करने से उदर रोग शांत होता है । च० चि० १० श्र० । कपित्थादि पेया - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] उक्त नाम का एक योग । निर्माण - बिधि – कैथ की गूदी, बेल की गूदी चाँगेरी, अनार दाना और तक्र से प्रस्तुत की हुई पेया ग्राहिणी और पाचन होती है। यदि वात की प्रबलता हो, तो इसे पंचमूल के काथ सिद्ध करके पीना चाहिये । च० सू० श्र० ३ । कपित्थादि योग-संज्ञा पु ं० [सं० पु ं० ] उक्त नात का एक योग, जो ग्रहणी और अर्श में दिया जाता I विधि - कैथ और बेल की गूदी, सोंठ और सेंधानमक इन्हें समान भाग लेकर चूर्ण करें । और इसमें से उचित मात्रा लेकर सेवन करने से उक्त लाभ होता है। वसवरा०: १४ प्र० पृ० २३० : कपित्थानी -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] कपिस्थानी | गंधा बिरोजे का पेड़ । कपित्थान -संज्ञा पुं० [सं० पु० ] श्राम्र भेद । एक प्रकार का श्राम । वै० निघ० । कपित्थाज्जक-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] एक प्रकार की तुलसी । सफेद तुलसी । श्वेतार्जक ( मद० व० ३) बबुई तुलसी । खजाइनुल् श्रद्विया के रचयिता के अनुसार यह एक प्रकार का सुरंजान है । वे लिखते हैं- वैद्य कहते हैं कि यह तीच्या, शीतल और रुक्ष है तथा अवयवों में सूजन एवं पित्त उत्पन्न करती है। रक्त विकार तथा कफ का नाश करती है, और दाद, उदरस्थ कृमि तथा विष विकार में लाभ पहुँचाती है । न० छ० । कपित्थाष्टक चूर्ण - संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] ग्रहणी रोग नाशक एक प्रकार का योग | विधि - कैथ की गूदी ८ भाग, मिश्री ६ भा०, अनारदाना ३ भा०, अग्ली का गूदा ३ भाग, बेल गिरी ३ भा०, धाय के फूल ३ भा०, अजमोद १ भाग, पीपल ३ भा०, काली मिर्च १ भाग, जीरा १ भा०, धनियाँ १ भाग, पीपलामूल १ भाग, नेत्रवाला १ भा०, साँभरनोन १ भाग, अजवायन Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपित्थास्य २१०० कपिलद्राक्षा १ भाग, दालचीनी १ भाग, इलायची के दाने, कपिमानक-संज्ञा पुं० [सं०] शिलारस। भाग, तेजपत्र १ भा०, नागकेशर १ भा०, चित्रक | कपिरक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कपिल-वर्ण । की जड़ १ भा० ओर सोंठ । भाग । इन सबको पिंगल वर्ण । भूरा रंग । कूट छान कर चूर्ण बनाएँ। कपिरस-संज्ञा पु० [सं० पु.] शिलारस । गुण-यह चूर्ण अतिसार,संग्रहणी, क्षय, गुल्म | कपिरसाढय-संज्ञा पु० [सं० पु.] श्रामड़े का पेड़। और कंठ के रोगों को नष्ट करता है । च० द०।। आम्रातक वृक्ष । रा०नि० व. ११। कपित्थास्य-संज्ञा पुं० [सं० पु.] एक प्रकार का कपिरोमफला-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] केवाँच कौंछ । बंदर जिसका मुँह कैथे जैसा गोल होता है। कपिकच्छु । रा०नि०व० ३ । इसका फल वानर लंगूर । गोलांगूल । मुखपोड़ा-(बं०)। त्रिका० । की लोम की भाँति पिंगलवणं शूक से श्रावृत्त (२) मृग विशेष। रहता है। कपित्थनी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (१) वह स्थान | कपिरोमा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (१) केवाँच । जिसमें कैथे के पेड़ बहुत हों। कपित्थयुक्त देश । कपिकच्छु । (२) रेणुका । रा०नि० व०६ । (२) कपित्थपर्णी । कपिल-वि० [सं० त्रि.] (१) भूरा । मटमैला । कपिथिल-वि० [सं० त्रि० ] कपित्थ युक्त । कैथा से ___तामड़ा ग का । (२) सफेद । (३) पीला। भरा हुआ। पिंगल वर्ण । कपिद्धमु-ते. ] कपित्थ । कैथ । संज्ञा पुं० [सं० पु । शिलारस । रत्ना । कपिध्वज-संज्ञा पुं॰ [सं० पु० ] दम्पगड्ढ । (२) कुत्ता । कुक्कुर । हारा० । (३) पीतल । (४) सुश्रुत के अनुसार १८ प्रकार के ज़हरीले कपिनामक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु. ] शिलारस ।भा० । चूहों में से एक । इसके काटने से व्रण में सडाँध कपिनामा-संज्ञा पुं॰ [सं० पुं० कपिनामन् ] शिला होती है, शरीर में गाँठे पड़ जाती हैं और ज्वर रस । रत्ना। होता है। श्वेत पुनर्नवा को त्रिफला और शहत के कपिपिप्पली-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (1) रक- साथ चाटने से इसमें लाभ होता है । इसका ज़हर पुष्पी । लाल चिरचिरा । रक्कापामार्ग । भा० पू० जहाँ लगता है वहाँ व्रण हो जाता है। सु. कल्प २ भ० । (२) वानरपिप्पली । वै० नि० । (३) ६ अ०। (५) शिलाजीत । शिलाजतु । (६) हुलहुल वा सूरजमुखी । सूर्यावर्त क्षुप । एक प्रकार का सीसम । बरना । (७) एक रंग । २० मा०। मटमैलारंग। कपिपुच्छिका, कपिपुच्छी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] [मरा०, ता०] कमोला। कबीला । [मदकेवाँच । कपिकच्छुलता। रास कों० । कमीला का एक भेद । कपिप्रभा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (1) केवाँच । कपिलक-वि० [सं० त्रि० ] कपिल । भूरा । तामड़ा । ___ कौंछ । बालाकुशी । श० र० । (२) लटजीरा । कपिलच्छाया-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कस्तूरी । अपामर्ग। मिश्क । मृगनाभि । भा० म०। कपिप्रिय-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (१) श्रामड़े का कपिलता-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) भूरापन । पेड़ । अाम्रातक वृक्ष । रा०नि० व. ११ (२) | मटमैलापन । (२) सफेदी। पीलापन । (४) कैथे का पेड़ । कपित्थ वृक्ष । भा०। ललाई । (५) केवाँच । कौंछ। कपिभक्ष-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (1) वानरों का कपिलद्युति-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] सूरज । सूर्य । भक्ष्य-द्रव्य । बंदरों के खाने की चीज । (२) कपिलद्राक्षा संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] उत्तरा पथिका । कदली। केला। यह बानरों का अतिप्रिय एक प्रकार की बड़े आकार की दाख जो भूरे रंग खाद्य है। की होती है । इसे अंगूर कहते हैं। कपिभूत-संज्ञा पु० [सं० पु.] पारिस पीपल । पर्याय-मृद्वीका, गोस्तनी, कपिलफला, अमृत वै० निघः । पारिशाश्वत्थ । रसा, दीर्घफला, मधुवल्ली, मधुफला, मधूलि,हरिता Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१०१ कपिलद्रुम कपिलोमा, कपिलोला हारहूरा, सुफला, मृद्वी, हिमोत्तरा, पथिका, हैम- | कपिला-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (१) पीतल । वती, शतवीर्या, काश्मीरी गोस्तना, गोस्तनिका- भा० म. १ भ०। (२) एक प्रकार का पीतल । स० । अंगूर, कालीदाख, भूरी दाख, मुनक्का, राजरोति । (३) घोछार | गृहकन्या । रा०नि० काला मुनक्का-हिं० । मनेक्का, प्रांगुर-बं०। काले व०५ । (४) रेणुका नाम की सुगंधित औषधि द्राक्ष-मरा०। कालिधराख-गु०। वेडगणद्राक्षे- रा०नि० व० ६ । (५) कपिल शिशपा | रा० कना । द्राक्षा. पोंडु-से०। कोडिमण्डि-ता०। नि०व०१(६) एक प्रकार की जोंक जो à Grape zi, i Vitis Veniera, बिना ज़हर के होती है । सु० सू० १३ अ० । (७) गुण-मधुरा शीतलाहृद्या, भदहर्षदा दाह एक प्रकार की सुनहली कामधेनु । मे० लत्रिक । (८) एक प्रकार की मकड़ी जिसका डसा हुआ मूर्छा ज्वर श्वास तृष्णा हल्लासघ्नीच । रा. कठिनता से अच्छा होता है। (६) शीशम । नि० व० ३ । वृष्या स्याद्गोस्तनी द्राक्षा गुर्वी च (१०) एक प्रकार की च्यूँ टी । माटा । (११) कफपित्तनुत् । भा० । द्राक्षा तु गोस्तनी शोता सफेद रंग की गाय । (१२) श्यामलता । कपिल हृद्या वृष्या गुरुमंता । वातानुलोमनी स्निग्धा वर्णी | भूरी। हर्षदा श्रमनाशिनी ॥ द.ह मूच्छोश्वासकास वि० स्त्री० [सं०] (१) कपिल वर्ण की। भूरे रंग की । मटमैले रङ्ग की। (२) सफेद कफपित्तज्वरापहा । रक्तदोषं तृषां वातं ह्रव्य रंग की। थाचैव नाशयेत् ॥ शा. नि. भू.। कपिलाधिका-संज्ञा स्त्री॰ [सं० स्त्री०] तैल पिपीलिका । पिलद्रुम-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] काक्षी नाम की तिलचिटा। __ एक सुगंधित लकड़ी। कपिलार्जक-सज्ञा पु० [सं० पु.] सफेद तुलसी। कपिलधारा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] कपिला गाय के | कपिल वर्ण तुलसी वृक्ष । वै० निघः । दूध की धारा । कपिलाक्षी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) कपिल पिल फला-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] कपिल-द्राक्षा | शिशपा । रा०नि० व०६ । (२) मृगाक्षीत । __ मुनक्का । रा०नि० व०३। मृगवारुक । सेंध । रा०नि० व०७। पिल लौह-संज्ञा पुं० [सं० वी० ] पीतल । पित्तल | कपिलिका-सज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) सुश्रुत के __ हे. च० । वै. निघ। अनुसार ८ प्रकार के कनखजूरों में से एक । एक पिल शिंशपा-संज्ञा स्त्री०सं० स्त्री.] शीशम का प्रकार का गोजर जो कपिल वर्णका होता है। सु. एक भेद । जिसके पत्ते पीले रंग के होते हैं। कल्प० ८ ०। (२) सुश्रुत में ६ प्रकार का इसकी लकड़ी कुछ श्यामता और ललाई लिए | चीटियों में से एक । सुनहरी बालू कोड़ी। सु० भूरे रङ्ग की होती है । वि० दे० "शीशम"। कल्प० ८ अ०। पर्या–पीता, कपिला, सारिणी, कपिलाक्षी कपिली- कोंकण, मदरास, ] उ०प० सू० । कमीला भस्मगर्भा, कुशिंशपा, -सं. । कपिल वर्ण शीशम, का एक उत्तम प्रकार । ग्रंथियों को भिन्न करने के काली सोसो, भूरे रंगका सोसम ।-हिं० । कपिल लिए यह फलों को टोकरी में झाड़ने से प्राप्त पत्र शिशु गाछ, काला शिशु। -बं० । काला होता है। शिशवा, घिवला शिशव -मरा० । होवदबीड | कपिलो-[गु०] कमीला । -कना० । शिशम -गु० । पंशकेदर -ता० । कांपलुक-[?] पुनर्नवा, गदहपूर्ना । Black wood Sisoo tree. Tawny | कपिलोमफला-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] केवाँच । leaved Sisn. कौंछ । कपिकच्छु । रा०नि० व०३। गुण-कपिला शिंशपा तिना शीतवीर्या | कपिलोमा, कपिलोला-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री. ] श्रमापहा । वातपित्त ज्वरघ्नी च च्छर्दि हिका रेणुका नाम की सुगन्धित प्रोषधि । रेणुक बीज । विनाशिनी॥ रा०नि०व०६। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपिलोला २१०२ कपीष्ट कपिलोला-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] रेणुका। कपिशायन-संज्ञा पु० [सं० वी० ] एक प्रकार का कपिलोह-संज्ञा पुं० [सं० वी०] (१) पीतल । | मद्य । त्रिका० । यह कपिश देशमें अंगूरसे बनाया हे. च०। (२) राजरीति । उत्तम पीतल । जाता है। कपिल्लिक-सं० पु० [सं० पु.] (1) कमोला। कपिशिका, कपिशी-संज्ञा स्त्री॰ [ सं० स्त्री.] दे... कम्पिल्लक । वै० निघ० । (२) पुनर्नवा । गदह "कपिशा"। पुरना। कपिशीका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक प्रकार का कपिल्लिका-संज्ञा स्त्री० [सं. स्त्री.] एक ओषधि । मद्य । ( कोई गजपीपर को कहते हैं और कोई कमीला कपिशीर्षक-सज्ञा पुं० [सं० की.] ईगुर । शिंगरफ को ) र० मा । हिंगुल । श० च०। कपिवदान्य-संज्ञा पुं॰ [सं० पु. श्रामड़ेका पेड़। कपिहस्तक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] केवाँच । कौंछ । अम्लातक वृक्ष । अाम्रातक वृक्ष । __कपिकच्छु । रस. र०। कपिवल्लिका, कपिवल्ली-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कपी-संज्ञा पुं० [सं०] अमड़ा । अम्रातक । (१) गजपीपर। गजपिप्पली । भा० पू० १ भ० । कपीकच्छु-संज्ञा पुं० [स० पु.] केवाँच । कपि(२) कैथे का पेड़ । कैथ । कपित्थ वृक्ष । कच्छुलता । श० २० । कपिवल्ली-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] गज पीपल । कपीज्य-संज्ञा पु० [सं० पु.] खिरनी का पेड़। धन्व०॥ ___ क्षीरिका वृक्ष । जटा। कपिवास-संज्ञा पुं० [सं० पु.] पारिसपीपल । कपीत-संज्ञा पु० [सं० पु.] श्वेत वुहावृक्ष । पारिशाश्वत्थ । श्वेत वोना । र०मा० । कपिवित्तुलु-[ते. ] कहवा । कपीतक-संज्ञा पु० [सं० पु.] (१) पाकर पक्ष वृक्ष । रा० नि० व०११ । (२)सिरस का पेड़। कपिविरोचन, कपिविरोधि-संज्ञा पु० [सं० क्ली.] शिरीष वृत्त । मिर्च । मरिच । रा.नि.व.६। कपीतन-संज्ञा पुं॰ [सं० पुं०] (1) गूलर का कपिविरोधि-संज्ञा पु० [सं० पु.] मरिच । मिर्च । पेड़ । उदुम्बर वृक्ष । ज.द.। (२) प्रामड़ा । कपिवीज-संज्ञा पुं॰ [सं० की ] केवॉच का बीया। श्राम्रातक । वा० सू। १५० न्यग्रोधादि। वानरी । शूक शिम्बी वीज । भैष. कामेश्वर- च० सू० ४ ०। (३.) सिरस का पेड़। शिरीष मोदक। वृत्त । रा०नि० व.६(४) पीपल का पेड़ । कपिवृक्ष-संज्ञा पु० [सं० पु.] पारिस पीपल । अश्वत्थ वृक्ष । मे० नचतुष्क । (५) सुपारी का पारिशाश्वत्थ । वै. निघः । पेड़ । (६) बेल का पेड़। श० २० । (७) कपिश-वि० [सं० त्रि.](१) श्यामवर्ण । मे० गंध भादुली। गण्डमुण्ड । रत्ना० । (८) शत्रिक । (२) काला और पीला रंग मिलाने पाकर का पेड़ । लक्ष वृक्ष | रा.नि. व. २३ । से जो भूरा रंग बने, उस रंग का। मटमैला । (:) पारिस पीपल । गर्दभाण्ड वृक्ष । (३) पीला भूरा । लाल भूरा। कपीता-[ मरा० ] कमीला । __ संज्ञा पु० [सं० पु.] (१) शिलारस | कपीन्द्र-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] हनुमान । श० र.। नाम की सुगंधित औषधि । सिरक । (२) पीला-[ ता. ] कमीला । द्राक्षामद्य । अंगूरी शराव । वै० निघ० । "प्रामा कपील-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] तिन्दक । तेन । तेन्दु न पश्यत् कपिशं पिपासत:" माघ। (३) रा०नि० । श्रामड़ा। कपीलो-गु०] कमीला । कपिशा-संज्ञा स्त्री॰ [सं० स्त्री.] एक प्रकार का मद्य । कपीष्ट-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] खिरनी का पेड़ । राजा सुरा । त्रिका०। (२) माधवी लता । मे० दनी वृक्ष । वै० निघ। (२) कैधेका पेड़ । कैथ। शत्रिक । | रा०नि० व ११ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१०३ कपु - [ सिंगा० ] रुई । कपुट्ट - [ सिंगा० ] बिनौला । कपास का बीया । कपुकन्द - संज्ञा पुं० [देश० कपु+सं० कन्द ] एक । प्रकार का कन्द जो मालाकार काले रंग का होता है । यह नैनीताल के जंगलों में पाया जाता है। वहाँ के लोग इसे बिष समझते हैं । कपुकि मिस्स - [ सिंगा० ] मुश्क़दाना । लता कस्तूरिका । कपु-गहा - [ सिंगा० ] कपास । कपुरु - [ सिंगा० ] कपूर । कपुरु तेल - [ सिंगा० ] कपूर का तेल । कपूतुङ्ग - [ ? ] सूरजमुखी । कपूय - वि० खराब | कपूर- [ गु० ] दे० " कपूर" । कपूर - संज्ञा पु ं० [सं० कर्पूर पा० कप्पूर, जावा० कापूर ] पया०० कपूर, शीतलरजः, शीताभ्रः, स्फटिकः, हिमः, चन्द्रः, तुषार, तुहिनः, शशि, इन्दुः, हिम-वालुकः ( ध० नि० ) कर्पूर:, घनसारकः, सितकरः, शीतः, शशांकः, शिला; शीतांसुः, हिमवालुका. हिमकरः, शीतप्रभः शांभवः, शुभ्रांशुः, स्फटिकः, अभ्रसारः, मिहिका, ताराभ्रः, चन्द्रेन्दुः, चन्द्रश्रालोकः, तुषारः, गौरः, कुमुदः ( रा० नि० ) सोमसंज्ञः, सिताम्रकं ( रा० ), तरुसारः ( हा० ), भस्माह्वयः (ति) हनुः, हिमाह्वयः, चन्द्रभस्म, वेधकः, रेणुसारकः ( शब्दर० ) शीतमरीचिः, भस्म वेधकः, विधुः शीतमयूखः (मे०) घनसारः, चंद्र संज्ञः, जैवातृकः, ग्लौः, कुमुदबान्धवः सिताम्रः, हिमवालुका, श्रोषधीशः इन्दुः, द्विजराजः, नक्षत्रेशः, निशापतिः, यामिनीपतिः, शशधरः, सोमः क्षपाकरः ( श्र० ), हिमाह्वः, क्षपापतिः ( के० ) सिताम्रः ( श्र० टी० ) कपूरः, सिताभ्रः, हिमवालुकः, घनसारः ( भा० प्र० ) - सं० । [सं० त्रि० ] दुर्गन्धि । बदबूदार | नोट - भावप्रकाश के अनुसार चंद्रमा और हिम के जितने पर्याय हैं वे सब कपूर के भी पर्याय हैं। यथा "चंद्र संज्ञो हिमनामापि संस्मृतः ।” कपूर, कापूर - हिं० | कापूर - द० । कप्पूर, कर्पूर, कापूर, काफूर वं० । काफूर ० । कापूर - फा० काफ़ूरायू० । कैम्फोरा Camphora - ले० । वृक्षकैम्फोरा श्राफिसिनेलिस (C. Officinales ) कैम्फर Camphor - श्रं० । कैम्फ्रे Camphre-फ्रां०] | का+फेर Kampher - जर० । करुप्पूरम्, कप्पूरम्, शूडन - ता० । कर्पूरम्, कपूरामु - ते० । कर्पूरम् - मल० । कर्पूर-कना० | कापूर म० । कपूर, कपूर - गु० । कपुरु, कपूर - सिंगा० । पयो, पियो - बर० । टिप्पणी- इसकी अरबी और फ़ारसी संज्ञा काफ़र कफ़र से व्युत्पन्न है जिसका अर्थ 'गोपन' अर्थात् छिपाना है । कपूर की गंध समग्र सुगंध द्रव्यों की गंध को छिपा लेती है अर्थात् उनको ढक लेती है, अतएव इसे उक्त नाम से अभिहित किया गया। इसको लेटिन, श्रांग्ल और युनानी सभी संज्ञाएँ श्रारव्य काफ़र शब्द से व्युत्पन्न हैं और काफ़ूर संस्कृत कर्पूर से व्युत्पन्न जान पड़ता है । कपूर वर्ग ( N. O. Laurinece ) उत्पत्ति-स्थान- चीन ( फारमूसा), जापान, पूर्वी द्वीप समूह, सुमात्रा बोनियो । भारतवर्ष में इसका प्रायात बहुधा चीन और जापान से होता है। वन तथा प्राप्ति- - एक सफेद रंग का जमा हुआ सुगंधित द्रव्य जो वायु में उड़ जाता है और जलाने से जलता है । इसकी बे रंग, श्वेत, अर्द्धस्वच्छ, स्फटिकीय डली या श्रायताकार टिकिया अथवा स्थाली होती है । कभी कभी यह चूर्ण रूप में भी पाया जाता है, जिसे श्रांग्ल भाषाविद "फ्लावर्स श्राफ कैम्फर" कहते हैं । हिंदी में इसे कपूर का फूल ओर फ़ारसी में गुले काफूर कह सकते हैं। इसका सापेक्षिक गुरुत्व ०.६६५ है । इसको जलाया जाय तो तुरत जल जाता है । साधारण उत्ताप पर यह धीरे धीरे उड़ता है । परन्तु तीव्र उत्ताप देने से सर्वतः ऊर्द्धपातित हो जाता । गंध तीच्ण, भेदनीय और स्वाद किंचित् तिक एवं कटुक होता है । इससे को मुख में ठंढक का अनुभव होता है । विलेयता - यह एक भाग ७०० भाग पानी पश्चात् Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपूर २१०४ में, एक भाग एक भाग सुरासार (६०%) में चार भाग एक भाग नोरोफार्म में, एक भाग ४ भाग जैतून तेल में, एक भाग १॥ भाग तारपीन तैल में विलीन हो जाता है । यह क्षारों ( Alk. alies) में अविलेय है। ईथर में यह अत्यंत विलेय होता है। टिप्पणी-तीन भाग कपूर एक भाग स्फटिकीय कार्बोलिकाम्ल के साथ मिलाकर रगड़ने से एक स्वच्छ द्रव बन जाता है। तीन भाग कपूर उतना ही कोरल हाइड्रेट के साथ मिलाकर रगड़ने से द्रवीभूत हो जाता है । अथवा कपूर को जब मेन्थल (पिपरमिट), थाइमल (सत अजवायन), फेनोल, नेफ्थोल, सैलोल, ब्युटल कोरल या सैलिसिलिक एसिड में से किसी के साथ सम्मिलित किया जाता है. तब वह द्रवीभत हो जाता है-दोनों मिलकर तरल हो जाते हैं । कहते हैं कि तीव्र सिरकाम्ल में भी यह विलेय होता है। कपूर वस्तुतः एक प्रकार के उड़नशील तैलगोंद का सांद्र भाग है जिसे आजकल कई वृक्षों से निकाला जाता है। ये सबके सब वृक्ष प्रायः दारचीनी की जाति के हैं। इनमें प्रधान पेड़ दारचीनी कपूरी Cinnamomum Camphora, Nees) मध्यम आकार का सदाबहार पेड़ है जो चीन, जापान, कोचीन और फारमूसा में होता है । अब इसके पेड़ हिन्दुस्तान में भी देहरादून और नीलिगिरि पर लगाये गये हैं और कलकत्ते तथा सहारनपुर के कंपनी बागों में भी इसके पेड़ हैं। इसका वृक्ष ६० से ८० फुट तक ऊँचा होता है। पत्ते-अण्डाकार, मसूण, नोक की ओर संकुचित, ऊपर की ओर कुछ फ्रीका पीलापन लिये हरे रंग के पोर नीचेकी ओर धुमले होते हैं । इस वृक्ष के मौर आते हैं। फूल सफेद रंग के छोटे छोटे और फल मटर के समान होते हैं। इन बीजों में कपूर के समान सुगंध आती है। इस वृक्ष की छाल को गोदने से एक प्रकार का दूध निकलता है। उसी से कपूर प्रस्तुत किया जाता है ।इससे कपूर निकालने की विधि यह हैइसकी पतली पतली चैलियों तथा डालियों और जड़ों के टुकड़े बन्द वर्तन जिसमें कुछ दूर तक | पानी भरा रहता है, इस ढंग से रक्खे जाते हैं कि उनका लगाव पानी से न रहे । बर्तन के नीचे आग जलाई जाती है । आँच लगने से लकड़ियों में से कपूर उड़कर ऊपर के ढक्कन में जम जाता है । उन्हें पृथक् कर पुनः ऊर्ध्वपातन विधि द्वारा साफ कर लेते हैं। यही उल्लिखित 'कपूर' है। इसकी लकड़ी भी संदूक आदि बनाने के काम में आती है । वृक्ष की छाल और पत्तों को भभके से भाफ के द्वारा भी तेल निकाल कर जमाते हैं। giratat sitarat:( Cinnamomum Zeylanicum, Nees) इसका पेड़ ऊँचा होता है। यह दक्खिन में कोकन से दक्खिन पश्चिमी घाट तक और लंका, टनासरम, बर्मा आदि स्थानों में होता है। इसका पत्ता तेजपात और छाल दारचीनी है। इससे भी कपूर निकलता है। वि० दे० "दारचीनी"। बरास Borneo Camphor ( Dryobalanops Aromatica, Goertn) यह बोर्नियो और सुमात्रा में होता है और इसका पेड़ बहुत ऊँचा होता है । इसके सौ वर्ष से अधिक पुराने पेड़ के बीच से तथा गाँठों में से कपूरका जमा हुअा डला निकलता है और छिलकों के नीचे से भी कपूर निकलता है। इसके छोटे छोटे कुछ सफेद पर्त भी होते हैं जो वृक्ष के केन्द्र भाग में वा उसके समीप विषमाकार नसों में लंबाईके रुख होते हैं। इस कपूर को बरास भीमसेनी आदि कहते हैं । और प्राचीनों ने इसी को अपक कहा है। पेड़ में कभी २ छेब लगाकर दूध निकालते हैं। जो जमकर कपूर होजाता है। कभी पुराने पेड़ की छाल फट जाती है और उससे आप से आप दूध निकलने लगता है । जो जमकर कपूर होजाता है । यह कपूर बाजारों में कम मिलता है। और मंहगा बिकता है। अधुना साधारण कपूर से विशेष विधि द्वारा अन्य औषधियों के योगसे भीमसेनी कपूर बनाया भी जाता है । इसकी अनेक विधियाँ हैं, जिनमें से कतिपय का यहाँ उल्लेख किया जाता है, यथा शुद्ध कपूर ८ तो०, नागरमोथा, जायफल, जावित्री, प्रत्येक १ तो०, ऊद स्याह, (काली अगर ) सफेद चन्दन, खस, प्रत्येक ४ तोले, Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१.५ कपूर शीतलचीनी, सफेद जीरा, बालछड़, लौंग, केसर, | बड़ी इलायची के बीज, शुद्ध कस्तूरी, समुद्रफेन, चमेली का इत्र, अर्क गुलाब प्रत्येक २ तो०, समग्र औषधियों को बारीक करके कपूर मिलाकर । इतना खरल करें, जिसमें कपूर के कण न दिखाई देवें । फिर अर्क एवं इतर डालकर इसे एक काँसी की थाली के मध्य स्थापित करें, और उसके | ऊपर एक कॉसे का कटोरा औंधा रखकर गूंधा हुआ आटा लगाकर संधि बंद करदेवें, पुनः थाली को चूल्हे पर रखकर उसके नीचे छोटी उंगली जैसी मोटी वत्ती डालकर एक घी का चिराग़ जला देवे । चार पहर आँच रहे और उतने काल तक ऊपर का कटोरा पानी से भीगे कपड़े से तर करके रखना चाहिये । समस्त कपूर उड़कर ऊपर जा लगेगा । शीतल होने पर उतार लेवें। लगभग ७ तोला कपूर प्राप्त होगा। इससे न्यून होने पर पुनः उसी प्रकार पांच देकर उड़ा लेवें। आँच इतनी हो जिसमें औषधि जले नहीं, और कपूर ऊर्ध्व लग्न होजाय, अन्यथा इसका उक्त प्रभाव नष्ट हो जायेगा । यह 'भीमसेनी कपूर' है। चीनिया कपर-फार्मोसा टापूमें टामशुई नदी के आस पास में इसका वृक्ष अधिक उत्पन्न होता है। वहाँ के गरीब लोग इसको बनाकर चीनी व्यापारियों के हाथ बेचते हैं और वे लोग यूरोपीय सौदागरों के हाथ बेच देते हैं। इसलिये इसको चीनिया कपूर कहते हैं। चीनिया कपूर जापान में भी बनता है। कहते हैं कि इसके वृक्ष के नीचे के भाग को छोटे छोटे टुकड़े करके जापानी लोग भाफ के द्वारा उसका तैल निकाल कर जमाते हैं। प-०-चीनकः, चीनकपूरः,कृत्रिमः, धवलः पटुः ( कटुः ) मेघसारः, तुषारः, द्वीपक' रजः (रा०नि० १२ व०) चीनाक (भा०)-सं० । चीनिया कपूर,चीन कपूर-बंगाचीनी कापूर-म० । चिनाई कपूर-गु०। टनासरम के इलाके में एक श्राप से श्राप उगने वाली घास है, जो ६ से = फुट तक ऊँची होती है। इसके पत्तों को मलनेसे तीव्र कपूर की सगंध पाती है। एक प्रकार की भिंडी भी है, जिससे ४४ फा. कपूर की सी सुगंध निकलती है। खज़ाइनुल अदबिया के रचयिता लिखते हैं कि “मैंने एक वृक्ष देखा, जो ८ फुट के लगभग ऊँचा होता है। तना लगभग ३॥-४ फुट होता है। खजूर के वृक्ष से उसका तना कुछ पतला होता है । सबसे बड़ा पत्ता अढ़ाई इञ्च के लगभग चौड़ा, नुकीला मसृण और जामुन के पत्ते की तरह होता है। इसकी डाली और पत्ते सूधने से कपूर की सुगंधि श्राती है।" उपर्युक पौधों के अतिरिक्त भारतवर्ष में और भी कुछ वृक्ष ऐसे होते हैं जिनसे कपूर प्राप्त किया जा सकता है । जैसे-पाक, नरकचूर, कुलञ्जन, इलायची, हाशा और इकलीलुल जबल प्रभृति । इनमें भी कपूर पाया जाता है। पर साधारण तया इसे ऊपर प्रथमोक्र (Cinnamomum Ca mphora ) वृक्ष से ही प्राप्त करते हैं। ___ कर्नल चोपरा लिखते हैं कि “जंगल की साधारण महत्व की वस्तुओं के परीक्षण से यह ज्ञात होता है कि कारस केम्फोरा ( Kaurus Cam phora) वृक्ष भारतवर्ष में उत्पन्न नहीं होते हैं। फिर भी ब्लूमीज़ ( Blumes) जाति के प्रतिनिधि वृक्ष यहाँ पर पर्याप्त मात्रा में पैदा होते हैं । ब्लूमीज़ की कई जातियाँ, जैसे(Blumea Balsamifera) कुकरौंधा ( Blumea lacera ) ( Blumea Depsiflora ) (Blumea malco mii ) और ( Blumea grandis) इत्यादि नैपाल से सिक्किम तक उत्पन्न होती हैं । इसी प्रकार दक्षिणी पठार में १७०० से लगाकर २५०० फुट की ऊँचाई तक भी उत्पन्न होती हैं। इन जातियों के वृक्षों में से कपूर काफी मात्रा में पैदा हो सकता है। ब्लूमिया बालसेयिफेरा ( कुकुन्दर भेद ) अासाम और बरमा में प्रचुर मात्रा में उत्पन्न होता है । मेसन का मत है कि बरमा में ब्लूमिया बाल सेमीफेरा इतना अधिक उत्पन्न होता है कि उससे श्राधे संसार की कपूर की माँग पूरी की जा सकती है। ___डीमक ने कैफोरेशियस ब्लूमिया की तरफ जन साधारण का ध्यान आकर्षित किया है। इसके Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपूर कपूर अतिरिक्र ब्लूमिया की और कई अन्य जातियाँ | होती हैं । जिनमें कि कपूर की अत्यन्त तीव्र गंध भाती है और उनसे कपूर प्राप्त भी किया जा सकता है । बंगाल के मैदानों में पाई जाने वाली लिम्नोफिला ग्रेटियोलाइडीज (अंबुल, अंबुली) नामक वनस्पतियों से भी बंगाल में कपूर प्राप्त किया जाता है। इतने उत्तम साधनों के रहते हुये भी भारतबर्ष अपनी कपूर की मांग के लिए विदेशों पर ही निर्भर है। जो कपूर देशी कपूर या इण्डियन कैम्फर के नाम से प्रसिद्ध है, वह भी वस्तुतः | चीन का कपूर है । जो भारतवर्ष में शुद्ध किया जाता है । ब्लूमिया कैम्फर की अल्प मात्रा के अतिरिक्त और कोई भी जाति का कपूर ऐसा नहीं है। जो भारतवर्ष में उत्पन्न हुश्रा कहा जा सकता है। उन्नीसवीं शताब्दी में ऐसे पौधों की कृषि का प्रयास किया गया था कि जिनसे कपूर प्राप्त हो सके । ड्रायोवैलेनाप्स कैम्फोरा नामक वृक्ष की कृषि यहाँ पर करने का प्रयत्न किया गया था। इसके अतिरिक्र बोर्नियो और सुमात्रा के कपूर के वृक्ष से जिससे कि बरास उपलब्ध होता है। उनको भी यहाँ उत्पन्न करने का प्रयत्न किया जा चुका है। लखनऊ हार्टीकल्चरल गार्डेन्स की सन् १८८२-८३ की रिपोर्ट में यह बतलाया गया है कि "जो भी कपूर के वृक्ष यहाँ पर लगाये गये थे, उनका परिणाम अति उत्तम हुश्रा, ऐसा विश्वास किया जा सकता है कि यदि इस विषय में पर्याप्त उत्साह लिया जाय, तो ब्लूमीज़ जातिसे उपलब्ध होनेवाले कपूर से या ड्रायबैलेनाप्स नामके वृक्षों से कपूर प्राप्त करने में व्यापारिक साफल्य प्राप्त हो सकता है। कपूर वृक्ष सदैव हरा रहनेवाला वृक्ष है । यह कोचीन, चीन से शंघाई पर्यन्त और हेनान से दक्षिण जापान तक होता है। प्रथम यह चीन में बहुत उत्पम होता था, पर अब वहां की पैदायश बहुत कम हो चुकी है। इस समय जापान और फारमूसा हो इसकी उत्पत्ति के प्रधान केन्द्र हैं। कपूरके सभी वृक्षों में से कुछ गाढ़ा तेल प्राप्त किया | जाता है। इसको वैज्ञानिक विधि से साफ करने । पर कपूर प्राप्त होता है। लकड़ी और जड़ से जो तेल प्राप्त होता है वह अधिक उपयोगी ठहरता है." उसमें कपूर के अतिरिक "साफरल" नामक एक पदार्थ और रहता है। कृत्रिम कपूर • इसके अतिरिक्त रासायनिक योग से कितने ही प्रकार के नकली कपूर बनते हैं। जापान में दारचीनी कपूरी के तेल से (जो लकड़ियों को पानी में रखकर खींचकर निकाला जाता है) एक प्रकार का कपूर बनाया जाता है । तेल भूरे रंग का होता है और वानिश के काम में आता है। आजकल तारपीन तैल में लवणाम्ल-हाइड्रोक्लोरिक एसिड मिलाकर नकली कपूर बनाया जाता है। बोर्नियो कैम्फर-बरास को रासायनिक विधि से साधारण कपूर में परिणत कर सकते हैं और सामान्य कपूर में ऐल्कोहालिक पोटाश मिलाकर उससे बोर्नियो कैम्फर निर्मित कर सकते हैं । खज़ाइनुल अद्विया के अनुसार प्रायः केले की जड़ और पत्तियों तथा कपूर की लकड़ी और कई अन्य द्रव्यों से नकली कपूर बनाया जाता है । प्राईन अकबरी में बनावटी कपूर की विधियाँ लिखी हैं। उसके अनुसार नर.. कचूर-जरबाद में अन्य चीजें मिलाकर कपूर बनाते हैं और उसे चीनी कहते हैं। संग सफ़ेद के महीन चूर्ण में कपूर, मोम, बननशा का तेल और गुल रोगन मात्रानुसार योजित करके भी कृत्रिम कपूर बनाते हैं कपूर की छोटी छोटी टिकिया जो बाज़ार में बिकती है उसको औषधि के काम में नहीं लेनी चाहिये, क्योंकि यह कृत्रिम रीति से बनाई जाती है। उसे केबल सुगंधि के लिये काम में ले सकते हैं। ___ इतिहास-भारतीयों का कपूर विषयक ज्ञान अति प्राचीन है। अस्तु, प्रागैतिहासिक काल से ही औषध रूप से एवं धार्मिक कृत्योंमें भी इसका बहुल प्रयोग दिखाई देता है। सुक्षु त, चरक, वाग्भट, हारीत प्रभृति प्राचीन आयुर्वेद-ग्रंथों में 'कर्पूर' का केवल नाम ही नहीं, अपितु गुणागुण पर्यन्त उल्लिखित देखने में आता है। फार्माकोग्राफिया के रचयिता डाक्टर फ्लकीजर के कथनानुसार प्राचीन युनानी एवं लेटिन चिकित्सक कपूर से अपरिचित थे। परन्तु प्रारब्य भेषज तत्वविद इसे Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपूर भली भाँति जानते थे । श्रतएव उन्हीं से युरूप निवासी और उत्तर कालीन युनानी चिकित्सकों को इसका ज्ञान हुआ । इसी कारण इसका युनानी नाम 'काफूरा' है, जो इसके अरबी नाम काफूर से व्युत्पन्न है । युरूपवासियों को मध्य काल ( ईसवी सन् की पाँचवी से पंद्रहवीं शताब्दी) में अरब वासियों से प्रथम बोर्नियो कैम्फर का ज्ञान प्राप्त हुआ । 1 २१०७ कपूर के सम्बन्ध में प्राचीन अर्वाचीन मत कपूर भेद-धन्वन्तरीय नामक प्राचीन श्रायुर्वेदी द्रव्यगुण विषयक ग्रन्थ में कपूर का कोई भेद स्वीकार नहीं किया गया है। राजनिघंटुकार ( निघंटु रत्नाकर में ) गुण, स्वाद एवं वीर्य के अनुसार इन चोदह प्रकार के कपूर का नामोल्लेख किया है, यथा पोतास, भीमसेनी शितकर, शंकरावास, प्रांशु, पिञ्ज, दसार, हिमयुता, वालुका, जूटिका, तुषार, हिम, शीतल और पकिका (पञ्चिका पच्चिका ) । उत्पत्तिस्थान — स्थान भेद से पुनः कपूर इन तीन श्र ेणियों में विभक्त किया गया है, यथा— शिर, मध्य थोर तल । स्तम्भ के श्रग्र भाग में होने वाला कपूर शिर संज्ञक, मध्य में मध्यम और पत्तों के तले होनेवाला तल संज्ञक है | प्रकाशवान् स्वच्छ और फूला हुआ - शिर, सामान्य फूला हुआ और स्वच्छ - मध्यम श्रोर तल में होनेवाला चूर्णवत् भारी है । स्तम्भ के गर्भ में स्थित कपूर- उत्तम, स्तम्भ के बाहर होनेवाला - मध्यम तथा निर्मल और कुछ पीलापन युक्र श्रेष्ठ कपूर, मध्य में होनेवाला है, कड़ा, सफेद, रूखा और फूला हुआ वाह्य कपूर कहलाता है । इससे नि राजनिघंटुकार ने 'चीनकपूर' नामक अन्यतम प्रकार के कपूर के गुण पर्याय लिपिवद्ध किये हैं । राजवल्लभ और भावप्रकाश में पक्क और अपक्क भेद पर इन दो प्रकार के कपूरों का उल्लेख देखने में आता है । इसके अतिरिक्त भावप्रकाश में चीनाक कपूर - चिनिया कपूर नामक एक और प्रकार के कपूर का उल्लेख मिलता है । राजनिघंटु में पक्कापक्क कर्पूर का विवरण नहीं पाया जाता । राजनि• टुकार ने चीजकपूर का एक पर्याय 'कृत्रिम ' लिखा है, जिससे यह विदित होता है कि चीन कपूर ही कृत्रिम कपूर है। 1 अनुभूत चिकित्सा - सागर नामक अर्वाचीन ग्रंथ के अनुसार कपूर कई प्रकार का है। उनमें से मुख्य तीन भेद इस प्रकार है । १ – कपूर, ( २ ) चोनिया कपूर श्रोर ( ३ ) भीमसेनी कपूर । श्रांर्यऔषध नामक ग्रंथ में कपूर के दो भेदोंका उल्लेख पाया जाता है। प्रथम वह जो इसके रस को पका कर तैयार किया जाता है । द्वितीय वह जो बिना पकाये इसके वृक्ष में छेवा श्रादि देकर प्राप्त किया जाता है । पकाया हुआ लघु एवं बहुत सस्ता होता है। बाजारों में मिलने वाला साधारण कपूर पकाया हुआ कपूर है। बिना पकाया हुआ बहुत साफ और बढ़िया होता है । इसलिये बहुमूल्य होता है। इसके एक पडका मूल्य लगभग १००) होता है और पक्क एक पोंड ॥ ) में मिलता है । अपक को 'बरास' और 'भोमसेनो' भी कहते हैं । कपूर बोर्नियो टापू से आता है ओर एक पेड़ में अधिक से अधिक दश पोंड तक निकलता है । आईन अकबर नामक फ़ारसी भाषा के ग्रंथ में लिखा है, कि कतिपय ग्रंथों से यह ज्ञात होता है कि जिसे वृक्ष से प्राप्त करते हैं उसे 'भीमसेन' या 'जौदाना' कहते हैं । यूनानियों ने तीन प्रकार के कपूर का उल्लेख किया है, यथा - ( १ ) रियाही । यह रक्ताभ श्वेत मस्तगी के समान होता है और आपसे श्राप वृक्ष के भीतर से उबलकर निकलता । यह उच्चकोटि का एवं सर्व श्रेष्ठ होता है। गरमी लगने या भूप में रखा रहने से यह नरम हो जाता है और प्रति शीघ्र पिघलता है । यह बहुत कम उपलब्ध होता है। हिंदी में इसको भीमसेनी कहते हैं। इसका रियाही नाम इस कारण बड़ा कि अत्यन्त सूक्ष्म होने की वजह से यह वायु - रियाह के साथ उड़ता है। किसी किसी के मत से शाह रियाह को लक्ष्य करके इसका नाम काफूर रियाही रक्खा गया है । रियाह वह पहला व्यक्ति है जिसने इसको सर्व प्रथम पहिचाना या जिसको यह सर्वप्रथम मिला, या जिसके जमाने में यह पाया गया, वह हिंदुस्तान का अधिपति था । (२) क़सूरी - यह क़सूर नामक स्थान से प्राप्त होता है | क़सूर संभवतः फारमूसा द्वीप में अथवा लंका से लगा हुआ एक स्थान का नाम है। यह अत्मव Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपूर २१०८ कपूर श्वेत, स्वच्छ उज्वल और परतदार होता है ।। वृक्ष के भीतर से निकलता है । यह भी श्रेष्ठतम, शुद्ध और अल्प प्राप्य है। जिस बर्ष अधिक वज्रपात होता है और भूकम्प होता है, उस बर्ष वह अधिक निकलता है । (३) क़ाफ़र मोतीइस प्रकार का कपूर वृक्ष की डाल, पत्ते और लकड़ी प्रभृति टुकड़े-टुकड़े करके कथित करने से प्राप्त होता है। यह अस्वच्छ धूमिल रंग का होता है। ___ फारमूसा या फारमूसा द्वीप का कपूर अधिक प्रसिद्ध है। इसी को काफूर कैसूरी कहते हैं। यह फारमूसा से कैसूर होकर पाता होगा, जो सरान द्वीपस्थ एक स्थान है श्रथवा यह .फारमूसा के सन्निकट कोई स्थान होगा, रियाही काफूर के वृक्ष सुमात्रा और बोर्नियो में उत्पन्न होते हैं। नोट-कातर कैसूरी, कातर रियाही और काफूरमोती को, आंग्ल भाषामें क्रमशः इन संज्ञाओं द्वारा पुकारते हैं-(१) Farmosa Cam phor फारमूसा कैम्फर, लारेल कैम्फर Laurel Camphor. (२) बोर्नियो कैम्फर Borneo Camphor. ar airfatar - Borneol. और (३) ब्लूमिया कैम्फर, : Blamea Camphor या निगाई कैम्फर Nagai Camphor. तालीफ़ शरीफ़ी में, जो आयर्वेदीय द्रव्य-गण | बिषयक फ़ारसी भाषा का निघण्ट है यह लिखा है कि कपूर चार प्रकार का होता है। बुतासर (पोतास), भीनसेनी, भीम सुबास (?) और उदय भास्कर । गुणधर्म में ये सब समान होते हैं मादनुश्श्निा में वैद्यों के कथनानुकूल केवल इसके ये तीन भेद लिखे हैं, यथा-(१) सफेद, (२) पीताभ श्वेत और (३) थोड़ा सफ़ेद । नव्यमतअर्वाचीन अन्वेषकों ने कपूर के प्रधानतः ये दो भेद स्वीकार किए हैं, यथा--(१) चीन और जापान कपूर और (२) बोर्नियो और सुमात्रा कपूर । डिमक के अनुसार 'सिन्नेमोमम् कैम्फोरा' अर्थात् दारचोनी कपूरी के वृक्ष से चीन और - जापान कपूर तथा 'डाइयोबेलानप्स ऐरोमेटिका' | के पेड़ से बोर्नियो भोर सुमात्रा नाम कपूर प्राप्त होता है । इनमें से प्रथम प्राचीनोक्न पक्क एवं द्वितीय अपक्क कपूर है। इस देश में विशुद्ध चीन और जापान कपूर अत्यल्प मात्रा में और अधिकतया अविशुद्ध रूप में ही आता है । इस अविशुद्धकपूर को भारी करने के हेतु बम्बईमें इसे प्रणाली विशेष द्वारा पुनः ऊद्धर्वपातित करते हैं, जिससे १४ भाग कपूर में २॥ भाग जल (इस अनुपात से उसमें जल) अभिशोषित हो जाता है। अबिशुद्ध चीन और जापान कपूर में से जापान कपूर अपेक्षा कृत अधिक परिष्कृत होता है। साधारणत: यह दो प्रकार के कपूर ही बाजार में विक्रीत होते हैं । जापान से जो विशुद्ध कपूर भारतवर्ष में आता है वह बृहत् चतुष्कोण; पिष्टाकृति स्थाली के श्राकार का डेढ़ इञ्च मोटा होता है और उसके केन्द्र भाग में छिद्र होता है । विशुद्धता में यह प्रायः यूरोप से आये हुये कपूर के तुल्य होता है। विशुद्ध जापान कपूर टिन मढ़े हुए पेटियों में रहता है। प्रत्येक पेटी में दो सेर तेरह टांक कपूर होता है । अविशुद्ध जापान-कपूर दानेदार होता है और एक में लिपटकर प्रायः पिण्डाकृति ग्रहण कर लेता है। यह अविशुद्ध चीनियाँ कपूर के समान भाई नहीं, अपितु शुष्क होता है और वर्णान्तरित नहीं होता। कभी-कभी यह कुछ गुलाबी रंग का होता है। अविशुद्ध चीनियाकपूर के ईषद् शुभ्र वा धूसरवर्ण के छोटे २ दाने होते हैं । और जल की विद्यमानता के कारण न्यूनाधिक पार्द्र होते हैं । यह टिन मढ़ी हुई पेटियों में आता है। इनमें से प्रत्येक पेटी में एक मन सोलह सेर कपूर होता है। बोर्नियो और सुमात्रा कर्पूर-बोर्नियो कपूर अर्थात् बरास साधारण कपूर की अपेक्षा किंचित् कठिन एवं भारी होता है अतएव यह जल में डूब जाता है । डिमक के मत से बोर्नियो कपूर ही भीमसेनी कपूर है । आजकल प्राधसेर उत्तम बोर्नियो कपूर का मूल्य १००) और अपेक्षाकृत हीन गुणान्वित का मूल्य ७०)-८०) है। ईसवी सन् १७६३ में मि० जान मेकडोनल्ड ने सुमात्रा-कपूर के संग्रह को प्रणाली इस प्रकार Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपूर कपूर २१.६ । लिखी है-"सुमात्रा द्वीप के कर-संग्राहकगण संग्रह के निमित्त यात्रा करने के पूर्व नाना प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान करते हैं । इसके बाद वे कपूर के पुराने वृक्ष का अन्वेषण कर उसके कांड को बिद्ध करते हैं । और यदि उससे प्रचुर तैल-त्राव होता है, तो इससे उनको उसके भीतर जमे कपूरसांद्रीभूत कपूर होने का निश्चय होजाता है । पुराने और बड़े वृक्षों में जड़ से लेकर १७-१८ फुट ऊपर के भाग तक कपूर होता है । फिर वे वृक्ष को काटकर उसके कार ड और शाखा को खंड २ और बहुधा विभक्त कर चतुरतापूर्वक कपूर का संग्रह करते हैं। एक पेड़ से लगभग ७॥ से अधिक कपूर नहीं प्राप्त होता । संगृहीत कपूर को साफ करने के लिए उसे साबुन के पानी में डुबा कर बार-बारधोते हैं। साफ होजाने पर यह जल में डूब जाता है और देखने में श्वेत; उज्ज्वल, मसूण एवं कुछ-कुछ पारदर्शक होता है। धोने के बाद तीन प्रकार के भिन्न-भिन्न छिद्रों की चलनी से चालकर उक्त कपूर को शिर, उदर और पाद इस प्रकार उक्त तीन श्रेणियों में पृथक करते हैं। पुनः उक्त तीनों प्रकार में से थोड़ा-थोड़ा लेकर एकत्र मिला विक्रयार्थ चीन देश को प्रेषित करते हैं। कपूर की प्राप्ति एवं लक्षण विषयक __ भ्रमपूर्ण बिचार कवियों का और साधारण गँवारों का विश्वास है कि केले में स्वाती की बूद पड़ने से कपूर उत्पन्न होता है । जायसी ने पद्मावत में लिखा है'पड़े धरनि पर होय कचूरु । पड़े कदलि महं होय कपूरु' किसी-किसी के विचार से यह केले के वहुत पुराने वृक्षोंसे निकलता है । दस्तूरुल्-इत्तिबा | में तो यहाँ तक लिखा है कि वह कपूर जो केले के तने से निकलता है वह अत्यन्त श्वेत होता है। और उसके बड़े-बड़े चौड़े-चौड़े टुकड़े होते हैं। . और पत्तों से निकला हुआ उससे निर्बल होता है तथा जड़ से प्राप्त खराब और बालू रेत की तरह होता है। किसो-किसो के बिचारानुसार कतिपय पौधों को नील की चपकियों में डालकर सड़ाने से कपूर प्राप्त होता है, इत्यादि । इस प्रकार बंश- | लोचन, गोरोचन, श्रादि के संबन्ध में भ्रमकारक बिचार प्रचलित है, जिनका परिहार परम श्राव. श्यकीय है। आईन अकबरी में उल्लिखित है कि कपूर उड़ाने से साफ और सफेद होजाता है। इन्न बेतार के अनुसार यह लाल और चमकीला होता है और उड़ाने से सफेद हो जाता है । प्राईन अक बरी में लिखा है कि कदाचित् एक किस्म ऐसी भी हो, अर्थात् वह जो वास्तविक कपूर है और संपूर्ण संसार में जिसका व्यवसाय होता है। इससे ज्ञात होता है कि उस समय लेखकको कपूर के वास्तविक रूप का स्पष्ट ज्ञान न था। कपूर की परीक्षा स्वच्छं भृङ्गारपत्रं लघुतर विशदं तोलने तितकं चेत्। स्वादे शैत्य' सुहृद्यं बहलपरिमला मोदसौरभ्यदायि । नि:स्नेहं हाढय पत्रं शुभतर मिति चेद्राजयोग्य प्रशस्तं । कपूरं चान्यथा चेद्बहुतरमशने स्फोटदायि व्रणाय । (रा० नि० १२ व०) अर्थ-भांगरे के पत्तों के समान जिसके छोटे छोटे टुकड़े हों, जो अत्यन्त हलका हो, और तौल में अधिक चढ़े, खानेमें कड़वा लगे, शीतल, हृदय को प्रिय, अत्यन्त सुगंधि की लपट देने वाला, चिकनाई रहित और कठोर-पत्र का हो, ऐसा शुभ कपूर राजाओं के योग्य है। इससे विपरीत प्रायः फोड़े तथा घाव को प्रगट करनेवाला कहा है। नकली असली कपूर की परीक्षा कपूर को पाले या बरफ में लपेटकर जलाएँ, यदि वह दिया की तरह जले तो असली, वरन् नकलो समझें, इसे गरम रोटी के टुकड़े में रखें, यदि पसीज जाय और नमी पैदा होजाय, तो शुद्ध अन्यथा अशुद्ध जानें, इसके अतिरिक्त यदि इसे भी के ऊपरी भाग में मलने से श्रांख में प्रदाह एवं शीत प्रगट हो और आँख से जल प्रवाहित होने लगे, तो भी शुद्ध जानना चाहिए। हकीम कमालुद्दीन हुसेन शीराजी से उद्धत है कि कपूर को बोतल में भरकर उसे अग्नि पर रक्खें, यदि वह धुआँ बनकर उड़ जाय, तो उसे उत्तम सम Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपूर २११० ना चाहिये । इसके विपरीत हो तो निकृष्ट । वस्तुतः शुद्धाशुद्धि में भेद करना बहुत कठिन है । ख० प्र० । श्रेष्ठ कपूर के लक्षण भैषज्य रत्नावली में लिखा है -- पक्कात्कपू रतः प्राहुरपक्कं गुणवत्तरम्, तत्रापि स्यात्यदक्षुण्णं स्फटिकाभं तदुत्तमम् । पक्कञ्च सदलं स्निग्धं हरितद्युति चोत्तरम्, मनागपि न चेटितन्ति ततः करणाः ॥ हस्ते निघृष्य कपूर रेखां हस्तस्य लक्षयेत्, यदि सा दृश्यते विद्धि पूरमिति भद्रकम् । कपूर को सुरक्षित रखने की विधिकपूर वायु में विशेषतः गर्मी में शीघ्र उड़ जाता है । इसलिएइसमें जौ या कालीमिर्च के कुछ दाने या कोयला मिलाकर वोतल में भरकर मजबूत डाट लगादें । जिसमें उसके भीतर वाह्य वायु का प्रवेश न हो सके । ऊपर से थोड़ा मोम भी जमा दें । औषधार्थ व्यवहार — सांद्रीभूत, उड़नशील, तैल अर्थात् कपूर ( Stearoptene. ) रासायनिक संघटन - सङ्केत सूत्र ( क. उद श्रोष ) १० १६ मात्रा -- ( ब्रिटिश फार्माकोपिया में ) १ रत्ती से २॥ रत्ती (=०१२ से ०३ ग्राम ) १ से ३ ग्रेन वा ००६ से ०२ ग्राम तक स्वगधोऽन्तः क्षेप द्वारा | औषध निर्माण - आयुर्वेदीय मतानुसारवटी, चूर्ण, दूधिया घोल, श्रासव, स्पिरिट, प्रलेप, तेल, अभ्यंग श्रर्क; मिश्रणादि । यह निम्न श्रायुर्वे दीय योगों में पड़ता है । यथा - कपूर तैल, कर्पूरादि तैल, कर्पूराद्य तैल, कपूर वटी, कर्पूरासव, कर्पूराद्य चूर्ण, कपूर रस, कर्पूरादि योग, कर्पूराद्य रस, लवङ्गादि चूर्ण, एलोपैथी में यह कैम्फर (कपूर) नामक योगों में एवम् श्रंग्वेण्टम् हाइड्राजिराई कंपोजिटा तथा फार्माकोपियान्तर्गत १५ में से लिनिमेंटम् टेरीविनूथिनी ( Lint. कपूर Terebinthinc∞ ) श्रादि १ : लिनिमेंटेंस में और निम्न योगों में पड़ता है । अधिकृत एल्लोपैथीय योग— (Official Preparations ) ( १ ) एक्का कैम्फोरी Aqua Campho ore ले० | कैम्फर वाटर Camphor water - श्रं० । कर्पूरार्क, अर्क कपूर । - हिं० । माउल काफूर -० । श्राब काफूर -फ़ा० । निर्माण - क्रम – कैम्फर ७० ग्रेन, परित्र त जल एक गैलन, सुरासार ( १० प्रति० ) श्रावश्यकतानुसार । कपूर को सुरसार में विलीन कर श्रध फ्लुइड ग्राउंस घोल प्रस्तुत करें, पुनः उसे क्रमशः परित्रत वारि में सम्मिलित करलें । शक्ति - उक्त घोल के सहस्र भाग में एक भाग कपूर होता है । मात्रा - 2 से १ फ्लुइड श्राउन्स - ( १५ से ३० घन शतांश मीटर ) जिसमें . सेग्रेन कपूर ७ १६ 5 होता है। इसका उपयोग केवल अत्यन्त प्रभावकारी श्रौषधियों के अनुपान - स्वरूप होता है । (२) लिनिमेंटम कैम्फोरी-Linimentum Camphorace - ले० । लिनिमेंट आफ कैम्फर Liniment of Caphor, कैम्फोरेटेड आइल Camphorated oil - श्रं० । कपू राक्क तैल, कर्पूराभ्यङ्ग - हिं० । तमरोख़ काफ़ूर, मुरख़ि काफूर, दुहानुल काफूर, रोगन मालिश काफूरी, काफूरी तेल - उ० । निर्माण क्रम - कैम्फर फ्लावर्स (कपूर) , श्राउंस, जैतून तेल ४ फ्लुइड आउंस । कपूर को तेल में विलीन करलें । शक्ति - इसके ५ भाग में १ भाग कपूर होता है । चिरकालानुबंध वेदनापूर्ण व्याधियों में इसका उद्दीपनीय प्रयोग होता है । यह लिनिमेंट क्लोरोफॉर्माई, लिनिमेंटम् हाइड्रार्जिराई और लिनिमेंट टेरिबिन्थीनी एसीटेट्स पड़ता है। (३) लिनिमेंटम् कैम्फोरी मोनिटम् Linimentum Camphore Amm Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपूर २१११ कपूर बेंजोइक एसिड, कैम्फर और प्राइल आफ एनिसाई को १८ फ्लुड पाउंस सुरासार में विलीन कर उसमें टिंकचर श्राफ प्रोपियम् और इतना सुरासार सम्मिलित करें कि कुल द्रव्यमान एक पाइंट हो जाय । यदि आवश्यक हो, तो इसे छान (फिल्टर कर)ले। शक्ति-इसके एक फ्लुइड ग्राउंस में २ ग्रेन या एक फ्लुड ड्राम से ग्रेन अफीम वा - ग्रेन मार्फीन होता है। oniatum-ले। अमोलिएटेड लिनिमेंट श्राफ कैम्फर Ammoniated Liniment of Camphor or Livt Camphor Co.-अं०। कर्पूरामोनियाभ्यंग-हिं० । तमरीन काफूरी अमोनियाई, मुरव्विख काफूरी अमोनियाई -उ० । शक्ति-इसके ८ भाग में १ भाग कपूर होता है । वि० दे० "अमोनिया"। (४) स्पिरिटस कैम्फोरी Spiritus Camphore, टिंक्चर कैम्फोरी Tr Camphore-ले० । स्पिरिट श्राफ कैम्फर Spirit of Camphor-अं० । रूह कपूर । रूह काफूर । निमोण-क्रम-कैम्फर १ अाउंस, ( सुरासार १००/-) आवश्यकतानुसार । कपूर को इतने सुरा सार में विलीन करें कि प्रस्तुत स्पिरिट का द्रव्यमान पूर्ण १० फ्लुइड ग्राउंस हो जाय । शक्तिइसके १० भाग में १ भाग कपूर होता है। मात्रा-५ से ३० बूंद (०.३ से २ घन शतांश. मीटर ) इमन्शन में मिलाकर । (५) टिकच्युरा कैम्फोरी कंपोजिटा Tinctura Campboroe Composita टिक्च्युरा शोपियाई कैम्फोरेटा Tinctura opii Camphorata-ले। कंपाउंड टिंकचर श्राफ कैम्फर Compound Tincture of Camphor, fcoeptatie Sto Tr Cam phor Co. पैरेगोरिक Paregoric, पैरे गोरिक एलिक्सिर Paregoric Elixirअं० । मिश्र क'रासव, क'राहि फेनासव-हिं० । सबग़हे काफूर मुरक्कब, तअफ्रीन काफूर मुरकब, तक्रीन श्रफयून कातरी, अक्सीर मुसकिन __ मात्रा-से १ फ्लुइड ड्राम=३० से ६० बूंद (२ से ४ धन शतांशमीटर) जिसमें से 1 ग्रेन अफीम होता है। प्रभाव-निद्राजनक ( Narcotic) और कफ निःसारक । अनधिकृत योग (Not Official Preparations) (१) एसिडम् कैम्फोरिकम् ( Aciduin Camphoricum) अर्थात् कर्पूराम्ल, कपूर सार, तेज़ाब काफूर, जौहर काफूर। यह एक श्वेत स्फटिकीय चूर्ण है जो जल में अल्पविलेय होता है । क्षयगत ( Pinthisical ) रात्रिस्वेद एवं वस्ति-प्रदाह ( Vesicle Catarrh) में इसका व्यवहार होता है। मात्रा-८ से ३० ग्रेन वा ०.५ से २ ग्राम कीचट में डालकर। (२) कैम्फर बाल Camphor Ball अर्थात् करीय कंदुक । विधि-कैम्फर ( कपूर) २ भाग, सफेद मोम ५ भाग, स्परमेसेटी (हेलमत्स्य शिरोवसा) ३ भाग, वादाम तेल ३ भाग, टिंक्चर आफ टोल भाग, सब औषधियों को पिघलाकर श्राध पाउंस के गैली-पाट में डालकर गेंद सा बनालें । इसको चैरडस्किन पर मला करते हैं। (३) कैम्फोरा कम क्रेटा ( Camphora cum Crete अर्थात् करित खटिका । इसको 'कैम्फोरेटेड चाक' भी कहते हैं । निर्माण-विधि-कैम्फर (कपूर) १ भाग, प्रेसिपिटेटेड चाक (तल क्षिप्त खटिका)८ भाग । नोट-पैरेगोरिक यूनानी 'पैरेगोरिकोस से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ अवसन्नताजनक औषध है और एलिक्सिर जो अरबी अल्इक्सोर का अपभ्रंश है। अस्तु पैरेगोरिक एलिक्सिर का अर्थ हुआ 'अवसन्नकारी रसायन'। निर्माण-विधि-टिंक्चर श्राफ श्रोषियम् ५८५ | बूंद, बेंजोइक एसिड ४० ग्रेन, कैम्फर ३० ग्रेन, प्राइल आफ एनिसाई ३० बूंद, सुरासार (६०%) आवश्यकतानुसार । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपूर २११२ कपूर में सुरासार (६०%) की कुछ बूंदें मिला कर उसे चूर्ण करें। फिर उसे चूर्णीकृत खटिका में मिलाकर बारीक चलनी में चाल लें। दंत-मंजन (Dentifrices) रूप से इसका उपयोग होता है । (बी० पी० सी०) (४) कैम्फोरेटेड क्लोरोफार्म Campborated Chloroform अर्थात् कपूरित कोरोफार्म । दे. "कोरोफार्म" । (१) कैम्फोरेटेड किनीन Campbora ted Quinine अर्थात् कर्पूरित कुनैन । निर्माण विधि-कपूर का चूर्ण ८ ग्रेन, अमोनिएटेड टिंक्चर श्राफ विनीन अावश्यकतानुसार एक फ्लुइड पाउंस तक । यह साधारण प्रतिश्याय के लिये अत्यंत उत्कृष्ट औषध है। मात्रा-1 से २ ड्राम। (६) फेनोल कैम्फर Phenol Camphor दे० "काबालिकाम्ल"। (७) स्पिरिटस कैम्फोरी फाशियार Spiritus Camphora Fortior, geifarar कैम्फोरी Essentia. Camphora-ले० । रूबिनीज़ एसंश Rubini's Essence, एसेंस श्राफ कैम्फर Essence of Camphor-अं० । उग्र रूह कपूर । रूह काफूर तेज। निर्माण विधि-कैम्फर (कपूर ) २ भाग, सुरासार (६०%) आवश्यकतानुसार ५ भाग तक । कपूर को सुरासार में विलीन कर लें या फ्लावर्स श्राफ कैम्फर १ भाग, जलशून्य सुरासार (Absolutealcohol)१ भाग (अर्थात् दोनों समभाग) दोनों को सम्मिलित करले। मात्रा-२ से १ बूंद हर १५-१५ मिनट के उपरान्त । विचिका एवं अतिसार में बहुत गुणकारी है। (८) आक्सी कैम्फर Oxycamphor-यह एक सफेद स्फटिकीय चूर्ण है जो एक भाग १० भाग पानी में विलीन हो जाता है । यह श्वासकृच्छता (Dyspoenia) में उप फुफ्फुसीया श्वासकृच्छ ता में ५ से १५ ग्रेन की मात्रा में साधारणतया अाक्सेफर (Oxap-' hel) रूप में जो ५० प्रतिशत का सुरासार घटित विलयन है. इसका मुख द्वारा प्रयोग होता है। मात्रा-५ से १५ ग्रेन कीचट में या जेलाटोन कैप्शूल में डालकर देना चाहिये। (१) कैम्फोरा मानौब्रोमेटा ( Camphora Monobromata-इसके विवर्ण मंशूरी सोज़नीक़लमें या परत होते हैं, जिनमें करवत् गंध एवं स्वाद होता है। विलेयतायह जल में अविलेय है, परन्तु यह एक भाग १२ भाग सुरासार (६० %) में एवं १० भाग ७ भाग क्लोरोफार्म, १ भाग २ भाग ईथर, १ भाग ८ भाग जैतून तेल में और किसी कदर ग्लीसरीन में विलीन होता है। गुणधर्म तथा प्रयाग-योषापस्मार, कंपवात मदात्यय और मृगी विशेष ( Petit mal) में इसका निद्राजनक और नाड़ी गत क्षोभहारक (Nervous Sedative) प्रभाव होता है । शुक्रमेह में भी इसका उपयोग होता है । (मे मे० घोष) उपयुक्त मात्रा (५ से १० ग्रेन) में मदात्यय ( Delirium tremens), मृगी, योषापस्मार, कंपवायु (Chor0a), वात शूल ( Neuralgia), कूकर कास (Per tussis) और श्वास रोग में इसका उपयोग किया गया, परन्तु इसका कोई इच्छित सुपरिणाम नज़र नहीं आया। अस्तु, जब तक इसकी अपेक्षा कोई अधिक सुपरिचित एवं परीक्षित औषध प्राप्य हो, इसका उपयोग कदापि न करना चाहिये । इसका उपयोग चतुराई से करना चाहिये, क्योंकि इसके अधिक मात्रा में देने से अतीव मांसपेशीय क्रांति, प्राक्षेप, शारीरिक तापक्रम एवं नाड़ी की गति का क्रमिक ह्रास श्वासोच्छवास की मंदता तथा मूर्छा (Coma) और अंत में मृत्यु उपस्थित होती है। इसके उपयोग में सबसे बड़ी असुविधाजनक बात इसकी अहृद्य गंध तथा स्वाद, भामाशय पर होने वाला इसका प्रदाहकारी प्रभाव एवं अन्तः त्वगीय सूचिका भरण(Hypodernic injection कारी है। Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपूर २११३ के उपरांत होने वाला स्थानीय प्रदाह है। प्रयोग-प्रामवात (Rheumatism) इसे वटी वा कैप्सूल रूप में देना उत्तम है। में इस तेल का अभ्यङ्ग हितकर होता है। मात्रा-२ से ८ ग्रेन=( ०.१२ से ०.५ नोट-जापानी कपूर तैल दो प्रकार का होता ग्राम)। परन्तु मद्योन्माद में इसे द्विगुण मात्रा में है। (1) जापानी (२) चीनी । भी देते हैं। जापानी कपूर तेल-यह पीला वा पीताभ पत्री लेखन विषयक संकेत-डायल्युटेड | धूसर वर्ण का द्रव होता है । जिसमें से सेफरोल ग्लूकोज के साथ इसकी वटिकाएँ प्रस्तुत कर व्यव (रोगन सासारास) की तीव्र गंध पाती है। हार करें या इसको वादाम तेल वा जैतून तेल में इसका आपेक्षिक गुरुत्व ०१० से ०२० तक होता विलीन कर, पुनः लुआब (म्युसिलेज) और जल है। यदि उक्त तैलमें से सेलरोल पृथक् कर दिया के साथ इसका दुधिया घोल-इमलशन प्रस्तुत जाय, तो फिर उसका रंग सफेद हो जाता है। कर बर्ते । एक्सट्रेक्ट आफ बेलाडोना के साथ चीनी कपूर-यह किंचित् पीला या पीताभ सम्मिलित कर भी इसका उपयोग करते हैं। धूसरवर्ण का द्रव होता है, जिसमें से कपूर की तीव्र गंध आती है। इसका आपेक्षिक गुरुत्व नोट-कहते हैं कि यह कुचलीन (ष्ट्रिकलीन) १५० से १६६० होता है। के विष का अगद है। (२) कैम्फाइड Camphoid-यह (१०)-(क) क्लोरोल कैम्फर Chlo सम भाग कपूर और जलशून्य सुरासार (Absral Camphor. (ख) मेन्थोल कैम्फर olute Alcohol ) में पैराक्सेलीन का ४० Menthol Camphor (ग) फेनोल में १ भाग की शक्ति का विलयन है । यह पायकैम्फर Phenol Camphor (घ) थाइ- डोफार्म, रिसासन, क्राइसारोबीन और इक्थियाल मोल कैम्फर Thymol Camphor (ङ) प्रभृति के वाह्य उपयोग का अर्थात् उनके लगाने रिसासन कैम्फर Resorcin Camphor का एक उत्कृष्ट माध्यम है । अस्तु, इनमें से किसी इनमें से प्रत्येक औषध समभाग कपूर के साथ एक ओषध को उक्त विलयन में मिलाकर इसे मिलाकर रगड़ने और गरम करने से तैयार की श्रालिप्त करने से त्वचा पर एक झिल्ली सी जम जाती है। ये समग्रयोग अर्थात् इनमें से प्रत्येक जाती है, जो पानी आदि से धुल नहीं जाती। यह योग अत्यन्त प्रभावकारी स्थानीय वेदना स्थापक कलोडियन की प्रतिनिधि है। या दर्द दूर करनेवाला है। (१३) कैम्फर नैफ्थोल Camphor (११) एसेंशल आइल आफ कैम्फर- Naphtho), नैफ्थोल कम कैम्फोरा NaphEssential oil of Camphor अर्थात् thol cum Camphora-ले । उड़नशील कपूर तैल । सीमाब तबा रोगन निर्माण विधि तथा उपयोग-वीटा-नैफ्थोल काफूर। १ भाग, कपूर २ भाग इन दोनों को गरम करलें। कपूर वृक्ष के सभी अङ्ग-प्रत्यङ्गों का अर्क परि- यह एक पिच्छल-चिपचिपा द्रव होता है जो नु त करने पर एक प्रकार का कुछ गाढ़ा तैल प्राप्त तेल में मिल जाता है। इंद्रलुप्त ( Tinea) होता है, जिससे यांत्रिक उपकरणों द्वारा कपूर तथा अन्य कृमि जात त्वग् रोगों में इसका उपयोग पृथक् किया जासकता है । उक्र तैल को छानकर होता है ।यह क्षत और डिफ्थेरिक मेम्ब्रेन (खुनाक साफ कर लेते हैं । यह तैल वृक्ष में छेवा देने से वबाई की झिल्ली जो गले में पैदा हो जाती है) भी प्रायः प्राप्त होता है। जिसका उल्लेख प्रथम पर लगाने की एक बलशाली निर्विषैल एवं पचनकिया गया है । कदाचित् यही राजनिघण्टूक कपूर | निबारक वस्तु है। तैल है। या सम्भवतः किसी अन्य तैल में कपूर (१४) कैम्फर सैलोल Camphor Sa को द्रवीभूत कर तयार करते रहें। lol-सैलोल ३ भाग, कैम्फर कपूर भाग ४५ फा० Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११४ दोनों को रगड़ कर मिला लें। यह एक अतीव प्रभावकारी पचननिवारक तैलीय द्रव बन जाता है। इसे कारकुल ( शब चिराग़, फोड़ा विशेष ) इंद्र वागंज (Tinea ) पर लगाने से एवं जब मध्यकर्ण में पीब पड़ गई हो तो उसे साफ कर उसमें इसे डालने से बहुत उपकार होता है। कैम्फर सैलिसिलेट Camphor Salica ylate ( कैम्फोसिल Camphossil ) भी एक उसी प्रकार का ठोस पदार्थ है, जो ७ भाग कपूर को ५ || भाग सैलिसिलिक एसिड के साथ उत्तप्त करने से प्रस्तुत होता है । इसे गंज (Tinea ) रोग में खोपड़ी की खालपर वा सपूय व्रणपर इसका मलहम लगाया जा सकता है । १ से ५ प्रोन की मात्रा में वटी रूप में इसका मुख द्वारा प्रयोग किया गया है। समभाग कपूर और क्लोरल हाइड्रेट को उत्तप्त करने से एक प्रकार का द्रव प्राप्त होता है जिसे "क्लोरल कैम्फर" कहते हैं । यह स्थानीय श्रवसन्न ताजनक है और वेदना पूर्ण वात नाड़ियों पर इसे लगाते हैं । समभाग कपूर तथा थाइमल वा रिसासन को एक उत्तप्त करने से एक प्रकार का तैलीय द्रव प्राप्त होता है, जिन्हें क्रमशः थाइमल कैम्फर और रिसासन कैम्फर कहते हैं । ये लगाने की प्रवल रोगाहर श्रौषध हैं । (१५) इलेक्शियो कैम्फोरी हाइपोड मका Injectio Camphore Hypoder mica ) - ले० | कपूर का स्वगधः श्रन्तःक्षेप | योग — कर्पूर १ भाग, जीवाणु रहित वा विशोधित जैतून तेल ५ भाग पर्यन्त । मात्रा - १० से ३० बूँद वा ( ० ६ से २ घन शतांश मीटर ) । (१६) कार्डियाज़ोल (Cardiazol ) पेंटामीथिलीनटेट्राज़ोल Pentamethylene tetrazol ) - ले० । एक जल विलेय मिश्र योग, जो प्रभाव में कपूर के सर्वथा समान, पर कठिन रक्त संभ्रमण विकार की सभी दशानों में उससे श्री छतर होता है । इसे मुख द्वारा, त्वगधः कपूर श्रन्तःक्षेप वा शिराभ्यन्तरीय अन्तःक्षेप द्वारा प्रयुक्त कर सकते हैं । यह श्वासोच्छ् वास केन्द्रको उत्तेजित 1 करता है । रोग विशेष । ( Collapse of angina) हृत्पेशी शोथ ( Myocarditis) रक भ्रमण की अपूर्णता ( Circulatary_ insufficiency ) में यह अतीव गुणका है। मात्रा - १ घन शतांशमीटर त्वगधः श्रन्तक्षेप द्वारा या ०१ ग्राम टिकिया की शकल में मुख द्वारा । (१७) कार्डिटोन - Carditone सोडियम् कैम्फोसल्फोनेट(Sodium Campho Sulphonate ) १५ प्रतिशत जलीय विलयन रूप में । यह सार्वदेहिक हृदयोत्तेजक है । तथा श्वास प्रश्वास की गति ( Rate ) और ( Volume ) को बर्द्धित करता है । यह प्रत्याघात ( Shock ) हृदभेद ( Heart failure ), मूर्च्छा ( Coma ) और कोयले की गैस एवं मदकारी ( Narcotic ) औषधजन्य विषाक्तता में प्रयुक्त होता है । मात्रा — त्वगधोऽन्तः क्षेपार्थ १ से २ घन शतांश मीटर शिराभ्यन्तरीय अन्तःक्षेपार्थ २ घनशतांश मीटर पर्यंत । मुख द्वारा व्यवहारार्थ २५ से १०० बूँद ( १५ से ६ मिलिग्राम ) प्रत्यह जल मिलाकर । ( १८ ) कोरामाइन Coramine - पायरिडाइन कार्बोक्सिलिक एसिड डाईईथिल अमाइड (Pyridine Carboxylic acid diethyl amide ) एक प्रकार का प्रायः वर्णं रहित और स्वाद रहित पीताभ द्रव जो सभी परिमाण में जल-मिश्रेय होता है । 0 मात्रा - २५/ विलयन का १ से २ मिलिग्राम मुख द्वारा, त्वगधोन्डतः क्षेप द्वारा श्रथवा पेश्यभ्यन्तरीय वा शिराभ्यन्तरीय अन्तःक्षेप द्वारा सेव्य है । यह परम गुणकारी श्वासोच्छवास एवं हृदयोत्तेजक है । इसका उक्त प्रभाव सुषुम्नागत जीवनीय केन्द्रों के प्रभावित होने से प्रगट होता । मदकारी औषधियों ( Narcotics) को अत्यधिक मात्रा में सेवन करने के उपरांत जो Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपूर हृद्भेद एवं श्वासोच्छवास कार्य विरोध होजाता है उसमें तथा विष विशेष ( Barbiturale Poisoning) के असाध्य रोगियों में यह बिशेष गुणकारी है। धर्म तथा प्रयोग २११५ आयुर्वेदीय मतानुसारकपूरं कटुतिक्तं च मधुरं शिशिरं विदुः । तृमेदोविष दोषघ्नं चक्षुष्यं मदकारकम् ॥ ( ध० नि० ३ व० ) कपूर - मधुर, तिल, चरपरा और शीतल है । यह तृषा, मेद, एवं विष दोषनाशक और नेत्रों के लिए हितकारी तथा मदकारक है । कर्पूर: शिशिरस्तिक्तः स्निग्धश्रोष्णोऽस्रदाहदः । चिरस्थो दाह दोषघ्नः स धौत : शुभकृत्परः ॥ ( रा० नि० १२ व० ) कपूर - शीतल, कड़वा, स्निग्ध उष्णवीर्य तथा रक्त एवं दाहकारक है । पुराना कपूर दाह और दोषनाशक है । धोया हुआ कपूर परम श्रेष्ठ है । कर्पूर : शीतलो वृष्यश्चक्षुष्यो लेखनो लघुः । सुरभिर्मधुरस्तिक्तः कफपित्त विषापहः ॥ दाहतृष्णाऽऽस्यवैरस्य मेदोदौर्गन्ध्य नाशनः । आक्षेप शमनो निद्रा जननो धर्म बर्द्धनः । वेदनाहारकः कामशान्तिकृच्छुक्रमेह कृत् ॥ कर्पूरो द्विविधः प्रोक्तः पक्कापक प्रभेदतः । पक्कात्पूरत: प्राहुरपकं गुणवत्तरम् ॥ ( भा० पू० खं० ३ व० ) कपूर - शीतल, वृष्य, (वीर्यवर्द्धक) नेत्रों के लिए हितकारी, लेखन लघु, सुगंधयुक्त, मधुर तथा तिकरस एवं कफ, युक्त पित्त, विष, दाह, प्यास, मुख की विरसता, मेदरोग तथा दुर्गन्ध को नष्ट करनेवाला होता है । श्राक्षेपवातनाशक, निद्रा जनक, धर्मबर्द्धक, ( खूब पसीना लानेवाला ) वेदना नाशक, कामवेग को शांतिकर्त्ता और शुक्र प्रमेह कारक ( हारक ) है । पक्क तथा श्रपक्क इन भेदों से कपूर दो प्रकार का होता है। पक कपूर कपूर की अपेक्षा श्रपक्क कपूर श्रधिक गुणकारी होता है ऐसा वैद्यलोग कहते हैं । कर्पूरं शीतलं पाके चतुष्यं कफनाशनम् । पक्क कर्पूरतः प्राहुरपक्कं गुणवत्तरम् ॥ ( राज० ) कपूर - पाक में शीतल, कफनाशक और नेत्र को हितकारी है । पक कपूर से श्रपक्क कपूर अधिक गुणकारी है । सतिक्तः सुरभिः शीतः कर्पूरो लघुलेखनः । तृष्णायां मुख शोषे च वैरस्ये चापि पूजितः ॥ ( सुश्रुत ) कपूर - कड़वा, सुगन्धि, शीतल, हलका, लेखन तथा तृषा, मुखशोष और विरसता को दूर करनेवाला है । कपूरो मधुरस्तिक्तः शीतलः सुरभिर्लघुः । नेत्रयो लेखन कृदृष्यः कटुः प्रीतिकरोमृदुः ॥ मदकारी च संप्रोक्तः कफदाहतृषापहः । रक्तपित्तं कण्ठरोगं नेत्ररोगं विषं तथा ॥ पित्त' च मुखवैरस्यं दौर्गन्ध्यमुदरं तथा । मूत्रकृच्छ्र प्रमेहश्च मलगन्धं च नाशयेत् ॥ स एव नूतनः स्निग्धस्तिक्तश्चोष्णाश्च दाहकृत् सोपि जीणों दाहशोषनाशनः परिकीर्त्तितः ॥ सोपि धौतोगुणैः श्र ेष्ठः प्रोक्तो वैद्यः पुरातनैः ॥ (नि० ना० ) कपूर-मधुर, कड़वा, शीतल, सुगन्धि, हलका, चतुष्य, लेखन, वृष्य, चरपरा, प्रीतिकारक. मृदु, और मदकारी है तथा कफ, दाह, प्यास, रक्तपित्त, कण्ठरोग, नेत्ररोग, विष, पित्त, मुख की विरसता दुर्गन्ध, उदर रोग, मूत्रकृच्छ, प्रमेह और मल की दुर्गन्धि को दूर करता है । नवीन कपूर स्निग्ध कड़वा, गरम और दाहकारक है । पुराना कपूर दाह और शोषनाशक है और धोया हुआ कपूर श्रेष्ठ है। भिन्न-भिन्न कपूर के गुण पोतास (पोताश्रय) भीमसेनी और वरास गुण निघण्टु रत्नाकर के अनुसार ये तीनों स्वादिष्ट शीतल, शुक्रजनक, तिक एवं कटु होते हैं और Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपूर २११६ कपूर प्यास, दाह, रक्तपित्त और कफनाशक है। भावप्रकाश तथा राजनिघण्टु के अनुसार भीमसेनी कपूर रस एवं पाक में मधुर, वातपित्तनाशक, शीतल, वृंहण और वल्य है। शङ्करावास कपूर के गुण ईशावास कपूर रेचक, वृष्य, मदनाशक, ( नशे | को दूर करनेवाला ) और अत्यंत शुभ्र है। यह | उन्माद, तृषा, श्रम, कास, कृमि, क्षयरोग तथा स्वेद और अंगों के दाह को दूर करता है । (नि० र०) हिमकपूर (हिमकपूरकः) यह शुभ्र, वीर्यजनक, शीतल, रस में चरपरा, ... तथा तृषा, दाह, मोह, एवं स्वेद को दूर करता है। (नि०र०) उदयभास्कर कपूर के गुणयह एक प्रकार का पक्क कपूर है जो सदल निर्दल भेद से दो प्रकार का होता है। यह पीला रेचक, निर्मल, कठिन, कटु, अग्निदीपक, लघु लक्ष्मीदायक, पित्तकारक तथा कफ, कृमि, विष, में वात; नासाश्रुति नाक से जल बहने, लालास्राव, " मुख से लार बहने, गलग्रह और जिह्वा की जड़ता ___ को नष्ट करता है। यथा.. "पीतःसर: स्वच्छक: सम्प्रोक्त: कठिनः कटुः समुदित: स्याहीपकोऽग्नेर्लघुः । श्रीदः पित्तकरः कफ कृमि विषात् वातश्च नासाश्रुति लालास्राव . गलग्रहौ च शमयेत् जिह्वाजड़त्वापहः ." (वै निघ० । नि० र०) . पर्ण कपूर के गुण (पान कपूर, पत्री कपूर) | यह तिक, शोधक, उन्मादकारक तथा मूत्ररोग | - पीनस और दाह निवारक है। (नि० र०) चीनिया कपूर चीनक: कतिक्तोष्ण ईषच्छीत: कफापहः।। कंठदोषहरो मेध्य: पाचन: कृमिनाशनः ॥ (रा० नि० १२ व०) चीनक-चीनिया कपूर कडु श्रा, चरपरा, उष्ण वीर्य, कुछ कुछ ठंढा तथा कफनाशक है और कंठदोषहर, मेधाजनक, पाचक एवं कृमिघ्न है। चीनाकसंज्ञः कपूरः कफक्षयकरः स्मृतः।" कुष्ठकंडू वमिहरस्तथा तिक्तरसश्च सः ।। (भा० पू० खं० ३ व०) चीनिया कपूर को संस्कृत में चीनाक कपूर कहते हैं। यह कफ को नष्ट करनेवाला तथा कुष्ठ, खुजली और वमन को भी दूर करनेवाला होता है एवं तिक रस से युक्त होता है। कपूर तेल कपूर तैल हिम तैल शितांशु तैल शीताभ्र तैल तुहिनांशु सुधांशु तैलम् । कपूर तैल (लं) कटुकोष्ण कफामहारि वातामयध्न रद दाढयद पित्तहारि॥ (रा. नि० १५ १०) कररतैल,हिमतैल,शितांशुतैल,तुहिनांशु,शिताभ्र तैल सुधांशुतैल ये कप रतैल(Camphoroil) के संस्कृत पर्याय हैं । कपूर का तेल चरपरा, गरम कफ और आमनाशक, वातरोगनाशक, दाँतों को दृढ़ करनेवाला ओर पित्तनाशक है। शीतांशु तैलमाक्षेप शमनं वायुनाशनम्। , स्वेदनं शूल हृच्चोग्रं ज्वरघ्नं कफनुत्परम् ।। आमवाते तथाध्माने ज्वरे च शिरसो गदे। दन्तरोगे च भग्ने च द्वैपेयं परियुज्यते ॥ (प्रा० सं०) कपूर का तेल-श्राक्षेप को शांत करनेवाला, वातनाशक, स्वेदक, शूलनाशक, उग्रज्वर और कफ का नाश करनेवाला तथा प्रामवात, आध्मान, ज्वर, शिरोरोग, दंतरोग और भग्न रोग में कपूर तैल बरतना चाहिये। ___ कपूर तैलं कटुकं चोष्णं पित्तकरं मतम् । दंतदाढयप्रदं चैव कफवान विनाशकम् ।। (नि०र०) कपूर का तेल-चरपरा, गरम, पित्तकारक, दाँतों को दृढ़ करनेवाला और कफवात विना वैद्यक में कपूर के व्यवहार चक्रदत्त-सद्यः शस्त्र-क्षत पर कपूर-शरीर के किसी भाग के शस्त्र से कट जाने पर तत्तय Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपूर २११७ कपूर ... गाय के घी में कपूर का महीन चूर्ण मिलाकर लब्ध करता है। आकरोक्त वृष्य योग में भी उससे क्षत पूरण कर वस्त्र द्वारा बाँध रखने से पाक | ' कपूर का व्यवहार नहीं हुआ है। भावप्रकाश ने एवं व्यथा नहीं होने पाती और क्षत शीघ्र पूरित कपूर को वृष्य लिखा है। हो जाता है। यथा यूनानी मतानुसार"कपूर पूरितं वद्धं सघृतं संप्ररोहति । प्रकृति-तृतीय कक्षा में शीतल एवं रूत । सद्यः शस्त्रक्षतं पुसा व्यथापाक विवर्जितम्" डाक्टर इसे गरमी करनेवाला जानते हैं । कतिपय (व्रणशोथ-चि०) यूनानी चिकित्सा शास्त्रज्ञों की यह धारणा है, कि भावप्रकाश-परिलेही नाम कर्णाली रोग कपूर में अंशत: उष्मा भी निहित है और वह इतने परिमाण में है जिसमें उसको मस्तिष्क तक पर कपूर-परिलेही (कान की लौ में होनेवाला एक प्रकार का बहुरसत्रावी क्लेदयुक्त क्षत ) रोग में पारोहित कर देती है और केवल उसके वाष्प तप्त गोमय की पोटली द्वारा वारम्वार स्वेद देकर पहुँचाती है । वैद्य उष्ण और रूक्ष मानते हैं। छागमूत्र में कपूर का चूर्ण पीसकर क्षत पर लेप गीलानी ने मुफ्रिदात क़ानून को शरह में लिखा करें । यथा है कि वह कर जो विशुद्ध, साफ और असली होता है और जिसे हिन्दू सुगंध के लिये पान के वहुशो गोमयैस्तप्तैः स्वेदितं परिलोहितम् । बीड़े में रखकर खाते हैं और जिसे भीमसेनी कहते घनसारैः समालिम्पेदजामूत्रेण कलिकतैः ।। हैं, उसके उष्ण एवं रूक्ष होने में कोई संदेह नहीं (कर्णरोग-चि०) वह अत्यंत उष्ण है। यहाँ तक कि तृतीय कक्षा वङ्गसेन-शुक्र नाम अति रोग अर्थात् फूला सं भी इसकी गरमी बढ़कर चतुर्थ कक्षा तक पहुँच पर कपूर-कपूर का महीन चूर्ण वरगद के दूध गई है । परन्तु इसमें उष्णता की अपेक्षा रूक्षता में मिलाकर आँख में प्रांजने से धन एवं उन्नत कम है । किसी किसो का अभिमत है कि जब तक शुक विनष्ट होता है। यथा कपूर भामाशयमें रहता है,शीतल है और जब यकृत "वट क्षीरेण संयुक्तं श्लक्ष्ण कपूरज रजः । की ओर जाता है, तब उष्ण हो जाता है।। क्षिप्रमञ्जनतो हन्ति शुक्रं वापि घनोन्नतम् ॥ __ हानिकर्ता-यूनानी चिकित्सकों ने इसे अनेक (नेत्ररोग-चि०) दशाओं में हानिकर लिखा है । अस्तु, शीतल वक्तव्य प्रकृति एवं निर्बल प्रकृति वालों को यह हानि चरक के "दशोमानि" प्रकरण में कपूर का करता है। यह शिरःशूल उत्पन्न करता, भामाशय उल्लेख नज़र नहीं पाता। परन्तु सूत्रस्थान के को निर्बल करता और कामशक्ति के लिये तो यहाँ पञ्चम अध्याय में इसके सम्बन्ध में यह लिखा तक विरुद्ध है कि इसके अधिक सूंघने मात्र से है-"धार्यमास्येन वैशद्य रुचि सौगन्ध्य वह कम हो जाती है। अफीम की अपेक्षा यह मिच्छता । तथा कपूर निर्यासं-"। सुश्रत अधिक हानिकर है। अफीमची जब अफीम के सूत्र स्थान के ४६ वें अध्यायमें कपूरका गुणोल्लेख प्रभाव से मुक्ति पाता है,तब वह अपनो जननेन्द्रिय दृष्टिगत होता है, यथा- 'स तिकः सुरभिः शीतः में मैथुन-शक्ति का अनुभव करता है, किंतु कपूर कर्पूरी लघुलेखनः । तृष्णायां मुखशोषे च वैरस्ये प्ले तो वह सर्वथा जाती रहती है। कपर वीर्य को चापि पूजितः" । वृद्धवाग्भट (अष्टांग संग्रह) में सांद्रीभूत कर देता है, वस्ति एवं वृक्त को शीतल कहा है-"रुचि वैशद्य सौगन्ध्य मिच्छन् वक्ण करता है और उन उभय अंगों में अश्मरी पैदा धारयेत् । जाती लवंग कपूर-"। आकरोक्त करता है । यह क्षुधा नष्ट करता और अनिद्रा रोग किंवा वृन्दचक्र कृत संग्रहोक कास, श्वास, प्रमेह उत्पन्न करता है। इसके अधिक सूंघने से प्रायः वा ग्रहणो चिकित्सान्तर्गत कपूर का व्यवहार नोंद कम आती है, यहां तक कि शिरःशूल दिखाई नहीं देता, किंतु रस चिकित्सा के प्रसार के उत्पन्न हो जाता है । यह पलित और वार्द्धक्य शीघ्र साथ उन सब रोगों में कपूर का व्यवहार प्रतिष्ठा | लाता है। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११८ कपूर इससे संतानोत्पत्ति रुक जाती है । दर्पंन - अंबर, कस्तूरी, जुन्दबेदस्तर, उष्ण एवं सुगन्धित औषध, गुलकन्द, रोग़न सौसन, रोग़न चमेली, तिल तैल, रोग़न बनफ़शा और मसाले का तेल । वस्ति एवं वृक्कगत श्रश्मरी रोग में माजून वर्द वस्ति एवं गुलाब पाक इसका उत्तम दर्पन है । बनफ़शा, नीलोफ़र, केशर और गुलकंद शिरः शूल उत्पन्न होने के रुद्रक हैं । वैद्यों के मत से इसका दर्पन्न पिप्पली, मधु, शुरठी, काली मिर्च, विषखपड़े की जड़ और भृंगराज स्वरप है । प्रतिनिधि - द्विगुण बंशलोचन और समभाग श्वेत चन्दन र करुवा । मात्रा - निस्वाहुल् श्रद्विया के अनुसार ४ | यत्र से ६ रत्ती तक। किसी-किसी के मत से सप्ताह भर में ३॥ माशा तक खा लेना चाहिये । नौ माशा कामावसाय उत्पन्न करता है घोर आमाशय को विकृत करता है । हकीम शरीफ़ खाँ के पिता ने एक तोला कपूर प्लेग के रोगी को खिजवा दिया। इसके सेवन से वह उसी दिन रोग मुक हो गया । वैद्यों के मत से वेदना एवं श्राक्षेप निवृत्यर्थ एवं शक्ति वृद्धि के लिये तथा स्वेद लाने के लिये कपूर की मात्रा 1⁄2 रत्ती से ५ रत्ती तक है। एल्लोपैथीय द्रव्य-गुण विषयक ग्रन्थों में इसकी मात्रा २ से ५ ग्रेन = ( १३ से ३२ ग्राम ) लिखी है। गुण, कर्म, प्रयोग — यह प्रकोप जनित नकसीर का रुद्वक है; क्यों कि अपनी शीतलता एवं रूक्षता के कारण यह तजन्य प्रकोप को शांत करता है ( क्योंकि जोश और उबाल हरारत और रतूत से पैदा होता है ) । यह उग्रशोथ एवं पित्तज शिरःशूल को गुणकारी है और कुलाश्र ( मुखपाक ) को बहुत लाभ पहुँचाता है । क्योंकि यह सरदी पहुँचाता और रूक्षता उत्पन्न करता है । इसके सूँघने से मस्तिष्कगत श्रार्द्रता शुष्कीभूत हो जाती है । जिससे अनिद्रा का प्रादुर्भाव होता है । यह उष्ण प्रकृतिवालों की ज्ञानेन्द्रियों को शक्तिप्रदान करता है । क्यों कि यह उनके मस्तिष्क की समता स्थापित करता है। यह बालों को शीघ्र श्वेत करता है । चाहे इसको मुख द्वारा बिलाया जाय अथवा इसका वाह्यरूप से उपयोग किया 1 कपूर जाय । इसको मुख द्वारा प्रयोजित करने से जो बात श्वेत होते हैं, उसका कारण यह होता है, कि यह प्रकृति को शीतल कर देता है, जिससे श्लेष्मीय ( कफज द्रव) अधिक हो जाती हैं । परन्तु जब बालों पर इसका वाह्यरूपेण उपयोग कियाजाता है, तब उसके श्वेत होने का कारण यह होता है कि यह बालों की ऊष्मा को प्रशमित कर देता है और उनकी तूतों (द्रवों) को विलीन होने से रोक देता है । श्रथवा उसका कारण यह होता है, कि यह बालों को अपने शीत की श्रधिaar से स्थूल (कसी ) कर देता है और उनके घटकों को एकत्रीभूत करता है, जिससे बालों के हार के मार्ग अवरुद्व हो जाते हैं । श्रस्तु उसी प्रकार पलित रोग का प्रादुर्भाव होता है, जिस प्रकार श्रधिक सर्दी पहुँचने के कारण खेती - फ़सल सफेद हो जाती है । यह कामावसाय कारक वा क्लीवताजनक है; क्योंकि यह यीर्य को जमा देता है और वृक्क एवं थंड को शीत पहुँचाता है। इसकी लकड़ी के दरारों से निकला हुआ कपूर अन्य सब प्रकार के कपूरों से अपेक्षाकृत अधिक प्रभावपूर्ण होता है । नफ़ी० । कपूर कैसूरी निद्राजनक, मनोल्लासकारी, और हृदय तथा मस्तिष्क को बलप्रद है एवं अनिद्रा, तृषा, यकृत एवं वृक्क प्रदाह, मूत्र की जलन, गरमी का ज्वर, तपेदिक, फुफ्फुसौष ( ज्ञातुजनव ), व्रण, उरःक्षत, संग्रहणी ( ख़िल्फ़ः ) श्रोर नकसीर इन रोगों को नष्ट करता है । —मु० ना० । यूनानी चिकित्सकों के अनुसार कपूर मनोल्लासकारी है और हृदय तथा उष्ण मस्तिष्क को शक्ति प्रदान करता, तपेदिक एवं दूषित ज्वर- तपेनफ़िनी को निवारण करता है । यह फुफ्फुसोष, श्रतिसार उरःक्षत धौर फुफ्फुसीय तत को धाराम पहुँचाता है । यह पित्तज श्रतिसार को नष्ट करता, प्यास को कम करता और यकृत वृक्क एवं मूत्र के दाह को शमन करता है। 1 थोड़ा सा कपूर काहू के तेल में मिलाकर नाक में टपकाने से मस्तिष्कगत ऊष्मा कम हो जाती है । श्रौर नींद श्रा जाती है। खजाइनुल् बिया के लेखक लिखते हैं, "मैं प्रायः इसको Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपूर २११६ कपूर चमेली वा तिल के तेल मिलाकर प्रयुक्त करता हूं।" इसके सूधने से उष्ण प्रकृतिवालों की प्रकृति बलवती होती है । यह जौहर रूह को बहुत शक्ति प्रदान करता है। परन्तु इसके लिए शीतल प्रकृति वालों को इसे अंबर और कस्तूरी के साथ देना चाहिए । रूक्षता निवारणार्थ इसे रोगन बनाशा या चमेली के तेल के साथ देना चाहिये। दाँतों में कीड़ा लगने पर इसको दाँतों पर मल वायें और इसका गण्डूष धारण कराएँ। यह उष्ण बिषों का अगद है। यदि बिच्छू किसी को डङ्क मार दे, तो ३॥ मा० खाने से बिलकुल आराम होजाता है। यदि फोड़ा फुसी अत्यन्त विषैला एवं प्रसरणशील हो, तो इसके उपयोग से आराम होता है। यह क्षत की वेदना निवारण करता है। यदि किसी अंग से रक्क न रुक सके, तो इसको | पीसकर बुरकते हैं । इससे वह रुक जाता है। इससे चांदी के आभूषण और वर्तन सुरक्षित रहते हैं। इससे उनकी असली चमक-दमक स्थिर रहती है। नकसीर का रन बन्द करने के लिए यह परमोपयोगी है । इसे पानी या गुलाब में पीसकर अवपीडित करें. या धनिये के हरे पत्तों के पानी में या बारतंग के पत्तों के पानी में पीसकर मस्तक और शिर पर मालिश करें । अथवा १-१ जौ भर कपूर सिरके में या हरे धनियों के पत्तों के पानी में या तुलसी, बनतुलसी अथवा मरुवेके पत्तोंके पानी में घोट कर नाक में सुड़क ले । कपूर की सुगंध से वायु शुद्ध होती है और अनेक प्रकार के कीट भागते ओर मृतप्राय हो जाते हैं। महामारी फैलने पर बहुत से लोग इसकी टिकिया और डली अपने सिर, हाथ तथा जेब में रखते हैं। कपूर और नरकचूर प्रत्येक दो तोला पीसकर तीन तोला गुड़ में मिलाकर एक फाहा पर परिविस्तृत करें और उसके केन्द्र में छिद्र रखें। यह फाहा नहरुवा पर चिपका दें। इससे समस्त नहरुवा दो-तीन दिन में उक्त फाहा के छिद्र से होकर निकल जायेंगे। कहते हैं यदि स्त्री इसे अपनी गुडेंद्रिय में लगाथे, तो पुरुष उस पर क़ादिर न हो सके । इब्न असवद ने लिखा है कि मेरे एक मित्र ने ४॥ माशा कपूर एक दिन खाया, उससे उसकी पुरुषार्थ शक्ति का जोर जाता रहा । दूसरे दिन भी उतना ही खाया, उसकी कामेच्छा बिल्कुल जाती रही । तीसरे दिन भी उतना ही खाया. जिससे उसका आमाशय विकृत हो गया, यहाँ तक कि श्राहार पाचन नहीं होता था। मुहीत श्राज़म में लिखा है कि हिंदू कपूर को वृष्य और वाजीकरण-मुक़व्वी बाह बतलाते हैं। इसीलिये इसको प्रायः हलुओं में सम्मिलित कर खाते हैं । खज़ाइनुल अदविया के लेखक लिखते हैं कि मैंने कतिपय वैद्यों की लिखी किताबों में इसके सम्बन्ध में देखा है कि क्रीवता उत्पन्न करता है। अस्तु, अनुभूत चिकित्सा सागर में लिखा है ५ रत्ती से १० रत्ती तक कपूर खाने से नपुस्त्व उत्पन्न होता है। हिंदू इसको हलुश्रा वा.खीर में केलव सुगंधि के अर्थ डालते हैं। गुरु पाक आहारों में इसकी धूनी हलुओं को केवल कम खाने और अल्प व्यय होने के लिये देते हैं। ___ यह कुचले के सत से हुई विषाक्तता को निवारण करता है। इसका प्रथम प्रभाव फैलनेवाला या स्फूर्तिदायक होता है और दूसरा रक्कमें मिलकर सम्पूर्ण अंगों के नियत मात्रा से बढ़े हुये कार्य को स्वाभाविक दशापरले प्राताहै यहपीड़ा एवं उद्वेष्टन कोमिटाता है। इसकी अधिक मात्रा मूर्छाकारक तीक्ष्ण बिष जैसी है । यह ज्वर, शोथ; श्वासहृद्रोग, कूकरखाँसो, हृदय के फूलजाने से उसका अधिक स्पन्दन, मूत्र एवं वीर्य संबन्धी अंगों के रोग वेदना सहित ऋतुस्राव होना, स्त्री कामोन्माद सुत (? शुक्र) प्रमेह, नाड़ी व्रण, जरायु, प्रदाह एवं उसमें से नाना भाँति का द्रव स्रावित होना, मूत्र धारण शनि की निर्वलता, स्त्रियों के आसेब का रोग,गठिया,शरीरकी सड़न और लघु-संधिशूल प्रभृति रोगों में बहुत गुणकारी है। -ख. प्र. पपोटों, पर इसका लेप करने से सूजन उत्तरती है। २॥ रत्ती कपूर और श्राधी रत्ती अफीम. इन दोनों की गोली बनाकर सोते समय खाने से Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६० बहुत पसीना आता है । जिससे गठिया का पुराना | दर्द जाता रहता है । इस गोली पर सोंठि का काढ़ा पिलाकर रोगी को काफी कपड़ा प्रोढ़ा देना चाहिए। जब श्वास रोग का वेग हो, तब दूसरे तीसरे | घण्टे पर २ रत्ती कपूर में समान भाग हींग मिलाकर गोली बना सेवन करायें। उस समय रोगी की छाती पर तारपीन तैल का अभ्यंग कर उसे सेंक करना चाहिए। इससे कष्ट से साँस श्राना आराम होता है । उस रोगी को जिसका हृदय जोर से धड़कता हो, इन गोलियों से कभी २ उपकार होजाया करता है। कपूर को तेल में मिला, गरम कर रात को सीने पर मर्दन करने से शिशुओं का कास रोग मिट जाता है। श्रढ़ाई पाव सिरके में २॥ तोला कपूर गलाकर उसमें अढ़ाई पाव या सवा सेर जल मिलाकर रखें । उसमें कपड़ा भिगोकर गठिया और पुट्ठों पर लगाने से वेदना निवृत्त होती है। दो रत्ती कपूर और 1 रत्ती अफीम इनकी गोली बनाकर सोते समय खाने से स्वप्नदोष और प्रमेह नष्ट होता है । इन रोगों में इससे बढ़कर अन्य कोई औषध नहीं। सूजाक में मूत्र त्याग के समय होनेवाली वेदना के निवारणार्थ दो रत्तो कपूर और आधी रत्ती अफीम मिलाकर देना चाहिये और जननेन्द्रिय की सोवन से बैठक तक सीवन पर कपूर का लेप करना चाहिये। जिस स्त्री की योनि में कंडू एवं प्रदाह हो, उसको अढाई-तीन रत्ती कपूर की गोली बना शक्ति के अनुसार दिन में दो-तीन बार खिलाना चाहिये। इसके लिये सर्व प्रथम विरेचन द्वारा कोष्ठ शुद्धि कर लेनी चाहिये। गर्भाशयिक वेदना में तीन या चार रत्तो कपूर को गोली देना चाहिये। __ शीतला रोग में जब रोगी निर्बल हो और ज्वर के प्रवल वेग के कारण प्रलाप करता हो, चित्त व्यग्र हो, नींद जाती रही हो, तो १॥ रत्ती कपूर और १॥ रत्ती हींग की गोली बना हर तीसरे घंटा | बर्तना चाहिये । पाँव के तलवों और हृदय पर तार पीन का तेल मदन करना चाहिये अथवा उन दोनों जगह राई का पलस्तर लगाना चाहिये, यदि इससे शिरः शूल हो जाय अथवा खोपड़ी के ऊपर गरमी बढ़ जाय तो इसका प्रयोग बन्द कर देना चाहिये । उक्न उपचार के लिये बहुत सोच-विचार एवं चतुरता अपेक्षित होती है। काग़ज़ की नली बना उसमें कपूर का धूआँ साँस के साथ पीने से प्रतिश्याय रोग श्राराम होता है। परन्तु इसके उपयोग के समय मुख और शिर को आच्छादित कर लेना चाहिये । पुटों के दर्द पर कपूर का प्रलेप करना चाहिये। __एक रत्ती एलुआ और डेढ़ या दो रत्ती कपूर मिलाकर लगाने से नहरुवा जनित वेदना नष्ट होती है। यह स्फूर्तिदायक एवं श्लेष्मा निःसारक है। कफ नाशक औषधियों के साथ कपूर खिलाने से चिरकालानुबन्धी कास नष्ट होता है। कुनैन, नौसादर के फूल और कपूर मात्रानुसार , इनकी गोली बनाकर देने से गुजराती रोग नष्ट होता है। अढ़ाई पाव पानी में दो तोला कपूर पीसकर उसमें हर प्रकार के बीज भिगो या डुबोकर बोने से वे बहुत शीघ्र उगते हैं। जो वृक्ष कलम से लगाये जाते हैं, उनकी कलम को कपूर के पानी में डुबो कर जमीन में रखने से अति शीघ्र जड़ छोड़ देते हैं। मांसगत वड़े भागों की वेदना में कपूर तैलाभ्यङ्ग गुणकारी है। ___कास रोग में कासनिवारक अन्य औषधियों के साथ कपूर का उपयोग करना चाहिए। दंत-कोटर में कपूर भर देने से दंतशूल और दंतविकार जाते रहते हैं। पित्तज शिरःशूल में सिरके और शीतल जल के साथ कपूर का लेप करना चाहिये। ____ मांस के बड़े बड़े भागों और रगों के दर्द और संधिशूल में अफीम और कपूर को राई के तेल में मिलाकर मर्दन करने से उपकार होता है। Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपूर और एलुमा की मोलियाँ बनाकर बर्तने से सूजाक में जलन एवं खुजली और बारम्बार शिश्नगत उत्तेजना का निवारण होता है। प्रदाई रत्ती की मात्रा में कपूर स्फूर्तिदायक एवं स्वेदजनक है और यह वातनाड़ी विषयक वेदना का निवारण करता है। कपूर का लेप करने से क्षत सुधरने लग जाता है । विशूचिका के प्रारम्भ में इसका उपयोग करने से कै और दस्त रुक जाता है। विषचिका में हर चौथे घंटे ५ रत्ती कपूर देने से उपकार होता है । केले पर कपूर बुरक कर खिलाने से सुख पूर्वक शिशु-प्रसव होता है। इसके निमित्त दस रत्ती कपूर पर्याप्त है । ५ से १० रत्ती तक कपूर स्फूर्ति और उद्वेग पैदा करता है, आक्षेप दूर करता है और स्वेद, निद्रा तथा नामर्दी उत्पन्न करता है । दंत-शूल, चिरकारी गठिया, कष्ट | रज, न्याकुलता, ज्वरोत्तर होनेवाली निर्बलता, । कुकर खाँसी, फेफड़े का सड़ जाना, विचिका, । कंपवायु, सियों के प्रासेब का रोग, मृगी, प्रसूता ज्वर, दिल धड़कना इत्यादि व्याधियों में कपूर का प्रयोग गुणकारी है । सदा कपूर का व्यवहार करने | से शरीर में स्फूर्ति रहती है, इससे कीड़े नष्ट हो जाते हैं, कपूर और मिश्री पीसकर अवचूर्णन करने | से मुखपाक माराम होता है। कपूर और सफेद चंदन घिसकर सूंघने से गरमी का शिरःशूल नष्ट होता है। कीट-भक्षित दाँतों में कपूर धारण करने से दंत-शूल मिटता है। सिरका में कपूर मिलाकर लेप करने से भिड़ और मक्खी का ज़हर उतर जाता है। वट-क्षीर में कपूर को खरल करके आँख में लगाने से फूखा कट जाता है । ___ कपूर की धूनी देने से रक्र-क्षरण निवृत्त | होता है। __एक भाग कपूर और ४ भाग सफेद कत्था इनकी गोलियाँ बनाकर एक रत्ती से चार रत्ती तक खिलाने से पिस ज्वर जाता रहता है। एक माशा कपूर को कई सोला गुलाब के अर्क में घोंटकर पिलाने से संखिया का जहर उतरता है कपूर को सिरके में पीस कर लगाने से बिच्छू का जहर उतरता है । तारपीन तैल में कपूर मिला कर लगाने से वक्षःस्थलस्थ उद्दष्टन दूर होता है। ___ पानीसे परिपूर्ण बोतल में एक तोला कपूर डाल. कर उसमें डाट लगाकर दो घंटे पड़ा रखें। पुनः उसमें से ३ मा० इमली का गूदा और ३ माशा खाँड़ मिलाकर पिलाने से ज्वरोष्मा तथा लू मिटती है।-ख० अ०। ___ तालीफ़ शरीफी-मुफ़रिदात हिंदी श्रादि में जो आयुर्वेद के द्रव्य गुण विषयक ग्रंथों के अरबी वा फारसी अनुवाद ग्रंथ है, कपूर के आयुर्वेदोक्त गुण-प्रयोगों का उल्लेख हुआ है। गायतुल मनहूम नामक कानून की टीका में लिखा है कि कपूर अपने प्रभाव (खासियत) और शीत एवं रूक्षता के कारण शव को सड़ने से बचाता है। इसलिये इसे कफन में रखते हैं। नव्यमत खोरी-वाझरूप से प्रयोग करने पर, कपूर स्वक् लोहित्योत्पादक एवं शोथ तथा अर्बुद का विलीनत्व साधक है । योग्य औषधीय मात्रा में सेवन करने से कपूर हृदय की कार्य-तत्परता, निःश्वासोच्छवास एवं रकसंवहन क्रिया वर्द्धित करता है । कपूर स्त्री-संभोग-स्पृहावर्द्धक है, पर इसके दीर्घकाल के सेवन से जननेन्द्रिय निर्बल होजाती है । यह गर्भाशय को उत्तेजित करता और प्रार्तव रजःस्राव की वृद्धि करता है। त्वचा पर यह वर्द्धित स्वेदस्राव उपस्थित करता है। 'गनोरिया-सूजाक' रोगी के शिश्न की अति यन्त्रणादायक आकर्षणवत् पीड़ा किंवा शिश्न की अधोवक्रता उत्पन्न होने पर बेदनाहर रूप से कपूर व्यवहार किया जाता है। भक्षित कपूर शरीर के भीतर आत्मीकृत होकर पुनः धर्म,मूत्र तथा श्लेष्मा के साथ वहिःतिप्त होता है और प्रायः यह मूत्राल्पता एवं मूत्रणक्लेश उत्पादन करता है। अधिक मात्रा में कपूर सेवन करने से पाकस्थाली तथा श्रान्त्र में प्रदाह उत्पन्न हो जाता है। एवं उत्तेजक (Irritant)विष भक्षण के अपरापर लक्षण प्रकाश पाते हैं । कपूर के मानाधिस्म होनेपर हृदय का अवसाद, शरीरोष्मा की कमी के Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२७ कपूर सहित स्वेद भाना, हस्त-पाद की शीतलता, धातूष्मा का हास एवं धर्म, तथा प्राक्षेप और अन्त में मृत्यु पाकर उपस्थित होती है। संतान प्रसवोत्तर जात मनोविकार में अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में कपूर व्यवहृत किया जा सकता है। कृमि पहिष्करणार्थ कपूर की वस्ति पिचकारी करना हितकर है। क्षत के लिए प्रक्षालन औषध-धोने की दवा के रूप से कपूर व्यवहृत होता है । कृमि भक्षित दंतशूल-प्रशमनार्थ कपूर को सुरासार में द्रवीभूत कर, इसके द्वारा कृमि-भक्षित दंत-गह्वर पूरण करें। नासास्राव (Cory za) में कपूर | का नस्य हितकर है । घृष्ट-पिष्ट एवं मोच आने पर तथा प्रामवातिक संधिशूल एवं पेशी की प्राक्षेप वेदना में ४ भाग जैतून-तैल और एक भाग कपूर एकत्र मिश्रित कर मर्दन करें। मेटीरिया मेडिका श्राफ इण्डिया-२य भाग ५२६-७ पृ०। नादकर्णी-कपूर एक अति विशिष्ट गंधिद्रव्य है जो स्वाद में तिक, चरपस और सुरभिपूर्ण होता है। यह अत्यन्त उड़नशील एवं ज्वलनशील होता है। और उज्ज्वल प्रकाश से जलता एवं बहुत धूम्र देता है। टायफस नामक सन्निपात ज्वर ( Typhus ) विशेष मसूरिका (Small pox ) एवं श्रान्त्रिक ज्वर (Typhoid ) जातीय समस्त प्रकार के ज्वर तथा विस्फोटक (Eruptions) में और शीतला ( Measles) ज्वर प्रकोपजन्य प्रलाप, कुक्कुर कास, हिका, प्राक्षेपयुक्त श्वास रोग, याषापस्मार, कामोन्माद (Nymphomania) कष्टरज, प्रसूतिकोन्माद, कंपवात, अपस्मार, वातरक विशेष (Atonic gont)माखोखोलिया, उम्र प्रामवात तथा चिरकालानुबन्धी कास प्रभृति में भी यह उपयोगी है। कर्नल चोपरा के अनुसार कपूर उत्तेजक, शांति दायक और उदराध्मान को दूर करता है। बर्डवुड के मतानुसार यह प्राक्षेप निवारक, उपशामक, वातमण्डल को शांति प्रदान करने वाला, हृदयोत्तेजक, उदराध्मान निवारक और ज्वरघ्न है । वाह्य प्रयोग करने पर यह वेदनाहर औषध का काम देता है। एलोपैथी के मत से कपूर के वाह्यान्तक प्रभाव तथा प्रयोग वहिः प्रभाव . कठिनीभूत उड़नशील तैल-(Stearopt ene ) होने के कारण कपूर सुगंधित तैलो ( Volatile oils ) की भाँति प्रभाव करता है। यद्यपि अलकतरे (Coas-tar) की श्रेणी तथा फेनोल-समुदाय के द्रव्यों के उदाहरण स्वरूप बहुशः उड़नशील तैलों की अपेक्षा यह निर्बलतर है तथापि सामान्य पचन निवारक ( Antiseptic) होता है। यह स्थानीय धमनियों (Vessels) को उत्तेजित करता और लालिमा एवं ऊष्मा उत्पन्न करता है। इस प्रकार यह लौहित्योत्पादक प्रभाव करता है। - अस्तु, इसके प्रयोग से स्वगीय धमनियाँ परिविस्तृत हो जाती है और वहाँ पर उष्णता का अनु भव होता है। स्थानीय नाड़ियों पर प्रथम इसका उत्तेजक प्रभाव होता है और बाद को नैर्बल्यकारी । इसलिये प्रथम तो उष्णता अनुभूत होती है, परंतु बाद को शैत्य प्रतीत होता है और संज्ञा-शक्ति किसी प्रकार कम हो जाती है । अस्तु, यह किसो भाँति स्थानीय संज्ञाहर-श्रवसन्नताजनक है। आंतरिक प्रभाव मुख-कपूर के भक्षण से प्रथम तो मुंह में शीतलता का अनुभव होता है। परन्तु शीघ्र बाद को ही उष्मा प्रतीत होती है । इससे स्थानीय रक्कसंवहन-क्रिया तीव्र हो जाती है और अत्यधिक श्लेष्मा एवं लाला-स्राव होने लगता है। आमाशय कपूर-भक्षण से पाकस्थाली में ऊष्मा का अनुभव होता है, आमाशयगत रक नालियों की रगें परिविस्तृत हो जाती हैं, प्रामाशयिक रसोद्रेक अभिवर्द्धित हो जाता है, आमाशय की गति तीव्र हो जाती है और गुदा की संकोचन क्रिया शिथिल पड़ जाती है। प्रस्तु, कपूर भामाशोहीपक (Gastric-Stimulant) एवं वातानुलोमक ( Curminative) है । किंतु बड़ी मात्रा में यह प्रामाशय को क्षुभित करता और मिचली पैदा करता और वमन लाता है। यह प्रांत्र को विशोधित (Antiseptic) भी करता है और प्राक्षेप निवारण करता है। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपूर २१२३ कपूर हृदय एवं रक्त-संवहन-त्वचा और श्लैष्मिक ___ कपूर किंचित् कफ निःसारक [ Expectoraकला द्वारा यह रक में अपरिवर्तित रूप में प्रविष्ट nt) है। हो जाता और रक्त के श्वेताणुओं की संख्या वृद्धि वातनाड़ी-संस्थान-यह मस्तिष्क को उत्ते. करता है । हृदयपर कपूरका उत्तेजक प्रभाव कुछतो जित करता है । इसके अत्यधिक मात्रा में सेवन सरल रूप से ओर कुछ प्रामाशय द्वारा होता है, करने से उद्वेग ( Excitement ), शिरोभ्रजिससे नाड़ी परिपूर्ण और बलवतो हो जाती है। मण, विचार-विभ्रम, असंबद्ध गति और कभी कभी परन्तु उसकी गति तोव नहीं होती । वरन् कपूर श्राक्षेप-पे लक्षण उपस्थित होते हैं। तदुपरांत की अधिक मात्रा से नाड़ी क्षीण एवं द्रुतगामिनी निःसंतता एवं घोर निद्रा (Stupor)उपस्थित हो जाती है। यद्यपि रोगी-शय्यागत अनुभव होना संभाव्य होता है । किसो किसो पर इसका (Clinical experience) से यह प्रगट मनोल्लासकारी प्रभाव होता है जिससे उसमें नृत्य होता है कि कपूर रक्रपरिभ्रमणोत्तेजक है, तथापि और हास्य के विचारयुक रुचिका कल्पनायें उत्पन्न इसका शोणित-संक्रमण एवं हृद्त प्रभाव विषयक होती हैं। इसके विपरीत अन्य लोगों में इससे ज्ञान अपूर्ण तथा अनिश्चित है। सोधा शोणित किसी प्रकार का उद्वेग दृष्टिगत नहीं हुआ है। (Circulation) में इसका अंतः क्षेप करने अपितु इससे एक प्रकार का तंद्रा एवं निद्रायुक्त से यह धामनिक चाप को वृद्धि करता है। परन्तु अवसाद को प्रतीत हुई है। इसके सेवन से प्रथम इसका उक प्रभाव अक्षुण्ण वा सार्वदिक नहीं तो उद्दीपक प्रभाव होता है, तदुपरांत परावर्तित होता ओर प्रायशः इससे कुछ भी वृद्धि नहीं गत्यवसादक, फलतः यह प्रार निवारक प्रभाव होती । कतिपय प्रयोगों में इससे हृदयोद्दीप्ति करता है। इससे रक्रनालियों को गति देने वाले प्रत्यक्ष देखी गई है; जब कि अन्यों को कोई परि- ( Vaso-motor) एवं श्वास-प्रश्वास केन्द्र वर्तन दृष्टिगत नहीं हुआ । संभवतः यह हृत्पेशियों उत्तजित होते हैं। को उत्तेजित करता है । इसके प्रयोग से हृदयगत त्वचा-संभवतः प्रामाशयगत क्षोभ के कारण रकनलिकाएँ (Coronary vessels) मुख द्वारा कर सेवन के बाद ही त्वगीय रक परिविस्तृत हो जाते हैं। परन्तु यह निश्चित नहीं वाहनियों का विस्तार उपस्थित होता है। यह है कि ऐसा इसे औषधीय मात्रा में प्रयुक्त करने से पसोने के साथ वहिः शिप्त होता है। प्रस्तु, स्वेभी होता है (कुरानो)। यह बात सुझाई गई दोत्पादक वात-केन्द्रों पर प्रत्यवतया एवं स्वेद है, कि यद्यपि स्वस्थ हृदय पर कपूर का कोई ग्रन्थियों पर स्थानीय प्रभाव करके यह स्वेद की प्रभाव नहीं होता, तथापि असंयत वा निर्बल उत्पत्ति को अभिवड़ित करता है। हृदय को यह सुस्थता प्रदान करता है। यह स्वगीय __ संवर्तन-शरीर रचना संबन्धी संवर्तन क्रिया तप्रणालियों को विस्फारित करता है और सुरासा- पर इसका क्या प्रभाव होता है, यह अभी तक रवत् औषयानुभूति प्रदान करता है। है। संभवतः अज्ञात है; सिवाय इसके कि यह रुग्णावस्था एवं यह त्वगीय रक्तप्रणालियों एवं हार्दीय धमनियों को स्वस्थावस्था में शारीरिक ताप को कम करता है विस्फारित कर, ठीक उसी प्रकार पुनः रक्रवितरण और मूत्र में कैम्फो-ग्लाइक्युरोनिक एसिड' रूप में संपादन करता है, जिस प्रकार कुचलीन Stryc- इसका उत्सर्ग होता है। bnim (दे० "कुचला")। संक्षोभक होने के तापक्रम (Temperatue) स्वस्थाकारण, जब इसका अंतः क्षेप किया जाता है, तब वस्था में शारीरिक ताप-क्रम पर इसका अत्यल्प यह परावर्तित सोषुम्नोद्दीप्ति को उत्तेजित करता प्रभाव होता है, परन्तु मुख्यतः त्वगीय रक्क्रप्रयाहै (Gunn)। (मे० मे० घोष) लीय विस्तारजन्य संतापाभाव के कारण ज्वरावस्था निःश्वासोच्छवास-इससे श्वासोच्छवास में इसका मंद ज्वरहर प्रभाव होता है। किसी भाँति तीव्र हो जाता है और वायु प्रणाली __ जननेन्द्रिय कहते हैं कि साधारण मात्रा में गत द्रव क्षरण अभिवर्द्धित हो जाता है। इस हेतु | देने से यह वृष्य वा वाजीकरण (Aphrods. Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२४ कपूर iac ) है । परन्तु बड़ी मात्रा में देने से यह कामा वसाय ( Ana prosiac ) उत्पन्न करता है । नोट- भारतीय चिकित्सक भी सेनी कपूरate ( Borneo Camphor ) को वृष्य मानते हैं, परन्तु इसके विपरीत इसलामी इतिब्बा इसे और काफ़ूर कैसूरी दोनोंको वृष्य-कामावसाय जनक बतलाते हैं। उत्सर्ग - शारीर धातुओं में कपूर श्रंशतः ऊष्पीकृत ( Oxidise ) होता है और कैम्फोरोल नामक द्रव्य का निर्माण करता है। उक्त द्रव्य ग्लाइक्युरोनिकाम्ल ( Glycuronic acid ) के साथ संयुक्र होकर वृक्कों के द्वारा उत्सर्गित होता है । शरीर से लगभग अपरिवर्तित दशा में वृक्क, स्वचा और वायु प्रणालियों की श्लैष्तिक कलाओं के रास्ते कपूर का उत्सर्ग होता है। कपूर के विषाक्त प्रभाव उग्र विषाक्त प्रभाव - यद्यपि कपूर द्वारा विषाक्रता कचित् ही होती है, तथापि इसे अधिक परिमाण में खा लेने से, पाकस्थली की जगह वेदना ( Epigastric pain) होती है, जी मिलाता और कभी-कभी के श्राती है। इसके सिवाय शिरोघूर्णन, दृष्टिमांद्य, प्रलाप, मृगी चत् क्षेप, शरीर की नीलवर्णता, पक्षाघात इत्यादि लक्षण होते हैं। शीतल, चिपचिपा, स्वेद श्राता और पेशाब का थाना वा उसकी उत्पत्ति रुक जाती है । ततः संमोह वा अचेतावस्था में मृत्यु उपस्थित होती है। 1 उपचार - वामक श्रौषधि देकर वमन करायें वाष्टक - पंप से श्रामाशय को प्रक्षालित करें । शीघ्र प्रभावोत्पादक सेलाइन अर्थात् क्षारीय रेचन दें | शीतल एवं उष्ण डूश का प्रयोग करें । काउंटर इरिटेंट्स काम में लावें । निर्बलावस्था में उत्तेजक वस्तुनों का व्यवहार करायें और यदि श्रावश्यकता हो, तो कुचलीन ष्ट्रिकनीन का त्वगीय अन्तःक्षेप करें। 1 चिरकालानुबन्धी विषाक्त प्रभाव - नवयुवती रमणीगण अपने सौंदर्य वर्द्धनार्थ वा श्रपना वर्ण कर्पूरवत् सफेद बनाने के लिए कभी २ कपूर खाने कपूर का अभ्यास करती हैं । परन्तु एक बार इसकी श्रादत पड़जाने पर पुनः इसका परित्याग कर देना श्रतीव कठिन होजाता है। इस प्रकार श्रादती तौर पर थोड़ा सा कपूर खाने से मनोल्लास एवं श्रात्मानंद का अनुभव होता है । अत्यन्त निर्बलता.. एवं शरीर को पांडु-वर्णता इसके प्रधान लक्षण हैं । कपूर के प्रयोग वहिः प्रयोग कपूर एक सुलभ द्रव्य । अस्तु, कटिशूल, मांसपेशीत वेदना; चिरकालानुबंधी ग्रामवात प्रभृति कतिपय रोगों में शूल निवृत्यर्थ गृह श्रभ्यषों में प्रायः इसका उपयोग करते हैं । उत्तेजक प्रभाव के लिए मोच खाये हुये स्थान ( Sprains) पर तथा प्रदाहजन्यं संधिशोथ पर ( चाहे वह संधिवात के कारण हो अथवा किसी अन्य कारण से ) लिनिमेंट आफ कैम्फर का अभ्यंग किया करते हैं। कास (Bronchitis) पार्श्वशूल ( Pleuritis ) एवं फुफ्फुसोष (Broncho-Pneumonia) रोग में लिनिमेंटम् कैम्फोरी एमोनिएटेड, टर्पेनटाइन - तारपीन तेल तथा एसीटिक एसिड लिनिमेंट का काउंटर रिट रूप से उरोभ्यंग श्रतीव उपयोगी सिद्ध होता है । उद्दूलन की श्रौषधियों में कंपूर का महीन चूर्ण मिलाकर कतिपय स्वग्ररोगों, जैसेपामा ( Eczema ) एवं इंटर ट्राइगो प्रभृति पर अवचूर्णन करते हैं। एक श्राउंस जिंक श्राइंटमेंट में श्राधा ड्राम कपूर मिलाकर उत्पादकांगजात पांमा पर लगाने से खाज कम होजाती है। कपूर को सुरसार में घटितकर फिर उसे सादे मलहम में मिलायें । इसे अर्श (Piles) पर लगाने से ख़राश एवं वेदना कम होजाती है । फोड़ा फुन्सी (Boils ) तथा शय्या -क्षत पर यदि रोग प्रारम्भ होते ही स्पिरिट श्राफ कैम्फर लगाया जाय, तो रोग बढ़ने नहीं पाता, उपरितन वातशूल (Superficial neuralgia ) के निवारणार्थ स्थानीय वेदना स्थापक रूप से, कोरोल कैम्फर शोर मेंथोल कैम्फर अत्यन्त उपाद्वेय होते हैं । Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपूर २१२५ उत्तेजक रूप से त्वग्ररोग विशेष पाददारी ( Chilblains) में कनूर का उपयोग होता है। मृदु लोहित्योत्पादक गुणोंके कारण यह श्राम वातिक व्याधियों में प्रयुक्त बहुशः श्रभ्यगौषधों का एक लोकप्रिय उपादान है । अमोनिएटेड कैम्फर लिनिमेंट एक प्रबल काउंटर इरिटेंट है और यह छाला डालने के काम आ सकता है । आन्तरिक प्रयोग मुख-मुख दोर्गन्ध्यनिवारणार्थ प्रायः करित खटिका ( Camphorated Chalk ) दंत मंजन का व्यवहार किया जाता है। या पानमें कपूर डालकर खाते हैं। कोट-भक्षित दंत में कोरल कै फर लगाने से तत्क्षण वेदना शांत होती है। शिशुओं के उदराम्मान एवं उदरशूल के लिए कपूर जल ( Camphor water ) एक घरेलू दवा है । उदराध्मान तथा वयस्क उदर शूल मैं स्प्रिंट श्राफ कैम्फर का व्यवहार करने से बहुत उपकार होता है। ग्रीष्मातिसार ( Summer Diarrhoea ) तथा विषूचिका की तो यह गुणकारी श्रोषध है । अस्तु, उक्त रोग में प्रारम्भ से ही रोगी को दस या पंद्रह मिनट पर ५-६ बूँद स्पिरिटस कैम्फोरी फार्शियार उस समय तक देते रहें। जबतक कि रोग के लक्षण घट न जायें, इसके बाद इसे एक-एक घण्टाके उपरांत दें । नोट - विषूचिका की अंतिम अवस्था में यह उपयोगी सिद्ध नहीं होती । श्वासोच्छवास पथ — कपूर सूँघने या इसके नस्य लेने से प्रतिश्याय ( Coryza ) रोग वा छक्का विशिष्ट चिरकारीनजला (Catarrh) श्रीराम होजाता है । इसके साथ ही ५-५ बूँद स्पिरिट प्रति १५ मिनट पर मुख द्वारा सेवन कराना चाहिये । पैरेगोरिक के रूप में अथवा पारसीक यवानी संयुक्त वटी योग के रूप में चिरकारी कास ( Bronchitis ) में इसका सेवन विशेष गुणकारी होता है । रक्त परिभ्रमण - ( Circulation ) मार्ग से कपूर का अभिशोषण बहुत मंदगति से होता है । श्रतएव रक्तपरिभ्रमणोद्दीपक रूप से कपूरकचरी इसका स्वगधोऽन्तःक्षेप करना चाहिए। श्रौपसर्गिक ज्वरों, फुफ्फुसशोथ ( न्युमोनिया ) जीवाणुमयता (Sept.ccemia) इत्यादि रोगी की अंतिम अवस्था में हृदय को उत्तेजित रखने वा उसे वलप्रदान करने के लिए इसका उपयोग करते हैं । जब सहसा श्वास प्रश्वास तथा हृदय का कार्य बन्द हो जाता है, तब तैल वा ईथर ( १ घन शतांसमीटर में 1⁄2-१ रत्ती कपूर ) विलीन कपूर का सेवन अतिशय गुणकारी होता है । परंतु बहुतों को इसकी उपादेयता में संदेह है । नाड़ी संस्थान - बहुशः श्राक्षेप विशिष्ट रोगों यथा, - वातज हृत्स्पंदन, कंपदात, योषापस्मार इत्यादि में इसके उपयोग से संदेहपूर्ण परिणाम प्राप्त हुए । जननेन्द्रिय ( Genital organs) अधिक परिमाण में सेवन करने से यह कामेच्छा और (Chordee) को रोकता है। सीने पर लगाने वा ११ रती की मात्रा में मुख द्वारा सेवन करने से यह स्तन्यहर प्रभाव करता है । पत्रीलेखन बिषयक संकेत - इसके उपयोग का सर्वोत्कृष्ट प्रकार यह है कि इसे दुग्ध में ( २ ॥ तोले वा १ श्राउंस दुग्ध में 9 ड्राम कपूर ) विलीन करके सेवन करें । इससे इसके अप्रिय स्वाद का भी निवारण हो जाता है। इसके स्पिरिट को चीनी के ऊपर डालकर या इमलशन बनाकर सेवन कर सकते हैं। कपूर चूर्ण को केचट में डालकर वा गोली बनाकर सेवन कर सकते हैं । त्वगधोऽन्तःक्षेप के लिए इसे जैतून तेल ( ५ में (१) वा ईथर में विलीन करके उपयोग कर सकते हैं । मे० मे० घोष | (२) कचूर | कर्चूरकंद । शटी । ( ३ ) कच्ची हलदी । श्रार्द्र हरिद्रा । काँचा हलुद (बं० ) श० च० । कपूर इंग्रिस - [ मल० ] ( Calcii carbonas ) विलायती चूना । गिले क्रीमूलिया । कपूर कचर - [ बम्ब० ] कपूर कंचरी । कपूर कचरी - संज्ञा स्त्री० [हिं० कपूर+कचरी ] एक बेल वा सुप, जिसकी जड़ सुगंधित होती है और दवा के काम में श्राती है। हिमालय में इसे Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपूरकचरी २१२६ कपूरकचरी 'शेदूरी' कहते हैं । आसाम के पहाड़ी लोग इसकी ____ इसकी जड़ ( Rhizome) में एक पतला पत्तियों को चटाई बनाते हैं । जड़ को प्रायः जलमें पैरेन् कायमा ( parin chyma) पाया श्रौटाकर उसके टुकड़े २ कर सुखाकर रखते हैं। जाता है। जिसकी वहुसंख्यक सेलें वृहद् अंडाकार जिसमें वह कृमि और वायु प्रादि दोष से सुरक्षित श्वेतसारीय कणों से लदी होती है। उनमें से कुछ रहे कचूर की तरह ही इसकी जड़के प्रायः गोला सेजों में एक प्रकार का पीताभ राल और अस्थिर - कार टुकड़े बाज़ार में मिलते हैं । ये टुकड़े 1 से तैल वर्तमान होता है। उपचर्म पिञ्चित, लगभग ॥ ( lines ) मोटे और लगभग दुअनो वा रिक, रनाभ धूसर सेलों की अनेक पक्रियों से चवतो इतने बड़े अत्यन्त श्वेत एवं सुरभियुक्त निर्मित होता है। होते हैं और उनके सिरे पर ललाई लिए भूरे रंग श्वेतसार की अपरिवर्तित अवस्था के कारण ऐसा की छाल लगी होती है। इसका उपयोग उन्हीं विदित होता है कि जड़े धूप में सुखाई नहीं २ स्थलों में होता है, जिनमें कि कचूर का । तो भी यह उसको अपेक्षा अधिक उत्तम ख्याल की पर्या-गन्धपलाशः, स्थूलकः, तिक्रकन्दकः जाती है। किसी-किसी ने क्षुद्र और बृहत् भेद से तापसो, ज्वलनी, हरिद्रा, पत्रकन्दका (ध० नि०) इसे दो प्रकार का लिखा है । डीमक के मत से ये शठी, पलाशी, षड्ग्रंथा. सुव्रता, गंधमूलिका,गंधा क्रमशः भारतीय और चोनो संज्ञा से अभिहित रिका, गंधवधूः, वधूः, पृथुपलाशिका, गंधपलाशी, हुए हैं। उनके वणन के अनुसार ये दोनों प्रकार (भा०) सुगन्धचन्द्रा, सौम्या, सोमसंभवा, काष्ठको कपूरकची बंबई के बाजारों में उपलब्ध होती पलाशिका, सुग्रहांतिका (के० नि०) गधौली, है। इनमें से भारतीय कपूर कचरी के बहुधा वृत्ता- गधराटी, गन्धपलाशिका, गन्धपलासी, गन्धपल्लवा कार चपटे टुकड़े होते हैं । पर कभी २ इसके लंबे गन्धपीता, स्थूलिका-सं० । कपूरकचरी, कापूरटुकड़े भी होते हैं। ये टुकड़े विविध मोटाई के कचरी, काफूर कचरी, कचरो,कचूरकच, सितरुता ? तथा इंच वा उससे न्यून व्यास के और -हिं० । कपूरचकरी (ली)विलायती कचूर-द०। श्वेत रंग के एवं श्वेतसार परिपूर्ण होते हैं । इसकी शेदूरी-हिमा० । कपूर कचरी-बं० । हेडिकियम् ताजी कटी हुई जड़ में केन्द्र भाग से बहकल भाग स्पिकेटम् Hedychium Spicatum, को प्रथक् करनेवाली एक धुंधली विभाजक रेखा Smith Ham (Root of )-201 आलोकित होती है । प्रत्येक टुकड़े के दोनों सिरे शोमै-किञ्चिलिक-किजङ्ग-ता० । सीम-किञ्चिलिगडलु ललाई लिए भूरे रंग के वल्कल से आच्छादित ते । कपूर-क्रचरी-मरा०, गु० । कपूरकचूर-६०, होते हैं । और उनपर असंख्य क्षतचिह्न (Scars) मरा०, गु०, हिं० । सीर-सुत्ती-बम्ब० । खोर, एवं वृत्ताकार छल्लों ( Rings) के चिह्न पाये कचूर कचु, बनकेला, शेर्री, शाल्वी, साकी, जाते हैं। उनपर जहाँ-तहाँ पतली-पतली जड़े (पण्यमूल)-कपूर कचरी, कचूर-पं० । कचूर (Rootlets ) संलग्न रहती हैं। इसकी कच, कपूरकचरी, वन हल्दी-उ०प० मा०। गंध इंद्रधनुषपुष्पीमूल (Orris root) वत्, टिप्पणी कपूर कचरीकी समूची ( Whenपर उसकी अपेक्षा अधिक ज़ोरदार एवं तीव्र कपूर entire ) जड़ ललाई लिये भूरे रंग की होती गंधमय होती है । खाने में यह कड़ ई, चरपरी और सफेद रंग के गोल गोल चिन्हों से व्याप्त और तीक्ष्ण सुगंधिमय होतीहै। इससे भिन्न चीनी होती है । इसलिये यह 'सितरुत्ती' वा 'सित-रित्ती' कपूरकचरी भारतीय की अपेक्षा किञ्चिद् वृहत्तर अर्थात् छोटा कुलंजन भेद Alpinia khu श्वेत तर और न्यूनतर चरपरी होती है। छिलका laujan (दे० 'कुलंजल') और इनमें भी अपेक्षाकृत अधिक मसृण और हलके रंग का होता . प्रधानतया छोटा कुलंजन भेद से विशेष समानता है। देखने में यह भारतीय की अपेक्षा अधिक रखती है । परन्तु यह उन दोनों से सर्वथा भिन्न सुन्दर पर गंध में उससे घटिया होती है। . है। तोड़ने पर यह भीतर से उन दोनों की अपेक्षा सूक्ष्मदर्शक यन्त्र के नीचे रखकर देखने से । अत्यधिक श्वेत, श्वेतसारीय रचनायुक्त (amyl, Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरकचरी aceous in struture ), सुरभियुक्र, किंचिद् उष्ण एवं सुगंधास्वादयुक्त होती है, परन्तु मरिचवत् वा चरपरी नहीं होती, गंध, श्रास्वाद, आभ्यंतरिक वर्ण और गुणधर्म आदि में यह कचूर Long zedoary Curcuma Lerumbet of Ronburgh ) के समान होती है, अस्तु, इसकी विलायती कचूर, शीमै किञ्चिलिक्विज़ङ्ग, र सीम-किञ्चिलि गड्डलु प्रभृति देशी संज्ञायें जिनका अर्थ विदेशी कचूर है, अन्वर्थक हैं । किसी किसी ग्रंथ में काफूरकचरी जो कपूरकचरी का ही एक पर्याय है, 'सित्तरित्ती' और 'सुतरुत्ती' संज्ञा के पर्याय स्वरूप उल्लिखित है, जो सर्वथा भ्रमात्मक है, क्योंकि ये छोटा कुलंजन की तामिल संज्ञायें हैं जो कपूरकचरी से एक भिन्न जड़ होती है । २१२७ श्रायुर्वेदोक शटी वा पृथुपलाशिका अर्थात् नरकचूर कपूरकचरी की ही जाति की, पर इससे भिन्न ओषधि है । राजनिघंटु में गंधपलाशी का उल्लेख नहीं है । राजनिघंटूक गन्धपत्रा वा वन सटी हुश्रा अर्थात् जंगली कचूर ( कचूर भेद ) का हमने गंधाशी से पृथक् तीखुर ( तवचीर) के अंतर्गत वर्णन किया है। प्राचीन यूनानी ग्रंथों के अध्ययन से यह प्रतीत होता है कि उस समय यह श्रोषधि संदिग्ध हो गई थी । मुहीत श्राज्ञम प्रणेता हकीम मुहम्मद आज़म खाने रमूज़ श्राज़म नामक स्वरचित ग्रंथ के जो संभवतः उनकी सर्व प्रथम रचना है, वमनाधिकार में छर्दि की चिकित्सा लिखी है। उसमें उन्होंने लिखा है कि 'ज़रंबाद' को कूट छानकर गुलाब जल में मिलाकर मूंग के बराबर वटिकाएँ प्रस्तुत करें । और अक्सीर श्राज्ञम में जो उसके बाद की रचना हैं, जरंबाद की जगह कपूर कचरी लिखा है । इसके भी बाद के रचित क़राबादीन आज़म नामक ग्रन्थ में यही कपूरकचरी उल्लिखित है। मुहीत श्राज़म में जो सर्वापेक्षा पीछे की कृति है, यह उल्लिखित है कि जरंबाद की एक किस्म नरकचूर है, जिसको कपूर कचरी भी कहते हैं । फलतः उनके कथनानुसार निम्नलिखित निष्कर्ष निकलता है, यथा - (१) जरंबाद और कपूर कचरी एक वस्तु है, ( २ ) कपूरकचरी कपूरकचरी जरंबाद का एक भेद है, (३) नरकचूर और कपूरकचरी एक है । पर वस्तुस्थिति इसके सर्वथा विपरीत है अर्थात् उक्त दोनों में मह दन्तर है। नरकचूर हल्दी की तरह होता है और कपूरकचरी के टुकड़े होते हैं। दोनों के गंध और स्वाद में भी अंतर है। इसी प्रकार प्रायः श्रारव्य आदि यूनानी श्रोषधि-कोषों में जरंबाद का कपूरकचरी तथा नरकचूर के अर्थ में भ्रमात्मक प्रयोग किया गया है ऐसा प्रतीत होता है । आवा हरिद्रा वर्ग ( N. O. Scitaminece.) उत्पत्ति स्थान - भारतवर्ष के हिमालय (Su btropical Himalaya), कुमाऊँ और नेपाल प्रभृति स्थान और चीन देश में ५००० से १००० फुट की ऊँचाई तक पैदा होती है । श्रायुर्वेदीय ग्रन्थों में लिखा है कि यह एक सुगंधद्रव्य है, जो काश्मीर में गंधपलाशी नाम से प्रसिद्ध है। . औषधार्थ व्यवहार - कंद रासायनिक संघट्टन — इसमें ग्ल्युकोसाइड वा सैकरीन मैटर, लबाब ( mucılage ), अल्व्युमिनाइड्स, सैन्द्रियकाम्ल इत्यादि तथा श्वेतसार, आर्द्रता, भस्म, काष्ठोज ( cellulose ) प्रभृति तथा राल, स्थिर तैल ( Fixed oil ) और एक सुगंध - द्रव्य ये वस्तुएँ पाई जाती हैं । औषध निर्माण - चूर्ण, काथ, सौन्दर्यवर्द्धक पाद और बीर । धर्म आयुर्वेदीय मतानुसार कास श्वासहरा सिध्माज्वरं शूलानिलापहा । सटी स्वत्वधोमूला कषाय कटुकासरा ॥ ( ध० नि० ) श्रधोमूला सटी वा कपूर कचरी - कास, श्वास, सिध्म, ( कुष्ट भेद ) ज्वर, शूल और वातनाशक कसेली, चरपरी, दस्तावर और स्वर के लिए हितकारी है। भवेद्गंध पलाशीतु कषाया ग्राहिणी लघुः । तिक्ता तीक्ष्णाच कटुकानुष्णास्य मलनाशिनी । शोथ कास व्रणश्वास शूलाहध्मग्रहापहा ॥ ( भा० ) Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कधूरकवरी २१२८ कपूरकचरी गन्धपलाशी अर्थात् कपूर कचरी-कषेली | । गत वायु को विलीन करती, तथा पाचन करती। ग्राही, लघु, कड़वी, तीक्ष्ण, कटु, अनुष्ण, है । शोथ पर इसका चूर्ण मर्दन करने से सूजन ( उष्णता रहित) मुख के मल को दूर करनेवाली उतरती है, यह वेदना शमन करती है। इसकी तथा ग्रह दोषनाशक है और सूजन, खाँसी, व्रण, | छोटी किस्म को जिसे कीड़े न खाये हों, बारीक श्वास. शूल तथा हिचकी इन्हें नष्ट करती है । पीसकर पानी में सानकर मटर के दाने के बराबर -1 ससुगंधः कचुरकस्तीक्ष्णो दाहीकटुःस्मृतः। वटिकाएँ प्रस्तुत कर एक दो गोली खिलाने से तिक्तश्च तुवरश्चैव शीतवीर्यो लघुः स्मृतः ।। अत्यधिक के पाना रुक जाता है । छः माशे कपूर कचरी के चूर्ण में सम भाग खांड़ मिलाकर ठंडे किञ्चित्पित्तकोपयति कासश्वास ज्वरापहः । पानी से फाँकने से अतिसार रोग नष्ट होता है। शूल हिक्का गुल्म रक्तरुजं वातं त्रिदोषकम् ॥ वैद्य कहते हैं कि कपूर कचरी कब्ज पैदा करती है मुखौरस्यदोर्गन्ध्य व्रणामच्छर्दिहिध्महा । और श्रामदोष (स्खाम मादा) खाँसी तथा रक (नि० २०) विकार को दूर करती है। -ख० अ० कपूर कचरी-तीषण, दाहजनक, चरपरी, म. मु.। . कड़वी, कषेली, शीतवीर्य, हलकी, किंचित् पित्त नव्यमतर . कारक, तथा खाँसी, श्वास, ज्वर, शूल, हिचको, चैट-उत्तर पश्चिम प्रांत में प्रसिद्ध-मलया(हिक्का ), गोजा, रुधिर रोग, बादी, त्रिदोष, गिरी नामक वस्त्र के सुवासनार्थ इसकी सुगंधित मुख की विरसता, दुर्गंधि, घाव, श्राम, वमन जड़ मेंहदी के साथ काम में भाती है। . और हिम रोग को नष्ट करत डीमक-यह अधोलिखित प्रबीस्त्रम का एक द्रव्य रत्नाकर-में इसे मुखरोग तथा गुल्म प्रधान उपादान है । यथारोग नाशक लिखा है। निघण्ट संग्रह के अनुसार (१) सफेद अबीर-इसमें खस, कपूर यह खाँसी दमा, हिचकी, उदरशूल, ज्वर, गुल्म, कचरी, चंदन और भारतीय अरारोट अर्थात् रक्तविकार और बादी को मिटाती है । atge ar ( Flour of Sorghum ) यूनानी मतानुसार गुणदोष प्रभृति द्रव्य पड़ते हैं। प्रकृति-द्वितीय कक्षा में उष्ण और रूक्ष । (२) घीसी--नामक अबीर जिसे गुजराती (वैद्यक के मत से यह शीतल है)। में 'पदी' कहते हैं-उपयुक द्रव्य समूह के सिवा इसमें ये द्रव्य और पड़ते हैं-कचूर, लौंग, इलाहानिकर्त्ता-हृदय को और शिरःशूल उत्पन्न | यची, प्रियंगु ( Seeds of Prunus maकरती है। halile ) दमनक भेद (Artemisia Siदर्पघ्न-बनक्शा , चंदन. और पुदीना । eversiana) और देवदारु (Cedrus प्रतिनिधि-शतावर और दरून अकरवी। Deodara)। मात्रा-४ से ४॥ माशे बल्कि ६ माशे तक (३) काला अबीर-चा इक्षिण में प्रसिद्ध (समूज़ प्राज़म अतिसाराधिकार)। बुक्का नामक अबीर-इसमें उपर्युक सर्व द्रव्य . गुण, कर्म, प्रयोग-कपूर कचरी, हृदय, समूह के अतिरिक्र से द्रभ्य और पड़ते हैं । यथामस्तिष्क, और भामाशय को शनि प्रदान करती | अगर, कूठ, बालबड़ और शिलारस। है, अवरोधोद्धाटन करती वा सुद्दा खोलती है, जैनियों के वासखेप वा वासक्षेप, नामक सुवा उल्लास-प्रद है और बाह को शनि प्रदान करती, .सित चूर्ण में यह नहीं पड़ती। उसमें ये द्रव्य । अर्थात् बाजीकर है। यह लिंगोत्थापन करती, , पढ़ते हैं-चंदन, केसर, कस्तूरी और बास कपूर। मूत्र एवं प्रार्तव का प्रवर्तन करती तथा सर्दी की पानेल ( Powell) के मत से पंजाब में इसे खाँसी और बच्चों की पेचिश को लाभकारी है। तमाकू में पीसकर धूम्रपान कहते हैं । (फार्मा__ यह खूब अधोवायु त्याग कराती ओर आमाशय । कोग्राफिया इंडिका भ० ३ पृ. ४१७-८) Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२६ कपोत कामकाली नादकर्णी-यह जठराग्नि, उद्दीपक Stom- कपूरहरदी, कपूरहल्दी-संज्ञा स्त्री० [सं० कपूर achic) वातानुलोमक, वल्य और उत्तेजक है। हरिद्रा ] (1) नरकचूर । (२) ग्राम श्रादा । अजीर्ण रोग में इसका चूण वा आधी छटाँकसे एक दे. "प्रामादा"। छटाँककी मात्रामें काथ (२० में १) उपकारी होता | कपूरा-[गु• ] बाँस। है। केशबर्द्धनोपयोगी अंगराग लेपों वा सादयं संज्ञा पु० हि० कपुर कपूर के समान सफेद] वर्द्धक चूर्णों के निर्माण में यह काम पाती है। भेड़, बकरी आदि चौपायों का अंडकोश।। कर्नल चोपरा के मतानुसार यह अग्निवर्द्धक, कपूरी-वि० [हिं० कपूर ] (१) कपर का बना हुश्रा उदर को शांति देनेवाली, पौष्टिक और उत्तेजक (२) हलके पीले रंग का। है । यह मंदाग्नि और उपदंश में उपकारी है। संज्ञा (1) कुछ हलका पीला एक रंग। ' कायस महस्कर के अनुसार सर्पदंश में इस (२) एक प्रकार का पान जो बहुत लम्बा और प्रोषधि की कोई उपयोगिता नहीं है। कड़ा होता है। इसके किनारे कुछ लहरदार [ गु० ] चन्द्रमूल । चन्द्रमूलिका । होते हैं । सुनने में आता है कि कपरी पान खाने (Kaempferia galanga, Linn.) से पुरुष नपुसक हो जाता है। कपूरकचली-[ गु० ] कपूरकचरी। __ संज्ञा स्त्री० एक प्रकार की बूटी जो पहाड़ों कपूर कचिली-[गु.] कपूरकचरी। पर होती है । इसकी पत्तियाँ लम्बी-लम्बी होती कपूर कचूर-[हिं०, गु०, मरा०. पं.] कपूरकचरो । हैं जिनके बीच में सफेद लकीर होती है। इसकी कपूरकाचली-संज्ञा सी० [हिं०] कपूरकचरी। जड़ में से कपूर की सो गन्ध निकलती है। कपूर का तेल- संज्ञा पुं॰ [हिं० कपूरxकाxतेल ] अनन्तमूल । सारिवा । ( Hemi desmus कपूर तैल । दे. "कपूर"। dngica) वि० दे० "सारिवा" । कपूर कुचरी-बम्ब०] चन्द्रमूलिका । कपूरी जड़ी-संज्ञा स्त्री० [ देश०] एक बहु वर्ष जीवो कपूर कचरी-[ मरा०] कपूरकचरी । ___ वनस्पति । गोरखवू टी । (Aerva Lanata) कपूरकाट-संज्ञा पुं० [हि. कपूर+काट ] एक प्रकार कपूरी लता-संज्ञा स्त्री० [हिं० कपूरी+सं० लता] का महीन जड़हन धान जिसका चावल सुगंधित | कपूरवल्ली। दे० "कपूरी"। और स्वादिष्ट होता है। | कपूस-[ मरा०, कों० ] कपास। कपूर त्वर्ण-संज्ञा पुं० [?] छोटी इलायची। कपृथ-[सं० पु.] पुरुषत्व । मर्दानगी । कपूर फुटी-संज्ञा स्त्री० [मरा०] (Arula कपेत बेल-बं० 1 कैथ। Lanata, Juss.) चय । भुह कलाँ। कपूरवेल-संज्ञा पु० [सं० कपूर+वेल ] एक पुष्प | कपेलो-[ राजपु० ] कमीला | लालमिट्टी । वृक्ष जो पंच-पत्रयुक्त होता है। इसका फल केसर कपोत-संज्ञा पुं॰ [सं० पुं०] [स्त्री० कपोतिका, पुष्पवत् होता है और यह फिरंग, देश से आता है। कपोती] (.) कबूतर । पारावत । अनि० २१ श्र० रा. नि. व०१७ । राजवि दे. ता० श.. कपूरभिंडी "कबूतर" । (२) परेवा-कपोत जाति की एक १ संज्ञा स्त्री० [मरा०] पिसबेल । चिड़िया । पेंड की । फ्राटता । मे० विश्व. कपूरभेडी तत्रिक । पित्तमारी । [ देश० बम्ब० ] एक बड़ी माड़ी। पर्याय-चित्रकण्ठ ( मे०), कोकदेव, धूसर ( Naregamia alata W. &A.) धूम्रलोचन. दहन, अग्निसहाय, भीषण, गृहना रान कपूर मधुर-संज्ञा पुं॰ [ मरा०] (Aerula गुण-इसका मांस बलकारक. वीर्यवर्द्धक, Lanath, Juss.) चय । भुह कलाँ। शीतल, कसेला, मधुर, कफनाशक, रक्रपित्तनाशक कपूरलि- मरा०] पंजीरी का पात । सीताको पंजीरी और विरुद्ध है। १७ फा० Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपोत, कपोतक २१३० कपोताम (३)सुत के अनुसार १८ प्रकार के ज़ह- यथारीले चूहों में से एक । सु० कल्प० ६ ०। यत् पुटं दीयते खाते अष्टसङ्खथैर्वनोपलैः । (४) कपोत समूह । (५) पारा । पारद। कपोत पुटमेतत्तु कथितम् ............." (१) सजी। सर्जिक्षार। (७) पक्षीमात्र । भा० म० भ०। चिड़िया । (८) पारिस पीपल । पारीश वृक्ष। कपोतपुरीष-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कबूतर का भा० । (१) भूरे रंग का कच्चा सुरमा। बीट । पारावतविष्ठा । यह फोड़े का फाड़नेवाला कपोत, कपोतक-संज्ञा पुं॰ [सं० क्री० ] सीवीरांजन है। दे. "कबूतर" रा०नि०० १३ । कपोतांजन । भूरा सुरमा । कपोतवक्रा, कपोतवता-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] मे तत्रिकं । काकमाची । कौमाठोठी । कड़इ । केवैया ।च० द. संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] पारावत । छोटा | अरो. चि. कषाद्य तेल । कबूतर। कपोतवा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (1) ब्राह्मी कपोतक निषादी-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (१) बूटी। यथा “कपोतवङ्कारयोणाकः ."-भा. म. घोड़े का एक प्रकार का वातरोग ! ४ भ० पूतना-ग्रह-चि० । (२) लवाफट को नाम लक्षण से प्रसिद्ध एक लता। कर्णस्फोटा। कनफोड़ा। "कृच्छादुत्थापितश्चापि पुनर्योयाति मेदिनी।। यथा-"कपोतवङ्का सुवर्चला ।" सु. सू० ३८ कपोतक निषादीति सहयः कृच्छ जीवनः॥ अ० । अन्ये "शिरीशसरापत्रस्वल्प विटप वृक्ष" ज. द. ५५० इति द्रव्यान्तरमाहुः । ड० । सु० चि० ७ अ०। अर्थात्-कठिनता से उठाने पर भी जो भूमि कपोतवर्णा, कपोनवर्ण संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०। पर गिर पड़ता है, वह इस रोग से पीड़ित समझा | छोटी इलायची । सूक्ष्मैला । रा० निव०६। जाता है । उक्त रोग से पीड़ित अश्व मुश्किल से कपोतवल्ली-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] ब्राह्मी। जीता है। कपोतवाणा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] नलिका । कपोतका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] ब्राह्मी। के० दे. नलुका । रा०नि०व०१२। नि। नि०शि०। कपोतविष्ठा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] कबूतर का कपोतकोपाक्या-संज्ञा स्त्री० [सं॰ स्त्री.] सज्जीखार । बीट | पारावतपुरीष | यह व्रण दारण है । सु०सू० नि०शि० | रा०नि०। _३६ अ०। कपोत चक्र-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कवाटचक्र वृक्ष । कषोतवेगा-संज्ञा स्त्री॰ [सं० स्त्री.] ब्राह्मी नाम का कराडिया । रत्ना० । बटुवा । महाक्षुप । रा०नि० व०५ कपोत चरणा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (१) कपोतसार-संज्ञा पुं० [सं० पु. क्री० ] स्रोतोऽञ्जन । नलिका नामक सुगंधित पोषधि । नली । जटा। सरमा (धात)। (२) खिरनी। सीरिका । कपोताच -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] नलिका नाम की कपोतत्राणा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] नली। ___एक सुगंधित ओषधि । अम०। । कपोतपर्णी-संज्ञा स्त्री॰ [सं० स्त्री०] इलायची का | कपोताञ्जन-संज्ञा पुं० [सं० की.] नीलांजन । पेड़ । एला । रा०नि० व. १२ । सुरमा (धातु)। कपोतपाक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु. ] कबूतर का | कपोताण्डोपमफल-एक प्रकार का नीबू । कागज़ी बच्चा। नीबू विशेष । वै० निघ०। कपोतपुट-संज्ञा पुं० [सं० की. ] पुट का एक भेद। कपोताभ-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (3) कपोतर औषधों के पुट देने का एक प्रकार | भावप्रकाश वर्ण । पीला या मैला भूरा रंग। (२) एक के मतानुसार ऐसे गड्ढे में पुट देने को 'कपोतपुर प्रकार का चूहा जिसके काटने से दष्ट स्थान पर कहते हैं, जिसमें पाठ जंगली उपला आ सके।। प्रन्थि, पिड़का और सूजन की उत्पत्ति होती है। Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपोतारि २१३१ कफकर फिर उससे वायु, पित्त, कफ और रक चारों बिगड़ | कप्पलम-[ मल.] अरंड खरबूज़ा । पपीता । विड:जाते हैं। (सु०)। यती रंड़। वि० [सं० वि०] कबूतर के रंग का । चम- प्पलमेलक-[मज.] लाल मिर्च । कुमरिच । कोला भूरा। कप्पु-[ कना० ) काला । कृष्ण । कपोतारि-सज्ञा पुं॰ [सं० पु.] बाज़ पक्षी । श्येन । कप्पुमाण काल-कना०] सेंदुरिया। लटकन । श. र०। (Bixa Orellana, Linn.) कपोत का-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) चणक | कफा-संज्ञा पु. (फ्रा० कफ्र=माग गाज] अनोम मूली । चाणक्य मूलक । कोमल मूलक । वै. | का पसेव । निव० । बड़ी मूली । नि०शि० । (२)कपोती। कप्यक-[सं०] पलपल । कबूतरी। कप्याख्य-संज्ञा पुं० [सं० पु.](१) शिलारस । कपोती-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री. (१) कबूतरी । कबू- सिडक । (२) वानर । बंदर । तर को मादा । (२) पेंडुको । (३) कुमरी। कप्यास-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] बंदर का चूतम् । वि० [स० कपात क रग का । नाकी । धूमले | वानरगुद। बंदर की पीठ के सामने का हिस्सा । रंग का । फालतई रंग का। वि० [सं० वि०] लाल । रक। कोर- मल.] कत्ली का चूना । सुवा। काली-[ता०] कमीला । कपोल-संज्ञा पु० [सं० पुं० को०] [स्त्री० कपोजी] | कफ-संज्ञा पुं॰ [सं० पु०-देह+कल् गति] (1) (१) मस्तक । मत्था । (२) गाल । गण्ड वह गाड़ी लसोली और अंठेहार वस्तु जो खाँसने स्थल । रा०नि०व०१८। व थूकने से मुंह से बाहर आती है तथा नाक से कपोलक-संज्ञा पुं॰ [सं० वी० ] गाल । भी निकलती है। श्लेष्मा । बलग़म । ( Phleकपोल काष-संज्ञा पुं॰ [स० पु.] () हाथी की gm)-अं०। कनपटी। हस्तिगण्डस्थल। (२) वृतादि का (२) वैद्यक के अनुसार शरीर के भीतर की स्कन्ध स्थान । हाथी के अपनी कनपटी रगड़ने का एक धातु जिसके रहने के स्थान प्रामाशय, हृदय, स्थान । पेड़ का खवा। कंठ, शिर और संधि हैं। इन स्थानों में रहनेवाले "नीलालिः सुरारिणां कपोलकाषः।" कफ का नाम क्रमशः वेदन, अवलंबन, रसन, (भारवि) स्नेहन और श्लेष्मा है आधुनिक पाश्चात्य मत से कपोलगेंदुआ-संज्ञा पुं॰ [सं० कपोल+हिं० गेंदा ] इसका स्थान साँस लेने की नरियों और प्रामाशय गल-तकिया । गण्डस्थलोपधान | है। कफ दृषित होने से दोषों में गिना जाता है। कपोलफलक-संज्ञा पुं॰ [सं० वी० ] प्रशस्त कशेल । वि० दे० "श्लेष्मा" रा०निव० २१ ।। संभवतः कपोलास्थि को ही कपोलफलक' (३) कैथ का पेड़ । कपित्थ वृक्ष । रा०नि० कपोलास्थि-संज्ञा स्त्री० [सं०] कपोल की अस्थि । व० ११ । (४) समुद्रफेन । च० ६० अर्श चि. प्रलेप। गाल की हड्डी । ( Molar bone ) प्र० शा०। कफ-संज्ञा पुं॰ [फा०] (1) भाग । फेन । (२) कपोली-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] जान्वग्रभाग । घुटने का अगला हिस्सा। कफ अज्दम-[१०] (1) संभालू । म्यादी । कप्पक-[ मल.] करेला। ( २ ) सुबुल रूमीकी जड़ । (३) कर्महे बै जा कप्पमावकुरुन मल.] काजू । फ्राशरा । (४) नुस्युल् कल्व । कप्पुमावु-[ मल• ] काजू । कफ भावगीन:-[फा०] मसहूनिया । कप्पमेणसु-[ कना० ] काली मिर्च । काक-[फा०](१)माग। (२)खुर्ला । कप्सल चैक रु-[ मन० ] काजू । | कफकर-वि० [सं० वि.] कफजनक । कफकारक । खा । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कफथः २१३२ 1 कफवृद्धिकारक | जो श्लेना उत्पन्न करे । महर्षि सुत के मत से काकोली, वीर काकोली, जीवक; ऋषभक, मुद्रपर्णी, माषपणीं, मेदा, महामेदा छिन्नरुहा, कर्कटशृङ्गी, तुगादीरी, पद्मक, प्रपोण्डरीक, ऋद्धि, वृद्धि, मृद्विका, जीवन्ती, श्रौर मधुक काकोल्यादिगणोक सकल द्रव्य कफकर हैं । वि० दे० "श्लेष्मा” । कफ़न :- [ फ़ा० ] एक प्रकार का साँप । कफकुञ्जर रस-संत पुं० [सं० पु० ] पारा, गन्धक, सीप का मांस, श्राक और थूहर का दूध । प्रत्येक एक पल, पांचो नमक एक-एक पल, सबको एकत्र छोटे और बड़े शंख में भर फिर पीपल, विष और त्रिफला का चूर्ण कर उस शंख को इसी चूर्ण से बन्द करें। फिर सम्पुट में रख एक पहर की श्रग्नि दें। जब भस्म हो जाय, तब निकाल चूर्ण कर रख 1. मात्रा - 2 रत्ती | गुण- इसके उपयोग से श्वास, खाँसो र हृदय रोग का नाश होता है । ( वृहत् रस० रा०सु० ) । कफ कुठार रस -संज्ञा पुं० [सं० पु ं०] शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, त्रिकुटा, ताम्र भस्म, लोहभस्म समान भाग लें। चूर्णकर दो पहर कटेरी, कुटकी काथ और धतूरा के रस में घोट दो रत्ती प्रमाण गोलियाँ बनाएँ । इसे नागर पान के रस में सेवन करने से कफज्वर का नारा होता है । ( बृहत् रस० रा०सु० ) । कफनी कफकेतु रस-संज्ञा पुं० [सं० पुं०] शंख भस्म, पोंठ, मिर्च, पीपल, भुना सुहागा तुल्य भाग और सबके बराबर विष | बारीक चूर्ण कर अदरख के रस की ३ भावनादें । फिर १ रत्ती प्रमाण गोलियाँ बनाएँ । 1 कफ कुष्ठहर रस - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] स्वर्ण भस्म अभ्रक भस्म केसर, (टिकरी, ) गंधक, मीठा तेलिया, त्रिकुटा, नागरमोथा, बायबिडंग और दारचीनी प्रत्येक 1 भाग, चीता ३ भारा। सबका चूर्ण करके तेल में पकाकर रखलें । मात्रा - १ रत्ती । गुण तथा उपयोग विधि -- इसे बकरीके मूत्र के साथ सेवन करने से कफज कुष्ठ का नाश होता है । २० र० स० २० श्र० । गुण तथा प्रयोग — इसे सायं प्रातः दो गोली अदरख के रस के साथ भक्षण करने से कंठ रोग, शिर के रोग, पीनस, कफ समूह श्रौर सन्निपात का नाश होता है । ( वृहत रस रा०सु० ) । कफकोप-भारी, मधुर, श्रत्यन्त शीतल, दही, दूध, नवीन श्रन, जल, तिल के पदार्थ श्रोर ईख के पदार्थ खाने तथा दिनमें सोना, विषमासन, भोजन पर भोजन, एवं खीर, पिष्ट (चून, मैदा, पिट्ठी, ) आदि खाने से कफ कुपित होता है । प्रातः श्रोर वैशाख में इसका अधिक कोप होता है । ( योगत० ) । 2 * फक्षय - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] शरीरस्थ स्वाभाविक कफ के नाश का भाव वा क्रिया । कफगड - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] गलेका एक रोग । कफज गलगण्ड रोग विशेष । यह स्थिर और गले की त्वचा के समान वर्ण वाला । अल्प पीड़ा युक्त, अत्यंत खाज युक्र, बड़ा और बहुत समय में बढ़ने और पकनेवाला होता है। इसमें पाक-काल में थोड़ी पीड़ा होती है । मुख में मीठापन और कंठ कफलिप सा रहता है । मा० नि० । कफगुल्म- संज्ञा पुं० [सं० पु० ] एक प्रकार का गुल्म रोग जो कफसे उत्पन्न होता है । कफजगुल्म | श्लेष्म गुल्म | इसका रूप - स्तैमित्य, शीतज्वर गान्रसाद, हल्ला कास, अरुचि, गौरव, शैत्य और कठिनत्व है । च० चि० १ श्र० । कफघ्न- वि० [सं० क्रि० ] श्लेष्म नाशक । कफज पीड़ा नाशक । सुश्रुतो - श्रारग्वधादि, वरुणादि, सालसारादि, लोधादि, अर्कादि, सुरसादि, पिप्पल्यादि, एलादि, वृहत्यादि, पटोलादि, ऊषकादि, तथा मुस्तादि गणोक्त और त्रिकटु, त्रिकला, पञ्चमूल एवं दशमूल प्रभृति सकल द्रव्य कफनाशक हैं । वि० दे० " श्लेष्मा " । कफकूर्चिका-संज्ञा स्त्री॰ [सं० स्त्री० ] लाला | | कफघ्नी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) शुकनासा केवाँच । ( २ ) एक प्रकार का हनुषा | हाऊमेर । लार । थूक । हे० च० । Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कफनीगुटिका २१३३ कफवात रा०नि० व० । छोटी हाऊबेर । कच्छु नी । रा. कफ़नाफल-[?] कनेर । खरज़हरः । निः । नि०शि०। कफनाशन-वि० [सं. वि.] कफनाशक । कफनी गुटिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कपूर ६ कफप्रकृति-संज्ञा स्त्री० [सं० बी० ] बलग़मो मिजाज़ मा०, कस्तूरी ६ मा०, लवंग २ तो०, मिर्च, श्लेष्मप्रकृति । वि० दे० "श्लेष्मा" । पीपर, वहेड़े को छाल, और कुलिञ्जन २.२ तो०, कफमन्दिर-संज्ञा पु० [स० पु. क्री० ] एक प्रकार अनार के फल का छिलका ४ तो०. और सर्व का मण्ड। माँड़ । फेन । तुल्य खैरसार ( कथा ) इन सबको पीसकर क़ायाल:-[?] भालू बुख़ारा । (बबूल की छाल के क्वाथ से) घोट कर मूग कफर, कफ़-[१०] कलयहूद। प्रमाणकी ोलियाँ बनाएँ । इसे मुख में रख चूसने क़फ़रस-[?] हाऊबेर । हबुश । से कफ नष्ट होता है। (योगत. उरःहत चि०) कफ़रा-सिरि०] मेहदी । हिना । कफघ्नी वटी-सज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक वटी कफरहा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] नागरमोथा । विशेष । कफनी गुटिका । वृ० नि. र. कास नागरमुस्ता। चि० । दे० 'कफनी गुटिका"। कफरोग-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कफजन्य रोगमात्र। कफचिन्तामणि रस-संज्ञा पु० [सं० पुं०] हिंगुल, कफरोधि-संज्ञा पुं॰ [सं० वी० कफरोधिन् ] मिर्च । कपूर, इंद्रजौ, भुना सुहागा, भंगवीज, कालीमिर्च, । प्रत्येक समान भाग। एक श्रोषधी का तिगना कफ रोहिणी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] गले का एक उत्तम रससिंदूर । सबको चूर्ण कर अदरख रोग जो कफ से उत्पन्न होता है। एक प्रकार का के रससे खालकर चने प्रमाणको गोलियाँ बनाएँ। कफजन्य गलरोग, कफसंभव गलरोहिणी में कंठ गुण-इसके सेवन से कफ और सम्पूर्ण वात का छिद्र बंद हो जाता है । इसके अंकुर कड़े होते के रोग नष्ट होते हैं । ( वृहत् रसरा० सु०) हैं और यह देर में पकनेवाली होती है। यथाकफज-[फा०] (१ झाग । (२) खुआ। "स्रोतो निरोधिन्यपि मन्दपाकास्थिराङ्करा या क़फज-[?] कसूस का पौधा। कफसंभवा सा"। का जमा-[अ० } दे. "कनप्रज्दम" । मा०नि० । दे. "गलरोहिणी"। कफज्वर-संज्ञा पु. [सं. पु.] एक प्रकार का कफल-वि० [सं०वि०] कफविशिष्ट । बलग़मी। बुखार जो कफ से होता है। श्ले मजन्य ज्वर । | | काल-[अ० ] सूखी श्रोषधि । खुश्क नबात । कफज ज्वर । कफल-[१०] दोनों चूतड़ों का मध्य । नितम्ब कफणि, कफणी-संज्ञा स्त्री० [सं० पु, स्त्री० ] मध्य। हाथ और बाहु के जोड़ की हड्डी । केहुनी । कोहनी कफली-संज्ञा पुं० [हिं० खपेली ] एक प्रकार का कफोणि । रा०नि० ५० १८। गेहूं जिसे खपली भी कहते हैं। क़ात-[१] जीरा । कालूत-[ ? ] शामी गंदना। कफ़तर-[फा०, तु.] कबूतर । कालूस-[१] गार। क़फ़ताला-[रू.] पालू बुखारा । कफवर्द्धक-वि० [सं० वि० ] जो कफ को बढ़ाये । कफद-वि० [सं. वि.] श्लेष्मकारक । कफजनक । कफ बढ़ानेवाला । कफ पैदा करनेवाला। श्लेष्मकाद-[सिरि०] साही। वर्द्धक । [?] जीरा । कफवर्द्धन-वि० [सं० वि.] कफवर्धक । संज्ञा पु० । कादीर-यू.) मांस । गोश्त ।। [सं० पु.] एक प्रकार का तगर-फूल | पिंडीकफनज-[ ? ] रेगमाही । समकतुम्सैदा । तगर । हजारा तगर । त्रिका० । कफनाड़ी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक प्रकार का | कफ वात-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] एक प्रकार का दंतमूखसत रोग विशेष । एक रोग जो मसूदों वात व्याधि । वा बाँत को जड़ में होता है। मा०नि०। लक्षण-वेह शोफो ज्वरः कार्य कासरच Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कफविरोधि २१३४ कफालय ह्यल्प भारिता । देह स्थूतं च बहति कफवातस्य | कफहर-वि० [सं० वि०] कफ को दूर करनेवाला। लक्षणम् ॥ कफनाशक । अर्थात् इस रोग में जर, देह में सूजन, कृराता | कफहत्-वि० [सं० वि.] श्लेजनाराक । कफ को खाँसो, अल्प भाषण और देह में स्थूलता होती छाँटनेवाला । है। बा. रा. कार-[ ? ] कैकहर। कविराधि-संहा पु० [सं० पु. लो० करुधिरोधिन्] कफा- छु रे को कली का श्रावरण । कुकरा। । नि । मरिच । रा०नि व०६। का-[अ०] बहु० उकरू, अफ्रियः, अ (इ) काs, वि० [स. वि.] जो कफ पैदा होने वा बढ़ने __कुतो का न ) गरदन के पीछे का भाग । गुद्दी। को रोके । श्लेष्मरोधक। मन्या | Napa, Neu ia कफ विजयन-संज्ञा पुं॰ [सं० क्री०] वह द्रव्य कमातिसार-संज्ञा पुं० [सं० पु.] एक प्रकार का जिसके सेवन से अतिशुष्क श्लेष्मा तरलता को अतिसार रोग। श्लेष्मातिसार । कफजन्य पातप्राप्त होती है । यथा-अति मात्रा में भुरु अम्ल सार। सामा०नि०वि० दे० "अतिसार"। रस। कफात्मा-वि० [सं०नि० (१) कफमय । बल काशर-[फ़ा (1) सुमागा। टंक।। (२) ग़मी । (२) कफरूपी। कफान्तक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] बबूल का पेड़ । का राशि:-फा०] म स्कनिया । बबूरक वृत्त । रा०नि०व०८। कक संग-[फा ] खुर । कफसंशमन वर्ग-संज्ञा पुं॰ [सं० पु] क को शांत कफापहा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] जीरा । करनेवाले द्रव्यों का सह। ककहर प्रोषधियों कफाम्लकमत-संज्ञा पु, वृक्षाम्ब । कोकम । धन्य. नि। निशि०। का गण । भावप्रकाश के मतानुसार संशमन वर्गी भेषज पानाहारविहार यह है-रूखे. क्षारीय.कसेले कार-[अ० रूखी रोटी विना सालन के। कडुए और चरपरे पदार्थ एवं व्यायाम, निष्ठीवन | कफारस-[यू.] कबर । (थूकना ), धूम पान, उष्ण शिरो विरेचन, वमन कझालियून-[यू.] शाहतरः। पित्तपापड़ा। और उपवास श्रादि तथा स्त्री सेवा, रातमें जागना | कफारि संज्ञा [ सं . पु.] अादी । अदरक । (२) जलक्रीड़ा-इन भेषज पानाहार-विहार से उग्र से सोंठ । रा. नि० व० ६ । भी उग्र श्लेष्मा का नाश होता है । भा० पू० मारीस-[सिरि०] हब्बुल जुल्म । . २ भ०। क्रमाला-[?] शालूबुखारा । कफसम्भव-वि० [सं० वि०] जो कफ से पैदा हो। | कफिनी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (1) हस्तिनी । जिसकी उत्पत्ति कफ से हो । कफोत्थ । हथिनी। (२) कफ प्रधान स्त्री । बलग़मी औरत । कसुफ़ेद-[फा०] बर्फ़ ।। कफस्थान-संज्ञा पुं॰ [सं० श्री.] शरीर में वह स्थान कफ़िरी-अ.] दे० "कुफरी"। जहाँ पर कफ रहता है । कफाशय । वैद्यक शास्त्रा. कफी-वि॰ [सं० वि० कफिन् ] कफयुक। अम० । नसार ये स्थान पाँच हैं-आमाशय, हृदय, कंठ, | श्लेष्मयुक्न । बलग़मी। शिर और संधियाँ । सु० सू० २१ अ०। ___ संज्ञा पुं॰ [सं. पु.] हाथी। गज । वह कफस्राव-संज्ञा पुं॰ [सं० पु] नेत्रसंधिगत रोग का | स्थान जहाँ पर कफ रहता है। ये स्थान पाँच हैं। एक भेद । श्लेष्मत्राव । कफज नेत्रसंधिगत रोग में | आमाशय हृदय, कंठ शिर, भोर संघियाँ। सफेद, गाढ़ी और चिकनी पीव आती है। कफाशय-संज्ञा पुं॰ [ सं० ] वैद्यक शास्त्रानुसार यथा कफस्थान । "श्वेतं सान्द्र पिच्छिलं संस्रवेद्धि श्लेष्मा- कफाह्वय-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कैरर्य। महानिम्ब स्रायोऽसौ विकरोमतस्तु ।" मा०नि०। गिरिनिम्ब। महारिष्ट ।रा.नि...। Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रफीज २१३५ का आदम कमीज-[..][बहुः कमजः, क्रमज़ान ] एक माप वफल हिर:-[अ० ] एक प्रकार का पौधा । जो एक मन सवा दो सेर १० माशे वा ३२४० वफ़ास अलब-[अ] डिजिटेलिस पत्र । दस्तानः तोहे के बराबर होती है। रोबाह । कमीज हि.जाजी-[२०] एक माप जो २७० तोले वफस्स ब-[अ] कबीकज । जलधनियाँ । देवकाँ के बराबर होती है। कफोर-[अ० ] सोंठ। कतकार वसू बऊ स- १] सरो। कफीशून-[यू ] जंगली बैंगन । क.फूर-[बं०] कपूर। क़मीस-[?] एक प्रकार का निर्मिज़ (किरमदाना ) कफूर का पत्ता-) । बम्ब० ] एक माढ़ीदार वृक्ष जो __जो सीतासुगरी के पेड़ पर पैदा होता है। कफरे का पात- एवीसीनिया से भारतवर्ष में काज जइब-[१०](१) पाखानभेद । जितियाना लगाई गई है । फूल श्वेत होता है। Msriand. अनीसा । ra Bengalens. काब:-[१०] हुजुबुल। कारा बंज-[यू.] तुलसी का एक भेद । का. रियः। कान्नज़र-[१०] जंगली श्रास । जंगली विलायती मेंहदी। काग-[2 ] कारी। कफुन्नसर-अ.] (१) इस्कूलूकंदरियून। (२) | कागबंज- यू.] एक प्रकार की तुलसी। काफ़.. रियः । हुजु बुल। क. गे- अ.] कुकर्रा । कफरी-[१] कपूर। कान् अत्र-अ.] पखानभेद । तितियाना। कालाबज-[ यू.] तुलसी का एक भेद । कफुल अलद-अ.] अतनीसा ।। को आइश:-(१)तराभिरा । जीर। (२) गर्भ करुन् उमाब-. अ.] वातानीको।। फूज । कन मरियम । । कल् कल्ब-[१०] (1) वदस्काँ । (२) कने कफ़ आदम-[अ] एक पौधा जो एक गज़ ऊँचा मरियम । होता है। इसकी पत्ती गोल और श्रास की पत्ती कन्नसर-[अ०, मि . ] इस्फ़लूकंदरियून । हशीश के बराबर होती है । जड़ बहमन सुख के बराबर तुत्तिहाल । मोटी होती है रंग में ऊपर से यह कालो वा काज हर:-[१०] एक बूटी जो एक वित्ता ऊँची पीली होती है और भीतर से लाल । इसके बीज होती है। शाखें छोटा २ होती हैं। प्रत्येक शाखा कड़ से पतले होते हैं। किसी किसो मत से बहकी पहुँची पर तीन-चार गोल और फटी हो। मन सुर्ख इसी की जड़ है। पत्तियाँ लगी होती हैं। जो ज़मीन से मिली रहती प्रकृति-प्रथम कक्षा में उष्ण और रूक्ष । हैं। इसका फूल पीला और अत्यन्त सफेद होता मात्रा-॥माशे। है और उससे सुगंधि आती है। इसकी जड़ गुणधम-यह खफ्रकान को दूर करती, वायु जैतून के बराबर होती है और उसमें बहुत उप को विलीन करती, यकृत को शक्रि प्रदान करती मूल होते हैं। खरीफ (बसंत ऋतु) की प्रथम और सब गुणों में बहमनसुर्ख के समान होती है। वर्षा होते ही यह उगती है। किसी-किसी के मत ... (ख० अ०) से कपल ज़बुन के वर्ग की वनस्पति है ओर | कके इस्सबथ-[अ] दे. "का स्सबम” । .. गुणधर्म में उसके समान होती है। इसे पीसकर कफ़ दरिया-[फा०] समुन्दर फेन । गर्भाशय में स्थापन करने से स्त्री गर्भधारण के फफे मरियम-[अ] हाथा जोड़ो। बखरमरियम् ! योग्य होजाती है । दुष्ट क्षतों पर इसे पीसकर बुर- कफे मरियम-[ मि..] सभालू की पत्ती। कने से उपकार होता है । इसको पीसकर मस्सो | ककेमिस-[का ] ताँबे का भाग। ज़ह रतुन्नुहास । पर लेप करने से वे नष्ट होते हैं। कके सफेद-फ्रा ] बर्फ । Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क कफेलु - वि० [सं० त्रि० । उणा । श्लेष्मातक वृक्ष । कफोणि. कफोगी. संज्ञा स्त्री० कुहनी । कोहनी । कफणी कपोणी | कफोत्कट - वि० [सं० त्रि० ] कफप्रधान । बलग़मी । यथा—'कणया च कफोत्कटे ।'–च० द. सान्निपातिक ज्व० चि० । २१३६ कफयुक्त । बलग़मी । लसोड़े का पेड़ । सं॰ पु ं० स्त्री० ] केहुनी । कूर्पर । टिहुनी कफोक्लिष्ट - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] एक प्रकार का नेत्र रोग जो कफ से होता है । इसमें सनद, चिकने और मानो जल से शराबोर हो, ऐसे एवं जड़ रूप दिखाई देते हैं । कफेन पश्येद्रूपाणि स्निग्धानि च सितानि च । सलिलप्लावितानीव परिजाडयानि मानवः ॥ मा० नि० । कफोत्क्लेश- संज्ञा पु० [सं० पु० ] कफ के कारण जी मिचलाना । कफ जन्य मिचली । कफ की काई । कफोलि - संज्ञा स्त्री० [सं० पु०, स्त्री० ] केहुनी । कोहनी | कोणी कपोणी । टिहुनी । कफोदर - संज्ञा पुं० [सं० नी० ] कफ से उत्पन्न पेट · का एक रोग । इस रोग में शरीर में सुस्ती, भारीपन और सूजन होजाती है, नींद बहुत श्राती है। भोजन में रुचि रहती है । खाँसी श्राती और पेट भारी रहता है, मंत्री मालूम पेट में गुड़गुड़ाहट रहती है तथा रहता है । I होती है और शरीर टंडा कफौड़- वै० पु० ] कफोणि । कोहनी । कच:- [ फ्रा० ] एक प्रकार का साँप । लफ्ज़ - [ ? ] कसूस का पौधा । नफ़्त - [ ? | जीरा । कफ़्तर - [ फ्रा० तु० ] कबूतर । कफ़्तार -! फ्रा० ] लकड़बग्घा । चर्ख । क्रद -[ ? ] जीरा । [ सिरि० । साही । क़दीर - [ यू० ] मांस गोश्त । कलयहूद कफ्फुलकल्ब - [ [ ० ] ( १ ) बदस्काँ । ( २ ) क मरियम | कफ्फुल्ज् बुअ - [ श्र० ] एक प्रकार का पौधा, जो मौसम बहार में पैदा होता है। कफ़्फ़ - [ [ ० ] उँगलियाँ सहित हवेशी । पंजा । ( २ ) हथेली । ( ३ ) हथेली भर चीज़ । ( ४ ) तैल जो एक दिरहम ३॥ माशे का होता है । एक कफ़्फ़ुस्सब* [ अ० ] जलधनियाँ | देव कॉडर कबीकज (Ranunculus sceleratus ) कफ़्फूल जुबु, फ्कुल सबुअ - [अ०] शाकी के अनुसार एक वनस्पति जी क्षणभंगुर होती है । इसकी पत्ती गोल, कटी हुई, अजमोदे की पत्ती के बराबर होता है और भूमि पर परिविस्तृत रहती है। इसमें पत्ती कम होती है। शाखाएँ पतली और रोमावृत होती हैं । तथा ये भी ज़मीन पर फैजी होती हैं। रंग में ये पीली होती हैं और एक जड़ से बहुत सी शाखायें फुटती हैं। फूल सुवर्ण पीत और श्वेत रंग के भी जाते हैं। इसकी जड़ कटुकी (खर्ब) मूलवत् और अत्यन्त तोच्या होती है। यह जल के समीप एवं तर भूमि में उत्पन्न होती है । किसी-किसी के नवं से यह कवीकज का एक भेद । कोई-कोई इसे नस कबीकज जानते हैं । / प्रकृति - द्वितीय कक्षा में उष्ण और रूक्ष । गुणधर्म - यह लताफ पैदा करती है, मवाद को काटती है, स्वच्छता प्रदान करती है । और विलायक है । इसको पीसकर आँख में लगाने से जाला कट जाता है । इसके लेप से मस्से कट जाते हैं। यदि इसको पीसकर दत पर अवचूर्णित करें तो बदगोश्त को नष्ट करे और क्षत को साफ करे । ( ख० श्र. ) कफ़्याल - [ ? ] चालूबुखारा । कफ. - [अ०] ] क़ ुल्यहूद । क़फ. - [अ० ] (१) क्रिर्मिज़ । ( २ ) गुग्गुल । मक । (३) सिलाजीत हिन्दी । [?] (9) क़ीर | मोमियाई | अलकतरा । (२) क़क्रूरस - [ ? ] हवुषा | हाऊबेर । क. फ्रा - [ सिरि० | मेंहदी । हिना । } कहलयहू? - [ फ्रा० ] दे० "कुछ रुल्यहूद” । क़फ़रुलयहूद - [ श्र० ] ( १ ) मिट्टी का तेल । (२) एक प्रकार का पत्थर जिसे यहूदिया के समुद्र से Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फ्लू २१३७ लाते हैं। यह दो प्रकार का होता है, एक ललाई | लिए नीला और दूसरा स्वच्छ और ख़ाकी । वि० दे० "मिट्टी का तेल ” । क़फ़्लूतु - [ ? ] शामी गंदना । कफ्लूस - [ ? ] ग़ार । क़फ़्साऽ - [अ०] ( १ ) श्रामाशय । ( २ ) उदर । शिकम । ( ३ ) कमीनी औरत । पु'चला स्त्री । कसून, कब्सून - [ यू० ] एक वनस्पति के पत्र और गोल दाने जिसे हबश देश से ले आते हैं। स्वाद तीव्रता और कटुता एवं तीव्र सुगंधि होती है । किसी किसी के मत से यह 'कसूस' है । कोई बायबिडंग मानते हैं । परन्तु सच तो यह है कि यह एक वनस्पति है. जिसके श्रवयव बरंजासिफ की तरह होते हैं । हबश- निवासी इसका प्रचुर प्रयोग करते हैं । प्रकृति - - प्रथम कक्षा में उष्ण एवं रूक्ष । किंतु सत्य यह है कि यह तृतीय कक्षा में उष्ण और रूत है। गुणधर्म तथा प्रयोग दरीय कृमि - निःसारण एवं विरेचनार्थ इसका . चूर्ण मधु वा शर्करा मिलाकर दूध के साथ खिलाते | हैं । कभी इसके साथ अन्य श्रौदरीय कृमि निस्सारक श्रोषध सम्मिलित करते हैं। इसकी जड़ अन्य सभी अंगों से बलवत्तर होती है। इसके उपयोग की सर्वोत्तम विधि यह है कि इसे कूटकर पानी में इमली के साथ मलकर साफ करके पिलादें । यदि अधिक शक्ति की आवश्यकता हो, तो बायबिडंग भी सम्मिलित करदें । यदि अपेक्षाकृत इससे भी अधिक शक्ति की जरूरत हो, तो कालादाने के चूर्ण के साथ खिला दें। यदि कृमि सर्वथा दूर न हो सकें, तो केवल जड़ को पीसकर पानी के साथ फाँक लें। ( ० ० ) क़फ़हर–[ ? ] क्रैक़हर । कब अयून - कब अदयो- } [ सिरि० ] शाहतरा । पित्तपापड़ा । बंग [ वर० ] धोरान । गरान । कबई - संज्ञा स्त्री० दे० "कवयो” । कबक - संज्ञा पुं० [फा०] चकोर पक्षी । कबकू - [ फ्रा ] तीतर | दुर्राज । ४५ फा० कत्रक दरी - फ्रा० ] चकोर पक्षी । क़बक़ब - [ अ ] ( १ ) ठोड़ी । ठुड्डी उदर । पेट । (३) पेट की | श्रावाज़ | कबकी - [ ? ] बेर । कबड्या - निंब - [ मरा० | बकाइन । कबर बग़ब | ( २ ) गुड़गुड़ाहट की TET - [ ० ] शहत की मक्खी । मधुमक्षिका । कबतर - संज्ञा पु ं० दे० "कबूतर" | कबता अकमता, कबस । श्रक्रमता - [ सिरि० अ० ] फ़ाशिरस्तीन । कबन्थ-संज्ञा पुं० दे० "कबन्ध" कबन्ध-संज्ञा पुं० [सं० क्ली० ] जल । रा० नि० व० १४ । संज्ञा पुं० [सं० पु० ] ( १ ) उदर । पेट । ( २ ) बिना सिर का धड़ । रुंड । ( ३ ) बादल । मेघ । ( ४ ) पीपा । कंडाल । कबमी - [ कना० ] शमी । कबद - [ श्रु० ] ( १ ) कलेजे पर चोट लगना । (२) कलेजे में दर्द होना । यकृद्व ेदना । जिगर की बीमारी । (३) श्रायास । कबर - संज्ञा पु ं० [देश० ] पाकर | खबर | संज्ञा पु ं० [अ० क | करील की जाति का एक वृक्ष । जिसमें सफेद फूल आते हैं। शेष सभी बातों में यह करीर के समान होता है । भारतवर्ष में उष्ण प्रधान पश्चिमी हिमालय की घाटी से पूरब की ओर नेपाल तक तथा पंजाब, सिन्ध, पश्चिमी प्रायद्वीप और महाबलेश्वर की पहाड़ियों में इसके वृक्ष पाये जाते हैं । एसिया, अफरीका और यूरोप, अफगानिस्तान, पश्चिमी एशिया, उत्तरी अफरीका, आस्टेलिया और सैंडविच टापुओं में यह बहुत होता है ! पर्या०- ० - कबर ( क ) - हिं०, पं० । कवार कारक –फ़्रा० । कंटा ( कुमाऊँ ) । कौर, कियारी, बौरी, बेर, बन्दर, बस्सर, ककरी, कंडर, टाकर, बोड़र, करी, कवार, बेरारी, ( पं० ) । कबार | ( सिरिया और श्र० ) । कबरिश, कबर - (बम्ब० ) कलवरी - (सिंध)। कैपेरिस स्पाइनोसCapparis spinosa, Linn. कैडेबा gara Cadaba Murrayana, Gra Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवर २१३८ ham ? (ले० ) । The edible caper or Caper plant -श्रं० । कबर की जड़ पर्या०. 10- कबर की जड़ -हिं० । वीख़कबर, - ( फ्रा० ) । श्रस्तु कबर । श्रस्लुल् श्रस्फ ( श्रु० ) । टिप्पणी - श्रारव्य भाषा में 'कबर' से करीर का फल जिसका अचार बनाते हैं, अभिप्रेत है और यह स्वयं करील का भी एक नाम है । यह वस्तुतः अरबी भाषा का शब्द है । परन्तु रसीदो ने फरहगे फ़ारसी में इसका पारस्य कबर शब्द से अरबीकृत होना लिखा है । अंजुमन श्राराय नासिरी से भी उक्त कथन की पुष्टि होती है । अंजुमन और गियासुल्लुगात प्रभृति में इसका उच्चारण 'कबर' लिखा है। उनके अनुसार यह एक सुस्वादु एवं खट्टा है । परन्तु यह ठीक नहीं । क्योंकि कब्र खट्टा नहीं, प्रत्युत कड़वा होता है । करीर वर्ग (N. O. Capharideoe.) श्रौषधार्थ व्यवहार - मूलत्वक् । इतिहास - ऐसा प्रतीत होता है कि सर्व प्रथम मुसलमान चिकित्सकों ने ही इसकी छाल का औषधीय प्रयोग किया । मजनुल् श्रद्विया के लेखक ने इसके पौधे का उत्तम वर्णन किया है । वे लिखते हैं कि मूलत्वक् ही इसका सर्वाधिक प्रभावकारी भाग है और प्रायः प्रयोग में श्राता है। भारतीयों का करीरफल - टेंटी के प्रयोग का ज्ञान बहुत प्राचीन है । प्रायः सभी प्राचीन अर्वा चीन श्रायुर्वेदीय निघंटुनों में इसका सविस्तार उल्लेख श्राया है । परन्तु करीर की छालका प्रयोग उक्त निघंटुओं में नहीं मिलता । कदाचित् मुसलमान चिकित्सकों को इसका प्रयोग करते देखकर ही इसकी श्रोर भारतीय चिकित्सकों का ध्यान कृष्ट हुआ हो । संभव है इनका उक्त ज्ञान स्वतंत्र हो । यूनानी और लेटिन इन दोनों भाषा के ग्रन्थों मैं कबर – करीर भेद (Capparis ) का उल्लेख मिलता है । अस्तु, यह संभव है कि इसके औषधीय गुणों का ज्ञान उन्हीं से अरबनिवासियों कबर को हुआ हो । भारतवर्ष में इसकी जड़ की छाल का श्रायात फारस की खाड़ी से होकर होता है । धर्म तथा प्रयोग यूनानी मतानुसार- प्रकृति - जड़ द्वितीय कक्षा में उष्ण और रूक्ष, उष्ण देशों में उत्पन्न वृक्ष की जड़ तृतीय कक्षा पर्यन्त उष्ण एवं रूक्ष। फल तृतीय कक्षा में उष्ण और द्वितीय कक्षा में रूक्ष, किसी किसी के मत से गरम श्रोर तर, बीज तृतीय कक्षा में उष्ण एवं रूक्ष और फूल द्वितीय कक्षा में उष्ण और रूक्ष है । हानि कर्त्ता - - उष्ण प्रकृतिवालों के श्रामाशय, afta, वृक्क और मस्तिष्क को । इसके बहुल प्रयोग से ख़ाज उत्पन्न होती है। दर्पन - आमाशय के लिये सिकंजबीन, वस्ति के लिये नसून तथा उस्तो खुद्द्स, वृक्क के लिये मधु एवं कुलञ्जन, और मस्तिष्क के लिये शीतल जल और ख़ाज के लिए खीरा । प्रतिनिधि - सम भाग ज़रावन्द की जड़ श्रोर विजौरा, श्रर्द्धभाग सफ़ेद कूट, तृतीयांश बेल एवं वृक्ष का प्रत्येक भाग अन्य भाग की प्रतिनिधि है मात्रास्वरस - २ तो० ४ मा० तक, जड़ का चूर्ण १० ॥ मा० तक, क्वाथ में १७॥ मा० से २ तो० ७ ॥ मा० तक | कब में कटुता, तीव्रता श्रोर क़ब्ज— संकोचन गुण वर्तमान होता है, अस्तु, यह विलीनकर्त्ता, छेदनकर्त्ता, तारल्यकर्त्ता और स्वच्छताप्रद है । अपने कट्वंश के कारण यह स्वच्छता प्रदान करता, शोधन करता, अवरोधोद्घाटन करता और छेदन करता है, अपने तीच्णांश के कारण यह श्रौम्य उत्पन्न करता एवं विलीन करता है, क़ाबिज़ांश के कारण संकुचित करता और शक्ति उत्पन्न करता है । शुष्क फल की अपेक्षा ताज़े फल में अधिक श्राहार — पोषण होता है । अपने पूर्वोक गुणों के कारण यह फालिज – पक्षाघात और श्रवसवताख़दर को लाभ पहुँचाता है । अपने अवरोधोद्घाटक छेदक, विलायक और नैर्मल्यकर गुणों के कारण यह प्लीहा के लिये प्रतीव गुणकारी औषध है । इसी हेतु यह रबू— श्वास को लाभ पहुँचाता है। यह सांद्रीभूत श्रम दोषों का उत्सर्ग करता है, Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कबर २१३६ क्योंकि यह श्रामाशयांत्रस्थ श्लेष्मा का छेदन एवं निर्मलीकरण करता एवं उसका मल के साथ उत्सर्ग करता है । यह यकृत और प्लीहा के श्रव रोधों का उद्घाटन करता एवं उक्त अंग द्वय का शोधन करता है । अपनी कटुता के कारण यह दीदान - लघु कृमि, कद्दू दाना और (पेट के ) केचुओं को नष्ट करता है । इसके काढ़े में सिरका एवं मदिरा मिला कुल्ली करने से वह दंतशूल श्राराम होता है, जो गलीज़ मवाद के कारण उत्पन्न हुआ हो । नफ़ी० । इसकी जड़ शेष सभी श्रंगों से अपेक्षाकृत अधिक प्रभावकारी है । इसमें कुवत तिर्याकिया वर्तमान है । इसलिये विषैले जंतुओंों का विष दूर करती है । पत्ते और फल शक्ति में समान हैं । पर सत्यतः फल अधिक शक्ति सम्पन्न है, किंतु वह विकृत दोष उत्पन्न करता है और सोदावात में परिणत हो जाता है। कांड एवं पत्र फूल की अपेक्षा निर्बल हैं । कांड पत्र से वलशाली है । 1 फेल में पोषणांश कम है । ताजे फल में सूखे की अपेक्षा अधिक पोषणांश - गिज़ाइयत है। जड़मस्तिष्क के शीतल रोगों को लाभकारी है । इसे अर्श एवं प्लीहा रोग में भी देते हैं। इससे श्रार्त्तव का प्रवर्त्तन होता है । यह कफ, वात और पिच्छल लाज़िज दोषों का संशोधन करती है। कोष्ठावयव इहूशा तथा बाह्र को पुष्ट करती है। पत्ते संकोचक है, इनको पीसकर लेप करने से दद्र और कंठमाला आराम होता है | पत्र स्वरस उदरस्थ कृमियों को नष्ट करता एवं निःसरित करता है। जड़ की छ सिरके में पीसकर दनु, व्यंग - झाईं और बहन पर लगाने से लाभ होता है । इसके पत्ते व बीज का काढ़ा कर, गंडूष धारण करने से दंतशूल जाता रहता है। जड़ में भी यह गुण पाया जाता है ये प्लीहा की सूजन मिटाते एवं यकृत के श्रवरोध का उद्घाटन करते हैं। इसकी जड़ से सिकंजवीन भी प्रस्तुत करते हैं । यह प्लीहा गत वात--सौदा का उत्सर्ग करती है । यह मूत्रल भी है। तीन माशा फल मदिरा के साथ मास पर्यंत सेवन करने से ताप तिल्ली को बहुत उपकार होता है । इसके सूखे फल पीसकर मधु के साथ खाने से मूत्र प्रवर्त्तन होता है और खून के दस्त कबर ते हैं। इसकी कलियों और कच्चे फलों का नमक और पानी में अचार डालते हैं। सिरके में भी इसका प्रचार पड़ता है। कच्चे करों—फलों की तरकारी बनाते और तेल में अचार बनाते हैं । इनको तेल वा घी में तलकर कालीमिर्च एवं लवण मिलाकर खाते हैं । ख० श्र० यह उष्ण एवं रूक्ष, निर्मलताकारक, धारक और हिम द्रव्यों का उत्सर्गकर्त्ता है। इसलिए पक्षाघात, जलोदर, वातरत्र और श्रामवातिक विकारों में इसकी सिफारिश की जाती है । कर्ण-कृमि निवारणार्थ उसी प्रकार इसके ताजे छुप का रस कान में डाला जाता है, जिस प्रकार हिंदुस्तान में का रस ( Cleome juice ) पड़ता है । कहते हैं कि वाह्य रूप से प्रयोग करने पर समस्त चुप उत्तेजक और संकोचक है । -म० श्र० । काँगड़ा में घाव पर इसकी भिगोई हुई जड़ व्यवहार की जाती है । क्युवर्ट । कब्र ( Caper ) भारतवर्ष में नहीं उत्पन्न होते । इसकी पुष्प कलिकाओं का उत्तम प्रचार बनता है । अरब निवासी इसकी जड़ श्रौषध कार्य में लाते हैं । उनके विचार से दुष्ट व्रण ( Mali gnant ulcers ) पर इसे पीसकर लगाने से उपकार होता है । — ऐन्सली | डीमक - कबर की छाल (Caper bark) को इन्द्रिय व्यापारिक क्रिया सेनेगा (Senega) के बहुत समान होती है। इसकी उक्त क्रिया उसमें वर्तमान यद्यपि बिलकुल सदृश नहीं, पर उससे मिलती-जुलती, सेयोनीन नामक एक सत्व पर निर्भर करती है। इसके तुप से एक उड़नशील तैल प्रगट होता है । फा० ई० १ भ० पृ० १३५-६ । जड़ की शुष्क छाल मूत्रल ख्याल जाती है । और प्रथमतः यकृत एवं प्लीहा गत अवरोध, अनार्त्तव ( Amenorrhoca ) और चिरकारी श्रमवात में इसका उपयोग किया गया था, वैट | यह लकवा, जलोदर, श्रामवात और संधिवात में लाभकारी है। इसमें एक प्रकार का ग्लुकोसाइड पाया जाता है। इं० ८० ई० । Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कबरक २१४० कबाबचीनी कबरक-[फा०] गोखरू का नाम । कबर गाज़रूनी-संज्ञा पु० [शीराज़ी ] शामी खनूब कबरा-संज्ञा पुं० [हिं० कौर ] करील की जाति की एक प्रकार की फलनेवाली झाड़ी जो उत्तरी भारत में अधिकता से पाई जाती है । इसके फल खाये जाते हैं । कौर । नोट-संभवतः यह यूनानी ग्रंथोत्र 'कबर' है। वि० दे० 'कबर"। कबरी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] हिंगुपत्री । बाफली । रा०नि० । नि० शि० । (२) केशबन्ध । कबरीश-[तु.] कबरा । कबरा । कबरेहिंदी-[फा०] कँदूरी । कुदरू । बिंबा । कबल-[ सिंगा] सिख । कवलावगुण्ठिका-संज्ञा स्त्री० . कबली-[संज्ञा स्त्री.]काकोली का फल । कबला-[ते. ] रक सर्षप । कबलूल अकया-[ ] बेद सादा के पत्ते । . कबशा वरा-[सिरि०] जंगली कबर । कबसा अक्रमता- सिरि, अ.] फ़ाशिरस्तीन । कबसा. जोरिया-[सिरि] बाग़ी अंगूर जि.ससे मदिरा - बनती है। क़बस-[अ० ] स्फुलिंग। चिनगारी । लौ । श्राग। कबसून-दे० "कबनूस" . कबा-[पं०] कबरा । कब्राबेर । क़बाइलुरोस-[१०] सिर की हड्डी । खोपड़ी । शिरोऽस्थि । कपालास्थि । Skull, क़ (कि) बाब-[अ०] एक प्रकार की मछली । कबाब-[अ० ] सोखों पर भुना हुआ माँस । कबाबचीनी-संज्ञा स्त्री० [अ० कबाबः+हिं० चीनो] (१) मिचे, पीपल तथा पान आदि की जाति की एक लिपटनेवाली पराश्रयी झाड़ी जो सुमात्रा जावा, मलाया श्रादि टापुत्रों में जो इसके प्रादि उत्पत्ति स्थान हैं, होती है और अब वहाँ इसकी काश्त भी होती है । भारतवर्ष में भी कहीं २ थोड़ी बहुत इसकी काश्त की जाती है। इसकी | पत्तियाँ कुछ-कुछ बेर को सी पर अधिक नुकीली होती हैं और उनकी खड़ी नसें उभड़ी हुई | मालूम होती हैं। इसमें फूल गुच्छों में आते हैं।। प्रत्येक गुच्छे में घृतशून्य छोटे-छोटे स्त्री-पुष्प लगे होते हैं । पुपुष्पस्तवक इससे पृथक् होता है जब इसमें फल लगते हैं, तो प्रारम्भ में वे भी वृंतशून्य होते हैं ।परन्तु ज्यों ज्यों वे परिपकावस्था को पहुँचते जाते हैं, त्यों त्यों प्रत्येक फल की डंडी भी दीर्घ होती जाती है । अंततः वे गुच्छे से पृथक् । दृग्गोचर होने लगते हैं। जब फल पूर्णतया वृद्धि को प्राप्त होजाते हैं, पर अभी वे हरे तथा कच्चे ही। होते हैं । तो उन्हें गुच्छे से तोड़ लेते हैं। उनमें से कतिपय फलों की डंडियाँ भी उनमें ही लगी रहती हैं । जिससे उन्हें कभी-कभी दुमदार मिर्च' वा 'दुमकी मिर्ची' कहते हैं । इन फलों को धूप में शुष्कीभूत कर रख लेते हैं, जिससे हरा रंग कृष्णाभ धूसर वर्ण में परिणत होजाता है। प्रागुक द्वीपों से चीनी व्यापारी उन्हें देशावर भेज देते हैं। वे अधिकतया वटाविया से ऐस्टडम और सिंगापूर से लंडन भेज दिये जाते हैं। कदाचित् इसी कारण कवाबा को कबाबचीनी कहते हैं । पर्या–पाइपर क्युबेबा Piper Cubeba, Linn. क्युबेबा आफिसिनेलिस Cubeba officinalis, Miquel. -ले० । शेष पर्याय के लिए दे० 'कबाबचीनी का फल' । नोट-बाज़ारू कबाबचीनी (Cubella) उक्न झाड़ी का फल है । परन्तु डाक्टर ब्ल्यूम के विचारानुसार इस जाति को कबाबचीनी का फल यूरोप नहीं भेजा जाता। उनके मत से व्यापारिक कबाबचीनी मुख्यतः कबाबचीनी भेद ( P. Caninum, Rumph: or P. Cubeba, Rorb.) से प्राप्त होताहै । जिसका फल अपेक्षा कृत लघुतर एवं अल्प चरपरा होता है। यूनानी हकीम अबू हनीफा ने अपने उद्भिद शास्त्र विषयक ग्रन्थ में लिखा है कि कबाबचीनी का पेड़ जंगली श्रास के पेड़ की तरह होता है। पत्ते रेहाँ के पत्ते से पतले होते हैं । फूल पीताभ श्वेत होता है। यह कठोर भूमि में उत्पन्न होता है। (२) कबाबचीनी का फल-इसके फल में प्रायः एक पतली सी गोल या किंचित् चिपटी डंडी लगी रहती है । जो स्वयं फलाधार के सिकुड़ने के कारण बन जाती है । इसलिए यद्यपि वह वास्तविक नहीं, पर देखने में वैसा प्रतीत होती है। फल शीर्षपर फूल कुछ दनदानेदार अवशिष्टांरा Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कबाबचीनी २१४१ कबाबचीनां भी दृग्गोचर होता है । इसका सूखा हुआ फल श्यामता लिए भूरे रंग का, वृत्ताकार तथा - तथा , इञ्च व्यास का होता है। इसके वाह्य तल पर चुढे वा झुर्रियाँ पाई जाती हैं। जो कच्चे फलों को सुखाने की दशा में साधारणतया उत्पन्न होजाती हैं । कबाबचीनी का छिलका पतला और क्षीण होता है । झुर्रादार परत के नीचे भूरे रंग का कठोर छिलका होता है। फल के परिपक्व होनेपर जिसके भीतर अकेला बीज नीचे की ओर जुड़ा होता है। कभी २ विकसित बीज की जगह विकृत बीज का स्याही मायल पोर पिचका हुआ भाग मिलता है। पूर्णतया विकसित होने पर बीज रक्राभ धूसर होता है। बीज के भीतर गर्भ बहत छोटा सा और बीज शीर्ष के समीप सफ़ेद गूदे के अभ्य तर पाया जाता है । श्वेतसार (Album. en)सफ़ेद तथा स्नेहमय होता है। इसका कच्चा फल ही प्रायः संग्रह किया जाता है। जो औषध के काम में आता है । इसे कुचलने से इसमें से मसाले की तरह एक प्रकार की विशिष्ट तीक्ष्ण गंध आती है। ये फल मिर्च से कुछ मुलायम और खाने में कड़वे और चरपरे होते हैं। इनके खाने के पीछे जीभ बहुत ठण्डी मालूम पड़ती है इसमें २ बर्ष तक शक्ति रहती है। परीक्षा-यद्यपि कालीमिर्च एवं मिर्च विशेष ( Pimento) श्राकृति में कबाबचीनी के समान होते हैं, पर उनमें डंडी नहीं होती और न उनकी गंध ही कबाबचीनी की गध के सदृश होती है। इसका चूर्ण ललाई लिए भूरे रंग का होता है | जिसकी गंध विशेष प्रकार की, तीव्र एवं मनोहारिणी होती है। यदि गाढ़े गंधकाम्ल (Concentrated Sulphuric acid) को सतह पर कबाबचोनो के चूर्ण का प्रक्षेप दें, तो गंभीर रक वर्ण का प्रादुर्भाव होता है। यह परीक्षा परमावश्यकीय है। नकली कबाबचीनी से केवल रक्लाम धूसर वर्ण प्रादुर्भूत होता है। कबाबचीनी के काढ़े में प्रायोडीन का घोल मिलाने से अति सुन्दर नील वर्ण | की उत्पत्ति होती है। पुनः समूचे वा चूर्णकृत | कबाबचीनी को अणुवीक्षण यंत्र के नीचे रखकर देखने से उसकी जो बनावट देखने में आती है, वह उसके किसी भी प्रतिनिधि द्रव्य की बनावट में कदापि देखने में नहीं आ सकती। कबाबचीनी का छिलका तोड़कर देखने पर उसमें असंख्य स्नेह कोष दृष्टिगत होते हैं और बीज के भीतर छोटे छोटे श्वेतसारीय कण वर्तमान होते हैं। सर्वोत्तम कबाबचीनी वह है जो ताजी, सुगन्धित तीक्ष्णास्वाद युक्र होती है और चीन से .आती है। इसके बाद रूमी होती है । भारतीय बुरी और कड़वी होती है। यहाँ पर यह वात स्मरण रखनी चाहिये कि जहाँ तक इसके तैल का सम्बन्ध है, यह विदेशीय कबाबचीनी से किसी प्रकार कम नहीं। उनमें जो भेद पाया जाता है, वह नाम मात्र का होता है । जहाँ पर २५०. से २८०. सेंटिग्रेड के मध्य के उत्ताप पर परिनु ति करने से विदेशी कबाबचोनी द्वारा असली तेल ५६ प्रतिशत प्राप्त होता है। वहाँ उतने ही उत्ताप पर भारतीय तेल की मात्रा ५५ प्रतिशत होता है (वि० दे० इ० डू. ई० चोपरा कृत) अब आपने देखा कि इन दोनों के बीच नाम मात्र का भेद है और यह संभव प्रतीत होता है कि औषधीय गुणधर्म में भारतीय तेल व्यापारिक तैल से किसी भी भाँति कम नहीं है। अतः यदि यहाँ कबाबचीनी का उत्पादन बहुल परिमाण में किया जाय, तो श्रोषधीय एवं अन्य कायों के लिये इसके तेल का उत्पादन संभव हो सकेगा यह बुद्धिगम्य है। गंजबादावर्द में लिखा है कि हब्शी, चीनी और हिंदी भेद से कबाबचोनी तीन प्रकार की होती है। केवल श्राकृति भेद से इनमें भेद होता है । चीनी का दाना तुद्र तथा कालीमिर्च से किंचित् वृहत् होता है और उसके सिर पर डंटी होती है। वजनमें यह हलका अोर स्वाद में सुगंध पुर्ण होता है। तोड़ने पर यह भीतर से पोला निकलता है। इसके अभाव में इसका हबशी भेद व्यवहार में लाएँ। इसका दाना चीनो के दाने से वृहत्तर होता है ।यह भारी और भीतरसे परिपूर्ण होताहै। इसका एक सिरा सफेद होता है और यह सुरभिपूर्ण होता है। चाबने पर चीनी (कबाबा) की तरह जान पड़ता है। यह कुछ लंबोतरा लिये गोल होवा Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कबाबचीनी २१४२ कबाबचीनी . है। उन दोनों के अभाव में हिंदी (कबाबचीनी) काम में लावें । इसका दाना गोल होता है और यह चीनी से वृहत्तर, गुरुतर और तोड़ने पर सुगंध देता है । यह भीतर से पीतान, श्वेत निकलता है । इसमें डंटी नहीं होती। भारतीय बाज़ारों के लिये बंबई में सिंगापुर से कबाबचोनी | श्राती है। पा.-कबाबचोनी, शीतलचोनो-हिं० । कबाबचिनि-बं० । दुमकी मिर्ची-द। कबाबचीनी-उ० कबाबः, कबाबहे सीनी, हज्बुल उरूस -अ । कबाबः, किबाब:-फा० । कबाबचीनी-फ्रा. दि०, द०, बम्ब० । क्युबेबो फ्रक्टस Cubebee fructus-ले०। टेल्ड पेपर Tailedpepp9, क्युबेब्स Cubebs-अं| Cub besफ्रां० । वालनिलकु, वलमलकु-ता०; मल० । तोक-मिरियालु, सलव-मिरियालु-ते। वालमुलक-मल। बालमेणसु, गंधमेणसु-कना० । कबाबचिनी. हिमसी-मीरे, कंकोल-मरा०, मार० । कबाब-चिनि, तड-मिरी, चणकवाव-गु०। वालमोलग, बाल-मोलबू-सिं०। सिम-वन-करवाबर। सुगन्ध मरिच-सं०। कुमुकुस, कुमक(जावा )। तिम्मुर्ह-नेपा० । लुरतमर्ज़-कास । बलगुमदरिस-सिंह। टिप्पणी-दक्षिण भारत एवं भारतवर्ष के अन्य स्थानों में कबाबचोनी (Cube bs ) के लिये शीतलचीनी संज्ञा का व्यवहार होता है और farei fasta ar EÄ (Eugenia l'imenta, Allspice' ) के लिये कबाबचीनी संज्ञा का | परन्तु कलकत्ता तथा बहुत से अन्य स्थानों में इसके विपरीत है, जहाँ शीतलचीनी संज्ञा का व्यवहार पाइमेंटो ( Allspice ) के लिये और कबाबचोनी का कबाबा (Cubebs) के लिये होता है। क्योंकि भारतवर्ष के लगभग सभी राजकीय पातुरालयों एवं श्रोषध वितरणालयों में इसी संज्ञा ( कबाबचीनी) द्वारा क्युबेव (Cubeb) ख्याति है । अस्तु, हमने भी ऐसा ही मानना उचित समझा । इसके अतिरिक्र कतिपय बाजारों विशेषतः मदरास स्थित बाजारों में कबाबचोनो के सम्बन्ध में एक ओर यह भ्रम है। कि वहाँ उक संज्ञा का व्यवहार प्रायः नागकेसर, (Budr of Mesua feerea ) के लिये होता है जो ठीक नहीं। वस्तुस्थिति यह है कि उसको ( Mesua ferrea) हिंदी संज्ञा नागेसर वा नागकेसर है। हब्बुल् अरूस भी जिसका अर्थ वस्त्रधू फल है, इसकी अन्वर्थक भारव्य सज्ञा है। जैसा ग्रन्थ विशेष (जामा) के संकलयिता के वचन से ज्ञात होता है । वात यह है कि इंद्री पर इसका प्रलेप कर रति करने से स्त्री को इतना अानन्द प्राप्त होता है कि वह उस पुरुष पर श्रासक हो जाती है। अस्तु, इपकी उक्त संज्ञा अन्वर्थ ही है। इसकी अँगरेजी संज्ञा (cubeb) संभवतः पारव्य कबाबः से व्युत्पन्न है । ऐन्सली स्वरचित मेटीरिया इंडिका में लिखते हैं कि यह नेपाल में भी उत्पन्न होता है और वहाँ इसे तिम्मुई (तुम्बुरु) वा तेज बल कहते हैं। पर यह स्मरण रखना चाहिये कि तुम्बुरु कबाबचोनी नहीं, परन्तु उससे सर्वथा एक भिन्न पोधा है। तुम्बुरु को जिसे नैपाली धनियाँ भी कहते हैं, फारसो में कबाबः खंदाँ वा कबाबः दहन कुराादः संज्ञा द्वारा पुकारते हैं और कबाबचीनी को कबाबः संज्ञा. द्वारा। कदाचित् इसी सामंजस्य के कारण ही उन्हें ऐसा भ्रम हुआ है। पिप्पली वर्ग (N. O. Piperacere.) इतिहास-मध्यकालीन भारव्य चिकित्सकों ने कबाबचीनी का औषध रूपेण व्यवहार किया। अस्त. हकीम मसऊदी ने जो ईसवी सन की दसवी शताब्दी में हुआ, कबाबचीनी को जावा की उपज होने का उल्लेख किया है । सिहाह के रचयिता ने जिनका स्वर्गवास सन् २००६ ई० में हुआ, इसे चीन की एक प्रमुख औषध लिखी है। इब्नसीना ने भी प्रायः उसी समय में इसका उल्लेख किया है। वे लिखते हैं कि इसमें मञ्जिष्ठाके समान गुणधर्म पाये जाते हैं। कतिपय तिब्बी ग्रन्थों में जो इसकी यूनानी संज्ञा माहीलियून वा करफियून लिखी है, वह भ्रमपूर्ण है। आयुर्वेद विषयक सस्कृत, हिंदी और मराठी भाषा के निघंटु ग्रन्थों में 'कंकोल' नाम से जिस ओषधि का उल्लेख Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कबाबचीनी २१४३ कबाबचीनी मिलता है, वास्तव में कबाबचीनी नहीं, प्रत्युत उसका एक भेद है । गुणधर्म में यह कबाबचीनी । ही के समान होता है। फार्माकोग्राफिया नामक प्रन्थ के प्रणेता हमारा ध्यान इस बात की ओर आकृष्ट करते हैं कि यद्यपि प्राचीन भारव्य चिकित्सकों को मूत्र एवं जननावयवों पर होने वाले कबाबचीनी के प्रभावों का ज्ञान था। तथापि यरोपीय चिकित्सकों को ईसवी सन् की अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में उक्त ओषधि का ज्ञान हुधा। रासायनिक संघटन–इसमें एक क्रियाशील सार ३ प्रतिशत, एक अस्थिर तैल १० से १८ प्रतिशत (जो ब्रिटिश फार्माकोपिया में श्राफिशल है) यह कबाबचीनी के बहिरत्वक और श्राभ्यंतरिक बीज में वर्तमान होता है। कुछ स्नेह-मय-कोष पुष्प-गुच्छ, फल-की डंटियों तथा पत्तों में पाये जाते हैं। परंतु गुच्छांश जो कभी-कभी कबाबचीनी में मिले-जुले पाये जाते हैं। उनका विश्लेषण करने पर यह ज्ञात हुआ कि उनमें अस्थिर तैल की कुल मात्रा १७ प्रतिशत थी। एक स्नेहमय राल-Oleo-resin ३ प्रतिशत जिसमें कबाबीन ( Cubebin) एक उदासीन पदार्थ २ प्रतिशत तथा कबाबाम्ल(Cubebic acid) १ प्रतिशत होते हैं । पाइपरीन; एक वसामय पदार्थ वा स्नेह; मोम (Wax); श्वेतसार, स्नेह, निर्यास (gum) और भस्म ५ प्रतिशत (Malates of ma. gnesium and Calcium.), कबाबीन (क्युबेबीन ) रंगविहीन स्फटिक रूप में प्राप्त की जाती है। गंधकाम्ल में डालने से यह गहरा उन्नाबी रंग पैदा करती है। इसमें कोई लाभकारक वा हानिप्रद गुण मालूम नहीं हुश्रा। कबाबाम्ल (क्युबेबिक एसिड) का अनुपात .६६ प्रतिशत होता है । यह सफेद एवं अनिश्चित प्राकृति की डलियों के रूपमें होता है। गंधकाम्ल में मिलाने से गंभीर अरुण वर्ण उत्पन्न करता है । यदि इसमें प्रभावशून्य रालदारं निर्यास मिल जाय, जिसका अनुपात २.५ प्रतिशत होता है। तो प्रस्राव प्रारम्भ हो जाता है । कबावचीनी में अत्यल्प मात्रा में एक प्रकार का कपूर भी पाया जाता है। __ मिश्रण-कभी कभी इसमें मिलावट भी करदी जाती है। प्रायः इसी की जाति के कतिपय अन्य फल जो प्राकृति श्रादि में इसी के तद्वत् होते हैं । इसी में मिभूत कर दिए जाते हैं। संख्या में वे पांच हैं। उनमें से एक कांगो प्रदेश अर्थात् अफ. रीका का फल है. जो अफरीकी कबाबचीनी के नाम से प्रख्यात है। नकली कबाबचीनी साधारण तया असलीसे किंचिन् वृहत्तर एवं रंग और सुगंधि में सर्वथा भिन्न होती है। किसी-किसी की डंडी टेढ़ी होती है और कोई अपेक्षाकृत अधिक कड़वी होती है। औषधार्थ व्यवहार-पूर्णतया विकसित सूखे कच्चेफल जिन्हें कबाबचीनी कहते हैं। और उन फलों द्वारा प्राप्त तैल। मात्रा-चूर्ण ३० से ६० ग्रेन-२ से ४ ग्राम (१५ से ३० रत्ती) एलोपैथी में। आयुर्वेद में २॥ मा० से १० मा० तक। प्रभाव-सुरभित (Aromatic), उत्तेजक, मूत्रल, प्राध्मान हर ओर श्लेष्मानिःसारक। औषध-निर्माण-चूर्ण. मात्रा-५ से १० रत्तो । कल्क; फाण्ट-( Infusion.) . मात्रा-अाधी छु० से १ छ; स्नेह, मात्रा-५ से.. बूद। लुभाब के साथ वा जल मिश्रित शर्बत के साथ । एलोपैथी में इसका टिचर और तेल काम में आता है। और ब्रिटिश फार्माकोपिया में ऑफिशल हैं। टिकच्यरा क्युबेवी-Tinctura cubebe -ले० । टिंक्चर श्राफ क्युबेब्स Tine• ture of cubebs -अं० । कबाबासव, कबाबारिष्ट -सं०,हिं० । सबग़हे कबाबः, तअफ्रीन कबाबः -ति० | यह कुछ कुछ भूरे रंग का तरल है। शक्ति (५ में १)। निर्माण--क्रम—कबाबचीनी का चूर्ण ४ श्राउंस; सुरासार (६०%) आवश्यकतानुसार, चूर्ण को दो फ्लुइड पाउन्स पानी से क्रेदित करके Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कबाबचीनी कबाबचीनी २१४४ पकेलिशेन की रीति से १ पाइन्ट टिंकचर प्रस्तुत करलें। मात्रा-2 से १ फ्लुइड ड्राम=मिलिग्राम । ३०-६० बूद (से ३.६ घन शतांशमीटर) कबाबचीनी का तेल प-० ऑलियम क्युबेबी Oleum cubebee -ले। ऑइल ऑफ क्युबेब्स Oil of cu. bebs -अं० । कबाबचीनी का तेल । रोगन कबाबः। लक्षण-यह एक उड़नशील तैलहै जो कबाबचीनी से परिस्र त किया जाता है। यह विवर्ण, लघु एवं पीताभ हरित ईषत् हरिताभ पीत वर्ण का तैल है जो स्वाद और गंध में कवाबचीनी के सदृश होता है। श्रापेक्षिक गुरुत्व ०६१० से ०.६३० तक । एक भाग तैल 14 भाग सुरासार (६० प्रतिशत) में विलेय होता है । रासायनिक संघटन-नूतन कबाबचीनी द्वारा परिस्र त तैल में टीन्स होती है। पुरानी कबाबचीनी से प्रस्तुत तैल में क्युबेब कैम्फर (संभवतः एक प्रकार का कपूर) होता है। प्रभाव-उत्तेजक और कृभिशोधक ( Anti Septic) रूपेण इसे श्लैष्मिक कला संबंधिनी व्याधियों में प्रयोजित करते हैं। मात्रा-५ से २० बूंद-( ०३से १.२ मिलि ग्राम )। . अन्य योग (१) कवाबचीनी, मुलेठी, पीपल, हड़ का वक्कल और कुलंजन ( Alpina chinansis)इनको बराबर २ लेकर अलग-अलग कूट छान कर एक में मिलावें | जितना यह चर्ण हो, उसमें १५ गुना जल मिलाकर पादावशिष्ट काथ प्रस्तुत करें । इस काढ़े को आधी छटाँक की मात्रा में दिन में ३-४ बार देवें । इसमें शहद मिलाकर अवलेह भी प्रस्तुत कर सकते हैं। यह उग्र एवं चिरकारी कास में परमोपयोगी है। -( The Indian Materia Medica, p. 263) (२) कबाबचीनी, देवदारु, मरोड़फली, प्रत्येक १० मा०, कृष्णभंगराज (काला भांगरा), काली- मिर्च, अकरकरा, गजबेल, सूरजमुखी के बीज, (Sun Seeds) सन का बीज प्रत्येक ७ ड्राम और गूगुल १२ तोले-इसमें मात्रानुसार शहद मिलाकर प्राध-प्राध तोले की गोलियाँ बनालें । अपस्मार ( Epilepisy ) में एक,. एक गोली दिन में २ बार सेवन करायें। (इलाजुल गुर्वा) (३) कबाबचीनी ५ भाग, मस्तगी ४; चुना ३, चीना कपूर ३, इलायची ४, सनाय . बन हलदी ( Curcuma Aromatica) ४, पखानबेद (Iris Pseudocorus) ३, जवाखार ४, इन सब को कूट-पीसकर बारीक चूर्ण करलें। मात्रा-1 से २ ड्राम । यह सूजाक, मूत्रमार्ग गत क्षत वा चिरकारी सूजाक और जनन-मूत्रेन्द्रिय के रोगों में अतीव गुणकारी है । (नादकर्णी) गुणधर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसार आयुर्वेद में कबाबचीनीका उल्लेख नहीं मिलता वैद्यक शब्दसिंधु में काबाब शर्करा शब्द आया है, परन्तु संदर्भ नहीं दिया गया है । कङ्कोल जिसका उल्लेख धन्वन्तरीय तथा राजनिघण्टुआदि आयुर्वेदीय निघण्टु-ग्रंथों में पाया है, वह कबाबचीनी का एक भेद है, न कि स्वयं कबाबचीनी । तथापि ये दोनों गुण धर्म में समान हैं । दे० "कङ्कोल" | वनौषधिदर्पणकार लिखते हैं-"ग्रन्थान्तर में कबाबचीनो सुरप्रिय नाम से उल्लिखित है। तन्मत से कबाबचीनी वायुप्रशमन, श्लेष्मापहारक, अग्निवर्द्धक तथा मूत्रवृद्धिकर है एवं यह औपसर्गिक मेह, शुक्रमेह, श्वेत प्रदर, अर्श और मूत्रकृच्छ, का नाश करती है।" यथाकबाबचीना-सुरप्रियं वृत्तफलं तद्वायुशमनं मतम् श्लेष्मोत्सारण माग्नेयं मूत्रवृद्धिकरं तथा ॥ औपसर्गिकमेहश्च शुक्रमेहं सुदारुणम्। श्वेतप्रदर मासि कृच्छञ्चापि विनाशयेत् ।। यह कहाँ का पाठ है यह ज्ञात नहीं और न इसका कोई संदर्भ मिला। यूनानी मतानुसारप्रकृति-कतिपय हकीमों के मत से कबाब. चीनी में ऊष्मा के साथ शैत्यकारक शक्ति भी पाई Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४५ कपाल-चीनी जाती है। परन्तु शेख बू प्रखीसीना के कथना- बू अलीसीना के कथनानुसार इसकी अवरोधोद्नुसार यह द्वितीय कक्षा पर्यंत गरम तथा खुश्क. घाटिनी शकि इतनी क्षीणतर है, कि यह दालहै। कोई-कोई कहते हैं कि यह तृतीय कक्षा में चीनी की जगह काम नहीं दे सकती । इसको उष्ण तथा रूप है। मसीह इब्न हुक्म के मत से मुंह में रखने से स्वर शुद्ध होता है। इसके इसमें गर्मी और सर्दी दोनों हैं, पर गर्मी • चाबने से मुख सुवासित हो जाता है और उसकी प्रबलसर है। दुगंधि जाती रहती है। इससे मुखपाक में भी हानिकर्ता-वस्ति और वृक को। उपकार होता है । यह श्रामाशय तथा मसूढ़े को दर्पन-वस्ति के लिये मस्तगी, शिरःशूल में शक्ति प्रदान करती है और कण्ठशूल को लाभकारी सफेद चन्दन और गुलाब तथा वृक्क में काकनज | है । यह दस्तों को रोकती, खफकान को दूर प्रतिनिधि-दालचीनी, इलायची, बालछड़ करती, वृक्त एवं प्लीहा व यकृतगत व्याधियों को और अस्तरून, कण्ठ के लिये अकरकरा और लाभ पहुँचाती, खूब पेशाव लाती, मूत्रमार्गस्थ यकृत के लिये पिप्पली। क्षतों को शुद्ध करती और शय्यामूत्र एवं अवाधमात्रा-वयस्क ४॥ माशे तक, काथ में मूत्र-सलसुलबोल को लाभ पहुँचाती है। उदर्द १ माशे तक । अल्पवयस्क, १ से १॥ मा0 तक। रोग वा पित्ती उछलने पर बारह रत्ती कबाबचीनी इसमें १० वर्ष तक शनि रहती है। पीसकर सिकंजबीन मिलाकर चाटने से उपकार गुण, कर्म, प्रयोग-कबाबचीनी आमाशय होता है। यह पेट के नलों को शनिप्रदान करती बखप्रद अर्थात् दीपन-पाचन, वाह्य तथा वक्षोदर है। यह वायु अनुलोमन करती है। इसे चाबकर अंतरावयवों-अह शा और मसूढ़े को शक्ति प्रदान इंद्री पर लगाने से सहवास में प्रानन्द करती है। यह तारल्यजनक, अवरोधोद्धाटक, वायु प्राप्त होता है और स्त्री को तो इतना अानन्द प्राप्त को अनुलोम करनेवाली, मूत्रल और मूत्रमार्गस्थ होता है, कि सिवाय उस पुरुष के वह अन्य तादि को स्वच्छ करनेवाली है तथा चिरकालानु- किसी भी पुरुष की कामना नहीं करती। दालबन्धी अपस्मार, यकृत एवं प्लीहा के रोग, सूज़ाक चीनी, अकरकरा और कबाबचीनी प्रत्येक १ मा० और शय्यामूत्र (सलसुल्बोल ) आदि रोगों में पीसकर शहद में गोली बनाये और सुखाकर रखलें उपकारी है। -(मु. ना.) स्त्री सहवास से एक घड़ी पूर्व एक गोली मुंह में कबाबचीनी तारल्यजनक, अवरोधोद्धाटक, मुख को रखकर मुख-लाला को इंद्री पर लगाएं और सूखने सुवासित करनेवाली, आमाशय तथा मसूढ़े को पर रति करें । स्त्री को असोम आनन्द प्रायेगा। बलप्रद, अपस्मारहर, मुखपाक विनाशक, खनकान इस योग से भी दम्पति को आनन्द आयेगाको दर करनेवाली, स्वर को साफ करनेवाली कबाबचीनी २ मा०, सोंठ २ मा०, अकरकरा २ वायु को अनुलोम करनेवाली, मूत्रल, अश्मरीभेद मा०, सुभद-नागरमोथा २ मा०, लोबान १ मा०, और अतिसारहर है।--ना० मु. कतीरा १ मा० इनको पीसकर मुंह की लार में यह रूह को लतीफ़ करती है तथा अवरोधो- मिलाकर इंद्री पर लेपन करें । सूजाक में इसका द्घाटन करती, देह के सूक्ष्म स्रोतों का भी उद्घाटन उपयोग उस अवस्था में होता है, जब प्रदाह एवं करती और चिरकारी शिरःशूल को नष्ट करती है। सूजन के सभी लक्षण दूर होजाते हैं। ३॥ मा० कबाबचीनी का चूर्ण ॥ माशे मूली के पानी के | से भामाशा पर्यन्त कबाबचीनी को पीसकर एक साथ निरंतर एक सप्ताह पयंत प्रत्यह फाँकने से प्याले भर ताजा दही में जो बहुत अम्ल न हो, शिरःशूल निवृत्त होता है। इससे कामला रोग- प्रक्षेप देवें, पुनः उक्न प्याले को गाढ़े कपड़े से यान आराम होता है । यह यकृतीय अवरोध का दृढ़तापूर्वक बांधकर ग्रीष्म ऋतु में रात को आकाश उद्घाटन करती है। किंतु पुरानी हो जाने पर के नीचे और शरद-ऋतु में जहाँ चाहे रख दें। अवरोधोद्घाटिनी शक्ति क्षीण हो जाती है । शेख ! प्रातःकाल उसे मिलाकर पीलें। तीन दिन तक Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कबाबचीनी "कबाबचीनी निरंतर इसी प्रकार सेवन करने से सूज़ाक में बहुत हैं। इससे भी अधिक परिमाण में देने से पह उपकार होता है। इसकी पिचकारी सूज़ाक के आमाशय तथा अंत्र में दोभ उत्पन्न करती है और लिये अनुपम गुणकारी है। कबाबचीनी दो ड्राम, इससे उक्लेश, वमन, उदरशूल और अतिसारादि शोरा १० ग्रेन ऐसी एक मात्रा दिन में तीन बार उपसर्ग पीछे लग जाते हैं । यह हृदय को शक्ति पूयमेही को देने से उपकार होता है । कबाबचीनो, देती और इसकी गति को तीव्र करती है। . बच और कुलंजन सम भाग-इनके चूर्ण को पान श्वासोच्छ वास और जननेन्द्रिय एवं मत्रेन्द्रियके रस में पीसकर वटिका निर्मितकर मुख में रखने बहुशः अन्य स्नेहमय रालों की भाँति कबाबसे स्वर शुद्ध होता है। मुखपाक वा मुख के भीतर चीनी भी रक्त में प्रविष्ट होती है और शरीरगत सूजन मिटानेके लिये इसको चूसते रहना चाहिये । विविध अंगों एवं धातुओं में पहुँचकर यह न्यूनाइसके चूसते रहने से गले का भारीपन मिटता है। धिक कोपाइबावत् प्रभाव करती है अर्थात् यह अफीम के साथ इसकी वटिका बनाकर देने से श्वासमार्गीय एवं जननेन्द्रिय और मूत्रेन्द्रिय आँव के दस्त बन्द होते हैं । उक्त अवस्था में पथ्य संबंधिनी श्लैष्मिक कलाओं को उत्तेजन प्रदान रूपेण मूंग चावल और कच्चे केले की खिचड़ी करती है जिससे तजन्य स्रावोद्रेक वर्द्धित देना चाहिये । दूध के साथ इसे फँकाने से प्रचुर होजाता है तथा उनकी दुर्गन्धि आदि का निवारण मात्रा में मूत्र प्रस्रावित होने लगता है। इसे सोंठ (Aseptic) होता है । यह वृक्क की क्रिया को के साथ फाँकने से शारीर शैथिल्य निवृत्त होता भी तीव्रतर करती है और किसी सीमा तक है। इसका प्रलेप करने से सूजन और ग्रन्थि विलीन त्वचा की क्रिया को भी उत्तेजन देती है। अतएव होती है।-ख०० यह मूत्रल एवं जनन-मूत्रेन्द्रिय विशोधक पचन___ मकालात इहसानी में यह अधिक लिखा है कि निवारक (Antiseptic) है। इसके उपमुख में रखने से यह प्यास बुझाती है औरचिरकारी योग से कभी-कभी त्वचा रोगयुक्त होजाती है। कफज ज्वरों को लाभकारी है। अर्थात् उसपर लाल-लाल ददोड़े वा धब्बे पड़ __ मखजनुल अद्विया, मुहीत आजम, महज़न जाते हैं । अत्यधिक मात्रा में खाने से वृक्क अत्यंत मुफ़रिदात और बुस्तानुल मुफरिदात आदि में भी क्षुभित होता है, जिससे मूत्र में अण्डलाल इसके उपयुक गुणधर्म ही उल्लिखित पाये (Albumen) वा रक्त वा उक्त दोनों ही जाते हैं। पाए जाते हैं । कभी २ उसमें अत्यन्त छोटे-छोटे एलोपैथी के मतानुसार दाने प्रगट होने लगते हैं जो औषध छोड़ देने के क्युबेबस की फार्माकालाजी अर्थात् कबाबचीनीके प्रभाव कुछ ही दिन बाद मिट जाते हैं। .. वहिः प्रभाव उत्सर्ग-शरीर से इसका उत्सर्ग वायु प्रणालि कबाबचीनी का प्रभाव तजात राल एवं स्नेह | जन्य स्रावों (कफादि) एवं मूत्र द्वारा होता है । पर निर्भर होता है। त्वचा पर अभ्यंग करने से पेशाब में सम्भवतः यह कबाबाम्ल (Cubeइसका प्रारुण्यजनक (Rubifacient) प्रभाव bic acid ) के एक लवण के रूप में पाई होता है। जाती है, जो (H NO 3. ) द्वारा अधःक्षेपित आभ्यंतरिक प्रभाव होजाता है। शरीर से उक्त स्नेह घटित द्रव्यों के श्रामाशय तथा अन्त्र पथ-प्रामाशय तथा उत्सर्ग काल में कई बिशेष जाति के काटाणु नष्ट अन्त्र पर कबाबचीनी का प्रभाव कालीमिर्चवत् प्राय होजाते हैं। होता है । अल्प मात्रा में देने से यह उत्तेजक जठ- | क्युबेबस के थेराप्युटिक्स अर्थात् कबाबचीनी के राग्नि वर्द्धक (Stomachic) और वातानुलो रोगानुसार प्रयोग मन प्रभाव करती है । अधिक परिमाण में देने से आंतरिक प्रयोगयह पाचनदोष उत्पन्न करती है अर्थात इससे कोपाडबा के विरुद्ध कास (Bronchitis) अजीर्ण वा वदहजमी के लक्षण लक्षित होने लगते । और कण्ठक्षत (Sore-throat) में कबाब Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कबाबचीनी २१४७ कबाबचीनी है. चीनी की चक्रिका व्यवहार करते हैं। कास प्रति- (३) श्रालियो रेजिनी क्युबेबी ५ बूंद श्याय, कण्ठप्रदाह तथा कण्ठतोभ निवृत्यर्थ इसकी एक्सट्रक्टम् ब्युक्यु १ ग्रेन कोपाइबा २, धूनी देते हैं। इसका नस्य वा हुलास प्रतिश्याय तीनों को एक रित कैपशूल में डालकर ऐसा हर है। तृणज्वर ( Hay-fever ) में भी एक-एक कैप्शूल दिन में दो बार दें, सूजाक इसका उपयोग होता है। इसका सिगरेट पीने से की अंतिम कक्षा में हितकारी है। वा इसका वाष्प सूधने से श्वास वा कृच्छ्रश्वास- (४) आलियम् क्युबेबी २ बूंद कष्ट प्रायः घट जाता है । पर जननेन्द्रिय एक्सट्रक्टम् पाइसिडी लिक्विडम् १० बूंद तथा मूत्रेन्द्रिय पर उक्त औषध का मुख्य प्रभाव टिंक्च्युरा सेनीगी १५ बूंद होता है। अस्तु, इसे अकेले वा कोपाइबा-तैल के टेरीबीनी साथ अधिकतया उग्र औपसर्गिक मेह (Acute मिस्च्युरा एमिग्डली पाउंस पर्यन्त gonrrohoea ), facaret apie ( Ch- ऐसी एक-एक मात्रा औषधी जल मिश्रित कर ron.c gonorrhoea) मूत्र मार्गस्थ क्षत प्रति चार-चार वा छः-छः घंटा उपरांत व्यवहार करें। यह चिरकारी कास में गुणकारी है। (gluet ) और वस्तिप्रदाह में उपयोजित नव्यमत करते हैं। खोरी-कबाबचीनी उत्तेजक वा उष्ण एवं पत्री लेखन विषयक संकेत–कबाबचीनी मूत्रकारक है । अधिक मात्रा में सेवन करने से यह के चूर्ण को चक्रिका रूप में वा कीचट में डालकर पाकस्थली, अन्त्र, गर्भाशय एवं मूत्र तथा जनन वा कोपाइबा तैल में मिलाकर अवलेह रूप में पथ को शुभित करती ( Irritates) है। व्यवहार करते हैं । इसका तेल कैप्शूल में डाल कबाबचोनी मूत्र धर्म एवं श्लेष्मा को कीटशून्य कर वा प्रायः कोपाइबा और ब्युक्यु प्रभृति के करती ( Disinfect) है। गात्र पर प्रलिप्त साथ इमलशन के रूप में व्यवहार में लाते हैं। करने से यह उदई एवं कोठ ( Urticaria कबाबचीनी-तैल श्वेतप्रदरादि योनिस्रावों में उप and vesicular eruptions) उत्पन्न कारी है। करती है। कबाबचीनी मुख में रखकर चर्वण परीक्षित प्रयोग करने से, कष्टप्रद कास निवृत्त होता है। उत्तेजक (१) प्रालियम क्युबेबी और मूत्रल रूप से पूयमेह (Gonorrhoea) कोपाइबा मूत्रमार्गप्रदाह ( Urethritis ) वस्तिप्रदाह, प्रालियम् सेटेलाई पुराण कफरोग, तरुणसर्दी, जनन-मूत्रावयव सबंधी मिस्युरा एमिग्डली पाउंस पर्यत विकारों एवं मूत्रमार्गस्थ प्रदाह में कबाबचीनी ऐसी १-१ मात्रा औषध दिन में तीन बार दें व्यवहृत होती है। नासारन्ध्रगत चिरकारी कफऔपसर्गिक मेह वा सूजाक में उपकारी है । FTTT ( Chronic nasal catarrh ) और वागिन्द्रिय के प्रदाह ( Follicular (२) पल्विस क्युबेबी . १ श्राउंस पल्विस सैक्री pharyngitis ) में नासारन्ध्र और कण्ठ में आलियम लाइमोनिस २ बूंद कबाबचीनी का चूर्ण प्रधमित वा अवचूर्णित करने से उपकार होता है। उग्रनासा कफरोग वा नाक की एक्स्ट्रक्टम् ग्लीसिहाइजो लिक्विड २ ड्राम नूतन सर्दी में कबाबचीनी के चूर्ण का सिगरेट पीने सिरूपस भारन्शियाई आवश्यकतानुसार से लाभ होता है। स्थानीय क्षोभोत्पादक रूप से सबको मिश्रीभूत कर माजून की तरह बनाले कवाबचीनी का तेल सेवन करने से मूत्रस्राव इसमें से एक टी-स्सून-फुल (एक चमचा चाय अधिक मात्रा में होता है, और मूत्र को यह एक भर ) दिन में तीनबार दें। यह चिरकारी सूज़ाक | विलक्षण गंध प्रदान करता है। वा क्षत ( Gleet) में लाभकारी है। । (R. N. Khory, Vol.II, P. 517), Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कबाबचीनी २१४८ कबार आर. एन. चोपरा-मसाला (Condi- करती है। इसलिये गायकगण इसका बहुत व्यक ment) रूप से कबाबचीनी का प्रचुरता के हार करते हैं । कबाबचीनी के सेवन की सर्वोत्तम साथ उपयोग होता है, प्रधानतः उष्णकटिबन्ध, विधि इसे दुग्ध में मिलाकर सेवन करना है और स्थित प्रदेशों में। कहते हैं कि प्राचीन भारव्य तैल को लबाब (Mucilage) में मिलाकर । एव पारस्य चिकित्सकों ने इसका जनन-मूत्रेन्द्रिय हकीम लोग इसे वस्ति तथा वृक्तगत सिकता एवं सम्बन्धी रोगों में व्यवहार किया है। पश्चिमात्य अश्मरी निःसारक मानते हैं । शिरःशूल में इसे चिकित्सा में इसका व्यवहार मध्य युग में हुआ। गुलाब जल में पीसकर मस्तक पर लगाते हैं।इसकी क्रियाशीलता इसके फल में स्थित एक (The Indian Materia Medica, प्रकार के अस्थिर तेज पर जो इसमें अधिकाधिक P.262-3) १० से १५ प्रतिशत तक होता है, निर्भर करती कबाबचीनी और धातु-भस्में है। इसका तेल प्रिय एवं विशिष्ट गंधि ओर पारद और वङ्ग भस्म-शुद्ध वंग २ तोले, शुद्ध पारा १ तोला । प्रथम वंग को पिघलाकर हरिताभ बैंगनी रंगका होताहै और जनन-पूत्रेन्द्रिय उसमें पारा मिलायें। फिर इसे लवणाक जल से संबंधिनी व्याधियों जैसे वस्तिप्रदाह, औपसर्गिक खूब खरल करते जाय और उन जल बदलते मेह और चिरकारी पूयमेह (gleet) में यद्यपि जायँ । जब उसको स्याही दूर हो जाय और वह थोड़े पैमाने पर, व्यवहार होता है । -( Indi एक दम सफ़ेद होकर खूब चमकने लगे, तब श्रादी gevous product of India, P. के रस में घोटकर उसकी टिकिया बनालें। इसके 227) बाद कबाबचीनी ३ तो. रेवन्दचीनी ३ तोला, . नादकी-कबाबचीनी प्राध्मान नाशक चोबचीनी ३ तो०, दालचीनी ३ तो०-इनको मसाले के रूप में व्यवहृत होती है । मूत्र-जननेन्द्रिय आदी के रस में पीसकर कल्क प्रस्तुत करें। फिर विषयक व्याधियों जैसे औपसर्गिक मेह, चिरकारी उस टिकिया को इसके भीतर रखकर ऊपर से . पूयमेह (gleet) श्वेत प्रदर तथा स्त्रियों के कपड़ मिट्टी कर पाँच सेर उपलों की भाग दें। नाना प्रकार के अन्य योनिमार्गगत स्रावों में यह उक्त टिकिया भस्म हुई मिलेगी। श्लैष्मिक कला को उत्तेजन प्रदान करती है । जरा मात्रा-एक चावल बराबर उपयुक्र अनुपान के जन्य कफ रोग में श्लेष्मा निःसारक रूप से इसका साथ । व्यवहार होताहै। पोटासियम नाइट्ट और कबाब- | कबाब:-[१०] कबाबचीनी । चीनी का चूर्ण प्रत्येक ५ रत्ती-इनको मिलाकर | कबाबः खंदा-[फा०] तुम्बुरु । क्रागिरः । सेवन करें। यह औपसर्गिक मेह की उत्कृष्ट | कबाबः दहन कुशाद:-[फा०] कबाबा से कुछ बड़ा औषध है। मूत्रमार्गस्थ पुराण क्षत (gleet) एक प्रसिद्ध बीज | तुम्बुरु । तथा चिरकारी औपसर्गिक मेह में १५ रत्ती कबाब- कबाबः दहन शिगाफ्त:-[फा०] तुम्बुरु । चीनी का चूर्ण और २॥ रत्ती फिटकिरी का चूर्ण कबाबः तबा हब्बुल उरूस-[१०] कबाबचीनी । मिलाकर दिन में तीन बार सेवन करें। श्लेष्मानिः | कबाबःशिकम दरीदः-[फा०] प्रियंगु । अक्लंजः । सारक रूप से ५ रत्ती कबाबचीनी का चूर्ण ३० कवाबः शिगाफ्त:-[फा०] प्रियंगु । बूंद लबाब ( Mucilage) और प्राधी कवाबः सोनी-[१०] कबाबचीनी । छटाँक दारचीनो के अर्क (Cinnamon कबाबीन-[ मुअ० ] कबावचीनी का सत । (Cubewatr) में मिलाकर, दिन में तीन बार सेवन | bin.) करने से कास (Bronchitis) तथा स्वर | कबामत रानः-[?] अनार की वह कलो जिसमें गाँठ यंत्रप्रदाह (Laryngitis) में उपकार होता न पड़ी हो। है । कबाबचीनी स्वर रजुओं में तनाव उत्पन्न कबार-संज्ञा पु० [ देश० ] एक छोटा पेड़ वा करती है और कंडको पिच्छिल श्लेष्मा से शुद्ध माड़ी। Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुबार ► [ [अ०] फ्रा०, क़बार - [ यू० ] कबर | कबरा | क़बारदम्बदोस - यू० ] कुन्नावरी । बारस - [ यू० ] कबर । कबरा । कबारसीन - रू० ] सरो । सिरि] कबर । कबरा । २१४६ कबास - [ श्र० ] पीलू का फल जो पककर काला पड़ गया हो । कबिता - संज्ञा स्त्री० [सं०] अंबाड़ी | कवित्थ-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] कैथ का पेड़ | श्र० टी० । दे० "कपित्थ" । कत्थक-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] कपित्थ । कबित्थ कैथ बीता हूरिया - [ सिरि० ] फ़ाशरा | शिवलिंगी | कबीर - [ ० ] सुगीर का उलटा ] बड़ा । महत । बृहत् | Great, Large, Magnus. - [?] गौरा की जाति का एक पक्षी । क्रुबुरः । चकावक । क़बारीस - [ यू०] कबर । कबरा । कबारूस - [ फ्रा० ] हर्शफ का एक भेद । कबालक़श - [ ? ] जबर्द । कबीरुलू अश्जार- [ श्रु० ] बरगद | वट | कबाश -[ ? | एक प्रकार का लौंग, जिसका शिर कबीरू - [ ख़ुरा०] शीरख़िश्त का वृक्ष | हो बड़ा 1 कुबूद ] जिगर । कविद–[ श्रु० ] [ बहु० अक्बाद, कलेजा । यकृत । - कबिल - वि० [सं० त्रि० ] कपिल । भूरा । तामड़ा । संज्ञा पुं० [सं० पु० ] तामड़ा वा भूरा रंग कपिल वर्ण । कबिस्ते तल्ख - [ फ्रा० ] इन्द्रायन | कबीच : - [ फ्रा० ] सिरेशम । कबीक - [ फ्रा० ] Ranunculus sccleratus, Linn.) जंगली करस का भेद । जलधनियाँ | देवकाँडर । जलवेत दे० "देवकाँडर" | कबीठ - संज्ञा पुं० [सं० कपित्थ, प्रा० कविट्ठ ] (1) कैथ का पेड़ । ( २ ) कैथ का फल | कबीत - [ [०, फ्रा० ] कैथ । " कबी, कपि - [ ० ] ( १ ) लंगूर । ( २ ) एक कीड़ा । (क़ ) क़बीत: - [ श्रु० मिठाई । ] बर्फ़ी नाम की प्रसिद्ध कबीतः, कबीता - [ फ्रा० ] वर्फी नामक पकवान । कलाकंद | नातिफ़ । कबीता दसराबाहु. मरा कबीता कमना, कबीता अकमीन, कबीता अलमना - [ ० ] फ्राशिरस्तीन । } कबूतर [ सिरि० ] अंगूर की बेल । ( Fraxinus Rotundifolia, ) कबीला - संज्ञा पु ं० दे० 'कमीला' । कबीश - कंबर | बीस - [ ० ] मूली । क़बीह-[अ० ] [ बहु० क़वाइह, क्रवाह ] ( १ ) बाजू की हड्डी का वह सिरा जो केहुनी से मिलता है । ( २ ) पिंडली ओर रान की हड्डी का जोड़ । (३) बुरा | भोंड़ा । कुरूप | कबुदु - [फ़ा॰ ] एक प्रकार की ईख । बुक - [ राजपु० ] पीयूष । पेडस । कबुलि -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] जंतु के देह का पश्चात् भाग जानवर के शरीर का पिछला हिस्सा | कबूक - संज्ञा पुं० ( १ ) चकवा पक्षी । (२) चकोर पक्षी | कबूतर - संज्ञा पुं० [फ़ा॰ मिलाश्रो, सं० कपोतः ] [स्त्री० कबूतरी ] कबूतर - एक पक्षी जो कई रंगों का होता है। और जिसके श्राकार भी कुछ भिन्न भिन्न होते हैं। पैरों में तीन उँगलियाँ श्रागे और एक पीछे होती है । यह कीटभक्षी जीव नहीं है । यह अपने स्थान को अच्छी तरह पहचानता है श्रोर कभी भूलता नहीं । यह झुण्ड में चलता है। मादा दो अंडे देती है । केवल हर्ष के समय गुटरगूं का अस्पष्ट स्वर निकालता है । पीड़ा के तथा और दूसरे अवसरों पर यह नहीं बोलता । इसे मार भी डालें तो यह मुंह नहीं खोलता । पालतू श्रोर जंगली भेद से कबूतर दो प्रकार का होता है। पालतू के पुनः निम्न उपभेद होते हैं— (१) गोला, (२) बुग़दादी - काबुली, (३) नसावरा, (४) लोटन, (५) लक्का | Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कबूतर (६) याहू, (७) गिरहबाज़, (८) शीराजी इत्यादि, इसकी बहुत सी जातियाँ होती हैं । शिखा वाले कबूतर भी होते हैं । इनमें भी गोला दो प्रकार के होते हैं । काबुली - रंग के भेद से पाँच प्रकार का होता है । खगतत्ववेत्तानों ने श्राजतक प्रायः तीन सौ से भी अधिक कपोत श्रेणियों का आविष्कार किया है। २१५० पृथ्वी पर कपोत प्रायः सर्वत्र देख पड़ता है । पर अष्ट्रेलिया और भारतीय महासागर के उपकूलवर्त्ती प्रदेशों में यह अधिक देखने में श्राता है अमेरिका में यथेष्ट कबूतर होनेपर भी वहाँ इनके विभिन्न प्रकार देखने में नहीं श्राते । भारतवर्ष एवं मलयद्वीप में जिस प्रकार इसकी संख्या अधिक है, उसी प्रकार विभिन्न प्रकार की श्रेणी भी देखी जाती है । युरोप और उत्तर एशिया में इसकी संख्या सर्वापेक्षा श्रल्प है । T " पहले भारतवर्ष में कबूतर के असंख्य भेद रहे । परन्तु श्राजकल की श्रेणियों को देखकर प्राचीन नामों के निर्णय का कोई उपाय नहीं । प्राचीन कवियों के काव्यों में इस बात का उल्लेख पाया जाता है कि उस समय भी भारतवर्ष में कबूतर पाले जाते थे। कबूतर बहुत कोमल प्रकृति का प्राणी है । प्रायः सभी देशों के लोग इसे पवित्र पक्षी मानते हैं । भारतवासी इसे लक्ष्मी का वरपुत्र मानते हैं । बहुतों का यह विश्वास है कि इसे पालने से गृहस्थों के मंगल की वृद्धि होती है, दरिदता का नाश होता है, और लक्ष्मी का दर्शन होता है । मनुष्य के शरीर में इसके पर की वायु लगने से सभी रोग नष्ट होते हैं । इसी से कितने । लोग कबूतर पालते हैं । पक्षियों के द्वारा संवाद भेजने की प्रथा भी यहाँ प्राचीन काल में थी । अस्तु, रामायण महाभारतादि में इसका उल्लेख मिलता है । मुसलमानों के धर्मग्रन्थ में कपोत को "स्वर्गदूत" कहा गया है । पहले अँगरेज भी इसे पवित्र पक्षी ( Holy bird ) समझ श्रादर करते थे। पर्या० - कपोतः, कलरवः पारावतः ( श्र०) पारापतः, छेद्यः, रक्तलोचनः (रा० ), रक्तदृक् ( के० ) पारावतः, रक्लनेत्रः, नीलांगः, कपोतकः, गृहस्वामी, बरारोहः, घुघुराग ( ध० नि० ), पारावतः, कल कबूतर रवः, श्ररुणलोचनः, मदनः, काकुरवः, कामी, रक्रेक्षणः, मदनमोहनः, वाग्विलासी, कंठीरवः, गृहकपो तकः, ( रा० नि० ), पारावतः, कलरवः, कपोतः, रक्तवर्धनः ( भा० ) झिल्लकण्ठः, पारवतः घरत्रियः, छेद्यकंठः, कलध्वनिः, गृहकपोतः, गृहकुक्कुटः - सं० । कबूतर, परेवा, पायरा - हिं० । पायरा, कइतरबं० । हमाम, सलसलः ( ० ) । कालूज, फ़ा० । कोलम्बा डोमेष्टिका Columba Domestica - ले० । पीजन Pigeon-श्रं० । परेवामरा० । पारुत्रापि ते० । लेटिन भाषा में कपोत जाति को कोलम्बिडी Columbidoe कहते हैं । जंगली कबूतर -- वन कपोत, चित्रकंठ, कोकदहन, धूसर, भीषण, धूम्रलोचन, श्रग्निसहाय, गृहनाशन - सं० । धर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसार परावतो गुरुः स्वादुः कषायो रक्तपित्तहा । स्वादुः कषायश्च लघुः कपोतः कफपित्तहा || ( घ० नि० ) परेवा पारावत ) - भारी; मधुर, कसेला और रक्तपित्तनाशक है। कबूतर ( कपोत ) - कसेला, स्वादु, हलका और कफपित्तनाशक है । वर्धनं वीर्य बलयोस्तद्वदेव कपोतजम् । पारावतपलं स्निग्धं मधुरं गुरु शीतलम् । पित्तास्र दानुद्वल्यं तथाऽन्यद्वीर्यवृद्धिदम् ॥ ( रा० नि० ) कबूतर ( कपोत) का मांस-बल वीर्यवद्ध क I है । परेवा का मांस - स्निग्ध, मधुर, भारी, शीतल रक्तपित्त और दाहनाशक एवं वल्य तथा वीर्य बद्धक है । पारावतो गुरुः स्निग्धो रक्तपित्तानिलापहः । संग्राही शीतलस्तज्ज्ञैः कथितो वीर्यवर्द्धनः।। ( भा० पू० ३ भ० ) कबूतर - भारी, स्निग्ध, रक्तपित्तनाशक, वातनाशक, संग्राही, शीतल और वीर्यवर्द्धक है । रसे पाके च स्वादु कषायं विषदच । ( राज० ) Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ — कबूतर कबूतर कपोतो वृंहणो बल्यो वातपित्त विनाशनः । । दर्पघ्न-सिरका और धनिया तथा अन्य तर्पण: शुक्रजननो हितो नृणां गुणप्रदः ॥ शीतल पदार्थ। तथा पारावतो ज्ञयो वातश्लेष्म करो गुरुः । गुण, कर्म, प्रयोग-इसका मांस फ़ालिज(अत्रि० २१ श्र०) लकवा, कंप, सुन्नता, जलोदर और अंग-शैथिल्य में लाभकारी है। यह शरीर को परिवहित करता कपोतमांसं पाण्डौ वय और शुद्ध शोणित एवं वीर्य उत्पन्न करता है तथा (च० द. पांडु चि. योगराज ) वृक्क को शकिप्रद और वाजीकरण है। शीतल कबूतर-रस और पाक में मधुर, कसेला और प्रकृति वालों के लिये इसका मांस रस गुणकारी विशद है । कबूतर वृहण, वल्य, वातपित्तनाशक है। इसको भूनकर सूखा खाना वर्जित है। इसका तर्पण शुक्रजनक और मनुष्यों के लिये हितकारी ताजा संगदाना झिल्ली आदि से साफ करके खाने है। पारावत ( परेवा) वातकफकारक और भारी से सर्प-विष में उपकार होता है। इसका रक्त मस्तक है। पांडु रोग में कबूतर का मांस वर्जित है। पर लगाने से नकसीर आराम होता है। इसका पारावत गरमा गरम खून नेत्र में लगाने से नेत्रक्षत, अर्म, विपाके मधुरं गुरुच । सु० सू० ४६ अ०। रात्र्यंध्य आदि नेत्र रोग पाराम होते हैं। कबूतर कपोत मांस पाक में मीठा और भारी है। सुश्रुत के अंडे बहुत उष्ण एवं रूक्ष है । कच्चे अंडे पीने के अनुसार कपोतविष्ठा व्रणदारण है। से वक्ष की कर्कशता दूर होती है। कपोलों का महर्षि चरक के मत से कपोत का मांस कसेला, रंग निखरता है। बालकों को इसे शहद में मिलामधुर, शीतल और रक्तपित्त नाशक है। हारीत इसे कर खिलाने से वे शीघ्र बोलने लगते हैं । कबूतरों वृंहण, बलकर; वातपित्तनाशक, तृप्तिकर, शुक्र- के रहने की जगह यदि शीतला का रोगी निवास वर्धक रुचिकर और मानव को हितकर बताते हैं । करे, तो उसके प्रभाव से वह श्रारोग्य लाभ करे। सुश्रुत और वाग्भट के मत से काले कबूतर का कबूतरों को गृह में रखना सुखशांति का कारण मांस भारी, लवणयुक्त, स्वादु और सर्वदोषकारक बनता है। इससे प्लेगादि मरक-रोग-भय एवं होता है। दूषित वायु का निवारण होता है । बिच्छू के दंश वैद्यक में कबूतर के व्यवहार स्थल पर कबूतर की गरमा गरम बीट बाँधने से यक्ष्मा नाशार्थ कपोत मांस-कबूतर का मांस बिष की शांति होती है। पौने दो माशे जंगली सूरज की किरणों से सुखाकर, हर दिन खाने से | कबूतर की बीट पीसकर रात्रि को पानी में तर अथवा उसमें घो और शहद मिलाकर चाटने से करके पदि स्त्री प्रातःकाल वह पानी पी लेवे, तो अत्यंत बढ़ा हुआ राजयक्ष्मा भी नाश हो जाता एकही दिनमें या अधिकसे अधिक तीन दिनमेंबंध्या है। यथा हो जायगी। इसी प्रकार माशा भर बीट चीनी के सशोषितं सूर्य कहि मासं पारावतं यः साथ खाने से भी तीन दिन में बंध्यत्व प्राप्त होता प्रतिघस्रमत्ति । सपिमधुभ्यां विलिहन्नरो-- है। इब्तज़हर के कथनानुसार कबूतर की बीट श्राटे में मिलाकर खिलाने से प्राणी यमलोक को वा निहन्ति . यक्ष्माणमति प्रगल्भम् ।। सिधारता है। इसकी बोट जौ के आटे और क़तरान युनानी मतानुसार के साथ मलहम की भाँति बनाकर तीसो के वस्त्रप्रकृति-पालतू की अपेक्षा जंगली कबूतर खंड पर लेप करके श्वित्र पर चिपका देवें ओर अधिक उष्ण द्वितीय कक्षांत में और प्रथम कक्षा तीसरे दिन उसे हटा देवें। इसी तरह कई बार में रूक्ष है । कपोत विष्ठा वा बीट तृतीय कक्षा करने से श्राराम होता है। १०॥ माशे कपोतविष्ठा पर्यंत उष्ण और रूक्ष है। ७ माशे दालचीनी के साथ भक्षण करने से पथरी हानिकर्ता-इसका मांस उष्ण प्रकृति को | टूट जाती है। यदि उसकी पिंडली (सान ) घी हानिप्रद है। - हड्डी जलाकर स्त्री अपनो योनि में धारण करे, तो Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कककर पुनः अक्षत योनि हो । यह एक रहस्य है । जंगली पर सुखाकर, शहद और घी में मिलाकर चाटने से कबूतर की हड्डी जलाकर दो चना प्रमाण पान के अत्यन्त उग्र यच्मा भी नाश हो जाता है। पत्ते में रखकर खाने से श्वास रोग आराम होता | कबूतर का झाड़-द०] पालक जूही। है। सदैव कपोतमांस भक्षण करने से श्वित्र रोग कबूतर का फूल-संज्ञा पुं॰ [देश॰] एक फूल । उत्पन्न हो जाता है। इसी प्रकार गरम मसाले कबूतर की जड़-संज्ञा स्त्री० एक जड़ी। के साथ इसका कबाब अधिक दिन तक खाने से कबूतरझाड़-संज्ञा पु० [हिं० कबूतरxझाड़ ] पित्तरक्त प्रकोप एवं कुष्ठ हो जाता है। इससे शीघ्र पापड़े की तरह की एक झाड़ी जो दक्षिण पश्चिम सड़नेवाला विकृत शोणित उत्पन्न होता है, विशे भारत और सिंहल प्रभृति स्थानों में उत्पना षतः पालतू के मांस का ऐसा ही प्रभाव होता है। होती है। शीतल प्रकृतिवालों को बहुत गुणकारी है । कबूतर कबूतरी-संज्ञा स्त्री० [फा० कबूतर ] कबूतरको मादा। का वह बच्चा जो उड़ने के योग्य हो, उसका मांस कपोतिका । शीघ्रपाकी होता है; क्यों कि उसके उड़ने से कबूद-वि० [फा०] [वि. कबूदी] नीला । आसमानी । फालतू द्रव (रतूबत फुज़लिया) नष्ट हो जाते हैं। कासनी । कबूदी। ऐसे बच्चे से बना दोष उस बच्चे के गोश्त की संज्ञा पुं०(१) बंसलोचन का एक भेद जिसे अपेक्षा श्रेष्ठ होता है जिसके पूरे पर और बाल 'नीलकंठी' भी कहते हैं। नीला बंसलोचन । आदि न हो। क्योंकि उसमें अनात्मीकृत वा (२) एक प्रकार का पक्षी । शनीन । बगुला । अप्राकृतिक द्रवांश (रतूबत फुजिलया ) अत्यधिक होता है । कबूतर के बच्चे का पेट चीरकर सर्प और (३) Weeping-willaw वेतस भेद । इं०हैं. गा०। वृश्चिक दंशस्थल पर बाँध देने से बहुत उपकार होता है। बच्चे का मांस खाने से कंठक्षत (खुनाक) | कबूद:-[फा०] बेद का एक भेद । स्याह बेद वा बेद मिश्क । हो जाता है। किंतु शीतल तरकारी या सिरका कबूदर-[फा०] बूतीमार वा एक प्रकार का कीड़ा प्रभृति डालकर रसादार बनाकर खायें । वह बच्चा जो पानी में मछली खाता है। जिसे अच्छी तरह पर निकल कर उड़ने लगा हो, अपेक्षाकृत उत्तम होता है। इससे गाढ़ा और क(कु)बूदान-[१०] कलौंजी । शोनीज़ । पिच्छिल (मतीन) रक्त और रतूबत उत्पन्न होती कबूदान:-[ फा०] विजया बीज । भाँग का बीया । है। शैत्यप्रधान प्रकृतिवाले को या ऐसे रोगी को शहदानज। जो शीतल रोगों के कारण क्षीण हो गया हो कबूब-[१०] भपा कबूब-[अ०] भपारे की दवा। वह ओषधि जिससे तथा उसके शरीर में रक्ताल्पता हो, इसका सेवन भपारा ली जाए। गुणकारी है। परन्तु इससे मलोत्पत्ति अधिक कबूबुल अर्स-[१०] अभ्रक । अबरख । होती है तथा यह शीघ्र सड़ जाता है। कबूतर के बूर-अ.] जल्दी फलनेवाले छोहाड़े का पेड़। बच्चे को तिलतैल में बिना नमक और पानी के कबूस-[१०] बारीक पिसी हुई सूखी दवा जो जनम पकाकर खाने से शीघ्र वृक्क एवं वस्तिस्थ अश्मरी पर छिड़की जाए। धूड़ा। टूट कर निःसृत हो जाती है। कबूली-संज्ञा स्त्री० [फा० ] चने की दाल की वैद्यों के अनुसार कपोत मांस शीतल. गरु खिचड़ी। स्निग्ध, रक्तपित्त नाशक और वाजीकरण है तथा कबूह-[?] यतू का एक भेद । दे० "यतू"। ज्यातिवर्द्धक, वायु एवं कफनाशक है। इसके सेवन कबेंग-[ बर०] शिङ्गर । से मज्जा की वृद्धि होती है। (ख० अ०) कबअदिया, कबअदियून-[ सिरि० ] शाहतरा । - कबूतर की बीट शालि चावलों के साथ पीने से पित्तपापड़ा। गर्भस्राव या गर्भपात के उपद्रव दूर हो जाते हैं। कबक-[फा०] चकोर। । परेवा पक्षी के मांस को धूपमें नियत समय कककर-फ्रा.] तीतर । Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कब्कंजीर-[फा०] तीतर का नाम । कब्बूक-[फा०] चकावक । ककदरी-[फा०] धूमिल रंग का एक विशेष पती। कब-संज्ञा पुं॰ [अ०] दे॰ "कबर"। जो मोर पक्षी से बड़ा होता है और उस पर छोटी- कन:-[ तु० ] कब्र । करील | छोटी सफेद रखाएँ होती हैं। यह प्राकार में चकोर | कब्रगी-[ देश० कर्ना० ] मरोडफली । तीतर के बराबर होता है। किसी-किसी के मत से | कब्रबा-[फा० कब+बा-पाश ] करील के फल द्वारा यह तहरद-लवा का नाम है। निर्मित पाश । धन काथ। कवरवा । कबरवा । कब्कून फ्रा०] तीतर । दुर्राज । कबवा। कञ्चीयंत्र-संज्ञा पुं० [सं० कवचीयन्त्रम् ] औषध | कब्रा-संज्ञा पुं॰ [ देश० पं०] करीर । कबरा । पाक-यंत्र विशेष । दे० "कवचीयन्त्र"। कब्राजुवी (-ई)-[ते. ] जियापोता । पुत्रजीवक । कब्ज-[फा. 'कडक' का मुत्र०] चकोर । कब्राबेर-संज्ञा पुं॰ [देश॰] कबरा । कौर । कब्ज़-संज्ञा पुं० [अ० का ज़ः] (१) ग्रहण । (Cadaba Murayana, Grahan) पकड़ । अवरोध । सिमटाव । (२) दस्त का | ई० मे० नां। साफ न होना । पेट का गुंग होना । मलावरोध । कब्रियः-१०] प्राण । टेंटी। (३)कसेला स्वाद कषाय । कब्ज़ा -संज्ञा पुं० [अ० कब्ज़ः] (१) इतना कबी-१ अंजदान के पत्ते । जितना कि एक मुट्ठी में पा जाय । मुट्ठी भर | कबीत-[अ० ] टेंटो निर्मित पाश । ( Handful, Pugil.)। (२) दंड। कब्ल-[तु.] बाल । रोग । भुजदंड । डाँड । बाजू । मुश्क । बकरा। कब्जियत-संज्ञा स्त्री० [अ०] पायखाने का साफ़ न | कब्श-[१०] मेंढा। माना । मलावरोध । कन्स-[१०] दबाना । हँसना । भरना । पाटना । कब्द. कब्दा-[फा०] भवरेशम । कन्सः-[अ० उतना जितना दो उँगलियों के सिरे कब्दः-अ.] खजंतुल्हब्ब। ____ में समाए । चुटकी भर। कन्न:-[३०] सूखी रोटी। कब्सून-[यू.] एक अप्रसिद्ध औषधि जो अफरीका कमात-[१] दरिया की सीपी। __ में पैदा होती है। कब्ब-[अ० इसका उल्टा बरह ] धात्वर्थ उलट देना। कम्-[सं० अध्यय] (१) मस्तक । श. चि.। औंधा या पट करना । यूनानी वैद्यक में हाथ को (२) जल । पानी । (३)मुख । पट या नौंधा करना अर्थात् हथेली को ज़मीन की | कमंगर-संज्ञा पुं० [फा० कमानगर ] हड़ियों को तरफ करना । ( Pronation ) बैठानेवाला। कब्ब-[१०] चूतड़ की हड्डी। दोनों चूतरों के बीच कमंजी-[ ता०] खाजा । की उभरी हुई ड्डी। Sacrum | | कमंडल-संज्ञा पु. दे. कमंडलु"। कब्ब:-[अ.] तीव्रता । सख़्ती । जाड़े की तीव्रता। कम-[फा०] कताद का पेड़ । गुलू । कम्बगुम्मुडु-[ते. ] निलक कुमिज । क्रमअ-[?] अंगूर प्रभृति की टोपी जो उभार की कब्बर-[पं०] दूब । ____तरह की होती है। [सिं०] झाल । खरकनेला । कमक-[?] एक चिड़िया | बहरी। कब्बिण-[ कना०] लोहा। क्रमकरीश-अ.] छोटे सनोबर के बीज । कब्बिणद-किलुबु (किट्ट)-[ कना० ] मंडूर । लौह- क्रमकाम-[१०] जमजूं। किट। कमकाम-[अ०, क्रन्ती, फ्रा०] ज़रू (लोवान) कब्बु-कना० ] ईख । ऊख । गना । वृक्ष की गोंद वाहिलका वा ज़रू का पेड़। कब्बुमिश्क-[३०] लता कस्तूरी । मुरकदाना। कमकी-संज्ञा स्त्री० [?] अज्ञात । ५.फा. Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमखोरा कमरख बेना। कमखोरा-संज्ञा पुं॰ [फा० कमखोर ] चौपायों के कमन्ध-संज्ञा पु० [सं० की० ] जल । अ० टी०। । मुंह का एक रोग, जिसमें वे खाना नहीं खा कमपिल्ला-संज्ञा पुं० [ बम्ब०, सं० कम्पिल्ल का अप. सकते। भ्रश] कमीला। कमची-संज्ञा स्त्री० [ तु०। सं० कंचिका] लकड़ी श्रादि | कमप्यु-[ ता०] जंगली मदनमस्त का फूल । अरण्यकी पतली फट्टी । कमचा । कमटी । ___ मदनमस्त पुष्प । कमया-[?] चबेली। कमची-कस्सुव-[ ते० ] रूसा घास । भूस्तृण । गन्ध कमरंग-संज्ञा पु० दे० "कमरख” । कमज:-[जंद ] टिड्डी। कमर-संज्ञा स्त्री० [फा० ] शरीर के बीच का घेरा जो कमजायन-संज्ञा पुं० [ देश० ] एक प्रकार का पेट और पीठ के नीचे पड़ता है। कटि ।। ज़हर। क़मर-रासा.] चॉदी। रजत । (२)अादी । कमटा-संज्ञा पुं० [देश॰] एक छोटा काँटेदार | कमरः-[१०] [ बहु० कमर, कमरात ] शिश्नमुड। सपारी । हशना । Glans Penis. पौधा। कमरक-संज्ञा पु० दे० 'कमरख"। कमठ-संज्ञा पुं॰ [सं० पु. की० ] [स्त्री० कमठी] | कमरकस-संज्ञा पुं॰ [हिं० कमर+ता. कश] (१) (१) कछुआ। कच्छप । (२) साधुओं का एक प्रकार की गोंद जो. पलास के पेड़ से प्रापसे तुबा । मे० उत्रिक । (३) साही । सेह । खार श्राप निकलती है और पाछकर भी निकाली जाती पुम्त । शल्लकी । धरणिः । (४) बाँस । वंश । है। इसके लाल लाल चमकीले टुकड़े बाजारों में श०र०। कमठी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (..) कछुई । बिकते हैं जो स्वाद में कसैले होते हैं। यह गोंद पुष्टई की दवाओं में पड़ती है और मछुए जालों कच्छपी । अम० (२)शल्लकी। साही। वार में इसका माझा भी देते हैं। पलास की गोंद। पुश्त । ढाक की गोंद। चुनिया गोंद वि० दे० "पलास" ' कमण्डलु-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (१) पाकर वा (२) कत्थई वा भूरे रंग को एक जड़ जो पुष्टई पक्कड़ का पेड़ । प० मु० । (२) सन्यासियों का की दवाओं में पड़ती है। (३) दारुहल्दी । जलपात्र, जो धातु, मिट्टी, तुमड़ी, दरियाई नारि (४) आर्य औषध ग्रन्थ के मतानुसार एक वृक्ष यल आदि का होता है। करक । कुण्डीय । मे० का गोंद जिसे आसना वा बोबला कहते हैं।[फा. लचतुष्क । (३) एक प्रकार का पीपल । पारिस • का०] विजयसार। पीपल । गजहुण्डसहोरा । भा० पू० १ भ० वटा __ संज्ञा पुं० [ देश० बम्ब० ] एक बीज (Se. eds of Salvia plebeia,( R. Br.) कमण्डलुतरु-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] लक्ष वृक्ष । कम्मर कस-बम्ब० । भुईतुलसी (बं०) इं० मे प्लां० पाकर का पेड़। कमरख-संज्ञा पुं॰ [सं० कर्मरंग पा० कम्मरंग] कमण्डलूफल-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] पपीता । अरंड मध्यम आकार का एक पेड़ जो हिंदुस्तान के प्रायः खरबूजा । पपीतक वृक्ष । सभी प्रान्तों में मिलता है । इसका वृक्ष १५-२० कमन-वि० [सं० त्रि०] (१) कामुक । कामी। फुट उँचा होता है। इसकी पत्तियाँ अंगुल-डेढ़ (२) सुन्दर । कमनीय । खूबसूरत। अंगुल चौड़ी, दो अंगुल लम्बी और कुछ नुकुली संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (1) अशोक का होती हैं तथा सीकों में लगती हैं । यह जेठ अषाढ़ पेड़ । मे० नत्रिक । (२) मदन । कामदेव । अर्थात् वर्षारम्भ में फूलता है । फूल छोटे सफेद कमनच्छद-संज्ञा पुं॰ [सं० पु](१) कंक पक्षी । और बैंगनी रंग के होते हैं । फूल झड़ जाने पर काँक । सफ़ेद चील | बगला । हे० च० । (२) लंबे-लंबे पाँच फाँकोवाले फल लगते हैं जो पूस, क्रौञ्च पक्षी । करांकुल नामक पती। माघ में पकते हैं । किसी किसी फल में छः फाँके कमनार-[जंद ] मछली। भी देखने में आई हैं। इसकी फाँके. न्यूनकोणीय व. । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमरख होती हैं। प्रत्येक कोण की चौड़ाई भिन्न-भिन्न 1⁄2 इंच से लेकर एक इंच तक होती है । कच्चा फल बिल्कुल हरा होता है, परन्तु पकने पर यह खूब पीला हो जाता है । इसका पका हुआ फल अढ़ाई इंच से साढ़े तीन इंच लंबा कुछ पिलाई लिये हरे रंग का होता है । यह अत्यन्त रसपूर्ण एवं अम्ल होता है और इसमें एसिड श्राक्जेलेट श्राफ पोटास वर्तमान पाया जाता है। कच्चे फल खट्टे और पक्के खटमिट्ठ े होते हैं । खट्टा और मीठा भेद से कमरख दो प्रकारका होता है | बंगाल में खट्टा खोर खटमिट्ठा इसके ये दो भेद होते हैं। ख़ज़ाइनुल् श्रदविया के रचयिता लिखते हैं- " मामू साहबने मालवे में ऐसी कमरखें भी खाई हैं, जिनमें बिल्कुल तुर्शी न थी ।” नुस्खा सईदी में लिखा है कि अँगरेज श्रागरे में किसी देश से ऐसे कमरख के पेड़ लाये हैं, जिसमें जरा भी तुर्शी - अम्लत्व नहीं । मेरे एक मित्र कहते हैं कि मैंने मीठा कमरख खाया है। ख़० श्र० | "बिलिंबी" नामक कमरख भी इसी का एक श्रन्यतम भेद है, जिसे लेटिन भाषा में Averr hoa Bilimbi, Linn. कहते हैं । इसका • वर्णन यथा स्थान होगा । उर्दू भाषा के ग्रन्थों में कमरख शब्द का प्रयोग स्त्रो लिंग में हुआ है । पाश्चात्य मतानुसार यह प्रथम भारतीय महा सागर के मलक्का द्वीप में उत्पन्न होता था । वहाँ से यह सिंहल गया और सिंहल से भारतवर्ष में पहुँचा । परन्तु यह बात ठीक नहीं, क्योंकि बहुत प्राचीन काल से ही कर्मरंग भारतवर्ष में उपजता है । जिसका प्रमाण रामायण में मिलता है । इसके सिवा श्रायुर्वेदीय ग्रंथों में भी इसका उल्लेख मिलता है । श्राजकल भारतवर्ष में प्रायः सर्वत्र यह होता है । पर्या०-(वृक्ष) कर्मार, कर्मरक, पीतफल कमर, मुद्गरक, मुद्गरफल, धाराफलक, कर्नारक ( रा० नि० ), कर्म्मरंग ( भा० ), शिराल, वृहदम्ल, (वृहद्दल) रुजाकर (श०) कम्मर, कम्मर, पीतफज, कर्म्मर, मुद्गर, धाराफल, कम्मरक धाराफलः, शुक्रप्रियः, कारुकः-सं० । कमरख का पेड़ - हिं० । कामराङ्गा गाछ - बं० । कर्म्मराचे कम्मरें मरा० । अबिरोत्रा करम्बोला झाड, २१५५ ? कमरख Averrhoa Carambola, Linn. -ले० । कमारक -गु० । तमारटम-मरम् - ता० । तमारटा कया - ते० । चाइनीज़ गूज़बेरी ( Chinest Gooseberry - श्रं० । कमरकखाटां मीठांवेछे - गु० । (फल) पर्य्या० कर्म्मफल, कर्म्मरङ्गफल, कर्म्मरङ्ग, कम्मर - सं० कमरख, कमरक, कमरंग, -हिं० । ख़मरक, कर्मल (मोठा) कामरंग- द० | कमरक, कमरंग, कर्मरंग, कमरंगा - बं० | Frint of Averrhoa Ca rambola, Adans, Linn. ले० । चाइनीज गूज़बेरी Chinese Gooseberry -श्रं० | तमर्त्तम्- काय, तमरत - ता० । तमर्त काय, तम्म काय, तामरतमु, करोमोंगा - ते ० । तमरत्तूक, तमरतुका, तमरत्त मल० । कमरक, डरेहुली - कना० । तमरक - गु० । कमरख, तमरक ० गु० । जौन्सी, जौन्-या-सो, जुगया । - बर० । कर्मर, खमरक, कर्मार - बम्ब० । तमरत करमर - मरा० । करम्बल - कों०, कर्डे, करदयी श्रासा० । करम्बोल - पोतु गाज़ चाङ्गेरी वर्ग ( NO. Geraniaceae.) उत्पत्ति स्थान - खट्टे फलों के लिए, भारतवर्ष के समग्र उष्ण-प्रधान प्रदेशों में इसकी काश्त होती है । इसके मूल उत्पत्ति-स्थान का पता नहीं । किसी-किसी का अनुमान है कि मलक्का वा नई दुनियाँ से पुर्तगाल निवासी इसे यहाँ ले थाये, जो इसे 'करबोला' र 'बिलिबिनास' संज्ञा से अभि हित करते हैं। आयुर्वेदीय निघण्टु-ग्रन्थों में भी इसका उल्लेख पाया जाता है । रासायनिक संघटन — फल में एक प्रकार का जलीय गूदा होता है, जिसमें अधिक परिमाण में एसिड पोटासियम श्राक् जैलेट पाया जाता है । बीजों में 'हर्मेलाइन' नामक उपचार रहता है । यह जल में विलेय पर ईथर श्रोर सुरासार में विलेय होता है । औषधार्थ व्यवहार — वैद्यलोग इसके फल जड़, फूल और पत्तियों को श्रोषध के काम में लाते हैं । Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमरख औषध-निर्माण-पका फल, बड़ा एक ओर छोटा दो, दिन में २-३ बार । फल का स्वरस-दो से ४ ड्राम । फलस्वरस द्वारा प्रस्तुत प्रपानक-शर्बत फल का अचार वा चटनी । फूल का गुलकंद । (Conserve) यूरोपीय ओषधियाँ जिनके प्रतिनिधि स्वरूप व्यवहत हो सकता है-हैजेलीन Hazeline मायाफलाम्ल (Gallic acid), और स्फुराम्ल (Phosphoric acid )। प्राप्ति-वर्षाऋतु में इसके फल बाजारों में बिकते हैं। गुणधर्म तथा प्रयोगआयुर्वेदीय मतानुसार कारकोऽम्ल उष्णश्व वातहत्पित्तकारकः । पक्कस्तु मधुराम्लः स्याद्वल पुष्टि रुचिप्रदः । (रा०नि०११०) कर्मारक-कमरख स्वाद में खट्टा, उप्णवीर्य वातनाशक और पित्तकारक है । पका कमरख खटमिट्ठा तथा वलकारक, पुष्टिकारक और रुचिकारक खट्टे में मीठे की अपेक्षा शीतलता एवं रूक्षता अधिक होती है। हानिकर्ता-इसके भक्षण करने से जिह्वा फटजाती है । शीतल प्रकृति वालों को यह हानि पहुँचाता है। दर्पघ्न-किंचित् लवण और चूना उस पर मलकर खाना और कंद । शीतल प्रकृति वालों के लिये गरम जवांरिशें इसको दर्पघ्न हैं। प्रतिनिधि-रैबास (बु० मु०)। मात्रा-अावश्यकतानुसार। गणदोष यह धारक-काबिज है और प्यास की उग्रता को बुझाता है। यह पित्त की तीव्रता का दमन करता, पित्तज छर्दि एवं अतिसार को बंद करता ओर मुख का स्वाद सुधारता है (म० मु. बु० मु०, ना० मु०)। यह तारल्यकारक-मुलसिफ एवं मनोहासकारक है ओर प्रामाशय, उदरावयवों तथा उष्ण यकृत को शक्ति प्रदान करता है। यह सुधा उत्पन्न करता, विवमिषा का निवारण करता, रक को तीक्ष्णता को शमन करता, शोणित एवं पित्त को स्वच्छ करता। मस्ती ओर खुमार को तोड़ता है और खफकान, वसवास तथा अशं को लाभ पहुँचाता है । यह वा-महामारी, शोतला, कामलायान और गरम बुखार को लाभ करता है। इसका सदैव भवण शरीर में फोड़ा-फुन्सी निकलने से रोकता है। इसका रस आँख का जाला काटता है। जो के आटे के साथ इसका लेप विसर्पसुर्खबादे को नष्ट करता है। इसका शबंत उन्माद और वहशत को गुणकारी है। कच्चे कमरख को कूटकर रस निचोड़ें। फिर उसे यहाँ तक कथित करें कि चतुर्थांश जल जाय । पुनः उसे स्थिर होने के लिये रख छोड़ें। तदुपरांत उपर से साफ पानी निथार लें । इसका सिरका उत्तम होता है। यह सभी गुणधर्म में सर्वथा रैबास की तरह है (म. मु०, बु० मु.)। कच्चा कमरख कफ, पित्त और शोणित को विकृत करता है । इसके विपरीत पका कमरख उनको लाभ पहुंचाता है, जैसा कि प्रक• बर शाही में उल्लेख है । वैद्य कहते हैं कि इसका कच्चा फल खट्टा और काबिज-धारक होता है। कमरङ्ग हिम ग्राहिस्वाद्वम्लं कफवातकृत् । (भा.) कमरख-शीतल, धारक, खटमिट्टा-स्वाद्वम्ल ओर कफ, वात कारक है। कम्मरङ्गन्तु तीक्ष्णोष्णं कटुपाकेऽम्लपित्तकृत् । (राज.) कमरख तीखा-तीक्ष्ण, उष्ण, पाक में कड़वा अम्ल तथा पित्तकारक है। कारस्य फलश्चामं ग्राह्यम्लं वातनाशनम् । उष्णं पित्तकरश्चैव तत् पक्कं मधुरं मतम् ।। अम्लञ्चबलपुष्टीना रुचेश्चैव तु वद्धकम् । (वै० निघ० तथा निघण्टु रत्नाकर ) कच्चा कमरख धारक, खट्टा, वातनाशक, उष्ण एवं पित्तकारक है । पक्का कमरख मधुराम्ल, एवं बल, पुष्टि तथा रुचिदायक है। यूनानी मतानुसारप्रकृति-द्वितीय कक्षा में शीतल एवं रूत। Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमरख २१५७ कच्चा फल खाने से ज्वर और सोने में दर्द हो जाता है । । पका फल खटमिट्ठा होता है। इससे अचार, तरकारी, मुरब्बा श्रादि कई खाने की चीजें तैयार की जाती हैं । खटमिट्ठा फल शीतल होता है और उसे पित्तज ज्वरों में प्यास बुझाने के लिये देते हैं । इसके दोनों किस्म के फल शताद ( ? ) रोग 1 को मिटाते हैं। इसके सुखाये हुये कच्चे फल का चूर्ण ज्वर में देते हैं। कच्चा फल कफवात उत्पन्न करता है ओर रक्त एवं पित्त विकार नष्ट करता है । पका कमरख पित्त का नाश करता है और उदरावष्टंभकारकारक है । यह कम तथा वात दोष का निवारण करता है । कोई-कोई वैद्य कहते हैं, कि यह उष्णता उत्पन्न करता शुक्र की वृद्धि करता क6 तथा बवासीर उत्पन्न करता और वात पित्त को दूर करता है | इसको पत्तियों को काली मिर्च के साथ छानकर पिलाने से पेट के भीतर की गरमी मिटती है। इसकी जड़ का सादा-हिम पिलाने से ज्वर मुक्र होता है। इसके पत्ते जड़, और फल शीतल होते हैं । ख ० श्र० । तालोफ़ शरीफ्रो, मुफ़रिदात हिंदी में लिखा है - " इसका फल शरद ऋतु का एक प्रसिद्ध मेवा है। इसका निचोड़ा हुआ रस उत्कृष्ट तोहफा है और यह पित्त को शांत करता, शीतल, काबिज शिकम एवं कफ वात दोषनाशक है । इसके खाने से जिह्वा फट जाती है। इसे लवण तथा चूने के साथ खाना इसका दर्पनाशक - मुसहिल है । बादाम आदि से भी एतजन्य विकार की शांति होनी सभव है। ख़ाकसार ने इसके इसलाह की जो विधि कतिपय अनुभवी व्यक्तियों से सुनी है, यह है – 'पान में खाने का चूना थोड़ा लेकर कमरख के भीतर भर कर एक दो घड़ी रहने दें । फिर उसे काटकर खायें। इससे मुख में कुछ भी जलन नहीं होती और उसकी तुर्शी एवं तीच्याता मिट जाती ।ता० श० पृ० १३३ । नव्य मतानुसार खोरी - कमरख स्कर्वी रोग प्रतिषेधक है । अम्ल खाद्य रूप से यह फल बहुत खाया जाता है और चटनी रूप ( Peserve ) में इसका ब्यवहार होता है । ज्वरों में शैत्यकारक औषध रूप | कमरख से इसका प्रपानक—शर्बत (१० में १ मात्रा१ से २ ड्राम ) काम में श्राता है। लोहे का मूर्चा और दाग दूर करने के लिये इसका रस काम में ता है। इसकी पत्तियाँ सारेल ( Sorrel ) की उत्तम प्रतिनिधि है ।-आर. एन्. खोरी, २ य खं०, पृ० १५२ । मोहीदीन शरीफ़ - यह शैत्यकारक ( refrigerant ) तथा धारक है। पका फल जो प्राय: खट्टा होता है ( यद्यपि इसका एक मीठा भेद भी है) और जिसमें अाज विशेष (Oxalic acid ) वर्तमान होता है, रकार्श को परमोपयोगी श्रोषध है, विशेषतः रोगके उस भेदकी जिसे श्राभ्यंतरिकार्श ( internalpiles) कहते हैं। न्यूनाधिक लाभ के साथ मैं अनेक रोगियों को इसका प्रयोग करा चुका हूं। उनमें से कुछ रोगियों पर तो इसका बहुत ही संतोषदायक फल अर्थात् इससे रक्त्राव शीघ्र और सदा के लिये बन्द हो गया । इसमें सन्देह नहीं कि — रक्तवमन, रातिसार और रक्तस्राव के कतिपय श्रन्य भेदों में भी इसका परमोत्कृष्ट प्रभाव होगा। परन्तु यह सदा सुलभ नहीं, इसलिये मुझे उक्त रोगों में इसकी परीक्षा करने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ । ज्वर प्रकोप एवं पिपासा निवारण के लिये भी इसका फल परमोपयोगी है । - मे० मे० श्राफ मै०, पृ० ७५–६ । डीमक - इस वर्ग के कतिपय अन्य पौधों की भाँति इनके पत्ते भी लजालू पत्रवत् संकुचन शील ( sensitive ) होते हैं । भारतवासी अम्ल खाद्य रूप से और यूरोप निवासी अम्ल फल्ल (tart fruit ) और मुरब्बा ( preserve) की भाँति इसके फल का बाहुल्यता के साथ उपयोग करते हैं। कमरख श्रोर बिलिंबी दोनों में अत्यधिक एसिड पोटासियम् श्राक्जेलेट ( एक प्रकार का अम्ल ) होता है और लोहे का मूर्चा दूर करने के लिये इनका उपयोग होता है। शैश्यजनक (Cooling) औषधिरूपसे देशी लोग, ज्वर में, इसके फूलों का गुलकन्द ( Conserve ) और फल का शर्बत व्यवहार करते हैं । —फा० इं० १ भ० पृ० २४८ | Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमरख २१५८ नोट - डीमक ने कमरख और कमरख भेदafrat का एकत्र वर्णन किया है। नादकर्णी - यह मृदुरेचक, मनोल्लासकारक और स्कर्वी रोग-प्रतिषेधक है । फल खाया जाता है और इसकी ( pickes ) और कढ़ी भी बनती । इसे अन्य सागों एवं खाद्य द्रव्यों के साथ इस हेतु पकाते हैं, जिसमें वे अपेक्षाकृत अधिक सुस्वादु एवं सुपाच्य हो जायँ । पका फल स्कर्त्री प्रतिषेधक त्यन्त शैत्यकारक है। इसके फल-स्वरस का बना रात पिपासा एवं ज्वर जात उग्रताके शमन करने के लिए उत्तम तापहारी ( Cooling ) पेय का काम देता है । इसके फल के रस से वस्त्र प्रचालित करने से उन पर पड़े हुये दाग़ और धब्बे होकर वे स्वच्छ होजाते हैं । - इं० मे० दूर 1 मे० पृ० १६ | कमरख के फलों में कसाव बहुत होता है। इसलिए लोग पके फलों में चूना लगाकर खाते हैं । फल अधिकतर अचार चटनी श्रादि के काम में आता है | कच्चे फल रंगाई के काम में भी ते हैं। इससे लोहे के मूर्वे का रंग दूर होजाता है । खाज के लिए यह अत्यन्त उपयोगी माना जाता है। हिं० श० सा० । कर्नल चोपरा के मतानुसार यह फल शीतादि रोग प्रतिशोधक है। यह ज्वर में उपयोगी है । इसमें एसिड पोटेशियम् श्राक्जेलेट्स पाये जाते हैं। इसके बीज निद्राजनक वामक, ऋतुस्राव निया मक और शूल निवारक होता है । इनका चूर्ण श्रधे से २ ड्राम तक की मात्रा में उदरशूल और पीलिया के शूल को नष्ट करनेवाला माना गया है । इंडोचीन में इसके पत्ते खाज-खुजलीकी श्रोषधी में व्यवहृत होते हैं । ये कृमिनाशक माने गये हैं । इसका फल शीतादि रोग प्रतिशोधक है। यह ज्वर में शांतिदायक वस्तु की तरह व्यवहार किया जाता है। कमरख भेद--बिलिंबी 1 पर्या०-- बेलंबू, बिलिंबी - हिं०, ५० । विलिंबी - बं० । श्रवेा बिलिंबी Averrhoa Billmbi, Linn. - जे०। कुकुंबरटो Cucu कमरख mber tree –श्रं०। कोच्चित्तमर्त - काय, पुलि चक्काय, बिलिं बि-काय - ता० । पुलुसु कायलु बिलि-बिलि--काय । बिलिं बि-कायलु - ते० बिलम्बिका, ब्रिलिंब, करिचक्का - मला० । बिलंबु - गु० । काल- जौन-सी, काल-ज़ोन्य-सो-२० । चारी वर्ग 1 (N. O. Geraniacea) उत्पत्ति स्थान - समग्र भारतवर्ष के उद्यानों में बहुतायत से इसके वृक्ष लगाए जाते हैं । वानस्पतिक वर्णन - यह कमरख की ही जाति का वृत्त है, जिसके फल कमरख की तरह केही होते हैं । भेद केवल यह है कि इसके फल कमरख की अपेक्षा किंचित् छोटे होते हैं । इसके तिरिक्त कई एक अन्य यांशिक भेद होते हैं, जो दोनों के फलों के अवलोकन से स्पष्ट हो जायगा । इसका फल पांडु पीताभ हरित, दीर्घायताकार (Oblong ), १॥ से २॥ इंच लंबा श्राध से १ इंच तक मोटा, श्रधिक कोणीय, पँच कोण युक्र थोर स्वाद में खट्टा होता है । पूर्वोक्त कमरख की भाँति, इस फल की अम्लता भी एसिड आक्जेलेट श्राफ पोटास पर निर्भर करती । यद्यपि लवण की मात्रा इसमें पहले ( कमरख ) को अपेक्षा बहुत अधिक होती है। औषधार्थ व्यवहार - फल | प्राप्ति-स्थान- इसका पक्क वा श्रर्द्धपक्क फल एक ऐसे साग-भाजी की किस्म है, जिसका इस देश की देहाती जनता कढ़ो आदि में प्रायः बहुत व्यवहार करती है । यह बाज़ारों में बहुधा सदैव उपलब्ध होता है । औषध निर्माण - शर्बत, निर्माण बिधि - पक्के फल का स्वरस निकालकर वस्त्रपूत कर । यह १० फ्लुइड ग्राउंस, साफ शर्करा ३० श्राउंस और जल १० फ्लुइड श्राउंस । यथाविधि गाढ़ा शर्बत प्रस्तुत करें। मात्रा - ३ से ६ फ्लुइड ड्राम उक्त शर्बत जल तरह मिलाकर २४ घंटे में ४-५ बार सेवन करायें । में योरोपीय औषधें जिनकी जगह यह काम में आ सकता है—ौलिक एसिड, फास्फोरिक एसिड और एफसिंग ड्राफट्स | Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमरघवेल २१५६ कमल गुण धर्म तथा प्रयोग कमरि-[ ] बाँस । मोहीदीन शरीफ-यह धारक, पाचक, कमरिया-संज्ञा पु० [फा० कमर ] बौना हाथी । (Stomachic) और मनोल्लासकारी ( Re. नाटा हाथी । frigerant) है । फल का शर्बत प्यास | संज्ञा स्त्री० दे० "कमरी" । बुझाता एवं ज्वर प्रकोप को शांत करता है तथा कमरी-संज्ञा पुं०, घोड़े का एक रोग । रक्रति संबंधी कतिपय ऐसे सामान्य रोगियों कमरी, कम - मध्य प्र०, कोल.] डिकामाली। को भी जिनकी आँतों, प्रामाशय और अन्तःस्थ | कमरीब-[अ०] करमकल्ला । अर्श ( Internal hemorrhoids)| कमरून-[?] रोबियाँ । झींगा मछली । से रक्तस्राव होता हो, यह बहुत उपकार करता है कमरूनी-एक प्रकार का सर्वोत्तम अगर जिसे कमारी अर्श तथा स्कर्वी नामक रोग में फल स्वयं, कढ़ी भी कहते हैं। के रूप में, एक अत्युपयोगी एवं पथ्य खाद्य-द्रव्य | कमल-संज्ञा पुं॰ [सं० वी० कमलं ] (१) पानी में है। -मे० मे० मै० पृ. ७६। । होनेवाला एक पौधा जो प्रायः संसार के सभी कमरघवल-[ पश्तो ] पाखानबेद । पाषाणभेद । भागों में पाया जाता है। यह झीलों, तालाबों, कमरजहर:-संज्ञा पुं॰ [फा०] एक प्रकार का पौधा नदियों और गड़हों तक में होता है। बहुप्राचीन, जो ठंढे हिमाच्छादित पर्वतों पर पैदा होता है। दीर्घकाल से असंस्कृत रहने के कारण पंकबहुल इसके पत्ते श्रास के पत्तों की तरह और परस्पर ! एवं गरमी में भी जिसका पानी नहीं सूखता, खूब मिले हुए होते हैं । इसमें शाखाएँ बहुत होती | ऐसे तालाब वा पोखरी में कमल उत्पन्न होता है । हैं जो भूमि से दो बित्ता वा न्यूनाधिक ऊपर उठी | इसका पेड़ बीज से जमता है। कमल की पेड़ी होती हैं। इसके पत्ते तोड़ने से प्रचुर दुग्ध स्राव | पानी में जड़ से पाँच छः अंगुल के ऊपर नहीं होता है । इसकी शाखाओं की पहुँचियों पर फूल श्राती । इसकी पत्तियाँ गोल-गोल बड़ी थाली के और बीज पाते हैं । बीज प्राकृति में माज़रियून आकार की होती हैं और बीच के पतले डंठल में के बीजों के समान और प्राकार में मटर के दाने जुड़ी रहती है । इन पत्तियों को पुरइन कहते हैं । के बराबर होता है । जड़ बहुशाखी होती है । इस इनके नीचे का भाग वा पत्रपृष्ठ जो पानी की पेड़ में रेशम के कीड़ों की तरह कीड़े पैदा हो तरफ रहता है, बहुत नरम और हलके रंग का जाते हैं । जिनपर काले, लाल और सफेद रंग के वा ईषत् रक्तवर्ण का एवं सिराकर्कश होता है, पर बिंदु होते हैं । यह कीड़ा विषैला होता है। ऊपर का भाग अर्थात् पत्रोदर द्विदलवत् हरिद्वर्ण गुण, कर्म, प्रयोग-यह संधिशूल, पक्षाघात एवं मखमल की तरह कोमल बहुत चिकना, फालिज तथा लकवा में गुणकारी है। इसकी जड़ चमकीला और गहरे हरे रंग का होता है। इस पीने से वातज दंतशूल आराम होता है । कृमि- तरफ पानी की बूँदें नहीं ठहरती हैं। कमल चैत भक्षित दंत पर इसे चंदबार लगाने से वह उखड़ वैसाख में फूलने लगता है और सावन भादों तक जाता है। इसके पत्ते पीने से कै-दस्त पाते हैं। फूलता है। बरसात के अंत में बीज पकते हैं। सर्प तथा वृश्चिक-दंश में इसका दूध गोघृत और फल लम्बे डंठल के सिरे पर होता है तथा डंठल मधु के साथ सेवन करने से उपकार होता है। वा नाल में बहुत से महीन-महीन छेद होते हैं। सर्प तथा अन्य कीट-विषों की यह रामबाण औषध इसकी डंडी खुरदरी होती है। डंठल वा नाल तोड़ने से महीन सूत निकलता है जिसे मृणालकमरंग-संज्ञा पुं॰ [सं० कम्मरंग] कमरख । सूत्र कहते हैं। इसे बटकर मंदिरों में जलाने की कमरा-[कना०] अञ्जन । छोटा दुधेरा । बत्तियाँ बनाई जाती हैं। प्राचीन काल में इसके [गु०] शमी । जंबु । (ता०)। कपड़े भी बनते थे। वैद्यक के मतानुसार इस संज्ञा पुं० दे० "कमला" । सूत के कपड़े से ज्वर दूर हो जाता है। कमल कमरा-[१०] एक प्रकार का पक्षी। की कली प्रातःकाल खिलती है । फूलकी कटोरी में Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमल कमल चार पाँच झड़ जानेवाली पत्तियाँ होती हैं में बहुसंख्यक पंखड़ियाँ या दल होते हैं जो पतन शील एवं अनेक पंक्रियों में विन्यस्त होते हैं। सब फूलों के पंखड़ियों या दलों को संख्या समान नहीं होती । पंखड़ियों के बीच में केसर से घिरा हुश्रा एक पुष्पधि वा छत्ता होता है जिसमें बीज निमजित होते हैं। कमल के बहुसंख्यक पीले केसर छत्ते के चतुर्दिक कतिपय पंक्तियों में विन्यस्त होते हैं और पंखड़ो एवं केसर पुष्पधिमूल से संलग्न होते हैं । गर्भकेशर चिह्न ( Stigma) वृन्तशून्य होता है । सूखे फूल का रंग भूरा होता है। कमल की गंध भ्रमरों को अत्यन्त मनोहर लगती है। मधुमक्खियाँ कमल के रस को लेकर मधु बनाती हैं. यह पद्ममधु नेत्ररोगों के लिये उपकारी होता है। भिन्न-भिन्न जाति के कमल के फूलों की प्राकृतियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं। उमरा (अमेरिका) टापू में एक प्रकार का कमल होता है जिसके फूल का व्यास १५ इंच और पत्ते का व्यास साढ़े छः फुट होता है। पंखड़ियों के झड़ जरने पर छत्ता बढ़ने लगता है और थोड़े दिनी में उसमें बीज पड़ जाते हैं। बीज गोल-गोल लम्बोतरे होते हैं और पकने तथा सूखने पर काले हो जाते हैं और कमलगट्टा कहलाते हैं। इनका छिलका कड़ा होता है । इसके भीतर एक सफेद रंग की महीन झिल्ली होती है। इसके भीतर किंचिन्मधुर सफ़ेद रंग की गिरी निकलती है जो बादाम की तरह दो फॉकों में विभक्त होती है। कच्ची गिरी जो कड़ी न पड़ी हो अत्यन्त सुस्वाद होती है। मींगी के भीतर जीभ की तरह एक हरे रंग की पत्ती होती है। यह स्वाद में कड़ई होती है। कच्चे कमलगट्टे को लोग खाते और उसको तरकारी बनाते हैं. सूखे दवा के काम में आते हैं। कोई-कोई इसे ही भ्रमवश मखाना (मखास) मानते हैं । परन्तु मखाना इससे सर्वथा एक भिन्न वस्तु है । यद्यपि यह भी एक जलीय पौदा है और प्राकृति आदि में बहुतांश में कमल के समान होता है, तथापि यह कमल नहीं। पूर्ण विवरण के लिये दे० "मखाना"। कालिदास ने पुष्कर-बीज-माला का उल्लेख किया है। कमल की जड़ मोटी और छिद्रयुक्त | होती है और भसीड़, भिस्सा वा मुरार कहलाती है तोड़ने पर इसमें से भी सुत निकलता है। सूखे दिनों में पानी कम होने पर जड़ अधिक मोटी और बहुतायत से होती है। लोग इसकी तरकारी बनाकर खाते हैं। अकाल के दिनों में.. लोग इसे सुखाकर आटा पीसते हैं और अपना पेट पालते हैं । इसके फूलों के अंकुर वा उसके पूर्वरूप प्रारम्भिक दशा में पानी से बाहर आने के पहले नरम और सफेद रंग के होते हैं और पौनार कहलाते हैं। पौनार खाने में मीठा होता है। रंग और आकार के भेद से इसकी बहुत सी जातियाँ होती हैं, पर अधिकतर लाल, सफ़ेद और नीले रंग के कमल देखे गये हैं। कहीं-कहीं पीला कमल भी मिलता है। एक प्रकार का लाख कमल होता है जिसमें गंध नहीं होती और जिसके बीज से तेल निकलता है। रक कमल भारत के प्रायः सभी प्रांतों में मिलता है। इसे संस्कृत में कोकनद, रनोत्पल, हलक इत्यादि कहते हैं। कोकनद अर्थात् रक्रपन गरमी में स्फुटित होता है और वरसात में इसके बीज परिपक होते हैं । रक और श्वेत पन की जड़ कीचड़ में बहुत दूर तक प्रतान विस्तार करती है। मूल अंगुष्ठतुल्य स्थूल अत्यन्त मसूण, लालरंग के चिह्नों से युक्त और अन्त: शुषिर होता है। पुराने पेड़ की जड़ कहीं-कही मनुष्य की मुख्याकृति के तुल्य मोटो हो जाती है। रक्रपद्म की पंखड़ी का रंग एक दम लाल नहीं, अपितु गुलाग के फूल की पंखड़ी के रंग का अर्थात् गुलाबी होता है। पंखड़ी का मूलदेश फीका गुलाबी एवं अग्रभाग की ओर का रंग क्रमशः गाढ़ा हो जाता है । पन को “शतदक्ष' कहते हैं, पर दल वस्तुतः सर्वत्र एकशत होते देखा नहीं गया-एक पद्म-पुष्प में दलों की संख्या प्रायः २०-७० तक देखी गई है। पुष्प के सभी दल प्राकृति में समान नहीं होते-वाम दल मुद्र और उसका पृष्ठ हरे रंग का होता है, मध्यदल वृहत्तर एवं प्रांतर दल पुनः इस्वाकृति का हो जाता है । जल की गहराई के अनुसार नाल डंडी की लम्बाई न्यूनाधिक होती रहती है । नाल प्रतीक्षणानकांटों से व्याप्त होता है। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमल २१६१ कमल श्वेत पद्म के दलों का वर्ग कुन्द फूल की तरह शुभ होता है । श्वेत पन सर्वाश में रक पद्म के के तुल्य होता है। अंतर केवल यह है कि सफेद कमल में लाल कमल की अपेक्षा बीज कम होते हैं ।लाल कमल में 10-३० और सफेद में ८-२० बीज देखे जाते हैं। श्वेत कमल को संस्कृत में शतपत्र, महापद्म, नल, सितांबुज इत्यादि कहते हैं। नीलकमल विशेषकर काश्मीर के उत्तर तिब्बत और कहीं कहीं चीन में होता है। पीत कमल अमेरिका, साइबेरिया, उत्तर जर्मनी इत्यादि देशों में मिलता है। पद्मचारटी वा पद्मचारिणी नाम का एक और पौधा होता है जिसे कोई कोई 'स्थलकमल' और कोई गेंदा लिखते हैं। किसो किसी ने इसे जंगली कमल भी लिखा है । तालीफ़ शरीफ्री में इसे गुलनीलोफर का एक भेद लिखा है और लिखा है कि उसमें पत्ते कम होते हैं। विशेष देखो "स्थल कमल"। धन्वन्तरीय तथा राजनिघंटु में क्षुद्र उत्पल नाम से एक प्रकार के कमल का उल्लेख मिलता है। रंग के विचार से यह तीन प्रकार का कहा गया है-सफेद, नीला, और लाल । इनमें से लाल रंग वाले को रकशालूक कहते हैं। दल संख्या में शालूकापेक्षा अधिकतर एवं प्राकार दीर्घतर होता है। एतद्भिन सर्वाश में यह शालूकवत् होता है। __ कमल को ही किस्म का एक और जलीय पौधा है, जिसे संस्कृत में कुमुद, कैरव, कुवलय आदि संज्ञाओं से अभिहित करते हैं। यह पंक बहुल पल्वलादि में उत्पन्न होता है और वर्षांत-शरद में फूलता है । इसमें कमल से एक और विशिष्ट भेद होता है कि कमल के फूल सूर्योदय के समय खिलते हैं और सूर्यास्त होते ही बंद होने लगते हैं, परन्तु कुमुदिनो वा कूई रात में खिलती है । इसकी पंखड़ी श्वेत कमल को पंखड़ी की तरह शुभ्र होती है । श्वेत पद्म की अपेक्षा इसकी पंखड़ियाँ संख्या में अल्पतर एवं प्राकृति में क्षुद्रतर होती हैं। इसकी नाल और कमलकी नालमें इतना भेद होता है, कि कमल की नाल के ऊपर गड़ने वाली रोई होती है, पर इसको नाल चिकनी होती है। रंग ओर आकृति के भेद से यह भी कई | प्रकार की होती है। हकीम लोग इसे नीलोफर | ११ फा० कहते हैं । विस्तृत विवरण के लिये 'कूई' देखो। Harat ar hala ( Euryale Fcrox, Salisle) भी कमलकी ही जाति का, पर उससे सर्वथा एक भिन्न जलीय पौधा है। मखाने का लावा इसो का बीज भूनने से तैयार होता है। विस्तृत विवरण के लिये देखो "मखाना"। पद्म भेद विषयक प्राचीन मत धन्वन्तरीय निघंटु के मतसे पुण्डरीक, सौगंधिक, रक पद्म, कुमुद एवं क्षुद्र उत्पलत्रय ये सात प्रकार के कमल होते हैं। अत्यंत सफेद कमल को पुण्डरीक कहते हैं । जहाँ तक देखने में आया है उससे यह ज्ञात होता है कि सफेद कमल गरमी में फूलता है, परंतु धन्वन्तरीय निघंटु में इसे "शरत् पद्म' लिखा है। हाँ ? कुमुद वा कूई शरत् वा जाड़े में फूलती हुई देखी गई है। धन्वन्तरीय निघंटु के मतसे सौगन्धिक नीलपद्म है, यथा"सौगन्धिकं नीलपद्मम्"। पद्मोत्पल नलिन कुमुद सौगन्धिक कुवलय पुण्डरीक शैवल कोथजाताः"। (सु० सू०१३ अ०) । इस सौश्रुतीय पाठ की व्याख्या में डल्वण लिखते हैं, "सौगन्धिकं गईभ पुष्पाभिधानमत्यन्तसुरभि चन्द्रोदय विकाशि"। भारतवर्ष में अधुना नीलपद्म के दुर्लभ होने के कारण, यह निश्चित रूपसे नहीं कहा जा सकता कि यह अत्यंत सुरभि एवं चन्द्रोदय विकाशी है वा नहीं। भाषा में जिसे कूई वा सुदि कहते हैं, यदि वही "सौगन्धिक" है, तो उसके लिये "अत्यन्त सुरभि" विशेषण असंगत पड़ता है। गद्धभपुष्प किस देश का भाषा नाम है, इसका निर्णय सहज नहीं। भावप्रकाशकार ने कहार के पायों में सौगन्धिक पाठ दिया है एवं "नीलमिन्दीवरं स्मृतं" वाक्य में नीलपद्म का नाम इन्दीवर निर्देश किया है। भावप्रकाशकार ने सौगन्धिक का नीलपद्म होना स्वीकार कर लेने पर, ऐसा क्यों लिखा ? कह्नार क्या है ? धन्वन्तरीय निघण्टु में कुमुद के पर्य्यायों में कहार का पाठोल्लेख हुआ है। इनके मत से कहार शालूक फूल वा कूई के फूल को कहते हैं । भावप्रकाशकार ने कहार और कुमुद को पृथक्-पृथक् निर्देश किया है। सौगन्धिक को Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमल २१६२ शालूक मानने पर डल्वण के मत के साथ इसका विरोध घटित होता है। चरक के मूत्र विरजनीय वर्ग की व्याख्या में चक्रपाणि लिखते हैं “सौगन्धिकः शुन्दी" (सू० ४०)। सारांश यह कि सौगन्धिक के परिचय के विषय में प्राचार्यगण परस्पर विसम्वादी हैं। रक्तपन की खड़ी का रंग गुलाब के फूल की पखड़ी के रंग का होता है। जिस प्रकार बंगाल में श्वेतपद्म प्रचुर मात्रा में होता है, उसी प्रकार कोच बिहार में रक्तपद्म सुलभ है । शालूक के फूल का संस्कृत नाम कुमुद है। शालूक वा कूई शरद ऋतु में फूलती है। निघण्टुकार सुद्र उत्पलत्रय को इस प्रकार व्याख्या करते हैं-"ईषच्छीतं बिदुः पनमीषन्नील मथोत्पलम् । ईषद्रनं तु नलिनं सुदन्तच्चोत्पलत्रयं" । श्वेत सुदि, नीलसुदि और रक्तशालूक इन तीन प्रकार के फूलों को मुद्रउत्पल कहते हैं । बङ्गाल में रकशालूक को "रककम्बल" कहते हैं । अज्ञ लोग इसे ही रक्कपद्म कहने के भ्रम में पड़े रहते हैं । पद्मिनी के प्रत्यंग विशेष के नाम के विषय में भावप्रकाश लिखते हैं-मूल, भाल, दल, फूल और फल सहित पद्म को पद्मिनी कहते हैं । कुमुदिनी, नलिनी प्रभृति का अर्थ भी इसी प्रकार जानना । पद्म के मूल को शालूक, माल को मृणाल, कोमल नवीन पत्तोंको संवर्तिका केसर को किंजल्क; बीजकोष वा छत्ता को कर्णिका एवं पुष्परस को मकरंद कहते हैं। अमरसिंह के मत से मृणाल पद्ममूल को कहते हैं। विस शब्द मृणाल का पर्यायवाची है । वैद्यक में बहुस्थल पर विस और मृणाल एकत्र उल्लिखित हुए हैं। टीकाकारगण इस प्रकार अर्थ करते हैं"मृणालं स्थूलमृणालं, विसंतु स्वल्प मृणालं" "बिसशब्देन मृणालनिर्गत:प्रतानः" शिवदासः। "मृणालं स्थूलं, बिसं मृणालान्निर्गत प्रतानः" इति वृन्दीकायां श्रीकण्ठः। सुश्रुत भी लिखते हैं-"प्रतानाः पद्मिनी कन्दाद्विसादीनां यथा जलम्" (शा० । अ०) कमल की सामान्य संज्ञाएँ-- पाथोजं, कमलं, नभं, नलिनं, अम्भोज, अंबुभन्म, अम्बुजं; श्रीः, पद्म, अम्बुरुहं, सारसं, पकेजं, सरसीरुहं, कुटपं, पाथोरुहं, पुष्कर, वार्ज, तामरसं . कुशेशयं, कजं, कों, अरविन्दं, शतपत्रं, बिस. कुसुमं, सहस्रपत्रं, महोत्पलं, वारिरह, सरसिजं, सलिलजं, पङ्केरुहं, राजीवं, वेदवह्नि, (रा० नि०) विसप्रसून, (भा०) वारिज, कवारं, श्रास्यपत्रं, वनशोभन, सरोरुह, जलजन्म, जलरुट् , जलरुह, सरोजं; सरोजन्म, सरोरुट पङ्कज, पङ्कजं, अम्भोजं, अम्बूज, श्रीवास, श्रीपर्ण, इन्दिरालयं, जलेजातं, नलं, नालिक, नालीकं, वनजं, अम्लानं, पुष्टकं अब्जः, अम्बुपद्म, सजलं, पङ्कट, पङ्कजन्म, पङ्करह वारिरोह, अम्बुरोह, अम्बपद्मं -सं० । नोट-जलवाचक सब शब्दों में 'ज'; 'जात', 'जन्म' श्रादि प्रत्यय लगाने से कमल-बाची शब्द बनते हैं; जैसे-वारिज, नीरज, कंज आदि । पुरइन, कँवल, कमल, -हिं० | पद्म, कमल, -बं०। कातिलुन्नह ल-श्र० । कमल -बम्ब० । निम्फी निलम्बो Nymphae Nelumbo | निलम्बियम् स्पेसिप्रोसम् Nelumbium Speciosum, Willd, Wight. to 11 इजिप्सियन लोटस Egyptian Lotus, सेक्रेड लोटस Sacred Lotus -अं० ।। Nelumbium Magnifique; aterat Nelumbc. -क्रां० । पैक्टिजेनीलम्बो Pactige Nelumbo -जर० । कालावा, तामर अल्लितामर, एर-तामर-वेरु -ते। अम्बल-ता। विलिय तामरे-का० । न्यडले हुवु, तावरे-कना०। कमल -मरा० । सेवक -गोश्रा । पब्बन -सिंध । तामर, अरविंदम् -मल० । पदम -उड़ि। काँचल -40। पियुम्, नीलम् -सिंहली । कमल के अंग-प्रत्यंगों के नाम पद्मिनी-(कमल का झाड़ वा समग्र क्षुप) पद्मिनी, कुटपिनी, नलिनी, कुमुदती, पलाशिनो, पद्मवती, वनखण्डा, सरोरुहा, ( ध० नि०), पद्मिनी, नलिनी, कुटपिनो, अब्जिनो ( रा०नि०) पद्मिनी, नलिनी, विसिनी, कमलिनी (भा० ) पद्मपण्ड, कुन्दिनी, मृणालिनी, पंकजिनी, सरोजिनी, अरिबिन्दिनी; नालिकिनी, अम्भोजिनी, पुष्करिणी, जम्बालिनी, -सं० । कमल का फाड़ -हिं० । पझेर झाड़ -बं० । The Cntire Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमल २१६३ plant, including root, Stem and flowers of the lotus. नोट-मूल, नाल, पत्र और बीजादि संयुक्त, खिले हुए को पद्मिनी कहते हैं। कमल केसर पद्म केसरं, आपीतं, किञ्जल्कं, किङ्ग, मकरन्द, तुङ्ग, गौरं, काञ्चनकं, (ध० नि०), किञ्जल्कं, मकरन्दं, केसरं, पद्मकेसरं, किऑ. पीतं, परागं, तुङ्गं, चाम्पेयकं, (रा० नि०), किअल्कः (भा०) किञ्जलः (श० च०) पद्मकेसरं, (राज.) पद्मकिञ्जल्कः (वै० निध०), पद्मरजः, पद्मरेणुः, उत्पल केसरः, नलिनकेसर, काञ्चन, चाम्पेयः -सं० । केशर, कमल की केसर, कमल का जीरा -हिं० । पद्मकेसर -बं०। कमल का छत्ता कमल कर्णिका, पद्यबीजकोष, पद्मकर्णिका, | कमलगर्भ, पद्मकोष-सं० । कमल का छत्ता-हिं० । पझेर चाकि-बंग। The torus or receptacle for the seed. कमलगट्टा पद्मबीजं, पद्माक्षं, गालोड्यं, पद्मकर्कटी, भेडा, क्रौञ्चादनी, क्रौञ्चः, नापाकः, कन्दली, (ध० नि०) क्रौञ्चा, श्यामा, (रा० नि०), कमलाक्षः, कमलबीज, पद्मकर्कटः, मेण्डा,-सं० । कमलगट्टा, कमलका बीज, कमल अंडा, कँवलगट्टा, कमल ककड़ीहिं० । पद्मेर बीचि, पद्मबीज -बं० । पद्माक्ष -मरा०, कनाः । तामर विरै -ता० । तामर वित्तुलु, तामर काडा -ते. । तवैबीज -कना। कमल काकड़ी -गु० । कमलाक्ष -मरा०। बाक़लहे क़ब्ती, वाक़लहे नब्ती -अ० । पद्मनाल वा कमल की डंडी बिसं, मृणालं, विसिनी, मृणाली, मृणालिका, मृणालक, पद्मनालं, तण्डुलं, नलिनीरुहं, (ध० नि०) मृणालं, पद्मनालं मृणाली, मृणालिनी, बिसं, पद्मतन्तुः, विसिनी, नलिनीरुहं, (रा०नि०) पद्मनालं, मृणालं, बिसं, ( भा०) कमलदण्ड, विशं, विसं, कोरकं, कोमलं, कोमलकं, तन्तुरं, कमलनाल, कमलकोमलदण्ड -सं०। कमल की इंटी, कमलनाल, कमल की डंडी, कमल का । डंठल, -हिं० । पझेर डाँटा, पर डॉटी -०। कमल तंतु, कमला चा देठ -मरा० । तामर तुंड, तामर तोगे-ते। कमल दनूलु-कना०। कमल की जड़ पद्ममूलं, शालूकं, सकलं, करहाटकं, शालिनं, पद्मकन्दं, जलालूकं (ध० नि०) पद्मकन्दः, शालूक, पद्ममूलं, कटाह्वयं, शालीनं, जलालूकं, (रा०नि०) पद्मकन्दः, शालूकं, करहाटः,मृणालमूलं, भिस्साण्डं, जलालूकं (भा०) शालु, शालुकं, शालूकं, पंक शूरणं, शालूकः, गोपभद्रं, शालूरः, कमलकन्दः, उत्पलकन्द-सं०। कमल को जड़, कमलमूल, भिस्सा, भसोड़, भसिंड, भसीड़, भसींड़, भैपीडा, भिस्स, कंद भसोडा, भिसीड़ा, कॅचलकन्द, कँवल ककड़ी, मृणालमूल-हिं० । पद्मर गेंडो, शालूक-बं० जाजिकाय, तामर वेरुते । तामर वेर-ता०। __ नोट-पद्मादि के कंद को शालूक और करहाट तथा मृणालमूल को भिस्साण्ड और जलालूक कहते हैं। भिन्न भिन्न प्रकार के कमल के पर्याय सफेद कमल (पुष्प) पुण्डरीकं, श्वेतपद्म, सिताब्ज, श्वेतवारिज, हरिनेत्रं, शरत्पद्म, शारद, शंभुवल्लभं (ध०नि०) पुंडरीकं, श्वेतपत्रं, सिताब्जं, श्वेतवारिजं इत्यादि (रा०नि०) सितपद्म, धवल कमलं, सिताम्भोज शतपत्रं, महापद्म, सिताम्बूज,श्वेतकमलं, दृशोपमं, शुक्रपद्म, शरत्पद्म-सं० । सफेद कैवल,श्वेत कमल, सुफ़ेद कमल, सुफ़ेद के कँवल का फूल-हिं० । सुफ्रेद नीलोफर ? के फूल-द०। श्वेतपद्म-बं०। निलबियम् स्पेसिमोसम् Nelumbium Speciosum, Willd-ले। Flowers of the white variety of the Egyptian or Lotus Pythagonean Bean, Egyptian lotus लोटस-अं०। वेल्लै-तामर-पु-ता० । तेल्ल-तामर-पुन्बु, तेल तामर नालावा कालावा-ते०। पांढरे कमल-मरा। विलिय तावरे-कना। धोला कमल-गु०। बीजसुनेद कँवल के बीज, सुक्रेद नीलोफर ? के Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६४ कमल इंदीवारं, उत्पलक, मृदूत्पल-सं०। नीला कमल, नीली पुरइन्-हिं । नीलपद्म-बं० । करिया तामरे करिय तांवरे-कना० । नीले कमल-मरा । नील कमल-गु०, करियातावरे-कना० । नेल्ल नामरते । N. Pubesceus-ले० । कुमुद वर्ग बीज-हिं० । द० । वेल्लै तामर-विरै-ता० । सेल्लतामर-वित्तुलु-ते० । तवै वीज-कना। जड़ सुफ़ेद कँवल की जड़, सुफ़ेद नीलोफर ? की | जड़-हिं०, द० । वेल्ल-तामर-वेर-ता० । तेल तामर वेरु-ते०। लाल कमल (पुष्प)___ रकप, नलिनं. पुष्कर; कमलं, नलं, राजीवं; कोकनदं, शतपत्रं, सरोरुहं (ध०नि०), कोकनदं अरुण कमलं, रक्राम्भोज, शोणपद्म, रक्कोत्पलं, अरविन्द, रविप्रियं, रकवारिज, वसवः (रा० नि०) रक्कपद्मः, रक्कमलं, अल्पपत्रं, अलिप्रियं, चारुनालकं, अलोहितं, कृष्णकंदं, रकवणं, रक्कम्वलं, रक्रकह्रारं, हृल्लक, रकसन्धिक, रकोत्पल,रक्रसरोरुहं, रक्ताम्भ-सं० । लाल कमल का फूल, लाल कवल के फूल, लाल नीलोफर ! के फूल-हिं०, द०। रकपन, रक्त कम्बल- बंनिलंबियम् स्पेसिमोसम Nelum bium speciosum, Willd N. Carruleum ( Flowers of-) -ले। Flowers of the Egyptian or Pythagorean Bean, Red lotus ( The red, pink, crimson or rose-colored variety)-अं.। शिवप्पु-तामर-पू०-ता० । ए कालावा, तम्मि, (तास्मि पुव्वु), ए-तामर-पुन्बु-ते० । केदावरेकना० । तांबड़े काल-मरा। रातना ऊघेडेते, रातांकमल-गु०। बीज-- कोकनद बीज-सं० । लाल कँवल के बीज,लाल मीलूफर ? के बीज-हिं०, द० । शिवप्पु तामर-विरै -ता० । ए-तामर-वित्तुलु-से० । जड़-लाल कवल को जड़, लाल नीलूफर ? की जड़-हिं०, द.। शिवप्पु-तामर-वेर-ता। एरै तामर वेरू-ते। नीला कमल (पुष्प) सौगन्धिकं, नीलपद्म, भद्रं, कुवलयं, कुजम्. इन्दीवरं; तामरसं, कुवलं, कुड्मलं (ध० नि०) उत्पलं, नीलकमल, नीलाब्जं, नीलपंकजं, नोलप (रा० नि० भा०), नीलाम्बूजन्म, नीलोत्पलं, / . भीलपंकज,नीलाम्बुजं,इन्दिरावरं, इन्दिवरं, इंदम्बरं, (N. O. Nymphea.cee) उत्पत्ति-स्थान-कमल समग्र भारतीय जलाशयों में उत्पन्न होता है । इसके अतिरिक्त अमेरिका, कास्पीय सागर के तटस्थ प्रदेश, फारस, चोन ओर मिश्र देश में इसका पौधा उपजता है। श्वेत और रक्त कमल भारतवर्षके अनेक स्थान पारस्य,तिब्बत चीन और जापान में मिलता है किंतु नोल कमल केवल काश्मीर के उत्तरांश, तिब्बत के अंतर्गत गंधमादन और चोन के किसो किसो स्थान में देख पड़ता है। पृथिवी के मध्य चोन देश में ही यह अधिक होता है। चोना इसको जड़ बड़े प्रेम से खाते हैं। इतिहास-भारतवासो अत्यंत प्राचीन काल से ही इसके पुष्प को अति पवित्र समझते पाये हैं। वेद में भी "कमलाय स्वाहा” (तैत्तिरीय संहिता ७।३।१८।१) मन्त्र मिलता है। महाभारत के अनुसार भगवान को नाभि से उत्पल और उत्पल से ब्रह्मा का उद्भव हुआ है। "प्रधान समकालन्तु प्रजाहेतोः सनातनः । ध्यान मात्रेतु भगवन्नाभ्यां पद्मः समुत्थितः । ततश्चतुमु खोब्रह्मा नाभि पद्माद्विनिःसृतः।। महाभारत वन०२७१ । ४१-४२॥ कमल का फूल भारतवर्षीय नाना स्थानों के देव मन्दिर और भूटान में पूजा के लिए व्यवहृत होता है। इसका फूल लक्ष्मी को अत्यन्त प्रिय है। पूर्व काल में मिश्र निवासी भी कमल को पवित्र पुष्प समझ पूजा में व्यवहार करते थे । पाश्चात्य यूनाम देशीय पंडित सावफ़रिस्तुस Theophrastus ने Kuamos Aigyptios (मिश्र की सेम) नाम से इसका उल्लेख किया है। प्रारब्य और पारस्य देशवासी नीलोफर नाम के अंतर्गत, जो उनके कथनानुसार भारतीय नाम का अपभ्रंश है और नील-जल+फल से व्युत्पन्न है, अनेक Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमल कमल प्रकार के कमल और कई का वर्णन करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि वे किसी प्रकार कमल | को कूई से बढ़कर नहीं मानते थे और सफ़ेद एवं नीले क्रिस्म को अपेक्षाकृत अधिक पसंद करते थे पारस्य देश से नाना स्थानों को उत्पल का बीज भेजा जाता है । हिन्दू और मुसलमान दोनों ही इसके फूल को विशेष शीतल एवं संग्राही मानते हैं। फलतः प्रकुपित दोषोत्पन्न नाना व्याधियों में वे नाना प्रकार से इसका उपयोग करते हैं । मुलेठो के साथ ये क्वाथ रूप में काम श्राते हैं। अथवा एक प्रकार के शर्बत की शकल में जिसमें भाग शुष्क पद्मपुष्प १ भाग शकरा ओर ५ भाग पानो पड़ता है। इसको मात्रा २-३ ड्राम तक है। इसका चूर्ण भो व्यवहार में आता है। शीतल प्रलेप रूप से कमल पुष्प, चंदन और प्रांवला इनका वाह्य प्रयोग होता है । (फा० इ० १ भ० पृ०७१-२) तालोफ़ शरीफ़ में कल्हार के अन्तर्गत कमल और कूई दोनों के गुणधर्म वर्णित हैं । औषधार्थ व्यवहार-पत्र, कोमल पत्र, पुष्प, केसर, नाल, बीज (कमलगट्टा ) 'कन्द। रासायनिक-संघट्टन-पाताती धड़ और बीज में राल, ग्लुकोज़, मेटाढेन ( Metar. bin) कषायिन (Nupharine ), वसा, न्युफर ल्युटियम् ( Nuphar-luteum) द्वारा प्राहृत न्युफरीन (Iannin) नामक क्षारोद सदृश एक क्षारोद ये उपादान वर्तमान होते हैं। ( Materia Medica of India, pl ii, p. 39.) मतांतर से इसमें कमलीन (Nelum bine) संज्ञक क्षारोद विद्यमान होता पुष्प वा बीज चूर्ण, मात्रा-५ से १५ रत्ती, बीज की गिरी का अवलेह ।। पत्र-कल्क-कमल का फूल, सफेद चंदन और आँवला इनका कल्क वाह्यशीतल प्रलेप रूप से व्यवहृत होता है। __गुणधर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसार-(पुष्प) ___ उत्पलानि कषायानि रक्तपित्त हराणि च । कुमुदोत्पल 'नालास्तु' सपुष्पा:सफला स्मृताः। शाता: स्वादुकषायास्तु कफमारतकोपनाः । कषाय मोषद्विष्टम्भि रक्तपित्तहरं स्मृतम् । पौष्करन्तु 'भवेद्वीज' मधुरं रसपाकयोः । (चरकः) सतिक्तं मधुरं शीतं पद्मं पित्तकफापहम् । मधुरं पिच्छिल स्निग्धं कुमुदं हादि शीतलम् । तस्मादल्पान्तरगुणे विद्यात् कुवलयोत्पले। (सुश्रुतः) कमलं शीतलं स्वादु रक्तपित्तश्रमातिनुत् । सुगन्धि भ्रान्तिसंताप शान्तिदं तर्पणं परम् ।। (रा०नि०) कमल-शीतल, स्वादु ओर सुगंधि है। तथा रक्रपित्त, श्रमजन्य पीड़ा भ्रांति और संताप का निवारण करता और पाम तृप्तिकारक है। कमलं शीतलं वयं मधुरं कपित्तजित् । तृष्णादाहास्त्र विस्फोट विष वीसर्प नाशनम् । (भा० पू० ख०, प्र०व०) कमल-गीतल, वर्णकर्ता, मधुर, कफपित्त नाशक और विषनाशक है तथा प्यास, दाह, रुधिर विकार, विस्फोट और विसर्प रोग को नष्ट करता है। पद्मं कषायं मधुरं शीतं पित्तकफास्रजित् । (राज.) कमल-कसेला, मधुर, शीतल, तथा पित्त कफ और रुधिर विकार को दूर करता है। कमलं शीतलं स्वादुः सुगन्धिभ्रान्ति तापहम् । वयं तृप्तिकरं चैव रक्तपित्तश्रमापहम् ॥ औषध-निर्माण-शुष्क पुष का शर्बत, मात्रा-१ से ३ ड्राम । कमल का फूल भाग, शर्करा १ भाग, जल ५ भाग-इनका शर्बत, मात्रा-२से३ ड्राम । कमल का फूल और मुलेठी इनका काढ़ा । पद्म पुष्प और तंतु, मुलेठी, मिश्री इनका काढ़ा (१० में १), मात्रा-से १॥ श्राउंस । Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमल कमल कफपित्तं तृषां दाहं विस्फोटं रक्तदोषकम्।। विसर्फ च विषं चैव नाशयेदिति कीर्तितम् । (शा. नि. भू०) कमल-शीतल, मीठा, सुगंधित, भ्रांतिहर, तापहारक. कांतिदायक एवं तृप्तिजनक है तथा रक्तपित्त, श्रम, कफ, पित्त, प्यास, दाह, फोड़ा, फुसी (विस्फोट), रक्तविकार, विसर्प और विष इनका नाश करता है। पद्मिनी मधुरा शोता तिका च तुवरा गुरुः । वातस्तम्भकरी रूक्षा स्तनदाढर्यकरी मता ॥ कर्फ पिक्त रक्त रुजं विष शोषं वमि कृमीन् । संतापं मूत्रकृच्छं, च नाशयेदिति कं तिता ।। (नि०र०) कमलिनी-मधुर, शीतल, कड़वी, कसैलो, भारी, वातस्तम्भकारक, रूखी स्तनों को कठोर करनेवाली तथा कफ, पित्त, रनविकार, विष, शोष वमन, कृमि, संताप और मूत्रकृच्छ रोग को हरनेवाली है। पद्मिनी वा कमलिनी पद्मिनी शिशिरा रूक्षा कफपित्तहरास्मृता। (ध० नि०) कमल का पौधा शीतल, रूक्ष और कफपित्तनाशक है। पद्मिनी मधुरातिक्ता कषाया शिशिरा परा । पित्त कृमि शोष वान्ति भ्रान्ति संताप शांतिकृत् (रा० नि०) पद्मिनो-मधुर, कडुई, कसेली तथा परम शीतल है और पित्त, कृमि, शोष, वांति, भ्रांति और संताप की शांति करनेवाली है। पद्मिनी शीतला गुर्वी मधुरा लवणा च सा। पित्तामृकफनुद्र क्षा वाविष्टम्भकारिणी ॥ (भ० पू० खं० पु० व०) पद्मिनी-शीतल, भारी, मधुर, लवणरसयुक्र रूक्ष, वातकारक, और विष्टम्भकारक होती है तथा यह रनपित्त और कफ को शांत करती है। "वीज वान्तिहरं। पत्रशय्या शीतला ज्वरे | दाहहरं । पुष्पं गुदभ्रंशहरं । “यत्र तु पद्ममित्यस्ति तत्र प्रायः पद्मकेशरं ग्राह्यम् ।” .. सि. यो० पि० श्लेष्म ज्व-चि० श्रीकण्ठः । कमल का बीज अर्थात् कमलगट्टा-वमन को दूर करनेवाला है। इसके पत्तों की शय्या ज्वरजन्य दाह का निवारण करती है। गुदभ्रंश (काँच निकलने ) में उपकारी है । जहाँ 'पद्म' लिखा हो, वहाँ प्रायः कमल की केशर ग्रहण करनी चाहिये । __ संवर्तिका (नवपत्र )संवर्तिका हिमा तिक्ता कषाया दाहतृप्रणुत् । मूत्रकृच्छ, गुद व्याधि रक्तपित्त विनाशिनी ।। (भा० पू० खं० पु. ५०) संवर्तिका-कमल की कोमल पत्ती शीतल, कड़ ई तथा कसेली होती है और दाह, तृषा, मूत्रकृच्छ,, गुदा के रोग और रक्तपित्त को नष्ट करती है। पत्र कमलिन्याश्छदः शीतस्तुवरो मधुरो मतः । तिक्त: पाके तिकटुको लघुर्वै ग्राहको मतः॥ वातकृत् कफपित्तानां नाशको मुनिभिः स्मृतः ।। (वै० निघ०, नि० २०) ___ कमलिनी के पत्ते-कषेले, मधुर, कड़वे,पचने में अत्यन्त चरपरे, हलके. ग्राहक (मलरोधक ), वातकारक तथा कफपित्त नाशक हैं। ___ कमल केसर तृषानं शीतलं रूक्षं पित्त रक्तक्षयापहम् । पद्मकेसरमेवोक्तं पित्तघ्नं सकषायकम् ॥ , (ध. नि.) कमलकेसर-प्यास बुझानेवालो; शीतल, रूक्ष, कषेली, पित्तनाशक ओर रक्रपित्त तथा क्षय को दूर करनेवाली है। किञ्जल्कं मधुरं रूक्षं कटु चास्य व्रापहम् । शिशिरं रुच्यपित्तघ्नं तृष्णादाह निवारणम्।। (रा०नि० १०व०) कमलकेसर-मधुर, रूखी, चरपरो, मुखरोग तथा व्रणरोग नाशक है और शीतल, रुचिकारक, Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमले कमल । पित्तनाशक, तृषा और दाह (और विष) मिटाने | वाली है। किञ्जल्कः शीतलो वृष्यः कषायोग्राहकोऽपि सः। कफपित्ततृषादाह रक्तार्शो विष शोथजित् ।। (भा पू० ख०, पु० व.) कमलकेसर-शीतल, वीर्य वर्धक, कषेली और ग्राही है तथा कफ, पित्त, तृषा, दाह, रकाश (खूनी बवासीर), विष और सूजन को दूर करती है। कमलकेसर: शीतलो ग्राही मधुरः कटुः । रुक्षः गर्भस्थैर्यकरः रुच्यश्च ॥ (वै० निघ०) कमलकेसर-शीतल, ग्राही, मधुर, चरपरी, रूखी, रुचिकारी और गर्भ को स्थिर करने वाली है। मलसंग्राहि शीतलं दाहघ्नम् अर्शसः स्रावहरञ्च । (राज.) पद्मकेसर मलस्तम्भक, शीतल, दाह निवारक और बवासीर के खून को रोकती है। किञ्जल्कः शीतलो ग्राही कान्तिदस्तुवरो मधुः। कटू रूक्षो रुचिकरो गर्भस्थैर्यकरो मतः॥ व्रणं पित्तं तृषां दाहं मुखरोगं क्षयं कफम् ।। विष रक्तार्शसं शोषं ज्वर वातं च नाशयेत् । (नि. र.) कमलकेसर-शीतल, ग्राही,कान्तिजनक,कषेली मधुर, चरपरो, रुचिकारी, गर्भ को स्थिर करनेवाली तथा व्रण, पित्त, तृषा, दाह, मुखरोग, क्षय, कफ, विष, रकाश, शोष, ज्वर और वात का नाश करने वाली है। पद्मकर्णिका वा कमल का छत्ता पद्मस्य कर्णिका तिक्ता कषाया मधुरा हिमा। मुखवैशद्य कुल्लध्वी तृष्णाऽस्र कफपित्तनुत् ॥ (भा० पू० ख०, पु० व०) कमल का छत्ता( कर्णिका)-कड़वा, कसेला मधुर, शीतल तथा हलका है और मुख की विरसता, प्यास, रकविकार, कफ और पित्त का नाश करता है। बीजकोशस्तु मधुरः तुवरः शीतलो लघुः। तिक्तो मुखस्वच्छकारी रक्तदोष तृषाहरः॥ (वै० निघ०) कमल का छत्ता (वीजकोश)-मधुर, कसेला शीतल, हलका, कड़वा तथा मुख को स्वच्छ करने वाला है और रक विकार एवं प्यास का निवारण करता है। पद्मबीज वा कमलगट्टा स्वादु तिक्त' पद्मबीजं गर्भस्थापनमुत्तमम् । रक्तपित्तप्रशमनं किंचिन्मारुतकृद्भवेत् ॥ (ध०नि०) कमलगट्टा-स्वादु, तिक्त, गर्भस्थापक, रक्तपित्त को शांत करनेवाला और किंचित् वातकारक है। पद्मबीजं कटुः स्वादुः पित्तच्छदिहरं परम् । दाहास्रदोषशमनं पाचनं रुचिकारकम् ।। (रा०नि० १०व०) कमलगट्टा-चरपरा, स्वादु तथा पित्तज वमन को दर करनेवाला. पाचक, रुचिकारक और दाह एवं रुधिर विकार नाशक है। स्वादू रुच्यः पाचनः कटुकः स्मृतः । शीतलस्तुवरस्तितो गुरुर्विष्टम्भ कारकः । गर्भस्थितकरो रुक्षो वृष्यो वातकरो मतः। कफल्लेखनो ग्राही बल्यः पित्त विनाशनः (क: ) । रक्तरुग्वमिदाहासापत्यनाशकरोमतः । वै० निघ० छर्दिचि० वमनामृत योग, नि० २० । कमलगट्टा-स्वादिष्ट, रुचिकारक, पाचक,चरपरा, शीतल, कषेला, कड़वा, भारी, विष्टंभकारक, गर्भस्थापक, रूक्ष, वृष्य, वातकारक, कफजनक, लेखन, ग्राही; वल्य, तथा पित्त, रक्तविकार, वमन, दाह, रक ओर गर्भ :(वा रक्तपित्त )-इनको नष्ट करनेवाला है। पद्मबीजं हिमं स्वादु कषायर्या तक्तकं गुरुः । विष्टम्भि वृष्यं रुक्षश्च गर्भसंस्थापकं परम् ॥ कफवातकरं वल्यं ग्राहि पित्तास्रदाहनुत्॥ (भा०) कमलगट्टा-शीतल, स्वादु, कषेला, कड़वा, भारी, विष्टंभकारक, वृष्य, रूक्ष, परम गर्भ संस्था Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमल २१६८ कमल पक, कफवातजनक, (पाठांतर से कफवातहर) वल्य, ग्राही तथा रक्तपित्त और दाहनाशक है। । नोट--यद्यपि मखाने का लावा कमलगट्टे के भूनने से भी बन सकता है, तथापि बिहारादि पूर्व देशों में प्रायः यह मखाना के बीजों को भूनकर ही बनाया जाता है, जो कमलगट्टे से सर्वथा भिन्न पदार्थ है। विशेष विवरण हेतु देखो "मखाना"। मृणाल वा कमल की डंडी अविदाहि विसं प्रोक्तं रक्तपित्त प्रसादनम् । विष्टम्भि मधुरं रूक्षं दुर्जरं वातकोपनम् ॥ _ (ध०नि०) कमलनाल-अविदाही, रक्तपित्त प्रसादक, विष्टंभकारक, मधुर, रूत, दुर्जर ( कठिनता से पचनेवाली) और वातप्रकोपक है। मृणालं शिशिरं तिक्तं कषायं पित्तदाहजित् । मूत्रकृच्छ विकारघ्नं रक्तवान्तिहरं परम् ॥ (रा०नि०) कमल की नाल-शीतल, कड़वी, कषेली तथा पित्त, दाह मूत्रकृच्छ , रुधिर विकार और वमन को दूर करनेवाली है। मृणालं शीतलं वृष्यं पित्तदाहासजिद्गुरु । दुर्जरं स्वादुपाकश्च स्तन्यानिल कफप्रदम् ॥ संग्राहि मधुरं रूक्षं शालूकमपि तद्गुणम् । (भा० पू० ख०, ५ पु. वं.) मृणाल ( कमल की डंडी)-शीतल, वृष्य, पित्तनिवारक, दाहहारक, रक्कदोषनाशक, भारी, दुर्जर, पचने में स्वादिष्ट, स्तनों में दूध उत्पन्न करनेवाली, वातकारक, कफजनक, संग्राही, मधुर और रूखी है। शालूक वा पद्मकन्द के गुण भी इसी के समान जानने चाहिये। पद्मकन्दः कषायः स्यात्स्वादे तितोविपाकतः । शीतवीर्योऽस्रपित्तोत्थ रोगभङ्गाय कल्पते ॥ (ध० नि०) , पद्मकन्द-स्वाद में कसेला, विपाक में कड़वा और शीतवीर्य है तथा रक्तपित्त जन्य रोगों के निवारण के लिये इसकी कल्पना होती है। शालूकं कटुविष्टम्भि रूक्ष रुच्यं कफापहम् ।। कषायं कासपित्तघ्नं तृष्णा दाह निवारणम् ।। (रा०नि०व०१०) शालूक (कमलकन्द, भसीडा)-चरपरा विष्टम्भी, रूक्ष, रुचिकारक, कफनाशक, कसेला, खाँसी तथा पित्तनाशक और तृष्णा (प्यास) एवं दाह का निवारण करता है। शालुकः कटुकश्चोक्त: तुवरो मधुरो गुरुः । मलस्तम्भकरो रुच्यो(रूक्षो)नेत्र्यो वृष्यश्चशीतल दुर्जरो ग्राहको रक्तपित्तं दाहं तृषां कफम् ॥ पित्तवातश्च गुल्मश्च पिसं कासं कृमींस्तथा । मुखरोगं रक्तदोषं नाशयेदिति च स्मृतः।। (वै निघ०, नि००) शालूक (कमलकन्द मुरार)-चरपरा, कषेला, मधुर, भारी, मलस्तम्भकारक, रुचिकारक (वा रूक्ष), नेत्र को हितकारी, शीतल, वृष्य, दुर्जर, ग्राही (मलरोधक) तथा रक्तपित्त, दाह, प्यास, कफ, पित्त और वात, गुल्म, पित्त, कास, कृमि, मुखरोग और रक्तविकार इनको नष्ट करता है। शालूकं शीतलं वृष्यं पित्तदाहाननुद् गुरुः । दुर्जरं स्वादुपाकञ्च स्तन्यानिल कफप्रदम् ॥ संग्राहि मधुरं रूक्षं भिस्साण्डमपि तद्गुणम् । (भा० पू० १ भ, शाक-व०) शालूक (कमलकन्द)-शीतल, वृष्य. भारी, दुर्जर, स्वादुपाकी तथा पित्त, दाह एवं रकविकार नाशक, स्तनों में दूध उत्पन्न करनेवाला, वात. कारक, कफजनक, संग्राही, मधुर और रूक्ष है। भिस्साण्ड के भी ये ही गुण हैं। पद्ममधु वा मकरंद अरविन्दाहृतः शीतो मकरन्दोऽतिहणः । त्रिदोष शमनः सर्वनेत्रामय निसूदनः ॥ (प्रा० सं०) कमल का मधु-शीतल, अत्यन्त वृंहण (पुष्टिकारक) त्रिदोषनाशक और सर्व प्रकार के नेत्र रोगों को दूर करनेवाला है। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमल अलग अलग कमल के गुण L सफेद कमलपुण्डरीकं हिम तिक्कं मधुरं पित्तनाशनम् । दाहघ्नमस्रशोषघ्नं पिपासा भ्रमनाशनम् ॥ ( ध० नि० ) सफेद कमल - शीतल, कड़ श्रा, मधुर, पित्तनाशक, दाह निवारक, रक्त विकार नाशक, शोषहारक और प्यास तथा भ्रमको दूर करनेवाला है । दाहाश्रमदोषघ्न पिपासा दोषनाशनम् ॥ ( रा० नि० १० व० ) राजनिघण्टु में श्रम निवारक यह अधिक लिखा है । श्वेतं तु कमलं शीतं स्वादु तिक्तः कषायकम् । मधुरं वर्णकृन्नत्र्यं रक्तदोष तृषाहरम् ॥ hi पित्तं श्रमं दातृशोर्थं व्रण ज्वरम् । सर्वविस्फोटकं चैव नाशयेदिति कीर्तितम् ॥ सफेद कमल - शीतल, स्वादु; तिक्र, कसेला, मधुर, वकारक, नेत्रों को हितकारी, रक्तविकार नाशक, और प्यास को बुझानेवाला है तथा यह . कफ, पित्त, श्रम, दाह, प्यास, सूजन, व्रण, ज्वर, सभी प्रकार के फोड़े-फुन्सी को नाश करता है । धवलं कमलं शीतं मधुरं कफपित्तजित् । तस्मादल्पगुणं किञ्चिदन्यद्रक्तोत्पलादिकम् ।। ( भा० पू० १ म० पु० व० ) सफेद कमल -- शीतल, मधुर, कफनाशक और पित्तनाशक है तथा लाल कमल आदि गुणों में इससे किंचित न्यून हैं । पुण्डरीकं स्वादु शीतं तिक्कं रक्तरुजापहम् । कफं दाहं श्रमं पित्तं नाशयेत्............ । ( द्रव्य गु० ) सफेद कमल - स्वादु, , शीतल, कड़ ुआ, रक्तविकार नाशक है और कफ, दाह, श्रम तथा पित्त इनका नाश करता है। लाल कमल पाके रक्तोत्पलं शीतं तिक्कं च मधुरं रसे । भिनन्ति पित्त संतापौ ध्वंसयत्यस्रजांरुजम् ॥ ( ध० नि० ) लाल कमल - पाक में शीतल, तिल और ५२ फा० कमल मधुररसविशिष्ट, पित्त और संताप को दूर करने वाला और रुधिर विकार को नष्ट करनेवाला है । कोकनदं कटुतिक्तमधुरं शिशिरं च रक्तदोषहरम्। पित्त कफवात शमनं संतर्पणकारणम् वृष्यम् ॥ ( रा० नि० १० व० ) लाल कमल चरपरा, कड़वा, मधुर, शीतल रुधिरविकारनाशक; वात, पित्त, कफ अर्थात् दोषश्रय को शमन करनेवाला, वीर्यवर्द्धक और तृप्तिजनक है। कोकनदमुक्तं मधुरं शीतं वयं कटुतिक्तकं । वृष्यं तृप्तेः करणं विस्फोटक रक्तदोषदाहहरं । तृट् कफपित्तविसर्प विष सन्ताप वातनाशकर म् (वै० निघ० ) लाल कमल - मधुर, शीतल, शरीर के रंग निखारनेवाला, कटु, तिक्र, वीर्यवर्द्धक, तृप्तिकारक और विस्फोटक ( फोड़े-फुन्सी), रुधिर दोष तथा दाह को दूर करनेवाला एवं तृष्णा, कफ, पित्त, विसर्प, विष, संताप और वायु का नाश करनेवाला है । (सुवर्णकमल = कोकनद ) पद्मं कषाय- मधुरं शीतपित्त-कफास्रजित् । ( राज० ५ व ० ) लाल कमल का फूल - कला और मधुर है। तथा कफ, शीतपित्त ( जुड़पित्ती ) श्रोर रुधिर विकार को दूर करनेवाला है । नीला कमल नीलाब्जं शीतलं स्वादुः सुगन्धि पित्तनाशनम् । रुच्यं रसायने श्रेष्ठं देहदाढ्यं च कैश्यदम् ॥ ( ध० नि०, रा० नि० ) नीला कमल - शीतल, स्वादु, सुगन्धि, पित्तनाशक, रुचिकारक, रसायन में श्रेष्ठ, देह को स्थिर करनेवाला और केशों के लिये हितकारी है । क्षुद्र उत्पलत्रय उत्पलस्य त्रयं स्वादुः कषाय पित्तजिद्धिमम् । ( ध० नि० ) तीनों प्रकार के क्षुद्रोत्पल मधुर, कसेला, शीतल और पित्तनाशक होते हैं। उत्पलादिरयं दाह रक्तपित्त प्रसादनः । पिपासादाह हृद्रोगच्छदिमूर्च्छा हरो गणः ॥ ( रा० नि० ) Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमल २१७० उत्पलादि का यह गया दाह, रक्त और पित्त इनका प्रसादक तथा प्यास, दाह, हृदय के रोग, वमन, मूर्च्छा-इनको नाश करनेवाला है। 1 कमल के वैद्यकीय व्यवहार चरक - ( 1 ) रक्तपित्त में उत्पलादि किञ्जल्कउत्पल, कुमुद और पद्म- केसर धारक और रक्तपित्त 'प्रशमक द्रव्यों में श्रेष्ठ है । यथा "उत्पल कुमुदपद्मकिञ्जल्कं संग्राहक रक्तपित्त प्रशमनानाम्” । (सू० २५ अ० ) ( २ ) रक्तपित्त में मृणाल – कमल की मोटी जड़ का स्वरस, कल्क, क्वाथ एवं शीतकषाय रक्त पित्त में हितकारी है । यथा"दुरालभापपेंट का मृणालम् एतेसमस्ता गणशः पृथग्वा । रक्तं स पित्तं शमयन्ति योगा : " । ( चि० ४ श्र० ) (३) मूत्रकृच्छ में कमल - कमल और उत्पल का काढ़ा मूत्रकृच्छ रोगी को पीना चाहिये । यथा "पिवेत् कषायं कमलोत्पलानाम्” । (चि० २६ अ० ) वाग्भट - रक्तार्श में पद्मकेसर-कमल केसर को चूर्ण करके चीनी और नवनीत के साथ सेवन करने से अर्शजात रक्तस्राव निवृत्त होता है । यथा "शर्कराम्भोज किञ्जल्क सहितं वा तिलैः सह । अभ्यस्तं रक्तगुदजान् नवनीतं नियच्छति ॥ ( चि०८ श्र० ) चक्रदत्त - गुदनिगम वा काँच निकलने पर कमलपत्र - कमल के कोमल पत्तों को चीनी के साथ सेवन करने से गुदनिर्गम ( काँचनिकलने का रोग) निश्चित रूप से प्रशमित होता है । यथा"कोमलं पद्मिनीपत्रं यः खातेच्छर्करान्वितम् । एतन्निश्चित्य निद्दिष्टं न तस्य गुदनिर्गमः " ॥ (क्षुद्ररोग - चि०) भावप्रकाश - (१) ज्वरातिसार में पद्मकेसर1. उत्पल, अनार का छिलका ( दाड़िमत्व ) एवं पद्मकेसर इनका चूर्ण बराबर बराबर मिलाकर कसल चावल के धोवन के साथ सेवन करने से श्रतिसा नष्ट होता है । यथा "उत्पलं दाड़िमत्वक् च पद्मकिञ्जल्कमेव च । पीतं तण्डुलतोयेन ज्वरातिसार नाशनम् " ॥ (म० खं० श्रतिसार - चि० ) ( २ ) शूकर दंष्ट्रोद्भूत ज्वर पर पद्ममूलशूकर दंष्ट्राघात जन्य ज्वर होने पर कमल की जड़ को पीसकर गोघृत के साथ सेवन करें। यथा"राजीव मूलकल्कः पीतोगव्येन सर्पिषाप्रातः । शमयति शूकर दंष्ट्रोद्भूतं ज्वरं घोरम्” ॥ (म० खं० ४ भा० ) हारीत - मुख प्रवृत्त रुधिर में पद्मकेसरमुख द्वारा रक्तस्राव होने पर पद्मकेसर को चीनी के साथ सेवन करना चाहिये । यथापद्मकिञ्जल्क चूर्णम्वा लिह्याद्वा सितया पुनः । मुखप्रवृत्तरुधिरं रुणद्धयाशु.........”। (चि० ११ अ० ) A (२) प्रस्राव रोध में पद्मकन्द — तिलतैल में भूने हुए पद्मकन्द को गोमूत्र में पीसकर पीने से मूत्ररोध निवृत्त होता है । यथा“तैलेन पद्मिनीकन्दं पक्कं गोमूत्र मिश्रितम् । पिवेन्मूत्रनिरोधे तु सतीव्र वेदनान्विते ॥ ( च० ३० अ० ) बसवराजी - अपस्मार में कमलकन्द - श्वेत कमल की जड़, श्वेतमदार की जड़ दोनों को कूटकर प्रदरख के रस में घृत मिलाकर पकाएँ । पुनः इसका नस्य लेने से मृगी रोग का नाश होता है। यथा— श्वेतार्क मूलं श्वेतकमलमूलं च घृतेन सह संकुत्र्यार्द्रक स्वरसेन विपाच्य नस्यं देयम् । ( बस. रा० ) वक्तव्य चरक ने प्रसव योनि पुष्पों के मध्य पद्मादि का उल्लेख किया है । पद्मबीज गर्भस्थापक है । अस्तु, चलितगर्भा नारी को इसका सेवन करना चाहिये । यूनानी मतानुसार गुण-दोष - प्रक्रांत - ( फूल ) सर्द और तर, ( केसर और मृणाल वा डंडी ) शीतल और रूक्ष, ( कच्चे Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमल २१७१ कमल कवज गट्टे की गिरी ) सर्द और तर तथा (पकेकवला को गिही) शीतल भोर रुक्ष, मींग के भीतर की हरी पत्ती वा जीभी शीतल और तर होती है । देगी (कमल भेद ) समशीतोष्ण वा मातदिल होती है। हानिका-गुरू एवं दीर्घपाकी । दपघ्न-शर्करा और शुद्ध मधु । . प्रतिनिधि-शर्वत श्रालु या प्रामले का मुरब्बा या आँवले का बीज । __ प्रधान कर्म-तृषाध्न, रक्त और पित्त को | उल्वणताको प्रशमक । मात्रा-३-४ माशे तक या अधिक । गुण कर्म प्रयोग-कमल का फूल पैत्तिक ज्वरों, कामला और उग्र पिपासा को लाभकारी है। इसका अर्क गुण में अर्क नोलोफर के समान होता है । इसका केसर पित्त की उल्वणता को मिटाता है । यह पेट में कब्ज पैदा करता और | बबासीर का खून रोकता है। गरमी के सिर दर्द : में कवल की डंडी का लेप उपकारी होता है। यह दीर्घपाकी और बल्य है। कमल केसर को मधु के साथ चटाने से गरमी मिटती है इसके बड़े बड़े पत्तों को विछाकर उस पर रोगीको सुलाने से ज्वर के कारण बढ़ी हुई गरमी और त्वग्दाह | एवं जलन मिटती है। इसके पत्तों का गाढ़ा दूधिया रस पिलाने से दस्त बंद होते हैं । कमल केसर, मुलतानी मिट्टी और मिश्री-इनको पनी के साथ पकाने से स्त्रियों का अतिरज रोग दूर होता है। मक्खन और मिश्री के साथ कमल केसर चटाने से रकाश मिटता है। कमल को छोटी पत्तियाँ काबिज़ हैं । कँवल के फूलों का शर्बत पिलाने से चेचक कम निकलती है। उन ज्वरों में जिनमें फोड़े-फुन्सो अधिक निकलते हैं. कमल का शर्बत पिलाने से बहुत उपकार होता है । अंशुधात जनित वा लू के ज्वर में इससे बहुत उपकार होता है। वंगदेशवासी नेत्ररोगों में रक्त कमल का अत्य धिक व्यवहार करते हैं । इसके नारी-तंतु-मादा केसर को कालीमिर्च के साथ पीसकर पिलाने और लगाने से साँप का ज़हर उतरता है। रगों और पुट्ठों की निर्वलता अपहरणार्थ कमल का सेवन करना चाहिये । कमल की डंडी और नागकेसर को पीसकर दूध के साथ पिलाने से दूसरे महीने में गर्भस्राव होने से रुक जाता है । इसके पत्तों को शर्करा के साथ पिलाने से गुदभ्रंश रोग आराम हो जाता है । पानी में इसको डालकर वह पानी पिलाने से गरमी मिटती है । सफ़ेद कमल का सर्वांग लेप करने से दाह श्रोर गरमी शांत होती है । कँवल और बड़ के पत्तों को जलाकर और तेल में मिलाकर लगाने से फैलनेवाले फोड़े (विसर्प) श्राराम होते हैं । देगी (कमल भेद) का स्वाद तीक्ष्ण होता है। उदरशूल, अतिसार और छर्दि निग्रहण के लिये यह परीक्षित है। इससे दिल तथा जान को प्रफुल्लता प्राप्त होती है। पद्मबीज वा कँवलगट्टा यह पित्त को उल्वणता को शांत करता और रक्तदोष एवं अंगदाह को लाभ पहुंचाता है। यह वायुकारक, कफजनक, गुरु, दीर्घपाको और संग्राही है तथा चेहरे का रंग निखारता, कुष्ठ को लाभ पहुँचाता, शरीरगत श्रावलों (विस्फोटादि) को मिटाता तथा गरमी के दिनों में शिशुओं को जो तृषा का रोग हो जाता है, उसे यह बहुत उपकार करता है। कँवलगट्टे को पानी में भिगोकर वह पानी पिलाते हैं । कवलगट्टे की गिरी के भीतर की हरी पत्ती वा ज़वान को घिसकर शिशुओं को देने से श्रातपाघात वा लू का असर जाता रहता है तथा अतिसार एवं पिपासा शांत होती है। कमलगट्टा वीर्य सांद्र कर्ता है और मुखपाक को लाभकारी है । कँवलगट्टे को भाग में सेंक कर छिलका उतार लेवें और गिरी के भीतर की हरी पत्ती को दूर कर देवें । उस सफ़ेद मांगी को पीसकर शहद में चटाने से वमन बंद होता है। इसको पानी में पीस छानकर शिशुओं को पिलाने से उन्हें पेशाब खूब भाता है। २॥ माशे कमलगट्टे की गिरी के चूर्ण में खाँड़ मिलाकर पानी के साथ फाँकने से चित्त प्रफुल्लित रहता है। इसको कथित कर पिलाने से पसीना पाकर ज्वर उतर जाता है। इसके काढ़े में शर्करा मिलाकर पिलाने से खूब स्वेद आता है। अंशुधात जनित ज्वर में इससे असीम उपकार होता है । इसके बीजों को पीसकर शहद मिलाकर दूध के साथ एक मास पर्यन्त सेवन करने से स्त्रियों के स्तन कठोर हो जाते हैं। कँवलगहों को Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७२ कमल पानी में भिगोकर वह पानी पिलाने से शिशुओं की पित्तज तृषा शांत होती है ।-ख० अ०। नव्य मत आर. एन. खोरी-पद्मबीज स्निग्ध और पुष्टिकर है। पुष्पकेसर और पुष्पदल शीतल,कषाय तिक एवं कफनिःसारक है। अर्श जात रकस्राव, रकप्रदर और अन्न द्वारा सरक्क प्रचुर द्रव मलनिर्गम प्रतीकारार्थ और कास रोग में इसके पुष्प का शर्बत व्यवहृत होता है। शिरः पीड़ा, विसर्प एवं त्वम्गत अन्यान्य प्रदाह को निवृत्ति के लिये कमल के फूल एवं कोमल पत्र, चंदन और आँवला इनको पीसकर प्रलेप करते हैं। तीव्र ज्वरात रोगी के शयनार्थ कमल-पत्र को बनी शय्या प्रशस्त होती है। मखान्नवत् पद्मबीज भी खाद्य रूप से व्यवहृत होता है। पद्ममूल अर्थात् शालूकजात श्वेतसार से अरारूट तुल्य एक प्रकार का खाद्य प्रस्तुत होता है । पद्मबीज अर्थात् कँवल ककड़ी का चूर्ण "भेसबोला" नाम से प्रसिद्ध है । भारतवर्षीय रमणीगण, प्रदर रोग में स्निग्धता-संपादक रूप से उक्त दोनों वस्तुओं का जो यहां शंघाई से बहुल परिमाण में अाती है, प्रचुर व्यवहार करती हैं। ( मेटीरिया मेडिका श्रान इंडिया, २ खं०, पृ. ३६) डीमक-पद्मबीज-कमलककड़ी और मखाना . खाद्य-द्रव्य रूप से काम में आते हैं । दुर्भिक्ष के समय कमल की जड़ ओर बिशि (Scapes) भी काम में आती हैं, पर ये कड़ई कुस्वादु होती है । ( फा० ई० १ भ० पृ० ७२) .. नादकर्णी-पद्मबीज स्निग्ध और पुष्टिकर होता है । पद्मकेसर ( Filament) और पुष्प शीतल, अवसादक (Sedative ), कषाय (Astringent), तिक, ह्वादक ( Refrigerant) और कफ निःसारक है। जड़ स्निग्धता संपादक है । पुष्प, केसर और पुष्प-दंड वा मृणाल स्वरस अतिसार, विसूचिका, यकृद्विकार और ज्वर में भी उपयोगी होते हैं। यह हृद्य भी : है। पित्तज ज्वरों में इसका मिश्र क्वाथ भी उपकारी होता है । पद्मपुष्पाहृत मधु को पद्ममधु वा मकरंद | कहते हैं । यह नेत्ररोगों में परमोपयोगी सिद्ध होता | है। कफ (Coughs), निर्हरणार्थ व रकाश रकप्रदर और प्रवाहिका गत रक्कनु ति को रोकने के लिए इसके फूलोंका शर्बत व्यवहार किया जाता है । सिर और आँखों को शीतलता प्रदान करने के लिये श्वेतकमलकंद को तिल तेल (Gingelly oil) में उबालकर उससे शिरोऽभ्यंग करते हैं । कंद के टुकड़ों की जगह, इसका निकाला हा स्वरस भी काम में प्राता है। जड़ पिच्छिल वा लुनाबी होती है और अर्श में दी जाती है । कुष्ठ एवं अन्यान्य त्वग् रोगों में इसके बीजों का प्रलेप करते हैं। कामेच्छा को कम करने के लिये इसके तथा मखाना के बीज खाद्य वस्तु की तरह व्यवहार किये जाते हैं। कालीमिर्च के साथ इसके स्त्री-केसर (Pistil) वाह्य और सर्प विषघ्न रूप से अन्तः प्रयोग होता है। रक्तार्श में शहद और ताजे मक्खन वा शर्करा के साथ कमलतंतु व्यवहार्य है । (भा०)। अतीव दाह युक्र तीव्र ज्वर में इसकी पत्ती अधिक विछावन की चादर की तरह काम में आती है। इस हेतु सफेद कमल के साथ पिसी हुई इसकी पत्ती के कल्क का स्थानिक प्रयोगभी होता है, शिरःशूल (Cephalalgia) में शीतल प्रलेप रूप से इसकी पत्ती की डाँडी को पीसकर सिर में लगाते हैं। चंदन और आँवले के साथ पिसा हुश्रा कमल का फूल शिरःशूल (Cephalalgia) में सिर तथा त्वचामें लगाने के लिये तथा विसपं( Erysipelas) एवं अन्यान्य वाह्य शोषों में शीतल प्रलेप का काम भी देता है। ई० मे० मे० पृ० ५६०-१। __कर्नल, वी० डी. वसु-छर्दि में इसके बीज काम में आते हैं और मूत्रल एवं शैत्यजनक ( Refrigerant) रूप से ये शिशुओं को सेवन कराये जाते हैं। पत्र एवं फज के डंठल का ढधिया पिच्छिल स्वरस अतिसार में प्रयोजित होता है। पँखड़ी किंचित् कषेली एवं संग्राही बतलाई जाती है। मसूरिका व शीतला (Smallpox ) में इसके पौधे का शर्बत शीतलतादायक रूप से व्यवहार किया जाता है और कहते हैं कि इसके प्रयोग से निकलते हुये मसूरिका के दाने रुक जाते हैं। सभी प्रकार के विस्फोटकीय ज्वरों में Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमल कमलगुरी भी इसका उपयोग होता है। दद् एवं अन्यान्य पदम काठ । पद्मकाष्ठ । (७) केसर। कुंकुम | त्वग् रोगों में इसका करक व्यवहृत होता है। (८) मूत्राशय । मसाना । मुतवर । (१) जल | -ई० मे० प्लां०। पानी । रा०नि० व०१४ । (१०) आँख का आर० एन० चोपड़ा एम० ए०, एम. डी. - कोया । डेला । (११) गर्भाशय का मुख वा मूत्रकारक एवं शैत्यकारक (Refrigera- अग्र भाग जो योनि के भीतर कमलाकार गाँठ की nt) रूप से ज्वर में कमल की जड़, डंठल, फूल तरह अंगूठे के अगले भाग के बराबर होता है। और पत्ती का शीतकषाय ( Infusion ) सेव्य जिसके ऊपर एक छेद होता है। फूल । धरन । है। -इं० डू. इं० पृष्ठ ५८७ । टणा ! (१२) पित्त का एक रोग जिसमें आँखें कमल का फूल शीतल, कषाय (Astring. पीली पड़ जाती हैं और पेशाब भी पीला पड़ ent) पित्त निहरण (Cholayogue) जाता है। कमला। काँवर । पीलू । और मूत्रकारक है तथा सर्प एवं वृश्चिक-दश मे - [पं०] कमीला । (२) लापपताको । सेव्य है। कमला। अन्य प्रयोग [मह०, कना०, को० ] कमल (१)। मुलेठी, लाल चन्दन, खस, सारिवा और | कमल-[१०] जूं । कमल के पत्ते-इनका काढ़ा बनाकर, उसमें मिली कमलअंडा-संज्ञा पुं॰ [सं० कमल+हिं० अण्डा ] और शहद मिलाकर पीने से गर्भिणी स्त्रियों का कवलगट्टा । ज्वर जाता रहता है। कमलक-संज्ञा पुं॰ [सं० नो०] कमल । कँवल । कसेरू, कमल और सिंघाड़े-इनको पानी के | | कमलकन्द-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कमल की जड़ । साथ पीसकर लुगदी वनालो और दूध प्रौटाकर भिस्सा । भसीड़ । मुरार । शालूक । वै० निघ० । दूध को छान लो। इस दूध के पीने से गर्भवती | दे. "कमल (१)"। सुखी होजाती है। कमल क़रीश-[१०] छोटे सनोवर के बीज । सिंघाड़ा, कमलकेशर, दाख, कसेरू, मुलहटी कमलक (का) कड़ी-[म.] कमलगट्टा। पद्मवीज । और मिश्री-इनको गाय के दूध में पीसकर पीने | कमल कणिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कमल का से गर्भस्राव बंद हो जाता है। छत्तो। कमल बीज कोष। वै० निघ० । दे. कमल-पत्र स्वरस । सेर में १ पाव हरीतकी | "कमल (१)"। भिगोकर शुष्क करलें । पुनः चूर्ण कर रखलें। कमल कीट-संज्ञा पु० [सं० पु.] एक प्रकार का मात्रा-१-६ मा० । इसके उपयोग से पुरा कीड़ा। वन विषम ज्वर का नाश होता है | कमलकेसर-संज्ञा पुं॰ [सं० पुं०, क्री०] कमल का कमल पुष का स्वरस ४ सेर उत्तम शर्करा १ | ___जीरा वा तुरी । पद्म किझल्क। वै० निध० । दे. सेर दोनोंको परस्पर मिलाकर चाशनी करके शर्बत ___"कमल (1)"। तैयार करें। कमलकोरक- ; संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] कमल की मात्रा-१-३ तो० । इसके उपयोग से गर्भ कमलकोष- कली । पद्म कलिका । स्राव, रक्क प्रदर, गदोद्वग और रक्त पित्त का नाश | कमलखण्ड-संज्ञा पुं० [सं० की.] पनसमूह । होता है। ___ कमलों का झुण्ड। संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (१) [ स्त्री. कमलगट्टा-संज्ञा पु. [ सं० कमल+हिं. गट्टा] । कमली ] एक प्रकार का मृग । मे० लत्रिक । (२) सारस । अम० । (३) ताँवा । ताम्र । (४) कमल का बीज । पद्मबीज । कमलाक्ष । कमल के आकार का एक मांस-पिंड । क्रोमा । | कमल गर्भ-संज्ञा पुं॰ [सं०] कमल का छत्ता। (५) औषध । भेषज | मे० लत्रिक । (६) | कमलगुरी-[4.] कवीला । कमीला.! Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमलच्छद २१७४ कमला कमलच्छद-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (१) कङ्क पक्षी । कांक । बूटीमार । बगला । (२) कमल का पत्ता । ... पद्म दल । कमलजीरा-संज्ञा पुं॰ [सं० कमल+हिं० जीरा ] | . कमल का जीरा । कमलकेसर । कमलतुज्ज़रअ-[अ० ] टिड्डी की तरह एक पक्षी । कमलतंतु-संज्ञा सं०] कमल की डाँड़ी। मृणाल । कमलनाल-संज्ञा पुं॰ [सं० क्री० ] कमल की डांड़ी जिसके ऊपर फूल रहता है। मृणाल । वै० निघ०। कमलनी-संज्ञा स्त्री० [सं०] कुई। नीलोफर । कुमुदनी । कमलफूल-[ मरा० वम्ब० ] नीलोफर । [पं०] कडु। कुटको । ( Gentiana Kurroo.) कमलबन्धु-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] सूरज । सूर्य । कमलबाई-संज्ञा स्त्री० [हिं० कमल+बाई ] एक मलबाय-संज्ञा पु. रोग जिसमें शरीर, विशेषकर • आँख पोली पड़ जाती है। कमलमूल-संज्ञा पुं० [सं०] कमल की जड़। भसोड़ । मुरार कमलबीज-संज्ञा पुं० [सं० क्ली० ] कमलगट्टा । भा०।कमलपण्ड-सं० पु. [सं० पु.] पनसमूड कमला-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० (1) वर स्त्री। सुदर स्त्री। मे लत्रिक । (२) एक प्रकार की बड़ी, मीठी नारंगी। संतरा । संगतरा, सरबतीलेबु (बं०) । तन्त्रसार के अनुसार एक प्रकार कानीबू । वस्तुतः यह एक प्रकार की बड़ी नारंगीहै । इसका वृक्ष देखनेमें सर्वतः नारङ्गी के पेड़की तरह मालूम होता है । भेद केवल यह है कि नारंगी के पेड़ से इसका पेड़ किंचित् छोटा होता है। इसके फूल अल्प सुगंधी होते हैं । पत्र कोमल और कम हरे होते हैं । कच्चा फल हरा और खट्टा होता है। पकने पर यह नारंगी की तरह और खटमिट्ठा हो जाता है । कोई-कोई अधिक मीठे, पुष्टि, सुगंधिपूर्ण एवं सुम्वादु होते हैं। किसी-किसी का छिलका पतला एवं चिकना और किसी का मोटा किन्तु नारंगी के छिलके की तरह कड़ा नहीं होता है।। नारंगी के छिलके से इसमें कड़वाहट भी कम होती है । और सुगंध आती है मोटे छिलकेवाले से पतला छिलकावाला उत्तम होता है। सिलहट का कमला अच्छा होता है। इतना मीठा और कहीं का नहीं होता। वहाँ इसके जंगल खड़े हैं। वि० दे० "सतरा" वा "नारंगी" । ___ पर्या-कौला, कौंला, कँवला, कमला -हिं कमला लेबू , सरबती लेबू-बं० । कमला, नारङ्ग, नागरङ्ग, सुरङ्ग, त्वग्गन्ध, त्वक् सुगंध, गन्धाढ्य गन्धपत्र, मुखप्रिय, -सं०। सुन्तला (नेपाली) संतरा -पं० । नारुङ्गो-गु० | नारिङ्गताल-बम्ब० सकूलिम्बा -मार० । नारिची-द.। किचिलि -ता । गञ्जनिम्म- कित्तबोइपये-कना० । माहुर नारना -मन। जेरूक (महिसुरी)। नारंज-० । नारंग -फ्रा | थऊबय -बर० । दोदङ्ग -सिंह०। गुणधर्म तथा प्रयोग प्रकृति-द्वितीय कक्षा में शीतल और तर । (मतांतर से द्वितीय कक्षा के प्रथमांरा में शीतल और अंतिमांश में तर है) __ हानिकर्ता-कास रोगीको और श्वासोच्छ वासावयव तथा कफ प्रकृति और शीतल प्रकृतिको । दर्पघ्न-नमक और खाँड । (शर्करा काली मिर्च और शुद्ध मधु)। प्रतिनिधि-मधुर पुष्ट ताजी नारंगी। मात्रा-श्रावश्यकतानुसार। गुण, कम, प्रयोग-गुणधर्म में यह संतरे की अपेक्षा किंचित् निर्बल होता है। इसलिए कि यह अधिक खट्टा होता है । किंतु नारङ्गी से कम खट्टा होता है । यह रन और पित्त जनित तीव्रता का उन्मूलन करता है, प्यास बुझाता, यकृत और श्रामाशयगत प्रदाह का निवारण करता, हृदय को प्रफुल्लित करता, खफकान को दूर करता, और मूत्रप्रवर्तन करता है। इसका छिलका श्रामाशय को बल प्रदान करता है । इसके लेप से ब्यंग वा झाँई का नाश होता है । समूचे कमला नीबू को एक जगह रखदें, जिसमें वह गलकर सूख जावे, पुनः इसे जल में पीसकर चना प्रमाण की गोलियां बाँधे । विसूचिका में जब अत्यन्त के और दस्त Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमलाई २१०५ आते हों, तब उसमें से पाँच से दस गोली तक खिलाने से बहुत उपकार होता है। बल्कि यह ज़हरमुहरा ख़ताई (वा खानिज विषघ्न श्रौषध) से कम नहीं होता । ( ख़० श्र० ) इसका छिलका तुरंज का प्रतिनिधि है । इसके फल का मुरब्बा सुगंधिपूर्ण और सुस्वादु होता है। इसके बीज तिर्याक्रियत में तुरंज के समान होते हैं (बु० मु०)। इसके छिलके का उबटन चेहरेके व्यंग और झाँई को मिटाता है । इसके बीज बहुश: विषों के प्रतिविष है और विसूचिका के लिए रामबाण है | म० मु० | प्रकृति - उष्ण तथा रुक्ष गुण, कर्म, प्रयोग - यह विषाक्त जंतु है । इसका दर्पन एरण्डतैल है । इसे मलने और पिलाने से विष नष्ट होता है । तज़किरतुल हिंद के संकलनकर्त्ता लिखते हैं कि मैंने उन कीड़े पर अनेक चीज़े डाली परंतु वह इनमें से किसी से नहीं मरा । परंतु जब उस पर रेंडी का तेल डाला तब उससे क्षण भर में यमपुर सिधारा । उस दिन से मैंने यह समझ लिया कि यही उसका दर्पदलन है । जिसको मैंने उक्त तैल का व्यवहार कराया, उसे लाभ हुधा । - ख० ० । (२) सफ़ेद रंग का एक लंबा कीड़ा जो अनाज वा सड़े फल श्रादि में पड़ जाता है | ला | ढोलट | संज्ञा पुं० [देश० कमीला | कमलाई -संज्ञा पुं० [सं० कमल-कमल के समान लाल ] मझोले डील डौल का एक पेड़ जो राजपूताने की पहाड़ियों और मध्य प्रान्त में होता है । जाड़े में इसकी पत्तियाँ झड़ जाती हैं । इसे मूल भी कहते हैं । संज्ञा पुं० [सं० की ० ] शिरः शूल उक्त नाम का लेप | में कमलिमी कमल । संज्ञा पुं० [सं० कंबल ] ( १ ) काले रंग का एक कीड़ा जिसके ऊपर रोएँ होते हैं। इसके |कमलाडाई - [ अं० Kamala dye ] कमीला । मनुष्यों के शरीर में लग जाने से खुजली होती है और शरीर सूज जाता है। यह बरसात में पैदा होता है । वेर के पेड़ पर यह बहुत होता है यह उन कीड़ों में से है जो बड़ा होने पर छोटेपन की अपेक्षा घट जाते हैं। अस्तु, यह दो-तिहाई के घाटा जाता है | झाँझाँ | सूँड़ी । प्रयुक्त कमला गुडि - [ बं०] कमीला । कमलाग्रजा - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] हल्दी । हरिद्रा | कमलादि लेप-संज्ञा पुं० [सं० पु ं०] कमल, और तुलसी की जड़ को पीसकर लेप करने से शिर की पीड़ा शान्त होती है । वृ० नि० २० शिरो शे० चि० । कमलानश - [ श्र० ] एक वनस्पति । ना० मु० । कमला-नि-माला - [ गु० ] गिलोय के टुकड़े काटकर बनाया हुआ हार जो कमलरोग में उपयोगी ख़्याल किया जाता है । कमलानिवास-संज्ञा पुं० [सं०] कमल का फूल । कमला नेबू - [ बं० कमलारंज - [ ता० ] संतरा । कमला लेबु - [ बं०] संतरा । मीठा नीबू । मिष्ट निंबू । कमलावन - [ रू०] काशम । संतरा । कमला नीबू । कमला विलास रस-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] उक्त नामका रसौषधयोग-लोहभस्म, अभ्रक भस्म, गंधक, पारद सोने की भस्म, और हीरे की भस्म समान भाग लेकर विकुवार के रस में घोट कर गोला बनालें । फिर उस गोले के ऊपर एरण्ड का पक्का पत्ता लपेट कर ढोरे से मज़बूत बाँध दें और अनाज के ढेर में दबायें । फिर ३ दिन पश्चात् निकाल कर महीन चूर्ण कर रख लें । गुण - इसे यथोचित मात्रानुसार शहद और त्रिफला के क्वाथ के साथ सेवन करने से वृद्धता और व्याधि का नाश होता है । और सुख की प्राप्ति होती है । यह सब प्रकार के प्रमेह, पाँच प्रकार की खाँसी, पाण्डु, हिचकी, घाव, कफ, वायु, हलीमक, नि मान्य, खुजली, कोद, विसर्प, विद्रधि, मुख रोग और अपस्मार आदि का नाश करता है। यह वैद्यों को यश देने वाला ओर सुख पूर्वक तैयार होने वाला रस है । २० २० स० । २६ श्र० । कमलाक्ष-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] कमल का बीज । कमलगट्टा | वै० निघ० छर्दि चि० वमनामृतयोग | कर्मालिनी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) कमल । (२) छोटा कमल । पद्मिनी । कमल का पेड़ | भावप्रकाश में इसे ठंडा, भारी, मधुर, नमकीन, Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमली २१७६ कमांज रियूस रूखा, रनपित्तनाशक, कफनाशक, वातकारक | कमाज़ रियूस-[यू०, रू० ] (Teucrium chaod और विष्टंभी लिखा है। भा० पू०१ भ० पुष्प व० । maediye, Linn. बलूतुल् अर्ज ( Wall इसकी पत्ती-शीतल, कसैली, मधुर, तीती, पाक Germander.) में अत्यंत कटुक, हलकी और ग्राहक है एवं वात- नोट-किसी-किसी के मत से कमार्जारयूस कारक, कफ और पित्त को नष्ट करनेवाली है। यूनानी माज़रियूस शब्द का मुअरिंब है । यहाँ पर ऐसा मुनियों ने कहा है । वै० निघ० । (३) वह यह भी स्मरण रहे कि जिन लोगों ने इसे मुडी तालाब जिसमें बहुत कमल हों। माना और लिखा है। उन्होंने भूल की है। कमली-[ नेपा० ] गोलक (कुमा०)। क्योंकि यह उससे सर्वथा भिन्न वस्तु है, जैसा कि कमलूल-[अ० ] कुनाबिरी। प्रागे के विवरण से स्पष्ट हो जावेगा। कमलोत्तर-संज्ञा पुं॰ [सं० क्री० ] बरे का फूल । विवरण-दीसकरीदूस के अनुसार यह एक प्रकार की घास है जो बालिश्त भर ऊँची, अत्यंत कुमुम का फूल । कुसुम्भपुष्प । हे० च ।। कडुवी एवं कुछ चरपरी होती है और जिसके पत्ते कमलो-संज्ञा पु० [सं० क्रमेल | यूः कमेल ] ऊँट । की श्राकृति और रंग बलूत के पत्ते जैसा होता है साँडिया । उष्ट्र।-डिं। बीज अनीसून के दानों से छोटे होते हैं । इन बीजों क्रमस-[१०] एक प्रकार का छोटा मच्छड़ वा मक्खी का स्वाद मीठा होता है। जड़ का रंग ललाई जो पानी पर खड़ी रहती है। लिए होता है । पुष्प का वर्ण नीला और काला कमसी-[?] टिड्डी। होता है । सावन मास के करीब पर्वती भूमि में क्रमह-[१०] गेहूं। उत्पन्न होती है उचित यह है कि इसे परिपक्क कमहदुब्ब:-[अ०] गुदी की हड्डी जो खोपड़ी की होजाने के उपरांत उखाड़ें और इसका ध्यान रखें पिछली तरफ़ स्थित है। (२) गुदी की हड्डी कि कहीं इसके पत्ते, फूल और बीज गिर न जायें । का उभार । मन्यास्थि-अर्बुद। यह तो हकीम दीसकरीदूसोक्त वर्णन है। External occipital eminence. ___ इसहाक़ बिन उमरान ने इसके वर्णन में कमः- अं०] जातज अंधत । सहजांध्य । (Born दीसकरीदूस से विरोध प्रदर्शित किया है। इनके blind. मत से यह एक उद्भिज है। जो रबी की फसल क्रमहः-[१०] चिरायता। में उत्पन्न होती है। इसके पत्र चोड़े, हरितवर्ण [मिश्र०] (१) जीरा । (२) चूर्ण । बुकनी | के और जंगली तुर्मुस के पत्तों की तरह होते हैं। सक्त । पौधा इसका भूमि पर अाच्छादित होता है। ऊँचा कमहार- संज्ञा पुं० [सं० कम्भारी ] गम्भारी । नहीं होता । बलूत के फल के बराबर इसकी जड़में कमहारी-संज्ञा स्त्री. खुमेर ।। एक गाँठ होती है । फूल रक्त वर्ण का होता है। कमक्षा (कामाक्षी) पुल्लु-[ ता०] रूसाघास | इसमें तिक आस्वाद होता है। जब भी ललाई भूतृण। लिए और कड़वी होती है। कमा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] शोभा । खूबसूरती । इब्न अबी खालिद अफरीकी ने किताब एतरा । माद में यह स्पष्ट लिखा है कि कमाज़रियूस एक [?] जावित्री। वनस्पति की जड़ है जो बलूत की तरह होती है। कमाई-[बं०] कलिया-करा । कंटी। (उड़ि०)। इसका स्वाद भी बलूत का सा होता है। कमाखा-[बर ] नीम | जालीनूस के अनुसार इसकी डालियाँ रेहान की डालियों की तरह और उनसे मोटी होती हैं कमाखेर-[बं०] Andropogon pardus, और रंग हरा होता है । पत्ते बलूत के पत्तों की Linn.) गंजिनी। तरह छोटे २ होते हैं । फूल और जड़ कड़वी और क (का) माच-[40] केबाँच । रक्त वर्ण की होती है। Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमाज रियूस २१७७ कमाज रिजूस किसी-किसी के मत से इसकी शाखाएँ और नासूर और घाव पाराम होता है आँख के कोये पत्र उशक वृक्ष के से हैं। । । के नासूर में इसको पीसकर भरना भी श्रेष्ठतर है। कज़ाफियुल मख़्ज़न में यह बात ऐसी अस्पष्ट इसके काढ़े में मधु मिलाकर कुछ दिन तक पीने है कि उसको मुहीत के लेखक ने छोड़ दिया है । से वक्ष और फुफ्फुसगत वेदना एवं उनकी सर्दी ' उत्तम वह कमाज़रियूस है. जो जंगली हो और मिटती है । यदि पेशी कुचलजाय, तो इसको पीस उसमें फल और बीज शेष हो । सात वर्ष पर्यन्त कर पीना और लगाना चाहिये । इसको पीसकर इसमें शक्ति रहती है। रखने और खाने से गर्भपात होजाता है। २८ प्रकृति-जालीदूस तृतीत कक्षा में उष्ण एवं तोले पानी में १४ माशे कमाज़रियूस को क्वथित रूक्ष बतलाते हैं। उनके मत से इसमें रूक्षता की करें। जब तृतीयांश शेष रहे, तब १०॥ माशे अपेक्षा उष्णता अधिक बलशालिनी होती है, जैतून तेल सम्मिलित कर पी लें । कुछ दिन इसी जिसका विवेचन इस प्रकार हो सकता है कि प्रकार करें। इससे वृक्क एवं वस्तिगत अश्मरी इसमें उष्णता इसकी तृतीय कक्षा के मध्य और टूट कर निकल जायेगी। कीट-पतंगो के काटे हुए रूक्षता तृतीय कक्षा के प्रथम में होगी। किसी स्थान पर इसका प्रलेप करने से बहुत लाभ किसी ने द्वितीय कक्षा में उष्ण और रूक्ष लिखा होता है। इससे मदिरा भी प्रस्तुत कीजाती है। है और गरमी को खुश्की से अपेक्षाकृत अधिक जिसकी विधि यह है-प्रति २८ तोले मदिरा में बताया है। और यह विवरण दिया है कि गरमी ७ माशे कमाज़रियूस डालते हैं या अंगूरों के प्रति द्वितीय कक्षा के अंत में है। २८ तोले स्वरस में ६ माशे कमाज़रियूस मिलाते हानिकतो-वस्ति, वृक्क और आंत्र को। हैं और निश्चित काल तक रखकर साफ़ करके दर्पघ्न-वस्ति के लिए बिही और शेष केलिए | काम में लाते हैं । यह जितनी पुरानी हो, उतनी कतीरा या सर्द-तर वस्तु । ही श्रेष्ठ है । इसमें से २८ तोले प्रति दिन पीने से प्रतिनिधि-सीसालियूस,कमानीतूस, ग़ाफिस लाभ होते हैं। इससे आक्षेप, अजीर्ण, प्रामाको जड़, उस्कूलूकंदयून, तुख्म हुम्माज बरी । शय विकार, यमन सुद्दी (Obstructive तुह्म शलाम बर्स और चतुर्थाश तज । jaundice ), गर्भाशयगत आध्मान और मात्रा-चूर्ण की मात्रा ६० माशे तक । काथ दोषों की विकृति ये विकार उपशमित होते हैं। में २ तोले तक। जलोदर के प्रारम्भ में इस मद्य का लाभ स्पष्ट प्रधान कर्म-मूत्रल रजः प्रवर्तक और प्लीहा ज्ञात होता है। कमाज़रियूस से तैल भी प्रस्तुत शोथ-हर है। करते हैं, जिसकी विधि यह है कि इसके ताजे अंगों का रस या शुष्क अंगों का काथ किसी तेल गुणधर्म तथा प्रयोग में सुखा लेते हैं या केवल ताजे फूलों से गुलरोग़न उक्त भेषज शरीर के आभ्यंतरिक अवयवों के की भाँति तैयार करते हैं । इस तेल की मालिश अवरोधों का उद्घाटन करता है । यह विलीनकर्ता से अंगों की सरदी और वायु को लाभ होता है। है और तरलता उत्पन्न करता है, शरीर में ऊष्मा नोट-'बु० मु०' और 'म० मु०' आदि तिब्बी की वृद्धि करता, सांद्र दोषों का छेदन करता और निघण्टुओं में भी इसके प्राय: उपरिलिखित गुणों पुरातन कास रोगों को मिटाता है । सिरके के साथ का ही कुछ फेर-फार के साथ उल्लेख मिलता है । यह यौन स्याह ( कृष्ण कामला) को नष्ट करता कमात-[१०] (१) खुमी का एक भेद। (२) है। सिरका और मद्य के साथ विवृद्ध प्लीहा को खुमी । फ्रितर। घटाता है। सिरके में पकाकर प्रलेप करने से भी | क्रमात-[१०] वह जगह जहाँ धूप न पहुँचती हो । प्लीहागत सूजन उतर जाती है। यह प्रार्तव और कमात-[१०] गाँती। मूत्र का प्रवर्तन करता है । इसकी वटिकाएँ प्रस्तुत कमाफीतूस-यू०] (1) कुकरौंधा । जंगली वा कर मच में घिसकर आँखों में आँजने से आँख का | दीवाली मूली । Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमाफी, तूस कमाफ़ी, तूस - संज्ञा | यू० ख़ामानीतुस यू० कामुत्र० ] कुकरौंदे की जाति का एक पौधा जो लगभग एक गज के ऊँचा होता है। इसकी पत्ती कलगी की तरह फूल छोटे और बीज करफ़स की तरह होते हैं | कुकरौंदा रूमी | करफ़्स रूमी । कुमाफ़ीतूस । २१७८ नोट- बुर्हान क्राति के अनुसार यह यूनानी भाषा का शब्द है और मुफ़रिदात हिंदी श्रादि में इसे यूनानी शब्द ख़मानीतुस का मुरिंब लिखा है । कमाफीतूस का धात्वर्थ सनोबरूलअर्ज़ पृथ्वी जात सनोबर है । कोई-कोई मुफ़र्रिशुल अर्ज़ अर्थ करते हैं । परन्तु गोलानी प्रथमोक्क श्रर्थ ठीक बतलाते हैं । वर्णन - कोई-कोई इसे 'कुकरोंधा' मानते हैं । परंतु इसराहल तिब के अनुसार यह 'हर्शन है, जिसके गोंद को कंकरज़ द कहते हैं। सांहब मिन्हाज के मत से यह तुख्म करसरूमी है । साहब कामिल इसे तरखून रूमी या कासनी रूमी बतलाते हैं। गीलानी कहते हैं कि इसके कई भेद हैं । इसकी एक जाति का वृक्ष वह है जिसमें काँड नहीं होता और न यह ऊँचा होता है। इसकी पत्ती और शाखें ज़मीन पर फैलती हैं। शाख़ै ललाई लिए और पत्तियाँ हयुत् आलम् सगीर की सी होती हैं, किंतु उनसे पतले होते हैं, उन पर माँ होता है और उनसे चिपकनेवाला द्रव स्त्रवित होता है । पत्ते मोटे होते हैं । स्वाद कड़वा और फीका एवं तीक्ष्ण होता है। इसमें सनोवर के पेड़ की सी सुगन्धि श्राती है। फूल महीन - और पीत-रक्त होता है। पीला कम मिलता है । जड़ करफ़्स की भाँति किंतु उससे छोटी और सफेद होती है । इसकी दूसरी जाति मादा कहलाती है। इसकी शाखें दीर्घं और एक हाथ लंबी और इज़खिर को तरह होती हैं। उनमें बहुत पतली पतली डालियाँ होती हैं । पत्ते और फूल प्रथम जाति की तरह 1 होते हैं। बीज काले होते हैं। इसमें सनोबर की सी सुगंध आती है। इसकी तीसरी जाति को नर कहते हैं । इसकी पेड़ी और शाखें खुरदरी और सफ़ेद होती हैं। शाखें पतली और पत्ते छोटे, बारीक और सफेद होते हैं, जिन पर रोंगटे होते कमाफ़ी. तूस हैं। फूल पीला और छोटा होता है और इसमें से तीनज की सी गंध श्राती है। उक्त दोनों जाति के कमानीतूस गुणधर्म में परस्पर समान हैं और प्रथम जाति से अपेक्षाकृत निर्बल हैं। इसमें ताजा जंगली उत्कृष्टतर है । किसी किसी के मत से बाग़ी तीक्ष्ण गंधी और श्रेष्ठतर है। इसी के पत्ते, फूल और बीज श्रौषध के काम आते हैं । प्रकृति — द्वितीय कक्षा में उष्ण और तृतीय में रूत है । कोई कोई तृतीय कक्षा में उष्ण और रूक्ष जानते हैं. दूसरों के मत से द्वितीय कक्षा में उष्ण और रूक्ष है । बजाअतुल इतिब्बो में लिखा है कि यह द्वितीय कक्षा में उष्ण और द्वितीय कक्षा के अंत में रूक्ष है । हानिकर्त्ता - - फुफ्फुस और गरम जिगर के लिये । दर्पन - प्रथम के लिये मधु और अनीसून और द्वितिय के लिये श्रू रूर । प्रतिनिधि - समभाग जदः श्रर्द्ध भाग सोसालियूस, चतुर्थांश तज । कोई कोई समभाग सोसालिस अर्द्ध भाग तज और समभाग श्रफ़ - संतीन, जीरा स्याह श्रर कमाज़रियूस बतलाते हैं । मात्रा - ४॥ माशे से १०॥ माशे तक । किसी किसी ने ७ माशे तक लिखा है । धर्म तथा प्रयोग | यह अवरोधोद्घाटक और संशोधनकर्त्ता है । उष्णता उत्पन्न करने की अपेक्षा यह श्राभ्यंतरिक अंगों को अधिक निर्मलता प्रदान करता है । इसमें विरेचन की शक्ति है। स्तन पर प्रलेप करने से उसकी सूजन उतरती है। नमला ( स्फोटक विशेष ) पर लगाएँ तो वह फैलता नहीं । सद्यः जात क्षतों पर लगाने से उनको पूरित करता है । गृधसी रोग के लिये कल्याण जनक है । वात तंतुओं का शोधन करता है। कूल्हे के दर्द और वातरक्त (निकरिस ) के दर्द लिये लाभदायक हैं। इसके लेप से भी उक्त लाभ होता है । मधुवारि ( माउलू अस्ल ) के साथ उसे वेदनाको. भी गुणदायक है । यकृत के अवरोध का उद्घाटन कर्त्ता है। प्लीहा के रोग और वातज कामला ( यक़ीन सौदावी ) को के । Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमार श्रतीव गुणकारी है । इसे लगातार सप्ताह पर्यन्त पीना चाहिये। यह गर्भाशयावरोध का उद्घाटन करता है, मूत्र ओर श्रार्त्तव का प्रवर्त्तन करता और वृक्कयूल का निवारण करता । इसकी वर्त्ति धारण करने से बच्चा गिर जाता है। रजः प्रवत्तन के लिये इसे मधु के साथ पीना चाहिये । सांद्र कफ को भली भाँति निकालता है । जलंधर, वायु और प को भी लाभकारी है । इसका काढ़ा विष प्रभाव को नष्ट करता है । ( ख० श्र० ) इसकी पत्तियों का रस पीने से कृष्ण कामला ( यक़ीन स्याह ) को लाभ होता है । रातियानज के साथ पीतद्रव का रेचक और गृध्रसी, पार्श्वशूल एवं निरेस के लिये गुणकारी है। जौ के आटे के साथ स्तन शोथ तथा अन्य स्थानों की सूजन का विलायक है | फ़रासियून इसी के बीज का नाम है । ( बु० मु० ) २१७६ क़मार - [अ० ] वह स्थान वा प्रदेश जहाँ से ऊद ( अगर ) लाया जाता है । क़मारन, क़मारून [ ? ] दरियाई वा जंगली सीपी । कमारी - संज्ञा स्त्री० एक प्रकार का सर्वोत्तम काला नगर । कमारू - [ संज्ञा ] मोमियाई । कमाल - [देश० ] कमीला । कमालय: [ यू० ] माज़रियून कमालयूनकमाला - [ लै० Kamala ] कमीला | कमालावन - [ यू० ] माज़रियून कमालिय:, कमा लियून - [ यू० ] माज़रियून | कमाह: - [ अ० ] खजूर का ख़ुशा वा गेहूं के ख़ुशा का ख़िलाफ़ । कमिता - वि० [सं० त्रि० कमितृ-कमिता ] कामुक । कामी । शहवती । मस्त । चाहनेवाला । कमिन कुर पिंडी - श्रज्ञात । कमिया - [पं०] कुमुदनी । नीलोफ़र । कमिय्यत - [ ० ) मिकदार वा परिमाण चाहे भार से हो अथवा माप वा गणना से हो। किसी वस्तु का परिमाण वा मिकदार जो नापी तौली वा गिनी जाय । (Zuantity, Zuantum) कमला गुड़ - [ बं०] कमीला । क़मी - [ ? ] बसफ्राइज | कमीला कमीज़ - [ फ्रा० ] पेशाब | मूत्र | संज्ञा स्त्री० [अ० प्रकार का कुर्ता । अस्पस्त । तर्फलि । कमीज़: - [ फ्रा० कमोत - [अ०] ( १ ) वह मद्य जो लाल और काला हो । ( २ ) एक प्रकार का घोड़ा जो काले और लाल रंग का होता है। कमीउ पुलई - [ ते० | अज्ञात क़मीदास - [ फ़िरं०] कमाज़रियून । कमानपुलई - [ ते० क | चाया । भुइ कहाँ । कुम्रापिंडी ( मरा० ) । ( Aerua lanata, Juss ) (का) मिना - [ बं० ] ( Murraya Exotica, ) Honey bush, Cosmetic box एकांगी । कोंटी | क़मीम - [ श्र० ] गोखरू का शीरा । क्रमीलः - [ शामी ] दोश । कमीला - संज्ञा पुं० [सं० कम्पिलः ] पर्या० क्रमीस, फ्रा० शेमीज़ ] एक To - कम्पिल्लः, कम्पिल्लकः, कम्पिर्श, कपिल्लकः, रक्ताङ्गः, रेची, रेचनकः, रञ्जनः, लोहिताङ्गः, रक्तचूर्णकः, कम्पील्लकः, रञ्जकः, कर्कशः, चन्द्रः, रोचनः, -सं० । कबीला, कमीला, कमूद, कमेला, कमला, कंबिला, कमाला, कपाल, -हिं । कमला गुरिड, पुनाग, तुङ्ग, किशर, कमेला, कमिला बं० क़बील, किंबील, श्रु० । कँबेला, फ्रा० । मैलोस फिलिप्यानेन्सिस Mallotus Phillippinensis ( Phillipiensis ) रॉट्लरा टिंक्टोरिया Rottlera tinctoria - ले० । ग्लैंड्युली रालरा Glandulce Rottlerce, राट्रलरा Rottlera, मंकी फेस ट्री Monkey face tree -अं० । कमेला - मावु, कबूली, कपीला - ता० । तैलङ्गी - कापिल-पोडि, कुकुमा । सिंगा०-हमपिरिल्ल, गेडिवेलबुवा | मराठी- कपीता, कमीला, शेंद्री । बम्बई - शेंद्री, कंपिल | कना० – कंपिल्लकं, वस्त्र, वसारे, चन्द्र-हितु । पं० कमल, कमीला । को० - कोमटी, श्रवध - रोहिनी । 1 परिचय ज्ञापिका संज्ञा - लघुपत्रक, लोहिताङ्ग रक्कफलः, बहुपुष्पः, बहुफलः । गुण प्रकाशिका संज्ञा-रञ्जनः रेची । Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमीला २१८० एरण्डव T ( N. O. Euphorbiaceae ) उत्पत्ति-स्थान- इसका पेड़ एशिया तथा श्राष्ट्रलिया के प्रायः सभी गरम प्रांतों में पाया जाता है । यह हिमालय के किनारे काश्मीर से लेकर नेपाल तक होता है । तथा बंगाल ( पुरी, सिंह भूमि ) ब्रह्मा, उड़ीसा, सिंगापुर, अन्डमान टापु युक्त प्रदेश ( गढ़वाल, कमाऊँ, नेपाल की तराई ) पंजाब (कांगड़ा) मध्यप्रदेश, सिंध से दक्षिण की श्रोर, बम्बई और सिलोन श्रादि प्रांतों में मिलता है । यह वीसोनिया में भी पाया जाता है। वर्णन एक छोटा सदाबहार पेड़ जिसके पत्ते गूलर के पत्तों के समान ३ से 8 इंच लंबे, श्ररुडाकार, नीदार, विवर्त्ती और लाल रङ्ग से भरे हुए होते हैं । पत्रवृन्त के सन्निकट दो अदाकार ग्रंथि होती हैं । वृक्ष मध्यमाकार का २५-३० फुट तक ऊँचा होता है । छाल चौथाई इंच मोटी खाकी रंग की फटी सी और भीतर से लाल दोख पड़ती है । कार्तिक से पूस तक फूल फल श्राते हैं और उष्ण काल में फल पकते हैं। फूल नन्हें २ मकोय के फूल 'के समान भूरापन युक्त लाल रंग के ( वा सफेद एवं पीले ) श्राते हैं । फल त्रिदल प्रकार र-बेर के समान और गुच्छों में लगते हैं । श्रारम्भ में ये हरे रंग के होते हैं। पर बाद को उन पर ललाई लिए चमकदार घनावृत रोम और - सूक्ष्म लाल रंग की ग्रन्थियाँ उत्पन्न होजाती हैं । जो देखने में लाल-लाल धूल सो जमी हुई प्रतीत • होती है । पत्र फल के गात्र पर जो यह रक्त वर्ण का क्षुद्र दानादार पदार्थ संचित होता है इसो लाल रज को कमीला कहते हैं । यह निर्गन्ध श्रोर स्वाद-हीन होता है ? कबीले के भेद और परीक्षा इसके केवल फल पर ही लाल रज नहीं लगी रहती, वरन् इसकी शाखाओंों में भी लाल रेणु लगी रहती है । भारतवर्ष के उत्तर-पश्चिमी प्रांतों, कोंकण, मद्रास एवं मध्यम प्रदेश के वणिक् गण वस्त्र का तरडुल का विनिमय कर पहाड़ी लोगों कमीला से कबीले का संग्रह करते हैं । इन्डो-चीन में प्रचुर परिमाण में इसका संग्रह किया जाता है और वहाँ से यह यूरोप को भेजा जाता है । संग्रहकारक व्यवसायी कबीले के वृक्ष से "कपीला" और "कपीली" इन दो वस्तुओं को प्रथक् २ निकाल लेते हैं। केवल फलों के ऊपर से झाड़कर और श्रालोड़ित कर जो रज निकाली जाती है, उसे "कपीली" कहते हैं । यह लाल रङ्ग की होती है । कपीली नाम का कबीला ही श्रेष्ठ होता है । फल से भिन्न वृक्ष के अन्य भाग-शाखादि से संगृहीत रज कबीले को ' कपीला" कहते हैं, जो पीलापन लिए लाल रंग का होता है । कपोली कपीले की पेक्षा अधिक गुणकारी एवं कपीला कपीली को अपेक्षा न्यून गुणवाली होती । बाजार में जो कबीला मिलता है उसमें प्रचुर मात्रा में धूल और बालू मिला होता है । उक्त कदर्य कबीले का व्यवहार निरापद एवं फलप्रद नहीं होता। कहते हैं कि सम्यक् विशुद्ध कबीले को प्राप्ति दुर्लभ है कारण प्रथम तो वृक्ष स्थित कम्पिल्लक-रज धूलि कणवाही वायु के संस्पर्श से दूषित हो जाती है। और पुनः व्यवसायी लोग भिगोकर उसे और दूषित कर देते हैं । कबीले की परीक्षा जल से भीगी हुई उँगली से कबीले को उठा कर सफेद कागज पर ज़ोर से लकीर खींचने या रगड़ने से यदि वह मसृण वर्त्ती रूप में परिणत होजाय, अथवा उस पर उज्ज्वल पीतवर्ण का निशान होजाय, तो शुद्ध एवं उत्कृष्ट अन्यथा मित्रित, अशुद्ध कबीला समझना चाहिये । बनिये लोग इसी प्रकार कबीले की परीक्षा करते हैं । गन्ज बादावर्द नामक ग्रन्थ में कबीले के शुद्धाशुद्धि होने की पहिचान इस प्रकार लिखी है । शुद्ध हलका होता है और उसकी सुर्खी में पिलाई को झलक होती है और यह स्वाद रहित होता है मिश्रित मिलावट युक्र, गुरु एवं श्रत्यन्त रक्त वर्ण का होता है । इसमें किञ्चिन्मात्र भी पिलाई नहीं होती । इसमें किसी न किसी प्रकार का स्वाद भी होता है। Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमीला २१८१ कमीला एतद्विषयक विविध मत____ कबीला बायविडङ्ग की रज का नाम है" यह कहना भ्रमात्मक है। कबीला के प्रांतरिक मलको वहां के वैद्य बायविडङ्ग की जगह व्यवहार में लाते हैं। क्योंकि इसके गुण प्रायः बायविडङ्ग के ही समान होते हैं । वस्तुतः बायविडङ्ग और कबीले के , वृक्ष एक नहीं अपितु ये सर्वथा दो भिन्न-भिन्न पौधे हैं। इतिहास भारतवर्ष में अति प्राचीन काल से रङ्ग के लिये कंपिल्ल का व्यवहार होता रहा है। हिन्दुस्तान के श्रादिम निवासी संभवतः इसको उसी प्रकार संगृहीत करते थे, जिस प्रकार यह अधुना संग्रह किया जाता है । हिन्दुस्तान में प्रायों के आगमन से पूर्व वे इसको "रुहिन" कहते थे। कंपिल्लक नाम से धन्वन्तरि एवं राजनिघंटु प्रादि प्राचीन निघंटु ग्रन्थ तथा चरक, सुश्रुत, भावप्रकाश और चक्रदत्त प्रभृति चिकित्सा-ग्रन्थों में इसके गुण प्रयोगोंका बारम्बार · उल्लेख हुआ है। भारतियों से अरब देश-वासियों को इसका ज्ञान हुआ और इनके द्वारा यूरोप में इस औषधि का सन्निवेश हुश्रा ओर लगभग ईसवी सन् की सप्तम शताब्दी में पश्चात् कालीन यूनानी चिकित्सकों को इसका ज्ञान हुा । पारव्य चिकित्सक इसको 'वस' या 'घरस' कहते थे और उनको दशम शताब्दी में इसके कृमिघ्न गुण का ज्ञान हुआ । खलीफा हारू-बलू-रशीद के प्रधान चिकित्सक इब्न मासूया इसे अतीव संकोचक तथा उत्कृष्ट कृमिघ्न बतलाते हैं और लिखते हैं कि इसे त्वगीय श्राद्र विस्फोटक (Eruptions) पर लगाने से वे सूख जाते हैं। इसके अतिरिक हकीम राजी, तमीमी, बग़दादी, इब्बसीना तथा अन्य दूसरे हकीमों ने भी इसका उल्लेख किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि इनकी प्रकृति के संबन्ध में इनमें से सभी को बहुत सन्देह हुआ है। मजनुल अदबिया नामक प्रसिद्ध पारस्य भाषा के यूनानी निघण्टकार हकीम मुहम्मद हुसेन महाशय को इसको पहिचान में सन्देह है। इन्होंने | इसका वर्णन ठीक नहीं लिखा है । परन्तु | तदुत्तर लीन मुहीत आजम नामक वृहत यूनानी निघण्ट के रचयिता हकीम आजम खाँ साहब ने इसका वर्णन तो ठोक लिखा है परन्तु . उन्होंने उसके बीजों को जो बायविडङ्ग लिखा है वह सर्वथा मिथ्या एव भ्रमकारक है। यूरोप में इसका प्रचार गत आठ वर्षों से हुआ है ऐसा चोपरा का मत है। रासायनिक संगठन कबीला ( Kamala) एक प्रकार का मनोहारी कुछ-कुछ बैंगनी लिये लाल वा इष्टिका रक वर्णीय निर्गन्ध स्वादरहित महीन दानेदार चूर्ण है. जो कबीला के फलों पर से झाड़ लिया जाता है। शीतल जल से यह अविलेय पोर खौलते पानी में केवल अंशतः विलेय है । परन्तु क्षार सुरा. सार एव ईथर में यह पूर्ण स्वच्छन्दतया दिलेय होता है और इससे गम्भीर रक्त वर्णीय विलयन प्राप्त होता है। ___ एक धूसराम रक-वर्णीय राल ( Resin )जो राहलरिन ( Rottlerin) C33 H3009 नामक एक स्फटिकोय पदार्थ से संगठित • होता है, इसका प्रधान उपादान है। यह रक्काम पोत-वर्ण के पत्राकार परत ( Laminar pla tes) के रूप में पाया जाता है, जो ईथर में तत्क्षण विलीन हो जाता है। इसके अतिरिक्त इसमें एक प्राइसो-राट्टलरिन (Iso-rottlerin) नामक अन्य पदार्थ होता है जो संभवतः अशुद्ध रट्टलरिन ( Bottlerin ) ही है। इसमें एक प्रकार का पीत स्फटिकीय द्रव्य, एक पीत और रक वर्ण का राल एवं मोम ( wax) भी पाया जाता है। इसमें उड़नशील तैल, श्वेतक्षार, शर्करा, कषायिन ( Tunnia) चुक्राम्ल (Oxalic acid ) और निंबुकाम्ल (Citric acid) श्रादि द्रव्य चिन्ह मात्र पाये जाते हैं । (भार० एन० चोपरा ) इ० डू० इ० औषधार्थ व्यवहार'कम्पिल्लकः फलरजः।। (सुअत सूत्र ३६ १०) सुतोक्न उक वाक्य से कम्पिलक फल-रज (The glands phairs from Caps. Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमीला २१८२ ules) का औषधार्थ व्यवहार होना सिद्ध | होता है। मात्रा-१ तोला तक । ३० से ५० ग्रेन तक चूर्ण रूप में। औषधि निमोण-त्रिफलाद्य घृत । (बं० से. सं०) चूर्ण, लेपादि। गुण धर्म तथा प्रयोगआयुर्वेदीय मतानुसारकम्पिल्लको विरेची स्यात्कटूष्णो व्रणनाशनः । गुल्मोदर विवन्धाध्म श्लेष्मकृमि विनाशनः ।। ग्रन्थान्तरेपितव्रणाध्मान विवन्ध निघ्नः । श्लेष्मोदराति कृमिगुल्मवैरी॥ शूलामशोथ (मूलामशोथ ) व्रणगुल्महारी।। कम्पिल्लको रेच्य गदापहारी ॥ ध० नि० ३ व०) . अर्थात्-कबीला-कम्पिल्लक कश्रा, दस्तावर गरम और कफनाशक है तथा यह व्रण, गुल्म, मलावष्टम्भ-अफारा, प्राध्मान और कृमि का नाश करता है मतान्तर से यह पित्त और कफ नाशक एवं दस्तावर है तथा व्रण, श्राध्मानअफारा, मलावरोध, उदर रोग, गुल्म- कृमि-रोग शूल, आँव और सूजन के रोगों को नष्ट करता है। कम्पिल्लको विरेचीस्यात् कटूष्णोतणनाशनः । कफ कासातिहारी च जन्तु कृमिहरो लघुः ॥ (रा० नि० १३ व०) अर्थात्-कमीला-हलका, चरपरा, गरम, कफ नाशक और दस्तावर है तथा यह व्रण, कास; जंतु और कृमि का नाश करता है। काम्पिल्लः कफपित्ताम्र कृमिगुल्मोदर व्रणान् । हन्ति रेची कटूष्णश्च मेहाऽऽनाहविषाश्मनुत् ॥ (भा० पू० ख०मि. १०६) अर्थात्-कबीला-रन-पित्त, कृमि, गुल्म, उदर रोग, और व्रण (घाव ) को दूर करता है। तथा यह रेचक, दस्तावर, कटु रसयुक्र और उष्ण वीर्य है। एवं प्रमेह पानाह, विष तथा पथरी को | नष्ट करनेवाला है। कमीला कम्पिल्लकः सरश्चाग्निदीपकः कटुकः स्मृतः। " व्रणस्य रोपणश्चोष्णो लघुर्भेदी कफापहाः। व्रण गुल्मोदराध्मान कास पित्तप्रमेहहा। आनाहं च विषं चैव मूत्राश्मरिरुजापहा ।। कृमि च रक्तदोषं च नाशयदिति कीर्तितः। तच्छाकं शीतलं तिक्तं वातलं ग्राहि दीपनम् ॥ (वृहन्निघण्टु रत्नाकर) अर्थात्-कबीला-सारक, अग्निदीपक, चरपरा व्रण को भरनेवाला, गरम, हलका, दस्तावर, कफ नाशक तथा व्रण, गुल्म. उदर रोग, प्राध्मान, खाँसी, पित्तप्रमेह, पानाह विष, मूत्राश्मरी कृमि, और रक्तविकार का नाश करता है। इसके पत्तों का शाक ठण्डा, कडुवा, वातकारक, ग्राही और दीपन है वैद्यक में कबीले का व्यवहार चरक-गुल्म में कम्पिल्लफ-गुल्म रोगीको विरे चनार्थ कबीले को मधु के साथ प्राजोड़ित कर सेवन करायें। यथालिह्यात् कपिल्लकम्वापिविरेकार्थ मधुद्रवम् । (चि०१०) व्रणरोपणार्थ कम्पिल्लक-कबीले के साथ पकाया हुआ तैल •ष्ठ व्रणरोपक है। यथा"तैलं कम्पिल्लकेन वा,प्रधानं व्रणरोपणम् " (चि० १३० भावप्रकाश-कृमि में कम्पिल्लक-एक तोला कबीला गुड़ के साथ सेवन करने से उदरस्थ कृमि अवश्य नष्ट होते हैं । यथा कम्पिल्ल चूर्ण कर्षाद्धं गुड़ेन सह भाक्षतम् । पातयेत्तु कृमीन् सर्बानुदरस्थान संशयः ॥" (कृमि०चिः) वक्तव्यचरक के कृमिघ्न-वर्ग में कम्पिल्लक का पाठ नहीं आया है। चक्रदत्त में कृमि-रोग में कमीले का व्यवहार हुआ है। यूनाना मतानुसारप्रकृति-द्वितीय वा तृतीय कक्षा में उष्ण और रूक्ष । राज़ी और मसीह ने शीतल और रूक्ष लिखा है। Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमला २१८३ हानिकर्त्ता - आमाशयिक द्वार तथा श्रांत्र को । दपेन - श्रामाशयिक द्वार के लिये मस्तंगी और अनी तथा श्रतों के लिये कतीरा एवं शीह श्रर्मनी । प्रतिनिधि - वायबिडंग, तुर्मुस तथा सक बीज | स्वाद - तिक एवं बदमज़ा | मात्रा - ३ ॥ माशा से ७ माशे तक। मतांतर से ४ माशे से ६ माशे तक । गुण, क्रम, प्रयोग ३ ॥ माशे से ७ माशे की मात्रा में कबीले को उपयुक्त औषध के साथ सेवन करने से यह श्रामाशय एवं श्राँतों से हर प्रकार का मवाद निःसारित करता है । यह चेपदार रत्वतों एवं विकृत दोषों का भी मल-मार्ग द्वारा उत्सर्ग करता है । यह हरुवा - इ मदनी के लिए गुणकारी है। विशेषत: इसका माजून नारू को उत्पन्न होने से रोकता है । माजून की विधि इस प्रकार हैमाजून - विधि (१) काबुली हरड़, बहेडा, श्रामला, निसोथ सोंठ, कबीला, इन ६ चीजों को बराबर २ लेकर कूट छान कर चूर्ण करलें । पुनः इससे तिगुनी शर्करा लेकर यथाविधि माजून प्रस्तुत करें। मात्रा - ७ माशे । गुण-हकीमों के अनुसार यह बीस दिन में उक्त व्याधि विकार का उन्मूलन करता है । कर्कट रोग के लिए यह परीक्षित है । (२) प्रथम श्राधसेर तिल-तैल को श्रग्नि पर गरम करें, फिर इसे उतार कर शीतल होने दें । ठण्डा होजाने पर उसमें एक छटाँक कवीला डालकर भली-भाँति मिलाकर कर्कट पर लगा दें। (३) कबीले के श्रवचूर्णन से चतस्थ निता का नाश होता है । ( ४ ) गुलरोगन के साथ इसे लगाने से दव खजू, कण्डू और फुन्सी आदि को लाभ होता है। (५) धौतघृत के साथ इसका लेप करने से शिरोजात गंज रोग श्राराम होता है । (६) कबीले के लेप से रण होता है। कमीला रोगों का निवा स्वगू ( ७ ) इसके पिलाने से कुष्ठरोग आराम होता है । इससे पाचन शक्ति की निर्बलता, ज्वर, बादी के रोग तथा यकृत और फुफ्फुस शूल का निवारण होता है । (८) ८ माशे से १ तोला तक कबीला पीसकर शहद मिलाकर चटाने से कद्दूढ़ाने मर जाते हैं । इसकी ८ माशा को मात्रा से विरेक श्राने लगते हैं । और तीसरे या चौथे विरेक में कृमि मर 1 कर बाहर आ जाते हैं । ( ६ ) इसको तेल वा पानी में पीसकर लगाने से शरीर की त्वचा पर शीतल एवं रूक्ष वायु का प्रभाव नहीं होता | (१०) कबीला आठ माशा और हींग एक माशा, इनको दही के तोड़ में पीसकर चने प्रमाण गोलियाँ प्रस्तुत करें । इसमें से १-२ गोली गरम पानी के साथ देने से पार्श्व-शूल - ज्ञातुल जम्ब मिटता है और उदरस्थ कृमि रोग का निवारण होता है। इसको तिल- तैल में पीसकर लगाने से की टांकियाँ मिटती हैं । ( ११ ) इसको समान भाग कडुवे तेल में खरल कर उसमें फाहा तर करके बांधने से व्रण शेपण होता है । ( १२ ) छः माशा कबीला गुड़ में मिला गोली बनाकर देने से उदरस्थ समग्र कृमि बाहर निःस्सारित होजाते हैं । (१३) कबीले का चूर्ण मधु मिला चटाने से पित्त एवं वायगोला का नाश होता है । परन्तु इसके सेवन कराने के प्रथम दिन उसे थोड़ा घी पिलाना चाहिये । इसके बीजों से तैल निकाला जाता है । इसके वृक्ष के ताजे पत्ते शीतल एवं काबिज हैं । ख० अ० । यह रेशम रंगने के काम में आता है । कमीला फोड़े, फुन्सी की मरहमों में भी पड़ता है । यह खाने में गरम और दस्तावर होता है । यह विषैला होता है। इससे ६ रत्ती से अधिक नहीं दिया जाता । - हिं० श० सा० । Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमीला २१८४ नव्य मतानुसार यह कृमिघ्न एवं विरेचक है । मात्रा - ३० से २० ग्रेन (२ से८ ग्राम ) वाह्य रूप से कबीले को दाद और तर ख़ाज श्रादि पर लगाते हैं पर इसको अधिकतर टीनी साइड (कद्दूदानाहर ) रूप से व्यवहार करते हैं। इसके उपयोग की विधि यह है इसके चूर्ण को साधारणतः लुनात्र शीरा या शर्बत में मिलाकर वर्त्त ते हैं। इससे पूर्व और श्रावश्यकता होने पर बाद को भी एक विरेचन देना चाहिए, जैसे कि अन्य कृमिघ्न श्रौषध सेवन के समय दिया जाता है । प्रयोग कमीला ( कबीला ) म्यूसिगो गान्धी सिरूयस जिजबरिस एकाफिलाई ऐसी एक मात्रा श्रौषध रात को पिलादें और श्रागामी प्रातः बेला में वा ब्लैक ड्राफ्ट का विरेचन दें । खोरी - कमीला विरेचन और कृमिघ्न है । गुड़ के साथ सेवन करने से श्रन्त्रस्थ सूत्रवत् कृमि निःसारित करता है । विरेचनार्थ कबीला सेवन करने से विवमिषा उपस्थित होती है, परन्तु वमन नहीं होता । यह पित्त का श्रधः प्रवर्तन करता एवं शूलवत् वेदना को शमन करता है। कबीले का प्रलेप दद्रु प्रभृति विविध चर्म रोगों का नाशक है । - मे० मे० इं० २य खण्ड ५५० पृ० । आर. एन० चोपरा - औषधीय क्रिया ३० प्रेन ४ ड्राम १ ड्राम ॥ श्रस सोते समय एरण्ड तैल डा० सेम्पर Semper (I910) ने कृमियों -मेकियों ( Tadpoles ) और मंडूकों पर इस औषधि की क्रिया का परीक्षण किया और उन्होंने उक्त जंतुओं पर इसका स्पष्टतया विषाक्त प्रभाव होते पाया । इसके द्वारा उत्पादित लक्षण यद्यपि अपेक्षाकृत मृदुल स्वभाव के थे, तथापि वे मेल फर्न ( Male fern) द्वारा उत्पन्न लक्षण के सर्वथा समान थे। इसका पक्षाघातकारी (Paralysing ) प्रभाव अत्यन्त व्यक्त था, कमीला यह श्रामाशय पथ को प्रदाहित करता है, श्रौर श्रौषधीय—वयष्क मात्रा में देने पर भी अत्यन्त विवमिषा उत्पन्न करता तथा श्रांत्रस्थ कृमिवत् गति की वृद्धि करता है । अस्तु, यह श्रेष्ठ तीव्र रेचन का कार्य करता है । कुत्तों पर प्रयोग करनेसे यह प्रगट होता है कि यह श्रामाशयांत्र- पथ से अति न्यून अभिशोषित होता है । आमयिक प्रयोग - गंडूपद एवं सूत्रवत् कृमियों के निवारणार्थ इस औषधि का उपयोग होता है और पथ्य वा किसी अन्य प्राथमिक तैयारी के बिना इसका साधारणतया उपयोग किया जाता है सेवन से पूर्व इसके चूर्ण को दुग्ध, दधि वा मधु मिश्रित कर लेते हैं अथवा इसे किसी सुवासित जल में हल कर लेते हैं। दो से तीन ड्राम की मात्रा में इससे विवमिषा एवं उद्व ेष्टन (Griping) होना संभव है और इससे खुलकर विरेक श्राजाते हैं जिससे पश्चात् को पुनः किसी बिरेचनौषध देने की आवश्यकता नहीं होती । यद्यपि पूर्वकालीन श्रन्वेषकों ने इसके उत्कृष्ट कृमिहर होने का दावा किया है, पर केइयस श्रौर और महेसकर (१९२३) ने रूद धान्यांकुरा कार कृमि ( Hook worms ) गण्डूपदाकार वा वल कृमि ( Round worms ) और कशाकृमि (Whip worms) उक्त तीनों प्रकार के कृमि पीड़ित बहुसंख्यक रोगियों पर इसके प्रयोग किये। परन्तु उक्त रोगियों में यह निरर्थक सिद्ध हुआ। कहते हैं कि उत्तम कबीले का चूर्ण कद्दूदाना फीताकार कृमियों पर उत्कृष्ट प्रभाव करता है । ( कद्दूदाना, स्फीताकार कृमि के चित्र और उनका उपचार परीक्षित-प्रयोग' स्तम्भ में देखें ) पथ्य एवं विरेचनादि का पूर्व प्रबन्ध करने के उपरांत सेवन कर उसका प्रभाव तीव्रतर किया जा सकता है जैसा मेल- फर्म के सेवन-काल में किया जाता है । यह मृदु श्रौषध है और शिशु एव निर्बल व्यक्तियों को जिन्हें एक्ट्र क्ट मास उपयोगी नहीं होता, इसका व्यवहार कराया जाता है । - ई० ० इं० । नादकर्णी- - यह तीव्र रेचन, कृमिघ्न, वृध्य 'श्रोर अश्मरीधन है। पूर्ण मात्रा में यह उग्र रेचन और इससे विवमिषा एवं मरोड़ होती है । Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमीशः २१८५ कमेटी कबीले का चूर्ण नागरग-धूसर रङ्ग मुख्यतः कमुकमु-ता० ) सुपारी क्रमुक । रेशम रङ्गने के काम आता है । स्फीतकृमि कमुगु- ता०] सुपारी | पुगीफल । गुवाक । ( Taemia ) और अन्धाकार कृमियों | कमुदनी-संज्ञा स्त्री० दे. "कमोदनी"। (Tape worm) की यह प्रख्यात औषध है। कमुल-म० ] कमल। इसकी वयस्कोपयोगी मात्रा लगभग दो ड्राम तक कमूजूलौजा-[सिरि०] बादाम की गोंद । है और इसे लुभाब शर्बत, मधु, मण्ड (Gruel) कमूद-संज्ञा पुं॰ [?] कमीला । वा किंचित् सुवासित जल में अबलम्बित कर | कमूदन-[ ? | रोबियाँ । झींगा मछली। व्यवहार करते हैं। मूदनी-[ ? ] ( Menyanthes Indica कमीले का चूर्ण १५ ग्रेन ___ Indian Buck-bean ) बड़ी चौलाई । हँगाकन्थ का लुभाव ४ ड्राम | कमूदी-[?] नीलोफ़र । कमोदनी। अद्रक शर्बत १ ड्राम कमून-संज्ञा पुं० [अ० पु.] जीरा । अजाजी। लवडार्क १॥ औंस जीरक। इन्हें मिलाकर रात्रि-पेय रूप में भी व्यवहार | कमूनी-वि० [अ० प्रा० कमून जीरा ] जीरा संबन्धी। किया जा सकता है। ___जीरे का। जिसमें जीरा मिला हो। वह कहते हैं कि यह सभी सर्व जातीय उदर- | संज्ञा स्त्री० [अ० फा०] एक यूनानी दवा कृमियों एवं सूत्रवत् कृमियों को भी निःसरित | (जवारिश ) जिसका प्रधान भाग जीरा है। करता है। प्रवाहीसार रूप में भी इसका व्यवहार | कमूनी, कमूही-संज्ञा स्त्री०1 ] मकोय । किया जा सकता है । मुख द्वारा व्यवहार करने से | कमूनी शानीज-फा०] काला जीरा । कहते हैं कि यह कुष्ठजनित विस्फोटकों का निवा- कमूनेअखजूर-[अ०] जीरा शामी । जीरा नन्ती। रण करता है । त्वग-रोगों में इसका बहिर प्रयोग हरा जीरा। भी किया गया है . कमीले को अठगुने मोठे तैल में | | कमूने अरमनी-[१०] करोया । करावियः । कृष्णमिलाकर दद्रु, छोप और झांई पर लगाने की जीरक । स्याह जीरा । जीरा विलायती। उत्कृष्ट औषध प्रस्तुत होती है। अमूने अस्फ़र-[अ०] जोरा कारसो । जोरा ज़र्द । ई० मे० मे० | कमूने अस्वद-[अ.] जोरा स्याह। जोरा किरमानो । सन् १३२३ ई० में कायस और म्हस्कर ने | कमूने किरमानी-[१०] स्याह जीरा । इसकी परीक्षा की, पर उनकी दृष्टि से यह औषधी | कमूने नब्ती-[अ] सफ़ेद जीरा । कृमि नाश करने में विलकुल रुिपयोगी सिद्ध हई। जर्द जीरा । पोला जोरा । क्रमीशः-१०] इन्द्रायन का बीज । तुम हंजल । अजवाइन । नानखाह ।। कमीश-(तु.] चाँदी । कमूने रूमी-[अ०] कराविया । विलायतो जोरा । ' कमीस-[१] टिड्डी। कमूने शामो-[३०] जीरा सब्ज । [अ॰ स्त्री०] (१) एक प्रकार का कुर्ता । | कमूने सहराई-अ.] काली जीरी । कमीज़ । (२) हृदावरण । दिल का शिलान। | कमूनेहब्शी-अ.] स्याह जंगलो जीरा । कमीस-संज्ञा स्त्री० [अ० कमीस ] दे॰ “कमीज़"। कमीसु लमजानीन- अ० ] पागलों की कमीज़ । कमूनहलो-[१०] अनीसून । किरमानो जीरा । दीवानों का कुर्ता । पागलों का सीधा और ढीला कमूने हिंदी-[अ] कलौंजी । शोनीज़ । gat ( Straight gacket ) कमूल-संज्ञा पु० दे० "कमलाई"। क्रमीह:-[१०] (१) चूर्ण बुकनी । (२) क़मूलिया-[ ! ]क्रीमूलिया । जवारिश। कमेट्टी-मल० ] (excaecaria agallocha, कमीह :-[सिरि०] गोंद । बादाम । Linn) गंगवा । गेरिया। ५४ फा. Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमेडी २२८६ कम्पित कमेड़ी-संज्ञा स्त्री० कुमरी । कपोतिका । फागुन का महीना । रा०नि० २०११। (३) कमेला-संज्ञा पुं० [ देश० बं०] कमोला । एक प्रकार के सनिपात ज्वरका नाम जिसमें कफकी कमेलीमावु-[ ता० ] कमीला । उल्वणता होती है। यथाकमैल-गु० ] कमीला। कफोल्वणस्य लिङ्गानि सन्निपातस्य लक्षयेत्। कमैला-मावु- ता. ] कमीला। मुनिभिः सन्निपातो ऽयमुक्तः कम्पन संज्ञकः । कमोउ-एकि-बर०] निर्मली । कतक । कम्पमान्-वि० दे० "कम्पायमान" । कमोद-संज्ञा पु० [सं०] नीलोफर । छोटा कमल । कम्पलक-संज्ञा पु. [ सं० कम्पिल्लक ] रोचनी । __ कमीला । कमोदन-संज्ञा स्त्री० दे० "कुमुदिनी"। ? | कम्पलक्ष्मा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] वायु । कमोदनी-संज्ञा स्त्री० दे० "कुमुदिनी"। श००। कमोदपुष्प-संज्ञा पुं॰ [सं० की.] एक प्रकार का | कम्पवात-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.], एक प्रकार का फूल जो जल में होता है। कम्पवायु-संज्ञा [सं० पु.] ) वायु का रोग। कमोदिन(नी)-संज्ञा स्री० दे० "कुमुदिनी' । कम्पवात। कमोही-[सिं०] (phy llanfhus reticu- लक्षण-"करपादतले कम्पो देह भ्रमण दुःखिते ____latus,Pair ) पानजोली । पानकूशि । निद्रा भङ्गो मति क्षीणा कम्पवातस्यलक्षणम् ।" कमोही-जो-चोदो-[ ] पानजोली। इसमें विजय भैरव रस से उत्तम लाभ होता है। कमोही-जो-पुन-[ ] पानजोली। कम्पत्रातहारस-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] शुद्ध पारद कमौअलीचेट्ट-ते. ] शहतूत। ५ पल, ताम्र चूर्ण १ पल, इन्हें जम्भोरी के रस कमः-[१०] क़ज़ह। में खरल कर पिष्टो बनाएँ पुनः पान के रस में कम्क-[?] एक पक्षी । बहरी। पल शुद्ध गन्धक घोटका पिष्टी पर लेप चढ़ाएँ। सुखाकर संपुट में रख गजपुट ओर भूधर यंत्र में कम्कम-[१०] बोलने में गले के परले सिरे से पाँच पहर पचाएं। शोतल होने पर निकालें । आवाज़ निकलना। क्रमकाम-[१०] एक प्रकार का छोटा जूं जिसके पुनः इसमें बराबर भाग त्रिकुटा का चूर्ण मिला पीसकर रक्खें। बहुत से पैर होते हैं । चमजू। जमजूं। चारपायक। कम्काम-[फा०, अ०, क़ब्ती ] ज़रू के पेड़ को गोंद मात्रा-१-६ रत्ती। वा छिलका वा ज़रू का पेड़। गुण-इसके सेवन से कम्प पोर श्रद्धांग वात कम्प-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.](१) शरीर आदि का का नारा होता है। काँपना । कँपकँपी । वेपथु । रा० नि. व. २० । कम्पवातारि रस-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] चन्द्रोदय, प-०-वेपन । वेप । कंपन । (२) ज्वर तात्र नम तुत्य भाग, इसमें कुटको के रस को की कँपकपी, वेपथु । २। भावना दें, पुनः चने प्रमाणं गोलियां वि० [सं० वि०] (1) जो काँपता हो। बनाएँ। जिसको कपकपी लगी हो । काँपनेवाला । गुण-इसके सेवन से कम्पवात और सर्वाग प-०-चलन, क्रम्प, चल, लोल, बलाचल, वात दूर होती है । (वृहत् रस रा० सु०) चञ्चल,तरल, पारिप्लव, परिप्लव, चपल, चटुल। | कम्पा क-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] वायु । हे० च० । कम्पा (२) कंपकारक । कपानेवाला । | कम्पायमान-वि० ! सं. वि. ] हिलता हुआ। कम्पन-संज्ञा पुं॰ [सं० पु०, श्री.] [वि० कम्पित] कंपित । (१) कम्प । काँपना । थरथराहः । कपकपी । मे० कम्पित संज्ञा पुं० [सं० की.] चलन । कंपन । मत्रिक । (२) शिशिर काल । माघ और । कँपकपी । श० र० । Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्पिल २१८७ कम्बुग्रीवा वि० [सं० त्रि०] (1) कम्पायमान । काँपता (८) गाय आदि पशुओं की गरदन का बाल । ५ हुआ । अस्थिर । चलायमान । चंचल । (२) (१) नागद्वय । जो हिलाया गया हो। ___ संज्ञा पुं० [सं० नो०] जल। पानी । कम्पिल-संज्ञा पु० [सं० पु.] सफ़ेद निसोथ । मे० लत्रिक ।। श्वेत त्रिवृता । वै० निघ० २ भ० । कम्पिलक । | कम्बलक-संज्ञा पुं॰ [सं० पुं०] कम्बल । उनी रा०नि० । सु० । कपड़ा। कम्पिला-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] घीवार । कुमारी। कम्बलांशुक-संज्ञा पु० [सं० पु.] लोनिकाशाक घृत कुमारी । लोनी। कम्पिल्य-दे० "कम्पिल"। | कम्बलिका-संज्ञा स्त्री० [सं० वी०] (१) कमली कम्पिल्ल. कम्पिल्लक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु., क्री.] ___छोटा कम्बल । (२) कम्बल मृग की स्त्री। (१) कमीला । कबीला । र० मा० । रा०नि० कम्बलिवाह्यक-संज्ञा पुं॰ [सं० क्री०] बैलगाड़ी। व. १३ । दे. "कमीला" | रअनक । वा० सू० गोशकट । वृषवाह्य शकट । अम० । १५ अ० । विरेचन । (२) कुंकुम । च० द. पर्या-गन्त्री (अ.)। गान्त्री (अ०टी०) ज्व० चि० मुस्तादिगण । (३) कासमर्द । कम्बली-संज्ञा पुं० । सं० पु.] वृष । बैल । कर्कश। कम्बातायी-संज्ञा [सं० पुं. कम्बातायिन् ] एक कम्पिल्लमालक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] एक प्रकार | पक्षी जिसे शङ्खचिल्ल कहते हैं । के० । की मौलसिरी का पेड़ । वकुल का एक भेद। कम्बि-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (1) दर्वी । चम्मच। कम्पिल्लादि-चूर्ण-संज्ञा पुं॰ [सं० को० ] उक्न नाम ___ श०च० । (२) बाँस का पोर। वंशांश । मे० का एक योग-कबीला, छतिबन, शाल, बहेड़ा, ___ धाद्विक । (३) बाँस का करील । वंशाङ्क र रोहिड़ा, कुढ़ा और कैथ के फूल सब समान भाग बाँस की कोपल। लेकर चूर्ण करें। इसे शहद के साथ सेवन करने | कम्बु,कम्बुक-संज्ञा पुं० [सं० पुं०, क्री०] (१) से कफ-पित्तज प्रमेह मष्ट होते हैं। च. चि. शंख । रा०नि० व० १३। (२) घाँधा । शंबूक । १००। (३) वलय । शंख को चूड़ी। (४) गला । कम्प्र-वि० [सं० त्रि०] कम्पित । कम्पान्वित । काँपने कंठ । मे० बद्विक । (५) रकवाहिनी नाड़ी। वाला। शोणितवहानाड़ी । (६) गरदन । ग्रीवा । (.) कम्प्रा-संज्ञा स्त्री० [सं स्त्री.] शाखा । डाल | नलक । नली । हड्डी । हे. च० । एक प्रकार का कम्बर-संज्ञा पु० [सं० पु.] कबरा रंग । कर्बुर- मान । तौल का एक भेद । (८) हाथी । वर्ण । चित्रवर्ण। शब्द र । (६)चित्रवर्ण । कई तरह का रंग। कम्बल-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (१) नोनिश्रा कम्बुक कुसुमा-संज्ञा स्त्री० [सं. स्त्री० ] शंखपुष्पी । कौड़ियाला | सखौली। लोणिका शाक । प० मु०। (२) ऊन का बना हुआ मोटा कपड़ा । यह भेड़ों के ऊन का बनता है | कम्बुका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] असगंध का पौधा। और इसे गड़रिये बुनते हैं। श्रमः। २० मा० । के. दे०नि०। कम्बुकाष्ठा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] असगंध का पर्या-रल्लक (अ.), वेशक, रोमयोनि, | सुप । रा०नि० २०४। वेणुका (शब्द २०), प्रावार (ज०)। (३) १ कम्बुकिनी-). . बकनीसास्ना । रत्ना० ।(४) नागराज । सर्प । (५) संज्ञा स्त्री० [सं०सी०] एक कीड़ा जो बरसात में दिखाई देता है और | कम्बुका । जिसके ऊपर काले काले रोएँ होते हैं। कमला । | कम्बुग्रीवा-संज्ञा स्त्री० [सं०स्त्री०] वह ग्रीवा जो (६) उपरना। दुपट्टा । चद्दर। उत्तरासंग। शंखाकार और तीन रेखाओं से युक्त हो । रा०नि. मे लत्रिक । (७) एक प्रकार का मृग । जटा०।। व०१८ । Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्बुज २१८९ कम्बुज-संज्ञा पुं॰ [सं० ] शंख । जूएँ कई प्रकार की होती हैंकम्बुपुष्पी-संज्ञा स्त्री॰ [सं० स्त्री० ] शंखपुष्पी । (१)महीन महीन सफ़ेद रंग की जो बालोष कौड़ियाला । रा०नि० व०३ । से चिमटी रहती हैं । वस्तुतः ये जूत्रों के अंडे होते कम्बुपूत-संज्ञा पुं० [सं० पु. शंख । हैं। सुवाब: (बहु. सेवान) -। रिश्ककम्बुप्रणाली-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (Duc- फ्रा०। लीख । लिक्षा -हि। tus Cochlearis) शंखप्रणाली। कोकला (२) वह जो स्रोतों में फँस जाती है ओर । प्रणाली | अशा। बालों की जड़ की तरह दिखाई देती हैं। तमूत्र कम्बुमालिनी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] शंखपुष्पी -अ.। कम्काम -१०, फ्रा० । जमā । धक लता । कौड़ियाला । रा०नि० व० ३ । कम्बू-संज्ञा [सं० स्त्री- ] (१) शंख । (२) वलय । (३) वह जो बड़ी-बड़ी और शिर एवं शरीर चूड़ी। के कपड़ों में चलती फिरती दिखाई देती हैं। कम्बूक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] शंख । कम्बु । कम्ल-अः । शपिस -फ्रा० । जूं, ढील -हिं० । यूका (वै०) धान की भूसी । अन्नत्वक् । -सं०। कम्यून-संज्ञा पु० [सं० पु.] शंख । खरमोहरा । कम्ल-[अ० जूएँ पड़ना । ढील पड़ने की बीमारी । रा०नि० व. १३ । तक़म्मुल । ( Pediculosis, Lousin कम्बोज-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] [वि • कांबोज] ness. ) (१) एक प्रकार का शंख । (२) एक प्रकार कम्लक़रीश-[अ०] छोटे सनोबर के बीज । का हाथी । मे • जत्रिक । (३) एक देश जो | कम्लतुज ज़रअ-[१०] एक पक्षी जो टिड्डी की तरह गांधार के पास पड़ता था। यहाँ के घोड़े होता है। प्रसिद्ध थे। कम्लतुन्नसर-[अ० ] गिद्ध की जूं । जो कभी उससे कम्बातायी-संज्ञा स्त्री० [सं० पु. कम्ब्वातायिन् ] गिरकर मनुष्य के शरीर पर आ पड़ती है । और . शङ्खचिल्ल । एक प्रकार की चील । अत्यन्त घातक होती है। ऐसी जनश्रुति है कि कम्भा-[?] कमीला। इसके काटने से शरीर के स्रोतों से रक्तस्राव जारी कम्भारी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] काश्मरी । गंभारी | होजाता है। ... का पेड़ गम्भारी । कमहार । रा० नि व०६। | कम्ला-संज्ञा पु० दे० "कमला"। कम्भिका-संज्ञा स्त्री॰ [ सं० स्त्री.] बाहि धान्य । । कम्लावन-[रू.] काशिम । कम्भु-संज्ञा [सं० को • ] खस । उशीर । कम्लुर्रास-[अ०] Pediculus Capitis , रा. नि० व०१२। शिर की जूं । सिर में जूएँ पड़ना। कम्म-[अ० [मिकदार । परिमाण । किसी चीज़ को .. मिकदार । कम्लुलअज्झान-[अ०] Pediculus Bloकम्मरकस-[बम्ब०] (1) कमरकस । (२) एक | ___pharitis, Triasis. पलकोंकी जूं । पलकों • बीज । (Salvia plebeia, R. Br.) में जूं पड़ जाना। (३) चुनिया गोंद। कम्लुलान:-[अ० ] Pediculus Pubis कम्मल-संज्ञा पुं० दे. "कम्बल"। कामाद्रि यूका । कामाद्रि वा काले बालों की कम्मोरकस-[ गु० ] कमरकस । जूएँ । झाँट की जूएँ। कम्मी सफेद-[?] ब्राह्मी । कम्लुलजिस्म-अ.] Pediculus Corporis कम्र-वि० [सं० त्रि० ] कामुक । मैथुनेच्छायुक । शरीर का ढील । शरीर में जूएँ पढ़ जाना। -श्रम। कम्लूल-अ.] नावरी । कम्ल-[१०] [ बहु० कुमुल ] जूं । ढील । यूका । कम्स-[अ०] Quickening (Louse; Pediculus.) । भ्रूण का उदर में गति करना । Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कयः २१८६ करइत कय:-[सिरि० ] मस्तगी। | क्यू-ऊबे-[ जावा०] Euphorbia Tirvcalli, कियगहरु-[ मल० ] अगर। Linn. वाड़ का थूहर । कयन-[बर० ] गंगवा । गेभोर । गेरिया । कयुर-[ ता. मडा । मकरा (अवध)। कयपूती-संज्ञा स्त्री० [मला० कयु=बेड़+पूती सफ़ेद ] कयूड-[१०] वामक कै लानेवाली दवा। Em एक सदाबहार पेड़ जो सुमात्रा, जावा, फिलिप - etic इन श्रादि पूर्वीय द्वीप समूड में होता है । जावा | कयूकारसीस-[ यू०] हाऊबेर। हबुषा। अरअर । और मैनिला श्रादि स्थानों में इसकी पत्तियों का कयूकस-[यू ] केसर । तेल निकाला जाता है जो स्वाद में चरपरा, कपूर- कयूतमस.र- यू.] ककड़ी। ख़यारतः । वत् उड़नशील और तीव्र गंधी होता है। वि० कयूतावसान-[रू.] कड़ का बीज । बरें । तुरुन दे. "कायापुटो"। कुम हिंदी। कयप्पन को?- ता०] Strychnos gnatii कयूमन रीस-[यू.] कांच की तरह की एक चीज़ जो पपीता । समुद्र के किनारे पाई जाती है। कयबा, केबा-[ज़ंद ] चाँदी। कयूमीत-[?] जंगली पुदीना । श्रालीजून । क्यमा-संज्ञा पु० दे० "कैमा'। कयूरोमून-[ ? ] काली जीरो । क़रोमाना । कयम्पुवुचेडि-[ ता० ] अंजनी । लोखंडी । कयेनी-बर० ] ताँबा । कयलोर-[ मल० ] सहिजन । शोभांजन कयेटबेल-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] कैथ । कपित्थ । कयसी-[ बर० ] इंद्रायन । कयोगवा-[पश्चिमी ] मूली । भेटगा | पिंडालु। कयस्था-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री. (१) हड़ । हरी- कयोगडिस- मल.] (Cinnamorrum तको । (२)एक अष्टवर्गीय ओषधि । काकोलो।। parthenoxylon,Meissn ) अ. टी. स्वा०। (३) छोटी इलायची । कय्य-[अ०] जलाने की क्रिया। दग्धकर्म । दाह सूचमैला । च० द. उन्मा० चि० महापैशाचत । कर्म । दागना । तप्त लौह-शलाका द्वारा दग्ध कया-सिरि० ] मस्तगी। करना । Cautrization कयाना-[फा०] तत्व चतुष्टय । पर तत्व । जैसे, कय्य:-[अ० दाग़ । दाग़ की जगह । अग्नि, वायु, जल. और पृथ्वी । कय्यविद्दवाऽ-[१०] औषध से दग्ध करना, औषध क़यानारीन-यू.] कृत्रिम शिंगरफ़ । द्वारा दाहकर्म करना । दवा से दाग़ देना । कयानीकू.न-[यू० । विजयाबीज । शाहदानज। Caustic. कयान्दलक-[?] आँवला। करियस-[१०] [ बहु• करियसा ] बुद्धिमान । कयामतराना-[सिरि०] अनार की कली जो पूरे | चतुर । दाना। तोर से निकली न हो। कर-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (') हाथ । हस्त । यामून, कयामूयन-[यू.] दालचीनी । रा०नि०व०१८ । (२) हाथी की सूड। कयामसीन-यू.] दाल चीनी का तेल । शुण्डादण्ड । मे० रद्विक । (३)सूरज वा चंद्रमा क्रयामूसीस-[यू.]दालचीनी।। को किरन । रश्मि । (४) भोला । कयारूस-[१] हर्शन का एक भेद । वर्षोपल । पत्थर । (५) बाहुल्य चुप । काश्मोर कयावाकनी-[सिरि ] ग़ार का पेड़ । में इसे "तवरूड" कहते हैं। तरवड़। रा०नि० कयासूस-[ यू.] दालचीनी । व०४ । (६) उत्सङ्गादि। [?] (१) शाहतरा । पित्तपापड़ा । (२) करअफ़तनीन-[१०] लम्बा कद्रू। जंगली जीरा । करइत-संज्ञा पुं॰ [देश॰](१) एक प्रकार का कयाह-सज्ञा पु० [सं० पु.] पके ताड़ के रंग का कीड़ा जो लगभग ६ अंगुल लम्बा होता है और घोड़ा । जैसे, “पक्वतालनिभो वाजी कयाह, परि- हवा में उड़ता है । (२) एक प्रकार का साँप कीर्तितः" । ज० ० ३ ०। . । करैत । Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करइता २१६० करकरा Y करइता-[पं०] पामुख । करकट-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] भरद्वाज पक्षी। वै. करई-संज्ञा स्त्री० [सं० करक] एक छोटी चिड़िया निघ० । जो गेहूँ के छोटे २ पौधों को काट-काटकर गिराया करकटा- ) [ता. ] वातदला । करती है। करकट्टम्[ तु० ] साही । खारपुश्त। करकटिया-संज्ञा स्त्री० [सं० कर्करेटु ] एक चिड़िया। संज्ञा स्त्री० [ देरा०, गु० ] कुलू । गुलू । करई गोंद-संज्ञा स्त्री॰ [देश॰] कतीरा । कुल्ली का | करकण्टक-संज्ञा पु० [सं० पु.] नख । नाखून । लासा । त्रिका०। करईचेड्डि- ता०] Canthium parviflo करकना-[ बम्ब० ] फरसा । धामिन । rum, Lam.) किरनी।। करकनाथ-संज्ञा पुं॰ [सं० कर्करेटु ] एक काले रंग ___ का पक्षी जिसके विषय में यह प्रसिद्ध है कि उसकी करक-संज्ञा पुं० [ सं० पुं०] (१) दाडिम । हड्डियाँ तक काली होती हैं। अनार । रा०नि० व. ११ (२) पलास । ढाक । हारा० । (३) मौलसिरी । वकुल । (४) करनिरम-[ मल० ] काला कुचिला । कोविदार । लाल कचनार । रा०नि० व० १०। करकनी-[ मरा०] कुरकुर जिह्वा । दे. कचनार" । (५) करवीर वृक्ष । कनेर । करकन्द-[फा० ] लाल पत्थर । कुनार । जीलकी । रा०नि०व०८। (६) नारियल की खोपड़ी। करकन्धु-संज्ञा पु० दे० "ककंधू"। नारिकेलास्थि । रा०नि०व०११। (७) नाटा करकन्धुवु-[ते. ] बेर । उन्नाब । करन। कंजा । हे. च० (८) कुसुम का पौधा। करकन्ना-[अफ ] माड़बेरी। बरें । (६) एक प्रकारको चिड़िया । मे० कत्रिक करकापली-[ ता०] दक्खिनी बबूल । (१०) करील का पेड़ । (१) रणगृध्र । नोल करकर-संज्ञा पुं॰ [सं० कर्कर ] एक प्रकार का नमक पिच्छ लम्बकर्ण रणप्रिय। रणपती| पिच्छ जो समुद्र के पानी से निकाला जाता है । करकच । (पं०) पियाज़ । तेजम। बाण । भयंकर। स्थूल । नील । (१२) भोला । [फा० ] (1) बाकला । (२) छोटा करका । सनोबर । वि० दे. “करकरा"। संज्ञा पुं॰ [सं० श्री. ] करङ्क । ठठरी : (२) खुमी । गोमयच्छत्र | त्रिका०। (३) कमंडलु । | करकरबुदा-[ मदरास ] Ficus as perrima, Roxb. खरोटी। कल्मनोर । करवा। __ संज्ञा पुं० [हिं० कड़क (१) ठहर-ठहर करकरा-[सिरि०] केशर।। कर होनेवाली वेदना । कसक । चिनक । (२) संज्ञा पुं० [अ० श्राकरकहाँ ] अकरकरा । संज्ञा पुं० [सं० कर्करेटु ] एक प्रकार का रुक-रुक कर और जलन के साथ पेशाब होने का सारस जिसका पेट तथा नीचे का भाग काला रोग। होता है और जिसके सिर पर एक चोटी होती है। [बं०] नुदनार । इसका कंठ काला होता और बाकी शरीर करंज के [ते. ] हड़ का पेड़ । हरीतकी । रंग का ख़ाकी होता है। इसकी पूँछ एक बित्ते करकच-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] नख । नाखून । वै० की तथा टेढ़ी होती है। तालोफ़ शरीफ़ी के निघ०। अनुसार एक प्रकार का पक्षी जो कुलंग के रंग का __ संज्ञा पुं॰ [देश॰] एक प्रकार का नमक जो और उससे छोटा होता है। इसका पैर लम्बा समुद्र के पानी से निकाला जाता है। समुदर और नेत्र अत्यन्त रकवर्ण का होता है। दोनों नोन | पांगानोन | कडकच । कानों से संलग्न श्वेत बाल होते हैं और ग्रीवा से [तु० ] सफ़ेद रेंड । वक्ष की ओर काले बाल लटकते रहते हैं। करकचहा-संज्ञा पुं० दे. "अमलतास"। . (ता. श०) ..... ... ... Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करकराहट २१६१ करक्युमा अंगष्टिफोलिया पर्या-कर्करटः, कर्कराटुः, कर्कराटुकः, कर्क- करकाञ्जिरम्-[ मज० ] काला कुचला । रेटुः, करटुः, करेटुकः, करेडुकः, कर्कटुः (सं०)। करकानू-[ ? कह । करकटिया, करकरा-हिं० । कर्कटिया कर्कटे पाखि | करकामेलोस-[?] पालू । करकाम्बु-संज्ञा [ सं० क्ली० ] श्रोले का पानी । बर्फ़ । प्रकृति-मांस-गर्म एवं रूक्ष है। करकाजल । वै० निघ०। गुण-इसका मांस स्थौल्यजनक, कामवर्द्धक | करकाम्भा-संज्ञा पुं० [सं० पु. करकाम्भस ] और अंगों के लिये बलप्रद है और वात एवं पित्त | नारियल का पेड़ । नारियल । त्रिका। को नष्ट करता है। (ता. श.) __संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] करकाजल । अोले वि० [सं०] [कर्कर, स्त्री० कर्करी] छूने में | का पानी। जिसके रवे या कण उँगलियों में गड़े। ककेश । करकार्की-संज्ञा स्त्री० खीरा । खुरखुरा। करकारु-संज्ञा० पेठा। करकराहट-संज्ञा पुं० [हिं० करकरा+बाहट (प्रत्य॰)] करकाश-[मिश्र] बाबूना । उक़हवान । (१) कड़ापन | कर्कशता । खुरखुराहट । (२) २) क(कु)रकास-[फा०] (1) दोसर । (२) तुम अाँख में किरकिरी पड़ने की सी पीड़ा। शैलम। करकबुदा-[ ते. ] Ficus asperrima, | करकीरा- सिरि.] जर्जर । Roob. काल ऊमर । खरवत । खरोटी। शाखो करकुड्मल-संज्ञा पुं॰ [सं० की.] हाथ की उँगली। टक | सिहोर। | करकुन-पं०] बालबसंत । कररिया-यू०] विषखपरा । हंदककी। करकुन्दूरुकम्-[मन०] Shorea tumbuggaia करकवा-[ता] चौली । बकरा। Roxb. कालाडामर । करकश नासिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] उतरन । करकू-संज्ञा-कौड़ी बूटी । [शीराज़ी] कच्चा खरबूज़ा। गण नि० । नि०शि०। करत-[यू०, सिरि० ] केशर । करकशा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] उतरन । इन्दीवरा। | करकृष्णा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] जीरा। जीरक । . के० दे०नि० । नि०शि० । वै० निघ० । कुञ्ची । कालिका । कलौंजी : के० दे० करकशालि-संज्ञा पुं० [सं० पु.] रसाल इन्छ । निनि०शि०। पौंडा । गमा। करकेस-[ करकेश का मुश्र० ] एक प्रकार का बाबूना। करकस-वि० ३० "कर्कश' । करको-[ते. ] बोदुलर । बलेना । समरौं । करका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] करेला । कारवल्ली। करकोट-[बं०] अग्गई । शुकनी । रा०नि०व०७। करकोल-[ ता०] पीलू । झाल | संज्ञा पुं० [सं॰ स्त्री.] श्रोला । वर्षा का | करकोष्ठी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] हाथ की रेखा । पत्थर । बिनौरी । वर्षांपल । अम।। पा -मेघोपल, राधरङ्कु, धाराङ्कर, वर्षांपल। करकौम-[हिब्रू] केशर । वीजोदक । धनकफ, मेघास्थि, वाचर, कराकरक । | करकाय-[ त०] हड़। हरातका । करकाजल-संज्ञा पुं॰ [सं० क्रो० ] एक प्रकार का | करकाय-पुव्वुलु-[ ते०] हड़ का फूल । हरीतकी पुष्पा दिव्यजल । बिनौरी का पानी। वर्षांपल जल | नोट-वस्तुतः ये हड़ के फूल नहीं, प्रत्युत यथा माजू की तरह के अर्बुदाकार प्रवर्द्धन हैं जो हड़ "दिव्य वाय्वग्निसंयोत् संहताः खात्यतन्ति याः की पत्तियों और कोमल टहनियों पर पाये पाषाणखण्डवच्चाप स्ताः कारक्योऽमृतोपमाः। जाते हैं। करकाजं जलं रूक्षं विशदं गुरु च स्थिरं। करक्युमा अंगष्टिफोलिया-[ ले० Curcuma दारुणं शीतलं सान्द्रं पित्तहृत्कफवायुकृत्" ।। angustifolia, Roxb. ] तीखुर । त्वक् -वैद्यक । तीरी । तवासीर । Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करक्युमा माड २१६३ करक्युमा माडा - [ ले० curcuma amada, Roxb. ] श्रामा श्रदा । श्राम हलदी । करक्युमा ऐरोमेटिका - [ ले matica, Salisb. ] श्रांबा हलदी । बन हरिद्रा | Curcuma aro curcuma caesia, करक्युमा की सिया - [ ले Roxb. ] काली हलदी । नरकचूर । करक्युमा जिरंबेट - [ ले • curcuma zerum bet ] ज़रंबाद | कचूर | करक्युमा जेडोएरिया -[ ले curcuma zedo aria, Rose. ] शदी । कचूर । करक्युमा मॉण्टेना - [ ले curcuma mon - tana Rose. ] सिंदूरवानी | करक्युमा लांगा - [ ले० curcuma longa, Roxb. ] हलदी । हरिद्रा | करक्युमा ल्युगेर हाइजा - [ ले० leucorhiza Roxb. ] तीखुर । करक्युमा मोटो - (ले० curcuma matico] दे० " करक्युमा श्रमाडा" | करक्युमा सीसिया - [ ले० curcuma caesia Roxb. ] काली हलदी । नर कचूर । करक्युलोसिफोलिया - [ ले० curculig uncifolia ] तालमूलिका । मुसली । करक्युलिगो इडीज़ - [ ले० curculigo orchioides Guertn.] काली मुसली तालमूलिका । करना - संज्ञा पु ं० दे० " कालिख " । curcuma करग - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] बाज़ । श्येनपक्षी । कग्गद्दन - [फ़ा॰] एक जानवर । गेंड़ा । जरेश । (श्रु० ) कर्ग (फ़ा० ) करस - [ फ़ा० ] गिद्ध | करगही-संज्ञा स्त्री० [हिं० कारा, काला + श्रंग ] एक प्रकार का मोटा जड़हन धान जो अगहन में तैयार होता है। करग्रह - संज्ञा पु ं० [सं० पुं०] विवाह । पाणिग्रहण । व्याह । शादी । कर ग्रहण । त्रिका० । करघर्षी - संज्ञा स्त्री० [सं० पुं० ] छोटी रई । छोटी मथानी । । कर घर्षण -ज्ञा पु ं० [सं० पु० ] दही मथने की रई मथानी । महनी । कछिया पर्या० वैशाख, दधिचार, तक्रार । करघाट - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] सुत के अनुसार स्थावर विष का एक भेद । जिसकी छाल और गोंद में ज़हर होता है। इसको मूलबिष भी कहते हैं । सु कल्प २ श्र० । करङ्क-संज्ञा पुं' [ सं० पुं० ] ( १ ) मस्तक । विश्वaa | ( २ ) नारियल की खोपड़ी । नरियरी | श० च० । ( ३ ) कङ्काल । पंजर । ठठरी । रा० नि० व० १८ । ( ४ ) करङ्कशालि । ( ५ ) करवा | कमण्डलु । ( ६ ) कपाल । खोपड़ा । (७) एक प्रकार की ईख । करङ्कशालि - संज्ञा स्त्री० [सं० पुं० ] करक नाम की पौंड गुण - मीठी, ठण्डी, रुचिकारी, मृदु, पित्तनाशक, दाह नाशक, वृष्य, तेज, और बल को वढ़ानेवाली है । रा० नि० व० १४ । करङ्कीभूत- वि० [सं० त्रि० ] जिसकी केवल ठठरी रह गईहो । 'करङ्कीभूतगोमूर्द्धा” भा० म ४भ० गर्भ चि० । करकेतु-संज्ञा पु० [सं० पुं० ] ईतु | ईख । ऊख | करचनई–[ ता० ] कुंडा। करचना -संज्ञा पु ं० [देश० ] सिहोर | रूसा । करचन्द्र-संज्ञा पुं० सं० पु० 1 ] नख । नाखून | शब्द र० । करचिमाला -संज्ञा पु ं० [सं०] एक वृत्त जो बंगाल में उत्पन्न होता है और बहुत बड़ा मालूम होता है। (Bridelia lancaefolia ) करची - [ कना० ] श्रञ्जन । करचुनै-[ मदरास ] ( Iacca pinnatifida, Forst.) दीवा । करच्छद - सज्ञा० पु० [सं० पु० ] सिहोर का पेड़ । शाखोट वृत्त । भा० । करच्छदा - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) सिन्दूरga | सेंदुरिया | रा० नि० ० १० । ( २ ) शाक तरु । सागौन | करछना - संज्ञा पु ं० [देश० ] सिहोड़ा । करछा - सं० पु ं० [ हिं करौछा=काला ] एक चिड़िया । कंराळ्या सं० स्त्री० [हिं० करौंछा =काला ] एक पक्षी । Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करजीरी रज-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (१)करंज का पेड़ । अलग हो जाती हैं। बीज लगभग ३ इंच लम्बा, डहरकरंज (२) नख । नाखून । (३) उँगली। संज्ञा पुं॰ [सं० की.] नख नामक सुगंधित गहरा भूरा, बेलनाकार और आधार की ओर द्रव्य । व्याघ्रनख । मे। जत्रिक । [अ०] (Fun, शंक्वाकार, होता है, तथा उसके ऊपर लम्बाई के gus, Mold) कुरह। बूज़क । फफू दी। रुख लगभग दस उभरी हुई रेखायें (Ridges) फफूंदी लगना। होती हैं । खाने में यह उल्लेशकारक और अत्यन्त करज-संज्ञा पुं० [अ० क़र्ज़.] एक प्रकार के बबूल का होता है, यहाँ तक कि इसे मुखमें रखने मात्र से कड़ाहट प्रतीत होने लगती है । इसके की फली जिसका सुखाया हुआ रस अकाकिया बीजों से तेल निकाला जाता है। कहलाता है। पय्यो०-वृहत्पाली, सुक्ष्मपत्र, वन्यजीरः करजा-सज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] नख।। (वन्यजीरकः ) कणा (ध• नि०) वृहत्पाली, करजाख्य-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] नखी नामक | क्षुद्रपत्रः, अरण्यजीरः, कणा ( रा०नि०) वनसुगंधित द्रव्य । नख। जीरः, वनजीरकः,अरण्यजीरं,अरण्यजीरकं, कटुजीकरजीरक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] सफ़ेद जीरा । शुक्ल रक, वन्यजीरकं, कानन जीरक, अटवीजीरकः, जीरक । -सं। करजीरी, कालीजोरी, वनजीरी, कडुजीरा। कालाजीरि जंगलीसियाह ज़ीरा-हि०। कालीकरजीरी-संज्ञा स्त्री० [सं० कणजीर ] एक वार्षिक जीरी, कालीजीरी, कड़वी जीरी-द० । वन जीरे, वनस्पति जिसका पेड़ ४-५ हाथ ऊँचा होता है । वन जीरा -बं० । कमून बरी, कमून हब्शी, कमून इसका तना सोधा, गोल बेलनाकार, शाखाप्रशाखा हिंदी -अ०। विशिष्ट और साधारण लोमव्याप्त होता है। इसकी पत्तियाँ एकांतर, गहरी, हरी, गोल, अंडा पर्पल फ्लीबेन Purple Fleabane-अं० । वनोंनिया एन्धेल्मिटिका Vernonia Antकार वा भालाकार, ५-६ अंगुल चौड़ी और नुकीली होती हैं तथा वृंत की ओर शंक्वाकार होती helmintica, Willd. सेराटयुला एन्थोहुई वृंत से मिल जाती हैं। पत्र-प्रांत दंतित वा लिमटिका Serratula Anthelmintiदंदानेदार होते हैं, तथा दंत विषम एवं नुकीले ca,-ले० । काटु शरिगम-ता. अडवि जिलकर, होते हैं। पेड़ प्रायः बरसात में उगता है और विषकण्टकालु, जीरकत्र-ते. । काठ, जीरकम्कार कातिक में उसके सिर पर गोल-गोल बोड़ियों मल० । काडु जिरगे, काजीरगे-कना० । राणाच के गुच्छे लगते हैं। जिनमें से बीस वा अधिक जीरे, कारलये, कडु जिरे, कडुजीरें, वनजीरे, कड़, छोटे-छोटे पतले-पतले बैंगनी रंग के उभयलिंगी जीरी -मरा० । कालिजीरि, कड्वो जोरि, काली ( Hermaphrodite) फूल वा कुसुम जीरी -गु० । सन्नि नासगम्, सन्निनासंग -सिंह ॥ निकलते हैं । कटोरी अंडाकार और सिरे पर झुकी कालीजीरी -बम्ब० । कालोजीरी (मार० ) काली होती है । फूल को पंखड़ियाँ समदीर्घ ( Uni-| जीरी -कुमाऊँ। form ) होती हैं । फूल शाखांत एवं दीर्घ पुष्प- संज्ञा-निर्णायनी टिप्पणी-वाकुची की लेटिन संज्ञा दंड में लगते हैं और प्रत्येक शाखांत पर ही सोरेलिया कारिलिफोलिया ( psoralea coपुष्पदंड होता है। फूलों के झड़ जाने पर बौड़ी rylifolia) है, वौनिया एन्थेल्मिण्टिका बरै वा कुसुम की बोंड़ी की तरह बढ़ती जाती है (Vernonia Anthelmintica, W. और महीने भर में पककर छितरा जाती है । उसके illd. नहीं, जैसा कि कतिपय पूर्व के लेखकों फटने से भूरे रंग की रोई दिखाई पड़ती है जिसमें ने लिखा है। अस्तु, वनोंनिया एन्धेल्मिंटिका के बड़ी झाल होती है। यह रोई बॉडी के भीतर | अंतर्गत वाकुचो के गुण पर्यायों का अंतर्भाव के बीज के सिरे पर लगी रहती है और जल्दी करना नितांत भ्रमकारक एवं अज्ञता-सूचक है। Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करजीरी रजोरी २१६४ इसके वास्तविक संस्कृत एवं अन्य भाषा के | पाय ऊपर दिये गये हैं। युनानी निघंटु ग्रन्थों में कालीजीरी नाम से | इसका उल्लेख हुआ है और वाकुची इससे पृथक् वर्णित हुई है । तालीफ़ शरीफ़ी में जो यह लिखा है कि यह स्याह जीरा से दुगुना लंबा, होता है, यह कम भ्रामक नहीं है। भारतीय मुसलमान औषध-विक्रेता इसे पातरीलाल की प्रतिनिधि स्वरूप विक्रय करते हैं । कदाचित् इसी हेतु मुहयुद्दीन शरीफ ने इसे ही वास्तविक (Genuine) प्रातरीलाल समझ लिया हो; क्योंकि बाजारों में उक नाम से प्रायः इसी (काली जीरी) के बीज मिलते हैं। परंतु पातरीलाल इससे सर्वथा एक भिन्न द्रव्य है । विशेष विवरण के लिये 'प्रातरील' देखें। अरबी में इसे कमूने-ब कह सकते हैं। कालीजीरी वर्ग (N. O. Composite) उत्पत्ति-स्थान-यह समन भारतवर्ष की अनुवर ऊसर उजाड़ भूमि में गाँवों के समीप साधारणतया होती है। औषधार्थ व्यवहार-फल, शुष्क बीज, पत्र और मूल । रासायनिक संघटन-बीजों में राल, वनोंनोन ( Vernonine ) नामक एक क्षारोद, तैल और मैंगानीज रहित भस्म ७ प्रतिशत होते हैं (Dymock, Vol. II., P.242) कलकत्तास्थित (School of Tropical Medicine) ने इसके रासायनिक संघटन की नानाप्रकार से पुनरपि जाँच की जिसके फलस्वरूप इसके सूखे बीजों में निम्न लिखित तत्व पाये गये। इसके प्रधानतः स्थिर तैल (190) अत्यल्प मात्रा में एक उड़नशील तैल (लगभग ०.०२%) और एक तिक सत्व वर्तमान पाया गया। इसमें किसी क्षारोद की विद्यमानता सिद्ध नहीं हुई। तिक सत्व जो इसका प्रभावकारी अंश है, सौ भाग बीजों में एक भाग से ऊपर पाया गया । तिनसत्व को विविध प्रकार से शुद्ध करने पर, यह पीत अमूर्त चूर्ण रूप में पाया गया। इसमें नत्रजन | एवं गंधक का अभाव पाया गया और यह रालाम्बर (Resin Acid ) के स्वभाव का सिद्ध हुआ। (ई० डू. इं० पृ० ४१०) गुणधर्म तथा प्रयोगआयुर्वेदीय मतानुसारवन्यजोरः कटुः शीतोव्रणहा पञ्चनामकः । (ध. नि.) वनजीरः कटुः शीतो* * ।(रा०नि०) वनजीरा वा करजीरी-चरपरी, शीतल और व्रणनाशक है। अरण्यजीरकञ्चोष्णं तुवरं कटुकं मतम् । स्तम्भवातं कफञ्चैव व्रणश्चैव विनाशयेत्॥ (वै० निघ० द्रव्य० गु०) वनजीरा-उष्ण, कसेला, चरपरा, स्तम्भी, वात कफनाशक और व्रणनाशक है। चरक और सुशु त के मतानुसार यह सर्प और वृश्चिक दंश में उपकारी है। किंतु कायस महस्कर के मतानुसार यह दोनों ही प्रकार के बिषों पर निरुपयोगी है। यूनानी मतानुसार. प्रकृति-तृतीय कक्षांत में उष्ण और रूक्ष । . हानिकर्ता और दर्पघ्न इसका अधिक सेवन वर्जित है, क्यों कि यह दाहक (अक्काल ) है, तथा श्रामाशय और आँतों को हानि पहुंचाती है। बेचैनी ओर मरोड़ पैदा करती है। उक्त अवस्था में.गोदुग्ध पिलावें, मुर्गी का अत्यन्त स्नेहाक्न शोरबा पीने को दें, ताजा आमलों का रस या शीर श्रामला पान करायें। जब कभी इसे देवें और श्रामलों के रस के साथ देखें: क्योंकि यह इसका दर्पघ्न है । यदि ताजा अामले उपलब्ध न हों, तो उनके फांट (खेसादा) के साथ देवें। किसोकिसी ने इसे वृक्क, फुप्फुस, उष्ण प्रकृति एवं प्रांतरावयवों के लिये हानिकर लिखा है। उनके मत से पहाड़ी पुदीना, कतीरा वा गुलरोग़न प्रभृति दर्पघ्न हैं। प्रतिनिधि-कुटकी ( मतांतर से जीरा, सौंफ, अनीसू अथवा स्याह जीरा आदि) मात्रा-वैद्यों के अनुसार इसकी साधारण मात्रा ५-६ माशे की है । इसकी एक मात्रा देने के चार-पाँच घंटे उपरांत पुनः दसरी मात्रा देकर Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करजीरी २१६५ करजीरी एरण्ड तैल या कोई और मृदुसारक औषध देना | चाहिये। मख्ज़न मुफ़रिदात के अनुसार यह निविषेल है। पर बुस्तानुल मुफरिदात के मत से यह प्रायः विष है, अतएव भक्षणीय नहीं है, प्रलेपादि में यह वाह्य प्रयोग में आती है। इससे ही मिलता जुलता विचार मख्जनल अदविया के रचयिता का भी है। वे लिखते हैं कि अत्यंत तीक्ष्ण एवं विषाक्त होने के कारण यह प्रायः आंतरिक रुप से सेवनीय नहीं, क्यों कि इससे हानि की संभावना होती है। अस्तु, इसका वाह्य रूपसे उपयोग करते हैं । चिकित्सगण इसका मानबी चिकित्सा में तो कम उपयोग करते हैं, पर पशुओं वा चतुष्पद जीवों की चिकित्सा में इसका बहुत उपयोग होता है, विशेषतः अश्वचिकित्सा में । ब्याई हुई घोड़ी के मसालों में भी यह दी जाती है। अतः यह पशु चिकित्सकों के काम की दवा है। कहते हैं कि घोड़ों के लिये यह रेवंदचोनी की तरह शीतल है। खाने में यह बहुत कडुई चरपरी और तीव्रगंधी होती है। गुण,कम,प्रयोग–मुख द्वारा प्रयोग करने से यह श्लैष्मिक मवादों को खूब छाँटती है, आमाशय और प्रांत्र गत कृमियों तथा कईं दाने को निकालती है और सर्दी के दर्दो को शांत करती है। इसके लेप से सरदी की सूजन उतर जाती है। (म० अ०) इसकी पत्तियों में भी उपयुक गुण विद्यमान होते हैं। (बु. मु०) यह पाचन और क्षुधाभिजनन है एवं उत्तम वातानुलोमक है । इससे खूब अपान वायु खुलता है। यदि सोहागे को खील के योग से एक माशा से चार माशे तक कालोजीरी का चूर्ण दूध के साथ फाँके, तो बवासीर आराम हो, | यह सिद्ध औषध है। इसका सुरमा आँख को निर्मल करता (जिला) है । (म. मु०) यह प्रायः अश्व चिकित्सा में प्रयोगित होती है। यह उष्ण है तथा शोधन प्रतीत होती है और कफज सूजन प्रभति में उपकारी है। (ता. श०) इसके मर्दन से खाज मिट जाती है। १०॥ माशे कालीजीरी लेकर आधी को भून लें, फिर सबको मिलाकर पीस । कर तीन बराबर भागों में वाँटें। इसमें से एक भाग प्रतिदिन प्रातःकाल फाँक लिया करें और साठो चावलों का भात और दही दोनों समय भोजन करें। इससे बादी और खूनी दोनों प्रकार के बवासीर नष्ट होजाते हैं। छः माशे कालीज़ीरी और एक मुट्ठी नीम की पत्ती रात को मिट्टी के बरतन में भिगोदें। प्रातःकाल उसे मल छान कर पीलें। इससे अनियत कालीन जीर्ण ज्वर मुक्त होता है । इसे सेमल के मूसला के साथ पकाने से इसकी कड़वाहट जाती रहती है और इसकी गरमी भी कम होजाती है। पकते समय बरतन का मुंह खुला रहना चाहिये और खूब पकाना चाहिये । इसके लिये करजीरी से सेमन का मूसरा चतुर्थांश रखना पर्याप्त होता है। किंतु उसे ताजा एवं छोटे पेड़ का ग्रहण करना चाहिये । (ख० अ०) नव्य मत फार्माकोपिया आफ इण्डिया के मत से कृमिघ्न रूप में व्यवहृत करजीरो के चूर्णकी साधा रण मात्रा १॥ ड्राम (लगभग ६ मा०) है। यह एक-एक घंटा के अंतर से बराबर २ मात्रा में दो बार सेवनीय है। इसके सेवनोपरांत रोगी को मृदुरेचक औषध का व्यवहार उचित होता है। इस प्रकार इसके सेवन से प्रायशः मृत कृमि निर्गत होते देखा गया है। __डाक्टर ई० रास (E. Ross)का कथन है कि इसके १ से १५ रत्ती चूर्ण का शीत कषाय कृमि विशेष (Ascarides) के विनाश के लिए अव्यर्थ महौषधि है। डा० गिब्सन-स्वानुभव के बल पर कहते हैं कि १० से १२॥ रत्ती की मात्रा में इसके बीज उत्तम बलकारक और पाचक है। यह मूत्रकारक रूप से भी प्रसिद्ध है। ___ इसके बीजों को कूटकर नीबू के रस में पीसकर तैयार किया हुआ कल्क, ट्रावनकोर में जू और लीख प्रभृति केशकोट ( Pediculi ) नाशार्थ बहुत व्यवहार किया जाता है। ( फार्माकोपिया आफ इण्डिया, पृ० १२६) ऐन्सली के मत से इसके धूमिल वर्ण के अत्यंत कड़वे बीज प्रवल कृमिघ्न हैं, तथा सर्प Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करजीरी २१६६ करजीरी देश में प्रयुक्त यौगिक चूर्ण का एक उपादान सान्याल और घोष के मतानुसार यह वनस्पति भी हैं। चर्म रोगों में प्रलेप रूप से काम में ली जाती है । रहीडी ( Rheede) के अनुसार प्राध्मान यह श्वित्र एवं विसर्प रोग की प्रधान औषधिहै। और कास निवारण के लिए मलावार तटपर इनका छोटा नागपुर की मुडा जाति के लोग इसको शोतकषाय भी व्यवहार किया जाता है। कृसि कुनैन के स्थान में व्यवहार करते हैं। पैरों के पक्षारोगों में प्रयुक्त बीजों के चूर्ण की मात्रा (One घात में इसके पिसे हुथे बीज लेप करने के काम pagoda) दिन में दो बार है। ( मेटिरिया में लिये जाते हैं। इंडिका, २ भ. पृ०५४) आर. एनचापरा-उक्त औषधने बहुतकाल डिमक-पारी के ज्वरों को रोकने के लिए पूर्व में ही भारत स्थित युरोपियन् चिकित्सकों का ( Antiperiodic ) कोंकण में यह योग ध्यान श्राकृष्ट कियाथा, और उनमें से बहुतोंने इसके प्रचलित है- "कालीजीरी के बीज, चिरायता, बीजोंके चूर्ण का शीत कषाय केचुओंके लिये उत्तम कुटकी, डिकामाली. सेंधानमक और सोंठ इनको कृमिघ्न माना था। कलकत्ता के कारमाइकल अातु बराबर-बराबर लेकर चूर्ण करें। इसको मात्रा ६ रालयमें सञ्चिविष्ट कृमिरोगों (Helminthic माशे की है। पहले ठंडे पानी में लाल किया हुआ | infections) के बहुसंख्यक रोगियों पर खपड़ा वा ईट बुझावें, फिर एक मात्रा उक्न चूर्ण एतद्गत रालचूर्ण २॥से५ रत्ती की मात्रामें प्रयोगित को फाँक कर ऊपर से यह पानी पी जाय। इसी | कराई गई । औषध सेवनसे पूर्वापर मल की सावप्रकार हर प्रातःकाल को यह श्रौषधी सेवन करें। धानतया परीक्षा की गई फलतः यह ज्ञात हुआ कि (फा० इं० २ भ० पृ. २४२) कृमि विशेष (A scaris) अर्थात् केचुओं पर नादकी-बीज कृमिघ्न, दीपन, (Stom- इसका अत्यल्प प्रभाव होता है। तथापि सूत्रकृमियों achitr), बलकारक, मूत्रकारक, नियत कालिक पर इसका प्रत्यक्षप्रभाव होताहै। जिन अनेकशिशुओं ज्वर निवारक, (Antiperiodic) और को एतज्जात राल-चूर्ण का उपयोग कराया गया, रसायन है । बीज जात चिपचिपा हरातैल मूत्रल उनके नलमें अधिक संख्या में सूत्रकृमि निगर्त हुए और प्रवन्न कृमिघ्न है। एवं उनके शय्यामूत्र (Nocturnal enureआमयिक प्रयोग-उदर में केचुए पड़ गए sis) और रात में दाँत पीसना आदि प्रायशः हों तो प्रायः कालीजीरो के बीज देने से वे मृता- अत्यंत कष्टप्रद लक्षण प्रशमित हो गये । ( ई० वस्था में निर्गत होजाते हैं । इसकी मात्रा लगभग डू. इं० पृ० ४५०) दो-तीन ड्राम ( मा. १ तो० ) की है। पहले अन्य प्रयोग बीजोंको कूट-पीसकर उसमें ४-६ डाम मधु मिला (१) काली जीरी २ भाग, सोंठ १ भाग, कर अवलेह ( Electuary ) बना लेते हैं। कालानमक ! भाग-इनका बारीक चूर्ण करें। और उसे दो बराबर भागों में बाँटते हैं। इसमें से मात्रा सेवन विधि-एक माशे से ३ माशे तक गुनगुना एक भाग खिजाकर ऊपर से कोई मृदुसारक पानी के साथ प्रातः सायंकाल भोजनोत्तर सेवन (Aperient) औषध देते हैं। बीजों के करें। चूर्ण का शीतकषाय (१० से ३० ग्रेन) भी गुण, प्रयोग--यह वातानुलोमक है और उत्तम एवं अव्यर्थ कृमिघ्न है। (ई. रास) ख़ब अपानवायु को शुद्ध करता है । ऐंठन व वेदना केचुओं पर १० से ३० रत्ती की मात्रा में उक्त युक्र पानी की तरह पतला दस्त होता हो, तो औषध के उपयोग से पूर्ण संतोषप्रद फल प्राप्त इससे उपकार होता है । और तारीफ़ यह कि यह हुश्रा (Ind.Drugs ReportMadras) धारक नहीं है । यह मलमूत्र को पृथक् पृथक् इसे कागजी नीबू के रस में पीसकर लेप करने से करता है और अत्यंत दुधावर्द्धक है । प्रवाहिका में लीख ओर जू आदि केशकीट ( Pediculi) कोष्ठशुद्ध के पश्चात् इसका व्यवहार गुणकारी नष्ट होते हैं । ( ई० मे० मे० ८८४-५) होता है। Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करजोड़ी २१६७ नोट- उपयुक्त योग में + भाग शंखभस्म मिला लेने से यह चोर गुणकारी हो जाता है । कोई कोई करजी भूनकर डालते हैं । - लेखक (२) यह व्रणनाशक और घाव-फोड़े श्रादि के लिये उपयोगी होती है । उभड़ते हुए फोड़े पर करजीरी पीसकर लेप करते हैं । ( ३ ) श्राँतों के कीड़े और कपTत्सर्ग के लिये इसका काढ़ा पिलायें । ख० श्र० ( ४ ) कफ की गाँठों को विलीन करने के लिये इसका लेप करें । इसको खाने-पीने के काम में कम लाना चाहिये। क्योंकि इससे कभी कभी हानि भी होती है । इसका काढ़ा पीने से कफ श्रोर फार दूर होते हैं । इसके बीजों में ज़हरीली छूत मिटाने की शक्ति है । कालीजीरी के पौधे की मकान में धूनी देने से अथवा इसको पानी में पीसकर मकान में छिड़क देने से कई प्रकार के विषैले कीट भाग जाते हैं । इसको और कलौंजी को पीसकर लेप करने से शिरःशूल श्राराम होता है । ( ख़० श्र० ) करजोड़ी - संज्ञा स्त्री० [सं० कर+हिं० जोड़ना ] एक प्रकार की ओषधि जो पारा बाँधने के काम में तो है । हस्तजोड़ो । हत्थाजोड़ो । । करजुरु काय - [ ० ] खजूर का फल । करज्योड़ि -संज्ञा पुं० [सं० पु० ] हस्तज्योड़ि नामक एक प्रकार का महाकंद शाक । हाथजोड़ी । हत्याजोड़ी । हत्थाजूड़ो | रा०नि० ० ७ । ( २ ) काष्ठपाषाण का एक भेद । करयोडिकन्द-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] करजोड़ों के पौधे का कन्द | यह पारे को बाँधनेवाला और वृष्य है । (वश्यकृत् ) होता 'रसबन्धकृवृष्य कृच्च' रा० नि० ० ७ । सर्पविष उतारने के लिये इसे अन्य विषघ्न औषधियों के योग से देते हैं । यदि रतूस (द्रव) के कारण सम्पूर्ण शरीर सूज जाय, तो इसकी फंकी देवें । पीवयुक्क बड़े फोड़ों पर इसका लेप करते हैं । ज्वरनिवारणार्थ ६सका उपयोग होता है । रसायन विधि से इसका उपयोग करने से आयु बढ़ती है। और जरा तथा पलित रोग का नाश होता है । पाँच रत्ती से दो-माशे काली जीरी का चूर्ण देने से उदरस्थ कृमि मर कर निर्गत हो जाते हैं । सवा माशा से डेढ़ माशा तक इसकी फंकी देने से बल की वृद्धि होती है । इसके भक्षण से उदरशूल मिटता है । इसको ठंडे पानी के साथ घोंट-छानकर पिलाने से पेशाब अधिक श्राता है । करऊजयुग्म करञ्ज, करञ्जक-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( १ ) स्वनामाख्यात वृत्त । वृहत् करंज । डहरकरंज । डिठोहरी, नकमाल | घ० नि० । रा०नि० । श्रा० | दे० " करंज" । ( २ ) करंजुवा । कंजा । कण्ट करेजी । सागरगोटा | भा० । वि० दे० " करंज" २ । (३) भांगरा । भँगरैया । भृङ्गराज । जटा० । ( ४ ) करञ्जफल । सि० यो० वृहदग्निमुखचूर्ण । (५) कञ्जी । ( ६ ) गजपीपल । गजपिप्पली | गण नि० । नि०शि० । करञ्ज 'तैल-स 1- संज्ञा पुं० [सं० की ० ] ( १ ) उक्र नाम का एक योग-करंज, चित्रक, चमेली, और कनेर की जड़ इनके कल्क में तेल सिद्ध कर लगाने से इन्द्रलप्त दूर होता है । शा० ६० सं० । ( २ ) करंज के बीज से निकाला हुआ तेल, जो चर्म रोगों की प्रधान श्रोषध है । करंज का तेल । डिठोहरी का तेल | करंज का तैल | वा०| रा० नि० विशेष दे० "करंज" । I करञ्जद्वय - संज्ञा पुं० [सं० नी० ] कंजा व करंजुना और करंज ( डिठोहरी ) अर्थात् विटप वृक्ष करंज द्वय । यथा-वृक्ष विटप करञ्ज “एकश्चिरविल्वः द्वितीयः कण्टकी विटप करञ्जः " । सु० सू० ३८ श्र० ड० श्यामादिः । "करओ देवदारु च" । सि० यो० ३ मा० चि० । एक: पूर्ति करञ्जश्चिर विल्वाख्यः, द्वितीयः नक्त मालाख्यः । यथा - " भूनिम्ब सैय्येक पटोल करअ युग्मम् ।" वा० सू० १५ श्र० श्रारग्वधादिः । वि० दे० "करंज" | करजफल - ( क ) - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] कैथ का पेड़ | कैथ । कपित्थ वृक्ष । रा० नि० व० १७ । कब्ज-युग्म -संज्ञा पुं० [सं० नी० ] क्रंजा व करंजुश्रा और करंज । दे० " करअद्वय" । Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करञ्जबीज वर्तिका २१६८ करायंजन करञ्जबीज-वर्ति-संज्ञा० स्त्री० [सं०सी०] नेत्र रोग में करञ्जादि चूर्ण-संज्ञा पु० [सं० वी० ] उक्त नाम का प्रयुक्त उक्त नाम का एक योग। यथा-करंज के एक योग, यथा-करंज, चीता, सेंधा नमक, सोंठ बीजों के चूण में पलाश के फूलोंके स्वरस स यथा इन्द्रजौ और अरलु । इन्हें समानभाग लेकर विधि ७ भावना देकर वर्तिकाबनाएँ। चूर्ण करें । इसे तक्र के साथ पीने से खूनी बवागुण तथा उपयोग-इसे पानी के साथ घिस सीर के मस्से गिर जाते हैं। वृ. नि. र. कर पाखों में लगाने से चिरकालीन भी कुसुम अर्श चि०। (फूली) नष्ट हो जाता है। च० द०नेत्र रोचि०। | करादि नस्य-संज्ञा पु० [सं० ली.] उन नाम करञ्जबीजादि योग-संज्ञा पु. [ सं पु.] उक्त नाम का एक योग, यथा-करा की मींगी, देवदारु का एक योग दे० 'करंज' सरसा मालकाँगनी; हींग, बच, मजीठ, त्रिफला, करञ्जबीजादि लप-सज्ञा पु० [सं०पु.] अलसक त्रिकुटा और फूलप्रियंगु, इन्हें समानभाग लेकर संग में प्रयुक्त उक्न नाम का एक योग । यथा- बकरे के मूत्र में बारीक पीसकर, नस्य. पान श्रीर करंज की मींगी, हल्दी मुलेठा कसीस, गोलोचन अञ्जन आदि द्वारा उपयोग करने से उन्माद, अपऔर हरताल इन्हें समान भाग लेकर यथा विधि स्मार और भूत व्याधि का नाश होता है। वृ० चूर्ण कर और उसमें शहद मिलाकर लेप करने नि० २० अपस्मार चि०। से अलसक रोग दूर होता । च० द० अलसक | करादि पुटपाक-संज्ञा पु० [सं० पु.] गुल्म चि.। रोग में प्रयुक्त उन नाम का एक योग । यथाकरञ्जस्नेह-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] करंज का तेल || करंज के पत्ते, बड़ के पत्ते, चव्य, चित्रक, सोंठ, करंज तैल । रा०नि० व०६ । दे. "करंज'। मिर्च, पीपल, इन्द्रायन मूल और सेंधा नमक करादि-कषाय-संज्ञा पु० [सं० पु.] विसूचिका प्रत्येक समान भाग लेकर पुटपाक करके २ तो. में प्रयुक्त उक नाम का एक योग, यथा-करंजफल, शहद और जल मिलाकर पीने से गुल्म, उदर रोग नीमकी छाल, अपामग, गिलोय, अर्जक तथा इद पाण्डु और द्वन्दज शोथ का नाश होता है। वृ० जौ। इन औषधियों से यथा विधि सधित वामक नि०र० गुल्म चि०। कषाय के सेवन से दारुण विसूचिका (हैजा रादि लेप-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] दे० 'करज का नाश होता है। च० द.विसू० चि. वामक बीजादि लेप"। कषाय-उन क्वाथ द्रव्य मिलित ॥ सेर जल १६ सेर तथा शेष ८ सेर। करञ्जादि लेह-संज्ञा पुं० [सं० पु.] उक्त नाम का एक योग । यथा-करंजबीज लेकर इतना भूने कि करञ्जादि घृत-संज्ञा पुं॰ [सं० क्ली० ] -पदंश रोग में प्रयुक्र उन माम का एक योग, यथा-करञ्ज, सुखं होजाय, इसे चूर्ण कर शहद के साथ बार-बार नीम की छाल, अर्जुन की छाल, जामुन की छाल, चाटने से दुस्साध्य छर्दि का नाश होता है। यो. साल वृक्ष की छाल और बगंद की छाल का २० छर्दि चि०। कल्क और काथ करके सिद्ध किया हुआ घृत दाह, | करजादि शीर्ष रेचन-संज्ञा पुं॰ [सं० ली.] शिर पाक युक्त लाल ओर बहते हुए उपदंश को नष्ट रोग में प्रयुक्र उक्न नाम का एक योग। यथाकरता है। भैष०२० उपदचि०। करंज की मींगी, सहिजन के बीज, तेजपात, सरसों करादि तैल-संज्ञा पु० [सं० वी० ] विसर्प रोग में और दालचीनी । इन्हें समान भाग लेकर बारीक प्रयुक्त उन नाम का एक योग, यथा-करा. चूर्ण बनाएँ। सतिवन ( सप्तपण ), कलिहारी, सेंहुड और पाक ___ इसका विधि पूर्वक नास लेने से शिरो विरेचन का दूध, चीता, भांगत दी, मीठा विष और होकर शिर के समस्त रोग नष्ट होते हैं । वृ० नि. गोमूत्र से पका हुआ तेल, विसर्प, विस्फोटक और | २० शिर रो० चि०। विचर्चिका का नाश करता है। यो० र० विष० | करञ्जाद्यंजन-सज्ञा पु . [सं० वी० ] उक्न नाम का चि० । विशेष दे. "करा तैल"। एक योग, यथा-करंज, कमल केशर, चंदन, Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करक्षिका करण्डी नीलकमल, और गेरू को गोबर के रस में पीसकर करड़-संज्ञा पुं० कड़ कुसुन । आँजन करने से रतौंधी का नाश होता है। वृ० करडायि-[मरा० कोसम । नि० र० नेत्र रो. चि०। करञ्जिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (1) काँटा । करड़े-[ पश्तो ] झींगुर । करड्या-[ मरा० ] कुसुम बीज । बरे । करंज । कंजा । सागर गोटा । कण्टक करंज । वै. करण-संज्ञा पुं॰ [सं-पु.] जंबीरी नीबू । जम्बीर निघ० । दे० 'करंज' । (२) नक्कमाल । डहर वृक्ष । हला०। करंज । डिठोहरी । सु० चि० २ १० सद्योव्रण __ संज्ञा पुं० [सं० जी० ] (१) हेतु । (२) चि०। इसका तेल खुजली में अत्यंत उपयोगी गात्र । देह । (३) विषयेन्द्रिय । चक्षुषादि सिद्ध हुआ है । विशेष दे० 'करंज' । इन्द्रिय । (४) हथियार । (५) स्थान । क्षेत्र । करजी-संज्ञा स्त्री [सं० स्त्री.] (१) महाकरंज । (६) क्रिया । काम। श. च०। डिठोहरी । श्ररारि । डहर करंज । भा० करण करिण्ड-[द० ] ज़मीकंद । सूरन । प्र. पू. १ भ० विशेष दे. “करा"। (२) लता करंज । बल्ली करंज । कंजा । करणत्राण-संज्ञा पुं॰ [सं० क्री० ] मस्तक । मत्था । सागर गोटा । कटकरंज। हे. च०। करट-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] धान्य विशेष । | करणा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] करना नीबू । पहाड़ी पय्यो०-कराल । त्रिपुटा । रुक्षण । श्रात्मका नीबू । करुणानिम्बुक। अङ्का । कराला । कारिडका । रुक्षणात्मिका। करणाधिप-संज्ञा पुं॰ [सं. पुं०] जीव । रूह । गुण-रुचिकारक, ठंडी, गौल्य, (चिकनी) करण्टक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] कमल की जड़। वातकारक, गुरु, (भारी) और पित्त को जीतने | भसीड । (२) मेंहदी का फूल । वाली है। रा०नि०व०६। | करण्टु-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] अमलोनी । बन करट, करटक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] [स्त्री० करटा] | नोनियाँ । लोणिका शाक । प० मु०। (1) कुसुम का पौधा । बरैं। कड़। रत्ना०1 करण्टोली-[ बम्बाधार करेला । फिराड़। (२) हाथी की कनपटी । हाथी का गंडस्थल || करण्ड-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] [स्त्री० करण्डा](१) मधु हला०। (३) कौश्रा । वायस । मे० । कोष । शहद का छत्ता । (२) दला ढक । (हजारा करटनी-संज्ञा स्त्री॰ [सं० स्त्री.] पेड़ पर का चूहा । चमेली)। (३) बाँस की बनी हुई टोकरी वा वृक्ष मूषिका । रस० २० अन्त्रवृद्धि चि०। पिटारी । डली । डला । करण्डी । मे० डत्रिक । करटा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) कठिनाई से (४) कारंडव नाम का हंस । हारा०। (५) दुही जानेवाली गाय । हे० च० (२) हाथी की एक प्रकार की चमेली । हज़ारा चमेलो। (६) कनपटी । हस्तिगण्डस्थल । कालखण्ड । यकृत । (७) एक प्रकार का सेवार । करटिनी-सज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] हथिनी । हस्तिनी शैवाल विशेष । करटी-संज्ञा पुं० [सं० पु., करन् ] हाथो । [हिं० ] कुरुल पत्थर। हस्ती । हे० च०। राः नि० । | करणः -संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] बाँस की उलिया [ मरा०, गु० ] करेली। या पेटारी। करटु-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] करकटिया नाम की करण्डफल, करण्डफलक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] कैथ चिड़िया। कर्करेटु पक्षी । हे च। का पेड़ । कपित्थ वृक्ष । रा०नि०व०११ । नोट-इसकी गरदन काली होती है। इसके | करण्डा-संज्ञा स्त्री० सं० स्त्री.] (१) यकृत । कानों के पर आगे बढ़कर दो सुदर सफेद गुच्छे | कालखण्ड । (२) फूल रखने की पिटारी । बना देते हैं । यह एशिया और अफरीका के कई करण्डी-संज्ञा पुं॰ [सं० पु. करण्डिन् ] (१) भागों में पाया जाता है। मछली । मत्स्य । त्रिका । (२) महानाही । करठी-[को०] करेली। रा०. नि । (३) फूल की पेटारी। Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करत २२०० करनफले बुस्तानी करत-दे. “कुर्त"। करद्रुम-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] कुचले का पेड़ । करतन:, करतीन:-[फा०] मकड़ी का जाला। __ कारस्कर वृक्ष । रा०नि० व०६। । करतम-संज्ञा प० [?] जहर ( कदाचित् मीठा करधक-[ बम्ब ] ( Perdin eylvatica) तेलिया) का एक भेद । क्रकर । करकटिया । करतर-[ ? ] अकरकरा। करधनी-संज्ञा पु० [हिं० काला धान ] एक प्रकार करण्डक-संज्ञा पुं० [सं०पु.] बाँस की डलिया या | ___ का मोटा धान जिसके ऊपर का छिलका काला पेटारी । और चावल का रंग कुछ लाल होता है। करधर-संज्ञा पुं॰ [देश॰] महुए के फल की रोटी । करतरी-संज्ञा स्त्री० दे० "कर्तरी"। महुअरी। करतल-संज्ञा पुं० [सं० पुं०] [स्त्री० करतली] करन-संज्ञा पुं॰ [देश॰] ज़रिश्क । (१)हाथ की गदोरी। हथेली हस्ततल । करनकुस-[40] घाट जड़ी। "ऊद्ध करतलेस्मृतं"। रा०नि०व०१८। करनतुत्ति-[ ता. ] काली कंघी का पौधा । करतल सङ्कोचनी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] मांस करनतूत-[पं०] कीमु । ही। पेशी विशेष । हाथ को बटोरनेवाली पेशी। हाथ को बन्द करनेवाली पेशी । करनपात-संज्ञा पु० [हिं० करन, सं० कर्ण पात= पत्ता] एक घास जो पत्र विहीन, फल शून्य, करतली-संज्ञा स्त्री० [सं०] हथेली । कटे हुये नाखून की तरह कालापन लिये भूरे रंग करतलीय अस्थ्यन्तरिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] की होती है। यह बदमज़ा और कडुई होती है। नाड़ी विशेष । अफ्रारजन। करताल-संज्ञा पुं॰ [सं० की.] दे॰ “करताली"। प्रकृति-प्रथम कक्षा में उष्ण और रूक्ष । करताली-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) करताल हानिकर्ता-मस्तिष्क को। नाम का बाजा । करतारी । (२) दोनों हथेलियों दर्पघ्न-उन्नाब। के परस्पर आघात का शब्द । ताली । हथोड़ी। प्रतिनिधि–इन्द्रजौ और सुपारी के फूल । करतलध्वनि। (३) ताड़ की मादा। मात्रा-६ मा० से १ तो० १॥ मा० तक । करतान:-[फा०] मकड़ी का जाला। गुणधर्म तथा प्रयोग–यह यर्कान स्याह करतृण-संज्ञा पुं० [सं० श्री.] केवड़ा । सफ़ेद | ( Black Jaundice) तथा शुष्क कास केतकी। में उपयोगी है। अनिद्रा रोग में इसका विशेष करतोय-संज्ञा पु० [सं० की.] अोले का पानी। (बिलख़ासा) प्रभाव होता है। इसका तेल पत्थर का पानी । वर्षांपल जल । तर व शुष्क खुजली एवं अण्ड शोथ के लिये करदम-संज्ञा पु० दे० "कर्दम"। गुणकारी है। उक्त रोग में सिरके में पकाकर करदल, करदला-संज्ञा पुं॰ [देश॰] एक प्रकार का इसका प्रलेप करते हैं । ख. अ०। यह स्वरोगों छोटा वृक्ष जो हिमालय में पाँच हजार फुट की में गुणकारी है और त्वचा के काले धब्बों को ऊँचाई तक पाया जाता है। पत्तियाँ छोटी-छोटी | मिटाता है। और गुच्छे के रूप में टहनियों के सिरों पर होती सापाला का हैं । पतझड़ के बाद नई पत्तियाँ निकलने से पहले। इसमें पीले रंग के फूल लगते हैं जिनके बीच में | करनफल-[अफरीका ] करन्फुल शामी । दो-दो बीज होते हैं । इसके बीज खाये जाते हैं। करनाल, करनाल-अ.] लौंग । लवंग । यह मार्च अप्रैल में फूलता है। | करनालीन-अ लौग का सत । लौंगीन । करदार-[१] दरदार । केरियोफाइलीन । करदौना-संज्ञा पुं० [सं० करxहिं० दोना ] दौना। | करनाले बुस्तानी-[१०] रंजमिश्क के पत्ते । Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करनाले शामी २३०१ करना फिरनफले शामी-[१०] एक छोटे पौधे का नाम है | निवारण होता है । इसके पीने से गर्भपात होता जिसके पत्ते वनशा के पत्तों की तरह और फल है। इसको मदिरा के साथ पीने से कीड़े-मकोड़ों सफ़ेद एवं सुगंधित होता है। का विष नष्ट होता है। इसके लेप से अंगों की करनफान-[सिरि० ] करोया। बादी मिटती है । इसकी जड़ को कुचल कर । करनकार-[2 ] करोया। तेल में पकाकर मलने से धनुस्तम्भ (कुज़ाज़) तथा करनी-संज्ञा स्त्री० एक प्रकार का पुष्पवृक्ष जो कोंकण ज्वर के दौरे में लाभ होता है। (ख० अ०) में अधिकतया होता है। यह तिक्र, तीक्ष्ण एवं करनाल-[१०] लौंग । उष्ण होती है और कफ, पित्त, उदरीयाध्मान तथा । पेट के कीड़ों का नाश करती है। परीक्षित है। करनब-[ मुश्र० ] दे० "कर्नब"। करनबाद-[?] करोया। ता. श०। करना-संज्ञा पुं० [सं० कर्ण ] एक पौधा जिसके पत्ते करन्कुल शामी-[१०] एक पौधा जिसका तना केवड़े के पत्ते की तरह लंबे-लंबे पर बिना काँटे के प्रायः एक गज ऊँचा होता है। यह ऊपर से होते हैं। इसमें सफ़ेद-सफ़ेद फूल लगते हैं जो बड़े खुरदरा होता है । इसमें अनेक शाखाएँ होती हैं । खुशबूदार होते हैं। इसके पत्ते इरक्रपेचा और वनशे के पत्तों की ___ संज्ञा पुं० [सं० करुण ] बिजौरे की तरह का तरह होते हैं। फूल सफेदी लिये नीलवर्ण का एक बड़ा खट्टा नीबू जो कुछ लंबोतरा (वा गोल) होता है, जिसमें से लौंग की गंध आती है। होता है । इसे पहाड़ी नीबू भी कहते हैं। हिंदु. इस लिये इसे गुले करन्फल (लौंग का फूल) स्तान में बहुत सी जगहों में इसका पेड़ लगाया कहते हैं। इसकी जड़ खर्बक स्याह की तरह होती है, जिसमें से दालचीनी की बू आती है। प्रायः जाता है । साहब अंजुमन पाराये नासिरी के अनु सार यह ज़ंदरान और फारस में होता है। विशेष तर जगहों में जंगली तुलसी के साथ उत्पन्न होता तया पारस्य के ग्रामों में यह बहुत होता है । कला है । यह श्याम देश में बहुतायत से होता है । प्रारम्भ में हरा और कड़वाहट लिए खट्टा होता करन्फलयः (अफरीका)। ज़हरः । है। जबतक यह पीला नहीं होता, इसकी उक्न प्रकृति-द्वितीय कक्षा में गर्म एवं रूक्ष । कड़वाहट बनी रहती है। परन्तु पककर जब यह हानिकर्ता-उष्ण प्रकृति को। कुछ-कुछ रनवर्ण का होजाता है, तब इसमें मिठास दर्पघ्न-बनफ्शा। आजाती है । इसकी पत्ती कागज़ी नीबू की पत्ती से मात्रा-३॥ मा०। चौड़ी और बिजौरे की पत्ती से छोटी होती है। गुण-धर्म तथा प्रयोग-इसको सुगंध द्रव्यों इसके बीज भी बिजौरे के बीज से छोटे होते हैं। में मिलाते हैं। इसके पीने से मृगी में लाभ होता उन देशों में इसके पेड़ अधिकता से होते हैं जहां है। आँख पर इसके लेप करने से वातज और गरमी बहुत पड़ती है । इसके फूल में चार पंखकफज (रतूबी) सूजन उतर जाती है। प्रारम्भ ड़ियाँ होती हैं । इन फूलों से अर्क बाहर खींचते में चक्षुगोलकगत नाडीव्रण को अतीव गुणकारी है। हैं। इसके फल खाग जाते हैं। इसके रस से इसके लगाने से स्तनजात शोथ भी विलीन होता | शर्बत पकाते हैं। किसी-किसी ने लिखा है कि है और जमा हुपा दूध बिखर जाता है। इसका | इसका फल बहुत बड़ा होता है और तौलने पर फूल सू घने से प्रतिश्याय का निवारण होता है। कभी-कभी पाँच से दश सेर तक होता है। यह इसको कथित कर पीने से श्वासकृच्छ ता, दमा, देखने में गोलाकार होता है। इसका छिलका तरखाँसी और मूत्रावरोध नष्ट होते हैं। इसके चिकना और पीला देख पड़ता है। गूदा सफ़ेद काढ़े में श्राबज़न करने से स्त्री का रुका हुआ वा गुलावी होता है । यह वृक्ष सदा फला करता मासिक स्राव जारी हो जाता है। इसकी जड़ को है। बम्बई में जो करुण दिसम्बर या जनवरी के कथित कर पीने से रजोरोधजनित पीड़ा का | महीने में आता है, वह सबसे अच्छा कहा जाता ५६ फा. Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना २२०२ करना है। बनाविया से आने के कारण इसे बनावी गुणधर्म तथा प्रयोग कहते हैं। आयुर्वेदीय मतानुसारपर्याय-करुणः-सं०, करना, कन्ना-हिं० । कफ वाय्वाम मेदोघ्नं पित्त कोपनञ्च । नारंज-१० । नारंग-फ्रा० । करुणोलेबुर गाछ, (राज. ३५०) कन्नालेबू-बं० । Citrus Decumana यह कफ, वायुनाशक, आमदोष नाशक, मेद नोट-शद्दीन ने मुरिदात हिंन्दी में इसे नाशक और पित्तवर्द्धक है। नारंगी लिखा है, जो सर्वथा प्रमादपूर्ण है। इसमें यूनानी मतानुसारकोई सन्देह नहीं, कि यह नारंगी सं सर्वथ प्रकृति-पीला छिलका और फूल प्रथम भिन्न वस्तु है। क्योंकि अंजुमन के संकलनकर्ता कक्षा में उष्ण और द्वितीय कक्षा में रूक्ष, अम्लत्व स्वयं नारंगी में यह लिखते हैं कि उसकी ईकार द्वितीय कक्षांत में शीतल एवं रूक्ष है। मतांतर संबन्धवाचक है। अर्थात् जिसका संबंध नारंग से से द्वितीय कक्षा में शीतल और प्रथम कक्षा में है। यह नारंजसे क्षुद्रतर एवं मधुरतर और अधिक रूक्ष है। भीतर का सफ़ेद छिलका और बीज सुस्वादु होती है । इसका छिलका सुगंधित प्रथम कक्षा में शीतल और द्वितीय कक्षा में रूत होता है। है। औरेसी के लेखानुसार कक्षा नीबू विविध नागरंगवर्ग शक्ति विशिष्ट है। तोहफ़ा के रचयिता के लिखिता नुकूल पीत त्वक् और पुष्प द्वितीय कक्षा में उष्ण (N. . Rutacea ) और रूक्ष है । अबु हामिद बिन अली बिन उमर उत्पत्ति-स्थान-भारतवर्ष । यह मलयद्वीपपुञ्ज समरकंदी रचित रिसालः प्राज़ियः व अशरवः फ्रेंडली और फिजी में स्वभावतः उत्पन्न होता है। में इसका उल्लेख मिलता है। करुण जंबूद्वीप से भारत में पाया है। इसे उष्ण हानिकर्ता-अम्ल और विशेषतः नीहार भक्षण प्रधान देश में अधिक लगाते हैं। भारत तथा करने से यकृत निर्बल होता है और शीतल ब्रह्मा में यह अधिक होता है। किंतु दाक्षिणात्य आमाशय शिथिल पड़ जाता है। एवं बंगदेश की अपेक्षा आर्यावत्तं में यह कम दर्पघ्न-शर्करा एवं मधु । मिलता है। प्रतिनिधि-बिजौरा (कन्ना बिजौरे से अधिक औषधार्थ व्यवहार--फल त्वक् का बाहरी लतीफ़-नरम पतला है)। हिस्सा, फलत्वक् तैल, पक्क फल स्वरस, पत्र और मात्रा-बीज २। मा०। पुष्प प्रभृति। गुण, कर्म, प्रयोग-शर्करा मिश्रित कन्ने का औषध-निर्माण-(१) करुण फल त्वक़् रस मनोल्लासकारी है। यह पित्त प्रकोप को शमन तैल। करता, रनोद्वेग को लाभ पहुँचाता, पित्त का मल , प्राप्त विधि-करने के छिलके को दबाने से या मार्ग से उत्सर्ग करता और पित्त का प्रवर्तन भी भभके में अर्क खींचने से उसमें से एक प्रकार का करता है । यह मद्यपानज खुमार को भी मिटाता तेल निकलता है, जो बहुत गुणकारी होता है । है। यह पैत्तिक ऊष्म व्याधियों को लाभकारी है कभी इस प्रकार इसका तेल तैयार करते हैं कि एतद्गत अम्लता में एक प्रकार की पिच्छिलता इसके ताजे पीले छिलकों या फूलों को तिज-तैल होती है जो उरोजात नजला ( नजलात सीना) में डालकर धूप में रखते हैं । एक सप्ताह के बाद एवं कास के लिए सात्म्य है। विशेषतया उस उन्हें निकालकर पुनः नए फूल छिलके डाल रखें। समय जब इसके फाँकों के सफेद छिलके को बीच तीन सप्ताह तक ऐसा करते रहें। इसके बाद में से चीरकर बीज निकाल कर और थोड़ी सी छानकर रख लेते हैं और समयानुकूल इसका | खांड बुरक कर आग पर रख देवें, कि दो-तीन यथाविधि सेवन करते हैं। जोश आ जाय । फिर इसे चूसें। नाशते की Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना २२०३ करनियत जगह इसका रस पीने से गरम ख़ानक़ान, पैत्तिक उदरजन्य वायु शूल तथा बादी को दूर करता है। कास और उष्ण आमाशयगत प्रदाह का निवारण इसका शर्बत पानी में मिलाकर पीने से शांति होता है । शर्करा मिलाकर इसका शर्बत बनाकर मिलती है । इसका रस पिलाने से विषाक कीटादि खाने से भी उक्त लाभ प्राप्त होते हैं। यह उष्ण दंशजनित विष का निवारण होता है। इसका प्रकृति को बहुत सात्म्य है । पुट्ठों के लिए अन्य ताज़ा रस पिलाने से पाचन नैर्बल्य,जिसमें भोजनोअम्ल द्रव्यों की अपेक्षा यह कम हानिकारक होता त्तर कै हो जाती है, मिटता है। इसके रसमें जवाहै। तथापि अस्वस्थ पुट्ठों को इससे हानि पहुँचती खार और मधु मिलाकर पिलाने से उरोशूल, कटिहै । इसके बीज बिषघ्न हैं। सात माशे इसके शूल, कूल्हे के जोड़ का दर्द और बादी का रोग बीज भक्षण से कीटादि जङ्गम बिष दूर होते हैं । श्राराम होता है । | तोले कागजी नीबू के तेजाब फलस्वक, फल और फल-मुकुल श्रामाशय बलप्रद में सोलह गुना पानी मिलाकर विलयन प्राप्त करें एवं संग्राही और काबिज है । इसके छिलके को इसमें कर के तेज को कुछ बूदें डालकर उसकी सुखाकर पानी के साथ खाने से छर्दि और हल्लास जगह काममें लासकते हैं। कन का रस शीघ्र दूर होते हैं । यह उदरज कृमियों को निकालता है, बिगड़ जाता है । इस लिये इसका रस देर तक इसके पत्र-पुष्प और फलस्वक् सूघने से मन प्रफु- नहीं पड़ा रहने देना चाहिये, प्रत्युत तुरत काम में ल्लित होता है। कन्ना और इसके पत्र प्लेग-ताऊन लाना चाहिये, इसे अधिक समय तक सुरक्षित और वायुदोषज महामारी को दूर करते हैं । इसका रखनेको सर्वोत्तम विधि यह है -सर्व प्रथम कन्ने फूल सू घने से प्रतिश्याय श्राराम होता है । इसकी का रस निचोड़ कर कुछ देर तक पड़ा रहने देवें । जड़ के बारीक रेशे शीतल मारक बिषों के लिए! जब उसका जम जानेवाला हिस्सा प्रथक् हो जाय, अतीव गुणकारी है । इनको सुखाकर सात माशे तब इसे वस्त्र पूत करके बोतल में गले तक भर की मात्रा में मय के साथ सेवन करना चाहिये। देवें और उसके ऊपर बादाम का तेल या कोई इसका ६ माशे छिलका मध के साथ सेवन करने अन्य तेल डाल देवें । अथवा वोतलों को श्रौटते से बिच्छ का विष उतर जाता है। माशे इसका हुये पानी में सोलह मिनिट तक रखकर फिर उनमें तेल पीने और लगाने से भी शोतल प्राणिज बिष काग लगा दिया जाय, तो और भी उत्तम हो। उतर जाता है । इसके छिलकों से प्राप्त तैल नार- अथवा मंदाग्नि पर उसका पानी उड़ाकर रसको दीन तैल के समान गुणकारी होता है। कोई कोई। गाढ़ा कर लेवें । अथवा रस को ऐसो सरदी में इसे उसकी अपेक्षा उत्तम समझते हैं। इसके फूल रखें, जिसमें तजलीयांश जम जाय और केवल एवं फलत्वक सुखाकर कपड़ों में रखने से ये अपने अर्क मात्र शेष रह जाय । गुण में यह पहले से प्रभाव से उनमें कीड़े नहीं लगते देते हैं। इसका भी बढ़ जाता है। पीला छिलका सिरके में डालकर अचार बनाकर इसके पेड़ की जड़ की छाल का काढ़ा पिलाने या इसका मुरब्बा तैयार करके खाने से प्रामाशय से ज्वर मुक्त होता है । इसके बीजों की फंकी देने को बल प्राप्त होता है । ख. अ०।। से कीड़े मरते हैं । इसका रस और बारूद बगाने इसके फूलों से खींचे हुये अर्क को अर्क बहार से खुजली मिटती है। कने का प्रचार बनाकर कहते हैं । यह उष्ण और रूत है तथा मस्तिष्क खाने से तिल्ली कटती है । (ख० प्र०) की दुर्वलता को दूर करता, हृदय को प्रफुल्लित संज्ञा पुं० [ देश• दिल्ली ] खट्टा का फूल । करता, भूख बढ़ाता, कामोद्दीपन करता और उरो संज्ञा पुं॰ [?] (१) हूम (बम्ब०)। शूल, वायुजन्य उदरशूल, खनकान तथा मूछा। चिलकुड, (ते.)। (२) ऊँटकटारा । उस्तरामें लाभकारी है। खार । (३) श्रोस। किराद । वैद्यों के मत से कला उष्ण है। यह कफ, वायु करना नीबू-संज्ञा पुं० दे० "करना"। ओर पेट के बढ़ जाने को मिटाता है। फलस्वक् । करनियून-[ यू० ] शाहबलूत ।। Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करनी २२०४ करप.सतरी करनी-संज्ञा स्त्री० [?] एक प्रकार का फूल । यथासंज्ञा स्त्री॰ [ देश काश०] साँवा । श्यामक । "करपाद विदाहश्चावयवानां च शेषकृत् । करनीमरम्-[ ता.] खरसंग । मध्ये पित्तस्य तृष्णास्यात् करपादे च पैत्तिके।" करनूब-[ देश. (उ. प. प्रां.)]Caratama बसवरा०७० silliqua करपान-संज्ञा पुं॰ [देश॰] एक चर्मरोग जिसमें करनूस-[रू.] हाऊबेर । अरश्रर । बच्चों के शरीर पर लाल लाल दाने निकल करनूस कालून-[रू.] चिलगोज़ा । पाते हैं। करनह-मुअ०] गोलमिर्च के बराबर एक दाना। | करपाल-संज्ञा पु[सं० पु.] खग। तलवार । ___ हरनूह । खड्ग । इसमें एक ही ओर धार रहती है। करन:-[अ०] सींग | शृंग। करपालिका-सज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] एक प्रकार का करन्तिया-[सिरि० ] पुदीना । अत्र जिसमें एक ही धार हो । छुरा । करन्तिया दरी आस-) श्र०टी० सा०। सिरि० ] नहरी पुदीना । करन्तिया रमिया | क (का)रपासम्-[ते. ] कपास । करन्तियाव तूरा-[सिरि० ] पहाड़ी पुदीना । करपिप्पलो-संज्ञा स्त्री॰ [] जंगलो पीपल । करन्तिया वफज ला-[सिरि• खेत का पुदीना । करपिंवा-[सिंगा० ] सुरभिनिंबु । कहो नोम । करन्तिया वेरा-[सिरि० ] जंगली पुदीना। करपोड़न-संज्ञा पु० [सं० की.] विवाह । पाणिग्रकरपत्र (क)-संज्ञा पु। सं० ली.] कराँत । हण । क्रकच । सु. सू०८ अ०। यह सुश्रुत-वर्णित करपुट-संज्ञा पुं॰ [सं० पुं०] दोनों हथेलियों को बीस प्रकार के अस्त्रों में से एक अस्त्र है। इसके ___ मिलाकर बनाया हुमा संपुट । अंजलो । अंजुरी। द्वारा छेदन और लेखन कर्म किया जाता है। करपुष्प-[ते. ] वन प्राईक । जंगली अदरक । करपत्रवान्-संज्ञा पुं॰ [सं० पुं. करपत्रवत् ] ताड़ (Zingiber cassumunar,Roxb.) का पेड़ । तालवृक्ष । श. च० । करपृष्ठ-संज्ञा पुं॰ [स० क्ली० ] हथेली के पीछे का करपत्रिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) जल- भाग : करभ । क्रीड़ा । जटा० । (२)तिलपर्णी।। | करपोक रिशि-[ता० ] वकुची । वावची । करपर-संज्ञा स्त्री० [सं० कर्पर ] खोपड़ी । कर्पर । करप्पु डामर-ता.] (Canarium Strictकरपरी-सज्ञा स्त्री० [ देश० ] पीठो को पकौड़ी। ___um ) काला डामर । बरी । मुंगौरी-मेयौरी। करपुकोङ्गिलियम्-[ ता. ] काला डामर । करपर्ण-संज्ञा पुं० [स० पु.] (१) भिंडी का करपुलि-[म० ] पंजीरी का पत्ता । पौधा । भिंडा वृक्ष । रा० नि० व० ४ । (२) करफ़-[१०] बीमारी का नज़दीक होना । रोग लाल रं । रक्कै रण्ड । रा०नि० व० । प्रगट होना। करपर्णी-संज्ञा० स्त्री० [सं० स्त्री० ] भेण्डा । भिण्डी। करफ़रोस-[१] हिना । राम तरोई। करफियून-[यू०] कबाबचीनो। करपल्लव-संज्ञा पुं॰ [सं० पु] (1) उँगली । करफूल-संज्ञा पुं॰ [हि० कर+फूल ] दे० "दौना" । 'अंगुली । शब्दकल्प० । (२) हस्त । हाथ। करफश-[फा०] दे. "करफ़्स"। करपक्ष-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] चमगीदड़ आदि। करफ स-[फा०] करफ़्श से मु.] अजमोदा । करपात्र-संज्ञा पुं॰ [सं० वी० ]) जलक्रीड़ा। करफ स अजामी-[१०] करप्स माई । करपत्रिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] हारा। | करफ्स कोही-[फा०] अजमोदा । करपाद-पित्त-संज्ञा पुं॰ [सं० क्री.] पित्त जन्य एक करफ स जबली-[१०] पहाड़ी करप्स । रोग । इस रोग में हाथ पैर में जलन होती है । | करफ.सतरी-[फा०] शमीरनियून । Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करमसदेव २२०५ करभसंधि हारसदेव-[अ० ] हंसराज । परसियावशाँ। | करबालिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] करवाली । एक करस दश्ती-[१०] कबीकज । .. छोटी तलवार । करफ़्स नब्ती-[१०] करफ़्स का एक बड़ा भेद। करबी-[बं०] कनेर । ख़रज़हरा । करफ्स पहाड़ी-[ ...... ] पहाड़ो अजमोदा। करबीर-संज्ञा पु० दे० 'करवीर"। करस बर्रा-[अ०] पहाड़ी जंगली करफ़्स। करबीरनी-सज्ञा स्त्री० दे० "करवीरणी" । करपस मकदूनी-[फा०] अजमोदा । करबुन-[ ? ] एक दवा का नाम है । करफस मशरिक़ी-[१०] करफ़्स का एक बड़ा करबुर-संज्ञा पुं० दे० "कबुर"। भेद। करबोल:-[?] लबलाब का एक भेद । करफ़्स माई-[अ०] पानी में पैदा होनेवाला करफ़्स। करभ-संज्ञा पुं० [सं० पु.] [ स्त्री० करभी ] कर सशतवी-[१०] करफ़्स का एक बड़ा भेद । (१) गजपीपल । प० मु०। (२) ऊँट । अकुसलियून। रत्ना०। (३) ऊँट का बच्चा। उष्ट शावक । करफ्स सखरी-[अ.] पथरीली जमीन में पैदा (४) हुरहुर । सूर्यावर्त्त । (५) गजशिशु । होनेवाला करक्स। हाथी का बच्चा । अ० टी० सा०। (६) हाथी करफ्स सहराई-[अ०] जंगली अजमोदा । का सूंड़ । करिशुण्ड । (७) नख नाम की सुगंकरफ्सा-[ यू० ] अजमोदा। धित वस्तु । नखी । रा०नि० व० १२ । (८) करफ़्सुल जिबली-[अ० ] फ़ितरिसलियून । हथेली के पीछे का भाग। कर पृष्ठ । Carpus करफ़्सुल् माऽ-[अ० ] कुर्नुल्ऐ.न । जर्जीरुलमाऽ। (8) कटि । कमर । करप्सुल सखरी-[१०] दे० "करफ़्स सनरी"। करभक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] प्रियतम हस्तिशावक करबडाबेल्ली-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] रामचना वा या उष्ट्रशावक । दे० "करभ" । खटुना नाम की बेल । अत्यम्लपर्णी । बल्लीसूरन । करभकाण्डिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ऊँटकटारा रा०नि० व०३। उष्ट्रकाण्डि । रा०नि० व. १०। करबतवा-संज्ञा पुं॰ [देश॰] एक पौधा जिसकी करभञ्जिका कराण्डका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] बेल पानी के किनारे जल पर फैलती है और वह (.) महाकरंज । अरारि । डहर करंज । भा० खोखली होती है । इसका साग पकाकर खाते हैं। पू० १ भ०। (२) लता करंज । खरथुप्रा । करभ पृष्ठया-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] धमनी विशेष । प्रकृति-गरम तर। (Dorsal carpal artery ) गुण कम, प्रयोग-यह प्राध्मानकारक है करभप्रिय-संज्ञा पुं० [सं० पु.] छोटे पीलू का तथा श्राहार पचने के समय एवं तदुत्तर वायु निःसारक ओर उदर मृदुकारी है। -ना० मु० । करभप्रिया-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (1) दुरालभा करबफूल-[ को ] ( Mussaenda fron (२) चुद्र दुरालभा । छोटा धमासा । रा. नि. dosa) नागवल्ली । बेबिना। व० ४ । (३) उष्ट्र वा करिशावकादि की स्त्री। करबरा-[पं०] डकरी (पं० ) दैदल ( नैपा०)। छोटी हथिमी वा उँटनी। करब:-[फा०] एक पौधा है। करभवल्लभ-संज्ञा पुं॰ [सं० पुं०] (१) कैथ का करबन-[?] एक दवा का नाम है । पेड़ । (२) छोटा. पीलू का पेड़। रा. नि. करबश, करबश:-- फा०] जंगली छिपकली। व० ११ । करबस, करबसः- बज़्यः। | करभवारुणी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] ऊँटकटारे की करबसू शराब | "स्थितंकरभवारुणी" । रस० र० वाजी०। करबावस-[?] जंगली छिपकली बजाः। उष्ट्रकण्टकगुरुमोत्थित वारुणी । करबाल-संज्ञा पु० [ सं० पु.] (1) नख । करम संधि-सज्ञा स्त्री० [सं०] हाथ की पीठकी संधि । नाखून । श० मा०। (२) खङ्ग । तलवारखाड्ग ।। (Carpal joint) अ० शा० । पेड़। Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करभा करभा - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) वृश्चिकाली । विछाती । रा० नि० व० ६ । ( २ ) युग्मफला । उतरन । इन्दीवरा । रा० नि० । नि०शि० । (३) सुदुरालभा । छोटा धमासा । नि० शि० । करभाण्डका - संज्ञा बी० [सं० स्त्री० ] अङ्गारवल्लिका । करभादनिका, करभादनी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] दुरालभा । छोटा धमासा । रा० नि० व० ६ । करभान्तर - संज्ञा स्त्री० [सं०] उक्त नाम की संधि । (Intercarpal joint ) श्र० शा० । कर भास्थि - संज्ञा स्त्री० [ स० ] वह हड्डी जो हथेली के पीछे होती है । कराङ्गुलिशलाका । ( Metacarpus ) करभी - संज्ञा स्त्री० [सं० पु० कराभिन् ] [ खी० करभी ] ( १ ) हथिनी । स्वीकरभ । ( २ ) ऊँनी । उष्ट्र । भा०म० ३ भ० सू० वा० चि० । ( ३ ) छोटी मेड़ासिंगी, हस्व मेपशृंगी । ( ४ ) सफेद श्रपराजिता । संज्ञा पुं० [सं० पु० ] हाथी । हस्ती । करभीर - संज्ञा पु ं० [सं० पु ं०] सिंह । शेर । श० २० । करभु -संज्ञा पुं० [सं०] रोहिण | करभू-संज्ञा [सं० स्त्री० ] नख । नाखून | करभोदर्या -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] धमनी विशेष | अ० शा० । ( Vatarcarpal artery.) करभोरु - संज्ञा पु ं० [सं०] हाथी की सूंड़ के ऐसा जंघा । संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] चौड़ी जाँघ बाली श्रौरत । प्रशस्त ऊरूविशिष्टा स्त्री । वि० [सं०] जिसकी जाँघ हाथी की सुड़ की सी मोटी हो । जिसकी जाँघ सुन्दर हो । सुंदर जाँघवाली | करम - संज्ञा पुं० [ श्र० ] अंगूर का पेड़ । संज्ञा पु ं० [ बम्ब० ] मुर नाम की गोंद वा पच्छिमी गुग्ग्गुल जो अरब और अफ्रिका से जाती है । इसे " बंदर करम" भी कहते हैं । वोज । संज्ञा पुं० [फा०] ( १ ) एक साग । ( २ ) करमकल्ला । कर्नब | संज्ञा पुं० [देश० ] एक बहुत ऊँचा पेड़ जो तर जगहों में विशेष कर जमुना के पूर्व की ओर हिमालय पर ३००० फुट की ऊँचाई तक पाया २२०६ करमकल्ला जाता है। हिंदू लोग इसे कदम की एक जाति मानते है | संस्कृत ग्रंथकार इसे "धारा कदम्ब" वा कलम्बक लिखते हैं। इस पेड़ को हलदू वा हरदू भी कहते हैं। (Adina Cordifolia, Hook. f . ) वि० दे० ' कदम" । करमई - संज्ञा स्त्री० [देश० ] कचनार की जाति का एक झाड़ीदार पेड़ जो दक्षिण मलावार आदि प्रांतों में होता है । हिमालय की तराई में गंगा से लेकर आसाम तक तथा बंगाल और बरमा में भी यह पाया जाता है । बंबई में इसकी चरपरी पत्तियां खाई जाती हैं। और जगह भी इसकी कोपलों का साग बनता है । करमकल्ला-सं० पुं० [अ० करम + हिं कल्ला ] एक प्रकार की गोभी जिसमें केवल कोमल कोमल पत्तों का बँधा हुआ संपुट होता है। इन पत्तों की तर कारी होती है । यह जाड़े में फूल गोभी के थोड़ा पीछे माघ फागुन में होती है । चैत में पत्ते खुल जाते हैं और उनके बीच से एक डंठल निकलता है, जिसमें सरसों की तरह के फूल और पत्तियाँ लगती हैं। फलियों के भीतर राई के से दाने वा बीज निकलते हैं । पय्य० - पत्र गोभी, पात गोभी, मूत्र गोभी, बंद गोभी, बँधी गोभी, करमकल्ला - हिं० । करम, कलम' कलमगिर्द -फ़ा० । कर्नब, वक़लतुल् अन्सार - श्र० | Brassica ले | Gabb age-sto टिप्पणी- आयुर्वेदीय निघंटु ग्रंथों में करमकल्ले का उल्लेख नहीं पाया जाता । खजाइनुल् श्रद् विया में बुस्तानी, जंगली ओर दरियाई भेद से जो तीन प्रकार के करमकल्ले का निरूपण किया गया है, उनमें बुस्तानी का वर्णन करमकल्ले का न होकर, फूल गोभी का सा जान पड़ता है । इसमें से हर एक के पुनः अनेक उपभेद होते । इसके अनुसार जंगली क़िस्म कडुई होती है । अनार के दानों के रस के साथ पकाने से इसकी उम्र कड़वाहट जाती रहती है। इसमें औषधीय गुण की प्रबलता पाई जाती है। इसके बीज श्वेत मरिच की तरह होते हैं। इसके पत्ते बागी की अपेक्षा श्राध के सफ़ेद पर रोई दार और उत्तर Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करमकल्ला २२०७ करमकल्ला होते हैं । करमकल्ला शब्द से वह किस्म अभि- प्रेत होती है, जो बागों और बाड़ियों में प्रारोपित होती है । इसको श्रारब्य भाषा में कर्नब नन्ती भी कहते हैं । कनर्बुल माड नीलोफ़र की अन्यतम प्रारब्य संज्ञा है। करमकल्ले की कोई पृथक जाती नहीं होती । इसकी दरियाई जाति इससे भिन्न हो है । इसके पत्ते बड़े बड़े और जड़ लाल होती है। इसमें दूध होता है। स्वाद में यह तिक और क्षारीय होता है। विशेष विवरण के के लिये गांभी' शब्द के अंतर्गत देखें। सषप वर्ग (N. O. Crucifere. उत्पत्त स्थान-विदेशों से आकर अब भारतवर्ष में सर्वत्र होता है। गुणधर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसारपत्रगोभी सरा रुच्या वातला मधुरा गुरुः ।। . (शा. नि० भू० परि०) पातगोभी वा करमकल्ला-दस्तावर, रुचिकारक, वातकारक, मधुर और भारी है। यूनानी मतानुसार प्रकृति-विभिन्न शक्ति विशिष्ट (मुरक्किवुल कुवा) और प्रथम कक्षा में उष्ण और द्वितीय कक्षा में रूक्ष है। मतांतर से तृतीय कक्षा में रूक्ष है। कोई कोई इसके पत्तों को द्वितीय कक्षा में उष्ण रून निरूपित करते हैं। जंगली तृतीय कक्षा में उष्ण और रूक्ष है । बाग़ी करमकल्ले के बीज प्रथम कक्षा में उष्ण और रूक्ष है । स्वाद-फीका हराँयध ओर किंचित् तिक। हानिकत्ता-तबखीर वा वाप्पारोहण के कारण दृष्टि एवं मस्तिष्क को निर्बल करता है। दूषित रक्कोत्पादनीय आहार (रबीयुगिज़ा) है। सांद्र सौदावी खन उत्पन्न करता है। इसे प्रति मात्रा में सेवन करने से अाकुलताकारक स्वप्न दर्शन होता, दुष्ट चिंता एवं दूषित और गर्हित विचार उत्पन्न होते हैं। यह आमाशय को हानिप्रद है, दीर्घपाकी और प्राध्मानकारक है, विशेषकर गरमो में उत्पन्न होनेवाला बीज फुफ्फुस को हानिप्रद है। दर्पघ्न-गरम मसाला, लवण, घृत, छाग मांस और इसका जल में उबालकर और उस जलको फेंककर और भूनकर पकाना । शहद इसके बीजों का दर्पघ्न है । रोग़न और कुक्कुट मांस । प्रतिनिधि-गोभी। मात्रा-खाद्य है। इसका साग अधिकता से खाया जाता है । बीज ३॥ माशे और कोई-कोई ६ माशे तक इसकी मात्रा बतलाते हैं । गुण, कर्म, प्रयोग-(१) खुस्तानी वा बाग़ी करमकल्ला दोष परिपाककर्ता, कोष्ठ मृदुकर्ता (मुलय्यन ) ओर रौक्ष्यकारक वा शोषणकर्ता (मुजफ़िना) है। इसकी मृदुकारिणी शक्कि इसके जलीयांश में होती है और शोषण कारिणी (तजफ्रीफ़ ) शक्ति इसके जर्म (ठोसावयव ) में । इसको उबालकर पहला पानी फेंक देने से इसका कोष्ठमृदुकारी गुण जाता रहता है और विपरीत उसके यह संग्राही होजाता है। इसी कारण जब इसे अधिक गलाकर पकाते हैं। तब यह संग्राही अर्थात् काविज़ होजाता है । क्योंकि इसका द्रवांश (रतूबत) नष्ट होजाता है। यह प्राध्मान कारक है और अपने प्रभावज गुण के कारण जिह्वा को शुष्क करता है, वाजीकरण कर्ता, मूत्रकर्ता, प्रार्तव रजःस्रावकर्ता, अवरोधोत्पन्न कर्ता और खुमारी को दूर करता है। इसके काढ़े पीने से संधिशूल श्राराम होता है । यह शिरःशूल मिटाता और शैथिल्य वा अंगसाद सुस्ती मिटाता है। इससे रन कम उत्पन्न होता है। अजामांस के साथ पकाने से यह अपेक्षाकृत उत्तम होता है। इसके भक्षण से नींद बढ़ जाती है। इसके बीज भक्षण से मस्तिष्क की ओर वाष्पारोहण नहीं होता और शिरःशूल धाराम होता है । यदि किन्नता, वाष्प वा मस्ती के कारण दृष्टि जाती रहे और धुध पैदा __ होजाय, तो इससे उन विकार दूर होजाता है पर यदि नेत्र में रोक्ष्य का प्रावल्य हो, तो यह अत्यंत हानिकर होता है । यह क्रिश्न नेत्र में उपकारी है। यह कंपवायु में भी लाभकारी है। यह जीर्णकास को दूर करता है । सिरके के साथ यह प्लीहा शोथ को मिटाता है । यदि आवाज पड़ जाय तो यह उसको खोलता और शुद्ध करता है। इसके पत्तों के रस का गण्डूष धारण करने से खुनाक (गला Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करमकल्ला २२०८ करमरा पड़ना) आराम होता है । करमकल्ले से उदरकृमि और वातरक नाराक (निरिसहर ) है। सिर मृतप्राय होते हैं । इसकी जड़ की राख पथरी को के साथ यह खुजली को दूर करता है। तोड़कर बहा देती है । इसके फूल की बर्ती योनि | (२) जंगली करमकल्ला सभी गुणधर्म में में धारण करनेसे गर्भाशयस्थ शिशु मर जाता है । | बाग़ी से बलिष्टतरहै । इसमें शोषण एवं मृदुकरण और मासिक स्राव जारी होजाता है। इसके पीने | गुण के होने पर भी परिपाक की शकि अपेक्षाकृत से सर्प और वृश्चिक विष का निवारण होता है।। अधिक होती है। यह अत्यंत परिष्कार कर्ता सूजन फोड़ा और कन्ठमाले पर इसका लेप लाभ (जाली) शोथन और विरेचक है। यदि इसको कारी होता है । अग्निदग्ध पर इसमें अंडे की मोटे गोश्त के साथ थोड़ा सा पकाकर खाते हैं, सफेदी मिलाकर लगाने से उपकार होता है। इसे तो दस्त पाते हैं। इसे अधिक पकाने से मलाजलाकर शिर के गंज पर लगाने से खालित्य वरोध उत्पन्न होजाता है । इसके पत्तों के प्रलेप से आराम होता है । पर इससे बाल नहीं जमते हैं। व्रणपूरण होता है । इसका पत्रस्वरस मर्दन करने करमकल्ले के पत्ते पकाकर खाने के उपरांत मदिरा से तर और खुश्क खुजली पाराम होती है । इसकी पान करने से मादकता नहीं होती है । इसके बीजों जड़ सुखा पीसकर अथवा बीज पीसकर सात माशे को भी मदिरा के साथ अथवा मद्यपान से पूर्व मदिरा के साथ फाँकने से कृष्ण सर्प (अाई) भवण करने से नशा नहीं पाता और खुमारी विष नाश होता है । इसके बीज अत्यन्त बाजी. पूर्णतया खो देते हैं। पुरुष सेवा के उपरांत यदि स्त्री योनि में इसकी वर्ति धारण करे, तो ये वीर्य (३) दरियाई करमकल्ला प्रकृति को मृदुकर्ता को विकृत कर देते हैं । इनके लेप से व्यंग और और सारक है। इसकी जड़ और पत्ते बीज की झाँई मिटती है । कीटादि विषों के लिए यह अपेक्षा अधिक संशोधनकर्ता है । समग्र पौधे का अमोघौषधि हैं । कुक्कुट मांस के साथ करमकल्ला क्वाथ करके पीने से या थोड़ा पकाकर खाने से पकाकर खाने से शरीर को पर्याप्त श्राहार प्राप्त दस्त प्राजाते हैं। मदिरा के साथ मिलाने से होताहै। सीनेमें नज़ला एकत्रीभूत हो,तो उसे लाभ मलावरोध होजाता है। किसी-किसी के मत से पहुँचाता है। इसकी जड़ जलाकर मधु मिलाकर इसका भक्षण वर्जित है। केवल शोथहर प्रलेपों में चाटने से खुनाक ( कंठ क्षत विशेष) श्राराम हो प्रयोजित करने की आज्ञा है। कहते हैं कि यह जाता है । कंठशोथ के कारण यदि कौवे लटक जंगली किस्म से भी अधिक गुणकारी होता है। जाय, तो भी इससे उपकार होता है। शेख के माशे इसके बीज भक्षण से उदरज स्फीत कृमि कथनानुसार इसकी जड़ अतिशय दीर्घ पाकी है। कद्द, दाने मर जाते हैं। ख. श्र०। नासिरुलमुत्रालजीन के अनुसार इसका काढ़ा करमकांड-[ नेपा०] अरलू । सउना । ( तबीख ) अपस्मार नाशक है । मख्ज़न मुफ़रि- | करमचा-[बं०] (१) करौंदा । दे. "करम्चा"। दात के अनुसार यह रद्दी माद्दे को पकाता और | करमजुवा-[?] एक वृक्ष। ( Kayea floriमातदिल करता है । मुफ़रिदात नासिरीके अनुसार ____ bunda, Dr. Wall.) इसके बीज ( तुरुम कर्नब) धनुर्वात (कुज़ाज़ ) | करमट्ट-संज्ञा पुं० [सं० पु.] सुपारी का पेड़। को लाभकारी है। इसे यदि गावज़बान के पानी | गुवाक वृक्ष । त्रिका० । के साथ खायें तो मदिरापान जनित मस्ती का करमंडे-[ मरा० ] करौंदा । निवारण हो । यह वीर्यवर्द्धक है । बुस्तानुलमुफ़रि | करमद-संज्ञा पु० दे० 'करमट्ट। दात के अनुसार करमकल्ले का उसारा नाक में | करमध्य-संज्ञा पुं॰ [सं० ली० ] एक माप जो २ सुड़कने से मस्तिष्क शुद्ध होता है और निद्रा | तोले के बराबर होती है । कर्ष । ५० प्र० १ ख० । पाती है । इसके बीज तुर्मुस के साथ उदरज | करमरदा-[ ता० ] करमई । करौंदा । कृमिनाशक हैं । इसकी पत्ती का लेप श्वित्रनाशक | करमरा-[ बम्ब० ] कमरख । कर्मरङ्ग । Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करमरी २२०॥ करमरी-संज्ञा स्त्री० [१] एक जंगली फल जो श्राकार | करमाला-संज्ञा पुं॰ [देश॰] अमलतास। में मकोय के बराबर और काले रंग का होता है। करमाली-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] सूरज । सूर्य । इसे नमक मिर्च से खाते हैं। यह खट्टा होता है। करमिली-[?] बालूबुखारा । प्रकृति-शीतल । करमी-[विहा. ] नाली । नारी। हानिकर्ता-मलावष्टम्भकारक एवं भारी है। करमीतून-[यू० ] जीरा । दर्पघ्न-नमक मिर्च । करमुक्त-संज्ञा पुं॰ [सं० क्री०] एक अस्त्र । बरछा । गुण-धर्म तथा प्रयोग-यह शुक्र सांद्रकर | करमूल-संज्ञा पुं॰ [सं० की.] मणिबन्ध । कलायी। शिश्नप्रहर्षकारी एवं कामोद्दीपन है। यह संको रा०नि० व० १८ । चक है। उक्लेश एवं वमन का नाश करती है करमली-संज्ञा पु[ देश.1 एक पहाड़ी पेड़ जो और पिपासा शामक है । म मु०। गढ़वाल और कुमायूँ में बहुत होता है। करमई-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (1) Fslacour करमृतक-[सं०१ ] बाँझ खेखसा । tia cataphracta पानी आँवला । पानी करमेवा-संज्ञा पु० [सं० कर+हिं० मेवा ] एक आमलक वृक्ष ।। अटी. सा०। (२) करौंदा । प्रकार का साग। रा०नि०व०१०। वै० निघ० । राज० । भा०। करमैल-संज्ञा पुं॰ [देश॰] एक प्रकार का तोता च० सू० ४ ०। जो साधारण तोते से कुछ बड़ा होता है। इसके करमईक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (1) करौंदा । परों पर लाल दाग़ होते हैं। करमई वृक्ष । (२) एक प्रकार की लता। (३) करमोद-संज्ञा पुं॰ [सं० कर+मोद ] एक प्रकार का कराम्ल । आँवला । अगहनी धान । करमईका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] दे० 'करमईक । करम्कंदु-[मरा० ] सोनापाठा । अरलू । श्योनाक । करमहन-संज्ञा पुं० [सं० पुं०] करमचा का पेड़। करम्चा-[बं०] कंजा । करंज। करौंदा। करम्ब-संज्ञा पुं.दे. "करंव"। करमर्दिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] पहाड़ी दाख की | करम्दा-संज्ञा पु० दे० "करौंदा"। तरह का एक फल जो पर्वती दाख के समान | करम्बी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] कलमी शाक। गुणवाली है। करोंदी । यथा-"द्राक्षा पर्वतजा कलम्बी। याहक तादृशी करमदिका" |-भा० पू० १ ० | करम्बु-[ मल• ] Gussiaca suffruticosa अाम्रादिब०। बनलौंग। करमर्दी-संज्ञा स्त्री० [सं० पु०, स्त्री.] (१) कंजा। [ता०] उख । गन्ना । ईख । ___ करंजवृक्ष । (२) करौंदा । करौंदी । रत्ना० । करम्बेल-[ बम्ब०, मरा० ] भव्य । चालता । करमल्लिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] चमेली। ( Dillenia Indica ) करमल-[पं०] हरमल । इसपंद । करम्भ-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (1) दही मिला संज्ञा पुं॰ [ देश.] कमरख । हुश्रा सत्तू । दघिसा । प. मु.। (२) वाग्भट करमा-संज्ञा पुदे० "कौमा"। के अनुसार वीरतरादिगण की एक ओषधि । उत्तम [सिरि० ] हड्डी। अरणी । वा० सू०.१५ अ वीरतरादिः अरुणः। करमाई-संज्ञा स्त्री० दे० "करमई"। संज्ञा पुं॰ [सं० की०] (१) प्रियंगुफल ।. [सिरि० ] शुकाई। (२) स्थावर विषों में से एक प्रकार का फलविष संज्ञा स्त्री० अम्ली। अम्लोसा । दे. "फलविष" । (३) एक प्रकार की गोंद जो करमार-[?] बाँस । जहरीली होती है । यह स्थावर विषों के अंतर्गत है करमाल-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (1) धूआँ । (४) एक प्रकार का फूल | सु० कल्प० २ ०। धूम । खतमाल । हे० च० । (२) मेघ । बादल। (५) शतमूली । शतावर। ५७ फा० Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करम्भक २२१० करल्लु करम्भक-संज्ञा पु० [सं० पु.] सफेद चिरचिटा। कुछ बड़ी और वहुत सुन्दर होती है । यह हिमारे श्वेत किणिही। लय में प्रायः सभी जगह पाई जाती है। संज्ञा पुं० [सं० की.] (१) दही मिला | कररुह-संज्ञा पुं॰ [सं• पु] (१) नख । नाखून हुभा सत्तू । हारा० । इसका अपर नाम 'ककसार' | रा०नि० व० १८ । (२) नखी नामक सुगंधित है। निजैरालिाभः प्रादात द्विजन्मेभ्यः कर- वस्तु । नख । रा०नि०व०१३। (३) एक: म्भकम्।" ( राजत० ५। १६)(२) अविरल प्रकार का धूप जिसमें अगर श्रादि पड़ते हैं। वै० पिष्ट यव । दरा हुश्रा दाना । निघ० २ भः । (४) उँगली । करम्भा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (१) शतावरी । करसहा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] नख । नाखून । सतावर । (२) प्रियङ्गु । फूलप्रियङ्गु । रा०नि० कररेखा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] हाथ की रेखा । ५० १२ । (३) इन्दीवरा। उतरन । के० दे० 'रेखाः सामुद्रिक ज्ञेयाः शुभाशुभानवदकाः" । नि०। (४) इन्दीवरी। रा. नि० व० १८। करम्भ-[पं. ] ज़न्द । शना (पं० लेदक)। करल-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] कैथ का पेड़ । कपित्थ करयनीली-[१] नीलीपत्र । वृक्ष । करयपाक-[ देश०] एक प्रकार का नीम जो कच्चे | करल वैकम्-[ मल० ] ईशरमूल । जरावंद हिंदी । पर हरा और पकने पर ललाई लिये नीला और करला-संज्ञा पु० दे० "कल्ला" | त्रिपुटा । काला होता है। सुरभिनिंब । कृष्णनिंब । | करलासना-[ देश. J वन बर्बटी । अरण्य मुद्ग । करयल-[द० ] करीर । करील ।। . ( Phaseolus adenanthus.) करयल का तेल-[१०] करीर का तेल । करली-संज्ञा स्त्री॰ [ देश०, गु० ] (१) छोटा करेला करयापाक-[ द० ] दे॰ “करयपाक"। (२) कुलीचा-भाजी । कराली-नु-भाजी । करयापात-द.] सुरभिनिंब । कढ़ी नीम । सज्ञा स्त्री॰ [सं० करील](१)कल्ला। कोमल पत्ता करयास-[6.] मांस । गोश्त । कनखा । (२) एक प्रकार का शाक जातीय करयून-[ ] कंतूरियून। सुप जो बर्षाऋतु में उत्पन्न होते हैं। पत्ते लम्बे करर-[१] करै । सफ़ेद जीरा। होते हैं । पत्तों के बीच में से एक बाल निकलती [पं०] डकरी । दैदल ( नेपा०)। है। इसमें सफेद फूल होता है। नीले रंग का फल संज्ञा पुं॰ [ देश०] (१) एक जहरीला लगता है। इसके पत्तों का शाक होता है। शा० कीड़ा जिसके शरीरमें बहुत सी गाँठे होतीहै । (२) नि. भू.। रंग के अनुसार घोड़े का एक भेद । (३) एक पो०-करलो, दीर्घपत्रा, मध्यदण्डा, प्रलप्रकार का जंगली कुसुम वा ब” का पौधा जो म्बिका -(शा०नि० भू०)-सं० । करली -हिं, उत्तर पश्चिम में पंजाब, पेशावर आदि सूखे कुलीची भाजी -गु० । करलीनी भाजी -मरा० । स्थानों में बहुत होता है । इसके बीज से निकाला फेलेञ्जिवम् व्युबरोज -ले०।। हुआ तेल पोली का तेल कहलाता है ।अफरीदियों गुण-करली शीतला स्वाद्वी वातला कफ का मोमजामा इसी तेल से बनाया जाता है। कृद्गुरुः । करली मधुरातिक्ता बातला सारका इसमेंफूल बहुत अधिकता से लगते हैं। इसकी मता । शानि० भू०। लकड़ी बहुत मुलायम होती है । हिं० श० सा०। करलीनी-भाजी-। कररी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री. ) हाथी के दाँत की करली-नु-भाजी- गु० ] करली। जड़ । करिदंतमूल । हला। करलुरा-संज्ञा पुं॰ [देश॰] एक प्रकार की काँटेदार संज्ञा पुं॰ [सं० कर्बुर] बन तुलसी । बबरी लता जिसमें सफेद और गुलाबी फूल लगते हैं। ममरी। दे० 'कररुया"। संज्ञा स्त्री० [सं० कुररी ] वटेर की जाति की करल्ली-[पं० ] लाल कचनार । रक काञ्चन । एक प्रकार की चिड़िया जो साधारण चिड़िया से । करल्लु-[ बम्ब० ] सफेद सिरस । Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करवट २२११ करविला कुरवट-संज्ञा पुं॰ [देश० ] एक प्रकार का बड़ा वृक्ष, प्रकृति में यह गौरे का समान होता है। किसी जिसका गोंद जहरीला होता है। जसूद । किसी के अनुसार करवाँ और कर वानक इन दोनों नताउल । शब्दों का व्यवहार एक प्रकार के पक्षी के लिये करवटी-[ मरा०] वस्तर। Callicarpa-la- होता है। यह पक्षी दो प्रकार का होता है।-(1) nata. जंगली जो जंगलों में रहता है, (२) दरियाई 'करवटादि-संज्ञा पुं० [सं० पु.] रामचना | अम्ल- जो नदी-कूलों पर होता है। किंतु दरियाई कद में पर्णी । परब्य वासिनी। अमलोला। नि. खुश्की वाले से द्विगुण बड़ा होता है। दोनों का शि०। रंग सफेदी लिये लाल होता है। किसी किसीने रंग करवडादि-संज्ञा पुं॰ [सं० पु. | रामचना । अम्ल- के विचार से इसके दो भेद किये है। (१) पर्णी । अरण्यवासिनी। अमलोला । नि०शि० । सफेदी लिये लाल और (२) सफेदी लिये काला। करवधे-[ मदरास] सिरस । इनके पाँव और गर्दनलंबी होतीहै। शीलानी "शरह करवन-[ मल० ] वरुण । बरना । कान्न" में लिखते हैं कि यह एक पक्षी हैं करवप्पु-[ ते०] लौंग। . जिसकी गरदन लंबी और पाँव पतले होते हैं। यह करवरू-[ मग.] कुडली । संग कुप्पो । हरित मंजरी | उष्ण और अत्यंत रूक्ष है । इसका मांस भक्षण हागापाता। करने से मूत्रकृच्छ, रोग नष्ट होता है । वास्ति को करवल-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] कांस्य मिति शक्रि प्रप्ति होती है। वस्तिगत अश्मरी टूटकर रौप्य । जस्ता मिली चाँदी। निकल जाती है। उषण एवं रूक्ष प्रकृतिवाले को करवठ-संज्ञा स्त्री॰ [देश॰] एक प्रकार की लता, इसका मांस हानिप्रद है। (ख० अ०) जो अवध, बंगाल, पंजाब और लंका में पाई जाती करवाकंद- [ देश० ] गेंठी । ( Dioscorea है। इसकी पत्तियाँ ४.५ इंच लम्बी और फूल ___bulbifena) पीले रंग के होते हैं। करवानक-संज्ञा पुं॰ [सं. कलविंक] घटकपक्षी। करवदा-संज्ञा पुं० [ देश० ] दे० "करौंदा"। गौरैया । चिड़ा। करवंदा-[गु०] दे० "करौंदा" । करवानग-सं० पु० दे० करवानक"। (१) भूरे करवा-संज्ञा पुं॰ [सं० कर्क केकड़ा] एक प्रकार की रंग का एक प्रसिद्ध पक्षी, जो नदी कूल पर एवं मछली, जो बंगाल, पंजाब और दक्षिण की | जंगल में रहता है। जंगली से नदी तट पर पाया नदियों में पाई जाती है। जानेवाला दूना बड़ा होता है। इसका मांस प्रत्यकरवा-[ ? ] लबलाब का एक भेद । न्त सुस्वाद होता है। करवाँ- [अ] मुन्तलिबुल्लुगात नामक प्रारब्य करवार-संज्ञा पु[सं• पु.] कृपाण । तलवार । अभिधान ग्रंथ में नर चकोर या सर्वथा चकोर करवाल-यू. ) के लिये इस शब्द का उपयोग हुआ है । साहब सराह के अनुसार चर्ज़ नाम का एक पक्षी है। प्रवाल । मूगा । बुस्सद । करवालियून-यू. किों और कराधीन इसका बहुवचन है। बहरुल करवाल-सं० पु. [सं० करबाल ] (1) नख । जवाहर में इसे माही खारः लिखा है। वुहान नाखून । (२) खड्ग । तमवार । कातिश्र के अनुसार एक पक्षी का नाम है । उक ग्रंथ में इसका नाम उच्चारण "करवाँ" ओर की करवालिका-संज्ञा पुं॰ [सं० स्त्री०] करवाली। भी लिखा है। मजनुल अद्विया के लेखक ने करपालिका । करवाँ की जगह करदाँ लिखा है और लिखा करवाली-संज्ञा स्त्री० [सं० करवाल ] छोटी तलवार । है कि एक पक्षी का नाम है जो गौरा से | करविला-[पं० (Cadaba-Horrida,Liवृहत्तर होता है। इसके पाँव लंबे होते हैं मोर nn.) करलुर । करलुरा । दे० "करेलमा" । Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करपी २२१२ करवीरायतल करवी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (3) हिंगुपत्री । कनेर की जड़, शिफा (जमालगोटा ), निशोथ, भा० पू० १ भ० गु० व०। (२) अजवायन । कड़वी तरोई । केले का क्षार और केले का पानी (३) राई । राजिका। सु० सू. ४६ प० । इनमें तेल सिद्धकर लगाने से बाल गिर जाते हैं । (४) एक प्रसिद्ध फूल । शा० सं० । (३) सफेद कनेर के पत्ते, और करवीक-संज्ञा पुं॰ [सं. क्री.] करवी । दे. उसकी जड़ की छाल, इन्द्रजौ, विडंग, कूठ, पाक "करवी"। की जड़ सरसों, सहिजन की छाल और कुटकी । करवीभुजा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.]) श्रादकी । इन सब चीजों को समान मात्रा में मिलाकर तेल अरहर का से चौथाई लें। कल्क बनाकर चौगूने गोमूत्र के साथ करवीरभुजा-संज्ञा स्त्री॰ [सं० स्त्री.]) पेड़ । रा० सिद्ध किया हुश्शा तैल कुष्ठ और खुजली को नष्ट नि० व० १६ । करता है। च० चि० ७ अ० । करवीर-संज्ञा पु० [सं० पु.] (१) कनेर का | करवीर भुजा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ) अरहर । पेड़ । रा०नि०व०१० । सु० सू० ३६ अ०। शिरोविरेचन । (२) अर्जुन का पेड़ । (३) श्राढ़की । रहर । रा०नि० व० १६ । भुजाढ़की । प० मु० (४) हिंगुपत्री । (५) करवीर भूण-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] अरहर । एक प्रकार की सोमलता । सु० चि० २६ अ० । श्रादकी। दे० "सोम"। (६) तलवार । खड्ग । कृपाण । | करवीरम्-[ता०] ) करवारक-संज्ञा पु० [सं० पु. (१) सफेद | करवीरमु-[ते.] | कनर । कनेर का पेड़ । (२) कनेर की जड़ । हे • च०। करवीरु-[ कना०] ( Anisochilus carno(३) अर्जुन वृक्ष । रा०नि० व०६ । (४) sus, Wall.) पंजीरी का पात। सीता की खड्ग । तलवार । पंजीरी । अजवान का पत्ता । करवीरकन्द-संज्ञा पु० [सं० पु.] तैल कन्द। करवीरा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] मैनसिल । मनःकरवीरकन्द संज्ञ-संज्ञा पुं० [सं० पुनी० ] तैल | शिला। कन्द । रा०नि०व०७।। करवीरादि तैल-संज्ञा पुं॰ [सं० की. ] कनेर; हल्दी करवीरका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] मैनसिल । वै० दन्ती, कलियारी, सेंधा नमक और चित्रक तुल्य भाग, इन्हें विजौरा के रस और पाक के दूध में करवीरिणी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक प्रकार का तेल सिद्ध करें। पुष्पवृक्ष । जिसे कोंकण देश में “ककर खिरनी" गुण-इसके उपयोग से भगन्दर नष्ट होता कहते हैं । यह ग्रीष्म ऋतु में होती है । इसमें लाल है योग त. भगन्दर चि० । भैष. २०। (२) फूल लगते हैं । करवीरणी कड़वी गरम और चरपरी होती है तथा यह कफ, वात, विष, प्राध्मान लाल कनेर के फूल, चमेली, प्रासन और मल्लिका वात, छर्दि, ऊर्ध्व श्वास, तथा कृमि-इनको (मालती) इन्हें तेल में पकाएँ। दूर करती है। (वै० निघ०) गुण-इसके उपयोग से नासार्श नष्ट होता करवीर तैल-संज्ञा पुं॰ [सं. क्री] उक नाम का है। (भैष० र० नासा० रो० चि०) एक योग-(१) सफेद कनेर की जड़ और | करवीरादि लेप-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] एक लेपौमोठा विष समान भाग लेकर गोमूत्र में पीसकर - षधि जिसमें कनेर पड़ता है। योग यह हैकल्क बनाएँ। पुनः इसे चौगुने तिल तैल में | सफ़ेद कनेर की जड़. कुड़ा की जड़, करंज की जड़ विधिवत पकाएँ। की छाल, दारुहल्दी और चमेली के पत्तों को गुण-इसके उपयोग से चर्मदल, सिध्म वारीक पीसकर लेप करने से कुष्ठ का नाश होता कुष्ठ, पामा, कृमि रोग और किटिभकुष्ट का है। वृ० नि० र• त्वग् दो. चि०। नाश होता है । भै २० कुष्ठ चि० । (२) करवीराध तैल-संज्ञा पुं॰ [सं० की.] Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करवीरानुजा २२१३ करसूफ पावार्थ-तिल तैल ४ सेर। कल्कद्रव्य- करशू-संज्ञा पुं॰ [ देश० ] हिमालय पर होने वाला # लाल कनेर के फूल, जाती (जाई) के फूल तथा एक बड़ा सदाबहार पेड़ जो अफ़ग़ानिस्तान से प्रशनमल्लिका (हापर माली -बं० ) अथवा पीले लेकर भूटान तक होता है। इसकी पत्तियाँ चारे शाल के तथा मोतिया के फूल. ये तीन औषधियाँ के काम में आती हैं । इस पर चीनी रेशम के मिलित १ सेर । कीड़े भी पाले जाते हैं। पाकार्थ-जल १६ सेर । यथाविधि तेल पाक करशूक-संज्ञा पु० [सं० पु.] नख । नाखून । करें। त्रिका गुण-इसके लगाने से नासार्श नष्ट होजाता | करशोथ-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (Oedemato. · है। चक्र० द. नासा रो० चि० । ___us swelling of hand.) हाथ की करवीरानुजा-संज्ञा स्त्री॰ [ सं० स्त्री.] अरहर । सूजन । हस्तशोथ ।। पादकी । रहर । वै० निघ० । करसङ्कोचनी- संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] पेशी करवीरिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] मैनसिल । मनः | विशेष । शिला । र० सा० सं०। करसङ्कोचनी अन्त:स्था-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] करवीरी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) पुत्रवती । पेशी विशेष । जिस स्त्री के वीर पुत्र हो । (२) उत्तम गाय । | करसङ्कोचनी बहिःस्था-संज्ञा सी० [सं० स्त्री० ] श्रेष्ठ गवी। पेशी विशेष । करवीय्य-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] एक प्राचीन चिकि | करसनी-संज्ञा स्त्री॰ [देश॰] एक प्रकार की लता जो त्सक का नाम । धन्वन्तरि के प्रति श्रायुर्वेद प्रश्न- समस्त भारत में होती है। इसकी पत्तियाँ २-३ इंच कर्ता ऋषि विशेष । लम्बी होती हैं जिन पर भूरे रंग के रोएँ होते हैं । करवील-संज्ञा पुं॰ [सं० करीर ] करील । टेंटी का यह फरवरी और मार्च में फूलती है । इसकी जड़ और पत्तियाँ दवा के काम में आती हैं। इसको पेड़ । कचड़ा। करवीला-[पं०] हीस। हीर भी कहते हैं। करवेला- मल• ] हुरहुर । अकंपुष्पिका । करसफ, करसूफ-[अ०] रूई । करसनी-[अ] एक प्रकार का सफ़ेद काँदा । करवेल्ला-संज्ञा पुं॰ [सं. कारवेल ] करेला । करसम्भव-संज्ञा पुं॰ [सं० वी० ] साँभर नमक । करवोटी-संज्ञा पुं॰ [देश॰] एक चिड़िया का नाम रोमक लवण । रत्ना० । इसे 'करचेटिया' भी कहते हैं। करसाइल-संज्ञा पुं. दे. "करसायल"। करशा-[फा०] करफ़्स । करसादः-संज्ञा पुं० [सं० पु.] हाथ की कमज़ोरी। करशाखा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] उँगली । __ हस्त दौर्बल्य । अंगुली । रा० नि० व० १८ । करसान-[ ? ] अंगूर की लकड़ी । पर्या-अग्रुव, अण्वा, क्षिप, विश, शर्या, | करसायर-दे० 'करसायल"। रसना, धीति, अथर्य, विप, कच्या, अवनि, हरित करसायल, करसायर-संज्ञा पुं॰ [सं० कृष्णसार ] स्वसार, जामि, सनाभि योक, योजन, धुर, शाखा ____ कालामृग । काला हिरन । कृष्णसार । अभीशु, दीधित और गभस्ति -सं०। (वेद | करसिंग- बम्ब० खरसंग । करनीमरम् (ता.)। निघण्टु २ अ.)। करसियान-दे० "करसान"। करशान-[तु.] सफ़ेदा। करसी-संज्ञा स्त्री० [सं० करीष ] (१) उपले वा करशीकर-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (१) वमन ।। कंडे का टुकड़ा । उपलों का चूर । (८) कंडा । है । छाँट, (२) हाथी को सूंड़ से निकला हुअा उपला । पानी का कण । हला० । सं० पर्या-वमथु । करसूफ-[अ० ] रूई । दवात का सूत । | Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क़र, सूनः क़र. सूचनः - [ श्रु० ] एक उद्भिज जो आठ प्रकार का होता है । ( १ ) इसका तना गिरहदार होता है। और इसके प्रत्येक गिरह पर काँटे होते हैं। इसकी पत्तियाँ काहू की पत्तियों से चौड़ी, बड़ी, खुरदरी तथा नीले रंग की और जमीन से मिली हुई होती हैं। शाखाएँ अनेक और तकले की तरह बारीक होती हैं । फूल श्वेत वर्ण के होते हैं। जड़ लंबी, मोटी और गाजर की तरह मीठी एवं किंचित् तीव्र भी होती है । ( २ ) इसकी पत्तियाँ भी पहिले की भाँति, किंतु खुरदरी नहीं होती। इसमें बहुता यत से मृदु कंटक होते हैं । इसका तना एक हाथ ऊँचा होता है और इसकी श्राधी ऊँचाई से शाखाएँ फूटती हैं । पत्ते प्रथमतः श्रत्यंत्र हरे तदुप रांत सफेद होजाते हैं। इसकी जड़ लंबी और सीधी होती है। यह पहिली प्रबलतर होता है । इसमें गोखरू की सो सुगंधि होती है। यह जाति फ़रीका और अरब में बहुत है । अफ़रीका निवासी मक्खियों को भगाने के लिये इसे मकानों के दरबाओं पर लटकाते हैं । २२०४ (३) इसके पत्ते गोल, जड़ लंबी और अधिक मोटी नहीं, जड़, तना और फूल श्वेत होते हैं । ( ४ ) इसमें एक ही तना होता श्रार यह श्रशाखी होता है। तना लग भग एक हाथ वा इससे भी अधिक दीर्घ होता है। तने में गिरहें होतीं और वह मृदुकं होती हैं । काँटे किंचित् नोल वर्ण के होते हैं । पत्ते जमीन से मिले हुये, चौड़े और अशरफ़ की तरह गोल होते हैं। जड़ फ़ावानिया की आकृति की एवं बाहर से काली और भीतर से सफेद होती है । कोई कोई इसका थाकार बहमन श्वेत का सा बतलाते हैं और उसमें बहमन की मिलावट करते हैं तथा इस प्रकार एक को दूसरी की जगह बेंचते हैं । किंतु बहमन के पत्ते उसके पत्तों से बहुत चोड़े होते हैं । ( ५ ) यह श्वेत वर्ण का होता हैं। इसलिये इसे "क़रस् अर्नः सफ़ेद" कहते हैं । इसमें पत्ते बहुतायत से और श्वेताभ होते हैं । काँटे तीव्र और कोड खुरदरा होता है । ( ६ ) इसके पत्र उन्नतोदर होते हैं और इसमें केवल एक ही तना होता है । इसको "क़रस्नः जली" कहते हैं । क़र सूचना ( ७ ) इसकी सफेद जाति ही के क़बील से है । इसके वृक्ष नदी कूल पर उत्पन्न होते हैं । पत्ते बहुत चौड़े और श्रव्यंत सफेद होते हैं । जड़ बहुत कमजोर और नाजुक होती है। इसका स्वाद अन्य सभी भेदों से अधिक मधुर होता है, परंतु इस चाबने से किंचित् तीव्रता का भी अनुभव होता है । (८) तना कज़मे को उँगली के बराबर मोटा और डेढ़ वित्ता ऊँचा होता है। शाखानों का रंग श्वेताभ और उन पर सिर गोल तथा उन गोल सिरों पर छः छः बारीक और सलाई की तरह लंबे काँटे होते हैं। जड़ भी कलमें की उँगली के बराबर मोटी और लंबी होती है । इसका स्वाद गाजर के समान होता है । "मुतलक क (सूचन: " शब्द से इसी जाति के पौधे का बोध होता है । बगदाद में यह बहुतायत से होता है । इसको “क्र. सूचनः मुसहस" और ' शशकाक" कहते हैं । नोट- सभी जाति के क़रस्चनः को जड़ें सुगंधित होती हैं। इनमें किसी की जड़ का स्वाद किंचित् तोच्णता और कड़वाहट लिये मधुर और किसी का सर्वथा मधुर होता है। यह बैतुल मुकte, अफ़रीका, अरब और फ़ारस में उत्पन्न होता है । वनस्पति शास्त्रज्ञ श्रबुल अब्बास किताव रहलः में लिखते हैं, "बैतुल मुकद्दस के प्रासपास पर्वती भूमि में मैंने एक प्रकार का सफ़ेद करस्नः देखा है जिसकी जड़ बड़ी और पत्ते काहू के पत्तों से छोटे और अत्यन्त कोमल थे | एक ही जड़ से बहुत सी शाखाएँ फूटी थीं । पत्तों के स्थान पर तकले की तरह गिरहदार और बारीक डंडियाँथीं । गिरहों के आसपास पत्ते और नोज के पुध भी थे, जिनके सिर पहलो क़िस्म से छोटे थे । जड़ का स्वाद मधुर था और उसमें किंचित् कड़वाहट भी थी ।" इसको जड़ हर प्रकार काम में आती है। इसे "शज्रए इब्राहीम" भी कहते हैं । प्रकृति - प्रथम कक्षा में उष्ण तथा रूक्ष । मात्रा - जड़ ४ ॥ माशे । हानिकर्त्ता- - उष्ण प्रकृति को । दपंधन - सर्द व तर वस्तुएँ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I कर सूचनः गुणधर्म- - यह बूटो रजः प्रवर्तक हैं, मरोड़ का निवारण करती और यकृत की पीड़ा विशेष ( दर्द जिगर इम्तिलाई ) में उपकारी है । साढ़े तीन माशे की मात्रा में इसकी जड़ और साढ़े तीन माशे गाजर के बीज प्रति दिन भक्षण करने से कामोद्दीपन होता है। यह उत्तम दोषों को उत्पन्न करती श्रामाशय से तरल श्लेष्मा का उत्सर्ग तथा वक्ष एवं पार्श्वशूल को लाभ पहुँचाती और बिच्छू के ज़हर को नष्ट करती है । इसकी जड़ पकाकर श्रीर शर्करा मिलाकर पीने से फुंसी तथा सूजन का नारा होता है उ ओर विकृत दोषों का शरीर से उत्सर्ग होता है । इसकी जड़ का मुरब्बा श्राँतों में सुगंध उत्पन्न करता, शरीर दुर्गंध दूर करता और कामोद्दीपन करता है । यह रसायन है। इससे वायु का नाश होता है। पांव की पिंडली की उन फुंसियों पर जिनसे लगातार रतूत जारी हो। इसे जौ के आटे और कानो की पत्ती के रस के साथ लगाने से बड़ा उपकार होता है । श्लीपद रोग के प्रारंभ में भी इसके उपयोग से बहुत कल्याण होता है । वें प्रकार के करस्नः को बैतुलमुक़द्दस की और पार्श्वशूल कटिशूल और सिर के मवाद के लिये लाभकारी जानते हैं सातवें प्रकार की जड़ अत्यंत कामोद्दीपक है । पहला प्रकार गुण धर्म में आठवें के समान है। जियाउद्दीन इब्नुल्बेतार ने मनो में लिखा है, "करस्नः तारल्यजनक हैं एवं शीघ्र श्रामाशय से हज़म होकर नीचे उतर जाता है । यह उत्कृष्ट दोष उत्पन्न करता है । श्रामाशय से तरल कफ को विलीन कर श्राँतों की ओर पहुँचा देता है । इसके उक्त गुण उस दशा में होते हैं । जब इसके पत्तों को पकाकर खायँ ।” ( ख़० अ० ) करस्न: - [ फ्रा० ] मटर | कलाय । करह -संज्ञा पुं० [सं० करभ ] ऊँट । करभ । संज्ञा पुं० [सं० कलिः ] फूल की कली । [ फ्रा० ] मक्खन | मसका । २११५ क़रह - [ [अ०] कलौंजी । शोनीज़ | क़रहटी - संज्ञा स्त्री० [सं० ? ] फूट । एर्वारु । करतन - [ फ्रा० ] मकड़ी | करहाटक करहट्टी - [ कना० ] बन कपासी । भारद्वाजी । करहनी - संज्ञा पु ं० [देश० ] एक प्रकार का धान जो न में तैयार होता है। करहर-संज्ञा पु ं० [देश० ] मैनफल | करहरी, करहली - संज्ञा स्त्री० [देश० ] हिंदुस्तान में होनेवाला एक प्रकार का फल जो ग्रीष्म ऋतु में होता है । यह काले और अत्यन्त श्वेतवर्ण का एवं दीर्घाकार होता है और ऊपर से जमालगोटे की तरह मसृण किंतु उससे किंचित् छोटा होता है । इसके भीतर से सफ़ेद रंग की मींगी निकलती है। जिसे नमक और कालीमिर्च के साथ भूनकर खाने हैं । यह अत्यंत सुस्वादु होती है । हकीम गुलाम इमाम ने अपनी किताब मुफ़रिदास में फ्रल्ल को करहरी ही ख़्याल किया है । गुण, धर्म तथा प्रयोग - हकीम शरीफ खाँ के अनुसार यह कामोद्दीपक है और शुक्र को सांद्र करती है । यह पेट में कब्ज़ पैदा करती है परन्तु उदर शूल का निवारण करती है । दे० "सा० श०" | करहा- संज्ञा पुं० [सं० पु० करहान् ] मैनफल का पेड़ | संज्ञा पु ं० [देश० ] सफ़ेद सिरिस का पेड़ | करहाई -संज्ञा स्त्री० [देश० ] एक प्रकार की बेल । क़रहा - [अ०] ] आँवल तरवर । उशरक्क़ । करहाट, करहाटक -संज्ञा पुं० [सं० पु० ] ( १ ) मैनफल का पेड़ । मदन वृक्ष । प० मु० रा० नि० ०८ | योगरत्न • उ० ख० केशर पाक । सु० कल्प० ७ ० । (२) एक प्रकार का पेड़ । महापिंडीतरु । बड़ा खजूर | रा० नि० व० ६ । सु० चि० १८ श्र० । (३ कमल की जड़ । भसीड़। मुरार । मे० । ( ४ अकरकरा । ( ५ ) श्वेत मदन | वै० निघ० : ( ६ ) कमल का छत्ता । कमल की छतरी । कमल के फूल के भीतर की छतरी जो पहले पीली होती है, फिर बढ़ने पर हरी होजाती है । ( ७ ) पिंडार | भिलौर । करहाटक -संज्ञा पु ं० [सं० की ० ] सोना । स्वर्ण | श्रम० । Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करहानेक २२१६ E का करहानक-[फा०] बाबूना। करही-संज्ञा स्त्री॰ [देश॰] (१) बैंगन। भंटा। - (२) शीशम की तरह एक पेड़ । जिसके पत्ते . शीशम के पत्तों से दूने बड़े होते हैं। करंकानी-[फा०] अंगूर का एक भेद। करंकुसा-[बं०] खवी । लामज्जक तृण । इज़खिर । करंगल्ली-[ ता. ] खदिर । कत्था । खैर । करंगा-[?] सेवती । गुलाबभेद । संज्ञा पुं० दे० 'करंगा"। संज्ञा पु. भेकल । करेंगा-संज्ञा पुं॰ [हिं० काला वा कारा+अंग] एक प्रकार का मोटा धान, जिसकी भूसी कुछ काला पन लिए होती है। यह प्रायः क्वार मास में पकता है। करंगी-[ मैसूर ] इमली । अम्लिका । संज्ञा स्त्री० [सं०१](1) छोटी इलायची (२) दे. “काँगा"। करंच-[बं०] करौंदा, करमर्दक । करंचक-हिंदी-[?] जमालगोटा । करंज-[फा०] कलौंजी । शोनीज़ । [ तुरान ] चावल । संज्ञा पुं॰ [सं० करों ] (1) एक वृक्ष का | नाम, जो डील-डोल में मनुष्य के बराबर वा उससे भी अधिक ऊँचा होता है। पत्तियाँ करम कल्ले वा (अंगूर) की पत्तियों की तरह, किंतु उससे अधिक कोमल, चिकनी और पिस्तई रंग को होती है । यह दो प्रकार का होता है। (१) सफेद फूल का और (२) पीले फूल का । दूसरे का नाम पूति करंज है। करंज-संज्ञा पु० [सं० करञ्जः ] (१) एक उच्च, बहुशाखान्वित उत्तम छाया तरु। वृक्ष ५०-६० फुट ऊंचा होता है । प्रकांड छोटा और गोलाई में ५ से ८ फुट तक होता है। इसकी छाल मसूण, स्थान-स्थान पर विचित्र चिहाङ्कित एक इंच मोटी और चिकनी होती है । यह प्रायशः पल्वल; पुष्करणी किंवा नदी के तीर उत्पन्न होता है; सुतरां इसका "डहर करंज' नाम अन्वर्थ है। चैत में इसके पत्ते गिरजाते हैं और कुछ दिनों के उपरांत इसमें नवीन पत्र आजाते हैं। पत्र प्रायः पकड़ी की पत्ती की तरह होती है। परन्तु इसमें यह अधिकता होती है, कि यह तैलाकवत् चिकनी मसृण एवं गाढ़े हरे रंग को होती है । एक सींके पर २-३ जोड़े, २-४ इंच लंबे पत्तों के लगते हैं। इसका स्वाद कड़वा होता है । इसमें आकाशवत् नीलवर्ण ( बा सफ़ेद बेंगनी) के पुष आते हैं। पुष्पदण्ड पर गुच्छा कार स्थित होते हैं। पुष्पदण्ड पत्रार्द्ध दीर्घ होता है । यह चैत बैशाख में पुष्पित होता है । (मतांतर से जेठ-बैशाख में फूलता और भागामी बर्ष के चैत में फलियाँ पकती हैं)। पुष्प सर्वथा शिम्बीधारी उद्भिदों के पुष्प के समान होता है । शिम्बी अण्डाकृति दीर्घ, कड़ी, मोटी, चिपटी, चिकनी एक इंच चोड़ी और 1 से 1 इंच मोटी और १॥से २ इंच लम्बी होती है। शिम्बी का अग्रभाग, हठात् सूक्ष्मता प्राप्त, मोटा और प्रतीक्ष्ण होता है। नोक ईषद्वक्र, अत्यन्त लघु होती है । प्रत्येक शिम्बी में केवल एकबीज होताहै। बीज चिपटा(Compressed) और बड़ी मटर की रूप-प्राकृति का होता है। इसके ऊपर का छिलका पतला, मसूण, शिराबहुल और हलके लाल रंग का होता है। बीज की गिरी (Cotyledons) अत्यंत तैलपूर्ण एवं तिक होती है । इसमें से लाल, भूरा, गाढ़ा बीजों का पाँचवां भाग तेल निकलता है। वृक्ष-त्वक् का वाह्य स्तर पतला ख़ाकी-धूसरवर्ण का होता है। जिसे शीघ्र पृथक किया जा सकता है। इसे हटाने पर भीतरी सतह हरिद्वर्ण की दिखाई देती है, जिस पर आड़े रुख सफेद चिन्ह होते हैं। छाल कड़ी होती है। गंध अत्यंत अप्रिय (Mawkish), स्वाद तिक और कुछ-कुछ सुगंधित और विलक्षण चरपरा होता है । सूचम-दर्शक से देखने पर श्वेतसार एवं स्फटिक दृग्गोचर होते हैं। मूलत्वक् बाहर से मंडीय धूसर ( Rusty-brown) और भीतर से पीला होता है । वृक्ष के सर्वाङ्ग को कुचलने से एक प्रकार का पीला रस प्राप्त होता है (इसमें एक प्रकार का गोंद निकलता है। इसकी राख गत के काममें आती है। 'अनुभूत-चिकित्सा सागर') वक्तव्य प्राचीन आयुर्वेदीय निघण्टु ग्रन्थों में "पूतिक" शब्द करअद्वय अर्थात् नक्रमाल और पूतिकरा Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१७ दोनों के पयायों में पठित हुआ है। पर नाटा करा के अर्थ में ही इसका भूरि प्रयोग दृष्टिगत होता है । कराद्वय शब्द की व्याख्या में सुश्रुत टीकाकार ढल्वण लिखते हैं-"कराद्वयमिति एकचिरविल्वो द्वितीयः कण्टको विटप करनः" -ढल्वणः (सू० टी० ३८ श्र०) सुश्रुत के मत से चिरबिल्व को नक्रमाल और कण्टकी विटप करा को पूतिक कहते हैं । वाग्भट्ट लिखते हैं-"एकः पूतिकरअश्विरबिल्वाख्यः । द्वितीय नक्रमालाख्यः (वा० सू० १५ १०)" | यद्यपि वाग्भट्ट के उन कथन से यह प्रतीत होता है कि चिरबिल्व ही पूति करा है । पर दूसरे को नक्कमाल लिखकर उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया है कि-करअद्वय से पूति और नकमाल ये दोनों करा ही विवक्षित हैं। इनमें नक्रमाल वृक्ष और पूतिक विटप-करंज है। यहाँ एक बात और विचारणीय यह है, कि चिरबिल्व शब्द प्रायः सभी प्राचीन,अर्वाचीन पायर्वेदीय ग्रंथों में नक्रमाल और करन के पर्याय स्वरूप पठित हुआ है। परंतु देश में करंज को ही जाति का और उससे सर्वथा मिलता-जुलता एक और वृक्ष देखा जाताहै, जिसे देशी भाषा में "चिल बिल" कहते हैं और ग्रामीण लोग फोड़ादि बिठाने के लिये इस पर प्रायः इसके पत्र का कल्क बाँधते हैं। इससे यह अनुमान होता है कि उन चिरबिल्व कदाचित् यह उत्तर कथित चिलबिल ही है, जिसे निघंटु कारों ने करंज के पर्यायों में मिलाकर भ्रामक बना दिया है। पूर्ण विवेचन एवं मान्य निर्णय के लिये देखो "चिलबिल"। उपर्युक वर्णन से एवं सभी प्राचीनार्वाचीन पर देशीय एतद्देशीय एतद्विषयक ग्रंथों के परिशीलन से यह ज्ञात होता है कि पूतिकरंज में काँटे होते हैं और इसके विटप होते हैं। इसी लिये बंगीय लोग इसे नाटा (ठिंगना) करंज कहते | हैं। इसके सिवा राजनिघंटुकार ने लताकरंज के | नाम से एक और कंटकी करंज का पूतिकरंज से | पृथक् उल्लेख किया है। इन दोनों में भेद करने | के लिये हमने उसे 'कंटकीबल्ली करंज' लिखकर उसके पर्यायादि अलग दिये हैं। पर यह ध्यान | ५८ का. करन रहे कि यह दोनों एक ही जाति के पौधे के केवल भेद मात्र हैं। अस्तु, हमने इसके गुण-प्रयोगादि एक ही स्थान पर दिये हैं। धन्वन्तरीय निघंटु में करा ( नक्रमाल) घृतकरंज, उदकीर्य ( षडग्रंथ ) और अङ्गारवल्ली ( महा करंज ) ये चार, राजनघंटु में नक्रमाल, घृतकरज, पूतिकरण, महाकरञ्ज, गुच्छकरअ, रीठाकरज, और लताकरा, ये सात तथा भावप्रकाश में नकमाल, घृतकरंज और उदकोर्य (करंजी) ये तीन प्रकार के करंज का उल्लेख मिलता है। इनमें से पूतिक और लता करंज क्रमशः कंटको विटप और वल्ली करंज हैं तथा शेष वृक्षकरंज । उक्क करंजों में न मालूम क्यों कुछ ऐसे पदार्थों का समावेश किया गया है जो वास्त. व में करंज भेद नहीं, प्रत्युत उससे सर्वथा भित्र जातीय द्रव्य है । जैसे, रीठाकरंज । अस्तु, हमने इसका रीठा' के अंतर्गत पृथक् वर्णन किया है। प्रागुन करअद्वय अर्थात् सहर और नाटा करंज के अतिरिक्त बंग में ये चार प्रकार के करअ श्रीर प्रसिद्ध हैं-(१)अम्लकरज, (२)विष करा (३) माक्ड़ा करा और (४) गेंटे करन। इनके संस्कृत नाम क्रमशः ये हैं-करमईक (वन तुद्रा कराम्ल करमी), अंगारवल्ली (महाकरंज) मर्कटी ( उदकीर्य) और षड्ग्रन्थ इनमें करमईक करौंदा है, जो करंज से सर्वथा भिन्न है। अतएव इसका 'करौंदा' के अंतर्गत वर्णन किया गया है। शेष के गुण-पर्याय नीचे दिये जाते हैं। पय्यायकरञ्ज-करः, नक्रमालः, पूतिकः, चिरबिल्वक: (ध० नि०); पूतिपर्णः, वृद्धफलः, रोचनः, प्रकीर्यकः ( राजनिघण्टु में ये नाम अधिक हैं), करञ्जः, नक्रमालः, करजः, चिरबिल्वका (भा.). करअकः-सं० । करंज-हिं० । डहर करंज-बं०। घृतकरञ्ज-घृतपर्णः, प्रकीर्यः, गौर (ध०नि०) घृतकरंजः, प्रकीर्यः, घृतपर्णकः, स्निग्धपत्रः, तपस्वी, विषारिः, विरोचनः (रा०नि०), घृतपूर्ण करंजः, प्रकीर्यः, पूतिकः, पूतिकरंजः, सोमवल्कः (भा.), स्निग्धशाकः, विरेचनः, वृत्तफलः, रोचनः-सं० । घोरा करंज, डिठोहरी ?-हिं.। धियाकरमचा-बं०। Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१८ गुच्छकरज-गुच्छकरञ्जः, स्निग्धदलः, गुच्छ "पुष्पकः, नन्दी, गुच्छी, मातृनन्दी, सानन्दः, दन्त धावनः, वसवः (रा०नि०)-सं०।। उदकीर्य, करंजी ( अरारी )-उदकीयः, षड्मन्थः, हस्तिचारिणी, मदहस्तिनिका, रोही, हरितरोहणकः, प्रियः (ध०नि०), उदकोर्यः, षड्मन्था, हस्तिवारुणी, मर्कटो, वायसी, चापि, करजी, करभलिका (भा०)-सं० । अरारी, करंजी, करंजिया-हिं० । घोर करंज-मरा०। अङ्गारवल्लिका वा महाकरंज–अङ्गारवल्लिका ( वल्ली ), अम्बष्ठा; काकनी, काकभाण्डिका, वायव्या, काल्मिकाभेद, वाक्यवल्ली (ध० नि०), महाकरंजः, षड्ग्रन्थः, हस्तिचारिणी, उदकीयः, विषघ्नी, काकघ्नी, मदहस्तिनी, अङ्गारवल्ली, शाङेष्टा, मधुसत्ता, वमायिनी (?), हस्तरोहणकः, हस्तिकरणकः, सुमनाः, काकभाण्डो, मदमत्तः (रा. नि०)-सं० । बड़ाकरंज, हिरियहलुगितु ... करंज के अन्य भाषा के पर्या-बड़ा कंजा, 'डिठोहरी, करंज, किरमाल, सुखचैन (सुखचिन् ), कोरंग, कीड़ामार, करंझ,-हिं०, द० । करंज, करंजगाछ-बं० । पॉन्गैमिया ग्लैबा Pan. gamia glabra, Vent. necaar gifer 'Galedupa Indica-ले। इंडियन बीच Indian beech-० । पुङ्गम्-मरम्-ता० । कानुग-चेह, कग्गेर, क्रानुग, कंज-ते०। उङ मरम्, पुल्डम्-मल० । होंगे-गिडा, होंगे-मर, नापसोय मरनु, वारुबहिलि गिलु-कना० । करंजाच-वृक्ष, चापड़ा करंज, घाणेराकरंज, वाबट्टा, करंज-मरा० । कोड़ामार-बम्ब०, मरा० । करंज, चरेलकणस-गु० | मगुल्-करंद-सिंगा० । सिमिजु तिमिज़. खयेन् पिरिंजु-बर० । करिन्दि रूकू-कों. सुखचैन-पं०। नक्तमाल की परिचय-ज्ञापिका संज्ञाएँ• "पूतिपर्णः" । "स्निग्धपत्र" "गुच्छपुष्पः" । शिम्बी वर्ग (N. O. Leguminosoe.). उत्पत्ति-स्थान-यह हिंदुस्तान का एक सामान्य व्यापक वृक्ष है जो प्रधानतः समुद्र के . किनारों के समीपवर्ती प्रदेशों में उत्पन होता है । तथा मध्य एवं पूर्वीय हिमालय से लेकर लंका पर्यंत पाया जाता है। कोंकण में यह सामान्य रूप से मिलता है। रासायनिक संघटन-इसके बीजों में २७ से ३६.४ प्रतिशत तक एक तिक वसामय तैल (Ponga wol or Hongay oil ) होता है । रंग में यह तेल भूरा और विशिष्ट गंधि होता है। क्षार के व्यवहार से इसका उन रंग बहुतांश में दूर किया जा सकता है। उसी भाँति कम किये हुये चाप में अतिशय उत्तप्त भाफ (Steam ) के व्यवहार से इसकी गंध भी उड़ाई जा सकती है । तैल-स्थित वसाम्ल में २.५६०/ असाबुनी (Unsaponifiable) पदार्थ के सहित मायरिष्टिक (Myristic ०.२३%, पामिटिक (Palmitic) ६.०६%, ष्टियरिक ( Stearic ) २.१६%, प्रारकिडिक ( Archidic ) ४.३०%, लिग्नोसेरिक (Lignoceric) ३.२२%, डायहाइड्रो. क्षिष्टियरिक ( Dihydroxystearic ) ४.४६%, लिनोलेनिक ( Linolenic ) ०.४६%, लिनोलिक ( Linolie) ६.७२%, और अोलीइक एसिड ( Oleic acid ) ६१.३०%-ये पदार्थ होते हैं । - कलकत्ता ( School of Tropical Medicine ) के रसायन विभाग में इसके संबन्ध में जो अन्वेषण-कार्य हुये हैं, उनसे यह प्रगट होता है कि स्थिर तैल के सिवा बीजों में एक प्रकार के अस्थिर तेल के कुछ चित भी होते हैं। लगभग २५० ग्राम बीज-चूर्ण को वाष्पमें परि. स्रावित करने पर केवल अंशमात्र अस्थिर तैल पाया गया। तो भी अभी तक उसके लक्षण निश्चित रूप से निर्धारित नहीं हो पाये। पार० एन० चोपरा, इंडिजीनस ड्रग्स ऑफ इंडिया पृ. ३६६-७। वृक्षत्वक् में ईथर, सुरासार एवं जल-विलेय एक तिक क्षारोद और ईथरविलेय हरापन लिये भूरे रंग का एक एसिड रेजिन भी होता है। इसके सिवा उसमें शर्करा, और लवाव (Muc ilage) Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करञ्ज २२१९ करत भी होते हैं, छाल के किसी भाग में कषायिन तत्पत्रं कफवातर्शः कृमिशोथहरंपरम् । (Tannin) की वर्तमानता का कोई निर्देश भेदनं कटुक पाके वीर्योष्णं पित्तलं लघुः ।। .. नहीं पाया गया, डीमक, नादकर्णी, खोरी। तत्फलं कफवाताघ्नं मेहार्शः कृमिकुष्ठजित् । हार-मूलत्वक् वा मूल, वृक्ष (भा० पू० १ भ० गु०व०) त्वक् , कांड, बीज, बीजशस्य, बीजोत्थ तैल, फल करंज-चरपरा, तीक्ष्ण, उष्णवीर्य और योनि और पन्न। दोषनाशक है तथा कोढ़, उदावर्त, गुल्म, अर्श औषध-निर्माण-महानीलघृत (सु० चि०) (बवासीर), व्रण, कृमि और कफ का नाश करंजाद्य घृत (सु० चि० १६ अ०), कुष्ठनाशक करता है । करंज पत्र-कफ वातनाशक है तथा अरिष्ट (सु० चि०), पृथिवीसार तैल (च० द.) अर्श नाशक, कृमिघ्न एवं परम शोथन है। यह तिवाद्यघृत, करा तैल, करज बीज वर्तिका भेदक. (दस्तावर), पाक में चरपरा, उष्णवीर्य, (च० द०), करज बीजादि लेप (च० द.), पित्तकारक और लघु है । करा का फल-कफ करनादिधृत (भैष.), करादि पुटपाक (वृ० वातनाशक है तथा प्रमेह, बवासीर, कृमि और नि०२०), करादि शीर्ष रेचन इत्यादि। कोद इनको नष्ट करता है। तेल निकालने की विधि यह है कि इसके बीजों करञ्जः कटुकः पाके नेत्र्योष्णस्तिक्तको रसे। को अगहन के महीने में संग्रह कर घानी में पेरते कषायोदावर्त वातानां योनिदोषापहः स्मृतः ॥ हैं। एक मन बीजों से लगभग साढ़े छः सेर तेल निकलता है। यह ५५ के उत्ताप पर जम | वातगुल्मार्शत्रणहत् कण्डूकफ विषापहः। .- जाता है। विचचिका पित्तकृमि त्वग्दोषोदर मेहहा॥ गुणधर्म तथा प्रयोग सीहाहरश्च संप्रोक्त: फलमुष्णं लघु स्मृतम् । आयुर्वेदीय मतानुसार शिरोरुग्वातकफ हृत्कृमि कुष्ठार्श मेहनुत् ।। करञ्जश्चोष्णतिक्त: स्यात्कफपित्तास्रपोषजित् । पर्णं पाके कटूष्णं स्याद्भदकं पित्तलं लघुः । व्रणसीह कृमीन्हन्ति भूतघ्नो योनि रोगहा ।। कफवातार्श कृमिनुव्रणं शोथं च नाशयेत् ॥ चिरबिल्वः करञ्जाश्च तीवो वातकफापहः । पुष्पमुक्त चोष्णवीर्य पित्तवात कफापहम् । (ध०नि०) अस्यांकुरा रसे पाके कटुकाश्चाग्नि दीपकाः ॥ - करञ्ज-गरम, कडा , कफनाशक और पित्त पाचकाः कफवाताशः कुष्ठकृमि विषापहाः । एवं रक्रविकारनाशक हैं तथा व्रण, प्लीहा, कृमि शोथनाशकराः प्रोक्ता ऋषिभिः सूक्ष्मदर्शिभिः ।। . और योनि रोग को नष्ट करता और भूत वाधा (नि. २०,० निष०) ' निवारकहै। चिलबिल (चिरबिल्व करज) तीव्र और करंज-पाक में चरपरा, रस में कबुमा, उष्ण वात कफनाशक है। वीर्य, कसैला, आँखो को हितकारी है तथा उदावत, करञ्जः कटुरुष्णश्च चक्षुष्यो वातनाशनः। वायु, योनि-विकार, वातजगुल्म, अर्श, प्रण, तस्यस्नेहोऽतिस्निग्धश्च वातघ्नःस्थिरदीप्तिदः ।। खुजली, कफ, विष, विवर्चिका, पित्त, कृमि, चर्म(रा० मि.) रोग, उदर व्याधि, प्रमेह और पीहा इनका - नाश करता है । करा का फल उष्ण और हल्का - - करज-चरपरा, गरम, आँखों को हितकारी | है तथा सिर के रोग, कफ,कृमि, कोढ़, अर्श और और वातनाशक है । करंज तैल अत्यन्त स्निग्ध | प्रमेह इनको नष्ट करता है। करंज-पत्र पाक में और वातनाशक है तथा देर तक जलता है। चरपरा, उष्ण, भेदक (दस्तावर ), पित्तकारक .. करजःकटुकस्तीक्ष्णो वीर्योष्णो योनिदोषत्।। एवं हल्का है तथा कफ, वातार्श, कृमि, मेब और कुटोदावर्त गुरुमाजिकिमि कफापहः ॥ । सूजन-इनको नष्ट करता है। करना का फूल Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उष्णवीर्य तथा वातनाशक पित्तनाशक और कफ- - अधोर्ध्व हरणं श्लेष्म कृमिविध्वंसनं लघुः।। नाशक है । करा का अंकुर रस और पाक में चर- ___मक्षिका दंश कीटादि नाशनं व्रणरोपणम् ॥ परा तथा अग्निदीपक एवं पाचक है ओर कफ. (शा०नि०) वात, अर्थ, कोद कृमि, विष, और सूजन इनका करंज का तेल-पचने में चरपरा, गरम, वान नाश करता है। नाशक तथा कोढ़, शीर्षरोग, बवासीर, मेद, शुक्र, , करो ज्वर त्वग्दोषनाशनो दंतदाढ्यं कृत् । प्रमेह, अधो और ऊर्ध्ववात, कृमि, मक्षिका और कटुको भेदनस्तस्य फलं नयन पुष्पहृत् ॥ दंशादि कीड़ों के विष को दूर करताहै तथा हलका पित्तश्लेष्मण्युदासीनं विष्टम्भन विबन्धकृत् । और व्रण को भरनेवाला है। (शा. नि.) करंजतैलं तिक्तं स्यादुष्णं च व्रणपूरकम् । . करंज-ज्वरनाशक, चर्म रोगनाशक तथा नेत्ररोगं विचर्चीश्च वातं कुष्ठं व्रणतथा ।। दाँतों को दृढ़ करनेवाला चरपरा, एवं दस्तावर है। कण्डूगुल्ममुदावर्त योनिदोषं च नाशयेत् । करंज का फल-कफ और पित्तनाशक, विष्टम्भ- अर्शोघ्नं लेपनाच्चैव नाना त्वग्दोष नाशनम् ॥ कारक और विबंधकारक है तथा आँख के फूला (नि० र०) को दूर करता है। करंज का तेल-कड़वा, गरम, व्रण को भरने ___ करञ्ज तैल वाला तथा नेत्ररोग, विचर्ची, वात, कोढ़, व्रण, करञ्जतैलं नयनार्त्तिनाशनं । कण्ड, गुल्म, उदावर्त्त, योनिविकार, बवासीर वातामयध्वंसनमुष्णतीक्ष्णकम् ॥ और लेप करने से नाना प्रकार के त्वचा के दोषों कुष्ठार्तिकण्डूति विचर्चिकापहम् । को दूर करता है। लेपेन नानाविध चर्मदोषनुत् ।। किठिमघ्नं कृमिघ्नं रुचिपित्तदोषकरच। (रा०नि०) . (राज.) करंज का तेल-नेत्ररोगनाशक, वातरोग निवा यह किटिम और कृमिनाशक, रुचिजनक, पित्त । रक तथा उष्ण और तीक्ष्ण है एवं कोढ़, कण्डू कारक और दोषकारक है। E: (खुजली) और विचर्चिका-इनको नष्ट करता है। "तिक्तं नात्युष्णश्च ।" वा० टी० । लेप करने से यह नाना प्रकार के चर्म रोगों को यह कडु भा है और बहुत गरम नहीं है। .. नष्ट करता है। महाकरञ्ज करञ्जतैलं तीक्ष्णोष्णं कृमिहद्रक्त पित्तकृत् । महाकरंजकस्तीक्ष्णः कटुश्चोष्णश्च तिक्तकः । नयनामय वाताति कुष्ठकण्डू व्रणप्रणुत् ॥ कण्डू विचर्चिका कुष्ठ त्वगग्विषत्रणापहा ॥ वातनुत्पित्तकृत्किञ्चिल्लेपनाचमै दोषनुत् । महाकरंज-तीक्ष्ण, चरपरा, कड़वा एवं गरम (प्रा० सं०) है तथा कण्डू (खुजली), विचर्चिका, कोद, करंज का तेल-तीक्ष्ण, उष्ण, कृमिनाशक त्वचाके रोग, विष और व्रण का नाश करता है। और पित्तकारक है, एवं नेत्र रोग, वात रोग, कोद, महाकरञ्जस्तिक्तोष्ण: कटुको विषनाशनः । खुजली और व्रण इनको नष्ट करता है। यह वात- कण्डू विचर्चिका कुष्ठ त्वग्दोष व्रणनाशनः । नाशक ओर किंचित् पित्तकारक है तथा लेपन (ध०नि०, रा. नि.) करने से त्वचा के रोगों को दूर करता है। महाकरंज-तिक, चरपरा, गरम एवं विष कारंज कटुकं पाके कटूष्णमनिलापहम्।। नाशक है तथा खुजली, विचचिका, कोढ़, स्वग्दोष कुष्ठ शीर्ण गदार्थोन मेद शुक्र प्रमेहजित् ॥ और व्रण का नाश करता है। Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करा २२२१ घृत करञ्ज वीर्योष्णावमिपित्ताशः कृमिकुष्ठ प्रमेहजित् ।। घृतकरञ्जः कटूष्णो वातहृद्वणनाशनः । - (भा० पू० १ भ० गु० व०) सर्वत्वग्दोषशमनो विषस्पर्श विनाशनः ॥ ___ करंजी-स्तंभनी, कड़वी, कसेली, पाक में (रा०नि०) चरपरी और उष्णवीर्य है तथा वमन, पित्त, बवा सीर, कृमि, कोढ़ और प्रमेह का नाश करती है। घृतकरंज-चरपरा, गरम, वातनाशक एवं व्रण करज के वैद्यकीय व्यवहार नाशक है तथा अखिल चर्मरोगों को एवं विष तथा स्पर्श का नाश करता है। चरक-(१) कुष्ठ में करञ्जफल-इंद्रयव और करंज के फल का ले प्रसिद्ध कुष्ठापह है। घृतपूर्ण करञ्जोऽपि करञ्ज सदृशो गुणैः। यथा(भा० पू०१ भ० गु० व०) * "कुटज करञ्जयोःफलम् । घृतकरंज (घृतपर्ण करंज ) भी गुण में करंज लेप: कुष्ठापहःसिद्धः (चि०७ अ.) के सदृश होता है। (२) अर्श रोग में करा पत्र-भोजन से प्रोक्तो घृतकरंजस्तु कटुकोष्णो व्रणापहः।। पूर्व एकत्रीकृत तिल तैल और गोघृत में भुनी हुई वातं च सर्वत्वग्दोषं विषंचाशे विनाशयेत् ।। करंज की पत्ती का चूर्ण सत्तू के साथ सेवन करञ्ज इव संप्रोक्ता गुणास्त्वन्ये भिषग्वरैः॥ करने से, बवासीर रोगी के. वायु और मल का घृतकरंज-चरपरा, गरम और, वणनाशक है अनुलोमन होता है । यथातथा वायु, अखिल त्वगोग, विष और अर्श "प्राग्भक्तं यमके भृष्टान शक्तुभिश्चावचूणितान् । (बवासीर) को नष्ट करता है । इसके अन्य गुण करञ्जपल्लवान् दद्याद्वातवर्थोऽनुलोमनम्" । करंज की तरह हैं। (चि०६०) . गुच्छ करञ्ज (३) विसर्प में करंज-त्वक्-पिष्ट ईषदुष्ण करञ्जः कटुतिक्तोष्णो विषवाताति नाशनः । करंज त्वक् को शरीर पर लेपन करें। यथा-- कण्डू विचर्चिका कुष्ठ स्पर्श त्वग्दोषनाशनः ॥ सुखोष्णाया प्रदिह्यात् * । नक्तमाल (रा. नि. व.) त्वचाऽपिवा"। (चि० ११ अ.) गुच्छ करंज-चरपरा, कड़वा और उष्ण है सुश्रुत-(१) कच्छु पामा विचत्रिका में तथा विष, वायु के रोग, कण्डू, (खुजली), नक्रमाल अर्थात् डहरकरंज का तेल-डहर करंज विचर्चिका, कोद, स्पर्श और चर्म रोग इनको नष्ट का तेल कच्छवादि चर्म रोगों में उपकारी है। करता है। यथागुच्छनामा करंज: स्यादुष्णस्तिक्तः कटुःस्मृतः। "तैलं वा नक्तमालजम्" (चि० २० अ०) विचचिका वात विष कण्डू कुष्ठार्श नाशनः ।। (२) वातज शूल में चिरबिल्वांकुर-डहर त्वग्दोषनाशकश्चैव ऋषिभिः परिकीर्तितः । करंज की कोमल पत्तियों को तिल्ली के तेल में गुच्छ करंज-चरपरा, कड़वा, और गरम है। भूनकर वातशूल-रोगी को सेवन कराएँ । यथातथा विचर्चिका, वायु, विष, कण्ड (खुजली)| "चिरबिल्वांकुरान् वापि तैलभृष्टांस्तु भक्षयेत्" कोद, बवासीर और त्वचा के रोगों को मष्ट (उ० ४२ अ.) करता है। (३) रक्तपित्त में करने बीज-डहर करंज उदकीर्य, करञ्जी (अरारी) के बीजों को घी और शहद के साथ सेवन करें। करजी स्तम्भनी तिक्ता तुवरा कटुपाकिनी।। यह रक्तपित्त नाशक है । यथा Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२२ करा "करञ्जवीजं मधुसपिषी च । नन्ति त्रयः पित्तममृक च योग:” ( उ० ४५ अ.) (४) छर्दि वा वमन में करञ्जपत्र-करंज की ... पत्री द्वारा सिद्ध यवागू वमन निवारणार्थ प्रयोग में श्राता है। यथा"पिवेद् यवागूमथवा सिद्धां पत्रैः करञ्जजैः" (उ०५० अ०) (५) ऊरुस्तम्भ में करञ्जबीज-डहरकरंज के 'बीज और सरसों, दोनों को गोमूत्र में पीसकर लेप करें। यह ऊरुस्तम्भ रोग में हितकारी है । यथा.. “दिह्याच्च मूत्राढ्य : करञ्जफलसर्षपैः" (चि०५ अ.)। (६) कुष्ठ में करञ्जतैल-कुष्ठजन्य 'क्षत में डहरकरंज के बीजों का तेल वा सरसों का तेल व्यवहार करें । यथा"झारखं वा सार्षपं वा क्षतेषु । क्षेप्यं तैलं" (चि०६०) वाग्भट-ग्रन्थिविसमें नक्रमाल त्वक्करंज की छाल को पानी में पीस गुनगुना कर लेप करने से यह शिला को भी भेदन कर सकता है, फिर ग्रंथि विसर्प को विलीन होने में और क्या प्राश्चर्य है। यथा"नक्तमालत्वचा । लेपोभिन्द्याच्छिलामपि" | (चि०१८ अ.) " नोट-वाग्भट (सू २ अ.) में करंज के दंतधावन और चिरबिल्व शाक (सू० ६ अ. शा. व.)का उल्लेख मिलता है। चक्रदत्त-(१) पक्वशोथ प्रभेदनार्थ चिरबिल्वमूल-डहर करंज को जड़ की छाल को पीसकर प्रलेप करने से पका फोड़ा फूट जाता है । "वहुशः पलाश कुसुम स्वरसैः परिभाविता जयत्यचिरात् । नक्ताह्ववीजवत्तिः कुसुमचर्य हनु चिरजमपि" । (नेत्ररोग-चि०) बसवराजीयम्-काकण कुष्ठ में करन तैल-करा तैल में चीता और सेंधानमक का चूर्ण मिलाकर लेप करने से काकण नामक कुष्ठ नाश होता है । यथा"तैलं करञ्जबीजोत्थं वह्निसैन्धवगाहितम्। चूर्णितं लेपयेद्धन्ति शीघ्रमेव तु काकणम्।। (वस• रा० १३ प्र० पृ० २१३) योगरत्नाकर-छर्दिनिवारणार्थ करा बीजकरा की गिरी को कुछ भूनकर टुकड़े टुकड़े करके बार बार खाने से दुःसाध्य छर्दि भी नष्ट · हो जाती है। यथा. "ईषद्धृष्टं करञ्जस्य वीजं खण्डीकृतं पुनः । मुहुमुहुनरो भुक्त्वा छर्दि जयति दुस्तरम् ।। चरक, सुश्रुत, वाग्भट, वृहनिघण्टु रत्नाकर और वृदमाधव के मतानुसार यह सर्प और बिच्छू के विष में उपयोगी है । परन्तु महस्कर और कायस के मतानुसार इस वनस्पति का प्रत्येक भाग साँप और बिच्छू के विष में निरुपयोगी है। यूनानी मतानुसार गुणदोषप्रकृति-द्वितीय कक्षा में उष्ण और तृतीय कक्षा में रूक्ष । ___ हानिकर्त्ता-फुफ्फुस और प्रांत्र को । इसके तेल का अतिसेवन हानिकारक है। दर्पघ्नकतीरा। गुण, कर्म, प्रयोग-यह चक्षुष्य है तथा वातरोग, कण्डू और ज्वरों को दूर करता है। नीम के पत्तों के रस में इसको लकड़ी घिसकर देने से कुष्ठरोग आराम होता है। मूत्रविकार में इसके फूल और पत्ते गुणकारी हैं। ये त्वचा के रोगों को मिटाते और उदरस्थ कृमि तथा विष का निवारण करते हैं। ७ माशे करंज के बीज, और उतनाही मिश्री मिलाकर सेवन करने से दाँतों से खून आना बंद होता है। सर्प और वृश्चिकईश में इनका पीना और लेप करना उपकारक होता है। इसका तेल पीने से उदरज कृमि - यथा ....“चिरविल्वाग्निकौ।" . (व्रणशोथ-चि०) (२) नेत्ररोग में करञ्जबीज-डहरकरंजा के 'बीजों की गिरी को, पलास के फूलों के रस की एक बार भावना देकर, उसकी वर्ति ( वत्ती) प्रस्तुत करें। उक्न वत्ति को शुद्ध मधु में घिसकर रोगी की आँख में अजन करने से कुसुम नामक नेत्ररोग नष्ट होता है। यथा Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१३ कारख निःसत होते हैं। इसे बालों में लगाने से जूयें मष्ट होती हैं । शरीर पर इसका अभ्यंग करने से कण्डवा खाज का निवारण होता है। शिरोऽभ्यंग करने से इंद्रलुप्त वा खालित्य अर्थात् गंज रोग का नाश होता है। इसको जड़ दाँतों के नीचे दाबकर स्त्री-मंग करने से स्तंभन होता है। इसकी गंध, मोतिया और घमेली की गंध की विरोधिनी है और बच को खराब कर देती है। निघंटुसंग्रह के अनुसार इसकी पत्ती और छाल पानी में पीसकर पीने से बवासोर श्राराम होता है। इसकी लकड़ी की दातौन करने से दाँत दृढ़ होते हैं। इसके बीजों का प्रलेप करने से चम्मरोग आराम होते हैं । इसके पत्तोंको पीसकर लेप करनेसे क्षतज कृमि नष्ट होते हैं । दुष्ट व्रण में इसको जड़ का रस लगाने से उपकार होता है। कण्डू एवं त्वचा के कई अन्य रोगों को मिटाने के लिये इसका तेल अतीव गुणकारी होता है । फिरंगीय वा अन्य प्रकार के चट्ठों पर, इसके तेल में नीबू का रस लगाने से बहुत उपकार होता है । करंज और चित्रक के पत्र, कालीमिर्च तथा लघण-इसको पीसकर दही के साथ चटाने से कुष्ठ रोग श्राराम होता है। उदर के कोष्ठों के बढ़ जाने (प्लोह यकृद्विवृद्धि) पर इसकी डाली का रस, जड़ और तेल सेव्य है। इसकी जड़ का रस नारियल का दूध और चूने का पानी-इन्हें एकत्र मिलाकर पिलाने से सजाक आराम होता है। करंज की पत्ती और चीते की पत्ती के रस में कालीमिर्च और नमक की बुकनी का प्रक्षेप देकर पिलाने से • पाचन को निर्बलता, अतिसार और श्राध्मान इनका निवारण होता है । इसके फूलों का काढ़ा पिलाने से बहुमूत्र रोग आराम होता है । इसके फलों को तागे में पिरोकर हार बनाकर धारण कराने से कूकर खाँसी (कुत्ता खाँसी) मिटती है । इसके बीजों ( फलमजा चूर्ण) को शहद के साथ चटाने से भी उक्त लाभ होता है । रनार्श में इसकी कोमल पत्तियोंका प्रलेप लाभकारी होताहै इसकी जड़ की छाल के दूधिया रस की पिचकारी | देने से भगंदर शोघ्र भर जाता है। इसकी जड़ की | छाल के दूधिया रस में, समान भाग तिलों का तेल | और किंचित् नीलाथोथा मिलाकर लगाने से अस्थि ब्रण पूरित होते हैं। मृगी में इसके पत्तों का सेवन अति गुणकारी है। इसकी गिरी के चूर्ण में शक्कर मिलाकर फाँकने से बवासीर श्राराम होता है। किंतु इसके सेवन काल में स्निग्ध पदार्थों का आहार करना चाहिये। इसकी सेवन विधि यह है-प्रथम दिवस इसको गिरी का चूर्ण एक माशा, तीन माशे शहद के साथ चटायें। तदुपरांत एकएक माशा चूर्ण उत्तरोत्तर बढ़ाते हुये ग्यारह दिवस पर्यन्त बढ़ाकर पुनः उसी प्रकार क्रमशः एक एक माशा कम करते हुये तीन माशे मात्रा पर श्रा जाँय । इससे पथरी नष्ट होती है। इसके हरे पत्तों को पीसकर सेंधानमक मिला भक्षण करने से कै बंद होती है । कै बंद करने के लिये इसकी बीज मजा को सेंक और कुचलकर कई बार खिलाना पड़ता है । उष्ण और शोथ निवाकर औषधियों के साथ इसका प्रलेप करने या इसके साथ सेंक करने से वातजशूल मिटता है। टेसू के फूलों के रस में करंज के बीजों का चूर्ण भिगोकर सुखायें । फिर उसको सलाई वा वर्ति प्रस्तुत करलेवें। यह सलाई आँख में फेरने से फूला कट जाता है । अविभेदक में, इसके फूल और गुड़ को पीसकर गरम पानी के साथ नाक में टपकाने से उपकार होता है। इसका रस लगाने से क्षतज कृमि नष्ट होते हैं । इसके एक बीज की गिरी ओर एक रत्ती नोलाथोथा-इन दोनों को पीसकर सरसों के प्रमाण की वटिकायें निर्मित करें। इसमें से एक-एक वटी नित्य प्रति सेवन कराने से पसली का दर्द श्राराम होता है। इसके पत्तों का रस हवेली और तलुओं पर मर्दन करने से बीर्य स्तम्भन होता है । कुसुम के रंग से रंगे हुये लाल कपड़े में एक करंज लाल तागे से बाँधकर गर्भवती स्त्री की कटि में बँधा रखने से गर्भपात नहीं होता। इसकी मींगी को दूध में भिगो-पीसकर मुखमंडल पर मर्दन करने से चेहरे की कांति बढ़ती है। इसकी मींगी को पानी में पीसकर लगाने से कफज ज्वर छूटता है। इसका फल खाने के काम आता है। (अनुभूत चिकित्सा सागर में इसी तरह लिखा है ) ख० अ०। . Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करा करक्ष नब्य मत आर० एन० खोरी-डहर करंज का तेल उष्ण (उतेजक ) और कीटनाशक है । इसके अभ्यंग से त्वचा पर न तो क्षोभ वा प्रदाह उत्पन्न होता है और न उस पर किसी प्रकार का दाग पड़ता है। कण्डू (Svabies), चर्मरोग विशेष ( Herpes), इंद्रलुप्त विशेष Porr. ig) capitis) झीप वा व्यंग ( Pityriasis), दद्रु विशेष ( Versicolor), विचचिका ( Psor asis ) प्रभृति तथा अन्यान्य विविध चर्म रोगों में प्रायः समांश नोबू के रस के साथ करंज तैल व्यवहृत होता है। श्रामबात वा गठिया में इसका तेल अभ्यंग रूप से भी काम में आता है । करंज की पत्ती उत्तेजक, श्राध्मानहर और परिवर्तक हैं तथा अजीणं, उदराध्मान एवं कुष्ठ, मृगी और प्लीहयकदृद्धि में भी इसका व्यवहार होता है। इसकी जड़ का रस स्निग्ध और शीतल है तथा पूयमेह (गनोरिया), किन्न क्षत एवं भगंदरजात क्षत शोषणार्थ व्यवहार में आता है। ( मेटिरिया मेडिका ग्राफ इण्डिया-२ य खं० २२५ पृ.) रीडी ( Rheede)-लिखते हैं कि करंज के पत्रकाथ से अवगाहन करने से श्रामवातिक वेदना प्रशमित होती है। इस हेतु इनका व्यापक रूपेण व्यवहार होता हुआ दिखाई देता है। ऐन्सली-के अभिमत से कदर्य क्षत शोषणार्थ तथा भगंदर गत क्षत पूरणार्थ डहरकरंज की जड़ का रस व्यवहार किया जाता है। वे इसके तेल एवं कण्डू तथा श्रामवात में इसकी उपयोगिता का भी वर्णन करते है। गिब्सन-महाशय लिखते हैं-समान भाग नीबू के रस के साथ करंज-तैल को श्रालाड़ित कर मर्दन करें। यह बिविध चर्म रोगों के लिये महौषध है । ( नीबू का रस और करंज तैल को एकत्र आलोड़ित करने से एक प्रकार का उत्कृष्ट पीत वर्ण का अभ्यंगोपयोगी स्नेह प्रस्तुत होता है।) ___ डा० पी० सी० मूतूस्वामी लिखते हैं कि तौर निवासी पूयमेह वा गनोरिया को उत्कृष्ट । औषध मानकर, चूने का पानी एवं नारिकेल दुग्ध के साथ इसकी जड़ का रस व्यवहार करते हैं, वहां श्राध्मान, अजीर्ण अतिसार रोग में करंज पत्र (पोंगा-इलै -ता.) के उपयोग का भी उल्लेख करते हैं । वे लिखते हैं कि इसका फूल मधुमेह ( Diabetes) रोग में व्यवहृत होता है और .. फलियों की माला कूकरखाँसो प्रतिषेधक रूप से कंठ में धारण की जाती है। डा० बी० एक्स लिखते हैं कि मैंने कूकर-खांसी में इसके बीजों का मुख द्वारा उपयोग किये जाते हुये अवलोकन किया है। कृषक गण चिराग़ जलाने के लिये इसके तेल का व्यवहार करते हैं। (फार्माकोग्राफिया इण्डिका-डीमक, १ खं० ४६६ पृ०) नादकर्णी-(गुण, प्रभाव) इसकी गिरी से निकाला हुआ तेल शोधक पचननिवारक ( Antiseptic) और उष्ण आरोग्यप्रद गुण विशिष्ट होता है । तेल ही इसका कार्यकारी उपादान प्रतीत होता है, क्योंकि उसे निकाल लेने के उपरांत अवशिष्ट रहा हुआ अंश निष्क्रिय होता है। पत्र, बीज, मूल और तैल पराश्रयी कीटनाशक है; ये प्राणिज और वानस्पतिक दोनों प्रकार के चर्मरोग जात कीटाणुओं को नष्ट करते हैं। वृक्षत्वक् ग्राही ( Astringent) होता है। आमयिक प्रयोग-चर्मरोगों में त्वचा पर करंज तेल का अभ्यंग करते हैं । कण्डू (Scabies), क्षत, पित्तज त्वग्गत बुद्र दाने ( Herpes ) और तादृश पामादि रोगों में करंज तैल में यशद भस्म (एक प्राउंस तेल में एक ड्राम यशद भस्म ) मिलाकर लगाने से बहुत उपकार हुआ है। श्रामवात (मांसपेशीय वा सर्व संधिजात), विचर्चिका, इन्द्रलुप्त विशेष (Porrigo), (Capitis) और व्यंग वा झाँई (Pityriasis)में समान भाग करंज तैल और नीबू का रस मिलाकर अभ्यंग रूप से सेव्य है। प्रामवात पीड़ित संधियों को इसकी पत्तियों के काढ़े में अवगाहित करते हैं अथवा उससे स्वेदन करते हैं । इसी प्रकार इसके प्रकांड, पन और मूल का स्वरस भी उपकारी होता है । कृमियों को नष्ट करने के लिये करंज के वृक्ष का रस, नीम और निगुण्डी वृक्ष-स्वरस के साथ अथवा उक्त Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करज २२२५ करज कफोत्सारि गुण के लिये भी इसका सामान्य रूप से व्यवहार होता है।। इसके बीजों में उड़नशील तैल की उपस्थिति होने से यह सोचा गया कि यह इसी कारण से कास में लाभकारी होगा। इसके उड़न शील तैल का चिकित्सा में उपयोग किया गया। इसका पशुओं की शिराओं में अन्तःक्षेप भी किया गया । परीक्षण से यह पाया गया हैं कि इससे रनचाप कुछ बढ़ा, परंतु यह अस्थायी रूप से । सूक्ष्म वायु नलिकाएँ कुछ ढीली हुई । इस विषय का अध्ययन अभी चालू है। इसके तेल के विषय में अभी बहुत कुछ अध्ययम होने की है। वृक्ष त्रय की पत्तियों का कल्क व्यवहार किया जाता है। उन रस नारिकेल दुग्ध और चूने के पानी के साथ खूब आलोड़ित करके तथा हठीले रोगों में तुवरक तैल, कपूर भोर गंधक ये द्रव्य और सम्मिलित करके उपयोगित करते हैं। इसके उपयोग से सूज़ाक आराम होता है। कीट | पूर्ण क्षतों पर इसके पत्तों की पुलटिस रखी जाती है । उदराध्मान, अजीण एवं अतिसार में | पत्र-स्वरस उपकारी होता है। कुष्ठ में इसके बीजों की गिरी का लेप लगाते हैं। रक्कार्य में इसके कोमल पत्तों का प्रलेप करते हैं और छाल मुख द्वारा देने से लाभकारी होती है। बहुमूत्र रोग जनित पिपासा प्रशमनार्थ इसके सूखे फूलों का चूर्ण अन्य उपादानों के योग से काथ रूप में व्यवहार्य होता है । पूयमेह और योनिशोथ में इसका अंतः प्रयोग होता है । इसका पुष्प बहुमूत्र औषध की तरह व्यवहार किया जाता है। कूकर खाँसी में इसकी फली कंठ में धारण की जाती है छिलका उतारे हुये करंज के बीजों का चूर्ण कुक्कुर खाँसी की अमोघौषध की भाँति काम में आता है । शिशुओं एवं छोटे बालकों के लिये इसकी मात्रा 1 से २॥ रत्ती तक अवस्थानुसार है। बारह वर्ष से अधिक अवस्था वालों के लिये एक माशा तक इसकी मात्रा है। इसके चूर्ण को काग़ज में लपेट कर नहीं रखना चाहिये, क्योंकि काग़ज इसके तैलांश को सोख लेता है। अधिक समय तक रखने से चूर्ण की उपादेयता नष्ट हो | जाती है। अत एव इसे सदैव ताजा तैयर करना चाहिये। अंडकोष वृद्धि एवं कंठमाला पर करंज की जड़ चावल के धोवन में पीस कर प्रलेप की जाती है। (इं०म०म०पृ०७०५-६) ___ एक प्रकार के अजीर्ण में जिसमें यकृत की क्रिया शिथिल पड़ जाती है कभी कभी जठराग्नि दीपक (Stomachic) और; पित्तरेचक (Cholagogue) रूप से इसके तेल का आभ्यंतरिक प्रयोग होता है । दुर्बलता एवं शक्तिहीनता की दशा में करंज के बीजों का चूर्ण उत्तम ज्वरघ्न एवं बल्य माना जाता है। कास और उस्कटकास (Whooping cough) में | (२) एक मध्यमाकार का वृक्षाश्रयीविटप वा भूमिस्पष्ट शाखा-प्रशाखाविशिष्ट सुप अथवा कँटीली झाड़ी जिसकी पत्तियाँ सिरिस की पत्तियों से मिलती जुलती कुछ अधिक चौड़ी, अल्पाधिक रोमावृत, एक सींक पर ३-८ जोड़े होती हैं। जोड़े-जोड़े पत्तों के बीच शुद्र तीचणान कण्टक होता है । फूल बड़े पीले पीले वा गंधकी रंग के मंजरी में भरपूर होते है। फूलों के गिर जाने पर कटीली फलियाँ लगती हैं। प्रायः वर्षा ऋतु में इसमें फूल और फलियाँ लगती हैं । शिम्बी वा फलियाँ ढाई तीन अंगुल चौड़ी और छः सात अंगुल लंबी, प्रायः गोल दीर्घ होती हैं । इसके ऊपर का छिलका कड़ा और धन कंटकावृत होता है। इसके सर्वांग में प्रचुर कंटक होने से ही संस्कृत में इसे “कण्टकिकरंज" कहते हैं। एक एक फली में एक से तीन चार तक बेर बराबर प्रायः गोल गोल और 1 से इंच व्यास के दाने होते हैं। ये गहरे धूसर वर्ण के, मशृण और अत्यंत कड़े होते हैं। दानों के छिलके बहुत कड़े मोटे, गहरे खाकी धूएँ के रंग के और भंगुर होते हैं। इसके भीतर एक द्विदलीय ज़र्दी मायिल सफेद गिरी ओर अत्यंत कडुई ( Radicle) होती है । जड़ और जड़ की छाल कडुई नहीं होती । गिरी से तेल भी निकाला जाता है । सूक्ष्म दर्शक द्वारा परीक्षा करने पर गिरी के दलों में लबाब, श्वेतसार, तेल और अंडलाल ( Albumen) विद्यमान होते हैं। फा०५६ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करज २२२६ प्र. - (1) पूतिकरञ्ज - (कटकीबिटप करंज) प्रकीर्थ्यः, रजनीपुष्पः, सुमनाः, पूतिकर्णिकः ( पूतिपत्रकः ), पूतिकरअ:, कैडर्यः, कलिमालः (स०नि० ) पूतीकरञ्जः, पूतिकरजः, पूतिकः, पूतीकः, कलिकारकः, कलिमालकः, कलहनाशनः, कलिमारकः, प्रकीर्णः, पूतिकाह्नः पूतिपर्णः, कलिमाल्यः सं० 1 नाटा, नाटकरंजा, नाटोकरंजा, नाटा करंजा गाछ, नाटा करंज - बं० । काँट करंज, कंट करंजा हिं० । काँटाकरंज - बम्ब० । घाणेरा करंज, सागर गोटा - मरा० । काकँच, तेनों फल कांकचिया ० । करंजभेदु - कना० । कचकाई, गुच्चेपिका ते० । नाटातिता- कों० । कुम्बुरु - सिं० | वारुबडुलिमितु का० । ( Caesalpinia Bonduc, Roxb) नोट- नकमाल वृक्ष करंज है और यह विटप करंज है। " पूति" का अर्थ " दुर्गंध " होता है। अतः " पूति करंज" का अर्थ हुआ वह करंज जिससे दुर्गंध भावे । श्रतएव किसी किसी ने इसका नक्क माल के भेदों में अंतर्भाव किया है। परंतु कटकरंज की गिरी भी एक प्रकार से दुर्गधिपूर्ण ही होती है । अस्तु, इसका इस तक ही मर्यादित रखना समीचीन प्रतीत होता है। जड़ी बूटी में खवास के मत से कंटकी करंज दो प्रकार का शेता है - ( १ ) छोटा और ( २ ) बड़ा | छोटे को करंजी कहते है । छोटा हरे रंग और बड़ा सफेद होता है । उक्त दोनों ही गुण धर्म में समान होते हैं। इनमें से बड़ा करंज तो उपयुक्त 'पूर्तिकरंज' है ओर 'छोटे करंज के लिये दे० ' करंजी " । (२) लता करंज - ( कंट की वल्ली करंज ) लताका दुःस्पर्शो वीरास्मो वज्रबीजकः । धनद्राक्षः कष्टफलः कुबेरातश्च सप्तधा ॥ ( रा० नि० एव० ) अर्थात् कंजा के ये सात नाम हैं- लताकरंज, दुःस्पर्श, वीरास्य, वज्रबीजक, धनदांत, कण्टफल ( कण्टकिफल = भा० ) और कुबेराक्ष; ( वल्लीकरंज । कचिका, करञ्जा, तिणगच्छिका, वारिणी तीरिणी, कण्टकिनी ) कटक करञ्जः ( श्र०टी०भ० ) गदध्नः (तरिय ० ) गिच्छ्किः (द्रव्य० ) कराज्जका, बल्ली करंज, कण्टकीकरंज, लताकरंज, कटकरंज, करज करंजो, करंजवा, करंजुवा, कटकलीजा, कटक लीजी, सागर घोला, सागरगोटा, काँटकरंज, कंटकरेज, गटाइन, कंटकिनी, करंजा, करंजन, कंजा हि० । गज्गा द० । काँटाकरंज, गेंटे करअ, झगड़ा गूला, सेतान- गूला, लता करंजा - बं० । खायहे इब्लीस, खुर्मा बुहल - फ्रा० । श्रकितमकिन, – अ०, सि० । हज्जुल विलादत, हल्मासक, हज्र ल् उकाब, रश्केमरियम ( खुरासानी ) हजु ुन्निसाऽ, हज्रएलाक़ी, अंनातीतस ( ( संग विलादत ) - श्र० । - मिश्री, श्च ० । सीसेल्पाइनिया बाण्ड्युसेला Caesal pinia bonducella, Linn, Fleming. ग्विलैण्डिना बाण्ड्युसेला Guilandina bonducella, Linn. -ले० । निकेर ट्री Nicker tree. बॉण्डक नट Bonduo nut; फीवर नट Fever nut, फिजिक नट Physic-nut, मलक्का बीन Molucca-been -श्रं० | बॉण्डक जॉनी Bonduc jaune, ग्विलैण्डिना बण्डक Guilandina bonduc योडोबोर्रिक Yeux de bourrique - फराँ० कज़रशीक्काय, गेच - चक्काय, कालर कोडी, मलाल, कलङ्गु –ता० | गच्चकाय, यालखी, - ते० । कज़..ञ्चिक्कुर, कलञ्चिक्कुरु, - मल० । गजग- कायि, करंज भेद - कना० । गजग करंगी च झाड़, सागर गोटा - मरा० । गाजगा, गज्ग, काकँच (फल कांकचिया ) काँचका, करंज-नु-झाड़ गु० | कुम्बुरु - श्रह - सिंगा० । कलैन्- सि, कलेञ्जि, कलेआ - बर० । गज्गो, नाटा तिता - कों० । करंजिका - तिरि-गिच्छि । का० । सागरघोटा - बम्ब० । सीसैलपाइनिया बॉण्डक ( Coesalpinla bonduc ) भी इसी जाति का पौधा है । शिम्बी वर्ग ( N. O. Leguminose.) उत्पत्ति-स्थान - हिमालय से लेकर कन्याकुमारी पर्यन्त समस्त भारतवर्ष में इसके विटप उत्पन्न होते हैं । बिशेष बंगाल, बर्मा, बम्बई वा समग्र दक्षिण हिंदुस्तान में यह बहुत होता है । और पहाड़ों पर २५०० फुट की ऊंचाई तक Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२७ कर तथा मैदानों और समुद्र के किनारे पर | होता है। कण्टकाधिक्य के कारण “दुष्पर्श" | होने से इसे लोग खेतों के बाढ़ पर भी रूधने के लिये लगाते हैं। इसके अतिरिक्त अखिल उष्ण देशों के समुद्र-तटों के समीप इसके झाड़ उपजते हैं। बंगदेश (राढ़ ) में नाटाकरंज के बीज को "कुदुलेबिचि" कहते हैं। रासायनिक संघटन-पूर्व के प्राचार्यों ने इसके बोज दा गिरी में किसी न किसी परिणाम में, कोई न कोई अक्षारोदीय तिक सत्व की विद्य मानता पाई, जिसका नाम किसी ने ग्विलैंडोन । ( Guilandin ), किसी ने बॉड्युसोन ( Bonducin) और किसी ने नेटोन (Natin) रक्खा । उक रासायनिक विश्लेषणों से प्राप्त विभिन्न परिणामों को दृष्टि में रखकर इस बात का शोध करने के लिये कि वस्तुतः इसमें कौन सा क्रियात्मक सार वर्तमान है। कलकत्ता के स्कूल श्राफ ट्रापिकल मेडिसिन में जो पुनः परी पण किये गये और उनसे जो निष्कर्ष प्राप्त हुये वे इस प्रकार हैं-उनसे पेट्रोलियम् ईथर में | १३-५२%, सल्फ्युरिक ईथर में १.८४%, कोरो. फार्म में ०.४२% और शुद्ध सुरासार में | १८.५५°/ तक शुष्क रसक्रिया (Extriact) प्राप्त हुई। उन सभी रसक्रियाओं की पृथक् पृथक् | रासायनिक परीक्षा की गई। परन्तु उनमें पूर्व के अन्वेषकों द्वारा वर्णित किसी भी प्रकार के क्षारोद की विद्यमानता की पुष्टि नहीं हो सकी। सुतराँ उसमें जल में अविलेय एक नॉननलुकोसाइडिक तिक सार को विद्यमानता निःसन्देह सिद्ध हुई और वह भी द्रव्यगुण विज्ञानता की दृष्टि से ( Pharmacologically) क्रियाशून्य प्रमाणित हुई । बीजों में प्रचुर परिमाण में एक प्रकार का अप्रिय गंधि एवं पाँडु-पीत वर्ण का धन तैल होता है । इसमें प्रायोडीन और साबुन बनाने वाले घटक (Saponification) होते हैं, किसी-किसी के मत से एतद्भत तैल की मात्रा २० से २५ प्रतिशत के बीच घटती बढ़ती रहती है। परन्तु लेखक (कर्नल चोपड़ा) द्वारा परीक्षित नमूनों में इसकी मात्रा १४ प्रतिशत से अधिक कभी नहीं पाई गई। औषधार्थ व्यवहार-बीज, बीजशस्य, मूल, वृक्षत्वक और पत्र । औषध-निर्माण-चूर्ण, तेल और अभ्यङ्ग इत्यादि । करंजारिष्ट, हब्बदाका बुखार, ( करावादीन इहसानी) इत्यादि। गुणधर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसारलताकरञ्जपत्रंतु कटूष्ण कफवातनुत् । तद्वीजं दीपनं पथ्यं शूलगुल्म व्यथापहम् ॥ (रा०नि० शाल्म०८०) लताकरंज के पत्ते चरपरे, गरम और कफवात नाशक होते हैं । इसके बीज दीपन और पथ्य है तथा शूल और गोले की पीड़ा को दूर करते हैं। करञ्जिका-(काँटा करा) कण्टयुक्तः करञ्जस्तु पाके च तुवरः कटुः । ग्राहकश्चोष्णवीर्य: स्यात्तिक्तः प्रोक्तश्चमेहहा ॥ कुष्ठाभॊत्रणवातानां कृमीणां नाशनः परः । पुष्पं तु चोष्णवीर्यं स्यात्तिक्तं वातकफापहम् ॥ (वै० निघ०) ___कंजा पाक में चरपरा, कसेला, प्राही, मलरोधक, उष्णवीर्य तथा कड़वा है और यह प्रमेह कोढ़, बबासोर, व्रण, वायु तथा कृमिनाशक है। इसके फूल उष्णवीर्य, कड़वे, वात और कफ नाशक है। पूतिकरञ्ज पूतिकञ्जकः प्रोक्तो गुच्छपूर्व करंजवत् ॥ (नि०२०) पूति करंजके गुण गुच्छ करंज के समान है। पूतिकरंजजं पत्रं लघु वात कफापहम् । भेदनं कटुकं पाके वीर्योष्णं शोफनाशनम्।। पूतिकरंज की पत्ती-हलकी, वातकफनाशक, दस्तावर, पाक में चरपरी, उष्ण वीर्य और सूजन उतारने वाली है। शोफनमुष्ण वीर्यन्तु पत्रं पूति करजम् । (सु० सू.) पूतिकरंज की पत्ती-उष्ण वोर्य भार सूजन उतारने वाली है। Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२८ अस्य बीजं बल्यम् । तन्मज्ज ज्वरघ्नं बल्यं, लेपनेन अण्डवृद्धौ हितं शोथहरं, रक्तस्रावारोधकम् उष्णं नीरसं कुष्ठघ्नञ्च । पत्रमपि तद्गुणं । केचित् । कंजे का बीज वल्य है और इसकी गिरी वल्य और ज्वरघ्न है । लेप करने से यह अंडवृद्धि में हितकारी होती है । यह शोथनाशक, रक्तस्त्राव, उष्ण, नीरस और कुष्ठघ्न है । इसकी पत्ती उसी के समान गुणकारी है । करके वैद्यकीय व्यबहार क़रअ सुश्रुत - (१) श्लीपद रोग में पूर्ति करञ्ज फीलपा के रोगी को, सरसों का तेल डालकर बलानुसार कंजे की पत्तियों का रस पीना चाहिये यथा- "पूतिकरञ्जपत्राणां रस वापि यथाबलम् " ( चि० १६ श्र० ) ( २ ) कृमिरोग में पूतिकरंज - कंजे की पत्तियों वा जड़ का रस शहद मिलाकर पीने से उदरस्थ कृमि नष्ट होते हैं। यथा"पूतिकस्वरसं वापि पिवेद्वा मधुना सह " । ( उ० ५४ श्र० ) चक्रदत्त — मसूरिका प्रथमाविर्भावकाल में पूतिकरञ्ज - पहिले पहल मसूरिका वा शीतला दिखाई देने पर कंजे की जड़ की छाल को जल में पीसकर सेवन करना चाहिये । यथा-"* सोषणावाथपूतिः । * प्रथममघगदे दृश्य माने प्रयोज्याः " ( मसूरिका चि० ) वङ्गसेन - (१) जलोदर में पूतिकरन्ज बीज कंजे की गिरी को काँजी में पीसकर पीने से जलोदर का नाश होता है । यथा " पूतिकरञ्जवीजं ज्जलोदर मपि " काञ्जिकपोतं शमये ( उदर - चि०) ( २ ) अम्लपित्त में पूतिकरञ्ज- शुङ्ग — अम्ल पित्त रोगी को, भोजन से पूर्व गोघृत में भुना हुआ कंजे का पत्र मुकुल सेवन करावें और ऊपर से गुनगुना पानी पिलाकर वमन करावें । यथापूर्तिकरञ्जशुङ्गानि घृतभृष्टानि रोगिणे । निवेद्य भोजने कार्यं वमनं कोणवारिणा " ॥ ( अम्लपित्त चि० ) करञ्ज (३) कफपैत्तिक मसूरिका में पूतिकरंज कंजे की पत्ती वा जड़ का रस और आँवले का रस, चीनी और शहद के साथ सेवन करने से कफ पैत्तिक मसूरिका और सूजन दूर होती है । यथा"रसं पूतिकरञ्जस्य चामलक्या रसं तथा । पिवेत्सश करा क्षौद्रं शोफनुत् कफपैत्तिके " ( मसूरिका - चि० ) ॥ बसवराजीयय - व्रण और कृमि रोग में करअ रस- करंज, रीठा और मेड़ी के रस का उपयोग करने से व्रण और कृमि रोग का नाश होता है । यथा करञ्जारिष्ट निर्गुण्डी रसोहन्या एक्रिमीन । ( बस० रा० २१ प्र० ) यूनानी मतानुसारप्रकृति - पत्ती, प्रथम कक्षा में शीतल और रूच, मतांतरसे प्रथम कक्षा में उष्ण और रूत; फल मज्जा प्रथम कक्षा में उष्ण श्रोर द्वितीय कक्षा में रूक्ष, मतान्तर से तृतीय कक्षा में उष्ण और प्रथम कक्षा में रूत कोई कोई तृतीय कक्षा में शीतल और रूत लिखते हैं; किंतु यह सत्य नहीं । वैद्य भी इसे उष्ण वीर्य ही मानते हैं । हानिकर्त्ता - - कंठ और वक्ष को, उष्ण प्रकृति एवं क्षीण पुरुषों को रुक्षता जनक है । दर्पन - कालीमिर्च, पीपल, शुद्ध मधु, तर पदार्थ, लवण और स्नेह । प्रतिनिधि - फ़ावानिया | मात्रा - वयस्क १ मा० । ४-६ रत्ती । गुण, कर्म, प्रयोग — यह शोफघ्न एवं शोणित स्थापक है । इसका सेवन हवा वबाई के प्रभाव से सुरक्षित रखता है । श्राधा दाना इसकी मींगी और कई दाने लौंगों को एकत्र पीसकर लगाने से जलोदरगत सूजन मिटती है । यह जीर्ण ज्वर में लाभकारी है । स्त्री रोगों की चिकित्सा में यह परमोपयोगी है। अतएव स्त्री के दूध में करञ्जए को गिरी पीसकर, उसमें वस्त्र-खंड क्लेदित कर वन्ध्या स्त्री की योनि में इसकी पिचु-वर्ति धारण करने से गर्भधारण होता है । यदि चलितगर्भा नारी इसकी वर्ति धारण करे, तो गर्भति दोष की निवृत्ति हो । यदि लाल तागे में पिरोकर गर्भवती स्त्री के गले आदि में बांध Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करञ्ज २२२६ देवें, तो गर्भपात न हो। यदि इसे बकरी वा भेड़ की खाल या वस्त्र में लपेट कर और इसे सुगंधि द्रव्यों की धूनी देकर, गर्भवती स्त्री की उलटी रान I पिंडली या पेडू पर बाँध देवें, तो सुख पूर्वक प्रसव हो । प्रसव के समय इसे बाँधना चाहिये और प्रसव होते ही खोल डालना चाहिये । इसे फलवान वृक्ष पर बाँधने से फल नहीं गिरते । कंजा के तीन दाने लेकर भूभल में दबा देवें । ज़ब वे दाने पक जाँय, तब उन्हें निकाल लेवें श्रोर गिरी को पीसकर बारीक चूर्ण करें । इसे उस व्यक्ति को फँकावें जिसके अंडकोष में पानी उतर श्राया हो अर्थात् जिसे मूत्रज वृद्धि रोग हुआ हो | सप्ताह भर में इसका निःशेष लाभ प्रकाशित होगा । इस रोग में इसकी गिरीका चूर्ण एरण्ड-पत्र पर छिड़क कर बाँधने से भी उपकार होता है। इसकी गिरी का तेल शरीर पर मलने से कण्डू वा खाज का नाश होता है। नारी योनि रोगों में यह विशेष उपकारी है । ततवा व्रण के लिये इसका तेल यहाँ तक गुणकारी है कि यदि उसमें कीड़े भी पड़ गये हों, तब भी इसके लगाने से लाभ होता है । सुतरां केवल इसकी मींगी के चूर्ण को किसी तेल में मिलाकर मलने से सूजन श्रौर फोड़े-फुन्सी श्रादि चर्म रोग आराम होते हैं इसकी गिरी को गुलरोगन या तिल तैल में इतना पकायें कि जल वह जाय । फिर तेल को छानकर शीशी में रख लेवें। किसी प्रकार का दुष्ट एवं गम्भीर व्रण हो, इसके लगाने से श्रीराम होता है । एक करंजुये की मींगी पीस कर गुड़ में मिलाकर खिला देवें। इससे श्रागामी दिवस को उदरस्थ सभी केचुये थैली की थैली मृतप्राय होकर निकल जायँगे । कफ, वात और रक्त विकारों में इसकी पत्ती गुणकारी है । यदि शरोर फूटकर उसमें स्थान स्थान पर छिद्र हो जाँय तो करंजुये की पत्ती घोंट-पीसकर नित्यप्रति एक प्याला पिलायें। भोजन में चने या गेहूं की रोटी पर्याप्त घी के साथ देवें । चालीस दिन में लाभ प्रदर्शित होगा । "खुलासा" के रचयिता लिखते हैं कि मैंने एक युवा को देखा जो चिरकाल से चातुर्थिक ज्वर से पीड़ित रहता था । उसे किसी औषधि से लाभ नहीं होता था । अंततः वह करंजुना के पत्ते २१ करञ्ज कालीमिर्ची के साथ घोंटकर पीने लगा। इससे अल्प काल में ही वह सम्यक् रोग मुक्त हो गया । पुनरपि किसी लब्धप्रतिष्ठ व्यक्ति के गृह में धोखे से इसके तेल में कढ़ी को बघार लगा दिया गया और उसमें फुलकियाँ पकाकर घर के लोगों ने खा लीं । इससे उनको अत्यंत कष्ट हुआ, श्रई, दिल घबड़ाया थोर चक्कर आने लगी । किसी के बतलाने से उन्होंने मूँग की खिचड़ी में बहुत सा घी मिलाकर खा लिया, इससे उन्हें तुरत लाभ हो मया । - ( ० ० ) मजन मुफरिदात में यह अधिक लिखा है— "यह मवाद को ear है श्रोर श्रानाह शूल (रियाही कुलंज ) का निवारण करता है । " बुस्तान मुफ़रिदात में यह विशेष लिखा है" एक दाने की श्राधी गिरी और पाँच कालीमिर्च इनको एकत्र पीसकर खिलाने से वातज श्रानाह, शूल (रियाही दर्द कुलंज ) मिटता है । परीक्षित है । पीपल र शहद के साथ मिलाकर झड़बेरी के बराबर इसकी गोली बनाकर खिलाने से जीर्ण ज्वर का नाश होता है । इसे स्त्री के दूध में पीसकर योनि में इसकी वर्ति धारण करने से स्त्रियों का वंध्यत्व दोष मिटता है और वे गर्भधारण के योग्य हो जाती है । यह दृष्टि को शक्ति प्रदान करता और वायु का अनुलोमन करता है । यह सूखी खुजली गर्भाशय के रोग तथा कुष्ठादि में लाभकारी है" । इसकी गिरी को हुक्के में रखकर पीने से उदरशूल मिटता है । करंजी की गिरी, संचर नमक, सोंठ और भुनी हुई हींग - इनको समान भाग लेकर चूर्ण करके ६ माशे की मात्रा में गरम जल के साथ लेने से सब प्रकार के उदरशूल नष्ट होते हैं 1 नव्य मत आर० एन० खोरी-कंजे की गिरी तिक्क वल्य ज्वर निवारक और कृमिघ्न है । श्रर्द्धपत्र स्वरस ज्वरघ्न है तथा विषम ज्वर ( जीर्ण ज्वर ) में व्यवहृत होता है । अंतरा, तिजारी और चौथिया प्रभृति पारी के ज्वरों में इसके बीजों की गिरी का चूर्ण सम भाग पीपल के चूर्ण के साथ व्यवहार किया जाता है । किन्तु यह ज्वरघ्न, सागिक दौर्वल्य नाशक, रक्तपित्त (Haemorrhage ) Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करञ्ज २२३० हर और रसावन (Alterativie tonic)| है । करों की गिरी कृमिन्न है और प्रान्त्रस्थ कृमि विनाशार्थ पलाश को पत्ती एवं फूल ओर अफसंतोन ( Artmisia Absin tbiam ) की मंजरी के साथ, व्यवहार को जाती है। चेहरे की छींप और भाई अर्थात् मुखव्यंग Frekles) और कर्णस्राव निवारणार्थ इसके बीजों का तेल व्यवहार में प्राता है यह स्निग्ध है और अभ्यंग के काम आता है। सागरगोटा के बीजों की गिरी और लौंग-इन्हें चूर्ण कर सेवन करने से शूलवेदना ( Pain of colic) श्रोर वमन शांत होता है। किसो किसी देश को ललनाओं का यह विश्वास है कि ससत्वानारियों के गले में कंजा के बीजों की माला धारण कराने से गर्भपात नहीं होता । मेटीरिया मेडिका आफ इण्डिया-२ य खं०, २०३ पृ०। डीमक-भूनकर चूर्ण की हुई करंज की गिरी वृद्धिग्रस्त ( Hydrocele) रोगी को सेवन कराते हैं और साथ साथ रेंड के पत्ते पर उन चूर्ण को स्थापन कर, उससे कुरण्ड को ढाँक रखते हैं। कुष्ठ रोग में भी इसका उपयोग होता है और यह कृमिघ्न ख्याल किया जाता है। क्षतरोपणार्थ वहु क्षण करंजगिरो साधिततैल व्यवहृत होताहै । कंजा के तेल के अभ्यंग से त्वचा सुकोमल एवं मृदु होती है और व्यंग तथा मुखवणादि का नाश होता है। अस्तु सौंदर्यवर्धक अभ्यंग रूप से इसका व्यवहार होता है। गर्भपात निवारण के लिये ससत्वाललना गण कंजे के बीजों को लाल रेशम के तागे में पिरोकर गले में धारण करती हैं और इसे वृक्षों पर इस हेतु लटकाते हैं. जिसमें उसके फल न झड़ने पावें। ऐन्सली-लिखते हैं कि देशी चिकित्सकगण बलप्रद रूप से, मसाले के साथ, इसको गिरी का व्यवहार करते हैं। वे वृद्धिग्रस्त रोगो के फोतों पर इसका प्रलेप भी करते हैं । इसके सिवा इसकी जड़ और पत्ती भी पूर्वोक गुणधर्म वाली होती है । शिशुजात प्रांत्रस्थ कृमि रोग में कोंकण निवासी कपूर हलदी (Yellow zodary) और पलासपापड़ा के साथ इसको पत्ती का रस व्यवहार । करते हैं । यह ज्वर निवारक है। अस्तु, ज्वर में । इसे ४ तोले की मात्रा में देते हैं । योषापस्मार वल मूर्छा में गुड़ के साथ इसकी गिरी दी जाती है। जलसिद्ध ( Roasted) कंजे के बीजों का यथाविधि क्वाथ प्रस्तुत करें। यह क्वाथ क्षय एवं श्वास रोग में प्रयोजनीय होता है। (फार्माको ग्राफिया इंडिका-१ म खं०, पृ० ४६७-८) वैट-बीज की तरह कंजे की जड़ में भी ज्वरध्नी शक्ति होती है। पनजात तैल श्राक्षेपकादि वातव्याधियों में व्यवहृत होता है। कोई-कोई कहते हैं कि कंजे की गिरी का चूर्ण तमाखू में मिलाकर खाने से शूलजन्य वेदना शांत होती है। (डिक्शनरी श्राफ दी एकानामिक प्रोडक्ट श्राफ इंडिया) नादकर्णी-गुण-प्रभाव-कंजे का मूलत्वक् और बीज दोनों ही ज्वरप्रतिषेधक, प्राक्षेप निवारक तिक्क-बल्य, कृमिघ्न और ज्वरहर हैं । बीज-चूर्ण वल्य है । पत्ती अवरोधोवाटक और रजःप्रवर्तक मानी जाती है । जड़ जठराग्निप्रदीपक (Gastric tonic आमयिक प्रयोग कंजे की गुठली वा बीज और मूलत्वक, साधारण, सतत और विसर्गी ज्वरों में एवं श्वास तथा शूल इत्यादि रोगों में उपकारी है। इसकी विधि यह है कि सर्व प्रथम कंजेकी गिरियोंको लेकर खूब वारीक चूर्ण करें फिर जितना यह चूर्ण हो; उतना ही उसमें कालीमिर्गी का चूर्ण मिलायें और इसमें से ५-१५ रत्ती की मात्रा में सेवन करें। जड़ की छाल का चूर्ण ५ रत्ती से एक माशा तक दे सकते हैं। इसके बीजों के चूर्ण को चिलम में रखकर तमाकू की तरह धूम्रपान करने से शूल (Colic) रोग का नाश होता है। मक्खन निकाले हुये गरम दूध और हींग के साथ मिलाकर अजीर्ण रोग में उपयोग करने से यह वल्य प्रभाव करता है । दंतमांस व्रण (Gum boils) तथा मसूड़ोंका पिलपिला होना (Spongy gums) श्रादि विविध मसूढ़ा जात रोगों में जलाये हुये कंजे के बीजों में फिटकिरी और जलाई हुई सुपारी मिलाकर बनाया हुआ मंजन गुणकारी होता है। १५ रत्ती कंजे की गिरी का चूर्ण, और एक अंडा इनकी एक रोटी बनाकर घी में भून लेवें और Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करा २२३१ करत दिन में दोबार सेवन करादें । उग्र अंडशोथ, डिंबशोथ और कंठमाला के लिये यह महौषधि है। एरण्ड तैल में बना हुआ इसके बीजों का प्रलेप कुरंड (Hydrocele) पर लगाने की उत्कृष्ट महौषधि है । उग्र अंडशोथ और ग्रंथिशोथ यकृद्विकृति में इसकी कोमल कोमल पत्तियाँ उपकारी होती हैं। आक्षेप, पक्षाघात ( Palsy ) और इसी तरह के अन्य वातव्याधियों में इसके बीजों से निकाला हुआ तेल लाभकारी होता है। इसकी पिसी हुई कोमल पत्तियों को; रेडी के तेल वा घी में पकाकर सूजे हुये वेदनापूर्ण अंडकोषों पर मोटी तह चढ़ाने से महान उपकार होते हुये पाया गया है। बीज-मजाजात तैल कर्णस्राव की औषधि है। श्रामघात वा गठिया में सूजी हुई संधियों पर इसका अभ्यंग भी करते हैं । (इं० मे० मे. पृ० १३८-६) रुफियस-(Ruphius) करंजुवा के बीज कृमिघ्न हैं। इसकी पत्ती, जड़ और बीज आर्तव प्रवर्तक एवं ज्वर निवारक हैं । (फा० इं०) भारत और पारस्य देश में इसके बीज अत्यन्त उष्ण एवं रूक्ष तथा शोथध्न, रनपित्त रुद्धक और संक्रामक रोग निवारक माने जाते हैं। आर० एन० चोपरा-करंज के नन् ग्ल्युकोसाइडिक तिन सत्व की साधारण गुणधर्म विषयक परीक्षा की गई. परन्तु यह प्रभावशून्य अथवा निष्क्रिय प्रमाणित हश्रा । कंजा नियतकालिकज्वर निवारण (Anti periodic) के लिये अति प्राचीन काल से विख्यात है। इसी को ध्यान में रखकर देशी औषध-गुण-धर्म अन्वेषिणी समिति की संरक्षणता में रोगियों पर इसके गुण-धर्म की परीक्षा की गई और यद्यपि समिति ने इसे अतीव बलकारी एवं उत्तम ज्वरघ्न बतलाकर इसकी उपयोगिता के पक्ष में ही अपनी सम्मति दी । पर चूँकि इसके बीजों में कोई व्यक्त रोग निवारक गुण नहीं दीखता और न तो इसके रासायनिक संघटन का पुनरपि संशोधन करने पर इसमें किसी ऐसे क्रियात्मक प्रभावकारी सत्व की विद्यमानता ही सिद्ध होती है, जिससे किसी व्यक्त प्रभाव की श्राशा की जा सके। इसलिये इसके सम्बन्ध में और परीक्षण-क्रम चालू रखना अनावश्यक समझा गया । (इं० इ० ई० पृ० ३०८-६) क्षय और श्वास में इसके भुने हये बीजों का काढ़ा व्यवहार्य है। सन् १८६८ में वल्य और ज्वरघ्न मानकर इसके बीज फार्माकोपिया ग्राफ इंडिया के अधिकृत (Offical ) योगों में समाविष्ट कर लिये गये और अनेक डाक्टरों ने इसकी उपयोगिता के पक्ष में ही अपनी सम्मति दी। इं० डू. ई.। ___करंज की पत्ती ३ मा०, काली मिर्च २-३ दाने इनको पीसकर पीने या गोली बनाकर खाने से विषमज्वर ( Malaria) नाश होता है। औषधि-संग्रह नामक प्रसिद्ध मराठी ग्रंथ के लेखक डाक्टर वामन गणेश देशाई लिखते हैं कि सूतिका ज्वर में कटकरंज के बीज से कई प्रकार का लाभ होता है । इससे ज्वर कम होता है। गर्भाशय का संकोचन होता है। उदरशूल रुक जाता है, रजःस्राव साफ होता है और घाव बढ़ गया हो, तो वह भी शीघ्र भर जाता है। इसलिये प्रसूतिकाल के समय चाहे ज्वर हो या न हो इस ओषधि को उपयोग करना बहुत ही गुणकारी होता है। ___ कटकरंज के फूल, पत्ते इत्यादि सभी गुणकारी हैं । पर इसके बीजों की गिरी में ही ज्वर को नष्ट करने की सबसे अधिक शक्ति है । इसके सेवन की विधि यह है___ करंज की गिरी का चूर्ण १ भाग, चौथाई भाग लेंडी पीपल का चूर्ण इनको शहद में खरल करके पाँच-पाँच छः-छः रत्ती की गोलियाँ बना लेवें। इनको मलेरिया ज्वर में पानी के साथ देने से बड़ा उपकार होता है। अथवा करंज की गिरी और काली मिर्च इनको बराबर-बराबर ले पीसकर ८ रत्ती से १५ रत्ती तक को मात्रा में दिन में दो बार लेने से बारी से प्राना वाला ज्वर छूट जाता है। इसमें कुनैन के समान मलेरिया के विष को नष्ट करने की शक्कि तो है ही, पर इसमें उसके दोष बिलकुल नहीं पाये जाते। इसे - खाली पेट नहीं देना चाहिये । इससे सभी दशाओं में सभी को निर्भयतापूर्वक दे सकते हैं। यह नये पुराने सभी ज्वरों में उपकारी है। यह प्रीहा एवं यकृत Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करजगाछ २२३२ करडई के विकारों को दूर करके शरीर में नवीन रक्त का | करंजा-च-झाड़-[ मरा०] ) करंज का पेड । करंज संचार करता है। करंजा-च-वृक्ष-[ मरा० ] कंजे का पेड़ । करंजुवा द्वारा होनेवाली धातूपधातु की भस्में करंजादि लेप-संज्ञा पु० [सं० ] उक्न नाम का एक (५) हजुल यहूद वा संग यहूद के योग। भस्म की विधि निर्माणविधि-करंज की गिरी, हल्दी, कसीस. प्रथम १ तो० हल यहूद को लेकर दही के पद्माक, सहद, गोरोचन और हरताल इन्हें पीससाथ एक पहर पूरा निरन्तर आलोड़ित करें और कर लेप करने से अलस का नाश होता है । वृ. फिर टिकिया बनाकर सुखा लेवें। पुनः १ पाव नि०र० तुद्र रो०चि०। जनके पत्तों को कटकर एक मिट्टी के सकोरे में | करंजायंजन-संज्ञा पु. [सं. क्री.] उक नाम का उक्त टिकिये के ऊपर नीचे देकर, ऊपर से दूसरा एक योग। सकोरा उलटा रखकर खूब कपरौटी करके २० सेर निर्माण विधि-करंज की मांगी, कमल; उपलों की अग्नि देवें । भस्म होगा। कमल केसर, चन्दन, नीलोत्पल और गेरू को मात्रा-1 से ४ रत्ती तक । खियारैन इत्यादि गोबर के रस में पीसकर अंजन करने से नक्रांध के रस के साथ या माजूनों में मिलाकर देवें । यह ( रतौंधी) का नाश होता है । वृ०नि० २० नेत्र वृक्काश्मरी को निकालता और सूजाक में इसका रो. चि.। चमत्कृत प्रभाव प्रदर्शित होता है। करंजिया-संज्ञा स्त्री॰ [१] उदकीयं । (२) कृष्णाभ्रक १ छटाँक करंजुए के बीजों [सिरि० ] करमकल्ला । कर्नव। . की गिरी १ छटाँक, मुर्गी का अंडा ६ अदद, | करंजी-संज्ञा स्त्री० [सं० करजी ] दे॰ "करजी" । कलमीशोरा पूरा पाव, सफेद संखिया १ माशा संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कंजे का एक भेद । और घीकुमार का लबाब १ छटॉक-इन सबको इसका पेड़ कांटेदार काफी ऊचा होता है। पत्ते खरल करके मिट्टी के दो सकोरों के भीतर रखकर आमले के पत्तों की तरह. फल-फूल की तरह होते कपड़ मिट्टी करके २० सेर उपलों की अग्नि देवें। हैं । परन्तु फल अपरिपक्कास्था में हरे और इसके स्वांग शीतल होने पर निकालें, यदि चमक रहे तो उपरांत लाल चुन्नटदार होजाते हैं । यह हिमालय पुनः अग्नि देवें। के नीचे भागों में अजमेर, बुदेलखण्ड, बिहार, __ मात्रा-एक सुर्ख (रत्ती) उपयुक्त शर्बत श्रासाम, ब्रह्मा, पञ्चिमी प्रायद्वीप और लंका में या अर्क के साथ इसका सेवन करें। यह सूजाक, होता है । कँजी। सुखकाई, शुकाई (द०)। संतत ज्वर और वबाई बुखारों के लिये अतीव ( Holoptelea Integrifolia ) गुणकारी है । यदि चातुर्थिक ज्वर में देना हो, तो (२) अमना । कुज । पपरी । कुनैन के साथ देवें । अतिशय लाभकारी है।। करंजुआ, करंजुवा-संज्ञा पुं॰ [सं० करजः] (1) संज्ञा पुं० [सं० कलिंग, फ्रा० कुलंग] कंजा । सागरगोट । (२) करंज । मुरगा। करंजून:-[?] फलंजूनः । करंजगाछ-[बं०] कंजा । करंज । | करंझ-[द० jकंजा । करंज । करंजन-[?] सहिजन । करंटक-कत्तिन-काय-[ते०, मल.] काकमारी। ___संज्ञा पुं॰ [देश॰] कंजा । करंज । करंटी-[को०] विशाला । जंगली इन्द्रायन । करंजय-[करना० ] करमई । अम्ल करंज । करंटोली-[ मरा० ] धार करेखा । किरार । करंजवा-संज्ञा पु० [सं० करा ] करंज । कंजा। | करठीड-[ गु० ] पाठा । करंजा-संज्ञा पु० दे० "करञ्ज" । (२) गाँजा। | करंड-संज्ञा पु० दे० "करण्ड"। वि० [स्त्री० करंजी ] करंज वा कंजे के रंग को संज्ञा पुं॰ [सं० कुरविंद ] कुरुल पत्थर । . सी आँख वाला । भूरी आँखवाला । । करंडई-[ ता०] विश्व तुलसी । वबुई। . Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करंडगिडा २२३३ कराँकुल परंडगिडा-) [ कना० ] गोरखमुडी । मुद्धितिका । | एकत्र वर्णन किया है; परन्तु कुरर टिटिहरी को करंडिगिडी कहते हैं। कोई कोई कुलंग के प्राकृति-वर्णन प्रसंग में लिखते हैं, कि इसका सिर लाल और करंडुई-ता. ] मुंगे। वाकी शरीर मटमैले रंग का होता है। खज़ाइनुल करंडो-[१] प्रदविया नामक वृहद् यूनानी निघंटु में लिखा है, करतीनः-[ इटैलियन कारंतीना से मुझ०] कि कुज दो प्रकार का होता है-सफेद और करंद- । संज्ञा पु [?] पिपरामूल । खाको । इनमें से सफेद अल्प प्राप्य है और करंदा उत्तम वह है जिसका बाज़ ने आखेट किया हो। करंध, करंधा-संज्ञा पु. [?] पिपरामूल । क्यों कि श्रम और ब्याकुलता के कारण इसका करंधिस-गु० ] पाठा। अंबष्ठा । मांस कोमल हो जाता है। करब-संज्ञा पुं० [ सं० पु.] [वि. करंबित ] गुणधर्म तथा प्रयोग(.) मिश्रिण । मिलावट । दधिमिश्रित खाद्य । आयुर्वेदीय मतानुसारकरंवर-[पं०] सिरस । क्रौञ्चः पित्तानिलहरः पेचकः वातजित् । करसहा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] स्वर्णक्षीरी लता। अर्थात् क्रौञ्च पित्त और वात नाशक है। कराँकुल-संज्ञा पुं॰ [सं० कलाङ्करः ] बगुले की ज्वरे हितः। (च०६०) जाति की पानी के किनारे की एक बड़ी चिड़िया अर्थात् यह ज्वर में हितकारी है। जिसके झुण्ड ठण्डे पहाड़ी देशों से जाड़े के दिनों | क्रौञ्चो वृप्योऽतिरुचिकृदश्मरी हन्ति नित्यशः । में आते हैं। यह 'कर' 'कर' शब्द करती हुई | शोषमूच्छोहरो वल्यो हन्ति कासमरोचकम् ॥ पंक्रि बांधकर आकाश में उड़ती हैं। इसका रंग (अनि० २१ अ. पद्मबीजे । वै. निघ.) स्याही और कुछ सुर्सी लिये हुए भूरा होता है अर्थात् कराँकुल का मांस वृष्य, वल्य तथा और इसकी गरदन के नीचे का भाग सफेद अत्यन्त रुचिकारी है और यह शोष, मूर्छा, कास होता है। अरोचक एवं अश्मरी का नाश करता है। पर्याकुंज (ख० अ०), कुंज ( फांर्वीज़ । यूनानी मतानुसारडिक्शनरी), कोंच (ता. श०), घाटी, बन प्रकृति-मांस द्वितीय कक्षा में उष्ण और रुक्ष कुकढ़ी, करांकुल-हिं० । कोंच बक-बं०। है। किन्तु उष्णता की अपेक्षा रुक्षता परिवर्द्धित कुलंग-फ्रा० । कुर्की-अ० । हिरीन Heron होती है । कोई कोई शीतल और रूक्ष लिखते हैं। कल्यु Curlew -अं० श्रार्डियोला गेयिाई इसका पित्त रुक्ष है। Ardeola grayii,Sykee. sušar हानिकता-मांस, दीर्घपाकी है और सांद्र क्युलेटर Ardea Jaculater-ले०।। (गलीज) दोष उत्पन्न करता है (म. मु०; संस्कृत पर्या-क्रौञ्चः क्रौञ्चकः क्रोञ्चवी, ख० अ०), सौदावी खून उत्पन्न करता है (मु. दीर्घखः, राम्रिजागरः, नीलक्रौञ्चः. नीलाङ्गः दीर्घ- ना०)। ग्रीवः, अतिजागरः, (ध० नि० ध्व०), कुररः, ___ दर्पघ्न-मांस को पय्युषित करके पकाना, खरशब्दः, कुङ्, क्रौञ्चः, पकिचरः, खरः (रा. सिरका, नमक और गरम मसाले भी दर्पन हैं। नि० १६ व०), कलीबकः, कलिकः (शब्दर०) प्रतिनिधि-किसी किसी गुण में जंगली कराकर-सं०। कबूतर का मांस । मतान्तर से सारस भी इसकी वक्तव्य-यद्यपि संस्कृत कोषों में "कलाङ्कर" प्रतिनिधि हैं। मांस इसका हलाल (शास्त्र और 'क्रौञ्च' दोनों एक नहीं माने गये हैं, पर विहित ) है। अधिकांश लोग कराँकुल' हो को 'क्रौञ्च' पक्षी मात्रा-मांस आवश्यकतानुसार, भेजा और मानते हैं। किसी किसी ने क्रौञ्च और कुरर का पित्ता २-३ रत्ती तक। फा०६० Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कराँकुल २२३४ कराँकुल गुण, कमें प्रयोग-इसका मांस अवरोधोद्धाटन करता, शरीर को शत्ति प्रदान करता और कुलंज को नष्ट करता है। इसका भेजा नेत्र में लगाने खे रात्रांध्य रोग आराम होता है। भेजे का लेप श्वित्र और कण्डू पर भी लाभकारी है और शिर के बाल सफेद नहीं होने देता। सिरका और | वनपलाएड के साथ इसकी चर्बी का उपयोग प्लीहा शोथ में लाभकारी है। कुंज के अण्डे में मसूर के दाने के बराघर छिद्र करके उसमें तोले भर पारा भर कर छिद्र को उड़द के आटे से बन्द कर दे। अण्डे के ऊपर भी प्राटा लगा दे और इसे भाग में रख दे । जब पक जाय, उसे निकाल कर ऊपरी आटे को पृथक कर और पारे को निकाल लेवे । तदुपरांत अवशिष्ट अण्डे की सफेदी और जर्दी को खालेवे। इसी प्रकार सप्ताह पर्यंत ऊक पारे को एक अंडे के भीतर तथोक विधि के अनुसार भर-पकाकर नियमानुसार सेवन करते रहें। सप्ताहोपरांत उस पारे की जगह नया पारा लेकर पुनः उसी प्रकार प्रस्तुत कर सेवन करें। इसी भाँति सप्ताह के उपरांत नया पारा बदल बदल कर उन विधि के अनुसार चालीस दिन तक अंडे की जर्दी एवं सफ़ेडी सेवन करें विशेषतः शरद् ऋतु में। इससे अतुलनीय कामशक्ति प्रादुर्भूत होगी। अधिकतया शीतल प्रकृति वालों को इसका उपयोग करना चाहिये । इसके सेवन काल में खट्टी और बादी की चीजें वर्जित हैं। इन्न-ज़हर कहते हैं कि तरो-ताज़ा बाकले को कूट और निचोड़ कर स्वरस निकाले और उसमें उत्तम सिरका मिलायें। फिर इसे मिट्टी की हाँडी में भरकर उसमें इतने बाक़ला के दाने सग्निविष्ट करें कि उक्त द्रव दानों के ऊपर ऊपर रहे ।तत्पश्चात् उक्त हण्डिका को चूल्हे पर चढ़ाकर उसके नीचे मंद अग्नि जलायें, जब सारा द्रव शुष्क हो जाय, तब दानों को निकाल कर छाया में शुष्क करले और उसे कुलंग पक्षी के सामने डाल दें। ज्योंही उसने इसे खाया गति करने से रहित हुआ । .. उसके निवारण का उपाय यह है कि उसके कंठ में नबीज-तमर (अम्लिकारिष्ट) डालें । इब्न जुह्वर | ने निश्चेष्ट करने की दूसरी विधि इस प्रकार लिखी है-कनेर के पत्तों का रस लेकर उसमें तीच सिरका मिलायें। फिर इसे मिट्टी की हाँसी में डालकर उसमें बाकला के दाने भरकर इतना पकायें कि समस्त द्रव शुष्कीभूत हो जाय । पुनः उसे छाया में सुखाकर कुलंग के पास डाला जाय । . जो खायेगा वह गति न कर सकेगा। किंतु नबीज़ तमर (अम्लिकारिष्ट ) पिलाने से वह पुनः स्वास्थ्य लाभ करेगा । "कनेर के पत्तों के साथ लोबिया पकाकर खिलाने से भी कुलंग उड़ने से प्राजिज श्राजाता है, इसका भेजा समभाग सौंफ के साथ लगाने से बहाँके वाल पुनः नहीं उगते इसका पित्ता और भेजा पारे के साथ मिलाकर प्रधमनसऊत करनेसे भूलीहई चीज़ स्मरण श्राजाती है।" ना० अ०। चमेली के तेल में हल किया हुआ इसका पित्ता एक जौ की मात्रा में खाने से विस्मृत रोग में उपकार होता है। और इससे शिर के बाल सफेद नहीं होते। -म० मु०। ___ इसका गोश्त वायुविकार नाशक है । ( -ता. शा० ।) बनपलाण्डु-घटित-सुक्न के साथ इसकी चर्बी का पीना प्लीहा-शोथ-नाशक है। यदि वह - मनुष्य जिसे विस्मृति का रोग हो, चमेली के तेल में कुलङ्ग का पित्त वा उसके शिर का भेजा मिलाकर नास ले, तो उसे कोई बात विस्मरण न हो। इसके भेजे का लेप रान्यंध्य रोग को नष्ट करता है। चुकन्दर के रस में इसका पित्त मिला नास लेने से तीन दिन में लकवा श्राराम होता है। इसका मांस कामोद्दीपक है । इसकी चर्बी कान में टपकाने से वधिरता जाती रहती है। -मु. ना.। कुलङ्ग का मांस अवरोधों का उद्घाटन करता, शरीर को शक्ति प्रदान करता और कोला रोग को दूर करता है । संगदाना मलरुद्धक है। यह सूखा पिसा हुआ चने के पानी के साथ वरिस्तित एवं वृक्कशूल को लाभकारी है। इसका मस्तिष्कभेजा नेत्र में लगाने से रतौंधी का नाश होता है। (न. मु.) इसे मेथी के रस में पीसकर लेप करने से सूजन उतरती है। इसका पित्त चुकन्दर या मर्जजोश के रस में मिला तीन दिन तक नास लेने से लकवे का निश्चय ही नाश होता है। किंतु इसे विपरीत पक्ष के नथुने में झलना उचित Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करांकुस २१३५ करातारिगोविन है। इसके उपयोग काल में रोगन अखरोट पियें | कराग्र पल्लव-संज्ञा पु० [सं० पु.] उँगलीं। और मर्दन करें और अंधेरी कोठरी में बैठे। इसके | अंगुली। पित्ते का सुर्मा मोतियाबिन्दु रात्र्यंध और नाखूने | करापात-संज्ञा पु० [सं० पु.] बड़ी उँगली ।वृद्धा. को कल्याण प्रद है। श्वित्र में इसका लेप उपकारी है । इसके पित्ते और भेजे का चमेली के करांकुल-संज्ञा पुं॰ [सं०] एक जंतु । तेल के साथ नास विस्मृति रोग का निवारण करांकुश-संज्ञा पुं० [सं० पु.] नख । नाखून । करता है और बालसफेद नहीं होने देता। सिरके में शब्दर। इसकी चर्बी मिलाकर पीने से प्लीहा की सूजन उतरती है। -बु.मु.। कराङ्गण-संज्ञा पुं॰ [सं० क्रो० ] वाजार । हह । करांकुस-[बं०, सं० कराङ्कुश ) लामज्जक । लमजक । हारा०। करांकुस । (Andropogon iwaranc करांगुल-संज्ञा स्त्री० [सं० पु.] हाथ की उँगली। usa Roxb. ) कराचीन-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] खञ्जन । खहरैचा । द्विरूपको० । करॉठ-संज्ञा पुं॰ [सं० कुरंट] कटसरैया। पियाबाँसा । | कराचोरकऊदी-[ तु० ] कलौंजी | शोनीज़ । कराँत-संज्ञा पुं० [सं० करपत्र, प्रा० करवत्त ] पारा । कराज-[?] (1) बाबूना । (२) उकहवान । करपत्र । कराज:-[१०] एक प्रकार की मिठाई । करांपु-[ मला०] ) करनाल । लौंग । करात-संज्ञा पुं० [अ० कीरात ] एक तौल जो चार करांबु- ता०] जौ की होती है और प्रायः सोना, चाँदी वा दवा करा-[सिरि०] कह। तौलने के काम में आती है। कराव[१०एक प्रकार की चिड़िया जो ऊदसलीच कराजिया-रू.] आलूबालू । ___ को अपने घोंसले में ले जाती है। कराताजह-[ तु० ] शुहरूर । करा आस झाझा लूतन-1-यू. शामी गंदना । करातात-[ तु.] एक प्रकार का फल जो कालीमिर्च करा आस बाबा लुतन की तरह होता है । इसका स्वाद ज़रिश्क के समान कराइचा-[?] इंद्रजव। किंचित् अम्ल होता है। गुण धर्म में भी यह कराइजा-संज्ञा पुं०, चाँदनी। नन्दीवृक्ष । Rose उसके समान होता है । कदाचित् यह ज़रिश्क की bay. (२) कड़वा इन्द्रजौ। ही एक किस्म हो । जिन्होंने इसे 'ज़फ्राल' समझा कराइत-संज्ञा पु० [सं० किरात, हिं० कारा, काला] है उन्होंने भूल की है । 'जुकाल' करानिया है। ___एक प्रकार का काला साँप जो बहुत विषैला होता (ख० अ०) है। करैत । करातारिगोयिन-[?] एक अप्रसिद्ध पौधा । कराकर-[ माज़ंदरानी ] शकराक । एक उद्भिज जिसकी शाखाएँ अत्यन्त गाँठदार कराकिर-[अ० बहु.] (Curgling, Borbo होती और एक ही जड़ से निकलती हैं। इसकी ... rygmus) पेट की गुड़गुड़ाहट । अंतड़ियों में पत्तियाँ गेहूं की पत्तियों की तरह होती हैं । बीज ____ वायु-संचय से इस प्रकार की आवाज़ पैदा बाजरे के दाने की तरह होता है और स्वाद होती है। अत्यन्त तीव्र होता है। यह छायादार स्थानों कराकीनूस-[ यू०] उश्तरगाज़ । और नोनी ज़मीन में उत्पन्न होता है। कोई कोई करारूत, क़राक़रूत-[तु०, शीराज़ी] दुग्धाम्म । कहते हैं कि यह जंगली गेहूं है। : रवीन | Lactic acid प्रकृति-यदि स्त्री ऋतु-स्नानोत्तर और पुरुष कराक्रूस-[ तु.] उकाब। दोनों ॥ माशे इसके बीज पीसकर थोड़े से पानी कराग्र-संज्ञा पुं॰ [सं० को०] करिपुरका । हाथी | के साथ खाकर संगम करें, तो लड़के का हमल के सूंड़ का सिरा ।हला० । औरत को रह जाय । (ख० म०) Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रैला । . सादा। करातिया २२३६ कराल करातिया-[यू०] खनूब शामी । करायल-संज्ञा स्त्री० [सं० काला ] कलौंजों । मॅग करात न-[यू.] सादा शहद का पानी । माउलवस्त संज्ञा पुं॰ [सं० कराल ] ( Rosin res- [अ] अर्क बादियान वा पानी में जोश दिया _in ) तेल मिली हुई राल । हुआ शहद । | करायला, कनालह-[?] हुलहुल । क़रात स, करात सन-[ यू०] दरूनीनून। । | करायिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक प्रकार का करानिया-[यू.] जैतून की तरह का एक बड़ा पहादी पक्षी। छोटा बगुला । क्षुद्र वक । वै० निघः । पेड़। इसका फल जामुन की तरह होता है। करार-संज्ञा पुं० [अ० (१)स्थिरता ठहराव ।(२) जुकाल । करानीतुस-[ यू० ] प्रलाप । हज़ियान । बुद्धिनाश । करारनोश-[रू० ] मोम । करानीतु स खालिस-अ.] पैत्तिक सरेसाम । सरे फरारनोल-[१] नीलोफ़र। साम सफरावी, जिसका हेतु शुद्ध पित्त वा सफ़रा होता है। करारा-संज्ञा पु० [सं० करट ] कौया । करानीनी इग़रिया-[ यू०] जंगली कर्नब । ___ संज्ञा पु. एक प्रकार की मिठाई । करारी-[ सिरि० परेंडी । तुम अरंडी । करानीस-[सिरि० ] बाक़ला। कराब, कराबत-संज्ञा स्त्री० [१०]() नज़- | करारीत- अ० कोरात का बहु० ] दे. "कीरात" - दीकी। समीपता (२) रिश्तेदारी। संबन्ध । | कराल, करालक-संज्ञा पु'• [सं० पु०, क्री० ] कृष्ण नाता । रिश्ता । Relation तुलसी। काली तुलसी । प० मु०। भा० पू० कराबा-संज्ञा पुं० [अ० क़राबः । सं० करका, हिं. १ भ०। करबा ] शीशे का बड़ा बरतन जिसमें अर्क इत्यादि ___ संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (१) राल मिला . . रखते हैं। काँच का छोटे मुह का बड़ा पात्र ।। हुआ तेल । गर्जन तेल । सर्जरस तैल । मे. कराबादीन-[अ० वा करावादीन का मुत्र] वह लत्रिक । (२) दॉतों का एक रोग जिसमें दाँतों - किताब जिसमें नुस्खे और योग संगृहीत हों। में बड़ी पीड़ा होती है और वे ऊँचे नीचे और (Pharmacopoeia, Dispensato- बेडौल हो जाते हैं । माधव निदान के अनुसार ___ry ) दाँतों में स्थित वायु धीरे धीरे दाँतों को ऊंचे करामई-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] करौंदे का पेड़। नीचे और तिरछे कर देती है। यह रोग असाध्य करमईक वृक्ष । श०र०। है। मा० नि० दंतवेष्टग० रो०। (३) कस्तूरी करामली-[ हिमा० ] फराश । मग । सु० सू. ४६ अ०।। करामियून-[ यू०] प्याज़। जङ्घालवत् । (४) शालुक। करामूस-[यू.] बाक़ला। संज्ञा पुं० [सं० की.] (1) कृष्णार्जक । कराम्बुक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] पानी आँवले का काली तुलसी । (२) काला बघूल । कृष्णबई पेड़ । पानीयामलक वृक्ष। कृष्णापाकफल । रक । (३) घी वा तेल में तैयार किया हुआ श० च०। वेसवार । (पाकराजः) करायल । . नोट–'कृष्णपाकफल' करौंदेको भी कहते हैं। वि० [सं० त्रि०] (.) जिसके बड़े-बड़े कराम्ल, कराम्लक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] करौंदे दाँत हों। ऊँचे दाँतवाला । दन्तुर । (२) डरार का पेड़ । करमक वृक्ष । प० मु०। वनी प्राकृति का। भीषण । भयानक । (३) कराम्लिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] करौंदा। ऊँचा । तुग। (४) प्रशस्त । खुला हुआ। करायजा-संज्ञा पुं॰ [सं० कुटज ] (१) कौरैया। कराल-[ब.] करेला । कारवेन । कुटज । (२) इंद्रजवा । इंद्रयव । संज्ञा पुं॰ [सं०] कौमा । Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करालकलिक २२३७ करिश्रासांबा करालकलिक-संज्ञा पु० [सं० पु.] कुन्द के फूल कराह्वा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] उपगन्धा । कर्कटा का पौधा । कुन्दपुष्पवृक्ष । ५० मु.। नामक द्रव्य | नि०शि० । करालकेशर-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] सिंह । शेर। करिंकिल्ला-[ मल० ] चाकसू । करालत्रिपुटा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] एक प्रकार करिकुवलम्- मदरास ] नीलोत्पल । नीला कमल । का शिम्बी धान्य जिसे लङ्का भी कहते हैं । रा• करिग-ते. डिकामाली। नि०व०१६ । [मरा० ] ब्रमंडूकी । मंडूकपर्णी । कराला-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (१) अनन्तमूल। करिंगी-[ नेपा०] तिक कोरैया । सारिवा । प० मु० । (२) वायविडंग । (३) करिघोटा-[ मलाबार ] ( Samadera Indica . करटा। Gartn.) लोखंडी। समादर। करालाङ्क-संज्ञा पु. [ सं० क्री० ] वायविडंग । करिंचीरकम्-[ मल. ] काला जीरा । कृष्णजीरक । विडंग। वै० निघ०। (Nigella Sativa ) करालास्य-वि० [सं० वि०] जिसके मुंह में बड़े करिंजिरे-[को० ] काला जीरा । ___ बड़े दाँत हो । करालानन । दन्तुर वदनं । करिंजे-रुकु-[को० ] कंजा । करंज । करालिक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (१) पेड़ । वृक्ष। हे. च.। (२) करवाल । तलवार । करिंजोटी-[ ? ] लोखंडी। कराली-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] अग्नि को सात करिंतुम्ब-[ मल० ] मोगवीरा । (Anisomeles जिह्वाओं में से एक। malabarica, R. Br.) संज्ञा पुं० [सं० पु. करालिन् ] एक प्रकार करिथुवरी-[ मदरास] ( Diospyros paniका घोड़ा जो बहुत दोषान्वित होता है। जयदत्त ____culata, Dala.) तिंदुकभेद । तेंदू की एक के अनुसार जिस घोड़ें के नीचे वा उपर एक बड़ा जाति । दाँत निकला हो उसे 'कराली' कहते हैं। ज० द० | करिंदा-[ बम्ब० ] करौंदा । ३ अ०। करिंप, कारंपु-[ मल.] ईख । ऊख । गन्ना । कराव-संज्ञा पु० [ देश० ] केराव । खेसारी। करि-संज्ञा पु० [सं० करिन्, करी] [स्त्री० करिणी] [बिहा०] मटर । करस्ना। सूंडवाला अर्थात् हाथी । करी। कराविय:-[अ० सिरि० करावी । लै० कैरम कैरवी ] [मरा०] भाँट | भांडीर । कारी । विलायती जीरा । स्याह जीरा। कृष्णजीरक । वि० [ कना० ] काला । कृष्ण । करोया । ( Carui fructus) करि-[ ता०, मल० ] Carbon कोयला । करासंकर- तु.] एक शिकारी चिड़िया। [बम्ब० ] करीर । करील । करास-[?] एक पहाड़ी वृक्ष । करिअम्बोलम्-[ ता०] छोटा घीकार । कन्या। करास-[ देश० ] असारून । करिओ-[पं० ] करीर । करील । करासावस-[यू.] जैतूनुलमा । करिश्या करली-[ कना० ] Cicer arietism करासिया, करासिया, कारासिया-[रू.] पाल | कालाचना । बालू। भालू बू अली । मु० अ० । म० अ०। करिआचना-संज्ञा पुं॰ [ मरा० ] काला चना | कृष्ण नोट-करासिया वा करासिया वस्तुतः यूनानी चणक। भाषा के शब्द हैं। यूनानी में इसे केरासूस करिआतु-[गु० ] चिरायता। (Cerasus) भी कहते हैं। करिआ नाग-[ बम्ब०] कलिहारी । करियारी । करासियून-यू.] एक विशेष प्रकार की अंगूर को करिआ बेल्लर-किल्लु-[ कर० ] नील पुनर्नवा । शराब। करिश्रारी-संज्ञा स्त्री० दे० "करियारी" । कराह.-.] साफ़ मीठा पानी। सादा पानी। करिआ सांबा-संज्ञा [हिं० करिया+सांबा-श्यामा ] विशुद्ध पदार्थ । काला सारिवाँ । श्यामालता । Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करिम्बु करिम्बु - [ कना० ] श्यामालता । कृष्णसारिवाँ । करिक–संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] गूह बबूल । विट् खदिर । [ पं० ] गीदड़दाख । करिकट- संज्ञा पु ं० [देश० ] किलकिला नाम का पक्षी जो मछलियाँ पकड़ कर खाता है । करिणवल्ली - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] चव्य । चविका लता । रा० नि० । २२३८ करिखा - संज्ञा पुं० । नीलता दे० " कालिख " । करिगु -[ गु० ] तरबूज़ | गुल्लfist - [ क० ] बन भंटा | बरहंटा । वृहती | करिचक्क - [ मल० ] बेज़म्बू । ( Averrhoa bilimbi, Linn. ) करिचर्म्म-संज्ञा पु ं० [सं० क्लो० ] गजचर्म्म | हाथी मन का चमड़ा । करिच्छद-संज्ञा पु ं० [सं० क्वी० ] तालीशपत्र | रा०| करिज -संज्ञा पु ं० [सं० पु ं० ] हाथी का बच्चा । गजशावक । श० मा० । करिकरणा - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] गजपीपल । गजपिप्पली । भैष० वाजी० कामेश्वर मोदक | च । चविका । श्रेयसी । बड़ी पीपल । करिजा - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] गजमुक्का | करिकणावल्ली-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] चविका नाम करिजाली - [ कना० ] बबूल | कीकर | की लता । चव्य । रा० नि० ० ६ । करिजिनंगेकरिकर - संज्ञा पु ं० [ स० पु ं०] हस्तिशुण्ड । हाथी करिजिनंगेमर का करिकर्ण पलाश - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] एक प्रकार का टेसू का पेड़ । हस्तिकर्ण पलाश । भैष० श्र० 1 पि० सर्व्वतोभद्र रस । करिजिरे - [को०] कलौंजी । कृष्णजीरक । करिकलन - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] विधान | व्यवस्था करिणिका - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] चव्य । चविका । हारा० । करिका - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) कारी का पौधा | कंटकारी | रा०नि० ० ८ । ( २ ) नखत्तत । नाखून का घाव । करिकारी-संज्ञा स्त्री० [ मरा०, कर० ] एक प्रकार की लता जो भारतवर्ष के कतिपय भागों, विशेष कर बम्बई में पैदा होती है । कारी । करिकुम्भ-संज्ञा पु ं० [सं० पु ं० ] ( १ ) गजकुम्भ हाथी के मस्तक की घड़े जैसी जगह । ( २ ) गंध चूर्ण | करिकुम्भक-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] नागकेसर का चूर्ण | ० | करिकुसुम्भ-संज्ञा पुं० [सं० पु ं० ] ( १ ) नागकेसर का वृक्ष । (२) नागकेसर की बुकनी । हारा० । ऋरिकृष्णा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] गजपीपल । बड़ी पीपल । गजपिप्पली । के० दे० नि० । नि० शि० । 1 करिकेसर-संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] नागकेसर | वै० निघ० श्वास चि० मुद्रावलेह । कना० ] जैत । जयन्ती । करिजिरिगी - [ कना० ] ( Nigella Sativa, Sibthorp. ) मँगरैला | कलौंजी । काला जीरा । करिणी - संज्ञा स्त्री० सं० स्त्री० करिन् ] ( 1 ) हस्तिनी । हथिनी । श्रम० । संस्कृत पर्य्या - वेणुका वशा ( श्र० ), कुञ्जरी (श० ), गणेरु, (मे० ). करेणू, करेल, करेणुका. रेणुका, वासिता, वासा, हस्तिनी, ( शब्द र ० ), कटम्भरा, पुष्परिणी, वचा, गणिका गजयोषित्, ( ज०), पद्मिनी, ( श्र० टी० ), ( २ ) हरिणी । हिरनी । करिणिसहाय -संज्ञा पुं० [सं० पु०] हथिनी का जोड़ा हाथी | गज | करित, कारित - [ मरा० ] ( Cucumis trigo nus, Roxb.) विसलं भी । करितु' प - [ मल० ] Anisomelesmala barica. करिथु बि -[ कना० ]) मोगबीरा | करिदन्त-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] हाथी दाँत । गज दन्त । करिदन्ताभ-संज्ञा पुं० [सं० नी० ] मूली । मूलक । करिदन्ती - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] नागदन्ती । करिक्रत - संज्ञा पु ं० [सं०] करैत साँप । करइत । करिदमन-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] नागदौना | नाग अथ० सू० ४ । १३ । का० १० । दमन । भैष० स्त्री-रोग-चि० । Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करिदारक रिदारक - संज्ञा पुं० [सं० पुं०] शेर श० च० । करदोडु जीरगे - [ कना० ] मँगरैला | कलौंजी । करिन कोल्ल - [ मल• ] चाकसू | करि तुम्ब - [ मल० ] मोगवीरे का पत्ता । मोगवीरा । करिनासिका - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) एक प्रकार का यंत्र । ( २ ) हाथी की नाक । करिनी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] दे० "करिणी” | करने क्किगडा - [ कना० ] नील निर्गुण्डी । करिपत्र, करिपत्रक - संज्ञा पुं० [सं० की ० ] तालीस पत्र । तालीस पत्ता । रा० नि० व० ६ | करिपिप्पली - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] गजपीपर । गजपिप्पली । प० मु० । भा० पू० १ भ० । करिपोत - संज्ञा पु ं० [सं० पु ं० ] हाथी का बच्चा । २२३६ सिंह । करिशावक । हला० । करिफियून - दे० " कफ्र्यू न” । करिबंटा - [ कना करिबू-संज्ञा पुं० [देश० ] अमेरिका के उत्तर ध्रुवीय प्रदेश का एक बारहसिंगा । ] अनंतमूल । सारिवा । करिबीब, करिबे - [ कना०, कों० ] सुरभिनिंब । कढ़ी नीम । करिफल - [ गु० ] कायफल । करिबोलम् - [ सिंगा • ] घोटा श्रीकुवार । कुमारी । करिभ-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] पीपल का पेड़ । अश्वत्थ वृक्ष । चैत्य वृक्ष | त्रिका० । करिमरम् -[ मदरास ] ( Diospyros Cand - olleana; Wight. ) नीलवृक्ष । कारी । करिमरुथु - [ मल० ] साल का पेड़ करिमाचल-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] सिंह । शेर । गजमाचल | त्रिका० । " करिवल्लिका करिया - संज्ञा पु ं० [देश० ] ( 1 ) Ribes uva crispa मकोय । सर्प । काला साँप । [ पं० ] करील । करमिचेट्टु - [ ते० ] मैनफल । करहर । करिमुथा - [ मल० ] मोथा । मुस्तक । करिमुलि - [ ता० ] वरहंटा । वनभंटा । वृहती | करि पोलम् - [ ता० ] एलुआ । करिय-मदकुणिके -[ कना० ] काला धतूरा । करियल्लोकी - [ का० ] कोयला । करियशाङ्ग - [ ता० ] भँगरा । करियसेम [देश०] Mucuna Monasperma करिया - [पं०] करील । संज्ञा पु ं० ऊख का एक रोग जो रस सुखा देता है और पौधे को काला कर देता है । करियागोली - [ कर० ] मालकंद | करिया - [ ० ] क्रियोजूट । करियाद-संज्ञा पु ं० [सं० क्ली० ] जलहस्ती । दरियाई घोड़ा । करिया रिंग - [ कर० ] सहिजन | नीला सहिजन | रिया- गु] चिरायता । करिया पोलम् - [ ता० ] मुसब्बर | एलुवा | करिर्वेम्बु - [ ता० ] घोगर | चितयोप ( बर० ) । करियां - [ ना० ] श्यामालता । श्रनन्तमूल । दुद्धी ' लता । करियारी - संज्ञा स्त्री० [सं० कलिकारी ] कलियारी विष । कलिहारी । रियाली - [ ० ] करील । करिया साँड - संज्ञा पुं[ देश० ] कृष्ण सारिवा | करिया सेम - संज्ञा स्त्री० [हिं० करिया=काला + सेम ] चमरिया सेम । करिर - संज्ञा पुं० [सं० पु०, क्ली ] ( १ ) बाँस का गोभा | करील । बाँशेर काँड़ - (बं०) । ( २ ) अरुज गुल्म । एक झाड़ । करिरत - संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] कामशास्त्रोक एक प्रकार की रति । यथा भुगतन भुजास्य मस्तकामुन्नतां स्वयमधोमुखीं स्त्रियम् । क्रामति स्वकर कृष्टमेहने वल्लभकरिरतं तदुच्यते ।।" ( शब्दचि० ) करिरा - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] हाथी के दाँत की जड़ | करिरी-दे० 'करिरा' | करिल - संज्ञा पुं० [सं० करिर ] खुश्रा । गोभा । करिला - [ से० ] करेला । कारवेल्ल । करिल्लका - सं० स्त्री० [स० स्त्री० ] करका । करिवन - [ रा ] मंडूकपर्णी । ब्रह्ममंडूकी | करिवल्लिका, करिवल्ली -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] गजपीपल । गजपिप्पली । Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करिवागेटि २२४० करीर करिधागेटि-[ देश.] करियागेटि । Paramign- करीजीनंगीमर-[ कना० ] जैत । जयंतिका। ya Monophyllar करीत, कारीत-[ मरा० ] विशाला । विषलंभी। करिविलांती-[ मल० ] जंगली उश्वा । करीतस-[यू० ] करीतून । करिबीवल्ला-[ मल०] तरली। कुदरी (बं०)। क़री तून-[यू०] अकरीतस का फूल । गोमेदृ (म)। करीदन्ताभ-संज्ञा पुं॰ [सं. पु.] मूली। बड़ी करिवीपनीन-[ ते०] ) सरभि निंब । कृष्ण __मूली । नेवार मूली । नि० शि. करिवीपु-[ मल० ] करिवेप चेट्ट-[ते. निंब । कड़ी नीम। करीदूयूस-[ यू०] टिड्डी । मलख । करीदूस-[ यू०] बिच्छू । करिवेम्बु-मरम्- ता०] घोगर । खरपत । (Garu करीना-संज्ञा पु० [हिं० केराना ] केराना | मसाला । ____ga pinnata, Roxb.) करिवेल्लड किलु-[ का० ] नील । सोंठ । करीना-[अ० ] लोबिया । करिवैविना गिडा-[ कना०] सुरभि निंब । करीनू-[ यू० ] कर्नब । करमकल्ला । करिवौलम्-[ सिंगा०] एलुवा । क़रीनून-[यू० ] शाहबलूत । करिशांगरण-[ मल० ] भंगरा । भँगरैया । करीपाक-[द० ] सुरभिनिंब । कृष्णनिम्ब । बरसुंगा । करिशावक-संज्ञा पुं० [सं० पुं०] दस वर्ष तक का | (बं.)। हाथी का बच्चा । करिसुत । श० मा०। करीफ़तुल् कत्तान-[ स्पेन ] कसूस । पर्या-कलभ, करभ, करिपोत करिज, विक करीफ़ान, करनफान-सिरि०] करोया। बिजायती और धिक्क। जीरा । करिस्कन्ध-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (१) हाथी का करीब-40] ताज़ी और नमकीन मछली। कंधा । गजांसस्थल । (१)गजसमूह । हाथी का | करीबंटा-[ कना० ] अनंतमूल । . झुड । वि० [सं० त्रि०] हाथी की तरह कंधा | करीबेलि-पान-मरवर-[ मदरास ] रखने वाला। करीबेवु- कना०] सुरभिनिम्ब । कढ़ी नीम । बरकरिहारा-संज्ञा स्त्री० दे० "करियारी" वा "कलि सुगा। - यारी"। करीभाट- संज्ञा पुंस क प्रकार की फरिहाली-संज्ञा स्त्री. "करिहारो"। करीमभार-संज्ञा पुं." करी-संज्ञा पु॰ [सं० पु० करिन् ] [ स्त्री० करिणी] जंगली घास। (१) हाथी । हस्ती । रत्ना०। (२) पाठ को करीमरम्-[ मदरास ] ( Diospyios candor संख्या। ___lleana, Wight. ) नोलवृक्ष । संज्ञा स्त्री० [सं० कांड ] कली । अनखिला | करीयपौलम्-[ ता० ] मुसब्बर । एलुवा । फूल । करीर-संज्ञा पु० [सं० पु०, क्री०] (१) बाँस का ___ संज्ञा स्त्री० सौरी या सबरी नाम की अँखुमा । बाँस का नया कल्ला । बंशाकुर । बाँसका मछली। गोभा। बाँसेर कोंड़ (बं.)। The shoot [मरा०] भाँट । भांडीर । of a bambool [विहार ] करील । ई० मे० प्लां० । गुण-चरपरा, कड़वा, खट्टा, कसेला, हलका, [१०] वाधिर्य । बहिरापन । ठंडा, पित्त, रक और मूत्रकृच्छ, नाशक एवं रुचिकरीअ-[१०] मूली। कारक है। इसका पोर (पर्च) गुण रहित है। करीज-[ यू० ] ख़ब शामी । रा०नि० व.७। वि० दे० "बाँस"। (२) करीज-[१०] उतंजन | अंजुरह । उटंगन । करील का पेड़ । रा०नि०.व.-। मद.व.७ करी जिरगी-[ कना०] कृष्णजीरक। कलौंजी। राज० । वि० दे० "करील" । (३)घड़ा । घट । शोनीज़ । मे०। Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४१ की संज्ञा पुं॰ [सं. क्री.] करील का फल । करीर फल । टेटी । कचड़ा। करीर-[१] इंद्रायन । हेज़ल । करीरक-संज्ञा पुं० [सं० क्री०] वंशांकुर । बाँस का करीर का तेल, करील का तेल-संज्ञा पु० [हिं० ____ करोल का तेल ] दे॰ 'करील"। करीरकुण-संज्ञा पुं० [सं० पु.] करील के फलों का समय । करीर फल काल । (२) करील की तरकारी। करीरग्रंथिल-संज्ञा पुं० [सं० क्री० ] करीर । करील। रा०नि०। करीरफल-संज्ञा पुं० [सं० वी०] करील का फल ।। टेटी । टीट् । कचड़ा । करीर बीज । करीरा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (१) हाथी के दाँत को जड़। हस्तिदन्तमूल । (२) झींगुर । चीरिका । किंमि पोका। उणा०। (३) मैनसिल । मनः शिला। हे० च०। करीरिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (१) हाथी के दाँत की जड़ । हस्तिदंतमूल । त्रिका०। (२) . झींगुर । झिल्ली। करीरी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री. (१) हाथी के दाँत की जड़ । हस्तिदंतमूल (२) झींगुर । चीरिका । मे० रत्रिक०। करील-संज्ञा पुं० [सं० करीरः)-ऊसर और कक रीली भूमि में होनेवाली एक तीक्ष्ण कंटकाकीर्ण झाड़ी जिसमें पत्तियाँ नहीं होती, केवल गहरे हरे रंग की पतली पतली बहुत सी डंठले फूटती हैं राजपूताने और व्रज में करीला बहुत होते हैं। इसकी कोई कोई झाड़ी बीस फुट ऊँची हो जाती है। प्रकांड लघु एवं सीधा होता है और उसका घेरा चार-पाँच और कभी कभी सात-पाठ फुट हो जाता है। तने की छाल अाध इंच मोटी गंभीर धूसर वर्ण की, जिसमें खड़ी-लंबाई के रुख दरारें होती हैं । इसमें असंख्य डालियाँ होती हैं जिसप्ते यह झाड़ी की तरह मालूम पड़ता है। डालियाँ झड़वेरी की तरह के युग्म-कंटकों से व्याप्त होती हैं । पर इसके कांटे उतने मुके हुए नहीं होते और उसकी अपेक्षा अधिक दृढ़ एवं स्थूल फा०६१ होते हैं। उन दोनों काटों के बीच में से रंठन निकलती है।। फागुन चैत में इसमें गुलाबी रंग के फूलों के गुच्छे लगते हैं । जेठ में भी कहीं कहीं इसके फूल मिलते हैं पुष्प दंड भी प्रायः काँटों के बीच से ही निकलता है। पुष्प विषमपर्ती, सवृत; तितली स्वरुप एवं गुच्छाकार होते हैं। नरतंतु १४ और नारीतंतु , होता है। इसमें छोटी-बड़ी ५-६ पंखडियाँ होती हैं । मुहीत प्राज़म एवं तालीफ़ शरीफी आदि में जो इसमें तीन पंखडियों-पत्तियों का होना लिखा है, वह सर्वथा मिथ्या है । फूलों के झड़ जाने पर गोल गोल करौंदे के आकार के कभी कभी उससे भी बड़े वा छोटे फल लगते हैं जिन्हें टेटी वा कचड़ा कहते हैं। ये फल जेठ और असाढ़ में पक जाते हैं। प्रारंभ में ये हरे रंग के होते हैं। जब तक ये कच्चे और चने के दाने के बराबर रहते हैं, इनमें तीक्ष्णता बहुत ही कम होती है, बल्कि ये किसी भाँति फीके मालूम होते हैं, पर ज्यों ज्यों ये बढ़ते जाते हैं, इनकी तीक्ष्णता भी उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। परंतु यह तीक्ष्णता अप्रिय नहीं होती । (फलों के भीतर ज्वार के दानों की तरह बीज भरे होते हैं।) बड़ा हो जाने पर फल का कुछ भाग ऊदा हो जाता है । कोई श्वेताभ हलके हरे और कोई गहरे हरे होते हैं। ऊपर के छिलके का भीतरी पृष्ठ हरा और बीज तथा भीतर का गूदा पीला होता है । बीजों को चाबने से प्रथम किंचित् कडू पाहट और कषायपन मालूम होकर, थोड़ी देर बाद मुखमें प्रदाह उत्पन्न हो जाता है। पकने पर ये पहिले लाल फिर काले पड़ जाते हैं। सूखने पर यह भूरे ख़ाकी हो जाते हैं और मारवाड़ी में ढालौन कहलाते हैं। करील के होर की लकड़ी बहुत मजबूत होती है और उससे कई तरह के हलके असबाब बनते हैं। इसके रेशे से रस्सियाँ बटी जाती हैं और जाल बुने जाते हैं। इसकी लकड़ी कड़बी होती है और इसमें दीमक नहीं लगती इस कारण यह मूल्यवान् समझी जाती है। इसकी हरी डालियाँ मसाल की तरह जलती हैं। कविता में भी करील का यथेष्ट उल्लेख मिलता है। मालती इस पर भ्रमर को Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करीन २२४२ जाते देख कुढ़ती और जलती है । पत्र न पाने | पर कवि इसी के अदृष्ट को बुरा बताते हैं। वसंत पर कोई दोष नहीं लगाते । टिप्पणी-द्रव्य गुण विषयक अरबी, फारसी, उर्दू तथा देशी औषधियों के सम्बन्ध में लिखे पाश्चात्य लेखकों के अंगरेजी श्रादि ग्रंथों में प्रायः इसी को यूनानी निघंटूक 'कबर' लिखा है। किसी किसी ने करील और कबर का अलग-अलग उल्लेख किया है । अस्तु, अब देखना है कि करीर और कबर एक हैं वा भिन्न । यूनानी चिकित्सकों के अनुसार कबर एक कँटीला वृक्षहै । इसकी शाखाएँ भूमि पर झुकी और फैली होती हैं । पत्ते किंचित् चौड़े वा गोल होते हैं। फूल हरे रंग के कोष से भावृत्त होता है और प्राकृति में छोटे से जैतून और चने के दाने के बराबर होता है। खिलने पर वह सफ़ेद पड़ जाता है, जिसमें बारीक तन्तु होते हैं । फूल के झड़ जाने पर इसमें बतूल के सदश लंबा फल लगता है । इस फल को अरबी ... में खियार कबर कहते हैं। इसके भीतर का गूदा लाल होता है। बीज पीले होते हैं। किसी किसी के अनुसार यह अनारदाने के समान छोटे २ और .... लाल रंग के होते हैं। इसमें किंचित् श्रार्द्रता एवं प भी होता है। इसका सर्वाङ्ग बिशेषतः जड़ तिक, तीक्ष्ण और किंचित् क्षारीय होती है। इसकी जड़ प्रायः काम में आती है और अधिक बलशालिनी होती है । यह सफ़ेद बड़ी और लंबी होती है। इसकी छाल मोटी होती है और सूख जाने के उपरांत प्रायः भिन्न होजाती है। इसमें पाड़े रुख दरारे होती हैं । यह वाहर से भूरी और भीतर से सफ़ेद होती है। महज़नुल् अदबिया प्रभृति यूनानी द्रव्य-गुण विषयक ग्रन्थों में इसका उत्तम वर्णन पाया है। उपयुक्र वर्णन से यह स्पष्टतया ज्ञात हो जाता है कि कबर करील नहीं, प्रत्युत उसी वर्ग का उससे एक भिन्न पौधा है । इसे सफेद फूल का करीर कह सकते हैं। संभव है सफेद फूल का भी करीर होता हो । भारतवर्ष में इसका आयात अन्य देशों से होता है । इसके पूर्ण विवेचन के लिए दे. "कबर"। पर्या-करीर, गूढपत्र, शाक पुष्प, मृदुफस प्रन्थिल, तीक्ष्णसार, चक्रक, तीक्ष्ण कण्टक, (ध० नि०), निष्पत्रक, करीर, करीर ग्रंथिल्ल, कर, गूढपत्र, करक, तीक्ष्णकण्टक (रा० नि०), करीर, करीपत्र, ग्रन्थिल, मरुभूरुह (भा०), क्रकर, क्रकच, (अटी.) ग्रन्थिल, निष्पत्रिका, अपत्रा, करिरः, कट्फल, कण्टकी, निष्पत्र, शोणपुष्प, अग्निगर्भा, विदाहिक, उष्णसुन्दर, सुफला, शतकुन्त, विष्वपत्र, कृशशाख -सं० । करीर, करील, कचड़ा, (मथु०) कर्रिल, करु -हिं० । घटुभारंगी, नेपती, करील, केरा, तिपाती, कारवी -मरा० । कवर, कुराक, एनुगदन्तुमु मोदतु -ते।। करील -३० । निष्पतिगे, निष्पातिगाप -कना० । केरडो, केर, करेडी, -गु०। किराड, किराम, किरूं। डोड़ा, किराल -सिंध । पेंचू, पैंचू, करिया, करीस किरी, केरी, करील, -पं० । करि -बम्ब० । करयल -मद० । करी -बिहार । कैपरिस अफाइला Capparis-aphylla, Roth, Rox -ले। केपर प्लांट Caper-plant -अं० । केपरीर कम्यून Caprier-Commun -फ्रां० कैडबा अफाइला Cadaba-Aphylla, . Roth. -ले। . ___ करीर का फल–कारीर -सं० । टेटी, टींट, कचड़ा -हिं। करीर तैल-करीर का तेल, करील का तेल, -हिं० । करील का तेल -दः। Oil of Copparis-a phylla, Roxb. करीर वर्ग (N. 0. Capparidece. ) उत्पत्ति-स्थान-संयुक्त प्रांत की ऊसर भूमि, जैसे, व्रज आदि में तथा रेगिस्तान विशेषतः राजपुताना, पंजाब, सिंध, गुजरात डकन और दक्षिण कर्नाटक में करील बहुत होता है। अरब, मित्र और नूबिया में यह पाया जाता है। औषधार्थ व्यवहार-समग्र सुप, मूल-त्वक् और फल (टेंटी)। . रासायनिक संघटन-इसकी छाल में सेनेजन (Senegen) के समान एक उदासीन तिक तत्व होता है। फूल की कलियों में केपरिक एसिड Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करील. २२४३ करील 4 (Capric acid) और एक ग्लुकोसाइड पाया जाता है, जिसे गंधकाम्ल (Sulphuric acid ) के साथ उबालने पर ( Isodulcite) और करसेटीन वत् (Quercetin) एक प्रकार का रंजक पदार्थ ये दो प्राप्त होते हैं। प्रभाव-मूलत्वक् संकोचक तथा परिवर्तक है। कविराजों के मत से इसका पौधा कटुक, उत्तेजक और मृदुरेचक इत्यादि है। औषध- निर्माण-मूल-त्वक् का चूर्ण तथा शीत कषाय ( Infusion) (१० में ) मात्रा-आधे से १ अाउन्स तक। सुप स्वरस। श्वासनाशकार्क-करीलकी ताजी जड़ें लाकर उनके टुकड़े कर, उन टुकड़ों को कूटकर एक मिट्टी के बरतन में भरकर पताल यंत्र से उसका चोप्रा निकाल लेना चाहिये । इस चोए को १ माशा की मात्रा में शक्कर के साथ खाकर ऊपर से गरम पानी पीने से श्वास का प्रवल वेग भी शांत होजाता है। कुछ दिन तक लगातार सेवन करने से दमे का रोग सदा के लिये जाता रहता है। उक्त अर्क को अङ्किरों पर प्रातः सायंकाल मलने से थोड़े दिनों में मस्से मुरझाकर झड़ जाते हैं। ____ गुणधर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसारवात श्लेष्महर रुच्यं कटूष्णं गुदकीलजित् । करीरमाध्मानकरं रुचिकृत्स्वादु तिक्तकम् ॥ अन्यच्चकरीराक्षक पीलूनि त्रीणि स्तन्यफलानि च । स्वादुतिक्त कटूष्णानि कफवातहराणि च ॥ (ध०नि०५०) करील वायुनाशक, कफनाशक, रुचिकारी, कडुआ, उष्णवीर्य, स्वाद में तिक एवं मधुरहै तथा यह आध्मान कारक और अर्शनाशक है। करील, बहेड़ा और पीलू ये तीनों मधुर, तिक, विपाक में कङ्, उष्ण वीर्य और कफ वातनाशक है। कृरीरमाध्मानकरं कषायं कटूष्णमेतत्कफकारि भूरि। श्वासानिलारोचक सर्वशूल विच्छदि खजू व्रणदोषहारि ॥ (रा० नि०८०) करील प्राध्मानकारक, कषैला, चरपरा, उष्ण वीर्य एवं अत्यन्त कफकारक (मतांतर से कफहारि) है और यह श्वास-दमा, वायु, अरुचि, सर्व प्रकार के शूल, वमन, खुजली तथा व्रण का नाश करता है। करीरः कटुकस्तिक्त: स्वेाष्णो भेदनः स्मृतः । दुर्नामकफवाताम गरशोथ व्रणप्रणत् ॥ (भा०पू०) करीर-कचड़ा गर्म तथा स्वाद में चरपरा; कड़ पा ओर पसीना लाने वाला कफ तथा वात, पाँव (श्राम ), अर्श, विष, सूजन और व्रण को दूर करने वाला और भेदन दस्तावर है। कारीरं कटुकं पाहि फलमुष्णं रुचि प्रदं । कफपित्तकर किश्चित्कषायं वातहृद्वरम् ।। कारीरं कुसुमं भेदि कटुकं कफनाशनं । पित्तकृद्र चिर' भब्यं कषायं पथ्यद भृशं ॥ - (वै० निध०) टेटी (करीर का फल)-चरपरी, ग्राही, उष्ण, रुचिकारी, किंचित् कषेली, करील का फूल-दस्ता वर, चरपरा, कफनाशक, पित्तकारक, कषेला पौर अत्यन्त पथ्य है। करीरमाध्मान कर कषायं स्वादु तितकम् । (वा० सू००६) करीर अफराजनक, कसेला, मधुर एवं विक है। गुरु भेदि श्लेष्मलश्च । मद० २०७ यह भारी, भेदी-दस्तावर और कफकारक है। राजवल्लभ के अनुसार कफनाशक, कषेला और दाहकारक है। द्रव्य निघण्ट में इसे कफनाशक लिखा है। करीरस्तुवरश्चोष्ण: कटुश्चाध्मानकारकः ॥ रुच्यो भेदकरःस्वादुः कफवातामशोथजित् ।। विषार्थीव्रणशोथघ्नः कृमिपामाहरोमतः । अरोचकं सर्वशूलं श्वासं चैव विनाशयेत् ॥ फलं चास्य कटुस्तिक्त मुष्णं च तुवर मतम् । विकासि मधुर ग्राहि मुखवैशधकारकम् ॥ हृद्यं रुक्षं कर्फ मेहं दुर्नामानं च नाशयेत् । पुष्पं वातकर' प्रोक्तं तुवर कफपित्तनुत । . (नि००) Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करील करील करील-कषेला, चरपरा, उष्णवीर्य, प्राध्मानकारक, रुचिकारक. भेदक और स्वादु है तथा कफ, वात, प्राम, सूजन, विष, बवासोर, व्रण एवं शोथ नाशक और कृमि, पामा, अरोचक, सभी प्रकार का शूल और श्वास-इनको दूर करता है । इसका फल-कड़ा , चरपरा, क़सेला; उष्ण, मधुर, विकासि, ग्राहि-मलरोधक, मुखवैशयकारक, कला और कफपित्तनाशक है। करीरो व्रण शोफार्मो रक्तहृत्कफवातजित् । पटपाकरसोऽत्युष्णो यकृरप्लीहापहोग्निकृत्।। तत्पुष्पं कफवातघ्नं कुटुपाकरसं लघु । सृष्टमूत्रपुरीषं च सदा पथ्यं रुचिप्रदम् ॥ बालं चास्य फलं पाके कटकंश्लेष्मशोथजित्। कषायं वातलं तिक्तं तत्पक्वं कफपित्तजित् ॥ (शा. नि.) करील-व्रण, सूजन, बवासीर एवं रविकार को दूर करने वाला तथा कफ, वात, यकृत् और प्लीहा को दूर करनेवाला, रस एवं पाक में चरपरा अत्यन्त उग्णवीर्य और अग्निवर्द्धक है। इसका फूल-कफ वातनाशक, पाक ओर रस में चरपरा, हलका, मूत्र और मल का उत्सर्ग करता, सदैव पथ्य और रुचिकारक है । इसका कच्चा वा बाल फल-पाक में चरपरा, कफनाशक, सूजन उतारने वाला, कसेला, वातकारक (बादी) कड़वा है और पका फल कफ तथा पित्तनाशक है। अन्य मत नादकर्णी-प्रामवात, वातरक, कास, जलोदर और श्रद्धांगवात ( Palsy) प्रभृति पर करीर की जड़ की छाल का चूर्ण वा शीत कषाय ( Infusion ) काम में आता है। दुष्ट व्रणों (Malignant ulcers) पर इसके चूर्ण का बहिर प्रयोग होता है । फोड़े-फुन्सी एवं संधि रोगों पर इसके क्षुप के शोत कषाय का बाह्म प्रयोग और विष के अगद स्वरूप अन्तःप्रयोग होता है । कविराजगण यमा, हृद्रोग, उदरशूल, बुधा नष्ट होना और स्कर्वी ( Scurvy) में इसका व्यवहार करते हैं । इसके फूल और बन्द कलियों का प्रचार पड़ता है वा उनको चटनी काम में पाती है। राजपूताना में इसका पौधा ऊँटों के लिये उत्तम खाद्य-चारा है। कान के कीड़ों को नष्ट करने के लिये इसके ताजे पौधे का रस कान में डालते हैं। यह सेनेगा (Senega)(-एक डाक्टरी औषध) की उत्कृष्ट प्रतिनिधि भी है। इं० मे० मे० पृ० १६२। डोमक-करील भोर कररुपा (Capparis horrida, Linn.) दोनों (Connter irritant) रूप से काम में आते हैं। इन दोनों के कच्चे फलों का काली मिर्च, राई और तेल मिलाकर डाला हुआ अचार काम में आता है। पुडुकोहमें इसकी एक जाति विशेष (Capparis grandi flora, Wall.) के फलों का प्रचार पड़ता है, जिसे तामिल भाषा में "किल्लाछेडि" कहते हैं। फा० इ०१ म खं० पृ. १३६ । उ. चं० दत्त-भारतीय लेखकों ने इसकी छाल को कड़ा एवं मृदुरेचक (Laxative) और प्रदाहजन्य शोथों के लिये उपयोगी लिखा है। बी० पावल-फोड़े फुन्सी एवं सूजन पर तथा विषों के अगद स्वरूप इसका उपयोग होता है इसका सन्धि-रोगों पर भी उपयोग करते हैं। स्टय धर्ट-पंजाब में इसके पल्लव एवं कोमल पत्तों को पीसकर छाला डालने के लिये इसका उपयोग करते हैं। डीमक के अनुसार गुणधर्म में यह किसी प्रकार कब से मिलता-जुलता है। मुरे-इसकी कोंपल और कोमल पत्तियों को चबाने से दन्तशूल में बहुत उपकार होता है। (Murray Plants & Drugs of Sindh) हरियाना तथा जिला करनाल में संकोचक रूप से इसका बहुल प्रयोग होता है।-वैट कचड़ा स्वाद में मधुर एवं अम्ल है । प्रकृति-समशीतोष्ण । गुण-धर्म-मनोल्लासकारी एवं आनंददायक है । यह हृदयको शक्ति प्रदान करता ओर विशेषतः उन्माद को दूर करता है । यह बुद्धि एवं 'चैतन्य शनि (हवास) को बलिष्ट करता और स्त्री सहवासेच्छा को पुष्टि करता है । मोठे तेल के साथ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४५ करील इसकी राख नासूर को लाभ पहुँचाती है। प्रस्तुत कर खाने से प्लीहागत सूजन जाती रहती -म. मु०। है। यह कफ का छेदन करता एवं गृध्रसो, संधिकरील गरम है और यह कोष्ठ मृदुकर, कफवात शूल, निरिस ( वातरक्त) तथा उरः क्षत-सिल दोष नाशक एवं फोड़ा, फुन्सी, सूजन तथा को लाभ पहुँचाता है । इसके फूलों की तरकारी बवासीर को नष्ट करता है। इसका फूल कफ बनाकर खाने से भी पूर्वांत गुण प्रदर्शित होते हैं। नाशक और पित्तनाशक है। इसका प्रचार पक्षा- यदि करील की लकड़ी को जलाकर कोयला कर घाताक्रांत ( मालूज़ एवं इस्तरखा वाले ) रोगी फिर उसे चूर्ण करलें । यदि २ माशा यह चूर्ण के लिये उपकारी है। -ना० मु०। थोड़े घी के साथ चाटें, तो कटि-शूल नष्ट हो । करील स्वाद में अम्ल है। यदि इसकी लकड़ी की भस्म तीसी वा तिल तैल प्रकृति-सर्द एवं तर या मातदिल । में मिलाकर नासूर में टपकायें, तो नासूर अच्छा हानिकर्ता-कफ प्रकृति वालों को। हो । तिब फरिश्ता के लेखक ने लिखा है, यदि दर्पघ्न-शुद्ध मधु । किसी की पशु कास्थि टूट जाय, तो करील की गुण-धर्म-यह ख़ाक़ान, वहशत और उन्माद लकड़ी उसकी तरह छील-बनाकर उस जगह को दूर करता है तथा बुद्धि एवं चेतना को पुष्ट स्थापित करदें। वह कदापि सड़े-गलेगी नहीं और करता और हृदयोल्लासकारी भी है । यह हृदय को न नष्ट होगी । इसका फल मनोल्लास एवं शक्ति प्रदान करता, उष्माशामक और उष्ण प्रसन्नता जनक है। यह हृदय को शनि प्रदान व्याधियों को लाभकारी है। -बु० मु०। करता है और अपने प्रभाव से उन्माद एवं तालीफ़ शरीफ्नी के अनुसार इसके फल-टेंटी वहशत को दूर करता है । संज्ञा-शक्रि एवं बुद्धि को पकाकर खाते हैं और पानी, नमक एवं रोशन को तीव्र करता और काम शक्ति को पुष्ट करत है। स्याह में इसका प्रचार भी डालते हैं । यह तीक्ष्ण इसकी कोंपल और इसबंद दोनों सम भाग कूटउष्ण, कड़वा, भेदन, एवं कफवातनाशक है और छानकर रखें। इसमें से ६ माशा की मात्रा में यह यह फोड़ा, फुन्सी, विष एवं बवासीर को नष्ट चूर्ण प्रति दिन बासी पानी के साथ ऋतु-स्नाता करता है । इसका फूल कफ-पित्त नाशक है। स्त्री को सेवन कराने से वह वंध्या हो जाती है। करील कफ एवं विकार नष्ट करता है । यह इसमें किसी प्रकार की कठिनाई भी नहीं होती । फोड़े-फुसी का निवारण करता, सूजन उतारता बिना पानी पिलाये इसकी कोपल पीसकर दो और बबासीर को लाभ पहुंचाता है। इसका फूल तीन दिन मलने से श्मश्रु के केश जम आते हैं। कफ एवं पित्त को नष्ट करता है । इसके भक्षण से हकीम अली ने कानून की टीका में लिखा है कि रक्त धातु कम पैदा होती है अर्थात् यह कलीलुल यदि जलोदर-इस्तिस्काऽज़िक्की किसी प्रकार ग़िजा है । यह उदरस्थ कृमियों को नष्ट करता श्राराम न हो सकता हो, रोग ने जड़ पकड़ और पक्षाघात-फ्रालिज, प्लीहा तथा गंध को लाभ लिया हो और आरोग्य होने की आशा न हो, तो पहुंचाता है। यह श्रामदोष का उत्सर्ग करता करील-वृक्ष की जड़ सुखा-पीसकर एक तोला तथा अतिसार बंद करता है। किसी किसी के प्रति दिन सप्ताह पर्यंत खिलायें और भुनाहुना, मतानुसार यह कोष्ठमूदुकर है । परंतु अनुभवी गुरुपाको एवं विष्ट भी पदर्थ खाना त्याग दें लोगों ने इसे धारक बतलाया है, कफ को नष्ट | क्यों कि उक्त औषधि द्रव निष्कासनार्थ दी जाती करने में अत्यंत प्रभावशाली है। पक्षाघात- है। और जो वस्तु विष्ट भी वा काबिज़ होगी, फालिज एवं इस्तरखा जैसे शीतल रोगों में इसका | वह उसकी क्रिया न होने देगी। हकीम अली ने प्रचार गुणकारक है। इसकी अम्लता वास्तविक उक्त श्रोषधिको बड़ी प्रशंसा की है और लिखा है उष्णता के कारण बात नाडियों को कम हानि कि भारतवासी उन विधि से इस रोग का प्रायः पहुँचाता है। उक रोगों में इसको जइ का अचार | . उपचार करते है एवं कृतकार्य होते हैं। इसकी Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसल २२४६ करीवमेटी । कञ्ची कोंपल और हरी पत्ती पीस कर टिकिया गरम करके करील की कोपलों के रस में ५० बार बना कलाई पर बाँधने से छाला होकर ज्वर मुक्त बुझावें। इसके बाद उसको इन्हीं कोंपलों की हो जाता है। लुगदी में रखकर २-३ गजपुट में फूकने से सफेद इसकी कोंपल को मुख में रखकर चबाते रहने से रंग की भस्म तैयार होती है। कोंपलों के रस के दंतशूल मिटता है । इसकी छाल के चूर्ण से मला बदले में यदि करील का ताजा हरा कांड, जो १६ वरोध निवृत्त होता है । इसकी छाल पीसकर लेप अंगुल लंबा और ६ अंगुल मोटा हो, उसमें , करने से पित्त की सूजन मिटती है । इसकी जड़का अंगुल गहरा छेद करके उसमें उस ताँबे के टुकड़े बफारा देने से हस्त-पाद की संधियों के रोग दूर को अथवा पैसे को रखकर ऊपर करील की लकड़ी होते हैं। इसकी छाल कड़वी होती है और वृक्ष का बुरादा भर, उसी का डाट लगाकर गजपुट की दस्तावर होता है। इसकी लकड़ी को पीसकर पाँच देने से भी सफेद भस्म प्रस्तुत हो जाती है। सुहाता गर्म लेप करने से सूजन उतरती है । इसके यदि उसमें कुछ कमी रह जाय. तो एक दो बार उपयोग से विष नष्ट होता है। इसको लकड़ी इसी प्रकार करने से ठीक हो जाती है। जलाकर भस्म करले, इसमें से एक माशा राख यह भस्म नपुंसकता, उदररोग, श्वास इत्यादि खिलाने से कफ नष्ट होता है। इसकी कच्ची कोंपल रोगों में उपयुक्त अनुपान के साथ देने से बहुत बिना पानी मिलाये पीसकर दो-तीन दिन तक लाभ पहुँचाती है। नपुंसकता में इसको घी के मलने से उस जगह के बाल शीघ्र उग आते हैं । साथ चटाकर ऊपर से ५-१० तोला घी पिलाना इसकी शुष्क कोपलों का चूर्ण एक तोला और चाहिये। इससे प्यास अधिक लगती है। पर कालीमिर्च का चूर्ण छः माशा दोनों को एकत्र चार पहर तक पानी नहीं पिलाना चाहिये । यदि मिता प्रातःकाल जल के साथ फाँकने से तिल्ली प्यास न रुके तो दूध में घी मिलाकर देना पीहा मिटती है । इसकी एक तोला जड़ को तीन चाहिये । इससे नपुंसकता में बहुत उपकार होता सेर पानी में औटाएँ । जब श्राध सेर जल शेष है। इसके सेवन काल में तेल, खटाई, लालमिर्च रहे, तब उसे उतार छानकर दिन में दो बार ७-८ इत्यादि वर्जित हैं । (जंगलनी जड़ी बूटी) दिन पिलाने से रक्तार्श नष्ट होता है। इसकी लकड़ी की भस्म घी में मिलाकर चाटने से जोड़ों (३)पारद भस्म-शुद्ध पारे को करीर पुष्प का दर्द दूर होता है । इसके और रेड के पत्तों को स्वरस में दो दिन (८ प्रहर) खरल करें, गोला गरम करके बाँधने से सूजन उतरती है। इसकी बन जावेगा | फिर करीर पुष्प को पीसकर इसकी जड़ को पीसकर बालों की जड़ में मलने से बाल लगभग तीन छटाँक लुगदी तैयार करें। इसके खम्बे पड़ जाते हैं। ख० अ० । उपरांत उन गोले को इस लुगदी के भीतर रखकर ऊपर से कपड़मिट्टी कर दें। फिर इसे दो सेर करील और धातु-भस्में उपलों की आँच दें। लपट निकल जाने के उपरांत करील से निम्न धातुओं की भस्में प्रस्तुत श्वेत भस्म प्रस्तुत होगी । यदि करीर के पीले रंग होती हैं के फूल में (जो इस तरफ मिल जाते हैं) खरल (१)ताम्र भस्म-ताम्र १ तोला, करील | करके आँच देवें तो पीत वर्ण की भस्म प्राप्त होगी। के फल अर्थात् टेंटी और उसकी शाखाओं के एक हकीम गोकुलचंद महाशय वैद्य (रुमूजुल इतिब्बा)। पाव लुगदी में रखकर संपुट करें। फिर उसे पूरे २० सेर उपलों की भाग दें। सफेद भस्म प्रस्तुत | करीलन, बरीलन-[ देश० ] बंडाल । घघरवेल । होगा और वज़न भी पूरा रहेगा । -हकीम मु० | करीवगेटी-] बम्ब० ] ( Paramignya monरियाजुल हसन । ophylla, Wight.) गुलाब के वर्ग की (२) ताँबे की श्वेत भस्म-शुद्ध किये हुये | एक औषधि जो जंगली नीचू की जाति का एक .. तांबे के मोटे टुकड़े को या ढब्बू पैसे को अग्नि में पौधा है जो परिवर्तक और मूत्रल गुण के लिये Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करीवन २२४७ 5 व्यवहार में पाता है। पशुनों के रक्कमूत्रता रोग | करु'दा-[ उड़ि.] करौंदा। में इसकी जड़ काम में आती है। करुबा-[ मदरास] । करीवन-[ मरा० ] मंडूकपर्णी । ब्रह्ममंडूकी। करुबु-[ ता०] गन्ना । ईख । ऊख । करीश-लांगरिण-[ ता०] सफेद भंगरैया । केशराज । | करु (डु)[ ता०] बकुची । सोमराजी । श्वेत भुंगराज । वि० [ता.] काला । कृष्ण । - देश० ] करील । ई० मे० प्रा० । करीष-संज्ञा पु० [सं० पु०, क्री.] (१) सूखा -[बं०] चिरायता । किराततिक । गोबर जो जंगलों में मिलता है और जलाने के [ 40 ] (Rhamnus purpureus, काम में आता है। बन कंडा, । अरना कंडा। Edgew.) वात सिंजल । जंगली कंडा । बन उपला । करसा। चूंट (बं०) -[ देश० ] ( Gentiana kurreo, बिनुश्रा कंडा । Rogle.) कमल फूल । कुटकी । "वन्यकरीष घ्राणात जलपानात् ।" करुअन-[ मरा०] बरना । बरुण । सि. यो० मंदा० चि०। (२) सूखा गोबर । करा -संज्ञा पुं॰ [देश०] दारचीनी की तरह का (३) गोबर । पशु का पुरीषमात्र । एक पेड़ जो दक्षिण के उत्तरी कनाड़ा नामक वेश करीषक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] दे० "करीष"।। में होता है। इसका फल दारचीनी के फलसे बड़ा करीषाग्नि-संज्ञा स्त्री० [सं० पु.] कंडे की भाग। होता है और काली नागकेसर के नाम से दिखता गोमयाग्नि । चूँटेर श्रागुन -(बं०)। हारा० । है । इसकी सुगंधित छाल और पत्तियों से एक करीस-[अ० करीस] (१) मसाला । (२) प्रकार का तेल निकाला जाता है जो सिर के दर्द सब्ज़ी । भाजी । तरकारी । (३) सिरका डाल श्रादि में लगाया जाता है कर पकाया हुआ गोश्त । वि० [सं० कटुक] [स्त्री० करुई ] (1) करीस-[अ०] (१) यखनी का पानी जो ठंढा | कड़वा । (२) अप्रिय । होकर जम गया हो। (२) एक प्रकार की करु-अल्लमु-[ते. ] जंगली अवरक । बनाईक । ग़िज़ा। कर-इंदु-[ ता. ] ( Pisonia Aculiata,) करीस-[पं०] करील । ई० मे० प्लां० । बाघचूहा । हाथी अंकुश । करीसा-[१] एक प्रकार का छुहारा । करुक-[पं०] वेरुला । बैठला । करीसा चरू तूनीस, क़रीसाबरूतू नस-[यू०] खनूब करु-उम्मत- मल०] काला धतूरा | कृष्ण धुम्वर । शामी। करु-उम्मती-[ ता०] काला धतूरा । करीह-[अ० करीह ] खालिस पानी । करु कप्पुल्ल-[ मल० ] इशरमूल । ज़राबड़े हिंदी । वि० [अ० करीह ] [ बहु० क हाँ] (१) जखमी । नसता। (२) बेमेल । खालिस ।। | करुकपुल्ल-[ मल० ] दूव । दूर्वा । करुकर-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] रीढ़ की हड्डी का एक करीह-[अ.] घृणित । घिनोना । वीभत्स । मकरोह उभार। नापसंद । वदशकल । भोंड़ा । ( Trunsverse process of Verकरीहतुल इंसान-[१०] मनुष्य स्वभाव । इंसान ___tebra) अ. शा। की पैदायशी तबीयत। | करुकरान्तरीय-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] उन नाम की एक सन्धि । (Inter-transversari. करु जीरणम्-[ ता. ] कृष्णजीरक । कलौंजी। कर टोली-[ मल० ] तेजपात । तमालपत्र । जंगली ___ous)। अ० शा०। दारचीनी का पत्ता। 'करुकुवा-[ ता. ] बातदला । काकुपाल । करुंडय-[द०] ( Flacourtia sepiaria)| करुड़-[पं०] (.) गीदद द्राक । द्रांगी। (२) कोहै। किंगारो। रामसर । सरपत। Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुचीकडु २२४८ करुप्पु चित्तिरमूलम् करुचीकडु-ते. ] सफ़ेद सेम । महाशिंबी। रस में भावना दें। फिर ढाक के गोंद, मोचरस (Canavallia ensiformis) के साथ भाँगरा रस देकर घोटे । पुनः इसमें सर्जी करुण-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (१) Citrus खार, जवाखार, भुना सुहागा, पाँचोनमक, त्रिकुटा decumana करना नीबू का पेड़ । कन्ना नीबू। शुद्ध सिंगिया बिष, चित्रक, जीरा और वायविडंग करुणा लेबुर गाछ (बं०)। ५० मु०। २-२ माशे लें । इनका चूर्ण वनाय सवको अच्छी गुण-कफ, वायु नाशक, श्राम तथा मेद तरह मिलाकर रक्खें। नाशक और पित्त को प्रकुपित करनेवाला है। मात्रा-१-२ मा०। राज० ३ व० । वि० दे० "करना" । (२) एक गुणतथा उपयोग- अतिसार, ज्वर, विषमप्रकार का फलदार वृक्ष । फलित वृक्ष । (३) ज्वर, शूल, रुधिर विकार, निराम और शोथयुक्त करुण नामी रस का भेद । शोक । (४) करुण संग्रहणी उचित अनुपान या बिना अनुपाम द्वारा नामी वृक्ष का भेद । मे० (५) मोतिया बेज्ञा । नष्ट होती है । ( वृहत् रस रा. सु. अतिमल्लिका । हे. च.। सार चि०)। वि० [सं० वि०] करुणायुक्त । दयाई। . करुणी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक प्रकार का पुष्प करूण-क्किमङ्ग-[ ता. ] घितकोचु । धैटकोंच । वृक्ष । ग्रीष्मपुष्पी । ककरबिरुणी (को०)। (Typhonium trilobatum) . पय्या-रक्रपुष्पी, चारिणी, राजप्रिया, राजकरुण-कलंग-[ मदरास ] जंगलो सूरन । अर्शीध्म । पुष्पी, सूचमा, ब्रह्मचारिणी, ग्रीष्मपुष्पी । रा०नि० करुणकानम्-[ ता० ] चाकसू । चश्मीनज़ । व० १० । दे. "करवीरणी'। करुण कोडिवरे-[ ता. ] काला चीता । करुणोच्चि-[ ता०] काला सम्हालू । . करुणतक-[?] कटसरैया। करु तुत्ति-[ सा० ] काली कंघी । करुण-तोट्टि-[ मल•j जंगली मेथी । करत्त अयङ्गौलम्- मल० ] काला ढेरा । अंकोल । करुण-नोच्चि-[ मलकाला संभालू । चमेली। करुत्तकोटिवैल-[ मल० ] काला चीता। . करुण ( णा) मल्ली-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] नव करुन-[पं०] वनचोर । सोकीलस। मल्लिका । श० ० !(Jasminum sam- करुन तफ़ो-[१] (१) गना। ईख । (२) baca) फ्रानीज़ । करुण शीरगम-[ ता०] कलौंजी। करुन शीरगम्-[ ता०] कलौंजी । करणा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (१) दया । करुना-संज्ञा स्त्री० दे० "करुणा"। रहम । तर्स। संज्ञा स्त्री० [सं० करुणा ] करना नोबू का ___पर्या–कारुण्य, घृणा, कृपा, दया, अनुकम्पा, अनुक्रोश, शूक। करुना नीबू-संज्ञा पुं० [सं० करुणनिम्बुक ] करना (२) बकरे की आँख । छगलाक्ष । वै. नीबू । कन्ना नींबू। निघ० । (३) काना का पेड़। (४) शोक । | करुपत्ति-[ मल० ) कपास । अफसोस । रंज। करुपाली-[ ता०] जियापोता। पतजीव । पुत्रीव । करुणा मल्ला-दे० 'करुणामल्ली" । करुपुपिल्लंगे-[ ता०] Phyllanthus reticकरुणालेबूर गाछ-[बं• ] करना नीबू का पे । ___ulatus पानजोली । पानकुशी । कृष्ण कांबोजी । करुणासागर रस-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] चन्द्रोदय | करुपसुपु-ते. ] जंगली अदरक । वनाईक । १ मा०, शुद्धगंधक २ मा०, शुद्ध अभ्रक भस्म ४ करुपूरम्-[ ता० ] कपूर । कपूर । मा०, इन्हें सरसों के तेल में १ दिन घोटे, पोछे करुप्पु-वि० [ ता० ] काला । कृष्ण । सम्पुट करके बालुका यंत्र में पचाएँ । जब स्वांग करुप्पुअकिंजिमरम्-[ ता० ] काला । अकोला । शीतल हो जाय; तब निकाल भाँगरा की जड़ के करप्पु चित्तिरमूलम्-[ ता०] काला चीता । Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंडार २२४६ (रुप्पु डामर - [ ता०] Shorea tumbugga - करुत्रेप चेट्टु -[ ते० ] सुरभिनिंष । ia, Roxb. काला डामर । करुप्पु नोच्चि - [ ता०] काला सम्हालू । करुप्पु - पिल्ली - [ ता० ] काला मध वृक्ष | : करुप्पुप्पु -[ ता० ] काला नमक । करुप्पु मरणत्तक कालि - [ ता०] काला मकोय | करुप्पु· मरुतमरम् [ ता० ] आसन वृक्ष । करुप्पूरम् - [ ता०] कपूर | कर्पूर । करुप्पोमर - [ ता० ] आसन । असन । पियासाल । hor - [ मरा०] लोबिया । बोड़ा । निष्पावी । करुबेल - स्त्री० [सं० कारुवेल ] इंद्रायण की बेल या लता । करुमकंद - [ ? ] सोनापाठा । श्योनाक । श्ररलू | करुमट्टन - [ मल० ] जंगली ककड़ी । करुमट्टन-वित्त- [ मल० ] जंगली ककड़ी का बीज । करुमरुत्त - [ मल० ] श्रासन वृक्ष । मुरकन मरम् - [ मल० ] फरहद । पारिभद्र । करुमुल्क - [ मल० ] कालीमिर्च | करुर - वि० [सं० कटु ] कड़ ुआ | तीखा । करुल-संज्ञा पुं० [देश० ] एक प्रकार की बढ़ी चिड़िया जो जल के किनारे रहती है और घोंघे श्रादि फोड़कर खाया करती है। छाती सफेद होती है । इसकी और नुकीली होती है । इसके डैने चोंच बहुत काले लंबी कवल - [ ता०] बबूल । कीकर | करुary - [ ता० ] लौंग | लवंग | करुवा - संज्ञा पु ं० दे० "करवा" । संज्ञा पु ं० दे० "कड़ श्र" संज्ञा पु ं० [ ता० ] दारचीनी से मिलता जुलता एक वृक्ष जो कनाड़ा में उत्पन्न होता है । फल दारचीनी से बड़ा होता है और काली दारचीनी कहलाता है । करुवा पपट्टे -[ ता० ] दारचीनी | दालचीनी | करुवाप्पू - [ ता० ] लौंग | लवंग | करुविलाई - [ ता० ] श्वेतापराजिता । करुवूमत्तई - [ ता० ] काला धतुरा । करवेप, करुप्पिलै - [ ता० ] सुरभिनिंग | कढ़ीनीम । मीठी नीम | बरसुगा । फा० ६२ कैरूरा करु-वेम्बु- [१] काला बबूल । काली कीकर । [ ता० ] सुरभिनिंब | कढ़ी नीम | करुवेल - [ ता० ] बबूल | कीकर | करुवेलकम् - [ मल० ] बबूल । कीकर । करु-वेलकम्-पश्-[ मल० ] बबूल की गोंद | करुवेलम्–-[ ता० ] बबूल । करुवेलम् - पिशित् - [ ता० ] वबूल की गोंद । करुवेलुम-[ मल० ] बबूल । करुषा - [ ता० ] दालचीनी । करुह - संज्ञा पुं० [सं० पु ं० ] केश । बाल । करुही - संज्ञा स्त्री० [देश० ] रामेठा । रमेठा । (Lasiosiphoneriocephalus, Dem ) रामी - मरा० । करू - वि० दे० "कड़ श्रा" । करूअनक़ सक़.ती .ई, क़रूक्क्रूममा -[ यू० ] ( १ ) मुरक्कम जून का नाम। (२) रोशन ज़ाफ़रान की तलछट | करूकर- [ वै० की ० ] ग्रीवा और कशेरुका की ग्रंथि | गर्दन और रीढ़ का जोड़ | क़रूतु -[ ? ] प्याज़ | करूतन - [ फ्रा० ] ( १ ) मकड़ी । (२) मकड़ी का जाला । रूता - [ ? ] मोम | क़रून- दे० "क्रुरून” । क़रूनतुफ़ों -[ १ ] (१) गन्ना । ईख । (२) फ्रानीज़ | करूद - [ फ्रा० ] मकड़ी के जाले का एक भेद । करू (रो) फ़ल - [ यू० ] कद्द ू कुरूफ़स - [ सिरि० ] दरूनज । करूफ़स - [ ? ] अखरोट । क्नरूफ़ा–[ यू० ] कद्द ू । 'करूम करून - [ रू० ] मलूखिया । क़रूर - [ अ० ] ( १ ) ठंढा पानी । ( २ ) मोती की सीपी । करूरा - [ सिरि० ] ( १ ) मोतियों की सोपी । (२) भूतांकस । Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करूंशुल्ग़मन करूशुल्ग़नम - [ ० ] फ़रफ्रियून । करूषक -संज्ञा पु ं० [सं० की ० ] एक प्रकार का फल | फालसा । २२५० करूस. तूलियूस - [ यू०] शादनज | क़समथून - [ 2 ] धतूरा । तातूरह # करूला बहमन - [ यू० ] बाबूना । रूसियून - [ यू०] आलूबालू । करासिया । क़रूसूफ़स, क़रूसूफ़ियून -[ यू० ] मारक्रीतून रूसूस - [ यू०] बूसीर । करूला-संज्ञा पु ं० [हिं० कड़ा + ऊला ( प्रत्य० )] ( १ ) एक प्रकार का मध्यम सोना । ( २ ) कुल्ला | करे - [ कना० ] ( १ ) आँट । भाँडीर । (२) पिंडार । पिंडालु । काला वि० [कना०] काला | कृष्ण । करि ( कना० ) । करे - अकोले - गिडा - [ कना० ] ( Alanguim Hexapotalum, Lam.) अकोला | करेइ - [ मारवाड़ ] भेरी । करे उप्पु -[ कना० [] काला नमक | करे- 3 (वु) मते- [ कना० ] काला धतुरा | 1. करेकाई - [ से० ] करौंदा । करमई । करमचा | करे कांचि - [ कना० काला मकोय | करेगोलि - [ कना०, मरा० कीकर | बबूल । करेंगणिके - [ कना० ] काला मको । करेजा -संज्ञा पु ं० [सं० यकृत ] कलेजा । हृदय । वि० दे० " कलेजा " । [] काला बघूल । काली करेधा कटव्या - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] धनेच्छू पक्षी ध चिड़िया । इसका तेल गठिया की रामवाण दवा है । करेजालिमरा -[ कना० ] बबूल । कीकर । काली कीकर | करेजी - संज्ञा स्त्री० [हिं० करेजा ] पशुओं के कलेजे का मांस जो खाने में अच्छा समझा जाता है । ( २ ) पत्थर की करेजी । दे० "पत्थर" । करेजीरगे - [ कना० ] काला जीरा । करेट - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] नख । नाखून | करेटा - [ बं० ] ( १ ) खिरेटी | बरियारा । (२) जंगली मेथी । इं० मे० प्रा० । करेटु, करेटुक–संज्ञा पु ं० [सं० पु ं० ] ( १ ) - करा पक्षी | करकटिया । कर्करेटु । करटु । कर्कशटुक । रत्ना० । ( २ ) नख । नाखून | त्रिका० | करेठ - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] त्रिका० । नख । माखून । धानस पक्षी । करेठव्या - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० करकटिया । धनच्छू पक्षी । त्रिका० । करेडुक - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( १ ) करकटिया । करे पक्षी । ( २ ) कर्कट । केकड़ा | 1 करेणु, करेणुक - संज्ञा पु ं० [सं० पु ं० ] ( १ ) हाथी । गज । ( २ ) कर्णिकार वृक्ष । कमेर । विश्व० । ( ३ ) एक महौषधि । एक वनस्पति जिसमें बहुत दूध होता है और जिसका कंद हाथी के आकार का होता है । इसमें हस्तिक पतास की तरह के दो पत्ते लगते हैं। गुण में यह सोमरस के समान होती है । जैसे - "करेणुः सबहुश्रीरा कन्देन गजरूपिणी । हस्तिकर्ण पलाशस्य तुल्यपर्णा द्विपर्णिनी ॥ सा च सोमरस तुल्यगुणा । सु० चि० ३० अ० । दे० " ओषधि' ( ४ ) हस्तिनी । हथिनी । 7 करेणुक - संज्ञा पुं० [सं० नी० ] कर्णिकार का फल जो ज़हरीला होता है । करेणुका - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] हथिनी । हस्तिनी । मादा हाथी | शब्द र० । करेणुभू-संज्ञा पु ं० [सं० पु० पालकाप्य नाम के जोगवैद्यक के प्रणेता हैं । त्रिका० । वि० [सं० ०] हथिनी से उत्पन्न | करेणुसुत-संज्ञा पुं० [सं० पु ं० ] ( १ ) पालकाप्य मुन । त्रिका | हाथी का बच्चा । गजशावक । करेणू-संज्ञा पु ं०, स्त्री० [सं० पु०, स्त्री० ] (1) हाथी | गज । ( २ ) हथिनी । हस्तिनी । श्र० टी० रा० । करेण्डरा - [ सिमला ] Acer villosum करेता - संज्ञा पु ं० [देश० ] बरियारा । बला । खिरेंटी । करेधा - [ उड़ि० ] हड़ । हरीतकी । Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करेनर २२५१ करेमू करेनर, करेवर-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (१) चूहा । मूस । मूषिक । (२)शिलारस ।सिह्नक । तुरुष्क । वै० निघ० । रा०नि० व० १२ । करेन्दुक-संज्ञा पु• [सं० पु.] भूम्तृण । खवी । घटियारी । रा० । गंधतृण । भूतृण । । करपाक, करपात-संज्ञा स्त्री० [ देश० ] कृष्ण निंब । मीठी नीम | सुरभि निंब । बरसंग | काली नीम । करेपाकचझाड़-मरा०] कड़ी नीम । सुरभि निंब । करेम-संज्ञा पु० दे. "करमू"। करेमू-संज्ञा पुं॰ [सं० कलम्बुः ] एक घास जो जल में वा जलासन्न भूमि में होती है। जिन झीलों और तालाबों में बारह महीने पानी रहता है. उनमें यह वर्ष भर बनी रहती है। यह पानी के ऊपर दूर तक फैलती है । इसके डंठल पतले, गोल, बाहर से कलौंछ लिये लाल और पोले होते हैं, जिनकी गाँठों पर से दो लम्बी लम्बी पत्तियाँ निकलती हैं। पत्तियाँ जड़ के पास से दोनों ओर थोड़ी थोड़ी झुकी हुई होती हैं। जड़ पानी की तह में होती । है। यह मीठो होती है और तरकारी के काम • पाती है। फूल बड़ा घंटी के आकार का श्यामला लिये रक वर्ण का होता है। पय्यो०-कलम्बः, कलम्बकः (अम०), कलम्बी, कलम्बूः, कलम्बुः, कलम्बिका (श० र०) कलम्बुका (भैष०) शाकनाड़िका, नाड़ीशाक, शतपर्वा, शतपर्विका, (भा०), कड़म्बी, -सं० । करेंमू , करमुश्रा, करवु, कलंबी, -हिं० । कलमी शाक, कलमा शाक, -बं० । तोमेबच्चलिचेट्ट, -ते। कलम्बी शाक -मरा०। कान्वालव्युलस रिस, Convol vulus (Ipomoea) Repens,are gifhar qafar Ipomoea aquatica, Forsk. -ले। गरम शाक -पं० । नालि-चि-भाजी-बम्ब०, मरा। सरकारेई बल्ली। -मद। त्रिवृत वर्ग (N. O. Convolvulacee.) उत्पत्ति-स्थान-समग्र भारतवर्ष में विशेषतः बंगाल, मदरास, लंका इत्यादि। औषधार्थ व्यवहार-पत्र, डंडी और कंद | (पंचांग)। गुणधर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसारनडीकशाकं द्विविधं तिक्तं मधुरमेव च। रक्तपित्तहरं तिक्तं कृमि कुष्ठ विनाशनम् ।। मधुरं पिच्छलं शीतं विष्टम्भि कफवातकृत् । तच्छुए पत्रं ज्वरदोष नाशनं विशेषतः पित्तकफ ज्वरापहम । जलं च तस्यापि च पित्तहारक सुरोचनं व्यञ्जनयोगकारकम् ।। (रा० नि०) नाड़ी शाक दो प्रकार का होता है-कडा और मधुर। इनमें कई आ करेमू मधुर, पिच्छल, शीतल, विष्टंभकारक और कफ वात जनक है। तथा यह रक्तपित्त, कृमि एवं कुष्ठ को नाश करता है । नाड़ी के सूखे पत्ते-ज्वर दोषनाशक हैं। विशेषतया यह पित्त, कफ और ज्वर नाशक हैं। इसका रस भी पित्त को हरण करनेवाला, रुचि कारक और व्यञ्जन योग कारक है। : तच्छुष्कं जलदोषघ्नं पित्तश्लेप्मामवातनुन् । माड़ी के सूखे पत्ते-जलदोषनाशक, पित्त कफ और आमवात विनाशक हैं। कलंबी स्तन्यदा प्रोक्ता मधुरा शुक्रकारिणी। (भा०) करमू-स्तन्यवर्धक, मधुर और शुक्रजनक है। राजबल्लभ के अनुसार यह स्तन्यवद्धक, शुक्रजनक, कफकारक मधुर, कसेला और भारी है। (राज० ३ पृ.) यह सारक, स्तनों में दूध उत्पन्न करता और अफीम की विषक्रिया को नष्ट करता है। प्रात्मघात के लिये यदि किसी ने अधिक मात्रा में अफीम खा लिया हो तो उसे कल्मीशाक का रस प्राधी छटाँक से एक छटाँक की मात्रा में देने से अफीम जन्य विष दोष नष्ट हो जाता है और उसके प्राण नाश की आशंका दूर हो जाती है । (व० द० २ भ० परि० पृ० ६६७-८) यह साधारणतया शाक के काम आता है। (फा० इ०२०। ई. मे० मे०) वामक, विरेचक और अहिफेन एवं मल्ल विष का अगद है। Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करे २२५२ करेगा वजाइनुल अदविया के अनुसार बोए हुए की करेयवदी-[ कना०] काला शीशम । काला सीसो। की अपेक्षा स्वयंभू पौधे में विष निवारण की शक्ति | कृष्ण शिंशप । अधिक होती है । संखिया और अफीम का विष करेर-पं०] अखरेरी । पाखी। उतारने के लिये इसका शुद्ध रस पिलाकर वमन [देश॰] करीर । करील। कराते हैं। इसके पत्तोंको पकाकर रोटीके साथखाने करेरा-म० ] सिहोर । रूसा । से अफीम का नशा उतरता है । इसके सूखे हुये | | करेरुआ-संज्ञा पुं॰ [देश॰]एक कँटीली बेल जिसके उसारे के चूर्ण को फंकी देने से दस्त आते हैं। पत्ते नीबू की पत्ती की प्राकृति के, पर उनसे लंबे इसके पत्ते और टहनियों के टुकड़े सुखाकर रख होते हैं और उनकी तरह कड़े नहीं; अपितु कोमल छोड़ते हैं और खटाई के साथ उबालकर चावल होते हैं । पत्र एकांतर एवं सत होते हैं और के साथ खाते हैं । इन्हें रात में उबालकर रख देवें उन पर तथा कोमल शाखाओं एवं पुप कलिकाओं और प्रातः काल रोटी खाने से पूर्व स्त्री सम्बन्धी पर एक प्रकार की भूरे रंग की धूल सी चीज जमी वातनाड़ी विषयक सामान्य रोग जनित दुर्बलता दूर होती है और स्तनों में दुग्ध को वृद्धि होती है । होती है, जो स्पर्श मात्र से हाथों में लग जाती है। इसकी कोमल शाखायें, पत्र और मूल पकाकर रोटी प्रत्येक पत्र वृत के मूल से लगे व्याघ्रनखाकृति के और चावल के साथ खाये जाते हैं। ख० अ०। दृढ़ युग्म कंटक होते हैं । कदाचित् इसी कारण कोई कोई आधुनिक ग्रंथकार इसे "व्याघ्रनखी" इसकी पत्ती पीस-पकाकर फोड़े पर बाँधने से नाम से अभिहित करते हैं। वह पक जाता है। वसंत ऋतु (फागुन और चैत-बैसाख ) में लड़के डंठलों को लेकर बाजा बजाते हैं। इस इसमें हलके करौंदिया (बैंगनी) रंग के सवृंत घास का लोग साग बनाकर खाते हैं । करमू अफीम तितली स्वरूप एकांतिक पुष्प प्रत्येक पत्रका में का विष उतारने की दवा है । जितनी अफीम खाई लगते हैं। इनमें लगभग ७० की संख्या में १-२ गई हो, उतना करेमू का रस पिला देने से विष अंगुल लम्बी पतलो पुकेसर और उतनी ही लम्बी शांत हो जाता है। (हिं० श० सा०) मध्य में एक स्त्री-केसर होती है जिनके सिरे पर अासाम में इसे सुखाकर उन स्त्रियों को देने में क्रमशः परागकोष और चिन्ह (Stigma) इसका उपयोग करते हैं जो अशक्त और स्नायु जाल स्थित होते हैं। कटोरी और पखड़ी में ४-४ पत्र संबंधी कमजोरी की शिकार रहती हैं। होते हैं। पुषदल और. पु-स्त्री केसर पहले सफेद बरमा में इसका रस अफीम और संखिया के फिर करौंदिया हो जाते हैं। फूलों के झड़ने पर विष को नष्ट करने वाली तथा वामक औषधि की इसमें कागजी नीबू के आकार के कुछ लंबे फल तरह उपयोग में लाते हैं। कम्बोडिया में इसकी लगते हैं, जिनमें बीज ही बीज भरे रहते हैं । ये कलियाँ ज्वर निवारक समझी जाती हैं । ज्वरजनित खाने में बहुत कड़वे होते हैं । यहाँ तक कि इसके सनिपात और ज्वरजनित मूर्छा में इसकी डंडी पत्तों से भी कड़वी गंध निकलती है। इसकी जड़ और पत्ते उपयोगी माने जाते हैं। १॥ इञ्च से ३ इंच तक मोटी होती है। इसका बैट के मतानुसार इसका कोमल कलियों और केन्द्र भाग सख़्त काष्ठीय होता है, जिसके ऊपर पतों का साग बनाया जाता है । यह साग गर्मी एक मोटो छाल परिवेष्टित होती है,जिस में से मूली तथा खून के दस्तों को बंद करता है, वायु की की तरह को एक विशेष प्रकार की गंध आती है। वृद्धि करता और पौष्टिक है। संखिये और अफीम स्वाद में यह चरपरी होती है। का विष नष्ट करने के लिये इसके पत्तों का रस पर्या-डोडिका, विषमुष्टिः, डोडी,सुमुष्टिका दिया जाता है, जो रेचक और वामक है। (भा० पू० खं० शा० २०६), डोण्डिका, व्याघ्र चोपड़ा के मतानुसार यह विरेचक वमन कारक नखी, व्याघ्रघटी-सं० । कररुमा -हिं० । गिटारेन और संखिये के विष को नष्ट करने वाला है। । मार०। कैपेरिसहारिडा Capparis Horrida, Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करेगा २२५३ करेरुमा Linn. । कैपोरिस ज़ेलैनिका C. Zey- - इसके फल की तरकारी बनाई जाती है । भाव lanica, Linn. कैडेवा हारिडा Cadaba. मिश्र ने इसीलिये इसका शाक वर्ग में उल्लेख Horrida Linn.- ले करेरुका, अरुदण्ड- किया है। लोगों का विश्वास है कि पार्द्रा नक्षत्र ते। हरण डोडी वाघाटी, भगाटी-मरा०, द०। के पहले दिन इसे खा लेने से साल भर पर्यन्त करबिल, करविला-पं० ।करलुर करलुरा-(अवध) फोड़ा, फून्सी होने का डर नहीं रहता और न मूल (इटावा)। कालुकेर, वाघांटी-बम्ब० । सादि विषधर जन्तुओं का विष व्याप्त होता है । गोविंदी-मरा०। कररुपा के पत्ते पीसकर घाव पर भी रखते हैं। करेरुआ की जड़-भगाटी की जड़; भटाटी उकवत पर भी इसके पत्ते बाँधते हैं। मूलत्वक की जड़-द। अलंदय-मल.| श्रादंडवेर-ता० । को पीसकर जहरवाद फोड़े अथवा अन्य प्रकार के अरुदंड वेरु-ते। फोड़े पर लगाने से लाभ होता है। करीर वर्ग कररुपा के इतने स्वल्प गुण-प्रयोग देकर अब (N. O. Cappari diacece ) मैं पाठकों का ध्यान इसके एक ऐसे उपयोगी एवं चमत्कारी प्रयोग की ओर श्राकृष्ट करना चाहता उत्पत्ति स्थान-समस्त भारतवर्ष, विशेषतः हूं, जिसका मैं अाज बीस बर्ष से अनुभव कर दक्षिण भारत में यह बाहुल्यता से होता है। रहा हूं। यह वही प्रयोग है जो आजतक अनेकों औषधार्थ व्यवहार-पत्र, फल, मूल और पुरातन नीहात रोगियों का प्रशंसा-भाजन बन मूलत्वक् । चुका है । ऐसे प्लीहा रोगी जिन्हें छः-छः मास औषध- निर्माण-मूलत्वक क्वाथ-४ पाउंस पर्यन्त डाक्टरों के इञ्जक्शनादि विविध उपचारों मूलस्वक् को १॥ पाइंट जल में मंदाग्नि पर यहां से भी कोई लाभ न हुआ. वे इस दवा के प्रयोग तक कथित करें, कि एक पाइन्ट पानी शेष रह से स्वल्प काल में ही रोग-मुक्त हुये हैं। परन्तु यह जाय। ठंडा होने पर इसे छान कर रखें। स्मरण रहे कि जिसमें अनेक गुण होते हैं उसमें पत्रकाथ-उपयुक्र विधि के अनुसार प्रस्तुत कतिपय दोषों का रहना भी स्वाभाविक ही है। करें। इस भूमण्डलपर कोई ऐसा पदार्थ नहीं जो सर्वथा मात्रा-उन दोनों प्रकार के क्वाथों की मात्रा निदोषहों, क्योंकि यदि दोष न हो, तो निदोषताका १ पाउंस से ३ पाउंस पर्यन्त, चौबीस घंटे में हमें अनुभव ही नहींहो सकता । अस्तु; उन औषध ३-४ बार देवे । भी इसदोष से खाली नहीं रह सकती। जहाँ इसमें इसकी प्रतिनिधि स्वरूप विदेशीय द्रव्य- पुराने से पुराने अत्यन्त विवर्द्धित प्लीहा रोग को मूलत्वक् के लिए बिस्म्युथाई सबनाइट्रास और निर्मूल करने का गुण वर्तमान है, वहीं इसमें यह एसिड हाइड्रास्यानिड डिल, पत्र के लिये सोना । एक दोषभी है, कि इससे उन स्थल पर असह्य दाह होताहै । परन्तु यह दारुण प्राण-संहारक व्याधि के गुणधर्म तथा प्रयोग मुकाबिले में कुछ भी नहीं। अब नीचे इसकी वह आयुर्वेदीय मतानुसार प्रयोग-गिधि दी जाती है, जो मुझे एक साधु, डोडिका पुष्टिदा वृष्या रुच्या वह्निप्रदा लघुः । महात्मा से प्राप्त हुई थी । मैं भी उन्हीं के बताए अनुसार बिना किसी फेर-फार के इसका प्रयोग इंतिपित्त कफशोसि कृमिगुल्म विषामयान् ।। करता हूँ । यद्यपि इसकी कई बातों में मुझे स्वयं (भा० पू० खं० शा०व०६) संदेह है। उपयोग-विधि इस प्रकार हैअर्थात्-कोरुना पुष्टिकर, वृष्य, रुचिकारी, जठ. ___ बरबट के रोगी अर्थात् विवर्द्धित प्लीहा-रोगी राग्नि-वर्द्धक तथा हलका है । और पित्त, कफ, को सर्वप्रथम यह बतला दिया जाता है कि औषध बवासीर, कृमि, गोला और विष के रोगों को दूर रविवार या मंगलबार को बाँधी जायगी । और करता है। उससे पहले अर्थात् शनिवार या सोमवार की Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करेरुआ २२५४ रात्रि को उसे केवल सादी अर्थात् पीठी रहित घृत पक्क पूरी बिना किसी अन्य वस्तु यथा- दुग्ध तरकारी श्रादि के खानी चाहिये और दूसरे दिन प्रातःकाल शौचादि से निवृत्त होकर दातौन किये बिना वैद्य के पास श्राना चाहिये। यह श्रादेश कर दिया जाता है । वैद्य को चाहिये कि पहले से ही उक्त बूटी की ताजी जड़ ( न होने पर नवीन सूखी जड़ ही सही ) मंगा रखे और उस जड़ की छाल निकाल कर १० दाने काली मिर्च के साथ किसी कुमारी लड़की से थोड़ी पानी में पिसवाकर उसकी बारीक लुगदी तैयार करावे | फिर प्लीहा परिमाणानुसार एक परई ( मिट्टी का पका हुआ दीया के आकार का परन्तु उससे बड़ा पात्र) लेकर उसमें बिनौला कस-कस कर भर डालें और उसके ऊपर उक्त लुगदी की श्राध अंगुल मोटी तह चढ़ा दे । पुनः रोगी को चित्त लेटने को कहें और उन परई को उलट कर ठीक प्लीहा स्थल पर रखें और उसे किसी श्रंगौछे श्रादि को चौपतकर पीठके नीचे से लपेटकर खूब कसकर बाँधदे और रोगी से कहदे कि वह सोधा चित्त पड़ा रहे इधर-उधर न घूमे और न बंधन को ढीला ही करे। बस इसी प्रकार उसे तीन घंटे तक पड़ा रहने दें। औषध बांधने के १०-१५ मिनट उपरांत श्रौषध का प्रभाव प्रारम्भ हो जाता है, रोगी उक्त स्थल पर दाह का अनुभव करने लगता है, उसे ऐसा प्रतीत होता है, मानों वहाँ लाल अंगारा रख दिया गया हो । यही दशा निरन्तर दो घंटे पर्यंत बनी रहती है। इसके अनन्तर जलन क्रमशः न्यून होने लगती है । यहाँ तक कि तीसरे घंटे पर जाकर एक दम न्यून पड़ जाती है और पुनः रोगी को किसी प्रकार का कष्ट अनुभव नहीं होता । बस यही है - एक ओर रोगी का यंत्रणा काल और दूसरी ओर सदा के लिये दारुण रोग निवारक प्रयोग । तीन घंटे पूर्व किसी भी भाँति बंधन न खोलना चाहिये । श्रन्यथा जलन स्थायी रूप धारण कर लेगी। इस व्याधि से मुक्ति लाभ न होगा और दूसरी ओर व्यर्थ में और भी अधिक कालपर्यंत अनिवार्य दाह-यंत्रणा भुगतनी पड़ेगी ठीक समय के उपरांत बंधन खोल दें और रोगी को दातौन आदि से मुख प्रक्षालन की श्राज्ञा दें । करेरुआ इसके उपरांत यदि इच्छा हो तो उसे खिचड़ी श्रादि खाने को दी जा सकती है अथवा उसे गरम दूध पीने को दें । उक्त स्थल को पानी पड़ने से या पसीना आदि होने से बचाने का आदेश करदें । अन्यथा फफोला पड़ने की आशंका रहेगी । रोगी को चाहिये कि एक मास पर्यन्त गुड़, तैल, लाल मिर्च, भूने चने श्रथवा स्निग्ध, उष्ण, विष्टंभी, दीर्घपाकी एवं धारक पदार्थ के खाने-पीने से परहेज करे, नित्य हलके शीघ्रपाकी श्राहार करे । इससे मास पर्यंत कभी-कभी काले रंग का मलोत्सर्ग होता रहता है और प्लीहा क्रमशः अपनी पूर्व स्वाभाविकावस्था पर चली जाती है और रोगी अपने को स्वस्थ पाता है । इसका उपयोग केवल प्लीहा रोग पर होता है, ज्वरादि के लिये पृथक् चिकित्सोपचार करना चाहिये। रोगी की क्षमता का विचार करते हुये ७-८ वर्षीय शिशु से लेकर ८० वर्ष के बुड्ढे तक पर इसका प्रयोग किया जा सकता है। इस औषधोपचार के उपरांत एक मास पर्यंत यदि निम्न प्रकार से तैयार किये हुये मंदार-चार का भी उपयोग कराते रहें, तो सोने में सुहागे का काम हो । विधि यह है 1 मंदार क्षार - मंदार -पत्र और सेंधव लवण का चूर्ण लेकर एक मिट्टी की हाँडी में सर्व प्रथम मदार का एक पत्र रखकर ऊपर से सेंधानमक का चूर्ण थोड़ा सा बुरक दें। फिर मदार की एक पत्ती रखकर ऊपर से सेंधा नमक बुरकें । इसी प्रकार करते रहें, यहाँ तक कि ये हाँडी के मुख पर्यंत श्री जाँय । यदि थोड़ा बनाना हो तो इससे कम भी रख सकते हैं। इसके उपरांत हांडी के मुखपर एक ढक्कन रखकर उसके मुख को कपड़ मिट्टी कर भली प्रकार बन्द कर दें और गजपुट में रखकर कंडे की श्राग से फूंक दें। स्वांगशीतल होने पर निकाल कर नमक और पत्र भस्म का बारीक चूर्ण कर सुरक्षित रखें। इसमें से प्रातः सायं ६ माशे चूर्ण शहद के साथ चाटा करें। नव्य मत मोहीदीन शरीफ़ - प्रभाव मूल शामक ( Sedative ), पाचक, स्वेदाधरोधक ( An thidrotic ) और पत्र भी अंशतः पाचक Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कररुक १२५५ करेला (Stomachic) होता है। डीमक ने मूल त्वक् को ( Counter-irrivant) लिखा है | आमयिक प्रयोग-आमाशयिक प्रदाह | (Gastric irritation ) जनित वमन एवं उदरस्थ वेदना जैसे कतिपय लक्षणों के उपशमनार्थ और क्षुधा वर्द्धनार्थ इसकी जड़की छाल परमोपकारी होती है । स्वेदाधिक्य की कतिपय दशाओं में भी यह उपकारी प्रमाणित हुई है और इसके व्यवहार से बहुतांश में स्वेद आना रुक जाता है । इसकी पत्ती में भी सुधाभिजनन गुण वर्तमान होता है। ( मे० मे० मै० पृ. ३२) जलोदर में इसकी पत्ती वा जड़की छाल ६ | मा० पीसकर २१ दिन तक निरंतर प्रातः सायं काल सेवन करने से उपकार होता है। बवासीर की सूजन मिटाने के लिये इसके पत्तों की लुगदी बना कर बाँधना चाहिये। इसकी छाल के चूर्ण को सिरके में घोलकर पिलाने से हैजे में लाभ होता है। इसके पत्तों का साथ पिलाने से उपदंश मिटता है। कर्नल चोपरा के मतानुसार यह शांतिदायक और मूत्रल है। कैंपबेल के अनुसार छोटानागपुर में इसकी छाल देशी शराब के साथ विसूचिका रोगमें दी जाती है। एटकिन्सन के मतानुसार उत्तरी भारतवर्ष में इसके पत्ते बवासीर, फोड़े, सूजन और जलन पर लगाने के काम में लिये जाते हैं । करेरुक-संज्ञा पु० [सं०] करेरुश्रा । भा० । करेल- बं०] बाँस। करेल्लकी-[ कना० ] संभालू । म्योड़ी । निगुडी। करेल्लकी गिडा-[ कना०.] काला संभालू । करेलन-[राजपु.] करेला । करेला-संज्ञा पु० [सं० कारवेल्लः] एक सुदीर्घ प्रारोही बता जिसकी पत्तियाँ पाँच नुकीली फांकों में कटी होती है । ये शिरावंधुर (Sinute) एवं दंतित होती हैं। कोमल पत्र का अधः पृष्ठ विशेषतः नादियाँ न्यूनाधिक ( Villous) होती है। प्रकांड न्यूनाधिक लोमश होताहै । पुष्प-वृत क्षीण होता है और उसके मध्य प्रायः भाग में एक वृक्काकार पौष्पिक-पत्रक होता है। पुष्प वृतमूल से स्त्री-पुष्प निकला होता है । फल स्थूल दीर्घाकार वा अंडाकार होता है जिसके छिलके पर उभड़े हुये लंबे-लंबे और छोटे बड़े दाने वा अर्बुद होते हैं या धारियाँ पड़ी होती हैं । बीज अंडाकार चिपटा होता है । बीज प्रांत स्थूल एवं कटावदार होता है और रक्तवर्ण (Aril ) होती है । पुष्प मध्यमाकृति और पाहु पीत वर्ण के होते हैं। कच्चे फल हरे रंग के और अत्यन्त कड़वे, पर रुचिकारी होते हैं। पकने पर ये पीले और भीतर से ये लाल हो जाते हैं, तथा इनकी कड़वाहट कम पड़ जाती है। __ करेला भेद-करेला दो प्रकार का होता है। एक बैशाखी जो फागुन में क्यारियों में बोया जाता है, जमीन पर फैलता है और तीन चार महीने रहता है । इसका फल कुछ पोला होता है। दूसरा बरसाती जो बरसात में बोया जाता है। झाड़ पर चढ़ता है और सालों फूलता फलता है। इसका फल कुछ पतला और ठोस होता है। प्राकृति भेद से भी यह दो प्रकार का होता है। बड़ा करेला वा करेला । (करला -बं.) और छोटा करेला वा करेली ( उच्छे -बं०)। इनमें बड़े का फल अपेक्षाकृत दीर्घ और छोटे का शुद्र अंडाकार होता है। करेली की बेल भी करेले की बेल के समान सुदीर्घ नहीं होती है। यह स्तम्ब• कारिणी एवं भूलुण्ठिता होती है । रंग रूपाकृति भेद से करेला अनेक प्रकार का होता है। करेला प्रायः हरे रंग का होता है। पर कहीं कहीं सफ़ेद करेला भी देखने में आया है। यह बहुत लंबा होता है। मालवा और राजपुताना में सफ़ेद करेला हाथ भर तक का देखा गया है। यह उत्तम होता है। इसका छिलका पतला होता है । __ कहीं कहीं जंगली करेला-बनज कारवेल्ल भी मिलता है जिसके फल बहुत छोटे और बहुत कड़वे होते हैं । इसे करेली वा बन करैला कहते हैं । इसका फल सर्वथा छोटा करेला व करेलो के तुल्य होता है । भेद केवल यह है कि इसमें Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करेला २५६ करेला बीज अधिक होते है और इसका छिलका करेली के समय खानदेश जिले के लोगों ने करेले जैसा मांसल नहीं होताहै। बंगाल में इसे "काशीर पत्तियाँ चबाकर जीवन धारण किया था। उच्छे" कहते हैं । बन करेला की बेल अत्यन्त पो०- काण्डीरः, काण्डकटुकः, नासावीण एवं करेले की बेलकी अपेक्षा सुदीर्घतर होती संवेदनः, पटुः, उग्रकाण्डः, तोयवल्ली, कारवल्ली; है। वृहनिघण्टु रत्नाकर में जलज कारवेल का सुकाण्डक: (ध० नि०, रा. नि०), करका, उल्लेख दृष्टिगत होता है। कोचबिहार में एक कारवल्ली, चीरिपत्रः, करिल्लका, सूक्ष्मवल्लो, प्रकार का जंगली करेला देखा गया है जो जल वा कण्टफला, पीतपुष्पा, अम्बुवल्लिका (रा०नि० जलासन्न भूमि में न उत्पन्न होने पर भी नितांत ७०) कठिल्लः, कारवेल्लः (भा०) कठिल्लकः, श्राद्र एवं छायान्वित भूमि में अति आनन्द सुषवी (अ.), कारवेल्लकः, राजवल्ली (र.), पूर्वक सुदीर्घ क्षीण प्रतान विस्तार करता है। सुषवी (अ. टी.), ऊद्ध र्वाषितः (त्रि०), वक्तव्य-रॉक्सवर्ग (पृ० ६६६ ) और कठिल्लका, कठिल्लका, कण्डूरः, काण्डकटूकः, डीमक ( २य खण्ड ७६ पृ.) ने सुषवी का सुकाण्डः,-सं० । करेला, करैला, करोला-हिं० । बंगला नाम. शुद्र फल कारबेल्ल अथात् उच्छे करेला-द० । कोरोला, करला, बड़ करेला, उच्छे लिखा है। धन्वन रि ने कारबेल्ल के पर्यायों का गाछ, करला उच्छे, बड़ उच्छे-बं० । किसाउल निर्देश इस प्रकार किया है। बरी-अ० । सीमाहंग-फ्रा० । मोमोर्डिका करंटिया, "काण्डीरः काण्ड कटुको नासासंवेदनः पटुः । Momordica Cbarantia, Linn. उग्रकाण्डस्तोयबल्ली कारवल्ली सुकाण्डकः॥" stol Momordique-charantia-satol Gurkenahnlicher, Balsamapfel राजनिघण्टु-के ववर्थ निर्देश स्थल पर यह जर पावका-चेडि-ता०मद। पावका-काय(कल) उल्लिखित है सेल्लकाकर, करिला, काकड़ा-चेडु, काकर-चेट्ट"सुषवी कटुहुञ्छ्याश्च विश्रुता स्थूलजीरके। ते। कैप्प-वल्लि, पावक्का-चेटि, पाण्टी-पावेल, तिलके च छिन्नरुहा सुषवी केतकी भवेत्" । कप्पक्क, पावल-मल० । हागल-कायि-गिडा, हागल सुतरां निवण्टुद्वय के मत से सुषवी शब्द का -कना० । करोला, कार्ली, कारले, करेटी-मरा० । क्षद्र फल कारवेल्लार्थ दिर्घट है। निघण्टद्वय में करेलो, करेटी, करेला, कडवाबेला-गु० । केहिगाकारवल्ली भेद स्वीकृत नहीं है। किंतु भावप्रकाश बिङ्-बर० । कारला-बम्ब । पावक्का-चेडि-मदन कार लिखते हैं सलरा-उत्० । हागल, कारेलाइ- काकराठी कों० । करेन, शलरा, फालरा-3डि । करविलकारवेल्लं कठिल्लं स्यात् कारवेल्लीततोलघुः। (सिंहली)। ककरल-पासा। करिला-पं०। तदनुसार करेली का नाम कारवेल्ली है। वैद्यक में | ___ करेली-सिंध । कारली-मार० । कहीं भी क्षुद्रफल कारवेल के अर्थ में सुषवी शब्द | परिचय ज्ञापिका संज्ञा-"चिरितपत्रः," 'सूचमवल्ली, का प्रयोग देखने में नहीं पाया है। सुषवी से "पीतपुष्पः" । करेला और करेली दोनों का अर्थ ले सकते हैं। कुष्माण्ड वर्ग जिन्होंने 'किसाउल हिमार' प्रारब्यसंज्ञा का व्यव- (N.O. Cucurbtaceae) हार करेला के अर्थ में किया है। उन्होंने भूल की उत्पत्ति स्थान-समग्र भारतवर्ष विशेषतः है। किसाउल हिमार की गंध बहुत खराब एवं मलय, चीन और अफरीका में भी पाया जाता है। तीव्र होती है और वह इन्द्रायन की अपेक्षा __औषधार्थ व्यवहार-फल, बीज, पत्र एवं प्रवलतर विरेचक है। परन्तु करेले में उन गुण समग्रलता । मात्रा-पत्रस्वरस, १-२ तोले, नहीं होते । उसके विपरीत यह प्रामाशय वलप्रद वमन रेचनार्थ १० तोले पर्यत । दीपन पाचन और संग्राही होता है तथा खाद्य के रासायनिक संघटन-एक जल विलेय तिक काम आता है। सन् १८७७-७८ ई. के दुर्भिक्ष ग्ल्युकोसाइड जो ईथर में अविलेय होता है, एक Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करेला २२५७ करेला ६ प्रकार का पीले रंग का अम्ल, राल और ६% . भस्म इत्यादि। __गुणधर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसारकाण्डीरः कटुतिक्तोष्ण सरो दुष्टवणातिजित् । लूता गुल्मोदर मीह शूल मन्दाग्नि नाशनः ।। (ध० नि०, रा० नि०) करेला-चरपरा, कडु श्रा, गरम और दस्तावर है तथा दुष्टत्रण, मकड़ी का विष, गुल्म, लोहा, शूल और मंदाग्नि-इनको नाश करता है। कारवेल्लं हिमं भेदि लघुतिक्तमवातलम् । ज्वर पित्त कफास्रघ्नं पांड़ मेह क्रिमोन हरेत् । तद्गुणा कारवेल्ली स्याद्विशेषाहीपनी लघुः ॥ . (भा.) करेला-शीतल, दस्तावर, हलका, कड़वा एवं अवातल है तथा यह ज्वर; पित्त, कफ, रुधिरविकार, पांडु रोग, प्रमेह और कृमिरोग इनको दूर करता है। करेला के समान ही गुण करेलीमें है। कारवेल्लमवृष्यश्च रोचन कफपित्तजित् । (राज.) करेला- प्रवृष्य, रुचिकारक और कफ तथा | पित्तनाशक है। कारवेलश्च वातघ्नः कफघ्न: पित्तकारकः । उष्णो रुचिकरः प्रोक्तो रक्तदोषकरो नृणाम् ॥ (हा०)(अत्रि १६ १०) करेला-वातनाशक, कफनाशक, पित्तकारक, उष्ण, रुचिकारक और रक्तविकार जनक है। कारवेल्ल चाति तिक्त मग्निदीप्तिकरं लघुः।। उष्णं शीतं भेदकं च स्वादु पथ्यं समीरितम् ॥ अरुचिं च कर्फ वातं रक्तदोष ज्वरं कृमीन् । पित्तं पांडुश्च कुष्ठश्च नाशयेदिति कीतितम् ॥ वृहदुक्त कारवेल्लं कटु तिक्तं च दीपकम् । अवृष्यं भेदकं स्वादू रुच्यं क्षारं लघुः स्मृतम् ॥ अवातलं पित्तहरं रक्तरुक्पांडु रांगहृत् । । (वैद्यक नि०) फा०३ अरोचकं कर्फ श्वासं व्रणं कास कृमींस्तथा । कोष्ठं कुष्ठं ज्वरं चैव प्रमेहाध्मान नाशनम् ॥ कामलां नाशयत्येव गुणास्त्वन्ये तु पूर्ववत् । जलज कारवेल्लं स्यात्तिक्त' भेदकर मतम् ।। कर्फ कुष्ठं पांडुरोगं कृमीन्पित्तश्च नाशयेत् । वनजं कारवेल्लंतु दीपनं तिक्तक मतम् ।। हृद्यं ज्वराशः कासघ्नं कफवात कृमीहरम् । (रत्नाकरः) करेली-अत्यन्त कड़वी. अग्निप्रदीपक, हलकी, गरम, शीतल, दस्तावर, स्वादु पथ्य तथा अरुचि, कफ, वात, रुधिर विकार, ज्वर, कृमि, पित्त, पांडु रोग और कुष्ठ रोग को नष्ट करने वाली है। करेला-कटु, तिक, दीपन, अवृष्य, भेदक, स्वादिष्ट, रुचिकारक, क्षार, हलका,वातकारक नहीं, तथा पित्तनाशक है और रुधिर विकार, पांडुरोग, अरुचि, कफ, श्वास, व्रण, खाँसी, कृमि, कोठ रोग कुष्ठ, ज्वर, प्रमेह. आध्मान और कामला रोग को दूर करता है । शेष गुण पूर्ववत् जानना चाहिये । जल में उत्पन्न होनेवालाकरेला-कड़वा; , भेदक, तथा कफ, कुष्ठ, पांडुरोग, कृमि और पित्त रोग का नाश करता है। __ वन करेला-दीपन, कड़वा तथा हृद्य है और ज्वर, बवासीर, खाँसो, कृमि और वायु को नष्ट करता है। इसका फूल धारक और रक्त पित्त में हितकारी है। करेले के वैद्यकीय व्यवहार सुश्र त-वातरक में कारवेल्ल-करेले को बेल के काथ द्वारा सिद्ध घृत वातरक्त में हितकारी है। यथा"कारवेल्लक काथमात्र सिद्धं वा"। (चि...) चक्रदत्त-(1) ज्वर रोगी के शाकार्थ कारवेल्ल-ज्वर रोगी को करेले की शाक व्यवस्था करें। यथा" कारवेल्लकम् । ॐ शाकार्थे ज्वरिताय प्रदापयेत् ।” (ज्वर-चि०)। Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करेला २२५६ (२) मसूरिका में कारवेल-करेले के पत्तों |, है तथा यह नाड़ियों को शक्ति प्रदान करता, शुरु का स्वरस, हलदी का चूर्ण मिलाकर पियें। यह उत्पन्न करता और संधि-शूल वातरक्क (निकरिस) रोमान्तिका, ज्वर, विस्फोट और मसूरिका प्रश- जलोदर एवं तापतिल्लो में उपकारी होता है। यह मक है । यथा उदरस्थ कृमियों को नष्ट करता है। इसके हरे "सुषवी पत्र निर्यासं हरिद्रा चूर्ण संयुतम्। पत्तों का रस ३ तोले, तोला डेढ़ तोला दही के साथ मिलाकर, ऊपर से ५-६ तोला छाछ पिला रोमान्तीज्वर विस्फोट मसूरी शान्तयेपिवेत्॥" देवें । तीन दिन तक ऐसा करें। इसके बाद तीन (मसूरिका -चि.) दिन बंद करके, पुनः चार दिन तक उसी भाँति (३) अन्तःप्रविष्ट योनि में कारवेल्ल–करेले पिलाएँ। फिर चार दिन बंद करके पांच दिन की जड़ पीसकर लेप करने से अन्तःप्रविष्ट योनि | पिलाएँ। इसी प्रकार एक-एक दिन बढ़ाकर उस वहिनिःसृत होती है। यथा समय तक करते रहें कि एक सप्ताह पर पहुँच "सुषवी मूल लेपेन प्रविष्टान्तर्वहिर्भवेत्।" जाय । सेवन काल में खिचड़ी और खसके का (योनिव्यापद् -चि०)। आहार करें। इस प्रयोग से वृक्त एवं वस्तिस्थ .भावप्रकाश-विसूचिका में कारवेल्ल-करेले : अश्मरी में बहुत उपकार होता है। की बेल का काढ़ा, तिल-तैल का प्रक्षेप देकर पीने . तरकारी के लिये करेले को इस प्रकार तैयार से विसूनिका रोग प्रशमित होता है यथा करते हैं । पकाने से पूर्व इसे नमक के पानी में "सतलं कारवेल्ल्यम्बु नाशयद्धि विसूचिकाम्" | दुबाते हैं अथवा पहले करेले को ऊपर से छील (म० खं० २य भा०) कर उसके बारीक वारोक कतरे काटकर बीज दूर यूनानी मतानुसार-प्रकृति-शीतल, मतांतर कर देते हैं। फिर उन कतरों में लवण मल कर सेसमशीतोष्ण, कोई-कोई तृतीय कक्षामें उष्ण और तीन-चार बार धोते हैं जिससे उसकी कबु वाहट रूत मानते हैं, नुसखा सईदी आदि का यही मत दूर हो जाती है । पुनः उतना ही प्याज काटकर, है। वैद्य शीतल मानते हैं। पर कोई-कोई बहुत तेल में भून लेते और मांस में अथवा विना मांस उष्ण लिखते हैं। के पकाकर खाते हैं। कोई कोई इसे बगल से हानिकर्ता-उष्ण प्रकृति को। चीर कर बीज निकालकर नमक मिला धोकर दपघ्न-धी, चावल, शीतल पदार्थ और गोश्त का क़ीमा भरकर डोरे से बाँध कर घो सिकंजबीन, वैद्यों के मत से हर प्रकार के मधुर में भूनकर पकाकर खाते हैं। इसके पकाने को द्रव्य सेवनोपरांत इसका खाना एतद्दोषनिवारक है। अनेक रीतियाँ हैं । किंतु प्याज़ के साथ पकाकर प्रतिनिधि-माहूदाना। खाया हुआ स्वाद और बाजीकरण गुण में गुण, कम, प्रयोग—यह वाजीकरण, नाड़ो- बलिष्टतर होता है और विना प्याज के पकाया बलप्रद (मुकब्बी अश्रूसाब), शुक्रमेहहर, वातानु हुअा जठराग्न्युद्दीपन एवं शीघ्रपाकी होता है , लोमक एवं कफछेदक है तथा संधि-शूल. शीत- तथा अपेक्षाकृत कम उष्णता उत्पन्न करता वातरक्त (निकरिस बारिद) जलोदर, प्लीहा, ख. श्र०। कामना और कृमि में उपकारी है । मुफ्त.. ना.। _ वैद्यों के कथनानुसार करेला वादोबवासीर __ मनजनुलू अदविया के रचयिता के अनुसार को लाभकारी है। यह रक्त एवं पित्त की उल्वणता करेला (फल) वल्य, जठराग्न्युद्दीपक (Stoma और कामला में हितकर है। यह कफ नाशक chic), आमवात और वातरक्त में उपकारी, है एवं वीर्यस्राव के दोष को मिटाता है। शुष्क यकृत एवं प्लीहा रोगनाशक और कृमिघ्न है। करेला मूत्रदोषघ्न है। यह भोजनोत्तर वमन म. अ। का निवारण करता है। वाड़ी का करेला (पारोपित करेला, बुस्तानी ताजा करेले को पानी में पीसकर पीने से दो करेला)-वातानुलोमक वाजीकरण और कफन्न । चारदस्त आकर कामला रोग श्राराम होजाता है। Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करेला २२॥ करला * इसके पत्तों का रस पिलाने से प्रान्त्रस्थ कृमि | इसके फल-स्वरस में राई और लवण चूर्ण का मृत प्राय होते हैं। प्रक्षेप देकर विवृद्ध प्लीहा रोगी को सेवन कराना ___ इसके रस का लेप करने से दाद मिटता है। चाहिये । करेले के रसमें चाक वा खड़ी मिट्टी मिलाकर परिवर्द्धित यकृत रोगी को इसके रस में इन्द्रालगाने से मुंह के छाले मिटते हैं। यन मूल चूर्ण का प्रक्षेप देकर पिलाना चाहिये । सिर पर इसके रस का लेप करने से पीवयूक्र | ___ इसके दो तोले रस में थोड़ा मधु मिलाकर , फुसियाँ मिटती हैं। पिलाने से विसूचिका दूर होती है। अग्निदग्ध पर इसके लेपसे तजन्य दाह शमन शीत ज्वर में शीत लगने से पूर्व इसके रस में होता है। जीरे का चूर्ण मिलाकर पिलाना चाहिये । शिशुओं को इसके पत्तों का रस पिलाने से | सूखा करेला सिरके में पीसकर गरमकर लेप दस्त आते हैं। करने से गलशोथ मिटता है। -करेले की समग्र नोट-यूनानी चिकित्सक करेले को संग्राही लता, दालचीनी, पीपल, और, चावल इनको | मानते हैं । इसके विपरीत वैद्यगण इसे मृदुरेचक तुवरक तैल (जंगली बादाम के तेल ) में मिला- | मुलय्यन मानते हैं । ख० अ.. . कर लगाने से कण्डू एवं अन्य चर्मरोग आराम | ___ वह करेला जिसकी कद् वाहट दूर न की गई .. होते हैं । (फा० ई.. २ भ० पृ. ७८). हो, केचुत्रों को निकालता है । यह मूत्र प्रवर्तक इसकी जड़ संग्राही और उष्ण है। इसकी जड़ | और अश्मरी छेदक भी है तथा कफरेचक है। घिसकर बादी के मस्सों पर लेप करते हैं। . . इसके पत्तों का रस लेप करने से पैर के तलुओं : अश्मरी में इसकी सेवन-विधि यह है-इसके का दाह शमन होता है। हरे पत्तों का रस ३ तोले लेकर ॥ तोले दही के इसे आँख के बाहर चतुर्दिक लगाने से रतौंधी साथ खिलाकर ऊपर से ५-६ तोले छाछ पिलादे : जाती रहती है। इस प्रकार तीन दिन तक करें। उसके बाद ३ नवजात शिशु के मुह में करेले की पत्ती तोड़- दिन तक दवा बंद करदें। उसके बाद फिर चार कर रखने से उसके सीने और अंतड़ी का मवाद रोज़ तक दवा देकर फिर चार रोज के लिये बंद मैल और आँव निःसरित हो जाती है। करदें। फिर पाँच दिन तक दवा देकर पाँच दिन इसके पत्तों को श्रौटाकर पिलाने से प्रसूता के लिये दवा बंद करदें। इस प्रकार ७ दिन तक नारियों का रक्त शुद्ध होजाता है और स्तन्य की वढ़ावें । पथ्य में केवल खिचड़ी और चावल ही वृद्धि होती है। देना चाहिये। यह अश्मरी में बहुत लाभ इसके पत्तों के रस में सोंठ, काली मिर्च और करता है। पीपल के चूर्णका प्रक्षेप देकर लेप करने से आर्तव नव्यमत नियत मात्रा में आने लगता है। आर० एन० खोरी-यह कृमिघ्न, मूत्रकर, इसके फल का लेप करने से फोड़ों की खुजली स्तन्यवर्द्धक, प्रात्तवरजःस्रावकारी एवं वायुनाशक और गरमी मिटती है। है । विरेचक एवं विक्रभेषज सुगंधिकरणार्थ इसके पत्तों का रस सिरके के साथ पिलाने से इसका व्यवहार होता है। प्रसवोत्तर इसका काथ कै होती है। पीने से गर्भाशयद्वार संकोच प्राप्त एवं स्तन्य इसके पत्तों के रस में हड़ घिसकर पिलाने से वर्द्धित होता है। कृमि के लिए भी यह हितकारी कामला रोग आराम होता है। होती है । विषमज्वर, ग्रहणी, अग्निमांय, अजीर्ण . इसका फल सामान्य कोष्ठ मृदुकर है। इसके ओर अतिसार में यह चित्रकमूल के साथ जठराकच्चे फल के रस को गरमकर लेप करनेसे गठिया ग्न्युद्दीपक (Stomachic) और वातामिटती है। नुलोमक रूप से व्यवहार की जाती है। भार्गव Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करेला २२६० करेला रजःस्रावकारी रूप से यह रजःकृच्छ, रजोरोध वा। पर्यन्त सेवन कराते हैं। अर्श में इसकी जड़ का, बिलम्बित रज में सेव्य है । अधिक मात्रा में सेवन कल्क लेप करते हैं । इसको समग्र वेल, दालचीनी करने से यह गर्भस्राव कराती है । कष्टप्रद हस्त- पीपर, चावल ओर तुवरक तैल द्वारा प्रस्तुत अनुपाद शोथ में इसे पानी में पीसकर प्रलेप करते हैं लेपन, चर्मरोग विशेष (Psora), कण्डू, दुष्ट ऊनी शाल वा पश्मीने के वस्त्र प्रभृति के वस्त्र को क्षत (Malignant ulcers) तथा अन्य कीड़ों से सुरक्षित रखने के लिये उसके ऊपर इसके चर्मरोगों में उपकारी सिद्ध होता है । मुखपाक में दाने छिड़क देते हैं। (भा० २ पृ०१७) एक चम्मच भर करेले के फल का रस थोड़ी खड़ी __ डोमक-करेले के फल और पत्ते कृमिघ्न रूप मिट्टी और चीनी मिलाकर दिया जाता है। से व्यवहार किये जाते हैं । कुष्ठ में इनका वहिर कष्टरज (Dysmanohrroea) में प्रात्तंवरजः प्रयोग होता है। पैत्तिक रोगों में वमन और सावकारी रूप से भी यह उपादेय है। सिर की विरेचनार्थ श्राध-पाव करेले को पत्ती का रस सपूय छोटी छोटो फुन्सियों में इसका सिर पर लेप अकेला वा सुगंध द्रव्यों के योग से दिया जाता है करते हैं तथा दग्ध एवं विस्फोटादि में इसका वाह्य पादतल दाह में इसकी पत्ती का रस मर्दन किया प्रयोग करते हैं । कुष्ठ एवं अन्य संक्रमणशील क्षतों जाता है और राज्यन्ध में उसमें कालीमिर्च घिस- (Intractable ulcers) पर इसकी कर अक्षिगुहा के चतुर्दिक पालेप करते हैं। समप्र लता के चूर्ण का अवचूर्णन करते हैं। (फा०६० २ भ. पृ० ७८-६) (ई० मे० मे० पृ० ५५८-६) नादकर्णी-प्रभाव-करेला (फल) बल्य, इसको जड़ सकोचक और रकाश को दूर करने जठराग्नि दीपक (Stomachic ), उत्तेजक, वाली है। पित्तनाशक, मृदुसारक ( Laxative) और ___ गोल्ड कोस्ट में यह संभोग शक्ति वर्द्धक माना रसायन है। फजमजा, पत्रस्वरस और बीज कृमिघ्न जाता है और अधिक मात्रा में सूजाक की बीमारी (in lumbrici) है। एत्र स्तन्यवर्द्धक में लाभकारी ख्याल किया जाता है। . प्रभाव करता है। जड़ संग्राही है। __चोपरा के मतानुसार यह वमनकारक ओर विरेप्रायिक प्रयोग-फल रुचिदायक होता है, चक है। यह सर्पदंशमें भी उपकारी स्वीकार किया अतएव इसकी तरकारी खाई जाती है। वातरक जाता है। (Gout), आमवात एवं यकृत और प्लीहा के कायस और महस्कर के मतानुसार सर्प विष में रोगों में इसका फल उपकारी होता है। यह रक्क यह सर्वथा निरर्थक है। विकारनाशक, मालोखोलिया प्रशमक और विकृत वनज कारवेल्ल (वन करैला) दोष (Giosshumours ) संशोधक माना ( Momordica Balsamina, Linn ) जाता है। शिशुओं को मृदु कोष्ठपरिष्कारक रूप से यह तिक,शीतल, लघु,काष्ठमृदुकर (मुलय्यन) इसकी ताजी पत्तियों का स्वरस व्यवहार्य होता है, पित्तनाशक, रनहर तथा वात कफ नाशक है । यह किन्तु यह निरापद नहीं है । कुष्ठ, अर्श, कामला शरीर की पीतवर्णता, वादी, कामला और प्रमेह प्रभृति में करेले का फल और पत्ती दोनों आभ्यं. (शुक्रमेह) का निवारण करता है। उदर कृमि तरिक रूप से व्यवहार किये जाते हैं। बालकों नाशक है (ता. श०)। यह विषघ्न भी है, इसकी के उलश में करेले की पत्ती का स्वरस प्राधा जड़ अर्श एवं मलावरोध का नाश करती है। इससे तोला थोड़ा हरिद्वा चूर्ण के साथ व्यवहार किया ज्वर छूटता है। दोनों प्रकार के करेलों का उसारा जाता है । यह कै लाकर श्रआमाशय का परिष्कार बालकों के डब्बा को लाभकारी है। यदि इसके करता है। शिशुओं के यकृत रोगों में करेले के पत्तों और फल के उसारे को सुखाकर तीन तीन पत्तों का स्वरस, गोरख इमलीके पत्तों का रस, पके माशे की गोलियाँ प्रस्तुत कर लेवें। फिर गोदुग्ध पान के पत्तों का रस और जामुन की ताजी छाल पान करके ऊपर से एक गोली निगल लेवें। 'का रस एकत्र मिलाकर इसमें बच घिसकर सप्ताह इसके बाद थोड़ा मधु चाट लेवें तो इससे Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करोंटा करेला २२६१ • मैथुन शक्रि और स्तम्भन शनि वर्द्धित हो जाती | फलहै। उन दोनों प्रकार के करेले (बाड़ी एवं जंगली) हिमं भेदि लुघुस्तिक्त प्रवातलं पित्त रक्त एतद्गुण विशिष्ट होते हैं । ख. अ.। कामला पाण्डु कफमेह कृमिघ्नम्। (मद०) करेला (उच्छे) गाछ-[बं०] करेला। करेली का फल-शीतल, दस्तावर, हलका, करेला तोरिया-संज्ञा स्त्री० [ देश० ] कड़वी तरोई । कड़वा, पित्तनाशक, रनविकारनाशक तथा कामला तिक कोषातको । घोषा:लता । पाण्ड, कफ, प्रमेह और कृमि इनको नष्ट करने करेलिया-[ देश] हुलहुल । सफेद हुलहुल । वाला है और वातकारक नहीं है। करेली-संज्ञा स्त्री० [हिं० करेला, सं० कारवेल्ली] जंगली कारवल्ली स्याद्विशेषाद्दीपनी लघुः। (भा०) करेला जिसके फल बहुत छोटे छोटे और कड़ए करेली विशेषकर दीपन और हलकी है। मदनपाल में इसे कामलानी तथा केयदेव करेली-संज्ञा स्त्री० [हिं० करेला छोटा करेला जिसके में वातहारक लिखा है। यह अवृष्य, रक्रपित्त फल बहुत छोटे छोटे और कड़ ए होते हैं। ये नाशक, कृमि, पांडु तथा वणनाराक ओर काप्त करेले से छोटे गोलांडाकार होते हैं। श्वास, प्रमेह, कुष्ठ, अध्म भोर ज्वर नाश करने पर्या–कारका (कारली ), कारवल्ली, चीरि वाली है। पत्रः, कारिखका, सूक्ष्मवल्ली, कण्टफला, पीतपुष्पा, | करेल्लु, कारल्ल-[ मरा०] तिल तिल्ली । अम्बुबल्लिका । (ध. नि०) कारवेली (भा०) करेवर-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] शिलारस । तुरुष्क । मण्डपी चिरितच्छदा (नि०शि०) सुकुमारी, | करेश लांगएिण-[ता. ] मैंगरा । भैंगरैया। . सुषवी, तोयबलफला, अखिली (के० दे०), कर अम्कौले गिडा-[ कना०] काला ढेरा । . करिन, कारवेल्लं (द्रव्य० नि०) फलास्मिका, करैत-संज्ञा पु० [हिं० कारा, काला ] काला फनदार राजवल्ली (गण. नि०) शुद्रकारवेल्लक, मुद्रकार- साँप जो बहुत विषैला होता है। वेल-सं० । करेली, छोटा करेला-हिं० । छोटा | करैर का तेल-संज्ञा पु० करैल का तेल । करला. उच्छे. छोट उच्छे-बं० । मोमोर्डिका म्यरि | करैल-संज्ञा स्त्री० [हिं० कारा, काला] (१) एक केटा Momordica muricata,-ले। प्रकार की काली मिट्टी जो प्रायः तालों के किनारे काकरकाया-तेलघु कारली, शुद्रकारली-मरा० । मिलती है। (२) वह जमीन जहाँ की मिट्टी कड़वा वेला-गु० । हागल-कना । काकरकाया करैल वा काली हो। संज्ञा पुं॰ [सं० करीर] (१) बाँस का नरम कल्ला । (२) डोम कौश्रा।। (N. 0. Cucurbitacece.) [बं०] Dendrocal mus strictउत्पत्ति स्थान-समस्त भारतबर्ष । us, Nees. गुणधर्म तथा प्रयोग करैला-संज्ञा पुं० दे० "करेला"। आयुर्वेदीय मतानुसार करैली-संज्ञा स्त्री० (१) कचिला मिट्टी। दे० कारवल्ली सुतिक्तोष्णा दीपनी कफवातजित् ।। ____ "करेली" . करैलो-[ गु० ] करेला। अरोचकहरा चैवं रक्तदोषकरी च सा" ॥ (रा. नि.) करैली मिट्टी-संज्ञा स्त्री० दे० "करैल" । अवृष्या रुच्या कफपित्तघ्नी च । (राज.) | करो-[?] ककरोहन । पथुप्रा । (२) सफ़ेद सिरस करेली-कड़वी, गरम, दीपन, कफ एवं वात | (३) गुटगुटी । पटोल । परवर । नाशक, अरुचि को दूर करनेवाली और रक्तविकार | करोंझा-[ मरा०] अजमोदा । राँधनी । उत्पन्न करती है। करोंटा-[ मरा०] बड़ा गोखरू । ते । कुष्माण्ड वर्ग Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैरीद करोद-[ फ़्रा० ] दे० 'करूद” । करोदा -संज्ञा पु ं० दे० " करौंदा " । करोद्वेजन - संज्ञा पुं० [सं० पुं०] काला सरसों । कृष्ण सपंप | वै० निघ० । करोनी - संज्ञा स्त्री० [हिं० करोना ] पके हुए दूध वा दही का वह श्रंश जो बरतन में चिपका रह जाता है और खुरचने से निकलता है। खुरचन नाम की मिठाई | १२६२ करोनी - संज्ञा स्त्री० [देश० चुनार ] एक क्षुप जो प्राय: २-४ फुट ऊँचा होता है और गंगा आदि नदियों के कूलों पर एवं आर्द्र भूमि में बहुतायत से पाया जाता है। करोनी गरमी में सुख मानती है । अतएव ज्येष्ठ वैसाख में यह प्रचुर मात्रा में एवं खूब हरी भरी देखने में आती है और यही इसके फूलने फलने का भी समय है । इसका कांड सीधा, कर्कश ( Scabnous ) और गहरे रंग के धब्बों से व्याप्त होता है । शाखायें प्रायः टेढ़ी चलती हैं। और उन पर भी बैगनी रंग के धब्बे हग्गोचर होते हैं । पत्ते एकांतर, सवृन्त, हृदयाकार वा वृक्काकार, कटावयुक्त, त्रिशिरायुक्त, तरंगायित, कर्कश, लगभग ४ इंच व्यास के और देखने में ककड़ी के पत्ते की तरह मालूम पड़ते हैं । वृन्त गोल, कर्कश और पत्रवत् दीर्घ होता है, पत्तियों के ऊपर हलके बैगनी रंग की रेखायें होती हैं और उन पर बैगनी धब्वे भी होते हैं | फूल शाखांत पर वा ऊपर के कक्षों में श्राते हैं। इनमें नर पुष्प गुच्छ क्षुद्र वृंतयुक्त और नारी पुष्प प्रायः वृंतशून्य एवं एकांतिक होते हैं । फल ऊर्ध्व अंडाकार 1⁄2 इंच लंबा और तीक्ष्ण एवं दढ़ कंटकावृत तथा द्विकोषयुक्त होता है । प्रत्येक कोष में कड़े अन्तः त्वक् के भीतर एक बीज होता है। इसके फलको तोता इसकी छाँह में बैठ कर कुतरा करता है । फलं गुच्छों में लगते हैं। सूखने पर फल श्रोर काँटा बहुत चिमटा हो जाते हैं । इसकी जड़ पृथ्वी में टेढ़ी घुसी हुई होती है । पर्या० -अरिष्ट ! ( इं० मे० प्रा० ), शंख पुथ्वी ! शांखिनी ! ( डीमक ) - सं० । 0 अन्वर्थ देशी गुणप्रकाशिका संज्ञाएँ कुथिया, रुहेला, ( इटावा ), करोनी, aa ( चुनार, काशी ) किरकिचिया, करोनी (इटावा); शंखाली ? (डी०), छोटा गोखरू ! ( इं० मे० लां०, इं० डू० ई० - हिं० । शङ्केश्वर-बम्ब०, मरा० । बोन श्रोकरा बं० । गोखरू कलाँ १ –पं०, सिंध | मरलु भट्ट, ता० । वे रितेल नेप-ते०। कंडवलमर-कना ० । हसक, हमज़लू अमीर श्रु० । खारे हसक - फ्रा० । ख़ारे सूहूक- ( शीराज़ ) । हरद - ( इसफहान ) । Xanthium Stru marium, Linn; X. Indicum, Roxb. -ले० । ब्राड लीह बर-वीड Broad leaved Bur weed -श्रं० । लैम्पार्डी Lampourde-io | Spitzklette - जर० । वक्तव्य उपर्युक्र कुथिया और रुहेला संज्ञाएँ इसके Singer वा रोहुआ आदि नेत्ररोगों में व्यवहृत एवं उपकारी होने की श्रोर संकेत करती है । 'हरद' संज्ञा से यह ज्ञात होता है, कि 'इससे हरिद्रावत् रंग प्राप्त होता है, जिसका उल्लेख दीसकूरीदूस यूनानी ने भी किया है। इसके लेटिन नाम से भी यही निष्कर्ष निकलता है। लेटिन 'ष्ट्र मेरियम' संज्ञा से इसका कंठमाला में उपकारी होना सिद्ध होता है। यह ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता कि श्रायुर्वेद में उक्त वनस्पति का उल्लेख श्राया है वा नहीं और यदि उल्लेख श्राया है तो किंस नाम से आया है । इसकी डीमक द्वारा दी हुई " शांखिनी" एवं "शंखपुष्पी" प्रभृति संस्कृत संज्ञाएँ अभी निर्विवाद नहीं कही जा सकतीं । हकीमों के चिकित्सा ग्रंथों में उल्लिखित 'खारेसुहूक' वा 'हसक' प्रभृति संज्ञाएँ इसी वनस्पति की हैं, ऐसा निश्चित होता है । यूनानी हकीम दीसकूरीदूसने उक्त वनस्पति का विशदवर्णने अपने ग्रंथ में किया है। भारतीय श्रोषधियों के सम्बन्ध में लिखे हुये श्रांग्ल भाषा के ग्रंथों में से फार्माकोग्राफिया इंडिका, इंडियन मेडिसिनल प्लांट्स, इंडियन मेटीरिया मेडिका और इंडिजिनस ड्रग्स आफ इंडिया प्रभृति ग्रंथों इसका सविस्तरोल्लेख मिलता है। में Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहोनी .२२६३ आयुर्वेदीय ग्रंथों में इसका पता न होने पर भी, यहाँ की देहाती एवं जंगली जनता इससे भलीभाँति परिचित है, ऐसा प्रतीत होता है। देहाती लोग इसके विविध अंगों का नाना रोगों में सफल प्रयोग करते हैं। उनके प्रयोगों को बड़े परिश्रम के साथ संग्रह करके और उन रोगों में बार-बार उनकी परीक्षा करने के उपरान्त उपयोगी सिद्ध होने पर मैंने उन्हें यहाँ देने का साहस किया है। सेवती वर्ग (N. 0. Compositae.) उत्पत्तिस्थान-लंका और भारत के समस्त | उष्णप्रधान प्रदेश (साधारणतः घरों के समीप) और पश्चिम हिमालय पर ५००० फुट की ऊँचाई तक एवं युक्रप्रांत के चुनार, काशी, इटावा आदि • प्रदेश और यूरोप के जर्मनी और रुस आदि प्रदेश में यह प्रचुरता के साथ उपजती है। रासायनिक संघटन-फल में ३८०६०/ वसा, ५०२०/० भस्म, ३६०६% एल्ब्युमिनाइड्स तथा शर्करा, रात, सैन्द्रियकअम्ल (OxalicAcid) और डेटिसिन (Datiscin) से सम्बन्धित जैन्थोष्ट्रमेरीन (Xantho strumarin) नामक एक ग्ल्युकोसाइड आदि घटक पाये। जाते हैं। औषधार्थ व्यवहार-क्वाथ, चूर्ण, वटी द्रव, प्रभृति । गुणधर्म तथा उपयोग द्रव्यगुण शास्त्र के मुसलमान लेखकों ने हसक' शब्द के अंतर्गत यह लिखा है-"हसक अर्बुद में उपकारी" नेत्रा भिष्यंद निवारक तथा वृक्क एवं मूत्र रोगों में मूत्रल रूप से उपकारी है और शूल रोगों में भी लाभकारी है। इसे कामोद्दीपक भी बतलाया जाता है। __ हिन्दू लोग इसके समग्र चुप को अत्यन्त स्वेदक शांतिदायक और चिरकालानुबंधी विषम ज्वरों में बहुत गुणकारी मानते हैं । प्रायः इसका काढ़ा व्यवहार किया जाता है । (सखाराम अर्जुन) - लारीरो (Loureiro) के कथनानुसार इसके बीज दोषों को तरलीभूत करते और प्रदाह जन्य शोथों को विलीन करते हैं। अमेरिका और । श्राष्ट्रलिया में यह देखा गया है कि यह चरने वाले पशुओं और शूकरादि के लिये घातक सिद्ध हुई है। उक्त औषधि विषया नव्य परिशोधों से यह ज्ञात हुआ है कि, 'जेबोरॅडी' की भाँति यह स्वेदकारक, लाला सावकारी और किंचित् मूत्रकारी है। इसकी सूखी पत्तो की मात्रा ५ रत्ती है। जर्मनी के कुछ भागों में यह प्रायः जूड़ी बुखार (Agne) की औषधि रूप से प्रख्यात है रूस में यह जल-संत्रास रोग प्रतिषेधक मानी जाती है। पंजाब में इसे मसूररिका रोग में (Smellpox )में व्यवहृत करते हैं (Stewart) फा० इं०२ भा०। ___ बेडेन पावेल ( Mr. Baden powell) के कथनानुसार इसकी जद तिक वल्य और कर्कट (Caucer ) एवं गलगंड श्रादि रोगों (Stu mous diseases) में उपकारी है। इसका कटोलाफल शीतल और स्निग्धगुण विशिष्ट स्वीकार किया जाता है तथा इसे मसूरिका रोग में देते हैं। (Stewart) दक्षिण भारत में अर्भावभेदक रोगोपशमनार्थ इसके कँटीले फल को कान में लगाते हैं । अथवा इसके फल के गुच्छे को कान की बाली में लटकाते हैं। __ यह उत्तम मूत्रल और मूत्ररोगों में परमोपकारी है। इससे मूत्राशयगत क्षोभ कम हो जाता है। ___ पुरातन सूजाक (Gleet ) और श्वेतप्रदर में इसका शीतकषाय वा चूर्ण उपकारी होता है। रक्रप्रदर में भी इसका उपयोग किया जाता है । - (वैट) इसके फल किंचित् (Narcotic) होते हैं । (वैट) करोनीके कतिपय ग्रामीण एवं स्वकृत परीक्षित प्रयोग (१) इसकी हरी पत्ती । तो० और कालीमिर्च २-३ दाने मिलाकर जल के साथ पीसकर प्रातःकाल पीने से रनार्श दूर होता है। - (२) इसकी पत्ती अथवा पंचांग लेकर बारीक पीस लें। इसे पकाकर फोड़े पर बाँधने से वे बैठ जाते हैं। Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करोई २२६४ करोया (३) फल को जल के साथ घिसकर अंजन करोटनिस ऑलियम्-ले० Crotonis oleum), करने से आँखों का रोहा नष्ट होता है। जमालगोटे का तेल । रोगन जमालगोटा । जयपाल (४) इसके सूखे कँटीले फलों को लेकर जौ ' तेल । के साथ प्रोखली में छाँटे । जब उनके ऊपर के करोटि-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] खोपड़ी। शिरोस्थि । काँटे दूर हो जाये तब उनको (कंटक शून्य फल) करोटियो- गु.] Cardiospermum haliपानी में डाल देवें मुलायम होने पर इन्हें सूत में caca bum. Linn. हब्बुल कुलकुल । पिरोकर माला बना रोहाक्रांत शिशुओं के गले में कारवी । लताफटकरी। धारण कराने से उनके आँखों के रोहे सूख करोटिका, करोटी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] खोपड़ी। जाते हैं। शिरोऽस्थि । खोपड़ी की हड्डी । करोटि । (५) रोहे का स्वकृत उत्कृष्ट प्रयोग- | करोटिगुहा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (Cranial करोनी का फल १ तो०, कपूर १ मा०, रस- cavity ) अ० शा० । कपूर २ रत्ती, छोटी इलायची के दाने २ मा", | करोटी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] खोपड़ी। Craहलदी २ मा०, सोये के बीज १ मा०-इनको rium. बारीक चूर्ण कर गुलाबजल में खूब मर्दन कर करोटि- जर• Karotti] गाजर । टिकियाँ बना लेवें । आवश्यकतानुसार १ टिकिया | करोट्रि कल्टिवी-Eio Carotte Cultive] लेकर गुलाबजल में घिसकर आँख में अंजन करें। गाजर। दिन में केवल २-३ बार के प्रयोग से दो-तीन | करोट्यल्लोच-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] ( Epicraदिन में ही बिना किसी तकलीफ के रोहे माराम ___nial aponeurosis.) अशा । हो जाते हैं । और रोगी सुखानुभव करता है। करोड़ कंद-संज्ञा पुं० [हिं० करोड़-करोटि सं० कंद] करोई-संज्ञा स्त्री० [ देश०, बम्ब० ] Strobilan ___ सूरन । thes callosus, Nees. करवी। मरो- करोडिओ-[ गु०] करोटियो । कानफटा । कानफुटी । दना। ___ कर्णस्फोटा । पारावतपदी। करोकस, करोलस, करोनस, कर्फियूनूस-[ यू०] | करतनः-[फा०] दे॰ “करूतनः" । केसर । जाफरान । करोत्तम-संज्ञा पुं० [सं० पु. ] मद्यमण्ड । करोकुरना-[१] मेंहदी का फूल । करोट-संज्ञा पुं० [सं० पु.] [ स्त्री० करोटी ] करोत्तानिनी पेशी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] हाथ को खोपड़े की हड्डी । खोपड़ा। रा०नि० व. १८। चित करने वाली एक पेशी । ( Supinator Cranium. muscle)प्र. शा० । अ० शा० । करोटक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] एक प्रकार का | करोदक-संज्ञा पुं॰ [सं० वी०] हाथ में रखा या पदा साँप । हुमा पानी । हस्त मृत जल । कराटन-संज्ञा पु० [अं० क्रोटन Croton] (1) | करोफ़स-[यू०] अखरोट । वनस्पतियों की एक जाति जिसके अंतर्गत अनेक | करोभक-[१] सफ़ेद कलवा । वृक्ष और पौधे होते हैं । इस जाति के सभी पौधों | | करोमान:-अ.] में मंजरी लगती है और फलों में तीन या छः बीज | निकलते हैं । इस जाति के कई पेड़ औषधि के | करोमोंगा- ते०] कमरख । कर्मरंग । काम में भी आते हैं। रेंडी और जमालगोटा इसी | करोय:-[फा०, द..] करोया । जाति के पेड़ हैं । (२) एक प्रकार के पौधे जो | करोया-संज्ञा पुं॰ [मुश्र०] एक प्रकार का स्यार अपने रङ्ग बिरंग और बिलक्षण आकार के पत्तों के जीरा | कृष्णजीरक भेद । विलायती काला जीरा । लिए लगाए जाते हैं। दे. "कुरोया"। Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करोरकंद २२६५ परद-[देश॰] सूरन । करोरा-[सिरि०] () मोती की सीपी । (२) भूतांकुश। करोरागुमड़ी-[?] कद्दू । करोल, करोलियून-[यू० करबालियून का मु०] (१)मूगा । मरजान । (२) मूगे की जड़ । बुस्सद। करोला-संज्ञा पुं० भानू । रीछ । -डिं० । करौंजी-संज्ञा स्त्री० [सं० कालाजाजी ] कलौंजी । मंगरैला । करौंदा-संज्ञा पुं० [सं० करम':, पा० करमइ, पु. हिं. करबद] पर्या-करमर्दक, प्राविग्नं, सुषेणं, पाणि. मदक, कराम्लं, करमई, कृष्णपाक फलं, (ध० नि०), करमर्दः, सुषेणः, कराम्लः, करमर्दकः, प्राविग्नः, पाणिमदः, कृष्णपाकफलः (रा०नि०) धनेषुद्रा, अबिग्न, करामई, कृष्णपाक, पाकफल, कृष्यफल, पाककृष्ण, फल, कृष्णाफलपाक, पाक कृष्ण, फल कृष्ण, वनालय, वनालक, कणचूक, बोल, बश, कराम्लक, कण्टकी, अविघ्न, सुपुष्प, रदकण्टक, जातिपुष्प, क्षीरफल, डिडिम्, गुच्छी, क्षीरी, बहुदल (शा० नि• भू०) करमई:, करमहकः, करमईका, करांबुक -सं० । करौंदा, करोंदा, तिमुखिया, करोना, गरिंगा, गोठो -हिं० । बैंची, तैर, करमिया, करंजा करमचा- -बं० । कैरिसा कैरण्डास Carissa Carandas; Linn कैपेरिस कोरण्डास Capparis Corundas -ले० । बेंगाल करंट्स Bengal Currants -अं० । कलक, पेरिङ कलक (-प) फलम् -ता। पेद्दकलिवि-पण्डु, कलिवि-काय, वोक-ते। कोरिडा, करेकाय, हग्गजिंगे -कना० । करवन्दे, करिजिगे -मराठ, कना० तिमुखिया, करम्दा, करमदा, करौंदो, करंदो, करमई, तिबर्रन -गु० । कलक -मद०। तिमुखिया -मरा० । उ०प० प्रा० । गोठो-म०प्र०। करिंदा, करांदा, करवंद -बम्ब० । करवंदा, कोरंदा -मरा । कंदा करी, केरेंदो, कुली -उड़ि०। । फा०६४ शतावरी वर्ग (N. 0. Apocynaceae. ) उत्पत्ति स्थान-करौंदे के वृक्ष हिंदुस्तान के अनेक भागों में विशेषतः बंगाल एवं दक्षिण में श्राप से श्राप उगते हैं। पंजाब और गुजरात में इसे बाड़ों के ऊपर लगाते हैं । यह कांगड़ा और कच्छ के जंगलों में भी होता है। सारांश बह सर्वत्र भारतवर्ष में शुष्क, बलुई, एवं पथरीली भूमि में उपजता है। ___ वानस्पतिक षणेन–एक बड़ा कंटीला झाड़, जिसकी पत्तियाँ नीबू की तरह की, पर छोटी २ होती हैं । पत्तियाँ क्षुद्र वृत युक्त ( Subsessile) | इच से ३ इञ्च तक लम्बी और १ से १॥ इञ्च तक चौड़ी, आधार की ओर वृत्ताकार वा ( Retuse ) और रोमश कुठितान होती हैं। प्रकांड ३-४ फुट ऊँचा और घेरा दो फुट होता है। इसमें द्विविभक्त, परिविस्तृत, अनेक दृढ़ शाखाएँ होती हैं । प्रत्येक प्रकोण वा ग्रंथि (Node) पर, कभी-कभी १ से २ इन्च तक दीर्घ सामान्य वा ( Forked ) युग्म कंटक होते हैं । डालियों को छीलने से एक प्रकार का लासा निकलता है । लघु शाखायें कुछ लाल भूरे रंग की साफ़ और काँटेदार होती हैं। इसकी छाल श्राध इञ्च मोटी भूरी या सफेद पीले रंग के छींटों से युक्त होती है। इसमें दस से बीस तक फूलों के गुच्छे टहनियों के अंत में लगते हैं। फूल जूही की तरह के सफेद होते हैं। जिनमें भीनी-भीनी गंध होती है। खिलने के उपरांत इसकी पंखड़ियों के बाहरी सिरों पर ऊपर से लाल झाँई रहती है और भीतर लंबे-लंबे रक्त वर्ण के तन्तु होते हैं । दूर से फूल का रंग सफेद ही नजर आता है । इसलिए सफेद लिखते हैं । पूस से चैत तक इसमें फूल लगते हैं और बरसात में फल आते हैं । वर्षान्त में ये फल परिपक्क होते हैं फल आध इञ्च से १ इञ्च तक दीर्घ छोटे बेर के बराबर ( Ellipsoid) और बहुत सुन्दर होते हैं। प्रथम ये हरित वर्ण के, फिर लाल और अंत में काले पड़ जाते हैं । ये मसृण होते हैं। जिनमें चार वा तदधिक बीज होते हैं। रंग के Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करौंदा - करौंदा २२६६ विचार से करौंदा तीन प्रकार का होता है। रक्त, करम पिपासान मम्लं रुच्यं च पित्तकृत् ।। श्वेत और कृष्ण । एक सफेद नोकों पर लाली (राज.) लिये अत्यन्त मनोहर होता है। दूसरा कच्चा, करौंदा-प्यास को दूर करनेवाला, खट्टा, हरा अाधा लाल और पकने पर काला पड़ जाता रुचिकारी, और पित्तकारक है। है। कच्चे पर इनका कुछ भाग खूब सफ़ेद और करमर्द फलञ्चामं तिक्तञ्चाग्नि प्रदीपकं । कुछ हलका और गहरा गुलाबी होता है। रासायनिक संघटन-इसकी जड़ में एक गुरु पित्तकरं ग्राहि चाम्लमुष्णं रुचिप्रदं । स्थिर तैल, उड़नशील तैल, एक पीताभ श्याम रक्तपित्तं कफश्चैव वद्धयेत्तृड् विनाशकम् । वर्ण का राल, और एक क्षारोद होता है। तत्पकं मधुरं रुच्यं लघुशीतञ्च पित्तहं ॥ औषधार्थ ब्यवहार-वल्कल, पत्र, फल रक्तपित्तं त्रिदोषञ्च विषं वातञ्चनाशयेत् । इत्यादि। तच्छुष्कं पक्क सदृशं गुणैज्ञेयं विचक्षणैः ॥ औषध- निर्माण-फल का शर्बत । मात्रा-१ से २ ड्राम। अत्यम्लस्य गुणाश्च व ज्ञेया आमकरम्लवत् । फल-स्वरस, मात्रा-३० से १० बूद। (वै० निघ०) पत्र-काथ मात्रा-१ से २ पाउन्स। दोनों प्रकार के कच्चे करौंदे कड़वे, अग्नि गुण-धर्म तथा प्रयोग प्रदीपक, भारी, पित्तकारक, ग्राही–मलरोधक, आयुर्वदीय मतानुसार खट्ट, गरम, रुचि प्रद, रक्तपित्तकारक, कफजनक, अम्लं तृष्णापहं रुच्यं पित्तकृत्करमर्दकम् ।। और तृषानाशक है। वही ( दोनों प्रकार के) पक्कं च मधुरं शीतं रक्तपित्तहरं मतम् ।। पके हुये करौंदे मधुर, रुचिकारी, हलके, शीतल तथा पित्त, रक्तपित्त, त्रिदोष, विष और वायुनाशक (ध०नि० ५ व०) हैं । सूखे करौंदे के गुण पके करौंदे के समान और . कच्चा करौंदा-पिपासाहर, रुचिकारक और अम्ल करौंदे के गुण कच्चे के समान जानना पित्तकारक है और पका करौंदा मधुर, शीतल चाहिये। और रक्तपित्त नाशक है। करमईफलं चामम्लं पित्त कफ प्रदम् । करमर्दः सतिक्ताम्लो बालो दीपनदाहकः । भेदनं चोष्णवीयं च वातप्रशमनं गुरुः॥ . पक्कत्रिदोष शमनोऽरुचिघ्नो विषनाशनः ।। (रा०नि० ११ व०) पक्कं वुक्केऽल्पपित्ते च तन्मूलं कृमिनुत्सरम् । बाल-कच्चा करौंदा तिक. अम्ल, दीपन और (शो० नि०) दाहक है। पका करौंदा त्रिदोष नाशक, अरुचि, कच्चा करौंदा-खट्टा, पित्तजनक, कफकारक, नाशक और विष नाशक है। भेदक, उष्णवीर्य, वातनिवारक, और भारी है। करमर्दद्वयं त्वाममम्लं गुरु तृषापहम् । पका करौंदा पित्तनाशक है। इसकी जड़ कृमि उष्णं रुचिकर प्रोक्तं रक्तपित्त कफ प्रदम् ॥ नाशक ओर सर-दस्तावर है। तत्पकं मधुरं रुच्यं लघु पित्त समीरजित् । सुश्रुत के अनुसार यह रक्तपित्तनाशक, शुक्र (भा०) दोषनाशक, सर्व प्रमेहनाशक और शोथन है। . दोनों प्रकार के करौंदे ( करौंदा, करौंदी) यूनानी मतानुसार अपक्क दशा में अर्थात् कच्चे खट्टे, भारी, तृषा प्रकृति-शीतल और तर । किसी २ के मत . नाशक, गरम, रुचिकारी हैं । तथा रक्त पित्तकारक से शीतल एवं रूक्ष तथा किसी के मत से उष्ण एवं कफकारक हैं। पके हुये मीठे, रुचिकारी, है। वैद्यों के समीप अपक्व उष्ण और पक्क .. हलके तथा पित्त एवं वायुनाशक हैं।' शीतल है। Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करौंदा २२६७ करौंदा हानिकर्ता-यह श्राध्मानकारक, दीर्घपाको एवं कफकारक है । फुफ्फुस एवं वीर्य तथा रकातिसारी को हानिकर है। दपघ्न-लवण, गुड़, तथा श्राद्भक । किसी किसो ने लवण, शर्करा और कालीमिर्च लिखा है (बु. मु०): गुण, क्रम, प्रयोग-पका करौंदा भूख बढ़ाता है, पित्त की उग्रता का निवारण करता, प्यास बुझाता और अतिसार विशेषत: पित्तातिसार को बहुत लाभ पहुंचाता है । कच्चा करौंदा गुरु ओर आध्मानकारक है। यह पेट को गुग कर देता ओर अाम श्लेष्मा उत्पन्न करता है। -(बु० मु०) इसका अचार, पाचक है । एवं यह क्षुधा की वृद्धि करता है। परन्तु यह बाह को निर्बल करता, कामावसाय उत्पन्न करता है। जंगली करौंदे के पत्ते ६ माशा, (युवा पुरुष को १ तोला तक) पीसकर दही के तोड़ के साथ पिलायें। इसी प्रकार तीन दिन तक दें। इससे सदा के लिए मृगी रोग बिलकुल जाता रहता है। (ख० अ०) - ज़खीरहे अकबरशाही के अनुसार इसकी खासि यत अंगूर और फ्रालसे के समीप है। यह हलका और मधुर है तथा वायु एवं पित्त का नाश करता है। खट-मिट्ठा भूख लगाता है और वायु, पित्त कफ इन तीनों दोषों एवं कफ वमन और उदरशूल का निवारण करता है। बुस्तान मुफ़ रिदात के अनुसार यह ज्वरांशहर और दीर्घपाकी है । सूखे करौंदे को तर कर सेवन करने से भी इसमें पूर्वान गुण पाये जाते हैं। भारतनिवासी इसका अचार और मुरब्बा बनाते हैं और खटाई की जगह कतिपय आहारों में भी इसे सम्मिलित करते हैं। इसका मुरब्बा हृदय उल्लास कारी है तथा इसका अचार श्राहार पाचक एवं तुत्कारक है, इसकी अधिकता रात को हानिकारक है। वैद्यों के अनुसार कच्चा करौंदा भारी एवं ग्राही है तथा यह कफ की वृद्धि करता है । पका करौंदा सुबुक है एवं भूख बढ़ाता और वायु एवं | पित्त का नाश करता है। यदि सूखे करौंदे को | जल में भिगोयें, तो उसमें कच्चे करौंदे की खासि यत पैदा हो जाती है। कतिपय वैद्यों के निकट पक्कापक्क दोनों भारी हैं और यदि गरमी से बूंदबूंद पेशाब आनेका रोग हो, तो उसे दूर करते हैं और पित्त का उत्सर्ग करते हैं | कच्चा खाँसी, वायु एवं कफ उत्पन्न करता और बुद्धि को दीप्त करता है । पके फल कम हानिप्रद होते हैं । इसके चूर्ण की फंको देने से उदर शूल निवृत्त होता है। इसका लेप करने से मक्खियाँ नहीं बैठती। इसको चटनी वा तरकारी पकाकर खाने से मसूढ़ों के रोग श्राराम होते हैं । इसके कच्चे फल का रस लगाने से शरीर की खाल में चिमचिमाहट लग जाती है और कभी कभी छाले हो जाते हैं। सतत ज्वर में इसके पत्तों का क्वाथ अत्यंत गुण कारी है। इसके पत्तों के रस में मधु मिला पिलाने से शुष्क कास मिटता है। पहले दिन प्रातः काल एक तोला इसके पत्तों का रस पिलार्दै तदुपरांत १-१ तोला स्वरस प्रति दिन बढ़ाते हुए १० तोले तक बढ़ा देवें । इस प्रकार सदैव प्रातः काल पिलाने से जलोदर नष्ट होता है। पत्ते पित्त उत्पन्न करते हैं । इसके वृक्ष की छाल मूत्रल है। करौंदे के बीजों का तेल मर्दन करना हाथ, पाँव के फटने को लाभकारी है। -ख. श्र। डीमक-- नव्य मतानुसार-स्कर्वीहर (Antiscor butic) एवं अम्ल गुण के कारण देशवासी एवं यूरोप निवासी दोनों इसके फल को प्रायः उपयोग करते है । इसके कच्चे फल का उत्तम मुरब्बा ( Pickle) बनता है और पकने पर यह उत्कृष्ट अम्ल फल है । यूरोपीय लोग इसकी जेली भी प्रस्तुत करते हैं, जो सर्वथा लाल किशमिश (Redcurranf ) द्वारा निर्मित जेलीवत् होती है। उड़ीसा में ज्वर-विकार के प्रारंभ होते ही इसकी पत्तियों का काढ़ा बहुत काम में आता है । इसकी जड़ चरपरी एवं कुछकुछ कडुई होती है और इसे नीबू के रस एवं कपूर में फेंट कर खाज पर लगाते हैं, जिससे खुजली कम होती है और मक्खियाँ नहीं बैठतीं। ___ फा० इं० २ भ० पृ० ४१६-४२० । Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कक्ष नादकर्णी - फल अर्थात् करौंदा श्रामाशय बलप्रद ( Stomachic ), स्कर्वीहर ( An• tiscorbutic) शैत्यजनक ( Refrige rant ) और पाचक है । कच्चा फल संग्राही एवं स्कर्वीहर है, पित्तोल्वणता में शर्करा एवं एला मिलित पक्क करौंदे का स्वरस शैत्यप्रद पेय है और यह पित्तका निवारण करता है । ज्वरों में इसके पतों का काढ़ा शैत्यजनक ( Refrigrant ) है । ई० मे० से० पृ० १६३ ॥ २२६८ करौंदे खट्ट े होते हैं और अचार तथा चटनी के काम में आते हैं। पंजाब में करौंदे के पेड़ से लाख भी निकलती है। फल रंगों में भी पड़ता है । डालियों को छीलने से एक प्रकार का लासा निकलता है । कच्चा फल मलरोधक होता है । और प्रका शीतल, पित्तनाशक और रतशोधक होता । इसकी लकड़ी ईधन के काम में आती है । पर दक्षिण में इसके कंधे और कलछुले भी बनते हैं । करौंदे की झाड़ी टट्टी के लिये भी 1 लगाई जाती है। -हिं० श० सा० । चोपरा के मत से यह शीतादि रोगों को नष्ट करता है। इसमें सैलिसिलिकाम्ल और उपचार पाया जाता है। इसका खटमीठा फल पेशाब की रुकावट को या बूँद-बूँद पेशाब आने की शिकायत को दूर करता है । लगातार आने वाले ज्वर में इसके पत्तों का काढ़ा देने से बहुत उपकार होता है। इसके पत्तों के रस में शहद मिलाकर पिलाने से सूखी खाँसी मिटती है । करौंदा के बीजों का रोगन मलने से हाथ पैर फटने में बड़ा उपकार होता है । ( २ ) करौंदे की एक जाति | छोटा करौंदा करौड़ी । वि० दे० " करौंदी" । ( ३ ) कान के पास की गिलटी । ( ४ ) एक प्रकार का करौंदा जो हुलहुल वर्ग का पौधा है और बंगाल तथा दक्षिण भारत में उत्पन्न होता है । इसमें करमद्दक को अपेक्षा वृहदाकार काले रंग का फूल लगता है जो खाद्य के काम आता है। पका फल अम्ल एवं संग्राही करौंदा ( Astringent ) होता है और श्रामाशय बल-प्रद रूप से उपयोग में आता है । पर्याय : – रद्द - सं० । करमूचा पं० । Capparis Diffusa. - इं० मे० मे० पृ० १६३ | करौंदी - संज्ञा स्त्री० [हिं० करौंदा ] एक छोटी कटीली झाड़ी जो जंगलों में होती है। यह भारतबर्ष के प्रायः सभी स्थानों में होती है। पर बम्बई, बेलगांव, हुगली और पंजाब के शुष्क जंगलों में बहुतायत से होती हैं । इसमें मटर के बराबर छोटे छोटे (करौंदे से छोटे) फल लगते हैं। अस्तु, कहा है"तस्माल्लघुफला या तु खाज्ञेया करमर्दिका " ( भा० ) ये जाड़े के दिनों में पककर खूब काले हो जाते हैं, पकने पर इन फलों का स्वाद मीठा होता है काँगड़े में इसके वृक्ष जब बहुत प्राचीन हो जाते हैं। तब उनकी लकड़ी काली पड़ जाती है । और उसमें सुगंधि भाने लगती है । इसको ऊद यानी अगर के नाम से अधिक मूल्य में विक्रय करते हैं । प० - करमर्द्दिका - ( भा० ). करमर्दी (रत्ना० ) अम्ल फला - सं० । करौंदी, करोंदी - हिं० | लघुकरवंदी - मरा० । केरिस स्पाइमेरम् (Carissa spinarum, A. Dc.) -ले० । शीरफेना । गुणधर्माद करौंदे की तरह । भावप्रकाश में लिखा है"करमदेद्वयं .. ..........।" दे० "करौंदा" । इसके फल की पूड़ियाँ बनाकर खाते हैं। इसकी लकड़ी का काढ़ा पिलाने से पित्त बढ़ता है । इसका दूध के साथ फंकाने से शक्ति प्राप्त होती है । ( ख० अ० ) । इनसाइकलोपीडिया मुंडेरिका के मतानुसार छोटे नागपुर की मुंडा जाति के लोग इसकी जड़ को दूसरी औषधियों के साथ आमवात रोग में व्यवहृत करते हैं। इसकी जड़ पीस्कर कृमि पढ़ें हुये घाव में भरते हैं। विरेचक औषधियों के साथ भी इसका उपयोग किया जाता है। अधिक मात्रा में इसका अंतःप्रयोग कभी नहीं करना Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करौंदिया २२६६ चाहिये। क्योंकि इससे अत्यन्त दस्त आने प्रारम्भ हो जाते हैं । जिससे कभी-कभी मनुष्य की जान भी खतरे में पड़ जाती है । इसकी जड़ को पानी में पीसकर साँप के बिल में डालने से साँप भाग ज'ते हैं । ऐसा कहा जाता है कि जिस मैदान के श्वास-पास इसकी बाड़ लगी होती है उसमें साँप प्रायः नहीं आते । कदाचित् उक्त विश्वास के कारण ही सर्पदंश में इसकी जड़ को पीसकर पानी में मिलाकर हृदय के नीचे-नीचे के सभी भागों पर मालिश किया जाता है। करौंदिया - वि० [हिं० करौंदा ] करौंदे के रंग का । संज्ञा पुं० एक रंग जो बहुत हलकी स्याही लिए हुये लाल होता है। गुलाबी से इसमें थोड़ा ही अंतर जान पड़ता है । करौंदी-संज्ञा स्त्री० [हिं० करौंदा ] ( १ ) जंगली करौंदा | छोटा करौंदा । ( २ ) एक प्रकार की दाख । करौडामर - [aro ] काला डामर । करौत - संज्ञा पु ं० [सं० करपत्र ] [स्त्री० करोती ] लकड़ी चीरने का श्रौज़ार । धारा । करोत | करौता -संज्ञा पु ं० दे० "करौत” । संज्ञा पु ं० [ हिं० कारा, काला ] करैल सिट्टी । संज्ञा पुं० [हिं० करवा ] काँच का बढ़ा बरतन | क़रावा । बड़ी शीशी । करौला - संज्ञा पुं० [देश० ] कड़वी तरोई । संज्ञा पु ं० [देश० बं० ] करेला । करौली - संज्ञा स्त्री० [सं० करवाली ] एक प्रकार की सीधी छुरी जिसमें मूँठ लगी रहती है और जो भोंकने के काम में आती है । क़' - [अ०] ( १ ) धात्वर्थं ठोंका | थपकना | तिब्वी वैद्यकीय परिभाषा में रोग ज्ञान के लिये किसी अंग को उँगली श्रादि से ठोंकना । जैसे, सीना और उदर इत्यादि को उँगली से ठोंक कर उनकी आवाज़ से उनकी श्राभ्यांतरिक दशा का पता लगाते हैं । ठेपन । टकोरना । टंकोरना । परकश्शन Percussion | ( २ ) कद्द ू लो। क्र े:-[ अ ] ( १ ) थपक | धमक । ठोंकना । ( २ ) नाड़ी (नब्ज़ ) की एक गति । कर्कट क कीचिया - [ सिरि० ] हूफ़ारीकून । क़वी - [ तु० ] एक शिकारी पक्षी । क़ई लान: - ( १ ) [ गुबरैला ] । क्रड़लूमुर्र - [अ०] तितलीको । कद्द एतल्ख । कर्केड - [ ? ] झड़बेरी । झाड़ीबेर । ककेंद - [ फ्रा० ] एक प्रकार का लाल पत्थर वाल वा पीको । कर्कदु-संज्ञा पुं० [सं० पु ं० ] दे० "कर्कन्दु” ककंधू संज्ञा पुं० [सं० पु० की ० ] बेर का पेड़ वा फल । I 1 कर्क-संज्ञा पु ं० [सं० पु ं० ] सफ़ेद रंग का घोड़ा । ज० द० । ( २ ) केकड़ा । कुलीरक । ( ३ ) दर्पण | शीशा । ( ४ ) घड़ा | घट | मे० कद्विक | (५) कँकरोल | कर्कट वृक्ष | (रा०नि० व० ११) । ( ६ ) कंक पक्षी | काँक । ( ७ ) एक प्रकार की तौल । (८) एक वृक्ष । काकड़ासींगी । ( १ ) कौश्रा । काक । (90) शिरोऽवचालन | हे०च० । ( ११ ) कंकर । ( १२ ) बेर का पेड़ । (१३) बेल का पेड़ । ( १४ ) गंधक | वै० निघ० २ भ० ग्रहणीकपाट रस । ( १५ ) श्रग्नि । क़क़अना -[ यू०, सिरि• ] केशर | ज़ाफ़रान । कर्कगुग्गुलु-संज्ञा पु ं० [सं० पु ं० ] कणयुक़ा । कण गुगुल (?) कर्क रास - [ तिनकाबिन ] सील | वेदग्याह । कर्कचिभिटिका, ककचिभिटी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] फूट की ककड़ी । चिभिंटा । कर्कटी भेद | रा० कर्कट -संज्ञा पुं० [सं० पु० ] [स्त्री० कर्कटी, कर्कटा ] नि० ० ७ । ( २ ) छोटी ककड़ी | चिर्मिटी | ( १ ) एक प्रकार का सारस । करकरा । करकरिया | The Numidian crane कर्करेटु । कर्कट पाखी - (बं० ) । गुण- वातनाशक, शुक्रप्रद और श्रमनाशक । त्रि २२ श्र० । दे० " करकरा " । ( २ ) स्वनाम ख्यात वृक्ष । काँकरोल (Monordica Cochin chinensis, Spriy) गुण- इसका फल रुचिकारक, कसेला, अत्यंत दीपन, कफपित्तकारक, ग्राही, श्राँख को हितकारी, हलका और शीतल है। रा० नि० व० ११ । (३) Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ककंटक २२७० कर्कटशृंगी एक प्रकार की ककड़ी। बालुकी । (४) सेमल ककेटक सन्निपात-संज्ञापु० [सं० पुलक्षण का फल । शाल्मली फल । मे० टत्रिक । (५) जहाँवात पित्त और कफ-मध्य. क्षीणोर अधिकहो. केकड़ा । कुलीरक । (६) समुद्री केकड़ा । (७) वहाँ अपने २ रूप ओर शक्रि से जीभ का टेढ़ापन, एक प्रकार का सन्निपात ज्वर । कर्कटक सन्निपात । कोरता, कंठ का गूजना, पालस्य, मुख का महादे० "कर्कटक" (८) कमल को मोटी जड़ । वर जैसा रंगा होना, गले में काँटों का पड़ना, कंठ पद्मकंद । भसीड़ । जटा० । (१) बेल का पेड़ । अोठ और तालू का सूखना, अन्तर्दाह, गुदा का रस० र० बालचिः। (१०) काठ श्रामले का निकल आना, वाणी की भ्रष्टता, दृष्टि का रुकना, पेड़ । छोटा आँवला। कफ मिश्रित रुधिर का कठिनता से बार २ » कना पो०-कर्क, सुदधात्री, क्षुद्रामलक संज्ञक, तंद्रा, श्वास, खाँसी, इनका नित्य प्रति बढ़ना, कर्कफल | रा० । (११) गोखुरू ।गोचुर । (१२) बुरे २ मनोरथों का उत्पन्न होना, मन में ग्लानि, काकड़ासींगो। कर्कट,ग । च० द० वा. व्या० दोनों पसलियाँ तीर से विंधी सी हों, कफ खींचने एकादश शतिक महाप्रसारिणोतल । (१३) पर भी हृदय से न निकलना, पसलियों में चोट लोको । घीया । (१४) एक प्रकार का साँप । सा लगना, तथा वाणों से पीड़ित और निरन्तर (१५) एक रोग | Cancer यह अबु दक्षत भेदन सा होना इत्यादि लक्षण होते हैं। रोग असाध्य होता है। (१६) काँटा । (१७) (योग त.) कील । कीलक । कर्कटक-संज्ञा पुं॰ [सं० वी० ] (१) कांडभग्न | कर्कटदास्थि-संज्ञा स्त्री० [सं० को० ] केकड़े की नासक अस्थिभंग का वह भेद जिसमें हड़ी बीच से हड्डी । कुजीरकास्थि । टूट जाती है और उसके दोनों छोर उभरे हुये गाँठ | कर्कटकनी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] दारुहरिद्रा । की भाँति होते हैं । इसका प्राकार केकड़े( कर्कट) दारुहल्दी । का सा होता है, इसलिये इसे कर्कटक कहते हैं। कर्कटकी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) काकड़ा. जैसे-"संमूढ़मुभयतोऽस्थिमध्य भग्नं ग्रंथिरिवो- | सींगी ! कर्कटगी। वा० चि० ३ ०। (२) नतं कर्कटकम् ।” सु०नि० १५ अ० दे० 'भग्न' । केकड़े की स्त्री । केकड़ी। (३) पीतघोषा । (२) तेरह प्रकार के स्थावर कंद विषों में से (४) दारु हल्दी ।, दारु हरिद्रा । रा०नि० । एक । सु० कल्प २१० दे० "कन्दविष"। नि. शि। ___ संज्ञा पुं० [सं० पु.] (1) ईख | ऊख । कर्कट चरण-संज्ञा पुं॰ [सं० पु० ] केकड़े का पैर रा०नि० व० १४ । (२) केकड़ा। ककट । कुलीरक पाद । रस. २० बाल-चि० । कर्कटच्छदा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] पीतघोषाः। पा०-अपत्यशत्रु (श०), वहि, कुटीचर पीले फूल की तरोई । वै० निघः । कड़वी तरोई। (त्रि०), षोड़शांनी, वहिश्चर (हे.); कर्कट, __ कोशातकी । कोशवती । कर्कोटी । नि०शि० । कुकीर. कुलीरक, सदंशक, पंकवास, तिर्यग्गामी ।। कर्कटवल्ली-संज्ञा स्त्री [सं० स्त्री.] (१) गजपीपर। गुण-केकड़ा मलमूत्र का निकालने वाला, गजपिप्पली । (२) शूकशिंबी। केवाँच । कौंछ । संगन और वातपित्त जीतने वाला है। राज० । (३) अपामार्ग। वै० निघ० । दे० "केकड़ा" । (३) एक प्रकारको लाल ईख । तानेतु । वै० निघ० २ भ. वा. व्या० एलादि कर्कट शृङ्गि-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] काकड़ासिङ्गी। तैल । (४) एक प्रकार का पक्षी ।कर्कटे । (१) कर्कटङ्गिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] काकड़ा काठ श्रामला काष्ठामलक । छोटा आँवला । (६) ___ सींगी । कर्कटशृंगी। मद० २०१। . काकड़ासींगी । कर्कटशृंग। भैष० अ० पि. चि० कर्केटशृङ्गी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (1) काकड़ा वृहत् क्षुधावती गुड़िका । एक प्रकार सन्निपात | | सींगी । रा० नि० व०१६ । मद० २०१। भा० | पू० १ भ० । (२) बड़ी तरोई।। महाघोषा। : रत्ना .। Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्कटा २२७१ कटा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.](१) काकड़ासींगी वनकर्कटिका । रा. नि. व. २३ । (३) - भैष. बाल-चि० कर्कटादि। (२) एक प्रकार ककड़ी। कर्कटिका लता । रा०नि०व०७ । हे. की लता जिसमें करेले की तरह के छोटे-छोटे च । (४) बालुको नाम की एक प्रकार की फल लगते हैं जिनकी तरकारी बनती है । ककोड़ा ककड़ो । एर्वारू । फूट । हला०। (५) बेर का सेखसा । (३) उग्रगंधा । करावा । नि० शि० । पेड़ । वदरी । मद० व० ५। (६) घण्टा वदर। कर्कटाख्य, कर्कटाक्ष-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] कर्क- (७) कमल का छत्ता जिसमें से कँवलगट्टे टिका लता । ककड़ी की बेल । निकलते हैं। पद्म कर्णिका। (८) बेल का कर्कटाख्य, कर्कटाक्ष-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] कच्चा फल । कोमल श्रीफल । वै० निव० । (६) (१) ककड़ी । कर्कटिका । काँकुड़ । (-०)। बँदाल को लता । देवदाली। घघरबेल । भा० र० मा० । रा०नि० व०६। सि० यो० हि. पू० भ० गु० २०। (१०) गोरख ककड़ी । श्वा० चि० द्राक्षालेह । वै० निघ० ज्व. चि० । गोरक्ष कर्कटिका । र० सा० सं० रसशोधन । कुलत्थाय' घृत । (२) काकड़ासोंगी। कर्कट (११) सेमल का फल । मे० । (१२) शृंगी। वै० निघ० क्षय चि० लघुशिवगुटी । सु० ककड़ासोंगो । रा०नि०व० ६ । (१३) साँप चि० २ ०। बा० चि० ४ अ० । भैष० शिलाजतु सर्प । श० २०। (१५) तरोई । (१५) कछुई वटी। (१६) घोटिका वृक्ष । (१७) घड़ा । (१८) कर्कटादिलेह-संज्ञा पुं० [सं० पु.] वैद्यक मे एक चिर्भिट । पेहँटा । पेहटुल । (१६) हस्तिपर्णी । अवलेह जो बालरोग में व्यवहृत होता है। योग कर्कटी पयो-[सं०] लिसोड़ा । मु० अ० । यह है-काकड़ासींगी, प्रतीस, सोंठ, धव का | कर्कटी बीज-संज्ञा पु. [सं. की.] ककड़ी का फूल, बेल, सुगंधवाला, नागरमोथा और बेर की | बीज । कर्कटी फलबीज । च०द० अश्म० चि० गिरी, इनका चूर्ण बराबर लेकर शहद के साथ - कुशावलेह । चाटने से ज्वर, अतिसार और दुर्निवार ग्रहणी हा कर्कटी बीजादिचूर्ण-संज्ञापु० [सं० क्ली०] उक्त नाम रोग शीघ्र दूर होता है । रस. २० बाल चि० । का एक योग, यथा-कर्कटी के बीज, अमला, हड़, भैष । बहेड़ा और सेंधा नमक इन्हें समान भाग लेकर कर्कटा शीपिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] सिंगरफ चूर्ण बनाएँ। . हिंगुल। कर्कटास्थि-संज्ञा स्त्री० [सं० को० ] केकड़े को हड्डी । गुणधर्म तथा उपयोगविधि-इसे एकतो० मात्रामें गरम जल के साथ पीने से मूत्रावरोध (पेशाब___ कुलीरास्थि । बन्द होना) नष्ट होता है । वृ. नि. २० कर्कटाह्व-संज्ञा पु० [सं० पु.] बेल का पेड़ । रा. नि० व०११।। मूत्रा० चि०। कर्कटाढचा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] काकड़ासींगी। कर्कट-संज्ञा पु० [सं०] करकरा । करकटिया । कर्कटाढा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] काकड़ासींगी। करेटु पक्षी । श०र० । कर्कटशृंगी। रा०नि० व०६। कर्कड़-संज्ञा पु० [सं० पु.] खरियामिट्टी । खड़ी। कर्कटि, कटिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (१)| खटिका । र० मा० । ककड़ी । राज० ३ व० । वै० निघ०। भा० म० कर्कनी-[ बम्ब० ] Leea sanbu cina, १ भ० अश्म० चि० । (२) विलायती पेठा । Willd. कुकुरजिह्वा । अंकडोस । तपुरिया कूष्माण्ड । कौल। कर्कन्दु, कर्कन्धु, ककन्धू-संज्ञा पुं॰ [सं० पु. कर्कटिनी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] दारहल्दी । दारु- की.] (१) छोटे बेर का पेड़ । सुगवदरवृक्ष । हरिद्रा । रा०नि० व० ६ । झड़बेरी का पेड़ । रा०नि० व० २३ । सि. यो. कर्कटी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) कर्कट स्त्री। कास चि. यवाङ्गयूष और वचादियूष । मादा केकड़ा । केकड़ी। (२) जंगलो ककड़ी।। 'यवामलक दाडिमकर्कन्धु मूलक शुण्ठिकैः। Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्कन्ध २२७२ झड़बेरी। शृगालकोली। शियाकूल (बं.)। कर्कर-[अ] बे आस्तीन को कमीज़ । वन्यान । सदरी, च० सू० ४ अ.। (Ziryphus jujuba) वास्कट । कर्कन्धु, कर्कन्धुक-संज्ञा पुं० [सं० वी० ] (1) ककर:-[१०] वह आवाज़ जो उदर में वायु की गति बेर का फल । बदरी फल । झड़बेरी । छोटा बेर । से पैदा होती है । श्रोदरीय शब्द । पेट को गुडगुछोटकूल (बं०)। डाहट की आवाज़ । Gurgling. गुण-मीठा, चिकना, भारी, पित्त तथा वात | कर्करट-संज्ञा पुं० [सं० पु.] एक प्रकारका पक्षी। नाशक और वातपित्त को दूर करनेवाला है। करकरा । करकटिया। मद० व०६ । दे० "बेर"। (२) बेल का फल। करदला-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] दग्धा । विल्वफल । वै० निघः । ककरा-संज्ञा पुं॰ [सं० स्त्री.] (१) एक प्रकार कर्कन्धुकी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) एक ___ का बगुला । (२) शामी भाषा में जाफ़रान का नाम । प्रकार का बेर । मद०व०६। (२) छोटे बेर | का पेड़ । झड़बेरी, तुगबदरवृक्ष | छोटकूल-(बं०) . संज्ञा पुं० [अ० श्राकरकहीं ] अकरकरा । २०मा० । रा०नि० व. २३ । कर्कराङ्ग-संज्ञा पु० [सं० पु.] कालकंठ पक्षी । कन्धुकुण-संज्ञा पुं० [सं० पु.] बेर के पकने Cो श० मा० । खंजन । का काल । कर्कन्धु के पाक का समय । कर्कराटु. कर्कराटुक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु०] (१) कर्कन्धुरोहित-संज्ञा स्त्री॰ [सं० स्त्री० ] झड़बेरी के | ___ कटाक्ष । तिरको नज़र । जटा०। (२) कर्करे? फल की तरह लालरंग । कर्कन्धुफल सदृश रक्क पती । करकरा । करकटिया । श० २० । वर्ण। ककरान्ध, कर्करान्धक-संज्ञा पु० [सं० पु.] अंधा ___ कूआँ । अन्धकूप। त्रिका० । कर्कन्धू-संज्ञा पु० दे० 'कर्कन्धू"। ककराल-संज्ञा पुं० [सं० पु.] चूर्णकुन्तल । बटा । कर्कफ-[अ०] (१) मदिरा । शराब । मै । (२) ____ छल्लेदार बाल | अलक । जुल्फ । घूगर । ___एक छोटा पक्षी । (३) कर्कब । ककराक्ष-संज्ञा पु० [सं० पु.] खंजन पक्षी । खंडिक्रमः-[अ० ] शीताधिक्य के कारण बहुत काँपना: | | रिच । खंडरिच । हारा० । fograr i Shivering कर्करिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्री.] अाँख में किरकिरी कर्कफल-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (१) ककरोल ।। पड़ना। किरकिराहट । आँख को खाज । चतु कर्कटवृक्ष । ककोड़ा । काँकरोल (बं०)।रा० | खजू । नि० व० ११ । (२) गांगेरुक । (३) कर्षफल । करिया- यू०] विषखपरा । हंदक़्क्को । क्षुद्रामलकी। ककरी, कर्करिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (1) क़र्कम, किळम-[अ० ] Gians Penis सुपारी। नाल युक्त एक प्रकार का जलपात्र । झारी । शिश्नमुण्ड । हश्ता । गड़ पा । श्रम । उणा। ककर-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.](१) कङ्कर । कंकड़ा ___ पर्या–पालु, गलन्तिका (अ.)। अलु । (२) मुद्गर । मुगदर । हथौड़ा। हारा०। (३) __ भारु (अ० टी०)। (२) एक प्रकार का बरकुरी हड्डी | तरुणास्थि । तन | चावल धोने का बरतन । (३)गलन्तिका । संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (.) चूर्ण जनक झंझर । (४) दर्पण । मे. रत्रिक । पाषाणखंड। कुरंज पत्थर जिसके चूर्णकी सानबनती | कर्करु-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] पेठा । कुष्मांड । है । चूनेका पत्थर ।चूर्णखंड । (२) दर्पण |हारा० । ककरेटु-संज्ञा पुं० [सं० पु.] एक प्रकार का (३) तरुण पशु। हला. (४) नीलम का सारस । करकरा । करकटिया। करेटु पक्षी। एक भेद । (५) एक प्रकार का साँप । रत्ना०। वि० (१) कड़ा । करारा । (२) खुरखुरा। ककरोहन-संज्ञा पुं० [?] कुता। [फा०] (1) बाकला । (२) छोटा सनोवर। ककहन-संज्ञा पुं० [?] सुबुल की सो एक जद । Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवली ककार . प्रकृति-उष्ण तथा रूढ । यह फ्रालिज़ और | कर्कशिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] जंगली बेर । वासनादी विषयक रोगों में बहुत गुणकारी है। वनवदरी । र० सा० । झड़बेरी। -ना० मु.। | कर्कस-संज्ञा पुं० [१०] गोश्त का एक लोथड़ा। कर्कवल्ली-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (1) अपामार्ग जो शिश्न की तरह का जरायु के मुख में पैदा का क्षुप । () गजपीपल । (३) केवाँच । होजाता है । सम्भवतः यह एक रसोलीहै । इसका शुकशिंबी । वै० निघ। एक विशेष गुण यह है कि यह गरमियों में बढ़ कर्कश-संज्ञा पुं॰ [सं० पु. की०] (१) एक जाता और सरदियों में घट जाता है। प्रकार की ईख। उख । मे• शत्रिक। (२) [१] सरख्स। [यू०] (१) मोती की सीपी । (२) एक कमीले का पेड़ । कम्पिल्ल । अम० (३) कसौंदी। · प्रकार का शंख । क़रूकस । कासमई (४) परवल । पटोल ।प० मु०। रत्ना० । कर्कसम-[ तु० ] सीसा । सीसक । (५) दालचीनी। गुड़त्वक् । वै० निघः । कर्कसार-संज्ञा पुं॰ [सं० की० ] दही मिला हुआ (६) विशद गुणतुल्य एक औषधीय गुण । सत्तू । दधिशनु । करम्भ । हारा० । यथा-"कर्कशो विशदो यथा ।" काआ-[ यू०] उशरक । वि० [सं० त्रि०] [ भा० संज्ञा कर्कशता, कर्कशत्व, कार्कश्य ] (1) कठोर । कड़ा । (२) कर्काक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (१) ककड़ी । खुरखुरा । काँटेदार । अमसृणं । (३) निर्दय । कर्कटिका । (२) पथ्यापथ्य । मे० शत्रिक। कानू- १] कह। केशच्छद-संज्ञा पुं॰ [सं० पुं०](१) परवल । कति-[१] करातात । जरिश्क। पटोल । रा० नि० ० ३ । (२) कर्कामेलोस-[१] आलू । कतार-[१] वादादी कबूतर। पाटल का वृक्ष । पाडर । पादर । (३) सिहोर का पेड़ । शाखट वृक्ष । त्रिका० । वनौ० । (४) कर्कारु (क)-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (.) एक प्रकार का कुष्मांड । भूरा कुम्हड़ा। रकसवा सागवन का पेड़ें । शाक वृक्ष । (५) काला कुम्हड़ा। कखाड़ -उत्० । भा०। (२)तरकोहड़ा । कृष्ण कुष्मांड । वै० निघ० । बूज़। हिनुवाना । कलिंग लता । रत्ना० । (३) कर्कशच्छदा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (१) तोरई। बहत छोटा कुम्हड़ा । कोहड़ी। गुम्मडितोगे (ते.) तरोई । घोषा । झिंडा गाछ -( बं०) (२) बहुत छोटे कुम्हड़े को ही कार कहते हैं। दग्धा वृक्ष । कुरुही वा कसेही (को०)। रा० गुण-ग्राही, ठंढी, रक्तपित्तनाशक तथा भारी नि०व०६ । कड़वी तरोई। कोशातकी । कोश है और पकी हुई कड़वी; अग्निजनक, खारी वती । कर्कोटी । नि०शि०।। और कफ वातनाशक है। भा० पू०१ म. कर्कशदल-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (1) परवल | शाक व. । इसका तेल गुणमें बहेड़े के पटोल । र० मा० । (२) सहोरे का पेड़ । समान है। कर्कशदला-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (१) दग्धिका __ संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (१) कुष्मांडी कुरुही । कुरुई दग्धा । बंदाल । रा०नि० व० है । लता | हला० । (२) राज कर्कटिका। बढ़ी (२) कोशातकी । तरोई। ककड़ी । बिलायती कुम्हड़ा। कर्कशपत्रिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कुरुही। कर्कारुक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (१) तरबूज़ । कर्कशदला। हिनुवाना । कालिन्द । रत्ना० । (२) कुम्हड़ा कर्कशा-संज्ञा स्त्री० [ सं० स्त्री० ] वृश्चिकाली का कुष्माण्ड । प० मु· । सु० चि० १८ अ०। (३) पौधा । बिछाती। रा. नि.व. । (२) विलायती कुम्हड़ा । कुष्माण्डी। छोटी मेदासींगी । ह्रस्व मेष शृङ्गी । (३) जंगली | ककारू-संज्ञा पु[सं० स्त्री०] कुष्माण्डी लता । विला. बेर । वन वदर । वै० निघ। यती कुम्हड़ा । फा०६५ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोवल कक्क़ीवल - [ ? ] लवा पक्षी । क्लक़स-[ ? ] एक प्रकार की कीमती लाल जो रूस तुर्किस्तान से लाई जाती है । फ़नक । कर्कास - [ फ्रा० ] ( १ ) दोसर । ( २ ) शैलम का २५७४ कर्कोटकी कर्केस - [ कर्केशका मुश्रु० ] एक प्रकार का बाबूना । कर्कोट, कर्कोटक-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] ( १ ) बेल का पेड़ । बिल्ववृक्ष । मे० कचतुष्क । ( २ ) खेखसा । ककोड़ा । काँकरोल । यथा - " कर्कोटकं पर्पटकम् । च० द० ज्व० चि० शाक विधि । गुण - खेखसा और परवल दोनों कफ पित्त नाशक, वीर्यनाशक और रुचिकारक है । खेखसा गुणा में करेले के समान होता है । यथा - " कर्कोटकं फलं ज्ञेयं कारवेल्लकवद्गुणैः । " राज० ३प० । aar (कर्कोटक ) त्रिदोष नाशक, रुचिकारक और मीठा होता है। अत्रि १६ श्र० । ( ३ ) सुश्रुत के अनुसार स्थावर विषों में से एक प्रकार का फल विष । सु० कल्प० २ श्र० । दे० " फलविष" । ( ४ ) ईख । गन्ना । रा०नि० व० १४ । ( ५ ) एक साँप का नाम | इसे विष ( जिसके देखने से ही ज़हर चढ़ जाय ) भी कहते हैं । मे० । कर्कोटका, कर्कोटकी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) एक प्रकार का फल शाक । गोल कुम्हड़ा । कोहले ( मरा० गुण - मूत्राघात नाशक, प्रमेहनाशक, मूत्रकृच्छ और पथरी का भेदन करनेवाला, पाखानापेशाब रोकनेवाला, बलकारक थोर पित्तनाशक है । aarat रुचिकारक, चरपरी, दीपन, कड़ ुई; गरम, वात कफनाशक, विषनाशक और पित्तनाशक है । वै० निघ० । ( २ ) एक प्रकार की तुरई । पीतघोषा | झिंगा । वन तरोई । कटोली, काकली ( मरा० ) । रत्ना ० । ( ३ ) तथा धाम | तुरई । तरोई । कोषाती । ( 1 ) ककोड़ा | देखसा | बाँझ खेखसा | वन्ध्या कर्कोटकी । रा० नि० । नि० शि० । कर्कोटकादि नस्य- संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] उक्त नाम का एक योग-बॉस ककोड़े की जड़ को बकरी के मूत्र में भावना देकर रख लें। इसको काँजी में घिस कर नस्य लेने से विष का प्रभाव नष्ट होता है । वृ० नि० २० । कर्कोटकी फल- संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] ( १ ) घोषा फल । तोरई । तुरई । ) गोल कोहड़ा । वृत्त कुष्मांड । ( ३ ) सिंगाफल । वै० निघ० । ( ४ ) ककोड़ा । खेखसा । ककोट फल । काँकरोल । बीज । कर्कश, कर्केश - [ मिश्र० ] बाबूना | उक़हवान | कर्कास पस - [ ले० Curcas purgans ] jatropha curcas व्याघ्रैरंड । काननैरंड | artis | किमान, क़िकिमान -[ ० ] अलकतरे (कीर ) की तरह की एक चीज़ जो वृत्तों के भीतर पैदा होती है । दे० "किर्किमान" । मास - [फा०] केशर । जाफ़रान । क़क़नू - [ यू० ] केकड़ा । कर्कीरा - [ सिरि० ] जर्जीर । तरामिरा । ककु'न-[ पं० ] Reinwardtia_trigyna, Planch. कु -[ ० ] केशर | ज़ाफ़रान । [अ०] ( १ ) केशर । ज़ाफ़रान । मामीरान | कुमा - [ ० ] जाफरान की तरह एक लाल वस्तु यमन से आती है । वर्स । हस ( ० ) । Flenungia Grahamiana, Wfn. कुमान - [ro ] विषखपरा । हंदक़की । क़क़ू–[ यू०, सिरि० ] केशर । ज़ाफ़रान । ककू - [ शीराजी ] कच्चा खरबूजा । . लक् गमा, क़क़न, क़क़ूममा, क़क़ मारमा - [ यू०] रोगन ज़ाफ़रान की तलछट । दे० " केसर" | क़क्क़ूस-[ यू॰] सनोबर के वृक्ष की गोंद | रातीनज । कर्केतन - संज्ञा पुं० [सं० पु०, क्री० ] एक रत्न वा बहुमूल्य पत्थर | ज़मुर्रद । पन्ना । "कर्केतनं मर कतं ।" वा० उ० ३६ श्र० | गरुड़पुराण में इसकी उत्पत्ति श्रादि के संबंध में विलक्षण श्राख्यायिका आई है । वि० दे० " पन्ना” । कर्केतर - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] कर्केतन रत्न । ज़मुद । दे० " कर्केतन" । कर्केधुकी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] झड़बेरी | भूवदरी । बै० निघ० । कर्केश - [ मिश्री ] बाबूना | Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .केशू। कर्कोटकाद्युद्वर्तन २२७५ क—रक कर्कोटकाद्वर्तन-संज्ञा पुं॰ [सं० की० ] उक्त नाम | कर्ख श-[रू०] हड़ताल । का एक योग-ककोड़े की जड़, कुलथी, | कर्ग, कर्गहन-फा०] गेंडा नामक एक पशु। जरीश पीपल, कायफल, काला जीरा, चिरायता, (१०)। चीता, बच, कड़बी तुम्बी ओर हड़ । इन्हें समान | कर्गनालिया-[?] Bridelia montanaa, भाग लेकर चूर्ण बनायें। इसे शरीर में मालिश करने से शरीर को व्यथा दूर होती है और सन्नि- | कर्ग नेलिया-[?] खाजा । पात का नाश होता है। इसे शीतांग में प्रयुक्त | कर्गस-[फा०] गिद्ध । करना विशेष लाभदायक होता है । वृ० नि० २० वर्गात-[ तु० ] कुलंजन । सन्निपा० चिः। कर्गी-[ तु० ] नर बाज । वाशः । जुर्रह । कर्कोटज-संज्ञा पुं० [सं० पु.] एक प्रकार की बेल कर्चक-हिंदी-[फा०] जमालगोटा | जिसका फल शाक के काम में आता। खेखसा । कर्चर-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (१) कचूर (२) ककोड़ा । काँकरोल । ____ हरताल । [40 ] फूट की ककड़ी। कर्कोटपत्र-संज्ञा पु० [सं० की. ] ककोड़े को पत्ती। कचेरिका, कर्चरी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] कचोड़ी। कर्कोटदल । यह वमन में हितकारक है। वा० ज्व० | बेदई । बेढ़वी । पाकराज । चि०१०। | कचिया-[१] जंगली कासनी । तरहश्क्रूक । कर्कोटमूल-संज्ञा पुं० [सं० क्रो०] ककोड़े की जड़ । कर्ची-संज्ञा स्त्री० [देश॰] (१) एक प्रकार की खेखसे की जड़। कर्कोटकमूल । काँकरोलमूल चिडिया।(२)करैया। कुर्ची। (बं०) सि. यो. कास-चि० । 'नस्यं कर्कोटमूलं | कर्ची बल्लो-[ कना०] Momordica Dioica, स्यात् ।" च० द. पांडु-चि० । ___Roxb. धारकरेला।। कर्कोटिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (1) कुष्मांडो केचुर, कचूर-संज्ञा पुं० [सं० की०] (१) सोना । लता । विलायती कोहड़ा । कोहड़ी। सुवर्ण । मे० रत्रिक । (२) एक प्रकार का पर्या–कुष्मांडो । कर्कोटी । (२)खेखसा। हरताल । कर्कोटक | काँकरोल | रा.नि.व.७ कचुर,कचुरक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (१) कर्कोटिका कन्द रज-संज्ञा पु० [सं० पु.] खेखसे | एकांगी । कपूर कचरी । कचूरा | श्रीकानोक चेट्टा की जड़ का चूर्ण । ककोड़े की जड़ की बुकनी । (ते.)। कचौरा (मरा०,क)। योग. रत्ना० "कर्कोटिका कन्द रजः कुलस्थः।"-भा० म०१ वाजीक० । भ. शीतलांग स० ज्व० चि० । कंडु रोग में इसे पर्या-द्रावित, कार्य, दुर्लभ, गन्धमूलक, सूंघते हैं। वेधमुख्य, गन्धसार, कार्य, जटाल । गुण-चरपरा कर्कोटी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) खेखसी । कडुआ, गरम, खाँसी तथा कफनाशक, मुखविशककोड़ा । ककोटिका । (२) देवताड़ । देवदाली दता कारक और गलगण्ड नाशक है । रा० नि. बंदाल । वै० निघः । (३) वनतोरई। कड़वी व०६ । दीपन, रुचिकारक, सुगंधी, पाक में __ तरोई । कोशातको । कोशवती । नि०शि०।। चरपरा तथा कोढ़, बवासीर, व्रण और खाँसी को कर्कोटी-कंद-संज्ञा पु० [सं० वी० ] ककोड़े का कंद दूर करने वाला, हलका, एवं साँस गुल्म और चा मूल। कृमिनाशक है। भा० पू० १० । (२) कोंरा-[ ? ] सकनू । क-रकंद। कर्कोल-संज्ञा पुं० [सं० क्क्री० ] कंकोल | रा०नि० | क— रक-संज्ञा पुं॰ [सं० स्त्री.] (१) प्रामहरिद्रा ___व०१२। आमहलदी, काँचा हलुद (वं.)। अ० टी. कक्य मा-दे० "करक्युमा"। स्वा० । (२) कचूर। शटी । मे० रत्रिक । कक्यु लिगो-दे० "करक्युलिगो'। वैःनिघ०२ भ० ज्व. चि। Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कचूर २२७६ कर्चूर-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] अम्बा हल्दी, श्राम्र निशा । श्रम० । नि० शि० । ( २ ) कचूर | कच्चूर-संज्ञा [सं० की ० ] सोना । स्वर्ण । संज्ञा पु ं० [सं० पुं०] कचूर । नरकचूर । कच्चूरक-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] श्रामिया हलदी । कचूक | कर्पूर र तैल-संज्ञा पुं० [सं० की ० ] कचूर के कषाय ( या स्वारस ) और गूगल तथा सिन्दूर के कल्क से पकाया हुआ तेल पामा, दुष्ट व्रण, नाड़ी व्रण और अन्य हर प्रकार के घावों का नाश करता है, भा० प्र० नाड़ी व्रण चि० । क़र्ज़ -[ श्रु० ] कर्त्त ेन । काटना | कतरना । Cutting क़र्ज़ - [ फ्रा० कर्त से सुत्र ] बबूल की फली । कर्ज - [ तु० ] चूता | o क़र्ज़ज -[ श्र० ] वृक्ष । पेड़ | क़र्ज़जः - [अ०] पेड़ | कर्ज -[ • फ्रा० ] बटेर की तरह की एक चिड़िया । ( १ ) सागपात । ( २ ) वृक्ष । लवा | क(कु)र्जा -[ १ ] हंसराज । परसियावशाँ । कर्जारा - [१] रेंड़ | कर्जी - [ तिनकाबन] ज़ुअरूर । करु काय - [ ० ] खजूर । कार्टिक्क- किलंगु -[ ता० ] कलिहारी | करियारी | कलिन - [ मरा०, गु० ] धार करेला । वाहिस । कटे लिन - बम्ब० ] 'f Momordica Dioica, Roxb. कर्ड -संज्ञा पुं० [सं० पु० ] झींगुर २) कुसुम । बरें | कड़ | कर्डई-[ श्रासाम ] दे० “कदैं”। कर्ड सोप - [ श्रं० Card Soap ] चरबी साबुन | पाशविक साबुन | वसामय सोप । दे० "सेपो एनिमेलिस" । कर्डी - [ मरा०] कड़ | बरें । कड़े -[ पश्तु • ] झींगुर | कर्णकुटी कर्ण - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( १ ) एक प्रकार क वृक्ष जिसे दीर्घपत्र भी कहते हैं । कानाखोड़ा गाछ - (बं० ) । यथा--- ativa कणोख्य नेत्रं खदिर संयुतम् । च० द० वि० ज्व० चि० (२) कान | श्रवणेन्द्रिय । श्रोत्रेन्द्रिय । रा० नि० व० १८ | दे० "कान" । (३) सुवर्णालु वृक्ष । सोनालू। “सुवर्णालौ श्रुतावपि ” । - मे० द्विक ( ४ ) दारचीनी । मधुरत्वक् । (५) मदार | मंदार । श्रर्क | वै० निघ० । कर्डे - संज्ञा पु ं० [देश० ] कुसम | बरें । कड़ | कर्ड,या - [ मरा०] कुसुम । बरै । कर्णक-संज्ञा पु ं० [सं० पु ं० ] ( १ ) एक प्रकार की मछली । ( २ ) एक प्रकार का सन्निपात जिसमें रोगी कान से बहरा हो जाता है। उसके शरीर में ज्वर रहता है, कान के नीचे सूजन होती है और दर्द होता है, वह अंडबंड बकता है । वा उसका कंठ रुक जाता है। उसे पसोना होता है । प्यास लगती है, साँस चलता है, बेहोशी प्रांती है, जलन होता है और डर लगता है । भा० ज्व० चि० । (३) पेड़ को फोड़ कर निकलने वाला शाखा, पत्रादि । ( ४ ) वृक्षादि का एक रोग । कर्णकटु-वि० [ सं० त्रि० ] कान को अप्रिय | जो सुनने में कर्कश लगे । । कर्णकण्डु, कर्णकण्डू-संज्ञा पु ं० [सं० पु ं०; स्त्री० ] कर्णस्त्रोत में होनेवाला एकरोग । कान की खुजली । माधवनिदान के अनुसार कफ से मिली हुई और सुश्रुत में दुष्ट संचित कफ वायु इस रोग को करती है | ख़ारिश गोश (फ्रा० ) । हिक्कतुल् उन ( o ) | Eczema of the ear. कर्ण कदली- संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक प्रकार का मृग । के० । कर्णकिट्ट -संज्ञा : ० [सं० की ० ] खूँट । कान की मै । कर्णमल । कर्णकीटा, कर्णकीटी -संज्ञा पु ं०, स्त्री० [सं० स्त्री० (Julus cornifex ) कानखजूरा । गोजर कनसलाई । हे० च० । पर्या० – कर्णजलौका, शतपदी, ( हे० ), चित्राङ्गी, पृथिका, कर्णदुन्दुभि । कुटी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कान के बीच की कोठरी | Vestibule of internal car प्र० शा० । Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ arr कुटीद्वार - संज्ञा पु ं० [सं०] कान के बीच की कोठरी का मुँह | (Fenestra vestibuli) प्र० शा० । कर्णकुटी संबंधिनी कुल्या-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] | ( Scala Vestibuli) कान की एक कुल्या विशेष | -२२७७ करणकुहर-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] कान का बिल । कान का छेद | करन्ध्र । ( Concha ) प्र० शा० । कर्णकूपकश्वसेक -संज्ञा पु ं० [सं० पु ं० ] एक प्रकार का जीव जो जल में श्रधोगण्ड के द्वारा श्वास लेता है। शामुकादि इसी श्रेणी के जीव हैं । कृमि -संज्ञा पुं० [सं० पु० ] शतपदी । कनखजूरा । कर्ण कोटि-संज्ञा स्त्री० [सं०] ( Auri cular point.) श्रं० शां०। कर्णग-संज्ञा पु ं० [सं० पु ं० [] शब्द | आवाज़ | वि० [ सं० त्रि० ]( १ ) कान में गया हुआ कर्णस्थित । (२) कान तक फैला हुआ । कर्ण । कर्णगण्डमाल-संज्ञा पु ं० [सं० क्ली० ] कान के भीतर होनेवाला एक प्रकार का व्रण । यह कृमि और दुर्गन्धि से युक्त होता है ! ब० रा० । कर्णगूथ-संज्ञा पु ं० [ सं॰ पु ं०, क्ली० ] कान की मैल कर्णमल । खूँट । हारा० । कर्णगूथक - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] कान का एक रोग जिसमें पित्त की गरमी से सुखाया हुआ कफ कर्णगूथ ( कान की मैल ) होजाता है । यथापित्तोष्म शोषितः श्लेष्मा कुरुते ( जायते ) कर्णगूथकम् ।" मा० नि० । सु० उ० २० श्र० । तैल वा स्वेद प्रयोग से ढीलाकर शलाका द्वारा कान की मैल निकाल डालना चाहिये | ( चक्रपाणि) कर्णछिद्र-संज्ञा पु ं० [सं० क्ली० ] कान का छेद | कर्णरन्ध्र । कजलूका - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कनखजूरा । कजलीका । श० र० । शतपदी । चित्राङ्गी । रा० नि० १३ ब० । कर्णनाद कजलौका ( का: ) - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०, पुं॰] कनखजूरा । गोजर । शतपदी । काणकोटरी (बं०) हे० च० | श्र० टी० भ० । कर्णजालूक - संज्ञा पु ं० [सं० पु ं०] कनखजूरा । कर्णजलौका । केन्नुई ( बं० ) । कजा - संज्ञा पुं० [सं०] एक रोग जिसमें वातादि दोष ऊपर के द्वारों में प्राप्त होकर, मांस और रुधिर को दूषित करके कान में बवासीर वा मस्से पैदा कर देते हैं जिससे बहरापन, कान में दर्द और दुर्गंधि हो जाती है । यथा प्रकुपिता दोषाः श्रोत्राक्षि घ्राण वदनेष्वस्युपनिवर्त्तयन्ति । तत्र करण जेषु वाधिर्यं पूर्ति - कर्णता च । सु० नि० २ श्र० । कान का बवा सीर । कर्णजाह -संज्ञा पु ं० [ सं क्ली० ] कान की जड़ । कर्णमूल । कर्णजीरक-संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] छोटा जीरा । चुद्र जीरक | रत्ना० । कज्योति - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कानफोड़ा | कस्फोटा | वै० विघ० । करतल - संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] ( Auricular surface) अ० शा० ॥ का दुःख बधन-संज्ञा पुं० [सं० नी० ] त्रिदोष जन्य एक प्रकार का कान की बीमारी। इसमें दाह खाज, शोध और पाक होता है । कर्णदुन्दुभि - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] कनखजूरा | शत [सं० स्त्री० ] हाथी की पदी । कर्णधारिणी - संज्ञा स्त्री० मादा । हथिनी । कनाड़ी -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कान की नाड़ी । कर्णनाद - संज्ञा स्त्री० [सं० पुं० ] ( 1 ) कान में सुनाई पड़ती हुई गूँज | घनघनाहट जो कान में सुन पड़ती है । (२) एक रोग जिसमें वायु के कारण कान में एक प्रकार की गूँज सी सुनाई पड़ती है । माधव निदान के अनुसार इसमें कान के छेद में स्थित वायु कान भेरी, मृदंग और शंख की तरह अनेक प्रकार के शब्द रात दिन पैदा किया करती है । उनके अनुसार जब शब्दवाहिनी नाड़ियों में वायु केले अथवा कफ के साथ स्थित Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णतिघर्षक २९४८ कर्णपूर होती है, तब बहरापन होता है। सुश्रुत में जब | कान के छेद में ठहरा हुआ कफ पिघल जाय तो उलटे मार्गों से गमन करती हुई वायु शब्दवाहिनी । बड़ी वेदना होती है। कान पकना । नाड़ियों में प्राप्त होकर वहीं स्थित हो जाती है, ___ सु० उ० २० अ० । मा० नि० । तब उससे मनुष्य को अनेक प्रकार के शब्द सुनाई | कर्णपात्रक-संज्ञा पु० [ सं० पु.] कान का एक पड़ते हैं। इस रोग को उसमें प्रणाद वा कर्णनाद | बाहरी भाग । कान की लौ। लिखा है। सु० उ० २० अ०। यूनानो हकीम इसे, कर्णपालि-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कान की लौ । ही तनीन वा तनीनुल उजनैन कहते हैं। कान | कर्णपाली । बजना । कानों की झनझनाहट व भनभनाहट । कर्णपाली-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) कान की Tinnitis, Tinnitis aurium. लौ । कान की लोलक । कान को लोबिया । कान नोट-तनीन अोर दवो के अर्थ भेद के लिये की लहर। (Lobul of ear ) कान की दे. “दवी"। लौर । कर्णलतिका । (२) सुश्रुत में एक रोग ___ कणंनाद और कणंवेड़ का अर्थभेद-कर्णनाद जो कान की लोलक में होता है । यह पाँच प्रकार और कणंचवेड़ के अर्थों में यह भेद है कि कर्णनाद का होता है । (१) परिपोट, (२) उत्पात, में अनेक प्रकारके शब्द सुनाई देते हैं,पर कर्णचवेड़ (३) उन्मंथ, (४) दुःखवर्द्धन और (५) में एक ही प्रकार का अर्थात् बाँसुरी का शब्द परिलेही । सु० चि० २१ अ०। विस्तार के लिए सुनाई पड़ता है। इन्हें यथास्थान देखो। कर्णतिघर्षक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कान साफ | कर्णपाली विवर्धन-संज्ञा पु० [सं० क्री०] कर्णपाखी करने का औजार । कर्णशोधनी।। ___ रोग विशेष । कर्ण नेबू-बं०] करना नोबू । कर्णपिप्पली-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] वाग्भट्ट में कर्णपटह-संज्ञा पुं० [सं०] Tym panic me- कान का एक रोग जिसमें कान के छिद्र के भीतर mbrane कान का परदा । प्र. शा०। एक वा एक से अधिक पीपल की तरह कठोर कर्ण पत्रक-संज्ञा पु० [सं० पु.] कर्णपाली । और वेदना रहित माँस के अंकुर पैदा होजाते हैं। वा० उ०१७ श्र०। __ बाहरी कान का हिस्सा । कर्णपुट-संज्ञा पुं॰ [सं०] कान का घेरा । कान का कर्ण पथ-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कर्णच्छिद्र । कान का छेद। छेद । कणं कुहर। कर्णपुत्रिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (1) कर्स कर्णपरिपोटक-संज्ञा पुं॰ [सं० वी० ] एक प्रकार शष्कुली । (२) मोरट लता। का कान में होनेवाला फोड़ा । यह कृष्णारुण और कर्णपुष्प, कीर्णपुष्प-संज्ञा पु० [सं० पु.] (1) अस्तब्ध होता है। यह परिपोटक वात जन्य नोली कटसरैया । नीलकिटी । (२) मोरटखाता । होता है। रा०नि० व.३। कर्णपरिवेहि-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक प्रकार | कर्ण पुष्पिका-संज्ञा स्त्री० [सं० मी.] ऊँटकटारा । का कर्णरोग । यह रक और कफ के विकार से | उष्ट्रकाण्डी। के। होती और इधर उधर फैलने वाली होती है। यह | कर्ण -पुष्पी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] क्षीरमोरटा । । कर्णपाली में होती है। क्षीरमुरहरी । पोलुपत्रा । घनमूला । दीर्घमूला । कर्णपाक-संज्ञा पु० [सं० पु. ] कान के छेद का | रा०नि० । नि०शि०। एक रोग जो पित्त के प्रकोप से वा कान में फोड़ा | कर्णपूर-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (१) बालग्रह । पकने वा जल भर जाने से होता है। इसमें कान २० मा० । (२) सिरिस का पेड़ । शिरीष वृक्ष । पक जाता है जिससे उसमें सड़ांध और केद (३)नीलकमल । नीलोत्पल ।मे०। (४) अशोक (आर्द्रता) होता है और यदि पित्त के तेज से का पेड़ ।रा०नि०व० १०भा० अश्म० चि०। Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णपूरक २२७६ कणेमोरट ८ (५) नन्दी वृक्ष । त्रिका० । (६) कर्णबन्धनाकृति-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] कर्णवेधन करनफूल । के उपरांत उसके बंधन का प्राकार । यह १५ कर्ण पूरक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (१) कदंब का प्रकार का होताहै-(१) नेमिसंधानक, (२) पेड़ । कदम का वृक्ष । रा०नि० व० ६ । (२) उत्पलभेद्यक, (३) वल्लूरक, (४) प्रासंगिम, अशोक का पेड़। रा०नि० व०१०। (३) (५) गंडकर्ण, (६) पाहाय्यं,(७)निधिम, तिल । तिलक । वै० निघ० । (८) व्यायोजिम, (६) कपाट सन्धिक, (१०) कण पूरण-संज्ञा पुं० [सं० की०] (१) तेल श्रद्धकपाट सन्धिक, (११) संक्षिप्त, (१२) श्रादि से कान भरने की क्रिया वा भाव । हीनकर्ण, (१३) वल्लीकर्ण, (१४) यष्टिकर्ण कहा है और (१५) काकोष्ठक । सु० सू० १६ अ० । कर्णं प्रपूरयेत् सम्यक् स्नेहाचैर्मात्रया भिषक् । विस्तार के लिये यथास्थान देखो। नोच्चैः श्रुतिर्न वाधिर्यं स्यान्नित्यं कर्णपूरणात् ॥ | कर्णबहिद्वार-संज्ञा पु० [सं० वी०] (Opening रसाद्यः पूरणङ्कणे भोजनात्प्राक् प्रशस्यते । of Extrnal anditory meatus ) कान का बाहर का छिद्र । श्र० शा० । प्र० शा० । तैलाद्यैः पूरणं कर्णे भास्करेऽस्तमुपागते ॥ | कर्ण बुदबुद-संज्ञा पुं॰ [सं० पुं०] (Auditoस्वेदयेत्कण देशन्तु परिवर्तन शायिनः । ___ry Vesicle) अ. शा०। मूत्रैःस्नेहरसै: कोष्यौः पूरयेच्च ततोभिषक् ॥ कर्णभूषण-संज्ञा पुं० [सं० वी० पुं०] (1) स्वस्थस्य पूरितं रक्षेत् मात्राशतमवेदने। । अशोक का पेड़ । (२) नागकेशर । ५० मु०। शतमात्रं श्रोत्रगदे शिरोरोगे तथैवच ।। | कर्णमद्गुर-संज्ञा पुं० [सं० पुं०] (Silurus वैद्यकम् Unitus ) A sort of gheat fish (२) कान में डालने की चीज़। कर्णपूरण | ___ एक प्रकार की मछली । कानमागुर । वै० निघ० । द्रव्य । | कर्णमल-संज्ञा पुं० [सं० को०] कान का खूट । कण प्रणाद-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] कर्णनाद नामक | कर्णगूथ । हारा। रोग विशेष । दे० 'कर्णनाद" । | कर्णमूल-संज्ञा पुं० [सं० लो01 ) कान की कणे प्रतिनाह, कर्णप्रतोनाह-संज्ञा पु[सं० पु.] जड़ के पास का देश । कान को जड़ । मा० ज्व० वैद्यक के अनुसार कान का एक रोग जिसमें खूट। नि०। (२) एक रोग जिसमें कान की जड़ के फूलकर अर्थात् पतली होकर नाक और मुंह में | पास सूजन होती है। कनपेड़ा । Parotitis पहँच जाती है। इस रोग के होने से प्राधासीसी कर्णमूलीय शंखास्थि-संज्ञा स्त्री० [सं०] अस्थि उत्पन्न हो जाती है । सु. उ० २० अ०। मा० विशेष । अ० शा०। नि। कर्णमृदंग-संज्ञा पु० [सं०] कान की भीतरी कर्णप्रक्षालन-संज्ञा पुं० [सं० वी० ] कान धोने | झिल्ली । कर्णपट । को औषधियाँ-श्रामला, मजीठ, लोध, कर्णमोचक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कनफोड़ा। तेन्दू, वास्तुक इन्हें सनान भाग लेकर क्वाथ कर्णस्फोटा । वै० निव० २ भ० २० पि० चि. करें । गोमूत्र के साथ क्वाथ करना उपयोगी है। दूर्वाद्य तैल । वृ०नि० २० कर्ण रो० चि०। | कमोटा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] बबूल का पेड़। कर्णप्रांत-संज्ञा पु० [सं० पु.] कान की छोर । ___ बर्बर वृक्ष । वै० निघ। कर्णफल-संज्ञा पु [सं० पु.] Ophiocepha- कर्णमोदा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ]पर्वमूला ।छुरिका । lus kurrawiy एक प्रकार की मछली। रा०नि० । नि०शि० । गुण-यह अजीर्ण तथा कफकारक है । कर्णमोरट-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.](१) कनफोड़ा । राज.३५०। ___कर्णस्फोटा । रसेन्द्र चि० सूर्य पातक ताम्र । Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८० कर्णरोग कर्णरन्ध्र (२) दोनों प्रकार का कनफोड़ा ।जल कण मोरट | तथा स्थल कर्णमोस्ट । “जलस्थलभवः कर्ण मोरटः ।" सा० कौ० दूर्वाद्य तैल । कर्णरन्ध्र-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] कान का छेद।। कर्णरोग-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] कान का रोग । कान की बीमारी । कर्णज व्याधि । माधव निदान में दोषानुसार कान की बीमारी तीन प्रकार की लिखी है-(१) वातज कणरोग जिसमें शब्द होता है, अत्यन्त वेदना होती है, कान की मैल सूख जाती है, थोड़ा पीव बहता है और वात के कारण सुनाई नहीं पड़ता अर्थात् मनुष्य बहरा हो जाता है। (२) पित्तज कर्णरोग जिसमें लाल सूजन होती है, दाह होता, फट सा | जाता और उसमें पीली दुगंधित पीव बहती है। (३) कफज कर्णरोग में विपरीत सुनना । (कहे कुछ और सुने कुछ.), खाज होना, कठिन सूजन | और सफेद चिकनी राध बहना और थोड़ी पीड़ा इत्यादि लक्षण होते हैं। इसके अतिरिक्त सान्निपातिक कर्णरोग में उपयुक्त सभी लक्षण सम्मिलित रूप से होते हैं और अधिक दूषित वर्ण का स्राव होता है। वैद्यक में कान के रोगों की संख्या २८ लिखी है। सुश्रुतादि के अनुसार वे २८ प्रकार के कर्ण रोग यह हैं (1) कर्णशूल, (२) प्रणाद (कर्णनाद ) (३) बाधिर्य ( बहरापन), (४) कर्णश्राव, (५) कर्णकंडू, (६) कर्णगूथ, (७)कृमिकण (८) प्रतिनाह, (६-१०) दो प्रकार की कर्णविद्रधि, (११) कर्ण पाक, (१२) पूतिकर्ण, (१३) कषवेड, (१४, १५, १६, १७) चार प्रकार का कर्णाश, (१८, १९, २०, २१, २२, २३, २४) सात प्रकार का कर्णाबुद और ( २५, २६, २७, २८) चार प्रकार का कर्णशोथ । यथा कर्णशूलं प्रणादश्च बाधिर्य वेड एव च ।। कर्णस्रावः कर्णकंडू: कणगूथ स्तथैव च ।। कृमिकण: प्रतीनाहो विधिद्विविधस्तथा । कण पाक: पूतिकण स्तथैवाशश्चतुर्विधम् ॥ तथाबुदं सप्तविधं शोफश्चापि चतुर्विधः।। एते कर्णगता रोगा अष्टाविशतिरीरिताः। वै० निघ० सु० उ० २० अ० वि० दे० "कान"। कर्ण रोग चिकित्सा विधि-सोते समयकान में रुई लगाकर सोने से कर्ण सम्बन्धी बहुत से रोगों से बचने का उत्तम उपाय है । कानमें सर्वदा गुनगुनी औषधि टपकानी चाहिये । (१) अदरख, शहद, सेधानमक, कड़वा तेल पकाकर कान में डालने से कर्णशूल नष्ट होता है । (२)लहसुन, अदरख, सहिजन का रस, मूली का रस, केलि का रस इनका गुनगुना रस डालने से कर्णशूल नष्ट होता है। (३) समुद्रफेन के चूर्ण को अदरख, सहिजन, भांगरा और मूली के रस में मिलाकर गुनगुना कर कान में डालने से कान का दर्द दूर होता है । (४) काली सज्जी के बारीक चूर्ण कान में डालकर ऊपर से नीबू का गुनगुना रस निचोड़ने से कर्णशूल नष्ट होता है। कौड़ी का भस्म इसी तरह नीबू के रस के साथ प्रयोग करने से कर्णशूल नष्ट होता है। (६) आक के पत्तों के पुट में दग्ध किये हुये थूहर के पत्तों का रस गरम टपकाने से कर्णशूल शीघ्र दूर होता है । (७) क्षार तैल-नेत्रवाला, मूली सोंठ, इनका खार, हींग, सौंफ, वच, कूट, देवदारु, सहिजन, रसवत, कालानमक; जवाखार, सज्जीखार सेंधानमक, भोजपत्र, पोपलामूल, बायबिडंग, नागरमोथा समान भाग और मधु, शुक्क, विजौरा ओर केले का रस चौगुना लेकर यथाविधि तैल पाक कर कान में डालने से कणं चूल, कर्णनाद, बहिरापन, पूयत्राव, कर्णकृमि और मुख तथा दंत रोग का नाशक है । (८) दाादि तैल-दारुहल्दी, दशमूल, मुलहठो, केले का रस, कुट, वच, सहिजन, सौंफ, रसवत, देवदारु, जवाखार, सज्जी, विड़नमक, सेंधानमक इनके कल्क में तिल तेल मिलाकर यथाविधि पाक कर कान में डालने से कर्णशूल, कर्णनाद, बधिरता, पूतिकर्ण, कर्णचवेड, जन्तुकर्ण, कर्णपाक, कर्णकंड, कर्णप्रतिनाह, कर्ण शोथ और कर्णस्राव का नाश होता है। (6) भांग के पत्तों के रस में मीठे तेल को पकाकर कान में डालने से गर्मी और सर्दी से उत्पन्न कर्णशूल नष्ट होता है। (१०) लाख के क्वाथ में तैल पाक कर डालने से कर्णस्राव और Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णरोग २२८१ कर्णविटक uy कान का दर्द दूर होता है। शम्बूक तैल-घोंघे का गुण-यथोचित अनुपान से यह हर प्रकार के जीव तेल में पकाकर कान में डालने से कान का ____ कर्ण रोगों को नष्ट करता है । र० र० स० २३ मासूर दूर होता है। करमकला के पत्तों का रस सिरका अथवा गन्दना के रस में मिलाकर गुनगुना कर्णल-वि० [सं० त्रि०] जो अच्छी तरह सुन सके । कर कान में टपकाने से कान में जमा हुआ रुधिर ____ कानवाला । प्रशस्त श्रवणशक्रिबिशिष्ट ।। घुलकर निकल जाता है । (११)पके हुये इंद्रा- | कर्णलतिका, कर्णलता-संज्ञा स्त्री० [सं. स्त्री० ] यण के फल के छिलके मीठे तेल में पकाकर कान (Lobe of the ear ) कान की लौ । में डालने से वधिरता नष्ट होता है। (१२) कर्णपाली । हे० च०। पपड़ी खैर और ख़तमी पीसकर लेप करने से कर्णवत्-वि० [सं० वि०] (१) बड़े कानवाला । गर्मी से उत्पन्न कर्ण का कड़ापन दूर होता है। दोघंकर्णविशिष्ट । (२) कानवाला । कर्णयुक्त । कर्णरोग में डाक्टरी औषधियां-कर्णशूल | (३) कोमल शाखा वा कोलक विशिष्ट । (Otalgia) स्ट्याफिसेमाइ, केन्याराइटोज़, कर्णवंश-संज्ञा पुं० [सं० पु.] मंच । बाँस का डिजिटेलिस, आलियम् प्रालिप, प्रोपियम्, अस्पा- | ___ऊँचा ठाट | हारा। इटिस-एकोनाइट, Otorrhaea-एलम्,बोरिक कर्णवर्जित-वि० [सं० त्रि०] () जिसे कान न एसिड, बोरो ग्लोसरीन, बाल्सम् पेरुविएनम्; क्या ___ हो। कर्णहीन । (२) बहरा । बधिर । डमियाई सलफास, श्राइडोफार्म, लाइकरसोडि संज्ञा पुं॰ [सं० पु० ] साँप । सर्प । कोर्राट, प्लम्बाई एसिटास, आलियम् महुई, टैनिन । श. च०। ग्लीसरीन ड्राम कर्णवश-संज्ञा पुं० [सं० पु.] एक प्रकार की बोरिक एसिड १० ग्रेन मछली जो वृत्ताकार गोल, कालेरंग की और प्रायढोफार्म १ ग्रेन सेहरेदार होती है। केम्फर ५ ग्रेन __ गुण-इसका मांस दीपन पाचन, पथ्य, स्पिरिट-रेक्टिीफाइड । औंस बलकारक और पुष्टिकारक है । वैद्यकम् । थाइमोल ५ ग्रेन | कर्णवर्द्धन-संज्ञा पुं॰ [सं०] कान का एक रोग। कर्णरोग प्रतिषेध-संज्ञा पुं० [सं० पुं०] (1) कर्णवात-संज्ञा पु० [सं० पु.] अस्सी प्रकार के ___ कर्णरोग की चिकित्सा । (२) सुश्रुत-संहिता का वातरोगों में से एक। ___एक अध्याय । कर्णवाते च वाधिर्य महाशूलेन पीड़नम् । कण रोग विज्ञान-संज्ञा पुं॰ [सं० को० ] कर्णगत | अहो रात्रं च दु:खस्या देहशोषः प्रकीर्तितः।। व्याधि का निदान । कान के रोगों का निदान ।। कण राग हर रस-संज्ञा पु० [सं० पु.] ठक्क नाम अर्थात्-इसमें बहिरापन कान में भयानक का रसौषध जो कर्णरोग में लाभदायक है। व्यथा तथा पोड़ा और देह में शोष होता है। कर्णवात हर तैल-संज्ञा पुं० [सं० की.] एक योग-हीरे की भस्म, वैक्रान्त भस्म, विमल प्रकार का आयुर्वेदीय योग(रूपामाखी) भस्म, नीलाथोथा, सीसा भस्म, शेफाम्लतिलकैरण्ड कुमारी कुलिमिश्रितैः । शुद्ध मीठा तेलिया, शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक और सोनामक्खी भस्म समान भाग लेकर प्रथम पारे ततो निरुहो वातघ्न: कल्कस्नेहै निरुह्यते ॥ और गंधक की कजली करे, फिर अन्य औषधियाँ कर्ण वातं निहन्त्याशु वाधिर्यं च विनाशयेत्। मिलाकर लहसुन, अदरख, सहिजन, अरनी की कणेविट्-संज्ञा [सं० स्त्री० ] कान का मैल । खूट । जड़ और केले के रस की पृथक ७-७ भावना कर्णमल । ( मनु०) देकर खूब घोटें। | कर्णविटक-वि० [सं० त्रि० ] जिसकी कान में मैल मात्रा-२-३ रत्ती। फा०६६ । हो। Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णविद्रधि कर्णविद्रधि-संज्ञा स्त्री० [सं० पु० ] कान के अंदर की फुन्सी । कान के अन्दर की फुड़िया वा घाव । कहल उज्न (अ०) वैद्यक के अनुसार यह दो प्रकार की होती हैं - ( १ ) दोषजन्य र ( २ ) श्रागन्तु । इनमें से प्रथम वातादि दोषों के प्रकोप से उत्पन्न होती है और इसमें से लाल, पीला और गुलाबी रंग का स्राव होता है, चीरने की सी पीड़ा होती है, धूम सा निकलता है, दाह होता है और चूसने कीसी पीड़ा होती है । द्वितीयकान में घाव हो जाने वा चोट लग जाने आदि श्रागन्तु कारणों से होती है । सु० उ० २० श्र० । मा० नि० । कर्णविधि-संज्ञा स्त्री० [सं० पु ं० [] कर्णस्वेदन आदि । कान को स्वेदन करने की विधि। कान के सेंकन की विधि | भा० । कविवर -संज्ञा पु ं० [सं० क्ली० ] कान का छेद । करण शूल-वात- संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] अस्सी प्रकार के वात रोगों में से एक । दे० " कर्णशूल ।” कर्णशूली - वि० [सं० त्रि० ] जिसे कान में दर्द हो । जिसका कान दर्द करता हो । क शूल युक्त । कर शेखर - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] शाल का वृक्ष । साखू | सखुना । 1 कर शोथ, कर्णशोथक-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] वैद्यक में एक रोग जिसमें कान के भीतर सूजन होजाती है । कान की सूजन । सोज़िश गोश (फ्रा० ) । इल्तिहाबुल् उन, मुल उज् न ( श्रु० ) । Otitis “कर्णशोथाबु दर्शांसि जानीयादुक्त लक्षणैः ।” मा० नि० । “ शोफोर्शोऽबु दमीरतमू, तेषु रुक्यूतिकत्वं वधिरत्वं च बाधते ।” २२८२ कर्णच्छिद्र । कर्णविश-संज्ञा पु ं० [सं० पु ं० ] मत्स्य । मछली । कर्णवेध - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] बालकों के कान 'छेदने का संस्कार । कर्णवेधन । कनछेदन | कर्णसंखाव कर्ण शूल - संज्ञा पु ं० [सं० की ० ] [वि० कर्णशूली ( १ ) वैद्यक में कान का एक रोग जिसमें वायु दूषित विगामी होकर जब कर्ण गत होती है, तब कानों में तथा उनके आस-पास प्रति दारुण शूल पैदा करती है और यदि वह वायु अन्य दोषों ( पित्त, कफ, रक्त, ) से मिलकर शूल कारक हो तो वह शूल दुःसाध्य होता है । मा० नि० । सुरु उ० २० श्र० । कान का दर्द । कान की पीड़ा । दर्द गोश (फ़ा० ) । वज्डलू उ..न, अलम उज्न ( श्रु० ) । ( Otalgia ) Ear-ache. ( २ ) एक प्रकार की वातव्याधि जिसमें हनु ( ठुड्डी ). कनपटी, सिर और गरदन इत्यादि स्थानों को भेदन करती हुई सो वायु कान में पीड़ा उत्पन्न करती है । सु० नि० १ श्र० । च० सू० २० अ० । कर्णवेधन- संज्ञा पुं० [सं० क्ली० ] कान छेदने की क्रिया चा भाव । कर्णवेधनिका, कर्णवेधनी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) हाथी का कान छेदने का एक औजार । हा० १ (२) कान छेदने का एक श्रौज़ार | कर्णवेधनास्त्र । यथा - कपाली बहुलां बहुलायाञ्च शस्यते । सूचित्रिभाग सुषिरा व्यङ्गुला कर्णवेधनी ॥ अत्रि० कर्णवेष्ट - संज्ञा पुं० [सं० क्ली० ] कान का परदा । कर्णावरण | कर्णव्यध - संज्ञा पुं० [सं० पु ं०] कर्ण छेदन की क्रिया वा भाव | कर्णवेधन । कनछेदन | सु० सू० १६ श्र० । कष्कुली - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) कर्ण गोलक । कान की लौ । ( २ ) कान के भीतर - का श्राकाश (पोली जगह ) । हे० च० । ( ३ ) कानका वह भाग जिसमें छिद्रकर स्त्रीगण बालियाँ पहनती हैं। (Pinna ) वा० उ० १७ श्र० । कर्णसंस्राव कर्णस्राव - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] कान के भीतर से ( कर्ण स्रोत ) पीव वा मवाद बहने का रोग जो वायु से व्याप्त होकर कान के भीतर फुंसी निकलने वा घाव होने से श्रथवा सिर में चोट लगने से और जल में गोता मारकर स्नान करने से होता है । मा० नि० । सु० उ० २० श्र० कान बहना | सैलानुल् उ न ( ० ) । Otorrhoea श्रटोरिया । नोट - कान में खून बहने को अंगरेजी में Otorrhagia श्रटोरेजिया कहते हैं। नज़ीफ़ुल् उज् न ( अ० ) । Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णसमीप २२८३ कर्णामृततैल कण समीप-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] कनपटी । शंख- कर्णशकुली । अञ्जलि के द्रव्य ग्रहण को भाँति . देश । रा०नि० व. ११। यह शब्द ग्रहण की योग्यता रखता है इसी से कर्णसूची-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] कर्णवेध करने अञ्जलि के साथ उपमा दी गई है। __ की सूची । कान छेदने की सूई । कर्णाञ्जली-संज्ञा स्त्री० [सं० पु.] कर्णशकुनी। कर्ण सूटी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] एक प्रकार का कर्णायवर्ती लाला ग्रंथि-संज्ञा स्त्री० [सं०] कान की ली के नीचे और सामने स्थित एक ग्रन्थि जो ___ कीड़ा। कणस्पोटा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक लता का लाला उत्पन्न करती है। संख्या में ये दो होती हैं, कनपेड़ का रोग इसी ग्रंथि के सूजने से होता है। ___ नाम कनफोड़ा । वि० दे० "कनफोड़ा"। गुद्दः नतियः गुद्दः उजि.नयः, गुद्दतुल उजन कर्णनाव-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कान बहने का अा ( Parotid gland) प्र० शा०। रोग । कर्ण संस्राव । कर्णाटी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] विश्वप्रथि। हंसकण स्रोत-संज्ञा पु. [ सं० ली.] कर्णाञ्जली। पदी का चुप लाल रंग का लजालू । रा०नि० ( External acoustic meatus )| व०५। अ. शा०। कर्णान्तर द्वार-संज्ञा पु[सं०] भीतरी कान कामुंह । कर्ण हीन-संज्ञा पु० [सं० पु.] साँप । सर्प । साँप | (Opening of Internal audiके कान नहीं होते । (भारत, अनु० ६६ अ.) tory maetus.) वि० [सं० वि० ] बहरा । वधिर । पान्तरनाली-संज्ञा स्त्री० सं० स्त्री.] कान के कण क्ष्वेड-संज्ञा पुं॰ [ सं० पु.], कान का एक भीतर की नाली।( Internal acoustic रोग जिसमें पित्त और कफयुक्र वायु कान में घुस meatus) प्र० शा० । जाने से बाँसुरी का सा शब्द सुन पड़ता है। कर्णान्तरिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक पेशी । यथा _ (Stapedius muscle) वायुः पित्तादिभियुक्तो वेणुघोषसमं स्वनम्। | कर्णान्द, कान्द-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कर्णकरोति कण योः दवंडं कण वड़ः स उच्यत॥। पाल । कान की लव । हे. च । मा०नि०। कर्णाभरणक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] अमलतास । सुश्रुत के अनुसार श्रम करने से, धातु क्षय से, पारग्वध का वृक्ष | रा०नि०व०६। रूखे और कसैले भोजन करने से, तथा. शिरो कर्णामयन्न तैल-संज्ञा पुं॰ [सं० क्ली० ] कर्ण रोग विरेचन करने के उपरांत शीतल आहार विहार __ में प्रयुक्त उक्त नाम की तैलौषधि । करने से वायु शब्द के मार्ग में व्याप्त हो जाती है __ योग-कूठ, सोंठ, बच, हींग, सोया, सहिजन और कानों में अत्यन्त वेड़ शब्द करती है। सेंधा नमक और बकरे के मूत्र से पकाया हुआ सु. उ० २० अ०। तैल सब प्रकार के कर्ण रोगों का नाश करता है। नोट-कर्णवेडऔर कर्णनाद के अर्थांतर के र०र० स० २४०। लिए दे० "कर्णनाद" कर्णामृत तैल-संज्ञा पुं॰ [सं० क्ली० ] एक तैलौषधि कर्णाख्य-संज्ञा पु० [सं० पु.] सफ़ेद कटसरैया, | योग यह है हींग, नीम के पत्ते, संखिया और श्वेत झिटी । वै. निघः।। समुद्रफेन इनको बराबर लेकर गोमूत्र और कड़वे कर्णाग्रवर्ती लाला ग्रन्थि-संज्ञा स्त्री० [सं० ] लाला | तेल में यथाविधि तेल सिद्ध करें। स्रावकारी एक ग्रंथि विशेष । (Parotid गुण, प्रयोग-इसे मनुष्य, हाथी और घोड़ों ___gland.)प्र० शा० । ह० श० र० । के कान में भरने से उनके कण रोग और शिर पर कर्णाञ्जलि-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] Fxternal लगाने से शिर के रोग नष्ट होते हैं । यह ब्रह्मदेव acoustic meatus कर्णस्रोत । कान का का कहा हुश्रा योग है। ( यो० त० कर्ण रोक छेद । सिमान (अ०)। अ० शा० । प्र. शा० ।। चि०) Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णाट २२८४ कणोमोट-संज्ञा पु ं [सं०पु० ] कए प्रकार का पेड़ । काणागाछ ( बं० ) । चक्र० । कर्णारा-संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ स्त्री॰ ] कर्णवेधनी | कान छेदने की सलाई । त्रिका० । कर्णारि - संज्ञा स्त्री० [सं० पुं० ] कोह ( २ ) नदी कर्णावु 'द-संज्ञा पु ं० ( १ ) श्रजुन । वृक्ष | रा० नि० व० ६ । [सं० पु० ] एक प्रकार का रोग जो कर्णस्त्रोत में होता है । कान का अदि । मा० नि० | वा० उ० १७ श्र० । गुण - कडुश्रा, कलेला, मीठा, ठंडा, मुख विशदता कारक, हलका, प्यास बुझानेवाला, कफ़ और रक्त पित्त नाशक है। भा० पू० १भ० । वि० दे० " कमल" । ( १२ ) मेदासींगी । (१३) काकोली । ( १४ ) यूथिका । जूही । (१५) तरणी । रामतरणी । गन्धाढ्या । रा०नि० ० ५ । ( १६ ) शुष्क गोधूम - चूर्ण | रा० नि० परिशि० । कर्णा - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] कान में मस्सा होने का रोग | कान का बवासीर । यथा 'कण शोधावु दाशांसि जानीयादुक्तलक्षणः । " वर्णिकार, कर्णिकारक - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( १ ) मा० नि० । कनियार वा कनकचंपा का पेड़ । (Pterospermum acerifolium, Willd.) पर्थ्या० - दुमोत्पल, परिव्याध, वृक्षोत्पल-सं०। (२) एक प्रकार का अमलतास जिसका पेड़ बड़ा होता है । इसमें भी अमलतास ही की तरह की लंबी लंबी फलियाँ लगती हैं जिनके गूदे का जुलाब दिया जाता है। छोटा श्रमलतास । व. कर्णि-संज्ञा स्त्री० [सं०पु ं० ] दे० " कर्णिकार” | 'कि-संज्ञा पु [सं० पु० ] ( १ ) गनियारी | गणिकारिका । श्रथ । छोटी अरनी । ( २ ) कमल का छत्ता । पद्मकोष । ( ३ ) सन्निपात ज्वर का एक भेद । कर्णक सन्निपात | भा० म० १ भ० | दे० " कर्णक" । 'कणिका - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) दारुण पीड़ा । वा० उ० ३८ ० । ( २ ) धरनी ( बड़ी ) का पेड़ | महाग्निमंथ वृत्त । श्रथ । रा०. निव० ६ । वै० निघ० २भ० कासरोग रुद्रपर्पटी । । ( ३ ) हाथी के सूंड़ की नोक । ( ४ ) हाथ की बिचली उँगली | करमध्याङ्गुली | हे० च० । (५) डंठल जिसमें फल लगा रहता है । बोंटा । ०त्रिक । (६) पद्मिनी नाल | कमल की डंडी | मृणाल | हे० च० । ( ७ ) एक योनिरोग जिसमें योनि के कमल के चारों ओर कँगनी के अंकुर से निकल श्राते हैं । योनिरो० । भा० म० ४ भ० कर्णिकार, कर्णिकारक ( १० ) कँवलगट्टा | वोज मातृका । ( ११ ) कमल का छत्ता जिसमें कँवल गट्टे निकलते हैं । वीज कोष । यथा - " वीज कोषस्तु कर्णिका" हारा० लक्षणकर्णिन्या कर्णिका योनौ श्लेष्मा सृग्भ्याञ्च जायते । मा० नि० । चरक के मतानुसार, प्रसव से पूर्व ) "बेसमय जोर से काँखने से गर्भ के द्वारा वायु रुककर श्लेष्मा तथा रक्त में मिल जाता है, जिससे यह रोग होता है । (८) खड़िया ] मिट्टी ) । सेलखरी । कठिनी । ( 8 ) सेवती । सफ़ेद गुलाब । शतपत्री । क्षुद्र स्वर्णालुका वृक्ष | छोटा सोनालू | लघु वाहवा (मरा० ) । किंरुगक्के ( ते ० ) । पर्या० - राजतरु, प्रग्रह. कृतमालक, सुफल, चक्र, परिव्याध, व्याधिरिपु, पित्तबीजक, लध्वारग्वध । गुण—वैद्यक में यह सारक, कड़ ु श्रा, चरपरा और गरम तथा कफ, शूल, उदररोग, कृमि, प्रमेह, व्रण और गुल्म को दूर करनेवाला माना जाता है 1 रा०जि० ० ६ । नि०र० । ( ३ ) एक प्रकार hot वृक्ष जिसकी पत्ती ढाक की पत्ती की तरह और फल लाल और अत्यन्त मनोहर होते हैं। इसके वृक्ष वन और पर्वतोंपर अधिक होते हैं! परिव्याधः, पादपोत्पलः, कर्णिकार, द्र ुमोत्पल । उलटकंबल । गुण - कड़ा, चरपरा, हलका, शोधन, कसेला, रञ्जन और सुखद तथा सूजन, कफ, रक्त विकार, व्रण और कोढ़ को दूर... करनेवाला है । रा०नि० ० ॥ भा० । (४) स्थलपद्म स्थल कमल । २० म० ।: (१) डहुक । डहुआ । रहना । (६५). कनेर । (, ७) गणेरुका | गण कारिका । कीर्ण | Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णिक २२८५ कयंगण ५ गुण-शोफ, श्लेज, व्रण, कुष्ठ नाशक और कर्णीरथ-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] कंधे पर उठाई रतशोधक है। रा०नि०व०६ (5) कर्णिकार जाने वाली सवारी। चौपहला । डोली। खड़पुष्प । कनकचंपा का फूल । "वर्णप्रकर्षे सति- खड़िया । अ०टी० भ०। कर्णिकारम्” (कुमारसं०) | कर्णीवान-संज्ञा पुं० [सं० पु.] अमलतास का कर्णिक-[ कना० ] अपराजिता। पेड़ । पारग्वध वृक्ष । कर्णिकारिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] हरिद्रा वृत्त । कर्णे जप मन्त्र-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] एक मन्त्र वै० निघ०। जिससे विष का नाश होता है । जहर उतारने का कर्गिकी-संज्ञा पु० [सं० पु. कर्णिकिन् ] हाथी । एक मंत्र । मंत्र यह हैगज । जटा० । सूंड़ की उँगली रखनेवाला “ओं हर हर नीलग्रीव श्वेताङ्गसङ्ग जटाग्र हाथी। मण्डित खण्डेन्दु स्फूर्तमन्त्ररूपाय विषमुप कर्णिन-वि० [सं० वि० ] विवृद्धकर्ण । कर्णिनी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] स्त्री की योनि का संहर उपसंहर हर हर हर नास्ति विषं नास्ति एक रोग जो कफ से उत्पन्न होता है । इसमें योनि विषं नास्ति विषं उच्छिरे उच्छिरे उच्छिरे।" में कफ और रकजन्य कर्णिकाकार एक ग्रंथि उत्पन्न ___ इस मन्त्र द्वारा ठंडे जल से छः बार तालु और हो जाती है। भा० म० ४ भ. योनिरो-चि० मुख का सिंचन करें । अत्रि० ३ स्थान ५६ अ०। सुश्रुत भी कहते हैं कर्णेन्द्रिय-संज्ञा पुं॰ [सं० क्ली०] कान । श्रवणेन्द्रिय "कर्णिन्यांकर्णिकायोनौश्लेष्मासृग्भ्यांप्रजायते।" "अत आकाशतन्मात्रनिर्मितम् ।” सु० शा० सु० उ० ३८ अ०। १०। अन्यच्च-अकाले वाहमानाया गर्भेण पिहि- | कर्णोत्पल-संज्ञा पु० [सं० की.] कान का कवल, तोऽनिलः। कणिकां जनयेद्योनौ श्लेष्मरक्तेन | कर्णस्थित पद्म । मूछितः। रक्तमार्गविरोधिन्या सा तया कर्णिनी | कर्णोण-संज्ञा पु० [सं० पु.] एक प्रकार का मता।" च० । (Diseases of the Ute- हिरन । ( भागवत) rus Polypus Uteri ) कर्णोण-संज्ञा पुं॰ [सं० क्ली० ] ) कान के रोएँ। कर्णिल-वि० [सं० वि०] बड़े कानों वाला। दीर्घ कर्णोर्णा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] ) कान के बाल | कर्ण। कर्णी-संज्ञा पु० [सं० पु.] (१) अमलतास का | कर्णोत्पात-संज्ञा पु० [सं० क्ली० ] कान में होने पेड़ । पारग्वध वृक्ष । रा०नि० व० २३ । (२) वाला एक रोग जो बजनी श्राभरण के घर्षण और ग्रीवा का पाव भाग । कनपटी। (३) गणि- ताड़न से होता है। कारिका । गनियारी । वै० निघ० । (४) कंट- | कर्णोन्मथन-संज्ञा पु[सं० क्ली० ] कान का एक कारी । (५) श्वेत किणिही। (६) श्राखु रोग । इसमें वायु प्रकुपित होकर कफ को ग्रहण कर्णिका, मूषकाह्वा । प्रतिपर्णी । मूसाकानी । चूहा कर लेती है । इस रोग में वेदना रहित शोफ कानी । द्रवन्ती। और स्तब्धता होती है। यह कफ वात के प्रकोप वि० [सं० त्रि०] (१) कानवाला । कणं से होता है। युक्र । (२) बड़े कान वाला। प्रशस्त कर्ण। | कर्य-वि० [सं० त्रि०] (१) कर्ण से उत्पन्न । (३) ग्रंथि युक्त। कान से उत्पन्न । (२) कान के योग्य । कान के कर्णीमान-संज्ञा पु० [सं० पु.] पारग्वध । अमल लिये हितकारी। (३) भेद के योग्य । छेदने के तास । क़ाबिल । कर्णीया-संज्ञा स्त्री० [सं०] धमनी विशेष । (Au- | कर्ण्यगण-संज्ञा पु० [सं०] कानों के लिये हितकारी ricular Artery ) अ. शा०। औषधियों का समूह, जिसके अंतर्गत तिलपर्णी, Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८६ कहम कईमक समुद्रफेन, कई समुद्री कीड़ों की हड्डियाँ कर्तित-वि० [सं० त्रि.] कटा-छुटा । कर्तन किया श्रादि हैं। हुआ। कर्त-[मु.] कत । कर्द-संज्ञा प[ दे. "क"। कर्त:-[फा० } कसरानी बूटी । अस्ल । | कर्दमी-संज्ञा स्त्री॰ [सं० सी० ] मुग्दर; गन्धसार, कतन:, कर्तीन:- फा०] मकड़ी का जाला। . सप्त पत्र । वृत्तपुष्प, गन्धराज । विटप्रिय, रा० कतम-[?] एक प्रकार का विष जो कदाचित् मीटा | नि० व० १० । तेलिया का एक.भेद हो। कदान-[!] एक प्रकार का पक्षी जो गौरैए से कर्तलाइन-[ यू० ] कनकराबी । ___ बड़ा होता है। कतेहेदश्ती-[फा०] इज़ख़िर । कार-[ ! ] दरदार । कर्तर-[ ? ] अकरकरा । कई-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] कर्दम । कीचड़ । कर्द। श०२० कतरी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] विभाण्डो । दन्तीभेद कई र-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (1) करहाट । श्रावतकी। कँवल की जड़ । (२) कीचड़ । पंक । मे. कर्ता-संज्ञा पुं० [सं० स्त्री० ] वायु । वात | पवन | उत्रिक । [३] कमल की डंडी । मृणाल । (४) रा०नि० व०६। जल में होने वाले पौधे वा घास । (५) कमल कान-[ तु० ] सफेदा । की जड़। काली-संज्ञा स्त्री० [सं. स्त्री.] ताड़ की मादा वि० [सं० वि० ] कीचड़ में चलने वाला किस्म का वृक्ष | ताली । ताड़ी। कईन-संज्ञा पुं॰ [सं० की.] पेट का शब्द । पेट कत्तन-संज्ञा पु० [सं० वी० ] (1) काटना । कत की गुड़गुड़ाहट । कुतिशब्द । हे० च० । रना, छेन । मे० नत्रिक । (२) सूत इत्यादि | कई म-संज्ञा पु० [सं० की.] (१) गंधराज कातना (३) काटने का एक अस्त्र । रा०नि० व० १२ । सु० चि० २५ अ०। (२) कर्तनक-संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का दाँत । | मांस । श. च. (३) आँख की पलक का ( Incisor teeth) प्र० शा० । एक रोग जिसमें आँख में कीचड़ भरा रहता है। कर्तनी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] कतरनी । कैंची। इसे वर्मकई म कहते हैं। दे० "वर्त्मकद्दम" | कतरिका-संज्ञा स्त्री० दे० "कर्तरी" । कद्दम कद्द मक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (1) कर्तरी-संज्ञा स्त्री० [सं. स्त्री.] (१) छोटी तल. कीचड़ । कीच । चहला । कादा। वार । छुरी । कटारी । कृपाणी । (२) कैंची। संस्कृत -निषद्धर, जम्बाल, पङ्क । कतरनी । कर्ती । सु० चि० । यथा साद (अ.), दम ( मे०)। "स्नायवस्थि गर्भशल्यानां केशादीनाञ्चकर्त्तने । गुण-कीचड़ दाह, पित्त रोग और शोफ विविधाकृतयोयोज्याः कर्तर्यः कत्तरीनिभाः॥" नाशक है तथा ठंढा और दस्तावर है। भा०। अत्रिः । राज । (२) एक प्रकार का शलि धान । (३) क्षुद्र करबाल | कटारी। भा० पू०१ भ. शाक व० दे० 'शालि'। (३) कर्तरीय-संज्ञा पु० [सं० क्को• ] सुश्रुत में स्थावर तेरह प्रकार के कंद विषों में से एक प्रकार का विषों में से सात प्रकार के त्वक्सार और निर्गस कंद विष । प० मु० । सु० कल्प० २० । विष का एक भेद । सु० कल्प० २ अ०। दे० "कन्दविष" । (४) पद्मिनी कदम । कत्तरीयुग्म-संज्ञा पुं॰ [सं० की.] दोनों प्रकार यथा-'पुनर्नवा कई म.कण्टकायौं। सु० चि०.२५ का सिन्धुवार अर्थात् श्वेत और नील । अ०। (५) राजि मंत साँप का एक भेद । सु. कत्तिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (१) हाथ की। कल्प ० ४ अ० दे० "साँप"। (६) भनाज़ विचलो उगली । मध्यमांगुली । [२] हाथी | अन्न । वै० निघ० । (७) लाया । (८)पाप । के सू की नोक। वि० [सं० वि० ] कई मयुक्त । .. - - - - - Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमविसर्प २२८७ कर्नु ल बंकर ईम विसर्प-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] विसर्प रोग | कर्नपूर-संज्ञा पुं॰ [सं० कर्णपूर ] श्रासापाला का का एक भेद । इसमें कफ पित्त के कारण ज्वर, __ फूल । स्तम्भ (अंगों का जकड़ना), निद्रा, तन्द्रा, शिर | कर्नब-संज्ञा पुं॰ [ करम फ़ा० से मु१०] (१) में पीड़ा, अंग साद, विक्षेप, प्रलेप, अरुचि, भ्रम, करमकल्ला । पातगोभी। इसके तीन भेद हैं-(१) मूर्छा, मंदाग्नि, हड़फूटन, प्यास, इन्द्रियगारव, ____ बरी, (२) बहरी और (३) बुस्तानी । (४) श्राम गिरना और मुखादि स्रोतों का कफ से लिप्त ___कुचला । क़ातिलुल कल्ब ।। रहना इत्यादि लक्षण होते हैं । यह प्रामाशय में | कर्नब नब्ती-अ.] बाग़ी करमकल्ला । उत्पन्न होकर पीछे सर्वत्र फैलता है । इसमें थोड़ी कर्नब बरी-अ.] एक प्रकार का करमकल्ला । पीड़ा होती है और अत्यन्त पीली, तबेके रंग की, | कर्नब बहरी-अ.] करमकल्ला का एक भेद । सफेद रंग को पिड़िकायें होती हैं जो चिकनी,सुरमा | कर्नब शामी-[अ० ] गोभी । के समान काली मलिन सूजन युक्र, भारी भीतर से पकी हुई होती हैं। उनमें दाह होता है तथा दबाने से तत्क्षण गीली हो जाती हैं और फट [यू०] (१) करमकल्ला । कर्नब । (२) जाती हैं। कींच के समान होकर उसका मांस | लोबिया । गल जाता है। मांस के गलने से इसमें शिरा [कर्नबाद का अल्पा० ] करोया । स्नायु आदि दीखने लगती हैं और उससे शव की | क़नबाद-[?] करोया । सो दुर्गंध आती है। इसे कम विसर्प कहते हैं। कर्नबा इप्रिया-[ यू०] जंगली कर्नव । मा०नि० । वि० दे० "विसर्प"। कर्नबाद माया-[सिरि०] नीलोफर । कईमाटक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] विष्ठा इत्यादि | कर्नबादेरा-[सिरि० ] कर्नब बरीं। फेंकने की जगह । श० ० । कनेबी अन्मारस- यू० ] बागी कर्नब । कई मिनी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.]. कीचड़वाली | कर्नबुलमाऽ-अ.] नीलोफ़र । धरती । दलदली ज़मीन । कर्नबिय्यः-[अ० ) वह गिज़ा जिसमें करमकल्ला कमी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] मुग्दर वृक्ष । मोगरा पड़ता हो । करमकल्ला मिला हुभा आहार । __ का पेड़ । रा०नि० व०१०। गंधराज का पेड़। कनो-संज्ञा पु० दे० “करना" । कमी-संज्ञा स्त्री० दे० "कईमी"। संज्ञा पुं० [ देश० दिल्ली] खट्टा का फूल । कर्ने-अ० ] [ वहु० कुरून ] (१) सींग। शृंग। कावेला-[?] बारहसिंगे का सींग । शाख । (२)एक वृत्त का नाम । (३)उभार । कर्नियून-[ यू० ] शाह बलूत । ज़ाइदः। (४)१००वा ८० वर्ष का ज़माना । की-संज्ञा स्त्री० [?] एक प्रकार का फूल । Cornu.। कर्नीन-[अ०] दे॰ "केरेटीन' । कर्नः-१०] सींग। क़र्निय्यः-[अ० ] Cornea कर्न:-[१] (१) ऊँटकटारा । उश्तर ख़ार । (२) | कर्नुल अजुज़- अ० ] अजुज़ अर्थात् चूतड़ की हड्डी कुराद । चिचड़ी। में नीचे की ओर का उभार । Sacral Corकर्न ईल-[१०] बारहसिंगे का सींग । कर्नुलईल । nua कर्नूकार-) [?] करोया। कनुल अनज़-[अ०] (१) बकरे का सींग। कर्नफ़ार (२) मेथी। कर्नपात-संज्ञा [सं० कर्णपत्र ] एक बूटी जिसमें | कनु ल उसउस-[अ०] पुच्छास्थि में ऊपर की तरफ फूल और पत्ते नहीं होते । और यह उभय पार्श्व में पक-एक उभार है ।(Coccyg. कालापन लिये खाकस्तरी होती है । यह _eal Cornua) बूटी नाखून से चुनी हुई चीज़ की तरह होती है। कनु ल बकर-[१०] (१) बैल का सींग। वृष प्रज,फ्रारुजन । दे. "करनपात"। | भंग । (२) सूखी मेथी। Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्बहर २२८८ क़ल बहर -[ श्र० ] ( १ ) कहरुवा । ( २ ) मूँगा की जड़ | बुस्सद । ( ३ ) मूँगा । मिर्जान । ननु ल मत्र्श्रृज- अ॰ ] बकरे का सींग ! क़नु' र सौर- [ श्र० ] दे० "कनु लू बकर” । हर्बीब - [अ०] गेंड़े का सींग । शाख़ कर्गद्दन । कर्परी तुत्थ- संज्ञा पुं० [सं० की ० ] खपरिया थोथा । रसक । खर्पर । कर्परिका तुत्थ । यथा"कर्परी तुत्थकं तुत्थादन्यत् तद्रसकं स्मृतं । प्रोक्तस्ते गुणा रस के स्मृताः।।" वैद्यकं । गुणा क़नूस-[ रू० ] हाऊबेर । श्रधर । क़स कालून -[ रू० ] चिलगोज़ा । क़र्नू ह–[ मुश्रु० ] गोल मिर्च के बराबर एक दाना । कर्पा-संज्ञा पु ं० [ देश? ] सूखे ज्वार का पेड़ । ह ह । घोड़े का कर्पा - [ बं० ] कपास | कावास (बं० ) । कर्पा गाछ, कापास गाछ - [ बं० पौधा । . अनुसार कर्नेता - संज्ञा पु ं० [देश० ] रंग के एक भेद | कर्पट, कर्पटक -संज्ञा पु ं० [सं० पुं० ] ( १ ) पुराना चिथड़ा | गूदड़ | लत्ता | संस्कृत पर्या०मलिन वस्त्र । कर्पण–संज्ञा पु ं० [सं० ] एक प्रकार का लोहे का ० - लक्कक । नक्कक । श्रम० । (२) शस्त्र । सांग | कर्पणी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] काकजंघा । मसी । नि० शि० । कर्पर-संज्ञा पु ं० [ सं० पु ं० ] ( १ ) खप्पर । खपर। खपड़ा । ( २ ज्वालात कपाल | गर्भ खप्पर । वा० चि० १ श्र० । “स्वभ्राकारमपूपपचन पात्रं म्युब्जं कर्परे इत्युच्यते” । वा० टी० हेमा० (३) कपोल | गाल | त्रिका० । ( ४ ) शर्करा । ( ५ ) गूलर का पेड़ । उदुम्बर का वृक्ष । श० च० । ( ६ ) मस्तक की हड्डी । कपाल । खोपड़ी । ( ७ ) कड़ाह | कटाह । ( 5 ) एक शस्त्र । मे० रन्रिक । ( १ ) कछुए की खोपड़ी । (१०) शर्करा | चीनी । कपूर कर्परी -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] दारूहल्दी के क्वाथ से निकला हुआ तूतिया । रसवत । तुत्थांजन | दार्विका । कर्पराल-संज्ञा पुं० [ सं० पु० ] ( १ ) श्रखरोट । गिरिज पीलु भा० । ( २ ) पीलू का पेड़ । (३) चिरमिट । कर्परांश -संज्ञा पु ं० [सं० पु ं० [][ [ कर्पर का अंश | मृत्कपालखंड । श० र०] मिट्टी के खपड़े का टुकड़ा कर्परिकातुत्थ-संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] ( १ ) खपरिया । खर्पर । वै० निघ० । ( २ ) एक प्रकार का तूतिया । कपास का कर्पा बीची, कर्पा बीज - [ वं० ] बिनौला । कर्पास, कर्पासक - संज्ञा पु ं० [सं० पु ं०] कपास का पौधा । हे० च० । मद० ० १ । कर्पासफल संज्ञा पुं० [स० नी० ] कपास का बीज । बिनौला | विशेवकर श्रस्थिवर्जित कपास का बीया कसेला, मीठा, भारी, वात कफनाशक और रुचि कारक है । दे० "कपास" । कर्पासिका - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कपास | कर्पासी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कपास का पौधा । मद० ० १ । दे० " कपास " । कपूर, कर्पूरक-संज्ञा पुं० [सं० पु ं०, क्ली० ] (१) कपूर | सु० सू० ४६ श्र० । रा० नि० व० १२ । वि० दे० "कपूर" । ( २ ) कचूर | कचूरे कंद | ( ३ ) कच्ची हलदी । श्रद्र हरिद्रा । श० च० । ( ४ ) हिमवालुक | ( ५ ) चन्द्रमा | कर्पूर -[ कना ] कपूर । कपूरक-संज्ञा पु ं० [सं० ] कपूरकचरो | कबूर्रक | कपूर कचरी, कर्पूर: कचली - संज्ञा स्त्री० [सं० कपूर+करी ] कपूर कचरी । कर्पूरखण्ड -संज्ञा पु ं० [सं० पु ं० ] कपूर का टुकड़ा कपूर की डली । कपूर तुलसी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक प्रकार की तुलसी जिसमें से कपूर की सी गंध आती है । कपूर तैल-संज्ञा पुं० [सं० नी० ] ( १ ) कपूर का तेल | कर्पूर स्नेह | Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपूरतैलम् २२१ कपूरा पा-हिम तैल । सुधांशु तैल । गुण-इसके उपयोग से अतिसार,ज्वरातिसार गुण-चरपरा, गरम, वातरोगनाशक, कफ, | ६ प्रकार की संग्रहणी और रातिसार नष्ट । तथा आमनाशक, दाँत को मजबूत करनेवाला, | होता है। और पित्तनाशक है । रा०नि० व० १५। दे. नोट-इसमें १ भाग भुना सुहागा भी मिलाने । "कपूर" । (२) सुगंधवाला । हृीबेर । का कहीं कहीं लेख मिलता है। (भैष० र० । । कपूरतैलम्-[ते०, मल०]) गंधा बिरोजे का तेल अतीसार चि०)(२) रसकपूर । भा० । कपूरत्तैलम्-[ ता०] कर्पूरवर्ति-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] उक्त नाम का एक योग । कपूरतैल-[ कना०] ) Turpentine Oil. | निर्माण विधि-कपूर के चूर्ण के साथ कपड़े कपूरनालिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] एक पकवान की बत्ती दूर्वादि के सींक में युक्ति पूर्वक बनाकर जो मोयनदार मैदे की लंबी नली के आकार की मूत्र मार्ग में प्रवेश करने से मूत्राघात नष्ट होता लोई में लौंग, मिर्च, कपूर, चीनी श्रादि भरकर है । वृ०नि० २० मूत्राघात चि० । उसे घी में तलनेसे बनता है । गुणमें यह गुझिया | कपर-बल्ली-संज्ञा स्त्री० [सं० सी.1 असवरग । ( संयाब ) की तरह होती है। कपूर की स्पृक्का । कर्पूरलता। गोमिया । भावप्रकाश में इसे शरीरवर्द्धक, बल | कपूर-शिलाजीत-संज्ञा पु० [सं०] एक प्रकार का कारक, सुमिष्ट, गुरु, पित्त एवं वातनाशक, रुचि शिलाजीत । जनक और दीप्ताग्नि वाले को अत्यन्त लाभकारी | कपूर-शिलाधातु-संज्ञा स्त्री० [सं०] शिलाजीत । लिखा है। कपूर-सुन्दरी-वटिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] उक कपूरपुल-ता०] भूस्तृण । नाम का एक योग। कपूरपुल्लु, येएणेय-[ ता० ] रूसा । रोहिष।। निर्माण विधि-कपूर, जायफल, जावित्री, धत्तूर बीज, समुद्र शोष, अकरकरा, सोंठ, मिर्च, कपूर पूस-[ते. ] कहरुबा । क्रनुल्बहर। पीपल, वच, कुबेराक्ष, श्वेत पाटला प्रत्येक समान कपूरमणि-संज्ञा पु० [सं० पु.] एक प्रकार का भाग । शुद्ध भंग सबसे आधी, भंग तुल्य पुरानी सफ़ेद पत्थर जो दवा के काम में आता है और अफीम, भंग से आधी शुद्ध मीठा विष । इन्हें कडा , चरपरा, गरम, वणनाशक तथा त्वचा के मिलाकर भांगरे के रस में महन कर बेर के बीज दोष और वात दोष इत्यादि का, नाशक समझा प्रमाण की गोलियाँ बनाएँ। जाता है। रा० नि० व० १३/ कर्पूराश्मा । गुण-इसके प्रयोग से शीत वात, संग्रहणी, [ता०] कहरुबा। अर्श, प्रवल अतिसार, अग्निमान्य और इससे कपूर मरम्-[ ता०] युकेलिप्टस ग्लोब्युलस । अफीम खाने की आदत छूट जाती है। एवं काम दे०" युकेलिप्टस"। शक्ति की वृद्धि होती है । र० प्र० सू०८ अ०। कपूरम्-[ते.] 1 कपूर । कपूर हरिद्रा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] एक प्रकार कप्पू रम्-[ ता०] की हल्दी । कपूर हल्दी । मामा हल्दी । प्राम कपर वल्लि- 1) पंजीरी का पात । प्रादा-बं०। कप्पूर-वल्लि-[ ता०] ) सीता की पंजीरी। गुण-यह शीतल, वायुजनक, मधुर, पित्त(Anisochilus Carnosus.) शामक, कडुई और हर प्रकार की खुजली को दूर कपूर रस-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (१) एक | करती है । भा० पू० १ भ०। मायुर्वेदीय रसयोग-शुद्ध हिंगुल, शुद्ध अहिफेन, | कपूर-हल्दी-संज्ञा स्त्री० [सं० कपूर+हिं० हलदी] मोथा, इन्द्रजौ, जायफल और कपूर प्रत्येक तुल्य | कपूर हलदी । दे. "कपूर हरिद्रा"। भाग । चूर्ण कर जल से अच्छी तरह घोटे । फिर | कर्पूरा-संज्ञा स्त्री० [सं० सी०] तरटी । तरदी । २ रत्ती प्रमाण की गोलियाँ बनाएँ। आमा हलही । फा०६७ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्पूरादि-गुटिका २२६० कपूरासव कपूरादि-गुटिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] उक्न नाम | कर्पूराद्य-तैल-संज्ञा पुं॰ [सं० क्री० ] उक्न नाम का का एक योग। एक योग, जो बाल गिराने में बरता जाता है। निर्माण विधि-भीमसेनी कपूर १। टंक, निर्माण क्रम-पाकार्था-तिल तैल ८ पल, कस्तूरी १। टंक, लौंग । टंक, मिर्च २॥ टंक, कल्कद्रव्य-कपूर, भिलावाँ. शंखभस्म, जवाखार पीपर २॥ टंक, बहेड़े की छाल २॥ टंक, कुलिंजन तथा मैनसिल ये ओषधियाँ मिलित २ पल । २॥ टंक, अनार की छाल । टंक । सर्व तुल्य पाकार्थ-जल ३८ पल यथाविधि तैल पाक खैरसार मिलाकर चूर्ण करे और जल के साथ करके छानलें । इसके पश्चात् इसमें २ पल हरताल मन कर चणक प्रमाण गोलियाँ बनाएँ। का चूर्ण मिलादें। इसके उपयोग से क्षणभर में गुण-एक गोली शहद के साथ नित्य सेवन ही बाल गिर जाते हैं । चक्रद० योनि व्या० चिका करने से कास रोग का नाश होता है। कर्पूराद्य-रस-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] उक्न नाम का अमृ० सा०। एक रसौषध । कपूरादि चूर्ण-संज्ञा पुं॰ [सं० क्ली० ] उक्न नाम का योग निर्माणविधि-कपूर, भंग, धत्तूरबीज, एक प्रसिद्ध योग जायफल, अभ्रकभस्म, लौहभस्म, सीसक भस्म, निर्माण विधि-भीमसेनी कपूर, तज, मिर्च, बंगभस्म, छोटी इलायची, पुन्नाग, धनियाँ, जायफल, लौंग प्रत्येक ५ टंक, नागकेशर ७ टंक, मीठा विष, सोंठ, मिर्च, पीपल, लौंग, तालीसपत्र, पीपर - टंक, सोंठ ६ टंक । इनका विधिवत् चूर्ण अरनी के बीज, अरनी की छाल, खिरेटी, अकस्करा बनाकर दूनी मिश्री मिलाकर रख लें। प्रत्येक समान भाग लें। चूर्ण कर सर्व तुल्य मिश्री गुण-इसे शहद आदि के साथ तथा भिन्न मिलाकर रखलें। भिन्न उचित अनुपान के साथ १ टंक खाने से गुण-इसे बलाबल की विवेचना कर उचित राजरोग. अरुचि. कास. क्षय, श्वास, गुल्म, अर्श, मात्रा में सेवन करने से श्वास, प्रमेह, रक्तपित्त, वमन और कंठ रोग का नाश होता है। प्रस्वेद, अनेक प्रकार के सन्निपातज रोग, वात और अमृ० सा। स्वरभंग नष्ट होता है। कपूरादि तैल-संज्ञा पुं॰ [सं० की.] उन नाम का मात्रा- मा० से ३ मा० तक। : एक योग। कपूराश्मा-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.](१) एक प्रकार निर्माण विधि-कपूर, भिलावा, शंख का ___ का उपरत्न । कर्पूर चीनिया। (२) स्फटिक । चूर्ण, जवाखार, मैनसिल और हरताल के साथ | : वै० निघ । बिल्लौरी पत्थर । सिद्ध किया हुआ तेल लगाने से बाल गिरजाते हैं। २०र० यो व्या०। | कपूरासक्-संज्ञा पुं० [सं० पु.] उक्न नाम का एक प्रसिद्ध योग। कराद्य-चूर्ण-संज्ञा पुं० [सं० वी०] उक्न नाम का निर्माण विधि-उत्तम सुरा ४०० तोले, प्रांक एक योग।.. निर्माण-विधि-कपूर, दालचीनी, कंकोल, मूल स्वचा ३२ तो०, इलायची, नागरमोथा, सोंठ, अजवायन, बेल्लज, प्रत्येक ४-४ तोले । जौ जायफल, पनज इन्हें १-१ भाग । लौंग १ भाग, कुट करके एक बड़े बोतल में डाल मद्य मिश्रित नागकेसर २ भाग, मिर्च ३ भाग, पीपल ४ भाग, सोठ ५ भाग और मिश्री सर्व तुल्य । यथा विधि । कर मुख वन्द करदें। एक मासोपरांत छान कर रखलें। उत्तम चूर्ण बनाएँ। ___ मात्रा-१०-६० बूंद । अाजकल बाजार मात्रा-1 से ४ मा० तक। में जो अर्क कपूर बिकता है उससे यह कहीं उत्तम गुण-इसे यथाविधि पथ्य पूर्वक सेवन करने से अरुचि, क्षय, खाँसी, स्वरभंग, स्वास, गुल्म, है। इसे विसूचिका तथा अतिसार में देने से मर्श, वमन और कंठरोग का नाश होता है। अत्यन्त लाभ होता है । परीक्षित है । भैष० २० यो०र०कास चि०। ... | परिशिष्ट । ....... Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ कबुरा कर्पूरिल रिल-वि० [ सं० त्रि०] कपूरयुक्र । कपूरी । कर्बाबस-[?] जंगली छिपकली । वज़ग़ः । कारी। कर्बियून-[?] मछली वा एक प्रकार की ताकी . कोकरिशी-ता० ] वकुची । मछली। कप्पूरतैलम्-[ वा०, मल• ] गंधा विरोजे का तेल। | | कर्बीनून- [यू० ] बलूत । कप्पू रम्-[ ता०, मल.] कपूर । कपूर। कप्पूर-वल्लि.- ता० ] पंजीरी का पत्ता। | कबु-वि० [सं• त्रि० ] कबरा । मिश्रित वर्ण । कापूरहरिद्रा-[सं०] अम्बा हलदी । पाम श्रादा। कबुदार-संज्ञा पुं० [सं० पु. [11 नीली कटकर्फ-[१०] जन्म से खुरंड उतरना । जहमको ताज़ा . सरैया । नील मिंटी । श० च०। (२) सफेद करना। कचनार । श्वेत कांचन । प० मु.। च० सू० कर्फ-[फा०] पाखु । चूहा । ४०। [वेलम ] हंसराज । परसियावशाँ । गुण-ग्राही तथा रक्रपित्त में उपयोगी है। कर्फर-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] दर्पण। पारसी । राज.। सफ़ेद कचनार ग्राही; कसेला, मीठा, शीशा । आईना। रुचिकारक, रुखा, साँस, खाँसी पित्त और रक कर्फरोस-[१] हिना । मेहदी । नखरंजनी । दोष को दूर करने वाला तथा क्षत और प्रदर को-[१] इन्द्रायन । हंजल्ल । नाशक है। इसके ओर गुण लाल कचनार के कफिस-[फा०] अजमोद । करप्स । समान हैं । वै० निघ० च० वि० दे० "कचनार" कर्फियून- यू. 1(१) शूकरान। (२) कबाबः | (३)लिसोड़ा । तेंदू का पेड़ जिसमें आबनूस चीनी। निकलता है। कर्फलून-[रू० ] लौंग। लवङ्ग । | कर्बुदारक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] लिसोदा म कब-संज्ञा पु० [सं० पु.] चूहा। मूषिक ।। पेड़ । श्लेष्मांतक वृक्ष । सु० सू० ४२ ०।- . [१०] रंज । दुःख । लश । विपत्ति । वेचैनी। कबुर-संज्ञा पुं० [सं० क्री०, पु.] (१) सोना वह कष्ट जिसमें साँस रुके वा दम घुटे। स्वर्ण । हे० च० । (२) हरताल । हरिताल। . Jactitation श्रम । (३) धतूरा । धूस्तर वृक्ष। (४) कब:-[फा०] (.) एक पौधा । (२) पटेर गंधशटी। कपूरकचरी । ५० मु०। (१) हल्फा । प्रामाहल्दी । श्रामहरिद्रा । वै० निघ० ।(६) कर्बन-[2] एक दवा का नाम । जल । मे। (७) जड़हन धान । [अं० Carbon ] कजलन । कार्बन । वि० [सं० त्रि०] नाना वर्ण का रंग कर्बर-संज्ञा पुं० [सं० पु. की.] (१) पौंडा । बिरंगा । चितकबरा। पुण्ड्केतु । रा०नि० व० १४ । (२) स्वर्ण । कबुर,कबूर,कबूरक-संज्ञा पुं० [सं० पु.](1) सोना । (३) धतूरा । धुस्तुर वृक्ष । (४)बाघ। गंधशष्टी । कपूरकचरी । अम० ।(२) प्राम ब्याघ्र | मे० रत्रिक । हरिद्रा । कच्ची हल्दी । अटी भ०। शरन (३) कबराल-संज्ञा पु० लिसोड़ा। नदी निष्पाव धान । रा०नि०व० १६ । (४) ‘कबरी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (1) सियारिन । इतु । ईख । शृगाली । (२) बाधिन । ब्याघ्री । मे० रत्रिक । संज्ञा पुं॰ [सं० क्री० ] सुवर्ण । सोना। (३) हिंगुपत्री । जटा । कबुरफल-संज्ञा पुं० [सं० पु.] साकुलपर का कर्वशः कर्बश-[फा०] ) जंगली छिपकली। वृक्ष । सकुरुण्ड । रा०नि० व०६ । साखरुपड। कर्बस:, कर्बस,कबंसू-[फा०] | वज़ग़ः । साम- पडवास । बडीमाई। नि०शि०। ___अवस। कबुरा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (१) बचतुलसी काग:-[ तु० ] मेंढ़क । मंडूक। - बबरी । बर्बरी । मे० रत्रिक । (२) पाटला का Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करि वृक्ष ! पाढर । ( ३ ) कृष्ण तुलसी । ( ४ ) एक प्रकार की ज़हरीली जोंक । । कबु`'रित-वि० [ सं० त्रि० ] चित्रित । चितकबरा कबूरित । नाना वर्ण विशिष्ट । कबूर-संज्ञा पु ं० [सं० क्ली० ] ( १ ) सोना । स्वर्ण ( २ ) हरताल । हरिताल | त्रिका० । ( ३ शटी | कचूर । ) कर्बोज-संज्ञा पु ं० [ श्रं० कर्वन+श्रोज ( प्रत्य० ) ] C कब्बूर-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] शटी । " २२६० क्रर्मआ-[ ? ] कछुआ । कर्मक - [फा०] नाम । कर्मकण्टक - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] पर्पट । सुति लक । वर्म कण्टक। कब्बूरक-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( 1 ) हरिद्राभ वृक्ष | कच्ची हलदी । ( २ ) कृष्ण हरिद्रा । काली हलदी । (३) कपूर हलदी । कर्पूर हरिद्रा | कर्म-संज्ञा पुं० [सं० नी० ] ( १ ) दे० "कर्म्म" । (२) दे० " करम" । कर्म:-[ श्रु० ] एक तौल जो ६ क़ीरात वा डेढ़ वा दो क़र्मिया - [ ? ] दाँग के बराबर होती है । कर्मकरी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] दे० "कर्मकरी" कर्मतुल् बैजा - [ फ्रा० ] दे० “कर्महे बैजा” । कर्मदश्ती -[ फ्रा० ] फाशरा । नर्मदार - [१] कर्मतान । कर्मदिया - [ १ ] चूने का पत्थर वा पका हुआा ठीकरा । कर्मबल - [को०] कमरख । • कर्मरंग । कर्मर (क) - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] कर्मल - [ द० ] | कर्मार क़र्मल - [ अ० ] एक वृक्ष जिसमें काँटे नहीं होते । कर्मस - [ तु० ] चाँदी | कर्म बैज, कर्महे शाइल : - [ फ्रा० ] Vitis Alba. । फ्राशरा । हज़ारफशाँ । मारदारू । शिवलिंगी । कर्म सौदा - [ फ्रा० ] फ़ाशिरस्तीन ] | कर्मा - [ सिरि० ] हड्डी | कर्माई -[ सिरि०] शुकाई । कर्मानियून -[ १ ] बाबूना । उक़हबान । कर्माफ़ीतुस - [ यू० ] मिट्टी का कीड़ा । कर्मार-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( १ ) वंश । बाँस । नि० शि० । (२) मुद्गर । मुग्दरफल । धाराफल रा० नि० व० ११ । क कर्मारस - [ यू०] क्रु लब । क़ातिल अब्रियः । कर्मार: -[ १ ]कनेर । कर्मारक -संज्ञा पुं० [सं० पु० ] धाराफत । दे० "कर्मार" । कर्मारी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] देवदाली । वंदाल ..गरागरी । खरागरी । नि० शि० । क़र्मारीस -[ यू० ] क्रुट. लुब । क्रातिल अब्रियः । कर्माल- दे० "कर्मल" | मोवन - [ रू., यू०] प्याङ्ग । दतिया | कर्मियून -[ यू० ] दरियाई मछली । कर्मीतून -[ यू० ] जीरा । क़र्मीद - [अ०] ] ईट | मूद - [ श्र० ] ग़ज़ियान का फल | कर्मोर - [ ० ] बलाब । कर्मोहा - [ ? ] करौंदा । कर्म्म -संज्ञा पुं० [सं० की ०] कर्म्मन् का प्रथमा रूप ] वह जो किया जाय । क्रिया । कार्य्यं । काम । यथा - " यत् कुर्व्वन्ति तत्कर्म्म"। सु० सू० ४१ श्र० । सुश्रुत के अनुसार कर्म तीन प्रकार के हैं— (१) पूर्व कर्म्म; ( २ ) प्रधान कर्म्म, (३) पश्चात्कर्म्म । सु० सू० ५ श्र० । कर्म्म कण्ट-संज्ञा पु ं० [सं० पु ं० ] पर्पट । के० । कर्मकरी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) मूर्वा | मुरहरी | वै० निधु । ( २ ) विम्बिका | ॐ दरू | मे० रचतुष्क । कम्र्मकार संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] बैल । वृष । श० । कर्म्मज - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( १ ) बढ | वटवृक्ष | जटा० । (२) वह रोग जन्मान्तर के कम्मों का फल हो । कर्मफलजन्य रोगादि । जैसे - क्षयी, यह रोग शास्त्रानुसार निर्णीत औषध Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मपुरुष २२६३ प्रयोग से भी नहीं दबता । केवल कर्म के क्षय से | इन्द्रिय । वह इन्द्रिय जिसे हिला डुलाकर कोई ही इसकी शांति होती है। क्रिया उत्पन्न की जाती है। कर्मेन्द्रियाँ पाँच हैं- वि० [सं० त्रि०] (1) कर्म से उत्पन्न । हाथ, पैर, वाणी, गुदा और उपस्थ । वि० दे० (२) जन्मांतर में किये हुये पुण्य-पाप से | "इन्द्रिय"। उत्पन्न । कयोबस-[ ? ] वज़ग़ः । जंगली छिपकली । कम पुरुष-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] जीव । यथा- कर्यास-[रू. ] (१) गोश्त । (२) Latrine "यस्मिन् चिकित्सा वर्तते स एव कर्म पुरुषश्चि संडास । पायख़ाना । कित्सिताधिकृतः ।” सु० शा० १ ०। कर-[ सक्ने द ज़ीरा । कर्मफल-संज्ञा पु[सं०की०] (१) कमरख का फल । करई-संज्ञा स्त्री० [देश॰] कुलू । गुलू । तबसी। कर्मरंगफल । रत्ना०। (२) कर्म विपाक । .. मे० लचतुष्क । (३) सुख । (४) दुःख । कर्रप-डामर-[ ता० ] काला डामर । . त्रिका। करलुर-संज्ञा [ देश० अवध ] करविला । कर्मभू-संज्ञा स्त्री॰ [सं० स्त्री.] कर्षित भूमि । कर वेण्डलम्-ते. ] पिण्डालू । .. ___ कृष्ट भूमि । जोती हुई जमीन । हे। करी-संज्ञा पुं॰ [ देश० ] कुड़ा, कुरेया। कुटज । कर्ममूल-संज्ञा पुं० [सं० को०] (१) कुश । कर्रिल-[ कना० ] सिंगिनी । पाशवल । - कुसा । श० च०। (२)शर तृण । करी-संज्ञा स्त्री॰ [देश॰] एक प्रकार का पेड़ जो कर्मर, कम्मेरक-संज्ञा पु० [सं० पु.] कमरख । देहरादून और अवध के जंगलों तथा दक्षिण में कर्मरंग। पाया जाता है । इसके पत्ते बहुत बड़े होते हैं और कमरङ्ग-संज्ञा पुं॰ [सं० पुं० (१) कमरख का मार्च में झड़ जाते हैं। पत्ते चारे के काम में आते वृक्ष । (२) कमरख का फल । रा. नि० व० हैं। इस वृक्ष में फल भी लगते हैं जो जून में ११ । राज. ३ प० । वै०निघ० । भा० । वि०दे० पकते हैं । (हिं० श० सा०)। .. "कमरख"। कर्मरा-चें झाड़-[ मरा० ] कमरख का पेड़। कर्रानीम-[ बम्ब० ] सुरभिनिम्ब । कढ़ी नीम । कमरी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] वंशलोचन । वै० करोसिव सब्लिमेंट-[अं० Corrosive subli..निघः । __ment ] पारद का एक योग । विशेष दे. कर्मविपाक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] पूर्व जन्मके किये | "पारा"। हुये शुभ और अशुभ कर्मों के भले वा बुरे फल | कलिगेन-[डच० ] तरली । गोइँठी। द्वारा होने वाले रोग प्रादि । कर्मपाक । कावाख-[ तु० ] अवाबील । कार-संज्ञा पु० [सं० पु.] (१) एक प्रकार | कलीस-[सिरि० ] कागज़ । का बाँस । (२) कमरख । कर्मरङ्ग । रा०नि० | कर्व-संज्ञा पु० [सं० पु.](१) चूहा। मूषक । व०७।११ (२) काम । ख़ाहिश । उणा। कारक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] कमरख का वृक्ष । क़र्व-अ.] एक प्रकार की वृद्धि जिसमें अंडकोष में कर्मरङ्ग वृक्ष । वै० निघ० । आँत, सर्ब (प्रान्त्रश्च्छदा कला), वायु वा पानी काह-संज्ञा पु० [सं० पु.] मनुष्य । श्रादमी। उतर पाता है । अंडकोष वृद्धि । अंत्रांड वृद्धि । कीर-संज्ञा पुं॰ [सं०] (1) नारंगी । नारंग । कीलः । फरक सिफ़नी (अ.)। Scrotal - किर्मीर । (२) चितकबरा रंग। Hernia. कर्मीरक-संज्ञा पुं॰ [सं० पुं० [सिहोरे का पेड़ ।। नोट-कर्व शब्द का प्रयोग अंत्रवृद्धि ( फल्क शाखोट वृक्ष । मिश्राई), उदरच्छदा कला की वृद्धि (फ्रक कर्मेन्द्रिय-संज्ञा पुं० [सं० क्री० ] काम करनेवाली | सर्वी), कुरएड वा मूत्रज वृद्धि (फरक माई) Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्वटजद २२६४ तथा वायुजन्य वृद्धि (फरक रेही) के लिए समान कर्शकूअन तरानस-[?] मटर। रूप से होता है। कर्श चरन-[ ? ] गुलतुर्रा । कर्वटज़द- बम्ब० ] Cocculus Indiens. | कर्शन-संज्ञा पुं० [सं० को० ] दुबजा बनाने का काकमारी । काकफल । क़र्व दवाली-[१०] फोतों की रगों का फूल जाना । ___काम । कृशकरण । Varicocele वि० दे० "दवालियुस्स फ़न"। कशेपाल-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] मीठा इंद्रजव । कर्वर-संज्ञा पुं० [सं० पु०, क्ली० ] (१) बाघ । | कशेफ-[फा०] करप्स । अजमोदा । ___ब्याघ्र । मे० (२) एक ओषधि । कर्शान-[ तु० ] सफ़ेदा। कर्वर फल-संज्ञा पुं॰ [सं० वी० ] साकुरुंड । सकु | कर्शम:-[अ० ] कपोल । गाल । मुखमंडल । कवरी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (१) हिंगुपत्री। कशाम, कशूम-[१०] बड़ी चिचड़ी । कुन: बुजुर्ग ___एक घास । के । (२) ब्याघ्रो । बाघन । मे। कर्शित-वि० [सं० वि० ] कृशीकृत । दुबला हुआ। कलह मी-[१०] अंड का एक रोग जिसमें अंडों | कर्शी- [१०] एक पारव्य ख्यातनामा युनानी चिकिमें प्रगाढ़ सौदावी मादा के उतरने से उनके चारों . साचार्य। अर्थात् अलाउद्दीन अबुल्हसन अलीबिन ओर गोश्त पैदा हो जाता है और उनकी: ऊपरी हाज़िमुल् मुल्कियुल् कर्शी । इनका उपनाम कर्शी त्वचा अर्थात् अंडकोष मोटे पड़ जाते हैं। उक्त है और इसी नाम से ये सुप्रसिद्ध हैं। इन्हें अवस्था में सूजन कठोर और कभी पत्थर को तरह द्वितीय जालोनूस भी कहते हैं। आप तत्कालीन होती है, जिसके साथ सख़्त पीड़ा भी उत्पन्न होतो अद्वितीय उद्भट विद्वानों में से थे। इनका जन्म है। मांसज अंडवृद्धि । Sarcocele सार्कोसोल स्थान मक्का की पुनोत भूमि है, परंतु ये दमिश्क (अं०)। में निवास करते थे । “मूजिजुल कानून" इनकी नोट-सार्कोसील वस्तुतः अंड में होनेवाला सर्वोत्कृष्ट रचना है, जिसके अनेक सुप्रसिद्ध भाष्य एक प्रकार का मांसार्बुद है । जिसमें अंड बहुत हो जुके हैं। मौलाना नफ्रोस बिन-एवजकिर्मानीबढ़ जाते हैं। यह रोग बंगाल, आसाम और लिखित "नफ़ोसी" नामक भाष्य उसका एक दक्षिण में प्रायः होता है। उज्ज्वल उदारहण हैं। इसके सिवा सदीदुद्दीन कर्वान, कर्वानक-[१] एक प्रकार को चिड़िया । गाज़रुनी लिखित "सदीदी" और जमालुद्दीन कर्वानग-[?] भूरे रंग का एक प्रसिद्ध पक्षी जिसका अकसराईलिखित "अकसराई"नामक अन्यसुप्रसिद्ध मांस सुस्वादु होता है। करवानग । ता० श० । भाष्य हैं। उन लब्धप्रतिष्ठ युनानी चिकित्सा दे० "करवाँ"। शास्त्राचार्यों के अतिरिक्त हकीम फजलुल्ला कर्वीर-).. तवरेजी ने भी इस पर एक भाष्य लिखा है। दिल्ली निवासी हकीम शरीफ खाँ मौलाना अब्दुल हकीम लखनवो ओर मोलाना अनवर कोरो-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] बेर । बदरी । अली जैसे ख्यातनामा विद्वानों ने भी इस पर कवु दार-दे० "कर्बुदार"। हाशिये (टिप्पणी) लिखे हैं। कवुर-वि० दे० "कबुर"। की वे शेख रचित कानून जो भाष्य प्रकाशित कर्बु रिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कर्वरी । किया है। वह भी अपनी शैली का एक निराला ही है। यद्यपि यह अब तक अप्रकाशित है। कव्वूर-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] अाम्राहल्दी । शटो । परंतु इसके हस्तलेख अब तक किसी किसी कवू रक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कपूरहलदी । पुस्तकालय में सुरक्षित पड़े हैं। कर्श-[१०] ओझड़ी । किर्स। ___ इस कुशाग्र बुद्धि हकीम ने स्वयं बुक.. [पं०] तिमशा । किलोंज । रात के ग्रंथ (सूल) पर दो भाष्यों क/ल- छड़ीला । खस स्याह । Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क २२६५ की रचना की है। प्रथम लघु जिसमें फसूल | क्षीरिणी । कटुपर्णिका । पिसौरा । नि०शि०। के वाक्य उद्धृत कर स्वयं भाष्य लिखे हैं और | कर्षणीया-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (१) कासा द्वितीय वृहत् जिसमें प्रथम बुकरात के उद्धरण, का बीया । काशतृण वीज । वै० निघ। (२) पुनः उस पर जालीनूस लिखित भाष्य देकर, अंत | गोजिह्वा । गोभी। "गवेधका व गोजिहा कर्षणीया में उभय विचारों पर अपना वक्तव्य (Rema सिता तथा।" रा०नि० । धन्व०नि०। rk) लिखा है। कर्षण्याकार कीटाणु-संज्ञा पु० [सं०] एक कीटाणु सन् ७७०हिजरी में इनके निधन की दु:खद विशेष । (Spirillums) तिथी है। कशु-[पं०] बालछड़। बारचर । कर्षफल-संज्ञा पु. [सं० पु.] (१) बहेड़े का कशुनाम्बु- ता०] कली का चूना । फल । विभीतक वृक्ष । रा०नि० व०११। भा० कश्य-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कचूर । नरकचूर । पू०१ भ०। (२) भिलावें का पेड़ । भल्लातक जरंबाद । रा०नि० व०६ । वृक्ष । वै० निघ०। (३) आँवला । कर्ष-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] एक प्रकार का मागधी | कर्षफला-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] आँवले का पेड़। मान जो सोलह माशे का होता है । च०। श्रामलक वृक्ष । रत्ना० । नोट-प्राचीन काल में माशा पाँच रत्ती का | कर्षाद्ध-संज्ञा पु० [सं० श्री.] एक तोले का मान । . होता था इससे आजकल के अनुसार कर्ष दस ही प्राधा कर्ष । ५० प्र० १ ख०। माशे का ठहरेगा। कर्षिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] काश बीज । काँसे (२) वैद्यक में दो तोले का एक मान । ___का बीया । वै० निघ। यथा-"कोलद्वयन्तु कर्षः स्यात्। ५० प्र० ख०। पो०-सुवर्ण, अक्षः, विडालपदकं, पिचुः, कर्षिणी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] खिरनी का पेड़ । पाणितलें, उडु म्बरं, तिन्दुकं, कवडग्रहः । ३० । क्षीरिणी वृत्त । रा० नि० व ५ । वै० निघ० । (३) एक प्रकार का कालिंग मान जो दस माशे | कषु-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.](१) जंगली कंडे की का होता है। यथा-"कर्षः स्याद्दशमाषकः ।" भाग । करीषाग्नि । (२) जीविका ।मे० बद्विक । शाङ्गी० पू० १ भ०। (४) सश्रुत के अनुसार | कषू-संज्ञा पु० [सं० स्त्री.] (१) कंडे की आग । सोलह माशे का एक मान, जब कि माशा पाँच ____ करीषाग्नि । वै० निघ । (२) पानी । जल । ' स्ती का हो। (१० माशे का एक मान)। ___रा०नि०। (५) बहेड़ा का वृक्ष । श० र०। संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (1) एक प्रकार संज्ञा पुं॰ [सं० क्रो० ] सोना । सुवर्ण। का भारी पक्का गड्ढा जिसका मुंह छोटा हो। करक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (1) अयस्कांत च० सू० १४ अ०। (२)नदी। र०। (३) मणि । खींचनेवाला । अाकर्षणकारी कृत्रिम क्षुद्र जलाशय । (विकर्षित कर्षी, कर्षक, कर्षणीय, कj ] कर्ष स्वेद-संज्ञा पु० [सं० पु.] स्वेद का एक कर्षण-संज्ञा पुं॰ [सं० क्वी०] (१) कृशीकरण । । भेद । चरक के मत से इसकी विधि यह है-सोने हे० च०। (२) खींचना । अाकर्षण । (३) की जगह एक ऐसा बड़ा गड्ढा खोदें जिसका मुंह शोषणा। छोटा हो । पुनः उस गड्ढे को बिना धूआँ के दहकर्षणा-[सं० स्त्री.] कुलित्थ । कुलथी। स० नि०। कते हुये अंगारों से भर देवें और उसके ऊपर चारकर्षणि-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] सीसी का पौधा । पाई रखकर उस पर शयन करके स्वेदन करें । अतसी वृक्ष । उणा०। च० सू० १४ अ० । सु० । वि० दे० "स्वेद"। कर्षणी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (१) खिरनी का ..पेड़ । क्षीरिणी वृक्ष । रा० नि०व०। (२) " कर्स-[ ? ] चर्ग । (२) साँप की केंचुली । सफेद वच । श्वेत वचा । वै० निघ० । कांची। कस-[अ० ] टिकिया बनाना । Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुस अनः २२६६ क्रह बरूनिय्या क्रस अनः-[ ](१) शजरहे इबराहीम । (२) जराहत और वतल के लिए भी होता है । जराह - एक प्रकार का काँटेदार पौधा जिसके पत्ते भूमि | को अंगरेज़ी में वूड (Wound ) कहते हैं। । पर फैलते हैं। कहः अक्काल:-[१०] एक प्रकार का व्रण जो मांस कस आ-[?] कछुआ । और तन्तुओं को खा जाता और गलाता चला कसतारियून-[ यू०] कमात कोही । जाता है। गोश्त खोरह । फैजीडीनिक अल्सर कर्सतीलूस-[रू० ] शादनज। Phagedenic Ulcer: स्लफिंग अल्सर Slouphing Ulcer, रोडंट अल्सर Rodकर्स तूस-[यू० ] कुट। ant Ulcer -(अं०)। कर्सफ, कसूफ-[१०] रुई । दवात का सूत ।। कहः अफ़निय्यः-[अ० ] दे० "क़ह': मुत्अफ्रिकनः" कर्सफ्री-[अ०] सफेद काँदा का एक भेद ।। कहः असिरुल् इंदिमाल-[१०] कष्ट से भरने वाला कर्समनून-[यू० ] गेहूं के रेशे । व्रण । पुरातन व्रण जिसके किनारे उभरे हुए और कर्सर-[ संथाल ] Tby sano laena a car- | बहुत मोटे होते है तथा अंकुर विषम एवं खराब ___ifera, Nees. होते हैं। इस प्रकार का व्रण प्रायः पिंडली पर कान, कसियान- १] अंगूर की लकड़ी। — होता है। कह: मुज़िमनः । इंड्युलेट अल्सर कसियः-[?] नमक नफ़्ती । एक प्रकार का काला | Indulent Ulcer, क्रॉनिक अल्सर Chr. .. नमक। onic Ulcer, कैलस अल्सर Callous क़ीक़ी-[१] तरासी स. का एक भेद । — Ulcer -(अं०)। ... कर्सीतामनून-[सिरि०] जंजबीलुल कलाब । नोट-इस प्रकार का ज़ख्म जब पिंडली पर कर्सेमिया केशिया-[ ले० ] सफ़ेद मुसली । होता है तब उसको प्राचीन तिब्बी परिभाषा में कह-[फा०] मक्खन । मसका । बु.त्म कहते हैं। कह-[१०] कलौंजी । शोनीज़ । कहः अस्फजियः-[१०] एक प्रकार का व्रण जो कमज़ोरी और दुबलेपन की दशा में पैदा हुआ कह , कह::-[१०] [ बहु०कुरूह ] वह ज़ख़्म जिसमें करता है। ऐसे व्रण विषम, मोटे और पिलपिले : पीप पड़ गई हो । सपूय व्रण | पीपदार ज़ख़्म । होते हैं। पिलपिला ज़ख्म । कह : नुत्रियः । Ulcer Ulcus, Sore. फंगस अल्सर Fungus Ulcer, वीक नोट-(१) वह ज़ख़्म जिसमें अभी पीप न ___ अल्सर Weak Ulcer, (अं०)। . पड़ी हो । परिभाषा में जराहत कहलाती है। पर | यदि उसे चालीस दिन न बीते हो तो पीव पड़ | | कहः इह तिरानियः-[अ०] एक प्रकार का व्रण । जाने पर वही कह कहलाती है, और यदि उसे जिसमें सर्व प्रथम बड़ी २ कुसियाँ पैदा होती हैं चालीस दिन बीत गए हों और वह गहरा हो एवं! जिसके उपरांत वह पक कर फैल जाती और फूट निरंतर बहता रहे तो परिभाषा में उसे नासूर वा जाती हैं और उन पर काले रंग के खुरड होते हैं। नाड़ी व्रण कहते हैं। इस प्रकार का व्रण प्रायः बच्चों के मुंह पर हुआ (२) वह सूजन जो पीप पड़ने के उपरांत करता है । एक्जेमा Eczema (अं०)। फूट गईहो और उसमें से पीप बहती होतो कहः के | कह खबीस :-[१०] एक प्रकार का सड़नदार नाम से अभिहित होती है। ज़रूम जो शीघ्र सड़ता और फैलता है। ख़बीस (४) डाक्टरी में सपूय व्रण वा कह : को ज़ख़्म । दुष्टव्रण । लूपिया Lupia, लूपाइड अल्सर वा अल्कस कहते हैं। ये दोनों शब्द कह: अल्सर Lupiod Ulcer -(अं०)। के ठीक पर्याय हैं, पर सोर ( Sore) शब्द | कह, खैरूनिय्यः-[१०] एक प्रकार का दुष्ट व्रण सामान्य है। इसका प्रयोग कहः के अतिरिक : जो बड़ी कठिनाई से भरता है। खैरूनी जहम । Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कह:जुद्रिय्यः काह:स अबानिय्यः नोट-बरून एक व्यक्ति का नाम है जिसे | एन्डेमिकल्सर Endemic Ulcer. (अं.) सम्भवतः सर्व प्रथम इस प्रकार का व्रण हुश्रा था नोट-पूर्वीय देशों में होनेवाले इस प्रकार के वा जिसने सबसे पहले इस प्रकार के व्रण की व्रणों को डाक्टरी में फ्युरंक्युलस श्रोरिएण्टेलिस चिकित्सा की थी। इसलिए इस प्रकार के व्रण अर्थात् पूर्वीय व्रण (कुरूह मश्रक्रियः, सबूर को उसी के नाम से अभिहित किया गया। शिर्कियः वा दमामील शिर्कियः) आदि नामों से अर्वाचीन गवेषणाओं से ज्ञात हुआ है कि इस अभिहित करते हैं; पर जब विशेष स्थान में इस प्रकार का व्रण साधारणतः यक्ष्मा के माद्दे से प्रकार का फोड़ा हो तब उसे विशिष्ट नाम से हुमा करता है । इससे ऐसे ज़ख़्मको टयुबरक्युलस | अभिहित करते हैं। जैसे, देल्ही सोर (देहलवी अल्सर Tuberculous Ulcer कहते हैं। फोड़ा ), लाहौर सोर (लाहौरी फोड़ा) कहः जुड़िय्य:-१०] वह ज़ल्म जो आतशक से इत्यादि। पैदा हो । औपदंशीय क्षत । पातशकीय ज़ख़्म । | कह : मुतअफ्फिन:-[१०] एक प्रकार का ज़ख्म कह : अजियः (१०) शंकराइड Chanc- जिसमें से सड़ायँध और बदबू आती है। पूतिगंध riod, शंकराइड अल्सर Chancriod युक्त व्रण । सड़नदार ज़ख़्म । मुत्त्रफिन ज़ख़्म । Ulcer, सिफलिटिक अल्सर Syphilitic प्युटिड अल्सर Putrid Ulcer.(अं०) Ulcer (अं०)। कह : मुत्कादिम:-[१०] एक प्रकार का व्रण जो कहतन-[फा०] मकड़ी। प्रायः पिंडली पर हुआ करता है और जिसके क्र.: फल्ग़मूनिय्य:-[१०] एक प्रकार का व्रण, किनारे उभरे हुये होते हैं। इसकी सतह पर जिसके किनारे अधिक सूजे हुये और वेदनापूर्ण अंकुर नहीं आते। तिब में ऐसे व्रण को "बु त्म" होते हैं और उसमें से बहुतसा मवाद निकलता है कहते हैं । चिरकारी व्रण । पुरातन प्रण। देरीना संशोफत्रण । सूजा हुश्रा व्रण- मुतवरिम जन्म ।। जख्म । पुराना ज़ख्म । कह : मुत्वरिमः (१०)। क्रॉनिक अल्सर Chronic Ulcer, इंब्युकर्ह बल्खिय्यः- अ० ] दे॰ “बल्लिय्यः । लेंट अल्सर Indulent Ulcer, कैलस कह: बसीत:-[१०] वह पोपदार ज़ख़्म जिसमें न अल्सर CallousUlcer (अं०)। दर्द हो और जो न बहता ही हो । सादा कह । कह : मुरक्किब:-[१०] वह प्रण जिसमें वेदना बा सामान्य क्षत | Simple Ulcer. । पीप बहना इत्यादि व्रण पूरण बिरोधी उपसर्ग ह.: मरियल बौल-[१०] पेशाब की नाली का वर्तमान हों । मिश्र व्रण । मुरक्कब कह। ज़ल्म जिससे पोप पाती है। सूजाक । सूजनक । | कर्हरी-संज्ञा स्त्री० दे० "करहरी"। सपूयमेह । तत्र कीवः (अ.)। गनोरिया। कहः वजिर:-[अ० ] वह अशुद्ध व्रण जिसमें अधिक Gonorrhoea, ग्लीट Gleet (अं०)।। परिमाण में गंदे मवाद हों। अस्वच्छ बण । नोट--अंगरेजी शब्द ग्लीट पुरातन सूजाक के ज़ख्म कसी फ। प्युटिड अल्सर Putrid लिए प्रयुक्त होता है। Ulcer (अं०) कई : मिअदियः-[१०] प्रामायिक व्रण । मेदे का कहः स अबानिय्यः-[अ० ] वह व्रण जो एक जगह से दूसरी जगह पर स्थानांतरित होता रहे। गैष्टिक अल्सर Gastric Ulcer, पेप्टिक | रेंगनेवाला जख्म । भौतुहा फोड़ा । अल्सर Peptic Ulcer (अं०)। सर्पिजिनस अल्सर Sripiginous Ulcer, कई : मुक्कामिय्य:-[१०] एक प्रकार का व्रण जो क्रोपिंड अल्सर Creeping Ulcer. किसी विशेष स्थान वा जनपद में हो। जैसे-सर- (अं.)। हदी फोड़ा, लाहौरी कोड़ा इत्यादि । देशम प्रण। नोट- इस प्रकार का व्रण स.अबान (अजजानपदीय व्रण । कही वतनियः । गर) की भाँति रेंगता है अर्थात् एक जगहसे दूसरी Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .....कलका कह। २२६८ जगह धीरे-धीरे स्थानांतरित होता रहता है । इस- (२) रंज । दुःख । खेद । सोच । चिंता । लिए उसे इस नाम से अभिहित किया गया। [मरा• ] बाँस । वंश। - कह.-[अ०] उशरक। [ता०] करौंदा । करमईक । कहोन-[१०] खुमी का सफ़ेद या छोट भेद। कलकण्टु-[ मल० ] ऊख । गन्ना । ईख । कहोनक-[फा०] बाबूना । कलकण्ठ-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.][स्त्री० कलकंठी ] की-संज्ञा स्त्री॰ [ देश.] बैंगन | भंटा । (१) हंस । (२) पारावत । परेवा । कबूतर । कल-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (1) साल का पेड़ । पिंडुक । (३) कोकिल | कोयल । मे० उचतुष्का शालवृक्ष । रा०नि० व०६ । (२) अव्यक्त (४) शुकपक्षी । सूत्रा । तोता । ५० मु० (५) मधुरध्वनि । जैसे-कोयल की कूक, भौंरों की कल ध्वनि । मीठी आवाज़। गुजार । (३) अजीर्ण । बदहज़मी। मे०। । वि० [सं०नि०] मीठी ध्वनि करनेवाला । __संज्ञा पु० [सं० क्री०] (१) वीर्य । शुक्र। सुन्दर बोलनेवाला। मे० लद्विक । (२) बेर का गुल्म । बदरीगुल्म । कलकण्ठी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० कोकिल । वै० निघ० २ भ० संग्रहणी-चि० व्योषादि चूर्ण।। कोयल । वि० [सं० वि०](१) कोमल । मधुर । | कलकण्ड-ते०, कना०] मिश्री । सितोपल | (२) मनोहर । सुन्दर। कलकतार-[यू०] जाज ज़र्द । ज़ाज रूमी। वि० हिं० "काला" शब्द का संक्षिप्त रूप जो कलकदीस, कलकंदीस-[यू०] White vitriol यौगिक शब्द बनाने में प्रयुक्त होता है। जैसे जाज सफेद। कलमुहाँ । कलदुमा । कलक़दीस-रू०] जलाया हुआ ताँबा। " कल-[१०] कलई । राँगा। कलकनक-[फ़ा ] खुर्की का बीज । कला अर्मनिया-[ सिरि० ] गिले अरमनी । कलकन्त-[ यू.]PotassiBichromas | जाज कलअ मनीन-[१] बख्नुर मरियम । अह मर । जाज सुर्ख । 'कलइनसि-[बर० ] कठकरञ्ज । कलकन्द-संज्ञा पुं॰ [ ] लबा बेर । कलइप्पडक-किजङ्ग -[ ता०] उलटकंबल । क़लक़न्द-[यू.] Green vitriol ज़ाज सब्ज । कलइमान कोम्बु-[ ता०] बारहसिंगे का सींग। कसीस । हीरा कसीस। कलइया-संज्ञा स्त्री० दे. "कलाई"। कलकफल-संज्ञा पु० [सं० पु.] अनार का पेड़ । कलई-संज्ञा स्त्री० [अ० कलई.] (१) राँगा। रंग । | दाडिम वृक्ष । कथील । (२) रॉगे का पतला लेप जो बरतन | कलकल-संज्ञा पुं० [सं० पु.] साल की · गोंद । इत्यादि पर खाद्य पदार्थों को कसाव से बचाने के राल । सर्ज़ निर्यास । मे० लचतुष्क । लिये लगाते हैं । मुलम्मा (३) चूना । कली। संज्ञा स्त्री० [हिं० कल्लाना ] खुजली। कण्डू । कलक-संज्ञा पुं० [सं० पु.](१) शकुल नाम कल्लाहट । की मछली । हे० च०। (२) बेंत । वेतसवृक्ष । कलकलन्त, कलकलन्द-रू.] हीरा कसीस । जाज संज्ञा पु० दे० "कल्क"। अख़्ज। __ संज्ञा पुं० [अ०. कलक] (1) बेकली । कलकलमद-[अ०] अरवी । बेचैनी। घबराहटा बिकल और बेचैन होना। बेकली कलकलिया-संज्ञा स्त्री० [ देश० ] कुकलुयादिरोभाय से करवटें बदलना । जैक्टेशन Jactation (भूटिया )। (अं.)। कलकलोद्भव-संज्ञा पु'• [सं० पु.] राल । राला - कलक और कर्ब का अर्थ भेद- ___धूल । सर्जरस । रा०नि० व०३। कलक बेचैनी और बेकली के अर्थ में व्यवहार कलकलानज-[१] एक हिंदी माजून का नाम । में आता है और कर्ब दुःख के कारण साँस रुकने | कलका-[ता. ] करौंदा । . को कहते हैं। संज्ञा [ देश० ] पक्षी। Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P कलकाट २२६६ कलकाट - [पं०] जामुन । कुलकास - [ अ०, रू०] अरवी । ( २ ) मानकंद | मानकचू | कुल कासी - [ सिरि० ] अरवी । कल की - तु० ] चकोर । कलकीट - संज्ञा ० [सं०] एक कीड़ा । कुलकीस - [ यू० ] Potassi Bichromas ज्ञाज सुर्ख । ज्ञाज श्रहमर । क़लक्कुमिअदः - [ श्रु० ] वह दशा जिसमें कर्ब मेदा त्यंत बेचैनी उपस्थित होती है, प्रायः मूर्च्छा श्रांती; कभी चक्कर श्राता और चेहरे का रंग बदल जाता है । क़लक़ुस्सिन्न-[ अ ] दाँत हिलना । कलकूजिका - वि० स्त्री० [सं० स्त्री० ] मधुर ध्वनि करनेवाली । कलकुब्जिका । कलकूणिका । क़लक़ूनिया–[ यू० ] सर्ज्जरस | राल | J कलक्क़स -[ यू• ] ताँबा । ताम्रः । कलकोरा - संज्ञा पु ं० [देश० ] ( Albizzia Julibrissin, Durazz. Syn. Mimosa lkora, Roxb.) लाल सिरस । रक्त शिरीष । यह सर्पदंश में उपकारी है। इं० मे० प्लां० | इं० डू० ई० । कलन - दे० " किल्व" । कलखापरी -[ मरा० ] खपरिया । संगबसरी । कलगः - [ ? ] बुस्तान अफ़रोज़ । महूरा। कलगा - संज्ञा पुं० [ तु० कलगी ] मरसे की तरह का एक पौधा जो बरसात में उगता है और कार कातिक में इसके सिरे पर कलगी की तरह गुच्छेदार लाल लाल फूल निकलते हैं। जो देखने में मुर्गे की चोटी की तरह दिखाई देते हैं । इसका तना मोटा होता है । शाखायें लाल होती हैं । बीज बारीक, काले अत्यन्त मसृण एवं चमकीले होते हैं । मुर्गकेश । जटाधारी । कोकन | लाल मुर्गा | पीला मुर्गा | Amaranthus Gan geticus, Linn) अमरेंथस गैंजेटिकस, Celosia Cristata, Linn. सिलोसिया क्रिस्टेटा - ले० । काक्स कूम Cock's Combश्रं० । बुस्तान् अफ़रोज़, ताजे खुरोस - फ्रा० । छबक़ बुस्तानो - श्रु० । मवज - नं० | लाल मुर्गा, कलगा हल्दीमुर्गा, देंगुआ-बं० । एर कोडि उह-तोट- कुरु, को डि-जडु टोट-कुर - ० । पर्याय निर्णायिनी टिप्पणी -- इलाजुल गुर्बा में लिखा है "सिरयारा अर्थात् ताज खुरोस जिसे हिंदी में कल्ग़ा कहते हैं ।" एक और जगह लिखा है – 'ताज ख़ुरोस एक वृक्ष है जिसे हिंदी में "मुर्गकेस" कहते हैं । कलो को अरबी में 'हमाहम' लिखा है । कोई कोई विद्वान् हमाहम और इसमें भेद करते हैं । उनका कथन है कि हमाहम को श्याम में हबक़नब्ती तथा अरबी में देसम, फ़ारसी में लाल ख़ताई, हिंदी में महूरा और तबरेज़ में गुले काँ कहते हैं । इसके पत्ते और बीज भी कलो के समान होते हैं, पर कलो के पत्तों से हमाम के पत्ते किंचित् वृहत्तर होते हैं। बड़ी क़िस्म को 'जटाधारी' और छोटी को "कोकनी" कहते हैं । 1 कलो की तण्डुलीय वर्ग (N. O. Amarantaceo.) उत्पत्ति स्थान - समग्र भारतवर्ष । प्रयोगांश – फूल और बीज । प्रकृति - - प्रथम कक्षा में शीतल एवं रूक्ष । किसी किसी के मत से द्वितीय कक्षा में शीतल एवं रूक्ष । स्वाद - किंचित् मधुर तथा क्षारीय । हानिकर्त्ता - यह गुरु तथा वस्ति को हानिकर है । दर्पन—रू (म० मु० ), कुन्दुर और सिकंजबीन इत्यादि (बु० मु० ) । • प्रतिनिधि-मकोय (म० मु० ), इसकी दूसरी किस्म अर्थात् ताजखुरोस । ( बु० मु० ) । मात्रा-१ मा० । गुणधर्म तथा प्रयोग यूनानी मतानुसार — वृक्षावयव धातुओं (मवादों ) का परिपाक करते और उनको बिलीन भी करते हैं। ये मस्तिष्कगत अवरोधों का उद्घाटन करते हैं और प्रतिश्याय तथा श्रामाशय एवं यकृत जात उष्मा को उपकारी है। इसके बीज हृदय को शक्ति प्रदान करते हैं। गुलरोगन के साथ इसका प पुराने दस्तों को बंद करता है । यह अग्निदग्ध Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलगाघास कलचिड़ी के लिये गुणकारी है। (निर्विषैल) म० मु०। | कलघसिया-[बर०] लाल शकर । ___ 'खजाइनुल अद्विया, में यह अधिक लिखा | कलघोष-संज्ञा पु० [सं० पु.] कोकिल । कोयल । है-"इसके बीज यकृत को शक्ति प्रदान करते हैं। श० र० । इनको भूनकर शीतल जल से फाँकने से पुराने कलङ्क-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] [ वि० कलंकित । दस्त बंद होते हैं । इसके पत्तों का प्रलेप अग्नि से - कलंकी ] (१) मण्डूर । खौहमल । (२.) जले हुये को गुणकारी है । इसके बीज कूटकर प्राध क्रोन्द्र । गोद । (३.) अपवाद । लांछन । बदसेर (एक रत्ल) दूध में भिगोकर रातको आँगन नामी । मे० कत्रिक । (४) एक प्रकार की में रखें और आगामी दिन प्रातःकाल इसको पी ___ मछली । वै. निघ०। (१) चिह्न । दाग । जॉय । इससे थोड़े दिनों में ही पेशाब की जलन | धब्बा। और रनमूत्रता का निवारण होता है। अतिसारा- | कलङ्कष-संज्ञा पुं० [सं० पु.] सिंह । शेर । . पहरणार्थ ये तुम बारतंग की प्रतिनिधि है।" श. भा०। बुस्तानुल मुफरिदात तथा मुफ़रिदात नासिरी | कलङ्की-वि० [सं० कलंकिन् ] [ स्त्री० कलंकिनी ] में भी कुछ हेर-फेर के साथ इसके उपर्युक गुणों | जिसमें मुरचा लगा हो । लौहमल यक । का ही उल्लेख किया गया है। ___ संज्ञा पुं० [सं० पु.] चाँद । चन्द्रमा । नव्य मत-इसके फूल धारक ख्याल किये जाते हैं और अतिसार तथा अत्यधिक रजःस्राव में कलङ्कर-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] पानी का भवर । श्रावर्त । त्रि० । इनका उपयोग होता है। -ट्य बर्ट। कलचंग-[फा०] केकड़ा । खरचंग। इसके बीज स्निग्धता संपादक है और ये सशूल . कलच:-[फा०] गेहूं की सफ़ेद और खमीरी रोटी। मूत्रालाक, कास तथा प्रवाहिका में उपकारी हैं। उ० चं० दल। कलचिड़ी-संज्ञा स्त्री० [हिं० काला सुदर+चिडिया) यह रक्तशोधक तथा बवासीर में उपकारी है। [पु० कलचिढ़ा] एक चिड़िया जिसका पेट काठमाला रोग में भी इसका अंसः एवं वाह्य काला, पीठ मटमैली और चोंच लाल होती है। मनोग होता है। इसकी वोली सुरीली होती है। इसकी पूँछ कलगाघास-संज्ञा स्त्री० [हिं० कलगा+घास] () ऊपर को उठी हुई और लम्बी होती है। पूछ के बुस्तान । अफरोज । कक्षगा। (२) राजगिर । नीचे गुदा और कुछ उदर के पर लाल होते हैं। . राजमिरिन राजशाक। रामदाना । दे. "राजाद्रि" बाजुओं में कोई कोई पर सफ़ेद होते हैं। यह कलगारी-[ गु० ] कलिहारी। अत्यन्त फुर्ती से कूदती फिरती है। महजन के कलागुटि-सं०] पाटली। संग्रहकार और कतिपय अन्य लेखकों ने जो इसे कलगुरि-[ मरा० ] पाउलः । पादर । पाटला। चकावक और ममोला पक्षी ख्याल किया है। कलगोरि-) [ मरा० ] पाटला । पादर। कालगोरु । वह उनका भ्रम है । मियाँ जुर्रत कहते हैंकलगोरी- (ते.)। जहूर हश्र न हो क्योंकि कलचिड़ी गुजी। कलगो-संज्ञा स्त्री० [तु.] (1) शुतुरमुर्ग आदि हुजूर बुलबुले बोस्ताँ करे नवा संजी चिड़ियों के सुन्दर पंख । (२)चिड़ियों के शिर पय्यो०-कुलश्क स्वाहं (प्रा.)। बनपर की चोटी, जैसी मोर वा मुर्गे के सिर पर श्यामा । बनसामाँ, गँड़ उट्ठी -हिं० । प्रकृति-उष्ण और रूक्ष । कलघण्टा-संज्ञा स्त्री० [र यामालता। गुणधर्म तथा उपयोग-इसके मांस को कलाण्टका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कृष्ण शुष्क और लवणान कर खाने से दस्त बंद होते शारिवा | श्यामालता | भा० पू० १ भ० । दे हैं। इसे लवण रहित भक्षण करना मूत्रावरोध "अनन्ता"। और वस्ति एवं वृक्काश्मरी छेवनार्थ परीक्षित है। होती है। Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कचली २३०१ वैद्यों के कथनानुसार इसका मांस कफपित्त नाशक | कलथौन - [पं० ] ( १ ) अजुन । कुरकुन | है । ( ख़० श्र० ) ( २ ) पादल । पाढर । पाटला । कवी - संज्ञा स्त्री० [हिं० कंजा ] कंजा नाम की कँटीली झाड़ी | वि० दे० "कंजा" कलञ्ज -संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( १ ) तमाकू का पौधा । ताम्रकूट । धूमपर्णी । सुरती। दे० "तमाकू" । (२) दश रुपए की माप । यथा" सञ्चाली प्रोच्यते गुञ्जा सा तिस्रा रूपकं भवेत्। रूहकैर्दशभिः प्रोक्तः कलञ्जो नाम नामतः "" । युक्तिकल्पः । (३) वेत्र लवाविंत । ( ४ ) ज़हरीले असे मारा हुआ मृग वा पक्षी । त्रिका० । (५) १० पल की तौल । ( ६ ) पक्षी । ( ७ ) मृग (८) पत्ती का मांस । ( 8 ) वेतस । वेत । कलट - संज्ञा पुं० [सं० फ्री ० ] गृहाच्छादन | छप्पर । कुल (सं०) कलटोरा - संज्ञा पु सं० कल काला+हिं०ठोर चोंच ] एक प्रकार का कबूतर जिसका सारा शरीर सफ़ेद, पर चोंच काली हो । कलडू -[ का कलत - वि० [सं० त्रि० ] गंजा । जिसके सिर पर बाल ] भूरि छरीला न हो । कलतूलिका - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] छिनाल । वान्छनी, लज्जिका (सं० ) । कलतामरेकलताम्र- } [ मल० ] जंगली उरबा । कलतिगिया - [ बर० ] लाल शकर । कलल - संज्ञा पुं० [सं० की ० ] [वि० कलत्रवान् कलत्री ] ( १ ) स्त्री ( २ ) पत्नी । भायो । मे० रन्त्रिक । ( ३ ) नितंब] श्रोणि । चूतड़ | रा० नि० ० १८ । ५ भग | त्रिका० । कलथी - [ गु० ] कुलथी । कलरिंग - [ ता०] सिरिस । कलजंग - [ लेदक ] गुलदाउदी । * कलज -संज्ञा पु ं० [सं० पुं०] मुर्गा | कुक्कुट । वै० निघ० । कलधौत-संज्ञा पु ं० [सं० नी०] [१] चाँदी | कलजात - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] कलम शालि । ब्रीहि । कलमी धान । रजत । ( २ ) सोना | स्वर्ण । रा० नि० व० १२ (३) श्रव्यक्र मधुर ध्वनि । कलजीहा-संज्ञा पु ं० काली जीभ का हाथी जो दूषित वलध्वनि-संज्ञा पु ं० [सं० पु ं० ] ( १ ) मोर । समझा जाता है । मयूर । ( २ ) पारावत । कबूतर । ( ६ ) कोकिल । कोयल । मे० नचतुष्क । ( ४ ) सुंदर मधुर ध्वनि । कामुकी । कलपतर कलदुमा - वि० [हिं०काला+फ्रा० दुम] काली दुम का । संज्ञा पुं० काली दुम का कबूतर | कलधूत - संज्ञा पु ं० रा० नि० व० [सं० क्ली० ] चाँदी । रौप्य । १३ । कलन-संज्ञा पु ं० [सं० पु ं०][वि० कलित] (१) बेंत | वेतसरा० नि० व० ह । (२) ग्रहण । ( ३ ) ग्रास कौर । ( ४ ) लगाव | संबंध | संज्ञा पुं० [सं० की ० ] ( १ ) एक मांस का गर्भ । ( २ ) गर्भ को ढाँकने वाली मिली 1 गर्भवेष्टन | हला० । ( ३ ) शुक्र और शोणित के संयोग का वह विकार जो गर्भ की प्रथम रात्रि में होता है और जिससे कलल बनता है । ( ४ ) एक महीने का हमल कलनक़ - [ फ्रा० ] ख़फ का बीज । कलना - [ फ्रा० ] कनेर । कलनाद - संज्ञा पु ं० [सं० पु ं० ] ( १ ) कजहंस | वै० निघ० । हंस, रा० नि० । ( २ ) कल ध्वनि मधुर ध्वनि । कलने -सौदु - [ बर० ] मुर | बोल । कलन्तक, कलन्दक - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] एक चिड़िया । कलन्दु कलन्धु संज्ञा पुं० [सं० पु० ] एक प्रकार की नोनियाँ । घोली शाक । रा० नि० व० ७। 1 कलप - संज्ञा पु ं० [सं० कल्प-रचना ] ( १ ) कलन (२) ख़िज़ाब | (३) दे० " कल्प" । कलपत्तर -संज्ञा पु ं० [सं० कल्पतरु ] एक पेड़ जो शिमले और जौनसर की पहाड़ियों में बहुत होता है। Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलपनाथ २३०२ कलबाश कलपनाथ संज्ञा पु. [ देश द० ] एक बेलदार बूटी | कलफ़-संज्ञा पुं॰ [सं० कल्प] माँड़ी। जो वृक्षों पर लिपट जाती है । फूल मनुष्य को संज्ञा पु [अ०] स्वचाका एक प्रसिद्ध रोग आँख की तरह के सफ़ेद वा काले और प्रियदर्शन जिसमें साधारणतः चेहरे और हाथ की पीठ पर होते हैं। इसमें बीज भी होता है। काले धब्बे पड़ जाते हैं । झाँई । व्यंग । स्याह प्रकृति-उष्ण और रूक्ष । दाग । क्ल्ज़ Freckles, कोआजमा Chगुणधर्म तथा प्रयोग loasma (अं.)। — कलपनाथ के पत्ते । माशे काली मिर्च ५ नग कलफ और बहक अस्वद का भेदपानी में पीसकर पीते हैं । इससे जुड़ी ताप नष्ट कला में त्वचा का रंग स्याही मायल होजाता होता है। है और यह सर्व प्रथम चेहरे पर प्रगट होता है। ___ हरी गिलोय, नौसादर, कलपनाथ के पत्ते और और उसमें चिकनाहट और नरमी होती है । पर काली मिर्च सम भाग पीस कर पानी में छानकर बहक अस्वद में कर्कशता (खुशूनत) और खुरचणक या उड़द प्रमाण को गोलियाँ प्रस्तुत करें दुरापन पाया जाता है। जड़ी-ज्वर के वेग से पूर्व दो वटिकाएं देने से | कलादमियून-[यू.] हरताल की टिकियाँ । आराम होता है । (ख० अ०) दे."कलफनाथ" | | कलफतलस, केलातलस- यू.] ताँवे का मैल । कलफनाथ-संज्ञा पुल देश, द.1 कलप-पाच्ची-[ता०] छड़ीला। .) एक प्रकार का चिरायता । कालमेघ । (Androकलप-पू-[ ता० ] पत्थर का फूल । छड़ीला । graphis paniculata, Wall.) de कलपट-[ डच Kalpert ] परवल ।पटोल । जंगली "कालमेघ" । (२) कलपनाथ । ३. "कलप चिचिंडा । फ्रा० ई. २ भ० । नाथ"। कलपासी-[ता०] छड़ीला । छारछरीला । पत्थर कलफा-संज्ञा स्त्री॰ [देश॰] देशी दारचीमी की छाल का फूल । शिलावल्क। कलपीलू-सज्ञा पु० [सं० पु.] छोटा तेंदू। जो मलाबार से आती है और चीन की दारचीनी में उसे सस्ता करने के लिये मिलाई जाती है। कलपु-[ ता०] छड़ीला । शिलावल्क । ___ संज्ञा पुं॰ [देश॰] कल्ला। कोपल । नया कलपून-संज्ञा पु. [ देश० कना० ] एक सदाबहार - अंकुर। पेड़ जो उत्तरीय और पूर्वीय बंगाल में होता है। इसकी लकड़ी लाल और मजबूत होती है। यह | क़लफत कुलत-शामी ] शामी गंदना । बहुमूल्य होती और मकान बनाने में काम आती | कलबंद-[ते. ] घीकार । घृतकुमारी। है । कुट्टपोन्ने (कना )। ई० मे० प्लां। कलब-संज्ञा पुं॰ [ देश• ] टेसू के फूलों को उबाल. कलपोटिया-संज्ञा स्त्री० [हिं. काला-पोटा] एक कर निकाला हुआ रंग। . चिड़िया जिसका पोटा काला होता है। संज्ञा पुं० [अ०) पागल कुत्ता काटने का रोग । हलकाव । जलबास । कलप्पगडु-[ ते०] (1) कलिहारी । करियारी ।। ___ Hydrophobia, Rabies. वि० दे० (२)नाट का वच्छनाग। "दाउल्कलब"। कलप्पा-संज्ञा पुं॰ [ मला० कलपा=नारियल ] नीला | | कलब:-[१०] दुःख । बीमारी । माँदगी। पन लिये हुए सफेद रंग की एक कड़ी वस्तु जो कलबा-[जंद ] पागल कुत्ता । कभी कभी नारियल के भीतर निकलती है। चीन के लोग इसे बड़े मूल्य की समझते हैं। नारियल कलबाघी-[ कना० ] सीरन । का मोती। हि० श० सा० । कलबाश-संज्ञा पु. [ अफ्रिका Kalabash] कलफ-[सिरि०] (1) छिलका (२) रअयुल्- ____एक ओषधि । ( Crescentia cujete, Linn.) फा० इं.३ भ.। इब्ल। Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. कलवाराट्री २३०३ कलवाश ट्री -[ ० Calabash_troe ] दे० "कलवाश" । कलबासू कलबसू - [ फ्रा० ] छिपकली । चल्पासः । कलविष-संज्ञा पुं० [ नैपा० ] कालाविव । - कलबीर - संज्ञा पुं० दे० " अकलबीर" | कलभ-संज्ञा पु ं० [सं० पु०] [स्त्री० कलभी ] ( १ ) पाँच वर्ष का हाथीका बच्चा । कलभवल्लभा -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कोकिला । पिकी । रा० नि० व० २३ । कलभी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) चेंच का पौधा | चंचु | रा० नि० ० ४ । ( २ ) हाथी ar ऊँट का बच्चा ( मादा ) | कल भोन्मत्त - संज्ञा पुं० [सं० पु० धतुरा । धतूरा | रा० नि० । कलम ( शालि ) - संज्ञा पुं०, स्त्री० [सं० पु ं० ] एक प्रकार का शालि धान । वह धान जो एक जगह बोया जाय और दूसरी जगह उखाड़ कर लगाया जाय। जड़हन । रा० नि० व० १६ । ( २ ) एक प्रकार का धान जो मगध श्रादि देशों में प्रसिद्ध है । कलमा धान । काश्मीर में इसे महातण्डुल कहते हैं । यथा सं० पय्याय - करिशावक, व्याल, दुर्दान्त । (२) ऊँट । हला० । (३) धतूरा | धुस्तूर वृक्ष | रा०नि० ० १० । ( ४ ) ऊँट का बच्चा | (५) हाथी । हस्ति मात्र | कलभवल्लभ-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] पीलू का पेड़ । कलमकी जड़-संज्ञा स्त्री० कलंबा । कलमतलीस - [ यू०] काशम । कलम दरियाई - [ फ्रा० ] बहरी कर्नब । पीलु । रा० नि० व० ११ । “कलमः कालविख्यातः जायते स वृहद्वने । काश्मीरदेश एवोक्को महातण्डुल एवच ।। " भा० कलमक | के० | कलामक । हे० । । गुण – यह स्वादु पाक रसत्वादि युक्त और बहुत ही हीन गुण होता है । वा० सू० ६ श्र० । हेमाद्रि धान्यवर्ग । यह कफ पित्तकारक, वीर्य वर्द्धक और मधुर है । रा० नि० व० १६ । कलमा रक्तविकार और दोषत्रय का नाश करनेवाला नेत्रों को हितकारी और कसेला है । राज० ३ प० । लगाकर तैयार किया नौसादर श्रादि का संज्ञा पुं० [स्त्री० [अ० कल्म | सं० पु० ] (१) लेखनी । ( २ ) किसी पेड़ की टहनी जो दूसरी जगह बैठाने वा दूसरे पेड़ में पैबंद लगाने के लिये काटी जाय । ( ३ ) वह पौधा जो कलम कलमी आम गया हो । ( ४ ) शोरे, जमा हुआ छोटा लंबा टुकड़ा | रवा | संज्ञा पु ं० [फ़ा॰] करमकल्ला | पातगोभी | कर्नब । संज्ञा पुं० [सं० पु० ] ब्रीहिधान्य । [ पं० ] Stephen gyne parviflora, Korth. कद्दम । कलमक, कलमक्क - संज्ञा पुं० [फा०] एक प्रकार का अंगूर जो बलूचिस्तान में बहुतायत से होता । कलम धान्य- संज्ञा पुं० [सं०] कलमा धान | महातण्डुल | दे० "कलम” । कलम रूमी - [ फ्रा० ] शामी कर्नब । कुबी । कलमा - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] शालिधान । व्रीहि धान्य यह कफपित्तनाशक है और दूसरा पथ्य, वायु तथा कफ वर्द्धक है । अनि १६ अ० । [द] ] अंगूर | क़लमा - [ यू०, सिरि० ] रेंड़ । श्ररंड | कलमाद्य-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] व्रीहि धान्य | कलमाधान - संज्ञा पु ं० [सं० कलम धान्य ] | कुलमावस - १] चिरायता । कलमाष-संज्ञा पु ं० [सं०] घुंघची । कलमास - वि० [सं० कल्माष ] चितकवरा | कुलमास - [ ? ] चिरायता । कलमासारक - 1 बं० ] कलमीशाक । कुलमियातीतस - [ यू० ] सुगंधित रेबंद का एक भेद। कलमी - वि० [फा० कलमी ] ( १ ) जो कलम लगाने से उत्पन्न हुना हो । जैसे - कलमी श्रम, कलमी नीबू । (२) जिसमें कलम वा रवा हो । जैसे— क़लमीशोरा । संज्ञा स्त्री० [सं० कलम्बी ] ( १ ) करेमू । कलमी साग । (२) करौंदा । ( ३ ) चेंच | चंचु । कलमी आम-संज्ञा पुं० [फा० कलमी + हिं० श्राम ] वह ग्राम जो कलम लगाने से उत्पन्न हुआ हो । का उलटा | Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलमी आमला २३०४ कलैम्बक कलमी आमला-संज्ञा पु. [ फा० कलमी+हिं० | कलम्बक-संज्ञा पुं॰ [सं० वी० ] एक प्रकार का श्रामला ] कलम लगानेसे उत्पन्न हुआ आँवला । चंदन । कालीयक। कलमीक-[ उमान ] (1) गोलमिर्च के बराबर एक | ___ संज्ञा पुं॰ [सं० कलम्बकम् ] एक लता जाति दाना हरनूह । (२) मलयागिरि चन्दन । (३) की वनस्पति जिसकी बेल मलाबार के पर्वतों पर जंभीरी । जंबीरी नीबू । होती है। पश्चिम भारतवर्ष के जंगलों और लंका कलमीकलून-[१] क्रैकहर। में भी यह प्रचुरता के साथ उपजती है और कलमी बेर-संज्ञा पु० [फा० कलमी+हिं. बेर ] थोड़ी बहुत समस्त भारतवर्ष में पाई जाती है । पेवंदी बेर। हसकी बेल वृक्ष के आश्रय से प्रतान विस्तार करती कलमी लता-संज्ञा स्त्री। है। पत्र एकांतर, सत और पत्रप्रांत अखंडित कलमी शाक-संज्ञा पुं० [40] करेमू । होते हैं । इसकी लकड़ी पीले रंग की और कडुई कलमी शोरा-संज्ञा पुं॰ [हिं० कलमी+शोरा ] साफ़ होती है। हरिद्रा की भाँति इससे एक प्रकार का किया हुआ शोरा जिसमें कलमें होती हैं । हरिद्रावर्ण वा पीला रंग तैयार होता है। प्रकांड कलमीस-[रू०] पुदीना । वा तना काष्ठल, बेलनाकार, १ से ४ इंच व्यास कलमुल किताबत्-[१०] धात्वर्थ लिखने का कलम | का होता है जिसके ऊपर कार्कवत् पांडु-पीत वर्ण वा लेखनी । व्यवच्छेद शास्त्र की परिभाषा में की छाल चढ़ी होती है। इस पर लंबाई के रुख मस्तिष्क के चतुर्थ कोष्ठ के आगे मस्तिष्क का एक | झुर्सियाँ पड़ी होती हैं । काष्ठ हरापन लिये पीत भाग जो लेखनी के आकार का होता है। वर्ण का और चमकीला होता है। इसका कटा ___Calamus scriptorious कैलेमस हुआ सिरा अत्यंत स्रोतपूर्ण और विशिष्ट प्रकार के स्क्रिप्टोरियस (अं०)। मजागत किरणों ( Medullary rays) कलमुहाँ-वि० [हिं० काला+मुह ] काले मुँह का । से परिव्याप्त होता तथा इसमें वृत्ताकार रेखाओं जिसका मुँह काला हो। (Concentric rings) का अभाव पाया कलमूख-[ स्पेन ] रासन । जाता है । दार्वी काष्ठ की अपेक्षा यह बहुत कम कलमूज-[?] रासन । कड़ा और रंग में भी उससे हलका होता है। कलमूनिया-[?] (१) वह रातीनज जो भाग पर | इसके विपरीत सभी जाति के दार्वी काष्ठ एवं मूल पकाया गया हो । (२) छोटे वा बड़े सनोवर की | बहुत कड़े और काष्ठोय होते हैं और उनकी रचना गोंद। में कोई विशेष बात नहीं पाई जाती है। कलमोत्तम-संज्ञा पु० [सं० पु.] ) एक प्रकार पय्यो-कालीयकः ( कालीयकं), कालेयकः का बहुत कलमोत्तमा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] ) अच्छा (कालेयक ), कालेयं, कालीयं, कलम्बकं -सं० । कलम्बक, कलम्बा, (वैकल्पिक) -हिं० । झाड़ सुगंधित महीन धान । सुमंध शालि । रा० नि. की हल्दी -हिं०, द. कलमा, कलम्बा, कालिया, हल्दी गाछ -बं० । टी टमरिक Tree Tur. कम्निया बालसेमिक-[ .. Columnoea meric, फाल्स कैलंबा False Culumba ____Balsamica ] कपूर।। सीलोन कोलम्बा Ceylon Columba, कलम्ब, कलम्बक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (१) -अं० । कोसीनियम् फेनेस्टे टम् Coscinium कदम का पेड़ । कदंब । विश्वः । (२)शाक का Fenestratum, Coleber., A fare ## उंठल। शाकमादिका । अमः । (३) शर । फेनेष्टे टम् Menispermum Fenestra तीर। मे० बत्रिक । (४) सरसों । सर्षप । tum, Gartn. -ले मरमाल-ता० मला '(५) धाराकदंब । रा०नि० व० । । (६) मातु-पसुपु (पुष्पु)-ते। मरमञ्जल “मल। मालिका शाक । कलमी शाक(७) एक प्रकार मरद-अरिशिना-कना० । झाड़ी हलदे -मरा० । का शालि धान। (८) धाराकदवा हलदू । बेनिवेल -सिंह झाड़ी हल्दी-बम्ब०। । Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिल नोट- —यह दारुहरिद्वासे विल्कुल भिन्न श्रोषध है । अस्तु, इसे दारुहरिद्रा मानना अत्यन्त भ्रमास्मक है । वस्तुतः यह कलंबा की जाति की एक भारतीय बेल है जो प्राचीन समय में कलंबा नाम से हो वा कलंबा की प्रतिनिधि स्वरूप व्यवहार मैं आती थी, श्रस्तु इसे देशी कलंबा कहना अधिक समीचीन प्रतीत होता है । श्रायुर्वेद में 'कम्बक' और 'कालीयक' आदि संस्कृत पर्याय इसी के लिए श्राये हैं। दक्षिण में इसे झाड़ की हलदी कहते हैं । गुडूच्यादिवर्ग (N. O. Menispermacece.) उत्पत्ति स्थान - समस्त भारतवर्ष विशेषतः पश्चिम भारतवर्ष, लंका, मलाबार, इत्यादि । प्राप्ति स्थान — दक्षिण भारत के बड़े बाजारों में यह सहज सुलभ है 1 • २३०५ औषधार्थ व्यवहार - प्रकांड एवं मूल । रासायनिक संघटन - इसमें दावन ( Ber berine ) नामक एक क्षारोद अल्प मात्रा में पाया जाता है । यह चारोद ही उक्त दावों का मुख्य सत्व है। औषध निर्माण - शीतकषाय (२० में १ ) निर्माण विधि - इसके बारीक टुकड़े एक माउन्स लेकर एक पाइन्ट शीतल परिस्रुत वारि में श्राध घण्टा तक भीगा रखकर छान लेवें । मात्रा - ४ - १२ ड्राम | टिंक्चर (१० में १ ) मात्रा - आधे से १ ड्राम | काथ, मात्रा - श्रा से १ माउंस । अथवा दारुहरिद्रा एवं तज्जातीय श्रन्य वनस्पति मूलवत् । इसकी प्रतिनिधि स्वरूप, युरूपीय औषधेसिंकोना वल्कल, जेशन और कलंबा । गुणधर्म तथा प्रयोगादिऐन्सली - देशी लोग इसके काष्ठ के कटे हुये छोटे २ टुकड़े को मूल्यवान् तिक्त श्रौषध जानते हैं । ( मे० ई० २ भ० पृ० ४६१ ) कलम्बा मोहीदीन शरीफ़ - यह ज्वर हर ( Antipyretic ), पर्याय- ज्वरप्रतिषेधक (Anti • peridic) वल्य और जठराग्निदीपक ( Stomachic ) है। साधारण संतत ( Continued ) और विषम ज्वर, दौर्बल्य और कतिपय प्रकार के अजीर्ण में उक्त श्रोषधि उपकारी है । ( मे० मे० मैं ० पृ० ११ ) नादकर्णी - यह तिल दीपन- पाचन ( Stomachic) एवं बल्य है । यह कलम्बा की सर्वोत्कृष्ट प्रतिनिधि है । शीतलतादायक औषध की भाँति शिर में इसका प्रलेप करते हैं, तथा घृष्ट पिष्ट ( Bruises & contusions ) चर्वो में भी इसका व्यवहार करते हैं। संतत और विषम ज्वरों एवं ज्वरोत्तर कालीन सार्वदेहिक दौर्बल्य तथा कतिपय प्रकार के अजीर्ण में इसका शीतकषाय वा टिंक्चर अतीव गुणकारी होता है । ( इं० मे० मे० ) आर० एन० चोपरा इसकी जब तिन, er और जठराग्निदीपक मानी जाती है और कलंबा की भाँति व्यवहार में श्राती है। विषम ज्वर, सार्वांगिक दौर्बल्य, अजीर्णत्रण (Ulcer) और सर्पदंश में इसका उपयोग होता है । ( इं० ० इ० ) इसके भक्षण करने से मुखगत लाला स्राव और श्रामाशयिक रसोनेक वद्धित हो जाता है। इससे पाचनशक्ति एवं क्षुधा तीव्र हो जाती है । यह डीमक - मदरास प्रांत के श्रातुरालयों में तिल वस्य भेषज रूप से यह श्राजतंक व्यवहार में आता है। ( फा ई० १ भ० पृ० ६३ ) फा० ६६ वायु नष्ट करता, सड़ने गलने की क्रिया को रोकता और उदरज कृमियों को नष्ट करता । कलम्ब शालि -संज्ञा स्त्री० [सं० पुं० ] एक प्रकार का शालि धान | कलमा धान । जड़हन | कलम्ब शाली-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कोकिलाच । तालमखाना | नि० शि० । कलम्बा - संज्ञा पुं० [ अफ्रीका वा सं० कलम्बक ] एक लता जातीय उद्भिज जो पूर्वी अफरीका के वनों में, मोज़म्बीक कूल पर जंबेसी और मैढा गास्कर प्रदेश में होता है। इसके बेलदार वृक्ष को पश्चिम की वैज्ञानिक परिभाषा में जेटियो रह इजा कैलम्बा Jateorhiza Calumba; Miers. कहते हैं। इसकी जड़ के आड़े या वक्राकार खंड काटकर सुखाकर रख छोड़ते हैं जो Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२०६ कलम्बा चपटे विषमतया वृत्ताकार या अंडाकार होते हैं, ये लगभग दो इञ्च व्यास के और 3 से 21⁄2 च तक या अधिक मोटे होते हैं। किनारों का भाग मोटा और रंग में भूरापन लिए पीला और कुरीदार, बीच का भाग रंग में हरापन लिये पीला होता है । मँहक काई की तरह ( Mossy ) और स्वाद अत्यन्त तिल होता है। ये सरलता पूर्वक चूर्ण हो जाते हैं। यह जड़ दवा के काम में श्राती है। पर्य्याः- वृक्ष - जेटियो हाइज़ा कोलंबा Jartoorhiza Columba, Miers. Me - nispermnm Columba, Roxb. - जे० | कैलंबा Calumba - श्रं० | कोलोम्बो Colombo ni | जड़ - कलंबा, कलंबा की जड़, कैलंबा की जड़, कलंबे की जड़, कलंब की जड़ - हिं०, द० । र युज् हमाम, साकुल हमाम - श्रु० । गाव 'मुशंग, देवमुशंग, बीने कलब: फ्रा० । कलंबा वेर - ता० । कलंबा वेरु - ते० । कलंबू-सिंह० । कलंब - ( मोजमूवीक) कलंब कचरी - बम्ब० | कैलंबो Calumbo, कैलंबो रूट Calumbo root-० । कोलंबा रूट Columba root कैलंबी रैडिक्स Calumboe Radix -ले० । कलस्तारियून - यु० । Raizdo Columba - ( पु० ) । कोलंबा - फ्रां० । टिप्पणी- उक्त औषधि की युनानी संज्ञा 'क्रलस्तारियून' है जिसे मुहीत आज़म प्रभृति युनानी द्रव्य-गुण विषयक ग्रंथों में भूल से फ़ारस्तारियून लिखा है । कपोत को उक्त वृक्ष पर वरना और निवास करना बहुत पसंद है । इसलिये इसकी श्रारब्य संज्ञा रइयुल हमाम श्रन्वर्थ ही है । मनजनु श्रदविया में भी ऐसा ही उल्लेख मिलता है। डीमकोक्न श्रारब्य संज्ञा साकुल -इमाम ( Dove's foot ) भी अन्वर्थक ही है । दक्षिणी दार्वी ( कलंबक वा झाड़ की हलदी ) भी इसी जाति की एक सुदीर्घ लता है जिसकी जड़ दवा के काम में आती है । दारुहलदी में इसका मिश्रण भी करते हैं। कलम्बक संस्कृत संज्ञा के लिये यथा स्थान देखें । · कलम्बा गुडूच्यादि वर्ग (N. O. Menispermacece.) उत्पत्ति-स्थान- श्रोइबो, मोजम्बीक ( अफरीका ) | औषधार्थं व्यवहार - जड़ । रासायनिक संघटन - (१) कोलम्बीन ( Columbia ) नामक एक व रहित स्फटिकीय तिक्कसार, (२) दावन Berberine धर्मी, कोलंबामीन ( Columbomine ) पालटीन ( Palmatine ) और जेटियो - रहाइजीन ( Jateorhizine ) संज्ञक पीत स्फटिकीय क्षारोद त्रय । ( ३ ) कोलंबिक एसिड ( Columbic acid ) ( ४ ) श्वेतसार और (५) लबाब (Mucilage ) इसमें कषायाम्ल ( Tannic acid ) का प्रभाव होता है। मात्रा -५ से १५ रत्ती ( १०-३० प्रेन ) B. P. इतिहास - अफरीका निवासियों को तो उक्त भोषधि प्राचीन काल से ज्ञात है । श्रतः बहुत अति प्राचीनकाल से ही वे इसे प्रवाहिका और 4 श्रांत्र सम्बन्धी अन्य रोगों में प्रयुक्त करते रहे हैं। परंतु यह प्रतीत होता है कि भारतवर्ष में इसका प्रवेश पुर्त्तगालवासियों द्वारा हुआ। पुर्तगालियों द्वारा सन् १६७१ ई० में यह औषधि युरूप में पहुँची, यह फ्लकीजर और हेनबेरी के अन्वेषणों से प्रतिपन्न होता है । उक्त काल के थोड़े समय बाद फ्रान्सिस्को रेडी ने इसके विषघ्न गुण का उल्लेख किया । तब से लेकर उस काल तक यह श्रोषधि एक प्रकार विस्मृत सी हो गई थी, जब तक कि यह सन् . १७७३ ई० में परसोवल द्वारा पुनः प्रेषित नहीं की गई। उस समय से साधारण बल्य श्रौषधि की भाँति रूप से यह अक्षुण्ण रूप से व्यवहार में श्रा रही है । भारतस्थित प्राचीनतर श्रग्ल चिकित्सकों को इसका परिज्ञान संभवतः पुर्तगालियों से हुआ । मदरास में उक्त श्रोषधि सन् १८०५ ई० में प्रविष्ट हुई और उसके उपरांत बंगाल और बम्बई में । परंतु अब यह सर्वथा विलुप्तप्राय हो गई है। Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलम्बा २३०७ औषध निर्माण - एलोपैथी मेटिरिया सम्मत योग ( १ ) इन्फ्युजम कैलंबी कन्सटेटम् — Infusum Calumboe Concentra tum - ले० । मात्रा - ३० से ६० बूंद ( =२ से ४ मिलि(ग्राम)। (२)इन्फ्युजमकैलंबी-Infusum Calumbæ. -ले०। ५% (अर्द्ध घंटा ) । एक भाग कलम्बा मूल, बीस भाग शीतल जल में क्रेदित कर प्रस्तुत करें । श्राउन्स १५-३० मात्रा-आधे से १ मिलिग्राम ) । ताजा शीत कषाय प्रस्तुत करके १२ घंटे के भीतर उपयोग में लाना चाहिये । (३) टिंकच्युरा कैलंबी — Tinctura Calumboe. -ले० । कलम्बकासव, का टिंक्चर, १०% । कलंबे एक भाग कलम्बकमूल को दस भाग सुरासार ( ६०% ) घटित कर प्रस्तुत । यह पीताभ धूसर वर्ण का द्रव होता है । मांत्रा - ३० से ६० बूँद (२ से ४ मिलिग्राम ) । नोट- क लंबा की जड़ और तदुद्घटित योगों में कषायिन ( Tannin ) नामक कषाय द्रव्य नहीं होता। अतएव लौह घटित सभी योगों में यह काशिया की भाँति सेव्य है । इसके निर्माण में शीतल जल व्यवहार में लायें, वरन् शीत कषाय में श्वेतसार के मिलने की संभावना पाई जाती है। गुणधर्म तथा प्रयोग— ह्विटला - कलंबा की जड़ सुप्रसिद्ध शुद्ध तिक्र वल्य औषधि है जो कषायिन ( Tannin ) के प्रभाव के कारण कषायत्व शून्य होती है और लौह के साथ स्वच्छन्दतया व्यवहार की जा सकती है । श्रामाशय के ऊपर कलंबा का प्रभाव चिरायता, काशिया और जेशन के बहुत समान होता है । मुख और जिह्वागत प्रान्तःस्थ वात तंतुओं पर प्रभाव डालकर ये निगलने से पूर्व श्रामाशयिक रस और लालास्त्राव वर्द्धित करते हैं इनके श्रामाशय में पहुँचते ही आमाशयिक रसो कलम्बुका ब्रेक और भी वर्द्धित हो जाता है और संभवतः अंगों की रक्तनलिका विस्तार Vascularity कुछ अधिक हो जाती है क्योंकि अधिक मात्रा में इनसे क्षोभ उत्पन्न होता है और अधिक काल पर्यन्त सेवन क्रम जारी रखने से उत्तजनाधिक्य द्वारा एक सामान्य प्रकार का श्रामाशयिक शोथ उत्पन्न हो जाता है । इस प्रकार आमाशयिक रस स्राव अधिक स्वच्छन्दता पूर्वक होने लगता है। दाँत निकलते समय बच्चों को जो कष्ट होता है उसमें भी यह श्रोषधि गुणकारी है। मेडागास्कर और इंडोचीन में इसकी जड़ कटु पौष्टिक और अग्निवर्द्धक वस्तु के रूप में काम में ली जाती है। वहां के निवासी इसे पेचिस एवं अन्य रोगों में देते हैं । जब शरीर में कमज़ोरी हो, भूख कम लगती हो, अन हजम नहीं होताहो, जी मिचलाता हो, गर्भावस्था में वमन होता हो, उस समय इस औषधि के सेवन से बड़ा उपकार होता है। कलंबा रूट - संज्ञा पुं० [ श्रं० Calumba root दे० " कलंबा की जड़" । कलंबा की जड़ । कलंबा वेर-[ ते० ] ? कलम्बिक -संज्ञा पुं० [सं० पु० ] एक प्रकार का कलंबा वेरु- [ ता०] [ पक्षी । चटक पक्षी | वै० निघ० । कलम्बिका - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] गरदन के पीछे की नाड़ी । मन्या । हे० च० । (२) कलमी साग । करेमू । श० र० । कलम्बिकी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक प्रकार की चिड़िया | कलम्बी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (१) कलमी साग । करेमू । प० मु० । शब्दर० । राज० १ प० । भा० । वि० दे० " करेमू" । ( २ ) पोई का साग । उपोदकी । रा० नि० ६० ७ । कलम्बी रैडिक्स -संज्ञा पुं० [ ले० Calumbae Radix ] कलंबा की जड़ । कलम्बु-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] करेमू । कलमी साग । श० र० । कलम्बुका - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक प्रकार का जलीय शाक । करेमू । कलमी साग । भैष० शुत्र चि० शम्बुकादि गुटिका । Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलम्बुट कलम्बुट - संज्ञा पु ं० [सं० की ० ] ( १ ) नैनी घी | नवमीत | मक्खन । ( २ ) हैयंगवीन | ताजे दूध का घी । हारा० । कलम्बू-संज्ञा खी० [सं० स्त्री० ] करेमू । कलमी साग । श० २० । कलंबे की जड़ - संज्ञा स्त्री० [ कलंबा +की+जड़ ] बीखे कलंब: । कलंबा की जड़ । कलंबो-[ कों० ] मु ंडी | [ फ्रां०] कलंबा | कलयञ्ज -संज्ञा पुं० [सं० पु० ] राल । सर्ज रस । वै० निघ० । २३०८ कलया - [अ०] सज्जी । श्रशख़ार । कलया - [ फ्रा० ] सज्जी | [ सिरि० ] दर्द मंतन | [ रू० ] कर्श । श्रोझड़ी | क्क़लयून - [ यू० ] इसबगोल । क़लयूस - [ यू० ] सज्जी । श्रशख़ार । कलर कोडी - [ ता० ] कठकरंज । कुवेराक्षी | कलरलेस आयोडीन - संज्ञा स्त्री० [ ० Colourless Iodine ] वर्णं रहित टिंक्चर आयोडीन । दे० "श्रयोडम्” । कलरलेस फ्लुइड गोल्डेन सील- संज्ञा पुं० [ श्रं० Colourless golden seal ] हाइड्राष्टिस डिकलरेटा । कलरव - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( १ ) मधुर शब्द । कल ध्वनि । ( २ ) पालतू कबूतर | गृहपारावत । श्रम ० । ( ३ ) कोकिल । कोयल । रा० नि० व० १६ । ( ४ ) जंगली कबूतर । वनकपोत । वै० निघ० । कलराई - [ केनावार ] कटकाई । पलूदर । रेवड़ी (झेलम) । कलरु - संज्ञा पु ं० [देश० ] गुलू । कुलू । कतीरा । कलरुख - [ मरा० ] शीशम । सीसो । कलई - [ कनावार ] पलुदर । रेवड़ी । चर्म 1 संज्ञा पुं० [सं० पु०० नी० ] ( १ ) मिश्रित 'शुक्रशोणित रूप गर्भ । ( Fertilized __ove कलश um) : अ० शां०। ( २ ) सेल समूह ( Morula ) ह० श० र० । नोट - शुक्र और शोणित का प्रथम विकार 'कल' कहलाता है । गर्भ के प्रथम मास कलल बनता है। सुश्रुत के अनुसार ऋतुस्नाता स्त्री के स्वप्न मैथुन आचरण करने से गर्भ रह जाता है । किंतु उस गर्भ में अस्थि प्रभृति पैतृक गुण नहीं होता । इसी से 'कलल' मात्र निकल पड़ता है । कललज - संज्ञा पुं० [सं० पुं० ] ( १ ) गर्भ । हमल (२) राल । रा० नि० व० १२ । कललजोद्भव -संज्ञा पुं० [सं० पु० ] साक्ष का पेड़ । शाक्ष का वृक्ष । रा०मि० ६० ३ । कललावी - [ गु० ] कलिहारी । कवी - [?] करौंदा | कल - [ बा० ] पीलू । झाल । कलकी काय - [ ते ० ] करौंदा । करमई । 1 कलल-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] जरायु । गर्भवेष्टन- कलवेल - [ मल० ] हुरहुर । हुलहुल | कलवर्टस रूट - संज्ञा पुं० [ श्रं० Culvert's root. ] दे० "लेप्टैण्ड्रा " । कलवा - [ ? ] कमोद | लु० क० । [ फ्रा० ] मलूक | [ बर० ] ढाकुर । कलवारी - [सिंध] का वेर । कलवा सफ़ेद - संज्ञा पुं० [देश०] कखििम । कलविङ्क - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] ( १ ) चटक । गौरैया । श्रम० । रत्ना० ६ । पर्य्या : - कुलिंग, कालकण्टक-सं० । आव प्रकाश में कलविंक को शीतल, स्निग्ध, स्वादु, शुक्र एवं कफकारक और सन्निपात नाशक लिखा है । गृहचटक अतिशय शुक्रकारक है । ( २ ) कलिंदा | तरबूज़ | कलिंगक वृक्ष । ( ३ ) पारावत | कबूतर । ( ४ ) ग्राम्यचद्रक | देहाती गौरैया । मे० कचतुष्क । (५) काला गौरैया । कृष्ण चटक | सु० सू० ४६ श्र० । सफेद चँवर । श्वेत चामर । कलविङ्की - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] चटका । मादा गौरा । पा० कलश-संज्ञा पुं० [सं० पु० सी० १) पानी रखने का बरतन । घड़ा ! कलशी गगरा । ० प्र० १ ख० । Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलशपोतक २३०१ कलहड़पात . प०-घटः, कटः, निपः, (१०), कलसं (ख), कलनादः, मरालकः (रा.)। "पराकलसिः, कलसी, कलशि, कलशी. कलशं, (अ० | . धूसरैहँसाः कलहंसा इतिस्मृताः ।" हला० । (३) टी.), कुम्भः, करीरः (हे.)। (२) एक पीले रंग का हंस । (४) जलमुर्गा । जल प्रकार का मान जो द्रोण (१६ सेरवा ८ सेर) कुक्कुट । वै० निघः । के बराबर होता था। (३) चोटी । सिरा। पय्यो०-कादम्बः (ख), कलनादः । मराकलशपोतक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] एक सर्प । लकः ( रा०) (भारत, आदि ३६ अ.) (५) सहिजन बीज १८, मिर्च १०, पीपर कलशि, कलशी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) २०, अदरख १ पल, गुड़ १ ५०, काँजी ३ प्रस्थ, पिठवन । पृष्ठपर्णी । रस्ना०। (२) गगरी । तथा विड लवण १ ५०, इन सब श्रोषधियों को छोटा कलसा। उक्र परिमाण में लेकर एक निर्मल पात्र में डालकलशी संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] पिठवन । पृष्ठपर्णी कर मंथन दण्ड से मंथन करें । फिर इसमें दाल नि०शि० । रा०नि०। चीनी, इलायची, तेजपत्र नागकेशर इनका चूर्ण कलस-संज्ञा पुं० दे० "कलश"। एक पल परिमाण में डाल दें। . [१] किलस। गुण-इसे उपयुक्त मात्रा में सेवन करने से कलसा.-[सिरि० ] लिसोदा। हजारों प्रकार के ब्यञ्जन पच जाते हैं और अरुचि कलसादलावहज-[सिरि०] वह चूना जो पानी में | नष्ट हो जाती है । कण्ठस्वर हंसवत मनोहर हो न मारा गया हो । विना बुझा चूना । कली। जाताहै। इसीलिए इसका नाम "कलहंस" है। कलसरी-संज्ञा स्त्री० [हिं० काला+सर वा सिर ] मात्रा-१-२ तो0 तक। एक चिड़िया जिसका सिर काला होता है। कलहंसक-संज्ञा पुं० [सं० वी०] अरोचकाधिकारोक कलसा-संज्ञा पुं॰ [सं० कलस] [स्त्री. अल्पा० कवल मात्र । उक्त कवल के धारण करने से मुख कासी ] दे० "कलश"। वैशद्य और रुचि उत्पन्न होती है। च० द० अरो. कलसाना-[ यू० ] गुले लाला । चि०। कलसि, कलसी-संज्ञा स्त्री० [ सं० स्त्री.] (1) कलह-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (१) मुण्डी । वा. पृश्निपर्णी । पिठवन । प० मु० । रा. नि. व.४। सू० सुरसादि व०। (२) खड्ग । तलवार । सु० सू० ३८ अ० । सि० यो०। च. द. ज्व० मे०। (३) तलवार की म्यान | खड्गकोष । चि. किरातादि । यक्ष्म० चि. वलाद्यघृत । वा. कलह-[१०] (१) उश्शक । एमोनाइकम् । (२) चि० । श्र.। “कोल सूक्ष्माम्ल कलसी"। (२) दाँतों की मैल जो दाँतों की जड़ों में जम जाती है । गगरी । जलपात्र विशेष । पिलाई लिये एक प्रकार की मैल जो दाँतों की कलसिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) पृश्निपर्णी, जड़ों में जमकर पथरा जाती है। दंतमल । हजर। पिठवन । भैष० (२) कल्लस । के। टार्टार Tartar (अं)। कलसिस-संज्ञा [देश॰] सिरिस । कलहत्ती-[क० ] डीकामाली । वंशपत्री । कलसी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] दे॰ “कलसि"। कलहनाशन-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (१) कुरैया । कलसुन्दा-बम्ब० ] कटसरैया । कुटजवृक्ष । (२) पूतीकरंज । नाटा करंज । श०सा० । कलसूस-[Celsus ] एक रोम देशीय हकीम जो कलहप्रिया-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] गोराटिका । वहाँ के हकीमों में पहला था जिसने चिकित्सा सारिका । मैना । रा०नि० व. १६ । शास्त्र का इतिहास लिखा है। कलहड़पात-संज्ञा पुं॰ [हिं० कल-काला+हड़+पात= अलाईदीन-[१] बलचूस। पत्ता] नुसखा सईदी नामक हस्तलिखित पुस्तक कलहंस-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (१) हंस । (२) के अनुसार एक प्रकार की ललाई लिये काले रंग राजहंस । कादंब हंस । रत्ना० । पर्या-कादम्बः | के पत्ते जो नेपाल और नादौन के पर्वतों से लाये Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलहलवा २३१० जाते हैं । ये तमाकू के पत्ते से मिलते-जुलते पर उनसे छोटे होते हैं । प्रकृति - उष्ण और रूक्ष | गुण धर्म तथा उपयोग–यदि गले में सूजन श्राजाय तो थोड़ा सा कलहड़पात सोते समय मुँह में रखकर सो जायँ, जिससे कंठ में बराबर लाला उतरती रहे । कुछ दिन के सेवन से लाभ होगा । ख० ० | केलहलवा-[?] Amaranthus Gangeti con लाल साग । कलहाकुला - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] सारिका । मैना | वै० निघ० । कलहार - संज्ञा पु ं० [देश० ] कलिहारी । लांगली । कलहारी-संज्ञा स्त्री० [देश० राजपुताना ] कलिहारी । कल हिस - संज्ञा पुं० [देश० ] कलिहारी । कलहिसरा-संज्ञा पु ं० [देश० गढ़वाल ] एक प्रकार जिसका फल पीला होता है । वि० दे० “अ”। कलहिसरी - संज्ञा स्त्री० [ देश० गढ़वाल ] एक प्रकार का श्रंचू जिसका फल काला होता है । वि० दे० “श्रंचू”। कन्योक - [ लेपचा ] एक श्रोषधि । कलहेर - संज्ञा पुं० [देश० ] अंचू | कलंक - संज्ञा पु ं० [फा०] खुफ़ के बीज । तुख़्म कलंकक - संज्ञा पुं० [फा०] ख़रबूजे का बीज । तुम खुरपजः । कलंकतार - संज्ञा पु ं० [ रू० ] जोज ज़र्द । कलंकनी - [ ? ] कीर । अलकतरा । कलँगग -संज्ञा पुं० [सं० कलिंग] तरबूज़ | कलींदा | करूँगा - संज्ञा पुं० [हिं० कलंगी ] दे० "कलगा" । कलंगिडा - [ कना० ] खरबूजा । ककड़ी । कलॅगी - संज्ञा स्त्री० [१] दे० " कलगी" । लंगु - [ ता०] ठक करंज । नाटा करंज । लंगूर - [ ० ] जावा लोवान । जर्व । कलंगो - संज्ञा स्त्री० [हिं० कली ] पहाड़ों में होने वाली जंगली भांग का वह पौधा, जिसमें बीज लगते हैं। फुलंगो शब्द का यह उलटा हो गया है। कला कलंचिक कुरु -[ मल० ] कठ करंज । नाटा करंज । लंची - [ मल० ] कठ करंज । नाटा करंज । कलंक - [ फ्रा० ] कर्कट । केकड़ा | कलंजरे - [ फ्रा० ] (१) केकड़ा । (२) श्रंगूरका एकभेद कलंब - संज्ञा पुं० [ मरा० [] कदम | कब | कलंबक -संज्ञा पुं० [?] एक प्रकार का सर्वोत्तम सुगंधित गर । ( २ ) मलयागीर चंदन । (३) बड़ा नीबू | क़लंबक - संज्ञा पु ं० [?] खुशबूदार ऊद । [ श्र० ] बड़ा नीबू | कलंब-कचरी -[ बम्ब०] दे० " कलम्बा” । कलंबा - [ उड़ि० ] बिजौरा नीबू । संज्ञा पुं० [ श्रं० Calumba ] कलंबाबेर - [ ता० ] दे० "कलम्बा” | कलंबावेरु–[ ते० ] दे० “कलंबा" । कलंबे की जड़ -[ root) कलाँ - वि० [ फ्रा० ] बड़ा । दीर्घाकार | खुर्द का देश०] कलंबामूल । (Calumba उलटा । कला - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) समय का एक विभाग जो तीस काष्ठा का होता है 1 सु० सू० ६ श्र० । नोट-- किसी के मत से दिन का १ वाँ १०० १ १८०० भाग और किसी के मत से वाँ भाग होता है । ( २ ) स्त्री का रज । ( ३ ) श्रावर्तकी । विषा णिका । रङ्गलता । रक्त बाहुली । रा०नि० । नि० शि० । ( ४ ) शरीर का प्रत्यंग विशेष झिल्ली । ( munbrane ) श्रायुर्वेद में यह सात हैं । मांसधरा, रक्रधरा, मेदोधरा, श्लेष्मधरा, पुरीषधरा, पित्तधरा और शुकंधरा । सु० शा० ५ श्र० । भा० म० १ भ० । (५) केला । कदली । प्राचीन भारतीय केले की नौका बनाकर जल मार्ग से आवागमन करते थे । ( ६ ) घोड़े के जंघा के वगल का भाग । ज० द० २ श्र० । (७) मैनसिल । मनःशिला । ( ८ ) चंद्रमा का सोलहवाँ भाग । वृद्धि नाम की अष्टवर्गीय श्रोषधि । त्रिका० । (१०) अंश । भाग । ० द्विकं । ( ११ ) जिह्वा । ज़बान । Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कला २३११ कलानुश ५ [बं०] केला। कलाज.., कलाजह-[फा०] महोखा पक्षी ।अक़अका [फा०] मेंढक । मंडूक। क़लाज़-[ ? ] श्राज़रबूयः। कला-[अ०] सजी । किली। कलाजाजी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] कलौंजी । मँगकलाअजारह-[ असनहानी] महोखा पक्षो। अक़- रैला । कारवी । कृष्णजीरक । शन। कलाजाती-संज्ञा स्त्री० [?] गोलशाम । कलाई-संज्ञा स्त्री० [सं० कलाची ] (1) पहुँचा । कलाजाह-[?] (१) एक प्रकार का कौश्रा (२) मणिबंध । मणि। साइद। ज़िरा-अ० । महोखा पक्षी | अक्रमक । (Wrist)। कलाटक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] गरुड़ शालि । एक संज्ञा स्त्री० [सं० कुलत्थ ] उरद । माष । धान । रा०नि०व०१६ । कलाकंद-संज्ञा पुं० [फा०] एक प्रकार की बरफ़ी कलाटीन-संज्ञा पु० [सं० पु.] खंजन पक्षी । (मिठाई ) जो खोए और मिस्री की बनती है। हारा०। कलाकमूश-संज्ञा पुं० [फा०] जंगली चूहा । क़लात-[अ०] मछली। कलाकार-संज्ञा पुं० [सं० पु.] अशोक की तरह | कलातयूर-[?] शामी कर्नब । कुम्बीत । का एक पेड़, जो बंगाल और मदरास में होता है । कलातानस-[?] चुनार । चिनार का पेड़ । इसे कहीं कहीं 'देवदारी' भी कहते हैं। कलातानूस-[?] कुलथी। कलाकरा-संज्ञा पुं॰ [देश॰] एक प्रकार का शरीफ़ा कलाद (क)-संज्ञा पुं० [सं० पु.] सोनार । जिसकी पत्ती बड़ी होती है। जायफल का एक स्वर्णकार । त्रिका। भेद । [फा०] मेंढ़क । मंडूक । कलाक़ल-[अ० ] हब्ब कुलकुल । चकवड़ । पमाड़। कलादः, कलादू-[फा० ] मेंढ़क । मंडूक । कलाकला-१] लोन कबीर । कलाधिक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] मुर्गा । कुक्कुट । कलाकलीतस-[यू.] अकलीमिया । कलान-[ तु.] जंगली गदहा । गोरखर । कलाकल्या-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] कलान-[बर० ] कसौंदा । कासमई । कलाक़ी-[?] (१) माहता। पंडुक । (२) कलानुनादी-संज्ञा [सं० पु. कलानुनादिन् ] (१) फ्रास्ता की तरह का एक पक्षी। गौरैया । चटक । कलविक । (२) चातक । कलाकुल-संज्ञा पुं० [सं० क्री.] हलाहल विष । पपीहा । (३) भौंरा । भ्रमर । मे० नषटकं ।(४) रा०नि० व०६। (४) कपिञ्जल । कलाकेलि-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] कामदेव । कंदर्प । क़लान्नश-[?] एक वनस्पति जिसको 'खोखल्मरूज' वि० [सं० त्रि.] विलासी। कहते हैं । इसका कारण यह है कि यह रंग में कलाखै वाऊ-[ वर० ] चूका। खोन अर्थात् प्राड़ की तरह होता है। इसकी कलांकुर-संज्ञा पुं० [सं० पु.] The bird पत्ती एवं शाखाएँ भी उससे सादृश्य रखती हैं। Ardea Sibirica, कराँकुल पक्षी । सारस भेद केवल यह है कि इसकी पत्ती पाड़ की पत्ती पक्षी । त्रिका से किंचित् छोटी तथा चौड़ी होती है। इसमें कलांगुलि-संज्ञा पुं० [सं० पु.] एक प्रकार का गाँठे पास-पास होती हैं। डालियाँ भूमि पर शालि धान । च० सू० २७ १०। आच्छादित होती हैं। इसमें चेंप होता है और कलाचक-[फा०] कौड़ी। इसका स्वाद फीका होता है। कलाचिका, कलाची-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] गुण-धर्म-इन्नवेतार के अनुसार इसका रस कलाई । प्रकोष्ठ । हे० च० । (२) घोड़ेका घुटने | पीने से सीने से थूक में खून का .लमा बंद हो से आगे का भाग। अश्व के जानु वा घुटने का जाता है । इसकी वर्ति योनि में धारण करने से अगला भाग । ज.द.२०॥ खून का आना बंद हो जाता है। गुणधर्म में यह Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलाप श्रोषधि यूनानी लूसीमाव़ियूस के समान होती है । मानो यह उसका ही एक भेद है । इब्नबेतार कहते है, कि मैंने इसको मिस्र के सिवा और कहीं नहीं देखा । कलाप-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( १ ) मोरकी पूँछ । मयूरपुच्छ । हला० । ( २ ) समूह । भुंड । संहत । ( ३ ) काँची । गुञ्जा | मे० पत्रिकं । संज्ञा पुं० [सं०ली० ] ( १ ) कँवलगट्टा । पद्मवीज। (२) वंशबीज । बाँस का बीया । बाँस का चावल | वै० निघ० । कलापक-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( १ ) हाथी के गले का रस्सा | हे० च० । ( २ ) समूह | कलापाचा - संज्ञा पुं० चतुष्पद जीवों विशेषतः बकरीके हस्त पाद । पाचा- फ्रा० । श्रकारि ( कुरा का बहु० ) - ० | यह अरुण वा श्वेत रंग का होता है. जिससे बसागंध श्राती है । प्रकृति - गरम और तर । यह दीर्घपाकी तथा पच्छिल है । स्वाद - मांसवत् स्निग्ध | २३१२ लामो कलापी - संज्ञा पुं० [सं० पु० कलापिन् ] [स्त्री कलापिनी ] ( १ ) मोर । मयूर । हला० । ( २ ) कोकिल । ( ३ ) पाकर का पेड़ । लक्ष का वृक्ष । ० चतुष्कं । ( ४ ) बरगद का पेड़ । हानिकर्त्ता - कोलंज उत्पन्न करता है । दर्पन — सिरका, शहद और दालचीनी | प्रतिनिधि - बकरी का बदल उत्कृष्टतर है । पर अपेक्षाकृत अधिक कलाम - [ फ्रा० ] केउच । . वि० [सं० त्रि० ] झुन्ड में रहनेवाला । [ ५० ] कलिहारी । लांगली । 1 कलाफ़ी - [ ० ] सफेद अंगूर जिसमें सब्जी हो । क़लाब - [ ? ] भेड़िया । लु० क० । कलाबश - [ अफरीका ] Creecentia Cujote, Linn. कलाबाश | कलाबीन -संज्ञा पुं० [ देश० ] एक वृक्ष जो सिलहट, चटगाँव और बर्मा में होता है । यह ४०-५० फुट ऊँचा होता है । इसके फल के बीज को मुँगरा चावल वा कलौथी कहते हैं, जिसका तेल चर्म रोगों पर लगाया जाता है । कलाबू - [ ? ] सीतासुपारी । लु० क० । कलाम - संज्ञा पुं० [ श्र० वाक्य | वचन । उक्ति । (२) बातचीत । कथन | बात । मात्रा आवश्यकतानुसार । गुण, कर्म, प्रयोग - यह ग़लीज़ तथा दीर्घपाकी है । परन्तु पच जाने पर उत्तम खून पैदा करता है। यह समशीतोष्ण श्राहार है और निर्बल, शर्त और सहज रोगी के लिये लाभकारी है । वक्ष एवं कंठगत शोष तथा कर्कशता, होंठ और जवान फटने, आवाज़ पड़ने, शुष्क कास, उरःक्षत, यक्ष्मा और कृच्छ, इनको लाभ पहुँचाता और आभ्यंतरिक ऋणों का पूरण करता है । गोंद के साथ यह पेचिस का निवारण करता है । इसका तेल मलने से शिरःशूल और संधिगत वेदना जाती रहती है ।-बु० मु० । वि० दे० "कुरा” । कलापिड जइन -[ बर० ] नाज़बू | कलापिनी -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (१) नागरमोथा । रा० नि० व० ६ । ( २ ) रात्रि | रात । (३) मयूरी । मोरनी । क़लाम - [ ? ] रचयुल् इब्ल । ( २ ) . क्रावली । कलामक - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] कलमी धान । कलमधान्य | जड़हन । हे० च० । क़लामती - [ यू०] नहरी पुदीना । कलामयखंड - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( Membr arous particu) कलामय भाग । अ० शा० । कलामयगहन- संज्ञा पुं० [सं० नी० ] (Mewbr anous Labyrinth. ) झिल्लीदार गहन । अ० शा० । क़लामतून - [ यू० ] जरंबाद । नरकचूर । कसूर । क़लामामानस -[ यू०] पहाड़ी वा जंगली पुदीना । क़लामीन - [अ०] ( Zine_carbonate) Calamine कलीमिया । इक़लीमिया । दे० " जस्ता " । क़लामीस, क़लामीसी - [ यू०] नहरी पुदीना । - कलामु अमातीस - [ यू० ] Calamus aromaticus वच । कलामोचा- संज्ञा पुं० [देश० ] एक प्रकार का धान जो बंगाल में होता है । Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१३ कला বাগান कलाय-संज्ञा पुं० [सं० पुं०] (१) एक प्रकार | कलायशाक-संज्ञा पु० [सं० की० ] मटर वा केराव का शिंबी धान्य । मटर । र०मा०। का साग। पो०-सतीलकः, हरणुः, खण्डिकः (१०), गुण, प्रयोगत्रिपुटः, अतिवर्तुं लः (२०), मुण्डचणकः, भावप्रकाश में इसे भेदक, हलका, कड़ा शमनः, नीलकः, कराठी, सतीलः, सतीनः, हरे- और त्रिदोष नाशक लिखा है। भा० पू० १ भ० णुकः, सतीनकः। (Pisum sativum) शाक व० । सुश्रुत के अनुसार यह पित्तनाशक, यह दो प्रकार का होता है-(१) त्रिपुत्र और कफनाशक, वातकारक, भारी, कसेला वा फ्रीका (२) गोलाकार (वत्तुं ल)। वाग्भट के अनुसार | (अनुरस ) है और इसका विपाक मधुर होता है। यह अत्यन्त वातकारक है। वा० सू० शिम्बी सु० सू०४६ अ०। धान्यवर्ग । पित्तनाशक, दाहनाशक, कफनाशक, | कलायसूप-संज्ञा पु० [सं० पु.] मटर का जूस । शीतल, कसेला, रुचिकारक, पुष्टिकारक और श्राम मटर का झोल या रसा । कलायकृत यूष । दोष कारक है। रा० नि०व० १६ । वि० दे० गुण, प्रयोग"मटर"। (२) एक प्रकार का शिंबी धान्य __ यह हलका, ग्राही, बहुत ठंडा, रुचिकारक, जिसे माषक भी कहते हैं। मेधाजनक, पकते समय मीठा, रुधिर के रोग और कलायक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] कलमा धान । पित्त का नाशक, अरुचि को दूर करनेवाला और कलम शाक्षि रा०नि०व०१६ । कफ का नाश करनेवाला है । वै० निघ। गुण कुछ कुछ कसेला, मीठा, बिगड़े हुये | कलाया-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.](१)गाँडर दूब । रक्क को ठीक करता, बल कारक-कुछ-कुछ वात के गंडदूर्वा । (२) सफ़ेद दूब । श्वेतदूर्वा । रा० साथ पितको शमन करता और गुण में मूंग की नि० व० ८ । (३) काला चना । कृष्ण चणक । तरह होता है। अनि १५ । प० मु०। कलायका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) मत्स्याक्षी कलार-[ गु० ] जंगली मूली । दीवारी मूली । कमामछरिया। मछेछी । (२) गाँडर दूब । गंड फीतूस । कुकरौंधा। दूर्वा । वै० निघ। कलार-[2 ] सफ़ेद अंजीर का एक भेद । कलायखञ्ज, कलायखण्ड-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कलारकोडी-[ ता०] कठकरंज । नाटा करंज । एक प्रकार का वायु का रोग जिसमें रोगी के जोड़ों | कलारारह-[?] (1) एक प्रकार का कौत्रा। की नसें ढीली पड़ जाती हैं और उसके अंगों में (२) महोखा पक्षी । अक्रमक । कपकपी होती है । वह चलने में लँगड़ाता है। कलारी-[?] सफ़ेद अंजीर का एक भेद । सु०नि० १ ० । मा० नि० वा. व्याधि ।। कलारुहा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] सुवर्ण केतकी । कलाय गुटिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] मटर का केतकी । रा०नि० व. १० । पीला केवड़ा।। चूर्ण २ भाग, तथा लोहभस्म १ भाग। इन दोनों | कलाल-[१०] थकान । माँदगी । सुस्ती । को उक्त परिमाण में लेकर करेले के पत्तों को कलालग-[ कुमायूँ ] रक्तपित्त । रस के साथ घोट कर एक-एक कर्ष की गोलियाँ कलालाप-संज्ञा पु० [सं० पु.] भौंरा । भ्रमर । बनाए। यह मात्रा प्राचीन काल की है इसलिये | रा०नि० व०६। आजकल के अनुसार तीन-तीन रत्ती की गोलियाँ कलाली-[ राजपु.] कलिहारी । लांगली । वनानी चाहिये। कलालुल हि स्स-[१०] निःसंज्ञता । संज्ञानांश । गुण-इसको मण्ड के साथ सेवन करने से सुन्नता । अवसन्नता । स्पर्शाज्ञता | Anestheअसाध्य अम्लपित्त का नाश होता है । चक्र द. sia 1 अम्ल पि चि०। कलावात-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] अस्सी प्रकार के कलाय बोगोटी-[-नेपा० ] वायविडंग। घात रोगों में से एक। ७. फा० Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलार्षिक लक्षण शरीरं पाण्डुरं चास्ये वैवर्ण्यं रक्त नेत्रता । कृष्णजिह्वा च शूलं च कला वातस्यलक्षणम् ॥ अर्थात् इस रोग में शरीर पीला, मुख में विवर्णता, नेत्र में लाली, शूल और जीभ काली होती है। इसमें वासादि तेल उत्तम लाभ करता है । (बस० रा० ) K कलाविक-संज्ञा पु ं० [सं० पु ] कुक्कुट | मुग़ त्रिका० । ५३१४: कला विकल-संज्ञा पुं० [सं० पु ं०] गौरैया । चटक | चिड़ा । श० २० । कलाविक -संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] कल विंक पक्षी | चिड़ा | के० । ' कलावी - [ मरा०] कलियारी । करियारी । कला - [फा०] मकड़ी । कलाशनान: - [ फ्रा० ] मकड़ी का जाला । कलाशरह - [ ? ] सज्जी । श्रशख़र । लु० क० । क्लास - [ ? ] तेजपात । लु० क० कलासनर - [ बं०] बरेठी | कलाहू - [ फ्रा०] हिरन का एक भेद । कलाहूय: - [सं० [?] चाँदी । लु० क० । कलिंगड, कलिंगड़ा - [ मरा० ] तरबूज | कलिंगड़ा, वित्तुलु -[ ते० ] इन्द्रजव | कलिंदजा, कलिंडा - [ बर० ] कठकरंज । कलिंदा - संज्ञा पु ं० दे० "कलिंदा " । कलिंगा - संज्ञा पुं० [देश० ] तेवरी नाम का पेड़ जिसकी छाल रेचक होती है । कलिंदी - संज्ञा स्त्री० दे० " कालिंदी" । कलि-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] ( १ ) बहेड़े का वृक्ष । विभीतक वृत्त । भा० म० ३ भ० मेद-चि० । (२) • बहेड़े का फल वा बीज । संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( 1 ) कली । कलिका | मे० लद्विकं । ( २ ) सफ़ेद धतूरा । श्वेत धुस्तूरक । ( ३ ) भिलावे का पेड़ । भल्ला तक वृक्ष । वै० निघ० । कलिङ्ग करोंकुल या पनकुकड़ी । (२) एक प्रकार बाँस का चावल । वंश धान्य । कलिका - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) वृश्वि काली । बिछाती । रा० नि० व० ६ । ( २ ) सरफोंखा । शरपु ंखा । ( ३ ) बिना खिला फूल । कली | पुष्पकोरक । कलि । ( ४ ) ह्रस्व नीलिका do निघ० । (५) एक प्रकार का फूल। (६) कलौंजी । मँगरैला । ( ७ ) अंश । भाग । कलिकार - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] ( १ ) धूम्याट पक्षी । भिंगराज | भृंग इसकी पूँछ काँटे जैसी होती है । (२) एक पक्षी जिसका मस्तक पीला होता है । (३) एक प्रकार का करंज । पूर्ति करंज । मे० । ( ४ ) जलपीपल । जल पिप्पली । चै० निघ० । } कलिकारक - संज्ञा पुं० [सं० पुं०] पूति करंज । लट्वा करंज | कंट करंज । नाटा करंज । श्रम० । कलिकारिका - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कलियारी का पौधा । लाँगली का वृक्ष । वै० निघ० । पर्या० - वह्निवक्रा, (भा० ) लाङ्गली, हलिनी, गर्भपातिनी, दीप्ता, विशल्या, श्रग्निमुखी, हली, नक्का, इन्द्रपुष्पिका, विद्युज्ज्वाला, श्रग्निजिह्ना, वण हृत्, पुष्पसौरभा, स्वर्णपुष्पा, वह्निशिखा, इन्द्रपुष्पिका, दे० "कलिहारी" । कलिकारी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कलियारी बिष । करियारी | नि० शि० । वै० निघ० । भा० । काली - [ ? ] बहेड़ा । संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] करियारी लांगली । नि० शि० । 1 कलिकाशित - संज्ञा पुं० [सं० क्ली०] अशोक । के० । कलिकोत्तम संज्ञा पुं० [सं० नी० पु० ] ( १ ) लौंग । लवंग । ( २ ) गंध शालि । कलिङ्ग, कलिङ्गक-संज्ञा पुं० [सं० नी० ] इंद्रजव । इ' द्रयव । यथा -- "कलिङ्ग कट्फलं मुस्तंपाठा तिक्तक रोहिणी" | च० द० पि० ज्व० कलिङ्गादि । "दारुपाठा कलिङ्गकम्" । च० द० ज्वराति० चि० । श०र० । [ वं० ] कली । गुञ्चा | [ गु० ] [ बहु० कालियो ] कली । कलिक-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( १ ) क्रौञ्च पत्ती । i कलिङ्ग, कलिङ्गक-संज्ञा पु ं० [सं० पाकर का पेड़ | लक्षवृक्ष । ( २ ) पु० ] ( १ ) कुरैया । कुटज वृक्ष | कुड़ची । ( ३ ) सिरस का पेड़ । रा० नि० Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिङ्गज २३१५ कलिगु, कलिद्रुम व०३ । (४) इन्द्र जौ । इन्द्रयव । रत्ना० । श्रादि ज्वर शमन करता है । वा. चि० १ ०। र० सा० सं० । सि० यो० रात्रिज्वर । 'कलिङ्गक चक्रदत्त में इसे पित्तज्वर को दूर करनेवाला लिखा स्तामलकी" । सि. यो० पिप्पल्यादि घृत। है। च. द. पित्त ज्व. चिः। (२) इन्द्र जौ, (५) पूतिकरंज । (६) मटमैले रंग की एक कायफल, नागरमोथा, पाठा तथा कुटको इन औष चिड़िया जिसकी गरदन लंबी और लाल तथा सिर धियों को उचित मात्रा में लेकर यथाविधि काथ भी लाल होता है । कुलंग, मे० गत्रिक । (७) बनावें । सिद्ध होने पर इसमें शर्करा मिलावें । तरबूज़ । तरम्बुज । गुण-इसके पीने से पित्त ज्वर प्रशान्त होता है गुण-मधुर, शीतल, वृष्य, बल्य, पित्तनाशक चक्र० द०। दाहनाशक, सन्तर्पण, श्रोर वीर्यकारक । रा०नि० कलिङ्गाद्य गुड़िका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] इन्द्र व० ७ । (८) चातक पक्षी । पपीहा। हला० ।। जौ, बेलगिरी, जामुन की गुठली, कैथ की गूदी, (१) बहेड़े का पेड़ । त्रिका०। (१०) एक रसवत, लाख, हल्दी, दारुहल्दी, सुगन्धवाला, प्राचीन देश । (११) कलिंग देश का निवासी। कायफल, शुकनासिका, लोध, मोचरस, शंख की वि० कलिंग देश का। भस्म, धौ के फूल. और बड़ के अंकर। हर एक 'कलिङ्गज-संज्ञा पु. [ सं० पु. ] इंद्रजव । __समान भाग लेकर चावलों के पानी में पीसकर वै० निघः । १-१ अक्ष प्रमाण की गुटिका प्रस्तुत करें। कलिङ्गद्रु-संज्ञा पु० [सं० पु.] कुरैया। कुटज । गुण-इसके सेवन से ज्वरातिसार और शूल भा० म० १ भ० कास चि०। "कलिङ्गद् फलं युक्त अतिसार का शीघ्र नाश होता है। एवं रक रजः"। शुद्ध होता है । धन्वन्तरि । ज्वर चि०। 'कलिङ्गयव-संज्ञा पु० [सं० पु.] इंद्रयव । इंद्रजष कलिङ्गाद्य तैल-संज्ञा पुं० [सं० क्री०] नासा रोग च० द.। सि० यो० लवणोत्तमाय चूर्ण। में प्रयुक्त उक्त नाम का तेल। कलिङ्ग वीज-संज्ञा पु० [सं० पु.] इंद्रजो। इंद्र ___ योग-इंद्रजौ, हींग, मिर्च, लाख, तुलसी, __यव । रा०नि० व० । कायफल, कूठ, वच, सहिजन और वायविडंग के कल्क तथा गोमूत्र से कड़ना तेल पकाकर उसकी कलिङ्ग शुण्ठी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कलिंग देश नास लेने से पीनस और पूतिनस्य (नाक से बदबू का सोंठ । एक प्रकार का सोंठ । श्राना) नष्ट होता है । र० २० नासा० रो०। . गुण-कड़ा, बलकारक; अग्निदीपन, अजीर्ण | कलिञ्ज-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (1) कुलंजन । नाशक और बालकों के अतिसार को दूर करने | कुलिंजन । वै०नि० २ भ. जिसक ज्व. चि०। वाला है। यही जवाखार के साथ मिला हुमा (२) नरकट नाम की घास । कट । किलिंजक । गर्भिणी की कै पाने को दूर करता है । अत्रि०।। मादुर (बं०)। कलिङ्गा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (1) काकड़ा | कलिञ्जम-संज्ञा पुं० [सं० पुं०] एक वृक्ष । सींगी । कर्कट श्रृंगी। र० मा०। २) सफ़ेद | नकद | कलितरु-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] बहेड़े का पेड़ । निसोथ । श्वेत त्रिवृता । (३) नारी। वै० निघ० स्वर भेद चि०। कलिङ्गादि कल्क-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] इन्द्रजौ, | कलि-तरु फलादि चूर्ण-संज्ञा पुं० [सं० क्रो०] स्वर वच, नागरमोथा, देवदारु तथा अतीस इन औष- | भेद में प्रयुक्त योग-कलितरुफल (बहेड़ा), सेंधा धियों को समान भाग लेकर यथाविधि कल्क नमक तथा पीपल इन तीन ओषधियों के यथाबनाएँ । वात पित्त जनित अतिसार का रोगी इस विधि निर्मित चूर्ण को छाछ के साथ पीसकर पीने कल्क को तण्डुलोदक के साथ सेवन करें। से स्वरभेद दूर होता है। मात्रा से २ मा० कलिङ्गादि कषाय-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (१) तक । चक्र द० स्वरभेद चि०। । वैद्यक में एक कषाय जिसमें इन्द्रजौ (कलिंगक), कलिनु, कलिद्रुम-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (1) परवल का पत्ता ओर कुटकी पड़ता है । यह संतव। सरल देवदार । (२) भिलावे का पेड़ । भवातक Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिन्द २३१६ वृक्ष । ( ३ ) बहेड़े का पेड़ । रा० नि० ० ११ | | “किरात कटुका करणा: कुटज कण्टकारी शठी aag किलिमाभया: " | भा० म० १ भ० कण्ठ कुब्ज ज्व० चि० । कलिन्द - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] ( १ ) सूर्य । सूरज, ( २ ) बहेड़े का पेड़ | रा० नि० व० २३ । (३) भेक वृक्ष । ( ४ ) सरल देवदार | वै० निघ० । कलिन्दक - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] ( १ ) पेठा । कर्कारु । ( २ ) तबूज | कलींदा | तरम्बुज | वै० निघ० । कलिपुर - संज्ञा पुं० [सं० ] ( १ ) पद्मराग मणि वा मानिक का एक भेद जो मध्यम माना जाता था । (२) मानिक की एक पुरानो खान । कलिप्रद - संज्ञा पु ं० [सं० पुं०] मद्य बिकने का स्थान "शराबखाना । मद्यशाला । कलालखाना | वै० निघ० । कलिप्रिय-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] ( १ ) बंदर | बानर | श० २० । (२) बहेड़े का पेड़ । 1 "कलिफल - संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] बहेड़े का फल । कलियारी कलियान - मुरुक्कु -[ ता० ] फरहद । पारिभद्र । कलियारी - संज्ञा स्त्री० [सं० कलिहारी ] एक विषैला सुप वा श्रलंकृत लता जिसका कांड चपटा, त्रिपार्श्व, ऐंठा हुश्रा और टेढ़ा-मेढ़ा होता है । इसका गुल्म देखने में श्राद्रक-गुल्मवत् होता है । पहले यह मोटी घास की तरह होती है फिर और बेल की तरह बढ़ती है । इसके पत्ते अदरख के पत्ते की तरह होते हैं । इसका पेड़ बाद या झाड़ी के सहारे लगता है । गर्मी में यह सूख जाता है और वर्षा का पहिला पानी पड़ते ही इसके पुराने कंद से अभिनव गुल्म श्राविभूर्त होता है। श्रादी की तरह इसका भी कंद लगाने से वृक्ष-पैदा होता है। बहुत नीची श्रद्र भूमि में यह नहीं उत्पन्न होती है, वहाँ इसका कंद सड़ जाता है । भारतवर्ष के उष्ण प्रदेशों में चातुर्मास में यह उत्पन्न होती है । इसका पत्ता विषमवर्त्ती, कोमल, दीर्घ, अवृंत, ६-७ इंच लंबा श्रोर से १ इंच चौड़ा, तसे वेष्ट एवं शीर्ष की ओर उत्तरोतर पतला होता जाता है । यह नुकीला भाग सूत्रवत् महीन, प्रायः गजभर तक लंबा और लिपटा हुआ होता है, पत्र देखने में बॉस के पत्ते की तरह, पर कोमल होता है । वर्षात में इसमें पुष्प श्राते हैं । पुष्प हर एक पत्ते के समीप से निकलता और एक लंबे वृत पर लगता है । पुष्प की पं खड़ी गिनती में ६, प्रारंभ में बंदमुख, पर उत्तरोत्तर वे क्रमशः खिलती जाती हैं श्रोर अंततः विपरीत दिशा में लटक जाती हैं । पँखदी ३ - ४ अंगुल दीर्घ, 4 से 1⁄2 अंगुल चौड़ी और मुकीली होती है। दल-प्रांत लहरदार होता है । प्रारंभ में फेंखड़ियाँ हरी होती हैं, परंतु ऊपर का अर्ध भाग क्रमशः पीतारुण होता 'जाता है और अंत में ऊपर विश्वित्र नागरंग वर्ण का और नीचे का मिलित श्ररुण और पीत व का होता जाता है। इस प्रकार एक ही पुष्प इंद्रधनुष के समान अनेक रंगयुक्त होता है। पुष्प प्रियदर्शन एवं अत्यंत मनोहर होता है। पु कैंसर ६, पराग-कोष (Anthor) 2 अंगुल लंबा और चिपटा होता है । श्री केसर १, - त्रिशिर्षीय होती है । फूल झड़ जाने पर तिल के फल की आकृति का वा समुद्रफल के समान फल लगता है, जिस पर बहेड़ा | च० द० । 'कॅलिब - [अ०] [ बहु० कलवा ] ( १ ) पागल कुत्ता | बावला कुक्कुर | दीवाना कुत्ता । ( २ ) वह व्यक्ति जिसे बावले कुत्ते ने काटा हो । कुक्कुष्ट | कलिम -संज्ञा पुं० [सं० पु० ] सिरस का पेड़ | वै० निघ० । शिरीष वृक्ष । कैलिमार, कलिमारक - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] पूति करंज । कंटकरंज । श्र० टी० २० । वृ० नि० २० । कलिमाल, कलिमाल्य, कलिमालक, कलिमाल्यक संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] पूतीकरंज । दुर्गन्ध करंज । काँटा करंज । रा० नि० व० ६ । कलिया संज्ञा पु ं० [अ० क्रलिय्यः ] [ बहु० कलाया ] टुकड़ा टुकड़ा करके देग में भूमा हुथा गोश्त । पकाया हुआ मांस । घी में भूनकर रसेदार पकाया 1 हुआ मांस । कलियाकरा - [ नं०] कंटगुर । कलिया - [ कलिया - [ फ्रा० ० ] सनी । 1 कलियान - पूशिणिक काय - [ ता० ] पेठा | Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलियारी कलियार तीन धारियाँ होती हैं अर्थात् यह तृखंड एवं लंबा | होता है। कार्तिक मार्गशीर्ष में फल पक जाता है । पके फल के भीतर लाल छिलके में लिपटे हुए सरसों के बीज की तरह गोल किंतु उमसे बड़े (गुजाकृति के) अत्यंत अरुण वर्ण के तार में लगे हुए बीज होते हैं। प्रत्येक कोष में १०-१२ बीज से कम नहीं होते। इसके पत्तों में फूल और फल से तीखो गंध आती है। इसकी जड़ दो प्रकार की होती है। एक वह जिसकी जड़की गाँठ गोल होती है और वह अशाख होती है । इसे 'मादा' कहते हैं । दूसरी की जड़ सशाखद्विभिक्त होती है और इसे 'नर' कहते हैं । इसका मूल कंद, लंबा बेलनाकार और एक सिरे पर इस प्रकार झुका हुआ होता है, मानो एक स्थान पर दो लंबी जड़े जुटी हुई हों और उनसे एक • समकोण बन गया हो इनमें से एक दूसरे की अपेक्षा बहुत छोटा होता है। यह कोण पर अंथिल होता है । कभी कभी इसके दोनों सिरे अधिक नुकीले होते हैं। यह क्रमश: ३ से ५ इंच लंबा प्रायः उँगली वा अँगूठे के बराबर मोटा होता है। कभी कभी यह इसकी अपेक्षा भी अधिक लंबा होता है। जब यह तर वा रेतीली भूमि में उत्पन्न होता है। इसकी गोल जड़ के | ऊपर ओर लंबी जड़ के कोण वा गाँठ पर इस पेड़ के उगने का-तने का एक गोल चिह्न बना रहता है और नीचे की ओर छोटी महीन जड़ें। लगी रहती हैं। इसका छिलका पतला, ढीला, हलका, झुर्रादार और बादामी रंग का होता है । इसकी खूब सूखी हुई जड़ का भीतरी पृष्ठ धूसर वा गंभीर धूसर वर्ण का होता है। इसके भीतर का गूदा सफ़ेद होता है और वह स्वाद में चरपरा नहीं, अपितु कुछ कुछ कडुवा, लबावदार और अम्ल होता है। उसमें से हलकी चरपरी सुगंध पाती है । इसकी बनावट (Farinaceous) होती है । यह जड़ महीनों तक बिना सूखे हुए पड़ी रहती है। इसलिये धूप में डालने से पूर्व इसे बारीक कतर लेना चाहिये। इसे सूखने में १॥२ मास लगते हैं। एक सेर गीला कंद सूखने पर केवल १०-१५ तोले ठहरता है । कार्तिक मार्गशीर्ष में ये कंद संग्रहणीय होते हैं । ये एक | वर्ष में घुनकर खराब होजाते हैं । ये विषैले होते हैं। पय्या-कलिकारी (ली),हलिनी, विशल्या । गर्भपातिनी, लांगल्या (ली), अग्निमुखी, सोरी, दीप्ता, नका. इन्दुपुष्पिका, (ध०नि०), कलिकारी, लांगलिनी, हलिनी, गर्भपातिनी, दीप्ता, विशल्या, अग्निमुखी, हली, नक्का; इन्दुपुष्पिका, विद्युज्ज्वाला, अग्निजिह्वा, व्रणहित्, पुष्पसौरभा, स्वणपुष्पा, वह्निशिखा (रा०नि०), कलिहारो, हलिनी, लांगली, शक्रपुष्पिका, विशल्या, अग्निशिखा, अनन्ता, वह्निवक्ता, गर्भनुत् (भा०), फलिनी, शक्र पुष्पीका ( कोशे), इंदुपुष्पी, वह्निजिह्वा, प्रदीप्ता, अग्निशिखा, शिखा, वह्निमुखा, प्रभाता, पुष्पसोरभा (के० दे०); लांगुली (द्रव्य र०), कलिहारी, शक्रपुष्पी,सारी (मद० नि०); सारः, इन्द्रपुष्पी, वह्निज्वाला (गण-नि०) लांगलाख्या, गैरी, गर्भधातिनी, अग्निज्वाला, वह्निशिखा, इन्द्रपुष्पा(पी), लांगलाबा, लांगलकी, लांगली, लांगलि, लांगलिका, लांगलिको-सं० । कलारी, कलिहारी,कलियारी, करिहारी, करियारी, लांगली. कलिकारी, कलहारी, कलहिंस-हिं० । नाट का बच्छनागद। (ऊलट ) ओलोट चंदल, विषलांगुलिया, विषलांगला बिश, उलटचडालविष-बं० । ग्लोरिश्रोसा सुपर्बा Gloriosa Superba, (?) Linn-ले० । सुपर्व लिलि Superb lilyअं० । कलैप्पैक्-किज़ङ्गु, कार्तिकैक्-किज़ङ्गु-ता। अडवि-नाभि, पोत्ति-दुम्प, पेनवेदुरु, अग्नि-शिखा, कलप्प-गड्डु, लांगली-ते। वेनोणि, मेन्दोणि, मेहोन्नि, कांडल-मल। सोम-दौ, सीम्मि-दाव,, सी-मी तौक-बर० । लियनंगला, नियांगल्लसिंगा० । लांगलिके, कोलिककजगड़े, लांगुलीक । वेडेवे दुरु, राडागारी, नांगुलिका-कना० । दुधियो (बछनाग) कलगारी बच्छनाग, खड्यानागगु०। खड्यानाग, कललावी, नागली, इंदई, कलावी, झगड़ी, बागचवका, चगमोड्या,कललावी, नागकरिया, करिया, नाग-मरा०, बम्ब० । मुमिल करिश्रा (या) री, मलिम, कलेसर-पं० लांगुली लांगुलिका, राडागारि-का० । खड़िया कलई, कलवी नाग-कों० । कलावी-दे० । सीरी (क) सम्नो-संथाल। करिहारो-उ०प० सू०। राज. Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलियारी २३१८ कलियारी हरर-(अजमेर)। राजाराड-मार० । नेयंगल्ल(सिंहली)। अन्वर्थ संज्ञायें परिचयज्ञापिका संज्ञार्य-चिह्नमुखी, शक्रपुष्पिका, अग्निशिखा, लांगलिका, नक्कन्दु पुष्पिका पुष्पसोरभा; स्वर्णपुष्पा, अग्निमुखी, अग्निजिह्वा. वह्निशिखा, वह्निवक्ता, प्रभाता और अग्निज्वाला इत्यादि । ज्वालामुखी और इन्द्रपुष्पी। गुण प्रकाशिका संज्ञायें-विशल्या, गर्भपातिनी, गर्भधातिनो, गर्भनुत्, सारिणी, सारी और व्रणहृत् और हनन । टिप्पणी-दक्षिण भारतीय चिकित्सकगण तथा ओषध-विक्रेता यह मानते हैं कि गुणधर्म में इसकी जड़ प्रायः वत्सनाभ की जड़ के समान होती है,इसलिये वहाँ इसे "नाट-का-बच्छनाग” 'अडवि नाभि" श्रादि संज्ञाओं से अभिहित करते हैं। और इसी कारण कभी कभी जान बूझकर वास्तविक वत्सनाभ मूल की जगह इसका व्यवहार किया जाता है अथवा उसके साथ इसका मिश्रण किया जाता है, यद्यपि इनके भौतिक लक्षणों में महान अंतर है। किसी किसी ने इसकी बंगला संज्ञा "ईशलांगला" लिखो है । परन्तु ईशलांगला ईश्वरमूल है, कलिहारी नहीं-जो एक भिन्न उद्भिद है। मराठो और गुजराती में इसे "कललावी" और पंजाबी में "कलीसर" कहते हैं । किसो किसी ने इसकी अरबी संज्ञा "खानिल कल्ब' एवं 'कातिलुल कल्ब" लिखी है ।पर उक्त संज्ञाओं का प्रयोग वस्तुतः "कुचले" के लिये होता है। राजमार्तण्ड नामक ग्रंथ में लिखा है कि कलिहारी के कंद को पानी में पीसकर चुपड़ने से बहुत देर का घुसा हुआ अस्त्र भी घाव में से आसानी से बाहर निकाला जा सकता है। जंगलनो जड़ी बूटी नामक गुजराती ग्रंथ के रचयिता का कथन है कि इस विषय का अनुभव करने के लिये एक ऐसे मनुष्य के घाव पर जिसके पैर में खीला घुस गया था कलिहारी कंद पीसकर चुपड़ा गया और तुरंत उस खोले को खींच लिया गया । हमें यह देखकर अचम्भा हुआ कि जो खीला क्लोरोफार्म देकर बिना बेहोश किये नहीं निकाला जा सकता था वह इस | औषधि के प्रताप से आसानी से खींच लिया गया। उसके पश्चात् संधिनी नामक औषधि का पट्टा चढ़ाने से घाव तीन ही दिन में भर गया । ___ उपयुक्त वर्णन से यह सिद्ध होता है कि निघंटुकारों द्वारा दी हुई इसकी विशल्या अर्थात् शल्य दूर करनेवाली संज्ञा अन्वर्थ है। इससे इसके । रामायण में पाई हुई विशल्या होने का भी अनुमान होता है । इसके समर्थन में रामायण में ही एक और प्रमाण मिलता है। रामायण में इसके सम्बन्ध में लिखा है कि यह ओषधि अग्नि की तरह चमकती थी, कलिहारी के फूल भी देखने में अग्नि की तरह चमकते दृष्टिगोचर होते हैं। इसीलिये ग्रंथकारों ने इसका नाम अग्निशिखा भी रखा है। इन बातों को देखते हुये यह अनुमान होता है कि पाया रामायण वर्णित 'विशल्या' नामक ओषधि यह कलिहारी हो तो नहीं है। 'विशल्या' वा विशल्यकरणी शब्द के अंतर्गत इस विषय पर पूर्ण प्रकाश डाला जायगा। कोई कोई पायापान को भी विशल्यकरणी लिखते हैं। इन सबका पूर्ण विवेचन वहीं किया जायगा। पलाएडु वर्ग (N. O. Liliacee ) उत्पत्ति-स्थान-समग्र भारतवर्ष विशेषतः बंगाल, ब्रह्मा और लंका के वनों एवं सम्पूर्ण भारतखंड के उष्ण प्रदेशों और नीचे जंगलों में कलियारी बहुतायत से होती है। शोभा के लिये यह उद्यानों में भी लगाई जाती है। रासायनिक संघटन—वार्डेन के परीक्षणानुसार इसकी जड़ में दो प्रकार के राल, एक कषायिन (Tannin) ओर एक प्रकार का तिक्रसत्व, जो यद्यपि वनपलांडु स्थित तिकसार के सर्वथा समान नहीं तो उससे मिलता जुलता एक खत्वहै. पाया जाता है, जिसे सुपर्छन" (Superbine) कहते हैं । यह अत्यन्त विषाक्त होता है (फा० इं. ३ भ०) हिंदी में इसे "लांगलीन' वा "कलिकारीन" कहना चाहिये। इसे विल्ली को खिलाने से वह मर जाती है। औषधार्थ व्यवहार-कंद । मात्रा-वनौषधि-दर्पणकार इसकी मात्रा (2. २ रत्ती ) लिखते हैं और कहते हैं कि तीक्ष्ण गुण Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलियारी कलियारी में विशिष्ट होने के कारण इसका सावधानी पूर्वक कलिकारी कटुष्णा च कफ वात निकृन्तनी। उपयोग करना चाहिये । पर मोहीदीन शरीफ़ इसे गर्भान्तः शल्य निष्कास कारिणी सारिणीपरा ।। १२ प्रेन (६ रत्ती) तक की मात्रा में विषाक्त (रा. नि. ४ व०) "नहीं मानते, प्रत्युत इसके विपरीत इसे वे परिवर्त्त __ कलिकारी-करियारी कटु स्वाद, उष्ण वीर्य, नीय बल्य और नियतकालिक ज्वरनाशक (Ant और कफ वात नाशक है तथा गर्भ और अतः -- iperiodic ) बतलाते हैं । वे लिखते हैं कि शल्य को निकालने वाली एवं दस्त लानेवाली है। प्रथम मैंने इसका स्वयं प्रयोग किया, तदुपरांत कलिहाकारी सरा कुष्ट शोफाशों व्रण शूलजित् । दूसरों को इसका प्रयोग कराया। संभव है कि सक्षारा श्लेष्म जित्तिक्ता कटुका तुवरापिच । यह अपेक्षाकृत अत्यधिक मात्रा में विषाक हो, | तीक्ष्णोष्णा क्रिमिहल लध्वी पित्तला गर्भपातनी परन्तु जहाँ तक संभव था मैंने इसका परीक्षण (भा.) किया, और इसमें एकोनाटिया (Aconitia) करियारी-दस्तावर, क्षार रस विशिष्ट, कफ नाश का प्रभाव पाया गया । इंडियन मेटीरिया मेडिका करने वाली, कडुई, चरपरी, कषैली, तीखी, उष्ण में इसकी (श्वेतसार) मात्रा ५ से १० ग्रेन तक कृमिघ्न, हलकी, पित्त वर्द्धक और गर्भपात लिखी है। कारक है तथा यह कोढ़, सूजन, बवासीर, व्रण औषध निर्माण-लांगल्यादि गुटिका (ग० और शूल रोग को नष्ट करती है। नि. कुष्ठे), लांगली कल्प रसायन (वा० रसा- हलिनी करवीरश्च कुष्ठदुष्टव्रणापहो । यन प० ३६) लांगल्यादि लोहम्,कनकवती वटी (राज.) इत्यादि। हलिनी अर्थात् करियारी और करवीर-कनेर कलिकारी शोधन-कलिहारी सात उपविर्षों । दोनों कोढ़ और दुष्ट व्रण को नष्ट करते हैं। . में से एक उपविष है। अस्तु, इसे शुद्ध करके ही सुश्रुत ने भी इसे "कुष्टदुष्टतणनाशक" लिखा औषध कार्य में लेना चाहिये। इसके शोधन की है। दे. "सु० सू० ३६ अ० कफशोधन" । विधि यह है-करियारी के छोटे छोटे टुकड़े करके कलिकारी सरा तीक्ष्णा कुष्ठ दुष्ट व्रणापहा । दिन भर गोमूत्र में डालकर धूप में रखने से यह (वि. ति० भा०) शुद्ध हो जाती है। यथा-लांगली शुद्धिमायाति कलिहारी-सारक, तीक्ष्ण और कुष्ठ तथा दिनं गोमूत्र संस्थिता" । अथवा इसके छोटे छोटे दुष्ट व्रण को नष्ट करनेवाली है। टुकड़े कर किंचित् नमक मिले हुये छाछ में छोड़ कलिकारो सरा तीक्ष्णा गर्भशल्यत्रणापहा । देना चाहिये । इस प्रकार ५-६ बार पूर्वोक्त प्रकार शुष्कगर्भ च गर्भं च पातयेल्लेपमात्रतः ।। से रात्रि को तक में भिगोकर दिन में सुखाते रहने (शो०नि०) से यह शुद्ध हो जाती है। पुनः इसे खूब सुखाकर कलिहारी-सरा ( दस्तावर ) और तीचण है मुरक्षित रखें। तथा गर्भ शल्य एवं व्रणनाशक है । गुणधर्म तथा प्रयोग कालिकारीसरातिक्ता कट्वी पवी च पित्तला । आयुर्वेदीय मतानुसार तीक्ष्णोष्णा तुवरीलध्वी कफवात कृमिप्रणुत् ॥ लाङ्गली कटुरुष्णा च कफ वात विनाशनी । वस्तिशूलं विषंचार्शः कुष्ठं कण्डु व्रणंतथा। तिक्ता सारा च श्वयथुर्गर्भ शल्य व्रणापहा ।। 'शोथ शोषं च शूलं च पातयेदिति कीर्तिता ॥ (ध०नि० ४ व०) शुष्क गर्भं च गर्भं च पातयेदिति कीर्तिताः । लागली-करियारी स्वाद में कटु, तिक, उप्ण (नि०र०) वीर्य एवं कफ नाशक है तथा रेचक है और __कलिहारी-सारक, कड़वी, चरपरी, खारी, ... सूजन, गर्भ तथा शल्य एवं ग्रणको नष्ट करती है। पित्तकारी, तीक्ष्ण, गरम, कसेली, तथा .हलकी है Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'कनियारी और कफ, वात, कृमि, वस्तिशूल, त्रिष और कोद, वासीर, कडू ( खुजली ), व्रण, सूजन, शोष, शूल, शुष्कगर्भ और गर्भ को दूर करनेवाली है । वैद्यक में लाङ्गली के व्यवहार २३२८ वाग्भट्ट - ( १ ) उन्मन्थ नामक कर्णरोग पर लाङ्गली - सुरसा (तुलसी) और लाङ्गली इन दोनों के कल्क के योग से सिद्ध किये हुये तेल का नस्य । यह उन्मन्थ रोग में दृष्टफल है। यथासुरसा लाङ्गलीभ्यान सिद्धं तीक्ष्णश्वनावनम् । ( उ०१८ श्र० ) ( २ इन्द्रलुप्त में लाङ्गली - गंज रोग में करियारी का प्रलेप उपयोगी है । यथा“इन्द्रलुप्ते प्रलेपयेत् । तथा लाङ्गलिका मूलैः " ( उ० २४ श्र० ) ( ३ ) रसायनार्थ लाङ्गली - लाङ्गली कंद और त्रिफला जाति लौह ये सब मिले हुये ५० पल अर्थात् मिश्रित ४०० तोले लेकर भँगरैये के स्वरसमें पीसकर ३६० वटिकायें प्रस्तुत कर छाया में सुखा लें। पहले श्राधी गोली फिर क्रमशः बढ़ाते हुये पूरी १ गोली सेवन करें। इससे विरेचन होने पर क्रमशः मंड, पेया, विलेपी और मांस रस का पथ्य दे, इस प्रकार मास पर्यन्त संयतात्मा होकर घृत सहित स्निग्ध श्रन्न का भोजन करें। इसके उपरांत इच्छानुसार खान-पान करें । श्रजीर्ण न हो केवल इस ओर तीच्णदृष्टि रखें, और अजीर्ण जनक द्रव्य वा श्रजीर्ण भोजन से सदा परहेज़ करें, इस तरह वर्ष भर में समग्र गोलियाँ खा जायँ । इन गोलियों का सेवन करने वाला मनुष्य असाध्य रोग से श्राक्रान्त होने पर भी पुरुषार्थकारी और युवा की भाँति गठीली देह वाला एवं आँख कान से युक्त होकर पांच सौ वर्ष तक जीता है । यथा "लाङ्गली त्रिफला लोहपल पञ्चाशतीकृतम्। मार्क स्वर से षष्ट्या गुटिकानां शतत्रयम् ॥ छाया विशुष्कं गुटिकार्द्ध मद्यात् । पू समस्तामपि तां क्रमेण ॥ भजेद्विरिक्तः क्रमश मण्डम् । पेयां विलेपीं रसकौदनञ्च ॥ सर्पिः स्निग्धं मासमेकं यतात्मा । मासादूर्ध्वं सर्वथा 1 कलिया स्वैरवृत्तिः वर्ज्यं यत्नात् सर्व्वकालं त्वजी* वर्षेणैव योगमेवोपयुञ्ज्यात् ॥ भवति विगत शेगो योऽप्य साध्यामंयार्त्तः । प्रबल पुरुषकारः शोभते योऽपि वृद्धः ॥ उपचित पृथु गात्रः श्रोत्र नेत्रादियुक्तम् । तरुण इव समानां पश्न जीवे - च्छतानि ॥ ( उ० ३६ अ० ) चक्रदत्त - ( १ ) गण्डमाला में लाङ्गलीसंभालू के स्वरस और कलिहारी के कल्क के योग से यथाविधि तैल सिद्ध कर नस्य लेने से गण्डमाला प्रशमित होता है । यथा " निगु डीस्वरसेनाथ लाङ्गलीमूल कल्कितम् । तैलं नस्यान्निहन्त्याशु गण्डमालां सुदारुणाम् ॥ ( गलगण्ड - चि०) ( २ ) पक्वशोथ प्रभेदने लाङ्गली मंगली को पीसकर प्रलेप करने से पका फोड़ा फट जाता है । यथा"चिरवित्वाग्निकौ दारणः परः । " (व्रणशोथ - चि०) (३) नष्ट शल्य निर्हरणार्थ लाङ्गली - यदि शरीर में किसी जगह लौह पाषाणादि शल्य घुस जायँ, तो करियारी की जड़ पीसकर लेप करने से वे बाहर निकल जाते हैं। यथा “ नष्टशल्य' षिनिःसरेत् लाङ्गली मूल लेपाद्वा" । ( व्रणशोथ - चि० ). ( ४ ) रुके हुये गर्भ को शीघ्रोत्पन्न करणार्थं कलिहारी मूल - कलिहारी की जड़ को धागा से प्रसूता स्त्री के हाथ पैरों में रुके हुये गर्भ को शीघ्र उत्पन्न होने के लिये बाँधना चाहिये । यथा“हिरण्यपुष्पी मूलंच पाणिपादेन धारयेत् । ( वा० शा ० अ० १) बध्नीयाद्धिरपुष्प मूलंच हस्तपादयोः । तन्तुना लांगलीमूलं बध्नीयाद्धस्तपादयोः ॥ ( सु० शा० ) भावप्रकाश श्रमरा पातनार्थ लांगली - प्रसवोत्तर यदि जेर न गिरे तो करियारी की जड़ पीस Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलियारी २३२१ फलियारी ४, कर प्रसूता स्त्री के हाथ-पाँव के तलवों पर लेप करने से वह शीघ्र गिर जाती है। यथा"लांगलीमूल कल्केन पाणिपाद तलानि हि ।। प्रलिम्पेत् सूतिका योषित अमरापातनाय नै" (मूढगर्भ-चि.) नोट-इसका कन्द स्त्री के हाथों में बाँध देने से भी सुखपूर्वक प्रसव होता है। रसरत्न समुच्चय-मूढगर्भ निर्हरणार्थ कलिहारी मूल-शतावरी, कलिहारी, दंतीमूल, बच्छनाग और पाषाणभेद-इन सब औषधियों को बराबर बराबर लेकर पानी में पीसकर पेड़, और पेट के ऊपर लेप करने से मूढगर्भ अर्थात् श्रादा गर्भ शीघ्र प्रसव हो जाता है। राजमातएड-दाढ़के दर्द में कलिहारीकंद-कलिहारी के कंद को पानी में पीसकर दाहिनी दाढ़ में दर्द हो | तो बाँए हाथ के अंगूठे के नख पर और बाई दाढ़ | में दर्द हो, तो दाहिने हाथ के अंगूठे के नख पर | लगाने से दाद का कोड़ा मर कर गिर जाता है | और दर्द सदा के लिये जाता रहता है। वक्तव्य चरक के "दशेमानि" वर्ग में लांगली का पाठ नहीं पाया है, परन्तु विष चिकित्सा (चि०२५ अ.) एवं कुष्ठचिकित्सा में लांगली का उल्लेख पाया है। सुश्रुत के कल्प स्थानके द्वितीय अध्याय में स्थावर-विष-वर्ग का विवरण लिखित है । वहाँ पाठ प्रकार के मूल विषों के मध्य 'विद्युज्ज्वाला' का उल्लेख दृष्टिगत होता है । विद्युज्वाला लांगली का ही नाम है। सुश्रुत के श्लेष्म संशमन वर्ग (सू० ३६ अ०) में लाङ्गलको पाठ पाया है। महर्षि चरक, सुश्रुत ओर प्राचार्य वाग्भट ने सूतिकागार, गर्भसंग, पुष्पावरोध, अपरापातन श्रादि में कलिहारी का विशेष उपयोग किया है। यूनानी एवं नव्य मतानुसारप्रकृति-तृतीय कक्षा में उष्ण और रूक्ष । मात्रा-प्रारम्भ में आधी रत्ती, फिर क्रमशः बढ़ाकर १-१ माशा दिन में दो-तीन बार दे सकते हैं। यह अत्यन्त नशा उत्पन्न करती है, जिससे मृत्यु तक की नौबत पहुँचती है। गर्भिणी स्त्री की पीड़ा अभिवृद्धयर्थ कलियारी की जड़ पीसकर उसके पेड़, तथा भगोष्ठों एवं रोमों पर प्रलिप्त करते हैं। यदि आँवल न निकल सके, तो इसकी जड़ पीसकर हथेलियों और तलवों पर लेप करना चाहिये अथवा उसकी बत्ती बनाकर गर्भाशय में स्थापित करना चाहिये। इसके अतिरिक्त कृष्णाजाजी और पीपर का चूर्ण मदिरा के साथ सेवन करायें। यह कफ विकृति तथा प्रामाशय-प्रांत्रीय क्षतों को उपकारी है। यह दस्तावर तथा गर्भस्रावकारी है । इसका प्रलेप ऐसे उदरजात फोड़े को लाभकारी है, जो कफ के अवरुद्ध हो जाने से प्राविभूत हुआ हो। .. इसे पीसकर किंचित् नाभि, पेड़ ओर भग पर मलने से गर्भपात होता है और प्रसव पीड़ा अभिवर्द्धनार्थ भी इसका उपयोग होता है। इसकी जड़ पीसकर मधु मिला प्रलेप करने से कंठमाले की सूजन उतरती है। इसे नीबू के रस में पीसकर कान में टपकाने से पूय का नाश होता है और कीड़े नष्ट होते हैं। ___ इसे पारे और मूली के पत्तों के पानी के साथ पीसकर पिंडली के फोड़े-फुन्सी पर, जिनको मालवे में 'बेनी' और दक्षिण में 'एसन' कहते हैं, तीन दिन मर्दन करने से यह उन्हें शुष्क कर देती है। ख. १०॥ इसका शोधन-क्रम यह हैसर्जन-मेजर थामसेनजब इसमें फल पा जावें तब नर पोधे की जड़ ( Dichotomous) जमीन में से निकाल कर उसके पतले पतले वर्क काटकर, उन्हें किंचित् लवणाक तक में रात्रि भर भिगो रखें। फिर इन्हें दिन में निकालकर सुखा लेवें। इसी प्रकार ४-५ दिन तक निरन्तर करने से इसके विष का जोर कम पड़ जायगा। इसके उपरान्त इनको साफ करके और सुखाकर रख छोड़ें। प्रयोग–यदि किसी व्यक्ति को कृष्ण सर्प काट खाय, तो उन वों में से २-४ रत्ती तक अथवा Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलियारी जिसमे की उसमें क्षमता हो, उतनी मात्रा में डक्क रोगी को देने से ज़हर उतर जाता है। विषैले साँप, कनखजूरे वा विच्छू के काटे हुये स्थान पर इसकी जड़ शीतल जल में पीस लगा कर सेंकने से उपकार होता है, ऐसा मदरासियों का विश्वास है । शरीर की स्वागत कीट-रोगों में इसके लेप से कल्याण होता है । कोंकण में उदरस्थ कृमियों के निकालने के लिये इसे पशुओं को खिलाया जाता है । इसकी जड़ को कूटकर पानी में भिगो दें। पुनः इसको मलकर छनने से जो श्वेतसार प्राप्त हो, उसे उचित मात्रा में यथा विधि सेवन करें । इससे सूजाक श्राराम होता है । फा० ई० ३५० पृ० ४८१ । टिप्पणी--नादकर्णी के अनुसार इसे ६ रत्ती की मात्रा में मधु के साथ देवें । कुछ और उदरशूक्ष में तथा अग्रस्थ कृमियों के निकालने के लिये इसकी जड़ और एतत्द्वारा प्राप्त श्वेतसार का ब्यवहार परमोपयोगी सिद्ध होता है । चित्रक-त्वक् के साथ इसे गोमूत्र में पीसकर वेदनायुक्त श्रशकुरों पर लेप करें । - ई० मे० मे० पृ० ३६५-६ इसको २ ॥ रत्ती से ६ रत्ती तक की मात्रा में दिन में तीन बार देने से शक्ति वृद्धि होती है । इसको सोंठ के साथ फाँकने से भूख बढ़ती है । इसे गुड़ के साथ खिलाने से श्रांत्र कृमि नष्ट होत हैं। इसको पीसकर बुरकने से क्षतजात कोट नष्ट होते हैं । इसके पत्तों को पीसकर छाछ के साथ देने से कामला- यर्कान नष्ट होता है । इसकी जड़ गर्भाशय में धारण करने से वेदना निवृत्त होती है। प्रसव काल में इसकी जड़ के रेशों को हस्तपाद में बाँधने से बहुत आराम से शिशु प्रसव हो है। इसकी जड़ पानी में पीसकर नास लेने से सर्प विष की शांति होती है। इसकी जड़ को काँजी में पीसकर गर्भवती स्त्री कलियारी के पैरों पर लेप करने से शीघ्र बच्चा निकल पड़ता है । ख ० ० ॥ 1 आर० एन० चोपरा - प्राचीन संस्कृत लेखकों ने गर्भपातक रूप से इसके उपयोग का उल्लेख किया है । जनसाधारण के विश्वास के विरुद्ध, साधारण मात्रा में इसकी जड़ विषैलो नहीं होती, प्रत्युत यह परिवर्तक एवं बल्य गुण विशिष्ट ही प्रतीत होतो है। विषक कोट एवं सरीसृप दंशों पर इसकी जड़ को जल में पीसकर लेप करने से वेदना शांत होती है और विष का निवारण होता है । - इं० डू० ई० पृ० ५८० | परन्तु कायस श्रोर महस्करके मतानुसार इसकी गाँठ र पत्ते साँप श्रर विच्छू के विष में बिलकुल निरुपयोगी हैं। करिहारी या कलिहारी को जड़ को पानी में पीसकर नारू या बाले पर लगाने से नारू या बाला श्राराम हो जाता है । कलिहारी की जड़ पानी में पीसकर बवासीर के मस्सों पर लेप करने से मस्से सूख जाते हैं । कलिहारी के जड़ के लेप से व्रण, घाव, कंठमाला, अदीठ-फोड़ा ओर बद या बाघी- ये रोग नाश हो जाते हैं । कलिहारो को जड़ पानी में पीसकर सूजन श्रोर गाँठ प्रभृति पर लगाने से फौरन श्राराम होता है । कलिहारी की जड़ को पानो में पीसकर अपने हाथ पर लेप करलो । जिस स्त्री को बच्चा होने में तकलीफ होती हो, उसके हाथ को अपने हाथ से छुला, फौरन बच्चा हो जायगा । अथवा कलिहारी को जड़ को डोरे में बाँधकर बच्चा जनने वालो के हाथ या पैर में बाँध दो, बच्चा होते ही फौरन खोल दो, इससे बच्चा जनने में बड़ो सानो होतो है। इसका नाम हो गर्भघातिनो है। गृहस्थों के घर में ऐसे मोके पर इसका होना दायक है। बड़ा लाभ कलिहारी के पत्तों को पीस-छान कर चूर्ण बना छाछ के साथ खिलाने से पोलिया वा कामता राम होजाता है । अगर मासिक-धर्म रुक रहा हो, तो कलिहारी की जड़ या ोंगे की जड़ अथवा कड़वे वृन्दावन की जड़ योनि में रखो । Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलियारी अगर योनि में शूल हो, तो कलिहारी या श्रोंगे की जड़ को योनि में रखो । अगर कान में कोड़े हों तो कलिहारी की गाँठ का रस कान में डालो । अगर साँप ने काटा हो, तो कलिहारी की जड़ को पानी में पीसकर नास लो । गाय बैल आदि को बंधा हो- दस्त न होता हो, तो उन्हें कलिहारी के पत्ते कूटकर और श्राटा में मिलाकर या दाने सानी में मिलाकर खिला दो, पेट बंध छूट जायगा । अगर गाय का अंग बाहर निकल श्राया हो दोनों हाथों में लगा सामने ले जाश्रो दोनों जाय, तो तो कलिहारी की जड़ का रस कर, दोनों हाथ उसके श्रंग के अगर इस तरह अंग भीतर न हाथ उस अंग पर लगादो और को गाय के मुँह के सामने करके वह भीतर ही रहेगा, बाहर न निकलेगा । चि० चं० ५ भ० पृ० ६१-६ । फिर उन हाथों दिखादो। फिर बिषगाँठ ( Whitlow ) नामक रोग में कलिहारी की जड़ बकरी के दूध में पीसकर उँगली पर मोटा लेप करने से शीघ्र लाभ होता है । लेखक | कलिहारी की जड़ का कल्क १ तो०, शतावर का कल्क १ तो०, धतूर की पत्ती का स्वरस ४ तो० और लहसुन का रस ४ तो०, कटु तैल SI, यथाविधि तेल सिद्ध करें । गठिया रोग में शोथ युक्त संधियों पर इस तेल के मालिश करने से वहुत उपकार होता है । - लेखक | २३२३ कलिहारी, दंती, सिंगिया (बछनाग), संखिया, ( सोमल ), पाषाणभेद समभाग पानी में पीस कर नाभि, योनि और वस्ति में लेप करने से मरा हुआ गर्भ शीघ्र निकल आता है । कलिहारी को पानी में घिसकर उसमें फाहा तर करके योनि में रखने से मासिक धर्म जारी होता है। कलिहारी, सिरस के बीज, अर्क दुग्ध, पीपल, धा नमक, इनको सम भाग लेकर गोमूत्र में पीसकर बवासीर पर लेप करने से बवासीर नष्ट होता है। कलियारी कलिहारी और सिरस की छाल समभाग कांजी में पीसकर गुदस्थान पर लेप करने से बवासीर के मस्से नष्ट होते हैं । इसके कंदके कल्क में चतुगुण बेल और इतना ही निर्गुण्डी का स्वरस मिला कर तेल सिद्ध कर लेप करने से अथवा नस्य लेने से अपचि (कंठमाला ) आराम होती है । विधिवत् शुद्ध की हुई कलिहारी को दो रत्ती की मात्रा में सेवन करने से पुरुषार्थ बढ़ता हैं । कलिहारी; अतीस, कड़वी तुम्बी के पत्र, मूली समभाग काँजी में पीस कर लेप करनेसे सब कोटों का विष नाश होता है । कलिहारी १६०, धतूरे का फल आधी छँ०, सोंठ आधी छँ०, अजवायन आधी छँ; अफीम 4 तो०, सरसों का तेल || सेर, यथाविधि तैल सिद्ध करके मालिश करने से सब प्रकार के वातज शूल और सूजन दूर होती है । कविराज श्यामाचरणदास लिखते हैं कि इस कंद को पानी में घिसकर हाथ को हथेजी भोर पैर के तलवे पर लेप करनेसे और इसकी गांठ को कमर में बांधने से सुखपूर्वक प्रसव हो जाता है । परन्तु प्रसव होते ही उस गांठ को तुरत खोल देना चाहिए । बम्बई में यह कृमिनाशक मानी जाती है। यह कृमिपीड़ित जानवरों को भो देने के काम में ली जाती है । . मदरास में यह सर्प और बिच्छू के विष को नष्ट करनेवाली मानी जाती है । गाना में इसकी जड़ को स्नायुशूल दूर करने के लिए पुल्टिस को तरह काम में लेतें हैं । कलिहारी द्वारा विषाक्तता - वैद्यको पंच वा सप्त उपविषों में से कलिहारी भी एक उपविष है । यदि इसे बे क़ायदे या अधिक खा लिया जाय, तो दस्त लग जाते हैं और पेट में बड़े ज़ोर की ऐंठन और मरोड़ होती है । तीव्र वमन और श्राप आदि लक्षण होते हैं । बीच-बीच में कभी थोड़े समय के लिए उक्त लक्षण शमन होते हुए जान पड़ते हैं । परंतु पुनः वे ही लक्षण श्रा उपस्थित होते हैं। जल्दी उपाय न होने से मनुष्य बेहोश होकर और मल टूट कर Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलियुगालय २३०४ कलीजीदूनियून - मर जाता है। अर्थात् इतने दस्त होते हैं कि कलि | जालकक १ मुकुल । कुडमल । अविकशित . मनुष्य को होश नहीं रहता, और अन्त में मर | पुष्प । कोरक । शारक । शिगूफ़ा । अन्य भाषा के जाता है। श्राशु मृतक परीक्षा करने पर रगों से | पयो०-ज़हर,(बहु• अज़हार) वा ज़हरः (३०) रन तरावश पा जाने ( Extra vasation गुचः (बहु० गुचहा)-का० । कली (बहु. of blood.) के साथ मस्तिष्क और उसकी कलियाँ, क्रि. अ. कलियाना = कत्ली लेना) झिल्लियों में रक्त संचय के लक्षण पाए जाते हैं। -हिं० । कल्लो (बहु० कल्लियाँ )-६० । मोग्गु फुफ्फुस, यकृत, तथा वृक्कद्वय में गंभीर रक्त संचय (बहु. मोग्गुगलु)-ता० । मोग (बहु० मोपाया जाता है । आमाशयस्थित श्लैष्मिक कलाओं ग्गलु)-ते। मोह (बहु० मोटु कल)-मल० । में प्रदाह के लक्षण दीख पड़ते हैं। मोग्गू (बहु० मोग्गुग लु), मग्गे (बहु. मग्गे विष-शांति के उपाय ग लु)-कना० । कलि-बं० । कलो (बहु० क ले) ____ यदि कलिहारी से दस्त श्रादि लगते हों, तो -मरा० । कलि ( बहु० कालियो)-गु० । मोट्ट बिना घी निकाले गाय के माठे में मिश्री मिलाकर सिंगा० । प्राङोन वा अंगोन (बहु० प्राङोन पिलायो। मियाश्रा, अंगोन मियाा )-बर० । बड Bud ___ कपड़े में दही रखकर और निचोड़ कर, दही का अं०। पानी निकाल दो। फिर जो गाढ़ा-गाढ़ा दही रहे, (२) ऐसो कन्या जिसका पुरुष से समागम उसमें शहद और मिश्री मिलाकर खिलाओ। इन न हुआ हो। (कच्चो कलो-अप्राप्त यौवना) दोनों में से किसी एक उपाय से कलिहारी के (३)चिड़ियों का नया निकला हुआ पर । : विकार नाश हो जायेंगे। संज्ञा स्त्री० [अ०कलाई पत्थर वा सोंप आदि कलियुगालय--संज्ञा पु० [सं०पु' ] बहेड़े का पेड़ का फुका हुआ टुकड़ा जिससे चूना बनाया जाता .. भा० पू० भ० । है । जैसे-कली का चूना। कलियुगावास-संज्ञा पु० [सं०पु.] बहेड़े का पेड़ Urolaked lime, Quick lime . भा० पू० १ भ०। (Calcium Oxide.) कलियुस् सबागीन- [अ० ] सज्जी । अशवार । संज्ञा स्त्री० [?] काँजी । लु. कः । कलियून-[ यू० ] इसबगोल । कली,किली-[अं०] सज्जी । अशवार । कलियूम-[ ] मजरो । क़लोई-[?] अर्तनोसा । चोबक उश्तान । आज़रबू । कलियूस-[यू.] सजो । अशख़ार। | कलीक-[ तिनकाबिन ] जंगलो' गुलाब का फूल । कलियोनेरिया-[ ले० ] एक प्रोषधि, दलीक। कलिय्यः-[अ०] दे० "कलिया"। कलीकटी-[ ? ] माडल । कलिवृक्ष-संज्ञा पु[सं०पु.] बहेड़े का पेड़ । विभी कलीकरुन-[?] (१) बुस्तानी राई । (२) जरतक वृक्ष । हे. च०। ____जीर । तरामिरा । कलिसोदरा-संज्ञा स्त्री० [सं०स्त्री.] हड़जोड़ । अस्थि कली-का चूना-संज्ञा पुं० दे० "कली" । संहारी। | कली कान कलोसर-[ ! ] त रब । कलिहारी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] कलियारी । करि- क़लो की-[?] अलकतरा । कोर । लु० क.। यारी। करिहारी। लांगली। भा० पू०१ भ०। क़लोज़दान-[फा०] ततैयों का छत्ता | परे का वैःनिध वा. व्या० महाविषगर्भ तैल । छत्ता । कलींजुवा-[?] झाँपल नामक पक्षी। कलीजर-संज्ञा पुं० [!] विष्णुकांता । कलींदा-संज्ञा पुं० [सं० कलिङ्ग] तरबूज । हिनवाना। | कलीजा-[फा०] ततैया । भौंरा । बरें । भिड़। कली-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (१) बिना | कलोजीदूनियून-[.] (1) हल्दी । जर्दचोब । - खिला फूल । मुंहबंधा फूल । बोडी । कलिका । (२) छोटा मामोरान । ममीरी । Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलींजुवा २३२५ कलुषयोनि लीजुवा-[?] झाँपल नामक पक्षी। कलुग-[ ता०] कुकुमादुण्डा । क़लीद-[?] कायफल । कलु-संज्ञा पुं० [सं० पु.] गरुड़ शालि । रा०नि० कलींदा-संज्ञा पुं० [सं० कलिङ्ग ] तरबूज । हिनवाना। व० १६ ।। कलीनूकजि यून-[यू.] एक प्रकारका अंचू (उल्लैक)। [सिंगा. ] काला । कलीनून-[ यू०] सरसर के पैर। कलुअंगोल-[सिंगा० ] काला ढेरा | Alangium , कलीनूजि यून-[यू० ] अंचू ( उल्लैक ) का एक henape talum, Lam. भेद । कलाहिसरी। कलुअत्तन-[सिंगा०] काला धतूरा । कृष्णधुस्तूरक । क़लीफल्मून-[?] (1) साखू या साल की गोंद ।। कलुइंद्रजौ-[ मरा० ] तिक कुड़ा । ___राल । कैकहर । (२) एक प्रकार की बदबूदार कलुई-[बं०] झिकराई। गोंद । (३) एक प्रकार का संदरूस । मु० अ०। कलुकेरा-[बं०] Capparis a cuminata, म. १०। Roxb. गोविंदफल । क़लीब-[अं॰] भेडिया । वृक् । कलु-कोल्लु-[सिंगा० ] चाकसू । कलीबा-[?] छोटे बाल का पत्ता । कलुक्का-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (१) उल्कापात । कलीम-[?]करौंदा । __तारा टूटना । (२) मदिरा गृह । शराबखाना । क़लीमालस-[ यू.] जंगली चमेली । शुण्डा । कलीमिया-[ यू० ] ( Zinc carbonate ) कलुदुरु-[सिंगा० ] कलौंजी । Calamina, इकलीमिया । कलामीन । कलुबोलम्-[ सिंगा• ] एलुवा । मुसब्बर । क़लीमियाए मुसम्मा- . {[po] (Calamine | कलुमल-[ अं० केलोमल ] रस कपूर। कलीमियाए मुह जर- कलुमुरिस-[ सिंगा. ] काली मिर्च । prae para ta) Prepared calamine कलुरी-[ मरा०] तुरई । घोषक । एक प्रकार का हलके गुलाबीमायल भूरे रंग का | कलु लुनु-[ सिंगा० ] काला नमक । चूर्ण जिसमें करकराहट बिलकुल नहीं होती। कलुमिरिस-[सिंगा. ] काली मिर्च । गोल मिर्च । वि० दे० "जस्ता"। | कलुरन-[ सिंगा० ] काली कुटकी । कटु रोहिणी । कलील-संज्ञा पुं० [अ० ] थोड़ा । कम । कलु वरनिआ-[ सिंगा० ] काला संभालू । कृष्ण कलीली-सज्ञा स्त्री० [?] कुकरौंछी। सुरसा । ( Justicia gendarussa, कलीलुल ग़िज़ा-[अ०] वह अाहार (ग़िज़ा) जिससे ___Linn.) खून कम पैदा हो । कम ग़िज़ाइयत वाला । कलुरुकी-[देश॰] तुइया। (Pouzolzia Indica) कलीलुल मकानी-[सिरि० ] इकलीलुल मलिक । कलुवेचरु-[सिं०, का०] शिलाजीत । कलीव सुबुल अस्फर-[अ० ] सज्जी । कलुष-संज्ञा पुं० [सं० पु.] [ स्त्री० कलुषा, , कलीवाज, कलीवाज-[फा०] चोल । ग़लीवाज । कलुषी] (.) भैंसा । महिष । रा०नि० व. कलोशिया-[सं० ? ] मुलकू का पेड़ । लु• क.। १६ । (२) मण्डलि सर्प । सु० कल्प० ४ अ. कलीस-[ यू.] खरबूज़ा । खुरपज़ा । दे. "साँप"। कलीस-[फा०] (१) जर्दालू । खूबानी । (२) कलुष मञ्जरी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] जिगिन । उल्लू । जिङ्गिनी । वै० निघः । [माजंदरान ] एक प्रकार की बड़ी मछली। कलुसरा-[ उ० ५० सू० ] खड़ उसरा । जिरी । कलु-सीमनि-गहा-[ सिंगा० ] काला मकोय । कलीसबा-[सं० १ ] मुलकू का पेड़ । लु० क० । मकोय । कलीसर-संज्ञा पुं॰ [?] कालीसर । कलु-सोहु-[ गु० ] सोसा । सीसक । कलीसरेजः-[ फिरंगी ] मुलेठी । कलुषयोनि-संज्ञा पु० [सं०] वर्णसंकर । दोग़ाला । Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलूदा २३२६ कलौंजी कलूदा-दे० "कलौंदा"। कलों कुलई-[ उ० ५० सू० ] छोटा मटर। कलू-[फा०] शीरमाल । कलोई बोड़ा-संज्ञा पुं॰ [ देश० ] एक प्रकार का कलूखा-[फा० ] अमरूद। ___ बड़ा साँप वा अजगर जो बंगाल में होता है। कलूगी तून-[ यू०] सनोबर । कलोडियन-संज्ञा पु. [ अं. Collodion] कलूचो-[पं०] शंगला । कदीरा । (सिमला )। [बहु० कलोडियंस Collodions ] कलोदिकलूजन-[ राजपु.] कुलंजन । __ यून । दे. "कोलोडियम्"। कलूत-[?] बाक़लाए हिंदी । कलोडियम्-संज्ञा पु. [ले. Collodium ] कलूफा-[ यू.] कह । [बहु० कलोडिक Collodia] दे. "कोलोक़लूब-[अ०.] भेड़िया । डियम्"। कलूबा. कलूवा मेख-रू.] आँवला । कलोद्भव-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] कलम शालि । कलूबासीर-[रू० ] आँवला का दूध । ___ कलमा धान । रा०नि०व० १६ । जड़हन । कलूरकिया-[यू०] चंदन । संदल । कलोर-संज्ञा स्त्री० [सं० कल्मा ] वह जवान गाय जो क़लूसून-[ यू.] पुदीना । ___ बरदाई या व्याई न हो। A heifer. कलूनूस-[ ? ] कुलूनूस । रोहूमछली । शबूत । कलौंजदाना-संज्ञा पुं॰ [हिं० कलोंजी+दाना ] मँगक़लूमूस-[यू.] रासन । कुलूमूस । रैला । कलौंजी । क़लूह-?] वृक्क । गुर्दा। कलौंजी-संज्ञा पु० [सं० कालाजाजी ] एक सुप कलूना-संज्ञा पुं० [ देश०] एक प्रकार का मोटा | जो दक्खिन भारत और नेपाल की तराई धान जो पंजाब में उत्पन्न होता है। में होता है। इसकी खेती नदी के कूलों पर कलेंजि-[बर० ] कठ करंज। होती है। दोमट वा बलुई जमीन में इसे अगहन कलेजुआ-[?] झाँपल पक्षी । पूस में बोते हैं। इसका पौधा डेढ़ दो हाथ ऊँचा कलेंदा-दे० "कलींदा"। सोंफ के पौधे से मिलता-जुलता होता है।शाखायें कलेजई-संज्ञा पुं॰ [हिं० कलेजा ] एक प्रकार का एक बालिश्त के बराबर अथवा उससे बड़ी ओर रंग। चुनौटिया रंग। पतली होती हैं । फूल सफ़ेदी लिये पीले होते हैं। कलेजा-संज्ञा पुं॰ [सं० यकृत, (विपर्याय) कृत्य, किसो किसी में नोलेपन को भी झलक होती है। कृज ] (१) हृदय । दिल । (२) जिगर । फूल झड़ जाने पर फलियाँ लगती हैं जो ढाई-तीन यकृत । कबिद। (३)छाती । वक्षःस्थल । अंगुल लम्बी होती हैं जिनमें काले काले दाने भरे कलेजी-संज्ञा स्त्री० [हिं० कलेजा ] (1) कलेजे का रहते हैं। ये दाने वा बीज तिकोने, छोटे; बाहर से - मांस । (२) दे० "करेज़ी"। गहरे भूरे वा काले रंग के और भीतर से पांडु-श्वेत कलेटा-संज्ञा पुं॰ [ देश० ] एक प्रकार को बकरी वा शुभ्र वर्ण के (गिरी) होते हैं। इनका फली जिसके ऊन से कंबल श्रादि बुने जाते हैं। से संलग्न सिरा (Umbilical end) कलेनियम्- मल० ] भंगरा । भंगरैया । अपेक्षाकृत क्षुद्र होता है । बीज के ऊपरका छिलका कलेयम् कोनप-[ मल० ] बारहसिंगा । खुरदरा ( उच्च नोच) होता है। देखने में ये कलेवर-संज्ञा पुं० [सं० को०] देह । शरीर । चोला । दानादार बारूद की तरह प्रतीत होते हैं । स्वाद में जिस्म । रा० निघ० व०१८ । ( कलेवर बदलना ये किंचित्तिक और सुगंधित होते हैं। इनमें से कायाकल्प होना । रोगके पीछे शरीर पर नई रंगत एक प्रकार की विशिष्ट नीबू को तरह की प्रिय एवं चढ़ना)। तीव्र गंध पाती है और इसी से ये मसाले के काम कलेसुर-संज्ञा पुं० दे० "कलसिरा" । में आते हैं। इन बीजों से तेल भी निकाला जाता कलै-[पं०] चूना । है, जो दवा के काम में श्राता है। यह उड़नशील कलैप्पैक किशंगु- ता०] कलिहारी । तैल ही इसका प्रभावकारी सार भाग होता है। Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलौंजी तेल के विचार से यह दो प्रकार का होता है । एक का तेल काला, उड़नशील और सुगंधित होता दूसरे का तेल साफ़ रेंडी के तेल का सा और गाढ़ा होता है । सर्वोत्तम कलौंजी वह है, जिसके दाने नये, भारी मोटे तेज़ और चरपरे हों। इसमें सात साल तक रहती है। पर्या०० उपकुञ्चा, उपकुञ्ची, कालिका, उपकालिका, सुषवी, कुञ्चिका, कुञ्ची, पृथ्वीका स्थूलजीरकः ( ध० नि० ), दीप्यः, उपकुञ्चिका, काली, पृथ्वी, स्थूलकणा, पृथुः, मनोज्ञा, जारणी, जीर्णा, तरुणः, स्थूलजीरकः, सुपवी, कारवी, पृथ्वीका ( रा० नि० ); कालिका, सुविषा, कुञ्ची, करकृष्णा, वाष्पिका (केय० दे० ), कालाजाजी, सुषवी, कालिका, उपकालिका, पृथ्वीका, कारमी, पृथ्वी, पृथु, कृष्णोपकुञ्चिका, उपकुञ्ची, कुञ्चिका, कुञ्ची, बृहज्जीरक ( भा० ), उपकुञ्चिः (२०) सुषवी, कारवी, पृथ्वी, पृथुः, काला, उपकुञ्चिका ( श्र० ) कुचिक (ज), पति-बरा ( श० ), सुषवी, कुचिका ( ० टी०), सुषवी, पृथुका, पृथिवी, भेषजं (शब्दर० ) कृष्णा, जरणा, शाली, बहुगंधा, कृष्णजीरः, कृष्णजीरकः - सं० | कलौंजी, मँगरैला, मगरेला, मँगरैल - हिं० । कालाजीरा, कलौंजी - द० | कालाजीर, कालाजीरा, कालजीरा, मँगरल, कृष्णजीरा, मँगरैला, शा जीरा, किर्मानी जिरा, विलाती जिरा - ० । शौनीज़, हब्बुतुस्सौदा, कमूने अस्वद कमूने हिंदी, लहब्बतुसोदा, अल्शोनीज़, लशीनीज़, अल्हम्बतुल ख़िज़रा, सौदा, कबूदानू, कमूनी, हब्बे सवद् - अ० | स्याह दानः, स्याह त्रिरंज, शोनीज़, शोनूज़ - फ़ा० । (Sibthorb) क़राचोरक ऊदी-तु० । निगेला fafear Nigella Sativa, Linn., fana इंfor Nigella, Indica, D. C. - ले० । स्माल फेनेल Small Fennel, नाइगेल्ला सोड्स Nigella seeds seed flowerश्रं० । Nielle Toute epice - फ्रा० | Gremein Nigelle, Schwarzer-Kummel Melanthion - जर० | करुज् शीर्गम् करुज् जीर्गम - ता० । तल्ल -जिलकर, तल्लजीरे, तल्लजीरा कारी - ते० | करुनूं चीरकम् - मल० । करे- जीरग २३३७ कलोजी (गे), का जीरगे, करि जिरिगि, कलौंजी, विलिय जीरगे, काले जीरको, काले जिरे, मेंकरी जो दु जीरगे, करिदाडुरिगे - कना० । काल जीरे, कलौंजी जीरे - मरा० | काली जीरी, कलौंजी जीरु-गु० । कलु दुरु - ( सिंहली ) । समौ ने - बर० । कालेंजिरे तुक्मे - गंद्ना - काश० । सियाह दारु - अ० । इतिहास – संस्कृत कृष्णजीरक, उपकुञ्चिका, कालाजाजी इत्यादि धन्वन्तरीय राजनिघंटूक शब्दों के देखने से यह प्रतीत होता है, कि भारतीयों का कलौंजी विषयक ज्ञान प्राचीनतम है। कलौंजी और उसके अन्य जातीय पौधों का प्रभव स्थान भारतवर्ष है । प्रसिद्ध वनस्पति शास्त्रविद् राक्सवर्ग 1 का भी ऐसा हो मत है । ऐन्सली के मतानुसार इसका वैज्ञानिक नाम Nigella Indica है । किसी किसी ने इसका मूल प्रभव स्थान मिश्रादि अन्य देश माना है और तद्देशीय पौधे का नाम Nigella Sativa लिखा है । फार्स फहल ( Forskahl ) अपने ( Medicina Kabarina ) ग्रन्थ में लिखते हैं कि इसका श्रादि उत्पत्ति स्थान मिश्र है, जहाँ इसे हब्बुस्सौदा कहते हैं। संभव है यह अन्य देशों में भी श्रति प्राचीन काल से स्वतन्त्रतया होती रही हो, जिसकी पुष्टि उपर्युक्त वर्णन से होता है । परन्तु भारतवर्ष को इसका मूल प्रभव स्थान मानने में हमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये । भारतीय श्रोर विदेशीय दोनों के बीज स्वरूप श्रोर लक्षणादि में प्रायः समान होते हैं । अतएव दोनों के लिये प्रायः एक ही संज्ञा का व्यवहार होता है और N. Sativa तथा N Indica दोनों परस्पर एक दूसरे के पर्याय स्वरूप व्यवहार की जाती है । दर्डवुड के अनुसार यह ईसाई धर्म ग्रन्थोक्त ( Black Cumin ), बुकरात और दीसकूरी दूस लिखित 'मेलाथियून' और लाइनी लिखित 'गिथ' है । प्राचीन युनानी निघंटु ग्रन्थों में 'शोनीज' वा 'ह०तुस्सौदा' नाम से इसका उल्लेख मिलता है । काकपदीय वा वत्सनाभ वर्ग ( N. O. Ranunculacece. ) उत्पत्ति स्थान — भूमध्यसागर के देश भारतवर्ष के बहुत से भागों में विशेषतः बंगाल में बीज Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलौंजी २३२८ कैलाजी के लिये इसकी खेती होती है । इसके बीज वा ___ पृथ्वीका कटुतिक्तोष्णा वातगुल्मामदोषनुत् । - कलौंजी प्रायः सभी भारतीय बाजारों में सुलभ श्लेष्माध्मानहरा जीर्णा जन्तुघ्नी दीपनीपरा ॥ होती है। उत्तर भारतीय बाजारों में यह उत्तर (रा० नि०) भारत बसरा और काबुल से आती है। कलौंजी-ड़वी, चरपरी, उष्णवीर्य तथा वायु, , औषधार्थ व्यवहार बीज। गुल्म. प्रामदोष, कफ, आध्मान और जंतुओं को रासायनिक संघटन-बीज के १०० भागों में नष्ट करनेवाली तथा परम दीपन है। ३७.५ भाग एक स्थिर तैल, •.५ भाग एक प्रकार उक्तोपकुश्चिकातिक्ता कटवी चोष्णा च दीपनी। का उड़नशील तैल, ८.२५ भाग अल्ब्युमेन, २ वृष्या चाजीर्ण शमनी गर्भाशय विशोधिनी ॥ भाग लबाब, शर्करा (वा ग्ल्युकोज़ ) २.७५ भार, सैन्द्रियकाम्म ०.६ भाग, मेटारबीन १.४ भाग, आध्मानवात गुल्मश्च रक्तपित्तं कृमींस्तथा। हेलेबोरीन के तद्वत् मेलान्थीन १.४ भाग, भस्म कर्फ पित्तं चामदोषं वातं शूलश्च नाशयेत् ॥ ४.५ भाग, आर्द्रता ७.४ भाग और अरबिकाम्ल कलौंजी-कड़बी, चरपरी, गरम, जठराग्नि ३.२ भाग इत्यादि इत्यादि। इनमें उड़नशील प्रदीपक, वृष्य, अजीर्ण नाशक, गर्भाशय को शुद्ध तैल ही इसका प्रभावकारी अंश होता है जिसमें करनेवाली है और प्राध्मान, वात, गुल्म, रक्रपित्त, (१) कार्वोन an unsaturated कफपित्त, आमदोष, बादी और शूल को नष्ट Ketone ४५ से ६०% प्रतिशत (२)कार्वीन करती है। Carven ( terpene or d-limone- ____ कलौंजी के वैद्यकीय व्यवहार ne) और (३) सायमीन Cymene-ये चक्रदत्त-रक्तपित्त में पृथ्वीका-रक्रपित्त द्रव्य होते हैं। रोगी के उद्गार एवं निश्वास में रकगंध अनुभूत औषध-निर्माण-चूर्ण। होने पर कलौंजी का चूर्ण द्विगुण चीनी के साथ मात्रा-आधे से २ ड्राम (वा आधे से सेब्य है । यथाभाना); टिंक्चर वा आसव-(१ पाइंट शुद्ध | "लोहगन्धिनी निःश्वासे उद्गारे रक्तगन्धिनि । सुरासार और २॥ पाउंस कलौंजी का चूर्ण इनसे पृथ्वीकांशाणमात्रान्तु खादेद्विगुणशर्कगम् ।। यथाविधि तैयार किया हुआ) (रक्रपित्त चि०) मात्रा-१ से २ प्लुइड ड्राम । भावप्रकाश-विषमज्वर में कालाजाजीआयुर्वेदीय योग-पञ्चजीरकपाक (भा०) कलौंजी का चूर्ण पुराने गुड़ के साथ सेवन करने कारव्यादि गुटिका ( यो० र०), कारव्यादि चूर्ण | से विषमज्वर नष्ट होता है । यथा(च. चि. २६ अ.) "कालाजाजी तु सगुड़ा विषमज्वर नाशनी।" इसकी प्रतिनिधि स्वरूप यरोपीय द्रव्य (ज्वर चि०) प्रालियम् मेंथी पाइपरेटी, कैसकैरिल्ला बार्क और सैंटोनीन । युनानीमतानुसार-प्रकृति-द्वितीय कक्षा में उष्ण और रूक्ष है। कानून में तृतीय कक्षा में __ गुण धर्म तथा प्रयोग उष्ण और रूक्ष उल्लिखित है। कोई-कोई तृतीय श्रादुर्वेदीय मतानुसार कक्षा में उष्ण और द्वितीय कक्षा में रूक्ष बतपृथ्वीका कटुका पाके रुच्यापित्ताग्निदीपनी । लाते हैं। श्लेष्माध्मानहराजीर्णाजन्तुघ्नी च प्रकीतिता ॥ __ हानिकर्त्ता-यह वृक्त और मूत्रावयवों को (ध०नि०) हानिप्रद है तथा फुफ्फुस एवं उष्ण यकृत को कलौंजी-पाक में चरपरी, रुचिकारी, पित्त. हानिकर है और शिरःशूल उत्पन्न करती है। जनक, और अग्निदीपक है तथा यह श्लेष्मा, दर्पनाशक-(1) कतीरा और बंशलोचन माध्मान और जन्तुओं का नाश करनेवाली है। या सिरके में कलौंजी को भिगोकर खाना वा Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलौंजी २९२५ का कासनी या खुरफे के पानी के साथ, (२) अकेला पड़ताहै । यह आर्त्तव, स्तन्य और मूत्र का प्रवर्तन कासनी, (३) सिरके में भिगोकर उपयोगित करती है। इसके सिवा यह प्रसव कालीन रक्तस्रति करना, और (४) खीरे के बीज । (निनासका खून) एवं तजन्य वेदनाका निवारण प्रतिनिधि जैतून का गोंद, तुरुम रशाद, करती है । यह सर्द खाँसी, उरो वेदना, जलोदर तिगुना अनीसून तैल में प्राधे सोये के बीज, पार- और वायु जन्य उदरशूल (रियाही कुलंज) को सीक यमानी के बीजों को भी इसकी प्रतिनिधि लाभकारी है। यह उदरज कृमियों को निःसरित लिखा है। करती है। इसके लेप से सूजन उतरती है। धी मात्रा-३॥ माशे से अधिक हानिकारक के साथ कपोलों को अरुण वर्ण और चेहरेको साफ होती है। कहते हैं कि ७ माशे तक खाए, अधिक करती है ।यदि रतीला या बावले कुत्ते ने काट खाना उचित नहीं । किसी-किसी ने ४॥ माशे से खाया हो, तो ४॥ मा० से ७ मा० बल्कि १०॥ है माशे, बल्कि १०॥ माशे तक शीत प्रकृति को मा० तक पानी के साथ खिलाने से उपकार और १॥ मा० से ३ मा० तक उष्ण प्रकृति को होता है। सिकंजबीन के साथ जीर्ण कफ ज्वर और बतलाया है। इससे अधिक सेवन करने से खनाक चातुर्थिक ज्वर के लिये उपकारी है। यदि सात पैदा होने का भय है। दाने कलौंजी स्त्री के दूध में पीसकर कामला रोगी गुण, धर्म, प्रयोग-कलोंजी तीक्ष्णोष्ण की नाक में, जिसकी आँखें पीली पड़ गई हों, (हाइ) और परिष्कारक (जाली) है। यह टपकायें तो बहुत उपकार हो। यदि कै में पीव वायु को अनुलोम करती है और अपनी कांति- पाती हो, जी मिचलाता हो, तिल्ली बढ़ी हुई हो, कारिणी शक्ति (कुब्बत जिला) के कारण उलटे तो इससे उपकार होता है। यदि साँस लेने में मस्सों (सालील मनकूसा) का छेदन करती है। कष्ट हो यहां तक कि रोगी शय्या पर पहलू न यह व्यंग एवं श्वित्रका निवारण करती है, क्योंकि टेक सके और जब तक सीधा न बैठे या खड़ा इसमें उष्मा द्वारा सम्यक् परिपक्कता को प्राप्त उस न हो और गरदन सीधी न रखे, साँस न ले सके, सूचमतत्वांश के कारण, एक प्रकार की कांति- तो उक्न अवस्था में कलौंजी से बहुत उपकार होता कारिणी शक्ति विद्यमान होती है । इसे बाहर उदर | है । कलौंजी को जलाकर मोम और तेल मिलाकर के उपर लगाने से यह सूत्र कृमियों और कह दाने | सिर के गंज पर मलना गुणकारी है। दीर्घकाल को नष्ट करती है, क्योंकि इसमें तारल्यकारिणी तक ऐसा करने से बाल उग आते हैं। केवल (लतीफ्रा) और अवरोधोद्धाटिनी शक्ति के सहित सिरका में मिलाकर मस्सों पर लगाने से वे कट तिक्रता होती है। इसके तिनकों को तालाब में जाते हैं। इसको पीसकर सिरके में मिलाकर पेट गलने से मछलियाँ ऊपर तैरने लगती हैं। यदि पर लगाने से कहूदाने नष्ट हो जाते हैं। इसके इसको भूनकर अलसी (क़त्ताल) के नीले कपड़े धुएँ से जहरीले कीड़े-मकोड़े भागते हैं । सिरका में पोटली बाँध- कर सूघा जाय, तो अपनी और सनोबर की लकड़ी के साथ कथित करके अवरोधोद्धाटिनी शक्रि से स्रोतों (मसफ़ात ) के उसका गंडूष करना दंतशूल को लाभकारी है। अवरोधों का उद्धाटन करती है। (नक्री०) कलौंजी पीसकर छाछ में प्रौटाकर उसे नारू पर कलौंजी वातानुलोमक, उदराध्मान नाशक और प्रलेपकरें, तीन दिनमें समस्त नारूं निकज भायेंगे, मलावरोधनाशक होती है । (ता. श०) चाहे वे टूट गये हों। कलौंजी के पेड़ के पत्ते, यह औष्ण्य एवं रौक्ष्य और कांति (जिला) डालियाँ और बीज-इनको पीसकर जननेन्द्रिय उत्पन्न करती, रतूबत वा किन्नता का शोषण करती, के क्षतों पर लगाने से वे प्रारम होते हैं। कलौंजी माहे को पकाती और उसका साम्य संपादन(मात- को पानी में पीसकर शहद मिलाकर पीने से वृक दिलुल निवाम) करती है। इसको औंटाकर पीने और वस्तिस्थ अश्मरी निकल जाती है। इसको से मृत और जीवित शिशु उदर के बाहर निकल | ___ जलाकर राख लगाने और पीने से अर्शाकर गिर ७५ फा० Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलौंजी २३३० कलोजी जाते हैं। इसका यह विशेष धर्म है कि इसके पेड़ को पानी में डालनेसे मछलियाँ उसके सन्निकट पाने के लिये पानी के ऊपर आ जाती हैं | कलौंजी के दाने ऊन के कपड़े में रखने से कीड़े नहीं लगते । यदि इसे जैतून के तेल के साथ निहार मुँह खाया करें, तो रंग सुर्ख निकल आये । इसको भूनकर कपड़े में बाँधकर सूंघने से सर्दी का जुकाम जाता रहता है । ग़ाज़रूनी इसको प्रतिश्याय में विशेष उपकारी लिखते हैं । उसका यह प्रभावज गुण है। वह प्रतिश्याय जिसमें छींक अधिक पाती हों और नाक से पानी बहता हो, जैतून के तेल में कलौंजी का चूर्ण मिलाकर चार बूंद नाक में टपकाने से उपकार होता है। इसकी धूनी लेने से भी उक्त लाभ होता है। गीलानी कहते हैं कि इसकी यह खासियत (प्रभाव) है कि यह उन डकारोंको बंद करती हैं जो कफ एवं वायु जन्य होते हैं। इसके खाने से अम्लोद्गार रुक जाते हैं। इसके दीर्घकालीन उपयोग से स्त्री-स्तन्य की वृद्धि हो जाती है। इसके चर्बण-भक्षण से मुख में सुगंधि आने लगती है। इसके अधिक मात्रा में सेवन से खुनाक़ निकल पाता है और मूर्छा आने लगती है। कै कराना, दुग्धादि पिलाना और छिकिका (कुंदश) भर णज विष निवारणोपयोगी उपायों द्वारा इसका प्रतीकार करें। कलौंजी को सिरके में भिगो सुखाकर पीस लेवें। इसमें से ७ माशे प्रति दिन तीन दिन तक खाने से जलसंत्रास (श्वानविष) रोग दूर होता है । (ख. प्र.) वैद्यों के कथनानुसार कलौंजी चरपरी और उष्ण है। यह भामाशय एवं उदरज वायु शूल, अजीर्ण, पाचन नैर्बल्य, ज्वर और अतिसार का निवारण करती है। इसके उपयोग से स्त्री-स्तन्य की वृद्धि होती है। यह फोड़ों को पकाती और साफ़ करती एवं मूत्र की वृद्धि करती है । यह सर्दी के विकारों को दूर करती है । इसके उपयोग से कीड़े मरते हैं। ५ रत्ती से २॥ माशे तक कलौंजी के चूर्ण की फकी लेने से शारीरोष्मा एवं नाड़ी की गति तीव्र होती है और शरीर के प्राभ्यंतरिक सकल अंगों के अवरोध दूर होते हैं । ५ रत्ती से । माशे तक कलौंजी के चूर्ण की फंकी देने से कृच्छ एवं कष्ट रज में उपकार होता है। गर्भवती स्त्री को । इसका सेवन वर्जित है। यह बल्य ओषधियों में परिगणित होती है और सारक औषधों के साथ दी जाती है। स्त्री-स्तन्य-शोधनार्थ कढ़ी वा तरकारी के साथ कलौंजी देना चाहिये । ऊनी कपड़ों में कपूर और कलौंजी पीसकर रखने से उनमें कीड़े नहीं लगते । कलौंजी ५ तोले, बकुची १ तोले गूगुल ५ तोले, दारुहलदी की जड़ ५ तोले, गंधक २॥ तोले, नारियल वा खोपरे का तेल दो बोतल, सर्व प्रथम कलौंजी से गंधक पर्यंत सकल द्रव्यों को बारीक पीसकर तेल में मिलाकर बोतलों में भरकर काग लगाकर सप्ताह पर्यंत धूप में रखें। दिन में दो-तीन बार खूब हिला दिया करें। शरीर पर इस तेल को मर्दन करने से कुष्ठ प्रभृति धर्मरोग प्राशम होते हैं। ३ माशे कलौंजी का चूर्ण ३ माशे मधु में मिलाकर चाटने से हिचकी बंद होती है । इसका काढ़ा पिलाने से कामला रोग का नाश होता है । इसको जल में पीसकर बालों में मलने से केश बढ़ने लगते हैं और उसका गिरना रुक जाता है । कलौंजी और एलुए की वत्ती बनाकर गुदा में धारण करने से चुन्ने वा सूत्र कृमि मृत प्राय होते हैं | कलौंजी और स्याह जीरे का प्रलेप करने से शीत जन्य शिरःशूल मिटता है। कलौंजी का एक तोला चूर्ण शहद के साथ बारी के दिन चटाने से चातुर्थिक ज्वर दूर होता है। इसे शहद में मिलाकर लगाने से वानर का विष उतरता है । इसको गुड़ में मिलाकर खाने से एकतरा ज्वर छूटता है। भुजी हुई कलौंजी दो माशे, नौसादर २ मा०. सोंठ मा०-इनको पीसकर पोटली बाँधकर सूंघने से प्रतिश्याय नष्ट होता है । इसका हलुआ बनाकर खिलाने से जलसंत्रास (कुक्कुर विष) रोग आराम होता है । इसके हलुए से उदरज वायुशूल, उदरज कृमि, उदराध्मान और कफज रोग आराम होते हैं । इसका चूर्ण फंकाने से मूत्रावरोध मिटता है। इसको सिरका में पीसकर रात्रि में मुंह पर लेप करने और प्रातःकाल धो डालने से यौवन-पिड़का वा मुंहासे मिटते हैं । इसी के लेप से चर्मगत चट्टे नष्ट होते हैं। Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलौंजी कलौंजी का तेल । मतानुसार कलौंजी के तेल में ज़ैतून का तेल मिलाकर पीने से साध्य नपुंसक व्यक्ति में भी प्रचंड काम शक्रि जागृति हो उठती है । कटि एवं जननेन्द्रिय पर कलौंजी तेल का अभ्यंग करने से असीम कामेच्छा उत्पन्न होती है। इसके मर्दन से नाड़ी शैथिल्य अर्थात् पुट्ठों की शिथिलता और शीत जन्य शूल का निवारण होता है । इसके पीने से भी सरदी का दर्द दूर होता । गोलानी के शक्ति में यह तेल मूली के तेल के समकक्ष होता है । इसके अभ्यंग एवं पान से फ़ालिज, अवसशता, कंप और धनुष टंकार ( कुज़ाज़ ) आराम होते हैं । यह रूह हैवानी - प्राण शक्ति को सुदूरवर्त्ती अंगों की ओर संचारित करता है । यह नाड्यवरोधों का उद्घाटन करता है। जिससे चेष्टा का अनुभव होता है । यह अंगों में रूक्षता उत्पन्न करता है । कान में इसे टपकाने से वाधिर्य दूर होता है और कर्णशोथ मिटता है। इसका नस्य लेने से मृगी रोग आराम होता है। इसके शिरोऽभ्यंग से लघुमस्तिष्क (मुवान्व़िर दिमाग़ ) के अवरोधों का उद्घाटन होता है तथा विस्मृति एवं स्मरण शक्ति के दोष दूर होते हैं । (ख़० ० ) नव्य मत ऐन्सली - देशी लोग वातानुलोमक ( Car. minative) रूप से अजीर्ण रोगों में कतिपय २३३१ रोगों में इसका व्यवहार करते हैं, तथा चर्म विस्फोटकों (Eruption ) पर इसके atait at faa aa (Gingilie oil) # मिलाकर लगाते हैं । कढ़ी प्रभृति भोज्य द्रव्यों को छौंकने - बघारने में भी इसका उपयोग होता है । लोगों का यह विश्वास है कि इसे कपड़ों (Linen ) के भीतर रखने से कीड़े नहीं लगते हैं । (मे० इं० पृ० १२८ ) । डीमक - कलौंजी के बीजों का मसाला और श्रौषध में बहुल 'प्रयोग होता है । श्रजीर्ण में अन्य सुगंध द्रव्यों तथा चित्रकमूल के साथ इसका व्यवहार होता है। डाक्टर एम० कैनोल्ली (Canolle ) के अनुसार १० से ४० ग्राम की मात्रा में इसके बीजों का चूर्ण खिजाने से अभिवर्द्धित कलौंजी तापक्रम एवं नाड़ी की गती प्रत्यक्ष देखी गई, तथा इससे सर्व शरीरगत, विशेषतः वृक्क एवं स्वगीय tara श्रभिवर्द्धित होगये । १० से २० ग्राम की मात्रा में कष्टरज श्रनियमित रज प्रभृति मासिक स्राव संबंधी विकारों में इसका व्यक्त श्रार्त्तवरजः स्रावकारी प्रभाव देखा जाता है । ( फा० इं० १ भ० पृ० २८-२६) अर० एन० खोरी - कलौंजी कृमिघ्न, सूत्रकर, स्तन्यवर्द्धक, अतिरजःस्रावकारी एवं बायु नाशक ( Carminative ) है । यह विरेचक एवं तिक भेषज सुगंधि करणार्थ व्यवहार में श्राती है। प्रसवोत्तर इसका काढ़ा पीने से गर्भाशय द्वार संकोच प्राप्त एवं स्तन्यवर्द्धित होता है । कृमियों के पक्ष में भी यह हितकारी है । विषम र, ग्रहणी ( Dyspepsia ) अग्निमांच और अतिसार में यह वायुनाशक तथा पाचक ( Stomachic ) रूप से चित्रकमूल के साथ व्यवहृत होती है। श्रार्त्तवरजः स्त्रावकारी रूप से यह रजः कृच्छ्र, रजोरोध वा विलम्वित रज में सेव्य है । श्रति मात्रा में सेवन करने से गर्भ स्राव कराती है । हस्त पाद के कष्ट प्रद शोध में जलपिष्ट कलौंजी का प्रलेप हितकारी होता है । पश्मीने के कपड़ों और दुशालों को कीड़ों से सुरक्षित रखने के लिए उनकी तहोंमें कलौंजी के दाने जगह-जगह छिड़क कर रखते हैं । ( मे० मे० आफ १०२ भ० पृ० १७ ) नगेन्द्रनाथ सेन - कलौंजी के बीज सुगंधित वायुनाशक जठराग्निदीपक ( Stomachic ) और पाचक है तथा ये विरेचक एवं अन्य औषधों में तद्दर्पनिवारणार्थ पड़ते हैं। ये मूत्रल, कृमिघ्न तथा श्रार्त्तवरजःस्रावकारी और अजीर्ण, मंदाग्नि; ज्वर, अतिसार, शोथ, ( Dropsy ) प्रसूत रोग, प्रभृति में उपकारी है, ये संदेह रहित स्वन्यप्रद हैं । श्रतएव सद्यः प्रसूता नारियों को कतिपय अन्य औषधियों के साथ इन्हें देते हैं । इनका उत्तम व्यक्र श्रार्त्तवरजः स्रावकारी प्रभाव होता है श्रतः ये कृच्छरज में ५ से १० रत्ती की मात्रा में उपकारी होते हैं। अधिक मात्रा में ये गर्भपातक होते हैं । ऊनी कपड़ों और शाल दुशालों की मोड़ों में इन्हें यत्र-तत्र छिड़क देने से उनमें कीड़े Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलौंजी २३३२ नहीं लगते । छिड़कने से पूर्व इसमें कपूर का चूर्ण भी मिला लेते हैं। बीज पित्तघ्न भी हैं, श्रतएव तज्जन्य वमन निरोधार्थ इनका श्रांतरिक प्रयोग होता है। बीजों कों भून पीसकर मलमल की थैली में भरकर पोटली बनाकर निरंतर सूँघने से सरदी और नाकसे पानी बहना (Catarrh of the nose ) शांत होता है । प्रसूता नारी की प्रसवोत्तर पीड़ा हरणार्थ कलौंजी के बीजों को पीपर, सेंधा नमक और मदिरा के साथ प्रयोगित करने से उपकार होता है। कलौंजी, जीरा, कालीमिर्च, किशमिश, इमली का गूदा, अनार का रस, सोंचल नमक, इनके चूर्ण का गुड़ और मधु में बनाया अवलेह श्ररुचि और क्षुधानिवृत्ति में श्रतीव गुणकारी होता है । ( चक्रदत्त ) Indian_Indigenous Drugs & plants. ) आर० एन० चोपरा - कलौंजी व्यक्त वातालोक और जठराग्निदीपक (Stomachic) गुणविशिष्ट होती है तथा अन्य सुगंधित एवं तिक पदार्थों के साथ इसका व्यवहार होता है । इसके योग से पामा (Eczema ) और व्यंग (Pityriasis ) में प्रयुक्र वाह्य प्रयोग की उत्तम अनुलेपनौषधि इस प्रकार बनती है— कलौंजी का चूर्ण २ श्राउंस (५ तोले), बकुची २ श्राउंस ( ५ तोले ), गुग्गुल ( Bdellium) ५ तोले, दक्षिणी दाव-मूल-चूर्ण ( Coscini radix ) ५ तोले, गंधक २॥ तोले, धौर नारियल का तेल २ पाइंट, यथाविधि मलहम वा तेल बनाकर काम में लाएँ । (इं० ० ई० पृ० ५८७ ) मोहीदीन शरीफ़ - प्रभाव - यह जठराग्नि दीपक, वातानुलोमक, उत्त ेजक, बल्य, ज्वरहर और कृमिघ्न है । आमयिक प्रयोग — यह अजीर्ण और दुर्बलता के कतिपय भेदों में तथा कतिपय साधारण प्रकार के बाल ज्वरों में उपकारी सिद्ध हुई है । उपर्युक्र रोगों में से किसी एक रोग में उन औषधि के सेवन काल में बालकों के मल में के निर्गत केचुए अवलोकन किये गये हैं। मुसलमान लोग घोषध - कलौंली और भोजन दोनों में इसका व्यवहार करते हैं । ( मे० मे० मै० पृ० ६ ) कलौंजी को पानी में पीसकर उससे बाल धोने से सात दिन में बाल लम्बे हो जाते हैं । कलौंजी १ तो, प्याज के बीज १ तो०, कुसुम के बीज अर्थात् कड़ १ तो० कटेरी की जड़ १ तो०, सोंठ १ तो०, म्योंड़ी की जड़ की छाल, (क) ४०, करास की जड़ की छाल ४तो० इनसबको जो कुछ कर रखें। इसमें से १ तो० से ४ तो० तक श्राध सेर पानी में काथ करें, जब एक छटांक पानी शेष रहे तब इसे छान कर दो तोला पुराना गुड़ मिलाकर स्त्री को पिलाने से रुद्ध श्राव का प्रवर्त्तन होता है । — लेखक | कोमान के मतानुसार साधारण सूतिकाज्जर में यह श्रौषधी लाभकारी है । कायस और महस्कर के मतानुसार सर्प दंश और बिच्छू के डक पर यह श्रौषधि निरुपयोगी है। कलौंजी को पीसकर छाछ में मिलाकर कथित कर नारू पर मलकर लगाने से तीन दिन में समूचा नारू निकल जाता है । यदि नारू टूट गया हो तो कलौंजी के पत्त े, बीज और डालियाँ पीसकर बाँध देने से लाभ होता है । इसके तीन माशे चूर्ण को तीन माशे मक्खन में मिलाकर चटाने से हिचकी बंद हो जाती है। कलौंजी को पानी में पीसकर शहद मिलाकर पीने से मसाने और गुर्दे की पथरी निकल जाती है T कलौंजी को जलाकर उसकी राख पानी में पीने से और सुखी राख को मस्सों पर मलने से बवासीर में उपकार होता है । ( २ ) एक प्रकार की तरकारी | इसके बनाने की यह रीति है कि - करैले, परवर, भिंडी, बैंगन श्रादि का पेटा चीरकर निम्न मसाले खटाई, नमक के साथ भरते हैं। और उसे तेल वा घी में तल लेते हैं । कलौंजी के मसाले में ये द्रव्य पड़ते हैंकलौंजी १ छँ०, धनियां भुनी हुई : बँ०, मेथी भुनी हुई १ छँ० सोंफ १०, जीरा सफेद Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलौंजी जीर २३३३ ' छँ०, ज.रा. स्याह १छँ०, कालीमिर्च श्राधी छँ०, लालमिर्च श्राधी छँ, हलदी १ तो, श्रमचुर २ छँ, सेंधा नमक १ छँ०, भुनी हींग तलाब १ तो० इन सब को बारीक करके रखें । कलौंजी जीरु -[ गु० ] कलौंजी । मँगरैला । कलौंदा -संज्ञा पु ं० [सं० ? ] घोक्कार | लु० क० । संज्ञा पुं० [देश० विहार ] एक प्रकार का खट्टा फल जिसका प्रायः अचार बनता है । कलौंस - वि० [हिं० काला + औंस ( प्रत्य० ) ] काला पन लिये । सियाही मायल | 1 संज्ञा पु ं० कालापन । स्याही | कालिख | कलौथी - संज्ञा स्त्री० [सं० कुलत्थ ] मुँगरा चावल | क़लौली - [?] एक प्रकार की बड़ी मुग़त्री | क़ाज़ | कल्कक - [फ़ा॰] तुख़्म खु । खु। कल्कंद-[ ? ] नीलाथोथा । करकंदी - [ रू० ] एक प्रकार का ज़ाज । कल्कदीस । क़ल्अ-[ अ ] उखाड़ना । उखाद डालना | जड़ से | उखाद डालना । कल्उल्. हुम्मा - [ श्रु० ] उबर उतरना । बुख़ार उतना | Termination of Fever क़ड सन्न् - [अ०] दाँत उखाड़ना । दाँत निका• खना । दन्तोत्पाटन : 'Tooth Eotra ction. I कलक - संज्ञा पु ं० [सं० पु० क्री० ] ( १ ) जल में पिसे हुये द्रव्य का पिंड । किसी द्रव्य वा चूर्ण को सिल पर पीसने से कल्क प्रस्तुत होता है । जैसे"यत्पिढं रसपिष्टानां तत्कल्कं परिकीर्त्तितम् ।” च० । गुलूला लुगदी । ( २ ) शहद आदि डाल कर इसकी मात्रा एक कर्ष (२ तो० ) है । परिभाषा प्रदीप के अनुसार इसमें शहद, घी और तैल दूना, मिश्री वा गुड़ बराबर और द्रव पदार्थ चौगुना डालना चाहिये । प० प्र० १ ख० । पिसो हुई चीज । यथा"कल्को मध्वादि पेषितैः ।" रा०नि० व० २० । "य: रिडचा पिष्टानां स कल्क इति कीर्तितः । वृद्ध वैद्यवचः साक्षात्कलको दृषदि पेषितः । मात्रा पिचुमिता तत्र द्विगुणं माक्षिकादिकम् । सितां गुड़ समं दद्याद्द्वा देयाश्चतु गुणाः ॥” इति कश्क विधिः । कल्कवानीस (३) घृत व तेल का किट्ट । तत्तछर । कीट | मे० द्वि । (४) सिल पर पिसी हुई वहसूखी वा जल मिली हुई वस्तु जिसे घी वा तेल पकाते समय उसमें डालते हैं। श्रावाप । प्रक्षेप । यथा" द्रव्यमात्र शिलापिष्टं शुष्कं वा जलमिश्रितं । तदेवसुरभिः पूर्वै: कल इत्यभिधोयते" प० प्र० १ ख ० । ( १ ) गोली या भिगोई हुई श्रोषधियों की शिल पर बारीक पीसकर बनाई हुई चटनी । लुगदी । अवलेह | इसे कपड़े में रखकर निचोड़े हुये रसकी मात्रा २ तोला है । भा० । ( ६ ) कान की मैल । खूँट । श० २० । (७) तुरुष्क नामक गंध-द्रव्य । शिलारस । सिह्नक । रा० नि० ० १२ । (८) विष्ठा । ( 8 ) कीट । किट्ट । मैल | मल । मे० कद्विकं । (१०) हाथी दाँत । करिदन्त । वै० निघ० । ( ११ ) बहेड़े के पेड़ । ( १२ ) चूर्ण | बुकनो । ( १३ ) पीठी । ( १४ ) गूद्दा । क़ल्क़ताया - [अ० ]आँख का एक रोग जिसमें कार्निया की झिल्ली के नीचे पीप बंद होकर उस स्थान को खा जाती है और वह स्थान नाखुना की तरह मालून होता है । कमूनुमिहः । हाइपोपीन Hy popayon-(श्रं० )। क़ल्क़तार - [ रू०] पीले सुनहरे रंग का ज्ञाज । कूलं क़तार । कल्क़द्दीस - [ रू० [] जलाया हुआ ताँबा । रू सुख़्तज । कल फफल-संज्ञा पुं० [सं० पु ] अनार । दाड़िम वृक्ष । रा० नि० ० ११ । कल्करोध-संज्ञा पुं० [सं० पुं०] पठानी लोध । पट्टिकारोध | रा० नि० व० ६ । क़ल्क़लंत, कल्कुलंद - [ रू० हीरा कसीस । ज़ाज अनज़र । क़ल्क़लान - [ ? ] चकवड़ । कुञ्जकुल । कल्कलानज - [ ? ] एक हिंदी माजून का नाम । क़ल्कलानियः - [अ०] फ़ाख़्ता | पंडुक | पेड़ की । कल्फलानी - [ ० ] फ़ाख़्ता की तरह का एक पक्षी । कल्कलः - श्र० ] ( १ ) गति देना । हिलाना | मिलाना । ( १ ) विकलता । बेचैनी । क्षोभ । जोरा । कल कलीक - [ तु ] सायर । पुदीना कोही । कल्कवानीस - [ ? ] मंदूर | Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्काजाम्प २३३४ कल्काजाम्प - संज्ञा पु ं० ( देरा० ) हंसराज | काली झाँप | परपियावशाँ । लेह | क़ल्क़ास - [ रू० ] अरवी । श्ररुई घुइयाँ । कुल्क़ास कल्पक - अवलेह - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] दे० कल्याण ( श्रु० ) । [ल्कासी - [ सिरि० ] अरवी । घुइयाँ । कल्किधर्म-संज्ञा पुं० [सं० पु ] विभीतक । बहेड़ा | रा० नि० व० ११ । कल्किवृक्ष, कल्कि धर्मध्न - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] बड़े का पेड़ । विभीतक का वृक्ष । रा० नि० व० ११ । कल्काल - [अ० ] ( १ ) वत । सोना । छाती । (२) हँसी की हड्डी का दरम्यान । झूठी पसलियों का भीतरी रुख़ । कल्कल् । क़ल्क़निया - [ यू० ] राल । रावीनज । कल्क़ूस–[ यू० ] ताँबा । ककोरा - [ बं० ] लाल सिरिस । कल्ग़ा - संज्ञा पु ं० [देश० ] नुस्तान अफ़रोज़ महूरा। कल्चंग - [ फ्रा० ] केकड़ा | कल्च : - [ फ्रा० ) गेहूं की छोटी सफेद ख़मीरी रोटी । कल्त - [ [[ ] बहु० कलात ] ( १ ) पत्थर के भीतर का वह गड्ढा जिसमें पानी इकट्ठा हो जाय । (२) पतला दुबला श्रादमी । क़तुत्तनु वः - [ • ] हँसली के ऊपर का गड्ढा । Supra Clavicular Fossa क़ल्तुरु : - [ अ ] घुटने के पास का गड्ढा | क़ल्तुल् इव्हाम - [ श्रु० ] अँगूठे की जड़ के पास का गड्ढा | कल्तुल ए ेन - [ श्रु० ] आँख का गड्ढा | नेत्रगुहा | Optac Fossa कल्प-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] ( १ ) विधान | विधि | कृत्य । ( २ ) रोग मुक्ति । ( ३ ) कल्प वृक्ष | रा० नि० व० २० । ( ४ ) वैद्यक के अनुसार रोग निवृत्ति का एक उपाय वा मुक्ति । जैसे, केश-कल्प | काया कल्प | ( ५ ) प्रकरण | विभाग । जैसेऔषध कल्प | कल्पलता वटी वि० [सं० क्रि० ] ( 1 ) कल्पना करनेवाला । रचनेवाला । काटनेवाला । संज्ञा पुं० [सं० की ० ] मद्य । मदिरा । कल्पक - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( १ ) नाई । नापित । श० मा० । ( २ ) कचूर । कचूर | भा० पू० १ भ० । कल्पतरु -संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( १ ) कल्पवृत्त । ( २ ) सुपारी का पेड़ । क्रमुक वृत्त । रा० नि० ० ११ । ( १ ) एक रसोषध जो ज्वर में परमोपयोगी है। पारा, गंधक, सिंगिया विष और ताम्र भस्म तुल्य भाग पीसकर पंच पित्तों की पाँच दिन भावना दें । पुनः सम्भालू के रस की सात भावना दें। ३ सरसों प्रमाण की गोलियाँ बनाएँ । अनुपान - कजली, पीपर, उष्ण जल । गुण तथा प्रयोग विधि - सात सात गोली करके २१ गोली तक बढ़ाएँ । इसके प्रभाव से २१ दिन में साध्य जीर्ण ज्वर, विषम ज्वर, ज्व रातिसार, संग्रहणी, कामला, श्वास, खाँसी और शूल नष्ट होता है । इसको खाकर कपड़ा छोड़कर सो जाना चाहिये, पसीना होकर ज्वर मुक्र हो जाता है । (भैष २० | उर चि० । ) कल्पद्रु, फल्पद्रुम-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] ( १ ) कल्पवृक्ष । ( २ ) छोटे अमलतास का वृक्ष | हूस्वारग्वध वृक्ष | सोनालू । वै० निघ० । कल्पन - संज्ञा पु ं० [सं० की ० ] ( १ ) रचना ( २ ) काटन | कर्त्तन | कल्पना - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) सवारी के लिये हाथी की सजावट । श्रम० । ( २ ) रचना | बनावट | सजावट | कल्पनाथ, कल्फ़नाथ - संज्ञा पुं० [देश० ] ( १ ) दे० "कलफ़नाथ" । ( २ ) एक पेड़ | (Justicia paniculata-) I कल्पनी—-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कत्तरी । कर्तनी । कैंची । हे० च० । कल्प पादप-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] (१) कल्प वृक्ष । ( २ ) गिलोय | कल्पलता - संज्ञा स्त्री० सं० बी० ] ( १ ) कल्प वृक्ष । ( २ ) बहेड़े का पेड़ । कल्पलता वटी - - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ग्रहणी रोग में प्रयुक्त होने वाला उक्त नाम का एक योग-मीठा तेलिया, शिंगरफ, धत्तूर बीज, प्रत्येक १२-१२ Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पषिटप :२३३५ " - स्बादनूता + रत्ती । अफीम शुद्ध ३६ रत्ती। सबको दूध में नीचे स्थित है। इसीलिये इसका नाम कल्ब पड़ा, पीसकर १-१ रत्ती प्रमाण की गोलियां बनाए । वि० दे० हृदय । गुण तथा उपयोग विधि-इसे दूध के साथ (२) उलटा (३) मध्य । दरम्य सेवन करने और अाहार पान प्रादि में केवल दूध बुद्धि । अबल्ल । निर्द। ही देने से और लवण तथा जल वर्जित करने से कल्ब-अ.][ बहु० किलाब, अकालीब, अकलक] पुरातन संग्रहणी, दुस्साध्य शोथ, पुराना ज्वर [स्त्री० कल्बः ] कुत्ता । कुक्कुर । सग (मा.) और पाण्डु नष्ट होता है। ( भैष० र० ग्रहणी कल्ब कलिब-[अ०] पागल कुत्ता। बावला कुत्ता । चि०)। सगे दीवानः (का०)। कल्बुल कलिब (१०) कल्पविटप-संज्ञा पुं॰ [सं०] कल्पवृक्ष । Mad Dog. कल्पवृक्ष-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (१) बहेड़े का | कल्बजनः, कल्बज़फ़र- यू०, सिरि० ] सुरंजान । पेड़ । (२) पुराणानुसार देवलोक का एक वृक्ष | कल्बंद-[ ते० ] ग्वारपाठा । घीकार । जो समुद्र मथने के समय समुद्र से निकला हुआ कल्बद नारदीन-[?] कायफल । और चौहद रत्नों में माना जाता है। श्रम०। कल्बतान-[अ०] (१)चिमटा। अंबर । भबूर । रत्ना०। जंबूर । (२) दांत उखाड़ने की चिमटी। पर्या-कल्पद् (म)। कल्पतरु । सुरतरु । Tooth forceps. कल्पलता, देवतरु, कल्पमहीरुह; कल्पलतिका । | कल्ब तहरी-[१०] प्राबी कुत्ता । जल का कुत्ता। संज्ञा पु. [ देश० अजमेर सं० पु.] एक सग प्रावी। वृक्ष जिसे गोरख इमली भी कहते हैं । वि० दे० कल्ब बर्रा-[१०] गीदड़ । । ___"गोरख इमली"। कल्ब बहरी, कल्ब माई-[१०] जलीय कुक्कुर । भाबी. कल्पा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (1) सफ़ेद चमेली। कुत्ता । सगे भाबी । श्वेत जाती । (२) मद्य । मदिरा। वै० निघ० | कल्बसू, कल्बासू-[.] छिपकली । चलकल्पाङ्क-संज्ञा पुं० [सं० पु.] पर्पट। पासः । कल्पाङ्गी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] पर्पट । धन्व० कल्या-[जंद ] कुत्ता। नि० । पर्पटक। कल्बा-[सिरि० ] ख़ा। कल्पान्त-संज्ञा पुं० [सं० पु.] प्रलय । कयामत । कल्बाद अकंदना-[सिरि० ] अंजदान के पत्ते । श्रम०। कल्बाद अकबनी-[सिरि० ] पाड़ के पत्ते । कल्पासी-[ देश• मदरास ] छड़ीला । कल्बाद अतरूआ-[सिरि०] तुरंज के पत्ते । कल्पित-संज्ञा पुं० [सं० पु.] सवारी के लिये | कल्बाद असिया-[सिरि०] पास के पत्ते। सजाई हुई हाथो । मे। कल्बाद कुनार-[सिरि०] बेर के पत्ते । कल्क-[सिरि०] (१) छिलका । (२) रअयुल् | कुल्बाद कु बार-[ सिरि० ] कबर के पत्ते । इब्ल । कल्बाद कौजी-[ सिरि० ] अखरोट के पत्ते । कल्फतलस-[यू.] ताँबे की मैन । कल्बाद खिलाफ़-[ सिरि०, रु. ] बेद सादा के - कल्कदमियून-[ यू० ] हड़ताल की टिकियाँ । पत्ते । क़ब्लूल किया। कल्फह-[ देश०, बम्ब०] दालचीनी । कल्मानलस-[यू०] ताँबे की मैल | कल्बाद जाकिनी-[ सिरि०] गार के पत्ते । कल्फत-[शामी ] शामी गंदना । कल्बाद जैता-[ सिरि० ] जैतून के पत्ते। . कल्ब-संज्ञा पुं० [अ०] (१) हृदय । दिल । | कल्बाद नीला-[सिरि० ] नीलके पत्ते । वस्मः । . नोट-कल्ब का धात्वर्थ "उलटा" है। कल्बाद जासाकीलून, कफ़नाला-[ सिरि०] : सीना, में हृदय उलटा लटका हुआ है अर्थात् । आलू के पत्ते । उसकी जड़ ऊपर को और उसकी नोक वा शिखर | कल्बादनूता-[सिरि०] तूत के पत्ते। . Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'कल्बाद बलूत २३३६ कल्याणक कल्बाद बलूत-[सिरि०] सीतासुपारी के पत्ते । | कल्मीक़लून-[ कैकहर। कल्बासू-[फा०] छिपकली। क़ल्मीस-[रू० । पुदीना। कल्बी नारदीन-[सिरि० ] जितियाना । कल्मी साग-[ कलमी+शाक ] करेमू । कल्मूज-[2 ] रासन । कल्बुन्नखल:-[१०] खजूर का गाभा । जुम्माज, कल्मूनिया- १](१) रातीनज जो आग पर पकाया: माज़ खुर्मा। गया हो। छोटे वा बड़े सनोबर की गोंद। मु० । कल्बुल् अज-अ.] सुरंजान । १०। काबुल कालिब-[१०] दे० "कलब कालिब"। कल्य-संज्ञा पुं॰ [सं० की.] () शराब । सुरा । कल्बुलहै.वानात-[१०] एक रोग जो पागल हला०। (२) प्रभात । प्रातःकाल। भोर । कुत्ते, लोमड़ी, गीदड़ वा भेड़िए इत्यादि के काटने सवेरा । मे० यद्विक । (३) मधु । शहत । हे. से बकरी, बिल्ली, गाय, गदहे, घोड़े, और मनुष्य च०। (४) नैरोग्य। प्रारोग्यता | सेहत । को हो जाता है । चौपायों की दीवानगी । हल- तन्दुरुस्ती । कल। काव। दे० "दाउलकल्ब"। ( Rabics, | वि० [सं० त्रि०]() गूंगा व बहरा । bydropbobia. Lyssa. (२) नीरोग। रोगरहित। "कल्यस्योदन कल्बुल् हज़-[अ० ] पत्थर को करेजी। वयसः ।" सु. चि० २६ अ०। (३) दक्ष । मे. कल्मनोर-संज्ञा० ० [देश॰] Ficus asp | यद्विकं । ___errima,Roxb. खरोटी। करकरवुदा।। | कल्य-अ.] भूनना । बिरियाँ करना । भजन । कल्यजग्धि-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] प्रातः काल का कल्म-अ.] नाखून काटना । नख तराशना । भोजन । कलेवा । नाशता । जटा० । कल्म-[१०] [ बहु• कलूम, कलाम ] (१) | कल्यत्व-संज्ञा पुं॰ [सं० को०] नैरोग्य । आरोग्य । ज़ल्म । जराहत । क्षत (२) जख्मी करना। सेहत । तन्दुरुस्ती । ज०। कल्मष-संज्ञा पुं० [सं० पु.](१) पाप। | कल्यद्र म-संज्ञा पुं० [सं० पु.] बहेड़े का पेड़ । (२) करिपुच्छ । हाथी की पूँछ। त्रिका। वै० निघ०। (३) मल । मैल। मलिनता। (४) पोब । कल्यपत्रिका, कल्यपत्री-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री। मवाद। लाल चिचड़ा । रकापामार्ग । मे० । कल्मा-[यू०, सिरि.] द । अरंड । कल्यवर्त्त-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] सवेरे का भोजन । कह्मा-[जंद ] अंगूर । ___ जलपान । कलेवा । नहारी। प्रातराश । त्रिका । कल्मावस-[2]चिरायता । कल्या-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (1) मदिरा । कल्माष-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.](१) सुगंध । ___ मद्य । मे० यद्विकं (२)हड़। हरीतको । श. शालि । जैसे-हंसराज, वासमतो इत्यादि । रा. नि०व०१६ । (२) चितकबरा रंग। (३) कल्याङ्ग-संज्ञा पुं० [सं० पु.] खेत पापड़ा ।पर्पट । काला रंग। (४) राक्षस । रा.नि.व. । वि० [सं०नि०] (१)चितकबरा | चित्र कल्याण-संज्ञा पुं० [सं० क्री०] (1) सोना । वर्ण। (२) काला। काले धब्बेवाला । सुवर्ण । (२) सुख । रा० नि० व०१३ । पित्तकल्मास-[१] चिरायता। पापड़ा । पर्पट । रा० नि० । नि०शि० । कल्मियातीतस-[ यू.] सुगंधित रेवंद का एक संज्ञा पु० [सं० पु.] छोटे साल का पेड़। भेद । लघु सर्ज वृक्ष । कल्मीक-[ उमान ] (1) हरनूह । (२) कल्याणक-संज्ञा पु. [सं० पु.] खेत पापड़ा। मलयगिरी । (३) जंभीरी। पर्पटक । वै० निध। Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याण-गुटिका २३३७ कल्याण-लवण कल्याण-गुटिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.]) . चित्रक, सेंधानमक, गजपीपल, अजमोद, बायवि'कल्याणक-गुड़-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] उनी डग, पीपलामूल, सोंठ, मिर्च, पीपल, हड़, बहेड़ा, नामाख्यातएक प्रकार का योग-बायविडंग, श्रामना, इलायची, दारचीनी और तेजपात प्रत्येक पोपलामूल, त्रिफला, धनियाँ, चित्रक १-१ कर्ष तथा निशोथ १ पल । इनके कल्क के मूल, मिर्च, इन्द्रयव, जीरा, पीपल, गजपीपल, साथ यथा विधि पाक प्रस्तुत कर अवलेह सिद्ध पंचलवण, अजमोद प्रत्येक का चूर्ण १-१कर्ष।। करें। तिल तैल ८ पल, निशोथ चूर्ण ८ पल । श्रामले गुण तथा उपयोग-विधि-इसे भोजन के पूर्व का रस ३ प्रस्थ और गुड़ पुरातन अर्द्ध तुला लेकर सेवन करने से संग्रहणो, अर्श; खाँसो, श्वास, मामले के रस में गुड़ की चाशनी बनाकर उसमें सूजन, स्वर भंग और उदररोग का नाश होता है। अन्य उपयुक पोषधियों का बारीक चूर्ण मिलाकर यो० र० ग्रह. चि०। बेर या गूलर प्रमाण की गुटिका बनाएँ। कल्याणगुड़-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] उक्न नाम का गुण तथा उपयोग विधि-यह प्रत्येक ऋतुओं एक योग, जो चक्रदत्त के अर्श चिकित्सा में प्रयुक्त में बिनापथ्य सेवन की जा सकती है। इसके है। यह योग चरक के कल्याणकावलेह तुल्य है। उपयोग से कुष्ठ, बवासीर, कामला, प्रमेह, गुल्म, दे. "कल्याणकावलेह"। उदरामय, भगंदर, संग्रहणी और पांडु का नाश कल्याण घृत-संज्ञा पुं॰ [सं० वी०]] ... होता तथा पुंसत्व की वृद्धि होती है। च० कल्प उक्न नाम कल्याण पानीय७०। कल्याणक-घृत-संज्ञा पुं० [सं० क्रो०] उक्त का एक आयुर्वेदीय योग, जो वन्ध्यादोष निवरनाम का एक आयुर्वेदीय योग-इंद्रायण णार्थ प्रस्तुत किया जाता है। दे० "कल्याणक घृत" । की गूदी, त्रिफला, रेणुका, देवदारु, एलवालुक, शालपर्णी, अनन्तमूल, हल्दी, दारुहल्दी, दोनों कल्याण चूर्ण-संज्ञा पुं॰ [सं० क्ली० ] उन नाम का सारिवा, दोनों प्रियंगू, नील कमल, इलायची, एक योग-पीपल, पीपलामूल, चव्य, चित्रक, सोंठ, मिर्च, श्रामला, हड़, बहेड़ा, बिड़ लवण, मजीठ, दन्ती, अनार, नागकेशर, तालीसपत्र; बड़ी कटे ली, मालतीपुष्प, बायविडंग, पिठवन, कुष्ठ, सैंधव, पीपल, बायविडंग, नाटा करंज, अजवाइन, धनियाँ और जीरा प्रत्येक समान भाग लेकर विधिचन्दन और पद्मकाष्ठ प्रत्येक का कल्क १-१ कर्ष और जल चौगुना मिलाकर १ प्रस्थ गाय का घृत वत् चूर्ण प्रस्तुत करें। गुण-इसके उपयोग से अपस्मार, कफजनित युक्र कर यथा विधि सिद्ध कर रख लें। रोग, वातजरोग, उन्माद और संग्रहणी का नाश . मात्रा-१-२ तोला । होता है। इसे उष्ण जल के साथ सेवन करें। गुण-इसके उपयोग से मिरगी, ज्वर, खाँसी | यो०र०। श्वास, क्षय, अग्निमान्य, वात रोग, प्रतिश्याय, | तिजारी ज्वर, चौथिया ज्वर, वमन, बवासीर, मूत्र कल्याण पू चीनी (चुनी) [ ता०] श्वेत कुम्हड़ा । कृच्छ , विसर्प, खाज, पांडु, विष, प्रमेह, भूतवाधा रकसवा कुम्हड़ा। गद्-गद् स्वर, वीर्य की कमी और वंध्यत्व दोष का कल्याण बीज-संज्ञा पुं॰ [सं० पु] मसूरिका धान्य । मसुर । रा०नि०व०१६ । नाश होता है, एवं आयु-बलवर्धक, अलक्ष्मी, पाप, राक्षस और ग्रह नाशक है। कल्याण-मरुक्क [ ता० ] पारिभद्र वृक्ष । फरहद ।। कल्याणकावलेह-संज्ञा पुं० [सं-पु.] उक्त नाम कल्याणमल्ल-संज्ञा पुं० [सं० पु.] अनङ्गरण ग्रंथ का एक योग-आमले का स्वरस , तुला, गुड़ के प्रणेता। पुरातन अर्द्ध तुला, तिल तैल । कुड़व और पाठा- कल्याण-लवण-संज्ञा पु० [सं० क्ली०] उक्त नाम मूल, धनियाँ, अजवायन, जीरा, हाऊबेर, चव्य, का एक योग-भिलावा, प्रामला, हड़, बहेड़ा, ७३ फा० Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणलेह २३३० कल्यान कांत दन्ती और चित्रक प्रत्येक १-१ भाग और सेंधा- | कल्याणावलेह-संज्ञा पु० [सं० पु.] उन नाम का नमक २ भाग लेकर सबको एकत्र कर शराव संपुट एक आयुर्वेदीय योग जो हल्दी बच इत्यादिसे बनता में बंद कर कंडों की मंदाग्नि से भस्म करें। है । इसके सेवन से २१ दिन में मनुष्य श्रुतिधर, मात्रा-1-1 मा०। मेघ तुल्य और कोकिल के समान स्वर वाला हो गुण-इसके उपयोग से अर्शमें श्रत्यन्त लाभ | जाता है, एवं जड़ता, गदगदपना और मूकत्व दोष होता है । वृ०नि० र० संग्र. चि। से रहित हो जाता है। दे. "कल्याण लेह"। कल्याणलेह-संज्ञा पुं० [सं० पु.] उक्त नाम का (२०२० भैष. २० । च० द. वा. व्या० चि०) एक योग-हल्दी, बच, कूठ, पीपल, सोंठ, जीरा, कल्याणिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] मैनसिल । अजवाइन, मुलेठी, महुए का फूल और सेंधानमक | मनःशिला | रा०नि० व०१३।। समान भाग लेकर घृत के साथ यथा विधि अव- कल्याणिनी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] बला नाम का बेह बनाकर रखलें ।इसे २१ दिन तक प्रत्यह सेवन चुप | बरियारा । खिरैटी । रा०नि० व०६। करने से वातव्याधि, हिक्का और श्वासरोग प्रारोग्य | कल्याणी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) राल का होता है। (चक्रदत्त) पेड़ । सर्जवृक्ष । वै० निध०। (२) गाय । कल्याण बीज-संज्ञा पुं० [सं० पु.] मसूर का | गाभी । रा०नि० व. १६ । (३) माषपर्णी पौधा । मषवन । रा०नि० व० ३ । (४) स्वर्णपत्रिका कल्याण सुन्दर रस-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] सिन्दूर, सनाय । (५) बला | बरियारा । रा०नि० । अभ्रक भस्म, चांदी भस्म, दाम्र भस्म, स्वर्ण भस्म कल्यान-संज्ञा पु० दे० "कल्याण" । और शिंगरफ इनका बारीक चूर्ण करके चीते के रस कल्यान काँटा-संज्ञा पु० [सं० कल्याण+हिंदी काँटा] में मर्दन करें। इसी तरह हस्ति शुण्डी के रस की एक काँटेदार बूटी जो एक हाथ तक ऊँची होती सात भावना दें। पुनः १ रत्ती प्रमाण की गोलियाँ है और बंगाल प्रांत के बरदवान तथा मेदिनीपुर बनाएँ। के जिलों में बहुतायत से पाई जाती है । इसके अनुपान-उष्ण जल। काँटे सख़्त होते हैं । दे० "कल्यानकात"। गुण-इसके प्रभाव से उरस्तोय, हृद्रोग, सीने कल्यान कात-संज्ञा पुं॰ [देश॰] एक गज भर ऊंचा की बीमारी, वातरोग, सीनेसे रक्त पात और फेफड़े | कंटकाकीर्णवृक्ष जो बंगाल, बरदवान और मेदिनीके रोग नष्ट होते हैं। (भैष० २० हृद्रोग चि०।) पुर इत्यादि स्थानों में बहुतायत से होता है। कल्याण-सुन्दराभ्र-संज्ञा पुं० [सं० की.] सफेद इसके काँटे अत्यन्त दृढ़ और भूरे होते हैं । कल्यान अभ्रक १ पल अनेक पुटित | आमला, नागर काँटा । (बु. मु०)। मोथा, बड़ी कटेरो, शतावर, ईख, बेलगिरी,अरनी, प्रकृति-उष्ण और रूक्ष । नेत्रवाला, अडूसा, छोटी कटेरी, पाटला, सोनापाठा स्वाद-किंचित् तिन एवं विस्वाद । और खिरेटी प्रत्येक के रस चार-चार तोले में मर्दन कर एक रत्ती प्रमाण की गोलियाँ बनाएँ। हानिकर्ता-उष्ण प्रकृति को। गुण-इसके उपयोग से राजरोग, क्षय, शोष दर्पघ्न-गुलरोग़न आदि। रोग, कफ, पित्त, श्वास, वातरोग, अरुचि, अंग मात्रा-२ माशे पर्यन्त ।। ग्रह, शोथ, स्वरभंग, अजीर्ण, उदरशूल, प्रमेह, गुणधर्म तथा उपयोग-इसकी जड़ की ज्वर, विष, उरोग्रह, पांडु, हिचकी, कार्य, कृमि, छाल २१ मा०, और रेबंदचीनी । मा०, दोनों बलक्षय, अम्लपित्त, तिल्ली, हलोमक, रकगुल्म, को पीसकर पिलाने से पीहा शूल में उपकार प्यास, आमवात, ग्रहणी का बिगाड़, विस्फोटक, होता है। जलोदर एवं अन्य सभी प्रकार की कुष्ठ, नेत्र, मुख, शिर के रोग, मूर्छा, वमन और। वेदनाओं में इसका सेंक उपकारी होता है । क्षत मुख की विरसता नष्ट होती है। (भैष. २० पर इसकी पत्ती सीधी बाँधने से उपकार होता है। यमा चि०।) दूषित क्षतों पर उलटी तरफ अर्थात् पीठ की Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्युष २३३६ ओर से इसकी पत्ती बांधने से यह बद गोश्त को काट डालता है । फोड़े पर इसकी पत्ती बाँधने से वह विदीर्ण हो जाता है। इसकी जड़ की छाल पीसकर थैली में बाँधकर जलोदर जमित सूजन पर बाँधने से उसका नाश होता है। किंतु यह ध्यान रखना चाहिये कि यदि उस जगह अधिक वेदना प्रतीत होती हो तो वहाँ से हटाकर बाँधे । इसी भाँति समग्र शोधों पर बारी-बारी से बांधते रहें । यही नहीं श्रपितु बार-बार बांधें । | नोट - नासिरुल् मुश्रालजीन तथा बुस्तानुल् मुरिदात में भी इसका उल्लेख श्राया है । कल्युष-संज्ञा पुं० [सं० नी० ] मणिबंधा । कलाई । ( ख० अ० ) । प्रगत शोथ पर इसकी पत्ती बाँधने से कल्लिजेमुदु - [ तें० ] थूहर । सेहुँड़ । उपकार होता है । कलिंगनोत्तर - [ तिवरी । I | ल्ल - वि० [सं० त्रि० ] बहिरा । बधिर । त्रिका० । संज्ञा [] (१) रंज | दुःख | कठिनाई गिरानी । ( २ ) बाल बच्चे । अहूल व अयाल । कल:- [ ० ] कल्लई - [ म०प्र० ] अग्गई ( श्रवध ) । - [ क० ] रा । वनभंटा । वृहती | कल्लत - [ पं० ] कुलथी । ? कल्वरूट तक का स्थान । जैसे खसी का कल्ला । कले का मांस । कल्ला परवर-संज्ञा पुं० [हिं० कल्ला + फ्रा० परवर ] एक प्रकार की मिठाई | कल्लाल - [देश० मदरास ] Ficus dalhousiae, Mig. सोमवल्क । कल्लि - [ मल०, ता०, कना०, ] सेहुँड़ । थूहर । कल्लि कोंबु - [ ता० ] Enphorbia Triucalli, Jinn• बाड़ की थूहर । थूहर । सेंहुँड़ । लंका शीज (बं० ) । (१) बहरापन । बाधिर्य । (२) स्वरभेद | हे०च० कल्लभ - संज्ञा पुं० [सं० पुं०] कलम । Peuar Goose quill. कल्लमूक - वि० [सं० त्रि० ] बहिरा और गूँगा । कल्लर-संज्ञा पु ं० [ देश० । सं० कल्य ] (1) नोनी मिट्टी । खारी मिट्टी । ( २ ) रेह । नोना । (३) ऊसर बंजर । धनुर्बर भूमि । कल्लस-बल-वीगे - [ कना० ] बकरा । दवन पापड़ा। पित्तपापड़ा | क्षेत्र पर्पट । · कल्ला–संज्ञा पु ं० [सं० करीर=बाँस का करैल वा ter] अंकुर | कला | किल्ला | गोंफा । संज्ञा पु ं० [ फ्रा० ] ( १ ) गाल के भीतर का अंय | जबड़ा । (२) जबड़े के नोचे गले रा ० ] श्याम त्रिवृता । लाल कल्ली - [ द० ] कली । मुकुल | कल्ली श्रंच - [ झाँकर | कल्ली का चुन्ना -संज्ञा पु ं० [देश० द० ] कली का ? ] Rubus Lasiocarpus कल्लुडी - [ कना० ] पाटल । पादर । पाढरी । क़ल्लत-[ अ ] ( १ ) बीमारी से उठना । रोगमुक्ति । कल्लुरवंची - [ मल ०] ) दादमारी । अग्निगर्भ । कल्लुरिवि–[ ता० ] [Ammannia vaccif (२) क्लेश से छुटकारा पाना । कल्लता - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कल्लत्व-संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] चुना । कल्ली जर्री - [पं० ] Salvia Moorcroftia - na, Wall. कल्लु - [ ता०, ते० ] Yeast toddy ताड़ी | भी । ea, Linn. कल्लु-हुव्वु -[ कना० ] पत्थर का फूल । छड़ीला | शैलेय । कल्लूब - [श्रु० ] [ बहु० कलालीब ] दाँत उखाड़ने का औज़ार । दन्तोत्पाटक यंत्र । जंबूर | Tooth Forceps. कल्लोल - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] ( १ ) पानी की लहर । तरंग । ( २ ) हर्ष । ख़ुशी । कुल्व - [ श्रु० ] ( १ ) गोश्त आदि भूनना । तलना । (२) गुल्ली डंडा खेलना । 是 कल्वर्स फिजिक - संज्ञा पु ं० [अ० Culver's Physic] कल्वर्सरूट - संज्ञा पुं० [ श्रं० Culver's Root. लेप्टंड | Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्वा २३४० कवटी कल्वा-[फा०] मुलूक। संज्ञा पुं॰ [सं० ली.] छत्राक । कुकुरमुत्ता। कल्विय्यत-[अ०] .Alkalinity. खारापन । यह अभक्ष्य है यथाक्षारत्व । शोरियत । "लशुनं गृञ्जनश्चैव पलाण्डु कवकानिच ।" कल्वी-[१०] Alkaline क्षारीय खारी। शोर । (मनु०) कल्वी-[ ते. ] कतीरा । गुलू । [३] करौंदा। | कवकुला-[ कना. ] वन लौंग | Gussiaca लु.क.। ___sufforticosa, Linn. कल्स-[१०] चूना । किल्स । कवच-संज्ञा पुं॰ [सं० पु; की० ] (१) पित्त कल्स-[१०] अपक्क आहार का एक बार मेदे से पापड़ा । पर्पटक । यथा- 'कवच: स्यात् पपमुँह में भर पाना । जब यही क्रिया दोबारा होती टके।" रा०नि० व०५। 'वचा कवचकच्छु।' है तब उसे ही कै कहते हैं । कलस । रीगर्जिटेशन रा०नि० व० २३ । (२) पारस पीपल का Regurgitation- (अं)। पेड़ । गर्दभाण्ड वृत्त । गाजीभाँट । (३) दारनोट-रीगर्जिटेशन रक्त के प्रत्यावर्तन (तकहक चीनी । (४) भोजपत्र का वृक्ष । भूर्जवृक्ष । (१) रुद्दम) के लिए भी प्रयोग में प्राता है। दे० नन्दी वृक्ष । बेलिया पीपर । मे० चत्रिकं । (६) "कहकरुद्दम"। श्रावरण | छाल । छिलका। कल्सा-[सिरि० ] सपिस्ताँ । लिसोड़ा। व.वचनामक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] पित्तपापड़ा । कल्सादलावहज-[ सिरि० ] कली का चूना । अन- पर्पटक। बुझा चूना। कवचपत्र-संज्ञा पुं॰ [सं० की. ] भोजपत्र । भूर्ज कल्साना-[ यू०] गुलेलाला । पत्र । श० च०। कल्सातीस- यू.] जरावंद । कवचा-[ गु०] केवाँच । वानरी । कल्साताना-[२०] शाह बलूत । कवचाख्य-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (१) घोड़े कल्सीस-[यू.] लह यतुत्तीस । ___ का सुम । अश्व खुर । (२) नखी नामक गंधद्रव्य। कल्सून-[ यू०, रू०] रसवत । कवची यन्त्र-संज्ञा पु[सं० क्रीन औषध पाकार्थ कल्सूफ़ादयून-[ यू.] एक प्रकार का पौधा जो ईधन यंत्र विशेष । पहले न बहत छोटी और न बहत के काम आता है। बड़ी एक काँच की दृढ़ कूपी लेकर उसके चारों कल्हक-संज्ञा० स्त्री० [देश॰] एक चिड़िया जो कबू. ओर गीली मिट्टी वा कीचड़ लगा हुआ वस्त्र तर के बराबर होती है । इसका रंग ईट का सा लपेट देवें, फिर उसपर मृदु मृत्तिका का लेप करके लाल होता है, केवल कंठ काला होता है, आँखें धूप में सुखा लेवें । इसके बाद कूपी में औषधि मोतीचूर होती हैं और पैर लाल होते हैं। भरकर कूपी का मुंह खड़िया का डाट लगाकर कल्हर-संज्ञा पुं० दे० "कल्लर"। मजबूती से बंदकर देवें । पुनः यथा विधि औषध कल्हरवा-संज्ञा पुं॰ [हिं० कल्हारना ] वह भक्ष्य पाक करें। यह 'कवची नामक यन्त्र' है। जो द्रव्य जो घी इत्यादि में तल कर और जीरे आदि रसादि पाचनके काम आता है । प्रात्रेयः । कच्चीसे बधार कर नमक मिर्च मिलाकर खाया जाता यन्त्र। है। जैसे, चने का कल्हरवा । कवछी-[ ता०] अपराजिता । कवा ठेठी । वि० घी में तला हुश्रा । घी वा तेल में भूना कवट-[मरा०, कना०] (Limonia Monoहुधा। philla) कल्हार-संज्ञा पु० दे० "कल्हार"। [मरा०] कैथ । कवय-संज्ञा पु० दे० "कौंच"। कवटा-[ मरा०, को०] मुर्गी का अंडा । कुक्कुटाँड । कवई-संज्ञा स्त्री० दे० "कवयो"। कवटी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] कवाट । किवाड़ी। कवक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (१) घास । (२) संज्ञा स्त्री० [ देश०, बम्ब० ] सिहोर । शाखोकवन । मास । हे० च०। टक। Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवठ, कवथ २३४१ कवल कवठ,कवथ-[ मरा० ] कैथ । कपित्थ । कवर-संज्ञा पुं॰ [सं० कवल ] ग्रास। कौर । कवड़-संज्ञा पुं॰ [सं० पुं०] (१) कवल । ग्रास। निवाला । सुकमा। कौर । (२) गंडूष । कुल्ला । रत्ना०। __ संज्ञा पु [सं० ० क्ली० ] [ स्त्री० कवरी ] कवडग्रह-संज्ञा पुं॰ [सं० पुं० ] दो तोले का एक (१) बनतुलसी । कवरी । त्रिका । (२) मान । कर्ष । ५० प्र० १ ख०। च० द. खदिर नमक । लवण । (३) अम्ल । खटाई। मे० । वटी। हे० च०। (४) समुन्दर नोन । सामुद्र लवण । कवड़ी-संज्ञा स्त्री० दे० "कौड़ी"। र० मा०। (५) केशपारा । जुरुफ़ । (६) कवडोरी-[मरा०] बिजगुरिया । शिवलिंगी । गुच्छा । (७) चितकबा । वि० [सं०] (१) गुथा हुा । (२) कवण्डल-[ मरा०] लाल इन्द्रायन । मिला हुआ। कवण्डली- कों . ] इन्द्रायन । महाकाल । संज्ञा पुं॰ [फा०] कर्मव । करमकल्ला । (२) कवत-संज्ञा पु० [सं० कपित्थ ] कैथ । कवयि. कवयी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] एक प्रकार | कवरकोर:-[शीराज़ी] चील । करील । कबर । की मछली जो एक जलाशय से दूसरे जलाशय में कवरजुवे-[ते. ] जियापोता । पुत्रजीवक । सूखे-सूखे पलटा खाती हुई चली जाती है। कवरपुच्छी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (1) मयूरी । अन्यान्य मछलियों की अपेक्षा यह अधिक ___ मोरनी । (२) विचित्र-पुच्छविशिष्टा । चितकसमय तक जलशून्य स्थान में भी जी सकती है। बरी पूंछवाली (चिढ़िया प्रभृति)। यह किंवदन्ती सुनने में श्राती है कि यह तालवृक्ष कवरपुल्लु-[ मल० ] मकरा । मकरी । घुरचुत्रा । पर चढ़ जाती है। यह कान के पास के कण्टक के कवरबा-[फा०] करील के फल का श्राश । कबरबा । सहारे उच्च स्थान पर पहुँच जाती है। भूमि पर ___ कब्रियः। भी यह बहुत दूर तक चला करती है। बंगाल के कवरा, कवरी-संज्ञा स्त्री० [सं० : स्त्री०] वर्वरी। यशोर और फरीदपुर जिले में यह बृहदाकार देख बबई । श० २० । बनतुलसी । बर्बरी । श्रम । पड़ती है। (२) बबूल | वबूरक वृक्ष । (३)रक्र करवीर । - पर्या-कवयिः, कवयी, क्रकच, पृष्टी, (४) मैनसिल । (५) हिंगुपत्री । रा०नि० (त्रि०) कविका, (भा०), कवची (के.), व.६ । (६) केश विन्यास । चोटी। जूड़ा। कविकापुच्छ, चक्रपृष्टी, -सं० । कबई, कबई-सुभा | वेणी। -हिं० | कइमाछ -बं०। ऐनाबस स्कैण्डैन्स, | कवरीक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (१) एक प्रकार Anabas Scandens, Daldorf., की तुलसी का पौधा जिसकी पत्ती सुगंधित होती कोइयस कोबोइयस Coius Coboius. है। दुलाल तुलसी । यथा-"कस्तूरिकाचवेड़-ले। कई फिश Kai fish. क्राइम्बिग पर्च गंधः कवरीकः स्वनामकः ।" इति द्रव्याभिधानम् । Climbing Perch -अं०।। (२)एक प्रकार का चना । शुभ्र चतक । कावरी गुण-मधुर, स्निग्ध, कसेली, रुचिकारी, छोला (बं०)।के। किंचित् पित्तकारक, बल्य और वातनाशक है । कवरीकला-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] मैनसिल । (हारा०) कवरी कूटक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कवरी | बनकविका मधुरास्निग्धा कफघ्नी रुचिकारिणी। तुलसी । बबई । त्रिका०। किाश्चत्पित्त करी वातनाशिनी वह्निवर्द्धिनी॥ | कवल-संज्ञा० पु० [सं० पु.] [वि. कवलित] (भा० पू० १ भ० मत्स्य व०) (१)एक प्रकार को मछली । चिलिचिम मछली । कवई मधुर, स्निग्ध, कफनाशक, रुचिकारी, बेल मच्छी । श. च०। (२) अन्न वा भोज्य किंचित् पित्तकारक, वातनाशक और जठराग्नि- पदार्थ की वह मात्रा जो खाने के लिये एक बार बर्द्धक है। मुह में डाली जाय | ग्रास । गस्सा । कवर । Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवलग्रह २३४२ कवाति रत्ना०।(३) उतना पानी वा कोई श्रीष- गूलर इत्यादि की छाल की वह गद्दी जो घाव वा धीय द्रव जितना एक बार मुंह में लिया जाय । | फोड़े के ऊपर वाँधी जाती है। कुल्ली, गंडूष । “सुखं सञ्चार्यते या तु सा मात्रा सु० सू० १८ अ० । सु. चि. ३ अ.। कवले हिता।" भैषः। (४) एक प्रकार को | कवलित-वि० [सं० वि० कौर किया हुआ। ग्रास मछली। कोवा । (५) एक प्रकार को तौल । | () एक प्रकार को तौल। किया हुआ। खाया हुआ । भक्षित । भुक्र । कर्ष। कवली-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (१) बेर का पेड़। __ संज्ञा पुं॰ [देश॰] [स्त्री० कवली] (१) (२) भैंसी । महिष । एक पक्षी का नाम । (२) घोड़े की एक जाति __ संज्ञा स्त्री० [ बम्ब०,मरा०] मेढ़ासींगी। मेषशृङ्गी । का नाम । कवली काँदा-संज्ञा पुं॰ [ देश० ] जंगली प्याज । कवलग्रह-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (१) एक प्राचीन | वन पलांडु । काँदा। तौल जो दवा तौलने में काम आती थी। यह कवली-चे-डोले-[ मरा० ] Bryonia Laciniमागधी मान से सोलह माशे की होती थी। यह ____osa, Linn. बजगुरिया । अाजकल के व्यावहारिक मान से एक तोले के बरा. कवस-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] एक प्रकार का कँटीला बर होती है । कर्ष । सु.। गुल्म । पा०-कर्ष । तिंदुक । षोडशिका । हंस कवाँच-संज्ञा पु० दे० "केवॉच"। पड़ा । सुवर्ण । उदुम्बर । करमध्य । पाणितल । कवाँर-संज्ञा पुं० दे० "धीकार"। किंचित् पणि । पणिमानिका । कवा-संज्ञा पु. [ देश०, बम्ब०] चावलमूगरा । (२)औषधियों की महीन पीपकर बनाई लुगदी | कबाइमुल हि.जबुलह जिज-[अ० ] Crura का मुंह में कुछ देर तक रखना । कवल धारण | Diaphragmatis. वक्षोदर मध्यस्थ पेशी सुश्रुत के अनुसार यह चार प्रकार का होता है- की जड़ । काइमताउल हिजाबुल हाजिज़ । (१) स्नेही अर्थात् स्नेहन करनेवाला जो वायु के | कवाई-[सिरि०] मकड़ी। रोगों में काम प्राता है। स्निग्ध और उष्ण द्रव्योंकवाछी-[ता.1 श्वेतापराजिता । का कवल स्नेही होता है। (२) प्रसादी अर्थात् | कवाट (क)-संज्ञा पुं० [सं० की.] [स्त्री० या प्रसन्न करनेवाला जो पैतिक रोगों में उपयोगी है। अल्प० कबाटी ) किवाड़ । कपाट | Valve. मीठे द्रव्योंका शीतल कवल प्रसादी माना जाता है। कवाट चक्र, कवाट वक्र-संज्ञा पुं॰ [सं• क्री.] (३)शोधी अर्थात् शोधन करनेवाला जिसे कफ के एक वृक्ष का नाम । कराड़िया। किवाड़वेद। रोगों में देना चाहिये । चरपरा, खट्टा, नमकीन और वेण्टुमा ।र०मा० । रूखा तथा गरम कवल शोधन होता है। पर्याय०-वक्रा, कपोतवक्रः। रोपण अर्थात् व्रणादि को भरनेवाला जो व्रण में गुण-रक दोष नाशक । २० । उपयोगी है। कसेले, कडुवे, मीठे, चरपरे और | कवाठेठी-संज्ञा स्त्री० [हिं० कवा कौमा+ठी=ढ़ वा गरम द्रव्यों का कत्रल रोपण होता है । सु. चि० ठोर । अपराजिता । कौंवा ठोठी। . ४० अ० । कवलग्रह लेने से भोजन अच्छा लगता | कवाठेठी-के-बीज-संज्ञा पुं० [ देश०, द०] अपरा है, कफ का नाश होता, और तृषा, वोष, वैरस्य | जिता के बीज । एवं दंतचाल का दोष दूर होता है। कवाठोंठी-संज्ञा स्त्री० [हिं० कौवाठोर ] अपराजिता । कवल धारण-संज्ञा पुं॰ [सं० ली.] कवलग्रह । विष्णुक्रांता। कवलप्रस्थ-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कवन योग्य एक | कवाडोडी-संज्ञा स्त्री० [मरा०] वजगुरिया। शिव. परिमाण । लिंगी। कवलम्- मल०] कवाडोरी-संज्ञा स्त्री॰ [देश० ] कालादाना । कवलालुक-संज्ञा पु० [सं० की. ) घोली। कवातिअ-[१०] काटने वाले अगले चार दाँत । कवलिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] कपड़े, पत्ते वा कर्त्तनक दंत । Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनवास, कनवी कवानस, क़वानस - [ ० ] संगदान | क़ौनस् । कवानिया - [ यू०] ख ब । शज्रतुल् मरात | क्लवानिया, क़वानियून, क़नियून - [ ? ] ( १ ) मस्हू. क्रूनिया । (२) कफ्रेदरिया । समुद्रफेन । क़वानूस - [ श्र० ] एक तौल जो डेढ़ या तीन श्रौक्रिया और तेल (जैस) से चार तोले छः माशे और शराब से तीन तोले एक माशा होती है । क़धाम - संज्ञा पु ं० [अ० ] ( १ ) पकाकर शहद की तरह गाढ़ा किया हुआा रस । क्रिवाम । जैसे— सुरती का क़वाम । ( २ ) चाशनी । शीरा । ( ३ ) डील डोल । कद व कामत । क़वामीस - [ यू०] फिरोजे की तरह का एक पत्थर जो काशमीर और तिब्बत में होता है । क़वामुस - [ यू० ] क्रन्ती बाकुला । - क़वामूस - [ यू०] लाजवर्द । राजावर्त्त । क़वायादस - [ यू०] बाकला । कवार-संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] ( १ ) कमल । पद्म (२) एक प्रकार का ढेंक वा जलपक्षी जिसकी चोंच बहुत लम्बी होती है । Tentalus falcinellus वै० निघ । [फा० ] गन्दना । लु० क० । कवार का पाठा - [ राजपु० ] घी क्वार । घृतकुमारी । कवाल - [ ? ] सूअर । कवालफ़ - [ ? ] बादावर्द । कवाली -संज्ञा स्त्री० दे० "कवली" । खुश्की की घातक हवा को श्रवासिनकहते हैं । कवि (वी) - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] खलीन 1 लगाम । २३४३ संज्ञा पुं० [सं० पु० ] उल्लू । कवि रु-संज्ञा पु ं० [सं० क्वी० ] लगाम । खलीन । 'संज्ञा पु ं० [देश० ] एक वृक्ष का नाम जो मलाया प्रायद्वीप में होता है । इसके फल गुलाब जामुन की तरह और रसीले होते हैं । बंगाल, दक्षिण भारत तथा बर्मा में भी अब इसके पेड़ लगाए जाते हैं । इसे मजाका जामरूल भी कहते हैं । कविका - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) केवड़ा | केविका पुष्प वृक्ष | रा० नि० व० १० । ( २ ) कवया लगाम | खलीन । ( ३ ) कवई मछली । कवयी । त्रिका० । कविञ्जक - संज्ञा पु ं० [सं० पु ं० ] एक पक्षी | कवि संज्ञा पु ं० [ ५० ] कैथ | कठबेल । कविट की गोंद - संज्ञा स्त्री० [ ५० ] कैथ की गोंद । कविट पान - [ मरा० ] कैथ । कवित्थ, कत्थि-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] कैथ का पेड़ । कपित्थ वृक्ष । श्र० टी० । कविय - संज्ञा पुं० [सं० क्ली० ] लगाम । खलीन । कविराज - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] (१) बंगाली वैद्यों की उपाधि । (२) वैद्य । (३) श्रेष्ठ कवि | संज्ञा पुं० [फा०] जल धनिया । कबीकज । कविराय - संज्ञा पुं० दे० कविराज । कविरि संद्र - [ते . ] कत्था | खैर । खदिर । कविला - [ ता० ] गुलदारा । कविले - [ ते ० ] तपीस । कविस्क - ( फ्रा० ] ( १ ) जरजीर । ( २ ) बाकला । कवी - [ मरा०, गु० ] कैथ | कवी गोंद - [ गु०, मरा० ] कवीट गौन -[ गु० ] } कैथ की गोंद | क्नवासिफ़ - [अ० ] समुद्र और दरिया की घातक क़वीशदीद -[ ० ] ( १ ) बलवान | ताक़तवाला । हवायें | जलीय ज़हरीली हवायें । मज़बूत ज़ोरदार | ( २ ) रोगविज्ञान में यह शब्द रोग के विशेषण की तरह प्रयोग श्राता है । श्रर्थात् शदीद और क़वीमर्ज़= बलवान रोग । स्थेनिक | Sthenic ( श्रं० ) । कवीस्ते तल्ख - [फा० ] इन्द्रायन | कवेज, केह - [ फ्रा०] सुर्ख़ बुस्तानी जुरूर | कवेज़ - [ फ्रा० ] जुरूर | कवेल-संज्ञा पुं० [सं० क्री० ] उत्पल । कुवलय । श० च० । नीला कँवल । कवेला - [ फ्रा० ) कमीला । संज्ञा पु ं० [हिं० कौवा + एला (प्रत्य० >] कौए का बच्चा । कवैया -संज्ञा [१] मकोय | कवीठ - संज्ञा पु ं० [सं० कपीष्ट, प्रा० कविट्ठ ] कैथा । कपित्थ | [ राजपु० ] कैथ । Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करोड़ वक्र २३४४ . . कशीका कवोड़ वक्र-संज्ञा पु० [सं० पु.] कवाटवक्र का कशमरम-[ ता०] अञ्जनी । लोखंडी। सिरूकाय । वृक्ष । र. मा० । कशमीर-संज्ञा पुं॰ [सं०] कुट । कुष्ठ । कवोष्ण-वि० [सं० वि० ] सुहाता गर्म। कुछ-कुछ कशय:-[अ० ] सूसमार । गोह । गरम । थोड़ागरम । ईषदुष्ण । कोष्ण | श्रम० । कशयून-[ यू ] कसूस। संज्ञा पुं० [सं० को०] उष्णता । गरमी । कशरक-[फा०] महोखा पक्षी । अकअन । थोड़ी गर्मी। कशर-[अ०] खुश्क रोटी । सूखी रोटी। कश-[ ? ] कुशा । दर्भ। क़शरी-[अ० ] मलाई। [१०] एक प्रकार का आहार । कशरी-संज्ञा स्त्री० [सं० कृरारा से मुअ० ] खिचड़ी । संज्ञा पु० [सं० पु.] [स्त्री० कशा ] (१) | | खेचरान्न । कृसरा । चाबुक । कोड़ा । (२) एक क्षुद्र पशु । कशवृक्ष-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] श्रामड़ा। अंबाड़ा । ___ संज्ञा स्त्री० [फा० ] (१) खिंचाव | आकर्षण | कशह-अ० । पार्श्वशूल । दर्द पहलू । पसली का (२) दम । फूंक। दर्द । पसवाड़े का दर्द। कशक-दे० "कश्क"। . कशा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (1) कोड़ा। कशकक-दे० "कश्कक"। चाबुक । हे च०। (२) मांसरोहणी। भा० कशकशक कुरु-[ मल• ] पोस्ते का दाना। ख़शा- पू० १ भ० गु० व०। खाश । कशा-[अ०] छाल | कशकशकरप्प-[ मल.] अफीम । अहिफेन । क(ति)शार-बगदाद]Pranusmabalid,Liकशकशच-चेटि-[ मल० ] पोस्ते का पौधा । कोकनार, nn. हब्बुल मह लब की छाल । (२)दिक । पोस्ता । | कशाह-अ.] लकड़ बग्घा । चर्ख । कशकशत्तोल-[मल.] पोस्ते का डोड़ा। पोस्ते का कशाहल-[फा०] अरहर । शाखल । कशिंग-संज्ञा पु. [ देश० ] भारंगी । भागी। कशकशप पशा-[ मल० ] अपीम । अहिफेन । कशिोरोन-[ लेपचा ] बंजकतूस ( नेपा०). कशकबा, कशकाब-[फा०] श्राश जौ वा प्राश कशिक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] तकुल । साँप को मारने हलीम। वाला नेवला। कशकु-संज्ञा पुं० [सं० पुं० ] गवेधुक । कसी। कशकोल-संज्ञा पुं० [फा०]. कपाल ।,, खप्पर । कशिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] चर्मकषा । ___ सातला । च० द० शू० चि० लौहामृत । दे० कजकोल | कशप्पु वेट्टपाल-रिशि-[ ता० ] कडु श्रा इन्द्र जौ । | कशिनी वित्तुलु-[ ते०] ) .. ६ कासनी। कशप्पु वदामकोहै- ता० ] कहा बादाम । कटु | कशिनीविरै-[ ना०] ) वाताद। कशिपु-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (1) भात । भक । कशप्पू- ते० ] कडपा बादाम । (२) वस्त्र । कपड़ा । रा०नि० व०२०। (३) कशफ़-[फा०] कछुआ। अन्न । अनाज । (४) आहार। . कशा-[अ० ](१)त्वचाका खुरदुरापन । त्वक्कार्कश्य, | कशिय:-[१०] सूसमार । गोह । (२) त्वचा का मैला कुचैला होना। शिया-[ लंका ] तज | सलीना । कशफ़-[अ०] एक प्रकार का कुदुर वा लोबान । कशियून-[ सिरि• ] कसूस । ___ लोबान के पेड़ की छाल जो उसके निर्यास (धूप) कशिश-संज्ञा पु० [फा०] आकर्षण । खिंचाव । से आच्छादित होती है। किशार कुदुर। कशीआ-[१०] खब्बाज़ी । कशफिय्य:-[अ.] एक प्रकार का ज्वर जिसमें शरीर काका-[वै० स्त्री.] प्रसूता नेकुली। व्याई हुई के छेद बंद हो जाते हैं और पसीना नहीं पाता। . नेबली । Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४५ कशीरास कश्गेम, करंजेम कशोरास-[.] तेखिनी मक्खी ।ज़रारीह। कशेरु-संज्ञा पुं० [सं० स्त्री.] कसेरू । तृणकंद कशोरु-[फा०] Cotoneaster num. विशेष । mularia, Fiscls. एक पेड़ जिससे शीर- कशोधा-[ मन० ] अञ्जनी । लोखंडी।। खिस्त निकलता है । स्याह चोव । कश्श-[अ०] गिरिगिट । कृकलास । कशीश-संज्ञा पु. [ देश द.] हीरा कसीस। कश्ः -[अ] कसूस । कसीस। कश्रीर:-[अ.] किसी किसो ज्वर में होनेवाली कशू-[फा०] कछुपा। - वह दशा जिसमें बुखार चढ़ने से रोंगटे खड़े हो कशूर-[फा०] खटमीठा अंगूर । जाते हैं । रोमहर्षण । शैत्य । झुरझुरी। फुरेरी कशूर-[१०] वह दवा जो चेहरे पर, उसका रंग | कुराशः।रीगर Rigor, चिल chill [अ॰] । निखारने के लिये मली जाये। | कश्क-संज्ञा पुं० [अ०] (१) उबाले हुए जौ का कशूस-संज्ञा पुं० [अ० कशूस.] (1) आकाश- पानी । पाश । प्राश जौ । (२) सूखा दही घेल । (२) तुम कसूस । प्राकाशबेल का जिसे कहत भी कहते हैं। (२)हरोसा । (४) बीज। वह जौ जिसमें से कूट फटक कर भूसी साफ़ करदी कशूस. रूमी-[.] अफ्रसंतीन । गई हो । निस्तुषीकृत यव । जौ मुकरशर । जौ कशूसा-संज्ञा पुं॰ [.] ३० "कशूस"। बिरहना। कशूके कलि-ता०] लाल पटुवा । लाल अंबाड़ी। संज्ञा पुं॰ [फा०] (१) महोखा पनी । कशेरु, कशेरुक, कशेरू-संज्ञा पुं॰ [सं० पु. क्री.] अक्रमक । (२) पनीर । भक्ति । पीठ को लंबी हड्डी । रीद । पृष्ठ कोकस । मेरु- | कश्कक-[फा०] प्राश हलीम। . दंड। मोहरा । (Vertelers ) हला०1 | कश्कब,कश्काब-[फा०]माश जौ वा प्राश हलीम । __संज्ञा पुं॰ [सं० की.] कसेरू । २० मा०। कश्कीन,कश्कीन:-[फा०] जौ की रोटी । जौ की दे० "कसेरू"। मिली हुई रोटी। कशेरु स अक्षका-संज्ञा स्रो० [सं०] एक पेशी कश्कुश्शाई र-[३०] उबाले हुए जव का पामी । विशेष। ___कश्काब । प्राश जौ। जो पाश । माउश्शईर । कशेरुक, कशेरूक-संज्ञा पुं॰ [सं० श्री.] कशेरु । arent arex Barley Water ( 90 ).. कसेरू । प० मु०। कश्गेम,कश्जेम-[ लेपचा ] गुरुव । पाखी । कुची । कशेरुका कशेरूका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] () आश जौ और कश्क जौ का अर्थान्तर- . पीठ की लंबी हही। पृष्ठवंश । रोड़। रत्ना। . यदि भूसी दूर किये हुये जौ को जल में पका वैःनिघ।(२)कसेरू। अमः। कर बिना मले छान लें, जिसमें केवल उसका कशेरुका कंटक-संज्ञा पुं॰ [सं०] रीढ़ की हड्डी का | सूचमांश ही पाने पावे, स्थूल भाग नहीं, तो उसे मोकीला प्रवर्द्धन। आश जौ कहते हैं । यदि कथनोपरांत जौ को मल(Spine of vertelera) प्र. शा० । घोटकर गाढ़ा पानीलें, तो उसे करकुश्शाई.र, करक कशेरुका कीट-संज्ञा पुं॰ [सं०] कीट विशेष ।। शईर वा कश्क जो कहेंगे । इसके निर्माण-क्रमादि कशेरुका प्रीवा-संज्ञा स्त्री० [सं०] रीढ़ की अस्थि के लिए देखिए "माउश्शाईर"। की गरदन । प्र. शा०। प्रकृति-रूक्षता लिये हुये शीतल । ... कशेरुका पृष्ठ-संज्ञा पुं० [सं०] रीढ़ की अस्थि की गुणधर्म तथा प्रयोग-यह प्राश जो की पीठ। प्र० शा०। कशेरुका पाश्चात्य प्रवद्धन-सं० पुं० [सं० को०] अपेक्षा अधिक सांद्र है, पैत्तिक प्रतिसार के लिए रीढ की हड़ी का एक उभार ।। गुणकारी और उष्ण प्रकृति वालों तथा तपेदिक कशेरुपत्रक-संज्ञा पुं० [सं०] कशेरुफलक । (La के रोगियों के लिए प्रत्युत्तम पथ्य है। यह शक्ति mina of Vertelerse.) की रक्षा करता, शीघ्र उत्तम रक उत्पा करता ७४ का Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४६ कश्मीरीनाथ .. और दुग्ध एवं मूत्र की वृद्धि करता है। शीतल कश्नीन-[फा० ) मटर। प्रकृति वालों को वीन करमस, तुरुम करप्स वा कश्नू-मा०] खली । खल । कंजारः । सौंफ के बिना इसका उपयोग वर्जित है। कशा-०(१)किसी चीज़ परसे पर्दा उठाना । (ख० प्र०) खोज देना । (२) किशार कुदुर । कश्ज-प.] छाछ। कश्फ तिब्बी-[भ] रोग शाम के लिये रोगी की कश्त-[१०] कोई वस्तु किसी अन्य वस्तु पर से वैद्यकीय परीक्षा । . उठा लेना । उतार लेना। नग्न कर देना । बे पर्द Medical inspectiva ... कर देना। कश्म-[भ० ] ह्दः । कस्त, कश्व-[१] कुर । कुष्ठ । कुस्त । करत:-[फा०] (1) सूखे मेवे । (२) उस्तो उसो कश्मल-संज्ञा पुं० [सं० क्री०] () मोह । मूर्छा । बेहोशी । प्रम। (२) पाप । मष । नहस । शब्दर० । (३) अंबरबारीस । दारहलाद । कश्तक-[फा०] गुबरैला। __ संज्ञा पुं॰ [शिमला। पं०] अंबरवारीस । करत( कुश्त)-[फा० ] कुट । कुष्ठ। कुस्त । दारुहलदी । (२)जिंगनी। कश्ती-संज्ञा स्त्री० [फा०] नौका । नाव । ___संज्ञा स्त्री० [ देश० हिमालय ] चिलगोजा । कश्मलु-[ देश० ५० ] तूतमलंगा । तुम्म मलंगा । कुश्तुलऐ.न-अ.] आँख पर से नाख्तूना उतारना । | - तुम बालंगो। | कश्मीर-संज्ञा पुं॰ [सं० पु. (१) एक देश । (२) कश्तू, कश्तूर-[फा०] खटमीठा अंगूर । कुट । कुष्ठ । कश्तक-[फा०] कछुना। कश्मीरज, कश्मीरजन्म-संज्ञा पु० [सं०जी० पु.] कस्तूरा मृग-संज्ञा पुं॰ [ देश० गढ़वाल ] कस्तुरा | केशर । कुंकुम । अ० टी० रा०। मृग। करमीरी-वि० [हिं० कश्मीर+ई ( प्रत्य. ] कश्तूरी-संज्ञा स्त्री० [ देश० ] कस्तुरी । कश्मीर का । कश्मीर देश में उत्पन। कश्तः -[फा०] (1) करनज । (२) इस्पस्त । संज्ञा स्त्री. एक प्रकार की चटनी । विधिरतवा। प्रादी को छीलकर उसके छोटे छोटे टुकड़े कर करन सिरि० ] कड़ । तुम। डाले । पुनः उसमें मिर्च, कंकोल, केसर, इलाकरनक-[फा०] मटर। यची, जावित्री, सौंफ और जीरा-इनको चूर्ण कर कश्न खुर्मा-[फा०] खुर्मा की कली । तल्क। मिलावें। अंत में इसमें लवण, सिरका और कातज-अ.] कमात का एक भेद जो रेतीली भूमि | शर्करा मिलावें । बस चटनी तैयार है। - में उगता है। संज्ञा पुं॰ [हिं. कश्मीर ] कश्मीर देश का कश्नी-[सिरि०] कड़ । कुर्तुम । कुसुम का बीज । घोड़ा। क्रश्नीज-[फा० करनीज़ से मुश्र ] धनिया। कश्मीरी पत्ती-संज्ञा स्त्री० [हिं० करमीरो+पत्ती] कश्नीज, कश्नीज, किश्नीज-[ फ्रा० ] धनिया । एक प्रकार की पत्ती जो पाँच छः अंगुल लंबी और धान्यक। लगभग १॥ अंगुल चौड़ी पिलाई लिये होती है कश्नीज़ कोही-[फा०] तुरुम मुखल्लसः । और दर्द शिर की सुधनियों में पड़ती है। जैसेकश्नीज दश्ती-[फा०] (1) जंगली धनिया । कायफल, कश्मीरी पत्ती, नकछिकनी, कनेर की (२) बिल्लीलोटन का एक छोटा भेद । (३) पत्ती, कपूर, इलायची छोटी सबको बराबर लेकर पाहतरा (पित्तपापड़ा) का एक भेद । (४) कूट कपड़ छान कर बारीक बुकनी बनाएँ। इसका आधासीसी और प्रतिश्यायजनित, सिर के दर्द करनीज़ मुत्आरफी-[फा०] Coriandrum आदि में नस्य देने से लाभ होता है। Sativum | कश्मीरी नाख-संज्ञा पुं॰ [देश॰] बिही का फल । Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' कश्मीरी बनफ़शः कश्मीरी बनकशः- संज्ञा पुं० [फा०] एक प्रकार का बनक्रशा जो काश्मीर से आता है। कश्मूरीन - [ रू० कसूस । कश्य-संज्ञा स्त्री० [सं० नी० ] ( १ ) शराब । मदिरा । कश्री-संज्ञा स्त्री० सं० कुरारा से मुझ० ] खिचड़ी। खेचरान । 6 क्रश्री-संज्ञा स्त्री० [ भु० ] मलाई । क्लश्रुर्रास - [अ०] रूसी । सिर की भूखी । सिर की बा । नुखालतुर्रास । इत्रिय्यः । स्कर्फ Scurf हैंड्रफ Dandruff, (ग्रं०)। कश्यप - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( १ ) एक प्रकार की मछली । विश्वः । ( २ ) एक प्रकार का मृग । मे० । (३) कबुआ | कच्छप । ( ४ ) वैदिक कालीन ऋषि का नाम । रूम्मान - [अ० अनार के पेड़ और उसकी जड़ का छाल | पोस्त अनार । दाड़िमत्वक् । दे० "अनार" । क़श्रुल् अक़ाक्रिया - [ ० ] बबूल की छाल । कीकर की छाल | दे० " बबूल" । एक वि० [सं० त्रि० ] ( १ ) काले दाँतवाला । श्रुल् अं. बर - [भ] (Cascarillae Cortex) (२) श्यावदंत । ( ३ ) मद्यप । शराबी । संज्ञा [सं० पु० ] ( १ ) घोड़ा । अश्व । मे० यद्विकं । (२) कथार्ह अश्व | हे० च० । घोड़े का धड़ । श्रश्व मध्य भाग । वै० नि० । कश्य:- संज्ञा पु ं० [ अ कश्या लेटा - संज्ञा पु ं० चकवड़ । पवाँड़ । • २३४७ कशिंग अ मुक़द्दस - [ श्र० ] दे० "कैसकारा सैगरेडा" । क्रश्र हैमेमैलस - [अ०] ( Hamamelidis Cortex) Witch-hazel Bark a हैमेमैलिस । दे० "हमेमैलीडिंस कार्टेक्स " । ] सूसमार । गोह । [ले० Cassia alata.] कश्यून - [ सिरि० ] कसूस । क्रम - [अ०] छिलका उतारना । श्रीजना | Scrape Scale I क - [ [अ०] सूखी रोटी । नभ अंजस्तूरा - [...] Cuspariae Cortex Angustura bark अगस्तूरा की छात्र | पोस्त अंगस्तुरा । दे० ""अंगस्तुरा" घा "कस्पेरिया " । क़न उम्मुग़ीलाँ- [ अ० ] बबूल की छाल । कीकर की छाल । वव्रुर स्वक् । Acaciae Cortex कक - [ फ्रा० ] महोखा पक्षी । चक्रप्रन । कोंडू रैंगू - ] कोरेंगू की छाल । पोस्त कोंडूरेंगू | Condurango Cortex कोतू -[ ] कोटू की छाल । पोस्त को । Coto Cortex काफ्र तसनुज - [अ०] ( Viburnum opu lus) Cramp bark यूरोपीय श्रीपर्ण । नर्वक्ष की छाल । बर्क न अस्वद बर्री - [ मिश्री ] ( Cascara Sagrada ) Sacred Bark पवित्र स्वक् । चिट्टम की छाल । क्रश्र मुकद्दस । दे० "कैसकारा सैगरेडा” | Cascarilla bork कैसकरिल्ला की छाल कश्रुल करासियाउं वर्जीनी - [ ० ] ( Pruni virginianae Cortex ) Virginian Prune bark जंगली भालू बालू की छाल । पोस्त आलूबालुए वर्जि... नी । पोस्त भालूबालुए राई | कल मायून -[ ० ] ( Mezerei oort ex ) 'Mezereon bark मायूँन की छाल । क्रश्र माज़यून । पोस्त अश्त्री | दे० "माङ्गरियून" । कश्रुल्लैम् [अ०] ( Limonis Cortex ) Lemon peel नीबू का छिलका । जंबीर त्वक् । पोस्ते लेमू । वि० दे० " नीबू" । har बूनिय: - [भ० ] (Quillaiae Cortex) Quillaia bark साबुनी बूटी की छाल । उश्नान अमरोकी । शासूल अमरीकी । दे० " किल्ला" ऋश्वी - [१] अगर | कश्शिंग-संज्ञा पु ं० [देश० ] एक छोटा वृच वा ॐ ची झाड़ी जिसके पत्र विषमतया कंगूराकार (Pinnate ) होते हैं। इसमें कक्षीय समृ त पुष्प गुच्छ लगते हैं। फल लाल मटराकार होते हैं और खाये जाते हैं। ग्रह हिमालय की तराई Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करह. और दक्षिण चीन में होता है। इसकी लकड़ी और छाल काम में श्राती है । ( Picrasma quassioides, Benn . ) - फा० इ० १ २३४८ भ० पृ० २८ प्र० । कश्ह - [ अ० ] कोख | तिहीगाह | कूल्हा | ख़ासिरः । कष-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] ( १ ) कसौटी । ( पत्थर ) कष्टिप्रस्तर । कषपट्टिका | कष्टी । पर्या० - शान, निकस (सं० ) । (२) सान। ( ३ ) परीक्षा । जाँच । कषण - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] ( 1 ) शलाट | दो हजार पल का मान । ( २ ) कसौटी । संज्ञा पु ं० [सं० की ० ] ( १ ) खुजलाना | कंडूयन् । (२) कसोटी पर घिसना । कसोटी पर चढ़ाना | कसना | वि० [सं० त्रि० ] अपक्क | कच्चा | श० च० । कष पाषाण - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] पारस पत्थर | स्पर्शमणि । कषा - संज्ञा पुं० [सं० स्त्री० ] चाबुक । दे० "कशा" । कषाय - वि० [सं० त्रि० ] ( १ ) कषाय स्वाइवाला जिसमें कसाव हो । जिसके खाने से जीभ में एक प्रकार की ऐंठन या संकोच मालूम हो । कसैला । बौकठ | नोट- कषाय छः रसों में से एक है । कसैली. वस्तुओं के जैसे --आँवला, हड़, बहेड़ा, सुपारी आदि । वस्तुओं के उबालने से प्रायः काला रंग निकलता है । (२) सुगंधित । खुशबूदार । सुगंध । त्रिका० । ( ३ ) रंगा हुआ । रंजित । ( ४ ) गेरू के रंग का । गैरिक । ( ५ ) लाल । लोहित । संज्ञा पु ं॰ [सं॰ पु ं० ] ( १ ) कैथ का वृक्ष । ( २ ) असन का वृक्ष । महासर्ज । चै० निघ० । (३) बाइस प्रकार के मण्डली सर्पों में से एक । सु० कल्प० ४ ० । ( ४ ) सोनापाठा का पेड़ । श्योनाक वृक्ष । धरणिः । (५) धव का पेड़ । • बड़हर । रा० नि० व० ६ । (७) गोंद । वृक्ष का निर्यास । ( ८ ) चंदन आदि लेप विलेपन । ( 8 ) अंगराग । उबटन । मे० । (१०) लाल धमासा । रक्त धमासा | जवासा । कटालु । -कुनाशक । कटुरा । नि० शि० । कषाय (११) वस्तुओं को जल में कथित कर तैयार किया हुआ काथ मात्र । विधि यह है कि द्रव्य को कूटकर एक पल लेकर उसमें सोलह गुना जल डालकर औटाते है। जब चौथाई शेष रह जाता है, तब उतार कर छान लेते हैं। विधान यह है कि इसे मंदी आँच से पकाते हैं और गुनगुना पीते । भावप्रकाश प्रभृति में ऐसा ही लिखा है । यथा- 'पादशिष्टः कषायः साद् यः षोडशगुगाम्भसा । भा० । षाडशगुणाम्भसा पकः चतुर्भागावशिष्ट काथः कषाय उच्यते ।” २० मा० । परन्तु शार्ङ्गधर ( १ ० ) अनुसार अष्टमावशिष्ट रहा हुआ 'कषाय' कहलाता है । पर्या०- ० श्रुत, काथ, कषाय, निर्यूह | ( Decoction or infusion ) स्वरस, कल्क, काथादि कषाय के भेद हैं। स्वरस, कल्क, क्वाथ, शीत वा हिम और फाण्ट भेद से कषाय पाँच प्रकार का होता है। इनमें पहले पहले दूसरे दूसरे से भारी तथा दूसरे दूसरे पहले पहले से हलके होते हैं । अर्थात् स्वरस से कल्क, कल्क से काथ, काथ से शीत तथा शीत से फाट हलके होते हैं और फाण्ट से शीत, शीत से काथ, काथ से कल्क और कल्क से स्वरस भारी होते हैं । यथा - " कषायः पचविधाः स्वरस कल्क काथ हिम फाण्ट भेदेन यथोत्तरं लघवश्च भवन्ति ।" चरक के मतानुसार भी "कषायस्य कल्पनं पचविधम्--स्वरसकल्क श्रुत फाण्ट भेदेन एषा तथा पूर्व बलाधिक्यम् । च० सू० ४ अ० । सुश्रुत में कषायपाक की विधि इस प्रकार लिखी है- 'तत्र केचिदाहुरु त्वक्पत्र मूलादीनां भागस्तचतुगुण जलमावाप्य चतुर्भागावशेषं निः काण्यापहरेत् । अथवा तत्रोदक द्रोणे त्वक्पत्रमूलादीनां तुलामावाप्य चतुर्भागावशिष्टं निः काध्यापहरेत् । सु० च० ३१ प्र० । Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषायकृत् २३४६ कषाया संज्ञा पु ं० [सं० पु०, क्री० ] ( १ ) कषाय रसवाली चीज़ | कसेली वस्तु । ( २ ) छः रसों में से एक । कसैला रस । रा० नि० व० २० । पर्या०[० - तुबर, कबर, तूबर (सं) बशत्रु, बशी, हाबिस, काबिज़ - श्रु० । ( Astring ent.) कषाय नित्य - वि० [सं० त्रि | जो निरंतर परिमाण में कषैले रस का सेवन करे। हमेशा बहुत मात्रा में कसैले रस का सेवन करनेवाला । निरंतर कषाय रस सेवी । च० । नोट - - यह भूमि और अग्नि गुण बहुल, शीतल, भारी, रूत, स्तम्भक, शमनकर्त्ता, ग्राही, मुख को 'शुद्ध करनेवाला तथा जिह्वास्तंभादिकारक और कटुविपाकी भी होता है। इसका विपाक वातकारक, कफपित्तनाशक, दीपन, पाचन, शोफ रोधक और शिथिलताजनक है तथा अधिक सेवन करने से रोग उत्पन्न करता है । जो मुख को पाण्डु शुद्ध करे, जीभ को स्तंभित करे, कंठ को अवरुद्ध करे तथा हृदय को कर्षित एवं पीड़ित करे उसे 'कपाय' कहते हैं । सु० सू० ४२ श्र० । यह शोषण कर्त्ता, स्तंभक, व्रणपाक की पीड़ा को दूर करता तथा कफ शोणित श्रोर पित्त का नाश करता, रूखा, शीतल और भारी है। राज० । इसके सेवन से जीभ जड़ और स्तंभित हो जाती है । ० । इस रस के अधिक सेवन करने से शूल, अफारा, हृत्पीड़ा। और श्राप-ये रोग लग जाते हैं । भा० । कषायकृत् - संज्ञा पु ं० [सं० पुं०] लाल लोध । रक्तलोध । जटा० । कषायजल - संज्ञा पुं० [सं० की ० ] गूलर, सिरिस और बरगद की पकाया हुआ पानी । कषायदन्त कषायदशन -संज्ञा पुं० [सं० पु० ] सुश्रुत में अठारह प्रकार के विषैले चूहों में से एक | इसके काटने से नींद श्राती, हृच्छोष होता र कृशता होती है । इसके ज़हर में सिरिस का सार, फल और छाल इनको शहद में मिलाकर चाटने से लाभ होता है । सु० कल्प० ६ श्र० । वाग्भट के अनुसार इस प्रकार के चूहों का वीथ्यं जिस अंग पर गिर जाता है, वहाँ सूजन होती, सहाँध होता और गोल चकत्ते पड़ना इत्यादि लक्षण होते हैं । वा० उ० ३८ ० | वि० दे० "चूहा” | पाकर, पीपल, छाल डालकर कषायपाक -संज्ञा पुं० [सं० पु ं०] क्वाथ करने की विधि | काढ़ा प्रस्तुत करने की प्रणाली । नोट -- काढ़े में जल का परिमाण लिखा नहीं रहने पर गीली वस्तु में ठगुना श्रोर सूखी वस्तु में सोलह गुना जल मिलाकर काढ़ा करते हैं श्रोर चतुर्थांश जल शेष रहने पर उसे उतारते हैं । कषायफल - संज्ञा पु ं० [सं० की ० ] सुपारी । पुरंगी फल | पूग फल | वै० निघ० । कषाययात्रनाल - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] एक प्रकार का मक्का जो कसैला होता है । तुवरयावनालधान्य । रा० नि० व० १६ । कषाययोनि-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कषायाधि करण | सा० । वे पाँच हैं--मधुर कषाय; अम्लकषाय, कटुकषाय, तित्रकषाय और कषायकषाय । च० सू० ४ श्र० । कषायवर्ग-सं० पुं० [सं० पु० ] वैद्यक में कसैली षधियों का एक गए जिसमें के अनुसार सुश्रुत संक्षेप में त्रिफला, सलई ( शल्लकी ), जामुन, श्राम, मौलसिरी और तेंदू के फल, न्यग्रोधादि (वट ), श्रम्बष्ठादि, प्रियंगु श्रादि, लोधादि, शालसारादि, निर्मली शाक, पाषाणभेदक वनस्पति श्रोर फल, कटसरैया ( कुरवक) कचनार, जीवन्ती, चिल्ली, पालाक्य; सुनिषण्ण आदि, नीवारकादि, एवं मुद्रादि सम्मिलित हैं । सु० सू० ४२ अ० । कषायवासिक - संज्ञा पुं० [सं० पुं०] सुश्रुतो क कीट विशेष | सौम्य होने से यह कीट श्लेष्म प्रकोपक है । कषायवृक्ष-संज्ञा पु ं० [सं० पुं० ] वह वृक्ष जिसकी छाल और फल कषैला होता है । बरगद छाँवले श्रादि का पेड़ जिसका फल और छाल कसैली होती है । च० चि० ४ श्र० । कषायस्कन्ध-संज्ञा पुं० [सं० पुं० ] एक प्रकार की श्रास्थापन वस्ति जो प्रियंगु श्रादि कषैली वस्तुओं से तैयार की जाती है । च० चि०८ ० । |कषाया-संज्ञा स्त्री० [ सं . स्त्री० ] ( १ ) रक्त दुरालभा | लाल धमास । ( २ ) छोटा धमासा | Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषायी २३५० कस रज। शुद्र दुरालभा । रा०नि० व० ४ । (३) प्रामका | कष्टनाशक-संज्ञा पु. [सं०] भूमिपल्ली। .. अाम्रातक । (४) खजूर का पेड़ । खजूरी वृक्ष । | कष्टरज-संज्ञा पु० [सं०] कृच्छरज । कष्ट से वै०नि०। (५) पटुमा । जूट । कौशिकामी। ___ रजःस्राव होना । पीडायुक्त मासिकस्राव होना। के. दे. नि। (६) निशोथ । गण० नि। कष्टरज नाशक-वि० [सं० वि०] जिसके सेवन से नि०शि०। ___ कृच्छ रज का नाश हो। सुखपूर्वक मासिकस्राव कषायो-संज्ञा पुं॰ [सं० पु. कषायिन् ] (१) राल करनेवाली औषधि । का पेड़ । सर्जवृक्ष । (२) शाल का पेड़ । साखू कष्टरजःव्यथा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] कृच्छ रज रा.नि.व. जटा०(३) खजूर का पेड़। जनित पीड़ा। खजूरी वृक्ष । (५) लचुक का पेड़। वड़हर । कष्टरजःस्राव-संज्ञा पु. [ सं०] कृच्छ रज । कष्टरा. नि. व०११। (५) सागौन का पेड़। शाकक्ष । (६) छोटा कटहल | 'जुद्रपनस । वै० | कष्टरजःस्र ति-संज्ञा स्त्री० [सं०1 कष्टरजःस्राव । निघ० । (७) तुद्र दुरालभा । छोटा धमासा । कष्टरा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] दुरालभा। कच्छुरा नि०शि०। नि०शि०। कषिका-संज्ञा स्त्री० [सं. स्त्री०] पक्षिजाति । कोई कष्टसाध्य-वि० [सं०नि०1(१)जिसका साधन चिड़िया। उणा। वा करना कठिन हो। मुश्किल से होनेवाला । कषीका-३० "कषिका"। जैसे-कष्टसाध्य कार्य। (२) उपचार द्वारा कषरुका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (1) कशेरुका । जिसका साधन कठिन हो। मुश्किल से ठीक पृष्ठास्थि । . टी. रा० । (२) कसेरू । होनेवाला (रोग)। जो कठिनता से अच्छा हो । कशेरू। जैसे-कष्टसाध्य रोग। ककलांगी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] गोराटिका । कष्टस्थान-संज्ञा पुं॰ [सं० की.] वह जगह जहां - सारिका । मैना । पीड़ा हो । पीड़ा जनक स्थान । हारा। कष्कष- वै. पु.] एक प्रकार का ज़हरीला कीड़ा । | कष्टहीन-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] बकुची । सोमविषैला कृमि बिशेष। राजी। "येवाषास: कष्कषासएजत्का:शिवबित्नुका । कष्टार्तव-संज्ञा पु० [सं० पु.] कृच्छ,रज । रजःदृष्टश्च हन्यतां कृमिरुतादृष्टश्चहन्यताम् ।। कृच्छता। (अथर्ववेद ५।२३।७) | कष्टि-संज्ञा स्त्री० सं० स्त्री०] (१) पीड़ा। वै. कष्ट-संज्ञा पु० [सं० की. (1) पीड़ा । केश। निघ। (२) कसौटी । (पत्थर) कषपट्टिका । वेदना । तकलीफ । व्यथा । दुःख । दर्द । के । कसने का पत्थर । स्पर्शमणि । कष्टी-वि० स्त्री० [सं० कष्ट ] प्रसव वेदना से पीड़ित । वि० [सं० त्रि. ] (1) कष्टसाध्य । (स्त्री.)। मुश्किल । कृच्छ। कष्ठीर-संज्ञा पुं॰ [सं० क्री० ] राँगा नामक धातु । कष्टकर, कष्टकारक-वि० [सं०नि०] जो तकलीफ रंग । वंग। रत्ना। दे। जिससे क्रेश हो। पीड़ा देनेवाली। तकलीफ संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] कसौटी । सोना चाँदी देह । कष्टप्रद । पीड़ाकर । त्रिका०। कसने का पत्थर । कसनी। कष्टकल्पना-संज्ञा स्त्री० [सं०] बहुत खींच खाँच की | कस-संज्ञा पु. [ सं० कष] परीक्षा । कसौटी। और कठिनता से ठीक घटनेवालो शक्ति। विचारों जाँच । का घुमाव फिराव। __ संज्ञा पुं० [सं० कषीय, हिं० कसाव ] (१) कष्टगंधिनी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] अश्वगंधा । कसाव' का संक्षिप्त रूप । (२) निकाला हुमा असगंध। अर्क। (३) सार । तत्व Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कसंगु . २३५१ कसचुज्जरीरः - [राजपु० ] खस । उशीर ।। कसनस्पा-[सं०? ' एक प्रकार का शीशम । कसंगु-[मदरास] Phoenix farinifera, कसना-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] एक प्रकार का जहRoxb. पलवत। रीला मकड़ा । एक प्रकार का कृच्छ, साध्य क्स अर्तामा अर्गला-[सिरि. ] बख्नुरमरियम् । लूता। कसई-संज्ञा स्त्री० दे. "कसी' वा 'केसई"। कसनोत्पाटन-संज्ञा पुं० [सं० पु.] अडूसे का ५. संज्ञा स्त्री० [ देश० मरा०] बाँस । वंश। पौधा जो खाँसी को निमूल कर देता है । वासक । - संज्ञा स्त्री० [ देश० मरा०, बम्ब० ] जंगली श० च। - ज्वार । रानमकाई [मरा.) Coix Lacryma, | कसपत-संज्ञा पुं० [ देश०] (1) काले रंग का Linn. कूटू । काला काफर । (२) कूटू का पौधा । कसई-च-वीज-मरा० ] गरेभा । जंगली ज्वार। | कसरिया छाल-सज्ञा स्त्री० [अं. कस्पेरिया+हिं. छाल ] अंगस्तूरा की छाल । कसई वीज-[बम्ब० ] जंगली ज्वार । रान मकाई । कसक-संज्ञा स्त्री० [सं० कष्=आघात, चोट ] वह कसत्त-संज्ञा पुं० [ देश० ६०] मोगबीरे का पत्ता। पीड़ा जो किसी चोट के कारण उसके अच्छे हो कसब-सज्ञा पुं० [अ०][ वि० कसवी ] (1) जाने पर भी रह-रह कर उठे। मीठा मीठा दर्द । परिश्रम । मेहनत पेशा। साल । टीस। (२)[संज्ञा स्त्री०कसबीछिनाला व्यभिचार। - संज्ञा पुं॰ [फा० ](१) भूना हुआ गोश्त। | कसब-अ.] (१) नली। नालीदार हही । कलिया । (२) अनीक। जोनदार हड्डी। (२) साँस की नली। श्वासकसकसी-[ कना, को०] खसखस । पोस्ते का | नलिका । वायु प्रणाली । (३) बाँस । नै। दाना। कसव:-[अ० (१) धास्वर्थ नली। नाली। - कसका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० , कसौंदी । कासमही | छूछी । प्रणाली । (२) गवच्छेद शास्त्र में हवा निघ०२ भ०.कुलस्थायघृत । . को नाली । वायु प्रणाली । नरनरः । कसकी-[पं०] खेटी। शगली। कसब फरा-[१०] एक प्रकार का पौधा । कसकुट-संज्ञा पुं॰ [हिं० काँस+कुट-टुकड़ा] Bell. | कसबक-[१०] शंखों (हलजूनात ) का एक भेद । metal एक मिश्रित-धातु जो ताँवे और जस्ते के एक प्रकार का सीप । घरापर भाग से मिलकर बनाई जाती है। भरत । कसब फारसी-[१०] एक प्रकार का बाँस जिससे काँसा । कलम बनाते हैं। नरकट । कसकुसरी-[?] Grewia villosa, Willd. कसबरज-[?] मोती। लु० क० । धोहन । इनर्जरयस । तुवनी । कसब शामी-[अ० एक प्रकार का बाँस, इनमें से कसमिनी-[सं० १] वृश्चिकाली । बिछुआ । बरहटा । कोई छोटा, कोई बड़ा और कोई पतला होता है। ई० मे० मे। कसब सकर-[१०] गन्ना।। कसद-[अ० कसद ] खीरा । ख़यार। कसबहे कुबा-अ.] Tibia कसन-संज्ञा पुं॰ [सं. क्ली०] (१) कास रोग। पिंडली की छोटी हड्डी जो उसके भीतर की खाँसी । (२) एक प्रकार की वेदना । फ्रेश । ओर स्थित है। - दुःख । च० द० २० पि.चि० । - अज्मुलकसबत। कसनई-संज्ञा स्त्री० [सं० कृष्ण ] एक चिड़िया जिसके | कसबहे सु.गरा-[अ.] Fibula ने काले, छाती और पीठ गुलाबी और चोंच | पिंडली की छोटी हड्डी जो उसके बाहर की लाल रंग की होती है। __ ओर स्थित है । अंज.मुश्शजि य्यः शजि य्यः । कसनमईन-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कासमई का | कसबुज्जरीरः, कसबुज ज़रीर:-[अ०। (१) पौधा । कसौंजा । वै० निघ। चिरायता । भूनिम्ब । कालमेघ । फलफनाथ। . Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ hiबुजरीरहे हिंदी कसबुज्जरीरहे हिंदी - [ श्र० ] किरात तिन । भूनिम्ब । चिरायता । ( Androgratlis _pnidulta) कसबुज्जेब-[ अ० ] ( १ ) एक प्रकार का छोहारा | (२) एक प्रकार की घास जिसमें थोड़ी सी मिठास होती है । ( ३ ) किसी किसी के मत से एक प्रकार के काँस को जड़ है, जो नदी के समीप उत्पन्न होता है । कमबुस्कर कसबुस्सुकर - [अ०] ] गन्ना । ईख । कुसुबेसकर २३५२ कसब वा - [ श्र० ] चिरायता । कुसम -संज्ञा पु ं० [अ० क्रस म] [स्त्री० काम ] नर लकड़बग्घा । नर चर्ख । संज्ञा स्त्री० [ ० ] शपथ । सौगंध । कसमल - संज्ञा पुं० [सं० कश्मल । देश० शिमला ] दारु हलदी । ] नेवला | रासू | कसयः - [ कसया - [ रू० यू० ] Cassia तज । कसयूमालस - [ रू०] हशीशतुल् जुजाज । ग्याह श्राबगीनः । कसयूसियूस - [ रू० यू०] तज । सलीना । श्रु० क़सूर ] ( १ ) कमी । कसर संज्ञा स्त्री० 1 न्यूनता | कोताही | त्रुटि । दे० “क़सूर”। (२) नुस | दोष | विकार । संज्ञा पु ं० [देश०] कुसुम वा बर्रे का पौधा । [ फ्रा०, यू० ] जुफ़न । [ सिरि० ] सफ़ेद सोसन । कसूर -[ ० ] ( १ ) गरदन वा गरदन की जड़ । खोपड़ी के ठहरने की जगह । ( २ ) दवा इत्यादि का फोक जो उसे छानने के उपरांत बच रहे । ( ३ वृक्ष की जड़ ( मुख्यतः खजूर की जड़ ) । कसुरः--[ श्रु० ] ( १ ) गरदन की जड़ । ग्रीवामूल | (२) गरदन की जड़ का दर्द । कसर गाजरूनी - [ फ्रा० ] ख ब शामी । दे० “ख़ब” । कसरानी संज्ञा स्त्री० [अ० कलरत ] अधिकता में बहुतायत । ज्यादती । वि० दे० "कस रत" । कसरवा-संज्ञा पुं० [देश० ] "सालपान" नाम का क्षुप । कसराक़ - [ ? ] घोड़ी । कसरानी-संज्ञा स्त्री० कसेरा ? ] घास जो जलीय भूमि में प्रायः नदी के किनारे उगती है । इसके पत्तों से बुनी जाती है। हिंदुस्तान में भूमि में यह आदि छाते हैं । खड़ी होती है। 'मी' कहते हैं । यह इसको के समीप तर जमीन खुरखुरी होती है । यह दो प्रकार की होती है, एक नर, दूसरी मादा । नर का बीज मादा के बीज से बड़ा होता है। यह कृष्ण वर्ण का और गोल होता है । नर की पत्ती मादा की पत्ती से मोटी और खुरदरी होती है । ये पत्ते लंबे लंबे और बारीक होते हैं और उनमें डालियाँ नहीं होतीं । श्रराक़ में इससे रस्सियाँ और घाटा छानने की चलनियाँ भी बनाते हैं। हकीम दीसक़रीदूस ने लिखा है कि इसकी तीन जातियाँ हैं । एक जाति में काले बीज चाते हैं, दूसरी जाति में नहीं । इन दोनों को 'सजूनस' कहते हैं । तीसरी जाति को 'मंजूनूस' कहते हैं । I इस जाति में भी बीज होता है। पहली दोनों जातियों से इसकी पत्तियाँ मोटी अधिक और दोनों जातियों से बलशालिनी होती हैं। किसी किसी के मतानुसार इसकी एक जाति की पत्तियाँ महीन और कड़ी होती हैं और दूसरी जाति की कोमल और मोटी । कसरबुवा --[?] रोग़न हिना । मेंहदी का तेल । कसरत - संज्ञा स्त्री० [ श्रु० ] [वि० कसरती ] व्यायाम | मेहनत । प्रकृष्ट एक प्रकार की और नालाब बोरिया और इससे टट्टियाँ मीलों तक यूनानी में 'इज़ख़िर घास पानी में और जल उगती है। इसकी पत्ती पर्या०[० - अस्ल - श्र० । दूख-फ्रा० । समखमिनः । कौलान- हिं० । नोट -यह बूटी श्रायुर्वेदोक गुन्द्रः या गोंदपटेरा ज्ञात होती है।. - लेखक प्रकृति — इसकी सभी क़िस्में परस्पर विरोधी गुणधर्म युक्र हैं और उनमें शीतल पार्थिवांश का प्रावल्य होता है और उष्ण जलीयांश प्रल्प । Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसरीवी २०५६ कसाबक * दाउद अंताकी के तजकिरा में लिखा है कि यह पत्ती का जो ताज़ी निकली हो, लेप करना द्वितीय कक्षा के प्रथमांश में उष्ण और तृतीय चाहिये । इसकी जड़ की राख करके उपयोग करने कक्षा के अंतिमांश में रूक्ष है। से संपूर्ण अंगों से रक्तस्राव का अवरोध होता है। हानिकर्ता-शिरःशूल और सुबात की व्याधि इससे कंठमाला तथा खाज का भी नाश होता है। उत्पन्न करता है। यह स्मरण रखना चाहिये कि यह घास रदियुल दपन-गुलकंद अस्ली और फलाफली उचित कैफियत है । इसका खाना कल्याण जनक नहीं । मात्रा में। इसके अधिक खाने का परिमाण साढ़े सतरह माशे प्रतिनिधि-एक किस्म दूसरी किस्म को प्रति- है। इतनी मात्रा में खाने से हानि घटित होती निधि है। खून रोकने के लिये जलाया हुआ है । तजकिरे में है कि इतनी मात्रा से मनुष्य मर कागज। जाता है। यदि कदाचित् किसी समय कोई इसे मात्रा-३॥ माशे तक। खाले, सो उसका उपाय यह है कि वह वमन प्रधान कम-वेदनास्थापक, शोथ विलायक, करे, कस्तूरी सूघे, फलाफली भक्षण करे और निद्राजनक और रक्तावरोधक । स्नानागार में प्रवेश करे। नोट-फलाफली एक योगिक माजून का नाम | कसरेकन-[ नेपा० ] कठूमर । डुमुर । है जिसमें फ़िलफ्रिल स्याह ( काली मिर्च ), फ्रिल कसरु-[ नेपा० ] बारचर। फ्रिल सफ़ेद ( श्वेत मरिच ) और दार फ़िलफ्रिज (पिप्पली) ण्ड़ते हैं। कसकनामर-[ कना० ] कुचला । कुपीलु । कसरि-[ वै० पु.] एक प्रकार का साँप । गुणधर्म तथा प्रयोग यह घास दूषित. वाष्पों को मस्तिष्क से नीचे (अथ०१०।१५) उतारती है और नींद लाती है। परन्तु अधिक | कसणील-संज्ञा पुं॰ [सं० वी०] एक प्रकार का सूंघने से यह सिर में बोझ पैदा करती है और | सर्प । अथ सू० ४ाश का० १० । नींद लाती है । कभी इसके बीज संघने से कठिन | कसल-[१०] आलस्य । सुस्ती । काहिली । शिरःशूल उत्पन्न होता है । इसके महीन किस्म के कसवार-संज्ञा पुं॰ [ देश० ] एक प्रकार की ईख । बीजों को १०॥ माशे तक शराब में मिलाकर पीने कसा-[?] शंखपुष्पी। से उदरावष्टंभ होता है; श्राता हुभा खून बंद हो | कसाऽ-[१०] (१) तज। सलीना । (२) जाता है और पेशाब रुक कर आने लगता है। . दारचीनी। मोटी क्रिस्म के बीज भक्षण करने से अधिक नींद कसाउ-[को०] काँस। प्राती है। यहाँ तक कि १७॥माशे तक खा लेने | कसाइ- गु०] Colx Lachrymay Janm. से निद्रा रोग उत्पन्न हो जाता है । इसके लेप से | गवेधुक । गर्गरो धान । संखरु | कसि । सूजन उतरती है; दर्द पाराम होता है; कुनिद्वा, साउन्हिमार-दे० "कि.स्स.ाउल हिमार"। मालीखोलिया और जलंधर को गुणकारी है। कसातूनस, कमातूस- यू.] कड़ । बरें । कुसुम का बीज। अस्ल की उस जाति को जिसकी पत्ती पतली हो, यदि उसे बिछा कर उस पर ऐसे लोगों को क़सादा-[ यू०] सोहागा । टंकण । सुलाएँ जो बहुत स्थूल हो या जिन्हें जलंधर रोग | कसा तीर-संज्ञा पुं० [अ०] मूत्रप्रवर्तनी शलाका । हुआ हो, तो उनके लिये यह लाभकारी है। मोटी पेशाब खोलने की सलाई । कासातीर । कानातीर पत्तीवाली किस्म का फर्श उन लोगों के लिये गुण- केथीटर । Catheter (अं०)। कारी है जिनकी प्रकृति में रौक्ष्य का प्रावल्य हो । क्रसादेस्मा-[यू०] चिरायता। परन्तु रुतीला ( मकड़ी की बड़ी जाति) के काटे | कसाबः-[१०] खराब छुहारा । पर, इस घास की जड़ के पास की उस कोमल कसाबक-[अ० खंजन । ममोला । सकरागन । ७५ फा. Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कस कसाफ़त - संज्ञा स्त्री० [अ० क्रसत ] गाढ़ा होना । सांद्रता । स्थौल्य | कसीफ़ होना । ग़लीज़ होना । I मोटा होना | Inspissation | नसाम - [अ०] लकड़बग्घे की मादा । मादा च । साम - [ श्र० ] भेड़िया । कसामूयस, क़सामूली, क़सामूस - [ यू० ] दार चीनी । [को०] कासा नामक घास । कसाय - [ ? ] बक़लए हुई । कसार - संज्ञा पुं० [सं० कृसर ] चीनी मिला हुआ भुना वा सूजी । पंजीरी । कसर - [ बरब० ] आकुसर नामक बूटी । क्रसारक्क्रूननिन-[यू॰ ] इमर्ला । 1 सार फर्नीन - [ यू०] पिंड खजूर । रुतुब । क़सारवा क़क़न, नसारवाक्क्रूक्कीरून - [ यू०] नागरमोथा । सुश्रुद | क्रसारस, कबारस - [ यू० ] कबर । कसारा - [ सिरि० ] ऊदबल साँ । कसारिका - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कालिक । कोकिल । कालञ्च । दीर्घमूर्च्छा । गृहवासा । विला शयी । कसारी - संज्ञा स्त्री० [देश० ] कराव | खेसारी | सारूस - [ यू०] क्रियूस । नसालावन - [ यू० ] जिफ्त का तेल । कसालू - [ क० ] काँसालू | अरवी । कचू । कसालू, कासालू-संज्ञा पुं० [सं० कासालु । देश० मरा० ] कांसालू | कांस्यालुक । सिमल्ल - [ उड़िया ] कुटशाल्मली । कसाव-संज्ञा पु ं० [सं० कषाय ] कषैलापन | कषाय । 1 नसावत - [ ० ] निर्दयता । बेरहमी | संगदिली । काह - [ ? ] तुम जर्जीर । सह्यमा - [ यू०] हलियून | नागदौन । कसिंदा - [ ते० ] कसौंजा । कसौंदी | कसिंधा - [ ते० ] बड़ा कसौंजा । कसि - [ ? ] गवेधुक । गर्गरी धान | [ बर० ] पालिता मंदार । फरहद । कसिनीवित्तुलु - [ ते० ] कासनी । कसिपु - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] अन्न । जटा० । ३५४ कसी कसिया - संज्ञा स्त्री० [ देश० ] भूरे रंग की एकचिड़िया जो राजपुताने और पंजाब को छोड़ सारे भारतवर्ष में पाई जाती है। यह पीले रंग के अंडे है। क़सिया - [ रू० यू० ] कासिया । केशिया । तज । दे० " दारचीनी" | कसी संज्ञा स्त्री० [सं० कशकु एक तृया जातीय पौधा जिसकी बीजक बालियाँ (Silicious involucre ) दुकानों पर बिकती हैं। यह प्रायः छोटी कौड़ी की रूपाकृति की, गोज़ लंबोत्तरी और एकश्रोर नुकीली होती हैं। इनके बीच सुगमता से छेद हो सकता है । छिलका इनका बहुत कड़ा, सफेद, चिकना और चमकीला होता है । फल के निम्न भाग पर एक चिह्न होता है जहाँपर डंडी लगी होती है और शीर्ष की ओर एक छिद्र होता है। जहां से शुष्कावस्था में भी स्त्री पुष्प का निकला हुआ भाग देखा जा सकता है । हरी दशा में १-२ इञ्च दीर्घ पुपुष्प ( Spike ) उससे निकला हुआ रहता है । फल के भीतर गेहूं की तरह का एक कड़ा बीज होता है । बोई हुई कसी के फलों का छिलका मुलायम होता है। जिसके भीतर सफेद रंग की गिरी होती है जो खाने में मीठी होती है । परंतु वन्य कसी का छिलका इतना कड़ा होता है कि दाँतों से नहीं टूटता इसका बीज औषध के काम आता है। इसकी जड़ में दो-तीन बार डालियाँ निकलती हैं और एक वर्ग गज भूमि में सात से नौ पौधे उगते हैं । इसकी कई जातियाँ हैं पर रंग के भेद से इसके प्रायः दो भेद होते हैं । एक सफ़ेद रंग की, दूसरी मटमैली और श्यामता लिये हुए होती है। यह वर्षाऋतु में उगती है। पर्थ्या॰—गवेडुः ( श्रम० ), गवेधुः, गवेद का ( श्र० टी० ), कुण्ड: (मे०) मुद्रा, गोजिह्वा, गुन्द्रः, गुल्मः (०) गवेधुका, गवेधुः ( च० सू० २० यवागु ) ( भा० ) गवेधुकः, कशकुः गवीधुकः - सं० । कसी, कसई, केसाई, कसेई, गरहेड़ आ, गर्मी, गुलू (गुलु ), गरगरी धान, संख रु, संखलु - हिं० । गुरगुर, गड़गड़, देधान, कुच - बं । गुड़मुड़, रान जोंधला | रान मकाई, कसई में बीज Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंसी - मरा० । कसई बीज -त्रम्ब० । कौंडिला, केस्सी कसेई - हिं० । संकली, संखलू - पं० । कसाई - गु० । कसी, कुलेले, कलिन्सी, कयूइत - श्रासा०, बर० । दमे दाऊद ( दाऊदाश्रु ) दमे अयूब, अयूबाश्रु - अं० । जाब्स टियर्स Jab's tears - अं० । कोइक्स लैक्रिमा Coix lachryma, Linn. -ले० । लामसि डी जाव Larmes de Job. -फ्रां० । लैग्रीमा डी जाव Lagrima de Job – स्पेन, पुर्त्त० | दभिर - राजपु० । गंदुला ( - बुन्देलखण्ड ) । जरगदी, गरुन, - ( संथाल ) । गलवी, गंडुला, कसई, ( म०प्र० ) । उशीरादि तृणवर्ग २३५५ २ ( N. O. Graminece ) उत्पत्ति स्थान - यद्यपि श्राजकल मध्य प्रदेश खसिया एवं नागा पर्वत, सिकम, आसाम और बरमा की जंगली जातियों के अतिरिक्त इसकी खेती कोई नहीं करता । फिर भी यह समस्त भारत के मैदान में और ढालू पहाड़ियों पर पंजाब से लेकर बरमा तक चीन, जापान, मलाया आदि देशों में वन्य अवस्था में मिलती है। वैदिक काल में हिमालय की ढलुई पहाड़ियों पर आर्य लोग भी इसकी खेती करते थे । औषध और खाद्योपयोगी अंश - बीज । रासायनिक संघटन - इसकी १०० भाग गिरी जलांश १३२, एल्ब्युमिनाइड्स १८.७, श्वेतसार १८३, तैल ५.२, तंतु १५, भस्म २१ होता है । ( फा० ई० ३ भ० ) । इसमें ल्यूसीन, टायरोसीन, हिष्टिडीन, लायसीन, श्रर्गिनीन, और कायसीन होते हैं । (इं० ० इ० ) इतिहास - वैदिक काल में यज्ञों में इसके चरु का उपयोग होता था। उस समय इसकी खेती भी होती थी । आरव्य यात्रियों को प्राचीन प्राय द्वारा ही इसके बीजों का परिज्ञान हुआ और उन्होंने इसे दमु दाऊद ( दाऊराश्रु ) धारव्य संज्ञा द्वारा अभिहित किया, जो काल पाकर दमु माकूब (याकूबा ) कहलाये, अरबों द्वारा यह पौधा पश्चिम में पहुँचा और स्पेन और पुर्तगाल में बस गया जहाँ यह Lagrima de Job. कसी नाम से आज भी सुपरिचित है । युरुपीय वनस्पति शास्त्रज्ञों द्वारा निर्धारित 'कोइक्स' संज्ञा इसकी जाति का उपयुक्त परिचायक नहीं है; क्योंकि कोइक्स अफरीका जात एक प्रकार के ताड़ (Palm ) का नाम है जिसका उल्लेख साब फरिस्तुस और शाइनी ने किया है । गुणधर्म तथा प्रयोग "3 विधुः कथितास्त्रियाम् । Sardaar स्वाद्वर्य कृत्कफनाशिनी ॥ ( भा० पू० १ भ० धान्य वर्ग ) कसी — चरपरी, स्वादु, कार्यकर और कफ नाश करनेवाली है । डीमक - इसके कृमिजात बीज खाद्य और वन्योद्भव श्रोषध के काम श्राते हैं और शक्तिप्रद एवं मूत्रकर माने जाते हैं। चीन और मलका में ये खाद्य के काम आते हैं। चीन के श्रातुरायली में रोगियों को इससे उत्तम पथ्य पेय तैयार होता है । (फ्रा० ६० ३ भ० ) इसकी सफ़ेद गिरी के थाटेकी रोटी गरीब लोग खाते । इसे भूनकर सत्तू भी बनाते हैं । छिलका उतर जाने पर इसकी गिरी के टुकड़ों को चावल के साथ मिलाकर भात की तरह उबाल कर खाते हैं। यह खाने में स्वादिष्ट और स्वास्थ्यवक होती है । जापान आदि में इसके मावे से एक प्रकार का मद्य भी बनाया जाता है। इसका बीज श्रौषधि के काम ता है। इसके दानों को गूंथ कर माला बनाई जाती है । नेपाल के थारू इसके बीज को गूंथकर टोकरों की झालर बनाते हैं। (हिं० श० सा० ) यह वनस्पति शीतल, मूत्रजनक और शांति दायक होती है। इसके बीज कड़वे सुगंधित, खाँसी में लाभदायक और शरीर के वजन को कम करनेवाले होते हैं । यूनानी मत से इसके बीज पौष्टिक और मूत्रल होते हैं। कैपबेल के मतानुसार संथाल लोग इसकी जब को पथरी को नष्ट करने के लिये देते हैं। मासिक धर्म की तकलीफ में भी यह उपयोगी मानी जाती है। Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसीकून, कसील २३५६ कसीस कर्नल चोपरा के मतानुसार यह रकशोधक है। कसीवमालस-[रू. ] हशीशतुजुजाज। - इसकी जड़ें मासिकधर्म की अनियमितता को दूर कसीस-संज्ञा पु० [सं० कासीसम् ] लोहे का एक करने के काम में ली जाती है। प्रकार का विकार जो खानों में मिलता है और कसीकून, कसील-[यू०] जंगली सोसन । रासायनतः इसे प्रयोगशालाओं में भी तैयार करते कसीतरोर-[?] सज्जी की कलई। हैं । योग भेद से यह विविध वर्ण और प्राकृति क्रसीद-[१०](1) सूखा मांस । खुश्क गोश्व । का होता है। आयुर्वेद में मुख्यतः इसके ये दो सुखाया हुआ गोश्त ।। भेद लिखे हैं-एक हरा जिसे 'धातुकासीस' क्रसीदस-यू.] काकनज । अथवा हरा वा हीरा कसोस कहते हैं, दूसरा पीला क सोदः, कसूद-[अ० ] मोटा गूदा। मख्ख फर्बः । जिसे 'पांशु' वा 'पुष्प कासीस' कहते हैं। कसीदा-[?] काला तज । स्याह सलीला । हकीमों ने ज़ाज का कसीस और शिव का कसीफ-[अ० कसीफ़ ] सांद्र । गाढ़ा। ग़लीज़ । घना। अकिल । भद्दा । गेंदला | Dense फिटकिरी अर्थ किया है और यह सभी लोग लतीफ का उलटा। जानते हैं कि उन दोनों पदार्थ एक दूसरे से सर्वथा कसीर-[१० कसीर ] (१) कोताह । छोटा । कम। भिन्न हैं। जाज (कसीस) खनिज और कृत्रिम (२) कोताही करनेवाला । दोनों प्रकार की होता है और नाना वर्ण की होती कसीर-[ १० कसीर] हैं। इनमें से सफ़ेद, पीला,लाल और हरा कसीस संज्ञा [ देश० ५० ] कचूर। प्रमुख हैं। हरे कसोस को ज़ाज सब्ज वा हीरा (रू.] हलफाड़। कसीस कहते हैं। जाजुल प्रसाकिफः दोनों कसोस कसीराऽ-संज्ञा पुं० [ कतीरा का मुश्र०] कताद | के नाम हैं। जाजुल प्रसाकितः को ज़ाज कप्तगराँ की गोंद। भी कहते हैं और लिखते हैं कि यह जाज स्याह कसीराम-[ सिरि० ] जंगली खीरा (रू यार)। है। यह जब पानी में पड़ती है, काली हो जाती कसीरी-[अ०] अज़ादहे का एक भेद । है । इसे ही शुतुर दंदाँ ( उष्टदंता) कहते हैं। जाज सुखं (रक कासीस) के भीतर का भाग कसीरा-[फा० कतीरा से मु१०] कतीर । गुलू की कृष्ण वर्ण होता है और उसमें छिद्र होते हैं और गोंद । उससे दुगंधि पाती है। इसमें से जो नीलवर्ण कसीरू-संज्ञा पु० दे० "कसेरू"। होती है, वह अपेक्षाकृत निर्वलतर होती है । जाज क़सीरू-[१] हल्फ़ा। सुन और ज़ाजुल प्रसाकिफ़ः दोनों को ज़ाज सफ़ेद कसारुल अज्लाअ-[१०] बारतंग । श्वेत कासीस भेद लिखा है । पर, आश्चर्य तो कसीरुल अरिज्ल-[१०] विसफाइन । यह है कि जाज सक्नेद का अर्थ स्फटिका करते हैं। कसीर ऊस-[अ० ] कस अनः। यद्यपि स्फटिका का कोई ऐसा भेद नहीं है जो पानी में पड़ने से कृष्ण वर्ण हो जाय । इससे ज्ञात कसीरुगिजा-[१०] वह वस्तु जिसका प्रायः भाग होता है कि ज़ाज सफ़ेद का अर्थ स्फटिका नहीं शरीरावयव में परिणत हो जाय । वह चीज़ करना चाहिये । अपितु जाज का अर्थ कसीस करके जिससे खून ज़्यादा पैदा हो । कसीरुल तग़ाज़ियः । कसीस के चार भेद निर्धारित करना चाहिये । Polytrophia वृहणीय आहार । सफेद, पीला, हरा और लाल। किंतु ग्रंथोक कसीरुल मुन्फअत-[अ०] ख़त्मी ।। भ्रमात्मक विवेचना के कारण जाज सफेद का कसोरुल वरिक-[ अ० ] ( १ ) हजुबुल । ग्रहण स्फाटिका के अर्थ में होने लगा। (२) मुफ़िलुन । जालीनूसके मतानुसार ज़ाज वा कसीस के सम्पूर्ण कसीरुश्शश्रर-[अ० ] हंसराज | परसियावशाँ । भेद जलीय द्रवांरा हैं, जो सांद्रीभूत हो जाते हैं। कस्रीला-[ नन्ती ] एक पौधे की लकड़ी। किंतु वे अपूर्णावस्था में हो रह गयेहें। जब पानीमें Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसीस २३५७ 'कसीसादि घृत - डालते या पकाते हैं, तब वे घुल जाते हैं। किंतु (२) उस बहुते हुए पानी में जम जाने से प्राप्त लाल कसांस नहीं घुलता है। ये सभी भेद प्रायः होता है जो खानों के समीप गुफाओं में एकत्रित गुणधर्म में समान होते हैं । परंतु द्रवत्व और हो जाता है। इसे ज़ाज जामिद कहते हैं । (३) सांद्रत्व गुण में ये असमान होते हैं । इनमें सर्वा- जाज सज (होरा कसोस) मृत्तिका में मिली धिक सांद्र लाल कसीस होता है। इसलिये यह हुई होती है । इसे पानी में मिलाकर कथित कर जल में श्रविलेय होता है। सबसे अधिक सूक्ष्म वा साफ़ करते हैं । जब जम जाती है, तब नर्द के द्रवणशील सफ़ेद और हरा कसोस है और पीत मोहरे की प्राकृति के टुकड़े काटकर काम में लाते कासोस इनमें मध्यम है। यह अखिल कासोस हैं। इसे ज़ाज माबूख (क्वथित कसीस) कहते भेदों से समशीतोष्ण है। किसो किसी के मत से हैं । मज़ान के अनुसार ये तीनों ज़ाज सब्ज यह सर्वापता बलवत्ता है। जलाने से ज़ाज की (हीरा कसोस ) के भेद हैं। जौहरदार फौलाद तीव्रता एवं रूक्षता घट जाती है । इसी कारण को साफ करने के उपरांत कसोस से जौहर दग्ध जाज अदग्ध की अपेक्षा सभी प्रकार समग्र गुणों में उत्कृष्ट होती है। क्योंकि मारण करने से पा-काशीशं काशीषं, काशीसं कासीसं, यह बहुत सूक्ष्म हो जाती है। यह विलक्षण बात सं०। कसांस, कौशीरा-हिं० । जाज-१०। .. है कि जलाने से इसकी तीव्रता बढ़ती नहीं है जाक-फ़ा। जैसा कि प्रायः और पदार्थों में होता है कि जलाने विशेष विवरण के लिये देखो "लोहा" वा से उनकी तीक्ष्णता अधिकाधिक हो जाती है। "कासोस"। पर यदि कसोस को जलाकर धो डालें, तो वह __ संज्ञा पुं० [अ० ] तोदरी । म. श्र। अत्युत्तम एवं प्रक्षोभक हो जाय और उसकी | कसीस-[अ० ] कँपकपी । लरज़ा । Riyor राइगर तीक्ष्णता जाती रहे । जला हुमा कसीस सूक्ष्म हो " जाता है। उसकी शक्ति घट जाती है। इसके (अं०)। विरुद्ध अन्य लवण जलाने से वलिष्ट हो जाते हैं। सास, कसास:-[१०] (१) एक पौधा जो कमात जाज सफ़ेद को कलक़दीस और पीत को कलक (खुमी ) की जड़ में उगता है । (२) तोदरी । तार और ज़ाज सब्ज़ वा हीरा कसीस को कलकंद म० अ०। एवं कलवंत कहते हैं। शीराज़ी में इसे ज़ाज कसीसक-संज्ञा पुं॰ [स० पु.] केसर। (२) स्याह कहते हैं और लाल को सूरी | सफ़ेद कसीस | हीरा कसीस। कभी पीला हो जाता है। शेख ने भी सफ़ेद को | कसीस तेल--संज्ञा पु . [सं. क्री० ] कसीस, कलिकलकदीस लिखा है ।पर बहुधा इसे ज़ाज सुर्ख- हारी, कुठ, सोंठ, पीपर, सेंधानमक, मैनशिल, रक्त कासोस लिखते हैं। क्योंकि रक्त कासास भी कनेर की जड़, वायविडंग, चित्रक मूल, अडूसा, श्वेत कासीस का ही अन्यतम भेद है। अतएव दन्तीमूल, कड़वो तराई के बीज, हेमाह्वा (चूक), वजनदीस शब्द का जिपका प्रयोग सक्द कसीस हरताल इन्हें एक एक कर्ष लेकर कल्क बनाएँ, के लिये होता है, लाल कसोस के अर्थ में ग्रहण पुनः १ प्रस्थ तेल में से हुँड दूध २ पल, मदार करने में कोई हानि नहीं है । इब्नज हर के कथना- का दूध २ पल व तेल का चौगुना गोमूत्र डाल. नुसार चिरकाल के उपरांत कलकंद और कलकतार | का यथाविधि तेज सिद्ध करें। गुण-इसके कसीस बन जाते हैं । ज़ाज वा कसोस का निर्माण | लगाने से बवासोर के मस्से गिर के नष्ट हो जाते .तीन प्रकार से होता है--(१) सूक्ष्म द्रव खानों | हैं और क्षार कम का सा कष्ट भी नहीं होता । में स्वयं टपककर जम जाते हैं। इसको टपका (शा० ध. सं.) हुआ कसीस ( ज़ाज मुक़त्तर ) कहते हैं। कसीसादि घृत--संज्ञा पु. [सं० की. ] कसीस, इसकी परीक्षा यह है कि फौलाद पर इसे मर्दन दोनों हल्दी नागर मोथा, हरताल, मैनशिल, करने से उसका रंग तांबे का सा हो जाता है।। कबोला, गधक, विडं।, गूगल, माम, मिर्च, Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसीसून - - २३५८ कसेर सोंठ, तूतिया, सफेद सरसों, रसवत, सिन्दूर, | कसन-संज्ञा पु. [ देश० ] कंजी आँख का घोड़ा। राल, लाल चंदन, अरिमेद, नीम की पत्ती, करंज, सुलेमानी घोड़ा । सारिवा, बच, मंजीठ, महुवा की छाल, जटामांसी, कसूम-संज्ञा पुं० [सं० कुसुम्भ ] कड़ । कुसुम । - सिरस की छाल, लोध, पद्माख, हड़, और प्रपु- | कसमर-संज्ञा पु० दे० "कुसुम"। बाट प्रत्येक एक एक कर्ष लेकर चूर्ण करें पुनः | | कसमास-[यू०] दारचीनी । इसे ३० पल गाय के घी में अच्छी तरह मिला- | कर धूप में एक ताँबे के बर्तन में रखकर धरें। कसूर-[१०] (१] बाबूना । (२) पुदीना । पुनः सात दिन के पश्चात् इसका अभ्यंग करने | कसूर-सहती | मस्तगी । कुदह । से कुष्ठ, दद्रु, पामा, विचिर्चिका, रकदोष, विसर्प, कसूरमून-[यू०] रीठा । बंदन हिंदी । ' विस्फोटक, वातरक जनित शीतला, मस्तक की | कसूरयूकुन-[ यू० ] हशीशतुजुजाज । घाव, गर्मी, नासूर, शोथ, भगन्दर, लूता के विष| . और व्रण को दूर करता है। तथा यह प्रण कसरस-[ यू०] ईरसा। शोधक, रोपण और शरीर को स्वर्ण समान कसरु-संज्ञा पुं० दे. "कसेरू"। करता है । शा. ध० सं०। कसूल, कुसौल- १] एक फल । कसीसून-[ यू.] लावन । लोन कबीर । कसूल-संज्ञा पुं॰ [ देश० गोंडा ] धामन । फरसा । कसुद-संज्ञा पु. [ देश० ] सपता । बड़ा सलपन । एक फल जो अमलतास की फली की तरह एक कसुदा-संज्ञा पु. [ देश० ] कसौंदा । उँगली के बराबर लंबा होता है । यह रूम देश में पैदा होता है। कसुभा-संज्ञा पु० दे. "कुसुम्भ" । कसूनन-[रू.] लोबिया । कसुक्लाब-[अ० ] गागालस । कसूलून-[यू.] दारचीनी। कसुम-संज्ञा पुं॰ दे. "कुसुम"। कसूश-[ ] ख राख्खाश जुब्दी। कसुरी-संज्ञा स्त्री० [ देश० नेपा० ] ( Euony. mus Ting ns) Dog wood बार | कसूस-संज्ञा पुं॰ [फा० ] कशूस. । फली । सिखी । केसरी । पापर । कसूस-[ यू०] (1) फलीसूस । (२) विम्य । कसुवायी-गु०, मरा० । कसोंदा । कसूर्ग-संज्ञा स्त्री० [ देश नेपा० ] दे. "कसुरी"। कसुवु-से. ] [ बहु० कसुवुलु ] घास । तृण।। कसूस-संज्ञा पुं० [अ० कसूस ] प्रकाशबेल का बीज कसू, कसूय-[ सिरि०, यू० | अंग । उन्ध । ___यह प्रायः बिलायती अमरबेल से प्राप्त होता है। कसूकरातास-[ ? Jहज्र कन्ती । कसूदा-[ देश० ] कसौंदी का एक छोटा भेद । कसूचक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] मण्डूक । दादुर । कसूबा-संज्ञा पुं॰ [सं० कुसुभ] कुसुम । बरें। भेक । मेढक । कसूचो- देश०, मरा० ] दे. "कसूबा" कसूतुल कलाब-[१०] शाहबानक । कसेरु-संज्ञा पुं॰ [सं० ०, स्त्री०] (1) पृष्टास्थि कसू द-[१०] मोटा गूमा । मरन फ्रः। मेरुदण्ड । रीढ़ की हड्डी। ( Back bone) रा०नि० २०१८ । (२) मुस्ता । मोथा । रा० कसूणस- सं० १] रेड । लु० क०। नि.व.६।(३) भद्रमुस्तक। भद्रमोथा। कसूबा-[ सिरि० ) जंगली बरै ।उ.. र । म | यथा-"कसेरुर्भद्रमुस्तके" । रा०नि० २०१५ बरी। (४) गुण्डकन्द । बुद्रमुस्ता । कसेरू । रा० नि. .कसूबुल-[१०] गन्ना । ईख । व०८ । भा० । वै० निध० । राज. । ब०, ० : कसूचूफमामरमर, वसूबूफ़सामोहून-[ ५० ]] क्र० । दे० "कसेरू" । (५) कुमुदकन्द । दारचीनी। .. संज्ञा पु० [पं०] वेला। Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसक कसेरू सेतक- संज्ञा पुं॰ [सं० पुं०] (1) कसेरू । (२) नागरमोथा । नागरमुस्तक । सु० चि० ३७ प. कसेहका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (१) कसेरू । गुण्डकन्द । रा०नि० व०८ । (२) पृष्ठास्थि । रीढ़ की हड्डी । पृष्ठदण्ड । रा०नि० व० १८ । कसेरुदिला-[पं०] कसेरू। कसेरुवा-[ मरा०, कर० ] कसेरू । कसेरू-संज्ञा पुं० [सं० कशेरूः ] एक प्रकार के मोथे की जड़ जो तालों और झीलों में वा उनके किनारे जहाँ पानी रुका होता है अथवा भाद्र भूमि में उपजता है। कोई-कोई इसे गोंदपटेरे का एक भेद बतलाते हैं । कसेरू के पौधे को कहीं२ गोंदला भी कहते हैं । संस्कृत में इसे गुण्डः कहते हैं और इसका कन्द-गुण्डकंद कसेरू कहलाता है। ... यह कंद वा जड़ अंडाकार गोल गाँठ की तरह .. होती है और इसके काले छिलके पर काले रोएँ या बाल होते हैं । इसके भीतर का गूदा बहुत सक्नेद स्वाद में मधुर सुस्वादु किंचित् विस्वाद (फोका) और सुगंधित होता है। इसके चाबने से कुछ-कुछ मोथे की सो गंध आती है। कसेरू खाने में मीठा और ठंढा होता है। फागुन में यह तैयार होजाता है । और अषाढ़ तक मिलता है। रूपाकृति भेद से कसेरू अनेक भाँति का होता है। राजनिघण्टुकार ने स्थूल, वृत्त और लघु भेद से इसे तीन प्रकार का लिखा है-"तत्रस्थूलो लघुश्चान्यानधाऽयं" | भावप्रकाशकार को भी इसके निम्न दो भेद स्वीकृत हैं । वे लिखते हैंकसेरू द्विविधं तत्तु महद्राजकसेरूकम् । मुस्ताकृति लघुस्याद्यत्तचिचोड़मिति स्मृतम् " अर्थात् कसेरू दो प्रकार का होता है। (१) महत् कसेरुक वा राजकसेरुक और (२) चिचोड़ । इनमें से जिसका कन्द अपेक्षाकृत बृहत् (जाय. फल के बराबर वा उससे बड़ा) होवे, वह कसेरू वृहत् कसेरू वा राजकसेरू एवं जो मोथे की शकल : का और छोटा होता हो, वह चिचोड़ वा छोटा . कसेरू है। धन्वन्तरीय तथा राजनिघण्टुकार ने मोथा वा मुस्ता के पर्यायों में कसेरू और राज कसेरू का पाठोल्लेख किया है। पथ्यो-कसेरू का पौधागुण्डः, कारडगुण्डः, दीर्घकाण्डः, त्रिकोणका, छत्रगुच्छः, असिपत्रः, नीलपत्रः, त्रिधारकः, वृत्तगुण्डः,वृत्तः, दीर्घनालः, जलाश्रयः, -सं० । कसेरू तृण, कसेरू का पौधा, गोंदला, केउटी -हिं० । केशुरघास, गै रोकेशुर -बं० । गुडावत, तिधारी, बलहातीनि -मरा०। मुरुोरु -का० । (१) कसेरू, राजकसेरू, स्किपास कैसूर Scirpus. Kysoor, Roxb. स्किर्पस व्यु बरोसिस Scirpus Tuberosus, (२) छोटा कसेरू वाचिचाड-स्किर्पस प्राटिक्युलेटस Scirpus Articulatus, Linn & Esculentus. -ले। (३) वृत्तगुण्ड-स्किर्पस प्रोसस Scirpus Grossus, Linn -ले०। कंद वा जड़ अर्थात् कसेरू(१) कसेरू-गुण्डकन्दः, कसेरुः, द्रमुस्ता कसेरुका, सूकरेष्टः, सुगंधिः, सुकन्दः, गन्धकन्दकः (रा. नि०) कशेरुः, कशेरुकः, कशेरूः, कशेरुकम् कशेरूकम्, कशेरुका, कशेरूका, कसेरुकः, शूकरेष्टः, केसूरः, (द्रव्याभि.) -सं० । कसेरू-हिं। केशुर, -बं० । स्किस कसूर Scirpus Kys 001, Roxb., स्किर्पस व्युबरोसस Scirpus Tuberosus, -ले। वाटर चेष्टनट Water Chestnut, ग्राउंड चेष्टनट Ground Chestnut -अं० । गुडतुगगड्डि, सेकिनगड्डु नगगडु -ता० । इटिकोति, गुंडतिगागड्डि -ते. । कसेरुवा, कचरा, कचेर, फुरड्या -मरा० । सेकिन गड-कना० । कचेरा, कचरा -बम्ब० । कलादुर विशेषयक् -सिं० । कसेलान -गु० । कसेरुडिला -पं०। (२) छोटा कसेरू वा चिचोड़-चिञ्चोटः, चिञ्चोटकः, चिचोढ़ -सं०। छोटा कसेरू, क्षुद्रकसेरू चिचोड़ -हिं० । लघु केशुर -ब० । स्किर्पस प्रार्टि क्युलेटस Scirpus Articulatus., -ले । (३) गोल कंदवाला अर्थान वृत्तगुण्डकन्द ___ कशेरू -हिं०, सं० । केशुर -वं० । कसेरुडिना -पं० । गुगडतिगागहि-ते। Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसेरू २३६० - के स्तनों में दूध उत्पन्न करनेवाला और नेत्र रोगों को दूर करनेवाला है। क्रौञ्चादन कसेरुकम् । * गुरुविष्टम्भि शीत. लम्। कसेरू को परिचयज्ञापिका संज्ञायें--"क्षुद्रमुस्त" "शूकरेष्टः"। गुणप्रकाशिका संज्ञा"गन्धकन्दकः"। - मुस्तादि वर्ग (N. 0. Cyperacece ) उत्पत्ति स्थान-कसेरू सिंगापुर का अच्छा होता है । यह भारतवर्ष के प्रायः सभी गरम प्रदेशों और चीन देश में होता है । चिचोड़ पूर्वीय भारतवर्ष में अधिक होता है। वृत्तगुण्ड कोंकण में बाहुल्यलता के साथ पाया जाता है, विशेषतः सलसत्ती (ralsette) में। __ औषधार्थ व्यवहार-कन्द । औषधि निर्माण-कसेरुकादि सर्पि, कसेर्वादि लेप आदि। . गुणधर्म तथा प्रयोगआयुर्वेदीय मतानुसार-कसेरूतृण वा गुण्ड गुण्डास्तु मधुराःशीताः कफपित्तातिसारहाः । दाह रक्तहरास्तेषां मध्येस्थूलतरोऽधिकः॥ (रा०नि० ८ व०) गुण्डातृण अर्थात् कसेरू का पौधा मधुर और शीतल है तथा कफ, पित्त, अतिसार, दाह एवं रुधिर इनका निवारण करता है। उनमें स्थल गुडातृण गुणों में ष्ट है। कसेरू वा गुण्ड कन्दकसेरुकः कषायोऽल्पमधुरोऽति खरस्तथा। रक्तपित्त प्रशमन: शीतदाहः श्रमापहाः॥ (रा०नि०) कसेरू-कसेला, थोड़ा मीठा एवं अत्यन्त खर है तथा रक्क पित्त प्रशामक, शीतल और दाह एवं श्रमनाशक है। कसेरुकद्वयं शीतं मधुरं तुवरं गुरु। पित्तशोणित दाहनं नयनामय नाशनम् ।। ग्राहिशुक्रानिल श्लेष्मारुचिस्तन्यकरं स्मृतम् । (भा०) दोनों प्रकारका कसेरू-शीतल, मधुर, कसेला भारी, रक्तपित्तप्रशामक, दाह निवारक, ग्राही, शुक्र जनक, वातजनक, कफकारक, रुचिजनक तथा स्त्री | (राज.) कसेरू-भारी, शीतल और विष्टम्भकारक है। पुष्पश्चास्य कामलाहरं पित्तनाशकरश्च । (वै० निघः) कसेरू का फूल-कामला और पित्त का नाश करनेवाला है। कसूरःस्यात् पीतरसो गोलावृष्यः कशेरुकः । (द्रब्याभि०) कसेरू-पीतरस, गौल्य और वीर्यवर्द्धक है। कसेरू के वैद्यकीय व्यवहार चरक-विसर्प रोग में कसेरू-कसेरू को बारीक पीसकर गाय का घी मिलाकर विसर्प पर लेप करें । यथा "सघृता च कसेरुका" । (चि० ११ १०) सुश्रुत-रक्राभिष्यंद में कसेरू-कसेरू और मुलेठीके चूर्ण की पोटली बनाकर आकाश के पानी में भिगोकर आँख में फेरने से रकाभिष्यंद आराम होता है । यथा-- "कसेरु मधुकाभ्यां वा चूर्णमम्वर संवृतम् । न्यस्तमपस्वन्तरीक्षासु हितमाश्च्योतनं भवेत् । (उ० १२ १०) वक्तव्य--चरक और सुधुत कसेरू को गुरु विष्टभि और शीतल लिखते हैं (चरक सू० २७ अ०, सुश्रुत सू० ४६ अ.)। यूनानी मतानुसार प्रकृति-शीतल और रूक्ष (मतांतर से मुरक्किबुल कवा परस्परविरोधी गुण धर्म युक्र): द्वितीय कक्षा में सर्द व तर | इसमें किंचित् उमा, संग्राहि एवं अगद प्रभाव भी वर्तमान होते हैं। स्वाद-विस्वाद वा फीका किंचिन् मधुर । हानिकर्ता-पाही, गुरु, मलावष्टंभकारक और दीर्घपाकी है तथा वादी एवं कफ और वातकारक है। प्रतिनिधि-कॅवलगडा । Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असेल २३६१ कसेकादिसपि . दर्पन-चीनी, शुद्ध मधु और इसका | के लिये गुणकारी है । इसका पानी हरारत मिटाता छिलका। तथा हृत्स्पंदन (खफकान ) और सीना एवं प्रधान कर्म-हृद्य है और नफकान एवं सोज़स को लाभ पहुंचाता है। अतिसार निवारक है। __ वैद्यों के मत से कसेरू मधुर, शीतल, किंचित् गुण, कर्म, प्रयोग-कसेरू शिशिर शीतल कषाय, वृंहण एवं स्थौल्यकारक और गुरुपाकी मोर गुरु है तथा पित्त एवं रविकार और दाह हैं। यह स्क्रपित्त (पैत्तिक शोणित, मतांतर से का निवारण करता है । यह उदर में कब्ज पैदा रक प्रवृत्ति ), उष्णता, नेत्ररोग, अतिसार और करता और वृष्य एवं कफ तथा वातकारक और अरुचि का मिटानेवाला है । वातकारक, कफवर्धक प्यास बुझानेवाला है ।विशेषकर जब इसे छिलका और स्तन्यजनक है । इसके खाने से जहर उतरता सहित खाते हैं। किंतु जब इसे चाबकर इसका है । कसेरू का चूर्ण शहद में मिलाकर चटाने से के बंद होती है । कसेरू खाने से अतिसार नाश पानी उतार घोंट जाते हैं और सीठी फेंक देते हैं, सब यह शैत्यकारक होता है । और इसमें गुरुत्व होता है । औषधि भक्षणजनित मुख की विरसता कसेरू के खाने से दूर होती है। कसेरू का चूर्ण (सुकूल) का प्रभाव होता है। इसे पीसकर और और मिश्री का चूर्ण एकत्र फाँकने से शुफ कास शर्वत गुलाब तथा मिश्री में हल करके और साफ़ पाराम होता है। --ब्र०अ०। करके खाते हैं और इसे शीतल, दूषित वायु के डीमक-कसेरू संग्राही है और अतिसार तथा विष को दूर करनेवाला तथा पूयमेह नाशक मानते वमन के निवारणार्थ इसका उपयोग होता है। हैं। विशेषकर जब इसे छिलका सहित पीसते हैं । किन्तु बिना छिलका के यह लघु ( लतीफ़ ) और (फा० इ०३ भ. पृ० ५५५) नयेंद्रनाथ सेन--यह प्रश्मरी, त्वग्दाह और रुचिकारक हो जाता है। (तालीफ़ शरीफ्री) नेत्ररोगों में उपकारी है । इसका फूल पित्त और कसेरू हृदय को शनि प्रदान करता और वन- कामलाहर है। कान (हृदय को धड़कन ) को दूर करता है । नादकर्णी-चिचोड़ की जड़ मृदु रेचक है। उन विसूचिका में जब अत्यंत कै और दस्त पाते कसेरू सारक और कोष्ठमृदुकर स्वीकार किया हों, तब इसका सेवन लाभकारी होता है। किंतु जाता है । वृत्तगुण्ड वा गोल कसेरू संकोचकी विसूचिका को प्रारम्भावस्था में इसका उपयोग (Astrin gent) है। दूध से बनाई हुई वर्य है। यह वातज, पित्तज एवं रक्रातिसार में इसकी काँजी, अतिसार और वमन में पोषण का भी उपकारी होता है और उसे बंद करता है । यह उत्तम साधन है । यह ( Bland) और शोभ प्यास बुझाता है, उदर की गर्मी एवं प्रदाह को निवारक भी है। औषधियों का स्वाद छिपाने एवं मिटाता तथा सर्वांग दाह और ताऊन (प्लेग) रोग निवारण के लिये इसकी जड़ चावी जाती है। के लिये गुणकारी है। पित्तज और रकज ज्वरों में | (इ. मे० मे० पृ० ७८०) इसका पेय और प्रलेप लाभकारी होता है । यह | चोपरा के अनुसार यह वमन और रक़ातिसार नाही (काबिज ) एवं शुक्रजनक है तथा रक्तविकार | में उपयोगी है। उरोदाह और पैत्तिक व्याधियों को नष्ट करता है। कप्सेरुकादिसर्पि-संज्ञा स्त्री० [सं०] एक आयुर्वेदीय यह उष्ण विषों का अगद है। यह हर प्रकार के घृतौषधि, कसेरू, शैवाल, आदी, प्रपौण्डरीक विषों का निवारण करता है, पुनः चाहे वह किसी | (अंडरिया), मुलहठी, विस, (कमलनाल ), विषैली वस्तु के भक्षण से हुआ हो या किसो विष. ग्रन्थि (पिपलामूल ) इनके कल्क से दूध के साथ धर जंतु के दंश से । यह सूजाक को लाभ पहुँ- यथा विधि घृत पाक करें। चाता है । (ना० मु, म. मु०, बु० मु०) गुण-तथा उपयोग-इसमें शहद मिलाकर जखीरहे अकबर शाहीके मतसे यह ग्राही (काविज)| सेवन करने से पित्तजन्य हृद्रोग नष्ट होता है। दीपाकी, कफबईक और उष्ण प्रकृति के लोगों (यो. २०४० रो०) ७६ फा. Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसेर्वादिलेप कसेर्वाद लेप-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] एक लेपौषध । कसेरु, सिंघाड़ा, कमल, गुंजा, शवला (शैवाल), उत्पल (निलोफर ) और पद्माक को पीसकर घृत मिलाकर लेप करें, परन्तु लेप के नीचे कपड़ा लगा लेना चाहिए। गुण- इसके उपयोग से विसर्प नष्ट होता और प्रदाह दूर होता है । ( वृ० नि० २० विसर्प चि० ) “હેશ "कसेला, कसेल्हा, कसेली - [ नब्ती ] एक प्रसिद्ध वा संदिग्ध घोषधि की छाल वा लकड़ी । कहेला | कहेली । म० श्र० । ख० प्र० । बुब् मु० | दे० 'कहेला कहेली' । कसेला - [ नब्ती ] एक पौधे की लकड़ी । [ फ्रा० ] खोली । कसेली - [ फ्रा० [] खोली । कसैला - संज्ञा पु ं० नर हिरन । कसैली - संज्ञा स्त्री० [हिं० कसैला ] सुपारी । पूगफल । कसौटी - संज्ञा स्त्री० [सं० कषपट्टी ] ( १ ) एक प्रकार का काला भारी पत्थर जिस पर रगड़कर सोने की परख की जाती है । यह ख़ाकी भी होता है और दजला नदी में मिलता है । प्रधानतः यह काबूस नगर में भी पाया जाता है। इसके उत्तम होने की परीक्षा यह है कि जब इसमें अबाध मुख- वाष्प लगती रहे, तब इससे केशरवत् श्रास्वाद प्रतीत होने लगता है । इसे शरीर पर घर्षण करने से यह शरीरगत मलिनता का निवारण करता है । हजुलल मिहक ( श्रु० ) । काष्टिपाथर (बं० ) । कषपट्टिका, कषः (सं० ) प्रकृति - द्वितीय कक्षा में शीतल एवं रूह | स्वाद—फीका और कुछ कडुआ । हानिकर्त्तावस्ति को | दर्पन - शुद्ध मधु । मात्रा - ६ रत्ती तक । कसौंजा कसौंजा - संज्ञा पुं० [सं० कासमई, पा० कासमद्द में एकशिंबीवर्गीय चुप जो शुरू बरसात में प्रथम पानी पड़ते ही उगता है और वर्षा भर बढ़ता रहता है । बहुत बढ़ने पर यह श्रादमी के बराबर वा इससे अधिक ऊँचा और सीधा होता है । यह शाखा बहुल होता है । शाखायें दीर्घ मसृण और चतुर्दिक परिविस्तृत, प्रायः जड़ के पास से वा उससे किंचित् ऊपर से निकली हुई होती हैं । पत्तियाँ - इसकी एक सींके में आमने-सामने २-६ ( ३-५ ) जोड़े लगती हैं, जिनके मध्य ग्रंथियाँ नहीं होतीं हैं। यह भालांडाकार, प्रायः गोल, नुकीली और दोनों ओर से मसृण होती हैं । इमली प्रभृति अन्यान्य उद्भिद की पत्तियों की तरह इनकी पत्तियाँ भी अवनत होकर एक के साथ और एक मिल जाती है। फूले हुए पत्र वृन्तमूल के समीप एक वृहत् वृतिशून्य ग्रंथि होती है । पुष्प - सवृत, क्षुद्र, पीतवर्ण का ( चकवँड की तरह) और वृत लंबोतरा होता है। ऊपरी पुष्प स्तवक शाखांत वा टहनी के सिरे पर और निम्न पुष्प गुच्छ ३-५ तक श्रति क्षुद्र कक्षीय पुष्प दंड पर स्थित होते हैं। यह वर्षांत वा जाड़े के दिनों में फूलता फलता एवं हेमंत में परिपक्क फली के सहित शुष्कता को प्राप्त होता है । फलियाँ - ६-७ अंगुल लंबी, पतली और चिपटी ( चकवड़ की भाँति चिपटी नहीं ) लगती हैं जो चतुर्दिक् उभड़ी हुई प्राचीर ( Tumid border ) द्वारात होती हैं । फलियों के भीतर बीज भरे रहते हैं। बीज भूरे गोलाकार चक्रिका कृति के, ३ ४ इंच व्यास के और १६ १६ गुणधर्म तथा प्रयोग - श्वासकृच्छ्रता और वृक्कशूल में इसका सेवन गुणकारी है। स्त्री दुग्ध में घिसकर आँख में लगाने से जाला, नेत्र - पटल की कठोरता और चक्षुद्रण में उपकार होता है । ख० अ० । बु० मु० । - 9 १६ इंच मोटे होते हैं। बरसात में खाली पड़ी हुई ज़मीन में जहाँ कूड़ा-कर्कट पड़ा हो यह उत्पन्न होता है । इसकी गंध बुरी-खराब होती है । कसौंजे का पौधा चकवड़ और काली कसौंदी के पौधे से बहुत कुछ मिलता जुलता होता है । भेद केवल यही है कि इसके पत्ते नुकीले होते हैं और चकवड़ के गोल, इसकी फली चौड़ी और नुकीले और कुछ चिपटे होते हैं। पर चकवड़ की फली पतली और गोल होती है जिसके भीतर उर्द की तरह के दाने होते हैं । Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसौंजा २३६३ कसौंजा ___ कसौंदी के अन्य भेद आयुर्वेदीय ग्रंथों के अनुशीलन से यह ज्ञातहोता है कि यथासंभव उन्होंने कसोंदी के किसी अन्य भेद का उल्लेख नहीं किया है। किंतु भारतीय श्रोषधि विषयक पाश्चात्य लेखकों एवं हकीमों के लिखे हुये ग्रंथों में इसका विरादोल्लेख मिलता है। अस्तु, डीमक महोदय फार्माकोग्राफिया इंडिका प्रथम भाग के पृष्ठ ५२०-१ पर लिखते हैं कि कप्तौंदी दो प्रकार की होती है-(१) कसोंदी और (२) काली कसोंदी। उनके मत | से काली कसोंदी ही श्रायुर्वेदोक कासमर्द है और इसका आदि उत्पत्ति स्थान भारतवर्ष ही है। परन्तु कसोंदी बाहर से आकर यहाँ लगी है और अब हिमालय से लेकर लंका पर्यंत सर्वत्र पाई जाती है। इसके बाद के लिखे हुये अन्य सभी अँगरेजी भाषाके अन्थों में उपयुक्र वर्णन का अनुसरण किया गया है । मुसलमान ग्रंथकार दोनों प्रकार की कसोंदी को एक ही जातिका भेद मानते हैं। तालीफ शरीको के अनुसार कसोंदी के बड़े भेद को कसोंदा कहते हैं । इन दोनों की पत्ती में | यह भेद होता है कि पत्ती लाल मिर्च की पत्ती की तरह और टहनियाँ काले रंग की होती हैं और यह कसौदा की अपेक्षा सुलभ नहीं होती है । वाचास' नामक ग्रंथ में उल्लेख है कि कालो कसौंदी के फूल श्यामता लिये पीतवर्ण के और पत्तियाँ श्यामता लिये गंभीर हरित वर्ण की होती हैं । यह प्रायः पर्वतों पर होती है । ब्रह्मदेश में यह बहुतायत से मिलती है । हिंदुस्तान के ऊपरी भागों में कम मिलती है। खाजाइनुल अद्विया के मत से कसोंदा और कसौंदी भेद से यह दो प्रकार की होती है । इनमें कसोंदा का पेड़ अपेक्षाकृत बड़ा होता है और पत्तियाँ लंबी बादामी शकल की होती हैं । कसौंदी का पेड़ उससे छोटा और पत्ते चौड़े होते हैं । प्राकृति में दोनों समान होती हैं । किंचित् भेद के साथ दोनों के फूल पीले फली लंबी हलाली शकल की लोबिये की फली को तरह, पर उससे चौड़ी होती है जिसके भीतर मेथी के दानों की तरह बीज होते हैं। किसी किसी ग्रंथ में इसकी मादा किस्म के भी दो भेद उल्लिखित हैं। इनमें से एक का फूल धो के फूज । की तरह, पीला और दूसरीका फूल और डालियाँ काली होती हैं । इसको काली कसोंदी कहते हैं। पत्तियाँ किसी भाँति तिक एवं तीचण होती हैं। अन्य ग्रंथों में कसौंदी की अन्यतम संज्ञा कसौंजी भी लिखी है । किसी किसो ने कसौंदी को कसोंजी से भिन्न माना है । तिब्बुरशोआ में उल्लेख है कि इसकी वह पत्ती प्रयोग की जाती है जो मिठास लिये किंचित् तिक होती है। हिंदी-शब्द सागर के रचयिता गण इसके एक लाल भेद का भी उल्लेख करते हैं। उनके मत से लाल कसौंजा सदाबहार होता है और इसकी पत्तियाँ गहरे हरे रंग की कुछ ललाई लिये होती हैं तथा फूल का रंग भी कुछ ललाई लिये होता है। इसकी पत्ती और बीज बवासीर की दवा के काम आते हैं। पा-कासमदः, अरिमर्दः, कासारिः, कर्कशः, कालः (कालकण्टक), कनकः, कासमर्दकः (ध. नि.); राजनिघंटु में 'कर्कश' न लिखकर उसकी जगह 'जारणः ओर दीपक:' ये दो नाम अधिक दिये हैं; कालंकतः, विमहः, कासमदिकः, जरण: (रा.), काशमईः (१० टी०) कासुन्दः, कास्कन्दः, कसनमई नः, कसका (वै० निघ०) (भैष०) दीपन, तुषा (चरक), कासमई:, कासकः, कर्तकासन, मर्दकः, कंटकंटः, (दव्य २०) अंजनः, नातरः (मद० नि०) कोलं (गण. नि०) कासमर्दिः (के.)-सं० । कसौंजी, कसोंजा, कसौंदी, कसौंदा, कासिंदा, गजरसाग, बड़ी कसौंदी, अगौथ-हिं० । बड़ी कसौंदी, जंगली तकला-द. | काल कासुदा, कालकशुदा, चाकुंदा-बं०कैशिया श्राक्सिडेण्टेfete Cassia Occidentalis, Linn. कै० सेना Cassia Senna,Roxb.ले०। निग्रोकाफी Negro-Coffee-अं०। वेरा विरे, पोनविरे, नात्तम्-तकरै-ता० । कसिंध, नुति कसिंदा, पैडी तंगेडु, तगर चेडु, कसिविंद चेहते । नाट्डम्-तकर, पोझ विरम्, पोन विरे, पेरविरै-मल० । डोडु-तगसे, कासविंदा, कासवदीकना० । काल्ल कासुदा,होडुतैकिलो-कोकसंदी कासोदरी, जंगली-गु० । रान कासविंदा, किसुवै, रान ताकल-मरा० । हिकल-मरा०, गु० । पेनितोर, रटतोर-सिंह० । मेज़लि, मैज़लि-बर० । Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसौजा कसौजा कसुदी-(मारवाड़ी)। कैफेटीर डीस नेग्रेस | पैदा होती है। हर एक कार्य करने की उमंग पैदा Cafetier des Negres (फ्रां.)। होती है। जठराग्नि प्रदीप्त होती है तथा वीर्य. गुणप्रकाशिका संज्ञा-"कासारिः"। स्थान शुद्ध होकर कामोद्दीपन शक्ति भी बहुत बढ़ती शिम्बी वर्ग है। (जंगलनी जड़ी बूटी) (N. O. Leguminosæ ) गुणधर्म तथा प्रयोग उत्पत्ति-स्थान--कसौंदी का तुप संसार के ) आयुर्वेदीय मतानुसारउष्ण प्रधान प्रदेश और भारतवर्ष में हिमालय से | लेकर पश्चिम बंगाल, दक्षिण भारत, ब्रह्मा और कासमर्दः सुतिक्तः स्यान्मधुरः कफवातजित् । लंका पर्यंत समग्र स्थानों में यत्र तत्र होता है । विशेषत: पित्तहरः पाचन: कण्ठशोधनः ।। रासायनिक संघटन-इसके बीज में बसामय (ध०नि०) . पदार्थ (Olein and Margarin) कसौंदी-कडुई, मधुर तथा कफ एवं वात कषायाम्ल, शर्करा, निर्यास, श्वेतसार, काष्ठोज नाशक है और विशेषतः पित्तनाशक, पाचन एवं (Cellulose) एक्रोसीन, कैल्सियम सल्फेट कंठ को शुद्ध करनेवाली है। और फास्फेट अंशमात्र, लवण, मेग्नेसियम सल्फेट कासमर्दः सतितोष्णो मधुर: कफवातजित् । लौह, सिकता (Silica ), सेवाम्ल (Ma. - lic acid) ओर क्राइसोफेनिक एसिड-ये अजीण कास पित्तघ्नः पाचनः कण्ठशोधनः ।। द्रव्य पाये जाते हैं। (फा० इं० १ भ० पृ० (रा०नि०) १२० । ई० मे० मे० पृ० १८१) कसौंदी-कडुई, गरम, मधुर कफवातनाशक, औषधार्थ व्यवहार-पत्र, मूल और बीज । पाचन स्वर को सुधारने वाली और अजीर्ण एवं औषध- निर्माण-पत्रस्वरस । खाँसी को दूर करनेवाली तथा पित्त नाश करने मात्रा-१-२ तोले। वाली है। मलकल्क-२-४ श्राना भर। अग्निदीपन: स्वादुश्च । (राज.) बीज-चूर्ण-(शिशु को) १ आना भर। विविध वात विहन्ता मूत्रवात कफेहितः । मूलनिर्मित फाण्ट Infusiori of root (२० मे०१) मधुरः कफवातघ्नः पाचनः कण्ठशोधनः । मात्रा-११-२॥ तोले । समग्र क्षुप का काढ़ा, विशेषतः पित्तहर इत्युक्तः कासमईक ॥ .. (१० मे०१). मात्रा--२-६ ड्राम । बोज-चूर्ण (अत्रि. १६ अ.) . निर्मित क्वाथ (१० मे०१), मात्रा--२॥ तो० कसौंदी-अग्निदीपक और मधुर है (राज.)। . से । छटाँक पर्यंत मृदुरेचक, मलावरोध में कसौंदी-नाना प्रकार के वायु एवं विदोष सेव्य है को नाश करती और मूत्र, वात एवं कफ में हित. आयुर्वेदिक काफी-कसौंदी के बीज । सेर कारी है तथा मधुर, कफवात नाशक, पाचक लेकर हलकी आँच पर घी में सेंक लेना चाहिये । और कंठ को शुद्ध करने वाली है। विशेषकर यह फिर उसको पोसकर उस चूर्ण में छोटी इलायची पित्त नाश करनेवाली है। के बीज १ तोला, कंकोल प्राधा तोला,तज प्राधा मधुरः कफवातघ्न: पाचनः कण्ठशोधनः । तोला, जायफल 'तीन माशे, जावित्री ३ माशे, सौंफ ३ माशे, केशर १॥ माशे लेकर सबका चूर्ण विशेषतः पित्तहरः सतिक्त: कासमईकः ।। करके मिला देना चाहिये । इसे काफी की तरह (सु० सू० ४६ १०) बनाकर पीने से बालक, जवान और बुड्ढे सबको कसोंदी-मधुर, कफवातनाशक, पाचन, गले . बड़ा लाभ होता है । इसके पीने से काम काज से को साफ करने वाली और विशेषतः पित्तनाशक भाने वाली सुस्ती दूर होती है। मन में प्रसन्नता । और कबुई है। Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसौंजा २३६५ कसौजा कासमोऽग्निदः स्वर्यः स्वादुस्तिक्त त्रिदोष जत् । चक्रदत्त-(१) दद्र किटिभ कुष्ठ में कासमई. कसोंदी का शाक-अग्निप्रदीपक, स्वर को मूल-कसौदी की जड़ काँजी में पीसकर लेप उत्तम करने वाला, स्वादिष्ट, कड़वा और त्रिदोष- करने से दकिटिम कुष्ठ का नाश होता है। नाशक है। यथापर्ण-पाके कटुवृष्यमुष्णलघुः श्वासकासारुचिघ्नं । "कासमई क मूलञ्च सौवीरेण च पेषितम् । पुष्पन्तु-श्वासकासघ्नमूद्धवात विनाशनं ।। द्रु फिटिभ कुष्ठानि जयेदेतत् प्रलेपनात् ॥" (वै. निघ०) (कुष्ठ-चि.) कसौदी की पत्ती-पाक में चरपरी, वीर्यव (२) वृश्चिक विषमें कास मई मूल-कसोंदी द्धक, गरम तथा हलकी है और श्वास, कास एवं की जड़ को चाबकर वृश्चिक दष्ट व्यक्ति की कान अरुचि को दूर करने वाली है । कसौंदी का फूल में फुत्कार देने से वृश्चिक दंशन ज्वाला प्रशमित श्वास कास नाशक और मूर्द्धगत वायु का विनाश होती है। यथाकरनेवाला है। "य: कासमई मूलं वदने प्रक्षिप्य कर्णे कासमईदलं रुच्यं वृष्यं कास विषास्रनुत् । फुरकारम् । मनुजो दधाति शोघ्र जयति विषं मधुरं कफवातघ्नं पाचनं कण्ठशोधनम् । विशेषत: कासहरं पित्तघ्नं ग्राहकं लघुः।। .. वृश्चिकानां सः।। (विष चि०) कसौंदी के पत्ते-रुचिकारक, वीर्यवर्द्धक, वङ्गसेन-वातज श्लीपद में कासमईमूल कसोंदी की जड़ को गव्यरस में भली भाँति पीस मधुर, कफ वातनाशक, पाचक तथा कंठ शोधक है कर पीने से वातजश्लीपद शीघ्र नाश होता है। भोर कास, विष एवं रक्तविकार का निवारण करता है। विशेषकर ये कासन, पित्तघ्न, ग्राही यथाऔर हलके होते हैं। "कासमद्द शिफाकल्क गव्येनाऽऽज्येन यः द्रव्यनिघण्टु में इसे दस्तावर, शीतल, कफ- पिवेत् । श्लीपदं वातजं तस्य नाशमायाति वातनाशक और विषचिका नाशक लिखा है। सत्वरम्"। (श्लीपद-चि०) मदनपाल के अनुसार इसकी पत्ती उष्ण, वृष्य, वक्तव्य पाचक और वातनाशक है। चरक के "दशेमानि" में कासमई का उल्लेख ___ कसौंदी के वैद्यकीय व्यवहार नहीं है । विमानोक मधुर स्कंध में (८०) चरक-(१) हिक्का तथा श्वास में कास- "कालवत" शब्द पठित हुआ है। सुश्रुत मे मई पत्र-कसोंदी को पत्ती का यूष हिक्का श्चास सुरसादि गण में कासमई पाठ दिया है । चरक निवारक है । यथा ने शाकवर्ग में तुषा (कासमई) को ग्राही एवं "कासमईक पत्राणां यूष: *। * हिक्का निदान लिखा है। युनानी मतानुसारश्वासनिवारण:"। (चि० २१ अ०) (२) कास रोग में कासमई पत्र स्वरस प्रकृति-उष्ण एवं रूक्ष, मतांतर से उष्ण कसौंदी की पत्ती का रस और घोड़े की लीद एवं तर, इससे भिन्न इसे कोई कोई समशी(विष्ठा ) का रस मधु के साथ सेवन करने से तोष्ण-मातदिल बतलाते हैं । पुष्प मातदिल, जड़ उष्ण एवं तर, बीज तृतीय कक्षा के प्रारंभ में कफज कास निवृत्त हो जाता है । यथा उष्ण और रूक्ष तथा पत्र द्वितीय कक्षा में उष्ण ' "कासे कासमपत्र स्वरस:-कासमाश्व और रूत है। स्वाद-तिक एवं तीक्ष्ण वा विद । सक्षौद्राः कफकासघ्नाः ।" हरायँध । हानिकर्ता-उष्ण प्रकृति पालों में (चि० २२ प्र०)। शिरःशूल उत्पन्न करती है । दर्पघ्न-वूनी Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्सौंजा २३६६ कसौंजा और गुल नीलोफर (ख० अ०), कालीमिर्च और शुद्ध मधु (बु. मु.)। प्रांतनिधि-एक भेद दूसरे की। प्रधान कार्य-ज्वरघ्न । मात्रा-१ तो० तक । बीज, १ माशा । गुण, कर्म, प्रयोग-सभी प्रकार की कसौंदी उष्ण और तर होती है। किसी किसी ने इसे मातदिल-समशीतोष्ण लिखा है। मस्तिष्क से दोषों को नीचे की ओर लाती है। इसकी फली को भूनकर खाने से विच्छ का ज़हर नाश होता है। यदि इसकी (ताजी ) फली और पत्ती को पीसकर और समान भाग गेहूं के आटे में मिलाकर रोटी पकाकर तिल के तेल के साथ खावे तो रतौंधो का नाश होता है। बीज या फूज पीसकर इसको कतिपय वटिकायें प्रस्तुत कर निगल जायें और उसके थोड़ी देर बाद के करने से शीर के खाये हुए बाल-मूये शोरदादा ( इसमें बैठने से पेट में दर्द होता है और यदि रोगी रेंड के पत्ते पर पेशाब करता है, तो वह पत्ता पारा हो जाता है । उन गोलियों में लपट कर निकल पाते हैं) और रोगी रोगमुक्त हो जाता है। और यदि वह बाल गोलियों में लपटकर नहीं निकलेंगे. तो रोगी का प्राण न बचेगा । कसोंदी की जड़ की सुखी छाल को पीसकर चूर्ण बारीक करें। इसमें से ७ माशे (दो दिरम) चूर्ण को शहद में मिलाकर गोलो बनायें और इसे असर के नमाज के समय खाकर ऊपर से एक प्याला गोदुग्ध पी लेवें। रात को भी वैसे ही एक वटी मुंह में लेकर स्त्री-प्रसंग में तल्लीन हो जायें। इससे अत्यंत स्तंभन प्राप्त होगा। इसका लेप दद्रु नाशक है । (ता. श.) इसकी ताजी जड़ चंदन के साथ पीसकर लगाने से दाद श्राराम होता है। चौपायों को कसौंदी खिजाने से उनको खाँसी मिटती है । (म० अ०) १०॥ माशे कसोंदी के पत्ते और ३॥ माशे कालीमिर्च--इनको पानी में पीसकर पियें और लवणवर्जित श्राहार का सेवन करें। इतनी ही दवा इसी प्रकार प्रति दिन निरंतर एक सप्ताह पर्यंत सेवन करते रहने से फिरंग रोग नाश होता है । (बदीउल नवादिर)। यदि कोई विषैली चीज़ भी हो, तो यह उसके | विष का निवारण करती है और विकृति दोषों को । सम करती है। यह कास एवं जलोदर का नाश करती और सूजन उतारती है। इसकी जड़ का प्रलेप दद् और व्यंग नाशक है । यह निर्विषैल है। (म. मु०) तज़ाकिरतुल हिंद में उल्लिखित है--इसके कोमल पत्तों की तरकारी पकाकर खाने से ज्वर, वायु, कफ, उदर कृमि, तर व खुश्क खाँसी ओर दमा इनका नाश होता है । यह जठराग्निवर्द्धक, लघु, पाक के समय तीक्ष्ण होती है तथा तृषा एवं दाह मिटाती है। इसके सींग को श्रौटा छानकर गंडूष करने से दाँत दृढ़ होते हैं । इसके क्वाथ का कवल (ग़रारः) धारण करने से स्वर साफ़ हो जाता है । यह जलोदर और कफ ज्वर नाशक है। इसके ताजे पत्ते उष्ण स्नानागार में बिछाकर उस पर जलोदरी एवं संधिशूल पीड़ित को लेटाने से उपकार होता है। जिसके सींग में वायु परिपूर्ण हो, उसके लिये भी यह उपाय उपकारी प्रमाणित होता है । इसके पत्तों को हलका सा जोरा देकर छान लेवें और उसमें शहद मिलाकर दो रत्ती रसकपूरवटिका (हब्ब रसकपूर ) के साथ सेवन करायें। यह संधिशूल में लाभकारी है। अन्य उपयोगी औषधियों के साथ संधिवात, गृध्रसी, कूल्हों के जोड़ों के दर्द, गर्भाशय शूल, शिरःशूल, वायु जन्य ख़फ़कान प्रभृति रोगों में कसौंदी का सेवन गुणकारी होता है। इसके पत्तों का रस नाक में सुड़कने से नथुनों का अवरोध मिटता है। शिरो जात खालित्य के विस्फोटकों पर, इसके पत्ते पीसकर लेप करने से वे सूख जाते हैं । इसका रस दूध में मिलाकर कान में टपकाने से कर्णशूल मिटता है। इसके फूल पानी में पीसकर निरंतर एक सप्ताह पर्यंत पीने से रतौंधी दूर होती है । अपस्मारी को इसका फूल सूंघने से लाभ होता है । इनको सुखा-पीसकर नस्य लेने से भी मृगी के रोगी को उपकार होता है । इसके लेप से रतौंधी और कफज नेत्राभिष्यंद आराम होता है। इसके बीज भूनकर खाने से दस्त बंद हो जाते हैं और बिना भुने खाने से दस्त भाते हैं । कसोंदी सभी प्रकार के उष्ण एवं शीतल विषों का नाश करती है । Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'कसौजा २३६७ 'कसौंजा खजाइनुल अदविया के मतानुसार कसौंदी | के अवयव रक्रविकार नाशक हैं; कंठ रोगों को लाभकारी हैं, वाजीकरण और ग्राही (काबिज़) हैं: अर्श: अत्यधिक मलप्रवृत्ति और कफज वायु (रियाह) को गुणकारी हैं। यदि कोई विषैली वस्तु भक्षण की हो, तो यह तज्जात विष का निवारण करती है। यह दोष वैषम्य मिटाती, ज़हरबाद का नाश करती, और सूजन उतारती है। डेढ़ तोले कसौंदी के पत्तों को, ११ अदद कालीमिचों के साथ सौंफ के अर्क में पीसकर एक सप्ताह पर्यंत जलोदरी को पिलाने से पूर्ण प्रारोग्य लाभ होता है। इससे भूख बढ़ जाती है। किंतु अवसन्नताकारक द्रव्य वर्जित हैं । दद्र, और व्यंग व झाँई पर नीबू के रस में पिसा हुआ इसका प्रलेप गुणकारी है। यह ऐसे नजला को जो मस्तिष्क से कण्ठ की ओर गिरता हो, दूर करती है । इसके पीने से स्वर शुद्ध होता है । इसकी ताजी अधपकी फली भून कर कुछ दिन खाने से कृच्छ श्वास-तंगी श्वास में पाश्चर्यजनक प्रभाव होता है । बिच्छू का विषप्रभाव शेष रह जाने पर, ३.३ माशे इसके बीज कुछ दिन खाने से बड़ा उपकार होता है। उक्त औषधि वृश्चिक विष का श्रगद है। इसकी पत्तियों का रंस श्रॉख में लगाने से रतौंधी दूर होती है। इसकी जड़ की छाल पीसकर बिच्छू के काटे स्थान पर प्रलिप्त करने से तजन्य विष का निवारण होता है। कसौंजी के बीज ३॥ माशे और कालीमिर्च १॥| माशे इनको पीसकर खाने से सर्पविष नाश होता है। कसौंदी के बीज को बारीक पीसकर नेत्र के भीतर लगाने से भी उन प्रभाव होता है । कसोंदी के उपयोग से कास में बहुत उपकार होता है। दाद पर इसकी जड़ कागजी नीबू के रस में पीसकर लगाने से उपकार होता है। नेत्राभिष्यन्द में नेत्रके ऊपर इसके पत्तों की टिकिया बाँधने से लाभ होता है। तीन चार साल पुराने कसौंदी के चुप की जड़ मुख में स्थापित करने से स्वर शुद्ध हो जाता है। इसको | चार कालीमिर्ची के साथ पीसकर कंठमाला पर बाँधना लाभकारी होता है। इससे सत्वर प्रारोग्य लाभ होताहै। दो-तीन पत्ते कसौंदी के, दो काली मिर्च के साथ पीसकर पीने से कामला-यर्कान आराम होजाता है। (ख० अ. ५ खं० पृ० ४४६-५०) नव्यमत आर. एन. खोरी-कासमई का समग्र तुप विरेचक रसायन और कफ निःसारक है, यह योषापस्मार और कुकुरखाँसी में सेव्य है, इसके बीज विरेचक है और शिश्वाक्षेप में बीजचूर्ण गो दुग्ध वा स्त्री-दुग्ध के साथ सेव्य है। मूल विषमज्वर प्रतिषेधक है एवं ज्वर तथा वातशूल ( Neutalgia) रोग में उपयोगित होता है। दद्, कण्डू, विचर्चिका और व्यंग (lityriasis) इत्यादि पर्व प्रकार के चर्म विकारों के लिये इसका समग्र तुप परमहितकारी है। स्फोटक एवं पृष्ठ व्रण वा प्रमेहपिडिका (Carbanclen) में भी इसका प्रलेप करते हैं (मेटीरिया मेडिका आफ इण्डिया --य खं० २०१ पृ.) डीमक-फ्रांस के अफ्रिकन उपनिवेशों में इसका बीज हबशियों का कहवा ( Nevro coffee) नाम से अभिहित होता है। वहाँ तथा पश्चिमी भारतीय द्वीपों में ज्वरघ्न रूप से विशेषतः इसका टिंक्चर (2 to Ozi of Nalaga wine) व्यवहार किया जाता है अमेरिका में रहनेवाले भारतीयगण इसकी जड़ से बने फाँट ( Infusion ) को नाना प्रकार के विषों का अगद मानते हैं। इसके समग्र चुप का काथ योषापस्मार की प्रख्यात औषधी है और यह आक्षेप को दूर करता एवं प्रान्त्रस्थ वायु का उत्सर्ग करता है इसके बीजों को भूनने से तजात विरेचक सत्व नष्ट होजाता है और उनका स्वाद काफ़ी की तरह होता है। गबीना में इसकी जड़ ज्वर प्रतिबंधक रूप से व्यवहार की जाती है। इसका काढ़ा प्रतिदिन प्रातःकाल सेवन किया जाता है । विसर्प और स्थानीय शोथों पर इसकी पत्ती पीसकर लगाई जाती है। दोनों प्रकार की कसौंदी सारक होती है । इसकी पत्ती की मात्रा लगभग ६ मा० के होती है । दो से ६ रत्ती की मात्रा में कसौंदी के बीजों को १ तोला (३ ड्राम) Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसौजा २३६० कसौजा गोदुग्ध वा स्त्री-दुग्ध में पीसकर गरम करके वस्त्रपूत कर लेते हैं । इसे शिश्वाक्षेप निवारणार्थ प्रतिदिन दिन में एक बार देते है या उससे अधिक तर मात्रा (६ मा० वा ॥ डाम) में उसकी माता को अथवा स्तन्यदान करनेवाली धाय को देते हैं। सनाय की भाँति इसका भी विरेचनीय गुण भाग स्तन्य में श्रा जाता है। सर्पदंश में इसकी जड़ें कालीमिर्च के साथ पीसकर व्यवहार की जाती है। (फा०६०१ भ० पृ. ५२) नादकर्णी-कसौंदी की पत्ती जड़ और बीज रेचक है। इसकी जड़ मूत्रल और विषमज्वर प्रतिषेधक भी मानी जाती है। कसौंदी के भूनकर पिसे हुये बीज काफ़ी-कहवे की जगह व्यवहार किये गये हैं । भूनने से इनका औषधीय गुणधर्म विशिष्ट होजाता है। बीज कास (Congh) और कुक्कुर कास में भी उपकारी है। इसकी पत्तियों की मात्रा ४॥ माशे (१ • ग्रेन) है। साधारण क्षतों, कण्डू, फोस्का ( Blisters) प्रभृति पर इसके बीज, और पत्तियों को पीसकर उसमे स्नेह (Grease) मिलाकर लगाते हैं। फ्रांस और पश्चिमी भारतीय द्वीपों में ज्वरनाशक रूप से इसके बीजों का टिंकचर वा मद्य व्यवहार किया जाता है। इसकी जड़ का फांट नाना बिषों का अगद स्वरूप माना जाता है। यह ज्वर एवं वातजशूल (Neuralgin) में सेव्य है और ( Incipient) में भी उपयोगी है। चर्म रोगों में इसका प्रलेप करते हैं। योषापस्मार जन्य श्राक्षेप निवृत्यर्थ इसकी जड़ पत्ती और फूलों का काथ बहुमूल्य औषधि है। यह अजीण वात स्वभावी स्त्रियों के उदराध्मान को भी उपकारी होता है । ( ई० मे० मे० १८१-२) कर्नल चोपरा के मतानुसार यह औषधि ज्वर निवारक, विरेचक और सर्पदंश में उपयोगी मानी जाती है। कायस आर महस्कर के मतानुसार यह सर्प विष में निरुपयोगी है। कसौंदी की जड़ को मुंह में चबा-चबाकर जिसको बिच्छू ने काटा हो उसके कान में बार-बार कूक मारने से विष-वेदना शांत हो जाती है। (जंगलनी जड़ी बूटी) अन्य मत (1) कसौंदी का पंचांग लाकर जलांचे और राख को पानी में घोलकर स्थिर होने के लिये रख देवें। फिर ऊपर का पानी लेकर पका, जलांश जल जाने पर उतार लेवें और खुरचकर क्षार रख लेवें, पुनः काला नमक और शुद्ध प्रामलासार गंधक दोनों को २० ताले बहुगुणी (नै घास ) के मुकत्तर शीरे से खरल करें। जब सारा रस सुख जाये तब उसमें समभाग पूर्वोक्त क्षार मिश्रित कर रखें। मात्रा-एक रत्ती तक। यह रक्तविकार में असीम गुणकारी है । कुष्ठ और फिरंग के उपरांत यदि रक्रविकार से नाना तरह के कष्ट उठ खड़े होते हों तो इसका उपयोग अतीव लाभकारी सिद्ध होगा । (२) कसौंदी की जड़ एक तोला, कालीमिर्च १३ दाने, दोनों को पानी में पीसकर ज्वारके दाना प्रमाण गोलियाँ प्रस्तुत कर लेवें । जिस स्त्री के बच्चे मसाने रोग से मर जाते हों उसे गर्भधारण के तीसरे मास से एक गोली प्रातःकाल और एक सायंकाल मक्खन के साथ देना प्रारम्भ करें। प्रसवोत्तर शिशु को एक गोली दैनिक देते रहें। इससे बालक मसान रोग से सुरक्षित रहेगा। (३) दो-तीन दिन तक इसके काढ़े में अब गाहन करने से संक्रमण शील कण्डू के जीवाणु नष्ट प्राय हो जाते हैं और रोगी आरोग्य लाभ करता है। (४) शोषरोगाक्रांत होकर मरनेवाले शिशुओं को इसके काढ़े से स्नान कराना लाभकारी होता है। भारतीय ललनायें प्रायः इसे जानती हैं और समयानुकूल इसका उपयोग भी करती हैं। (५) वृश्चिक देश पर इसकी जड़ घिसकर प्रलेप करने से यह विष का शोषण करता है। (६) मकड़ी फर जाने और भिड़ वा सतैया के देश पर इसकी पत्ती मल देने से अवश्यमेव उपकार होता है। (७) इसके सुखाये हुये फूलों के महीन चूर्ण का नस्य कोड़े और मृगी के दौरे को रोक देता है। Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसौज २३६६ (८) इसके भुने हुये बीजों में समभाग चीनी मिलाकर इसमें से ३ माशे खिलाने से aftart और प्रवाहिका का नाश होता है । भेदक में कसौंदी के रस - उसारे का नश्य उपकारी होता है । ) ( १०) सूजन पर इसके पत्तों की टिकिया बाँधने से यह उसे पका देती और उसके उपरांत फोड़कर मवाद निकाल देती है । फिर गोघृत के साथ लगाने से उसका पूरण करती है । (११) दूध में इसका उसारा मिलाकर नाक में प्रधमन करने से मस्तिष्क गत कृमियाँ निःसृत होजाती हैं । इसी प्रकार इसे कान में टपकाने से कर्णशूल मिटता है । (१२) योषापस्मार में इसका काढ़ा ि गुणकारी होता है । वातज दोषों के निवारण के द्वितीय है । (१३) रसकपूर को इसके उसारा में एक मास पर्यंत श्रालोड़ित करके महीन पीसकर रख लें। इसमें से 4 रत्ती औषध दही में मिलाकर दो दिन खिलाकर दो दिन छोड़ देवें । इसी प्रकार दो दिन खिलाकर दो-दिन छोड़कर सेवन करते रहें। पूरे दो सप्ताह के सेवन से फिरंग रोग समूल नष्ट होता है। इससे मुँह नहीं श्राता । यह स्मरण रखना चाहिये कि दिन में केवल एक वार प्रात: काल सेवन करायें । (१४) कसौंदी के बीज १५, काली मिर्च २ दाने, दोनों को घोट-पीसकर सुबह-शाम पिलाने से रक्तार्श सम्यक् रूप से नाश होता है । इससे बहुश: रोगी आरोग्य हुये हैं । (१५) इसके पत्तों का काढ़ा पिलाने से सूती कीड़े, दाना और केचुए प्रभृति उदरस्थ कृमि नष्ट होते हैं। इसके बाद कोई रेचन देकर कोष्ठ शुद्धि कर देखें । (१६) बारीक पिसे हुये कसौंदी के बीज १५ तो०, पीपल ३ मा०, काला नमक ३ मा० इनको पानी में पीसकर चने प्रमाण की वटिकायें प्रस्तुत कर लेवें । यह कृच्छ्रश्वास और कफज कास को लाभकारी है। ( १७ ) यदि मसूड़े ढीले पड़ गए हों और दाँत से रक्त स्राव होता हो, तो इसके समस्त सुप ७७ फा० के काढ़े से कुलियाँ करने से उपकार होता है । (जड़ी बूटी मै ख़वास ) (८) इसके पत्र, मूल और बीज विष दूर करते हैं और विकृत दोषों का उत्सर्ग करते हैं । इसके पत्तों का काढ़ा पिलाने से कुकुर खाँसी श्रीराम होती है । ( १६ इसकी जड़ का फांट वा काथ पिलाने से कई तरह के विष उतरते हैं । (२०) इसके संपूर्ण श्रवयव सारक हैं । इसकी जड़ का फांट मूत्रवर्द्धक है । ( २१ ) इसके पत्तों को कथित करके अथवा भिगोकर पीने से कण्डू एवं त्वचा के श्रन्यान्य रोग विनष्ट होते हैं । इसके पत्तों का प्रलेप भी इन रोगों को 'दूर करता है। (२२) इसके पत्तों को पीसकर सद्योजात क्षत पर लगाने से उसका फौरन पूरण होता 1 ( २३ ) इसके पके बीजों को पीसकर दाद पर लेप करते हैं । (२४) खुजली पर भी इसके बीजों को पीस कर लगाते हैं । (२५) इसके बीजों को भून-पीसकर इसका क्वाथ करें, इसे अकेला या कहवे के साथ पिलाने से कुनैन की तरह प्रभाव करता है । ( २६ ) इसके बीजों का काढ़ा पिलाने से पसीना घाता है । (२७) इसके बीजों को काँजी के साथ पीसकर लेप करने से दद्र, कुष्ठ प्रभृति चर्म रोग नाश होते हैं । ( २८ ) शेर की मूछों के बालों का जो ज़हर चढ़ जाता है, उसे उतारने के लिये इसके पत्तों का रस तीन दिन पिलाना चाहिये । ( २६ ) इसकी जड़ कागज़ी नीबू के रस में घिसकर लगाने से दाद जाता रहता है । (३०) इसकी जड़ को मुख में चाबकर, उलटे कान में फूँक देने से बिच्छू का जहर उतरजाता है । ( ३१ ) इसके पत्र और कालीमिर्ची को पीसकर लेप करने से कंठमाला मिटती है । ( ३२ ) इसके फल खिलाने से या इसके बीज पीसकर लेप करने से बिच्छू का जहर उतरता है । Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसौंजा ( ३३ ) इसकी जड़ ३॥ माशे, कालीमिर्च का चूर्ण १ ॥ माशे – इसके फँकाने से सर्पादि का विष उतर जाता है । २३७० ( ३४ ) इसके बीजों को पानी में पीसकर नेत्रों में लगाने से भी सर्प विष नष्ट हो जाता है । (३५) इसके दो या तीन पत्ते और २ या ३ कालीमिर्च - इनको पीसकर पिलाने से कामला ( यर्कान) रोग का नाश होता है । ( ३६ ) इसकी जड़ की छाल के चूर्ण को मधु में मिलाकर वटी प्रस्तुत कर बलानुसार १ से ४ माशे तक खिलाकर ऊपर से दूध पिलाने से वीर्य गाढ़ा होता है और शुक्र की वृद्धि होती है । ( ३७ ) इसके और मूली के के साथ पीसकर लेप करने से होता है। (३८) इसके पत्तों का काढ़ा पिलाने से हिचकी दूर होती है। इससे श्वास रोग भी जाता रहता है। 1 ( ३६ ) इसके पत्तों के ७ माशे रस में कुछ मधु मिलाकर नेत्र में टपकाने से नेत्रशूल दूर होता है। बीजों को गंधक श्वित्र का नाश (४०) इसकी ताजी फलियों को सेंक कर खिलाने से खाँसी आराम होती है । ( अनुभूत चिकित्सा सागर ) ( ४१ ) इसके नरम पक्षों की तरकारी बनाकर खिलाने से सूखी और गोली खाँसी; पेट के कीड़े और दमा नष्ट होते हैं । (२) काली कसौंदी - कसौंजे की जाति का एक चुप जो और मसृण होता सरल, शाखाबहुल है। पत्तियाँ ६-१२ जोड़े, भालाकार वा ( Oblonglancedate) श्रोर नुकली होती है। पत्र वृन्तमूल के समीप एक ग्रंथि होती है। पुष्पस्तवक शाखांत वा कक्षीय; पुष्प अल्प होते हैं; उपर्युक्त पुष्पदल वा पँखड़ी ( Retuse ) होती है । फली दीर्घ, क्षीण ( Linear ) समस्त ( Turgid) एवं मसृण होती है । इसमें बहुत से बीज होते हैं जो मटर की तरह अलग अलग कोषों में पड़े होते हैं । फूल मध्यम श्राकृति के और पीले होते हैं। इसके समग्र तुप से एक प्रकार की बहुत ही प्रिय दुर्गंधि श्राती है और क देखने में यह कुछ कुछ नील वर्ण का मालूम पड़ता है | इसकी जड़ तन्तुबहुल एवं काष्ठीय वा कड़ी होती है । मूलत्वक् कुछ कुछ काले रंग का होता है और देखने में ऐसा प्रतीत होता है मानो जलकर काला पड़ गया हो। इससे कस्तूरी वत् तीच्ण गंध धाती है । यह खाली पड़ी हुई ज़मीन में बरसात में उगती है और नवम्बर के महीने में फूलती है । इसका चुप कई वर्ष तक रहता है और बढ़कर काफी बड़ा हो जाता है। ( डीमक - फा० इं० १ भ० पृ० ५२१ - २ ) पर्याय काली कसौदी बास की कसौंदी, कसूदा - हिं० | सड़ी कसौंदी, जंगली तकला-दु० | पोन्नाविरै, पिरिय तकरै, पेड़ा- विरै - ता० । कास-मर्द्धकमु, तगर चेह पैडि तंगेडु, नुतिकशिंध - ० | पोन्नाम-ठकर, पोन वीरम् - मल० । कालकोसंदि - बं० । उरुतोर - सिंगा० । कैसिया सोफेरा Cassia Sophera, Linn. सेन सोफेरा । Senna Sophera, Roxb. लेo S. Escnlonla C. Coromenendeabna s Purpurea Ro und-pod cassia श्रं० | कण्टङ्कल - मरा० । कुधाडिके-गु० | डोड्डुतगाके - कना० । होडुतैकिलोको०] । शिम्बी वर्ग (N.O. Leguminosae.) उत्पत्ति स्थान - संसार के समस्त उष्ण प्रधान प्रदेश और भारतवर्ष में हिमालय से लेकर लंका पर्यंत सर्वत्र इसके चुप देखने में आते हैं । रासायनिक संघटन - पत्ती में कैथार्टीन, रंजक पदार्थ और लवण होता है। जड़ में एक राल और एक ति श्रचादीय सत्व होता है । औषधार्थ व्यवहार - मूल, मूलत्वक्, बीज और छाल । औषध निर्माण - फाण्ट ( Infusion ) चूर्ण, प्लाष्टर और अनुलेपन ( Ointment ) । गुणधर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसार — पूर्वोक्त नं० १ के अनुसार । वृंदमाधव, योगरत्नाकर, भैषज्य रत्नावली और चक्रदत्त के मतानुसार इसके पत्तों का Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसौंजा २३७१ कसांजा रस कान में टपकाने से बिच्छू के ज़हर में लाभ होता है। युनानी मतानुसार- सर्प-दष्ट व्यक्ति को काली कसौंदी की जड़ कालीमिर्च के साथ पीसकर पिलाने से बहुत उपकार होता है। (म० अ०) अतिसार युक्त जलोदर में काली कसौंदी की जड़ को कागजी नीबू के रस में पीसकर प्रलेप करने से बड़ा उपकार होता है। (ख.अ.) .१॥ तोला कसौंदी नीबू के रस में पीसकर पिलायें और भरहर (तूबर) को दाल और खशका बिना नमक खिलायें। इससे भी उक्त रोग में बहुत लाभ होता है । काली कसोंदी की जड़ नीबू के रस में पीसकर आँख में लगाने से आँख की ज़र्दी जाती रहती है। (ख० अ०) नव्यमत डीमक-व्यंग ( Pityriasis ) और विचर्चिका जनित चकत्तों पर काली कसौंदी और मूली के बीजों को गंधक और पानी के साथ पीस कर लगाते हैं। इसी हेतु पिष्ट कासमईमूल एवं चंदन भी काम में आता है। (फ्रा० इं० १ भ० पृ० ५२१) नांदकर्णी-त्वक् पत्र और बीज तीव्र रेचक | (Cathartic) है, जड़ कफनिःसारक ख्याल की जाती है। पत्तियाँ कृमिघ्न और शोधक (Antiseptic) हैं । चंदन को कसौंदी के पत्तों के रस में पीसकर बनाया हुश्रा वा कसौंदी पत्र-स्वरस में नीबू का रस मिलाकर बनाया प्रस्तर (Plaster') अथवा कसौंदी-मूल को कॉजी में पीसकर वा इसके बीजों के चूर्ण का बना प्रलेप दद् एवं रजक कण्डू (Dhobi itch) की अमोघ औषधि है। कास में कफनिःसारक रूप से इसका अंतः प्रयोग होता है। हिक्का और श्वास प्रभूति रोगों में इसकी पत्ती का काथ वा फाट ( Infusion) उपयोग में आता है। सर्पदंश में इसकी जड़ कालीमिर्च के साथ दी जाती है । बहुमूत्र ( Diabetes) में इसकी | छाल का फांट वा बीजों का चूर्ण मधु के योग से | देने से उपकार होता है (दूरी)। इसके बीज | एवं पत्र और गंधक को एकत्र पीसकर वा इसकी छाल पीसकर उसमें मधु मिलाकर दद् एवं विचर्चिका और व्यङ्ग ( Pityriasis) के चकत्तों पर अनुलेपन करते हैं। इससे श्राई कडू और दद् भी आराम होते हैं। इसमें उन गुण की विद्यमानता इसमें तथा (Cassia) के अन्य भेदों में पाये जाने वाले क्राइसोफेनिक एसिड के कारण होती है। सज़ाक को उग्रावस्था के उपरांत की दशा में इसकी ताजी पत्तियों द्वारा निर्मित फांट की उत्तरवस्ति उपकारी होती है और मुख द्वारा देने से इसका कृमिघ्न प्रभाव होता है। फिरंगीय क्षतों के प्रक्षालनार्थ इसका बहिर प्रयोग होता है। कान में कीड़े घुसने पर इसे कान में टपकाते हैं। ग्रामवातिक और प्रादाहिक ज्वरों में भी इसकी पत्तियों का फांट ( Infusion) व्यवहार में प्राताहै । कामला (Jaundice) रोग में यह शर्करा के साथ मिश्रित कर व्यवहार में लाते हैं। प्रस्राव (मूत्र) की अल्पता में समग्र चुप का काढ़ा उपकारी बतलाया जाता है । कफनि:सारक रूप से उम्र कासमें उपकार होते हुये पाया गयाहै। (इं० मे० मे० पृ. १८३) कर्नल चोपरा के अनुसार यह सर्पदंश में उपकारी मानी जाती है । परन्तु कायस और महस्कर के मतानुसार इसके पत्ते सर्प और विच्छ के विष के लिये निरुपयोगी है। __ जड़ी बूटी मै खवास-काली कसौंदीके बीज और पत्ते । और चीनी ॥ इनका यथाविधि शर्बत तैयार करके इसमें दो रत्तो प्रति मात्रा के हिसाबसे पोटासी आयोडाइड और - प्रेन सुरासार घटित रसकपूर विलीन करके रखें। मात्रा । तोला शर्बत सुबह शाम किंचित् जल के साथ । यह संधिवात ओर फिरंग के लिये लाभकारी है। ___एक तोला कसौंदी की पत्ती को साधारण जोश देकर वस्त्रपूत करलें। फिर उसमें २ तोला शहद और रत्ती रस कपूर मिलाकर उपयोगित करें, इससे भी उपयुक रोगों में बहुत उपकार होता है। Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसौजा २३०२ कसौजा काली कसोंदी सर्पदष्ट का अगद है और वर्षों कसौंदी के द्वारा कृष्णाम्रक की भस्म प्रस्त से इसका परीक्षण हो रहा है । ब्राझी लोग इसकी करते थे । जो राजयक्ष्मा और कास में गुणकारी ताजी लकड़ी लेकर सर्प के पास से निर्भयतापूर्वक होती है। निकलते हैं । जहाँ सर्प बहुतायत से हों वहाँ (२) पारदभस्म-इसके उसारा वा रस में इसकी बड़ी नई टहनी हाथ में लेकर चले जाँय, पारे को पालोड़ित करने से इसके कण पुनः सर्प भाग जावेगा। आपस में नहीं मिल सकते हैं। अर्थात् पारे को यदि सर्प ने काट लिया हो, तो इसकी पत्ती एक सप्ताह पर्यन्त इसके उसारे में भालोड़ित करने १ तोला वा बीज ४ माशे, काली मिर्च तीन दाने. से वह चूर्ण रूप में परिणत होजाता है और पानी में एकत्र पीसकर कई बार पिलायें, इससे उसके अवयव रासायनतः परस्पर इस प्रकार संघविष जन्य प्रभाव नाश हो जायेगा । दष्ट स्थान टित नहीं हो सकते कि पुनः पूर्ववत् पारदीय रूप पर तुरत इसकी पत्ती का भुड़ता बाँधने से यह में प्रकट हो, प्रत्युत पारद का वह चूर्ण रूप एक विष को अभिशोषण कर लेता है। इसकी जड़ प्रकार स्थिर सा हो जाता है । इसी प्रकार एक घिसकर लगाने से दाद और चंबल श्राराम होता सप्ताह पर्यन्त और अालोड़ित करने से, पाराभस्म है । इसका चूर्ण वीर्यस्तम्भक, शीघ्रपतन निवारक होजाता है। कोई-कोई रसायनविद् पारद वटिका और स्वप्नदोषनाशक है । इसकी जड़ नीबू के रस को मृदुअग्नि पर रखकर कसौंदी के उसारे का में घिसकर लगाने से आँख का काँवर (कँवल, चोभा देते हैं और उसी के उसारे में पकाते हैं । यौन ) दूर होता है । शोथ ( इस्तिस्का लहमी) इससे उक पारदीय गोली ऐसी दृढ़ एवं धन स्थिर शोथ विशेष (सूयुल किन्यः) यकृदावरोध, हो जाती है कि वह फिर साधारण अग्नि पर पृथक यकृत काठिन्य निवारणार्थ एवं प्रांतरिक रूह नहीं हो सकती है। (अख़ह बातिनी) के उपकारार्थ एक तोला (३) शीसक भस्म-कसौंदी से सीसाभस्म इसकी जड़ तीन दाने कालोमिर्च के साथ पीसकर होजाता है । इसकी विधि यहहै-सीसे के बुरादा पिलायें । आँवलासार गंधक को इसकी पत्ती के को तीन दिन तक कसौदी के रस में खरल करके रस में बारीक पीसकर एक कपड़े पर फैलाकर कसोंदी के पावभर पत्तों की दो टिकियों के भीतर आमवात रोगी के विकारी संधियों एवं अन्य रखकर पांच सेर उपलों की अग्नि देवें। शीतल स्थलों पर इसे चिपका देवें ओर ऊपर से १५ होने पर निकाल कर कसौदी की पत्ती की राख मिनट तक स्वेदन करें इससे विकारी द्रव्य विलीन को हवा देकर उढ़ा देवें, फिर सीसे की भस्म को होते हैं, पीड़ा कम हो जाती है एवं नाड़ियों उसी के रस में पुनरपि एक मास पर्यन्त पालोको बल प्राप्त होता है । इससे स्रोतों का उद्घाटन डित करके टिकिया बनाकर शराब संपुट कर पाँच होता है और सूजन उतरजाती है। उक वनस्पति सेर उपलों की दूसरी भाग दे देवें। श्यामता पुरातन कास के लिये अतीव गुणकारी है। यहाँ लिये भस्म तैयार होगी। तक कि चातुम्पद जीवों के कास तक का निवारण मात्रा और सेवन-विधि-एक रत्ती यह भस्म करती है। गाय के मसका के साथ अथवा किसी अन्य उप- इसके फूल पकाकर खाने के काम में आते हैं। युक्त अनुपान के साथ सेवन करें यह द्वितीय कक्षा सूजाक की प्रथमावस्था में इसके पत्तों को काली- के सूजाक तथा अन्य रोगों में भी लाभकारी है। मिर्च के साथ पीसकर पिलाना चाहिये । फिरंगीय (४) प्रवालभस्म-पाँच तोले प्रवाल को क्षतों पर इसके पत्तों का रस लगाने से उपकार महीन पीसकर उसमें पंजाज़ी ( कसौंदी ) का होता है। इसके पत्तों का काढ़ा पिलाने से उदरस्थ मुक़त्तर शीरा थोड़ा-थोड़ा डालकर यहाँतक खरल कृमि नष्ट होते हैं । (अनुभूत चिकित्सा सागर) करें कि पूरा १ सेर शीरा अभिशोषित होजाय । कसौंदी द्वारा प्रस्तुत खनिज भस्में घोंटने में इस बात का ध्यान रखें कि शीरा डाल (१) कृष्णाम्रा-राने वैद्य-हकोम प्रायः . कर खरल पड़ा न रहने देवे, प्रत्युत मालोदित Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलौंजी २३७३ जाय, करते रहें । जब सम्पूर्ण शीरा अभिशोषित हो तब उसकी टिकिया बनाकर, वड़े प्यालों में रखकर पाँच सेर उपलों की अग्नि देवें, अत्यंत श्वेतवर्ण की भस्म प्रस्तुत होगी । इसे महीन पीसकर सुरक्षित रखें। | | मात्रा - एक रत्ती । गुणधर्म तथा प्रयोग - प्रारंभिक कृच्छ श्वास में उपयुक्त अनुपान के साथ इसका उपयोग करने से चमत्कारिक गुण प्रदर्शित होगा । कैसा ही कष्टप्रद कास हो, इससे तुरंत शांत होजाता है । बँधा हुआ कफ सरलतापूर्वक निःसरित होकर कृच्छ्रश्वास जन्य कष्ट का निवारण होता है। अस्सी वर्षीय जरा जरठ व्यक्ति को रात-रात भर नींद नहीं आती और खाँसते-खाँसते बेदम हो जाते हैं इसके उपयोग से वे रात्रि भर सोते रहे हैं। यह विलक्षण वस्तु है और श्रवश्य आदरणीय है । ( जड़ीबूटी मै खवास ) 1 कसौंजी - संज्ञा स्त्री० दे० "कसोंजा" कसौंदा -संज्ञा पु ं० दे० "कसोंजा" । कसौंदी-संज्ञा स्त्री० दे० “कसौंजा" । क़ह पुः - [ अ० ] ( १ ) कासा । प्याला । (२ क्षत रक्त परिपूर्ण होना । कस्तोका अग़ला -[ सिरिं० ] बख़ुर मरियम | कस्ऊ. म - [ हमीरी भाषा ] गदहा । गर्दभ | कस्करीला, क़स्करीला - [ स्पेन ] छोटा छिलका | दे० “कैस्करीला” । करकरेली कॉर्टेक्स - [ ले० Cascarillae Cortex ] क्रोटन ईल्मुटेरिया नामक अमेरिकन वृक्ष की छाल | बर । दे० "कैस्करीला " | कस्करैला - दे० "कस्करीला " । क़स्क्लस - [ श्रु० ] शेर । कस्कस - [ ? ] इंद्रायन का फल | मूर - [ यू०] पुदीना । कस्कारा, क़स्कार:- [ स्पेन ] छाल | क़त्र । नरकास - [ अ ] ( १ ) अजमोदे की तरह का एक प्रकार का उद्भिज्ज | पौधा । ( २ ) शेर । ( भूख । क्षुधा । भूख की अधिकता । कास्कय: - [ ? ] पीलू | झाल | ३ ) क़स्क्रियून -[ यू०] सौसन बर्री । (ख० श्र० ) चमेली । लु० क० । - [ पं० ] खेटी । शगली । कस्की कस्कु कस्ता सीस कुट्ट - [ ता० ] कत्था । खदिर । कस्कूबा - [ ? ] कड़ | कुमुम । बरें । जंगली कस्कून:- [फ़ा॰ ] ( १ ) कुसुम्भ | कड़ | बरें । (२) सुभ बीज । बर्रे | कस्क्युटा रिल्फेक्सा - [ ले० Cuscuta reflexa, Rort. ] श्रमरवेल । अकाशवेल | बँवर | एप्ल - [ ० Custard apple ] कस्टर्ड शरीफ़ा । सीताफल । श्रात | क़स्तरोन -[ यू० ] विजौरा नीबू | तुरंज । कस्तज - [?] चौलाई का साग । बक़लहे यमानी । कुरु तुबीर - [ श्र० ] लिंग । शिश्न । कस्तल - [ फ्रा० ] एक प्रकार का ख़नाफुस । कस्तन - [ का० ] लाल साग | पत्र प्रांत क़स्तन - [ यू० ] दीसक्क्रूरीदूस के अनुसार एक उद्भिज्ज जो प्रति वर्ष नया उगता है। इसका तना पतला चोपहल लगभग गज भर वा उससे भी अधिक लंबा होता है । पत्र लंबे वृत्त के समीप चौड़े और नोक की श्रोर क्रमशः पतले होते जाते हैं । देखने में ये बलूत पत्रवत् होते हैं। कटावदार होते हैं । यह सुगंधयुक्त होता है । इसकी जड़ पतली और कुटकी की तरह की होती है । इसकी जड़ एवं पत्ती अधिकतर उपयोग में श्राती है । अंताकी के अनुसार इसका फूल पीच वर्ण का होता है और इसमें से सातर की सी सुगंध श्राती है। रोम देशवासी इसे बर्तानीक़ी कहते हैं जो सरवाली का ही अन्यतम पर्याय है । किसी किसी के मत से यह एक अपरिचित श्रौषधि है । प्रकृति — द्वितीय कक्षा में उष्ण एवं रूक्ष | कस्ता - [फा०] चौलाई का साग | लाल साग । कस्तानिया - [ यू० रू० ] शाह बलूत । बलूतुल् मलिक | 1 क़स्तानी की - [ सुदान ] चौलाई का साग । बक़ल हे । यमानी । क़स्तारूस - [ कस्ता सीस - [ यू०] एक पत्ते चौड़े होते हैं । ] उसारहे लहूयतुत्तीस । प्रकार का लबलाब जिसके Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कस्ती कस्तूरिया कस्ती-[बं०] मकोय । निकली जाती है। यह अतीव बलकारी होती है। कस्तीम:-[१] एक प्रकार का काँटेदार पौधा जिसे | इसे दो रत्ती की मात्रा में दूध के साथ सेवन . ऊँट चाव से खाते हैं। करते हैं। लोग ऐसा मानते हैं कि यह अबाबील कस्तोर-संज्ञा पुं० [सं० को०] पिञ्चट । वङ्ग । चिड़िया के मुंह की फेन है। राँगा । हे० च । कस्तूरि-संज्ञा स्त्री० [ता०, ते०, मल०, कना०] कस्तीर्ण-संज्ञा पुं० [सं० क्री० ] रंग। राँगा ।। कस्तूरी । मृगमद। प. मु.। | कस्तूरि-अरिशिना-[ कना०] अाँबा हलदी। जंगली कस्तीला-[ ? ) इसबगोल । हलदी । Curcuma Aromatica, Salisb. कस्तुरि-संज्ञा [सं०] प्रियंगु । रा०नि० एकार्थादिः कस्तूरिक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] करवीर वृक्ष ।कनेर २३ व०। का पेड़। [सिंगाली ] कस्तूरी। कस्तूरि कलह-[सं० १] धतूरा । कस्तुरिका, कस्तुरी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (1) कस्तूरिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (1) कस्तूरी। कस्तूरी । मृगनाभि । (२) कस्तूरिका मृग। ध० नि०। चन्दनादि ३ व०। (२) सहस्त्र. कस्तुला-[ देश० ] कालाकिरियात । कालायाकरा । वेधी । ध० नि। झंकारा । ( Haphlan thus Tentac- कस्तूरिकाण्डज-दे. "कस्तूरीकाण्डज ।" ulatus) कस्तूरिकायञ्जनम्-संज्ञा पु० [सं० क्री० ]एक प्रकार कस्तु अतारूस-[ ? ] लह्यतुत्तीस । का अंजनौषध । करतूबरून-[ यू० ] फाशरा। योग तथा गुणादि-कस्तूरी और मिर्च, इन दोनों का बारीक चूर्णकर घोड़े को लार (वाजिकस्तूर-संज्ञा पुं० [सं० कस्तूरी] (1) कस्तूरी | लाला) में घिसकर शहद मिला अंजन करने से मृग । वह मृग जिसको नाभि से कस्तूरी निकलती अति शीघ्र तन्द्रा का नाश होता है। है। (२) एक सुगंधित पदार्थ, जो बीवर नामक वृ०नि०र० सन्निपा-चि०। जंतु की नाभि ( Preputial follicles) कस्तूरिका मृग-संज्ञा पुं० [सं० से निकलता है। ] कस्तूरीमृग। कस्तूरि तुम्म-[ ते० ] कस्तूरि गंधी बबूल । कस्तूर, कस्तूर:-[यू.] जुदबेदस्तर । गंध मार्जार कस्तूरि दाना-[बं०] मुश्कदाना । लताकस्तूरी । वीर्य। कस्तूरमल्लिका-दे० "कस्तूरीमल्लिका" । कस्तूरि पत्ते-[ते. ] करवीर । कनेर । कस्तूरि पसुपु-[ते. ] अाँबाहल दी। कस्तूग-संज्ञा पुं॰ [सं० कस्तूरी ] कस्तूरी मृग। कस्तूरि बेण्ड वित्तुलु-[ते. ] मुश्कदाना । लतासंज्ञा पुं० [देश० (१) लोमड़ी के श्राकार | ___ कस्तूरी। का एक प्रकार का जाीव जिसकी दुम लोमड़ी की कस्तूरि भेण्ड-च-बीज-[ मरा.] ) मुश्कदाना । दुम से लंबी पोर झबरी होती है। कुछ लोगों का | कस्तूरि भेण्ड वित्तुलु-ते.] विश्वास है कि इसकी नाभि में से भी कस्तूरी लताकस्तुरी । निकलती है, पर यह बात ठीक नहीं है। (२) कस्तूरि मञ्जल-[ ना०] ) भावा हलदी। एक प्रकार का सीप जिससे मोती निकलता है। कस्तूरि मञ्जल-मल (३) एक चिड़िया जिसका रंग भूरा, पेट कुछ | कस्तूरि मुनै-[ ता. ] जुन्दबेदस्तर। सफेदी लिये तथा पैर और चोंच पीले होते हैं। | कस्तूरि मृगाण्डज-संज्ञा पुं० [सं० ०] मृगयह पक्षी पर्वती प्रांतों में कश्मीर से प्रासाम तक नाभि । नाना । कस्तूरी । रत्ना० । पाया जाता है और अच्छा बोलता है। यह मुडों | कस्तूरिया-सं० पु० [हिं० कस्तूरी] कस्तूरी मृग। में रहना पसंद करता है। (४) एक ओषधि जो ___वि. (1) कस्तूरीवाला । कस्तूरी-मिश्रित । (२) पोर्ट ब्लेयर के पर्वतों को चहानों से खुरचार । कस्तुरी के रंग का । मुश्की। Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करतूरी कस्तूरियून कस्तूरियून- यू०] जुन्दबेदस्तर । कस्तूरि-वेण्ट-वित्त-[ मल० ] मुश्कदाना | लता कस्तूरी। कस्तूरि-वेण्डैक्काय-विरै-[ता० ] मुश्कदाना । लता कस्तूरी । मुश्कभिंडी। कस्तूरी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० (१) एक सुगंधित द्रव्य जो एक विशेष जातीयमृग (कस्तूरी मृग) की नाभि से निकलता है। यह बहुमूल्य वस्तु है और केवल औषध में ही उपयोगित नहीं होती, अपितु अपनी गंध विशिष्टता के कारण विलासी रमणियों और विलासो पुरुषों के लिये मनोमुग्धकारो ईश्वरीय देन है। पर्या-कस्तूरका, मृगमदः, मृगनाभिः, मृगाण्डजा, मार्जारी, वेधमुख्या, गन्धमु, मदनी, गन्धचेलिका (ध० नि०), कस्तूरी, मृगनाभिः, मदनी, गन्धचेलिका, वेधमुख्या, मार्जाली, सुभगा, बहुगन्धदा, सहस्रवेधी, श्यामा, कामानन्दा, मृगाण्डजा, कुरङ्गनाभी, ललिता, मदः, मृगमदः, श्यामली, काममोदी, (रा. नि०), मृगनाभि, मृगमद, सहस्रभित्, कस्तूरिका, कस्तूरी, वेधमुख्या, (भा०), मदाह्वः (त्रि०) मृगनाभिजा, गन्धधूलिः, (हे.), मृगमदः, कस्तूरी (अ.), मृगः, मृगी, नाभि, मदः (भ०), अण्डजा (वि०.), कस्तुरिका, नाभि, लता, योजनगन्धा, गन्धबोधिका, मार्गः, कालागी, धूपसञ्चारी, मिश्रा, गन्धपिशाचिका (शब्दर०), वातामोदः, योजनगन्धिका ( रभसः ), मदनी, गन्धकेलिका, वेधमुख्या, मार्जारी, सुभगा, बहुगन्धदा, सहस्रवेधी, श्यामा, कामान्धा, मृगाण्डजा, कुरङ्गनाभिः, ललिता, श्यामलता, मोदिनी, कस्तुरिका, कस्तूरीमृगाण्डजः, कस्तुरीमल्लिका, गन्धशेखर, मदलता, योजनगंधा, मार्ग, सहस्रभित् -सं० । कस्तूरी, मुश्क-हिं०, द०, मृगनाभि । कस्तूरि, कस्तूरीबं० । मिस्क, मुस्क, मिश्क, मुश्क, शज.-अ.। मुश्क-फ्रा० । मास्कस Moschus-ले। मस्क Musk-अं० । कस्तूरी-ता० । कस्तूरि, कस्तूरिपिल्लि, कस्तूरी, ते०। कस्तूरि-मल०, कना०, सिंगा। कस्तुरी-मरा। कस्तूरि, मुश्कगु०। कडो-बर। जबत-मल। स्थाटनहियाङ्ग (मृग सुगंधि)--चीन । नोट-यद्यपि कस्तूरी शब्द का प्रयोग प्रायः ऐसी सभी वस्तुओं के लिये होता है जिनमें कस्तूरी के समान सुगंध होती है। तथापि कस्तूरी शब्द केवल एक विशेष जातीय हिरन अर्थात् कस्तूरी मृग की नाभि से प्राप्त सुगंध-द्रव्य के अर्थ में रूढ़ हो गया है और मात्र कस्तूरी शब्द का उक द्रव्य के अर्थ में मर्यादित प्रयोग होता है। प्रस्तु, अन्य कस्तूरि गंध विशिष्ट द्रव्यों के साथ तव्य बोधक विशेषण का भी उपयोग किया जाता है। यथा, जबादि कस्तूरी, लता कस्तूरिका प्रभृति । इनमें से प्रथम प्राणिज द्रव्य है और अंतिम वानस्पतिक द्रव्य । कस्तूरी की लेटिन और बांग्ल संज्ञाएँ प्रारब्य मुस्क शब्द से व्युत्पन्न हैं । इसकी संस्कृत एवं हिंदी संज्ञा जुन्दबेदस्तर की युनानी संज्ञा कस्तूरी (कस्तूरियूल) का पर्याय जान पड़ती है। कस्तूरी गन्ध विशिष्ट प्राणिवर्ग और वनस्पति वर्ग-यह पढ़कर अतिशय प्रसन्नता होगो कि कस्तूरी गुण स्वभावी सुगंधि पदार्थ दुनियाँ के विविध भागों में रहने वाले प्राणि और वनस्पति दोनों वर्गीय जीवों में पाये जाते हैं। जेरार्डीन Gerardin के मत से निम्न सूचीगत प्राणी कस्तूरी वा कस्तूरी वत् सुगंध-द्रव्य का निर्माण करते हैं यथ-नर कस्तूरी मृग; गंधमाऔर, जुद ( Castoneum); हिरन विशेष The gazelle (Antilope dorcas) The marten (Mustela foina ) कहते हैं कि इसका विष्ठा कस्तूरीवत् गंध देता है; पाल्प पर्वतजात छाग विशेष (Capra ilvex) इसका सुखाया हुआ रन कस्तूरी की तरह महकता है। कस्तूरा वृष The Muskox (Ovib. os moschatus); जेबू (Bosindicus) कस्तूरा बत्तन The musk-Duck (Anas moschata) जो जमैका और कायने के स्वर्ण-तट पर पाया जाता है। नील नदी जात कुम्भीर ( Nile Crocodile (Crocodilus Vulgaris): विविधि भाँति के कच्छपों तथा भारतीय साँपों में भी कस्तूरी-गंधी द्रव्य पाये जाते हैं। Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कस्तूरी साधारणतया श्रनेक वनस्पति वर्ग में भी मृगमदी गंध पाई जाती है वे निम्न हैं-लताकस्तूरिका वा मुश्कदाना संज्ञक ख़त्मी वर्गीय क्षुप के बीज, जिनका सुगंधियों में उपयोग होता है । सर्षपजातीय पुष्पगोभी ( Brassica Oleracea ) नामक पौधा । कुब्जक वा कूजा पुष्प ( Rosa_moschata ) नामक गुलाब वर्गीय तुप | कुष्मांड ( Benincasa cerifera, Sav.) और तितलौकी (Lagerariavulgaris, Sah.. ) आदि कुष्मांड वर्गीय लता और मुस्तक ( मुश्क ज़मीन ) इत्यादि इत्यादि । २३७६ उपर्युक्त द्रव्यों तथा न्यूनाधिक कस्तूरी गंधी द्रव्योत्पादनक्षम बहुसंख्यक अन्य द्रव्यों के विद्यमान रहने परभी, कस्तूरी-प्राप्ति का मुख्य व्यापारिक स्रोत केवल कस्तूरी मृग ही रहता है । ( श्रार० एन० चोपरा - इं० डू० पृ० ४२३ - ४ ) रासायनिक संगठन तथा भौतिक और रासायनिकलक्षण -ताज़ी कस्तूरी सर्व प्रथम तीर होती है । तदुपरांत वह पिच्छिलता में परिणत हो जाती और धूसर रक्त वर्ण ( Brownist red ) धारण कर लेती है। इसका उक्त वर्ण चिरकाल तक बना रहता है । स्वाद तिल सुगंधिमय होता है । गंध श्रत्यन्त प्रवल तीक्ष्ण और शीघ्र फैलने वाली होती है । एग से इसके मूल्य में प्रायः छः सात श्राठ रुपया तोला का अंतर रहता है । यह कस्तूरी जब नाने से चीरकर निकाली जाती है, तब भीतर कस्तूरी के साथ अधिकतर बारीक-बारीक झिल्ली का मिश्रण होता है और उस झिल्ली के साथ, कुछ काली काली, विविध आकार-प्रकार की, छोटी-बड़ी विषम डालियाँ बँधी हुई निकलती हैं । जिनको कस्तूरी निकालने के पश्चात् हलकी हथेली से मारकर झिल्ली में फँसी कस्तूरी को उससे पृथक् करते हैं तथा उसमें से झिल्ली को चुनचुनकर दूर कर देते हैं। किसी किसी नाभि की कस्तूरी में कुछ रेत कण भी होते हैं। यह रेतों के कण मिलाये नहीं जाते, प्रत्युत किसी किसी मृग में, जो रेत मिश्रित घास अधिक खाते हैं, उनके रक्त में सिकतांश वा सिलिका ( Silica ) के यौगिक बढ़ जाते हैं जो रक्त संचार के साथ उक्त नाभि में पहुँचने पर वहाँ जमने लग जाते हैं । यह रेतों के कण एक मृग में बहुत कम पाये जाते हैं । पर कस्मर मृग की कस्तूरी में काफी मात्रा में होते हैं । यद्यपि सभी नानो में सिकता नहीं होती, तो भी श्राधे के लगभग ना में सिकता विद्यमान होती है और उसमें वह सफ़ेद सफ़ेद भिन्न ही चमकती रहती है। कश्मीरी कस्तूरी एक तो काली होती हैं, दूसरे उसमें सिकता पाई जाती है, तीसरे गीली अधिक होती है । इसीलिये खोलने पर हवा के संस्पर्श से उसमें अमोनिया बनने लगता है। इस अमोनिया की विद्यमानता के कारण इसकी उम्र गंध कस्तूरी की गंध को दबा देती है । एक तो यह प्रथम ही मंद गंध होती है, दूसरे अमोनिया रही-सही गंध को मिटाकर उसकी असलियत को भी गँवा देता है । इन्हीं त्रुटियों के कारण अच्छे व्यापारी इसे नहीं खरीदते । हाँ नकली कस्तूरी बेचने वाले इसे खरीद कर अच्छी कस्तूरी में मिलाकर काफी लाभ उठाते हैं । यह मूल्य, गुण और गंध में एग से बहुत न्यून होती है । उपर्युक्त कश्मीरी कस्तूरी से भिन्न तिब्बती कस्तूरीजब ना से निकाली जाती है, तब उसका वर्ण कत्थई वा उत्तम कच्ची अफीम की तरह होता है। किन्तु उक्त कस्तूरी को नाले से निकालने के उपरांत उस पर प्रकाश और हवा का काफ़ी प्रभाव पड़ते रहने से वह मृदु और कत्थई वर्ण की कस्तूरी सूखती चली जाती है और उसका वर्ण भी श्याम होता चला जाता है । नीली शोशियों में भी कस्तूरी को रखने पर उसमें श्यामता पड़ती है; परंतु अधिक देर में | इससे ज्ञात होता है कि इसके वर्ण में प्रकाश द्वारा ही यह परिवर्तन श्राता है । इसमें कस्मर की अपेक्षा अधिक गंध होती है। गुण में भी यह उसकी अपेक्षा कई गुना अधिक होती है। कस्तूरी लगभग १० प्रतिशत तक सुरासार में, ५० प्रतिशत तक जल में तथा ईथर और चार में भी विलेय होती है। इसका जलीय विलयन Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कस्तूरी २३७७ किंचित् अम्ल होता है । इससे कागज पर पीले दाग पड़ जाते हैं | जलाने से यह मूत्रवत् गंध देती है और लगभग ८ प्रतिशत तक धूसराभ भस्म अवशेष रह जाती है । इसमें अमोनिया, श्रोलीइन, कोलेष्ट्रीन, वसा, मोम, जेलाटिनस ( सरेसीय ) पदार्थ और अल्युमिनीय पदार्थ उपादान रूप से पाये जाते हैं। इसके ज उपरांत श्रवशिष्ट रही हुई भस्म में प्रधानतः क्लोराइड श्राफ सोडियम तथा पोटाशियम और कैलसियम क्लोराइड् से होते हैं । arsata aftaran (Steam Distillation ) एवं तदुत्तर कालीन परिशोधन द्वारा कस्तूरी से स्वल्प प्रतिशत मात्रा में एक प्रकार का पिच्छिल (Viscid ) वर्णरहित, मृगमद की प्रियगंध मय तैल प्राप्त होता है। यह कीटोन ( Kotone ) सिद्ध होता है । श्रतएव मस्कोन (Muskone) à afufga fàur गया है । स्वगंध शक्रि, अक्षुण्णता और स्थिरता के लिये मृगमद सुविख्यात है । सुतराम् उसके समीप में स्थित प्रत्येक वस्तु उससे प्रभावित होकर दोर्घकाल पर्यंत गंध-धारण तम हो जाती है । श्रतएव सुगंध - द्रव्यों में इसे अत्युच्च श्रासन प्राप्त है । यद्यपि अधुना यह अकेली प्रयोग में नहीं छाती, तथापि श्रन्य सुगंधियोंको शक्ति और अक्षुण्णता एवं स्थिरता प्रदान करने के लिये इसका प्रचुर प्रयोग होता है । साबुन थोर सोंदर्यवर्द्धक चूर्णों को सुगंधि प्रदान करने और तरल सुगंधियों में मिलाने के हेतु गंधी लोग इसके सेंट का व्यवहार करते हैं। कपूर, बालछड़, ( Valerian ), कडुए बादाम, लहसुन, हाइड्रोस्थानिक एसिड, ट चूर्ण, सौंफ ( Tennel ), स्नेहमय बोजों जैसी वस्तुओं के संयोग से अथवा देर तक गंधकाम्ल की लौ पर शुष्कीभूत करने से कस्तूरी की गंध पूर्णतया विलुप्तप्राय हो जाती है । परन्तु आर्द्रता और वायु में खुला रखने से वह पुनः लौट आती है । उत्तम कस्तूरी के लक्षण - खाने से जो स्वाद में कड़वी, रंग में पीली, केतकी के फूल के सदृश गंधवाली, तौल में हलकी ७८ फा० कस्तूरी 1 और पानी में डालने से जिसका रंग बदले, वह कस्तूरी राजाओं को सेवनीय है । पुनरपि जो कस्तूरी केतकी के फूल के सदृश गंधवाली हो, वर्ण वा रंग में जो हाथियों के मद को हरे अर्थात् हाथी के मद के समान रंगवाली, स्वाद में कड़वी तथा चरपरी; तौल में हलकी ( जो बहुत चढ़े ) मलने से चिकनी हो जाय, श्रग्नि में डालने से जले नहीं, वरन बहुत देर तक चिमचिम शब्द करे और चमड़ा जलने की सी गंध श्रावे वह मृग केतन से उत्पन्न मृगनाभि की कस्तूरी राजाधों के सेवन योग्य है । बालक, वृद्ध, क्षीण और रोगी मृग की कस्तूरी मंद गंधवाली तथा कामातुर और तरुण मृग की कस्तूरी बहुत उज्ज्वल और अतीव सुगंधिक होती है। ( रा० नि० ) सबसे उत्तम कस्तूरी का वर्ण कत्थई होता है । जिस कस्तूरी का वर्ण घुले हुये कत्थे जैसा निकले तथा नाने के भीतर कुछ काले श्यामदाने भी हों और उसकी गंध तीव्र हो, खाने पर कटु स्वादी और प्रियगंधी हो, वह सर्वोत्तम होती है । तिब्बत की कस्तूरी प्रायः इसी वर्ण की निकलती है । नैनीताल और अल्मोड़े को कस्तूरी का वर्ण इससे हलका होता है, उसमें श्यामता अधिक होती है, रायपुर, बिसहर और कुल्लू की इससे भी अधिक श्याम होती है। कश्मीर की कस्तूरी तो श्याम ही होती है 1 कस्तूरी भेद राजनिघण्टु के मतानुसार वर्ण भेद से कस्तूरी तीन प्रकार की होती है - कपिलवर्ण, पिङ्गलवर्ण श्रौर कृष्णवर्णं । इनमें से नेपाल में उत्पन्न होने वाली कपिलवणं श्रर्थात् भूरे ( Cliush black) रंग की, काश्मीर में उत्पन्न होने वाली पिङ्गल वर्ण की, और कामरू ( कामरूप ) देश में उत्पन्न होनेवाली काले रंग की होती है। किंतु भाव मिश्र के मत से नेपाल देश की कस्तूरी नीले रंग की और काश्मीर की कपिल वर्ण की होती है। इनके मतानुसार कामरू देश में उत्पन्न होने वाली श्रेष्ठ, नेपाल देश जात उससे मध्यम और काश्मीर देश में उत्पन्न होने वाली श्रधम होती है। नोट- कामरूपी कस्तुरी ही कदाचित श्रासाम की कस्तूरी ( Assam Musk) है, जिसका Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कस्तूरी श्रायात चीन और तिब्बत से कामरूप होकर होता है। भारत में केवल कामरूप निवासियों में इसका व्यवसाय होता था । रूपाकृति के विचार से राजनिघण्टुकार ने इसके ये पाँच भेद लिखे हैं- खरिका, तिलका, कुलत्था, पिण्डा और नायिका । इनमें से खरिका चूर्णाकृति की, तिल के समान तिलका, कुलथी के बीजों के समान कुलित्थका ( कुलत्थका, कुलत्था ) कुलत्था कस्तूरी से कुछ मोटी पिरिडका और पिण्डिका से किंचित् अधिक स्थूल नायिका कस्तूरी होती है । ( रा० नि० ) श्रायुर्वेदीय शास्त्रकारों की भाँति युनानी ग्रंथकर्त्ताओं ने भी कस्तूरी के विविध भेदों का उल्लेख अपने-अपने ग्रंथों में किया है। उनके अनुसार सर्वोत्कृष्टतर कस्तूरी तिब्बत की होती है । तदुपरांत चीन देशीय । कोई-कोई ख़ताया की कस्तूरी सर्वा पेक्षा उत्तम मानते हैं । तदुपरांत क्रमशः तिब्बतीय फिर कोट काँगड़े की पुनः नेपाल की और अंत २३७८ ' श्रन्यदेशीय । किसी-किसी ने तुर्की और हिंदी इसके यह दो भेद किये हैं। इनमें से पुनः हरएक के अनेक उपभेद होते हैं । इनके मतानुसार तुर्की हिंदी से उत्कृष्टतर और तुर्की में ताताई की अपेक्षा ख़ताई कस्तूरी श्रेष्ठतर होती है। इसका कारण यह बतलाया जाता है कि तातारी में किंचित् वसायँध होती है। इसके बाद तुर्की कस्तूरी के श्रन्यभेदों का नंबर है। हिंदी में सर्वोत्तम नैपाली फिर रंगपुरी, तत्पश्चात् अन्य स्थानों की होती है। मिन्हाजुल दकान में यह उल्लेख है कि मुश्क पाँच प्रकार का होता है- (१) हिंदी ( २ ) चीनी, (३) तिब्बती, (४) अराक़ी और (५) मिस्कुल्यद । इनमें हिंदुस्तानी मुश्क का रंग लाई लिए काला होताहै, इसकी निकृष्टतमस्मि वह है जो एकदम काली हो । कृत्रिम मुश्क ललाई लिये होता है । इसकी परीक्षा-विधि यह है— कि पीसकर अर्क गुलाब में छोड़ देवें, यदि यह सब नीचे बैठ जाय, और गुलाबार्क स्वच्छ रह जाय, तो जानो कि मुश्क शुद्ध है और यदि गुलाबाक अस्वच्छ वा गदला होजाय और नीचे कुछ भी न बैठे, तो समझना चाहिये कि वह मिलावटी है। कस्तूरी अराक़ी मुश्क ललाई लिये पीला होता है । इसकी परीक्षा की रीति यह है - इसको कूटकर मुँह में रखें, यदि तीव्र सुगंधि मालूम हो, पर स्वाद कोई न हो, तो समझें कि वह अकृत्रिम है । और यदि किसी प्रकार का अनुभूत हो तो जिस चीज़ का स्वाद प्रतीत हो उसी के मेल से बना समझें । मुश्क तिब्बती की परीक्षा इस प्रकार करें हर प्रकार के मुश्क को तो गुलाबार्क में घिस ओर रगड़ सकते हैं, परंतु तिब्बती बिना कटे ये गुलाब में नहीं घिसा जाता । यह कड़ा भी होता है और इससे दुर्गंधि वा बसायँध भी श्राती है। मुरक चीनी भी बहुत कड़ा होता है और तिब्बती की अपेक्षा घटिया होता है । इसलिये इसका तिब्बती में मिश्रण करते हैं। दोनों में भेद यह है कि तिब्बती काला होता है, पर चीनी ललाई लिये पीला और वह अराक़ी की अपेक्षा घटिया है। मुश्कु यद हिंदुस्तान में अली प्रालिल्यद् से सगृहीत किया जाता है और वहाँ से इसे श्रन्यान्य देशों को ले जाते हैं । अत्यन्त खराब होने के कारण इसकी परीक्षा का कोई नियम नहीं है । खाँ फ़ीरोज़ जंग ने गंजवादावर्द में लिखा है कि- हिंदुस्तानी मुश्क किंचित् ललाई लिये कृष्ण वर्ण का एवं निकृष्ट हिंदुस्तानी मुश्क विलकुल कृष्ण वर्ण का होता है । उसमें सुर्खी का नाम नहीं होता है । कृत्रिम हिंदुस्तानी मुश्क में सुर्खी की प्रबलता होती है और देर तक रहने से सुर्ख़ पड़ जाता है तथा कीड़े पैदा हो जाते हैं । इनको सिरका वा गुलाब में पीसकर निथरने के लिये छोड़ रखें । पुनः यदि यह तलस्थायी हो जाय और ऊपर स्वच्छ तथा श्वेत पानी रह जाय, त समझें कि मुश्क ख़ालिस है । यदि पानी मैला पड़ जाय और मैला पानी जम जाय तो कृत्रिम समझना चाहिये | अराक़ी मुश्क पीतता और श्यामता की लपट युक्त रक्तवर्ण ( श्रश्वर ) का होता है । इसमें से यत्किंचित् लेकर मुख में रखने सेति सुगंधि श्राती है और किसी प्रकार स्वाद प्रतीत नहीं होता है । इस प्रकार का मुश्क उत्तम होता है। इसके विरुद्ध यदि किसी प्रकार का स्वाद प्रतीत हो, तो इसमें उसी वस्तु का मिश्रण Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कस्तूरी २३७६ कस्तूरी जानना चाहिये । तातारी मुश्क कड़ा होता है ।। में यांगट्सी नदी में स्टीमर का रास्ता खुलने से कभी इसमें मुश्की का मिश्रण कर देते हैं । इसकी पूर्व, यह कस्तूरी, टान्किन से होकर, दक्षिण को एक किस्म हिंदुस्तान से आती है जिसे मुश्क बेह भेजो जाती थी, इसलिये आजतक इसका उक्त कहते हैं । सभी प्रकार के मुश्क से घटिया होने के नाम रह गया। इसका मुख्य बाजार देश के भीतर कारण इसकी परीक्षाका कोई विधि विधान नहींहै । तत्सीनलु नगर में है जो तिब्ब की सीमा के हिंदुस्तान में आज जितनी भी कस्तूरी हिमालय | सन्निकट है । युनान प्रांत में भी कुछ कस्तूरी प्राप्त प्रति से आती है, प्रायः निम्नलिखित स्थानों से होती है। किंतु व्यापार में उसका कुछ भी उपयोग पाती है । तिब्बत की दार्जिलिंग से और नेपाल नहीं होता। बाजारों में अधिकतर परिमाणमें कस्तूरी से; भूटान की अल्मोड़ा से; पित्ती की रामपुर, मंगोलिया के उत्तरीय भागों, मंचूरिया और पूर्वी बिसहर और कुल्लू से; लद्दाख और गिलगित्त की साइबेरिया से आती है। इसे (Cabardine) काश्मीर से। इनमें तिब्ब्बत की कस्तूरी सों नामक कस्तूरी कहते हैं, किंतु इसकी उम्र भेदनीय त्तम होती है । उससे हीन भूटान की ओर उससे अप्रिय गंध के कारण इसे प्रथम श्रेणी की वस्तु हीन पित्ती तथा काश्मीर की सबसे हीन होती है। की जगह व्यवहार नहीं किया जाता। (प्रार० एन० चोपरा-इं० दू. ई० पृ० ४२४-५) कस्तूरी के व्यापारिक भेद-व्याणर की कृत्रिम नाफे की पहिचान । दृष्टि से कस्तूरी के ये तीन भेद किये गये हैं। नकली नानै गोल, कठोर सब तरफ से बालों (.) रूसी कस्तूरी ( The Russian से श्रावरित होते हैं। कुछ अधिक दिन (चार Musk )-यह कस्तूरी अतीव मंद गंधी होती छः मास) पड़े रहने पर उन नानों की त्वचा है। इसलिये यह बहुत प्रशंसनीय नहीं होती। और तज्जात कस्तरी दोनों सुख जाते हैं। इससे (२) अासाम को कस्तूरी ( The Assam उनको दबाने पर वह या तो दबते ही नहीं या Mnsk)-यह अत्यंत उग्र गंधी होती है और कुछ कम दबते हैं । परन्तु इसकी बनावट नकलो प्रथम की अपेक्षा बाजार में अधिक तेज बिकती से सदा भिन्न ही रहती है। सर्व प्रथम कस्तूरी के है। भारतीय चिकित्सा शास्त्रों में इसे ही 'काम. नाफ़े को इस प्रकार परीक्षा कर लेने के पश्चात् रूपोद्भवा कस्तूरी' के नाम से स्मरण किया गया कस्तूरी परीक्षा की बारी आती है। कस्तूती के है। यह कृष्ण वर्ण की होती है और उपलभ्यमान व्यापारी प्रथम तो नाने को देखकर ही पहिचान कस्तूरी-भेदों में यह सर्वोत्तम ख्याल की जाती है । लेते हैं कि यह किस प्रांत का है । इस प्रकार पता (३) चीनी कस्तूरी ( The Chinese न चलने पर वे दोहरी छतरी के तार को काटकर Musk)-वर्तमान समय में यह कस्तूरी सर्वा बनाई हुई परखी' को नोने के भीतर घुसेड़ कर पेक्षा अधिक प्रशंसित है; क्योंकि इसमें अमोनिया कस्तूरी निकाल कर उसके स्वरूप से मालूम कर निर्देशक किसी प्रकारकीअप्रिय गंध नहीं होती; जो लेते हैं कि यह कस्तूरी किस प्रांत की है। कभी कभी इसके निकृष्टतर भेदों में पाई जाती है। कृत्रिम वा वनावटी नाफे और कस्तूरी इनमें से अधिकसंख्यक कस्तूरी का निर्यात प्रायः ( Adulteration of Musk चीन और तिब्बत से होता है, जहाँ कि कस्तूरी Lmusk-Pod) मृग पाया जाता है । वहीं तत्सीनलु के कस्तूरी (.) जो व्यक्ति कस्तूरी मृग का शिकार करते के व्यापारी इसे ख़रीद लेते हैं और वहाँ से यह हैं उस मृग की हाथ-पैर की कोहनी का धर्म चुङ्गकिंग लाया जाता है। टाकिन् की कस्तूरी गोलाकार काटकर उसमें उसी समय उस मृग के (Tonkin Musk) जो व्यापारिक कस्तूरी रक्त में दानेदार काली मिट्टी जो पहले से बनाई का एक भेद है और जिसका मुख्यतयासुगंधियों में हुई उनके पास होती है, भर कर उसे धागे से व्यवहार होता है, पश्चिमी सेचुआन तथा तिब्बत खूब कसकर बाँध देते हैं । कोई-कोई उसी समय के पूर्वी विस्तृत भाग से आती है। गत शताब्दी । वत्किञ्चित् नाफे से कस्तूरी निकालकर वह भी Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कस्तूरी २३८० कस्तूरी उक्त कृत्रिम नाफे के मुख पर रख देते हैं और बँधा हुधा चर्मभाग इस जोरसे अंदर दबातेहैं कि उसका कुछ भी हिस्सा बाहर निकला दिखाई नहीं देता । अनजान व्यकि इस नाफ़े से ठगे जाते हैं। (२) अमृतसर से यह नाफे बाहर को बेंचने के लिये नहीं जाते। प्रत्युत यहाँ के व्यापारी खुली हुई कस्तूरी कृत्रिम और मिलावट वालीही अधिक बेचते हैं और उसको वह निम्नलिखित रीति पर तैयार करते हैं। ___ जुन्दबेदस्तर नामक प्राणिज द्रव्य जो ऊद विलाव के वृषण होते हैं उन वृषणों के अंदर के भाग को सुखाकर चूर्ण कर लेते हैं । वह हलका कपिल वर्ण का होताहै। उसको रंगकर कत्थई बना लेते हैं और उसको लैनोलीन के मिश्रण से साधा. रणतः मृदु करके निम्नलिखित कृत्रिम कस्तूरी Musk ambrette, Musk ketone आदि छः सात प्रकार के कस्तूरी गंध द्रव्यों में से कोई उचित मात्रा में मिलाकर उसे कस्तूरी के नाम से बेंचते हैं। (३) कुछ लोग जुन्दबेदस्तर को तैयार करके । उसमें कश्मीरी करसूरी मिलाकर उसे असली कस्तूरी के नाम से बेंच लेते हैं। यह दोनों प्रकार की कस्तूरी अमृतसर से अधिक बाहर को जाती है। (विज्ञान-अग० १६३५ ई.) (४) इसमें कस्तूरी कला का भी मिश्रण होता है । प्रत्येक मृग नाभि में कस्तूरी निकालते समय एक तोला पीछे :॥, २ माशे कस्तूरी कला अवश्य निकल जाती है। श्राज से पन्द्रह बीस वर्ष पूर्व उक्त कला को लखनऊ के तम्बाकू बनाने वाले खरीद ले जाते थे और इसको डालकर मुश्की तम्बाकू बनाते थे। कस्तूरी की इस कला को "मदन" कहते हैं । उस समय यह कला ८) रु. से १२)रु० तोला तक बिक जाती थी और तम्बाकू में पूरा कस्तूरी का काम देती थी। पर जब से कस्तूरी के विलायती सेंट आये तब से तम्बाकू वाले इसको न खरीद कर सेंट डालते हैं इसीलिये इसकी बिक्री बंद हो गई । जहाँ जहाँ भी कस्तूरी के बड़े व्यापारी हैं, जब उनकी उन कस्तूरी कला की खपत बंद होगई तो वह इसको कस्तूरी में मिलाकर बेचने का प्रयत्न करने लगे। कस्तरी । के व्यापारी जिनके यहाँ कस्तरी कला अधिक निकलती थी, वे सिगरेट की तम्बाकू काटने वाली मशीन मंगाकर उस से कला को खूब बारीक करके उसे कस्तूरी में मिलाकर बेंचने लगे। (५) इससे भिन्न तीन-चार और भी पदार्थों के मिश्रण इसमें करते हैं। जिनकी मात्रा प्रति तोला १, २, ३ माशे से अधिक नहीं होती। यह वस्तु सत्व मुलहठी, लता कस्तूरी धन सत्व, इसव गोल श्रादि हैं जो तैलान करके और वर्णयुक्त बनाकर मिलाये जाते हैं और सुगंधि विलायती सेंट की देते हैं । परंतु यह सब स्वाद के समय पहिचाने जाते हैं । इसलिये इनका मिश्रण कम हो गया है। (श्रा. वि. जनवरी सन् १९३२) (६) इसमें शुष्क रक्त और यकृत प्रभृति निष्क्रिय द्रव्यों का मिश्रण करते हैं। वाणिज्य के हेतु कस्तूरी तैयार करते समय उसमें कलाय, गेहूं के दाने. जौ के दाने प्रभृति वानस्पतिक द्रव्यों का भी मिश्रण करते हैं। (पार० एन० चोपरा इं० १० इं० पृ० ४२५) (७) कत्था, शिंगरफ, धूलिकण और चमड़े के टुकड़े इत्यादि दिया करते हैं। (ख. प्र.) (८) लोग भैंसे के रंक में वा कस्तूरी मृग के खून में एमोनिया मिलाकर उसे सुखा लेते और कस्तूरी में मिलाकर अथवा उसकी सुगंधि देकर नकली कस्तूरी के रूप में बेचते हैं। सुतरां कस्तूरी में एमोनिया की गंध मात्र से उसकी प्रकृत्रिमता के प्रति संदेह हो सकता है। किंतु साथ ही पुरानी असली कस्तूरीकी सुगंधि पुनः जीवित करने के लिये प्रत्यक्ष रूप से एमोनिया व्यवहार में लाते हैं । अतएव एमोनिया की गंधमान से कस्तूरी को एक दम नकली समझ लेना भी युक्रि युक्न नहीं है। (प्रारो० वि० अप्रैल सन् १९५३) सारांश यह कि इस प्रकार की बनावटी कस्तुरी भी आजकल बाजारों में बहुत बिकती हैं। अस्तु, कस्तूरी खरीदते समय इन नक्कालों से सदा सावधान रहना चाहिये और इसे सदैव किसी विश्वास पात्र बड़े दुकानदार से खरीदनी चाहिये। यदि संभव हो तो उसकी परीक्षा करके देख लेनाचाहिये। Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कस्तूरी २३८१ कस्तूरी ठोक उतरी हो, परंतु श्राज तो काल की कुटिल गति के प्रभावसे नई-नई वस्तुएँ सामने आ रही हैं बनाने के विधि-विधान निकल रहे हैं। ऐसी स्थिति में वह हजारों वर्ष पूर्व की किसी एक प्रकार की कृत्रिम कस्तूरी के लिये दी गई परीक्षा विधि क्या कभी पूर्ण उतर सकती है ? अतएव कृत्रिम और अकृत्रिम कस्तूरी की परीक्षा के लिये विज्ञान-वेत्ताओं ने अनेक पद्धतियों का आविष्कार किया है । परन्तु वे अत्यन्त क्लिष्ट एवं अव्यावहारिक हैं। अस्तु, उन्हें न देकर यहाँ कतिपय अन्य सरल व्यवहारोपयोगी विधियोंका ही उल्लेख किया जायगा | वे निम्न हैं . कृत्रिम कस्तूरी के शास्त्रोक्त लक्षण जो कस्तूरी छूने में चिकनी. जिसके धुएँ में गंध श्रावे ( धूमगंधा ) जिसे वस्त्र में रखने से वस्त्र पीला होजाय, अग्नि में डालने से तत्काल जलकर सब भस्म वा खाक होजाय, तौल में भारी हो अर्थात् कम चढ़े और मलने से रूखी होजाय, उस कस्तूरी को बनावटी समझ कर सेवन नहीं करना चाहिये । शुद्ध व मलिन जाति की कस्तूरी नपुंसक मृग और मृगी की होती है इसके अतिरिक्र और कोई दूसरी पहिचान नहीं, इसमें केवल एक सुगंध ही बड़ा चमत्कृत गुण है, जिससे यह काम का श्रृंगार मस्तक, कपोल, कंठ, भुजा और स्त्रियों के कुच मंडल में लगाई जाती है। (रा० नि०) कस्तूरी परीक्षा मृगनाभि दुष्प्राप्य, बहुप्रयुक्र एवं बहुमूल्य वस्तु है। प्रति तोला ३०) से लेकर.) तोला तक मिलती है। इसीलिये इसमें कृत्रिम वस्तुओं का सम्मिश्रण करके बेचने का लोभ लोगों में अधिक पाया जाता है। इस प्रकार का मिश्रण प्राचीन काल में भी होता था। इसीलिए शास्त्रों में इसकी परीक्षा के विधान का उल्लेख मिलता है। करतलजलमध्ये स्थापनीयात् भहद्विः । पुनरपितदवस्थां चिन्तनीयं मुहूर्तम् ।। यदि भवति स रक्तं तज्जलं पीतवर्णं । न भवति मृगनाभेः कृत्रिमोयोऽयं विकारः॥ (का०) अर्थात् हथेली में जल रखकर एक मुहूर्त मात्र तक उसमें कस्तूरी पड़ी रहने देव । यदि वह जल लाल वा पीला होजाय तो समझना चाहिये कि वह कस्तूरी असल नहीं, वरन् कृत्रिम वा बनावटी है। यह परीक्षा केवल उस समय सफल हो सकती है, जब कस्तूरी में शुष्क रक मिश्रित हुअा हो, अथवा मृग के रक्त को जमाकर कस्तूरी बनाई गई। हो, इससे भिन्न वस्तु मिलाकर बनाई हुई कस्तूरी की परीक्षा में उक्त नियम ठीक नहीं उतर सकता संभव है पूर्वकाल में पूर्वोक्त विधि से कृत्रिम कस्तूरी बनाते रहे हों, जिस समय यह परीक्षा (१) कस्तूरी की सबसे उत्तम परीक्षा तो उसे खाकर ही की जातो है। जो मनुष्य इसे सेवन करते हैं, वे स्वाद से भी मालूम कर लेते हैं। उनका कथन है कि असली कस्तूरी खाने में विशेष प्रकार की कटुता युक्र स्निग्ध होती है ।जैसी कटुता और स्निग्धता कस्तूरी में होती है, आज तक किसी भी नकली कस्तूरी में नहीं देखी गई । जुन्दवेदस्तर की वनी कस्तूरी स्वादरहित, फीको और कुछ दाँतों में चिपकनेवाली होती है। (२) दूसरी परीक्षा इसकी गंध की है ।पारस्य ख्यातनामा नीतिकार शेख सादी कहते हैं "मुश्क आँ कि खुद गोयद, नकि अत्तार ब गोगद ।" इस कथन का अभिप्राय भी यही है। असली विशुद्ध कस्तूरी विशेष गंधपूर्ण होती है तथा मुंह में डालते ही अपनी मदपूर्ण मुंह को भर देती है, जिससे चित्त प्रफुल्लित हो उठता है । घर में इसे खुला छोड़ रखने पर सारा गृह उसकी तीव्र सुगंधि से परिपूर्ण हो जाता है और वह सुरभि तब तक नष्ट नहीं होती, जब तक सम्पूर्ण कस्तूरी उड़ नहीं जाती। इस प्रकार खुला रहने देने से असली कस्तूरी उड़ जाती है । यद्यपि कस्तूरी के चार-पाँच ऐसे उत्तम विलायती सूखे सेंट पाये हैं, जो कस्तूरी की गंध रखते हैं और किसी भी वस्तु में मिला देने पर वह कस्तूरी की गंध देते रहते हैं, परन्तु इन सबकी गंध विशुद्ध कस्तूरी की अपेक्षा तीव्र होती है। Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कस्तूरी २३बर कस्तूरी जितनी भी नकली कस्तूरी है, वे सब बहुत* कम घुलती हैं। दूसरे उड़नशील भी अधिक हैं । यदि कृत्रिम । कस्तूरी और प्रकृत्रिम कस्तूरी को खुला छोड़ दिया जाय, तो नकली कस्तूरो की गंध एक ही दिन में उड़ जाती है और वह काली काली वस्तु अव. शिष्ट रह जाती है। इसको खुलो रखी रहने से वजन भी नहीं घटता । पर असली कस्तूरी की गंध नहीं जाती । यद्यपि असली कस्तूरी की भी गंध उड़ती रहती है। इसी से असली कस्तूरी खुली पड़ी रहे तो वज़न (भार) में कम हो जाती है । परंतु जब तक सारे कस्तूरी-गध के परमाणु उसमें से न निकल जाय, गंध नहीं घटती। जुदबेदस्तर की बनी कस्तूरी गंधरहित या कुछ मंद गधयुक्त होती है। इसकी यह गंध भी कुछ देर में ही जाती रहती है। असली कस्तूरी को हाथ की अंगुली से मला जाय तो दो-चार घटे उसकी गंध दूर नहीं होती। कस्तूरी का एक विशेष स्वभाव यह भी है कि अपने संपर्क में श्राई हुई वस्तु को यह अपनो विशिष्टगंध तुरत प्रदान करती है, इसलिये गध द्वारा इसके मि..ण का ढंड निकालना कठिन होता है। (३) कस्तूरी की तीसरी परीक्षा यह है कि यदि असली कस्तूरी को जल में डाल दिया जाय तो जल का रंग कुछ पीला सा हो जाता है,नकली का रंग जल में नहीं उतरता। एक प्रकार की जुदबे दस्तर को बनो हुई कस्सूरी पाती है । यदि यह जल में डालो जाय, तो जल गहरा पीत और भूरा होता है। परंतु यह रंग अधिक देर में अथवा हाथ लगाने या हलाने से उतरता है और असली फौरन ही रंग छोड़ देती है। (४) चोथे यदि इसे रेक्टिफाइड स्पिरिट (हली ) में डाल दें तो यह घुल जाती है और कुछ थोड़ा सा भाग गाद का पेंदे में बैठ जाता है। उस गाद में मिली (कला), बाल और कुछ रेत के कण पाये जाते हैं। इनके सिवा और कोई वस्तु नीचे नहीं बैठती। यह गाद एक तोला कस्तूरी में अधिक से अधिक १॥ माशे निकलती है अर्थात् बाकी भाग सब कस्तूरी का होता है। पर जु'दबेदस्तर से बनाई हुई नकली कस्तूरी का | कुछ अधिक हिस्सा स्पिरिट में घुलता है। वाकी (१) पाँचवी परीक्षा लहसुन में भी करते हैं जिसकी विधि यह है। कस्तूरी को एक डोरे पर खूब मल देते हैं और उस डोरे को सुई से पिरोकर लहसुन की पोथी के बीच से उस डोरे को दूसरी ओर निकाल देते हैं । थोड़ी देर के पश्चात् जब धागा सूख जाता है. जो लहसुन के स्पर्श से गीला हो जाता है। उसकी गंध लेने पर यदि कस्तूरी की गंध अावे, तो समझो कस्तूरी असली । गंध न श्रावे, तो नकली समझना चाहिये । पर इस परीक्षा में सावधानी की आवश्यकता है अर्थात् धागे पर कस्तूरी को अच्छी तरह मलना चाहिये जिससे लहसुन में से धागे निकालने पर कस्तूरी विल्कुल घुल न जाय । यदि सारी कस्तूरी घुल जायगी, तो कभी भी गंध नहीं पा सकती। इसलिये अच्छी तरह कस्तूरी मलकर लगानी चाहिये अथवा कस्तूरी मर्दित डोरे को लहसुन के रस के हलके घोल में एक बार डुबोकर निकाल लेते हैं और जब डोरा सूख जावे तो उसको सूधने पर कस्तूरी की खुशबू श्रावे तो समझना चाहिये कि असली कस्तूरी है अन्यथा बनावटी है । अथवा डोरे में प्रथम लहसुन का रस वा हींग लगाकर पुनः उसे नाफे के आर-पार करके सूंघने पर यदि उसमें से लहसुन वा हींग को गंध आवे तो समझना चाहिये कि कस्तूरी नकली है, अन्यथा असली है। इनके अतिरिक्त चीन औरतिब्बत के व्यापारियों में भी कस्तूरी परीक्षा की अनेक विधियाँ प्रचलित हैं जो यद्यपि बहुत विज्ञानसम्मत तो नहीं, पर इसकी असलियत जानने में बहुत हद तक साहाय्यभूत होती हैं। प्रस्तु, जब कभी उनकी वास्तविकता में संदेह उपस्थित होता है तो (६) मृगनाभि वा नाफे से कुछ दाने निकालकर पानी में छोड़ देते हैं। यदि ये दाने बने रहते हैं, तो यह जाना जाता है कि कस्तूरी असली है। यदि वे घुल जाते हैं, तो वह नकली है। Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कस्तूरी २३८३ कस्तूरी ५ (७) सातवीं परीक्षा विधि यह है कि कस्तूरी औषध-निर्माण-अायुर्वेदीयः के चंद दाने कोयले की आग पर डालते हैं । यदि कस्तूरी भूषण रस, कस्तूरी भैरव रस, (स्वल्प, वे पिघल जाते हैं और बुलबुला देते (Bubble) मध्यम, वृहत् ); कस्तूरी गुटिका कस्तूरी मोदक, हैं तो यह समझा जाता है कि शुद्ध कस्तूरी है। कस्तूरी रस, कस्तूर्यादि चूर्ण, कस्तूर्यादि स्तम्भन, यदिवे तुरत कड़े और जलकर राखहो जाते हैं तो उसे मृगनाभ्याद्यवलेह (भा०); वसंत तिलक रस (२० मिश्रित वा अशुद्ध समझा जाता है । जलते समय सा० सं०) लक्ष्मीविलास रस, इत्यादि । असली कस्तूरी से एक विशेष प्रकार की गंध मात्रा-२॥ रत्ती से ५ रत्ती वटी वा मिश्रण पाती है । जो अन्य असली कस्तूरी की चीजों के (Mixture) रूप में। जलने से नहीं होती। एलोपैथी(८) आठवीं यह कि दफ़न करने वा गाड़ने असम पर उसकी गंध नहीं बदलती। पर जब यह ( Not official Preparation ) अशुद्ध वा नकली होती है तो इसकी गंध पूर्णतः (१) मिस्च्युरा मास्काई Mistura परिवर्तित हो जाती है। Moschi करतूरी द्रव । मज़ीज मिश्क । योग(6) नवीं परीक्षा स्पर्श द्वारा होती है। कस्तूरी : ग्रेन, अकेशिया ई ग्रेन, शर्करा ६ ग्रेन, असली कस्तूरी छूने में मृदु और नकली कड़ी रोज़ वाटर १० पाउंस, मात्रा-1 से २ आउंस होती है। या अधिक। (१०) अणुवीक्षण यन्त्र से परीक्षा करने पर (२) पिल्युला मास्काई Pilula Mos यदि असली कस्तूरी में शुष्क रक्क मिति हुश्रा chi कस्तूरीवटिका, हब्ब मिश्क । योग-कस्तूरी हो तो वह रक्त और उसके अंश साफ दिख १२ ग्रेन, बब्बूल निर्यास चूर्ण ३ ग्रेन, मधुयष्टी जाते हैं। चूर्ण ३ग्रेन, सबको परस्पर मिलाकर चार वटिकाएँ . (११) असली कस्तूरी को जल में घोलकर प्रस्तुत करें । मात्रा-१ से २ वटिकायें । उसमें ( BI-Chloride of mercury) (३) टिक्च्यु रा मास्काई Tinctura मिश्रित कर देने से कोई भी वस्तु जल से पृथक Moschi मृगमदासव । तअफ़ीन मुश्क । योग नहीं होती। एवं निर्माण विधि-कस्तूरी ६ ग्रेन, सुरासार (१२)जो मुश्क खाने में अत्यन्त तिक्त एवं (६०%) १ श्राउंस । करतूरी को सुरासार में तीक्ष्ण, रंग में पीला और सेव की सुगंधि वाला सप्ताह पर्यन्त भिगो रखने के उपरांत उसे छान तथा खता, तिब्बत कोटकाँगड़ा या नैपाल देश में लेवें। मात्रा-1 से १ ड्राम । उत्पन्न हुआ हो, वह असली और विशुद्ध है। नोट-भलीभाँति सुखाई हुई उत्तम कस्तूरी और जो अत्यन्त श्यामवर्ण का भारी, कषाय वा को थोड़ा सुरासार में क्लोदित कर पुनः सबको जल अन्य स्वाद युक्र, अल्प गंधी वा दुर्गन्धयुक्त हो | में घोलकर चौबीस घंटे पड़ा रहने देवे। कस्तूरी उसे बनावटी समझना चाहिये । (ख० अ०) जल में सुविलेय होतीहै और पूर्व व्यवहार पद्धति (१३) कस्तूरी को थूक वा पानी के साथ से लगभग ७०, ७५ प्रतिशत भाग तक लीन हो हथेली पर मलने से यदि वह घुल जाय तो वह जाती है। प्राप्त विलयन को किंचित् ताप देने पर असली और यदि बत्ती बन जाय तो बनावटी कस्तूरी का शेष रहा थोड़ा और भागभी उक्त विलसमझना चाहिये। (स्व० अ०) यन में मिल जाता है। परंतु उन व्यवहार से (१४) अरस्तू की परीक्षाविधि यह है- कस्तूरीगत उड़नशील पदार्थ के नष्ट होने का भय कस्तूरीको पीसकर तौल लेवें। इसके उपरांत उसे रहता है । अतएव यह ठीक नहीं है। पाई पात्र में एक क्षण रखकर पुनः तौलें। यदि वाणिज्योपयोगी कस्तूरो-निर्माण-पद्धति बज़न बढ़ जाय, तो असली, वरन् नकली बाजार के लिये व्यापारोपयोगी कस्तूरी प्रस्तुती जानें। करण की अनेक रीतियाँ प्रचलित हैं। उनमें Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कस्तूरी सर्वोकृष्ट रीति यह है कि मृग से नाफा ग्रहण करने के बाद तुरंत उसे वायु और धूप में खुला रखकर सुखा लेते हैं । कस्तूरी की गंध श्रत्युग्र एवं प्रवल प्रसरणशील होती है । अतएव इसे सामान्यतया खूब सीलबन्द बरतन में अथवा किनारे पर टीन की पट्टी लगे हुये लकड़ी के सन्दूकों में बंद कर रखते हैं । ऋतु श्रादि के कुप्रभाव से सुरक्षित रखने के लिये और जिसमें इसकी गंध उड़ न जाय, नाने को पृथक्-पृथक् चमड़े की छोटी-छोटी थैलियों में उसके चतुर्दिक मृग लोग वा उसी तरह की कोई और वस्तु देकर उनके प्रथम प्राप्ति स्थल पर ही बंद कर देते हैं । चीनी व्यापारी कभी-कभी इन्हें दो-दो वा तीनतीन दर्जन की तादाद में एक साथ रेशम वस्त्र में लपेट कर रखते हैं । व्यापारियों का वह वर्ग जो श्रौषधीय जड़ी-बूटियों और तजात अन्यपदार्थो के निर्यात व्यापार में संलग्न होते हैं, वही शिकारियों से कस्तूरी संग्रह भी करता है । कोई भी चीनी व्यापारी केवल कस्तूरी का व्यापार नहीं करता । रासायनिक विधि द्वारा प्रस्तुत कृत्रिम कस्तूरी (Artificial Musk ) २३८४ कस्तूरी मृग के वर्णनावसर पर हमने यह बतलाया है कि किस बढ़े हुये श्रनुपात से कस्तूरी मृगों के संहार का क्रम जारी है। उससे यह अनुमान लगाया गया कि शीघ्र भविष्य में कहीं इसका वंश ही न इस भूमण्डल से विलुप्त हो जाय, पुनः कस्तूरी के सम्बन्ध में क्या कहा जा सकता है। साथ ही असली कस्तूरी बहुत तेज और कम मिलती है, जिससे इसकी दिनों दिन उत्तरोत्तर बढ़ती हुई माँग की पूर्ति होना श्रसम्भव नहीं, तो कठिन अवश्य जान पड़ता है। इसका प्रमाण यह है. फ्रांस में जो संसार का सबसे बड़ा सुगंध - द्रव्योत्पादक देश है, वहाँ की सुगंधियों के निर्माण में उन द्रव्य के प्रभावरूपी तय की वृद्धि हो रही है । इन बातों से पाश्चात्य रासायनिकों का ध्यान प्रकृति वस्तु के गुण स्वभाव सदृश किसी ऐसे प्रतिनिधि द्रव्य के निर्माण की ओर श्रीकृष्ट हुआ, जिनकी रचना प्रयोगशाला में हो कस्तूरी सके । फलतः कस्तूरी गंधवाले बहुशः यौगिक * संयोगात्मक विधि द्वारा निर्मित किये गये हैं, परन्तु प्रकृत कस्तूरी से उनकी रासायनिक रचना पूर्णतया भिन्न । यद्यपि वे विषक नहीं, अतएव सुगंधियों में, असली कस्तूरी की जगह उनका बहुल प्रयोग होता है और वे सस्ती पड़ती हैं । अधुना Trinitro-meta tertiary buty1 toluene नाम से विदित द्रव्य तथा Tolu• ene और Ketone से विविध प्रकार से रासायनतः बने तत्सम द्रव्य, कस्तूरी के प्रतिनिधि द्रव्य हैं। इनमें Trinitrobutyltoluol ( C6_HNO3 CH3 C4 H सर्वोत्कृष्ट स्वीकार किया गया है। इसकी गंध स्वाभाविक कस्तूरीगंध के सर्वथा समान होती है और कृत्रिम कस्तूरी ( Artificial Musk ) के नाम से सुगंध्यर्थ बिकती है । जर्मनी के विज्ञान वेत्तागण भी उक्त जैविक पदार्थ को बनाने के लिये रासायनिक क्रियाओं द्वारा विशेष उद्योग कर रहे हैं । फलस्वरूप केवल जर्मनी में सन् १६२५ पर्यंत वहाँ के वैज्ञानिक लोगों ने रासायनिक विधि से कस्तूरी तैयार करने के तेरह तरीके दूँढ़ निकाले थे। किंतु अद्यावधि रासायनिक विधि से तैयार की हुई कस्तूरी सुगंधि और गुण में बिलकुल असली कस्तूरी जैसी सिद्ध नहीं हुई। इतिहास पुरातन काल से सभ्य समाज में जिन सुगंध द्रव्यों का व्यवहार होता श्राया है, स्यात् उनमें मृगनाभि प्राचीनतम है। चीन देश में इसका विशेष श्रादर है । प्राचीन चीनी साहित्य के परिशीलन से यह ज्ञात होता है कि वे इसे श्रनेकानेक रोग निवारणक्षम मानते थे । तद्देशीय लब्धप्रतिष्ठ चिकित्सक पाश्रो- पुत्सी का कथन है कि'मृगनाभि' सदा साथ में रहने से सर्पदंश का भय नहीं रहता । सर्प कस्तूरी मृग की भोज्य वस्तु 1 अतः एक टुकड़ा कस्तूरी पास में रककर कोई भी प्रवासी उसकी तीक्ष्ण गंध द्वारा सर्पकुल को दूर रख सकता है । Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कस्तूरी २३८५ कस्तूरी ... भारतवर्ष में औषधि ओर सुगंध के रूप में | सालादीन ने रोम सम्राट् को बहुत सी वस्तुएं कस्तूरी का व्यवहार दीर्घ काल से चला पा उपहार स्वरूप भेजी थीं, जिनकी बृहत् तालिका रहा है । अस्तु, धन्वन्तरीय तथा राजनिघण्टु आदि पुस्तक में उल्लिखित है। उसमें कस्तूरी का भी प्राचीनतम निघण्टु ग्रंथों में भी इसका स्पष्ट उल्लेख नाम है। दशवीं शताब्दी में अबीसोना ने अपनी प्राप्त होता है। भावप्रकाशकार ने तीन प्रकार की भैषज्य विषयक पुस्तक में मृगनाभि को नाना रोग कस्तूरी का उबेख अपने ग्रंथ में किया है। भार- नाशक महौषधि के रूप में वर्णित किया है। तीय चिकित्सक इसे अत्यन्त उत्तेजक (सार्वागिक यूरोपीय ग्रंथों के अनुशीलन से पता चलता है और हृदय ) और कामोद्दीपक-वाजीकरण मानते कि सर्व प्रथम त्याभार-नियर ने अपनी यात्रा विष और मंद ज्वरों में श्राक्षेप निवारक और वेदन यक पुस्तक में कस्तूरी का उल्लेख किया है उसके स्थापक रूप से एवं चिरकालानुबन्धी कास भ्रमण वृत्तान्त को पाठ करने से इस संबंध की (Cough) सार्वदैहिक दौर्बल्य और पुसत्व और भी अनेक ज्ञातव्य बातें स्पष्ट हो जाती हैं । हीनता रोग में इसका व्यवहार करते हैं। इसकी एक स्थान पर वह लिखता हैं कि उसने अपने हदय बलदायिनी शक्ति तो प्रसिद्ध ही है। अन्ता- भ्रमण कालमें ७६०५ थैला कस्तूरी खरीदी थी। वस्था में जब मनुष्य मृत्यु के चुंगल में आवद्ध विख्यात पर्यटक मार्कोपोलो लिखता है कि-उसके होने लगता है और हृदय को बल देने के सभी समय में मृगनाभि (कस्तूरी) का खूब प्रचार था उपाय निष्फल सिद्ध होते हैं, उस समय मृगनाभि और वह बाजारों में मिलती थी।" रोगी की संरक्षा में अस्त्र सदृश काम करती है। संभवतः सोलसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में एतद्देशीय बूढ़े सयाने तात्कालिक भीषण स्थिति कस्तूरी पाश्चात्य चिकित्सा में औषधि रूप में उपमें कस्तूरी और मकरध्वज के सिवाय किसी अन्य योग में ली जाने लगी। तभी से लेकर आज पर्यंत औषधि से प्राण रक्षा की आशा नहीं रखते। आन्त्रिक सन्निपात (Typhoid ), टायकस, हमारे देश में हृद्वत्तेजक रूप से इसका मकरध्वज वातरक (Gout), हनुग्रह वा धनुस्तम्भ एवं बला प्रभृति अन्य औषधियों के साथ अथवा ( Tetanus) जलसंत्रास, अपस्मार तथा अकेला मधु के साथ में सेवन करते हैं। इसके योषापस्मार के दौरों में एवं कम्पवायु, कुक्कुर कास सिवां शास्त्रोक्त स्वल्प कस्तूरी भैरव, मृगनाभ्याद्य- (काली खाँसी), हिक्का, श्वासः और शूल घलेह और बसन्त तिलकरस प्रभृति योगों में (Colic) इत्यादि नाना व्याधियों में उत्तेजक तथा बहशः अन्य योगों में भी कस्तूरी व्यवहृत औषध रूप में प्रयोगित होती रही है। होती है। सन् १९०५ ई० में क्रुकर्शक ने केंद्रीय वातदक्षिण भारतीय तामिल चिकित्सक शिश्वाक्षेप मंडल के विषैले प्रभाव में इसकी उपयोगिता के में इसे अफीम के साथ मिलाकर देते हैं । अजीर्ण पक्ष में अपना मत जाहिर किया। और कोलन शोथ (Colitis) निवारण के उन डाक्टर महाशय ने उस रोग में २॥ रत्ती लिये भी यह प्रसिद्ध है। की मात्रा में कस्तूरी चूर्ण व्यवहार कराया और पारव्य और पारस्य निवासी भी मुश्क नाम से उससे संतोषप्रद परिणाम प्राप्त हुये। शिश्वा इसका अति प्राचीन काल से व्यवहार करते श्रा क्षेप के किसी निश्चित उत्पादक कारण का निर्णय रहे हैं । शेख अली सोना, मासरजोया, गीलानी न हो सकने पर कोरल हाइदास के साथ कस्तूरी प्रभृति प्राचीन विद्वानों के ग्रंथों में और तालीफ का व्यवहार करके बहुत ही आशानुरूप फल प्राप्त शरीफी, मजन, मुहीत आदि पश्चात् कालीन किये गये हैं । डाक्टर स्टिल Still (१९०६) निघट ग्रन्थों में इसका विशद उल्लेख मिलता है। ने इसमें कोरल हाइड्रास (२॥ से ५ रत्ती यूरोप में पहले पहल अरब निवासियों ने __अवस्थानुसार ) और टिंक्चर श्राफ मस्क (१० कस्तूरी का प्रचार किया । सन् १८८६ ई० में से ३० बूंद) की गुदवस्ति देने की अभ्यर्थना ७. फा० Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कस्तूरी की है। रक्तसंचार की गिरती हुई गति ( Failing circulation ) एवं हृत्स्फुरण ( Palpitation of the heart ) में भी हृदयोत्तेजक रूप से, यह विश्वास करके इसका उपयोग किया गया है, कि यह रक्तचाप और नाड़ी की गति को सुधारती है। प्लेगजन्य हृन्नैर्बल्य ( Cardiac asthenia ) में काश्मीरी डाक्टर मित्रा (१८१८ ) ने कस्तूरी को श्रतीव उपयोगी पाया । उन्होंने कस्तूरी चूर्ण का व्यवहार कराया जो अत्यन्त उपादेय सिद्ध हुआ । तो भी उक्त श्रौषध की उपादेयता के सम्बन्ध में यह विश्वास दिनों दिन बदलता जा रहा है। इसी के परिणाम स्वरूप जहाँ कस्तूरी ब्रिटिश फार्माकोपिया और संयुक्त राज्य अमेरिका की फार्माकोपिया ( U. S. P. IX. ) में सम्मत थी वहाँ ब यह दोनों ही फार्माकोपिया से निकाल दी गई है । २३८६ भारतीय चिकित्सक गण श्राज भी टिंक्चर मस्क ( मृगमदासव ) का प्रचुरता के साथ उपयोग करते हैं । वात सांस्थानिक श्रवसादावस्था में हृदयोत्तेजक रूपेया और वाजीकरणार्थ वे इसे १० से ३० बूँद तक उपयोगित करते हैं । डाक्टर चोपड़ा लिखते हैं- "निरोग और रोगी शय्यागत ( Experimental_and_Clinic 1 ) दोनों प्रकार के हमारे निजी परीक्षणों एवं प्रयोगों द्वारा कस्तूरी वर्णित हृदय बलवर्द्धक एवं रक्तस्थ श्वेतवर्द्धक गुणों की पुष्टि नहीं होती है । यत्किचित् उत्तेजक प्रभाव इसमें निहित हो सकता है वह संभवतः परावर्तित रूप से होता है और वह घाण नाड़ियों द्वारा उसकी तीक्ष्ण गंध के कारण और श्रामाशय से तद्गत श्लैष्मिक कला पर उसके किंचित् क्षोभक प्रभावोत्पादन के कारण होता है । सुतरां हमने यह अवलोकन किया है कि जिन रोगियों को कस्तूरी की एक मात्रा दी गई थी, उन्होंने श्रामाशयगत ऊष्मा एवं सुस्थता का अनुभव किया है और इससे परावर्तित रूप से - श्वासप्रश्वास एवं हृदयको किंचित् उत्तेजना प्राप्तहो सकती है। अपस्मार, कंपवात तथा शिश्वाक्षेप में इसकी अमोघाता में श्रास्था रखने के लिये कोई श्राधार- प्रमाण दृष्टिगत नहीं होता है । योषापस्मार कस्तूरी के वेगों ( Hysteriform attacks ) मैं संभवत: बहुत करके यह हिंगु और जटामांसी प्रभृति उग्र गंधी द्रव्यों की ही भाँति प्रभाव करती है । कुक्कुर खाँसी और श्रांत्रशूल ( Colic ) में इसका प्रभाव बिलकुल उड़नशील तैल युक्त वस्तुनों के प्रभाव की तरह होता है । कर्नल चोपड़ा पुनः कहते हैं-हम अपने निरीक्षणों ( Observations ) से इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि भारतवर्ष में देशी श्रौषधियों में कस्तूरी को आवश्यकता से अधिक महत्व दिया गया है । इसमें शरीर क्रिया विज्ञान और चिकित्सा विज्ञान की दृष्टि से कोई विशेष गुण नहीं है ।" सुगंध रूप में भी कस्तूरी का प्रयोग सबसे पहले हमारे ही देश में शुरू हुआ। फिर विदेशी लोगों ने सुराघटित कर वा अन्य सुगंध द्रव्यों के योग से इसके प्रयोग की अनेक अभिनव रीतियाँ श्राविष्कृत कीं । परन्तु सुगंध रूप में कस्तूरी का व्यवहार करने के लिये तत्सम्बन्धी विशेष अभिज्ञान आवश्यक है । गुणधर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसारकस्तूरिका रसे तिक्ता कटु श्लेष्मानिलापहा । विषघ्नी दोषशमनी मुखशोषहरा परा ॥ अन्यञ्च - कस्तूरी सुरभिस्तिक्ता चतुष्या मुखरोगजित् । किलास कफ दौगन्ध्यवाता - लक्ष्मी मलापहा ॥ ( ध० नि० ) कस्तूरी — रस अर्थात् स्वाद में कड़ ुई, चरपरी, कफवातनाशक, विषनाशक, दोष अर्थात् वात पित्त और कफ दोषत्रय की नाशक और मुखशोष को हरण करनेवाली है । श्रन्यच्च - कस्तूरी कड़ ुई, सुगंधित, चक्षुष्य, मुखरोगनाशक तथा किलास, कफ, दुर्गंध, वायु, मल और लक्ष्मी अर्थात् दरिद्रता- इनका निवारण करती है । कस्तूरी छर्दि दौर्गन्ध्य रक्तपित्तकफापहा ॥ ( राज० ) कस्तूरी - वमन, दुर्गंध, रक्तपित्त और कफ नाशक हैं। Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कस्तूरी २३८७ कस्तूरी कस्तूरिका तु चक्षुष्या कवी तिक्ता सुगंधिका। करायें । इसके अतियोग से मुखमण्डल पीला पड़ उष्णा शुक्रपदा गुरू वृष्या क्षारा रसायनी ।। जाता है। इतने पर भी वैद्य लोग इसके निरंतर किलासकुष्ठ मुखरुक्का दौर्गन्ध्य नाशिनी। सेवन करने का उपदेश करते हैं, और कहते हैं कि यह पुरुषों को सात्म्य है। यह आश्चर्य की अलक्ष्मी मलवात तृट् छदि शोष विषापहा ॥ बात है। सदा भोजन में मिलाने से मुख में दुर्गन्ध शीतञ्च कासरोगश्च नाशयेदिति कीतिता। पैदा हो जाती है और बुद्धि मंद होजाती है। (नि. रत्ना.) इसके सूघने से उष्ण प्रकृति वालों के मस्तिष्क कस्तूरी-नेत्रों को हितकारी, चरपरी, कड़वी, को हानि पहुँचती है । यह दाँतों को भी हानिकर सुगधित गरम, शुक्रजनक, भारी, वृष्य, क्षार | है। इसकी गंध कासजनक होती है। दर्पघ्नऔर रसायन है तथा किलास, कोद, मुखरोग, कफ, कपूर और गुलाब । किसी-किसी के मत से एतदुगंध, अलक्ष्मी, मल, वात, तृषा; छर्दि, शोष, । जन्य उष्णता और रूतता का निवारण क्रमशः विष खाँसी और शीत का नाश करती है। कपूर और रोग़न बनफ्शा , गुलरोगन प्रभृति तर कस्तूरिका कटुस्तिक्ता क्षारोष्णा शुक्रला गुरुः ।। रोगनों से करें, मुखदौर्गन्ध्य निवारणार्थ इसके कफवात विषच्छदि शीतदौर्गन्ध्यशोषहृत् ।। सेवनोपरांत करफ्स व अजमोदा चाव लें। दाँत . (भा० पू० १ भ०) के लिए बंशलोचन और गुलाव दर्पघ्न हैं। प्रतिकस्तूरी-कड़ ई, चरपरी' कुछ खारी, उष्ण निधि-द्विगुण अंबर, डेवढ़ा साज़िश हिन्दी और वीर्य, शुक्रजनक और भारी है तथा यह कफ, वातव्याधियों में तिगुना जुन्दबेदस्तर । किसी-किसी वात, विष, वमन, शीत (सरदी), दुर्गन्ध और ने इसकी एकमात्र प्रतिनिधि मर्ज़ोश लिखी है। शोष रोग का नाश करती है। मात्रा-४ जौ भर से माशे तक । डाक्टर चक्षुष्या मुख दोषघ्नी किलास कुष्ठघ्नी च। २॥ रत्ती से ५ रत्ती तक देते हैं। (मद.) नोट-नानागत कस्तूरी की शक्ति तीन वर्ष कस्तूरी-नेत्रों को हितकारी, मुखरोग तथा तक स्थिर रहती है । परंतु नाने से बाहर निकाली दोषत्रय की नाशक ओर किलास एवं कोढ़ को दूर हुई कस्तूरी की शक्ति केवल एक वर्ष तक शेष करनेवाली है। रहती है। युनानी मतानुसार गुण, कर्म, प्रयोग–यह तिन, उष्ण, गुरु, प्रकृति-मासरजोया के मत से मुश्क द्वितीय वाजीकरण, बल्य, शीतनिवारक, कफनाशक, कक्षा में उष्ण और तृतीय कक्षा में रूक्ष है। कोई. वातनाशक, वमन रोधक, देह की सूजन उतारने कोई इसके विपरीत कथन करते हैं । शेन के मत वाला, मुखदुगंधिनाशक, और घ्राणदोषनाशक है। से यह द्वितीय कक्षा में उष्ण और रूक्ष है। किंतु (तालीफ़ शरीफ्री) उष्णता की अपेक्षा रूक्षता किंचित् अधिक होती मुश्क (मुस्क तिब्बती) वाजीकरण, शीघ्र है, सारांश यह कि रौक्ष्य द्वितीय कक्षांत तक होता पतन को दूर करनेवाला तथा (तवहुश) और है। गीलानी के अनुसार यह जितना पुराना खफकान, चिंता, मालीखोलिया, हृदय की निर्ब- . पड़ता जाता है इसमें उतनी ही उष्णता घटती लता लकवा, कंपवात, विस्मृति और पक्षाघात और रूक्षता बढ़ती है। (फ्रालिज) आदि रोगों को दूर करता तथा हानिकत्तो-युनानी चिकित्सा तस्वविदों के | प्रकृतोष्मा को उद्दीप्त करता है। (मुफ्र० ना०) कथनानुसार यह उष्ण प्रकृति को प्रसात्म्य है। मुश्क तारल्य (लतात) पैदा करता, अपने प्रायः यह शिरःशूल और नकसीर उत्पन्न करता प्रभाव से मन को उल्लसित करता तथा हृदय, है। विशेषतः उष्ण प्रदेश और उष्ण ऋतु में तो मस्तिष्क एवं समग्र उत्तमांगों को शक्ति प्रदान उष्ण प्रकृति वालों को कदापि इसका सेवन न | करता है । यह कामोद्दीपन करता, प्रकृतोमा की Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कस्तूरी २३८८ कस्तूरी वृद्धि करता वाह्याभ्यंतरिक ज्ञानेन्द्रियों को निर्मल एवं विकारशून्य करता और शीघ्रपतन दोष का निवारण करता है। किंतु गीलानी के मतानुसार यह शीघ्र स्खलन दोष उत्पन्न करता है। यह समस्त प्रकार के वत्समाभ विष एवं अन्यान्य स्थावर और जंगम विषों का अगद है। यहाँ तक कि कोई कोई दवाउल् मिस्क को इस काम के लिये इसे तिर्याक (अगद) से बढ़कर मानते हैं। यह पक्षाघात (फ्रालिज) लकवा, कंपवायु,विस्मृत, हृत्स्पंदन (खफ़कान ), उन्माद, बुद्धि विभ्रम, (तवह् हुश) और मगीको लाभकारी है यह अवरोधोद्धाटन करता, सांद्र दोषों को द्रवीभूत करता और वात का अनुलोमन करता है। इसके सूंघने से नज़ला श्राराम होता है। यह सर्दी के सिर दर्द को लाभ पहुँचाता है । इसके नेत्र में लगाने से दृष्टिमांद्य, धुध, जाला और क्लिन्नत! ( दमश्रा) नष्ट हो जाता है। यह नेत्र की (रतूवत) को शुष्क कर देता है । औषधियों की शक्ति को नेत्रपटलों में पहुँचाता है । योनि में इसे धारण करने से गर्भधारण होता है । यदि इसे थूक में घिसकर इन्द्री के ऊपर लेप करें और इसे सूखने के उपरांत स्त्री सहवास करे, तो दम्पतियों को प्रानन्द प्राप्त हो । मुश्क १ मा०, चिड़ा की अस्थि का मजा १ तोला (चिड़ा की अस्थिगत मजा के अभाव में उतनी ही शशा की अस्थिगत मजा ग्रहण करें) इन दोनों को ४ माशे रोगन बनफ्शा के साथ मिलाकर स्त्री की योनि में हमूल करने से गर्भ रह जाता है । मुश्क के द्वारा औषधि वीर्य शरीर के सुदूरवर्ती स्थानों तक पहुँच जाता है। खाने से ही नहीं प्रत्युत इसके सूंघने से भी शीत प्रकृतिवालों के मस्तिष्क को उपकार होता। बूढ़े आदमियों को तथा शीत प्रकृतिवालों को एवं शरद् ऋतु में सेवनीय है । निरंतर चिंताकुल एवं कापुरुषों को इसका सेवन करना चाहिये यह अतिसार नाशक है। कोई-कोई कहते हैं कि यह हृदय को शनिप्रदान करके रेचनौषधों की विरेक शक्ति को निर्बल करता है। किसी किसी के मत से इसे रेचनौषधों में इस कारण सम्मिलित करते हैं कि-यह-संशोधन में पूर्णता लाने का कारण बनता है। रात्रि में सोते समय इसे तकिये के नीचे रखने से रात्रिस्वेद का निवारण होता है। (ख० अ०) नपुंसकता एवं वातनाड़ियों की दुर्बलता में भी आशातीत लाभ होता है। जननेन्द्रिय पर इसका स्थाई प्रभाव पड़ता है। यह कामोद्दीपक है और शीतकाल में इसके सेवन से शीत नहीं प्रतीत होती, पाचनशक्रि बढ़ जाती है और शरीर की प्रत्येक निर्बल शनियाँ इसके सेवन से बलप्राप्त करती है। भोजन के उपरांत यदि वमन हो जाता हो, तो इसके सेवन से बंद हो जाता है। यह उदरीय गौरव, कामला तथा खजू का नाश करती है। इसके सेवन से शरीर में अत्यंत स्फूर्ति उत्पन्न होती है। इससे आधा एवं गर्य की वृद्धि होती है और ज्वर एवं कंप का नाश होता है। इससे दृष्टि को शक्ति प्राप्त होती है। यह व्यंग व झाँई आदि का नाश करती, अवरोधों का उद्घाटन करती स्थौल्य को दूर करती, तथा शुक्रप्रमेह, पूयमेह राजयक्ष्मा, जीर्णकास, दौर्बल्य और नपुंसकता में उपकार करती है। प्राक्षेप एवं शरीर की खिंचावट मिटाने के लिये पान में रखकर कस्तुरी सेवन करना चाहिये । श्वास रोगी को यह बाईक स्वरस के साथ सेवनीय है। मक्खन के साथ कस्तूरी सेवन करने से कुक्कुर खाँसी नष्ट होती है । इसे मालकँगनी के तेल में चटाने से मृगी दूर होती है (ख० अ०) ___ कस्तूरी अत्यन्त उष्ण और रूक्ष तथा प्रवन उत्तेजक है। इसे खाते ही जहाँ यह रक्त में मिलती है, इससे उत्तापजनन होता है और तापमान बढ़ने लगता है, इसलिये हृदय और नाड़ीकी गति तीव्र हो जाती है; धमनियों में प्रसार होता है और नाड़ीमंडल उत्तेजित हो उठता है। जो अवयव निष्क्रिय होने लगते हैं, नाड़िगत उत्तेजना के कारण उनमें पुनः क्रिया होने लगती है और एक बार चैतन्योदय होता है। कभी कभी तो इसका प्रभाव स्थायी होता है । जो अंग कार्य करना बन्द कर देते हैं, इसके सेवन से वे पुनः सजीव होकर अपना कार्य संपादन करने लग Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कस्तूरीक २३८६ जाते हैं । यह श्लेष्मकला तथा श्रांगिक शोध को अपनी शक्ति से शमन कर देती है । कभी कभी बढ़े हुये श्लेष्म में, श्वास के श्रावर्त्त में तथा न्युमोनिया के कारण कंठगत श्लेष्मा के अटक जाने पर एक-दो मात्रा थोड़ी देर के पश्चात् देने पर श्रत्यन्त चमत्कार पूर्ण प्रभाव दृष्टिगत होता है । रोगी की अवस्था एक दम बदल जाती है । वह सुख अनुभव करने लगता है । इसी प्रकार जब सन्निपात के रोगी की नाड़ी क्षीण हो रही है, शरीर शीतल पड़ गया है, मस्तिष्क ज्ञानशून्य होने लगता है, उस समय कस्तूरी का आश्चर्यजनक प्रभाव होता है । इसकी एक दो मात्रा से ही वह होश में आने लगता है । कस्तूरी वातजन्य रोगों में, यथा-अधांग, लकवा फालिज़, पक्षाघात श्रादि जिसमें नाड़ी मंडल कार्य रहित हो जाता है— श्रत्यन्त उपयोगी वस्तु उक्त रोग के कारण जो श्रंग शिथिल पड़ जाते हैं, वे इससे पुनः सजीव होने लगते हैं । (१) मदनी । रा०नि० । (२) लोमशविडाल । ध० नि० सुवर्णादि ६ व० । ( ३ ) सहस्रवेधी । ( ४ ) धतूरे का पौधा । धुस्तूर वृक्ष | वै० निघ० । कस्तूरीक - संज्ञा पु ं० [सं० पु ं०] करवीर वृक्ष कर | कस्तूरी काण्डज - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] मृगनाभि । मुश्क । कस्तूरी गुटिका - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] आयुर्वेद में एक वटी जिसमें कस्तूरी पड़ती है। जैसे, स्वर्ण भस्म १ भा०, कस्तूरी २ भा०, चाँदी भस्म ३ भा०, केसर ४ भा०, छोटी इलायची ५ भा०, जायफल ६ भा० | वंशलोचन ७ भा०, जावित्री ८ भा० लेकर ३-३ दिन तक बकरी के दूध श्रीर पान के स्वरस में घोटकर २-२ रत्ती की गोलियाँ प्रस्तुत करें। गुण तथा सेवन विधि - इसे मलाई के साथ सेवन करने से शुक्रक्षय, शहद से प्रमेह और पान में रखकर खाने से शिथिलता नष्ट होती है । कस्तूरी क्षना-संज्ञा पुं[हिं०] मुश्कदाना । लताकस्तूरी । कस्तूरी भैरव रस क़स्तूरीन - [ यू० ] जुन्दबेदस्तर | कस्तूरा भूषण रस- संज्ञा पुं० [सं० पु० ] उक्र नाम का योग । निर्माण विधि-शुद्ध पारद, अभ्रभस्म, सोहागा भूना, सोंठ, कस्तूरी शुद्ध, पीपर, दन्तीमूल, जया बीज ( भंग बीज ), कपूर और मिर्च इन्हें समान भाग लेकर चूर्ण करें । पुनः अदरख के स्वरस की सात भावना देकर मर्दन करें । गुणतथा उपयोग विधि - इसे अदरख के स्वरस के साथ दो रत्ती प्रमाण खाने से वात, कफ मन्दाग्नि, त्रिदोष जनित घोर कास-श्वास, दयरोग, ऊर्ध्व जत्रुगत रोग, विषम ज्वर, शोध तथा पित्त श्लेष्म की अधिकता नष्ट होती है और यह शुक्र, श्रोज और बल की वृद्धि करता है । (भै०र० ) कस्तूरी भैरव रस (मध्यम) - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] उक्त नाम का एक श्रायुर्वेदीय योग । निमाण विधि - मृत वंग भस्म खपरिया शुद्ध, कस्तूरी, स्वर्ण भस्म, चाँदी भस्म इन्हें पृथक् पृथक् समान भाग एक कर्ष लें । कान्त भस्म १ पल, हेमसार ( धत्तूर घन सत्व ), पारद भस्म, लौंग और जायफल प्रत्येक २-२ तो० इन्हें उत्तम प्रकार से चूर्ण करके द्रोणपुष्पी, नागवल्ली दोनों के स्वरस से सात भावना दें । पुन: इस रस में दो तोले कपूर और दो तोले त्रिकुटा का चूर्ण मिलाकर रख 1 मात्रा - १-७ रत्ती । गुण- इसके प्रभाव से वातोल्वण- सन्निपात, महाश्वास, श्लेष्म रोग, त्रिदोषजन्य घोर सन्निपात, विकृत गर्भाशय और शुक्रप्रमेह, विषम ज्वर, कास, श्वास, तय, गुल्म, महा शोथ और राजयक्ष्मा इस तरह नष्ट होता है, जैसे सूर्य अन्धकार को नष्ट करता है । र० सं०, २० सु० । श्र०, ज्वर० चि० । कस्तूरी भैरव रस ( वृहत् ) - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] एक प्रकार का आयुर्वेदीय योग । निर्माण विधि-‍ -मृगमद ( कस्तूरी ), शशि (कपूर), सूर्या (ताम्र भस्म ) धातकी ( ध पुष्प) शूक शिम्बी ( कौंच बीज ), रजत ( चाँदी भस्म ), कनक ( सुवर्ण भस्म ), मुक्रा ( मोती ) विद्र ुम (मूंगा), लौह भस्म, हरिताल शुद्ध, Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१० कस्तूरीभैरव रस अभ्रक भस्म, पाठा, विडंग, नागरमोथा, सोंठ, नेत्रवाला और श्रामला इन्हें समान भाग लेकर पाक के पके हुये पत्तों के रस में एक दिन अच्छी तरह मईन कर तीन रत्तो प्रमाण की गोलियाँ बना लें। गुण तथा उपयोग-विधि-यह सर्वज्वर नाशक है। इसे पाक स्वरस के साथ खाने से विषमज्वर दूर होता है, तथा द्वन्द्वज, भौतिक, कायसंभूत, अभिचारज और शत्रुकृत उबर को भी नष्ट करता है । जीरा, बेल गिरी और मधु के साथ भक्षण करने से प्रामातिसार, संग्रहणी और ज्वरातिसार दूर होता है. और यह कास, प्रमेह, हलीमक, जीर्णज्वर, सततज्वर, नवज्वर, प्राक्षेप (हिष्टीरिया), भौतिक और चातुर्थिक ज्वर को नष्ट करता तथा अग्नि को प्रदीप्त करता है। यह प्रायः सभी ज्वरों में उपयोगी सिद्ध हुआ है। (भै० र०) कस्तूरी भैरव रस (स्वल्प)-संज्ञा पु. [सं० पु.] एक प्रकार का प्रसिद्ध आयुर्वेदीय योग। निर्माण विधि-शुद्ध हिंगुल,शुद्ध विष, टंकण भूना, कोषफल (जायफल ), जावित्री, मिर्च; पीपल और उत्तम शुद्ध कस्तूरी समान भाग लेकर उत्तम विधिवत चूर्ण बनाकर रख लें। मात्रा-१-२ रत्ती। गुण-इसे उचित अनुपान के साथ ग्रहण | करने से दारुण सन्निपात रोग का नाश होता है। (भै० र० ज्वर चि०, र० सा० सं०) कस्तूरी मल्लिका-संज्ञा स्त्री० [सं॰ स्त्री.] मृगनाभि । कस्तूरी । वै. निघ०। (२) एक प्रकार का मल्लिका-पुष्प वृत्त जिसमें से मृगमद वा कस्तुरी की सो गंध आती है । गुण में यह वार्षिका वा बेले के फूल आदि के तुल्य होती है (रा०नि०व०१०) यह दो प्रकार की होती है-एक लता सदृश और दूसरी एरण्ड वृत के समान । दोनों में फल-फूल पाते हैं । पुष्प और फल के बीज में मनोहर गंध रहती है। केश मलने के मसाले में इसका बीज पड़ता है। कस्तूरीमृग-संज्ञा पुं० [सं० पु.] एक प्रकार का हिरन (पार्थिव मृग) जिसकी नाभि से कस्तूरी निकलता है। यह हिंदुस्तान में काश्मोर, नेपाल, । कस्तूरीमृग श्रासाम, भूटान, हिंदुकुश तथा देवदारू के वनों * में और हिमालय के अगम्य शिखरों पर गिजगित्त से आसाम तक ८००० से १२००० फुट की ऊँचाई तक के स्थानों तथा रूस, तिब्बत, चीन के उत्तरी पूर्वी खंड और मध्य एशिया में उत्तर । साइबेरिया तक के हिमाच्छन्न पार्वतीय प्रदेशों : अर्थात् बहुत ठंडे स्थानों में पाया जाता है। सह्यादि पर्वत पर भी कस्तूरी मृग कभी कभी देखे गये हैं। परन्तु अभी तक मंगोलिया, तिब्बत, नेपाल, काशमीर, प्रासाम एवं चीन के अंतर्गत सुरकुटान तथा बैकाल के पार्श्ववर्ती स्थानों में ही कस्तूरीमग से मगनाभि निकालने की प्रथा है। इनमें तिब्बत के मृग की कस्तूरी अच्छी समझी जाती है। ___ यह मृग अपना एक भिन्न ही वंश और जाति रखता है । यह हिरन से कुछ छोटा, डीलडौल में साधारण कुत्ते के बराबर और प्रायः ढाई फुट । ऊँचा होता है। यह बहुत चंचल छलाँग मारने वाला, बड़ा डरपोक भोर निर्जनप्रिय होता है। इसका रंग स्याही मायल धूएँ कासा वा काला होता है जिसके बीच बीच में लाल और नाली चित्तियाँ होती हैं । इसकी सींग सॉफर की तरह होती है और सींग में एक छोटी सी शाखा होती है । दुम प्रायः नहीं होती, केवल थोड़े से बाल दुम की तरह होते हैं। खाल के बाल बारहसिंगे की तरह होते हैं ।कुचलियों की जगह दो सफेद लम्बे हुलाली शकल के दाँत होते हैं जो ठुड्ढीके नीचे तक पहुँच जाते हैं । इसकी टाँग बहुत पतली और सीधी होती है जिससे कभी कभी घुटने का जोड़ दिखाई नहीं पड़ता। जाड़े में जब ऊँचे पहाड़ों पर बरफ पड़ जाती है, तब यह नीचे के प्रदेशों में उतर पाता है। इन्हीं दिनों में इसका शिकार होता है । यह हिमाच्छादित शीत प्रधान प्रदेशों में रहता है । यह अत्यंत उष्ण प्रकृति होता है। अतएव उष्ण प्रधान प्रदेशों में इसका जीवनधारण कठिन होता है। बरफ़ के नीचे जो बारीक बारीक घास जमती है, उसे यह रात में वा संध्या समय चरता है। यह दिन में बाहर नहीं निकलता। इसकी विशेष दो जातियाँ हैं । एक एण और दूसरी कस्मर । एण जाति का मृग प्रायः नैपाल Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कस्तूरोमग २३६१ कस्तूरीमृग तिब्बत की ओर होता है और कस्मर जाति का | हैं। साल की अन्य ऋतुओं में इससे कस्तूरी की 'मृग काश्मीर, कुल्लू, पित्तो, लाहौल श्रादि की उपलब्धि नहीं होती । जहाँ कस्तूरी मृग रहता है ओर होता है । कस्मर की अपेक्षा एण जाति का वहाँ चातुर्दिक दूर तक उसकी सुगंधि फैली रहती मृग बड़ा और कुछ वर्ण में भूरा श्वेत होता है। है। शिकारी लोग इसो गंध के अनुसरण से 'मृगनाभि' कस्तूरी मृग की जननेन्द्रिय के ठीक अपना शिकार खोजते हैं। सामने, नाभि के पास, उदर देश के भीतर, एक कस्तुरीमृग निपट जंगली एवं भोंड़ा होता है। झिल्लीदार थैली-ग्रंथि वा गाँठ ( Preput- यह संघबद्ध होकर नहीं रहता; किंतु नर-मादा ial follicles ) से निकलती है और सुगंधि प्रायः एक साथ रहते हैं। दिन में हिरन अपने केवल नर हिरन में ही रहती है। यह सुगन्धि को छिपाये रहते हैं । केवल एक बार संध्या समय द्रव्य कस्तूरी मृग के नाभि देश से प्राप्त होता है। और एक बार सूर्योदय के पूर्व पाहार की खोज में इसलिये भारतवर्ष में कस्तूरी के साथ साथ इसे | बाहर निकलते हैं। इनका शिकार सहज नहीं । "मृगनाभि" वा "नाना" भी कहते हैं। यह पार्वत्य प्रदेश में पीछा करने वाले शिकारी कस्तुरी के युवावस्था प्राप्त होने पर उक्त ग्रंथि | कुत्तों को पीछे छोड़कर खूब तीव्र गति से दूर के जीवकोष अन्तः रसस्रावी ग्रंथि सेलों की भाँति निकल जाते हैं। शिकारी कुत्ता उन्हें पकड़ नहीं एक प्रकार के रस का निर्माण करने लग जाते हैं। सकता । यह हिरन वर्ग जहाँ निवास करता है, पहले कस्तूरी का रंग किंचित् लाल और कुछ | वहाँ चारों तरफ सुदृढ़ बाड़ी लगाई जाती है और कुछ काला रहता है । यह जीवित मृग में बहुत | बीच-बीच में उनके यातायात के लिये खाली गीला होता है । किंतु जब मृग मारा जाता है जगह छोड़ देते हैं । प्रत्येक खाली जगह के मुहाने और उसकी नाभि भिन्न करली जाती है, तब वह | पर फंदा लगा रहता है। इन्हीं फंदों पर शिकारी घन होने लगता है और क्रमश: धीरे धीरे कृष्ण लक्ष रखते हैं क्योंकि इस ओर से तनिक भी वर्ण दानेदार पदार्थ के रूप में परिणत होता असावधान रहने पर कस्तूरी की तीव्र गंध से जाता है और कस्तुरी कहलाता है। खिंचकर बड़े-बड़े मांसाहारी जीव इनका सुस्वादु मांस चट कर जाते हैं और फिर वहाँ कुछ भी शेष इन जानवरों की नाभि में कस्तूरी को उपस्थिति नहीं रह जाता है । कस्त्री अधिक हो वा कम, केवल जोड़ खाने की ऋतु (Rutting sea. शिकारी फंदे में फंसे हुए सभी हिरन की हत्या son ) में जबकि इनमें यौवन-स्पृहा जागृत करके मृगनाभि संग्रह करते हैं। परंतु चीनी होती है, पाई जाती है और नि:संदेह यह मादा व्यापारियों के कथनानुसार सर्वोत्कृष्ट प्रकार की को आकर्षित करने के हेतु से ही प्रकृति की ओर कस्तूरी की उपलब्धि फंदे में फंसाये हुये मृगों से से उसे प्राप्त होती है। हिरन में एवं हिरन की नहीं होती है अपितु जोड़ खाने की ऋतु समाप्त हो सहचरी हिरनी में जब यौवन-स्पृहा जागृत होती जानेके उपरांत जब वे मृगअपनी नाभि अपने उठने है, तब हिरन से कस्तरी अधिक परिमाण में बैठनेके निश्चित स्थानों पर ग्रंथि को विदीर्ण करके निकलती है। और वह वर्ष भर में केवल एक तजात सुगंध द्रव्य को भूमि पर बिखेर देते हैं। मास का काल ऐसा है जिसमें उसकी ग्रंथि में उस समय उनका शिकार करके कस्तूरी संग्रहीत कस्तरी वर्तमान होती है। वह काल जाड़े का की जा सकती है। किंतु इस प्रकार की कस्तूरी पूरा जनवरी भर का मास ऐसा है जिसमें मृग की प्राप्ति सुसाध्य नहीं होती है। श्रतएव बाजार जोड़ा खाता है और उसी समय इसकी नाभि में में क्वचित् ही देखी जाती है। अधिक मात्रा में कस्तरी नामक सुगंध द्रव्य हिरन का गोली से शिकार करने पर यद्यपि संचित मिलता है। उपलब्ध कस्तूरी की मात्रा अत्यल्प होती है। पर अस्तु; अधिकाधिक परिमाण में कस्तूरी प्राप्त्यर्थ, उसकी गंध इतमी प्रबल और तीक्ष्ण होती है कि इसी मास में शिकारी लोग मृग का श्राखेट करते बहुत दूर से मालूम की जा सकती है। इस ताजी Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कस्तूरीमृग कस्तूरी से निकल कर फैली हुई प्रबल तीव्र गंध का वात संस्थान; दृष्टि और श्रवण पर अत्यंत प्रभाव पड़ता है । श्रतएव लोगों का कथन है कि शिकारियों को बहुधा उससे असह्य यातनायें भुगतनी पड़ती हैं । इसकी मस्त सुगंध सुधबुध भूल जाते हैं। में वे 1 शिकार करने पर इसकी नाभि काट ली जाती है। नाभि वा नाना एक झिल्लीदार थैली है जिसके अंतरपट में छोटे २ श्रनेक छिद्र होते हैं । इनसे कस्तूरी उद्धृत होती है और उक्त थैली के पार्श्व में रहनेवाली परिचालक थैली में इसका संचय होती है। इन थैलियों को देखने पर पार्श्व भाग चपटा दिखाई पड़ता है । कभी २ यह पार्श्वस्थ चमड़ा जननेन्द्रिय पर्यन्त कस्तूरी थैली सहित सब काटकर बेचने को ले आते हैं। कभी थैली और पार्श्वस्थ चमड़ा जननेन्द्रिय पर्यन्त कस्तूरी थैली सहित सब काटकर बाहर निकालते हैं । कस्तूरी एक नीले परदे की थैली में रहती है । इसलिये कस्तूरी को 'नील कस्तूरी' नाम से श्रभि - हित करते हैं। यह नीला परदा श्रत्यन्त सूक्ष्म और पतला होता है अतएव कस्तूरी में बनावटी वस्तुओं का सम्मिश्रण करना सहज काम नहीं है । मील कस्तूरी इसी नीले परदे के कारण खूब शुद्ध और अच्छी समझी जाती है तथा अधिक मूल्य पर बिकती है। २३६२ असली मृग नाभि वा नाने के आधे भाग पर ही बाल होते हैं, क्योंकि नाफ़ा मृग की नाभि के भीतर रहता है और उसको निकालते समय नाभि स्थल को चीरकर उस नाभिग्रंथि को भिन्न करते हैं तो उसका श्राधाभाग उदर के भीतर होता है उस भाग की खाल बिलकुल साफ होती है । उसपर कोई बाल नहीं होते, किंतु उसके बाह्य वा 1 पृष्ठ के केन्द्र में एक छोटा सा छिद्र होता है। जिसको चतुर्दिक् खाकी रंग के कड़े बालों की एक भौंरी सी होती है। इस थैली या नाने के भीतर बहुसंख्यक कोष होते हैं, जिनमें कस्तूरी के क भरे रहते हैं । यह नाफा नर और युवा कस्तूरा की नाभि में ही पाया जाता और विविध श्राकृति का होता है। इनमें से कोई गोल श्रण्डाकृति और चिपटा कटोराकृति प्रायः १॥ इंच व्यास का कस्तूरीमृग होता है । कटोराकृति को कटोरी और गोल को बैजा कहते हैं । नाने का मुख वा द्वार सुपारी के समीप होता है। ताज़ा नाफ़ा हाथ से दबाने पर पिचक जाता है और उसे दबाकर यह मालूम किया जा सकता है कि उसमें कितना माल है और कितना खाल | प्राणि की अवस्था के साथ नाभिस्थ द्रव्य का बहुत गहरा संबंध होता है। प्राणि के अवस्था भेद से नाफागत द्रव्य वा कस्तूरी की मात्रा में भी भेद हुआ करता है अर्थात् जैसे जैसे प्राथी की अवस्था बढ़ती जाती है, वैसे वैसे क्रमश: नाभिस्थ सुगंध - द्रव्य की मात्रा भी उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है । अतः एक वर्षीय मूग-शिशु के नाने में मुश्किल से कोई कस्तूरी होती है। परंतु वही द्विवर्षीय किशोर मृग - शिशु में इसकी मात्रा एक श्राउस का श्रष्टमांश हो जाती है और वह क्षीरवत् एवं अप्रिय गंध होती है । तदुपरांत यौवन उपस्थित होने पर कस्तूरी १-२ उस तक हो जाती है की श्रायु तक बराबर रहती है । उस से 1⁄2 उस तक के कस्तूरी पूर्ण नाफों के नमूनों का मिलना तो एक साधारण बात है । यह श्रायु भाग व्यतीत होने के उपरांत पुनः कस्तूरी मृग में नाभि का अस्तित्व नहीं रहता । में 1 कहते हैं कि दिसम्बर सन् १९११ ई० में महाराज नेपाल की ओर से महाराजाधिराज जार्ज पंचम को जो उपहार भेंट किये गये थे, उनमें ६-६ तोले के कस्तूरीके नांफ्रे भी थे। एक नाने में सामान्यतः २॥ तोले ( श्राधी छटाँक से लेकर पाँच तोले तक) कस्तूरी निकलती है । वंही प्रायः और ६-७ वर्ष मृगनाभि बहुमूल्य वस्तु है। बाजार में इससे काफी दाम मिलते हैं । इसी हेतु इस हतभाग्य क्षुद्र जीव- कस्तूरी मृग का निर्दयता पूर्वक संहार किया जाता है। अनुमानतः कम से कम कस्तूरी की २२ थैलियों के एकत्र होने पर भट्टी ( One caty = 9 पौंड ) की सामग्री तैयार होती है। सुतराम् एक भट्टी की सामग्री में २२ नर हिरनों का संहार होना चाहिये । परन्तु बात इसके विपरीत होती है । अर्थात् भट्टी कस्तूरी के लिये २२ की जगह ३०-३२ हिरनों की मृत्यु होती है । Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कस्तूरीमृग हिसाब कारण यह है कि कस्तूरी की थैली केवल युवा हिरन के उदर में होती है । एवं दूर से देखने पर नर और मादा हिरन की रूपाकृति में कोई अंतर नहीं जान पड़ता । अस्तु, एक भट्टी की सामग्रीमृगनाभि प्राप्त्यर्थं शिकारी लोग लोभ के वशीभूत होकर बिना विवेक-बुद्धि के काम लिये छोटे बड़े, नर-मादा सभी हिरनों की हत्या कर डालते हैं । इस प्रकार आवश्यकता से कहीं अधिक निर्दोष जीवों की हत्या हो जाती है । लगाया गया है कि केवल एक श्रचिनलू शहर से प्रतिवर्ष २००० भट्टियों का चालान बाहर जाता है । श्रतएव वहाँ प्रतिवर्ष ६०,००० मृग मृत्यु की घाट उतरते हैं। इसके अतिरिक्त एक साथ काटानसिंग, वालांग इत्यादि नगरों के वार्षिक चालान पर दृष्टि निःक्षेप करने से पता चलता है, है, कि वहाँ प्रतिवर्ष १००००० एक लक्ष मृगों के प्राण विनष्ट किये जाते हैं। इसके सिवा भारतवर्ष में ही तथा सुदूर पूर्व में इसका बहुत बड़े पैमाने पर उपयोग होता है । औषध के अतिरिक्त सुगंधियों में भी इसका प्रचुर प्रयोग होता है। फ्रांस इसका सबसे बड़ा खरीदार है । कुल निर्यात का लगभग तो केवल फ्रांस ही खरीदता है । कस्तूरी के व्यापारिक महत्व का कुछ निर्देश इस वस्तुस्थिति से भी प्राप्त हो सकता है, कि केवल चीन से निर्यात कस्तूरी का मूल्य ७०,००० पौंड और १००,००० पौंड के मध्य न्यूनाधिक हुआ करता है, जो उस वृहत् परिमाण के सामने कहने को कुछ भी नहीं है जिसकी खपत स्वयं चीन में ही हो जाती है । जहाँ यह सुगंधियों के लिये केवल इसकी ज़मीन ( base ) ही नहीं दी जाती श्रपितु उत्तेजक श्रौषधों के उपादान स्वरूप से भी यह व्यवहार में आती है। इसके सिवाय संयुक्त राज्य (अमरीका) तथा दुनिया के अन्य भागों को भी भारतवर्ष से कस्तूरी का पर्याप्त मात्रा में निर्यात होता है। वैट के अनुसार सन् १८७८ से १८८८ ई० तक के दश वर्षीय काल में भारतवर्ष से बाहर जानेवाली निर्यात कस्तूरी का कुल परिमाण ४४, १६५ श्राउंस था जिसकी कीमत लगभग ११, १७५७६ रुपये होती हैं । ८० [फा० २३६३ कस्तूरीमृग उपर्युक्त बातों से यह अनुमान लगाया जा सकता है, कि प्रतिवर्ष कितने अधिक जीवों की हत्या होती होगी । साथ ही इनकी जनन क्षमता भी सामान्य होती है और ये उसी समय फँसाये एवं संहार किये जाते है, जब इनमें यौवन स्पृहा जागृत होती है । अस्तु, यदि विना ( अर्थात् जोड़ खाने की ऋतु में) किसी रोक टोक के इसी प्रकार इनकी मृत्यु का क्रम चलता रहा, तो कतिपय प्रकृति सेवियों द्वारा कथित भावी भय के अनुसार भविष्यत में इनका वंशही पृथ्वी से सर्वथा विलुप्त हो जायगा और फिर कस्तूरी का प्राप्त करना अत्यन्त दुर्लभ होगा । कहते हैं लगभग छः वर्ष हुये दक्षिण-पूर्वगत सारंग के लामा लोगों ने इनकी वंश रक्षा के हेतु, यह राजाज्ञा प्रचारित की थी कि जो शिकारी कस्तूरी मृग की हत्या करता हुआ देखा जायगा, वह मंदिर के किवाड़ों पर दोनों हाथ छेदकर लोह शलाका में विद्ध कर दिया जायगा । लामा के उक्त प्राणदंड स्वरूप कठिन दंड विधान के रहते हुये तिब्बत की सीमा से वार्षिक कस्तूरी की आय की मात्रा पर्याप्त थी । यह विचारणीय है कि बिना हत्या किये कस्तुरीमृग से मृगनाभि संग्रह की जा सकती है अथवा नहीं ? यदि इन प्राणियों को जंगल से पकड़ कर किसी खुली जगह में बाड़े के अंदर बंद किया जावे तो कस्तूरी नहीं मिलेगी। पर हाँ इन्हें किसी एक बड़े जंगली स्थान में बन्द करने के बाद इनसे कस्तूरी प्राप्त करने की कोई पद्धति निकाली जा सकती । यह जीव अनेक समय धूप में लेटकर विश्राम उस समय इसके शरीर में जहाँ कस्तूरी वह स्थल भली भाँति देख सकते हैं उपयुक्त पद्धति से बिना उत्पीड़न के की जा सकती है। करता है । रहती है और किसी कस्तूरी प्राप्त कस्तूरीमृग के पर्य्या०—कस्तूरीमृगः, कस्तूरी हरिण, मृगनाभि हरिणः, गन्धमृग, गन्धवाह -सं० । कस्तूरिया हिरन कस्तूरा मृग; कस्तुरी मृग, कस्तूर, कस्तूरा, कस्तूरिया, कस्तूरिया मृग, - हिं० । श्राहूए मुश्की, श्राहूए खुसन - फ्रा० | Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कस्तूरीमोदक २३६४ कस्तूर्यादि स्तम्भन हिरन मुश्की, कस्तूरिया हिरन, -उ०। मस्क योग-लोहभस्म , भा०, गंधक २ भा०,* डियर Musk deer -अं०। माँस्कस मॉस्कि पारद ३ भा०, और कस्तूरी ४ भा०, पहले कस्तूरी फेरस Moschus Moschiferus-ले। को छोड़कर शेष औषधियों को एक साथ भली (Class-Buminatia)ला; लव (तिब्बत) भाँति घोटे, फिर इसमें पीपर के काढ़े की भावना रौस -( काश्मीर)। वेना (कुनावर)। पेशौरी देकर अच्छी तरह घोट लें और एक गोला बना. -मरा०। कर सुखा लें । पुनः इस गोले को वालुकायंत्र में गुणधर्म तथा उपयोग रखकर तीन दिन मंदाग्नि से पाक करें। जब आयुर्वेदीय मतानुसार स्वयंशीतल हो जाय तो गोले को निकाल कर इसके मांसमें भी मुश्क की सी बड़ी मस्त गंध उसमें कस्तूरी मिला अच्छी तरह मईन करें । पाती है, कि यह खाया नहीं जाता, जहाँगीर ने मात्रा-३ रत्ती। अग्निबल के अनुसार १६ अपने सजक में लिखा है कि मैंने कस्तूरी मृग का पीपल के चूर्ण और शहद के साथ प्रत्येक रोग में मांस पकवाया यह अत्यन्त कुस्वादु था, किसी देवें। इसके सेवन करने वाले के लिये लवण भी वन्य चातुष्पद जीवका मांस ऐसा बदमज़ा नहीं त्याज्य है। पाया। नाना ताज़ा निकला हुमा सुगंधित नहींथा। गुण-यह वृद्धतानाशक, अत्यंत वृष्य और चंदरोज़ रहकर और सूखकर खुशबू देने लगा। वाजीकरणहै। इसके सेवन से सुधा की वृद्धि होती मादा के नाना नहीं होता। है। यह स्त्रियों को वश में करनेवाला है। (ख० अ० ६ भ० पृ० २८३) कस्तूरील्लिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] लताकस्तूरी । इसका मांस मधुर, लघु, श्राध्मान जनक, क्षुधा | मुश्कदाना । भा०। जनक और बहुत गरम है । मादा का मांस शीतल कस्तूरी हरिण-संज्ञा पु० [सं० पु.] कस्तूरिया है और ज्वर, कास, रक्रविकार तथा श्वासकृच्छ्रता मृग । पाहये मुश्की । मृगनाभि हरिण । निवारक है। (तालोन शरीफ़ो) वैःनिघः। कस्तूरिया हिरन का मांस मधुर, हलका और कस्तूरून क़ स्कस-यु.] कुतु म । कड़ । बरै। प्राध्मानकारक है तथा भूख बढ़ाता है । कस्तूरिया | कस्तूर्यादि चूर्ण-संज्ञा पुं॰ [सं० क्रो०] एक प्रायुहिरन की मादा का मांस शीतल है तथा कास र्वेदीय चूर्णौषधि । एवं रक्तविकार को प्रशमित करता है। (ख०५०) __ योगादि-कस्तूरी, अम्बर, स्वर्णपत्र, मोती, कस्तूरीमोदक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] एक प्रकार रौप्यदल (बर्क चाँदी) प्रवाल; इन्हें समान का आयुर्वेदीय मोदक जिसका पाठ रसेन्द्रसार भाग लेकर एक उत्तम खरल में जो घिसनेवाला संग्रह के प्रमेहाधिकार में पाया है। योग इस न हो, उसमें डालकर बारीक चूर्ण बनाकर इसमें प्रकार है-कस्तुरी, प्रियंगु, कटेरी, त्रिफला, दोनों सर्वतुल्य मिश्री मिलाकर खाने से तत्काल समस्त जीरा, पका केला, खजूर, काला तिल (कृष्ण प्रमेहों को नष्ट करता है। और १०० वर्ष की तीनक), तालमखाना के बीज इनको बराबर २ अवस्था प्राप्त होती है। इसको सेवन करने वाले १-1 मा० लेकर चूर्ण करें, जितना यह चूर्ण हो, प्राणी अश्व तुल्य स्त्री रमण में समर्थ होता है। उससे दूनी चीनी लेवें, पुनः जितना यह सब चूर्ण इसकी मात्रा वयोवल और प्रकृतिके अनुकूल १-४ ठहरे, उससे चौगुना सम्मिलित आँवले का रस मासे तक है। दूध और पेठे का रस मिलाकर मंद-मंद अग्नि से कस्तूर्यादि स्तम्भन-संज्ञा पुं॰ [सं०] एक स्तम्भनौपाक प्रस्तुत करें। इसकी मात्रा १० माशे की है। षधि विशेष । (र० सा० सं०) योगादि-कस्तूरी । भा०, कश्मीरी केशर २ कस्तूरी रख-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] एक आयुर्वेदीय भा०, जायफल : भा०, लौंग १ भा०, अफीम ३ रसौषधि । भा०, भांग ७ भा०। इन सबका बारीक चूर्ण करके Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कस्तूल २३६५ कस्मूला, कस्म्युका ३ रत्ती को मधु में गोली बनाकर जिनके गृह में | कस्पेरीई कार्टक्स-ले. Cuspari B Cortex) सैकड़ों स्त्रियाँ हों, उनके इच्छापूर्ति हेतु इसे सेवन | अंगस्तूरा छाल । अंगस्तूरा वल्कल । कस्पेरिया फेब्रिफ्युजा-ले० Cuspariai Feकस्तूल-[ देश० ] झाँकरा ( मरा०)। काला किरा- | ___brifuga] अंगस्तूरा वृक्ष । यत (पश्चिम भारत) Haplanthus | कस्पेरिया बाक-[अं० Cus paria Bark ] verticillaris, Nees. H. tental __अंगस्तूरे की छाल । दे. "अंस्तुरा बार्क।" culatus, Nees (फः० ई०३ भ०) कर फः, कसफ:-[ ] ख़राब ऊँट । कस्त लीतु स-[यू.] ज़रावंद दराज । जरावंद तवील । कस्कार मिश्राकस्तूस-[यू.] जंगार। कस्तार मका ६ [अ०] कादजारका नाम। कस्तूस अतारूस-दे. "कस्तू अतारूस" । कस्फीर-[यू.] सौसन सफेद । जंगली सौसन । कस्तेल-[बम्ब०] Hydnocarpus alpina, | Wight. तुवरक भेद । तोरठी (मरा०)। | कस्ब-[१०] सूखा और अधपका छोहारा । कस्बज-[ कस्बः का मुन] खली । कंजारः । कस्बर-[फा०, यू.] जुक । कस्तोत्पाटन- ] असा । [सिरि० ] सफ़ेद सौसन । कर द, कसद्-[?] एक कंटकाकीर्ण वृक्ष । उसज ।। | कस्बरज-दे० "कस्परज"। ___ कहते हैं कि मूसा अलेह अस्सलाम की छड़ी(असा) इसी वृक्ष को लकड़ी का बना था। | कर बतुरिय:-[१०] फुफ्फुस प्रणाली। हवा की कर दः, कसद:-[१] वह पत्र और शाखाएँ जो प्रथम | नली । कसबहे हवाइयः । क्रसबः । Trachia, Wind Pipe कोटेदार वृक्ष में से फूट। कर दोर-[१०] राँगा । कलई । बंग। (नासुल्लु कर बतुल अन्क-[१०] नासावंश । नाक का atar i Bridge of the Nose. गात) कस्न-[फा०] मटर । (२) खुश्क बाक़ला । कर बहे कुब्रा-[१०] कस्म:-[ तु.] चपाती। कस्न हिंदी-[फा०] चिचड़ी । क़ुराद ।। कस्मार- संथाल ] गंभारी । कारमरी । करना, कस्नान-[फा०] मटर । (२) सूखा हुआ कस्म-सं०] कास । विदाक । बाकला। कस्नाक-12] मूंगा । प्रवाल । कर म, कसम-[१०] दिट्टी का अंडा। कस्नाज-[ ] कासनी । कस्मोहूर-यू.] लकड़बग्घा । कतार ।। कस्नारूस-[यू०] उसारहे लह्यतुत्तीस । कस्मूका, कस्म्युका-[ नन्ती ] एक अप्रसिद्ध घास। करनालक-1 ] दार चिकना । • कसमुका। कस्नासीस-यू.] एक प्रकार का लबलाब जिसके नोट-मसूऊदी ने किताबे-सम्म(विष-तंत्र) पत्ते चौड़े होते हैं। में लिखा है कि यह एक बूटी है जो भूमि पर कस्नी-[कासनो का संक्षिप्त रूप ] कासनी । आच्छादित होती है और जिसका छत्ता अत्यन्त कस्नूबरून-[ यू० ] फ्राशरा । छोटा तर्जनी उंगली और अंगूठे के फैलाव के पराकस्पत-[पं०] त्रुम्ब० पं० । चीन (बं०)। बर होता है। इसके पत्ते मरुए के पत्तों के सश कस्पत्ता-[दं०] मोगवीरे का पत्ता। (Anisom- होते हैं और उनमें चंप होता है । इसका स्वाद ___elos Malabarica, R. Br.) गावज़बाँ उस बेर का सा होता है जो अभी पदवर एवं (बम्ब०)। कषाय हो । इस बूटी को सुखा रखते हैं। गुण कस्परज-[फा०] मोती । मुक्का । में यह उष्ण और रूप है। बिच्छुके रंक मारने Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कस्मूनो पर इसको जल में पीसकर खिलाने से तत्क्षण लाभ होता है। 1 २३६६ कस्र.. तू - [ ० ] आधिक्य । प्रावल्य । बहुतायत ज्यादती | कतर्फी - [ ० ] हड्डी के सिरे का टूट जाना। इस प्रकार का अस्थिभग्न प्रायः दीर्घास्थियों में हुआ करता है, जिसमें हड्डी का ऊपरी वा नीचे का सिरा टूट जाता है । अस्थि शीर्षभग्न । 1 Epiphysial Tracture. कस्र.. तुत्तम्स - श्रु० ] श्रतिरज रोग । श्रसृग्दर । ग़ज़ारतुत्तभ्स - श्रु० । Menorrahagin. a. तुत्त - [ ० ] जल्दी जल्दी आँख झपना | अत्यधिक आँख झपकना | Nictitation | कस्र.. तुन्निकास - [ श्र० ] शिशु प्रसवोत्तर मल अधिक श्राना । निकास की अधिकता । ख० श्र० । ना० मु० । करमूनी - [ सिरि० ] द्राक्षा बीज । मुनक्का का बीया । तुम मवेज़ । कस्य संज्ञा पुं० [सं० की ० ] सुरा । मदिरा । हला० । कस्य:- [ ? ] रासू । नेवला | क़स्या - [ यू०, रू० ] तज । सलीखा । क़स्यूसियूस - [ रू०; यू० ] तज । सलीना । कस्यूमालस - [ ? ] प्राप्य । क़स्र.-[ अ० ] ( १ ) जड़ और विशेषतः खजूर की जड़ । ( २ ) कोताही । संकोच । ( ३ ) समीपता । निकटता । ( ४ ) स्थान | मौक़ा व महल । कस्र - [ श्र० ] धात्वर्थ भञ्जन अर्थात् टूटना वा तोड़ना । श्रायुर्वेद की परिभाषा में हड्डियों अथवा उनके जोड़ों का टूट जाना । अस्थि भग्न | हाशिम: ( श्रु० )। Fracture. नोट- वह अस्थिभग्न जो अस्थि के चौड़ाई के रुख होता है अरबी में 'कल' श्रोर जो लंबाई के रुख़ होता है 'सा' कहलाता है । कस्र इन्खिफ़ाज़ी - [अ०] हड्डी का दब जाना | इस प्रकार के अस्थि भग्न में हड्डी टूटकर नीचे को दब जाती है। Depressed Fracture. कस्र इशिकाक़ी - [ अ ] हड्डी का फट जाना । हड्डी का चिर जाना । इस प्रकार के अस्थिभग्न में हड्डी टूटती नहीं, अपितु श्राघात पहुँचने के कारण वह चिर जाती Fissured Fracture. कस्त्र कामिल - [ श्रु० ] निःशेष भग्न । पूर्ण अस्थिभन । हड्डी का बिल्कुल टूट जाजा । हड्डी का दो टुकड़े हो जाना | Complete Fracture 'कत्र जुज़ई - [ श्रृ• ] श्रांशिक भग्न । हड्डी का ज़रा सां टूटना। हड्डी का मुड़ जाना । यह भी वस्तुतः एक प्रकार का 'कल इन्शाक़ी' है, जिसमें अस्थि वृक्ष की हरी शाखा की तरह बीच से किंचित् चिर जाती है वा मुड़ जाती है, पर टूटती नहीं । Partial Farctune, Green stick Eracture. Lachiorrhoca. कस्र.. तुल अक्ल - [अ० क़स्र 3. अफस श्रत्याहार | सर्व भक्षण | बहुत खाना । सब कुछ जा जाना । Polyphagia. कस्र तुल अक्त - [ श्र० ] अत्यधिक स्वेद आना । बहुत पसीना होना । स्वेदाधिक्य | कस्र.. तुल इस्क़ात - [ श्रु० ] बार बार गर्भपात होना । Frequent abortion. कस्र.. तुल बौल - [अ०] बहुमूत्र । मूत्रातिसार । अधिक पेशाब आना । Polyuria. कस्र..तुल्लब्न-[ श्रु० ] स्तन्याधिक । स्तनों में श्रस्य धिक दूध उत्पन्न होना | Galactorrhoea. कस्र.. तुल्लुआब - [ अ ] अधिक थूक श्राना । लालाधिक्य । एक रोग जिसमें अत्यधिक थूक श्राती या राल बहती है । कभी कभी नींद में इतनी राल बहती है कि तकिया भी तर बतर हो जाता है । Salivation, Ptyalism. कस्र तुल् अजला - [ ० ] भारतं । फा० ई० ३ भ० । कसूरबवा - [?] मेंहदी का सेल । रोग़न हिना | कस्राक - [ तु० ] घोड़ी का नाम । कंजुलू लुग़ात् । कस्रानी-दे० " कसरानी" । कस्री चावेल - [ ? ] जंगली चमेली । – ख़० प्र० । कुत्र नफ़स - [अ०] साँस का जल्दी जल्दी और कष्ट से थाना । साँस फूलना । हाँफना । श्वासकृच्छता । कोताहदमी | Anhelation, Panting. Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " कस्रु भारंज २३६७ कुत्र नारंज - [ ० ] नारंगी का छिलका । संतरे का छिलका | कुत्रल् अक़ाकिया - [ श्रु० ] बबूर वक् । बबूल की छाल । कस्रु.ल् बसर- [ श्रु० ] निकटदृष्टि रोग । क़त्रु न ज़र । Short sightedness, Myopia. कुरुल - [ ? ] बेर-वृक्ष का फूल । बदर पुष्प । बेर का फूल | कुल - [ ? ] कमीला । कबीला । कस्लस- सिरि० ] इंद्रायन । इनारून ! कस्लान् - [ श्र० ] श्रालसी । काहिल । सुस्त | कस्वा - [हिं०] कालादाना । क़र.स, कस्स - [ ० ] [ बहु० क़ज़ाइस ] धात्वर्थ वक्ष का मध्य भाग | कौड़ी । शारीरिक की परिभाषा में वक्षोऽस्थि । उरोस्थि । सोना की हड्डी | Sternum कसई वीज - [ बम्ब० ] सङ्कुरू-हिं० | गुरगुर - बं० । कस्सचरा - [ बं० ] लांगली । ईशलांगुली - बं० । कस्सम - [ पंचमहल ] कोसम | कस्सर - [ उ० प्र० प्र० ] (१) केसारी । केराव | (२) अम्लवेल । अम्लपर्णी । गिदड़ द्राक, गीदड़ दाख | Vitis Aarnoa (३) श्रमलोलवा | ग्वालियालता । Ctleshy uitldvina ( Vitis Trifolia ) करसवे -[ भा० वा० ] कस्सा - संज्ञा पुं० [सं० कषाय ] छाल जिससे चमड़ा सिझाते हैं । ( २ जो बबूल की छाल से बनता है खेसारी । केराव | । ( १ ) बबूल की वह मद्य दुर्रा । ( ३ ) करसा चना -संज्ञा पु ं० दे० "केसारी" | क़र. सार - [ श्र० ] रजक | धोबी कस्सी - [हिं०] खाजा ( पौधा विशेष ) । कस्सू-संज्ञा पु ं० [देश० कोस्सू ( एबिसिनिया ) ] एक विदशीय वृक्ष जिसके पत्ते श्राड़ की पत्ती की तरह और शिरा व्याप्त होते हैं । नोक की तरफ़ से पतले और ऊपर की ओर चौड़े होते हैं। इसमें छोटे छोटे फूलों के गुच्छे लगते हैं । पुष्पदंड लगभग एक फुट लंबा अत्यंत शाखा प्रशाखा विशिष्ट होता है । पुष्पदंड और तद्गत शाखाएँ वक्राकार ܬ कस्सू ( Zigzig ), लोमश और ग्रंथिल होती हैं। इसमें नर और मादा पुष्प पृथक् पृथक् होते हैं। नर फूल का रंग भूरा और मादा का लाल होता है । पुष्प का बहिः भाग, जो हरी टोपी के नाम से प्रसिद्ध है, पाँच भागों में विभक्त होता है । पुपी दल अर्थात् पखड़ियाँ लंबी या लंबी श्रौर नुकीली तथा शिराबहुल होती हैं । महँक चाय की सी हरायँध, स्वाद तिल, तीच्ण क्षोभक उत्क्लेशकारक और श्रप्रिय होता है । इन फूलों को दबाकर गट्टे या लपेट कर लंबी गड्डियाँ बना लेते हैं जो १-२ फुट लंबी होती हैं । प० [० - कस्सो - हिं० । कस्सू - गु०, बम्ब० | कस्सो, कोस्लो, कोलू, Cusso Cousso, KoMusso - ( एबिसिनिया ) यह श्रांग्ल भाषा में भी इसी नाम से प्रसिद्ध है । ब्रेयरा ऐन्थेल्मिस्टिका Brayera Anthelmintica, Kunth - हैजीनिया एबिसिनिका Hagenia Abyssinica, Lam -ले० । श्रल् उश्वतुल हवशिय: ( श्र० ) । 1 टिप्पणी- एबिसिनिया की भाषा के कोस्सो का अर्थ 'कृमिघ्न' होता है । क्योंकि उक्त औषधि भी कृमिघ्न होती है । इसलिये इस नाम से श्रभि हित हुई । वैज्ञानिक भाषा में इसका नाम रा ऐन्धेल्मिस्टिका है । यर ( Brayer ) वस्तुत: कुस्तुनतुनिया का एक फरासीसी चिकित्सक था, जिसने उक्त औषध के कृमिघ्न गुण के विषय में एक पुस्तिका की रचना की थी । अस्तु, उसके सम्मान हेतु उन्हीं के नाम पर, इसका नाम भी रा रख दिया गया। इसकी हैंजीनिया संज्ञा कोaिraj निवासी डॉक्टर हैजेन के गौरवरक्षार्थ डॉक्टर मार्क ने रखी है, जिन्होंने सन् १८१ ई० में इसका विवरण प्रकाशित किया था । गुलाब वर्ग ( N. O. Rosaceae. ) उत्पत्ति स्थान - एबिसिनिया ( अफरीका ) औषधार्थ व्यवहार - शुष्क पुष्प स्तवक रासायनिक संघटन - इसमें कोसीन (Kosin) वा कसोटॉक्सीन ( Kosotoxin ) नामक एक प्रभावकारी सत्व होता है। इसके Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कस्सू २३९८ कस्सू अतिरिक्त इससे निर्यास, राल, टैनिक एसिड आदि अवयव वर्त- मान होते हैं। __ यह ( Toenia Solium) कृमिनाशक है। इसके सद्यः प्रस्तुत शीत कषाय की मात्रा १२० से २४० ग्रेन (८ से १६ ग्राम- अाउस से श्राधा पाउंस ) है । यह गर्भपातक भी है। इतिहास-यह एक विदेशीय श्रोषधि है। अतएव अायुर्वेदीय निघंटु ग्रंथों में उक्त ओषधि का उल्लेख नहीं मिलता है। अधुना जब से यूरोप में इस ओषधि को माँग होने लगी है. तब से एबिसिनिया से अदन होकर बंबई में इसका निर्यात होने लगा है। एबिसिनिया (अफरीका ) में स्फीतकृमि निःसरणार्थ उक्त औषधि बहुत प्राचीन काल से उपयोग में आ रही है। परन्तु युरुपीय डॉक्टर ब्रूस ने सन् १७७३ ई० में सर्व प्रथम इस बात का पता लगाया। सन् १८११ ई. में डॉक्टर लेमा ने उक्त ओषधि का स्वरूप वर्णन किया और सन् १८५० ई. में यह यूरुप में | प्रविष्ट हुई तथा सन् १८६४ ई० में ब्रिटिश | फार्मा कोपिया में सम्मत हुई । इसके १५-२० वर्ष पश्चात् संभवतः उक्र ओषधि भारतवर्ष में पहुँची। परंतु वर्तमान काल में बंबई में इसका निर्यात घट रहा है। इससे यह प्रतीत होता है कि यूरुप में इसकी मांग बहुत कम हो रही है। ब्रिटिश फार्माकोपिया से भी अब यह पृथक कर दो गई है। गुण धर्म तथा प्रयोग डीमक-डाक्टर जोन्सन के कथनानुसार इसकी क्रिया इतनी तीव्र होती है कि इससे प्राय: गर्भपात घटित होता है। इतना ही नहीं, अपितु इससे कभी कभी गर्भवती नारियाँ मृत्यु के घाट | भी उतरती हैं। कहते हैं कि इससे कभी कभी कठिन उदरशूज होता है, पर साधारणतया इसकी क्रिया उतनी कष्टप्रद नहीं होती। प्रत्युत इससे थोड़ी मिचली मालूम होकर, प्रथम मलयुक्र और तदुपरांत जलीय मलोत्सर्ग होता है। एरिना के अनुसार उक्त गुण भेद, कालानुसार एतद्गत राल के मात्रा भेद पर निर्भर करता है। स्फीत कृमिनाशक ( Tenia Solium, T. | । bothricephalus) अखिल औषधियों में, से कोई भी औषधी इतनी गुणकारी नहीं होती है। पर शर्त यह है कि फूल ताज़े हों, क्योंकि यह बहुत शीघ्र विकृत हो जाते हैं। साधारणतया इससे कृमि मरे हुये निकलते हैं। ___ एबिसिनिया निवासियों की उपयोग विधि यह है-जल वा मदिरा (Beer) में इसका शीतकषाय । प्रस्तुत करते हैं अथवा ४ से ६ डाम की मात्रा में इसके फूलों के चूर्ण को शहद में मिलाकर प्रातःकाल सेवन कराते हैं और दिन में खाने को कुछ नहीं देते, इससे साधारणतः २-४ घंटे के भीतर बिना दस्त आये और बिना किसी प्रकार की वेदना वा उदरशूल के कृमि निर्गत हो जाते हैं। श्रावट (Anbert) और एङ्गलमैन (Eng. leman) उलिखित उक्त वर्णन से उपयुक वर्णन का खंडन होता है। युरूप एवं हमारे देश में इसका निम्न भाँति प्रस्तुत शीतकषाय व्यवहार किया जाता है। यथा२ ड्राम कस्सू के फूलोंका चूर्ण चार फ्लुइड पाउंस उबलते हुये पानी में डालकर ढंक कर ठंडा होने तक पढ़ा रहने देवें। ठंडा होने पर इसे बिना छाने ही पियें। डॉक्टर क्रॉस ( Krans) के अनुसार २५ ग्राम कस्सू खाली पेट लेमनेड के साथ सेवन करें और उसके एक घण्टा वाद एरण्ड तैल पिलावें, इसका स्वाद और गंध अप्रिय होती है और किसी प्रकार सनाय की चाय के समान होती है। प्रस्त, यह शर्करा घटित दानादार चूर्ण रूप में किसी सुगंधित शीतकषाय के साथ सेवनीय होती है। (फा० ई० १ भ० पृ०५७१) हिटला-अधिक मात्रा में सेवन करने से कभी कभी स्फीत कृमियों ( Tenia Solium) ओर कृमि विशेष (Bothriocep. halus) को नष्ट करता है। सामान्य प्रयुक्त मात्रा में इससे प्रायः विरेक नहीं पाते, पर यह सरल संपर्क द्वारा कृमियों ( Parasites) को नष्ट करता है। चार पाउंस उबलते हुए पानी में २ से ४ दाम कस्सू द्वारा प्रस्तुत शीत कषाय बिना छाने Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६६ कहरुवा एक बार में पी जायें। संदेह रहित निश्चित प्रभावोत्पादनों के सभी अन्य कृमिघ्न औषधियों की भाँति इसे खाली पेट सेवन करें और इसे सेवन करने के तुरत बाद मृदुसामक औषध देवें । इससे कृमि मृत और प्रायः खंड खंड होकर निर्गत होते हैं। इसका कोसोटॅॉकनीन सामक प्रभावकारी सत्व प्रवल विष ( Protoplasmic poison) है। कोस्सूचूर्ण को अर्द्ध पाइंट उबलते हुये पानी में पंद्रह मिनिट तक क्रेदित करके बिना छावे नीहार मुँह रोगी को पिलायें। इसके तीन-चार घंटे बाद या दूसरे दिन हलका विरेचन देखें। भेषज सेवन से पूर्व यदि रोगी मलत्याग कर चुका हो, तो और उत्तम हो, भेषज सेवनोत्तर जब तक कृमि निर्गत न होजाय, रोगी को उपवास करावे ।। यदि भोजन सेवन करने के उपरांत रोगी का जी मिचलाने लगे तो उसे किंचित् लेमनेड (मीठा | पानी) पिलावें। तीनों प्रकार के अध्नाकार कृमि (Tape worm ) के लिये कस्सू सर्वोत्कृष्ट कृमिघ्न औषध है । इसके उपयोग से उन कृमि शीघ्र नष्ट होजाते हैं। कह:-[१०] ताज़ा दुहा हुश्रा दूध । कहत-संज्ञा पुं० [अ० कहत] (१) दुर्भिक्ष अकाल । (२) पौधा । कहन:-[अ. काहन का बहु.] कहन्दरस, कहन्दरूस-[ यू०] चिलगोज़ा। कहबङ्ग-[40] वनबण्डा । कहम्-[१०] भूख की कमी । आहार की ओर रुचि की न्यूनता। कहरबा-दे. "कहरुवा"। कहरुबा-संज्ञा पुं० [फा०] (१) एक प्रसिद्ध यूनानी प्रोषधि । दे. "कहरुवा" ।(२) सफ़ेद डामर । Vateria India, Linn. कहरुबा शमई-संज्ञा पु. [फा०] कहरुवा भेद । कहरवा शमई । दे० "कहरुवा"। कहरुवा-संज्ञा पुं॰ [फा० कहरुबा ] एक प्रकार का गोंद स्वच्छ अत्यन्त चमकदार और रंग में पीला होता है । इसे कपड़े आदि पर रगड़कर यदि घास या तिनके के पास रखें तो उसे यह चुम्बक की तरह पकड़ लेता है । उक्न भौतिकी आकर्षण शकि के कारण ही विद्यच्छक्ति को "कुवत कहबाइया" कहा जाता है। यह प्रायः बरमा की खानों तथा कतिपय अन्य खानों से भी निकलता है। आधुनिक रसायनशास्त्र के अनुसार इसमें कार्बन ७८.६४, उदजन. १.५३ और अोषजन १०.५३ पाया जाताहै। रूमी और तिब्बती भेद से यह दो प्रकार का होता है । इन दोनों में अपेक्षाकृत रूमी उत्तम होता है। उत्तम कहरुबा की पहिचान यह है कि वह कड़ा, स्वच्छ-उज्ज्वल और स्वर्ण-पीत वर्ण का हो और देर में पिघले यदि उसे हाथ से रगड़े और वह गरम हो जाय तो उससे नीबू के रस को सी सुगन्ध श्रावे और घास के तिनके, रेशम और रुई को उठावे । चीन देश में इनको पिघला कर माला की गुड़ियां, मुंह नाल इत्यादि वस्तुएँ बनाते हैं । इसकी बारनिश भी बनती है। पय्याय-कहरुबा, कहरुबा शमई, काहरुबाफा०,हिं० । कपूर-द० । कर्तुलबहर, मिस्बाहुरूम इन्कितरियून, समगुल बहर-१० । कपूरमणिता.। कपूर-यूत-ते.। पायिङ, परें बर। Succinum or amber.-ले। टिप्पणी-कपूर की दक्खिनी संज्ञा 'कापूर' है न कि कपूर। परन्तु उक्त संज्ञा द्वय के लगभग समानोच्चारण के कारण, लोग प्रायः भूल से शब्दप्रयोग की बरीकी न समझने से उनका परस्पर एक दूसरे के लिये व्यवहार कर देते हैं। रियाजुल अदविया में इसकी हिन्दी संज्ञा 'कपूर' लिखी है। - वक्तव्य एनसाइक्लोपीडिया के अनुसार कहरुबा एक कड़ी, प्राभा-प्रभायुक्त स्वच्छ वस्तु है जो निर्गंध और बेस्वाद होती है। प्राचार्य फिलिप कहते हैं कि शिया के समीपवर्ती किसी खान से एक लकड़ी निकलती है उसमें कहरुबा होता है। शेख बू अली सेना श्रादि ने लिखा है कि यह एक वृक्ष का गोंद है । यह वृक्ष बहुत उच्च होता है और इसे 'हौज' वा 'हौर' कहते हैं, इसकी लकड़ी Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहरुवा आगपर रखने से रोगन बलसां के सदृश एक प्रकारका रोगन ( तेल ) टपकता है । साहब जामा का कथन है कि जिन लोगों ने जालीनूस और दीसकूरीदूस के ग्रन्थों का यूनानी भाषा से आरव्य भाषा में उल्था किया था, उन्होंने कहear को हौर का गोंद समझने में भूल की है । क्योंकि जालीनूस ने हौर के प्रसंग में लिखा है" इसका फूल अत्यन्त बलशाली और तृतीय कक्षा में उष्ण है, इसका गोंद फूल की अपेक्षा भी अधिक उष्ण और क़वी है ।" परन्तु कहरुबा इस कदर गरम कोई चीज नहीं है । दीसकूरीदूस का कथन है- "हौर का गोंद तोड़ने वा हाथ से मलने से सुगन्धि श्राती है" किन्तु कहरुबा में सुगन्ध का सर्वथा अभाव होता है अस्तु, उक्त कथनद्वय से यह निर्विवाद सिद्ध होता है कि कहरुवा हौज का गोंद नहीं, क्यों कि कहरुवा में वे गुण कहाँ, जो हौज के गोंद के सम्बन्ध में वर्णित हुए हैं । श्रर्थात् करुवा में न उक्त शक्ति एवं उष्णता ही है और न वह सुगन्धि | गाफिकी के अनुसार करुवा दो प्रकार का होता है । एक वह जो रोम देश श्रोर पूर्वीय प्रदेशों से धाता हैं और दूसरा जो स्पेन के नदी- कूलस्थित पश्चिमीय नगरों से प्राप्त होता है की जड़ के समीप से, जिसे प्राप्त होता है । । यह एक वृक्ष 'दोम कहते हैं, अर्थात् उनके मत से यह एक रतूवत है जो दोम ( गूगुल मक्की ) नामक पेड़ से मधु की तरह टपकती है और फिर जम जाती है। उक्त वर्णन के उपरांत साहब जामा अपने स्वकीय श्रन्वेषण के आधार पर लिखते हैं कि जब दोम का वृत्त जमीन से फूटता है, तब उसके पत्ते से एक प्रकार कीरतूत टपकती है जो जमने से पूर्व शहद की तरह होती है और तदुपरांत उक्त आकार ग्रहण कर लेती है। जब उस ( कहरुबा ) को तोड़ते हैं तो भीतर से मक्खियाँ, कंकरियाँ और तृण इत्यादि पदार्थ निकलते हैं जो उसके टपकने की जगह संयोगवश वर्तमान होते हैं और उसमें मिल जाते हैं । इससे ज्ञात हुआ कि कहरुबा गोंद नहीं, अपितु रस है । उक्त कथन की सत्यता तो केवल एक इसी बात से सिद्ध हो जाती है कि 1 २४०० में कहरुवा 'दोम' जिसे हिन्दी में गूगल का पेड़ कहते हैं और जो भारतवर्ष में बहुतायत से होता है उसके पत्तों में सेकहरुबा के सहरा किसी रतूत के टपकने के प्रमाण न देखने में आये हैं और न सुनने में । इसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में इसी प्रकार के कतिपय और वर्णन ये हैं- कोई कोई कहते हैं कि पश्चिम के द्वीपों में से यह एक सोते का पानी है जो जमकर ऐसा हो जाता है। किसी किसी के मत के अनुसार यह एक प्रकार का मुहरां हैं जो पश्चिम की नदियों से निकलता है । परन्तु 'उक्त सभी कथन निराधार एवं भ्रमात्मक हैं । गंज बादावर्द में लिखा है कि किसी किस्म का कहरुवा पीताभ रक्तवर्ण का होता है श्रोर कोई कोई लाभ पीत वा श्वेताभ पीत होता है। इसकी शुद्धाशुद्धि को पहिचान, इस प्रकार हैइसको वस्त्र पर यहां तक रगड़े कि, यह गरम हो जाय । फिर इसे तृण के समीप ले श्रायें | यदि यह उसे उठा ले; तो शुद्ध श्रन्यथा अशुद्ध । इसमें प्रायः संदरूस की मिलावट करते हैं । ( संदरूस वह सरल निर्यास है, जिसे देश में "चन्द्रस" कहते हैं -- लेखक ) पहिचान यह है कि संदरूस की भग्न सतह चमकदार होती | प्राचीन विद्वानों के बचनों से यह प्रगट होता है कि कहरुबा और संदरूस दोनों एक ही जाति की चीजें हैं । इन दोनों में सूक्ष्म भेद इस प्रकार हैं— संदरूस के हाथ में अल्प मर्दन से ही जो थोड़ी गरमी प्रादुर्भूत होती है, उससे वह चुम्बक की तरह तृण को अपनी ओर श्राकुष्ट कर लेता है, इसके विपरीत करुवा को अत्यधिक घर्षण की श्रावश्य कता होती है । ( २ ) संदरूस कोमल होता है, - परन्तु कहरुवा कठोर होता है । ( ३ ) कहरुबा नींबू के रस की सी सुगंधि आती है; पर संदरूस में उक्त सुगन्धि का अभाव होता है । ( ४ ) संदरूस के रंग में रक वर्ण का प्राबल्य होता है; परन्तु कहरुवा के रंग में पीत वर्ण प्रधान होता है । (५) संदरूस को जलाने से हींग की सी दुर्गन्धि श्राती है; परन्तु कहरुबा को जलाने से उसमें से मस्तगी की महक श्राती है। 2 Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४०१ कहरुवी रियाजुल छादविया नामक ग्रन्थ में यूसफी कहता है कि कहरुवा में कडुग्राहट का अभाव होता है और यह गरम किया हुआ घास को पकड़ लेता है । कहते हैं कि किसी अपने वस्त्र से इतिहास - ईसवी सन् से प्रायः ७०० वर्ष पूर्व थैलस नामी एक हकीम हुआ है जिसने यह बतलाता कि यदि कहरुबाको किसी चीज से घिसें तो वह गरम हो जाता है। उक्त श्रवस्था में पक्षियों के पर और कतिपय अन्य हलकी हलकी चीजें उसकी ओर खिंच श्राती हैं। समय यूनानी देशीय ललनायें इसे तृणादि झाड़ने के काम में लाती थीं। प्लाइनी ने कहरुवा और उसके गुण धर्म के विषय में एक वृहद् ग्रन्थ का निर्माण किया और उसमें उसने विद्युत् शक्ति का चुम्बक के गुण-धर्म से सामंजस्य दिखलाया । चुम्बक - मिकनातीस के गुण से उस काल में प्रायः सभी लोग परिचित थे। विलियम गिलबर्ट महाराज्ञी एलीजबथ के काल का राजकीय वैद्य था । उसने यह जानने के लिये अनेक वस्तु ले लेकर परीक्षण करना प्रारम्भ किया कि श्राया उनमें घर्षण द्वारा कहरुबाई शक्ति प्रादभूत होती है अथवा नहीं। अनेक परीक्षणों के उपरांत अंततः वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि गोधूम, राजिका, मोम, जवाहिर रत्न, खनिज लवण और कई वस्तुएं हरुका सा गुण धर्म रखती हैं पाषाण, मृत्तिका, धात्विक तरल द्रव्यों तथा धूम को अपनी श्रोर श्रीकृष्ट करती हैं। अस्तु, अब गिलबर्ट को इस बात की श्रावश्यकता हुई कि उक्त श्राकर्षण कारिणी शक्ति का कोई नाम रखें जिसमें वह भविष्य में भी उक्त संज्ञा से अभि हित होती रहे। क्योंकि सर्व प्रथम कहरुवा से ही उक्त शक्ति का प्रकाश हुआ और यूनानी भाषा एलेक्ट्रोन कहते हैं । अतः उसने उक्त शक्ति का नाम एलेक्ट्रिसिटी रख दिया । गुण, धर्म, प्रयोग यूनानी मतानुसार प्रकृति - शेख के अनुसार यह किंचित् उष्ण और द्वितीय कक्षा में रूक्ष है । परन्तु अपेक्षाकृत अधिक समीचीन यह है कि यह शीतल एवं रूक्ष ८१ फा० कह है, जैसा कि इब्न उमरान और साहब कामिल का कथन है । शेख की एक पुस्तका में इसके प्रथम कक्षा में उष्ण धोर द्वितीय कक्षा में रूक्ष होने का भी उल्लेख मिलता है। कोई कोई कहते हैं कि यह समशीतोष्ण और द्वितीय कक्षा में रूक्ष है। किसी किसी के मत से प्रथम कक्षा में शीतल है । परन्तु इससे कोई कोई इसे द्वितीय कक्षा में रूक्ष लिखते हैं । हानिकत्तों - शिर मौर श्राबाज़ को हानिकारक है । इसकी अधिकता शिरःशूल उत्पन्न करती है । दर्पन - शिर तथा शिरःशूल के लिये बनफशा और श्रावाज के लिये बिहीदाने का लुबाब । प्रतिनिधि - संदरूस, द्विगुण गिले श्ररमनी, दो-तिहाई तज - सलोखा, श्रर्द्ध भाग, भृष्ट इसबगोल, सम भाग या द्विगुण वंशलोचन और मनोल्लास के लिये मुक्का और ताऊन के लिये प्रवाल । मात्रा - २ | माशे । गुण, कर्म, प्रयोग - अपनी स्तम्भन कारिणी शक्ति से यह रक्त निष्ठीवन और रक्तस्त्र ति को व रुद्ध करता है । यह हृदय को शक्ति प्रदान करता है; क्योंकि इसमें हृदय को शक्ति प्रदान करने का प्रबल धर्म - खासियत निहित है । और इससे रूह में जिस प्रकाश उज्ज्वलता और दृढ़ता का प्रादुर्भाव होता है वह भी उक्त खासियत की साहाय्यभूत होती है । यह श्रौष्य विशिष्ट स्वफकान को लाभ पहुँचाता है, क्योंकि इससे प्रकृति - साम्य उपस्थित होता है और हृदय को शक्ति प्राप्त होती है । अपनी धारक शक्ति के कारण यह संग्रहणी और प्रवाहिका - पेचिस को बन्द करता है । यह चित्त को प्रफुल्लित करता और हृदय को शक्ति प्रदान करता है तथा वाह्यान्तरिक समस्तांगों द्वारा श्रतिप्रवृत्त शोणित का स्थापन करता है 1 पुन: चाहे वह मुख से आता हो वा मल मार्ग से, अर्श द्वारा रक्तस्त्र त हो, या रक्कमूत्रता हो । उक्त समस्त प्रकार के रक्तस्रावों को कहरुवा गुणकारी है । यह नकसीर को भी लाभ पहुँचाता है । यह नेत्ररोगों को उपकारी है । खफकान, वमन, रक्कातिसार, अर्श, श्रामातिसार - पेचिस, श्रामाशय का प्रतिसार, मूत्र की जलन, मूत्रावरोध, और पित्तज श्रामाशयतिसार के निवारण का इसमें विशेष प्रभाव है, शेख के एक ग्रन्थ में ऐसा लेख Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहरुवा २४०२ कहरुवा है-"हृदय उल्लास एवं शक्ति प्रदान करता और | मवाद गिरने को रोकता हृदय एवं भामाशय को खफकान को नष्ट करता है।" इसको महीन बल प्रदान करता और उल्लासप्रद है तथा यह नेत्र पीसकर बुरकने से व्रण पूरण होता है । यह प्रामा- रोग प्रामाशयिक अतिसार, खफकान, अर्श, प्रवाशय, यकृत और मूत्रप्रणालियों को शक्ति प्रदान हिका, संग्रहणी और मूत्र की जलन-कड़क में करता है तथा वृक्क एवं वस्ति की निर्बलता और उपकार करता है। लटकाने से यह गर्भ की रक्षा कामला को कल्याणप्रद है । अग्निदग्ध पर इसका करता है। --मु. ना. चूर्ण मिलाकर लगाने से उपकार होता है । इसे नोट-यूनानी पद्धति में सेवन करने वा योगों पास रखने से गर्भवती के गर्भ की रक्षा होती है। में डालने से पूर्व कहरुबा को इस प्रकार जला उन व्याधियों में जिनमें रक्तस्राव होता हो, जैसे लेते (इहराक करते) हैं-- रक्त निष्ठीवन, रनवमन, रक्तार्श और प्रतिरज आदि ___कहरुबा को बारीक करके या इसके छोटे छोटे में इसकी टिकिया का योग अतीव गुणकारी सिद्ध टुकड़े कर मिट्टी के सकोरे में रखकर अच्छी तरह हुआ है। तात्पर्य रक स्तम्भन का यह एक मुख, बन्द करदें; फिर इसे कपड़ मिट्टी कर सुखा सामान्य नुसखा है। इसी प्रकार का एक योग लें और रात को तन्दूर में रखें । प्रातःकाल यह है निकाल कर बारीक खरल करके काम में लाएँ। ___कहरुवा, बबूल का गोंद, निशास्ता, कतीरा, कहरुबा बिना जलाये भी उपयोग किया मग्ज तुह्म खियारैन, (खीरे के बीज ) मग्ज तुह्म जाता है। कडू (कद्दू के बीज ) प्रत्येक १०॥ मा०, गुलनार, कामिलुस्सिनाश्रत में लिखा है कि कोरे कूजे अकाकिया प्रत्येक श माशे, इनको कूट छानकर में बंद करके और गिले हुर्र अर्थात् शुद्ध मिट्टी की इसबगोल के लुबाब में मिला टिकिया बना लें। कपरौटी कर ऐसे तनूर में रात्रि भर रखे. जिसमें पाँच से सात माशे तक की मात्रा कहरुबा श्रामा- रोटियाँ पकाई गई हों और वह गरम हो । प्रातः शय को शक्ति देने की प्रवल शक्ति रखता है। काल निकाल ले। . - एलुमा के साथ इसे बवासीर के मस्सों पर लेप एलोपैथी के मतानुसार सक्सीनम् ( Succiकरने से वे गिर जाते हैं। num | वा अंबर (Amber ) सुप्रसिद्ध अग्नि वा उष्ण जल द्वारा दग्ध स्थल पर इसे राल विशेष (Tossil resin ) है, जिससे पानी में पीसकर लेप करने से उपकार होता है । विनाशक स्रवण विधि ( Destructive किसी अवयव में चोट लग जाने पर २ माशे कह Disti uation ) द्वारा प्रालियम् सक्सिनी रुबा गुलाब जल के साथ खाने और लगाने से (Oleam Succini ) नामक एक उड़नकल्याण होता है। शोल तैल प्राप्त होता है । मृगी, योषापस्मार और इसे हब्बुल श्रास के साथ पीसकर लगाने से श्वास रोग में इसे पांच बूदों की मात्रा में बर्तते निर्बल मनुष्य का स्वेद अवरुद्ध होजाता है। हैं । संधिवात उपशमनोपयोगी अनेकानेक प्रकार इसके लटकाने से गर्भवती के गर्भ की रक्षा की अभ्यंगौषधों का यह एक मुख्य उपादान है। होती है, थकान दूर होता है, नकसीर का खून अम्बर से विनाशक परिस्रावणक्रम ( Destruबन्द हो जाता है, आमाशय और हृदय को शक्ति ctive distillation process ) EITT प्राप्त होती है और ताऊन-प्लेगका निवारण होता एक्सीनिक एसिड (Succinic acid) है। इसके पेट पर लटकाने से अजीर्ण में उपकार नामक एक अम्ल भी प्राप्त होता है। यह लौह होता है।-ख० अ०। सोडियम्, अमोनियम और पोटासियम् के साथ ... यह समस्त बाह्याभ्यंतरिक अंगों से रक्त की मिलकर उनके लवणों का निर्माण करता है, जिन्हें अति प्रवृत्ति का रोधक है और नासारकस्राव एवं सक्सिनेटस कहते हैं । गर्भाशयिक, वृक्कीय और अति रज का निवारण करता है। यह फेफड़े पर याकृदीय प्रभृति भाँति भाँति के शल रोगों तथा Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहरुवा २४०३ दूरवर्ती रक्तस्थापन रूप से भी उक्त लदणों-सक्सिनेट्स का व्यवहार किया गया है वा I सक्सिनिक पराक्साइड ( Succinic Peroxide ) जिसे श्राल फोजोन (Alphozone) चालफोजेन ( Alphogen ) भी कहते हैं । एक श्वेत रंग का श्रमूर्त चूर्ण है। यह प्रवल रोगजन्तुघ्न द्रव्य है । इसके ८ ग्रेन= ४ रत्ती का एक पाइंट में बना ताजा वित्तयन प्रायः समस्त रोग कारक जीवाणुओं को वात की बात में नष्ट कर डालता है । -- हि० मे० मे० । नोट - एलोपैथी में यह अनधिकृत ( Non official ) द्रव्य है । 1 ( २ ) एक पेड़ जो दक्षिण में पश्चिमी घाट की पहाड़ियों में बहुतायत से होता है । इसे सफ़ेद डामर या कहरुवा भी कहते हैं। एक बड़ा सदा बहार वृक्ष होता है जिसका गोंद राल वा धूप कहलाता है । पेड़ से पोंछकर राल निकालते ताड़पीन के तेल में यह अच्छी तरह घुल जाता है और वारनिश के काम में आता है। इसकी माला भी बनती है । उत्तरी भारत में स्त्रियाँ इसे तेल में पका कर टिकली चपकाने का गोंद बनाती हैं । अर्क बनाने में भी कहीं कहीं इसका उपयोग होता है। (हिं० श० सा० ) क़हल -संज्ञा पु ं, स्त्री० [अ०] रौच्य | रूक्षता । शुष्कता । रूत होने का भाव । (२) कृश होने का भाव । लाग़री । कार्य । दुवलापन । कहल्-[ अ ० ] आँख के पपोटेके किनारों का पैदायशी स्याह होना । कहवा -संज्ञा पुं० [अ०] एक पेड़ का बीज | पर्थ्या० - म्लेच्छ्रफल, श्रतंद्री - स० | काफी, कहवा, बुन, बून-हिं० । बून, बूँद - द० | कापि, काफि - बं• | क़.हवा, बुन - श्रु०, फ्रा० । ( सीड्स श्रा) काफिया अरेबिका ( Seeds of ) Coffea Arabica, Linn-ले० | काफी Coffee-श्रं० | काफीस्डो' अरबी CafeierArabie-फ्रां०] । श्रर बिश्चर काफी बाम Arabischer Kaffebaum-जर० । कापि को - ता० । कापि वित्तलु - ते० । काप्रिकुरु, बन्नु, कोपि - मल० । बोंद - बीजा, कापि-बीजाकना० । काफि, कप्पि - गु० । कोपि श्रट्ट - सिं० । कहवा काफि सि - बर० । काफी, कफ्फी - मरा० । बुझ्न - कों० | काफ़ी -बम्ब० । बुंद - मरा०, गु० । कफि - मार० । नोट - अन्य देशी भाषाओं में इसकी अँगरेजी संज्ञा " काफी" का ही अपभ्रंश रूप में व्यवहार होता है। कदम्ब वर्ग ( NO. Rubiaceae.) 1 उत्पत्ति स्थान - अरब देश काफी वृक्ष का जन्म स्थान है । किंतु अब यह अफ्रीका, अबिसीनिया, मित्र, हबस, लंका, ब्रेज़िल, मध्य अमेरिका श्रादि देशों में भी होता है। इसकी खेती भी उन देशों में की जाती है। अब इसकी खेती हिंदुस्तान में कई जगह होती है और इसकी उपज भी खासी होती है । दक्षिण भारत में मैसूर; कुर्ग, मदरास, ट्रावनकोर, कोचीन तथा नीलगिरि पर इसकी खेती होती है । यह श्रासाम, नेपाल और खसिया की पहाड़ी पर भी होता है । वर्णन - कहवे का पेड़ सोलह से अठारह फुट तक ऊँचा होता है । परंतु इसे आठ नौ फुट से अधिक बढ़ने नहीं देते और इसकी फुनगी कुतर लेते हैं क्योंकि इससे अधिक बढ़ने पर फल तोड़ने में कठिनाई होती है । इसकी पत्तियाँ दो दो श्रामने 1 सामने होती हैं । वृक्ष का तना सीधा होता है जिस पर हलके भूरे रंग की छाल होती है । फ़रवरी मार्च में पत्तियों की जड़ों में गुच्छे के गुच्छे सफेद लंबे फूल लगते हैं जिनमें पाँच पंखुड़ियाँ होती हैं । फूल की गंध होती है। फूलों के झड़ जाने पर मकोय के बराबर फल गुच्छों में लगते हैं । फल पकने पर लाल रंग के हो जाते हैं। गूदे के भीतर पतली झिल्ली में लिपटे हुये बीज होते हैं। पकने पर फलं हिलाकर ये गिरा लिये जाते हैं । फिर उन्हें मलकर बीज अलग किये जाते हैं। अंडाकार बड़े और रंग में पीताभ वा हरिद्राभ होते हैं, जिनमें एक प्रकार मृदु गंध होता है, जिस पर लंबाई के रुख़ गहरी धारियाँ होती हैं । स्वाद में यह मधुर, कषाय और तिल होते हैं। इन बीजों को भूनते हैं और उनके छिलके अलग करते है इन्हीं बोजों को पीसकर गर्म पानी में दूध दिया मिलाकर पीते हैं । 1 Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहवा २४०४ कहवे के पौधे के लिये गरम देश की बलुई दोमट भूमि अच्छी होती है तथा सब्ज़ी, हड्डी, खली श्रादि की खाद उपकारी होती है । इसके बीज को पहले अलग बोते हैं। फिर एक साल के बाद इसे चार से आठ फुट की दूरी पर पंक्रियों में बैठाते हैं। तीसरी वर्ष इसको फुनगी कुपट दी जाती है जिससे इसकी बाद बंद हो जाती है । इसके लिये अधिक वृष्टि तथा वायु हानिकारक होती है । बहुत तेज धूप में इसको बाँसों की ट्टियों से छा देते हैं वा इसे पहले ही से बड़े बड़े पेड़ों के नीचे लगाते हैं । इतिहास - प्राचीन श्रायुर्वेदीय ग्रंथों में कहवे का उल्लेख दिखाई नहीं देता है । परन्तु श्ररब तथा फ़ारस देश वासियों को इसका ज्ञान प्रति प्राचीन काल से ही है । यह विश्वास किया जाता है कि उन्हीं के द्वारा कहवा-पान की श्रादत युरोप तथा अन्य देशों में प्रसारित हुई । 1 रासायनिक संघटन - क़हवे के सूखे हुये बीजों में १ से ३ प्रतिशत तक चाय द्वारा थेईन ( Theine ) नामक पदार्थ के तद्वत् काफीन (Caffeine) नामक एक प्रकार का स्फटिकीय 'क्षारोद होता है। इसके अतिरिक्त इसमें ये पदार्थ भी पाये जाते हैं --- प्रोटीड्स ( ११ से १४ प्र० श० ), शर्करा, लिग्युमीन (१० प्र० श० ) द्राक्षौज, डेक्स्ट्रीन ( १५ प्र० श० ), काफियोटेनिक एसिड ( १ से २ प्र० श० ), वसा, उड़नशोल तैल और भस्म ( ३ से ५ प्र० श० ) जिसमें एलकलाइन कार्बोनेट्स एवं फास्फेट्स होते हैं । टिप्पणी- कैफ़ीन एक प्रधान क्षारोद है, जो चाय कहवा एवं उसी प्रकार के अन्य उत्तेजक पदार्थों जैसे कोला नट, माटी, पैराग्वे टी और ग्वाराना पेष्ट में वर्तमान होता है । यह थियोब्रोमा कोका की पत्तियों में भी विद्यमान होता है, किंतु श्रत्यल्प मात्रा में। काफ़ीन थीईन और ग्वारेनीन ये क्षारोद त्रय वस्तुतः एक ही द्रव्य हैं । पर ये तीन विभिन्न वृक्षों से प्राप्त होते हैं, श्रस्तु इनकी तीन पृथक् पृथक् संज्ञायें हैं। कैफ़ीन सन् १८२० ई० में प्रथम कहवे से और थेईन सन् १८३८ ई० में चाय से प्राप्त की गई थी। किंतु बाद को यह क़हवा ज्ञात हुआ कि उक्त चारद्वय की बनावट एवं गुण धर्म प्रायः समान है। कैफ़ीन की औसत मात्रा जो उक्त पदार्थों से २.५ से ३% तक ( यद्यपि किसो किसी क़िस्म से ४% तक ) कैफ़ीन प्राप्त होती है । कहवे के फल से, जिसमें श्रंशतः स्वतन्त्र ओर कुछ मिली हुई कैफ़ीन होती हैं, यह कठिनता पूर्वक १.५% से अधिक पाई जाती है । इनके अतिरिक्त माटी ( पैराग्वे टी ) में १ से २०, ग्वाराना पेष्ट में ३ से ४% और कोला नट में लगभग ३% तक कैफ़ीन पाई जाती है। परंतु इनमें चाय ही एक ऐसा पदार्थ है जिससे श्रौद्योगिक दृष्टि से कैफ़ीन की लगभग कुत्तमात्रा प्राप्त होती है । यद्यपि 'कैफीन ' रहित काफी के निर्माण क्रम में भी कैफ़ोन की प्राप्त होती है श्रोर युरिया एवं उसी प्रकार के अन्य पदार्थों से भी संयोगात्मक विधि से (Synthetically ) यह प्रस्तुत की गई है, तथापि मितव्ययता काध्यान रखते हुये व्यापारिक लाभ दृष्टि से इसकी प्राप्ति नहीं हुई "टाइमीथल ज़ैन्थीन" काफ़ीन की रासायनिक संज्ञा है । कोकोबटर के बीजों से जो क्षारोद (Alkaloid ) प्राप्त होता है और जिसे 'थियोब्रोमीन' कहते हैं. उसकी रासायनिक संज्ञा 'डाइमीथल जैन्थीन ' । उक्त क्षारोदद्वय अर्थात् arफ़ोन श्रोर थियोब्रोमीन रासायनतः या कृत्रिम रूपसे जैन्थीन (Xanthine ) से निर्मित किये जा सकते हैं । वि० दे० "चाय" । . औषधार्थ व्यवहार - फल तथा बीज । एलोपैथी अर्थात् डाक्टरी चिकित्सा में इसका सत कैफ़ीन काम में श्राती है 1 औषधनिर्माण -- फाट | काफीना Caffeina कह बीन रासायनिक सूत्र (C8H10 N1 O2 Hg 0. ) फिशल Official वा अधिकृत पर्या० - अंतगीन, म्लेच्छफलीन (सं० ) । तंद्राहर सत, कहवीन -हिं० । शाईन ( जौहर चाय ), जौहर ग्वाराना, जौहर क़हवा (फ्रा० ) कहवीन, जौहर बुन्न ( श्रु० ) । काफ़ीना (कैफीना ) Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहवा २४०५ कहवा Caffeina -ले। Caffeine कानोन (कैफीना ), धेइन 'Thine, ग्वारेनीन Guaranime-300 __ वर्णन-एक प्रकार का निर्गन्ध वर्ण रहित रेशमी सूई की तरह की बारीक कल में जो चाय की शुष्क पत्तियों या कहवे के शुष्क बीजों से प्राप्त होती है। इसकी प्रतिक्रिया न्युट्ल ( उदासीन) और स्वाद किंचित् तिन होताहै । यह रासायनतः संधान-विधि ( Synthetically ) से भी प्रस्तुत की जाती है। विलेयता-यह एक भाग ८० भाग शीतल जल में, एक भाग एक भाग उबालते हुये जल में, एक भाग ४० भाग सुरासार (६०%) में, एक भाग ७ भाग क्लोरोफार्म में, एक भाग ४०० भाग ईथर में विलीन होजाती है। नोट-यदि १ ग्रेन काफ़ीन के साथ प्राधी ग्रेन सोडियम सैलिसिलेट सम्मिलित कर दिया जाय तो फिर वह जल में सहज में ही विलीन हो जाती है। इसका जलीय घोल उदासीन (न्युट्रल) होता है। संयोग विरुद्ध-पोटाशियम पायोडायड, टैनिक एसिड और मक्युरियल साल्ट स (पारदीय लवण)। प्रभाव- हृद्य (Cardiac Tonic ) और मूत्रल । मात्रा-२ से १ ग्रेन, वा ०.१२ से ०३ ग्राम । (=६ से ३० सेंटिग्राम) कैफीनी साइट्रास Caffeinoe Citias निम्बूकाम्ल घटित अंतद्रीन रासायनिक सूत्र Cg H10 N4 02C6 Hg Or. आफिशल Official वा अधिकृत पय्यो०-निम्बुकाम्लीय अतंद्रीन -सं०। लेमूनातुल् कहवीन -अ० । जौहर कहवा लेमूनी -फ्रा० । कैफ़ीनी साइट्रास Caffeine Citras-ले। कैफीन साइटेट Caffeine Citrate-अं०। निर्मागा-क्रम एवं परिचय-एक प्रकार का श्वेत रंग का निर्गन्ध अस्थिर चूर्ण जो स्वाद में किसी प्रकार तिक्क एवं अम्ल होता है। एक भाग कैफीन को एक भाग साइटिक एसिड (निम्बम्ल) के उष्ण विलयन में मिलाकर वाटर-बाथ पर शुष्क करने से यह प्रस्तुत होती है। विलेयता-यह एक भाग ३२ भाग पानी में, एक भाग २२ भाग सुरासार (१०%) में और एक भाग १० भाग कोरोफार्मोर ईथर (२ भाग कोरोफार्म ओर एक भाग ईथर ) के मिश्रण में विलीन हो जाती है। प्रभाव--हृदय बलदायक और मूत्र प्रवर्तक । मात्रा-२ से १० ग्रेन (१२ से ६० सेंटिग्राम) काफीन एट सोडियाई बेञ्जोबास Caffeina et Sodii Benzoas, कैफीनी सोडियो बेज्ज़ोश्रास Caffeine Sodio benzoas-ले । कैफीन एण्ड सोडियम aga Caffeine and Sodiuni Benzoate-अं० । उत्पत्ति-काफीन में समभाग सोडियम् बेञ्जोएट मिलाने से यह प्रस्तुत होता है । इसमें ४७०% से कम और ५०% अधिक अनहाइड्स काफीन, और ५०% न्यून और ५३०० से अधिक सोडियम् बेंजोएट नहीं होता। लक्षण-एक प्रकार का किंचित् तिक, गंधरहित सफ़ेद चूर्ण जो एक भाग उष्ण जल में विलेय होता है । चार भाग जल में यह सम्यक् विलेय और सुरासार (६०%) में किंचित् विलेय होता है । मात्रा-५ से १५ ग्रेन वा ०.३ से १ ग्राम; अन्तः क्षेपार्थ २से ५ ग्रन वा १२ से ०.३ ग्राम । अधिकृत योग आफिशल प्रिपेयरेशा ( Offical Pioprations ) पय्यो-कैफीनी साइट्रास एफ़रवेसेंस Caffeince Citrás Effervescens -ले० । सफ़रवेसेंट कैफीन साइटूट Sfferyescent Caffeine Citrate-अं०। Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहवा २४०६ कहवा निर्माण-क्रम-एक दानेदार जोशदार चूर्ण जो इस प्रकार प्रस्तुत होता है। सोडियम् बाइ कार्बोनेट ५१ भाग, टारटरिक एसिड २७ भाग, साइट्रिक एसिड १८ भाग, कैफ़ोन साइटूट ४ भाग और शकरा १४ भाग इनको परस्पर मिलाकर २१० फारन हाइट के उत्ताप पर इतना आँच दें कि वह दानादार चूर्ण बन जाय। फिर उसे चलनी में चाल लें और १३० फारन हाइट के उत्ताप पर शुष्क करले। मात्रा-६० से १२० ग्रेन ( ४ से ८ ग्राम)। कैफीन के नॉट ऑफिशल ( अनधिकृ) योग और पेटेंट औषध (१) एलिक्सिर कैफानी Elixir Caffeine अर्थात् कैफीन वा अक्सोर कहवीन । योग-कैफोन १७-५ भाग, डायल्युट हाइडो. ब्रोमिक एसिड (युनाइटेड स्टेट फार्माकोपिया) ४ भाग, सिरप डाफ काफ़ी अर्थात् शर्बत कहवा (नेशनल फार्म युलरी अमेरिका के अनुसार) २५० भाग, ऐरोमेटिक एलिक्सिर (संयुक्त राज्य अमेरिका) उतना जितने में एलिक्सिर पूरा एक सहस्र भाग हो जाय। शक्ति-इसके एक फ्लुइड ड्राम में १ ग्रेन कैफीन होती है। मात्रा-१ से २ फ्लुड ड्राम= (६.६ से ७.१ घन शतांशमीटर )। (२) कैफ़ोनी एमोनियोसाइट्रास (aff. einae ammonio-Citras इसके श्वेत स्फटिक होते हैं जो पानी में कम घुलते हैं। मात्रा-१ से १० ग्रेन । (३) केफानी हाइब्रोमाइडम् Caffeinai Hydrobromidum- इसके स्वच्छ स्फटिक होते हैं जो एक भाग १२ भाग जल में विलीन हो जाते हैं। मात्रा-१ से ४ ग्रेन-(.०६ से २६ ग्राम)। (४) कैफीनीहाइड्रोब्रोमाइडम्एफ़रवेसस Caffeinae Hydro bromidum Effer vescens. इसके ५० ग्रेन में २ ग्रेन हाइड्रोब्रोमाइड होते हैं । मात्रा-६० से १२० मेन-(४ से ८ ग्राम)। रल CaffeineChloral-1 इसकी छोटी छोटी सफ़ेद दानेदार कलमें होती हैं जो जल में सुविलेय होती हैं। गुण तथा उपयोग-यह वेदनास्थापक और कोष्ठमृदुकर है। मलावष्टंभ, प्राध्मान, गृध्रसी और आमवात में इसके ३ से ८ (०.२ मेन से ०.५ ग्राम) का त्वगीय अंतः क्षेप उपकारी सिद्ध होती है। (६) कैफीना एट सोडियाई सैलिसिलास Caffeina et Sodii Salicylas कैफीनी साडियो सैलीसिलास Caffeine Sodio Salicylas-यह एक प्रकार का श्वेतवर्ण का चूर्ण है जो एक भाग २ भाग जल में और एक भाग २८ भाग सुरासार (800/0) में विलीन हो जाता है। इसके गुणधर्म डिजिट. लिस की तरह नहीं होते हैं । यही नहीं अपितु घुलनशील होने के कारण यह डिजिटेलिस की तरह है। यही नहीं अपितु घुलनशील होने के कारण यह डिजिटेलिसकी अपेक्षा प्राशु प्रभावकारी होती है। योग यह हैकाफोन ५; सोडियाई सैलिसिलास ६, जल २०, इनको यहाँ तक वाष्पीभूत करें कि ये शुष्क होजायँ । इसमें ४७ से ५० प्रतिशत काफीन होती है। मात्रा-५ से १५ ग्रेन वा ०.३ से १ ग्राम मुख द्वारा, २ से ५ ग्रेन वा ०.१२ से ३ ग्राम त्वगधोऽन्तःक्षेप द्वारा। कैफीनी डाई आयोडो हाइड्रो ब्रोमाइडम् Caffeine Di-Iodo Hydrobromidum-त्रिगुण आयोडीन घटित कहवीन । इसको कैफीन ट्राई आयोडीन भी कहतेहैं । इसकी मंशूरी कलमें होती हैं । स्वर्गीय डाक्टर मार्टीमर के परीक्षणानुसार गाउट (वातरक्क) रोग में इस औषधि के उपयोग से अति शीघ्र लाभ होता है। यह आमवात (Rheumatism) में भी गुणकारी है। मात्रा-१ से ३ ग्रेन वटिका रूप में प्रयुक्त करें । ग्ल्युकोज़ और पल्व एकेशिया से इसको वटिकायें प्रस्तुत करना चाहिये। Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ heat (८) आडो क्लैफीन Iodo Caffeine सोडियम् कैफीनी आयोडाइड Sodium Caffeince Iodide २४०७ एक सफ़ेद चूर्ण जो शीतल जल में अल्प और उष्ण जल में सम्यक् विलेय है । इसमें ६५0/0 काफीन होती है । मात्रा-२ से १० ग्रेन वा ०१२ से ०६ ग्राम । यह हृदय विकारजात जलोदर ( Cardiac dropsy ) और फुफ्फुसावरण प्रदाह (Plea risy ) में उत्कृष्ट मूत्रकारक है । यह श्वास रोग में उपकारी है। मात्रा-२ से १० ग्रेन | (१) कैफीनी सल्फास Caffeince Sulphas इसके श्वेत स्फटिक होते हैं जो जल विलेय होते हैं । मात्रा - 1⁄2 से ५ ग्रेन | (१०) कैफीनी बैलैरिएनास Caffeince Valerianas जटामांसीसार घटित कहवीन । इसके श्वेत स्फटिक होते हैं। जिनमें एक प्रतिशत से १३ प्रतिशत तक बेलेरियन एसिड जटामांसी सार होता है । यह हिष्टीरिया ( योषापस्मार) और कुकर खांसी ( Pertussis ) में उपकारी है। मात्रा - 1⁄2 से ३ ग्रेन (०३२ से २ ग्राम ) ( ११ ) मिनीन Migrainine अर्थात् श्रर्द्धावभेदक हर श्रद्धविभेदकीन, शक्क़ीक़ीन । इसको 'ऐण्टिपाइरीन कैफीनी- साइट्रिकम् Antipyrin Caffeince-Citricum ' भी कहते हैं । इसमें ६ प्रतिशत कैफीन एक प्रतिशत साइट्रिक एसिड और ६० प्रतिशत फैनाजोन होती है । इसके स्फटिक होते हैं । जो जल में सुविलेय होते हैं । इसके जलीय विलयन की प्रतिक्रिया किंचिद् अम्ल होती है। I संयोग विरुद्ध — इसमें अधिक मात्रा में फेना जून होती है । इसलिये इसके भी वे ही संयोग विरोधी द्रव्य हैं जो फेनाजोन के । हवा गुरण तथा उपयोग- यह शिरःशूल में उपकारी है। किंतु इसके उपयोग से नींद नहीं श्राती । मात्रा - ८ से १५ ग्रेन = ( ०.५ से १ ग्राम) ( १२ ) मिल्जीन Migralgin इसमें प्रतिशत फेनेसेटीन, 8 प्रतिशत कैफीन और ३ प्रतिशत सैलिसिलिक एसिड होता है । मात्रा - ८ से १५ ग्रेन की चक्रिकायें ( Tablets ) भी बिका करते हैं । उपयोग - शिरःशूल में यह श्रौषध विशेष गुणकारी प्रमाणित हुई है । (१३) सिम्फोरोल Symphorol इस नाम से तीस योग विकते हैं। इनमें कैफीन, सल्फोनिक एसिड लिथियम् के साथ संयुक्त होती है । इनके श्वेत स्फटिक होते हैं । मूत्रल रूप से इनका हृदय विकारजनित जलोदर (Cardiac dropsy ) और वृक्कीय जलोदर ( Renal dropsy ) में उपयोग करते हैं । मात्रा - १० से १५ ग्रेन = ( * ६४ से १ ग्राम) ( ४ ) एक्सट्रैक्टम कोली लिक्विडम् Extractum Kolo Liquidumयह कोला बेरा नामक वृक्ष के बीजों से जिनमें २ से २॥ प्रतिशत कैफीन होती है, प्रस्तुत किया जाता है। पत्ते चाय और मात्रा - १० से २० मिनिम ( बिंदु ) । नोट- अरीका में दो-तीन प्रकार के कोलावृक्ष होता है । वहाँ उक्त वृक्ष के कहवा की जगह काम में श्राते । उनमें एक प्रकार का क्षारोद वर्तमान होता है जो सर्वथा कैफीनवत् होता है । (१५) कैफीनी साइट्रास Caffonie Citras - एक सफ़ेद गंधरहित चूर्ण जिसकी प्रतिक्रिया अम्ल होती है । यह ३२ भाग जल में विलेय होती है । मात्रा-२ से १० ग्रेन वा ०.६ ग्राम । कहवा के गुण धर्म तथा प्रयोग यूनानी मतानुसार प्रकृति — इसके संबंध में प्राचीन यूनानी एवं श्राव्य चिकित्सा शास्त्रज्ञों के नाना मत हैं । उन Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहरवा सबको यहाँ देकर हम पाठकों को उलझन में नहीं डालना चाहते । यहाँ पर हम केवल उन सबका सार देकर ही इस विषय को समाप्त करेंगे। अर्थात् जिस पर उन सभी का मतैक्य है । वह यह है-ताज़ा क़हवा और विशेषकर उसका छिलका उष्णता एवं रूक्षता की ओर प्रवृत्त होता है। पुराना तथा भृष्ट कहवा शीतल एवं रूक्ष होता है। यह जितना पुराना पड़ता जाता या जितना अधिक भुनता है, उसमें उत्तरोत्तर शीतलता एवं रूक्षता बढ़ती जाती है। हानिकर्ता- यह शिरःशूल, ख़फ़क़ान, श्राध्मान, कुलंज और काबूस उत्पन्न करता है, शरीर को कृश एव रूक्ष करता है। फुफ्फुस और नरख़रे में रूक्षता उत्पन्न करता है। शरीर का रंग पीला कर देता है। जिसकी प्रकृति में शीत एवं मृदुता का प्रावल्य हो या विकृत दोष बढ़े हुए हों, उसे यह अनिष्टकर होता है । दर्पघ्न-दवाउल मुस्क सोंठ, गुलाब, रोग़न पिस्ता, खाँड, मिश्री, अंबर और केसर इत्यादि । क़हवा अवरोधोद्धाटक और वेदनाहर है तथा यह रत्नप्रकोप एवं पित्त की तीव्रता और दाह का निवारण करता है । यह दोषों को स्वच्छ करता और सांद्र दोषों को द्रवीभूत करता है। इसी हेतु रक्त पित्त एवं वातजन्य ज्वरों में विशेषतः उनकी प्रारंभिक अवस्था में तथा शीतला और खजू रोग में भी यह उपयोगी सिद्ध होता है। यह रक्तविकारज उदई रोग तथा कामला अर्थात् यौन रोग में भी गुणकारी है। मलावरोधहर होते हुए भी यह दस्तों को रोकता है, विशेषकर अर्द्धभृष्ट क़हवा । यह मूत्रप्रवर्तक भी है। यह आद्रताहर है और श्लेष्मकास तथा प्रतिश्याय को निवारण करता है; मार्गजनित श्रम, क्रम एवं शरीर की शिथिलता को दूर करता है; हृदय को प्रसन्न एवं प्रफुल्लित करता है; आमाशय को शक्ति प्रदान करता है; मालीलोलिया इहतिराकी को गुणकारी है; नेत्राभिष्यंद को नष्ट करता है और मस्तिष्क की ओर वाष्पारोहण नहीं होने देता । यह अर्शको दूर करता है। यह भी कहते हैं कि यह अर्श उत्पन्न करता है । यह कुष्ठ रोग का निवारण । करता है। इसको पीसकर शहद में मिलाकर चाटने से शुष्क एवं प्रार्द्रकास में उपकार होता है । यह प्रामाशयगत पार्द्रता का शोषण कर उसकी शिथिलता को निवृत्त करता है। इसके पीने के उपरांत अधिक सोना, प्यास को मारना और अल्पाहार, किंतु इतना नहीं निर्बलता बढ़ जाय, अतीव गुणकारी है। आध पौंड भृष्ट कहवा पीसकर खौलते हुए पानी में डालें और उसमें से एक-एक प्याला क़हवा हर पंद्रह मिनिट के उपरांत उस व्यक्ति को पान कराएँ जिसकी आँत अंडकोष में श्राकर फँस गई हो । मायर महाशय ने ईसवी सन् १८५८ में इसका उपयोग किया और छठवाँ प्याला पिलाते ही आँत ऊपर चढ़ गई । ड्रडन महाशय ने भी उन विधि की परीक्षा की, किंतु नवाँ प्याला पिलाने के उपरांत उनके रोगी ने पाराम पाया। इसके अतिरिक्त कतिपय अन्य डाक्टरों के परीक्षणानुसार भी यह उपयोगी प्रमाणित हो चुका है। इसके बार बार पीने से मस्तिष्क एवं प्रकृति में रूक्षता की उल्वणता होती है और नींद कम आती है। परन्तु जिनके गरमी बढ़ी हुई हो और नींद न आती हो कहवा पान करने से उनकी हरारत घट जाती है । इसलिये रतूबत कम विघटित होती है और नींद आने लगती है । अस्तु इसी प्रकार एक मनुष्य की प्रकृति में उष्णता पराकाष्ठा को पहुँची हुई थी । इसलिये उसे नींद न आती थी। रात को वह इस प्रकार जागता था, मानो कोई सरेसाम का रोगी हो और वह व्यग्र एवं चिंतित रहता था। दो-तीन रात्रि कहवा सेवन करने के उपरांत उसे अच्छी खासी नींद आने लगी। कोई कोई कहते हैं कि यह वीर्य को सुखाता है और कामावसाय उत्पन्न करता है । कदाचित् पुराने और बहुत भुने हुए एवं काले में यह गुण हो सकता है, कच्चे में ऐसा होना संभव नहीं। बल्कि इसका छिलका तो किसी किसी प्रकृति के व्यक्ति की कामशक्ति को बढ़ाता है और श्राहार का पाचन करता है। (ख० श्र०) डॉक्टरी मतानुसार___काफी--कहवा मस्तिष्क, पाकस्थाली और वृक्कद्वय का उत्तेजक, मृदुरेचक, उच्च श्रेणी का Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहेला, कहेली पचननिवारक, सिद्ध मत्रकारक एवं अश्मरी-संचय ( R.n.khory., vol.11,p.326.) निवारक है। खाद्य वा मादक पान रूप से भुने नोट--इसके सुप्रसिद्ध क्षारोद क़हवीन के हुए कहवे को परिमित मात्रा में उपयोग करने से सविस्तर गुणधर्म तथा प्रयोग के लिये "काफीना" यह उद्दीपन कार्य करता, समीकरण ( Assim देखें। ilation ) एवं परिपाकशक्ति की वृद्धि करता, कहवाऽ-[?] इक्लीलुल्मलिक नामक एक उद्भिज । श्रांत्रीय कृमिवत् प्राकुचन का उत्कर्ष साधन | कहामत-[अ०] (१) वृद्ध होनेका भाव । वार्धक्य। करता ओर शारीरिक धातुओं के दय एवं मूत्र के जरापन । (२) मंदबुद्धि एवं शिथिल होना । साथ यूरिक एसिड के उत्सर्ग को घटाता है। कहाह-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (१) महिष । भैंसा । कहवा सेवन करने से श्रम जन्य शारीरिक एवं । (२) कटाह । कज़ह । मानसिक अवसाद वा क्रम का अनुभव नहीं | कही-[ कना० ] कटु । तिक्क । कडुपा । होता और विना क्लेश के कुछ समय तक के | कहीकीर-[ कना० ] कड़वी तुरई । कड़वी तरोई । लिये निद्रा पर विजय प्राप्ति होती है तथा मन कहीज-[अ० ] एक प्रकार का प्रावरेशम । सतेज रहता है । यह परावर्तित क्रिया एवं मान- कहीन-[फा. ] ज़रूर। सिक चेष्टा ( Mental activity ) की | कही पड़वल-[ कना० ] जंगली परवल । वन्य वृद्धि करता है । अत्यधिक मात्रा में कहवा सेवन पटोल। करने से इन विकारों का प्रादुर्भाव होता है- कहीर-[फा०] ज़रूर। अनियन्त्रित परिपाक क्रिया, शिरः पीड़ा, शिरो- | कहीला-[ ] तज । सलीखा । घूर्णन, हृत्स्पंदन, नितांत अस्थिरता, आक्षेप और | कहीला-[१०] (१) गावज़बान । पक्षाघात । कोको को अपेक्षा कॉफी अधिकतर | कहीसोरे-[ कना०] तितलौकी । कड़ा धिया । उत्तेजक, किंतु अल्प जीवनीय (Sustaining) कहु-संज्ञा पुं॰ [ ] कोह । अर्जुन । है। (आर० एन० खोरी, खं० २, पृ० ३२३६) कहुआ-संज्ञा पुं॰ [ ] अर्जुन वृक्ष । कोह । ___ कहवे का कच्चा फल (Berries) ज्वर- कहुदाली-[ मरा०] काकतुडी। कौबा ठोठी । नाशक है। यह शिशुओं के लिये वर्जित है, क्यों | Asclepia Curassavica. कि इससे अनिद्रा उत्पन्न होती है। अस्तु, इससे | कहुन्दान रंगल-[म०प्र०] मालकाँगनी । उनकी वृद्धि के विपरीत प्रभाव होता है। वयस्क | कहुवा-संज्ञा पुं० [सं० कोह ] अर्जुन वृक्ष । कोह लोगों में यह शीघ्र वार्धक्य लाता है और संवर्तन | वृत्त । क्रिया ( Metabalism) को अस्त-व्यस्त ___ संज्ञा पुं० [अ० क़हवा ] एक दवा जो घी, कर आयु के परिमाण को घटाता है। चीनी; मिर्च और सोंठ को आग पर पकाने से उपयोग-शारीरिक क्रान्ति एवं हृदय तथा बनती है और जुकाम ( सरदी ) में दी मन विषयक अवसाद में कहवे का प्रयोग होता जाती है। है। वातजवेदना ( Neuralgia), नाड़ी | कहुवारुख-संज्ञा पु. अर्जुन वृक्ष । कहुवा । कोह का विकार घटित शिरः पीड़ा और चिरकारी मदात्य | पेड़। यजनित अनिद्रा रोग में ग्वाराना के साथ वेदना | कहू-संज्ञा पु. अर्जुन वृक्ष । कोह। स्थापक रूप से यह उपयोग में आता है तथावमन, कहूलत-[अ०] अधेड़ उमर का होना । बालों का अतिसार, श्वास रोग जनित आक्षेप इनके निवृत्यर्थ । काला और सफ़ेद होना । चालीस से साठ वर्ष को एवं मादक सेवन जनित विषाक्तता की दशा में भी | अवस्था के मध्य होना। कहवे का व्यवहार होता है । हृदय संबंधी रोग में | कहेला, कहेली-संज्ञा स्त्री० [ देश०] तज का माम पैराल्डिहाइड के साथ कैफीन का लाभदायक जिसे अरबी में "सलीन" कहते हैं। किंतु हकीम उपयोग होता है। शरीफ खाँ कहते हैं कि वह एक पहाड़ी वृक्ष की ८२ फा. Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहेस २४५० कारछाल है जो कड़ी, मोटी, खुरदरी, मटियाले एवं | कह फ़, किह फ़-[१०] [ बहु० अक हाब, कह फ + लाल गेरू के रंग की होती है । कहेला कहेली में | खोपड़ी की एक हड्डी । पाश्चिकास्थि । अजमुल भेद केवल इतना है कि कहेला मोटी छाल है शाफ ज । Parietal. और कहेली पतली । ये दोनों चीजें सलोखा-तज | हब-[:] कच्चा और हरा अंगूर । और किफ्रें-दालचीनी से भिन्न और उनके मध्य | | कह. ब-[१०] (१) अतीव वृद्ध पुरुष। बड़ी उमर का श्रादमी। (१) खाँसना ।। गुणधर्म तथा प्रयोग-ये वृक्क और कटि को कह बः-[ अ० ] पुश्चली स्त्री। दुराचारिणी । वलप्रद हैं और स्त्री गुह्यांग से नाना प्रकारके स्रावों । छिनाल । बदकार औरत । का निवारण करती हैं। प्रायः ललनागण इसे नोट-कह बं का धात्वर्थ खाँसना है और पिडियों में डालकर खाती हैं। प्रायः इसका उपयोग कह बः इसी से व्युत्पन्न है । क्योंकि यमन देशीय करती हैं, विशेषतः उन पिचु वर्तिकाओं में। पुश्चली नारीगण पुरुषों को खकारकर बुलाती (ता० श.। ख० अ०) थीं। इसलिये उनको कहबः के नाम से अभिहित कहेसरु-[ करना०] बन मूग । मुद्द्रपर्णी । मुगवन । किया गया। किसी किसी के अनुसार कह बः कहोला भाजी-[ वम्ब० ] बुस्तान अफ़रोज़ । वकाहत से व्युत्पन्न है जिसका अर्थ निर्लज्जता है। कहक़व-अ.] बैंगन । भंटा । कह म-[अ०] बहुत बूढ़ा। अतीव वृद्ध । पीर कहकम्-[१०] बैंगन । भंटा । फतूत । कह कर-[अ०] (१) उलटा चलना । (२) कहरल-[ ] जर्जीर । जिसमें किसी चीज़ को घिसें । (३)बहुत काला हसूस-[यू०] करासिया । बालूबोखारा । कौना। पहाड़ी कौश्रा। कह रुबत-[अ.] किसी वस्तु पर वैद्युतिक शक्ति नोट-मुहीत आजम में इसी अर्थ में इस प्रवाहित करना | Electrify. . शब्द का उच्चारण "कहकर" किया है। पर यह कहाबा-अ. काह+रुबा 1 दे० "कहरुवा" । उच्चारण ग़लत है । गोंद के अर्थ में भी उक्न | वहरुबा शमई-१० कहरुवा भेद । उच्चारण से यह शब्द देखने में नहीं पाया। कहरुवाइय्यः, कहरुबिय्यः-[१०] कहरुबाई शनि । कह कर-[१०] (1) बड़ी उम्र का वह बकरा विद्युच्छकि । Electricity. जो पहाड़ी हो वा पहाड़ी न हो। (२) कठोर कहल-[१०] [ बहु० कहूल, कहाल कहलान् ] पाषाण | सख्त पत्थर । कहकार । (३)चिकना अधेड़ । अधेड़ अवस्था का श्रादमी । चालीस से काला पत्थर । साठ वर्ष की अवस्था तक का श्रादमी । कहकहः-[१०] अट्टहास । खिलखिलाकर हँसना। कहल:-संज्ञा पुं॰ [सं पु.] जू नामक कीट । दे. “जह क"। कह ल-दे. "कुह ल"। कह कहर-[ यू.] सर्जरस । सालवेष्ट । राल । [१०] आँख में सुरमा लगाना । Tratai Resin. कह ल-[अ० ] त्वचा का खुरदरा और कठोर होना । कहकहार, कहकार-[अ० ] कठोर पाषाण । सख़्त स्वक कार्कश्य एवं काठिन्य । क़शन । पत्थर । करण-संज्ञा पु[सं० पु.] कलहण, राजतरङ्गिणी कह कर-[अ.] पाषाण । पत्थर | म० अ०। __ के प्रणेता । दे० 'कल्हण" । मु.पा.। कलक-संज्ञा पु० [सं० वी० ] कतार । शुदिफुलकहजक, कहज़ल-[फा०] जीर। बं० । भा० पू० १ भ० गु० व०। कह त-[१०] (1) एक पौधा । (२) दुर्भिक्ष । | कह लत, कहलम्-[फा०] बैंगन । भंटा । अकाल । खुश्कसाली । अनावृष्टि ।Draught करार-संज्ञा पुं० [सं० की. ] (१) सफेद कुईं। कदल-[१०] मकड़ी। धवलोत्पल । कुमुद । रा०नि• व०१०वि० Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कह्नारघृत २४११ कच्छराक्षस तेल दे. "कुई" । (२) कूई ।बघवल कोकाबेली। कक्ष-संज्ञा पु० [सं० पु. (१) अंगाधः कोटर । कुमुद पुष । चि० क्र. क. केशरपाक । “कहार रत्ना०। (२) महिष। भैंस । (३) लता । पद्मोत्पल चन्दनाम्बु"। बेल | अम० । मे० पद्विकं। (४) गूगुल । पO०-सोगंधिक (अ.), सोगंधिकं, गुग्गुल । वै.निव०। (५) सूखी घास । शुष्क कल्हारं, हल्लकं, रकसन्ध्यकं (भा० पू० १ भ. तृण। ध०। (६) सूखा वन । शुष्क वन । पु० व०)। ( Nymphea edulis ) (७) पाप । दोष । हे. । (८)कच्छ कछार । गुण-कहार शीतल, ग्राही, गुरु, रूक्ष और (६) अरण्य । वन । जगल । (१०) गृहप्रकोष्ठ । विष्टम्भकारक होता है। भा० पू० १ भ. भीत । पाखा । (११) पार्श्व । काँख । बगल । पु० व०)। यह कसेला, मधुर, तथा शीतल (१२) काँछ । कछोटा । लाँग । (१३)कास । होता है और कफ, पित्त एवं रक विकार नाशक (१४) भूमि । (१५) घर । कमरा । कोठरी । है । (राज.)। यह ग्राही, अत्यन्त शीतल,भारी (१६) एक रोग । काँख का फोड़ा। कखरवार । रूक्ष और विष्टम्भकारक है (वै० निघ०)। (३) (१७) आँचल । (१८) दर्जा । श्रेणी। ईषत् श्वेत रक कमल । (४) कमल साधारण । (१६) तराजू का पल्ला । पलरा। (२०) कोई कमल । वै०निघ०। (५) श्वेत कमल । पेटी । कमरबंद । पटुका । सफेद कमल । (६.) रनकुमुद । तालकूई। कक्षधरमम्म-संज्ञा पुं॰ [सं० की. ] एक मर्म स्थान हलमक । शा. नि. भू०। विशेष । इसका स्थान काँख और छाती के बीच कह्नारघृत-संज्ञा पुं० [सं० की.] आयुर्वेद में हृद्रो- का भाग है। सु. शा०६०। गाधिकार में वर्णित एक योग । यथा कक्षपुट रस-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] एक रसौषधि । "कह्नारमुत्पलं पद्म कुमुदं मधुयष्टि का। शुद्ध पारद लेकर तप्त खल्व में डालकर निर्गुण्डी, पक्तवाम्बुनाथ तत्काथे जोवनीयोपल्पिते।। नीली, थूहर, ब्रह्मदण्डी; त्रिदण्डी (मोरसेंडा घृतं पक्क नवं पीतं रक्तपित्तास्रगुल्मनुत् ।" मराठी) सौंफ, मुग्दपर्णी, श्वेत प्राक, कौंचबीज, रस. र०। अरणी, पेटारी (कंघी), काला धतूरा, भाँग, अर्थात् कुई-सफेदकमल, नील कमल, रन क्षीर विदारी कंद इन प्रत्येक के अङ्ग स्वरसों से कमल और मुलेठी समान साग के क्वाथ के और एक-एक दिन मर्दन करें। पुनः इस तप्त खरल में जीवनो गण की श्रोषधियों के कल्क के साथ यथा डालकर मर्दन किया हुआ पारद लेकर इसका विधि सिद्ध नूतन घृत पान करने से रक्त पित्त गोला बनालें और इसेक्षीरकंद वा वज्रकंद (जंगली और रक्तार्श का नाश होता है। सूरन वा मानकंद) में गड्ढा खोदकर रखें और कह्न लसूदान-[अ० ] काले श्रादमी। उसी के मज्जा से गड्ढे को भर कपड़ मिट्टी देकर कह-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] वक पक्षी । बगुला । इस संपुट को वज्रमूषा में बंदकर लघुपुट में भाग श्रम। दें। इस प्रकार करने से जब स्वांग शीतल हो कहवः -[अ०] (१ दे० 'कहवा"। (२) एक जाय तब काम में लावे। प्रकार मद्य । मदिरा विशेष । कक्षरादि तेल- ) कह.व-इक्कीलुल जबल । कच्छ राक्षस तेल- संज्ञा पुं॰ [सं० की.] मैन. कह वाऽ-[ ] इक्कीलुल मलिक नाम का एक उद्भिद् । शिल, होरा कसीस, अामलासार गंधक, सेंधा कह. वान्-दे० कुह वान्"। नमक, सोना माखी, पत्थरफोड़ा, सोंठ, पीपल, कह वीन- कहवे में पाया जानेवाला एक क्षारोद । करिहारी, कनेर, वायविडंग, चित्रक, दात्यूणी, कह. ह.-[१०] वह खरबूजा जिसमें गूदा खूब हो, नीम के पत्ते समस्त धेला-धेला भर लें। जल में परन्तु अभी वह अपरिपक्व हो । कच्चा खरबूजा। महीन पीसकर पुनः २ सेर कड़वा तेल मिलाकर कह हाल-[अ] नेत्रचिकित्सक । नेत्र निर्माता ।। यथाविधि पकायें । पकते समय इसमें मदार का आँख बनानेवाला | चश्म साज़ । Deulist. दूध २ छ, थूहर का दूध २ छ, गोमूत्र ४ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कक्षमूल २४१२ सेर डालकर मन्द मन्द श्रांच से पकाएँ । जब जल का अंश शेष हो जाय तब छान कर रखें । गुण- इसके मर्दन से श्रसाध्य कच्छदाद; पामा, खुजली और रुधिर के समस्त विकार दूर होते हैं । ( श्रमृ० सा० ) कक्षमूल - संज्ञा पुं० [सं० क्ली० ] बगल ! Base of the Axilea. कक्षारुहा - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] नागरमुस्ता । नागरमोथा । रा० नि० व० ६ । कक्षशय - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] कुत्ता । कुक्कुर | वै० निघ० । कक्षा - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) वाह्वोर्मूल | काँख | रा० नि० व० १८ | ( २ ) एक प्रकार का क्षुद्र रोग जो पित्त के प्रकोप से होता है। कँखोरी | काँकविडालि ( बं० ) । लक्षण - बाहु ( भुजा ), पसली, कंधा और कत्ता ( काँख वा बगल ) में होने वाले काले रंग के वेदनायुक्त फोड़े को पित्त की कक्षा, ककराली कहते हैं । मा० नि० छुद्र रो० । कक्षान्तर-संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] अन्तर्गृह । गर्भा - I गार । कक्षापट-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] कौपीन । हला० । कक्षाफलु संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] कृष्णोदुम्बरफल । काकडुमुर - बं० | कठूमर । वै० निघ० । कक्षीय - वि० [सं० त्रि० ] कक्ष सम्बन्धी । Axi. llary, श्र० शाo 1 I कक्षीया धमनी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] काँख की धमनी । (Axillary artery) श्र० शा० । प्र० शा० । कक्षीयानाड़ी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कक्ष सम्बन्धी नाड़ी | Axillary nerve; श्र० शा० | कक्षोत्था -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] भद्रमुस्ता | नागर मोथा । हे० । कच्या - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) वृहतिका । बनभंटा, हे०च० । ( २ ) काञ्ची । ( ३ ) ह प्रकोष्ठ । श्रम० । ( ४ ) मद्य । ( ५ ) हाथी बाँधने की रस्सी । करिबंधन । अ० टी० भ० । ० यद्विकं । (६) गुञ्जालता । घुंघची । (७) रती । (८) आँगन । ( 8 ) चमड़े की रस्सी । कंकर बी ताँ । नाड़ी । (१०) हौदा । श्रमादी । ( ११ ) महल । ( १२ ) ड्यौढ़ी । ( १३ ) कक्ष सम्बन्धी धमनी | Axillary A (18) Axillary कक्षा सम्बन्धी सिरा । श्र० शा० । कत्रय - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] तीन कुत्सित पदार्थ | तीन बुरो चीज़ों का समूह। यह शब्द नित्य ही बहुवचनांत होता है। क - संस्कृत वा हिन्दी वर्णमाला का पहला व्यंजन वर्ण । कं- संज्ञा पुं० [सं० कम् ] ( १ ) जल । (२) मस्तक । ( ३ ) सुख । ( ४ ) अग्नि । (५) सोना । ( ६ ) काम | कुंअ - [ श्रु० ] चूहा । मूसा | क़न्क्रश्रु । कंकटी - [ म० ] चाकसू | कंकड़ - संज्ञा पुं० [सं० कर्कर ] [ स्त्री० पा० ककड़ी ] एक खनिज पदार्थ । अंकटा । संगरेजा फ़ा० । हसात - श्रु० । प्रकृति - शीतल एवं रूत । गुए, कर्म, प्रयोग — यह माद्दे को लौटा देने वाला और शोषणकर्त्ता है । इसका धूल सा पिसा हुधा बारीक चूर्ण बुरकने वा मरहम बनाकर लगाने से क्षत-विक्षत स्थान से रक स्राव होने में उपकार होता है । ना० मु० | म० इ० | कंकणखार - [ कना० ] सुहागा | टंकण । कंकनिका -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] बाल सँवारने की कंधी | कंकपक्षी - संज्ञा पुं० [सं०] काँक | कङ्क | गीला । कंकपाल - [ मल० ] मूली । मूलक । कंकर - संज्ञा पुं० दे० "कंकड़" | हद संज्ञा पुं० [फा० ] ( १ ) उल्लू । ( २ ) बादाव | [ ? ] एक बूटी । हर्शन । दे० " उर्शन" । संज्ञा पुं० [सं०] तक्र । मट्ठा | छाछ ! [ म०, खरपत | घोगर । ( Garuga Pinnata, Roxb.) J कंकर आबी-संज्ञा पु ं० [फा०] श्रार्द्ध भूमि में होनेवाली एक बूटी जिसकी पत्ती हरी और करप्रस की पत्ती की तरह होती है। इसकी शाखाएँ चिपकदार ओर फूल पीले रंग के एवं सुगंधित Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंकरखर २४१३ कँगनी होते हैं । स्वाद में यह तीक्ष्ण, कटुक एवं कुस्वादु कंकेर - संज्ञा पु ं० [देश० ] एक प्रकार का पान जो होता है। कड़ा होता है | कंकोड़ा-संज्ञा पु ं० [ ककोड़ा ] ककोड़ा | कंकोल - संज्ञा पुं० [सं० ] ( १ ) शीतलचीनी का एक भेद । ( २ ) कंकोल का फल | कंकोल मिर्च | दे० "कंकोल ” । कंकोल की - संज्ञा स्त्री० [सं०] काकोली | करवी । न० ना० से० । 1 कंकोल - [ मरा०, क० ] कबाबचीनी । शीतलचीनी | [ मरा०, बम्ब० ] कंकल । चव्य । चाव | कं कोलदाना -संज्ञा पुं० दे० " कंकोल मिर्च" । कंकोल मिर्च संज्ञा स्त्री० [सं० कंकोल + हिं० मिर्च ] कंकोल का फल | दे० " कंकोल " । कंक्र - संज्ञा पुं० [?] तिर्यक्कू पल । पापट । कुकुर चूर (बं० ) । कंखजूरा - संज्ञा पु ं० दे० " कनखजूरा" । कँखवारी - संज्ञा स्त्री० [हिं० काँख ] वह फोड़िया जो काँख में होती है। कंखवार । कखवाली । ककराली । कॅखौरी - संज्ञा स्त्री० [हिं० काँख ] ( १ ) काँख । (२) दे० "कँखवारी” । प्रकृति -- द्वितीय कक्षा के अंत में उष्ण और रूत | हानिकर्त्ता - शरीर के नीचे के अगों को । दर्पंन—उन्नाव, कतीरा और शीतल पदार्थ । प्रतिनिधि—× । मात्रा – ४॥ माशे तक | मुख्य कर्म - मूत्र प्रवर्त्तक, रजः प्रवर्त्तक, वायु नाशक श्रोर रक्क स्थापक । गुणधर्म तथा प्रयोग - शरीर के भीतर गरमी उत्पन्न करता और सूजन उतारता है । शरीर के प्रत्येक अंग से रक्त स्राव होने को रोकता है, मूत्र औरत का प्रवर्तन करता है, और वृक्काश्मरी को खंड खंड करके निकालता है। इसका क्वाथ श्रामाशय एवं श्रांत्रस्थ सांद्र वायु को विलीन करता और श्रामाशय को गरम करता है । चेहरे के रंग को निखारता है । यह पार्श्वशूल, कामला (यर्कान ), विवृद्ध प्लीहा, मरोड़ और श्रांत्रक्षत को गुणकारी है । इसका तरेड़ा शीत ज्वर में लाभकारी है । ( बु० मु० ) कंकरखर- [ फ़ा० ] बाद श्रावर्द | कंकरज़द-[ फ़ा० ] हर्शन का गोंद। कंकरी । तुरा- कँखिना - [ बम्ब० ] पीलू । बुल्कै । दे० "हर्शफ़” । कंकर सफ़ेद - [फ़ा॰ ] बाद वर्द | कंकरा - [ बं० ] Bruguinera gymnorhiza. कँकरी- [हिं०, द० ] ककड़ी | कंकरी - [ फ़ा० ] हरशफ़ का गोंद । कँकरोल-[ बं० ] धारकरेला । गोल ( २ ) एक प्रकार का कद । सूम । ककरा | Momordica Mixta कंकला ( काँकला ) -[ बं० ] काकोलो । ( Zizy phus Napica.) कहन, कंकहर - [ यू० ] शालवेष्ट । राल । नैक़हर | कहन | Cancamum. कंकाल-संज्ञा पु ं० [सं० ] ठठरी । श्रस्थिपंजर | कंकी - संज्ञा स्त्री० [सं०] किंकणी | कंकुटी - [ म० ] चाकसू । ॐ कुतो -संज्ञा स्त्री० की। कंपनी । क । कंगई - [ पं० ] मयूर शिखा । मोर शिखा । मोर पंखी । संज्ञा स्त्री० [हिं० कंघी ] कंघी । कंगई विलायती -संज्ञा स्त्री० खुडबाजी । ख़ित्मिए कोचक | कंगकु-[ उ० प० प्रां० ] नेवार | कसूरी (नैपा० ) कंगजी - [ लेप० ] बरगद | वट | कंगनखार - [ ] लघमी । कँगना-संज्ञा स्त्री० [सं० कंकु ] एक प्रकार की घास । साका | कँगनी -संज्ञा स्त्री० [सं० कङ्गु ] एक अन्न का नाम । पर्थ्या०- (संस्कृत) प्रियंगुः कंगुकश्व चीनकः पीततण्डुलः । अस्थिसंबंधनश्चैव कङ्कनी षट् च कथ्यते ॥ ( ध० नि० सुवर्णादि ६ व० ) अर्थात् कँगनी के ये ६ पर्याय हैं - प्रियङ्गुः, कङ्गुकः, चीनकः, पीततण्डुलः, अस्थिसंबंधन:, कंकनी । Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कँगनी २४१४ गुणी कंगुनी प्राचीन कः पीततण्डुलः । वानलः सुकुमारश्च स च नानाविधाभिवः ॥ ( रा० नि० शल्यादिः १६ व० ) अर्थात्-कङ्गुणो, कङ्गुनी, चोनकः, पी तण्डुलः वातलः, सुकुमारः ये इसके नाना प्रकार के नाम हैं । भावप्रकाशकार ने कंतुः श्रोर प्रियङ्ग इसके ये दो नाम दिये हैं । शेष संस्कृत पर्थ्या० - कङ्गुनिका, प्रियङ्गुः ( श्र०) कङ्गः प्रियङ्ग ( ० टी० ), कङ्गुका (रत्ना० ) कङ्गुणिका, कङ्गुणी, कङ्गुनीका, कंगूनी, गुफ पूर्वाचार्यकृत वर्णन -- 'कंगुनिका कायनीति" चक्रसंग्रह ढोकायां शिवदास ) | "प्रियंगुः कायनीति प्रसिद्धा" ( चरक टीकायां चक्रपाणिः ) । परिचय-ज्ञापिका संज्ञा - "पीततण्डुलः” । गुण प्रकाशिष सज्ञा - "वःतत्तः”, "अस्थि संबन्धनः " । अन्य भाषा के पर्याय काकन, ककुनी प्रियंगु, कंगु, टाँगुन, टॅगुनी, कङ्गनो, कंगनी, कंगुनी, काँगुनी, काँक, कंकनी, काँगनी, कानि - हिं० । कोर, काँनि धान वा दाना, का उम्, काडनी दाना-बं० । श्रर्जुन, कंगनीफ़ा । दुख्न, दिन - श्रु० । पैनिकम् इटैलिकम् Panicum Italicum Linn. सिटेरिया for Stania Italica, Beauv.ले० 1 इटालियन मिलेट Italian millet, डेकन ग्रास Daccan grass श्रं० । तिनै- ता० | कोरलु, प्रकेण पुचेट्टू कोलु - ते० । कांग - मरा० । काउन, बरयी - कों० । नवने शक्ति, कंगु गिडा - कना० । तिना -मल० । कुरहन् - सिं० । बाजरी - गु० । काल - शीराजी । श्यामाक वर्ग ( N. O. Graminacere. ) उत्पत्ति स्थान - यह समस्त भारतवर्ष, वर्मा, चीन, मध्य एसिया और योरुप में उत्पन्न होता है को बिहार राज्य में कङ्गु प्रचुर परिमाण में होता है। कँगनी वानस्पतिक वर्णन- - एक प्रकार का तृणधान्य है । सुश्रुत में कुधान्यवर्ग में कङ्ग, का पाठ श्राया है | यह मैदानों तथा ६००० फुट की ऊंचाई तक के पहाड़ों में भी होता है । इसके लिये दोमट अर्थात् हलक सूखो जमीन बहुत उपयोगी है । यह बाद सावन में बोई ओर भादों कार में काटी जाती है । कहीं-कहीं यह पूस के महीने में बोई जाती है और बैसाख के अंत में वा जेठ के शुरू में करती है। धान के नाल से कँगनी का नाल स्थूलतर एवं दृढ़तर होता है । जबतक यह श्रधिक बड़ा नहीं होता, तबतक इसका तना भूमि पर नहीं गिरता, श्राकृति वर्ण और काल के भेद से इसकी बहुत जातियाँ होती हैं। रंग के भेद से कँगनी दो प्रकार की होती है - एक पीली, दूसरी लाल | इसको एक जाति चेना वा चीना (Panicum Miliaceum) भी है जो चैत बैसाख में बोई और जेठ में काटी जाती है । और गुण में कंग के समान होती है कहा है- "चीनकः कंगु भेदोऽस्ति सज्ञेयः कंगुबद्गुणैः ।" इसमें बारह तेरह बार पानी देना पड़ता है । इसीलिये लोग कहते हैं- "बारह पानी चेन नहीं तो लेन का देन" वि० दे० "चीना" । कं तंडुल अर्थात् कँगनी के दानं सागुदाना से किंचित बड़े और साँवाँ से कुछ मोटे और अधिक गोल होते हैं। तुष सहित कँगनी का वर्ण पीला होता है एवं कँगनी के दाने का वर्ण ईषत् पीत होता है । कँगनी के श्राटे का स्वाद मीठा होता है, भूसी का रंग सफेदी मायल होता है । यह अत्यंत कोमल होती है और शीघ्र दानेसे पृथक नहीं होती । सौ तोले कँगनी में ७३ तोले श्राटा और प्रायः तीन तोले तेल निकलता है । 1 मन प्रतिबीघा के हिसाब से कंगनी होती I इसकी बाल में छोटे २ पीले २ घने रोएँ होते हैं । यह दाना चिड़ियों को बहुत खिलाया जाता है । कँगनी के पुराने चावल रोगी को पथ्य की तरह दिये जाते हैं । कँगनी के भेद — सुश्रुत में कँगनी चार प्रकार की लिखी है । कहा है कृष्णा रक्ताश्च पीताश्च श्वेताश्वव प्रियंगवः । Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कॅगनी २४१५ कँगनी यथोत्तर प्रधानाः स्यूरूक्षाः कफहराः स्मृताः ।। (सुश्रुतः सू० ४६ अ. कुधान्यव०) अर्थात् काली, लाल, पीली तथा सफेद और ये उत्तरोत्तर श्रेष्ठ होती हैं तथा रूक्ष और कफ नाशक होती है। निवण्टु द्वय में कैंगनी का नाम "पीत तण्डुल" निर्देश किया गया है। यदि उन्हें रक्तादि भेद स्वीकृत होता तो ऐसा नाम न लिखा होता। नवीन संग्रहकार भावमिश्र ने भी कृष्णादि चतुर्विधि कंगु का उल्लेख किया है यथास्त्रियां कंगुप्रियंगूद्वे कृष्णा रक्तासिता तथा । पीता चतुर्विधाकगुस्तासां पीतावरा स्मृता॥ . (भा०) परंतु पीतकंगु से भिन्न कृष्णादि अन्य तीन प्रकार के कंगुत्रों को हमने नहीं देखा है। ___ इसके अतिरिक्त निघण्टु कार इसके एक और भेद का उल्लेख करते हैं, जिसे 'वरक' अर्थात् बड़ी कँगनी कहते हैं । लिखा है"वरकः स्थूलकंगुश्च रूक्षः स्थूलप्रियंगुकः।" (रा०नि० व०१६) अर्थात् वरक के पर्याय ये हैंस्थूलकङ्गुः, रूक्षः. स्थूल प्रियंगुकः, वरक: (स्थूल कंगू)। रासायनिक संघटन-एक विषाक्त ग्ल्युको. साइड और तैलीय क्षारोद। औषधार्थ व्यवहार-मूल और तण्डुल । मात्रा-मूल-१ तोला । तण्डुल विशेषतः पथ्य रूप से व्यवहार में आता है। __ गुणधर्म तथा उपयोग आयुर्वेदीय मतानुसारप्रियङ्गर्मधुरो रुच्यः कषायः स्वादु शीतलः । वात कृत्पित्तदाहघ्नोरूक्षा भग्नास्थि बन्धकृत् ।। (रा० नि० व० १६ तथा ध० नि० ६ व०) प्रियंगु (कॅगनी) मधुर, कसेला, रुचिकारक, स्वादु, शीतल, वायुजनक, पित्त एवं दाहनाशक, रूखा और टूटी हुई हड्डी को जोड़नेवाला है। __वरक के गुणवरको मधुरो रूक्षः कषायो वातपित्तकृत् । (रा०नि० १६ ब०) | वरक (बड़ी कँगनी)-मधुर व रूखी, कसैली और वात तथा पित्तकारक है । साठी से यह हीन गुणवाली होती है। भग्नसंधान कृत्तत्र प्रियंगु हणीगुरुः । (वा० सू० ६ १०) कॅगनी-टूटी हड्डी को जोड़ने वाली, पौष्टिक और भारी है। कङ्ग का वृहणी गुर्ची भग्नसन्धानकृन्मता । (राजवल्लभः) कॅगनी-पुष्टिकारक, भारी, भग्नसंधान कारक और वात वर्द्धक है। कङ्गस्तु भग्नसन्धानवातकृत् वृहणीगुरुः । रुक्षा श्रेष्महराऽतीव वाजिनां गुण कृद्भशम् ।। (भा०) कँगनी-भग्नसंधानकारक-टूटे स्थान को जोड़नेवाली, वायुकारक, वृंहण, भारी, रूक्ष, अत्यन्त श्लेष्म नाशक और घोड़ों के लिये विशेष गुणकारी है। वैद्यक निघण्टु के अनुसार यहधातु वृद्धिकारक, वातकारक, भारी, अस्थि संधानकारक, रूक्ष और घोड़ों के लिये हित कारक तथा कफ नाशक है। पीली कंगनी गुण में अधिक है। कङ्गः शीतो वातकरो रूक्षो वृष्यः कषायकः । धातुवृद्धिकर: स्वादुगुरुश्चाश्वहितावहः ।। भग्नास्थि सन्धान करो गर्भपाते हितावहः । कफ पित्त हरश्चायं कृष्णरक्ताच्छपीतकैः ॥ वर्णैश्चतुर्धा समतो गुणैश्चोत्तरतोऽधिकः । कंगनी-शीतल, वात कारक, रूखी, वृष्य, कषेली, धातु वर्द्धक, स्वादिष्ट, भारी, घोड़ों को हितकारी, भग्नास्थि सन्धान कारक, गर्भपात में हितकारी और कफ पित्त नाशक है, यह कृष्ण, रक्क, सुफेद और पीली इन भेदों से चार प्रकार की है । इन में एक से एक के अधिक गुण हैं। वैद्यकीय व्यवहार चक्रदत्त-(१)नाड़ी व्रण में कमुनिकामूलकंगुनिकामूल चूर्ण को भैंस के दही और कोदो Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१६ ( चावल ) के भात के साथ खाने से चिरजात नाड़ी - नासूर से मुक्ति लाभ होता है । यथा"माहिषदधि कोद्रवान्नमिश्रं हरति चिर विरूदन । भुक्कं कङ्गुनिक मूलचूर्णमतिदारुणां नाड़ीम् ॥" ( नाड़ी व्रण चि० ) (२) रक्तपित्त में क — कँगनी का चावल रक्तपित्त रोगी के लिये उत्तम है । यथा“श्यामाकश्च प्रियङ्गुश्च भोजनं रक्तपित्तनाम्” । वङ्गसेन - - श्रन्नद्रवाख्य शूल में कँगनीअन्नद्रवनामक शूलरोगमें रोगीको कँगनी के चावल दूध से बनी खीर में शर्करामिला कर पिलाना हितकारी होता है । यथाप्रियङ्गुतण्डुलैः सिद्धं पायसं शार्करं हितम्” । ( शूल चि० ) यूनानी मतानुसार गुण-दोष - प्रकृति - प्रथम कक्षा में शीतल और द्वितीय कक्षा में रूक्ष । किसी-किसी के मत से द्वितीय कक्षा में उष्ण एवं रूक्ष | हानिकर्ता — अवरोधोत्पादक है । वस्ति तथा वृक्क में पथरी पैदा करती है। प्लीहा को हानि कारक है और देर में श्रामाशय से नीचे उतरती है । वैद्यों के अनुसार इसका सत्तू फेफड़े को खराब करता है । दर्पन - दूध, शर्करा, घी और मधु । इसके सत्तू का दर्पदलन बबूल की गोंद और मस्तगी है। ter के लिये मस्तगी दर्पन है । प्रतिनिधि- ---चावल ( किंतु यह ठीक नहीं ) गुण, कर्म, प्रयोग - इससे धातु पोषणांश कम प्राप्त होता ( क़लीलुल् ग़िज़ा ) है । यह उदरावरोधक ( हाबिस शिकम) और मलबद्धता कारक है । यह रूक्षता उत्पन्न करती है, किंतु उतना नहीं जितना बाजरा | यह पेशाब लाती है, पित्त के दस्तों को बंद करती है। घी के साथ सीने को मृदु करती है। दूध और शर्करा के साथ भक्षण करने से वीर्य उत्पन्न करती है । वेदनास्थल पर इसे गर्म कर सेंकने से लाभ होता है । यह शोथादि को विलीन करने वाली ( मुहलिल ) | | कंगशिश्रोर भी है । इसका चावल पकाकर दूध और घी के साथ खाने से शुद्ध आहार की प्राप्ति होती है । वैद्यों के मत से भी यह मलावरोधकारक है तथा रूक्षता उत्पन्न करती और मूत्रोत्सर्ग करती है । इसमें पोषणांश कम है । इसे यदि दूध में पकायें तो इसकी रूक्षता कम हो जाय और पोषणांश अधिक होजाय । किसी-किसी के मत से पकी हुई कँगनी 'वायु को विलीन करती, क्षुधा की वृद्धि करती, धातु को शक्ति प्रदान करती और स्वर को साफ़ करती है । इसका सत्तू पित्तातीसार बंद करता है । इसका खाना जलंधर और शोथ श्रर्थात् 1 सूउल्क़िन्यः (Anasarpca ) के लिये गुण कारी है । इसलिये इसे प्रायः ऐसे रोगी को देते हैं । इसके अकेले भक्षण करने से कभी-कभी दस्त श्राने लगते हैं। अनुभूत- चिकित्सा सागर में ऐसा ही लिखा है । इसको कथित कर पिलाने से मूत्र का उत्सर्ग होता है । इसके लेप करने से श्रमवात जति पीड़ा नष्ट होती है। इसकी भूसी कान में डालने से कर्णस्राव को लाभ होता है । (ख० श्र०) इंडियन मेटीरिया मेडिका में भी प्रायः इसके उपर्युक्त गुणों का ही उल्लेख किया गया है । इतना अधिक लिखा है कि यह प्रसवकालीन वेदना के उपशमन की सुप्रसिद्ध घरेलू दवा है । यह मूत्रल संकोचक और श्रमवात में उपकारी है । चोपरा कंगर - [ ? ] ( १ ) हर्शन । श्रचक। उल्लह । दे० “हर्शफ़” । ( २ ) उल्ल ू । उलूक । कंगर आबी - कुर्रतुल्ऐन । जर्जीरुभा । कगरजद - [ फ़ा० ] हर्श' का गोंद । कंगरतर - [ फ्रा० ] हर्शफ़तर । कंगरी - [ श्रवध ] ककुनी । कँगनी । [फ़ा॰] ( १ ) हर्शफ़ । कंकर । (२) हर्शन कागद कंगरी सफ़ेद - [ फ्रा० ] बाद श्रावर्द । कंकर सफेद | कंगरोड़ - संज्ञा पुं० ( १ ) मेरुदंड । पृष्टवंश || (२) एक जलीय पक्षी का नाम । कंगलियम् - [ ता० ] साल | कंगलु -[ पं० ] जनूम | बातु कंगशिश्रोर - [ लेप० ] अयार । Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कँगही कँगही संज्ञा स्त्री० दे० "कंघी" । कंगा - [ बं०] तीता । कंगारू -संज्ञा पु ं० [ श्रं० ] एक जंतु जो आस्टेलिया न्यु गिनी आदि पुत्रों में होता है । fi - [देश० ] Euphorbia Draeuncul, Sides. कंगन काय त्रे - [ कना० ] नारियल का गुड़ | कंगी - [ ? ] सुदाब । [ नैपा० ] ( १ ) तुला लोध - ( बं० ) । (२) चौलाई । २४१७ [पं० ] छागुल पुपुटी ( बं० ) । कंगु-संज्ञा पु ं० [सं० कङ्गु ] दे० " कङ्गु" | संज्ञा पुं० [?] (१) चिरचि । चिरचिटा 1 Lycium Barbarum ( २ ) स्वादु कण्टक | [ उ० प० प्रा० ] अंगन । श्रङ्गु । [ सा० ] थम्बाने बनबोगा (मल० ) । कंगुई -संज्ञा स्त्री० [सं० कङ्ग + ई (प्रत्यय)] साँवाँ । श्यामाक । कँगुनी - संज्ञा स्त्री० [सं० कङ्ग ु ] (१) दे० "कँगनी” (२) मालकांगनी । कँगुरिया - संज्ञा स्त्री० दे० "कनगुरिया" | कंगूरक - संज्ञा पु ं० [सं०] पौंढा । पौण्ड्रकेतु । कंगो - [ द० बम्ब० : ] कंधी । कंगो का भाड़ - [ ८० ] कंधी का पौधा । कंगोई का पत्ता - [ द० ] कंधी की पत्ती । कंगोनी -[ द० ] कंधी । कंगोरी - [ बम्ब० ] कंघी । कंधई -संज्ञा स्त्री० [देश० ] कंधी | कंपनी - संज्ञा स्त्री० [देश० ] कंघी । श्रतिबला । कंघी - संज्ञा स्त्री० [सं० कंकती, प्रा० कंकई ] ( १ ) छोटा कंघा जिसमें दोनों ओर दाँत होते हैं । (२) एक पौधे का नाम । पर्या० - बलिका, अतिबला, बाठ्यपुष्पी, कङ्कता, वृष्या, वृष्यगन्धा, भूरिला, ( ध० नि० १ व०) बलिका, अतिबला, बल्या, विकङ्कता, वाह्यपुष्पिका, घण्टा, शीता, शीतपुष्पा, भूरिबला२३ फा० वृष्यगन्धिका, ( रा० नि० ४ व०) भारद्वाजी, ऋष्यप्रोक्का, पुष्पर्णी, ऋष्यपुष्पिका, पीतपुष्पी, ऋष्यगंधा, महासहा ( के० दे० नि० ) वृष्यगंधिका, कांतिका, सहा ( मद० नि० ) ऋष्यप्रोक्ता, प्रतिबला, कंकतिका ( भा०), सुवर्णक कंकती - सं० । कंगई, ककहिया, कंघनी, कंधई, ककही, तुत्री - हिं० । कंगोई, कंगोई का झाड़, डब्बे का झाड़५० | पेटार, झाँपि पेटारि । झुमका गाछ, गुंजि गाछ, पिटारि गाछ, पीतवर्ण बेड़ेला, पीत- बाकुलि, पेटारि, बं० । दरख ते शानः - फा० । मरतुल गौल - श्र० । एव्युटिलन इंडिकम् Abutilon In dicum, G. Don. एव्युटिलन एश्याटिकम् Abutilon Asiaticum, W & A., साइड बिफोलिया Sida Rhombifolia; Linn., साइडा एश्याटिका Sida Asiatica, Roxb. साइडा एब्युटिलन Sida Abutilon, साइडा इण्डिकम् Sida Indi cum, Khory. –ले० । कंट्री मैलो Coun try Mallow-श्रं० । तुत्ति, पेरुन् तुत्तिता० । तुत्ति, तुत्तुरु- बेण्ड, नूगुवेण्ड । तुत्तिरि-चेहुते | पेटक-पुट्टि, तुत्त, ऊरम् - मल० । श्रीमुद्रिगिढा, मुल्लु दुरुवे-कना० । कंगोयि-तु-भाइ, कपाट, डावली, खपाट्य - गु० । श्रनोद - गहा, अनोनासिंगा० । बौ- खोये, बौ- खोए - बर० । कंगोरी, कंगोई, मादमी पेटारी, -बम्ब० । खापटो- सिंध । सिंबल, पीली बूटी - सिंध, पं० । चक्र भेंड । विकं कती, श्राक्कई, कांसुली, मादमी, - मरा० । तत्ती, पेटारी तु-बोकटी-गोश्रा । टुप-कढी - क०, गोधा । I टार मामुड़की - कों०, डाबी - मार० । अतिबला पत्र - कंधी का पत्ता वा पात, कंगई का पात - हिं० । कंगोई का पत्ता - द० | तुत्ति-इलै-ता० । तुत्ति चाकु, तुत्तरु-बेंड-चाकु -० तुत्त-एल् पेटक पुट्टि एल-मल० । श्रीमुद्रि-यले - कना० | झुमका गाछ पाता, विटारि गाछ-पाताबं० । कंगोई-तु-पात-गु० । श्रनोद कोल-सिं० । बोन - खोये - बर० । वक्रु'ल् मरतुल् ग़ौल - प्र० । बर्गे दर ते शानः - फा० । अतिबला बीज - कंघी का बीया, कंगई के Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंघी २४१८ बीज, कंघी के बीज - हिं० । कंगोई के बीज - द० । तुत्तिविरै - ता० । तुति वित्तुलु, तुतुरु - बेंड-बित्तुलु -ते । तुत्त वित्त; पेट्टक पुट्टि - वित्त मल० । श्री मुद्विबीज कना० | झुमका- गाछ बीज, पिटारी गाछ - बीज - बं० । कंगोई-नु-बीज - गु० । श्रनोद - श्रट्ट - सिं० । बलबीज - बम्ब०, कच्छ । वज्र ल् मरतुल् ग़ौल - श्रु० । तुख्मे दरख्ते शानः - फ्रा० निर्णायिनी टिप्पणी-किसी-किसी के मत से सफेद बरियारा ही अतिबला है । भाव प्रकाशकार अतिबला का हिंदी नाम " ककहिया " लिखते हैं । भारतवर्ष में जिसे 'ककहिया' नाम से एक-एक श्रादमी जानता है, उसे ही बंगला में 'पिटार' नाम से जानते हैं। भावप्रकाशोक्त भाषा नाम के श्रात होने से यह ज्ञात होता है कि अतिबला पेटारि ही है और सफेद बरियारा नहीं हो सकती । वृन्दकृत सिद्धयोग के वाताधिकार में पठित नारायण तैलोन "बालावातिबला चैव " पाठ की व्याख्या में श्रीकण्ठ भी लिखते हैं"अतिबला पेटारिकेतिप्रसिद्धा" | बंगाल में 'पेटारि ' सर्वजन सुपरिचित है । वि० दे० "बला " राक्सवर्ग और खोरी ने श्रतिबला के जो लेटिन नाम दिये हैं, हमारे निकट वे ही संगत प्रतीत होते हैं । Abutilon Asiaticum और A. populifolium (G. Don.) ar at उपयुक्त पौधे के केवल भेदमात्र हैं । या भिन्न जाति, पर इनकी देशी संज्ञाएँ प्रायः एक ही हैं । औषधीय व्यवहारानुसार भारतवर्ष में इनको ant स्थान प्राप्त है, जो ख़त्मी ( Marsh Ma llow ) तथा खुब्बाजी ( Mallow ) को योरुप में । तथापि इसका एक भेद ऐसा भी है, जो सदा विभिन्न संज्ञाओं से सुविदित है । यह अपने प्रकांड, शाखा, पत्र-वृत प्रभति के बैंगनी रंग द्वारा पहचाना जाता है और मदरास में झाड़झंखाड़ों में प्रायः उपजता हुआ पाया जाता है अपने बैंगनी रंग के कारण इसे इन नामों से अभिहित करते हैं—ऊदी या काली- कंगोई-काझाड़ (द० ), करु या करन-तुति ( ता० ), मल्ल तुति या नलनूगु-बेंड ( ते ० ) । 1 कंधी उपर्युक्त पर्य्याय-सूची-गत संज्ञाएँ यथार्थतः केवल कंधी (Abutilon Indicum ) और A. Asiaticum aur A. populifolium सहित उसके भेदों की हैं; परंतु कतिपय ग्रंथों ( Materia Indica, etc) में, उनमें से कुछ संज्ञाओं का संयोगवश Malva (Sida ) Mauritiana के लिये प्रमाण पूर्ण उपयोग किया गया है। यद्यपि उत्तरोक्त पौधा प्रायः भारतवर्ष में उपलब्ध होता है, पर इसे विलायती इस उपसर्गद्वारा पृथक् जानना चाहिये । जैसे, विलायती कंगोई का फाड़, इत्यादि । कंधी वा कंगोई शब्द का कतिपय ग्रंथों में अरबी तथा फारसी खब्बाजी, ख़त्मी और तोदरी शब्दों के पर्याय स्वरूप हैं । जो परस्पर सर्वथा भिन्न द्रव्य हैं ग़लत प्रयोग नहीं, श्रपितु इसे कंगोनी या कंगूनी शब्द से यह भी भ्रमपूर्ण बना दिया गया है, जैसा कि साधारणतया लिखा जाता है । यह उत्तर कथित शब्द कंगु ( Panicum Italicum ) की एक दक्खिनी संज्ञा है । बीसीना वर्णित प्रबूतीलून नामक औषध जिसका क्षत पर उपयोग होता था, अधुना एब्युटिलन ( Abutilon ) नाम से विदित पौधे से सर्वथा भिन्न होगी; क्योंकि वे इसकी कह (Pumpkin ) से तुलना करते हैं । बलावर्ग (N. O. Malvaceœ.) उत्पत्ति स्थान - सम्पूर्ण भारतवर्ष के उष्णप्रधान प्रदेश शुक्रप्रदेश और लंका । यह बरसात में उत्पन्न होती है। फुट वानस्पतिक वर्णन - एक पौधा जो पाँच छः ऊँचा होता है । इसकी पत्तियाँ पान के आकार की चौड़ी पर अधिक नुकोली एवं शुभ्र रोमान्वित होती है । पत्र प्रांत दन्दानेदार होते हैं, पत्तियों का रंग भूरापन लिये हलका हरा होता है, पत्रवृंत दीर्घ होता है । यह शरद ऋतु में पुष्पित होता है और शीतकाल में इसका फल परिपक्क होता है। प्रत्येक दीर्घवृन्त पर एक-एक फूल लगता है । फूल पीले २ और पाँच पंखड़ी युक्त होते हैं । फूलों के झड़ जाने पर मुकुट के आकार के तेंद Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंघी लगते हैं । जिनमें खड़ी २ कमरखो वा कँगनी होती है। पत्तों और फलों पर छोटे २ घने नरम रोए होते हैं जो छूने में मखमल की तरह मुलायम होते हैं । फल बिचित्र चक्राकृति का होता है जिसमें प्रायः १८ - २० फाँके मंडलाकार सन्निविष्ट होती हैं। फल पक जाने पर एक-एक कमरखी वा फाँक के बीच कई-कई काले २ दाने निकलते हैं । ये छोटे श्रोर चपटे होते हैं और इनका सिरा बारीक होता है । इन बीजों में से अत्यन्त लबाब निकलता है। २४१६ इसकी एक छोटी जाति और है जो जमीन पर बिछी हुई होती है। इसके सम्पूर्ण श्रवयव उपयुक्त लिखितानुसार, पर उनसे छोटे होते हैं । हकीम शरीफ खाँ ने तालीक़ शरीफ्री में लिखा है कि कंघी का फूल गावजबान के फूल की तरह नीला, किंतु उससे क्षुद्र तर एवं ललाई लिये होता है। इसका फल फव्वारे के शिर की तरह होता है, इत्यादि । परंतु नीलपुष्पी अतिबला देखी नहीं गई । रासायनिक संघटन - इसकी पत्ती में प्रचुर परिमाण में लुनाब होता है जो उदासीन बिक ऐसीटेट और फेरिक कोराइड से श्रवक्षेपणीय होता है। इसमें किंचित् कषायिन ( Tannin ) सैन्द्रिकाम्ल और ऐस्पैरागीन के चिन्ह भी पाये जाते हैं । इसकी राख में एलकलाइन् सल्फेट्स, क्लोराइड्स, मैग्नीसियम् फास्फेट और कैल्सियम् कार्बोनेट पाये जाते हैं । इसकी जड़ में भी एस्पैरापाई जाती है । व्यवहारोपयोगी अंग - इसकी जड़, पत्तियाँ छाल और बीज सब दवा के काम में आते हैं । औषध निर्माण — बहिर प्रयोगार्थ ( १ ) पत्र काथ निर्माण क्रम- इसकी ताजी पत्ती एक मुट्ठी एक पाइंट पानी में कथित कर क्वाथ प्रस्तुत करें, ( २ ) इसकी पत्ती को कुचलकर निकाला हुआ लुनाब, (३) इसकी पत्ती वा मूल का फांट और बीज वा छाल का काथ ( १० में १ ) तथा बीज का मिश्र चूर्ण । इसको यथाविधि प्रस्तुतकर कागदार बोतल में भर कर रखें । कंघी मात्रा -१ से २ ड्राम यह चूर्ण दिन रात में ३-४ बार सेवन करें । सता माजून कंघी - प्रतिबला बीज ५ तो०, वर १० तो ० इनको पीसकर बारीक चूर्ण करें, चूर्ण से द्विगुण मिश्री वा शहद द्वारा यथाविधि प्रस्तुत करें। गुण प्रयोगादि - यह माजून ३ माशे की मात्रा में प्रातः सायंकाल खिलाने से कामावसाय र शुक्रप्रमेह में उपकार होता है। 1 अतिबला तैल - एक छटाँक कंघी के पत्तों को पीसकर छोटी २ कई टिकिया बनायें । पुनः किसी कटोरी आदि में १ छटाँक गोवृत डालकर गरम करें और उसमें टिकियों को छोड़ देवें । जब टिकिया जल जाए, तब उन्हें निकाल कर फेंक देवें और घी को साफ करके रखें । गुण, प्रयोगादि - वृक्कशूल एवं सिकता में पूर्ण परीक्षित है । ५ तोले यह घी गरमा गरम घूँट घूँट पिलाने से तत्काल वेदना शांत होती है और सिकता प्रभृति निर्गत होती है । अतिवला चार - फल के सम्यक् परिपक्क हो चुकने के उपरांत इसके समग्र तुप को उखाड़ कर साया में सुखायें। सूखने पर उसमें आग लगाकर जलायें और राख को पानी में डालकर तीन दिन तक रख देवें । प्रतिदिन किसी लकड़ी से उसे कई बार हिला दिया करें। तीन दिन के उपरांत ऊपर निथरा हुआ पानी लेकर पकायें । समग्र जल जाने पर क्षार को एकत्रित कर पीसकर शीशी में सुरक्षित रखें। गुण प्रयोगादि - यह क्षार प्रभावत: (सूत्रकर और अश्मरीघ्न है । श्राध माशा यह क्षार खाकर ऊपर से सफ़ेद जीरा ३ मा०, कुलथी ३ मा०, सौंफ ६ मा० - इनको जल में पीस छानकर पियें । इसी प्रकार प्रातः सायंकाल सेवन करें। इसे कुछ दिन सेवन करने से अश्मरी और सिकता आदि खड खंड होकर निकल जाती है । यदि श्राध माशा उक्त क्षार मधु में मिलाकर चटायें, तो कफज काल और दमा में बहुत उपकार हो । यदि उक्त चार १ भाग, शुद्ध रसांजन २ भाग इनको मिलाकर चना प्रमाण की वटिकायें प्रस्तुत Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंघी १४२० कंषी करें और दो-दो गोली प्रातः सायंकाल खायें, तो | अर्श का खून बन्द हो जाता है । इसे दीर्घ काल तक सेवन करने से धीरे धीरे अशांकुर विलीन हो जाते हैं। इसकी प्रतिनिधि स्वरूप पाश्चात्य औषधियाँgrafit (Marsh-mallow) argar (Copaiba ), ऋक्ष-द्राक्षा (Uva Ursi) ओर बुकु ( Buchu)। गुणधर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसारवातपित्तापहं प्राहि बल्यं वृष्यं वलात्रयम् । (धन्वन्तरीय नि०) तीनों प्रकार की बला--वात पित्तनाशक,प्राही. बलकारक और वृष्य हैं। “तिक्ता कटुश्चातिबला वातघ्नी कृमिनाशिनी। दाहतृष्णा विषच्छर्दिः क्ल दोपशमनी परा॥ (रा०नि०) अतिबला वा कंघी--तिक्र, कटु, वायुनाशक, कृमि तथा दाहनाशक, तृष्णाहर वमन को दूर करनेवाली और विषनाशक है तथा यह परम वद का नाश करती है। हन्यादतिबलामेहं पयसा सितया समम् ।। (भा० पू० १ भ० गु० व० अतिबला वा कंघो को दूध और मिश्री के साथ सेवन करने से प्रमेह दूर होता है। शीतला मधुरा बलकान्तिकृत् । स्निग्धा प्रहणी वातरक्त-रक्तपित्तक्षतघ्नी च ॥ (मद० व०१) यह शीतल, मधुर, बल और कांतिकारक, स्निग्ध एवं ग्राही है और वातरक्त, रक पित्त और क्षत का नाश करनेवाली है। बलिका मधुरा चाम्ला हिता दोषत्रय प्रणत् । युक्तया दुद्ध या प्रयोक्तव्या ज्वरदाहविनाशिनी ॥ (ग० वि०) कंघी (ककहिया)-मधुरं, अम्ल, हितकारक, त्रिदोषनाशक और किसी के साथ युक्तिपूर्वक देने से ज्वर को हरने वाली है। बलात्रयं स्वादुशोतं स्निग्धंवृष्यं बलप्रदम् । आयुष्यं वातपित्तघ्नं ग्राहि मूत्रग्रहापहम् ।। खिरैटी, सहदेई ओर कंधो ये तीनों मधुर, शीतल, स्निग्ध, वीर्यवद्धक, बलकारक. पाय को हितकारी, वातपित्तनाशक, ग्राही और मूत्र रोग तथा ग्रह को निवारण करनेवाली हैं। वैद्यक में अतिबला का व्यवहार सुश्रुत-रसायनार्थ अतिबला-कुटी प्रवेशपूर्वक योग्य मात्रा में प्रतिवला की जड़ की छाल ईषदुष्ण जल के साथ पान करें । बला सेवनकाल में जिस प्रकार की श्राहार-विधि का उपदेश किया गया है, इसमें भी उसी का अनुसरण करें। यथा-- 'विशेषतस्त्वतिबलामुदकेन'(चि० २७५०)। चक्रदत्त-मूत्रकृच्छ्र में अतिबला-मूल-- अतिवला वा कंघी की जड़ की छाल.का काढ़ा पीने से सभी प्रकार का मूत्रकृच्छ. उपमित होता है। भावप्रकाश-रकप्रदर में कङ्कतिका मूलरकप्रदर में अतिबला अर्थात् कंघी की जड़ की झाल का महीन चूर्ण चीनी और मधु के साथ सेवन करें। यथाबलाककृतिकाख्या या तस्यामूलं सुचूर्णितम् । लोहित प्रदरे खादेच्छर्करा मधुसंयुतम् ॥ (प्रदर चि०) यूनानो मतानुसारप्रकृति-बड़ी किस्म को द्वितीय कक्षा में उष्ण तथा रूक्ष और छोटी किस्म की सर्द और तर है। किसी २ के मत से गर्मी एवं तरी लिये हुये सम शीतोष्ण है। किसी २ के अनुसार दोनों प्रकार की कंधो की प्रकृति सर्द है। प्रतिनिधि-ऊँटकटारा । कतिपय कार्य में सन के बीज एवं पत्ते । हानिकर्ता-वायुप्रकोपक है तथा यकृत एवं पोहा के लिये हानिकर है। किसी-किसी ने उष्ण प्रकृति एवं निर्बल व्यकियों के लिये हानिकर और आध्मानकारक लिखा है। Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंघी २४२१ कंघ था मवेज । मतांतर से शुद्ध मधु एवं कालीमिर्च । ... मुख्य गुण-अर्श तथा पूयमेह में गुणकारी एवं कामोद्दीपक है। र मात्रा-पत्र । तो०, बीज और जड़ ३ मा०। गुण, कर्म, प्रयोग-यह उरोव्याधि, अर्श, शोथ और ज्वर को लाभ पहुँचाती है। पेशाब खुलकर लाती है, वस्ति तथा मूत्रपथजात क्षतों को लाभप्रद है। इसके बीज कामशक्रिवर्द्धक है और मलावरोध उत्पन्न करते हैं । इसकी पत्ती कटिशूल और प्रायः अवयवों की वेदना का निवा रण करती है । इसके क्वाथ का गण्डूष करने से दन्तशूल नष्ट होता है । (म० मु०) इसके पीने से सांद्रवायु (रियाह गलीज़ ) विलीन होती है । यह अवरोधोद्धाटक है और पित्त जन्य व्याधियों को नष्ट करता है। इसका कच्चा फल वायु उत्पन्न करता है और पका फल सरेसाम को दूर करता है। इसके पत्तों का स्वरस लगभग ७ तो० की मात्रा में पीने से पागल कुत्ते के काटे को लाभ होता है, यह परीक्षा में आ चुका है। इसकी गोलियाँ अर्श में लाभकारी हैं और बादी को दूर करतो हैं। कंघी को पत्तियाँ २१ नग, कालीमिर्च १ नग इन दोनों को पीसकर सात वटिकाएँ प्रस्तुत करें। इनमें से एक वटी नित्य प्रातःकाल जल के साथ निगले । फारसी ग्रंथों के अनुसार बड़ी कंघी की पत्तियाँ दो तोले जल में पीसकर शीरा निकालकर २१ दिवस पर्यंत पीने से फिरंग रोग नष्ट होता है। हिंदी ग्रंथों में लिखा है कि कंघी तीक्ष्ण, चरपरी, मधुराम्ल और औदरीय कृमिहर है। इसकी पत्तियों में चेपदार गाढ़ा रस निकलता है, जो औषध जनित तीक्ष्णता का उपशमन करता है। इसकी जड़ का फांट ज्वरजनित उष्णता का निवारण करता है। कुष्ठ रोगी को इसका फांट ( खेसादा) पान कराना चाहिये। इसके बीज कोष्ठ-मृदुकर (मुलय्यन शिकम) हैं । अर्श जन्य वेदना के निवारण करने के लिये इनकी फंकी दी जाती है। इसके बीजों का लुभाब चरपराहट को दूर करता | है। इसके बीज और अडूसे के पत्तों को श्रौटाकर | पिलाने से सूखी खाँसी मिटती है। दस्त बंद करने के लिये इसकी छाल का काढ़ा पिलाना चाहिये । इसका प्रत्येक अवयव उरोव्याधि का निवारण करता है। ज्वरताप संशमनार्थ इसकी पत्तियों का हिम पान कराना चाहिये। इसकी छाल और बीजों का हिम पान करने से मूत्रोत्सर्ग होता है । इसकी छाल के काढ़े से गण्डुष करने से दंतशूल और मसूढ़ों का ढीलापन मिटता है। इसकी टहनी से गर्म दूध को पालोड़ित करने से वह जम जाता है। जमने के उपरांत कपड़े में बाँधकर लटकाने से जो पानी सवित होता वा उसे तोड़ निकालता है, उसे पिलाने से रक्तार्श मिटता है । इसके बीजों का हलवा प्रस्तुत कर खाने से काम शक्ति वर्द्धित होती है। इसके पत्तों को पकाकर खाने से बवासीर का लोहू बंद होता है। बारंबार जलन के साथ पेशाब प्राता हो, तो इसकी जड़ का हिम प्रस्तुत कर पिलाने से लाभ होता है। यदि पेशाब में खून आता हो, तो इसकी पत्तियों के हिम में मिश्री मिलाकर पिलाने से कल्याण होता है। २ से ७॥ मा० तक इसके बीज अन्य कोष्ठ मृदुकर औषधों के साथ देने से कोष्ठ मृदुकरण का काम करते हैं। इसके पत्तों का काढ़ा पिलाने से सूज़ाक श्राराम होता है। पुरानी खाँसी के उपशमनार्थ इसकी पत्तियों का फांट पान कराना चाहिये। इसकी पत्तियों का हिम पिलाने से मूत्राशय की सूजन उतरती है, शिशुओं की गुदा में इसके बीजों की धूनी देने से चुरने कृमि-एक प्रकार के सफ़ेद छोटे और बारीक कीड़े नष्ट हो जाते हैं। (मस्तिष्कगत कृमियों में भी इसकी धूनी लाभकारी होती है।) कुमारी लड़की के हाथ से कते हुए सूत से इसकी जड़ को स्त्री की कटि में बाँधने से गर्भपात होने की अाशंका निवृत्त होती है। इसकी सात पत्ती पानी के साथ पीसकर स्वरस निकालें । उसमें चीनी मिलाकर पीने से पित्त जन्य खाकान नष्ट होता है। इसके सात पत्तों का चूर्ण फाँकने और मूग की दाल की खिचड़ी खाने से कामला रोग नष्ट होता है । घाव पर इसके पत्ते बाँधने से वह पूरित हो जाता है । इसके बीज पीसकर शहद में मिलाकर चाटने से खाँसी आराम होती है। Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंघी इससे सरलतापूर्वक कफ निःसृत होता है । नाना प्रकार की सूजनों पर इसके बीज पानी में पीसकर लेप करने से सूजन उतर जाती है। 'फुफ्फुस शोथ और फुफ्फुसावरण शोथ में इससे उपकार होता है। २४२२ इसकी जड़ के लेप से कान के पीछे की सूजन और स्तन की सूजन मिटती है । इसकी जड़ घी में पकाकर ( खनाज़ीर ) के रोगी को खिलाने से और उस पर बाँधने से बहुत उपकार होता है। इसके खाने से हृदय को शक्रि प्राप्त होती है और चेहरे का रंग निखरता है जड़ का फांट दीर्घकाल तक पिलाने से कुष्ठ रोग श्राराम होता है । 1 नव्य मतानुसार मोहीदीन शरीफ - पत्र मृदुताकारक, बीज स्निग्धता संपादक थोर किंचिन् मूत्रल है। इसकी पत्ती में कुछ लुनाबी पदार्थ होता है, जो पत्ती को उष्ण जल में रखने से पृथक् । हो जाता है। इस लिये इसके काढ़े का सेंक वेदना पूर्ण भागों के. लिये उपकारी है । पूयमेह, चिरकालानुबंधी पूयमेह ( Gleet ) और चिरकारी वस्तिप्रदाह पर इसके बीजों का नियंत्रण स्पष्टतया लक्षित होता है । ( Materia Medica of Madras P. 68) आर० एन० खोरी -- बीज स्निग्धता- संपादक हैं इसकी जड़ की छाल मूत्रल और शैत्यजनक ( Cooling ) है, अतएव पूयमेह, मूत्रकृच्छ ( Stranguary ) श्रादि रोगो में ख़त्मी की तरह इसका भी उपयोग होता है । (Materia Medica of India—I1 P. 92 ) ऐन्सली - ज्वरों में शीत संपादनीय श्रोषध रूप से कंघी की पत्तियों वा जड़ का फांट ( Infusion ) प्रयोग में आता है । थॉम्पसन तथा वैट - कंधी के बीज कामोड़ीपन श्रोर शुक्रप्रमेहहर हैं । श्रर्श में ये कोष्ठ मृदुकर रूप से व्यवहार में श्राते हैं । सूत्र - कृमि ( Thread worm ) से पीड़ित शिशुओं को गुदा को कंघी के बीजों की धूनी देते हैं। कंधी आर० एन० चोपरा कंघी की पत्तियों को पानी में भिगोने से एक प्रकार का लुनाब प्राप्त होता है, जिसका ज्वर तथा उरो व्याधि और पूयमेह तथा मूत्रमार्ग प्रदाह में भी सूत्रकर एवं स्निग्धता संपादक रूप से उपयोग किया गया है । इसके बीजों का महीन चूर्ण १ से २ ड्राम की मात्रा में कोष्ठमृदुकर एवं श्लेष्मानिः सारक रूप से प्रयोग में श्रा सकता है । ( Indigenous drugs of India P. 560 ) । इमर्सन - दंतशूल और मसूदों के कोमल हो जाने की दशा में कंघी को पत्तियों का काढ़ा मुख धावन रूप से व्यवहार में श्राता है। नार्मन - उपयुक्त काढ़े का सूजाक ओर वस्ति प्रदाह में भी उपयोग होता है । थॉमसन — मूत्ररोध ( Stranguary ) घर र मूत्रता में इसकी जड़ का फांट उपयोगी होता है। इसकी जड़ का फांट कुष्ठ में उपकारी बतलाया जाता है | कास की चिकित्सा में इसके बीज काम में आते हैं। नियों के अनुसार हाँग काँग में कंघी के बीज मृदुतकारक और स्निग्धता-संपादक रूप से काम श्राते हैं। जड़ मूत्रल और फुफ्फुसीय अवसादक रूप से व्यवहृत होती है । विस्फोटक ( Boils ) औरतों पर कंधी के फूल और पत्ती का स्थानीय उपयोग होता है । पोर्टर स्मिथ के कथनानुसार इसके बीज और समग्र पौधा स्निग्धता-संपादक, तारल्यजनक, मूत्रकर, , कोष्ठ मृदुकर और ( Discutient) श्रौषध रूप से व्यवहार होते हैं । बी० डी० वसु-सूतिका रोग, मूत्र-विकार, चिरकारो रक्क्रामाशय तथा ज्वर श्रादि रोगों का उपचार कंघी के बीजों से किया जाता है । ( lndian Modioinal Plants ) कंघी की पत्तियों का स्वरस और घी प्रत्येक १ तोला । प्रातिश्यायिक एवं पित्तातिसार में इसका व्यवहार होता है । अर्श में इसके बीजों का कास- चिकित्सा में भी उक्त काढ़ा प्रयुक्त होता है । काढ़ा काम आता है । Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंपी २४२३ कंचीड़ा नादकर्णी-इसका मूल और मूलत्वक मूत्र- मात्रा-हृन्नैर्वल्य में आधी रत्ती रजत भस्म कर रूप से समाप्त होते हैं। सेव के मुरब्बा में और यकृत की निर्बलता में (Indian Materia Medica P. 7-8) अामले के मुरब्बे के साथ देवें । वनौषधि गुणादर्श-अतिबला की कोमल (३)सीसक भस्म-दो तोले सीसा को पत्तियों को बारीक पीसकर लुगदी बनाकर फोड़े कढ़ाई में गलाकर उसमें कंघी की लकड़ी फिराते पर रखना चाहिये और उस पर कपड़े की तह रहें। सीसा धीरे धीरे राख हो जायगा। उक्त रखकर उस पर ठंडा पानी डालते रहना चाहिये । राख को कंघी पत्र-स्वरस से चार प्रहर खरल करके इस प्रयोग से गाँठ में होनेवाली जलन और झपक टिकिया बनाये और इसे दो सेर उपलों की अग्नि बंद होता है और गाँठ शीघ्र पककर फूटजाती है । देवें । दो-तीन आँच में सुनहले रंग का सुन्दर अतिबला की जड़ को घिसकर लगाने से बिच्छू भस्म प्रस्तुत होगी । इसे पीसकर रखें। का विष दूर होता है। गुण, प्रयोगादि-बहुमूत्र, मधुमेह तथा मूत्रकंघी द्वारा होनेवाली धातु-भस्में प्रणाली के अन्य रोगों में यह भस्म अतीव गुण. (१)संगयहूद भस्म-विधि यह है-कंघी पत्र कारी है । राजयक्ष्मा और उरःक्षत में भी इससे अर्द्ध सेर लेकर चार सेर पानी में काथ करें। जब उपकार होता है। पानी अष्टमांश अर्थात् प्राध सेर शेष रह जाय, मात्रा--१ रत्ती उपयुक्त अनुपान के साथ तब उसे खूब मलकर छान लेवें । पुनः संगयहूद व्यवहार्य है। होतोले लेकर थोड़ा थोड़ा काढ़ा डालकर खरल | कंच- मल.1 भाँग | विजया। में आलोडित करें। जब सब काढ़ा समाप्त हो कंचकचु-[ देश० ] Lasia Heterophylla हो जाय और टिकिया बनाने योग्य कल्क हो जाय कंटकचु। तब उसकी टिकिया बनाकर छाँह में सुखा लेवें। कंचन-संज्ञा पुं० [सं० काञ्चन ] (1) सोना । इसटिकिया को कंघी के एक पाव पत्तों की लुगदी सुवर्ण । (२) धतूरा । (३) एक प्रकार का के भीतर रखकर ऊपर से कपड़ मिट्टी करके पाँच कचनार । रक कांचन । सेर उपलों की प्राग देवें । टिकिया भस्म होकर वि० (१) नोरोग | स्वस्थ । (२) स्वच्छ । खिल पड़ेगी। गुण, प्रयोगादि-मूत्रसंग और अश्मरी एवं सुन्दर । मनोहर । [मरा० ] कचनार । कांचन । सिकता के लिये परमोपकारी है । कंचना-एक ओषधि (Jussiaea Repens.)। मात्रा-दो रत्ती उक्त भस्म खाकर ऊपर से २ तोला गौघृत और ३ तोले मिश्री मिला एक कंचनिया-संज्ञा स्त्री० [हिं० कचनार ] एक छोटी पाव गरम गरम दूध पीने से तत्काल लाभ जाति का कचनार । इसकी पत्तियाँ और फूल छोटे होता है। होते हैं। (२) रजत भस्म-शुद्ध चाँदी लेकर उसका | कंचा-[ मल० ] पालिता मंदार । फरहद । बारीक पत्र वनायें । पुनः एक पाव कंघी के पत्ते | कंचाच-चेटि पशा-[ मल.] चरस । खब कूटकर लुगदी बनायें और उसके भीतर चाँदी | कंचाव-एल-[ मल० ] भाँग । विजया । के पत्र रखकर ऊपर से कपरौटी करें ।इस कपरौटी कंचाव चेटि-[ मल० ] भाँग। किये हुये गोले को पाँच उपलों की अग्नि देवें । कंचाव पाल-[ मल० ] चरस । फिर निकाल कर कई बार इसी प्रकार श्राग देखें। चाँदी भस्म होगी। कंचाव वित्त-[ मल० ] विजया बीज । गुणप्रयोगादि-यह हृदय को शक्ति प्रदान | कंची-संज्ञा स्त्री० [सं० ] काला जीरा । करता है तथा यकृत की दुर्बलता और ऊष्मा को [पं० ] अँकरी दूर करता है। ! कंचीड़ा-[ ? ] नारंगी। Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंचीवला २४२४ कंटअशेरियो कंचीवला-[ कना० ] कचनार । कांचन। कंजर सरह- सिरि० ] कंकरज़द। कंचुक-संज्ञा पु० [सं० को०] अस्तर | coat, कंजरीस-[सिरि० ] कंकरज़द । श्र० श० । कंजार्स-[पं० ] इंगरच । बुनुन । तवई । कंचुकी-[ मरा० ] असगंध । अश्वगंधा । कंजल-[पं0 कंचलो (सं० प्र०) Acerpicकंचुरा-[ बं० ] कनूरक (बं०)। tum, Thunb. कंचुरि-संज्ञा स्त्री० [सं० कञ्च ली ] केंचुल । कंचुकी। कंजल्क-संज्ञा पुं० [सं० की० किक्षल्क ] नाग ___ साँप की कँचुली। केशर । कंचुरी-[ ता०] बिछाती नाम का पौधा । वरहंटा । | कंजा-[ ता० ] भाँग । विजया । वृश्चिकाली। संज्ञा पुं॰ [सं० करा] (१) करंजुवा । कँचुली-संज्ञा स्त्री० [सं० कञ्च ली | केंचुल । करंजवृक्ष | सागरगोटा का पेड़ । (२) इस वृक्ष कंचू-[ कना०, ते० ] काँसा। का बीज । करंज । वि० दे० "करंज"। कँचेली-संज्ञा स्त्री० [सं० कंचुक वा देश.] एक कंजाई-[ ? ] गाँजा । मध्यम श्राकार वृक्ष का नाम जो हज़ारा, शिमला कंजान बुरा-[बं०, हिं० ] निरविशाल । और जौंसर में होता है। ( Kaempferia angastifolia, कंचोरा-[ बम्ब० ] जंगली हल्दी । Rosc. कंछा-संज्ञा स्त्री० [हिं० कनखा] पतली डाल। कंजार-[फा०] तिल । तिल्ली । कनखा । कल्ला। कंजार:-[फा०] खली। कंछारी-[पं०] बादावर्द। कंजाल-[हिं०] सेवार । काई । शैवाल । कंज-संज्ञा पुं० [सं०] (१) कमल । (२) कजियाल-[बं० ) केले के खम्भे का भीतर का गूदा । अमृत । (३) सिर के बाल । केश । (४) बंगाल में इसे तरकारी की तरह मछली के साथ काञ्चन । दहन । लहन । (राजपू०)। ___खाते हैं । (मीर मुहम्मद हुसेन) (Toddalia aculeata, Pers.) कंजिका-संज्ञा स्त्री० [सं०] भारंगी। भाी। जंगली कालोमिर्च। कजिरम् एइत्थल-[ मल० ] एक प्रकार का परांगभवी [मरा०] कंजा । करंज। पौधा (बंदाक) जो कुचिला के पेड़ पर पाया कंजई-वि० [हिं० कंजा ] कंजे के रंग का। धूएँ के रंग जाता है । इसके अभाव में कुचिला वृक्ष के नूतन का । खाकी। पल्लव औषधि के काम में आते हैं। संज्ञा पु०(१) एक रंग । खाकोरंग। (२) (फा० इं० ३ भ०) वह घोड़ा जिसको अांख कंजई की रंग की | कंजु-[हिं० ] स्वादुकंटक । (इं० मे० प्लां०) होती है। कंजुरस-[यू०] जावरस । बाजरा । कंजक-[फा०] दरदार। कंजुरा-[ देश० ] जटाकंचूर । जात कंजुरा । कंजन बोड़ा-[हिं०, बं०] (Commelina Obliqua, Ham.) कना। कंजनी-संज्ञा स्त्री० [सं०] गुंजा | धुंधची। गली कासनी । अरण्य कासनी। कंजनु- बर०] महुआ। कंजर-[फा०] हरशन। कंजो-[ बर० ] काला बगोटी। [पं०] इंद्रायन हंजल। कॅजुवा-संज्ञा पु० दे० 'कॅड वा"। कंजर जद-[फा०] कंकरज़द । कंझल-[देश॰] काकरु । Acer pictum. कंजरी-संज्ञा स्त्री॰ [ मरा०] कथारी । तीक्ष्ण कंटका। कंटअशेरियो-[ गु० ] पीले फूल की कटसरैया । कुरफणिमनसा (बं०)। टक । Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटोलन कटावला २४२५ 'कंट आवला-[ मरा०, गु० ] चेलमेरी । कंटामरा-[?] एक प्रकार का कमल । (Averrhoa Acida ) Country | कॅटाय-संज्ञा स्त्री० [सं० किंकिणी ] एक प्रकार का goose-berry. कँटीला पेड़ जिसकी लकड़ी के यज्ञ-पात्र बनते हैं। कंट उन्हली-[ मरा० ] सफ़ेद सरफोंका । इसकी पत्तियाँ छोटी छोटी और फल बेर के कंट कंटचू-बं०] ) समान गोल होते हैं जो दवा के काम में आते है। कंटकचोरम्-ते. मुलसरी । कंटका । वि. दे० "विकंकत"। ( Lasia spinosa, Thwaites.) | | कंटारो-[को०] थूहर । स्नुही । कंटकझाड़-राजपु.] झड़वेरी। भूबदरी। कंटाल-संज्ञा पुं० [सं० कण्टालु ] एक प्रकार का रामबाँस वा हाथीचक जो बंबई, मदरास, मध्य कंटकटी-सज्ञा स्त्री० [१] देवदारु । कश्मल । भारत और गंगा के मैदानों में होता है। इसकी इं० मे० प्लां० । पत्तियों के रेशे से रस्सियाँ बटी जाती हैं। कंटकरेज-[हिं० ] लताकरंज । सागरगोटा । (Agave Americana, Linn.) कंटका-ते.] कंटकटचू । दे० "अगेवि अमेरिकेना"। कंटकालिका-[40] तालमखाना। कंटाला-संज्ञा पुं० [सं० कंटालः ] दे. कंटकालु-[ सं० ] कंटालू । सूर आलू । कूकर | "कंटाल"। मालू। - (Dioscorea Pentaphylla) कंटाली-[राजपु.] कटेरी । भटकटैया । कंटकुसम- उदि.] कुसुमभेद । काँटेवाला कुसुम । [सं०] चीरपाती। कंटाला बल-[गु०] गुलशकरी । नागबला । कंटजीर-[१] इमली। कंटिकपाली-[ उड़ि ] काँटा-गुर-कमै । हैंस । कट घोतरा-[ मरा०] ब्रह्मदंडी। कंटपलास-[ उड़ि.] कटेरा। कंटिया-संज्ञा स्त्री० [हिं० काँटो ] इमली की वे छोटी फलियाँ जिनमें बीज न पड़े हों। कतुली। कँटबाँस-संज्ञा पुं० [हिं० काँटा+बाँस ] एक प्रकार केचुली। ___का बाँस जिसमें बहुत काँटे होते हैं और जो पोला ___ कम होता है। कॅटियारी-[पं०] एक प्रकार का कुसुम । खारेजा, कंट (काँटा)भाजी-संज्ञा स्त्री० [हिं० काँटा+भाजी] ____ कंटिपारि। (Carthamus Oxycantha, चौलाई । तंदुलीय। Bieb.) दे. "खारेजा"। कटी पचलकंट भारंगी-[ मल० ] भारंगी। भार्गी । कटी सेमल-संज्ञा पुं० लाल सेमल । कंटमारिष-[ उड़ि० ] कटेरी । कंटी सेवती-[ मरा०] कुब्जक । सक्नेद गुलाब । कंटमी दंत-[गु० ] चौलाई। कंटी सोप्पु-[ कना०] अपराजिता । विष्णु क्रांता । कटम्-कतिरि-[ मल०] भटकटाई । कटेरी । लघु | कंट-[पं०] थुनेर । कटाई । कंटेनाकंटवारस-[ तु० ] कड़। कुसुम । बरै । कुर्तु म । कंटेभौरी- मरा०, कों ] सारिवा । ( Ichnocar. कंटसरु-[संथाल ] मुलसरी । कचोरमु । pus Frutescens,) कंटहल-[बं०] कटहल। कँटेरी-संज्ञा स्त्री० [सं० कंटकी ] भटकटैया । कंटा-[ कुमा० ] एक औषधि । | कंटेरी समर-[म] - [पं०, शिमला] एक औषधि । कंटाई-संज्ञा स्त्री० [सं० किंकणी] विकंकत । | कंटैक्षुक-संज्ञा पुं॰ [सं०] पारिजात वृक्ष। ... किंकणी जुवा वृक्ष । ( Flacourtia Ra-| कंटोलन-[गुरु, मरा०] धार करना। ककरोल । wontche) दे. "विकंकत"। Momordica Dioica D . Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंटौच २४२६ क तरतुलमुख्खे. कटौच-[पं०] आखी। अखरेरी कंटियान । चुत्रा | कंडियारी-[ काश.] गुनाच । तुलौच । [40] (लाहौर)। (१) कौड़ी बूटी । मरग़ीपाल । हुवा । (२) कंट्या निवली-[को॰] नागफनी। फणिमनसा । । खारेजा । (३) भुइ पुटकंडा। (४) लाप कंट्री इपीकाकाना- अं० Country Ipeca- | पताकी । कमल । फपड़ी। _cuanha] पित्तपापड़ा । पित्तमारी। कंडी-संज्ञा स्त्री० [हिं० कंडा] (१) छोटा कंडा । (Naregamia alata, W.&A.) ____गोहरी । उपली। (२) सूखा मल । गोटा । - कंट्री मैलो-[अं० Country Mallow ] कंधी | ककही। - [सिंध ] शमी । कमरा। कॅटेला-संज्ञा पुं० [हिं० काठ+केला] एक प्रकार | कंडी (दी) र याक-[ तु.] भाँग के बीज का तेल । का केला जिसके फल बड़े और रूखे होते हैं। | कंडीरी-[पं०] लखटी। यह हिंदुस्तान के प्रायः सभी प्रांतों में होता है। कंडलु- ते०] अरहर । बाढ़की। कठकेला । कचकेला । काष्ठ कदली । कँडवा-संज्ञा पुं० [हिं० काँदो वा सं० कंडु ] बाल - कंठ उन्हली-[म.] सफ़ेद राई। वाले अन्नों का एक रोग। कँजुश्रा । झीटी। कंठंग-[ मल० ] काँदा । वनपलाण्डु । जंगलीप्याज़ । कंडो। . . कंठेल-[बं०] कटहल । पनस । कंडूल-[ मरा० ] गुलू । कुलू । । - कंडंग हेटरि-ले० Cundung ] कटेरी कंडेर-[पं०] कबर । करीर । Capparis spiकँडरा-संज्ञा पुं० [सं० कंदल ] [ स्त्री० कँडरी ] मूली सरसों आदि के बीच का मोटा डंठल जिसमें कंडेरी-[पं०] ( Astragalus multiceps. फूल निकलते हैं । इसका लोग साग बनाते और Wall.) . अचार डालते हैं। कंडेलिया रहीडियाई- ले. Kandelia Rheकंडल-[बुख़ारा] उशक का गोंद। edii] एक ओषधि । . [हिं०] कन्नल | निरपागोण्डी। कंडौर-[ संज्ञा पुं॰ [सं० कंडु वा हिं० काँदो] बाल कंडल-कमा-[ फा०] (१) हरीरूद घाटी में वाले अन्नों का एक रोग। इसमें बाल पर काले इस नाम से प्रसिद्ध एक पौधा | उशक । (२) रंग की चिकनी धूल वा भुकड़ी बैठ जाती है सकवीनज । म. मु.।। जिससे उसके दाने मारे जाते हैं। यह रोग धान, कंडा-संज्ञा पुं॰ [सं० स्कंदन-मलत्याग] गेहूं, ज्वार, बाजरे आदि के बालों में होता है। [स्त्री० अल्पा० कंडी] (१) सूखा गोबर जो ईधन के काम में आता है । (२) सूखा । | कडुवा । कँजुश्रा । झीटी । कंडो। मल । गोटा । सुद्दा । कंतनी-[सिरि०] पखान बेद । जितियाना। संज्ञा पुं० [सं० कॉड ] (1) मूंज के कंतर:-[१०] (1) सेतु । पुल । (२) ऊँची पौधे का डंठल । सरकंडा। (२) शकरकंद। इमारत । [पं०] गीदड़ द्राक । द्राङ्गी । कंतरतुल् मुख्ख-अ.] मस्तिष्क के मध्य सेतु के [ सतलज ] कंटा। श्राकार का वह भाग जो ऊपर वृहत् मस्तिष्क, कंडापिंडी-संज्ञा स्त्री० [?] (1) पत्थरफोड़ी, (२) पीछे अणु मस्तिष्क और नीचे सुषुम्नाशीर्षक से लगा रहता है। मानो यह भाग मस्तिष्क के शेष प्राटा। तीनों भागों को परस्पर मिलाता है। इसके तंतु कं (कु) डा मामिडी-संज्ञा स्त्री० अमड़ा । अाम्रा खड़े और आड़े होते हैं । आड़े रेशे वृहत् मस्तिष्क कंडियार-[पं०] सरमूल । के दोनों गोलाद्धों को परस्पर मिलाते हैं । बर्ज़न[ कोल ] पाढल। दिमाग़ । जसरकारूलियूस । Pons Varolli [पाली ] खारेजा। पाञ्ज वैरूलाई। तक Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क़तरमा तरमा - [ यू० ] तुरंज । विजौरा नीबू | तरोस, कंतरीस - [ यू० ] तेलनी मक्खी । ज़रारीह । ( Cantharis ) २४२७ [अ०] ] चूहा । तुवा सलवा - [ यू० ] बड़ा सनोबर | कँतुस - [ यू० ] ( १ ) विलायती मेंहदी । श्रास । ( २ ) खुमी । कंता अनूरीन - [ रू०] कंता - [ रू० ] ( १ ) थु । सर्म | सालम मिश्री । दम्मुल् श्रख़्वेन । (२) तार - [अ०] (ऊर मितर । ( २ ) ऊद क्रमारी । ऊहुल्ब ुर । (३) एक प्रकार की माप । कंतारीक़ा - [ यू० ] उस्कूलूकंदयून | महापान । - कंतारीदास - [ यू० ] तेलनी मक्खी । ज़रारीह 1 ( Cantharis ) कंतारीन - [ यू०] क्रराश का पेड़ । असल । क़तारीना - [ यू० ] उस्क्रूलूक्रं दयून | महापान । कंतारू - [ कना० ] कन्थारी । कंतु वरस - [ रू०, तु० ] तुम कड़ । बरें । कुसुम का बीया । क्रुतु. | क्रंतीदा - [ यू०] अफीम । श्रहिफेन | कंतु किलंग - [ ता० ] मौचालु | कंतू - [ ? ] रेंड़ | एरंड | कंतु अस्लेवा - [ यू० ] बड़ा सनोबर | क़त इदस-[ यू० ] छोटे सनोबर का बीया । कंतूरियून - संज्ञा स्त्री० [ रू०, यू० । मुश्रु० जंतूरियः ( रूमी ) ] एक प्रकार का पौधा जो क्षुद्र तथा वृहद् भेद से दो प्रकार का होता है । ( Dianthus anatolicus, Boiss. नोट- यह जंतूरियः रूमी शब्द से श्रारव्यकृत शब्द है, जिसका संकेत रूमी हकीम 'जंतूरिस' से है, जिसने सर्व प्रथम उक्त श्रोषध का पता लगाया था। कंतूरियून कबीर - संज्ञा स्त्री० [ रूमी या यू० ] एक पौधा जिसका तना काहू किसी-किसी के मत से हुम्माज के तने की तरह होता है जो दो-तीन हाथ ( मतांतर से ३ गज ) तक लंबा जाता है। इसी कारण इसे कंतुरियून का बड़ा भेद माना है । इसकी एक ही जड़ से, बहुसंख्यक शाखाएँ निकलती हैं। उनके शिखर खाखस शिखरवत् होते कंतूरियून कबीर हैं । जो गोल और किसी प्रकार लंबे होते हैं । इसका फूल सुरमई रंग का ओर गोल होता है । जिसके भीतर रुई की तरह कोई चीज़ होती है । शाखों के सिरे पर फल होते हैं। पोस्ते की तेंद की तरह भीतर बीज होते हैं। जिनकी श्राकृति कड़ के दानों की तरह श्रोर स्वाद चरपरा होता है । इसके पत्र अखरोट पत्रवत् — किसी-किसी के मत से गर्जर पत्रवत् करमकल्ला के पत्तों के समान हरे, पत्रप्रांत श्रारे की तरह दंदानेदार होते हैं। इसकी जड़ मोटी, कड़ी, २ हाथ ( दो गज़ ) लंबी और एक प्रकार के सुर्ख रक्कमय द्रव से परिपूर्ण रहती है । इसका स्वरस रक्त के समान होता है। इसका स्वाद किंचित् कषाय एवं मधुरता लिये चरपरा होता है । लूफाये कबीर | प्राप्ति-स्थान - पश्चिम तिब्बत से श्रार्मीनिया तक । गुणधर्म तथा प्रयोग— प्रकृति - द्वितीय वा तृतीय कक्षा में उष्ण एवं रूक्ष । हानिकर्त्ता - मस्तिष्क को । दर्पन — मधु शर्करा, मिश्री प्रभृति । ( मतांतर से समा रबी तथा कतीरा ) प्रतिनिधि - नागरमोथा और सुरंजान रसवत और कंतूरियून सगीर । मात्रा- ७ माशे तक । किसी-किसी के मत से ६ माशे तक । प्रधान गुण - रजः प्रवर्त्तक, प्राशु प्रसदकारी श्रोर मस्तिष्क शोधक है । गुण, कर्म, प्रयोग 1 कंतूरियून कबीर के स्वाद में चरपराहट एवं तीच्णता होती है श्रोर इसमें किंचित् मिठास के साथ कषायपन भी होता है । अस्तु, इसमें बिना स्वच्छता, संकोच, क्षोभ, और तीक्ष्णता के तज्फ्री पाई जाती है । किसी-किसी का कथन है कि जब इसको कूटकर कटे हुये मांस के साथ पकाया जाता है, तो यह उसको जोड़ देती है यह मूत्र एवं श्रार्त्तव का प्रवर्त्तन भी करती है I उदरस्थ शिशु को खराव कर देती है । मृत शिशु को गर्भाशय से निःसरित करती है, जिसका कारण इसकी तीक्ष्णता, चरपराहट और कुब्बत हरारत है । अपने संग्राही गुण के कारण यह दतों को परिपूरित करती और रक्त निष्ठीवन को लाभ पहुँचाती है। यह पेशियों के टूटने फूटने, दमा और Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतूरियून कबीर २४२८ कंतूरियून सगार पुरानी खाँसी में इससे बहुत उपकार होता है। यह रोधोद्धाटक है और श्वास, पार्श्वशूल, क्योंकि उक्त रोगों में इस बात की आवश्यकता यकृत तथा प्लीहा के सुद्दों, कफज कुलंज, जलंधर होती है कि इन अवयवों से मलों की शुद्धि की (इस्तिस्काs) और कामला (यौन) को जाय और साथ ही उनको शक्ति प्रदान की जाय । गुणकारी है । यह श्रामाशय गत कृमियों को नष्ट यहाँ पर यही बात होती है अर्थात् इसकी चरपरा- करती और उन्हें निकालती है। इसका प्रलेप हट एवं तीक्ष्णता से मलों का शोधन होता है अर्श, अंगस्फुटन, गृध्रसी तथा पट्ठों के शूल का और चूँ कि इसमें किसी प्रकार माधुर्य होता है ।। निवारण करता है। अस्तु, इससे मलोत्सर्ग को जो क्रिया होती है, वह | कंतूरियून तोलीदून- यू.] कंतूरियून सगीर । कंतू. तीव्रता एवं सख्ती के साथ नहीं होती और इसके रियून दकीक । संग्राही गुण से शक्ति प्राप्त होती है । (त० न०) | केतूरियूनमलूफाखा-[ यू०] कंतूरियून कबीर । कंतूरियून सग़ीर से अल्पशक्ति है । यह विला- कंतूरियून ग़लीज़ ।। यक एवं निर्मलताकारक है। इसकी जड़ से प्रार्त्तव | कतूरियून सग़ार-संज्ञा स्त्री० [रू०, यू०] एक का खून जारी होताहै और यदि पेट में बच्चा हो तो वनस्पति जो एक वालिश्त के बराबर या उससे निकल पड़ता है। यह वक्ष एवं मस्तिष्क का कुछ अधिक बड़ी होती और रबी की फसल में शोधन करती है, श्वासकृच्छता को लाभ पहुँचाती होती है। इसमें कांड और शाखाएँ होती हैं। यह है।रक्रनिष्ठोवन में भी उपकारी है और प्रणों का दो प्रकार की होती है जंगली तथा बागी । पूरण करती है। कहते हैं कि यदि मांस की इनमें से जंगली का फूल रक वर्ण का होता है, बोटियाँ करके उक ओषधि उसमें डालकर पकायें, जिसमें कुछ नील वर्ण को झलक होती है। बाग़ी तो वह सब आपस में मिल जायँ अर्थात् जुड़कर का पौधा इससे परिपुष्ट और उच्च होता है मांस का एक पारचा बन जाय। यह पुरानी और उसका फूल चित्र विचित्र वर्ण का होता है खाँसी को दूर करती है, मूत्र तथा आर्तव का यह जंगलो की अपेक्षा अधिक सुगंधित होता है प्रवर्सन करती है और प्लीहा की सूजन को लाभ और पेड़ में मास तक रहता है। पौधा सूख पहुँचाती है । इसके उपयोग से सरलतापूर्वक जाने के उपरांत बाग़ी की जड़ पृथ्वी में रहती है। शिशु पैदा हो जाता है। यह गर्भाशय के रोगों के प्रति वर्ष रबी की फसल में उक्त जड़ में से पौधा लिये गुणकारी है; उदरस्थ कृमियों को नष्ट करती। फूटता है। जंगलो की जड़ भी शुष्क हो जाती है भोर भगंदर एवं वाततंतुगत क्षतों का पूरण करती और हर साल रबी के प्रारंभ में पौधा फूटकर है। पहरींगन वायु जनित शूल के लिये परी. प्रोमारंभ में फूल ओर बीज आ जाते हैं । दीसक्षित है । यह वायु को विलीन करती तथा कफ फरीदूस ने जो यह लिखा है कि रबी के अंत में ओर पित्त का मल द्वारा उत्सर्ग करती है । इसका पौधा उगता है, उससे बाग़ो किस्म अभिप्रेत घूर्ण नासूरमें भरकर मुंह बाँधदें, तो कल्याणहो। होगी। क्योंकि जंगली के संबंध में हकीम उल शेला के मतानुसार ज्वर में इसे ७ माशे की वीखाँ लिखते हैं कि यह रबी के प्रारंभ में उगती मात्रा में देने से उपकार होता है। परंतु गाज़रूनी है। बाग़ी के फूलोंको शीराज़ निवासी 'गुलेमेनक' इस पर यह आपत्ति करते हैं कि उन औषधि और 'गुले करन्फली' कहते हैं । बाग़ी और जंगली तृतीय कक्षा पर्यंत उष्ण है। अस्तु, ऐसो औषधि दोनों जाति के पौधों के अवयव समान होते हैं। ज्वर में कब लाभकारी हो सकती है। इसके पीने पत्ते छोटे-छोटे और प्राकृति में सुदाव के पत्तों की से यदि ज्वर में कुछ भी उपकार हो, तो वह कफ तरह होते हैं । फूल खैरी के फूल की तरह, पर ज्वर में होना संभव है। परंतु उस समय इसका उससे क्षुद्रतर होता है। फल गेहूं के दाने की अकेले उपयोग न कर, सिकंजबीन शकरी या तरह होता है। इसका स्वाद अत्यन्त तिक सिकंजबीन बजूरी सर्द के साथ दें, वरन् मस्तिष्क और किसी प्रकार विकसा होता है। किंतु बागी रोगों का प्रादुर्भाव कर देगी । ( ख़ा० प्र०) | में कडू पाहट कम होती है। शाखाओं का वर्ण Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंतूरियून सग़ीर २४२४ कन्थारी पीताभ श्वेत होता है । जड़ के सिवा इस पौधे के । . यह कफ एवं लेसदार दोषों को छाँटकर निकासभी अंग औषध के कान पाते हैं । क्योंकि इसकी लती है और कफ एवं पैत्तिक माह का मल द्वारा जड़ प्रभावशून्य और छोटी होती है। इसमें २ उत्सर्ग करती है । कठिनाई और सूजन को बिठाती वर्ष तक शक्ति विद्यमान रहती है। इसका स्वरस है । मूत्र एवं श्रार्तव सूजन का प्रवर्तन करती है। निकालकर काम में लाते हैं और इससे निम्न नाड़ी एवं मस्तिष्क का शोधन करती है। मृगी लिखित विधि से एक प्रकार का तैल भी प्रस्तुत और श्वास कष्ट का निवारण करती है, यकृत ओर करते हैं, जिसे रोग़न कंतूरियून कहते हैं। प्लीहा के अवरोधों का उद्घाटन करती है । बलग़मी तैलनिर्माण-क्रम इस प्रकार है-कंतूरियून के पत्तों कुलंज को दूर करती है। तिल्ली की सख़्ती को का ताजा रस निचोड़कर जैतून के तैल में मिलाकर | मिटाती और कीट-पतंगादि विषधर जंतुओं के पकाएँ । जब रस जलकर तैलमात्र शेष रह जाय, विष और प्रधानतः बिच्छू के विष का सब उसे आँच पर से उतार लें । यही रोशन निवारण करती है। माउल उसूल के साथ कंतूरियून है । इससे शर्बत भी बनाते हैं अर्थात् पीठ के दर्द, संधिशूल और गृध्रसी में कल्याण इसके काढ़े में शर्करा डालकर चाशनी कर लेते हैं । करती है। कभी इससे विरेचन लेने में इतना जल के किनारे और कँकरीली भूमि में यह उप- अधिक दस्त होता है कि रक्त के दस्त श्राने लगते जती है। सर्गेत्तम कंतूरियून की पहचान यह है कि हैं। क्योंकि यह अत्यधिक तीक्ष्ण एवं उष्ण है। वह बारीक पिलाई लिये हो और जबान को काटे । बालों की जड़ों में इसका स्वरस भर देने से जूएँ प-०-क्रतूरियून दकीक (१०)। लूफाय मर जाती हैं । उसारे को स्त्री के दूध में पीसकर खुर्द (फ्रा०)। अाँख पर प्रलेप करने से पपोटे की सूजन उतर प्रकृति-तृतीय कक्षा में उष्ण तथा रूत। जाती है। यदि पपोटा मोटा पड़ जाय; तो काकहानिकत्ता-यकृत और श्रांतों को। दर्पघ्न- नज के काढ़े में घोलकर लगाने से आराम होता प्रांतों के लिये समग़ अरबी (बबूल का गोंद) है। सौंफ के पानी के साथ आँख के समस्त रोगों और सफ़ेद कतीरा । तथा यकृत के लिये कासनी । को लाभ पहुँचाती है। यदि आँख में खुजली प्रतिनिधि-समभाग हंसराज या अफसंतीन या चलती हो तो, इस उसारे को खट्टे अनार ज़राबंद मदहर्ज और अर्द्धभाग बाबूना या निसोथ के दानों के रस में पीसकर और पलक को उलट या प्राबवर्ग हिना तथा तिहाई भाग सुरंजान । कर लगादें और थोड़ी देर पलक को उसी प्रकार मात्रा-बाजा ३॥ माशे से ७ माशे तक और | उलटा रहने दें, एक दिन में पाराम होगा। शुष्क १०॥ माशे तंक और वस्तिकर्म में इसका इसका उसारा अाँख के समस्त रोगों के लिये स्वरस ३॥ माशा। रामबाण है । इसको योनि में धारण करने से, गुण, कर्म, प्रयोग श्रार्तव का प्रवर्तन होता है, मृत शिशु निकल कंतूरियून सगीर में अत्यंत कड़वापन ओर पड़ता है। (ख० अ०) अल्प मात्रा में कब्ज (धारक गुण) होता है। समस्त क्रियाओं में कंतूरियून कबीर से श्रेष्ठतर इसलिये यह बिना जलन एवं क्षोभ के निर्मलता है। इसकी धूनी या इसके काढ़े की वस्ति गृध्रसी, एवं शोषणकर्म करती है और पित्त एवं सांद्र कफ | पीठ के दर्द पार कलंज के लिये अनुपम है। यह के दस्त लाती है। इसके काढ़े से गृध्रसी रोग में | तीनों दोषों का रेचन करती है। इसका प्रलेप इस कारण वस्ति की जाती है जिसमें कि यह व्रणपूरक है और भगंदर (बवासीर) तथा कठिन सांद्र दोषों को निःसृत करे। यकृदावरोध और शोथ को लाभप्रद है। (बु. मु.) प्लीह काठिन्य में इसके पीने से या प्रलेप करने से | कंतूरीदस-[यू.] श्राबगीना । काँच । शीशा । लाभ होता है। अपनी निर्मलता-कारिणी शक्ति | कंतूल-[ देश० ] इजविर । से यह आँख के फूला को दूर करती और दृष्टिशक्ति | कंथ-[ देश० ] कंथारी । को तोब करती है। (त० न०) कंथारी-संज्ञा स्त्री० [सं० कन्थारी ]दे० 'कन्यारी" । Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • कथारिडीस २४३० कंदमूल कथारिडीस-संज्ञा स्त्री० [अ०] तेलनी मक्खी। कंदफ़ोर-[गंदापीर का अरबीकृत ] बहुत बुड्ढा । कैंधेरीडोज़ । __ अत्यन्त वृद्ध । कंथिमि-[बर० ] सफ़ेद मुसली । कदबाक़ली-[?] ब्रस्तियाज । कंथान-[पं० ] लघुनी (अफ़्र.)। कद मीरुग मिरत्तम बेंगै-[ ता० ] विजयसार । कंथाल-संज्ञा पुं० [५० ] कटहल । पनस । कंद मुकर्रर-[फा०] (१) सान की हुई शर्करा। नंद:-[१०] कंद । खाँड़। चीनी । कंद दो-बारा । (२) अब्लूजकन ताम । कंद-संज्ञा पुं० [सं० कन्दः ] दे॰ "कन्द”। (बुहान काति)।(३) भोले का लड्डु । संज्ञा पुं॰ [ देश० ] एक जड़ जो कटहल के | कन्दमूल-संज्ञा पु० [सं० क्री०] (1) एक लता बराबर होती और मालग के पर्वतों पर उपजती जिसकी जड़ में से कंद निकलता है और खाया है। उस देश के लोगों का कहना है कि यह जाता है । इसकी बेल चौमासे के प्रारम्भ में पुराने चोपचीनी की अपेक्षा अधिक गुणकारी है और वे कन्द से विन्ध्यादि पर्वतों पर निकलती है। इसे उसी की भाँति सेवन भी करते हैं। २-३ प्रारम्भ में निकलनेवाला तना पत्रशून्य सूक्ष्म माशे इसको बुकनी मिस्री मिला सुहाते गरम रोमावत ताँबड़े रंग का होता है। दो या तीन पानी के साथ इक्कीस वा चालीस दिवस पर्यंत फुट बढ़ जाने के उपरांत तना के पार्श्व से पत्तियाँ फाँकते हैं। हरी तरकारी ओर लवण इसके सेवन निकलने लगती हैं। साथ ही उस पर नन्हें नन्हें काल में वर्जित हैं। यह चोपचीनी की भाँति कड़ी कोमल काँटे भी निकल आते हैं। छः सात दिन नहीं होती। के बाद पत्तियों का पूरा रूप प्रगट हो जाता है । ___ संज्ञा पुं० [अ० कंद] (1) एक प्रकार वह डंठल जिसमें पत्तियाँ लगी रहती हैं, पौने पाँच की शर्करा । कंद की शकर । शकर का नाम । इंच के लगभग लंबा होता है और उसमें ४-५ नोट-तफ्राइसुल्लुगात श्रादि में तबरज़द सूचम सरल वा कुछ वक्राकार कटक होते हैं। का जाम बताया है और कनूद इसका बहुवचन डंठल के ऊपरी सिरे पर पृथक् पृथक पाँच सवृंत लिखा है। शकर तवरज़द। बहरुल जवाहिर के पान के पत्ते सदृश पत्र लगते हैं। पत्तियों का अनुसार यह गन्ने का उसारा है । (२) गुड़ । प्रारम्भिक भाग संकुचित और भागे क्रमश: चौड़ा कंद ओल-[ ? सूरन । शूरण । जिमीकंद । होता हुआअंडाकार और छोरपर नुकीला हो जाता कंद की शक्कर-[द.] (Loaf sugar ) कंद । है ।पत्तियों ऊर्ध्वाधः पृष्ठ सूक्ष्माति सूक्ष्म रोमों से कंद कोरी-[?] जुन्दबेदस्तर । व्याप्त होता है जिनका स्पर्श हाथों को भली भाँति कंद खाम-[अ.] खुश्क कंद । अनुभूत होता है । इसके डंठल में कभी कभी छः क़द गड-[ते० ] घेट कचु । पत्तियाँ भी देखी गई हैं; पर बहुत कम । इसका कद गिलोय-संज्ञा [सं० कन्द+हि. गिलोय ] एक तना जब तीन-चार मास का हो जाता है, तब ___ प्रकार का गिलोय । कन्द गुडूची । इसके रोंगटे सूख जाते हैं और तने का रंग सफेद क'द गुडूची-संज्ञा स्त्री॰ [सं० स्त्री.] एक प्रकार मालूम पड़ता है। हरा तना अत्यंत चिमटा होता ___ का गुरुच । कदोद्भवा गुड़ ची। है और यह कठिनता से टूटता है । तने का स्वाद कदङ्गारी-[ मल०] किरनी । बालुसु । ( Canth- फीका और लबाबदार होता है। इसकी पत्तियाँ iam parviflorium, Lamk.) भी स्वाद में फोकी और किंचित् पिच्छिलता युक्त कदज़, क दोज़-[तु०] एक जानवर जिसके अंडों होती है। इसकी पत्तियों के बीच में पत्तियों के ___ को "जुन्दबेदस्तर" कहते हैं । खटासी । नस का एक लम्बा दरार होता है । उसके अगल कदत-[ ? ] कंद । बगल पाठ-नौ नसें तिर्थी लगी रहती हैं। पत्तियाँ कदतुरुकाअ-[अ०] एक प्रकार का खजूर । देखने में सेमल वा सप्तपर्ण से मिलती-जुलती कंद दोबारा-[१०] कंद मुकर्रर । होती हैं । जब जाड़े के दिनों में इसकी जड़ खोदी कदन कत्तिरि-(ता. ] छोटी कटाई । भटकटैया। । जाती है, तब उसके नीचे से कंद निकलता है। Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंदर कंदूरी - जंगल के कोल-भील इसे खाते हैं और कंदमूल कंदर्प-संज्ञा पु० दे० "कंदर्प"। नाम से पुकारते हैं। चुनार और मिर्जापुर के | कंदल-संज्ञा पुं॰ [सं० की.] नया अखुश्रा । जंगलों में यह बहुत होता है। कंद ऊपर से दे० "कन्दल"। स्याहीमायल औरभूरा होता है। इसे प्रथम उबालते [बुख़ारा, ता० ] उश्शन । समग़ हमाम । हैं । पुनः छिलका उतारकर आलू की भाँति संज्ञा पुं० [ ] एक प्रकार की गोंद । इसको तरकारी बनाकर खाते हैं। वर्षात अर्थात सकबीनज | कुदोल । कुदिल । मु. ना० । कार के महीने में इसके पत्र-मूल में गोल-गोल [मल.] कलिहारी । करियारी । कलिकारी । छोटे-छोटे बालू-तुल्य फल लगते हैं। यह भी | कंदल सफरी-संज्ञा पुं॰ [हिं० कंदल+का सफरी] उबालकर खाया जाता है।। अनन्नास । (२) एक पौधा जो बागों में लगाया जाता कंदला-संज्ञा पुं० [सं० कन्दल ] एक प्रकार का है । देखने में यह सेमल के नूतन वृक्ष की तरह कचनार । कुराल । (Bauhinia retusa, जान पड़ता है। इसको डालियों के टुकड़े टुकड़े Hom.) दे. "कचनार"। करके माली लोग पृथ्वी में गाड़ देते हैं जिनसे | कंदली-संज्ञा स्त्री० [सं०] एक पौधा जो नदियों के . नये वृक्ष तैयार हो जाते हैं । लगाने से दो-तीन | किनारे पर होता है । यह बरसात में पुष्पित होता वर्ष के उपरांत खोदने से इनकी जड़ में से बड़े है । उस समय इसमें बहुत से सफ़ेद-सफेद फूल - लंबे कंद निकलते हैं । इसे भून या उबालकर - लगते हैं। - शकरकंद की भाँति खाते हैं। यह स्वाद में मीठा | कंदलीदारु-संज्ञा पुं॰ [सं०] कचनात। : होता है । इसके प्रत्येक दंड में प्रायः सात पत्तियाँ | कंदवाकली-[?] बस्तियाज | लगती हैं। . | कंदसार-संज्ञा पुं॰ [सं०] हिरन की एक जाति । गुण, प्रयोगादि-यह पुष्टि जनक शुक्र- कंदा-संज्ञा पुं॰ [ ](१) दे. "कंद" । (२) जनक, और वृहण एवं शरीर-पोषणकर्ता | शकरकंद । गंजी। (३) घुइयाँ । अरुई। है। उपयुक कंदमूल से यह गुण में न्यून होता संज्ञा पुं॰ [विहारी ] पिंडालू । कचालू । है। वन्यवासी साधु एवं अन्य जंगली लोग इन्हें, बंडा । खाकर जीवन-यापन कर सकते हैं, क्योंकि इनमें | कंदान:-[ ] तीतान । करात । पाहारांश पर्याप्त मात्रा में होता है। कंदामणी चेड्डी-[ ता. ] सर्वजया । सब्बजया । (३) हिंदी में कंद और मूल दोनों को कंद- अकलबेर । कामाक्षी। देवकेलि । (Canna मूल कहते हैं। Indica, Linn.) कंदर-संज्ञा पु० दे० "कन्दर"। कंदामणु-[ ता० ] दे. "कंदामणी चेड्डी' । [पं०] कचूर। कंदार:-[१०] एक प्रकार की मछली जिसे 'सनाम'। कंदर-[१] बादाम । भी कहते हैं। कंदरक-संज्ञा पु. दे. “कन्दरक"। कदावल-[सिरि० ] कायफल । मु० अ० । म० अ०। कंदरक-[ ](Salix Viminalis) कँदु-संज्ञा पुं० दे० "कंदुक"। कंदररी-[ यू. जुन्दबेदस्तर । कंदु-पं०] शकाकुल मिली। कंदरस- यू.] चिलगोज़ा। कँदुआ-संज्ञा पुं० [हिं० काँदो ] कंडोर | कंडो। कंदरस, कंदरूस-[१] (१) मकाई । ललमकरी । | कंदुक-संज्ञा पुं० [सं० की.] सुपारी । पुगीफल । खंदरूस । (२)चिलगोज़ा। कँदूरी-हिं० संज्ञा स्त्री० [सं० कंदूरी] कुंदरू । बिंबा । कंदरान, कंदरून-[ तु०, अशन• ] बतम की गोंद ।। कुनरू । दे० "कंदूरी"। . [१०] सातर । कदूरी-संज्ञा स्त्री० [सं० कंदूरी] (1) कोल राई । कंदरूस-[ तु० अस्क० ] मकाई । खंदरूस । (२) एक बहुवर्षीय वृक्षारोहीलता जिसकी कंदरोलमर-[ कना०] पारस पीपला पारिष अश्वस्थ।। पत्तियाँ गहरे हरे रंग की चार पाँच अंगुल लंबी Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदूरी २४३२ Late पचकोनी होती हैं और रंग के काम में आती हैं। यह बरसात में उगती और फलती फूलती है। यह फल पकांत होती है। प्रति वर्ष इसकी पुरानी जड़ से नई बेल उगती है। इसमें सफ़ेद फूल । लगते हैं। फल परवल की तरह, किंतु उससे छोटा अर्थात् लगभग २-२॥ इंच लंबा और एक इंच व्यास का मांसल, वेलनाकार, मसृण और कच्चे पर हरे रंग का होता है और उसके ऊपर लंबाई के रुख थोड़ी-थोड़ी दूर पर लगभग दस धारियाँ पड़ी होती हैं। यह अत्यन्त कडा होता है । परन्तु आरोपित कुंदरू में उक्त , कड़ाहट नहीं होती है, केवल जंगली वा स्वयंभू | क्रिस्म में ही उक्त कटुता पाई जाती है। आरोपित कुंदरू मीठा होता है और तरकारी के काम आता | है । पकने पर दोनों प्रकार के कुंदरू गंभीर रन | वा अरुण वर्णके और मीठे हो जाते तथा अस्फुटन | शील ( Indehiscont) होते हैं । इनमें बहु-| संख्यक बीज भरे होते हैं। बीज कागजी नीबू के बीज की तरह होता है। ये फल पकने पर बहुत लाल होते हैं, इसीसे कवि लोग अोठों की उपमा इनसे देते हैं। इसी भाव को लेकर ही इसकी 'पोष्ठोपमफला, बिम्बोष्ठ' प्रभृति संस्कृत संज्ञाएँ बनी हैं। जड़ लंबी शंक्वाकार कंदमूल होती है। किंतु पथरीली भूमिमें उगनेपर यह प्रायः वक्र और ग्रंथिल आदि विरूपाकुति की हो जाती है। यह बहुवर्षीय होती है और प्रायः बढ़ कर बहुत बड़ी हो जाती है। किंतु जंगली पौधे में शीर्ष (Crowr) के ठीक नीचे के स्थूल भाग का औसत व्यास १ से २ इंच होता है । बाहर से यह पांडु पीताभ धूसर वर्ण की होती है, जिसके ऊपर अप्रशस्त वृत्ताकार झुर्रियाँ (Constri ctions) और दीर्घाकार नालियाँ पड़ी होती हैं। इसका व्यत्यस्त काट (Transuerse section ) atat clare att ( Medullary rays) स्पष्ट दृग्गोचर होते हैं । काटने पर इसमें से एक प्रकार की स्वच्छ कर्कटी गंधी (Cucumber odour ) रस स्रावित होता है जो सूखने पर निर्यासवत् जान पड़ता है। जड़ स्वाद में अन्ल और कषाय होती है, पर कहु प्राहट से सर्वथा खाली नहीं होती है। प-०-बिम्बी, रक्रफला, तुण्डी, तुण्डिकेर (श०) फला, श्रोष्ठोपम फला, गोह्रा (कोष्णा), पीलुपर्णी, तुण्डिका (ध० नि०), मधुर बिम्बी, बिम्बिका, मधु बिम्बी, स्वाद तुरिडका, तुण्डी, रक्कफला, रुचिरफला, सोष्णफला, पीलुपर्णी (रा०नि०), बिम्बी, रक्तफला,तुण्डी, तुण्डिकेरी, बिम्बिका, श्रोष्ठोपमफला, पीलुपर्णी (भा०) श्रोष्ठभा, प्रोष्ठफला, धीहर (द्रव्यनामक) दन्तच्छदा (मद०) रक्तपीतफला (गण) विद् मफला, तुण्डिकेरिका, विद्रु मवाक् (केय. दे०), छर्दिन्योष्ठी, बिम्बिका (शोढ़ल ) श्रोष्ठी, कर्मकरी, तुण्डिकेरिका, तुण्डिकेरि, झुण्डिकेशी, बिम्बा, बिम्बक, कम्बजा, दन्तच्छदोपमा, गोही, छर्दिनी, तुण्डिकेरिफला; तुण्डिकेरीफला, कुन्दुरुलता, मधुरबिम्बी, तुण्डिकशी, तुण्डिकेरी-सं० । कन्दूरी, कुन्दुरी, गुलकाँख, कुनरू, कुदरू, मीठा कुंदरू-हिं० । कुन्दुरुकि, कुन्दरकी-बं० तोडलीमरा०। टोडोरी-गु०।-कोकसिनिया इंडिका Coccinia Indica, W. -ले। कुंदुरी-मरा। कुष्माण्ड वर्ग (N. 0. Cucurbitacece.) उत्पत्ति स्थान-समस्त भारतवर्ष । बंगाल और भारतवर्ष के अनेक भागों में बाहुल्यता से यह जंगली होती है। बरई (तमोली) प्रायः अपने पान के भीटों पर परवल की तरह इसकी बेल भी चढ़ाते हैं। औषधार्थ व्यवहार-पत्र, मूल, फल और स्वक् ( bark) रासायनिक संघटन-जड़ में राल होती है जो काष्टिक सोडा और अमाइलिक एलकोहल में विलेय होती है । इसके सिवा इसमें एक क्षारोद, श्वेतसार, शर्करा, निर्यास, वसामय पदार्थ, एक सैन्द्रियकाम्ल (Organic acid) और १६% मैंगोनीज शून्य भस्म होती है । (ई० मे० मे० पृ० १८६) आर० एन० चोपड़ाके अनुसार इसमें एक एन्जाइम् (Enzyme), एक हार्मोन ( Harmone) और एक क्षारोद के चिह्न पाये जाते हैं Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३३ . औषध-निर्माण-टिंक्चर वा पासव (१० मीठाकुनरु-स्वादु, शीतल, भारी, रक्तपित्त में १ भाग)। नाशक, वातविनाशक, स्तम्भन, लेखन, रुचिकारक __ मात्रा से । ड्राम । प्रकांड और पत्र काथ तथा विबंध (मलमूत्ररोधक) और आध्मान(१० में १), मात्रा-1 से १ श्राउंस । सूखी कारक है। छाल का चूर्ण, मात्रा-२ मा० । मूल स्वरस- बिम्बिका मधुरा शीता कफ वान्ति करा मता। मात्रा-१ से ३ ड्राम । कांड और पत्र-स्वरस रक्तपित्त क्षय श्वासकामला पित्त शोफकान् ॥ मात्रा-१ से २ पाउंस खाली पेट । मूल और पत्र स्वरस-मात्रा-१ से २ तोले । रक्तरुग्विष कासांश्च रक्तपित्त ज्वरान्हरेत् । गुण धर्म फलमस्या गुरुः स्वादुः शीतलं लेखनं मतम् ।। आयुर्वेदीय मतानुसार-(मधुर वा गृहबिम्बी) भलस्तम्भकरं स्तन्यमुदरे वातसंचयम् । तुण्डिका कफपित्तामृक्शोफपाण्डु ज्वरापहा । रुच्यं पित्तं रक्तदोष वाताञ्छ्वासं च नाशयेत्।। श्वासकासापहं स्तन्यं फलं वातकफापहम् ॥ शोथ वृद्धिदाह कास श्वास नाशकरं मतम् । बिम्बीफलं स्वादु शीतं स्तम्भनं लेखनं गुरुः । पुष्पमस्याः कण्डुपित्त कामला नाश कारकम ॥ पित्तास्रदाह शोफघ्नं वाताध्मान विबन्धकृत ॥ अस्या पणेद्भवा शाका शीतला मधुरा लघुः । (ध०नि०) ग्राहका तुवरा तिक्ता पाके कट्वी च वातला॥ कड़वे कुदरू की जड़ और पत्ती-कफ, रक्त- कफपित्तहरा प्रोक्ता पूर्वैवैद्यवरैः स्फुटम् । पित्त, शोथ, पांडु, ज्वर, श्वास एवं कासनाशक मूलमस्या हिमं मेहनाशनं धातुवद्धकम् ।। तथा स्तन्यप्रद है । फल वात कफापह है। स्वादु बिम्बीफल अर्थात् मीठा कुदरू-स्वादु, शीतल, हस्तदाह हर भ्रान्ति वान्ति नाशकरं मतम् । स्तम्भन, लेखन और गुरु है तथा रक्तपित्त, दाह, कदूरी-मधुर; शीतल, कफकारक, वमनजनक शोधनाशक एवं वायुप्रकोप तथा प्राध्मानकारक तथा रक्तपित्त, श्वास, कामला, पित्तकी सूजन, और मलमूत्र रोधक है। रुधिरविकार, विषदोष, खाँसी, रक्रपित्त और ज्वर को दूर करती है । इसके फल--भारी, स्वादिष्ट, बिम्बी तु मधुरा शीता पित्त श्वास कफापहा । शीतल, लेखन, मलस्तम्भक, स्तन्यकारक, उदर अमृग ज्वरहरा रम्या कासजिद्गृह बिम्बिका।। में वायु को संचित करनेवाले, रुचिकारक तथा __ (रा० नि० व०७) पित्त, रुधिर विकार, वात, श्वास, सूजन, वृद्धि, मीठा कुंदरू-मधुर, शीतल, पित्त, श्वा । दाह, खाँसी और श्वास ( दमे ) को हरने वाले एवं कफनाशक तथा ज्वर, रक्तविकार और कास हैं। इसके फूल-कण्डू, पित्त एवं कामला को दूर नाशक है। करनेवाले हैं। इसके पत्तों का शाक--शीतका, बिम्बीफलं स्वादु शीतं स्तन्य कृत्कफ पित्तजित् । मधुर, हलका, मलरोधक, कसेला, पाकमें चरपरा, हृद्दाह ज्वर पित्तास्र कास श्वास क्षयापहम ॥ बादी तथा कफ और पित्त का नाश करता है। (शो. नि.) इसकी जड़---शीतल, प्रमेहनाशक, धातुवर्द्धक कदूरी-स्वादिष्ट शीतल, स्तन्यकारक, कफ तथा हाथ-पांवों की दाह, वान्ति और भ्रांति को पित्तनाशक तथा दाह, ज्वर, रनपित्त, खाँसी श्वास शांत करती हैं। और क्षय रोग का नाश करती है। केयदेव के अनुसार यह वातकारक, कफकारक बिम्बीफलं स्वादु शीतं गुरु पित्तास्र वातजित् । पाक में चरपरा, संग्राही, क्षय एवं शोथनाशक, स्तम्भनं लेखनं रुच्यं विबंधाध्मान कारकम् । कामला नाशक और रनपित्तनाशक है तथा वात, (भा.) प्राध्मानादि एवं विबंधकारक है। द्रव्यरत्नाकर Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुदरू के अनुसार इसका फल बुद्धिनाशक और स्तन्यवर्द्धक है । तथा जड़ वीर्य जनक शीतल श्रौर प्रमेह नाशक है। मदनपाल के अनुसार भ्रान्तिहर और गणनिघण्टु के अनुसार वमनहारक है । २४३४ युनानी मतानुसार प्रकृति - पत्र शीतल और रूद; फल शीतल श्रर तर हैं । हानिकर्त्ता - कुँ दरू (फल) संग्राही (काबिज़ ), श्राध्मानकारक और आमाशय को निर्बल करता है। मूल स्वरस उत्क्लेशकारक, वामक और तीव्र विरेचक है और इससे श्रंगों में दाह होने लगता है । दर्पन — विबंध, श्राध्मान और श्रामाशय नैर्बल्य वा मंदाग्नि के लिये उष्ण श्रौषधियाँ और जड़ के लिये बिहीदाने का लबाब एवं इसबगोल और बारतंग का लबाब दर्प निवारक श्रोषधिद्रव्य है । प्रतिनिधि - लौकी वा परवल । मात्रा - आवश्यकतानुसार । गुए, कर्म, प्रयोग - ( फल ) पित्त और रक्त विकार तथा दाह को मिटाती है। यह वमनकारक दोष संशोधक, मेदनाशक, स्थौल्यहर, संग्राही, विबंधकारक श्राध्मानकारक, वातकारक और स्तम्भनकर्त्ता है। जड़ शीतल, कफनाशक और विष प्रभाव नाशक है। लेखक के निकट यह शीतल एवं तर है और कोष्ठ को मृदु कर्त्ता एवं श्रामाशय को निर्बल करती है। इसका अचार ( गरम चीजों के साथ ) कुब्बत जाज़िबा ( श्रभिशोषण शक्ति ) बल प्रदान करता है और पाचन शक्ति को बढ़ाता है । ( ता० श० ), यह वृक्करोगों को लाभकारी है ! (ख़० प्र०), इसकी जड़ स्तंभन कर्त्ता है । (म० मु० ) यह सर्द तरकारी है और पित्त एवं रुधिर प्रकोप, और ऊष्मा तथा पिपासा को शांत करती तथा रोगियों के लिये उत्तम पथ्याहार है। विशेपतः उष्ण प्रकृति वालों के लिये । ( बु० मु० ) ज़ीरहे अकबर शाही के अनुसार यह भारी है तथा पित्त, कफ, रुधिर विकार, दमा, कुंदरू ज्वर और कास – इनको दूर करती है। कंदूरी अपने प्रभाव से बुद्धि को मंद करती है । ( कुँ दरू के विषय में यह प्रवाद चला श्राता है कि यह बुद्धिनाशक होता है ) । फल के ऊपर का छिलका उतारकर सेवन करने से यह पेट कम फुलाती है । यह भूख बढ़ाती है; रुधिर उत्पन्न करती है; स्तनों में दूध बढ़ाती है; श्रर्श और श्रामाशयिकातिसार को लाभकारी है । ( ख़० अ० ) वैद्यों के कथनानुसार कंदूरी के फल गुरुपाकी, शीतल, मधुर, और व्रण विदारण होते हैं । ये मल ( विष्ठा ) को शुष्क करते उदर में वायु की वृद्धि करते और स्तनों में दूध बढ़ाते हैं तथा अरुचि, वित्त, रुधिर विकार, दम, सूजन, गरमी और खाँसी -- इनको मिटाते हैं । इसके फूल खुजली, पित्त और कामला को दूर करते हैं । इसके पत्तों का साग ठंडा, मीठा, लघुपाकी, मलस्तंभक, कसेला, कडुवा, पाक में चरपरा ( कटुपाकी ) श्रौर वातवर्द्धक होता है । यह कफपित्तनाशक है । 1 इसकी जड़ शीतल और वीर्यवर्द्धक होती है । यह प्रमेह ( जरियान ), हाथों की गर्मी, शिरः शूल और वमन का नाश करती है । बहुमूत्र रोग में प्रयुक्र रसायनौषधों को इसकी जड़ के खालिस रस में भिगोते हैं । फिर उसी के रस में वटिकायें इसमें से एक वटी की जड़ का रस एक प्रस्तुत करके प्रातः काल खिलाकर ऊपर से इसी तोला पिला देते हैं। 1 इसकी जड़ काटने पर उसमें से एक प्रकार का पदार रस निकलता है जो सूखने पर कुछ लाल गोंद की तरह जम जाता है। यह बहुत काबिज़ होता है। किंतु फल की भाँति कहा नहीं होता । इसकी जड़ की छाल का चूर्ण दो-माशे फँकाने से अच्छी तरह दस्त लगते हैं । इसके पत्तों को घी के साथ पीसकर जख़्मों पर लेप करते हैं । Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३५ कुंदरू प्राबलों पर इसके पत्तों को बाँधते हैं या उनका | चर्म पर मसूरिका (Small-pox ) जैसे दाने लेप करते हैं। निकलने परभी इसके पत्ते लगाये जाते हैं ।सूज़ाक __ इसके पत्तों का खालिस रस पूयमेही को में साधारणतया इसके पौधे के टिंकचर का अंतः पिलाते हैं। प्रयोग होता है । जानवरों के काटे हुये स्थान पर जिह्वा के ऊपर के क्षत मिटाने के लिये इसके पत्ती का ताजा रस लगाया जाता है। ज्वरों में हरे फल चूसते हैं। पसीना लाने के लिये भी शरीर पर इसे लगाते किसी किसी वैद्यकीय ग्रंथ में उल्लिखित है हैं। कहते हैं कि फुफ्फुस प्रणालीय नज़ला कि, पका फल ,वायु और पित्त का नाश करता है; ( Bronchial catarrh) और कास शनि प्रदान करता है; चित्त को प्रफुल्लित रखता ( Bronchitis ) में इसके कांड और पत्ते का है; पैत्तिक वाष्प (अबख़रः) का निवारण करता काढा उपयोगी होता है। दद् . विचर्चिका है; नेत्रगत पीतवर्णता का नाश करता है और ( Psariasis) और कंडू में इसकी पत्तियों भूख बढ़ाता है। इसकी जड़ सारक है। को तिल तैल (Gingellyoil ) में उबाल __ इसके पत्ते फोड़े-फुसी, कामला और श्लेष्मा कर लगाते हैं। क्षतों ( Ulors) पर लगाने के को लाभकारी हैं। लिये तथा पुरातन नाड़ी व्रणों (Sinuses) गोघृत (रोग़ान जर्द) में जलाकर व्रण पर में पिचकारी करने के लिये भी उक्त तेल का उपलगाने से शुद्ध मांसरोहण होता है । (ख. प्र.) योग करते हैं। (ई. मे० मे० पृ० १८६) नव्यमत श्रार० एन० चोपरा, एम. डी.-मधुमेह ऐन्सली-दक्षिणात्य भारत में इसके उपयोग ( Diabetes mellitus ) afça itirat का उल्लेख करते हैं। उनके कथनानुसार विषधर की मूत्रगत शर्करा की मात्रा घटाने में दृष्टफल प्राणी द्वारा दुष्ट रोगी को इसकी पत्ती का स्वरस होने के लिये बंग देश में कंदूरी की बेल सुवि. पीने और दष्ट स्थान पर प्रलेपनार्थ प्रयोग करते हैं। ख्यात है। किसो किसो ने तो इन्स्शुलीन ( In मुहयुद्दीन शरीफ के अनुसार दक्षिणात्य sulin ) की भारतीय प्रतिनिधि तक लिख भारतीय बाजारों में इसकी जड़ कबर मूल डाला है। कलकत्ते के चिकित्सकों में मधुमेह (Caper root)की प्रतिनिधि स्वरूप विक्रय (Glycosuria) में इसकी उपादेयता के होती है। प्रति अटल विश्वास पाया जाता है। कलकत्ता के ज्वर में स्वेद लाने के लिये कोंकण में इसकी मेडिकल कॉलेज आतुराक्षय में समाविष्ट मधुमेह जड़ को इसके पत्रस्वरस ..में पीसकर रोगी के पीड़ित कतिपय शस्त्रसाध्य रोगियों पर इसके हरे सम्पूर्ण शरीर पर लेप करते हैं और जिह्वा के पौधे के रस की परीक्षा की गई और उनपर यह ऊपर के क्षतों के निवारणार्थ इसके हरेफल चबाते दृष्ट फलप्रद सिद्ध हुश्रा। कहते हैं कि इससे हैं। (फा० ई०२ भ० पृ०८६) शर्करा की मात्रा बहुत घट गई और किसी किसी नादकर्णी-प्रभाव-यह रसायन है । शुष्क रोगी में तो सम्यक विलुप्त प्राय हो गई। कहते त्वक उत्तम विरेचक है। पत्र और कांड प्राक्षेपहर हैं कि इससे भी बहुत वर्ष पूर्व मेडिकल कॉलेज और कफ निःसारक हैं। के औषध-गुण-धर्म परीक्षण विभाग में उक्त मयिक प्रयोग-जड़ का ताजा रस बहुमूत्र औषध को परीक्षा की गई थी और कतिपय ( Diabetes ), विवृद्ध वा सूजी हुई ग्रंथियों प्रयोगात्मक कार्य भी किये गये थे परंतु प्रकाशित और व्यंग वा झाँई ( Pityriasis) सदृश साहित्य में उक्त कार्य विषयक परिणाम अब चर्म रोगों में व्यवहृतहोता है। चर्म रोगों और अप्राप्य हैं। पतों पर घी में मिला कर इसकी पत्तो का लेप मधुमेह रोग में इस औषधि के उपयोगी होने करते हैं। का विश्वास आयुर्वेदिक चिकित्सकों में प्राचीन Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंदुरू २४३६ कंदुरू काल से ही चला आ रहा है। वे प्रायः इसकी गुण धर्म तथा प्रयोग कंद मूलीय जड़ एवं पत्र के ताजे रस को अकेले आयुर्वेदीय मतानुसारवा किसी धातु वा रस कल्प योग से मधुमेह कडुआ कुदरुप्रतिकारार्थ वर्तते हैं। कटुतुण्डी कटुस्तिक्ता कफवान्ति विषापहा। श्राधुनिक अन्वेषकों में से वर्तमान सभी शस्त्रास्त्र अरोचकास्रपित्तघ्नी सदापथ्या चगेचनी॥ से सुसजित सर्व साधन सम्पन्न डॉक्टर चोपरा (रा० नि०३ व०) और उनके सहकारी अर्वाचीन विधि-विधानानुकूल स्वयं इसका विश्लेषण करके द्रव्य-गुणधर्म कड़वी कंदूरी-चरपरी, कड़वी; सदैव पथ्य परिज्ञानार्थ इसके सत्वादि का स्वस्थ जीवों में (हितकर ), एवं रोचनी-रुचिजनक (वा पाठां तर से रेचनीरेचन करनेवाली) है तथा कफ, और तदुपरांत रोगियों में नाना विध प्रयोग कराने के उपरांत जिस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं पित्त, विष, अरुचि, खाँसी और रक्रपित्त को नष्ट उसका सारांश इस प्रकार है करनेवाली है। तिक्तबिम्बो फलंच नाशनम्। "कंदूरी में प्रमाइलोलिटिक गुण विशिष्ट एक पक्क पित्तहरं शीते मधुर रस पाकयोः॥ एन्ज़ाइम ( Enzyme), एक हर्मोन और (शो. नि.) अंशतः एक प्रकार का चारोद होता है. चहों में इनमें से किसी एक के त्वम् अंतः क्षेप से शर्करा कच्ची कड़वी कंदूरी-वमनकारक और कफकी मात्रा नहीं घटती है। कुदरू की पत्ती, तना नाशक है । पका कड़वा कुनरू-पित्तनाशक, और जड़ के ताजे रस के उपयोग से मधुमेह शीतल और रस तथा पाक में मधुर है। पीड़ित रोगियों की मूत्र वा रुधिरगत शर्करा की तिक्त बिम्बीफलं तिक्तं वामक वातकोपनम् । मात्रा तनिक भी कम नहीं होती है और जो कुछ शोथग्विष पित्तघ्नं रक्तरुक्कफपाण्डुनुत् ॥. कमी होती है वह शुद्धतया श्राहार विहार जन्य (नि० र००) होती है"। (इं० डू. इं• पृ० ३१६) कड़वा कुनरू-कड़वा, वमनकारक, वात कुपित करनेवाला तथा शोथ रोग, विष, पित्त, __जंगली वा कडुआ कुनरू रुधिर विकार, कफ और पाण्डु रोग को नष्ट पर्या-तिक तुण्डी, तिक्काख्या, कटुका, कटु- करनेवाला है। तुण्डिका, बिम्बी, कटुतुण्डी, ( रा० नि.), सुश्रुत के मतानुसार इसका फल साँप और कटु बिम्बी, तिबिम्बी, तुण्डीपायगा। बिच्छू के विष में लाभदायक है। परंतु कायस - -सं० । कड़वी कंदूरी; कड़वा कुनरु, कडु प्रा और म्हस्कर के मतानुसार यह उन उभय विर्षों कुंदरू-हिं० । कटुतराई, तित्पल्ता, तेत केन्दुरुकी, में निरर्थक है। तेलाकुचा, तित कुन्दरु,-बं० । नव्य मत मोमोर्डिका मॅनएडेल्फा Mamordica Mon- आर० एन० खोरी-यह रसायन है और adelpha Rorb., सिफैलैंडा इंडिका Cep- बहुमूत्र, विवृद्ध ग्रंथि ( Enlarged glanhalandra Indica, Naup-ले० । डोंड ds) और व्यंग वा झाँइ (Pityriasis) सीगा, काकी डोंडा-ते । कोवै-ता। रानतोण्डला, श्रादि चर्मरोगों में व्यवहृत होती है। कडु तोण्डली-मरा०, कड़वी घोली -गु० । तोंडे (Vol. 11, P. 307) कोंडे, तीत कुन्दुरु-कना० । कोवा-मल०। भिम्ब उ० चाँ० दत्त-कुंदरू का मूल एवं पत्र -बम्ब० । कुदरू, घोल, कंदूरी-पं० । कबरे हिंदी, स्वरस बहुमूत्र रोग में व्यवस्थित धातु घटित परवल तल्ल-फ्रा० । किम्बेल्-सिंह० । सहराई।। औषधों के अनुपान स्वरूप व्यवहृत होता है। Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंदूरी की बेल २४३७ N इसकी मात्रा एक तोला ( १८० ग्रेन ) दैनिक प्रातःकाल है । डॉक्टर उदय चाँद लिखते हैं कि इसके व्यवहार से अनेक बहुमूत्र रोगी उपकृत हो चुके हैं। इनके मत से इसकी जड़ का निकाला 'हुश्रा ताजा रस १ तो० वंगेश्वर या सोमनाथ रस की १ गोली के साथ प्रतिदिन दिया जाना चाहिये । बेलफोर - चर्मगत विस्फोटकों पर इसकी पत्ती का बहिः प्रयोग होता है और सूजाक में इसकी समग्र बेल प्रांतरिक रूप से उपयोग में श्राती है । अष्टांगयुर्वेदिक कालेज के निर्माता यामिनी भूषण मधुमेह रोग में इसका उपयोग किया करते थे । उनका कथन है कि इसका ताजा रस १-३ श्रींस की मात्रा में प्रतिदिन प्रातः काल लेना चाहिये । इसकी जड़ की छाल का चूर्ण दो माशा फाँकने से खूब दस्त आते हैं । कंदूरी की बेल - संज्ञा स्त्री० [हिं० ] कुँ दरू | त्रिंबा | कंदूल - [ मरा० ] गुलू | कुलू करै 1 दूल - [ ० ] कायफल । कंदे अस्करी-[ अ० कंदे अस्वद - [ ० ] गुड़ । कंदे पारसी - [ ० ] एक प्रकार का उत्तम कंद | कंदेइ - [पं० ] स्वादु कंटक | कंदेव- संज्ञा पु ं० [देश० ] पुन्नाग वा सुलताना चंपा की जाति का एक वृक्ष | यह उत्तरीय और पूर्वीय बंगाल में होता है । एक प्रकार का कंद लतीफ़ है । ० ] मिस्त्री । कंदे स्याह - [ फ्रा० ] गुड़ | दे सुफेद - [ कंदे सुपेद - [ फ्रा० ] मिस्त्री । कंदोज़ -[ तु० ] एक प्रकार का जानवर जिसकी श्राँड़ियाँ जु' दबेदस्तर कहलाती हैं। गंधबिलाव । मुश्क बिलाई । दोल - [ ० ] कायफल का पेड़ ( क़ामूस ) । बुर्हान में 'किंदोल' लिखा है और उसके अनुसार यह रूसी भाषा का शब्द है । मख़्जन और मुहीत में जो इसे 'कंद्रावल' लिखा है । वह शुद्ध ज्ञात कंबी होता है । जाम इब्नबेतार में इसका उल्लेख पाया जाता है। क़दैङ्ग -[ ता० ] धुंधुल । कंद्राविका - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] सोंचर नमक । कंधरा संज्ञा पु ं० [सं० स्त्री० ] ग्रीवा । गर्दन | कंधा - संज्ञा पुं० [सं० स्कंध, प्रा० कंध ] ( १ ) मनुष्य के शरीर का वह भाग जो गले और मोढ़े के बीच में है । ( २ ) मोढ़ा | बाहुमूल । ( ३ ) बैल की गर्दन का वह ऊपरी भाग जिस पर जुश्रा रक्खा जाता 1 कंवारी- वि० [हिं० कंधार उत्पन्न हुआ हो | कंधार का । संज्ञा पुं० ( १ ) एक प्रकार का हींग | दे० जो कंधार देश में " हींग" । ( २ ) घोड़े की एक जाति जो कंधार देश में होती है । संज्ञा स्त्री० [सं० कन्थारी ] कंथारी दे० 'कन्थारी" । कंधि - संज्ञा स्त्री० [सं० 1 ग्रीवा । गर्दन | 1 कंतु [ते] गूह बबून गूकीकर | विट्खदिर । कंफेर - [ जर कपूर । :- [अ०] ] बेद का ख़ुशा । कंबठ - [ म० ] कैथ | कंबल - संज्ञा ० दे० "कम्बल” | कंबलि-चेहु -[ ते० ] शहतूत | कंबलि- बूचि चेट्टु -[ ते० ] शहतूत | बलि-पूचि - चेड - [ ता०] Moras Indica, Linn. शहतूत । तूत | कंबलु - [ सिंगा० ] वागाधूव (बम्ब० ) । कंबानि - संज्ञा स्त्री० [?] कासनी ! कंबार - [ श्र० ] नारियल के रेशे की रस्सी । कंबारी - संज्ञा स्त्री० [देश० ] गंभारी । कमहार | कंब - [ ना० ] डिकामाली । कंबल - संज्ञा पुं० [देश० ] कमीला । कंबल - पूच - [ ० ] त । कंबी - [पं० हिं० ] कटेर । गनियार । गलगल । Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क (क) बीज २४३८ कसहरीतकी कं () बोज-[१०] साँप । अम्लास्वाद युक्त होता है ।-(ता. श०) वि० दे० कंबीर-अ.] कमीला। "संतरा"। कंबीरस-अ.] एक प्रकार का दही। | कंशीरा-[?] Comru lino Bengalensis कबीरा-[सिरि० ] भाँग । कानूराना। कंवोल-[ मुथ ] कमीला। [?] बर्वरी । बबुई। कंबीरः-[फा०] एक प्रकार का खीरा । कंशू-[फा०] कच्चा अंगूर । गोरः। कंशूर:-अ॰] वह स्त्री जिसे हैज़ न आता हो । कंबीला-[फा• ] कमीला ।-(ख० अ०) कंशे-[ मरा०, को० ] काँसा। कंबीस-[यू.] विजया बीज । शहदान न । कंस-संज्ञा पुं० [सं० ० क्री० ] (1) धातु द्रव्य । कबु-[ता०] बाजरा । धान । कंसमाक्षिक (महाद्रावक)। (२) काँसे का कंबूग-[ मग़०] घिबई (कुमा०)। जरीला बना हुआ पानी पीने का वरतन । प्याला | छोटा (नेपा०)। गिलास या कटोरा । अ० टी० । (३) मद्यादि कंबेला-[ ना. J कमीला। पान करने का पात्र । शराबादि पीने का बरतन । कंबोई-संज्ञा स्त्री० [सं० काम्बोजी ] एक बड़ा पेड़ पान भाजहन | कंश। कांस्य ।। जिसको पत्ती आँवले की पत्ती की तरह होती है। __ संज्ञा पुं॰ [सं० वी० पु.](१) काँसा । डालियाँ लंबी लंबी होती हैं । फल गोल और कांस्य धातु | प० मु.। (२) एक नाप . जिसे कच्चे पर हरा और पकने पर काला पड़ जाता है। श्रादक भी कहते थे। यह चार सेर की होती थी। पर्या-काम्बोजी, काम्बोजिनी, बहुपुष्पा, भा०। (३) कांस्य धातु । कांसा। बहप्रजा-सं० । काम्बोजी-बं०। चिफली-मरा। पा-कांस्य, कंशास्थि और ताम्रार्ध । खेडा कम्बोई-गु. | Phylanthus Mult. दे० काँसा"। iflorrs or Phylantius Recticu. | कंसक-संज्ञा पुं॰ [सं० वी० ] (1) पुष्प कसोस । talus-ले। पुष्पकाशीश । नयनौषध । कसीस । यह लोहे का गुण-मलरोधक तथा वात, सूजन और मल है । इसे आँख में लगाया करते हैं । हे. रुधिर के विकारों को दूर करती है। च० । (२) कांस्य । झाँसा । (E) काँसे का (शा० नि० भू० परि०) बना पात्र। कॅभारी-संज्ञा स्त्री० [सं० कंभार ] गमहार । कमहार । कंसपात्र-संज्ञा पु० [स.] (१) काँसे का वर्तन । गंभारी। (२) श्रादक नाम की एक तौल । इसमें ४ सेर कँवल-संज्ञा पुं० दे० 'कमल' । द्रव्य आता है। कँवल कंद-संज्ञा पु० [हिं० कँवल+कंद ] कमल को | का | कंसमाक्षिक-संज्ञा पुं० [सं० पुं] माक्षिक विशेष । जड़। कँवल-ककड़ी-संज्ञा स्त्री० [हिं० कँवल+ककड़ी] कंसहरीतकी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक आयुर्वे. दीय योग। कमल की जड़ । भसीड़ । मुरार । दशमूल के १ श्रादक क्वाथ में १०० पल गुड़ कॅवलगट्टा-संज्ञा पुं० [सं० कमल+हिं० गट्टा ] और १०० नग हरड़ डालकर पकायें । जब लेह कमल का बीज। तैयार हो जाय तब उसमें त्रिकुटा और त्रिसुगन्ध कँवल पत्र-संज्ञा पुं॰ [हिं० कँवल सं० पत्र ] ( दालचीनी, तेजपात और इलायची ) के चूर्ण कँवलबाव-संज्ञा पु० दे० "कमलवायु"। का प्रक्षेप देकर रात भर रक्खा रहने दें। फिर कँवला-संज्ञा पुं॰ [सं० कमला ] संतरा का एक | सुबह को उसमें प्राधा प्रस्थ (८ पल) शहद भेद जो उसकी अपेक्षा हीन गुण और अधिक। और १ कर्ष जवाखार मिलायें। Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंसार गुण तथा उपयोग — इसमें से प्रतिदिन १ हड़ और २ कर्ष अवलेह खाने से प्रवृद्धि शोथ, श्वास, ज्वर, अरुचि, प्रमेह, हिचकी, प्लीहा, त्रिदोषजन्य उदर रोग, पांडु, कृशता, आमवात, अम्लपित्त, विवर्णता, वायुविकार, मूत्रविकार और शुक्र दोषों का नाश होता है । २४३६ कँहान, कहा और सती । श्राजकल इस मूत्तिका का एकांत अभाव होने से परिभाषा के प्रदेशानुसार इसके बदले औषधों में पंक चर्पटी डालते हैं । कंसीय-सज्ञा पुं० सं० क्ली० ] कांस्य धातु । काँसा | च० चि० १२ श्र० । सं० की ० ] अस्थि । काँसे जैसी कँहान्, कौंहान्-संज्ञा स्त्री० [नती | कोहान से श्ररबीकृत ] एक छोटो जाति का उद्भिद् जिसके पत्तों का रंग एवं तीव्रता बतम के समान होती है । इसका तना मोटा होता है, जिससे बतम की शाखाओं के सहरा कोमल शाखाएं फूटती हैं । कंसार-संज्ञा पुं० सफ़ेद हड्डी | कंसास्थि - संज्ञा स्त्री० [सं० क्ली० ] ( १ ) काँसा । कांस्य धातु । "कसे तु कांस्यं कंसास्थि" | त्रिका० ( २ ) कंसार । कांसे जैसी सफेद हड्डी | कँसुवा-संज्ञा पु ं० [हिं० काँस ] एक कीड़ा जो ई के नए पौधों को नष्ट करता है । कंसो–[ गु० ] काँसा । कंसोद्रवा - संज्ञा स्त्री० [सं० खी० ] सोरठी मिट्टी । गोपीचंदन | सौराष्ट्रमृत्तिका । हे० च० । संस्कृत पर्य्या - श्रादकी, तुवश, काक्षी । कंसेक्या - [ ? ] स्योड़ा गाछ । मृदाह्वया, सौराष्ट्री, पार्वती, कालिका, पर्पटी नोट- ट - एक रुपया प्रवेश फीस जमा कराने अन्यों को नहीं। भारत में इसके जोड़ का उपयोगी और कहीं से भी नहीं मिल सकेगा । -व्यवस्थापकः प्रकृति - तृतीय कक्षा में उष्ण और रूक्ष । मात्रा - ३॥ मा० से १०॥ मा० तक । गुणधर्म तथा प्रयोग—इसके सूँघने से मस्तिष्क में गर्मी श्राती है । इसके पोने से शरीर में अत्यधिक ऊष्मा प्रादुर्भूत होती है । इससे श्रामाशय एवं शीतल यकृत में भी गरमी थाती है । यह पाचन शक्ति बढ़ाती है । इसमें यह एक विशेष गुण है कि इससे बिच्छू भागता है । इसके समीप नहीं फटकता । यदि इसके पसे बिच्छू पर डालें, तो वह तत्क्षण मर जाय । ( ख़० श्र० ) वालों को ही यह कोष पौने मूल्य में मिल सकता है, इतना बड़ा कोई कोष श्राजतक इतने कम दामों में Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार भर में सबसे श्रेष्ठ यदि रोग निदान की कोई पुस्तक है तो सरलरोग विज्ञान इसमें आयुर्वेदीय, यूनानी और आंग्ल ( एलोपैथी ) तीनों के निदानों का संग्रह कर शरीर के किस स्थान पर कौन रोग होता है, वहां कितने रोग होते हैं, इस प्रकार का संग्रह - शिर से पैर तक के अवयवों पर दिखाया गया हैं । यह जानने से ही आपको रोग का स्थान मालूम हो जावेगा । उस स्थान पर होने वाले रोगों का नाम और लक्षण तभी आपके सामने रहेंगे फिर कभी निदान में गलती ही न होगी, और आप यशस्वी चिकित्सक बन सकेंगे । बिना इस ग्रन्थ के आप कभी भी सच्चा रोग निदान नहीं कर सकते. न दावे से किसी रोग होने की गारंटी दे सकेंगे। जब रोग ही निश्चित नहीं तब चिकित्सा कैसे सफल होगी। एक बार देखकर ही विशेषतायें जान सकेंगे। यदि आप वैद्य हैं तो जरूर देखिये निदान ही चिकित्सा का प्रधान अंग है । ४५० पृष्ठ के ग्रंथ का दाम २) रु० अजिल्द, सजिल्द ३) रु० । मिलने का पता - मैनेजर - अनुभूत योगमाला आफिस, बरालोकपुर - इटावा (यू० पी० ) Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीहरिहर औषधालय बरालोकपुर इटावा यू० पी० के पुस्तक विभाग का सूचीपत्र इसमें अत्यन्त उपयोगी, नवीन ढंगसे लिखी हुई अनुभव पूर्ण पुस्तकें प्रकाशित कराई जाती हैं । जिनका प्रत्येकघर में रहना और आबालस्त्री पुरुष के लिये पढ़ना अत्यावश्यकीय है। इनके कई कई संस्करण होना इनकी उपयोगिता के ज्वलंत प्रमाण हैं मंगाकर देखिये | आयुर्वेदीय उच्च कोटि की सचित्र मासिक पत्रिका अनुभूत योगमाला नियम ११ - एक रुपये से कम की कोई पुस्तक बी० पी० से नहीं भेजी जाती है। कम की पुस्तकें मंगाने के लिए टिकट भेजें और रजिष्ट्री खर्च मय पोस्टेज के भेजना चाहिये । २- जो लोग अपने शहर में हमारी पुस्तकें बेचने की एजेन्सी लेना चाहेंगे तो उन्हें २५) सैकड़ा कमीशन दिया जावेगा । ३– एक रुपया प्रवेश फीस भेजने वाले स्थाई ग्राहक समझे जाते हैं, उन्हें प्रत्येक पुस्तक पौने मूल्य में दी जाती है। ४— ये इतनी उपयोगी पुस्तकें हैं कि कोईघर ऐसा न रहना चाहिये, कि जिसमें यह पुस्तकें नहीं, समय पड़ने पर एक बड़े डाक्टर का काम देंगीं, इस कारण जनता ने इन्हें खूब पसंद किया है, एक वर्ष के भीतर ही दुबारा छप चुकी हैं। ५-घर २ में प्रचार करने की हमारी इच्छा है अतः प्रत्येक गांव, कसबा और शहर में हमें अपनी पुस्तकों को बेचने के लिए एजेन्ट चाहिये, जो एजेन्ट होना चाहें पत्र व्यवहार करें। यह मासिक पत्रिका आज २० वर्ष से आयुर्वेदीय चिकित्सा का चमत्कार दिखाने और हकीम वैद्यों से निराश होगियों के रोग का हाल छपाकर भारतीय प्रसिद्ध२ वैद्यराजों की सम्मतिलेकर रोगमुक्त करने केलिये प्रगटित होती है। अनुभूतयोग एवं उत्त मोत्तम लेखों के द्वारा थोड़ा पढ़ा लिखा आदमी भी वैद्यबन जाता है, इसी कारण इसनेइतनेथोड़े समयमें ही बहुत ख्याति प्राप्ति की है, जो आजतक अन्य आयु बंदीय पत्रों ने नहीं प्राप्त कर पाई, इसके विषय में बहुत कुछ कहना अपनी तारीफ करना है, बस एक बार आजमायें अवश्य मंगाकर अवलोकन करें, वार्षिकपेशगी मू० मनीआर्डर से ४) बी० पी० मंगाने पर ४ | = ) देना होगा, नमूना मुफ़्त मंगाकर देखें | निवेदक- मैनेजर Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] मिलने का पता-श्रीहरिहर औषधालय, बरालोकपुर-इटावा यू० पी०। १-राजयक्ष्मा नि० भा. वैद्य सम्मेलन पटना से रौप्य पदक प्राप्त राजयक्ष्मा, (तपेदिक ) जीर्णज्वर, क्षय, थाई ३-मधुमेह सिस, कंझपसन्. टूयवर्क यूलिानम् आदि नामों से मधुमेह (डायावटीज ) का विस्तृत औरखोज सभी परिचय रखते हैं। यह कैसे साधारण आहार | पूर्ण विवेचन वैद्य संसार के प्रसिद्ध स्वर्गीय पं० विहारों की अवहेलना का फल मात्र है। जिसके | परशुरामजीशास्त्री का अद्भुत और ज्ञातव्यविषयों कारण को हम समझने के लिये अबभी तैयारनहीं | से ओत प्रोत निबन्ध है । वैद्यजन इसके कारणों से होते, कितने दुःख की बात है। विद्वानों का कहना कितने अनभिज्ञ है। इसी कारण से वह इसकी है, कि जितने मनुष्य अन्य समस्त रोगों के कारण चिकित्सा में सफल नहीं होते, यह समझाते हुये मरते हैं । उससे कुछ अधिक मनुष्य इस दुष्ट रोग लाक्षणिक चिकित्सा का कैसा सुन्दर चित्रण किया से पीडित होकर मरते हैं। इसलिये यह निबंध | है। जिसे देखते ही लेखक के लिये अपने आप लिखवाने का आर्डर २१ - ग्यालियर सम्मेलन की ही वाह-वाह कह उठेंगे पुस्तक प्रत्येक वैद्यके देखने स्वागत कारिणी ने किया था। उसपर २० वर्ष के चाय । मू०) ४-स्नान चिकित्सा अनुभव पूर्ण खोज से ओत प्रोत वैदिक काल से | पुस्तक क्या है ? गागर में सागर की कहावत लेकर अबतककेइतिहास और चिकित्सा सेपरिपूर्ण को लेखक ने चरितार्थ कर दिया है। इस ग्रन्थ को आयुर्वेदोद्धारक प्रशस्त यशस्वीलेखक ___ जरा पुस्तक की सूची पर तो ध्यान दीजिये विद्वान वैद्य चिकित्सक चूणामणि पं० विश्वेश्वर- इसमें पांचभौतिक चिकित्सा, जलस्नान, मृतस्नान दयाल जी वैद्यराज सम्पादक"अनुभूत योगमाला' । वायुस्नान, ज्योतिस्नान, सूर्यस्नान, अर्थात् समस्त ने लिखा था । जो समस्त आगत निबन्धों में से स्नानों द्वारा शिर की चोटी से पैर की एड़ी तक के प्रथम श्रेणी का चुना गया और इस पर एक समस्त रोगों पर ऐसे २ सरल और अनुभूत उपाय स्वर्णपदक दिया गया इसीलिये यह लागत मात्र स्नानों द्वारा लिखे गये हैं कि जिसे पढ़कर साधामू०) में दिया जाता है। यह इसका दूसरा रण व्यक्ति भी लाभ उठा सकता है। साल में संस्करण है। सैकड़ों हजारों रुपये वैद्यों हकीमों और डाक्टरों नि० भा० २२ वे वैद्य सम्मेलन बीकानेर के लिये लिखी गई . आदि की जेबों में चले जाते हैं। यदि इससे बच२–यकृत प्लीहा के रोग | कर स्वयं घर बैठे लाभ और ख्याति पैदा करना यह पुस्तक भी अपने ढंग की अपूर्व वस्तु है, | चाहते हो तो आज ही मंगवाइये मू०) आना यकृत सीहा क्या वस्तु है। इसका स्थान कहां है। ५-प्लीहा रोग चिकित्सा - किनकिन कारणोंसे बढ़कर कौन २ रोग पैदा होतेहैं। यह पुस्तक अपने ढंग की बड़ी ही अनोखी उसकी क्या चिकित्साएँ हैं। यूनानी. ऐलोपैथी है यह कहने की आवश्यकता नहीं कि यह कितना आयुर्वेदीय निदानों का मतभेद कर मार्मिक तुलना- भयंकर और दुखदाई रोग है इसका अनुभव उन्हीं त्मक विवेचन जो आजतक अन्यत्र कहीं भीदेखने को न मिलेगा वह इसी में मिलेगा, पुस्तक पढ़ने | को होगा जो इस दुष्ट रोग के निन्यानवे के पर आप लेखक के लिये बाह वाह किये बिना चक्कर में जीते जी नरक यातना का दुःख भोग कर नहीं रह सकते । अवश्यमेव प्रत्येकको देखकरलाभ रहे हैं इस पुस्तक में ऐसे २ सिद्ध प्रयोग लिखे उठाना चाहिये । गृहस्थों के सिवा वैद्यों के बड़े गये हैं। जो सैकड़ों बार के अनुभूत हैं। पुस्तक काम की वस्तु है । मू० केवल ।) का मूल्य केवल ।) ही है। Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलने का पता - श्रीहरिहर औषधालय, बरालोकपुर - इटावा यू० पी० । १० - सिद्धौषधिप्रकाश ६- श्वास रोग चिकित्सा लोग कहते हैं कि दमा दम के साथ जाता है, यह उनकी बड़ी भूल है । वर्तमान समय में यह दुष्ट रोग ऐसा फैल रहा है कि दांतों तले अंगुली दबानी पड़ती है । इस पुस्तक में श्वास (दमा) सम्पूर्ण लक्षण तथा उनके रूप आदि का सविस्तार से वर्णन हैं, प्रयोग ऐसे ऐसे उत्तम दिये गये हैं जो कि सेन्ट परसेन्ट सफल हैं, जिनको हरएक आसानी से बना सकता है । ऐसी अनोखी पुस्तक की कीमत केवल 1) मात्र है । आर्डरों की भरमार ? सारी प्रतियां समाप्त हो चली हैं। इसीलिये तो कहते हैं कि आज ही एक कार्ड डालकर मंगा लीजिये । इस पुस्तक में सर से लेकर पैर तक के सम्पूर्ण रोगों के कारण निदान तथा उनकी चिकित्सा बड़े सरल ढङ्ग के साथ सुलझाई गई है। पुस्तक में सैकड़ों प्रयोग हैं। जो अनुभूत योग हैं। ऐसी पुस्तक का मूल्य केवल १11) मात्र है । ७- अर्श रोग चिकित्सा अपने ढंग की यह एक ही पुस्तक है। इसमें बबासीर रोग की उत्पत्ति मय कारणों के एवं स्वरूप समेत भली भांति सरल भाषा में दर्शाई गई है प्रयोग बड़े ही उत्तम और अनुभूत हैं, मू० केवल II) ८ - स्त्री रोग चिकित्सा स्त्री जाति कितनी कोमल पुष्प है, यदि इसमें असमय ही में तुषार पड़ जाय तो इसमें किसका दोष है । इस पुस्तक में स्त्रियों के रोग कैसे दूर हो सकते हैं। श्वेतप्रदर, रक्तप्रदर, मासिक धर्म आदि की पूर्ण खराबियोंका सम्पूर्ण विधान तथा चिकित्सा वर्णित हैं, हम चाहते हैं कि यह पुस्तक प्रत्येक गृहस्थ के हाथ में हो ताकि वह अपना जीवन श्रानन्द मय बना सकें । पुस्तकका मू० भी केवल |) ही है । ९ - व्रणोपचार पद्धति इस पुस्तक में समस्त प्रकार के घावों का इलाज है । जैसे बिद्रधि, जहरवाद, नहरुवा, अग्नि से जलना, चोट लगने का घाव, गलगड, गंडमाला, भगंदर, ग्रंथि, अर्बुद, पामारोग आदि आदि रोगों की सरल चिकित्सा लिखी है । पुस्तक का द्वितीय संस्करण छप गया है। मू०] केवल 12 ) है | [ ३ ] ११ – वैद्यक शब्दकोष अकारादिक्रम से संस्कृत औषधियों के नाम हिंदी भाषा में लिखे गये हैं । पुस्तक बड़ीही अच्छी और उपयोगी है। प्रत्येक वैद्य पास रहनी चाहिये । मू केवल ।) 1 १२ - हरिधारित ग्रन्थरत्न पुस्तक क्या है गागर में सागर वाली कहावत को लेखक ने चरितार्थ कर दिया है । सम्पूर्ण रोगों की बड़ी अच्छी विवेचना की गई है। पुस्तक प्राचीन और अनुभव पूर्ण सुन्दर भाषा टीका में बर्णित है | मू० केवल 1 ) १३ - भारतीय रसायनशास्त्र इस पुस्तक में सोना चांदी आदि २ बनाने की अपने शास्त्रों में प्रतिपादित सभी विधियों का संग्रह है । प्रत्येक वैद्य को इससे अवश्य ही लाभ उठाना चाहिये। पुस्तक बड़ी ही अच्छी है मू० ॥ १४ - औषधि - विज्ञान दो भाग यह पुस्तक आयुर्वेद के विद्यार्थियों एवं वैद्यों के लिये अत्यन्त उपयोगी है। इस पुस्तक में षधि निर्माण संबन्धी प्रक्रियायें चिकित्सा संबंधी प्रक्रियायें औषधियों के भिन्न २ वर्ग और उनके गुणधर्म प्रभाव इत्यादि एवं दीपक, रेचक, प्राही शीत तथा पित्त हर द्रव्यों का पूरा पूरा स्पष्ट दिग्दर्शन कराया गया है । अमुक रोग में अमुक औषधि एवं उसका पूरा २ विधान आदि सविस्तार से वर्णित है । पुस्तक अत्यन्त उपयोगी है । मू० १) द्वितीय भाग मू०|) Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४] मिलने का पता-श्री हरिहर औषधालय, बरालोकपुर-इटावा यू. पी० । १५-१६-औषधि गुणधर्म विवेचन २०-अंड तथा अन्त्रबृद्धि चिकित्सा' इस पुस्तक की उपादेयता के विषय में कहना प्रस्तुत पुस्तक का विषय नाम से ही प्रकट है ही वृथा है। इस पुस्तकमें समस्त धातुज औषधियों और सहज ही में अनुमान लगाया जा सकता है के विषय को लेखक ने भली भांति दर्शाया है, कि कि इस रोग के रोगियों को जीवन कितना नीरस आजकल प्रायः सभी वैद्यजन अंध परम्पराछन्न हो और फीका मालूम होता है। यही सोचकर यह चिकित्सा कर रहे हैं। रोगों के कारणों का पता पुस्तक प्रकाशित की गई है । पुस्तक में सविस्तार तथा उनकी उत्पत्ति कहां २ और कौन २ से बिगाड़ | रोगों का पूर्ण हाल तथा मय निदान के चिकित्सा होने से वह वेदना पैदा हुई तथा अमुक स्थान को लिखी गई है। मू.) मात्र । विकृति किस दवा से ठीक होगी, आदि २के सुन्दर सरल भाषामें वर्णन है। इसका प्रत्येक वैद्य के पास २१-२२-सिद्ध प्रयोग( दो भाग) रहना नितान्त आवश्यक है । मू० प्रथम भाग।) __ ग्राहकों एवं अनुग्राहकों की उत्कट अभिलाषा द्वितीय भाग का।) है। एवं पत्र पर पत्र आने के कारण इस पुस्तक में १७-चिकित्सक व्यवहार विज्ञान । वही शतशोऽनुभूत प्रयोग प्रकाशित किये गये हैं जो प्राय: ऐसा देखा गया है कि बड़े बड़े सुयोग्य | 'माला' में निकले थे जिनकी परीक्षा हो चुकी थी वैद्य भी चिकित्सा संबंधी व्यवहार नजाननेके कारण | | श्लोक वद्ध मणियों के रूप में भाषा टीका सहित रोगी को जीवनलीला से बिदा कर अनेकों कलंकों की गई है। बहुत थोड़ी प्रतियां शेष हैं मू० प्रथम के भागी होते हैं। इसी कारण हमने सर्व साधारण भाग का १) द्वितीय भाग का ॥) मात्र है। के लाभार्थ इसे प्रकाशित किया है। वैद्य वन्धुओं २३-विन्ध्यमहात्म्य को इससे लाभ उठाना चाहिये। मू० केवल ___ इसमें विध्यवासिनी देवी की उत्पत्ति, महिमा, 1) मात्र। । कार्य कुशलता, साक्षात्, दर्शन के उपाय विन्ध्य१८.१९-पेटेंटऔषधे और भारतवर्ष | क्षेत्र की. उत्कृष्ठता, महापापों के नाश के उपाय (प्रथम भाग व द्वितीय भाग) आदि २ सुन्दर भाषा टीका में वर्णित हैं। पुस्तक पुस्तक के नाम से ही स्पष्ट है कि पुस्तक कैसी देखते ही बनती है । मू० ३३६ पृष्ठ के पोथे का है प्रथम भाग तथा द्वितीय भाग में भारतवर्ष की का केवल १॥) मात्र । सभी पेटेन्ट औषधियों का भंडाफोड़ किया गया है, रोगन बिजली, अमृतांजन, नमक सुलेमानी, अपूर्व २४-कोकसार ताकत की दवा, बालामृत आदि २ सभी प्रसिद्ध २ | यह पुस्तक प्राचीन हस्तलिखित पुस्तक के पेटेन्ट औषधियों के बनाने की विधियां समझाई | आधार पर लिखी गई है। इसकी सानी का आज गई हैं। पेटेन्ट कर्ता एक आने की चीज़ के १) तक कोई भी कोकसार नहीं निकला इसमें ८४ लेते हैं और मनमाना दाम ऐंठकर लखपती हो आसन, स्रो वशीकरण, स्तम्भन, इंद्रीवर्धक, योनि गये। यदि आप भी लाभ उठाना चाहते हैं तो संकोचन एवं मंत्र तंत्र लिखे गये हैं प्रयोग अनुभूत आज ही एक कार्ड डालकर मंगा देखिये। मू० लिखे गये हैं। पुस्तक की लेखनशैली बड़ी ही प्रथम भाग का ॥) द्वितीय भाग का मू. १) है। रोचक पद्यमय है । मू० लागत मात्र ॥) Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलने का पता - श्री हरिहर औषधालय, बरालो कपुर - इटावा यू० पी० । [५] २९ - सरलरोग - विज्ञान निदान जैसे उपयोगी विषय को सर्वाङ्गपूर्ण सरलता से समझाने बाली अपूर्व पुस्तक है। यूनानी आंग्ल एवं आयुर्वेदीय सभी पद्धतियों को एक साथ मिलाकर ऐसा उपयोगी बना दिया गया है कि साधारण से साधारण की समझ में निदान आ जाय और कोई नवीन रोग शेष न रहे कि जिसका निदान इसमें न हो । पुस्तक प्रत्येक वैद्य एवं आयुर्वेद प्रेमी के देखने योग्य है कोष साइज के ४५० पृष्ठ की पुस्तक का दाम ३) सजिल्द 311 ) ३० - एक दिन में ज्योतिषी प्रत्येक मनुष्य अपने भाग्य का हाल जानने के लिये उत्सुक रहता है। बड़ी खोज के साथ ज्योतिष शास्त्र का सार लेकर उदाहरण के रूप में समझाया गया है ताकि सभी साधारण जन लाभ उठा सके। प्रत्येक के लिये बड़ी उपयोगी पुस्तक है । मू०|) ३१ - एक दिन में कवी • २५, २६ - शिफाउल अमराज ) इस पुस्तक में यूनानी साहित्य का सारानिचोड़ भर दिया गया है। यूनानियों ने हमारे साहित्य का निचोड़ लेकर अपनी भाषा में भरकर अपने साहित्य को सर्वाङ्ग पूर्ण बना लिया और अपना यह दोष ( कि हमने किसी के यहां से कुछ लिया या नहीं मिटाने के लिये जिन-जिन ग्रन्थों से विषय लिया था उनका नामोनिशान सदा के लिये मिटा दिया ऐसी दशा में अब जरूरत है कि हम अपना साहित्य पूर्ण कर सर्वज्ञ बने तो इधर उधर की साहित्य से संग्रह करना पड़ेगा, जब आप इसको एक बार पढ़ेंगे तो आपको आश्चर्य होगा, कि हम वास्तविक भूल से अन्य साहित्य का देखना पाप समझते थे। इससे हमें बहुत कुछ शिक्षा प्राप्त हो सकती है, आयुर्वेद के मर्मज्ञ बनने की इच्छा प्राप्तहो तो इस ग्रन्थ का अध्ययन अनिवार्य होगा, आप निदान और लाजबाब योंगों को देख बाग-बाग हो उठेंगे । मू० प्रथम भाग का १) द्वितीयभाग का ? ॥ ) २७ - दीर्घजीवन 'माला' सम्पादक द्वारा लिखित, हजारों प्रशंसा पत्र प्राप्त, अपने ढंग की निराली पुस्तक है। गृहस्थ जीवन की ऐसी पुस्तक आज तक नहीं निकली प्रातः से सायं तक के कर्तव्य वर्णित हैं । १०१ विषयों का समावेश किया गया है । मू० ॥ ) २८ - कर्तव्य शिक्षण ( हिन्दू लाँ ) राजा प्रजा, पति-पत्नी, भाई-बहिन, स्वामीसेवक, माता-पिता का पुत्र के प्रति तथा पुत्र का माता-पिता के प्रति कर्तत्रयों का विशद् वर्णन है । अपने २ कर्तव्यों का पालन करने में कैसे सुख शांति प्राप्त हो सकती है, इस समय क्रांति क्यों मची है कैसे दूर की जा सकती है, पढ़कर शांति स्थापन करने में सहायक बनिये और स्वतः शांति स्थापित कीजिये, अपने विषय की पहली पुस्तक है जो प्रत्येक मनुष्य कहलाने वाले के लिये पठनीय है । मू०॥ प्रत्येक जन कविता करने की इच्छा करता है कौन छन्द कितने अक्षरों से कितने गुरु लघु से बनता है इसमें नकशा द्वारा बताया गया है । देखते ही छंद बनाना आजाता है । मूल्य केवल मात्र ३२ - आयुर्वेदीय विश्वकोष प्रथम भाग निघण्टु विषय का सबसे अधिक विस्तृतनबीन और प्राचीन सभी यूनानी आंग्ल आयुर्वेदीय खोजों से पूर्ण ग्रन्थ है संसार में एक दम नवीन और वहुत उपयोगी है। ऐसा ग्रन्थ न अबतक था और न होगा ६५० पृष्ठ के प्रन्थ का दाम सजिल्द ६) अजिल्द ५ ) रु० शब्द संख्या १०२५० सहित । द्वितीय भाग का सजिल्द ६ ) और अजिल्द ५11) तृतीय भाग का ६) और ५1 ) रु० है । तीनों भागों की पृष्ठ संख्या २४३६ है । 'अ' से 'क' तक का वर्णन है । शेष भाग शीघ्र ही छप रहे हैं। आप भी १) भेज, स्थाई ग्राहक बनिये । • Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६] मिलने का पता - श्रीहरिहर औषधालय, बरालोकपुर-इटावा यू० पी० । ३३- करावादीन कादरी आयुर्वेद में जिस प्रकार भैष०-रत्नावली, भैष, रत्नाकर आदि में भेषज संग्रह है, उसी प्रकार यह करावादीन कादरी यूनानी चिकित्सा में व्यहृत होनेवाली विविध प्रकार की औषधियों के संग्रह से परिपूर्ण हैं। जहां आयुर्वेदीय औषधियां कड़वी कली होने के कारण पुराने या सुकुमार प्रकृति के लोग खाने में हीला हवाला करते हैं। वहां यह सुस्वादु दवायें खाने को लालायित रहते हैं। सुकुमार प्रकृति के नवाबों के लिये ही इस चिकित्सा का जन्म हुआ था। इसमें बड़े २ चमत्कारिक योगों का वर्णन आया है । जो वैद्यों के नाम यश एवं द्रव्य पैदा कराने में कमाल का काम देता है । दूसरे इसके योग बड़े लाभदायक होते हैं । यह पुस्तक चार भागों में प्रकाशित हुई है। प्रथम भाग का १), द्वितीय भाग का १ ), तीसरा भाग का १), भागका १) है। I ३४ - करावादीन शफाई यूनानी के प्रसिद्ध २ योगों का अकारादि क्रम संग्रह है। यूनानी हिकमत में इसका श्रेष्ठ स्थान है। मू० १) ३५ - मखज़न उल मुफ़रदात ( निघण्टु बिज्ञान ) यह यूनानी का निघण्टु है । इसमें ६५० औषधियों के गुणधर्म और हकीमों के अनुभव हैं, वैद्यों के बड़े काम की चीज़ है । मू० २) ३६ - अर्धी फार्सीका कोष यूनानी चिकित्सा में औषधियों के नाम चर्बी एवं फार्सी में होने के कारण चिकित्सकों को बड़ी उत्साह भंग हो जाता था और वह इसी कारण यूनानी चिकित्सा से नाक भौं सिकोड़ा करते थे । उन्हें क्या पता कि वादियान सौंफ को और समग गोंद को कहते हैं इसलिये कोष की रचना की गई है, अब आप इसके सहारे यूनानी चिकित्सा का तौल, परिभाषायें, भस्म एवं शोधन आदि का भी भी रसास्वादन सहज में कर सकेंगे। इसमें यूनानी खूब खुलासा वर्णन शामिल है । मू० = ) ० है । ३७ - प्रत्यंगिरा सुविधा थी, वह बिचारे घर में रक्खी हुई वस्तु को न जानकर पंसारियों के पास दौड़ लगाते थे । देशी पंसारी भी उन्हें नहीं जानते थे, अतः उनका ब्राह्मणों का वही गुप्तप्राय शस्त्र है, जिसके बल से ब्राह्मणों की सत्ता संसार मानता था, ब्राह्मणों के देखने योग्य है । मू० ।) ३८ - दत्तात्रय तन्त्र तत्रग्रन्थों में दत्तात्रयतन्त्र का बहुत उत्तम स्थान है, गृहस्थियों के काम के योग्य प्रायः सभी यन्त्र, मन्त्र, तंत्र, इसमें हैं, बिना इसके पूर्ण शान्ति गृह में नहीं रह सकती, सरल भाषा टीका सहित का मू०|) आना है । ३९ - कुञ्जिकास्तोत्रम् सप्तशती ( दुर्गापाठ) के महत्व को सभी जानते हैं, वह क्यों सफल नहीं होती, उसका कारण मय विधि विधान के दिया गया है, देवी उपासकों के लिये अमूल्यनिधि है । मू० 1) ४० - वगला विधानम् कितना सिद्ध उपाय है, यह बात सभी जानते हैं, परन्तु विधान न जानने से लोग नराश्रित हो जाते हैं, यदि आप अपनी इच्छापूर्ति करना चाहते हों, तो इसे अवश्य पढ़ें । मू० 1) ४१ - गायत्री पुरश्चरणम् गायत्री सफल होने की अभूतपूर्व विधियों के सहित बहुत उपयोगी ग्रन्थ है । मू० 1) Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलने का पता — श्रीहरिहर औषधालय, बरालोकपुर-इटावा यू० पी० । ४२ - सांख्य तत्व कौमुदी सांख्य शास्त्रको समझाने के लिये सांख्य तत्व ही एक विशिष्ट ग्रंथ माना जाता है. संस्कृत के विद्यार्थी और साधारण हिन्दी भाषा भाषी इसके महोपकारी लाभ से अभी तक बञ्चित ही थे उन्हीं के हितार्थ इस अलौकिक ग्रंथ की सरल-सुबोध हिंदी टीका भी संस्कृत टीका के साथ प्रकाशित कर दी गई है। इसमें मूल, संस्कृत टीका वाचस्पति मिश्र कृत और नीचे विस्तृत हिन्दी टीका दी गई | है। अतः सभी श्रेणीके लोगों के लिये बहुत उपयोगी कीमत केवल १||) मात्र | मन बहलाव के लिये इन्दुमती - दिखाने वाला है। कीमत ) بعد धातु सम्बन्धी सारे विकारों का विशद् रूप से विश्लेषण है। उनका मारण, शोधन आदि सुन्दर सुखावाई व सुखिया मालिन - भक्तिप्रेम तथा मुहावरेदार हिन्दी में वर्णित है | आज हीएक कार्ड डाल दीजिये नहीं तो “चिड़ियां चुग गई खेत पुनि का पछताये होत है" । म० १) उपदेशांक की पराकाष्ठा है । की०) हंसडिंभ - प्रेम करुणा का जीता जागता फिल्म है । की० 1) द्रोपदी -- धर्म द्वेषियों को शिक्षाप्रद है । - दाम्पत्य प्रेम की अलौकिकता 1) सां० नरसीभक्त - भगवान भक्तों की रक्षा कैसे करते हैं। की० ।) नरसीभक्त- - यह हारमोनियम पर गाकर घर भर को सुखी बनाने का साधन है और कथा वाचकों के लिये प्रत्युपयोगी है । की० 1 ) पूरा सेट ५ पुस्तकों का एक साथ लेने पर १) रु० में दिया जा सकेगा । अनुभूत योगमाला के विशेषांक बाजीकरणांक [ ७ ] के बताये रतिरहस्यका सुन्दर विशद् वर्णन जिसका जानना जरूरी है । इस लिये कि इसमें अनुभूत तथा चिकित्सा आदि भी सम्मिलित हैं । मू० १) मात्र । संग्रहणी अङ्क यह बताना बिल्कुल ही आवश्यक है कि इसमें क्या है | जब देखो तब लोटा लिये पाखाने पर बैठे हैं। क्या बुरा मालूम होता है । अजीब किस्म की दिन भर कसरत करनी पड़ती है । जो इसके १७॥ के फेर में पड़ा, बस उसका मरण होता है । इस अंक में शतशोऽनुभूत प्रयोग और उपचार आदि सभी वर्णन किये गये हैं । बहुत थोड़ी प्रतियां शेष हैं, शीघ्रता कीजिये । म० ॥ धात्वंक अहा ! क्या यही कि बाजीकरण पढ़िये? जानते हैं; इसमें क्या है वही कोका प्रणीत कोकशास्त्र आदि नवयुवकों की असंमयशीलता तथा असाव धानी का इतना भीषण परिणाम निकला है । कि आज घर २ इसका प्रचार हो रहा है, उसी के नाश करने के सुगम उपाय एवम् चिकित्सा इसमें वर्णित है। हम चाहते हैं कि इस अंक का प्रचार घर २ हो । ११ चित्रों के सहित इस अपूर्व संग्रह का दाम सिर्फ १) मात्र है । नव्यरोगांक दूसरा भाग भारतवर्ष में कौन २ नवीन रोगों ने आकर अपना आतंक जमाया है और जिनका प्रवेश आयु र्वेद में नहीं है । इस कारण निदान एवं चिकित्सा वैद्यों को विमुख होना पड़ता है। इसलिए वैद्यों के उपकारार्थ बड़ी खोज के साथ इसको प्रकाशित किया है। इसको मंगाकर अवश्य देखें । कीमत द्वितीय भाग || ) है । Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [+] मिलने का पता-श्री हरिहर औषधालय, बरालोव पुर-इटावा यू० पी०। सन्निपातांक | परीक्षा विधि जैसे वस्तिशोथ, वस्तिव्रण, वस्तिकंडू, निदान स्थान में वर्णित है कि जिस वैद्य ने मूत्र संचय, वस्तिशूल, वस्ति टल जाना, वस्ति सन्निपात ग्रस्त रोगीको स्वस्थ्य कर दिया वह कौन आध्मान, वस्ति अश्मरी, मूत्र दाह, स्तम्भ, मूत्रसे पुण्य का भागी नहीं। आजकल के वैद्य गण | ज ग ण कृच्छ, बेखबरी में मूत्र त्याग, मंड-मूत्र, मूत्र में इस रोग में प्रायः कम सफल होते हैं। यह अंक | रक्त, वस्ति दर्द, बहुमूत्र इत्यादि की चिकित्सा विधि भारत के प्रसिद्ध 2 वैद्यराजोंकी अनुभवी चिकित्सा | पूर्वक लिखी गई है। कीमत 1) के द्वारा आविष्कृत किया गया ह / निदान और हृदय रोगांक चिकित्सा का अत्युत्तम समावेश किया गया है। हृदय सम्बन्धी समस्त रोगों के निदान मय लक्षण भारत आश्रयीभूत वैद्यों से हमें पूर्ण आशा है कि और सुन्दर रंगीन चित्रोंके सहित समझाया गया इस अंक का आश्रय लेकर अवश्यमेव दुखियों का है। अंक बड़ाही मनोहर है, आजतक ऐसा सुन्दर दुःख दूर करने में दत्तचित्त होकर यश को प्राप्त और वृहत् विशेषांक नहीं निकला है / कीमत) करेंगे। मू०) कुष्ठांक फुफ्फुस रोगांक यह नाम भी घृणित है। यह मर्ज है जिसे विशेषांक क्या है, अपने ढंग का निराला मसीह भी अच्छा नहीं कर सकता, लेकिन भाज निकला है, फुफ्फुस सम्बन्धी सभी विषयों का पूर्ण झूठा हो गया, इसे पढ़िये और साथ 2 सौंदर्य की विवेचन मय निदान के किया गया है। साथ ही भी रक्षा कीजिये। मू.॥) फेफड़े के एक्सरे द्वारा लिये गये चित्र भी प्रकाशित शिरोरोगाङ्क है। कीमत 2) शीशी, आधीशीशी सभी प्रकार के शिरोरोगों बूटी निर्णयांक की चिकित्सा का कारण, निदानादि वर्णित है। ___अप्रचलित जड़ी बूटियों के गुण और पहचान सुन्दर सरस सचित्र की कीमत / ) का विशद वर्णन है। कीमत 1) वातव्याध्यक त्रिधातु सर्वस्व बातव्याधि जैसी सर्वशरीर व्यापी चिरस्थाई वात, पित्त, कफ का शरीर में स्थान और पहदुखदाई रोग की सफल सुलभ चिकित्साओं का चान आदि के अभूतपूर्व महत्व इसमें ही पढ़ने को वर्णन इसमेंहै / मू० // ) / | मिलेंगे। कीकत 2) / रनायु रोगाङ्क मानसिक रोगांक शरीर में स्नायु क्या है ? इसके प्रतिघात से | मन क्या है ? उसके रोग कौन 2 हैं ? उनका कौन 2 रोग होते हैं / बह कैसे दूर किये जा सकते इलाज क्या है ? इसे पढ़कर लाभ उठाइये / कीमत हैं। वैद्यों एवं गृहस्थियों के लिये खास जानने का 2) रु.। . विषय है। कीमत 2) सर्पा वस्तिरोगांक पूर्वार्द्ध सों की जाति, उनके दंश के लक्षण और यह अंक अपने ढङ्ग का निराला है, इसमें उनकी चिकित्सा तथा सों की उपयोगिता पढ़ वस्ति में होने वाले सम्पूर्ण रोग साथ ही संक्षिप्त | लाभ उठाइये / कीमत 2) रु.