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________________ कन्दप्रन्थि कन्दरोग । कन्द प्रन्थि-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.]() पिंडालु | कन्दफला-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (१) छोटा . नामक कंद शाक । पिंडालू । सुथनी। पेडार । करेला । करेलो। तुद्र कारवेल्लक । (२) भूई रा०नि० व०७१ (२) श्वेत राजालुक । कोहड़ा। पाताल कोहड़ा। विदारी। रा०नि० वै० निघ० । व०७॥ कन्दज-वि० [सं०नि०] कन्द की जड़ से उत्पन्न । कन्दबहुला-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] तिलकन्द । लहसुन । त्रिपर्णी नामक कन्द । अमलोलवा । गवालिया कन्दजबिष-संज्ञा पु० [सं० की. ] वह विष जो | लता । रा०नि०व०७। औषध मूल में होता है । कंदजात बिष। कन्द कन्दमूल-संज्ञा पुं० सं० की ] (१) मूली। नैपाल का जहर, जैसे-सींगिया, कनेर इत्यादि । श्रायुः ___ की तराई में बहुत बड़ी मूली होती है । मूलक । वेद में यह आठ प्रकार का होता है । जैसे, शक्रुक रा०नि० व० ७ । (२) दे० "कन्दमूल" । मुस्तक, कौi, दर्बीक, सर्षप, सैकत, वत्सनाभ, कन्दर-संज्ञा पु० [सं० पु.] [स्त्री० कन्दरा (1) और शृङ्गी । औषध में व्यवहार करने से पूर्व श्वेत खदिर। (२) एक प्रकार का चुद्र रोग। इनकी शुद्धि का विधान है। विना शुद्धि के इनका | दे० "कदर"। प्रयोग शास्त्र वर्जित है। अस्तु इनमें से प्रत्येक ___ संज्ञा पु[सं० क्लो०] (१) श्रादी । श्रदबिष की शुद्धि का प्रकार उन-उन बिषों के वर्णन रक । (२) सोंठ । शुठी । रा० नि० व०६ । क्रम में दिया गयाहै । वहाँ देखें । इनकी साधारण (३) गुफा । गुहा । (४) श्रोल । ज़मीकन्द। शुद्धि इस प्रकार होती है। सर्व प्रथम कंद के छोटे (५) अंकुर । कल्ला । (६) गाजर। छोटे टुकड़े कर किसी बर्तन में रखकर ऊपर से कन्दरा-संज्ञा पुं० [सं० स्त्री.] कन्दर । गुहा दर्रा । इतना गोमूत्र डालें, जिसमें वे डूब जायँ। इसी बिल । ग़हर । देव खात । गुफा । प्रकार तीन दिन तक बराबर ताज़ा गोमूत्र डाल कन्दराल-कन्दरालक-संज्ञा पुं० [सं० ०। (१) . डालकर धूप में सुखालें । बस शुद्ध होगया। यह पाकर का पेड़ । पक्ष वृक्ष । (२)पारिस पीपल । बिष प्रयोगों में भाग के मान से पड़ता है। गई भाण्ड वृक्ष । गंधीभाट | गजहंद। (३) कन्दट-संज्ञा पुं॰ [सं० क्री०] शुक्लोत्पल । सफेद अखरोट का पेड़। कुमुद । कूई। नीलोफर । श० र०। कन्दरूल-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कटु शूरण । कड् श्रा कन्द तृण-संज्ञा पुं० [सं० वी० ] एक प्रकार की | ज़मीकन्द । वै० निघ। .. घास । गुंठ तृण । वै० निघ० । कन्दरोग-संज्ञा पुं० [सं० पुं०] एक प्रकार का योनि कन्द नालका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] गोभी नाम रोग जो वातादि दोष भेद से चार प्रकार का होता की घास । गोजिह्वा । गोजिया । वै० निघ। है। कन्द । योनिकंद । Prolapsus Uteri कन्दनीचक-संज्ञा स्त्री० [सं०] रुद्रवन्ती। निदान तथा लक्षण-दिन में सोने, अति कन्दपञ्चक-संज्ञा पुं० [सं० की.] तैलकंद, अहि क्रोध, व्यायाम तथा अति मैथुन से एवं नख, दंत नेत्रकन्द, सुकंद, क्रोडकंद (वाराहीकंद) और और कंटक श्रादि के क्षत से कुपित हये वातादिक रुदंतीकंद इन पाँच ओषधि-कंदों का समूह । दोष पूयरक मिलित रंग की बडहर की प्राकृति की गुण-ये पाँचो प्रकार के कंद ताँबा इत्यादि जो छोटी गाँठ उत्पन्न करते हैं, उसे योनिकंद कहते धातुओं को मारण करनेवाले हैं और सब प्रकार के हैं। इनमें से वह जो रूखा, विवर्ण और फटा सा रोगों को हरण करनेवाले हैं । वै० निघ०। होता है, वह वातिक, और जो दाह; राग और ज्वर कन्दपत्र-संज्ञा पु० [सं० पु.] महातालीश पत्र । युक्त होता है वह पैत्तिक होताहै। और जो योनिकंद वै० निघं। तालीस पत्र। के० दे० निः। नील आदि फूलों के रंग का खुजली युक्र होता है नि.शि.। वह श्लैष्मिक होता है। जिस योनिकन्द में उक्त कन्द-फल-संज्ञा पुं॰ [सं० की.] कंकोल । तीनों दोषों के चिन्ह मिले हुये होते है. वह समि
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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