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२०७.
कन्द गुडूची
पं० । करिंदू, करुंजरी-ता० । नलपुई-ते। जिसमें बतौरी की तरह गांठ बाहर निकल पाती कांथार (कच्छी)कांतर कना।
है। योनिकन्द । दे. "कन्दरोग" । (३) उतगुण, प्रयोग-कटु तिकोष्णा वातकफघ्नी, रन । इन्दीवरा । रा. नि. व. २३ । (४) शोथघ्नी दीपनो रुचिकारी रकग्रंथिरुजानी ज्वरघ्नी लाल मूली। रक्कमूलक । (५) जिपीकन्द । च । रा०नि० व० ८ । अर्थात् कंथारो कड़वी, सूरन । श्रोल । रा०नि० । र० सा० सं०सि० चरपरी, गरम, वात कफनाशक, शोथनाशक,दीपन यो । बाहुशाल गुड़ । च० द० अ० पि. चि० रुचिकारी, रकविकार, ग्रंथिरोग और ज्वर- अभ्रशुद्धिः । (६) एक प्रकार का विष । (७) नाशक है।
ऋद्धि नामक औषध । (८) कासालुक । काँकंथारी दीपनीरुच्या कटूष्णा तिक्तकामता । सालू । (६) मेघ । वादल । (१०) एक रक्तदोषं कफ वातं ग्रन्थिरोगं च नाशयेत् ॥ प्रकार का श्वेत श्लक्ष्ण वहुपुट -कंदे बिशेष । स्नायुगेगं च शोफ च नाशयेदिति कीर्तिता।
लोग इसे सर्पच्छत्रक (साँप का छाता) कहते हैं (नि०२०)
उ. सु० सू० ३६ भ. पित्त शमन । (११) अर्थात्-कंथारी अग्निप्रदीपक, रुचिकारक, चर
हस्तिकन्द । सफेद बड़ो मूली । वे० निघ० अलस परी, गरम और कड़वी है तथा रुधिर विकार, कफ
चि । हस्ति कर्ण योग । (१२) शालूक, शल वात, प्रथि रोग, स्नायुरोग और सूजन को दूर
गम । (प० मु० १३) एक प्रकार की सुगंधित करती है।
तृण । एक सुगंधित घास । राम कपूर। प. मु. इसकी पिसी हुई जड़ गोधेरक नामक सर्प के
(१४) गुड़ । (१५) शर्करा । शकर। च. काटने पर नाक के द्वारा सुंघाई जाती है।
द० अश-चि० काङ्कायन मोदक । (१६) पिण्डाआँख की सूजन पर इसकी जड़ को अफीम के
लुक । गोल पालू । पिंडारू । सुथनी। (१७) साथ पीसकर आँख पर लगाई जाती है, जिससे
शस्यमूल । अनाज की जड़ । मे० दद्विकं । (१८)
फलहीन श्रोषधि की जड़ । सूजन बिखर जाती है । उदर शूल में इसकी जड़ कालीमिर्च के साथ पिलाई जाती है। रक्रविकार
संज्ञा पुं॰ [सं० की.] गृञ्जन । गाजर । और चर्म रोगों पर इसके पत्तों का काढ़ा दिया
रा०नि० । नि०शि०। जाता है।
___ संज्ञा पुं० [फा०] जमाई हुई चीनी । कन्द-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (१) वनस्पस्ति
मिस्त्री। शास्त्र में बह जड़ जो गूदेदार और बिना रेशे की | कन्दक-संज्ञा पुं० [सं० पु.](१) मुरवालु शकर होती है; जैसे-सूरन, शकरकंद इत्यादि।
कन्द । रा०नि० व० ७ । (२) वन शूरण । प-०-वल्ब Bulb ट्युवर Tuber
जंगली सूरन । भैष० कुष्ट० चि० कन्दर्प सार तैखा (अं०)। अस्लुस्सितव (बहु० उ.सूलस्सितत्र),
(३) कन्द । दे० "कन्द्र" अस्लुल् मुदब्वर (बहु० उ.सूलुल् मुदब्बर)
| कन्दका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] रुद्रवन्ती। -( ऋ० )। बीने मुदब्बर (बहु० वीखहाए कन्द गुडूची-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक प्रकार मुदब्वर)-फ्रा० । गड्ड (बहु० गड्डे) -द.
का गुरुच | कंद गिलोय । किजङ्ग (बहु० किजङ्ग, ग़ल) -ता०। गड्ड
संस्कृत पर्याय-कन्दोद्भवा, कन्दामृता, बहु(बहु• गड्डलु)-ते. । किज़ ज (बहु० किज़ -
च्छिन्ना, बहुग्रहा, पिण्डालु और कन्दरोहिणी, जुकल)-मल० । गड्डे (बहु० गड्डेगलु )
पिण्डगुडूचिका ओर बहुरहा। -कना० । गोल-मूल -बं० । गड्डा (गड्डु बहु०) गुण-कन्दगुडूची, कटु एवं उष्ण और सनि-मरा० । कन०; गड्डा (वहु. गड्डो) -गु० । पात, बिष, ज्वर, भूत-बाधा तथा बली पलित अल (सिंगा०)। अऊ, उ (बहु० अमियाश्रा, नाशक है। उमियात्रा)-बर० । (२) योनि का एक रोग वि० दे० "गुरुच" । रा० वि० व० ३ ।