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________________ • कनौचा २०६६ को बहुत लाभ पहुँचावे । यदि इसे पीसकर मधु में मिलाकर कठिन से कठिन सूजन पर लगाएं । तो वह पक जाय । इसका लबाब चमेली के तेल के साथ नीहार मुह पीने से सोदावी अर्थात् वातज पित्ती बिलकुल जाती रहती है। परीक्षित है। दस्तों को दशा में कनौचे के बीज से श्राँतों को परीक्षा करते हैं । उससे यह मालूम करते हैं कि श्राया उनमें ऐसा मल है या नहीं जिसका निकलना उचित है । उसकी परीक्षा की रीति इस प्रकार है - तुख्म कनौचा को गरम २ गुलाब में मिलाकर रोगी को पिलावें । यदि उक्त बीज शीघ्र ही उदर से बाहर निकल जायँ और उसे दोबारा पिलाने की आवश्यकता न हो तो समझ लें कि श्रांतें मल से रिक्त हैं श्रोर यदि ऐसा न हो, तो, उससे यह प्रमाणित होगा कि वह मल से परिपूर्ण हैं । परन्तु यह स्मरण रहे कि जब रोगी की प्रकृति में उष्णता एवं पिपासा का प्राबल्य हो, तो इसबगोल या तुख्म रेहां से परीक्षा करें । उक्त अवस्था में तुख्म कनौचा या तुख्म बारतंग न दें । क्योंकि उक्त बीज अपनी खासियत से शुक्र को कम करते हैं । ( ख० अ० ) 1 कनौचा का वीज तारल्यकारक ( मुलत्तिफ़ ) है । यह वायु, श्राध्मान और कफ को नष्ट करता, हर जगह के अवरोधों का उद्घाटन करता और वायु निःसारक है । स्त्री के दूध के साथ इसकी बूंदें कान में टपकाने से कर्णशूल शाँत होता और नाक में डालने से शिरःशूल निवृत होता है। यहां और श्रामाशय को बलप्रद, जलन्धर को लाभदायक और मूत्रप्रवर्त्तक एवं स्वेदक है । यह श्रामाशयिक कफ को विलीन करता एवं श्रामाशय शूल को प्रशमित करता है । यदि जलोदर का रोगी ७ माशे इसके बीज एवं पत्र उतनी ही शर्करा के साथ कुछ दिन तक प्रतिदिन सेवन करे तो यह मूत्र तथा स्वेद-पथ से जल को निःसृत | बादाम के तेल में भूने हुये इसके बीज श्रन्त्रप्रदाह तथा प्रवाहिका में उपयोगी है । चुक्र वीज के साथ दस्तों को रोकते हैं और श्रांत्रांत को लाभ पहुँचाते हैं। इसका प्रलेप व्रण को परिपक्क करता है । (बु० गु० ) करता कन्थारी आर० एन० चोपरा - लिखते हैं कि जव कनौचा के बीजों को जल में भिगोया जाता है, इससे एक प्रकार का सांद्र पिच्छिल पेय प्रस्तुत होता है, जिसका पूयमेह और मूत्रप्रणाली - प्रदाह में बहुल उपयोग होता है । - इं० ० इं० पृ० ५१३ । कन्द - [अ०] एक प्रकार की मछली । कन्खेन फीऊ - [ बर० ] चीता | चित्रक | कन्तिका -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] श्रुतिवला | कंघी | भा० प्र० । नि० शि० । कन्तु -संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] ( १) हृदय | वै० निघ० । ( २ ) कामदेव । ( ३ ) धान्यागार । कन्तुलिंग -[ ताः ] मौनालु । खाता । वि० [सं० -ि ] सुखी । खुश । [सं० स्त्री० ] एक वृक्ष | दे० कन्थरी - संज्ञा स्त्री० "कन्धारी" । *न्था -संज्ञा स्त्री [सं० स्त्री० ] ( १ ) गुदड़ी । कथड़ी | श्रम० । -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री ] ( १ ) स्यूतकर्पट, कन्धारी । कथरी । गुदड़ी ( श्र०म० ) (२) चीर । ( ३ ) एक वृक्ष । ( ४ ) रुईदार कपड़ा | तूलपूर्ण गात्रवस्त्र । कन्थारी -संज्ञा पुं० [सं० स्त्री ] एक प्रसिद्ध वृक्ष वा झाड़ी जिसके पत्ते गोल, डंडी हरी और फूल सफेद रंग के सफ़ेद केशर युक्र होते हैं। इसमें चैत बैशाख में फूल लगते हैं । फल छोटे छोटे चने के बराबर होते हैं। कंथारी तीन-चार जाति की होती है । नोट- किसी किसी ने इसे नागफनी (नागफणः माना है । दे० "नागफनी” । कन्था पटकथारी, कंथरी, कंथा, दुर्धषां, तीच्णकण्टका, तीच्णगंधा क्रूरगंधा, दुःप्रवेशा, रा० नि० ० ८ । (अहिंस्रा, जालि, गृधनखी, कंथारिका, क्रूरकर्मा, वक्रकंटकी, कन्था, कपालकुलिका, अलफल, गुच्छ गुल्मिका ) - सं० । कंथारी, कंधारी कंतार, हैंसा - हिं० | कांधारी - मरा० । कांतरुकन| ० | फणीनिवडुंग - कों० । काला कंथारो, कंथारो, कंधार-गु०, मरा० | Capparis Sepiaria - जे० । कंथार, कारो ह्यूमरन, ह्यूस
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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