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________________ कपूर २१०४ में, एक भाग एक भाग सुरासार (६०%) में चार भाग एक भाग नोरोफार्म में, एक भाग ४ भाग जैतून तेल में, एक भाग १॥ भाग तारपीन तैल में विलीन हो जाता है । यह क्षारों ( Alk. alies) में अविलेय है। ईथर में यह अत्यंत विलेय होता है। टिप्पणी-तीन भाग कपूर एक भाग स्फटिकीय कार्बोलिकाम्ल के साथ मिलाकर रगड़ने से एक स्वच्छ द्रव बन जाता है। तीन भाग कपूर उतना ही कोरल हाइड्रेट के साथ मिलाकर रगड़ने से द्रवीभूत हो जाता है । अथवा कपूर को जब मेन्थल (पिपरमिट), थाइमल (सत अजवायन), फेनोल, नेफ्थोल, सैलोल, ब्युटल कोरल या सैलिसिलिक एसिड में से किसी के साथ सम्मिलित किया जाता है. तब वह द्रवीभत हो जाता है-दोनों मिलकर तरल हो जाते हैं । कहते हैं कि तीव्र सिरकाम्ल में भी यह विलेय होता है। कपूर वस्तुतः एक प्रकार के उड़नशील तैलगोंद का सांद्र भाग है जिसे आजकल कई वृक्षों से निकाला जाता है। ये सबके सब वृक्ष प्रायः दारचीनी की जाति के हैं। इनमें प्रधान पेड़ दारचीनी कपूरी Cinnamomum Camphora, Nees) मध्यम आकार का सदाबहार पेड़ है जो चीन, जापान, कोचीन और फारमूसा में होता है । अब इसके पेड़ हिन्दुस्तान में भी देहरादून और नीलिगिरि पर लगाये गये हैं और कलकत्ते तथा सहारनपुर के कंपनी बागों में भी इसके पेड़ हैं। इसका वृक्ष ६० से ८० फुट तक ऊँचा होता है। पत्ते-अण्डाकार, मसूण, नोक की ओर संकुचित, ऊपर की ओर कुछ फ्रीका पीलापन लिये हरे रंग के पोर नीचेकी ओर धुमले होते हैं । इस वृक्ष के मौर आते हैं। फूल सफेद रंग के छोटे छोटे और फल मटर के समान होते हैं। इन बीजों में कपूर के समान सुगंध आती है। इस वृक्ष की छाल को गोदने से एक प्रकार का दूध निकलता है। उसी से कपूर प्रस्तुत किया जाता है ।इससे कपूर निकालने की विधि यह हैइसकी पतली पतली चैलियों तथा डालियों और जड़ों के टुकड़े बन्द वर्तन जिसमें कुछ दूर तक | पानी भरा रहता है, इस ढंग से रक्खे जाते हैं कि उनका लगाव पानी से न रहे । बर्तन के नीचे आग जलाई जाती है । आँच लगने से लकड़ियों में से कपूर उड़कर ऊपर के ढक्कन में जम जाता है । उन्हें पृथक् कर पुनः ऊर्ध्वपातन विधि द्वारा साफ कर लेते हैं। यही उल्लिखित 'कपूर' है। इसकी लकड़ी भी संदूक आदि बनाने के काम में आती है । वृक्ष की छाल और पत्तों को भभके से भाफ के द्वारा भी तेल निकाल कर जमाते हैं। giratat sitarat:( Cinnamomum Zeylanicum, Nees) इसका पेड़ ऊँचा होता है। यह दक्खिन में कोकन से दक्खिन पश्चिमी घाट तक और लंका, टनासरम, बर्मा आदि स्थानों में होता है। इसका पत्ता तेजपात और छाल दारचीनी है। इससे भी कपूर निकलता है। वि० दे० "दारचीनी"। बरास Borneo Camphor ( Dryobalanops Aromatica, Goertn) यह बोर्नियो और सुमात्रा में होता है और इसका पेड़ बहुत ऊँचा होता है । इसके सौ वर्ष से अधिक पुराने पेड़ के बीच से तथा गाँठों में से कपूरका जमा हुअा डला निकलता है और छिलकों के नीचे से भी कपूर निकलता है। इसके छोटे छोटे कुछ सफेद पर्त भी होते हैं जो वृक्ष के केन्द्र भाग में वा उसके समीप विषमाकार नसों में लंबाईके रुख होते हैं। इस कपूर को बरास भीमसेनी आदि कहते हैं । और प्राचीनों ने इसी को अपक कहा है। पेड़ में कभी २ छेब लगाकर दूध निकालते हैं। जो जमकर कपूर होजाता है। कभी पुराने पेड़ की छाल फट जाती है और उससे आप से आप दूध निकलने लगता है । जो जमकर कपूर होजाता है । यह कपूर बाजारों में कम मिलता है। और मंहगा बिकता है। अधुना साधारण कपूर से विशेष विधि द्वारा अन्य औषधियों के योगसे भीमसेनी कपूर बनाया भी जाता है । इसकी अनेक विधियाँ हैं, जिनमें से कतिपय का यहाँ उल्लेख किया जाता है, यथा शुद्ध कपूर ८ तो०, नागरमोथा, जायफल, जावित्री, प्रत्येक १ तो०, ऊद स्याह, (काली अगर ) सफेद चन्दन, खस, प्रत्येक ४ तोले,
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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