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________________ कंसी - मरा० । कसई बीज -त्रम्ब० । कौंडिला, केस्सी कसेई - हिं० । संकली, संखलू - पं० । कसाई - गु० । कसी, कुलेले, कलिन्सी, कयूइत - श्रासा०, बर० । दमे दाऊद ( दाऊदाश्रु ) दमे अयूब, अयूबाश्रु - अं० । जाब्स टियर्स Jab's tears - अं० । कोइक्स लैक्रिमा Coix lachryma, Linn. -ले० । लामसि डी जाव Larmes de Job. -फ्रां० । लैग्रीमा डी जाव Lagrima de Job – स्पेन, पुर्त्त० | दभिर - राजपु० । गंदुला ( - बुन्देलखण्ड ) । जरगदी, गरुन, - ( संथाल ) । गलवी, गंडुला, कसई, ( म०प्र० ) । उशीरादि तृणवर्ग २३५५ २ ( N. O. Graminece ) उत्पत्ति स्थान - यद्यपि श्राजकल मध्य प्रदेश खसिया एवं नागा पर्वत, सिकम, आसाम और बरमा की जंगली जातियों के अतिरिक्त इसकी खेती कोई नहीं करता । फिर भी यह समस्त भारत के मैदान में और ढालू पहाड़ियों पर पंजाब से लेकर बरमा तक चीन, जापान, मलाया आदि देशों में वन्य अवस्था में मिलती है। वैदिक काल में हिमालय की ढलुई पहाड़ियों पर आर्य लोग भी इसकी खेती करते थे । औषध और खाद्योपयोगी अंश - बीज । रासायनिक संघटन - इसकी १०० भाग गिरी जलांश १३२, एल्ब्युमिनाइड्स १८.७, श्वेतसार १८३, तैल ५.२, तंतु १५, भस्म २१ होता है । ( फा० ई० ३ भ० ) । इसमें ल्यूसीन, टायरोसीन, हिष्टिडीन, लायसीन, श्रर्गिनीन, और कायसीन होते हैं । (इं० ० इ० ) इतिहास - वैदिक काल में यज्ञों में इसके चरु का उपयोग होता था। उस समय इसकी खेती भी होती थी । आरव्य यात्रियों को प्राचीन प्राय द्वारा ही इसके बीजों का परिज्ञान हुआ और उन्होंने इसे दमु दाऊद ( दाऊराश्रु ) धारव्य संज्ञा द्वारा अभिहित किया, जो काल पाकर दमु माकूब (याकूबा ) कहलाये, अरबों द्वारा यह पौधा पश्चिम में पहुँचा और स्पेन और पुर्तगाल में बस गया जहाँ यह Lagrima de Job. कसी नाम से आज भी सुपरिचित है । युरुपीय वनस्पति शास्त्रज्ञों द्वारा निर्धारित 'कोइक्स' संज्ञा इसकी जाति का उपयुक्त परिचायक नहीं है; क्योंकि कोइक्स अफरीका जात एक प्रकार के ताड़ (Palm ) का नाम है जिसका उल्लेख साब फरिस्तुस और शाइनी ने किया है । गुणधर्म तथा प्रयोग "3 विधुः कथितास्त्रियाम् । Sardaar स्वाद्वर्य कृत्कफनाशिनी ॥ ( भा० पू० १ भ० धान्य वर्ग ) कसी — चरपरी, स्वादु, कार्यकर और कफ नाश करनेवाली है । डीमक - इसके कृमिजात बीज खाद्य और वन्योद्भव श्रोषध के काम श्राते हैं और शक्तिप्रद एवं मूत्रकर माने जाते हैं। चीन और मलका में ये खाद्य के काम आते हैं। चीन के श्रातुरायली में रोगियों को इससे उत्तम पथ्य पेय तैयार होता है । (फ्रा० ६० ३ भ० ) इसकी सफ़ेद गिरी के थाटेकी रोटी गरीब लोग खाते । इसे भूनकर सत्तू भी बनाते हैं । छिलका उतर जाने पर इसकी गिरी के टुकड़ों को चावल के साथ मिलाकर भात की तरह उबाल कर खाते हैं। यह खाने में स्वादिष्ट और स्वास्थ्यवक होती है । जापान आदि में इसके मावे से एक प्रकार का मद्य भी बनाया जाता है। इसका बीज श्रौषधि के काम ता है। इसके दानों को गूंथ कर माला बनाई जाती है । नेपाल के थारू इसके बीज को गूंथकर टोकरों की झालर बनाते हैं। (हिं० श० सा० ) यह वनस्पति शीतल, मूत्रजनक और शांति दायक होती है। इसके बीज कड़वे सुगंधित, खाँसी में लाभदायक और शरीर के वजन को कम करनेवाले होते हैं । यूनानी मत से इसके बीज पौष्टिक और मूत्रल होते हैं। कैपबेल के मतानुसार संथाल लोग इसकी जब को पथरी को नष्ट करने के लिये देते हैं। मासिक धर्म की तकलीफ में भी यह उपयोगी मानी जाती है।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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