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________________ ११७५ aircra खंजन | खंड़िरिच । ममोला । त्रिका० । श० र० । खड़रैचा | करणाटीरक-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] दे० “कण|टीर” । करणादि, कषाय-संज्ञा पु० [सं० पु० ] उक्त नाम का एक योग-पीपर, शत ह्वा दोनों करंज, देवदारु, भारंगी, कुलथी और काला तिल इनका क्वाथ लहसुन और हींग युक्र पीने से रक्तगुल्म का नाश होता है | व० श० । करणादिगरण - संज्ञा पुं० [ स० पु० ] चक्रदत्त में पीपल श्रादि श्रोषधियों का एक वग । जैसे— पीपल, पिपरामूल, चव्य, चीता, सोंठ, मरिच, इलायची, अजमोदा, इन्द्रजौ, पाठा, रेणुका, जीरा, भारंगी, महानोम, मैनफल, हींग, रोहिणी, सरसों, वायविडंग, अतीस और मूर्ध्ना । च० द० कफज्व० चि० । करणादि तैल-संज्ञा पु ं० [सं० नी०] पीपल, मुल हठी कूट, इन्द्रजौ, रेणुका, दारूहल्दी, मजीठ, शारिवा, लोध और धाय के फूल । इनके कल्क तथा चार गुने पानी से सिद्ध तेल फोड़े फुन्सियों को शुद्ध करता और घाव को भरता है । करणादि नस्य-संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] पीपल, आमला, हींग, दारूहल्दी, बच, सफेद सरसों और लहसुन को बकरी के मूत्र में पीसकर नस्य लेने से दैनकादि ज्वर नष्ट होते हैं । वृ० नि० र० ज्वर० चि० | करणादि वटी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक प्रकार की वटी जिसका उल्लेख श्लीपदाधिकार में हुआ है । योग इस प्रकार है - पीपल, वच, देवदारु, पुनर्नवा, बेलछाल और विधारा के बीज - इनका बराबर-बराबर चूर्ण लेकर घोटकर ३-३ रत्ती की गोली बनावें । मात्रा - ३ रत्ती । अनुपान — काँजी | गुण- इससे घोर श्लीपद रोग का नाश होता है । र० स० [सं० । करणादीप्य-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] सफेद जीरा । श्वेत जीरक । रा० नि० व० ६ । करणाद्यञ्जन-संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] पीपल, मिर्च, वच, सेंधा नमक, करंज की मींगी, हल्दी, आमला, हड़, वहेड़ा, सरसों, हींग, और सोंठ को बकरे के मूत्र में पीस गोलियाँ बनालें । htt गुण- इन्हें घिसकर श्राँखों में अंजन करने से बेहोशी, चित्तविभ्रम, अपस्मार, भूत दोष, शिर और आँखों के रोग तथा भ्रम का नाश होता है । बृ० नि० र सन्निपात चि० । (२) पीपल को बकरी के मेगनियों के बीच रखकर पकाएँ और फिर उन्हें बकरी की मेंगनियों के निचोड़े हुये रस में ही खरल करें। पुनः इसका अंजन करने से शीघ्र ही रतौंधी का नाश होता है । इसी प्रकार काली मिर्च को शहद में मिला कर अंजन करसे रतौंधी का शीघ्र नाश होता है । वृ० नि० २० नेत्र राग चि० । करणाद्य लेह - पीपल. सोंठ, पाठा, हड़, बहेड़ा, श्रासला, मोथा, चीता, वायविडंग, बेल, चन्दन, और सुगंध चाला । इन्हें समान भाग लेकर चूर्ण बनाय शहद में चाटने से हर प्रकार के अतिसार और उपद्रव युक्र प्रवाहिका का नाश होता है। इस अवलेह के समान संग्रहणी नाशक अन्य औषधि नहीं है । रसें० चि०६ श्र० । (२) पीपल, पीपलामूल, बहेड़ा और सोंठ का चूर्ण या श्रडूले का रस शहद के साथ चाटने से खाँसी नष्ट होती है । वृ० नि० २० ज्वर चि० । करणाद्यलौह-संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] वैद्यको एक रसौषध जिसका प्रयोग अतिसार रोग में होता है। योग यह है - पीपल, सोंठ, पाठा, अमला, बहेड़ा, हड़, मोथा, चीता, बायबिडंग लालचंदन बेल और सुगंधवाला - इनको बराबर लेकर सत्र के बराबर लौह भस्म मिला जल के साथ घोंट कर रखें यह सब प्रकार का श्रतिसार और संग्रहणी नाशक है । रस०र० । २० चि० ६ श्र० । करणाप्रयोग - बकरी के यकृत के मध्य भाग में पिप्पलीको रखकर पानीके साथ यथाविधि पाक करें । पक जाने पर पिप्पली को अवशिष्ट पानी के साथ पीसकर वीर्तिका बनाऐं । गुण- इसे पानी के साथ घिसकर आँखों में अन करने से रतौंधी नष्ट हो जाती है । इसी प्रणाली से मिर्च का प्रयोग होता है और पूर्ववत गुण होता है । चक्रद० नेत्र रो० चि० । कणामूल-संज्ञा पु ं० [सं० क्वी० ]पिपरामूल । पिप्पली मूल । के० दे० नि० | रा० नि० । नि०शि० ।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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