SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 584
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कलिन्द २३१६ वृक्ष । ( ३ ) बहेड़े का पेड़ । रा० नि० ० ११ | | “किरात कटुका करणा: कुटज कण्टकारी शठी aag किलिमाभया: " | भा० म० १ भ० कण्ठ कुब्ज ज्व० चि० । कलिन्द - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] ( १ ) सूर्य । सूरज, ( २ ) बहेड़े का पेड़ | रा० नि० व० २३ । (३) भेक वृक्ष । ( ४ ) सरल देवदार | वै० निघ० । कलिन्दक - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] ( १ ) पेठा । कर्कारु । ( २ ) तबूज | कलींदा | तरम्बुज | वै० निघ० । कलिपुर - संज्ञा पुं० [सं० ] ( १ ) पद्मराग मणि वा मानिक का एक भेद जो मध्यम माना जाता था । (२) मानिक की एक पुरानो खान । कलिप्रद - संज्ञा पु ं० [सं० पुं०] मद्य बिकने का स्थान "शराबखाना । मद्यशाला । कलालखाना | वै० निघ० । कलिप्रिय-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] ( १ ) बंदर | बानर | श० २० । (२) बहेड़े का पेड़ । 1 "कलिफल - संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] बहेड़े का फल । कलियारी कलियान - मुरुक्कु -[ ता० ] फरहद । पारिभद्र । कलियारी - संज्ञा स्त्री० [सं० कलिहारी ] एक विषैला सुप वा श्रलंकृत लता जिसका कांड चपटा, त्रिपार्श्व, ऐंठा हुश्रा और टेढ़ा-मेढ़ा होता है । इसका गुल्म देखने में श्राद्रक-गुल्मवत् होता है । पहले यह मोटी घास की तरह होती है फिर और बेल की तरह बढ़ती है । इसके पत्ते अदरख के पत्ते की तरह होते हैं । इसका पेड़ बाद या झाड़ी के सहारे लगता है । गर्मी में यह सूख जाता है और वर्षा का पहिला पानी पड़ते ही इसके पुराने कंद से अभिनव गुल्म श्राविभूर्त होता है। श्रादी की तरह इसका भी कंद लगाने से वृक्ष-पैदा होता है। बहुत नीची श्रद्र भूमि में यह नहीं उत्पन्न होती है, वहाँ इसका कंद सड़ जाता है । भारतवर्ष के उष्ण प्रदेशों में चातुर्मास में यह उत्पन्न होती है । इसका पत्ता विषमवर्त्ती, कोमल, दीर्घ, अवृंत, ६-७ इंच लंबा श्रोर से १ इंच चौड़ा, तसे वेष्ट एवं शीर्ष की ओर उत्तरोतर पतला होता जाता है । यह नुकीला भाग सूत्रवत् महीन, प्रायः गजभर तक लंबा और लिपटा हुआ होता है, पत्र देखने में बॉस के पत्ते की तरह, पर कोमल होता है । वर्षात में इसमें पुष्प श्राते हैं । पुष्प हर एक पत्ते के समीप से निकलता और एक लंबे वृत पर लगता है । पुष्प की पं खड़ी गिनती में ६, प्रारंभ में बंदमुख, पर उत्तरोत्तर वे क्रमशः खिलती जाती हैं श्रोर अंततः विपरीत दिशा में लटक जाती हैं । पँखदी ३ - ४ अंगुल दीर्घ, 4 से 1⁄2 अंगुल चौड़ी और मुकीली होती है। दल-प्रांत लहरदार होता है । प्रारंभ में फेंखड़ियाँ हरी होती हैं, परंतु ऊपर का अर्ध भाग क्रमशः पीतारुण होता 'जाता है और अंत में ऊपर विश्वित्र नागरंग वर्ण का और नीचे का मिलित श्ररुण और पीत व का होता जाता है। इस प्रकार एक ही पुष्प इंद्रधनुष के समान अनेक रंगयुक्त होता है। पुष्प प्रियदर्शन एवं अत्यंत मनोहर होता है। पु कैंसर ६, पराग-कोष (Anthor) 2 अंगुल लंबा और चिपटा होता है । श्री केसर १, - त्रिशिर्षीय होती है । फूल झड़ जाने पर तिल के फल की आकृति का वा समुद्रफल के समान फल लगता है, जिस पर बहेड़ा | च० द० । 'कॅलिब - [अ०] [ बहु० कलवा ] ( १ ) पागल कुत्ता | बावला कुक्कुर | दीवाना कुत्ता । ( २ ) वह व्यक्ति जिसे बावले कुत्ते ने काटा हो । कुक्कुष्ट | कलिम -संज्ञा पुं० [सं० पु० ] सिरस का पेड़ | वै० निघ० । शिरीष वृक्ष । कैलिमार, कलिमारक - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] पूति करंज । कंटकरंज । श्र० टी० २० । वृ० नि० २० । कलिमाल, कलिमाल्य, कलिमालक, कलिमाल्यक संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] पूतीकरंज । दुर्गन्ध करंज । काँटा करंज । रा० नि० व० ६ । कलिया संज्ञा पु ं० [अ० क्रलिय्यः ] [ बहु० कलाया ] टुकड़ा टुकड़ा करके देग में भूमा हुथा गोश्त । पकाया हुआ मांस । घी में भूनकर रसेदार पकाया 1 हुआ मांस । कलियाकरा - [ नं०] कंटगुर । कलिया - [ कलिया - [ फ्रा० ० ] सनी । 1 कलियान - पूशिणिक काय - [ ता० ] पेठा |
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy