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________________ कलियारी कलियार तीन धारियाँ होती हैं अर्थात् यह तृखंड एवं लंबा | होता है। कार्तिक मार्गशीर्ष में फल पक जाता है । पके फल के भीतर लाल छिलके में लिपटे हुए सरसों के बीज की तरह गोल किंतु उमसे बड़े (गुजाकृति के) अत्यंत अरुण वर्ण के तार में लगे हुए बीज होते हैं। प्रत्येक कोष में १०-१२ बीज से कम नहीं होते। इसके पत्तों में फूल और फल से तीखो गंध आती है। इसकी जड़ दो प्रकार की होती है। एक वह जिसकी जड़की गाँठ गोल होती है और वह अशाख होती है । इसे 'मादा' कहते हैं । दूसरी की जड़ सशाखद्विभिक्त होती है और इसे 'नर' कहते हैं । इसका मूल कंद, लंबा बेलनाकार और एक सिरे पर इस प्रकार झुका हुआ होता है, मानो एक स्थान पर दो लंबी जड़े जुटी हुई हों और उनसे एक • समकोण बन गया हो इनमें से एक दूसरे की अपेक्षा बहुत छोटा होता है। यह कोण पर अंथिल होता है । कभी कभी इसके दोनों सिरे अधिक नुकीले होते हैं। यह क्रमश: ३ से ५ इंच लंबा प्रायः उँगली वा अँगूठे के बराबर मोटा होता है। कभी कभी यह इसकी अपेक्षा भी अधिक लंबा होता है। जब यह तर वा रेतीली भूमि में उत्पन्न होता है। इसकी गोल जड़ के | ऊपर ओर लंबी जड़ के कोण वा गाँठ पर इस पेड़ के उगने का-तने का एक गोल चिह्न बना रहता है और नीचे की ओर छोटी महीन जड़ें। लगी रहती हैं। इसका छिलका पतला, ढीला, हलका, झुर्रादार और बादामी रंग का होता है । इसकी खूब सूखी हुई जड़ का भीतरी पृष्ठ धूसर वा गंभीर धूसर वर्ण का होता है। इसके भीतर का गूदा सफ़ेद होता है और वह स्वाद में चरपरा नहीं, अपितु कुछ कुछ कडुवा, लबावदार और अम्ल होता है। उसमें से हलकी चरपरी सुगंध पाती है । इसकी बनावट (Farinaceous) होती है । यह जड़ महीनों तक बिना सूखे हुए पड़ी रहती है। इसलिये धूप में डालने से पूर्व इसे बारीक कतर लेना चाहिये। इसे सूखने में १॥२ मास लगते हैं। एक सेर गीला कंद सूखने पर केवल १०-१५ तोले ठहरता है । कार्तिक मार्गशीर्ष में ये कंद संग्रहणीय होते हैं । ये एक | वर्ष में घुनकर खराब होजाते हैं । ये विषैले होते हैं। पय्या-कलिकारी (ली),हलिनी, विशल्या । गर्भपातिनी, लांगल्या (ली), अग्निमुखी, सोरी, दीप्ता, नका. इन्दुपुष्पिका, (ध०नि०), कलिकारी, लांगलिनी, हलिनी, गर्भपातिनी, दीप्ता, विशल्या, अग्निमुखी, हली, नक्का; इन्दुपुष्पिका, विद्युज्ज्वाला, अग्निजिह्वा, व्रणहित्, पुष्पसौरभा, स्वणपुष्पा, वह्निशिखा (रा०नि०), कलिहारो, हलिनी, लांगली, शक्रपुष्पिका, विशल्या, अग्निशिखा, अनन्ता, वह्निवक्ता, गर्भनुत् (भा०), फलिनी, शक्र पुष्पीका ( कोशे), इंदुपुष्पी, वह्निजिह्वा, प्रदीप्ता, अग्निशिखा, शिखा, वह्निमुखा, प्रभाता, पुष्पसोरभा (के० दे०); लांगुली (द्रव्य र०), कलिहारी, शक्रपुष्पी,सारी (मद० नि०); सारः, इन्द्रपुष्पी, वह्निज्वाला (गण-नि०) लांगलाख्या, गैरी, गर्भधातिनी, अग्निज्वाला, वह्निशिखा, इन्द्रपुष्पा(पी), लांगलाबा, लांगलकी, लांगली, लांगलि, लांगलिका, लांगलिको-सं० । कलारी, कलिहारी,कलियारी, करिहारी, करियारी, लांगली. कलिकारी, कलहारी, कलहिंस-हिं० । नाट का बच्छनागद। (ऊलट ) ओलोट चंदल, विषलांगुलिया, विषलांगला बिश, उलटचडालविष-बं० । ग्लोरिश्रोसा सुपर्बा Gloriosa Superba, (?) Linn-ले० । सुपर्व लिलि Superb lilyअं० । कलैप्पैक्-किज़ङ्गु, कार्तिकैक्-किज़ङ्गु-ता। अडवि-नाभि, पोत्ति-दुम्प, पेनवेदुरु, अग्नि-शिखा, कलप्प-गड्डु, लांगली-ते। वेनोणि, मेन्दोणि, मेहोन्नि, कांडल-मल। सोम-दौ, सीम्मि-दाव,, सी-मी तौक-बर० । लियनंगला, नियांगल्लसिंगा० । लांगलिके, कोलिककजगड़े, लांगुलीक । वेडेवे दुरु, राडागारी, नांगुलिका-कना० । दुधियो (बछनाग) कलगारी बच्छनाग, खड्यानागगु०। खड्यानाग, कललावी, नागली, इंदई, कलावी, झगड़ी, बागचवका, चगमोड्या,कललावी, नागकरिया, करिया, नाग-मरा०, बम्ब० । मुमिल करिश्रा (या) री, मलिम, कलेसर-पं० लांगुली लांगुलिका, राडागारि-का० । खड़िया कलई, कलवी नाग-कों० । कलावी-दे० । सीरी (क) सम्नो-संथाल। करिहारो-उ०प० सू०। राज.
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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