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________________ कलिङ्गज २३१५ कलिगु, कलिद्रुम व०३ । (४) इन्द्र जौ । इन्द्रयव । रत्ना० । श्रादि ज्वर शमन करता है । वा. चि० १ ०। र० सा० सं० । सि० यो० रात्रिज्वर । 'कलिङ्गक चक्रदत्त में इसे पित्तज्वर को दूर करनेवाला लिखा स्तामलकी" । सि. यो० पिप्पल्यादि घृत। है। च. द. पित्त ज्व. चिः। (२) इन्द्र जौ, (५) पूतिकरंज । (६) मटमैले रंग की एक कायफल, नागरमोथा, पाठा तथा कुटको इन औष चिड़िया जिसकी गरदन लंबी और लाल तथा सिर धियों को उचित मात्रा में लेकर यथाविधि काथ भी लाल होता है । कुलंग, मे० गत्रिक । (७) बनावें । सिद्ध होने पर इसमें शर्करा मिलावें । तरबूज़ । तरम्बुज । गुण-इसके पीने से पित्त ज्वर प्रशान्त होता है गुण-मधुर, शीतल, वृष्य, बल्य, पित्तनाशक चक्र० द०। दाहनाशक, सन्तर्पण, श्रोर वीर्यकारक । रा०नि० कलिङ्गाद्य गुड़िका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] इन्द्र व० ७ । (८) चातक पक्षी । पपीहा। हला० ।। जौ, बेलगिरी, जामुन की गुठली, कैथ की गूदी, (१) बहेड़े का पेड़ । त्रिका०। (१०) एक रसवत, लाख, हल्दी, दारुहल्दी, सुगन्धवाला, प्राचीन देश । (११) कलिंग देश का निवासी। कायफल, शुकनासिका, लोध, मोचरस, शंख की वि० कलिंग देश का। भस्म, धौ के फूल. और बड़ के अंकर। हर एक 'कलिङ्गज-संज्ञा पु. [ सं० पु. ] इंद्रजव । __समान भाग लेकर चावलों के पानी में पीसकर वै० निघः । १-१ अक्ष प्रमाण की गुटिका प्रस्तुत करें। कलिङ्गद्रु-संज्ञा पु० [सं० पु.] कुरैया। कुटज । गुण-इसके सेवन से ज्वरातिसार और शूल भा० म० १ भ० कास चि०। "कलिङ्गद् फलं युक्त अतिसार का शीघ्र नाश होता है। एवं रक रजः"। शुद्ध होता है । धन्वन्तरि । ज्वर चि०। 'कलिङ्गयव-संज्ञा पु० [सं० पु.] इंद्रयव । इंद्रजष कलिङ्गाद्य तैल-संज्ञा पुं० [सं० क्री०] नासा रोग च० द.। सि० यो० लवणोत्तमाय चूर्ण। में प्रयुक्त उक्त नाम का तेल। कलिङ्ग वीज-संज्ञा पु० [सं० पु.] इंद्रजो। इंद्र ___ योग-इंद्रजौ, हींग, मिर्च, लाख, तुलसी, __यव । रा०नि० व० । कायफल, कूठ, वच, सहिजन और वायविडंग के कल्क तथा गोमूत्र से कड़ना तेल पकाकर उसकी कलिङ्ग शुण्ठी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कलिंग देश नास लेने से पीनस और पूतिनस्य (नाक से बदबू का सोंठ । एक प्रकार का सोंठ । श्राना) नष्ट होता है । र० २० नासा० रो०। . गुण-कड़ा, बलकारक; अग्निदीपन, अजीर्ण | कलिञ्ज-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (1) कुलंजन । नाशक और बालकों के अतिसार को दूर करने | कुलिंजन । वै०नि० २ भ. जिसक ज्व. चि०। वाला है। यही जवाखार के साथ मिला हुमा (२) नरकट नाम की घास । कट । किलिंजक । गर्भिणी की कै पाने को दूर करता है । अत्रि०।। मादुर (बं०)। कलिङ्गा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (1) काकड़ा | कलिञ्जम-संज्ञा पुं० [सं० पुं०] एक वृक्ष । सींगी । कर्कट श्रृंगी। र० मा०। २) सफ़ेद | नकद | कलितरु-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] बहेड़े का पेड़ । निसोथ । श्वेत त्रिवृता । (३) नारी। वै० निघ० स्वर भेद चि०। कलिङ्गादि कल्क-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] इन्द्रजौ, | कलि-तरु फलादि चूर्ण-संज्ञा पुं० [सं० क्रो०] स्वर वच, नागरमोथा, देवदारु तथा अतीस इन औष- | भेद में प्रयुक्त योग-कलितरुफल (बहेड़ा), सेंधा धियों को समान भाग लेकर यथाविधि कल्क नमक तथा पीपल इन तीन ओषधियों के यथाबनाएँ । वात पित्त जनित अतिसार का रोगी इस विधि निर्मित चूर्ण को छाछ के साथ पीसकर पीने कल्क को तण्डुलोदक के साथ सेवन करें। से स्वरभेद दूर होता है। मात्रा से २ मा० कलिङ्गादि कषाय-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (१) तक । चक्र द० स्वरभेद चि०। । वैद्यक में एक कषाय जिसमें इन्द्रजौ (कलिंगक), कलिनु, कलिद्रुम-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (1) परवल का पत्ता ओर कुटकी पड़ता है । यह संतव। सरल देवदार । (२) भिलावे का पेड़ । भवातक
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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