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________________ कपली २०७८ कपाल इ। पाट। में रख कपड़ मिट्टी करके गजपुट की आँच दें। कपाट-संज्ञा पुं० [सं० क्ली०] [स्त्री. अल्पाच्या शीतल होने पर निकाले । इसे पीसकर रखें। कपाटी1 किवा मात्रा-१ रत्ती। __संस्कृत पो०-अरर (१०), कवाटः, गुण-इसके सेवन से राजरोग, कास, श्वास, कपाटी, कवाटी, अररी, अररिः (अ० टी०), . संग्रहणी और वरातिसार रोग दूर होता है । द्वारक एटकं, असारं ( शब्दर०) द्वाराच्छादक। अमृ० सा। संज्ञा [गु.] कंघी । ककही। कपर्द-कप-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] कौड़ी। वरा- | कपाटवक्षा-वि० [सं० त्रि] जिसका सीना किवाड़ टक। रा० नि० व० १३ । वै० निघ० दे० की तरह हो । चोड़ी छातीवाला । कपाटशयन-संज्ञा पु[सं० क्ली.] पीठ को जमीन कपईक-संज्ञा पु० [सं० पु.] [स्त्री० कपर्दिका] | पर और छाती को प्रामाश की ओर करके सोने कौड़ी। वराटिका । रा०नि० । दे० "कौड़ो"।। की क्रिया । चित्त सोना । उत्तानरायन । (२) कपईक रस-सज्ञा पु० [स० पु.] किवाड़ (लम्बे तखते) पर सुलाने की क्रिया । रक्त पित्त में प्रयुक्त उक नाम का योग-स सु.चि. ३ अ०। सिंदूर को १ दिन पर्यन्त कपास के फूलों के रस में | कपाटसन्धिक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] (१) सुश्रुतोक्न घोटकर कौड़ियों के अन्दर भर दें और अंधमूसा में बन्द करके उस मूसा को किसी बरतन के अंदर कपाटिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] किवाद । कपाट । बन्द करके पुट लगावे । जब स्वांग शीतल हो | कपाटिनी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] चोड़ा नामक जाय निकाल कर दुगुनी तिची के साथ मिलाकर एक प्रकार का देवदार । चोढ़। रा०नि० ब०१२। खूब महीन खरल करें। एक प्रकार की सुगन्धित लकड़ी। मात्रा- रत्ती । कपाण्डुक-[ ? ] आँवला । मु० श्रा। गुण तथा उपयोग विधि-इसे १ रत्ती लेकर | कपार-संज्ञा पु० दे० "कपाल"। घी के साथ खाका उसके ऊपर गूलर के पके फलों का उसके ऊपर गनर के पके फलों | कपाल-संज्ञा पुं० [सं० पु., को०] (१) सुश्रुत को मिर्च और मिश्री के साथ घी में पकाकर खाने के अनुसार पाँच प्रकार की हड्डियों में से एक । से दुस्साध्य रक्त पित्त का नाश होता है। रसर० इस प्रकार की (शरावाकृति) अस्थियाँ, घुटने, रक्त पि० चि०। चूतड़, स्कन्ध (खवे ), गंड ( गाल), तालु, कपा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्रो० ] कौड़ी। वराटक । कनपटी और सिर में पाई जाती हैं। यथा__ वै० निघ०। "तेषां जानु नितंबांसगंड तालु शंखशिरःसु कपर्दि-संज्ञा पु० [सं० पु.] कोड़ो। कपईक । कपालानि।"-सुशा०५ अ.। दे० 'कङ्काल'। रा०नि० व० १३ । (२) खोपड़ा । खोपड़ी । शिर की हड्डी। कपर्दिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कौड़ी ।वराटिका । (Cranium)। (३) ललाट । मस्तक । कपलो-[ उड़ि० ] कंटगुर। मत्था । (४) मिट्टी के घड़े श्रादि का टुकड़ा । खपड़ा। खर्पर । ठीकरा । रा०नि० व० १८ । कपशि-[बं० ( कापास ) ] कपास । कपिश । भा० म०४ अ.मु. रो. चि०। (५) काकाकपसा-संज्ञा स्त्री० [सं० कपिश ] ( काबिस ) एक दनी का पौधा । (६)तालमखाना । कोकिलाक्ष चिकनी मिट्टी जिससे कुम्हार बरतन रँगते हैं । (२) वृक्ष । (६) भड़भूजे का दाना भूनने का बर्तन । गारा । लेई । नाद । खपड़ी । भांड। (८) अंडे के छिलके का कपसी-[ हिमालय ] फिदक । श्राधा भाग। यथा-कुक्कुटाण्ड कपालानि सुमनो कपसेठा-संज्ञा पु० [हिं० कपास+एठा] [स्त्री० मुकुलानि च। (सु०)(१) कछुये का खोपड़ा ___ अल्पा० कपसेठी ] कपास के सूखे हुये पेड़। (१०) कोढ़ का एक भेद । दे. "कपालकुष्ठ"। कपसेठी-संज्ञा स्त्री० दे० "कपसेठा"। (११) शिर । सिर।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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