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कदलौकन्द
२०३०
कदलीक्ष्या
लेवें इस गोले को कदनीका के भीतर रखकर गुण-यह स्तिध, मधुर, कसेला; भारी एवं '. कार से उसो के गू से बिन को ढाँक देवे । पुनः शीतल है तथा वातपित्त रक्तपित्त एवं क्षय को दूर - इस कं के ऊपर करोटी का सवा ले। सूखने करता है । वै० निघ० । दे० "कदली"।
पर उसे २॥ सेर कंडों के भीतर रख कर आँच | कदलीजल-संता पु . [सं० की. ] केले का रस । देधे । स्वांग शीतल होने पर उसे निकाल कर कदली रस। कानिट्टी दूर करके जले हुये कंद का बारीक चूर्ण गुण-यह शीतल एवं ग्राही है तथा मूत्रकृच्छ का रखें। इसमें से यथा शक्रि १ रत्ती से ३ रत्ता प्रमेह, तृष्णा, कणंग, अतिसार, अस्थित्राव, तक श्रोध पिपलो चूर्ण १ रत्ती और शहद के रक्तपित्त, विस्कोट, योनि कोष तथा दाह को शांत साथ सुबह-शाम सेवन करने से श्वास रोग अवश्य करता है। वै निघ. . दे० "कदली"। श्राराम होता है।
कदलोदण्ड, कदलोनाल-संज्ञा पुं० [सं० पु.] - (७) केले के बीज सर्प विप नाशक हैं। केले के खम्भे (पेड़) के भीतर का दरडाकार ऐसा किसा-किसो का मत है।-लेखक
कोनल भाग । केले का भीतरी हिस्सा । कदली द्वारा पारद भस्म
गुण-यह शीतल, अग्निवर्द्धक रुचिकारक, विधि--शुद्ध पारा १ तो० लेकर एक दिन अर्क
रक्तपित्तनाराक, योनिदोरनाराक और असृग्दर रतनजोत और एक दिन अर्क ब्रह्मदंडी में खरल
नाशक है । श० च० दे० "कदली" । करें । पुनः एक फुट लम्बा और मोटा केला लेकर कदलीनाल-संज्ञा पु० दे० "कदलोदण्ड" । उसमें अर्ध फुट गहरा छिद्र बना उक्त पारा और कदलीपुष्प-संज्ञा पु• [स. ] केले का फूल । एक पाव गोमूत्र इन दोनों को उसमें डालकर | कदलाफल-संज्ञा पुं॰ [सं० क्ली०] केला।। ऊपर से उसो गूदे से छिद्र के मुंह को बंद कर
| कदलीमूल-संज्ञा पुं॰ [सं० को०] केले को जड़ । देवे और उसे सन को रस्सी से दृढ़ता पूर्वक बाँधे ।
कदलोकंद । केराकंद। फिर उप पर चतुरतापूर्वक कपड़ मिट्टी करके १० गुण--यह वलकारक, वातनाशक, पित्तनाशक सेर उपलों की प्राग देवे। अति उत्तम भस्म
और भारी होता है। वि० दे० "कदलो" । प्रस्तुत होगी । कपड़मिट्टी अच्छी न होने से पारा कदलीमृग-संज्ञा पु० [सं० पु.] एक प्रकार का .', उड़ जावेगा। इस बात का ध्यान रखे । जड़ी बूटी
मृग । शबल मृग । सु० चि० ८ ०। में खवास।
नोट-निबन्ध-संग्रह नामक सुचत की टीका (२) काले और लाल रंग का एक हिरन में उल्लेख लिखते हैं। "कदलीमगः पूर्वदेशे जिसका स्थान महाभारत श्रादि में कंबोज देश
प्रायशः शबलो दृष्टः सतु वृहत्तमबिडालसमो .. लिखा गया है । इसके चर्म का आसन बनता है। व्याघ्रकारो बिलेशयः ॥ ?कृष्णसार।
कदली बल्कल-संज्ञा पुं॰ [सं० की.] केले की (३) पिठवन । पृश्निपर्णी । मे० । .. छाख । कदली त्वक् ।। . (४) एक पेड़ जो बरमा ओर आसाम में गुण-यह तिक, चरपरी, हलको और बात बहुत होता है।
नाशक होती है । वे निघ० । कदली कन्द-संज्ञा पुं० [सं० पु.] केराकंद। कदली वृक्ष-संज्ञा पुं॰ [स. पुं०] केले का पेड़। रम्भामूल । केले की जड़।
. केला। ... गुण-यह शीतल, वल्य, केश्य, अम्लपित्त कदली सार-संज्ञा पुं॰ [सं० पुं०] केले का रस ।
नाशक, अग्निदीपक, मधुर और रुचिकारक होता कदली का रस । केले को निचोड़।
है । मद० व ६ । दे० "कदली"। कदलीतता-संज्ञा स्त्री॰ [सं० स्त्री० ] एक प्रकार की कदलीकुसुम-संज्ञा पुं० [सं० पु.] केले का फूल । ककड़ी । वै० निध। . :: रम्भापुष्प ।
| कदलीच्या-संज्ञा स्त्री० [सं० मी० ] ककड़ी।