SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 319
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कनखजूरा २०५१ राशि रहने का अनुमान किया जाताहै । कनखजूरे को हिन्दू नहीं मारते। सुश्रुत के मत से कनखजूरा ( शतपदी)। पाठ प्रकार का होता है। यथा-"शतपद्यस्तु परुषाकृष्णा चित्रा कपिलिका पीतिका रक्का श्वेता अग्नि प्रभा इत्यष्टौ।" (सु० कल्प० ८ १०) अर्थात् परुष, कृष्ण या काला, चितकबरा, कपिल रंग का, पीला, लाल, सफेद, और अग्नि के वर्ण का। ख़ज़ाइनुल अदबिया के लेखक ने भौम और सामुद्र भेद से इसे दो प्रकार का लिखा है। : सुश्रुत के अनुसार इसके काटने वा शरीर में चिपट जाने से सूजन, वेदना और हृदय में दाह होता है । सफेद तथा अग्निवर्ण के कनखजूरे के काटने में दाह, मूर्छा और बहुत सी सफेद पुंसियों को उत्पत्ति के लक्षण होते हैं। (सु. कल्प ८०) प्रकृति-(तृतीय कक्षा में) उष्ण तथा रूक्ष हानिकर्ता-खजू, शोथ और दाह आदि एवं घातक बिष है। दर्पघ्न-रोगन तथा सिरका। नोट-यह अभक्ष्य है। . गुणधर्म तथा प्रयोगयह अत्यन्त तीव्र एवं घातक विष है । कतिपय तबीबों का यह कथन है कि नादेय कण जलौका को जैतून के तेल में पकाकर मलने से बाल उद जाते हैं। किंतु इसके उपयोग से उक्त स्थान पर खाज उत्पन्न होजाती है। इसके पैरों में जहर होता है । यह जहां काटता है वहां किसी कदर प्रदाह होने लगता है, तदनन्तर वह शांत होजाता है। इस जाति के अत्यन्त बिषधर जंतुओं के काटने से तीव्र वेदना होती है । सांस कठिनाई से ली जाती है । हृदय में भय उत्पन्न होजाता है। मधुर पदार्थों के खाने को जी चाहता है। इसका प्रतिविष वही कनखजूरा है, जिसने काटा है। विधि यह है कि जिस जगह उसने काटा हो, उस जगह उसे कुचलकर बांध दें, अथवा यह प्रयोग काम में लावें। कनखजूरा ज़राबन्द तवोल, पाखान भेद, करील मूलत्वक् और मटर का पाटा, हरएक समभाग लेकर कूटकर मद्य या मधुवारि-माउल अस्ल के साथ खिलावें, तिर्याक अरवा और दवाउल मिस्क भी कल्याण कारक है । अथवा नमक और सिरके का लेप करें। यदि कनखजूरा पानी में गिरकर मर जाय तो उसे काम में न लाए : क्योंकि उससे सूजन खाज ओर दाह होजाता है । इसका उपचार भी उक्त पदार्थ का मलना है। यदि तेल गरम करके कनखजूरे पर डालें, तो वह मरजाय और उसके प्रत्येक गण्ड संधि-स्थान से पृथक होजाय । कनखजूरे को एक मिट्टी के बरतन में रखकर बरतन का मुंह बन्द करदें और उसे भाग में रखकर जलालें । इस प्रकार प्राप्त राख को अपस्मार-रोगी की नाक में फूकें । इस विधि से उसके मस्तिष्क से दो कीड़े निकलेंगे और रोगी अच्छा होजायगा | यह प्रयोग हकीम नूरुल इसलाम साहब की ब्याज (योग-ग्रन्थ ) से नकल किया गया है। कतिपय अनुभवी व्यक्तियों ने यह लिखा है कि पुराने ढाक के पेड़ में कनखजूरा रहने लगता है वह ढाक में रहने के कारण रक्त वर्ण का हो जाता है । यदि उसको जीते जी पकड़ कर तमाखू की हरी पत्ती में सुखा लिया जाय और उसे खब महीन पीसकर एक चावल की मात्रा में उसका नस्य दिया जाय तो कैसा ही दुसाध्य मृगी रोग हो उसका भी इसके एक सप्ताह के उपयोग से नाश होता है । ढाक में रहने का भी इस रोग पर अवश्य प्रभाव होता है। क्योंकि वैद्य लोग ऐसा कहते हैं कि ढाक की जड़ को पानी में घिसकर दौरे के समय मृगी वाले की नाक में टपकाने से लाभ होता है। कहावत है कि एक व्यक्ति को चूतड़ों के जोड़ों से पैर की उंगलियों तक वेदना होती थी और प्रतिदिन बढ़ती ही जाती थी। अकस्मात् ऐसा हा कि तीसरे या चोथे दिन रात्रि में सोते समय उसको कनखजूरे ने काट लिया। थोड़ा सा दर्द मालूम हुआ, प्रातःकाल वेदना बिलकुल
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy