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________________ कनखा २०५२ जाती रही, केवल दंष्ट स्थान में वेदना थी जो गरम तेल के मलने से जाती रही । ( ख० प्र० ) बड़े कनखजूरे को पकड़कर सुखालें । उसे एक फतीले या वर्तिका में लपेटकर तिल तैल में उसका काजल पारकर उसे सुरक्षित रखें। यह क़ल्उल् अज्फान अर्थात् पलकें उखड़ने की बीमारी में गुणकारी है । (म० मु० ) कनखा - संज्ञा पु ं० वृक्ष की छोटी टहनी । कनखाब - [ ० ] डीकामाली । बंशपत्री । कनखुरा - संज्ञा पुं० [देश० ] रीहा जाम की घास जो साम देश में बहुत होती है । बंगाल में इसे "कुरकुड" भी कहते हैं । कनखो -[ बर० ] जमालगोटा । कनखो-सि - [ बर० ] जमालगोटा । जयपाल । कनगरच - [ फ्रा० ककरजद ] हर्शफ का गोंद । कनगी - [ ते० ] समुन्दरफल । हिज्जल । [ कना० ] जंगली जायफल । (Myristica Malabarica ) कनगु -[ ० ] कंजा | करंज । नक्तमाल । क़नगुज-संज्ञा पुं० । कान का एक रोग । कण रोगबिशेष | कनगुरिया-संज्ञा स्त्री० [हिं० कानी + अंगुरी अंगुरिया ] सबसे छोटी उंगली । छिगुनिया | छिंगुली । कनिष्टिका उंगली । या कनगोजरा-संज्ञा पुं० [हिं० कान+गोजर ] कन खजूरा । कनछेदन - संज्ञा पु ं० [हिं० कान+छेदना ] कर्ण वेध संस्कार | कनङ्ग करै-[ ता० ] कांचढ़ | कञ्च (Commelina bongalensis, Linn) कनज - [ फ़ाo ] पनीर । कनजो -[ बर० ] काला वगोटी । कनटी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] रक्कमल्ल । लाल संखिया । कनत - [ फ्रा० ] शहद की मक्खी । कनतूतुर - संज्ञा पु ं० [देश० ] एक प्रकार का बड़ा कनफोड़ा मेंढक जो बहुत ज़हरीला होता है, और बहुत 'चा उछलता है । कनन - वि० [सं० त्रि० ] काना । काण । श० च० । कनप - [ते० ] समुन्दरफल । हिज्जल | दे० " कणप" कनप-तीगे - [ ते० ] गीदड़ ट्राक, श्रमलबेल 1 (Vitis Carnosa,, Wall.) कनपट - संज्ञा पु ं० दे० " कनपटी ” । कनपटी - संज्ञा स्त्री० [हिं० कान+सं० पट ] काम और श्रांख के बीच का स्थान । कनपट । कनपुटी, शंख देश | Temporal region, कनपेड़ा - संज्ञा पुं० [हिं० कान+पेड़ा ] एक रोग जिसमें कान की जड़ के पास सूजन होती है । कनफटा-सं० पु० दे० " कनफोड़ा" । कनफुटा - [ मरा• ] जंगली हुरहुर | Cleome Vi. scosa. कनफुटी - [ बम्ब० ] ( १ ) बु ंदर | कुपरुंत | ( Flemingia Strobilifera, R. Br.) (२) हुरहुर | संज्ञा स्त्री० [ मरा०] कनफोड़ा | कर्ण स्फोटा कनफूल - सं० पु० दे० " कानफूल" । [ पं० ] दूध बत्थल । बरन । दूधल । Iaraxacum Officinale, Wigg कनफेड़ - संज्ञा पु ं० दे० " कनपेड़ा" । कनफोड़ा – संज्ञा पुं० [ स० कर्ण स्फोटा ] एक वार्षिक सकांड, आरोही लता जो दवा के काम में श्राती है। पत्र और पत्रवृत प्रायशः मसृण ( Glabrous ) पत्र ( Biternate ); पत्रक ( Lea aflets ) सवृत, लंबे (Oblong ), अधिक नुकीले, कोरदार कटे हुये होते हैं। फूल छोटे सफेद वा गुलाबी; फल त्रिकोणाकार पतली झिल्ली के तीन कपाटों द्वारा तीन कोषों में विभक्त और पतली हरे रंग की झिल्ली से श्रावृत फली है, जिसके प्रत्येक कोष में एक-एक काला बीज होता है । फल पटकने से श्रावाज श्राती है। बीज घुंघची की तरह गोल और काले रंग का होता है, इसी से इसे 'काली घुंघची भी कहते हैं। जिस प्रकार लाल घुघुची के आधार पर एक काला धब्बा होता है, उसी प्रकार इसमें उक्त स्थल पर सफेद धब्बा होता है जो द्वि० विभक्त (Aril )
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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