________________
कनफोड़ा
२०५३
कनफोड़ा होता है । जड़ सफेद और तंतु वहुल, अप्रिय गंधि मिश्र चूर्ण-सर्जिका ( Carbonate of और स्वाद में किंचित् तिक चरपरी और उल्लेश- potash), बच, बहेड़े की जड़ का छाल प्रद होती है।
(वा असनत्वक् ) कसफोड़े की पत्ती-इनको . पर्या-कर्णस्फोटा, श्रुतिस्फोटा, त्रिपुटा, बरावर-बराबर लेकर बारीक चूर्णकर लेवें । कृष्णतण्डला, चित्रपर्णी, स्फोटलता, चन्द्रिका, अथवा दूध के साथ कल्क प्रस्तुत करें। अध चन्द्रिका ( रा०नि०) पारावतपदी, ज्योति- मात्रा-१ दाम प्रतिदिन तीन दिन तक देवें। धमती डी० १ भ० कृष्णतण्डुला, कोपलता-सं० । रजोशोध (Amenorrhoea) में उपकारी कानफोड़ा, कनफोड़ा, कानफुटो, कानफटा, कान- है । यह आर्तव रजः सावकारी है। (भा०); फाटी-हिं० । लताफटकरी। लताफटकी, नया उ. चं० दत्त । फट्की, कानछिड़ी, काणफोटा-बं०। कार्डियोस्प
गुणधर्म तथा प्रयोग मम हेलिककेबम् Cardiospermum Ha
आयुर्वेदीय मतानुसारlicacabum Linn-ले. । बैलून वाइन
. कर्णस्फोटा कटुस्तिक्ता हिमा सर्प बिषापहा । Baloon vine, विंटरचेरी Winter cherry, हाटस पी Heart' s pea-अं०।
ग्रहभूतादि दोषघ्नो सर्वव्याधि बिनाशिनी ॥ पोइ-डी-कोकर Poi.de-Cocur Pois de
(रा०नि० गुडू० ३ व०) Marveille, Cocur des Indes-फ्रां.
कनफोड़ा-चरपरा, कड़वा, शोतल, सर्पजेमीनर-हर्ज़-सामीन Gemeiner-herz-sa
बिषघ्न, ग्रहभूतादि दोषनाशकोर सभी ब्याधियों men-जर० । मूद-कोट्टन-ता० । बूध (बुद्ध)
का नाश करनेवाला है। ककरा, नेल्ल-अगु-लिसे टेंड, वेक्कु-दी तेगे-ते ।। कर्णस्कोटा तु कटुका चोष्णाचाग्नि प्रदीपनी । काणफोड़ी, बोध, शिजल, कानफुटी काकुमई- | वातगुल्मादर मोह कर्ण व्रण विषापहा ॥ निका-मरा०। कनकैया, कानाकइया-कना० ।
कफपित्त ज्वरानाह कफशूल बिनाशिनो। करोडि (टि) यो-गु० । शिब्जब-द० । उलिंजामल० । माल-मै-बर० । बोध-बम्ब०। हबुल
सा तु पोता बुधैया चाञ्जने च प्रशस्तिका ।।
(वै० निघ०) कुलकुल (बीज)-पं०। पैनैर-वेल-सिंगा० । लफ्तफ़-अं०। गनफोड़ा, घनफोड़, धनवेल
कनफोड़ा-चरपरा गरम तथा अग्निदीपक है
एवं यह बात, गुल्मोदर, प्लीहा, कर्ण-व्रण, विष, मरा०, द० ।
कफ, पित्त, ज्वर, पानाह और कफज शूल, इनको फेनिल वर्ग
नष्ट करता है। इसे पान ओर अंजन के काम में (N. O. ( Sapindacee) । लेते हैं । उत्पत्ति स्थान–समग्र भारतवर्ष विशेषतः चरक और वाग्भट्ट के मतानुसार यह बिच्छू के महाराष्ट्र, वंगाल और संयुक्त प्रांत।
ज़हर में भी लाभदायक है।
नब्य मत रासायनिक संघटन-इसके फल और बीजों
डोमक-संस्कृत ग्रन्थकार इसकी जड़ को में एक प्रकार का तिक और उत्तेजक उड़नशील
वामक मृदुसारक, ( Laxative), जठराग्नि तैल होता है। इसके गुणधर्म इसमें वर्तमान
दीपक (Stomachic) और लौहित्योसादक (Saponin) पर निर्भर करते हैं।
(Rubifacient ) लिखते हैं और प्रामवात औषधार्थ व्यवहार-जड़, पत्र, बीज, समग्र वातव्याधि एवं अर्श श्रादि में इसका उपयोग करते लता।
हैं । रजोरोध ( Amenorrhoea ) में औषध निर्माण-जड़ का काढ़ा ( १० में १) इसके पत्र काम में प्राते हैं । कर्णशूल और कर्णशूल मात्रा-४ से १० ड्राम।
निवारणार्थ समग्र लता का स्वरस कान में डाला