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________________ कनफोड़ा २०५४ कनबीस जाता है । इसी से संस्कृत और हिंदी में इसे | आर० एन० चोपरा-४ से ६ अाउन्स की क्रमशः कर्णस्फोट श्रोर कानफोटा कहते हैं। मात्रा में कनफोड़े की जड़ का काढ़ा मूत्रकारक इंडोचीन में यह वनस्पति कृमि नाशक और स्वेदकारक और मृदुसारक ख्याल किया जाता है। प्रमेह निवारक मानी गई है। मेडागास्कर में श्रामवात और कटिशूल में समग्र लता का वाह्याइसको जड़ वमनकारक, विरेचक, मूत्रल और तरिक उभय बिधि प्रयोग किया गया है। - स्वेदक मानी जाती है। इसकी जड़ और पत्ते (इं० इ० ई० पृ० ५७०) रक्रार्श, नष्टात्तव, सुजाक, श्रामवात और प्रांत्र | इसका रस मासिकधर्म को नियमित करने के कृमियों को नाश करने के काम में लिए लिए व्यवहार किया जाता है। जाते हैं। सुजाक और फुफ्फुस सम्बन्धी पीड़ा में यह ___ झूलू लोग इस वनस्पनि को कई कामों में लेते | शांतिदायक माना गया है। हैं। इसके पत्ते ओर छाल का शोत निर्यास प्रामा- कर्णशूल निवारणार्थ इसे कान में डालते हैं। तिसार और रक्रातिसार में वस्तिक्रिया के काम में इसके (घनफोड़) बीज गुर्दे और मसाने को लिया जाता है । सिरदर्द में इसके पत्तों को कुचल | पथरी को दूर करते हैं। पागलपन को मिटाते हैं, कर उसका धूम्रपान करते हैं । मूत्राशय की पीड़ा | कटिशूल में उपकारी है, मूत्र का प्रवर्तन करते हैं। में इसको पत्तियों को पुलटिस बनाकर गुदा पर गर्भाशय का मुंह बन्द होजाय, तो उसे खोल बांधते हैं । उपदंश जन्य घावों पर भी इसकी | देते हैं, कामेन्द्रिय को शक्ति देते हैं, और वीर्य को पत्तियों का लेप किया जाता है। गादा करते हैं । इसके पत्ते शस्त्रों के जहम पर रॉवट्स के मतानुसार लंका में इसका स्वरस | बाँधे जाते हैं । यदि शरीर के भीतर बन्दूक की सप-बिष-निवारण के लिए पिलाया जाता है। गोली प्रादि भी रह गई हो, तो उसपर इसके कामस पोर म्हस्कर के मतानुसार इसको जड़, | पत्ते का लेप करने से गोलो बैंची जा लकड़ो और पत्ते सभी साँप और बिच्छू के ज़हर | सकती है। में निरुपयोगी हैं। कनब-[फा०] (1) भाँग । विजया । (२) एक नादकर्णी प्रभाव-कनफोड़े की जड़ पोर प्रकार का खोरा । कंबीरः । पत्ती मूत्रकारक, मृदुकारक (Laxativi), | कनबाद, कंदवाकलो-[ ? ] वस्तियाज । खि लाल जठराग्नि दीपक ( Stomachic) ओर रसा मक्का । यन है, वाह्यतः श्रारुण्यजनक ( Rubifaci- | कनब बेद-[?] जंगलो वेद का फल जो उसकी ent) है। __ शाखाओं में गुच्छों के रूप में लगता है । आमयिक प्रयोग-आमवात, वातव्याधि, | कनबहिंदी-[फा०] भांग । विजया । अर्श, चिरकारी कास, (वायुप्रणाली शोथ ) | | कनबार-[१०] नारियल के रशे को रस्सो । ओर क्षय ( Phthisis) में कनफोड़े की जड़, | कनबिरश्रोर पत्तो का उपयोग होता है। रजोऽल्पता में | क(क)नबिस-[यू० ] भाँग। आर्तव रजः स्राव वर्शनार्थ इसके भृष्ट-पत्र भग | कनबीरम्-[ ता०] कनेर । पर लगाये जाते हैं। श्रामवातिक शूल, शोथ | क्रनबीर-फ्रा.1 एक प्रकार का खीरा । और नाना भांति के अर्बुदों पर एरण्ड तैल जैसे कनबीर-[अ० ] कमोला। तेलों में इसकी पत्ती उबालकर बांधते हैं । अर्श और रजोऽल्पता (Amenorrhoea) में | क़नबीरस-[१०] एक प्रकार का दही। श्राध पाउन्स की मात्रा में इसकी जड़ का काढ़ा | कनबीरा-[सिरि० ] भाँग । व्यवहार्य होता है। ( ई. मे० मे० पृ० | कनवीस-[यू०] विजया बीज । भाँग का वीया । १६६-७) तुख्म भंग । शह दानज ।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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