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कस्तूरी
श्रायात चीन और तिब्बत से कामरूप होकर होता है। भारत में केवल कामरूप निवासियों में इसका व्यवसाय होता था ।
रूपाकृति के विचार से राजनिघण्टुकार ने इसके ये पाँच भेद लिखे हैं- खरिका, तिलका, कुलत्था, पिण्डा और नायिका । इनमें से खरिका चूर्णाकृति की, तिल के समान तिलका, कुलथी के बीजों के समान कुलित्थका ( कुलत्थका, कुलत्था ) कुलत्था कस्तूरी से कुछ मोटी पिरिडका और पिण्डिका से किंचित् अधिक स्थूल नायिका कस्तूरी होती है । ( रा० नि० )
श्रायुर्वेदीय शास्त्रकारों की भाँति युनानी ग्रंथकर्त्ताओं ने भी कस्तूरी के विविध भेदों का उल्लेख अपने-अपने ग्रंथों में किया है। उनके अनुसार सर्वोत्कृष्टतर कस्तूरी तिब्बत की होती है । तदुपरांत चीन देशीय । कोई-कोई ख़ताया की कस्तूरी सर्वा पेक्षा उत्तम मानते हैं । तदुपरांत क्रमशः तिब्बतीय फिर कोट काँगड़े की पुनः नेपाल की और अंत
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श्रन्यदेशीय । किसी-किसी ने तुर्की और हिंदी इसके यह दो भेद किये हैं। इनमें से पुनः हरएक के अनेक उपभेद होते हैं । इनके मतानुसार तुर्की हिंदी से उत्कृष्टतर और तुर्की में ताताई की अपेक्षा ख़ताई कस्तूरी श्रेष्ठतर होती है। इसका कारण यह बतलाया जाता है कि तातारी में किंचित् वसायँध होती है। इसके बाद तुर्की कस्तूरी के श्रन्यभेदों का नंबर है। हिंदी में सर्वोत्तम नैपाली फिर रंगपुरी, तत्पश्चात् अन्य स्थानों की होती है।
मिन्हाजुल दकान में यह उल्लेख है कि मुश्क पाँच प्रकार का होता है- (१) हिंदी ( २ ) चीनी, (३) तिब्बती, (४) अराक़ी और (५) मिस्कुल्यद । इनमें हिंदुस्तानी मुश्क का रंग
लाई लिए काला होताहै, इसकी निकृष्टतमस्मि वह है जो एकदम काली हो । कृत्रिम मुश्क ललाई लिये होता है । इसकी परीक्षा-विधि यह है— कि पीसकर अर्क गुलाब में छोड़ देवें, यदि यह सब नीचे बैठ जाय, और गुलाबार्क स्वच्छ रह जाय, तो जानो कि मुश्क शुद्ध है और यदि गुलाबाक अस्वच्छ वा गदला होजाय और नीचे कुछ भी न बैठे, तो समझना चाहिये कि वह मिलावटी है।
कस्तूरी
अराक़ी मुश्क ललाई लिये पीला होता है । इसकी परीक्षा की रीति यह है - इसको कूटकर मुँह में रखें, यदि तीव्र सुगंधि मालूम हो, पर स्वाद कोई न हो, तो समझें कि वह अकृत्रिम है । और यदि किसी प्रकार का अनुभूत हो तो जिस चीज़ का स्वाद प्रतीत हो उसी के मेल से बना समझें । मुश्क तिब्बती की परीक्षा इस प्रकार करें हर प्रकार के मुश्क को तो गुलाबार्क में घिस ओर रगड़ सकते हैं, परंतु तिब्बती बिना कटे ये गुलाब में नहीं घिसा जाता । यह कड़ा भी होता है और इससे दुर्गंधि वा बसायँध भी श्राती है। मुरक चीनी भी बहुत कड़ा होता है और तिब्बती की अपेक्षा घटिया होता है । इसलिये इसका तिब्बती में मिश्रण करते हैं। दोनों में भेद यह है कि तिब्बती काला होता है, पर चीनी ललाई लिये पीला और वह अराक़ी की अपेक्षा घटिया है। मुश्कु यद हिंदुस्तान में अली प्रालिल्यद् से सगृहीत किया जाता है और वहाँ से इसे श्रन्यान्य देशों को ले जाते हैं । अत्यन्त खराब होने के कारण इसकी परीक्षा का कोई नियम नहीं है ।
खाँ फ़ीरोज़ जंग ने गंजवादावर्द में लिखा है कि- हिंदुस्तानी मुश्क किंचित् ललाई लिये कृष्ण वर्ण का एवं निकृष्ट हिंदुस्तानी मुश्क विलकुल कृष्ण वर्ण का होता है । उसमें सुर्खी का नाम नहीं होता है । कृत्रिम हिंदुस्तानी मुश्क में सुर्खी की प्रबलता होती है और देर तक रहने से सुर्ख़ पड़ जाता है तथा कीड़े पैदा हो जाते हैं । इनको सिरका वा गुलाब में पीसकर निथरने के लिये छोड़ रखें । पुनः यदि यह तलस्थायी हो जाय और ऊपर स्वच्छ तथा श्वेत पानी रह जाय, त समझें कि मुश्क ख़ालिस है । यदि पानी मैला पड़ जाय और मैला पानी जम जाय तो कृत्रिम समझना चाहिये | अराक़ी मुश्क पीतता और श्यामता की लपट युक्त रक्तवर्ण ( श्रश्वर ) का होता है । इसमें से यत्किंचित् लेकर मुख में रखने सेति सुगंधि श्राती है और किसी प्रकार स्वाद प्रतीत नहीं होता है । इस प्रकार का मुश्क उत्तम होता है। इसके विरुद्ध यदि किसी प्रकार का स्वाद प्रतीत हो, तो इसमें उसी वस्तु का मिश्रण