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कनेर
कनेर
पुष्प, विकरात ( रा०नि०) शतकुम्भ, करवीर, श्वेतपुष्प, अश्वमारक (भा०)-सं०। सफेद कनेर, उजला कनैल-हिं० । श्वेत करवी, सादा करवी बं० | Syn. Nerium Oleanderले० । प्रालियाण्डर Oleander, रोज़बेरी पर्ज Roseberry spurge-अं । चूहलीखेण्डर Wohlriechender-जर। अलारीर रोज Alaurier Rose-फ्रां| अम्मेज़ा केवेल्लो. Amma.zza-cavallo, अम्मेज़ा लेसिनो Ammazza-lasino-इट० । कनवीरम्, अलरि-ता० । कानेरचे?, गन्नेरु, करवीरमु, कस्तूरी पत्ते-ते. । वाकन लिगे, कंगील (लु), पड्डलेकना० । कनेर, घोला, फुलनी, कहर, राता फुलनी, धूलि कणेर-गु० । कर पांडरी, श्वेत कणेर, कनेर-मरा । धावे कनेरी-कों। किंगण लिंगे, वाँकण लिंगे-का० ।
शतावरी वर्ग ( N. O. Apocynaceae.) उत्पत्ति स्थान-पश्चिमीय हिमालय, नेपाल | से मध्यभारत तथा सिंध पर्यन्त । अफगानिस्तान और उत्तर भारत में इसके वृक्ष जंगली होते हैं और फूल के लिये बगीचों में लगाये जाते हैं । फूल देवताओं को चढ़ते हैं।
औषधार्थ ब्यवहार-जड़, मूलत्वक, पत्र, पुष्प ।
वर्णन-इसकी जड़ वक्राकार ओर त्वक् स्थूल एवं कोमल होता है। त्वम् वहिः पृष्ठ धूसर कार्कवत् होता है । छोटे पौधे की जड़ के ऊपर उन कार्कवत् स्तर पतला होता है जिससे होकर छाल के भीतरी पृष्ट का पीला रंग प्रतिभासित होता है । अंतः पृष्ट पीतवर्ण होता है। छाल को काटने वा क्षतपूर्ण करने पर उससे एक प्रकार का पाँडुचीत रस स्रावित होता है। जो रालदार और अत्यंत पिच्छिल वा चिपचिपा होता है । गन्ध ईषत् कटु। स्वाद तिक और कटु होता है।
रासायनिकसंघट्टन-इसकी जड़ (Tuber)| . में कारवारीन वा नारोश्रोडोरीन “Neriodo
rin" (जल में अविलेय) भोर ( Neris
dorein) नामक दो तिन अस्फटिकीय सार पाए जाते हैं । ये दोनों हृदय के लिये भयंकर विष हैं। इनके अतिरिक्त इसमें ग्लूकोसाइड (Gluco side), रोजैगिनीन ( Rosaginine), एक स्थिर तैल. एक स्फटिकीय द्रव्य, डिजिटैलीनवत् नेरीन ( Neriene ) नामक एक पदार्थ, कषायाम्ल (Tannic acid) ओर मोमये द्रव्य पाये जाते हैं । कनेरकी पत्ती में आलिएण्ड्रीन (Oleandrine) नामक एक क्षारोद, एक ग्लुकोसाइड, स्युडोक्युरारोन (Pseudo-curarine) तथा नेरीन ( Neriene) और नेरिएण्टीन (Neriantine) भी पाये जाते हैं। मेटीरिया मेडिका श्राफ इंडिया-श्रार०.एन. खोरो, खं० २, पृ० २८८, ई० मे० मे०-नादकर्णी, पृ. ४६३ । मात्रा- अाना से 1 पाना भर तक ।
औषध-निर्माण-करवीराद्यतैल (च० द०, रस० र०) आदि।
गुण धर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसारकरवीरः कटुस्तिक्तो वीर्य चोष्णो ज्वरापहः । चक्षुष्यः कुष्ठकण्डूघ्नः प्रलेपाद्विषमन्यथा ॥ 'करवीर द्वयं' तिक्तं सबिषं कुष्ठजित्कटु ।
(ध० नि. ४ व.) कनेर-चरपरा, कड़वा, उष्णवीर्य, ज्वरनाशक, और आँखों को हितकारी है तथा लेप से कोढ़ और खुजली को दूर करता है । अन्यथा यह बिषवत प्रभाव करता है, दोनों प्रकार के कनेर (श्वेत .
और रक्त ) कड़वे, चरपरे, कुष्टघ्न और विषैले हैं। करवीर: कटुस्तीक्ष्णः कुष्ठकण्डूतिनाशनः । व्रणार्ति बिष विस्फोट शमनोऽश्वमृतिप्रदः ।
(रा०नि० १०व०) कनेर-चरपरा एवं तीक्ष्ण है तथा यह कोढ़ खुजली, व्रण, बिष और विस्फोट को शमन करता है तथा घोड़ों के लिए मारक है। 'करवीरद्वयं' तिक्तं कषायं कटुकश्च तत् ।