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कनेर
२०६१
कनेर
व्रणलाघव कृन्नेत्रकोप कुष्ठवणापहम् । वीर्योष्णं क्रिमिकण्डूनं भक्षितं विषवन्मतम् ।।
(भा०) सफेद और लाल दोनों प्रकार के कनेर कड़वा, कसेला, चरपरा एवं उष्णवीयं होते हैं तथा थे | व्रण, नेत्रकोप, कोढ़, घाव, कृमि एवं खुजली श्रादि को दूर करते हैं और भक्षण करने से ये विष की तरह प्राण हरण करते हैं। हलिनी करवीरौच कुष्ठ दुष्ट व्रणापहौ।
(राजबल्लभः) हलिनी ( कलिहारी ) और करबीर दोनों कुष्ठ | और दुष्ट व्रण नाशक हैं।
शालिग्राम निघण्टु भूषण में इसे ग्राही और वात, अर्श तथा प्रमेह नाशक, यह अधिक लिखा है।
कनेर के वैद्यकीय व्यवहार चरक-(१) कुष्ठमें करवीर त्यक्-कुष्ठरोगी को करवोर मूलत्वक् साधित जल स्नान और पानार्थ व्यवहार करना चाहिये। यथा"स्नाने पाने च मता तथाष्टमश्चाश्वमारस्य"
(चि०७०) (२) पालित्यमें करवीर मूलत्वक्-दुग्धिका एवं कनेर की जड़ की छाल-इन दोनों को दूध में पीसकर, प्रथम सिर के पके वा श्वेत बालों को उखाड़ कर फिर इसे सिर पर लेप करे, इससे फिर बाल नहीं पकते । यथा"* क्षीर पिष्टौ दुग्धिका करवीरको। उत्पाट्य पलितं देयौ ताबुभौ पलितापहौ ॥"
(चि० २६ अ०) सुश्रत (१) अश्मरी में करवीरक्षार-सुखाई हुई कनेर की जड़ की छाल को मिट्टी के बन्दमुख पात्र में रखकर अन्तधूम दग्ध करें। उक्त क्षार 1ाना-बाना की मात्रा में मधु के साथ अश्मरी के रोगी को सेवन करायें। श्रोषध सेवन करनेवाले को मधुर रस तथा घृत एवं दुग्ध बहुत भोजन करना चाहिए। यथा"पटला करवीरानां क्षारमेवं समाचरेत्" ।
(चि०७०) ।
टीका-"पाटलेत्यादि । एतेन वात कफ समुद्भताया मश्मा ' मधुर क्षीरघृताशिनः हार योगा योज्याः" डल्हणः ।
(२) उपदंश में करवीर-पत्र-कनेर की पत्ती से सिद्ध जल द्वारा उपदंश के क्षत को धोना चाहिये यथा"करवीरस्य पत्राणि । प्रक्षालने प्रयोज्यानि"
(चि०१८ १०) चक्रदत्त (१) व्रणदारणार्थ करवीर-मूलत्वक्-पके फोड़े पर जल में पिसी हुई कनेर की जड़ की छाल लेप करने से वह विदीर्ण होजाता है। यथा___" चित्रको हयमारकः । * दारणम् ।।
(व्रणशोथ चि०) (२)पामा रोग में करवीर-मूलत्वककनेर की जड़ की छाल द्वारा पक्क तिल-तैल का लेप करने से पामा रोग आराम होता है। यथा"लेपाद्विनिहन्ति पामां तैलं करवीर सिद्धवा,'
(कुष्ठ० चि०) (३) नेत्रकोप रोग में कनेर की कोमल पत्ती तोड़ने से जो रस निकलता है, उसको नेत्र में अञ्जन करने से, बहुअश्रु पातान्वित नेत्रकोप रोग श्राराम होता है । यथा
"करवीर तरुण किशलय छेदोद्भवो वहुल सलिलसंपूर्णम् । नयनयुगं भवति दृढ़ सहसैव नत्क्षणात् कुपितम्।
(नेत्ररोग-चि०) भावप्रकाश-उपदंश रोग में करवीर-मूलत्वक् कनेर की जड़ की छाल को जल में पीसकर प्रलेप करने से उपदंश रोग श्राराम होता है। यथा
"करवीरस्य मूलेन परिपिष्टेन वारिणा । असाध्याऽपि ब्रजत्यस्तं लिङ्गोत्था रुक् प्रलेपनात्"।
(उपदंश-चि०)
वक्तब्यचरक (चि० २५ अ० ) और सुश्रुत (क० २ अ०) ने करवीर अर्थात् कनेर को 'मूलविष"