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कनेर
२०५६
हाटी की पत्ती की श्राकृत की होती है । वृढ पीला कनेर के वृक्ष जैसा वृहत् नहीं होता । फल गोलाकार होता है । फल के ऊपर तीच्णाग्र दीर्घ कंदक होता है। फल पक जाने पर बीच से विदीर्ण होकर दो भागों में विभक्त हो जाता है। इसमें ६-७ बीज होते हैं जो एक के ऊपर एक उपर्युपरि विन्यस्त होते हैं। बीज चक्राकार होता है । जो सिकि की अपेक्षा वृहत्तर नहीं होता ।
पर्या० - कृष्णकुसुम ( रा० नि० ) - सं० । कलि कवी, काल करवीगाछ, कृष्ण करबी - बं० । एक और पेड़ होता है जिसकी पत्तियाँ और फल कनेर ( सफेद और लाल ) ही के ऐसे होते हैं । उसे भी कनेर कहते हैं, पर उसकी पत्तियाँ पतली, छोटी और अधिक चमकीली होती हैं । फूल भी बड़ा और पीले रंग का होता है। फूलों के गिर जाने पर उसमें गोल गोल फल लगते हैं जिनके भीतर गोल गोल चिपटे बीज निकलते हैं । इन बीजों को हिन्दी में गुल्लू कहते हैं। बालक गोलियों में 'गुल्लूरीद' खेला करते हैं । हरा, १॥ २ ई० व्यास का और बीच में फल श्रालि द्वारा उभरा होता है । फलत्वक मांसल होता है । फल के भीतर हलके भूरे रंग की त्रिकोणाकार एक कड़ी गुठली होती है । प्रत्येक गुठली में दो पांडु पीत, किंचित् पचयुक्त, चपटे बीज होते हैं । इन बीजों और छिलके के अंत: स्तर को लवणाम्ल Hydro chloric acid में उबालने से एक प्रकार का गंभीर बैंगनी वा बैंगनी लिये हरा रंग प्राप्त होता है। वाजस्य एवं त्वक् ति तिल होता है। इसके बीजों में से प्रशस्त पीतवर्ण का तेल निकलता है जो जलने में धुत्रां कम देता है। खाने से यह स्वास्थ्यप्रद एवं बल्य है। इसके सो तोले बीजों में ३६ ॥ तोला से ४१ तो० तक तेल निकलता है। इसकी कोपल शाखा, कांडत्वक् पत्र, पत्रवृत और फल सभी को अर्थात् वृक्ष के भग्न करने से प्रचुर मात्रा में सफेद झालदार दूध निकलता है । यह अरण्य वृक्ष है । भारतवर्ष के जंगलों में यह बहुत होता है। फूल के लिए इसे घरों में भी लगाते हैं । बंगाल (राढ़ ) में यह "कल के फुलेर गा" नाम से प्रसिद्ध है ।
कनेर
जल कनेर के पौधे नदी, तालाबों या उनके भीतर होते हैं । इसमें लाल फूलों की बालियां लगती हैं।
भेद - श्वेत, रक्त, पीत और कृष्ण पुष्प भेद से कनेर चार प्रकार का होता है । वैद्यक में इनमें से सफेद कनेर का ही अधिक प्रयोग दिखाई देता है । धन्वन्तरि निघण्टुकार ने श्वेत और रक्त केवल दो ही प्रकार के कनेर का उल्लेख किया है। किसी किसी ने इसमें गुलाबी ( पाटल) कनेर को और सम्मिलित कर इसे पाँच प्रकार का लिखा है ।
उत्पत्ति स्थान -भेद से हकीमों ने इसके दो भेदों का उल्लेख किया है । (१) बुस्तानी वा वाग और ( २ ) जंगली । इनमें से बागी का
न ऊपर किया गया है । और जंगली के पत्ते खुर के पत्तों की तरह और बहुत पतले होते हैं । शाखायें पतली और भूमि पर श्राच्छादित होती हैं । यह बहुत अधिक नहीं बढ़ता। इसके पत्तों के पास कांटे होते हैं । यह ऊसर एवं वीहड़ स्थानों में उत्पन्न होता है । बुस्तानी में काँटे नहीं होते ।
कनेर की सामान्य संज्ञायें
पर्या० - करौली, कनेर, कनेल, करबीर-हिं० गनेर - द० | करवीर, हयमार, हयमारक तुरंगारि, चंडातरुः - सं० । करवी गाछ, करबी, कनेर-बं० । दिली, सुम्मुल हिमार, सम्मुल्मार-छ। ख़रज़हूरा- फ्रा० | Sweet scented Olean der( Nerium Odorum, Aiton )। श्रलरि - ता० । गन्नेरु-ते० । श्रलरि-मल० । कणगले, वाफ़णलिंगे—कना० । कणैरु, कहर - मरा० । बैकँड़ - पश्तो |
कनेर सफेद
पर्या० - करवीरः, अश्वहा, श्रश्बघ्नः, हयमारः अश्वमारकः, श्वेतकुन्दः, श्वेतपुष्पः, प्रतिहासः, श्रश्वमोहकः ( ध० नि० ) करवीर, महावीर, हयमार, अश्वमारक, हयघ्न, प्रतिहास, शतकुन्द, अश्व रोधक, हयारि, बीरक, कन्दु, शकुन्द, श्वेतपुष्पक, श्रश्वान्तकः, अश्वघ्न, नखराश्व, अश्वनाशक, स्थूलादि कुमुद, दिव्य पुष्प, हरप्रिय, गौरीपुष्प, सिद्ध