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वातशोफ व्रण विषशूल पित्त ज्वरापहा । पर्णं पाके तु मधुरं मूत्रशोधनमुत्तमम् ॥ पित्तशान्तिकरं ज्ञेयं फले पर्णसमा गुणाः ।
(वै निघ०) तितलौकी रस और पाक में चरपरी, हृद्य, शीतल, कड़वी, वामक, श्वास-खाँसी और हृदय को शुद्ध करनेवाली है तथा वात, सूजन, व्रण, बिष, शूल, पित्त और ज्वर को नाश करनेवाली है। इसकी पत्ती पाक में मधुर, उत्कृष्ट मूत्रशोधक और पित्तनाशक है।
राजवल्लभ के मत से यह लघुपाकी. कफवातनाशक, पाण्डुहर और कृमिनाशक है । गण निघंटु में इसे रस और पाक में शीतल और लघु लिखा है। केयदेव के मत से यह पाक में कटु वात और पित्तनाशक, ज्वरनाशक, अहृद्य और शीतल है।
तितलौकी के वैद्यकीय व्यवहार
चक्रदत्त-(१) अश्मरी में तिकालावुरसपकी सितलौकी का स्वरस जवाखार और चीनी मिला सेवन करने से अश्मरी का नाश होता है।
मात्रा-स २ तोला, यवक्षार चीनी २॥ तो. यथा
"अश्मा तिक्तालावुरसः क्षार: सितायुतोऽश्मरीहरः" (अश्म-चि०)
(२) गलगण्ड में तिक्तालावु-पकी तितलौकी के भीतर एक सप्ताह पर्यन्त जल वा मद्य भर कर रखें। इसके बाद उन मद्य वा जल को पियें और गलगण्डोपयोगी पथ्य सेवन करें। यह गलगण्ड में हितकारी है। यथा"तिक्तालावुफले पके सप्ताहमुषितं जलम् । मद्यं वा गलगण्डघ्नं पानात् पथ्यानुसेधिनः ॥
(गलगण्ड-चि०) (३) अर्श में तिकालावु वीज-तितलौकी के वीजों को उद्भिद लवण के साथ कॉजी में पीसकर तीन गोली बनायें। इन्हें गुदा में धारण कर भैंस का दही मिलाकर भोजन करें। यह अर्श में हितकारी है । यथा"तुम्बीबीजं सौद्भिदन्तु काञ्जिपिष्टं गुड़ीत्रयम् । अर्शोहरं गुदस्थं स्यादधि माहिषमश्नतः॥
(अर्श-चि०)
भावप्रकाश-योनि रोग में तिकालावु पत्रप्रसूता स्त्री की योनिमें क्षत हो जाने पर तितलौकी की पत्ती और लोध्रत्वक इनको बराबर बराबर लेकर जल में पीसकर योनि में लेप करें । यथा"तुम्बी पत्र तथा लोभ्रं समभागं सुपेषयेत् । तेन लेपो भगे कार्यः शीघ्र स्यायोनिरक्षता"।।
(म० ख० ४ भा०) (२) दशनक्रिमि में तिकालावुमूल-तितलौकी की जड़ का वारीक चूर्ण कर क्रिमिभक्षित दन्तच्छिद्र में भर देवें। यह दन्तकृमिनाशक है। यथा
"कटुतुम्बीमूलम्। सञ्चूगर्य दशनविधृतं दशनक्रिमिनाशनं प्राहः ।" हारीत
(१) शोथ में कटुतुम्बी"लोमशा कटुतुम्बीच काञ्जिकेन जलेनवा। निकाथ्य चापि संस्वेद स्तथैवोष्णेन तेन च ॥
(चि० २६ अ.) (२) कर्णरोग में कटुकालावु-कर्णरोग में तितलौकी के फल का रस कान में धारण करने से उपकार होता है । यथा"तुम्बी रसश्च धार्येति कर्णरोगे प्रशस्यते।
(चि. ४३ अ०) नोट-चरकोक्न कतिपय अन्य प्रयोगों के लिये देखो-"इक्ष्वाकु कल्प"।
यूनानी मतानुसार गुण-दोष
प्रकृति-उष्ण वल्कि अतिशय उष्ण और रूत है। यह विषैली वस्तु है । महजन मुफ़रिदात के अनुसार तृतीय कक्षा में उष्ण और रूत)। वैद्य भी उष्ण वीर्य लिखते हैं । पर किसी-किसी के मत से तिक वीजा तुम्बी शीतल होती है।
स्वरूप-बाहर से हरी और पीली तथा भीतर से सफ़ेद होती है। स्वाद-अतिशय तिक एवं तीक्ष्ण ।
हानिकर्ता-आमाशय को (म० मु.),प्राय: अंगों के लिये हानिकर है और लगभग विष है।
___ दपघ्न–कै करना, तैल और स्निग्ध पदार्थ (म० मु०, बु० मु०)। यह विष है, अस्तु अभक्ष्य है।